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________________ नेकी रीति सरलतासे दरशाई गइ है. जिससे इसे पठन मनन कर मुमुक्षु जन अपना इष्टार्थ सिद्ध करने का उपाय जान सकेंगे. “जयतीत जैन” जैन शब्द जिनसे हवा है, जिन शब्दकी धातू 'जय' है, जय शब्दका अर्थ जीत ना, पराजय करना या ताबेमें-काबूमें करना ऐसा हो ता है. जीत शत्रूकी की जाती है. अपने सच्चे कट्टे औ र जालिम शत्रू राग द्वेष को जीते व कमी करे, वोही सच्चे जैनी व जैन धर्मी हैं. राग द्वेष न होय ऐसे पवि न धर्ममें मतभेद पडना, या क्लेश होना असंभव है, क्यों कि पानीसे वस्त्र जलता नहीं है. यह जैन धर्मका सत्य प्रभाव फक्त दो हजारही बर्ष पहले इस आर्य भूमीमे प्रत्यक्ष द्रष्टी आताथा; हजारों साधू. साध्वियों और लाखो श्रावक, श्राविकाओं तथा असंख्य सम्यक द्रष्टी जीव सब एक जिनेश्वर देवकेही अनुयायी थे. इस सम्पके परम प्रभाव से, या रागद्वेष रहित वीतरागी प्रवृतीके.प्रभाव से, यह 'जैन धर्म' सर्व धर्मों से उच्च अद्वितीय पदका धारक था, बडे सुरेन्द्र नरेन्द्र इसे मान्य करते थे; अपार ऋद्धि सिद्धीयों का त्याग कर जैन भि क्षुक (साधू) बनते थे, और वीतराग प्रव्रती से आत्मसाधन कर सर्व इष्ट कार्य सिद्ध करतेथे, मोक्ष प्राप्त कर
SR No.006299
Book TitleDhyan Kalptaru
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherKundanmal Ghummarmal Seth
Publication Year
Total Pages388
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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