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६२ उपशाखा-शुभध्यान. सके अंतः समयही समाप्त पना हुवा.*
यहां यह प्रयोजन है की जो अनिवृती करणके अंत समय विषे, दर्शन मोहनी और अन्तान बन्धी चतुष्क, इनकी प्रकृती स्थिती,प्रदेश,अनुभाग, का समस्त पने उदय होनेंकी. अयोग्यता रुप उपसम होनेते, तत्वार्थकी श्रधान रुप सम्यक्त्व होता है वो. ही उपशभिक सम्यक्त्व है.
यह भाव चौथे गुणस्थान वर्ति जीवके जाणना, यों आगे अप्रत्याख्यानी चतुष्टकका उपशम होनेसे, इच्छा निरूंधन, अल्पारंभ, अल्प परिग्रह, शुद्धवती, संवेगी, कल्प उग्रह विहारी, उदासीनतादी गुणोंकी अधिकता होती हैं, आगे प्रत्याख्यानीके चतुष्टकका उपशम होनेसे, साधुत्व, संयमत्व, तपती, समिती गुप्ती, परम वैराग्यतादी गुणोंकी वृधी होते, शुभ ध्यान करनेकी योग्यताको प्राप्त होता हैं.
अन्तान बन्धीके उपशमसे अप्रत्याख्यानीवाले, अप्रत्याख्यानीके उपशमसे प्रत्याख्यानीवाले,प्रत्याख्यानीके उपशमसे संज्वल कषायके चतुक उपशमवाले. और इन अकषाइध्यानके मार्गमें अधिक २विशुद्धता सरलता, प्राप्त करते आगे बढ़े हैं.