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________________ ७८ . ध्यानकल्पतरू. दिशा शांतीकी प्राप्ती होती है. इन्द्रीयोंके विषय उसके चितकों अकर्षण कर सक्ते नहीं है. मोह निद्रा स्व. भाव से समय २ नष्ट होती, सर्व क्षय जाती है. और ध्यान निद्रा (समाधी)की प्राप्ती होती है. इस तरेसे दुर्व्यश व अशुची से निवृते, और अभ्यंतर छ रिपुको अलग रक्रेट, जिसस संसर्गी को घृणा न होवें और अभ्यंतर शुचीसे मन निर्मल होः (२) संतोषप्राण रक्षण के लिये अन्न वस्त्रा. दी जो आवश्यक हैं उससे अधिक इच्छा न करें. जिससे निर्दोष सुखी होवे. (३) 'तप'=शुद्या अषा, शीत, उष्णादी सहे धर्मा'चरण सद्गुण आचरण करे, जिससे ऋद्धी सिद्धीकी प्राप्ती होवें. .. (1) 'स्वध्याय शास्त्र पठन या प्रणव (3) का जप करे, जिससे इष्ट देव प्रसन्न हो इच्छित कार्य करें. (५) 'प्रणिधान'-इश्वरमें सब भाव समर्पण करे. जिससे समाधी भावकों प्राप्त होवे. (३) 'स्थिर सुख मान सम्' जिस आसनसे सुख हो व शरीर और मन स्थिर रहे वोही आसन श्रेष्ट है, जिससे चितकी एकाग्रता हो. (४) 'तस्मिन्सति श्वास प्रश्वास योगति विच्छेदः मा णायाम'यस और उश्वास को रोकना सो प्रणायाम, इससे आयुष्यकी वृरी होती है. ज्ञानका अनाण दूर हो, आप जोती श्लोम-अशु वी करुगा हीनं, अशुची नित्य मेथुनं, अशुची परद्रव्ये षू अशुची परनिंदा भवेत. अर्थ-दया रहित, नित्य मैथुन सेवने वाले, चोरी करने वाले, ___ और निंदक सदा अशुद्ध अशुपी है. . .. ६ काम क्रोध मद मोह लोभ मत्सर, इनको हृदयमें प्रवेश नहीं करने दे.
SR No.006299
Book TitleDhyan Kalptaru
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherKundanmal Ghummarmal Seth
Publication Year
Total Pages388
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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