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ध्यानकल्पतरू.
सारा आत्मो पादानमिद्धं स्वयं मतिशय व हीत बाधं
विशालं वृद्धी हास व्यापेतं विषयविरहित-निष्प्रति द्वन्द्व भावम्. अन्यद्रव्या न पेक्षं निरूपं मामितं शाश्वतं सर्वकाल मुत्कृष्ठा नन्तसारं परम,सुख
मतस्तस्य सिद्धस्य जातम् १ ___ अस्यार्थ-श्री सिद्वप्रमात्मा, निजात्म स्वरूप संस्थित. स्वय अतिशय युक्त, अव्वबाध (सर्व व्याधा निर्मुक्त) हानी बृद्धी रहित. प्रतिपक्षिकता बर्जित. अनौपम-किसीभी द्रव्यकी औपमारहित. ज्ञानादीकी अपेक्षा अपार. नित्य, सर्व काल उत्तम. परम सा रयुक्त इत्यादी अनंत सुख सिद्ध परमात्मा विलसतें हैं.
औरभी सिद्ध परमात्मा अतिन्द्रिय सुखके भुते हैं. क्यों कि इन्द्रि जनित सुखतो फक्त कहने रूपही हैं. परिणाम उनका दुःख रूप इन्द्री के विषय को पोषणमें दुःखही होता है, सो पहीले बताइ दिया. इस लिये सिद्ध भगवंत अनंत सुख के भुक्ता है.
सिद्ध परमात्मा ज्ञाना वर्णिय कर्मके नष्ट हो नेसे, अनंत केवल ज्ञानवंत हुये, दर्शावर्णियके नाश होनेसे अनंत केवल दर्शनवंत हुये. वेदनिय क* द्वारा निगवाध सखके भक्ता हवे मोहतिय