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. ध्यानकल्पतरू..
हैं. नगरमें चौरासी लक्ष चोहटे. अनेक सरीर रूप सदना. विचित्र प्रकृतियों प्रजाका वासहै. प्रजाजनभी विचित्र स्वभावी है; जरा सत्कारसें फुलजाना
और जरा अपमानसे रूस जाना. जरा लाभमें हर्ष और जरा नुकशानमे शोक. इत्यादी विचित्रता धरतेहै मानगजाधीश, क्रोध अश्वाधीश, कपटरथाधीश और लोभ पायदलाधीश वगैरे शैन्यभी बिकट हैं हय २ बडा जब्बर शत्र निकला; में इकेला इ. सका कैसे प्रजाय करूं ? और इच्छित सुख वरू; मेरा तो कोइभी नहीं दिखताहै. हे भगवान! अब क्या करूं?
"चैतन्यकी ऋद्धि" - उसी वक्त, एक नजीकही रहाहुवा. 'विवेक' नामे चैतन्यका परम मित्र, हो हाथ जोड बोला क्यों चैतन्य महाराजा! क्या फिकरमें पडेहो? शत्र ओं को प्रबल देख सुरमें बणो कायरता तजो ? [इन बचनोंसे चैतन्य में विवेकको आपणा हितेच्छ जाण ] और जवाब दिया, भाइ!विनाशक्ती सुरमाइ क्या कामकी?
विवेक-वहा! महाराजा हो यह क्या शहो
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