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________________ उपशाखा-शुभध्यान ५७ मिथ्या द्रष्टी, सो विशुद्धताकी बृधी कर, वधता हुवा प्रयोग लब्धीके प्रथम समयसें लगाके, पूर्व स्थिती के संख्यातवे भाग मात्र, अंतः (एक) कोटा कोटी सागर प्रमाण, आयुष्य विन सात कर्मका स्थिती बन्ध करे है, उस अंतः कोटा कोटी सागर स्थिती बन्धके, पल्य के संख्यात वा भाग मात्र कमी होता, स्थिती बन्ध अंतर्मुहूर्त प्रयंत सामान्यता केलिये करे हैं। ऐसे क्रमसे संख्यात स्थिती बंधश्रेणि करप्रथक (७०० तथा ८००) सागर कम होवें हैं, तब दूसरा प्रकृती बन्धाय श्रेणिस्थान होवें, ऐसेही क्रमसें इत्ना स्थिती वन्ध कमी करते, एकेक स्थान होए. यों बन्धके ३४ *श्रेणी स्थान होते हैं. इससे लगाके प्रथम उपशम सम्यक्त्व तक बंध नहीं होवें, (ह्यांतक चौथी लब्धी) ५पांचमी करणलब्धी सो भव्य जीवकेही होती हैं, इसके ३ भेद-१ अधःकरण, २अपूर्व करण, ३अ निवृती करण'. इनमें अल्प अंतर महुर्त प्रमाणे काल तो, अनिवृतीकरण का है, इससे संख्यात गुणाकाल, अपूर्व करणका; और इससे संख्यात गुणाकाल, अधःप्रवृती करणका होता है, * इसका विशेष खुलासा लब्धी सार प्रन्यों है. + वरण कषाय की मंदता को कहते हैं.
SR No.006299
Book TitleDhyan Kalptaru
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherKundanmal Ghummarmal Seth
Publication Year
Total Pages388
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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