Book Title: Aayurvediya Kosh Part 01
Author(s): Ramjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
Publisher: Vishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Catalog link: https://jainqq.org/explore/020060/1

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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir | ਵਿਕਰ ਛਾਤੇਕੋਟ ਤੇ For Private and Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शब्द संख्या-१०२५० - - आयुर्वेदीय-कोष ( Ayurvediya-Kosha.) प्रथम खण्ड (Volume I) "अ, से “अज्ञातयक्ष्मा, तक ( Fro]]-'a' to 'ajnyatayakshma) For Private and Personal Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीहरिहर औषधालय समस्त आयुर्वेदीय औषधियों को बहुत बड़े परिमाण में वना कर स्वल्पमूल्य में देने को संसार प्रसिद्ध For Private and Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir WROOGGIRREEOScessorseDEMOscree-00809002064066400-6880545808D-Oct-cce --840061-6BEERINGT-GAMEER55516666616mas0060 #000damakaSONGRECESSAREER आयुर्वेदीयानुसंधान--ग्रन्थमाला का द्वितीय पुष्प आयुर्वेदीय-कोष An Oneyclopædical Ayurvedic Dictionary (with full details of Ayurvedic, Unani and Allopathic terms.) अर्थात् श्रायुर्वेद के प्रत्येक अङ्ग प्रत्यङ्ग सम्बन्धी विषय यथा-निघण्टु, निदान, रोग-विज्ञान, विकृति-विज्ञान, चिकित्सा-विज्ञान,रसायन विज्ञान, भौतिकविज्ञान,कीटाण विज्ञान, इत्यादि प्रायः सभी विषयके शब्दों एवं उनकी अन्य मापा (देशी, विदेशी, स्थानीय एवं साधारण बोलचाम) के पर्यायीका विस्तृत व्याख्या सहित अपूर्व संग्रह । व्याख्या में प्राचीन व अर्वाचीन मलोंका चिकित्साप्रणालो-नय के अनुसार तुलनात्मक एवं गवेपणा पूर्ण विवेचन किया गया है। इसमें २००० से अधिक वनस्पतियों, समन खनिज एवं चिकित्सा कार्य में भाने वाली प्रायः सभी आवश्यक प्राणिवर्ग की तथा रासायनिक औषधों के आजतक के शोधों का सार्वाङ्गीन सुन्दर, सुबोध एवम् प्रामाणिक वर्णन है । संक्षेप में श्रायुर्वेद( यूनामी तथा डॉक्टरी ) सम्बन्धी कोई भी विपय ऐसा नहीं चाहे वह प्राचीन हो या नवीन जिसका इसमें समावेश न हुआ हो। लेखक तथा संकलनकर्ताःश्री बाबू रामजीत सिंह जी वैद्य श्री बाबू दलजीत सिंह जी वैद्य गयपुरी, चुनार (यूपी०) प्रकाशकश्री.विश्वेश्वरदयालुजी वैद्यराज सम्पादक-अनुभूत योगमाला, बरालोकपुर-इटावा (यू०पी०) faas109999999000*assaa025319020100100-00m संशोधित तथा परिवद्धित [ द्वितीय संस्करण, १००० प्रति ] All rights reserved by the writers. (सम्बत् ११६० वि० तथा सन् १९३४ ई.) HABARB0082109999999999909549gioxSpeparasiORSHADDD9%D959SBANANDS: For Private and Personal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथम संस्करण ( First Eiitiv:: ).......... सन् १९३२ ई० द्वितीय संस्करण (S:coni Eliti: 1)............ फरवरी सन् १५३४ ई. देदेमातर श्री पं० विश्वेश्वरदयालुजी के प्रबन्ध से हरिहर प्रेस, वरालोकपुर-इटावा में मुद्रित । For Private and Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रस्तावना (महामहोपाध्याय कविराज श्रीगणनाथ सेन शर्मा, सरस्वती, विद्यासागर, एम० ए० एल० एम० एस० लिखित) सार परिवर्तनशील है। आज इसका रूप कुछ है, पहिले कुछ था, कल कुछ हो जायगा, इतिहास ऐसा बतलाता है । कल जो शासक था आज वही शासनाधीन है, जो पद दलित था वह सिर पर उन्नत है । पूज्य श्राज हेय समझा जाता है और तिरस्कृत अाज अाहत हो रहा है। वही सुजला-सुफला शस्य-श्यामला पुण्यमयी भारतभूमि है, वही भेषज-पीयूप-वर्षिणी वन्यस्थली है,वही अष्टवर्ग-सोमलतादि-प्रसविनी-हिमाद्रिमाला है, किन्तु अाज हमारे भाग्य दोष से उसीको लोग नीरसा कहते हैं। प्राचीन इतिहास की ओर जब दृष्टि उठाते हैं तो पता चलता है कि मानव-जाति मात्र के कल्याणार्थ इस भारत ने सम्पूर्ण-जगत् को क्या क्या नहीं प्रदान किया है! अविध को विद्या, असंस्कृत को संस्कृति, प्रश्रुत को श्रति, विस्मृत को स्मृति एवं मोहान्ध को दिव्यज्ञान दृष्टि इसने अपने उदार करों से निस्संकोच वितरण किया है। इतना ही नहीं वरन् इसने संसार का वह उपकार किया है कि जिसके प्रभाव होने पर उक्र समस्त साधन काल के गाल में विलीन हो गए होते । धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष, सभी का आधार जीवन है; जीवन का अवलम्बन शारीरिक एवं मानसिक स्थैर्य है। अतएवं समस्त इहलोकिक एवं पारलौकिक सुखों के साधनभूत 'अायुर्वेद' का पुण्योपदेश कर इस भारतवाणी ने मनुष्य-जाति का जो कल्याण किया है वह वर्णनातीत है । हन्त ! वही भारत-विश्व-शिरोमणि-भारत-- आज परमुखापेती है। भास्कर का प्रखा-प्रकाश खोकर दीपकों की सलिन- ज्योति का अपेक्षित है। परन्तु नहीं । दिन के बाद रात और रात के बाद दिन होना अवश्यम्भावी है। कालचक्र का परिक्रमण करता हुआ, सहयों वर्ष पश्चात्, महानिशा के अङ्क से निकज कर, 'आयुर्वेद का सूर्य' पुनः प्राची में अपनी संजीवन-किरणे प्रक्षिप्त करते दृष्टिगोचर हो रहा है । उसके स्वागत के लिए कितनी मारियाँ कलित हो गई, कितने ही कुसुम विकसित हो गए। इन्हीं में से एक नव-प्रसून “प्रायुर्वेदीय-कोप" रूप में आज मेरे हाथों में पाया है। इसके दतों की मनोहरता, इसके पराग के सौरभ का परिचय आप लोगों की सेवा में उपस्थित करने का भार मुझे सौंपा गया है । यद्यपि आयुर्वेदीय-कोप लिखने का यह प्रयत्न सर्वथा नवीन नहीं है, तथापि इसमें कुछ बिलक्षणता अवश्य है । इसके बहुन पूर्व, प्रायुर्वेद के द्रव्यगुणांश के अर्थ परिचायक कोप, 'राज-निघण्टु', 'मदनपालनिघण्टु' आदि प्राचीन एव' 'शालिग्राम-निघण्टु' प्रादि नवीन ग्रंथ उपस्थित थे, जिनसे आज दिन भी य. समाज बहुत लाभ उठा रहा है, किन्तु इनका क्षेत्र एक प्रकार से परिमित है और इन्हें हम एक सर्वव्यापक श्रायुर्वेदीय-कोष के रूप में व्यवहृत नहीं कर सकते । आयुर्वेद का कलेवर आज कितना विशाल है एवं इसके प्रकाश में आज अपना क्षेत्र कितना विस्तृत दिखलाई पड़ रहा है, यह बैग-समाज के प्रत्यक्ष ही है। अतः हम कह सकते हैं कि हमारे सन्देह मात्र को दूर करने के लिए प्रभा पर्याप्त-सामग्री नहीं प्राप्त है। हमें एक ऐसे आयुर्वेदीय-कोष की आवश्यकता है, जो सर्वथा हनारी शंकाओं का समाधान करने, हमारी जिज्ञासाओं का संतोषजनक उत्तर देने एवं सन्दिग्ध स्थलों पर पथ-प्रदर्शन करने में समर्थ हो । हमारी इसी मॉग की पूर्ति करने के लिए 'कविराज श्री उमेशचंद्र विद्यारत्न' महोदय ने सन् १८६५ ई. में, विशाल "वद्यक-शब्द-सिंधु" को प्रकाशित किया था। इसमें संदेह नहीं कि वैद्य-समुदाय ने उससे बहुत लाभ उठाया है, तथापि जैसा कि हम पहिले कह चुके हैं, हमारी वर्तमान अावश्यकताओं को सम्यकृतया पूरी करने की पूर्ण क्षमता उसमें भी नहीं है । इसी उद्देश्य को लक्ष्य करके आज एक और नधीन "श्राय दीय-कोष" हमारे सम्मुख उपस्थित हुआ है, हम हृदय से इसका स्वागत करते हैं। For Private and Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राय दीय-रात के धुरन्धर-विद्वानों एवं अनेक-शास्त्र-पारङ्गत पण्डितों को भी यथावसर जिसकी सहायता लेनी पड़े, विविध क्रिया-कुशल वैद्यों को भी अावश्यकता पड़ने पर जिसका आश्रय लेना पड़े, तथा अनेक अकुशल एव' स्वल्पमति वद्य और छात्र समुदाय को भी जिसके भारद्वार से अपने को पूर्ण बनाने के लिए ज्ञान-याचना करनी पड़े. ऐसे वेंदीय-कोष को कितना सारगर्भित, कितना महान् एवं सर्वाङ्गपूर्ण होने की अावश्यकता है, इसकी कल्पना प्रायः सभी विज्ञ-वद्य