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ध्यानकल्पतरू.
इसका बयान आगे किया जायगा. और २ जो विशेष अशुभ कर्मका नाश करने वाला तथा किचिंत शुभ कर्म का भी नाश करने वाला. निर्जरा और पुन्य प्रकृतीका उपराजन करे सो धर्म ध्यान, इसका वरणन ह्यां करता हूँ.
८२.
प्रथम प्रतिशाखा - धर्मध्यानके 'पाये''
सुत्र
आणा विजय, आवाय वीजय, विवाग वीजय, संठाण वीजय.
अर्थ-धर्म ध्यान के चार पाये, १ आज्ञा वि, चय, २ अपाय विचय, ३ विपाक विचय, और ४ संठाण विचय.
जैसे तरु (वृक्ष) की चिरस्थाई के लिये. पाया (जड़) की मजबुताइ की जरूर हैं. तैसे ही ध्यानको स्थिर करने के लिये, चार प्रकारके विचार करते हैं. १ श्री भगवंत ने इस जीवके उद्वारके लिये, हेय ( छोडने योग्य) ज्ञेय ( जाणने योग्य ) और उपादेय ( आदरने योग्य) क्या क्या हुकम फरमाया; उसका विचार करे सो आज्ञा विचय धर्मध्यान. २ यह जीव अनंत कालसे क्यों दुःखी है, यह दुःख दूर कायसे होते हैं ? ऐसा विचार करता यो विकाश-