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________________ उपशाखा-शुद्धध्यान. २८५ तृतीय पत्र-“परमात्मा” ३ “परमात्मा” सर्व कर्म रहित अनंत ज्ञानादी अष्ठ गुण सहित सिद्धी (मुक्ति) स्थानमें संस्थित अजरामर अविकार, सिद्ध परमात्मा है, वोही परमात्मा हें. पुष्पम-फलम् - यह तीनही आत्माका ध्यान, विशेषता से अ. प्रमत मुनी को होता है. क्यों कि अप्रमत पणाही ध्यानकी विशुद्धता, उत्कृष्टता करता है. उसके जोरसे महामुनी आगे गुणस्थान रोहण सुखे २ कर, सर्वक मको क्षपाके सिद्धस्थान प्राप्त कर सक्के है. द्वितीय शाखा-“उपध्यान” चार. श्लोक पिण्डस्थंच पदस्थंच, रुपस्थं रुप वर्जितम्. 'चतुर्दा ध्यान माम्नातं, भव्यरा जीव भास्करैः ज्ञानार्णव भ० ३६. . अर्थ-१ पिण्डस्थ ध्यान. २ पदस्थ ध्यान. ३ रुपस्थध्यान. और ४ रुपातीत ध्यान. इन ४ ध्यानके ध्यानसें भव्य जीवों, कैवल्य ज्ञान रूप भास्कर (सूर्य) को प्राप्त कर सक्ते हैं. अब इनका अर्थ
SR No.006299
Book TitleDhyan Kalptaru
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherKundanmal Ghummarmal Seth
Publication Year
Total Pages388
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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