कर सकते हैं । मेरा अनुभव है कि योरोप में जब की एमे गहान कार्य उपस्थित होते हैं, उस समय उस देश के अनेक सर्वोत्तम विद्वान, जो कि अपने अपने विषयों के विशेषज्ञ होते, परस्पर सहयोग द्वारा, कों तक दृढ़ परिश्रम एवं प्रचुर-धन व्यय करके, उसे सत्रालाई बनाने की यथाशक्ति चेष्टा करते हैं। इतना ही नहीं, वरन् नवीन नवीन खोज और सुधार पर चिसयान रखो हर, उसमें श्रावस्यक परिवर्तन और सुधार करने के लिए जीवन भर सतक रहते है और मुबार करने जाते हैं। वास्त्र में यह कार्य कितना उत्तरदायित्व-पूर्ण, दुःसाध्य एवं दुरूह है, इस विज्ञ-जन स्वयं समझ सकते हैं। इस विषय में लेखकों को कितनी गम्भीर गवेपमा एवं पाण्डित्य की प्रावश्यकता होती है, कितनी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, कितनी बाधाओं का अतिक्रमण करना होता है, इसका र्भाग्यवश, भारतवर्ष के विद्वानांने इस प्रकार की सामूहिक सहयोगिता पर अभी तक ध्यान नहीं दिया है। फलतः सच्चे उत्साही लेखकों की एकमात्र अपने परिश्रम एवं अध्यवसाय पर निर्भर रहना पड़ता है। एतदतिरिक, भारतवर्ष में प्रेस के लिए प्रतिलिपि करना, मुद्रण एवं संशोधनादि की कठिनाइयों के साथ ही आर्थिक-शिष्टता भी प्रायः रहती ही है । अतः इन सब परिस्थितियों के होते हुए भी इस महान् धायुर्वेदीय-कोष' कर्ता ग्रंथकारद्वय का उत्साह एवं साहस सराहनीय है। एक आयुर्वेदीय-कोष के प्रस्तुत करने में जो सबसे बड़ी एवं विचारणीय वाधा है. यह है पारिभाषिक शब्दों का अर्थ-निर्णय । कितने ही शब्द ऐसे हैं जिनके अर्थ सन्दिग्ध होते हैं और संस्कृत भाश में नानार्थक शाद भी पाने का है। यह बाधा, श्रायुर्वेद को प्रायः सभी शाखाओं में किसी न किसी रूप में वर्तमान है, और वंद के साथ लिखा पढ़ता है कि इस विषय के एक सर्वमान्य निर्णय पर पैद्य समाज अाज तक भी नहीं एनसका। इसमें भी विशेषतः शारीर-विषयक एवं नानार्थ-प्रकाशक क्षेपजों की परिमापा पर अधिक ध्यान देने को प्रावश्यकता है। यहाँ शारीर- मन-राधी जो कार्य प्रत्यक्ष शारीर द्वारा प्रतिपादित हुआ है उससे नैव-समुदाय भली नि पर्शिका है, किन्तु औपज निर्णय का काम अब भी वहुत पीछे है। उदाहरणार्थ अष्टवर्ग की औपधियों को ही ले लीलिए । यदि इनके विनिश्चय के लिए काली प्रयल हुए है तथापि कोई यर्वमान्य विश्वसनीय निर्णय शुभी तक सुप्रसिद्ध नहीं है। रास्ता एवं तगा भादि जैसी सामान्य औषधियों के परिचय में भी बहुत गत भेद है, क्योंकि देश देश में निम्न भिन्न प्रकार की दी एक ही नाम से प्रसिद्ध है। अतः इन सब समन्वयाची के समाचार करने के लिए सनी द्वगन के साथ गवेषण (Research) करने की नितान्त ४ादश्य याता। घायु की सेवा में तन-मन-धन अर्पण करके ही इसका पुनरुत्थान करना है। इसी कार्य की पूर्वि पर शायुर्वेदीय-कीप की साक्षरता निर्भर करता है। अतः इम और मैं लेखक महाशयों का ध्यान साय करता कि वे इस कोप को विशेष उपयोगी बनाने के लिए, विविध-विषयों के विशेपों एवम् विद्वानों से तहितपयक गयेपणा सिद्ध परामर्श सदैव लेते रहें, ताकि समय समय पर इसमें आवश्यक परिवर्तन "बम परिकारादि हो सके। ग्रायुर्वेद, तित्री एवम् ऐलोपैथो श्रादि प्रायः सभी वर्तमान प्रचलित चिकित्सा पद्धतियों से सम्बन्ध रखने वाले विषयों को इस ग्रंथ में समावेश किया है, जिससे इसका कलेवर अति-विशाल होगया है। इन विषयों की कही तक और किप मात्रा में इस ग्रंथ में सन्निविष्ट करने की आवश्यकता थी, इसे विद्वान पाठक स्वयं विचार ले। For Private and Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ___ एक बात की अावश्यकता हमें श्रोर प्रतीत होती है। वह यह कि इस ग्रंथकी रचना में जिन जिन अन्यान्य ग्रंथों में सहायता मिली है, उनके लेखको' एवम् प्रकाशकों के प्रति--चाहे वह स्वदेशीय हों या विदेशीय, प्राचीन हो वा अर्वाचीन-उनके नाम समेत धन्यवाद प्रकाश करना अनिवार्य कर्तव्य है। अन्ततः हुन योग्य लेखकों के बहुवर्णे के प्रभूत..रिश्रम, अदम्य उत्साह एवम् आयुर्वेद की बाकी प्रशंसा करते हुए ईश्वर से यह प्रार्थना करते हैं कि इस महाकोप द्वारा श्रायुर्वेद के भाडार का एक बड़ा अंश पूर्ण हो तथा यद्य, छात्र-ममुदाय एवम् रुमार्च-जनता का इससे कल्याण साधन हो । कल्पतरु-प्रासाद, कलकत्ता । ) विद्वजनों का विधेयपोष, ऊप] चतुर्दशा, सम्बत् १९६० वि० । । श्रीनगनाथ सेन शर्मा For Private and Personal Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रकाशक की विज्ञप्ति स कालचक्र का प्रभाव आज तक किसी ने भी नहीं पाया; न कोई यह जान की सका कि कल क्या होगा। जो श्राज या इस क्षण में है न मालूम उसका इस क्षण के बाद क्या होगा। समय के अनुसार संसार में अनेकानेक परिवर्तन हो चुके, हो रहे हैं, और आगे भी होंगे । इसी चक्र के अनुसार प्रत्येक वस्तु का नाश और विकाश होता श्राया है। श्राज उसी काल चक्र में से प्रेरित हुमा मैं अापके समक्ष पा रहा हूँ ! कोई कुछ भी नहीं कर सकता । समय ही सब कुछ करा लेता है । इसीलिए कहा भी है ___ तुलसी जस भवितव्यता तैसी मिले सहाय । श्राप न श्रावे ताहि पै ताहि तहाँ ले जाय ॥ इसी के अनुसार यह कार्य भी हुश्रा है । जिस कोष के लिए प्राज कई वर्ष से आयुर्वेदिक-बायु -मंडल अपनी गुञ्जार से समस्त संसार को गुञ्जायमान कर रहा था, उसी वायु-मंडल की प्रेरणा से हमारे मित्रों ( बाबू रामजीतसिंह व बाब दलजीतसिंह) को प्रेरणा हुई और वे उससे प्रेरित होकर इस कमी की पूर्ति के लिए तल्लीन होगा और जनता की इच्छा के अनुसार इस श्रायुर्वेदीय-कोष को रच डाला; और मेरे समद, जो ऐसे ही कोष के प्रकाशन के लिए सदैव प्रयत्नशील था, उपस्थित किया । इस कोष को को देखा तो जनता के अनुरूप ही पाया। फिर क्या था । समय की प्रेरणा से उन्मत्त होकर, अपनी शकि का विचार किए बिना नमालूम किस अान्तरिक इच्छाशक्ति के बल इस अपार भार को अपने निर्मल कन्धों पर लेकर उद्यहन करने को तैयार होगया | उसी के फल स्वरूप उसका यह पहिला भाग जनता के समक्ष उपस्थित कर रहा हूँ । मञ्च आप देखें किइस कोषमें सम्पूर्ण ज्ञातव्य विषय हैं वा नहीं ? जहाँ तक अपना विचार था और समयकी प्रेरणा जैसो थी, कि बिना परिश्रम किए ही यादा पढ़ा लिखा या एक, भाषाका विद्वान भी सभी आयुर्वेदीय संसार की बातें जो पृथक् पृथक् पैधियों (यथा-एलोपैथी डॉक्टरी यूनानी, प्रायुर्वेदीय) में भरी पड़ी हैं, जान जाएँ और जिनमें हमारे वैद्य दूसरी पंथी के मर्मज्ञ के सामने शिर नीचा कर जाते थे; वह दूर हो जाय | वह इस कोष से दूर होगई या नहीं ? विद्वान जन लिखने की दया करें। इस वृहत्काय कोष के प्रकाशित करने के विषय में हमारे कुछ भ्रातृगणों के प्रश्न होगे कि प्रायुर्वेद-शास्त्र में कई निघण्टु इस समय मी वर्तमान थे, फिर इस नवीन बृहत्काय कोप के निर्माण करने की क्या आवश्यकता यो ? इसके उत्तर में ही प्रकाशक का निवेदन है कि अवश्य कई निघण्टु है; परन्तु श्राप लोगों ने कभी भी उनकी तुलना नहीं की। यदि आप तुलना कर लेते तो उपयुक्र बात कदापि न कहते । कुछ समयसे हमारे यहाँ वैद्य-समाज में प्रमाद प्रागया है और उन्हो'ने "हेतुलिंगौषध शानं स्वस्थातुर परायणम् । त्रिसूत्रं शाश्वतं पुण्यमायुर्वेद मनु शुश्रुमः ॥ इन सूत्रों को ही भुला दिया और रोग निश्चय तथा उसमें दोष कल्पना और रस अवस्था के लिए औषध विवेचन करना ही छोड़ दिया । सिर्फ रोग का नाम और उसके लिये उस रोग की चिकित्सा में वर्णित कोई सी भी औषध बना कर दे देना ही कथक व्यवसाय समझ लिया था । यह धारणा बढ़ते २ यहाँ तक बढ़ी कि जिसका अन्त अब तक भी नहीं हुआ। इसी प्रवाहमें लिखे हुए चिकित्सा-ग्रंथ तथा निघण्टु (जो केवल मात्र पादिस्य प्रकाश के लिए ही रचे गए थे) ग्रंथों पर किसी ने भी ध्यान नहीं दिया । यह दशा जब इधर भारतवर्ष में हो रही थी तब यूनानी लोग "हेतुलिंगौषधज्ञानम्" इस सूत्र पर विचार करते हुए रोगविज्ञान और प्रौषधनिज्ञान को पूर्ण करने में अधिक परिश्रम करने लग गए । उसका प्रतिफल यह हुआ कि मायुर्वेदीय For Private and Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra XXXXXXXXXXXXXX>>>>>XXI www.kobatirth.org मालिक श्रीहरिहर श्रीषधालय चिकित्सक पं० विश्वेश्वरदयालु वैद्यराज लोकपुर इटावा यू० पी० सादर समर्पणम् जयजननि जगदम्बे किन शब्दों से तुम्हारी पूजा करें ! किन शब्दों से तुम्हें धन्यवाद दे । मातः ! तुमने इस अपने अकिंचन पुत्र को किस चाव से इतना अपनाया है कि जो इच्छा स्वप्न में भी इसने की तुमने वही पूर्ति कर इसे सुखी किया। इसी के उपलक्ष में यह तुच्छ भेंट तुम्हारे खरणों में समर्पित है | इसे अपनाने की दया करना और ऐसी ही कृपा करना कि जिससे यह आयुर्वेद का उद्धार करता हुआ अपना नाम अमर करने में समर्थ हो । समर्पक:-- तुम्हारा स्नेहा पुत्र विश्वेश्वर For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ए Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समर्पणम् SAE: ॐ. : -- 1mmere 5 PAPER - आयुर्वेदमार्तण्ड श्री १०८ मामी लक्ष्मीरामाचार्य जी प्रधानाध्यापक सं० विद्यालय जयपुर । अयि गुरुवर्य ! आपकी दर से जो कुछ ज्ञान प्राप्त कर पायर्वेदोद्धार के लिए जो कुछ प्रगति हुई S) है. उसका श्रेय श्रापको हो है । अतः यह कोप आपको इच्छानुरूप ही संकलित किया डा A हुआ प्रकाशित कर, चरणों में समर्पित करने का साहस किया है, कृपया म्बाकार कर लाजिये। विश्वेश्वरः For Private and Personal Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा को अपने चमत्कारों से बहुत कुछ दवा डाला। इसके बाद एनोपैथी का सितारा चमका । उन्होंने यूनानियों से भी अधिक गवेषणा की और आयुर्वेदीय चिकित्सा को बिलकुल ही दबाडाला । इस समय जब सज्ञ या ने अपनी अवनति पर विचार करना प्रारम्भ किया तो उनको अपने रोगविज्ञान (निदान) पर ओर निघण्ट ( औषधि-विज्ञान ) पर नज़र डालनी पड़ी, कारण इनके बिना चिकित्मक एक पग भी आगे नहीं बड़ा सकता । अस्तु तुलनात्मक विवेचन करने पर अांखें खली और ज्ञात हा कि हमतो प्रथम ही अपना मागे रुद्र कर चुके हैं तब होश आया कि हमें अपनी कमी कैसे एर्ण करनी चाहिए । वया २ कमी श्रीर क्या २ अनर्थ हमारे निघराटी में है दिग्दर्शनार्थ हम नीचे देते हैं। यथा "राम्नास्तुधिविधा प्रोक्ता मूलं पत्रं तृणं तथा" इस प्रकार रास्ना तीन तरह की बता कर ऐसा भ्रम में डाला गया है कि कभी भी यह जटिल समस्या तय न हो। इसी तरह कंकुष्ट, रमक प्रादि पर भी विवाद है । अब देखिए प्रायः नित्य प्रति कार्य में श्राने वाली वस्तुओं के विषय में । धान्यकं तु वरं स्निग्धमवृष्यं मूत्रले लघु। तिक्तं करण वीयं च दीपन पाचनं स्मृतम् ॥ भाव० ॥ धनियाँ स्निग्ध, प्रवृष्य, मूत्रल, हलका, तिक, कटु, उडणवीर्य वाला दीपन और पाचन है । परन्तु, धान्य मधुरं शीतं कषायं पित्त नाशनम् । राजनिः । राजनिघण्टकार धनिये को मीठा,शीतल,कषैला पित्तनाशक मानते हैं। भावप्रकाशकार धमिये को पित्तकारक विशेष मानते हैं और राजनिघण्टुकार ठंडा । अब क्या ठीक है ? वैच किस के मत को स्वीकार कर दे और कैसे सफलता प्राप्त करे ? जब तक यह रद निश्चय हम लोग बैठकर नहीं कर लेते तब तक हम सफताता से सेकड़ो कोस द्र है। एक विद्वान वैध भी जिसने बड़ी खोज से रोग निश्चय किया हो उसमें दोष विवेचन करके उसकी अंशाश कल्पना भी कर लेने में वह सफल हो गया हो तो भी वह औषध निश्चय में या तो भ्रम में पड़ जायगा कि किसका मत माने । यदि उसने एक के मत को स्वीकार करके भी औषधि दे दी तो वह असफल हुश्रा और रोग बढ़ कर प्राण नाशक बन गया। इसमें किसका दोष है ? बैद्य का या चक साहित्य का । अभी तो श्राप यही कहेंगे कि धक का तो ऐसी भारभूत साहित्य से ही क्या लाभ? मेरी तो धारणा होगई है कि जल्द से जल्द ऐसे साहित्यको नष्ट भ्रष्ट कर देने में ही भलाई है, वर्ना वयों को बहुत हति का सामना करना पड़ेगा। यूनानी वाले धनिये के विषय में लिखते हैं-धनियां फरहत लाती है, दिल व दिमाश को कुवत देनी है, दिमाग़ पर अवरे चढ़ने को रोकती है, ख़फ़्तान व बसवास (वहम ) को मुनीद, मेदे को कव्वत देती है, दस्तों को बन्द करती है, जरियान मनी को लाभ देती है, नींद लाती है, ताजी धनियां रही माद्दे को पकाती है और सारा को तस्कीन करती है। इसकी कल्लो मुह के जोश, और गले के दर्द को नका करती है। अक्सर दिमागी बीमारियो को नका करती है। मात्रा- मा0 से १ तोला तक । गैर समी अर्थात् विष नहीं है। कहिए यूनानियों को तसवीससे क्या विशेष लाभ प्रापको नहीं हो सकता । इसी प्रकार एलोपैथी का वर्णन करके फिर अपना मत निश्चय कर दिया जाय तो क्या चिकित्सकों को सुलभता नहीं हो जायगी। इस कोष में जहाँ तक था सभी साहित्यों से लेकर भर दिया और उसका तुलनात्मक विवेचन कर अपना मत प्रकट कर विषय को साफ कर देने में कोई कसर ही नहीं उठा रक्खी और निघण्टु को 'निघंटना बिना वैद्यो वाणी व्याकरणं बिना' इस कहावत के अनुसार ही इसको ऐसा बनवाया गया कि प्रत्येक वध का कार्य इसके बिना यथेच्छ सिदही न हो सके । विशेष विशेषताए'इस कोष के लेखक ने स्वयं अपनी भूमिका में लिख दी हैं, जिनका बताना हमारे लिए केवल मात्र पुनरुक्रि करना ही होगा | अतः हम उस पर भौनावलम्वन करके आगे चलते हैं। आपको यदि अभिनत हो तो 'लेखक के दो शब्दों को पढ़ने की उदारता कीजिए। यही नहीं कि सिर्फ धनिए पर ही ऐसा लिखा है। नहीं नहीं प्राय:सभी वनस्पतियों पर ही यही भगड़ा डाला गया है। इसके दो ही कारण हमारी अल्प मति में प्राते हैं, पच रचना है, पद्य रचना करते समय पचको पूरा For Private and Personal Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ग] करने के लिए मनमाने शब्दों को रख देना और ग्रन्थ पूरा करके नाम कमाना ही है। क्योंकि 'निर'कुशा कवयः' कवि कुश होते हैं । यह बात अन्य विषय के कवियों के लिएलागू भी हो सकती है; परन्तु आयुर्वेद जैसे जुम्मेदरी के साहित्य पर यह निरंकुशता आज कितना बुरा प्रभाव डालती हुई हमारे अधःपतनका कारण हुई हैं यह किसी भी सहृदय से छिपा नहीं है । प्रत्येक श्रायुर्वेदीय साहित्य पर विद्वानों की सम्मति का अंकुश होना चाहिए और वह साहित्य तभी प्रकाश पा सकता है | जब उसका निरीचण विद्वानों द्वारा होकर श्राज्ञा शप्त करली जाय । मनगढंत श्रायुर्वेदीय साहित्य से आयुर्वेद का नाश होना संभव है । और भी देखिए— पलाण्डुः कफकृन्नाति पित्ततः । भाव० | पलाण्डुः कफ पित्त हर लघुः । राज० नि० । गद्वयमुष्णं स्यात् । भावः । तगरंशातलं तिकम् ॥ रा०नि० ॥ त्वक शुक्रला | भा० | त्वचं शुकशमनम् । रा० नि० । कितना श्रनर्थकारी विरोध है । यही विरोध देख हसने इस ग्रंथ के प्रकाशनका भार अपने निर्बल कंधो - पर लिया है। आशा है हमारे वैद्य बन्धु हमें इसमें मदद देंगे और जहाँ जहाँ हमारा स्खलन हुआ हो अपनी बुद्धि के द्वारा सूचित करें ताकि संशोधित हो सके और भावी संतानों' के दिन साधन में यह एक हो सके । यदि इस ग्रंथ से कुछ भी लाभ पाठकों को होगा तो हम अपने मात्रा, किस वनस्पति का कौन सा भाग प्रयुक्त किया जाना मालूम हो तो उसका दर्पन कौन सी औषध को देकर शीघ्र व्यय को सार्थक समझेंगे। दूसरे श्रयधि चाहिए, यदि दी हुई औषध श्रवगुण करती ही होने वाली हानि से रोगी को बचा लिया जाय 1. इसके सिवाय श्रायुर्वेद में केवल ४०० के करीब और कान मिलता है और एलोपैथी में करीब २००० २०००० ओषधियों के चित्र लिए जा चुके हैं। आपको संग्रह मिलेगा जिसे देख श्राप गद् गद् हो जायेंगे । इस कोष में क्या है ? संक्षेपतः इसमें प्रायः सभी विषयों का समावेश किया गया है। इस कोप को पास रखने पर आपको अंग्रेजी (एलोपैथी, यूनानी, आयुर्वेदीय, रोग निदान, उनकी चिकित्सा, प्रसिद्ध प्रसिद्ध योग, शारीरिक शास्त्र, रसायन शास्त्र, वानस्पतिक शास्त्र का पूर्ण विवेचन अकारादि क्रम से मिलेगा । श्रर्थात् जां जो श्राज तक की प्रकाशित पुस्तकों में इतस्ततः था उनका संग्रह एक स्थान पर इस प्रकार से दिया हुआ है कि देखने वाला उस विषय का तत्क्षण विज्ञ हो जाता है अर्थात् उस विषय का अंत ही निकाल बैठता है । इससे श्रागे उसके लिए कुछ भी ज्ञातव्य शेष नहीं रहता । तीनों पैथियों के शब्दों को श्रीर प्रत्येक प्रांत के शब्दों को जो चिकित्सा शास्खसे सम्बन्ध रखते थे अकारादि क्रमसे इस प्रकार संग्रह किया है कि, आपको किसी रोग व वनस्पति, पार्थिव, जान्तव, औषधि का नाम मालूम हो तुरन्त उसका नाम निकाल वर्णन पद तृप्ति प्राप्त कर लेनी पड़ेगी । इतना सब कुछ करने पर भी शाब्दिक महान् सागर को हम पार न कर सके हो यह सम्भव है; इसलिए प्रत्येक प्रांतीय भाषाविज्ञों से प्रार्थना है कि इस कोष में जो भी शब्द आपको न मिले उसकी सूचना हमें अवश्य दें ताकि हम उसे अगले संस्करणों' में स्थान दे इस कोष को पूर्ण सफल बनाने में समर्थ हो सके। जो कुछ भी अत्युक्ति, जो कुछ भी कमी, जो कुछ भी सुधार और आपको इसमें कराना या निकालना हो उसकी सूचना से सूचित करना और अपने अपने इष्ट मित्रों को इस कोष के देखने की सलाह देना ताकि इसका प्रचार बढ़े और शीघ्र ही इसके सम्पूर्ण भाग आपको देखने को मिल सकें । यदि आप लोगो ने इसके प्रचार में उत्साह से भाग न लिया तो यह अपनी धीमी धीमी चाल से न जाने कितने वर्षो में सम्पूर्ण निकल सके और श्रापको जैसा इस कोष से लाभ पहुँचना चाहिए न पहुँचे । कारण विमा कोष के सम्पूर्ण हुए सम्पूर्ण कामनाएँ पूर्ण होनी असम्भव ही । श्राशा है कि सभी वैद्य बन्धु इससे प्रसन्न हो सहाय देंगे। वैद्यों की उन्नति का इच्छुकः प्रकाशक : - चिकित्सक पं० विश्वेश्वरदयालुजी वैद्यराज युनानी ग्रंथों में १०० के करीब वनस्पतियों श्रोषधियों का स्फुट वर्णन मिलता है और करीब इस कोष में अब तक की संसार भर की खोजों का For Private and Personal Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लेखक के दो शब्द ! गत में जितना भी कार्य होता है, उसका कोई न कोई कारण अवश्य होता है। बिना कारण के किसी भा कार्य का होना अपम्नव है. पुनः वह मानव बुद्धि द्वारा अवगत हो हो सके प्रथया नहीं | यह एक अटल सिद्धान्त है। जो बात सर्व साधारण के लिए कोई मूल्य नहीं रखती वही बात उस महा पुरुष के लिए जिसके द्वारा कोई महान कार्य सम्पादित होने वाला होता है, अत्यन्त महत्व रखता है। परिपक सेत्र सदैव ही पृथ्वी तल पर टपका करते हैं। परन्तु सामान्य IT मानव हृदय पर उसका क्या प्रभाव पड़ता है ? पर नहीं इसी एक बात मे सर आइज़क न्यूटन को गम्भीर चिन्ता में डाल दिया और उसके अन्वेषक हृदय तल से गुरुत्व अथवा प्राकर्षण शक्रि ऐसे महान् उपयोगी सिद्धान्त का प्राविर्भाव हुआ और आज भी बड़े बड़े वैज्ञानिक उस साधु पुरुष के यश के मीत पाते हैं। याज से लगभग २० वर्ष की बात है कि हमें एक ऐसा योग बनाना था जिसमें "कालाबाला" शब्द प्रयुक्र हुअा था। समझ में नहीं पाया 'काला बाला" है क्या बला? और योग का बनाना जरूरी था । अस्तु हमने उसकी तलाश में संस्कृत तथा हिन्दी श्रादि कई भाषा के प्रायः सभी कोपों को निचोड डाला और काशी के तत्कालीन प्रायः सभी आयुर्वेद शास्त्रियों एवं बड़े बड़े श्रौषध-शिक्रनामों से पूछ ताछ की । पर सफलता न मिली । और सफलता मिले भी तो क्यों ? उन शब्द महाराष्ट्री भाषा का था ( हिन्दी में सुगन्धवाला एवं उशीर दोनों के लिए प्रयुक्त होता है)। अन्ततः विवश होकर उस औषध के बिना ही, शेष औषधियों के द्वारा योग प्रस्तुत कर उसका प्रयोग कराया गया और उससे सफलता भी मिला। पर हमें संतोपन हुआ। हमने अपने सन में इस बात को की दृढ़ प्रतिज्ञा करली कि हम एक ऐसे आयर्वेदीय-शब्द कोष का निर्माण करेंगे जिसमें श्रौषधियों के प्रायः सभी भाषा के नाम अकारादि क्रम से दिये गए हो। उसी समय से हमने शब्दों का संकलन प्रारम्भ कर दिया | वी विंध्य एवं हिमवर्ती पर्वत शिखरों एवं संघन भयावह वनों की हवा खाई, अंगखी मनुष्यों यथा कोल भील आदिकों से मिला, विभिन्न प्रान्त के लोगों से बात चीत की और इस प्रकार क्रियात्मक रूप से औषधियों की खोज एव शास्त्रीय वनों से नुसना कर निश्चिा निर्णय प्रतिपादनार्थ यथेष्ट मसाला एकत्रित करने में संलग्न हो गया। उस समय केवल इतना ही विचार था। • पर उस विचार एवं यत्न का जो विकसित रूप नाज आपके सम्मुख है, उस समय इसका स्वप्नाभाप भी न था । परंतु जिस प्रकार एक नन्हा सा बीज मिट्टी, जल तथा वायु के संपर्क से अंकुरित होकर इसने विशाल वृज का रूप धारण करता है, उसी प्रकार यह छोटा सा विचार उपयतः वायमंडल एवं सहायता द्वारा परिपोषित होकर ऐसे महान कार्य रूप में परिणत हुआ है। "कालोदाला" का न मिलना कोई असाधारण बात न थी; परंतु इसी एक विचार से इस कोषकी रचना का सूत्रपात होता है। तभी से अश्यबसाय एवं कठिन परिश्रम के साथ अपना अध्ययन जारी रहा। बोच बीच में विचार विनिमय एवं प्रत्येक विषय के अनुसंधानपूर्वक अनुशीलन तथा क्रियात्मक प्रयोग जन्य अनुभव द्वारा विचार दृढ़ एवं विकसित होते गए। जिसके परिणाम स्व. रूप अाज यह दीर्घ काय ग्रन्धरत्न का एक छोटा सा अंश (प्रथम खण्ड) आपके सम्मुख है । इसकी प्रस्तावना उत्कृष्ट विद्वान, वैध शिरोमणि, व घोंके प्राचार्य एवं प्रत्यक्ष शारीर जो अनेक प्रायुर्वेदीय कालेजों एवं विद्यापीठ के पाठ्यक्रम में है और शारीर ग्रंथों में संस्कृत में अपने विषयका एक अनुपम प्रामाणिक ग्रंथ रत्न है, और जिससे शरीर विषयक शब्दों के लिए हमको भी काफी सहायता मिली है के रचयिता महा महोपाध्याय कविराज For Private and Personal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री गणनाथ सेन शर्मा, सरस्वती, विद्यासागर, एम० ए०, एल० एम० एस० ने लिखी है। प्रापको प्रस्तावना होते हुए यद्यपि हमको कुछ भी लिखने की अावश्यकता न थी, तो भी पाठकों की विशेष जानकारी के लिए हमें यहाँ कुछ लिखना उचित जान पड़ा । अतः इस कोष में आए हुए विषयों का प्रांशिक परिचय निम्न पंक्तियों के अवलोकन से हो सकेगा। १-इस कोष में रसायन, भौतिक-विज्ञान, जन्तु-शास्त्र तथा वनस्पति-शास्त्र, शरीर-शास्त्र, द्रव्यगुणशास्त्र, पूरच्छेद,शारीर कार्य-विज्ञान,वाइन्द्रिय व्यापार शास्त्र अौषध निर्माण, प्रसूतिशास्त्र, नीरोग, बालरोग, व्यवहारायुर्वेद एवं अगद-तन्त्र,रोग विज्ञान,चिकित्सा तथा विकृति विज्ञान,जीवाणु शास्त्र,शल्य शास्त्र इत्यादि प्रायुर्वेद विषयक प्राय: सभी आवश्यक संस्कृत, हिंदी, अरबी, फारसी, उर्दू तथा हिंदी में प्रचलित अंगरेजी शब्द और प्राणिज,वानस्पतिक, रासायनिक तथा खनिज द्रव्यों के देशी विदेशी एवं स्थानिक व प्रांतीय आदि जगमग सवा सौ भाषा के पर्याय व्युत्पत्ति एवं व्याख्या सहित अकारादि क्रम से आए हैं । क्रमागत प्रत्येक शब्द का उच्चारण रोमन में तथा उसका निश्चित अँगरेजी वा लेटिन पर्याय अंगरेजी लिपि में दिया गया है, जिसमें केवल अंगरेजी भाषा भाषी पाठक भी इससे लाभ उठा सके । पुनः उन शब्द के जितने भी भर्य होते हैं, उनको मम्बरवार साफ साफ्न लिख दिया गया है। और उस शब्द को जिसके सामने उसकी विस्तृत व्याख्या करनी है, बड़े अक्षरों में रस्सा गया है और व्याख्या की जाने वाले शब्द