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________________ उपशाखा-शुद्धध्यान. २८१ है. वैसाही दिखता है. अर्थात राग द्वेष नष्ट होजाता है. ३१ आत्मा आत्माके द्वारा ऐसा विचार करेकी मै आत्माही हूं. सरीरसे भिन्न हूं. ऐसा. द्रढ निश्चय होने से फिर स्वपनेमेंभी सरीर भावको प्राप्त न हो, जिस से आत्म सिद्धी होगा. ३२ जाती और लिंगकी अहंता त्यागनेसेही सिद्धी होती है. २३ जैसे बत्ती दीपकको प्राप्त हो दीपक रूप बनती है. तैसेही आत्मा सिद्धका अनुभव करनेसे सिद्ध रूप होती है. ३४ आत्माकों आराधने योग्य आत्माही है। अन्य नहीं. आत्मा आत्माका आराधन करनसेही परमात्म बने है. जैसे काष्ठसे काष्ट घसनेसे अग्नी होवे. ३५ अपन मर गये, ऐसा स्वपन आनेसेअपन मरते नहीं है, तेसही जागृत अवस्थामेंभी, आप के मरनेसे आत्मा मरती नहीं है. ३६ ज्ञानी अवसर (वक्त), शक्ती, विभाग, अभ्यास समय, विनय, स्वसमय (स्वमत) परसमय, अभीप्राय,इत्यादी विचार कर इच्छा रहित हो प्रकृतते हैं. ३७ सरीर जैसा बाहिर असार है, वैसा अंदरही है. ३८ जहां ममत्व नहीं है. वोही मुक्ती मार्ग है.
SR No.006299
Book TitleDhyan Kalptaru
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherKundanmal Ghummarmal Seth
Publication Year
Total Pages388
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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