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ध्यामकल्पतरू. निवृत हो, एकांत धर्म ध्यान में लग, ध्यान की सिद्धी करता है. इस लिये धर्म ध्यानी उपदेश, श्रवण मनन, निध्यासन, और उसी मुजब प्रवृतन करने म अधिक रुची रखते है.
चतुर्थ पत्र-“सूत्र रुची
४ सुत्र रुइ-सुत्र द्वादशांगी भगवंत की वाणी को कहते है. सो १ आचारांग जिसमें, साधू के आचार गोचार वगैरे वर्णव है.. २ सुयगडायंग जिसमें अन्य मता लम्बीयों के मत का श्वरुप बताके उसका निराकरण किया है. ३ ठाणायंगजीमें दशस्थान का अधिकार है. ४ सम वायंगजी में, जीवादी पदार्थ के समोह का संख्या युक्त स. मवेत किया हैं. विवहा पणंती (भगवति) में विवि ध प्रकार का अधिकार है. ६ ज्ञातामें धर्म कथा ओं है. ७ उपाशक दशा में दश श्राव कों का अधिकार
है. ८ अंतगड दशांग में, अंतगड केवलीयों का अधि-कार. ९ अणुत्र रोवबाइ में, अणुत्र विमन में उपजे
उनका अधिकार, १० प्रश्नव्याकरण में, अश्रव संबर