के भीतर उसके समन भाषा के पर्यायों को भी एकत्रित कर दिया २-औषधों के प्राय: सभी भाषा के पर्याय अकारादि क्रममें मय अपने मुख्य नाम एवं अँगरेजी वा लेटिन पर्याय के साथ आए हैं, किन्तु उनका विस्तृत विवेचन मुख्य नाम के सामने हुश्रा है। मुख्य नाम से हमारा अभिप्राय ( औषध के उस नाम से है जिससे प्रायः वह सभी स्थानों में विख्यात है अथवा उसका शास्त्रीय नाम, (२) जिससे उसे पर्वतीय वा अरण्यवासी लोग जानते हैं और (३) वह जिससे किसी स्थान विशेप के मनुप्य परिचित हैं। मुख्य संशात्रों की चुनाव में उत्तरोत्तर नाम प्रधान माने गए हैं अर्थात् शास्त्रीय व व्यापक संजात्रों से पारस्य वा पर्वतीय पुनः स्थानिक संज्ञाएँ अप्रधान मानी गई हैं। यह तो हुई भारतीय श्रौषधों की बात । इसके अतिरिक्त वे पौषध जो एतद्देशीय लोगों को अज्ञात हैं और उनका ज्ञान एवं प्रचार विदेशियों द्वारा हुआ है, उनका तथा विदेशी प्रोपों का वर्णन उन्हीं उन्हीं की प्रधान संज्ञाओं के सामने किया गया है। श्रीपध वर्णन में प्रत्येक मुख्य नाम के सामने सर्व प्रथम उसके प्रायः सभी भाषा के पर्यायों को एकत्रित कर दिया गया है। पर्यायो' के देने में उनके लीक होने का विशेष ध्यान रखा गया है। विस्तृत अध्ययन, अनुशीलन एवं अनुसंधान के पश्चात् ही कोई पर्याय निश्चित किया गया है। इस सम्बन्ध में अत्यन्त खोजपूर्ण एवं संदेह परिहारक टिप्पणियाँ मी दी गई हैं। इतने विस्तृत पर्यायों की सूची भी शायद ही किसी ग्रंथ में उपलब्ध हो। पुनः यदि वह औषध वानस्पतिक वा प्राणिज है तो उसका प्राकृतिक वर्ग दिया गया है। यदि वह औषध ब्रिटिश फार्माकोपीमा वा निघण्टु में ऑफिशल वा नोट श्रॉफिशल है तो उसे लिख दिया गया है एवं उसके रासायनिक होने की दशा में उसका रासायनिक सूत्र दिया गया है। इसके पश्चात् प्रत्येक औषध का उत्पत्ति स्थान वा उद्भवस्थान दिया गया है। फिर संज्ञा-निर्णायक टिप्पणी के अन्तर्गत उसके विभिन्न भाषा के प यो पर आलोचनात्मक विचार प्रगट किए गए एवं संदिग्ध औषधों के निश्चीकरण का काफी प्रयत्न तथा मिथ्या विचारों का खण्डन किया गया है। मुख्य मुख्य संज्ञाश्रो की व्युत्पत्ति दी गई है और तविषयक विलक्षण बातो. एवम् उनके भेदों का स्पष्टीकरण किया गया है। पुनः इतिहास शीर्षक के अन्तर्गत यह व्यक्त किया गया है कि उक्त औपध सब प्रथम कब और कहाँ प्रयोग में लाई गई । इसके अन्तर्गत गधेपणापूर्ण नोट लिखे गए हैं, जिसके द्वारा प्राचीन अर्वाचीन यों के पारस्परिक शेकाओं का निवारण होता है। For Private and Personal Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आयुर्वेदीय-कोपकारद्वय ... .... RE .. बाबू रामजीतसिंहजी वैद्य बाबू दलजोतोसहजा वद्य (गायपुरो, चुनार, यू० पी०) For Private and Personal Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra # 1 ***01 www.kobatirth.org डॉक्टर मुहम्मदशफी (चुनार ) दाँ सब्ज़ दर नज़रे होशियार । हर वर्षे दफ्तरस्त मरने किर्दगार ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( सादी ) सुख्न के तलबगार हैं अमंद, सुख़न से है नाम निकायाँ बलंद | सुमन की करें कद्र मदने कार, सुख़न नाम उनका रखे बरकरार || ( जॉन शेक्सपीयर ) For Private and Personal Use Only | >* 10* 10*** 10 10** == 10% 100 100 10 *<Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ] फिर प्रत्येक औषध का वानस्पतिक व रासायनिक वण न दिया गया है जो हिंदी में एक विल्कुल नवीन विषय है । पुनः रासायनिक -संगठन (विश्लेषण ), प्रयोगांश, परीक्षा, मिश्रण,विलेयता, संयोग-विरुद्ध, शक्ति, व, प्रकृति,प्रतिनिधि, हानिकारक और दर्पघ्न इत्यादि का प्रावश्यकतानुसार यथास्थान वर्णन किया गया है। पुनः विषपत्रिप एवम् स्खनिज की श्रायुर्वेदीय तथा यूनानी मतानुसार शुद्धि एवम् खनिज व धातुओं के भस्मीकरण के परीक्षित एवम् शास्त्रीय नियमों का वर्णन किया गया है। फिर औषध-निर्माण तथा मात्रा दी गई है। औषध-निर्माण में प्रथम अमिनित फिर मिश्रित आयुर्वेदीय, युनानी औषध तथा डॉक्टरी के ऑफिशल योग (जिसमें प्रत्येक औषध को निर्माण-विधि है) दिए हैं। तत्पश्चात् नॉट प्राक्रिशल योग जिसमें उक्र औषध ने बनाई हुई यूरोप अमरीका को लाभप्रद प्रायः पेटेण्ट औषध का उनके संक्षिप्त इतिहास लक्षण एवं गुणधर्म तथा प्रयोग का वर्णन है, दिया गया है। तदनन्तर गुणधर्म तथा प्रयोग शीर्षक के अन्तर्गत आयुर्वेदीय मत से धन्वन्तरीय निवण्टु से लेकर पात्र तक के सभी निघण्टुनो' के गुणधर्म इस प्रकार एकत्रित कर दिर गए हैं। जिसमें विषय प्रावश्यकता से अधिक न होने पाए और साथ ही कोई बात छूटे भी नहीं । फिर चरक से लेकर आज पर्यन्त के आयुर्वेदीय चिकित्सा शास्त्रों में जहाँ जहाँ उक्र औषध का प्रयोग हुआ है, उसको यथा क्रम सप्रमाण एका संकलित कर दिया गया है, पुनः उन पर अपना नव्य लिखकर बाद में यूनानी मत से प्रायः उनके सभी प्रमाणिक ग्रंथों से उक्त श्रौषध विषयक गुणधर्म तथा प्रयोग को सरल हिंदी में अनूदित कर प्रमाण सहित संगृहीत कर दिया गया है। किसी किसी औषध के पञ्चांग के प्रयोग का विशद विवेचन किया गया है। और यदि उसके किसी अंग से किसी धातूपधातु वा रत्नोपरत्न की भस्म प्रस्तुत होती है तो उसके भस्मीकरण की विधि, मात्रा, श्रनुपान, एवं गुणप्र-योग प्रादि भी दिए गए हैं। फिर डॉक्टरी मतानुसार उक्र औषध का विस्तृत श्रावयविक वाह्यान्तर प्रभाव तथा प्रयोग अर्थात् उक औषध का कितनी मात्रा में किस किस शरीरावयव पर क्या क्या प्रभाव होता है, विस्तार के साथ वर्णन किया गया है । यदि उसका अन्तःक्षेप होता है तो उसकी मात्रा एवं उपयोग-विधि का भी उल्लेख किया गया है । औषध के गुणधर्म वर्णन के पश्चात् योग-निर्माण-विधि विषयक एवं किसी किसी और के सम्बन्ध में श्रावश्यक अादेश दिए गए हैं। सैन्द्रियक तथा निरैन्द्रियक विपापविप द्वारा विषाक्रता के लक्षण एवं तत्शामक उपायो' तथा श्रगद का विशद वर्णन किया गया है। अन्त में उक्त प्रौपध के दो चार परीक्षित योग लिख दिए गए हैं। इस प्रकार इसमें आज कल की ज्ञान अज्ञात एवम् स्वानुसंधानित देशी विदेशी लगभग २५०० वनस्पति प्रायः सभी खनिज एवम् रासायनिक तथा चिकित्सा कार्य में आने वाली प्रार: सभी प्राणिवर्ग की औपधे। का विशद वर्णन और लगभग एक सहन औषधियों का संक्षिप्त वर्णन है। इस विचार से यह केवल शब्द- कोप ही नहीं, अपितु एक प्रामाणिक एवं अभूतपूर्व निघण्टु भी है। वर्णन इस प्रकार का है कि इससे श्रायुर्वेद विद्यार्थी. पंडित, हकीम तथा डॉक्टर एवम् सर्व साधारण जनता भली प्रकार लाभान्वित हो सकती है। संप में इसकी रखते हुए फिर अन्य किसी भी निघण्टु की प्रात्रश्यकता ही नहीं रहती। वनस्पतियों के स्वयं लिए हुए छाया चित्र भी तय्यार किए जा रहे है और इसी क्रम से इस ग्रंथ के अंतिम खंड में प्रकाशित किए जाएँगे । जितनी पोषधियों का वर्णन इस ग्रंथ में पाया है, प्रायः उन सभी के छाया चित्र उन खंड में होंगे। इसमें प्राय : औषधि के नामकरण हेतु, उनके पर्यायवाची शब्दों के एकीकरण, उनके ऐतिहासिक अनुसंधान तथा स्वरूप परिचय विषयक मत वैमिनताके निराकरण एवम् सन्दिग्ध औषधों के निश्चीकरणके सम्बन्धमें जो हमने गवेषणात्मक एवं अनुसंधान पूर्ण नोट लिखे हैं, उनके अवलोकन करने से हमारे विस्तृत अध्ययन एवं कठिनश्रम तथा अध्यवसाय का प्रांशिक निदर्शन हो सकेगा । (इतना होते हुए भी किसी विषय में यदि For Private and Personal Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir । छ ] किसी महान भाव का हमारे साथ मत भेद हो तो वे उसे हमें मूचित करने की अवश्य दया करें जिसमें उस पर हम लोग पुनः