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________________ तृतीयशाखा-धर्मध्याम २३७ ता नहीं, अग्नीमें जलता नहीं, हवामें उडता नहीं, बज्रमय भीतसे भी रुकता नहीं, यम जैसे प्राक्रमीसे ही दबता-डरता नहीं है, काल बडावे विचार है, बाल, वृध, तरुण, नव-प्रणेत, धनाढ्य, गरीब, सुखी, दुःस्वी अनेको के पालने वाले और अनेकोंके संहारने वाले ऐसे २ मनुष्योंको, पशुवोंको, दिपवाली यादी तेंहवारोंको उच्च नीच ग्रहका, काम पूरा नहीं हुवा, उनका, रात्री दिन भोगमें मशगुल उनका, इत्यादी किसीका भी जरा विचार नहीं है, कैसा ही हो झपाटेमें आयाही चाहीये, की तुर्त गट काया, अनंत प्रा. णीयोका अनंत वस्तुओंका भक्षण अनंत वक्त किया, तोभी कालका पेट नहीं भराया, साक्षात् अग्नी सेंभी अधिक सदा अनती महा विशाल राक्षसही हैं, महा प्रतापी है, बडे २ सुरेन्द्र, नरेंद्र, इसकी द्रष्टी मात्र से अत्यंत त्रास. पाते है. भान भूल जाते हैं, आर्त, रौद्र, ध्यान ध्याने लगते है, उनका भी मुलायजा कालकों नहीं हैं यह तो फक्त अपने मतलव साधनेंकी तर्फही द्रष्टी रखता है. ऐसे निर्दयी निर्लज्ज, काल बेतालके फास में पडे जीव जो अन्यके सरण से सुख चहाते है, वो मृगजल से प्यास बुजाना चहाते हैं, वांझा का पुत्र खिलाना चहाते हैं, या आकाश पुष्पोंसे श्रृंगार सज:
SR No.006299
Book TitleDhyan Kalptaru
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherKundanmal Ghummarmal Seth
Publication Year
Total Pages388
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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