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________________ . उपशाखा-शुद्धध्यान. २७५ एक को खपाते है-क्षय करते है. इत्यादी विचार से सरीरसे आत्म बुद्धिका त्याग कर. ममत्व उतार अंतर आत्माकी तर्फ लक्ष लगावें. द्वितीय पत्र-“अंतरात्मा". २ अंतर आत्मा अंतर आत्मा में रमण करते हये ध्यानी विचारतें हैं, में जिसे सम्बोधन करताहूं,सो फक्त लोकीक व्यवहार से करता हूं. क्यों कि आत्मा तो निष्कलंक हैं, इसे कौन संबौध सक्ता हैं. आत्मा तो आत्ममय पदार्थ को ही ग्रहण करता है. अन्यको नहीं, अन्यको तो अन्यही ग्रहण करते हैं. ऐसा भेद विज्ञान (पुद्गल और नैतन्यकी भिन्नताका जिन्हे होवे. अंतर (निजात्म स्वरूप) की तर्फ लक्ष लगे. वो अंतरा मी. जैसे अन्धकार में स्थंभका मनुष्य भाष होता है, और अन्धकारके नाश होनेसे वो यथातथ्य स्थंभका स्थंभही दिखता है. तव प्रथमका भर्म नाश होता है तैसेही भेद विज्ञान अनस्त सूर्यके प्रकाश होनेसे सरीर और आत्माका यथार्थ भाष होता है. "अंतर आत्म विज्ञानीका विचार" १ जो स्त्री पुरुषादिक की प्रयाय है, वो कर्मो
SR No.006299
Book TitleDhyan Kalptaru
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherKundanmal Ghummarmal Seth
Publication Year
Total Pages388
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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