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________________ २४६ . ध्यानकल्पतरू. में न पुत्र हूं, नपिता हूं, न कोइ अन्य हूं. न मेरा कोइ हैं, और न में किसीका हूं. जो में इन नाम रुप होता तो. सदा इसही रुप में बन रहता, जो में पुरुष हूं? ऐसा निश्चय करंतो. अन्य जन्म में स्त्री हो पुरुष सं. भोगकी क्यों इच्छा करी. और जो स्त्री हूं ऐसा निश्चय करंतो अन्यज में पुरुष हो स्त्री भोग को क्यों चाहू. इत्यादी विचार से यह सब मिथ्या भाव विदित होता हैं, में मोह नशमें बेशुद्ध हो, कर्म संयोग से बिकल हो. भूल राह हूं, जैसे नाटकिया नाटक शाळामें स्त्री पुरुषा दी नाना रुप धर नाचता हैं. जैसा रुप बनाता है वैसही भाव हवाहू भजता हैं, परन्तु जो अंतर द्रष्टी, सें,देखतो, वोनट वैसा नही है, राजा नहीं, राणी न गाथा-एगया खत्तीय होइ, तउ चंडाल बुकस्स. तड कीडे पयं गया तउ कुंयु.पिंपलीया १ एव मडव जोणी मुं पाणीणो कम्म किं विसं नाना विजंती संसार संवठे मुत्र खत्तिय उतरा. अ ३ अर्थ-जैसे क्षत्री राजा महा परिश्रम सेभी पूरा राज्य मिलांके त्रप्त नहीं होता है. तैसे जीवभी कोइ वक्त क्षत्री हुवा. कोइ वक्त चंडाल ( मंगी) हुवा. कोइ वक्त बुऊस (वर्ण शंकर) हुवा. कभी कीडा तो कभी पतंगीषा. इत्यादी यांनी कोंके वस हो प्राणी परिभ्रमण करते. नाना - (अनेक) प्रकार के रूप धरतभी सर्व अर्थ प्राप्त करने समर्थ न हुवा. - इति खेदाश्चर्य.
SR No.006299
Book TitleDhyan Kalptaru
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherKundanmal Ghummarmal Seth
Publication Year
Total Pages388
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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