विचार कर अपना अन्तिम मत स्थिर कर सकें। इस प्रकार गवेषणा-सिद्ध परामर्श एवम् सहयोगिता द्वारा भेषज निणय में एक सर्वमान्य विश्वासनीय निणय सम्पादित हो सकेगा जिससे अायुर्वेद के पुनरुद्धार में काफी सहायता मिलेगी और वैद्यों एवम् आयुर्वेदीय शास्त्रों के पारस्परिक विरोध सर्वथा के लिए मिट जाएँगे । प्रत्येक प्रांत के वेद्य बन्धुश्री से हमारी कर बद्ध सविनय प्रार्थना है कि वे इस विषय में हमारी निष्कपट एवम् द्वेश शून्य भाव से सहायता करें । इसके लिए हम उनके सदैव आभारी रहेंगे । उन विषयो' के नाम से ही इसमें स्थान दिया जाएगा ।) इसके अतिरिक्त इसमें समग्र श्रायुर्वेदीय तथा अत्युपयोगी यूनानी योगों का वर्णन है और ब्रिटिश फामाको पिया (अंग्रेजी सम्मत-योगशाब ), ब्रिटिश फार्माकोपिया के परिशिष्ट भाग तथा एक्स्ट्रा फार्माकापिया को समस्त मिश्रित अमिश्रित औषधां के विस्तृत वर्णन के सिवा इसमें भारत, युर तथा अमरीका के समस्त प्रशस्त एवम् उपयोगी पटेएट प्रोषधों को भी वर्णन है। ३-वायुर्वेद में पाए हुए सभी रोगों का यूनानी तथा एलोपैथिक रोगों से मिलान कर उनकं ठीक अरबी फारसो तथा अंग्रेज़ो प्रभति के पर्याय दिए गए हैं। पुन: इसमें प्रणाली त्रय के अनुसार निदान, पूर्वरूप, रूप, उनका अन्य व्याधियों से तुलना एवं भेद, साध्यामाध्यता, शाम्रीय एवं अनुभून चिकित्सा, मिश्रित व अमिभिंत औषध, पथ्यापथ्य इत्यादि चिकित्सा विषयक सभी ज्ञातव्य अावश्यक बातों का प्रामाणिक विशद वर्णन है। ___इसके अतिरिक्त जिन व्याधियों का वर्णन आयुर्वेद में नहीं है अथवा सूत्र रूप में है, उसका भी सविस्तार वर्णन किया गया है अधोत् प्रावुद में न पार हुर और यूनानो तथा डॉक्टरों ग्रंथों में वर्णित प्रायः सभी श्रावश्यक गंगा का वर्णन पाटका के लाभार्थ कर दिया गया है। अस्तु इसके रहने हुए किसी भी युनानी एव डॉक्टरी चिकित्सा ग्रंथ की आवश्यकता ही नहीं रह जातो और इस विचार से इसे रांग-विज्ञान एवम् चिकि. स्सा शास्त्र कहना यथार्थ होगा । __ इसमें महस्रों प्रायुर्वेदीय युनानी तथा डॉक्टरी के हर विषय के पारिभाषिक शब्द और समान व्याधियो के पारस्परिक भेदों ( लक्षण भेद, अवस्था भेद, स्थान भेद, नामभेद, दीप भेद एलन साय भेद ग्रादि) को भो व्याख्या की गई है। उपयुक्र व्याधि भेद के अतिरिक्त कतिपय रोग के सम्बन्ध में यदि अमुक विद्वानों में मत भेद है नो उसका भी विवेचन किया है। इसी प्रकार जिस उपाधिका परिभापा के सम्बन्ध में प्राचीन, अर्वाचीन चिकित्सकों में मत भेद है उसको भी स्पष्ट कर दिया गया है । अखिल रोगों के प्रायुर्वेदीय, युनानो तथा डाक्टरी संज्ञायों एवम् अायुर्वेद विश्पक शेर अन्य परिभाषाओं और कतिपय प्रणाली प्रय के सिद्धान्तो काक्य स्थापित करना अत्यावश्यक एवं अत्यंत कठिन कार्य है। जो व्यकि चिकित्सा-शास्त्र का अभिज्ञ है, वह इसकी उपयोगिता एवं साथ ही कठिनाइयों का अनुमान करमकता है। हम चिरकाल एवं वर्षोंके कठिन उद्योग एवं अध्यवसाययुक्त अध्ययन व अनुशीलन तथा अनुसंधान के पश्चात् इस कार्य को सुचारु रूप से सम्मादिन करपाए हैं। अस्तु कई सहत्र आयुर्वेदीय, युनानी तथा डॉक्टरी परिभाषायां का परस्सर यथार्थ ऐक्य स्थापित हो गया है। सर्व प्रथम तो विभिन्न व्याधि विषयक संज्ञाओं का ही ऐक्य स्थापन करना दुःसाध्य है। किन्तु हमने प्रत्येक रोग के विभिन्न भेदोषभेद का भी ऐक्य स्थापित कर दिया है। ____४-कतिपय नन्य डॉक्टरी या अमरीकीय औषधि एवं परिभापा के लिए जो नवीन अायुर्वेदीय, अरबी, फारसी तथा उर्दू संज्ञा स्थिर की गई हैं, वे सब फिज़ोला जी (शब्द रचना ) के नियमों पर अबलवित हैं। अस्तु प्रत्येक नवीन संज्ञा की रचना करते हुए मूल संज्ञा का विशेष ध्यान रखा गया है जो समग्र साहित्यिक भाषाओं में प्रचलित है। For Private and Personal Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org [ ज ] जिस प्रकार डॉक्टरी में किसी किसी श्रोषधि-सत्व का नाम उस उस औषधि के मूल नाम के सम्बन्ध से रक्खा गया है, उसी प्रकार आप सबों के आयुर्वेदीय तथा तिच्वी संज्ञा - निर्माण में भी उसी खूबी को ध्यान में रख कर किया गया है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -विरोधी सिद्धान्त - इस ग्रंथ में प्राचीन चिकित्सा शास्त्र अर्थात् आयुर्वेदीय तथा युनानी और अर्वाचीन चिकिया शास्त्र अर्थात् डॉक्टरी के लगभग समग्र विरोधी सिद्धान्तों पर तर्कयुक्त वैज्ञानिक एवं न्यायसंनमन प्रदान किया गया है यह उनको अत्यन्त अनुसन्धानपूर्वक एवं विस्तार से लिखा गया । आशा है इनले वैद्य, हकीम तथा डाक्टरों के पारस्परिक विशेष का बहुतांरा में निराकरण होगा. और परस्पर एक दूसरे को प्रति और शेन भाजन बनेंगे। हमने उन समस्त विरोधी सिद्धान्तों को यथाशक्य अत्यन्त के साथ लिखा है । ६ - इतिहास - इसमें ब्रह्मा एवं धन्वन्तरि भगवान् से लेकर आज पर्यन्त प्रायः सभी प्रमुख आयुर्वेदीय, चीनी, वाचिली, मिश्री, युनानी, अरबो और यूरूपीय चिकित्सकों को खोजपूर्ण जीवनी लिखी है । ७- विभिन्न भाषाओं का कैटेल-भिन्न भिन्न भाषा के शब्दों को नागरी लिपि द्वारा शुद्ध रूप में प्रगट करने के लिए एक बहन कैटलॉग तैयार किया गया था, किन्तु टाइप के अभाव के कारण उसे यथेष्ट रूप में प्रकाशित न किया जा सका । उसका एक छोटा सा अंश जिसमें तीन भाषा के टाइपों का संक्षिप्त परिचय है, "वर्ण-बोधिनी नालिका " नाम से इस पुस्तक के साथ लगाया गया है 1 उपयुक्त संक्षिप्त परिचय मात्र का अवलोकन कर पाठकों को वर्तमान ग्रंथ की विशालता का अनुभव तो अवश्य ही हो गया होगा । अब प्रश्न होता है कि इतने भावों से परिपूर्ण' ऐसे विशद ग्रंथ का “आयुर्वेदीय कोष" जैसा लघु नाम क्यों रक्खा गया ? उत्तर में केवल इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि श्रायुर्वेद शब्द का जो संकुचित अर्थ श्राजकल प्रायः लोग लेते हैं, उतने संकुचित श्रथों में उक्त शब्द का प्रयोग किया जाना हमें अभीष्ट नहीं । हम तो इसे उसी व्यापक अर्थ में प्रयुक्त करना उचित समझते हैं, जिसमें हमारे ऋषिपुरुषों एवं आयुर्वेदिक पंडितों ने श्राज से कई सहस्र वर्ष पूर्व किंवा है । सुमहाराज इसकी निइस प्रकार लिखते हैं:श्रायुरस्मिन् विद्यते अनेन वा आयुर्विन्दतोत्यायुर्वेद इति । अथवा ( सु० सू० १ ० ) श्रायुर्हिता हितं व्याधेः निदानं शमनं तथा । विद्यते यत्र विद्वद्भिः स श्रायुर्वेद उच्यते ॥ অगा हिताहितं सुखं दुःखमायुस्तस्य हिना हितम् । मानञ्च तच्च यत्रोकमायुर्वेदः स उच्यते ॥ च० सू० ॥ आप हो जाएँ कि श्रायु संरक्षणार्थ एवं स्वास्थ्य सम्पादनार्थ कौन सा ऐसा विषय है- फिर वही हो क्यों न हो जिसका समावेश श्रायुर्वेद शब्द के अन्तरगत नहीं होता । थायः संरक्षण एवं प्रकृतस्य सम्पादन के प्रायः सभी व्यापक प्राकृतिक नियमों का समावेश आयुर्वेद के अन्तर्गत हो सकता है। इसी बात को ध्यान में रख कर इसके अंगरेजी नाम ( An Encyclopedi cal Ayurvedic-dictionary ) की कल्पना हुई है । अत्र पाठकों को यह भली प्रकार ज्ञात हो गया होगा कि यह कितना भाव गर्मित शब्द है । यही कारण है कि अनेक अन्य बड़े श्राडम्बरपूर्ण शब्दों के होते हुए भी इसीको क्यों पसन्द किया ? इतनी विशेषताओ के होते हुए भी इस जो हमको स्वयं हो रही है; परंतु वर्जन प्रकाशन सम्बन्ध एवं अन्य बहुत बुद्धियां भी रह गई हैं, स्थिति में उनका निवारण करना हमारी शक्तिसे बाहर था । For Private and Personal Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ 9 ] अस्तु उनके लिए हम सहृदय एवं बिज पाको के क्षमा प्रार्थी हैं और ग्राशा है कि वे हमें उनसे मूचित करने की विशेर दया करेंगे, जिसमें आगामी संस्करण एवं खंड में उन्हें मुवार दिया जाए। ____ अंत में हम पं० विश्वेश्वरदयालु जी वैद्यराज सम्पादक अनुभून योगमाला के सदैव कृतज्ञ हैं और हृदय से धन्यवाद देते हैं जिन्हो ने इस महान् कार्य में हमारे हाथ बटाने में अदम्य उत्साह एवं लोक सेवा का परिचय दिया है। यह प्राव हो ऐसे देश सेवी एवं महत्त्वाकांक्षी वोर पुरुष का काम है, जिन्हो ने लाभालाभ वा सफलता असफलता का अंत मात्र भी विचार न करते हुए निर्भय हाकर अपने को कार्य क्षेत्र में डाल दिया | अतः परम पिता परमाना से हम अापका दोर्थयु एवं सफलता प्रदान करने के लिए हृदय से प्रार्थना करते हैं। इसके पश्चात् हम अपने गुरुवर कविकुल भूगा पूज्य पाद श्री पं० महादेव मिश्र (चुनार ) को हार्दिक धन्यवाद देते हैं जिनके अनुग्रह से ग्रह कोष सफलता प्राप्त कर सका । अपने स्नेही मित्र डॉक्टर मुहम्मद शमी से इस कोप के मंकलन में हमको काफी सहायता मिली है और समय समय पर उचित परामर्श देकर एवं उत्साह बन कर इस महान कार्य के पूर्ण करने में श्रापने जो मेरी सहायता को है उपके लिए हम आपके हृदय से कृतज्ञ हैं। और भी जिन जिन ग्रंथ एवं लेखा' से तथा और भी किसी से किसी प्रकार की हमको कुछमी सहायता मिली हो, उसके लिए हम उन उनके लेखक महोदयों के हृदय से कृतज्ञ हैं। आयुर्वेदीयानुसंधान-भवन रोयपुरी, चुनार ) ( बाबूरामजीतसिंहजी वैद्य, माघ शुक्र वसन्तपञ्चमी सम्बत् १६६० वि० । बाबूदलजीतसिंहजी वैद्य For Private and Personal Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आयुर्वेदीय-कोष के सम्बन्ध में कुछ प्रमुख विद्वानों की सम्मतियाँ । श्रीश्री गौरकृष्ण शरणम् मन्माध्वसम्प्रदायाचार्य दार्शनिकसार्वभौम साहित्य दर्शनाद्या वायं तकरत्न न्यायरत्न गोस्वामि दामोदर शास्त्री, अपाङ्गामेडभाजां सनियमकलितादभ्रवस्तुप्रभाव, प्राद्वाधानेकचेप्टाप्रणितहृदयाभिज्ञ शारीरिकाणाम् । योग्यव्युत्पत्तिचुचुर्गगनशरदल व्योमभूमानजुष्टै, रायु बदीयकोषः :मदमकृत नोऽवार पूर्वस्थशब्दैः । अर्थ-अपने अपने गुणों के साथ बहुत सी ओषधियों के प्रभावों को बतलाने में यथोचित यत्न करनेवाले पण्डित और वैद्यकशास्त्र के अष्टाङ्गों का विशेष परिशोलन करनेवाले वैद्यों की योग्यता को प्रकाशित करने वाले दश हजार ढाई सौ अकारादि शब्दों से युक्त श्रायुर्वेदीय कोष ने हमको हन्धित किया। इह किलटावाप्रान्तस्थबरालोकपुरतः प्रकाशितायुर्वेदीयकोष प्रथमखण्डमकारादिकाशातयक्ष्मान्त सार्द्धशतद्वयाधिक दशसहस्रशब्द ढयमवलोक्य जिशास्चामयाविजनतासन्तोषाग्रह नामतोऽवधाय विनिीय चागदकार चयसध्रीचीनताम परषामप्यलकीणतां विनिश्चिन्वन् प्रसासद्यमान मानसोड द सोधपरिपूर्णतामनन्तगाया जा श्वरमभ्यर्थयमानो घिरमति मुधाविस्तरादिनिशम् । चैत्र शुक्ल तृतीयायां, १६६० वैक्रमादे, काश्याम् । अर्थः --- वर्तमान समय में इटावा जिले के प्रसिद्ध बरालोकपुर से प्रकाशित आयुर्वेदीय कोष के अकारादि अज्ञानयक्ष्मान्त दश हजार ढाई सौ शब्दों से सुशोभित प्रथम खण्ड को देखकर और यह समझ कर कि इससे जिज्ञासु रोगियों को संतोष होगा, वैध समूह को सहायता मिलेगी, एवं औरों के प्रति इसकी उपयोगिता का निश्चय करता हुआ और प्रसन्न मन से जगदीश्वर के निकट उक्त कोष की निर्विघ्न पूर्णता की प्रार्थना करता हुश्रा वृथा विस्तार से विरत होता है। श्री चरकाचार्य काशी हिन्दू विश्वविद्यालयायुर्वेद कालेजाध्यक्ष श्री धर्मदास कविराजः । नूनमिटावाप्रान्तीय बरालोकपुर पत्तनीय श्री विश्वेश्वर दयालु शर्ममुदापितः श्री महलजीतसिंह रामजीतसिंहाभ्याम्विनिर्मित संस्कृताधनेक भाषासमलकृतः कोपश्चिकित्सक जनानाम्परमोपकारकावरीवर्तिमन्येयंसम्प्रतिनिरुपमस्संवृत्त इति प्रमाणयति । पौष शुक्ल १, गुरौ सं० १९६० । For Private and Personal Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ख J व्याकरण साहित्यशास्त्री श्रायुर्वेदाचार्य मित्रगाचार्य भिप शिरोमणि विद्यावारिधि श्री सत्यनारायण शास्त्री महोदयस्य सम्मतिः कौबेर कोषइव सर्व गिरीद्गृतोययंत्रकालीति भिषजामुपकारकोवे ॥ श्री रामजीत दलजीतपदाभिधाम्याम् । सश्वन्मुदा विरचितां ह्युपमा विहीनः ॥ १ ॥ यश्चामरप्रभृति कोषकृनस्समग्रान् । सद्भावजुष्ट मदनादिकृतीन जस्रम् ॥ भासास्वकेन परिभाय्यचत्रा च कास्ति । सोऽयंसदा विजयताद्भवतांसुकोषः ॥ २ ॥ चरालाक पुरस्थेत, विश्वेश्वरदयालुना | मुद्रापितान्वयं कोणो, भिषजामुपकारकः ॥ ३ ॥ इति प्रमाणी कुरुते, सत्यनारायणाभिवः । वाराणस्यामगस्तस्य, पत्तनीयश्चिकित्सकः ॥ ४ ॥ पौष शु० १२ गरौ श्री सं० १६६० । For Private and Personal Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Bhim Chandra Chatterjee, B. A., B. L., B. Sc., M. I. E. E., M. I. E. (India) PATIALA PROFESSOR & Head of the department of Electrical engineering, ENGINEERING COLLEGE, Benares Hindu University. I have gone through some part of Ayurveda-kosba vol. I. by Babu Ramjit Singh ji Vaidya and Babu Daljit Singh ji Vaidya. It seems to be a very laudable undertaking at this opportune inomont. The compilor's must have taken great pains for collecting the matorials, It will be very useful for the hindi speaking public. I wish the com pilois would be more intensive rather than extensive and serve the cause of our country. Dated Benares, the 14th Jan, 1934, Gopinath Kaviray principal GOVERNMENT SAXSKRIT COLLEGE, Benares. I hava glanced through the pages of the so called “Ayurvedic kosha" (Vol. 1. ). Dictiunary of words used in Ayurvedic, Unani and Allopathic systems of medicine, compiled by Vaidyas Ramjita Sinha and Daljita Sinha. From what I have son of the work it has impressed me as a very valuable and useful production of an encyclopædic character and there is no doubt that the Hindi literature, in fact the general merlical litorative of India, has been enriched by this publication. The compilors bave drawn upon original and standard works,80 far as the Ayurvedic section is concerned, and it is hoped that if they keep themselves uptodate in case of the subsequent volumes and bave an eye on accuracy and thoroughness they will be rendering a great service to the cause of medical literature and profession in India. The work involves a tremendous amount of labour and is well worthy of generous patronage from the public. 17 / 1 / 1934 For Private and Personal Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org प्रत्येक वैद्यों के देखने योग्य पुस्तकें | (१) सिद्धपधिप्रकाश - सिर की चोटी से ले- ( १४ ) श्रात्रेय वचनामृत –— इस पुस्तक में पुरुष कर पैर की ऐड़ी तक के सम्पूर्ण रोगों के अनुभव सिद्ध-प्रयोग मू० ३ ॥ ) क्या हैं, वह नित्य है या प्रनित्य, पुनर्जन्म, सद्वृत, सदाचार आदि विषयों को अपूर्व पुस्तक है मू० ॥ ) । ( (२) मधुमेह डायावटीज़-मधुमेह रोग पर सम्पूर्ण विवेचन तथा चिकित्सा वर्णित है । मू० || ) (३) स्त्रीरोगचिकित्सा - श्री सम्बंधी सम्पूर्ण रोगों का खुलाशा निदान तथा चिकित्सा | मू० || ) (४) प्लीहा - प्लीहा नाश जरने को अचूक एवं सुगम उपाय लिखे गये हैं । मू० ॥ ) १५ ) पेटेन्ट श्रौषधे और भारतवर्ष - प्रथम भाग - इसमें पेटेन्ट बाजों की दवाइयों के नुस्खों की पोल खोली गई है । मू० ॥ ) ( १३ ) पेटेन्ट औषधे और भारतवर्ष (द्वितीय (५) राजयक्ष्मा --- ग्वालियर वैद्य सम्मेलन द्वारा पास संपादक अनुभूत योगभाला द्वारा लिखित अपने ढंग की अनोखी पुस्तक है । मु० 1) (६) दमा (श्वास) - दमा दम से जाने वाली कहावत को इस पुस्तक ने जड़ से नष्ट कर दिया है । मू० 1) ( ७ ) अर्श (बवासीर) सब प्रकार की बवासीर और मस्से दूर करने उपाय लिखे हैं ! यू० ॥ ) (E) हरिधारितग्रंथरल - समस्त रोगों के सुलभ योग भाषा टीका सहित हैं । मू० | =) ( ९ ) वैद्यक शब्द कोष --- श्रकारादि क्रम से संस्कृत दवाइयों के नाम सरल हिंदी भाषा में वर्णित हैं । म्० ।) (१०) ब्रणोपचार पद्धति -- समस्त शरीर के एवं घाव, दाद, खाज, श्रादि २ पर सुन्दर २ श्र चूक प्रयोग | मू० =) ( ११ ) सिद्धप्रयोग प्रथम भाग - 'माला' द्वाराजो गत चार वर्षों से प्रयोग सिद्ध ज्ञात हुए हैं, उन्हीं की श्लोक वृद्ध भाषा टीका है । मु० १ ) (१२) सिद्धप्रयोग ( द्वितीय भाग ) - इसमें 'माला' ११२७ ई० के परीक्षा किए गए योगों का घणन श्लोक वध भाषा टीका में लिखे गए हैं। मू०॥ ) (१३) यकृत और प्लीहा के रोग - हर एक मतानु सार निदान तथा प्रद्यः फलप्रद चिकित्सा वर्णित है । मू०|) भत्र Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाग ) - इसमें प्रथम भाग की शेष तथा अन्य स पेटेन्ट दवाइयों के योग वर्णित हैं । मू० १) । ( १७ ) भारतीय रसायन शास्त्र - सोना चांदी बनाने की सरल विधियां वर्णित हैं । सू० ॥ ) । (१८) यंत्र वृद्धि - प्राचीन तथा अर्वाचीन स्वानुभूत योग हैं। मू० ।। (१६) स्नान चिकित्सा - समस्त स्नानों द्वारा चिकित्सायें वर्णित हैं। मू० ) 1 ( २० ) विन्ध्य माहात्म्य - विन्ध्यवासिनी देवी का सम्पूर्ण इतिहास | भू० १ ॥ ) ! (२१) चिकित्सक व्यवहार विज्ञान - विषय नाम से ही प्रगट है । मू० ।) । (२२) श्रीषधि विज्ञान - श्रायुर्वेद विद्यार्थियों पुत्र नवीन वैद्यों की उत्तम पुस्तक | मू० १) ( २३ ) औषधि गुण धर्म विवेचन ( प्रथम (भाग ) -- पुस्तक का विषय नाम से हो स्पष्ट है मू० 1 = ) | ( २३ ) औषधि गुण धर्म विवेचन ( द्वितीय भाग - ०1=)। (२५) दीर्घ जीवन --गृहस्थियों के काम की अ नोखी पुस्तक है । मू० ॥ ) मात्र । (२६) सर्प विष विज्ञान - समस्त सर्पों की पहि चान एव' चिकित्सा है। मू० १) | (२७) कोकसार – ८४ श्रासनों सहित है, इसकी शानी का अन्य कोई कोकसार नहीं निकला | सू० ॥ ) मात्र मिलने का पता - दी अनुभूत योगमाला आफिस, बरालोकपुर-इटावा (यू०पी०) For Private and Personal Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वर्ण क्रम इस कोष में समस्त भाषा के शब्द देवनागरी भाषा की ध्वनि को हिन्दी वणों द्वारा प्रकट करने वर्णमाला के क्रमानुसार रखे गए हैं। अरबी, में कोई अड़चन उपस्थित नहीं होती | अन्य फारसी आदि अन्य भाषाओं के एक ही वर्ण के भाषा में जो विशेष ध्वनियाँ पाई हैं वे या तो समानोच्चारण वाले कई कई वर्ण यथा हिन्दी के एक ही ध्वनि के भेदोपभेद मात्र हैं अथवा वे केवल एक ""के स्थान में प्रारसी के जीम तनी आवश्यक नहीं और उनका समावेश जाल, जे, ज, जाद, और जो प्रभृति अनेक मूल ध्वनि में हो सकता है। अतः देवनागरी "ज" के लिए क्रम में कोई भेद स्थिर नहीं किया वर्णक्रम में कोई परिवर्तन करना हमें उचित न गया है। वरन् "ज" मान कर ही उन्हें हिन्दी जान पड़ा : हाँ ! जो एक एक वर्ण के स्थान में वर्णक्रम में स्थान दिया गया है। शेष अन्य कई कई वर्ण पाए हैं उन्हें अथवा उनके किसी समस्त बों के लिए भी इसी भांति समझ लेना विशेष उच्चारण को स्पष्ट करने के लिए कुछ चाहिए। चूँ कि देवनागरी वर्णमाला अन्य किसी चिह्न मान लिए गए हैं । जिसके लिए वर्ण (लिपि भी भाषा की वर्णमाला की अपेक्षा अधिक पूर्ण तथा उच्चारण ) निर्णायक सूची का अवलोकन एवं स्वाभाविक है और उसमें इतनी पर्याप्त करिए । वर्णक्रम निम्न है :ध्वनियों का समावेश है, कि अन्य किसी भी ____आ । ई ल ल ए ऐ उ ओ घ ऊ औ ङ ऋ अं च ऋ अः छ क ख ग ज झ ञः 44 hrE प स ह क्ष त्र १ For Private and Personal Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संकेत सूची .wamsusumm ० अध्याय . अभि० निघ० अभिनत्र निघण्टु अ० अरबी भाषा (भाग १ व २) श्रक० श्रा० अक्सीर आज़म . श्रम अमरकोप अक. कुछ अक्सीरी कुश्ताजान अमृ० सा० अमृतसागर अगु० तेल अगादि तेल अहण०, अरु द. अरुणदत्त अग्निमां० अग्निमांद्य अक०, (रावण) अर्क प्रकाश (रावणकृत) अ० च०, अरो0 अरोचक प्रक० चि० अर्क प्रकाश चिकित्सा अ० ची अपची अर्कादि० अर्कादिवर्ग अज० अजमेर अर्द्धमा० अर्द्धमागधी अजी० अजीर्ण शार्दा भे० (अ ) ‘अविभेद अ० टी० नी० अमरटीका नीलकंठ अल. अलसक अ० टी. भ. अमरटीका भरत अल्पा० अल्पार्थक प्रयोग प्र०टी०भा० अमरटीका भानुदत्त ! अल्फ़० अ० अल्फाजल अद्वियह. अ० टी० म० श्रमरटीका मधुरेश : अ० वृ० अन्त्रवृद्धि भाटी०र० श्रमरटीका रमानाथ : प्रच० . अवध प्र० टोकरा० अमरटीका रायमुकुट । अध्य० अव्यय अ० टी० रामा० अमरटीका रामाश्रम अ०२० अष्टांग शरीरम् प्र० दी० सा. अमरीका सारसुन्दरी अश्म० (-री) अश्मरी अ० टो• सुभूति स्वा० " सुभूति स्वामी । अष्टां० सं० अष्टांग संग्रह अ० टी० स्वा० (-मी) " तीर स्वामी : अ० हु. अष्टांग हृदय अण्ड० अण्डमान - श्र० (-अति,-ती) सा० अतीसार ঋথ, স্মথ अथर्ववेद ( अथर्वण) अत्रि० अनि संहिता प्रदर श्रसग्दर श्रा. श्रारबीय अनु० अनुकरण शब्द प्राप्ते० सं० इं० डि० प्राप्ने संस्कृत इंगलिश अनु. (-पा०) अनुपान डिक्शनरी अन अनेकार्थनाम माला आ० प्र० आयुर्वेद प्रकाश अनं० च० अनेकार्थ वर्ग . श्राम वा०, श्रा० वा. श्रामवात अनं०र० अनंग रस श्रामा-तासा श्रामातीसार अन्द. अन्दलुसी (Spanish) श्रा० ब०, पाम्र०व० श्राम्रवर्ग अन्नद्र० (व०) श. असत्रशूल धारो० वि० श्राज्ञिविधान अप० अपभ्रंश · श्रा०वि० आयुर्वेद विज्ञान अप० (-स्मा०) अपस्मार : श्रासा अासामी अपि० अम्लपित्त । श्रा० सू० प्रापस्तम्भ सूत्र अफ. अफ़ग़ानी ई० (-न्दिय) इन्द्रिय स्थान अभि० (-क्या०) ज्व. अभिन्यास ज्वर : इ. इंग्लिश (प्रांग्ल, अंग्रेज़ी) For Private and Personal Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ख ] इ० हि० इमरारुल इतिच्या एस० (वि०) मे० मे० पन्मलीज़ (सर हिला) इशित वा० इख्तियारान बाधीन मेटारिया मोडेका इट इटेली ( रूमी ) भाषा एलादि० एलादिवर्ग इय० इबरानाभापा : प्रा० रो० अोष्ट रांग इला०प्र० इलाजुल्मराज . औ० सं० औषधि संग्रह (डॉ० वामनगणेश इसरार हिकमन देशाई कृत महरटी ग्रंथ) दं० इ०ई० इण्डिजनम इम्स अफ इण्डिया · औ० वि० औषधि विज्ञान (डॉ. गर्ग कृत) (आर. एन. चापरा एम०, ०; एम. डी. कृन) : अंक अँगरेज़ी भाषा इं० वर्ना इशिडयन बर्नाक्युलर क० कर्णाट, कर्णाटक ई० याजा. (भा० बा०) इण्डियन बाजार कन्छ। कच्छी (भारतीय बाजार) कछ. कछार ई० व्यापा० शा.) इंद्रियव्यापार शास्त्र | कटिया. कटिवान इं० व्या० (सम्बन्धी) कण्ठ० मु० रो० कराटगत मुख रोग ई० मे० प्लां० इण्डियन मेडिसिनल प्लांट्स | कना. कनाड़ी ( कर्नल बी० डी० बमु० कृत् ) कमा० (कु--) क(कु)मायूँ इं० मे० मे० इण्डियन मेटीरिया मेडिका ! कर० करनाटकी (डॉ० के० एम० नदकारणी कृत् ) करा० का० करावादीन कादरी इं० है. गा० इण्डियन हैंडबुक ऑफ गार्डेनिङ्ग करा०शि० करावादीन शिफ़ाई उत्तरखंड, उत्तरतन्त्रम्, उदरम् करा० सि. कराबादीन सिकन्दरी उड़ि. उड़िया | कर्ण० रो. कर्ण रोग उराणा. उणादि । कल्प० कल्पस्थान उत्. उत्कल क०व० कपुर वर्ग उ.दं. उपदेश कां० काण्ड उदयपुर ! काङ्काय. गु० काङ्कायन गुटी उद० चन्द०= उदयचन्द्र दत्त मेटीरिया मेडिका | काठिया० काठियावाड़ उदा०, उ०प० उदावत का. पुराण कालिका पुराण उदाह उदाहरण काम कामला उन्मा० उन्माद का०र० काम रत्नम् उप० उपसर्ग काश काशमीरी उ०प० भा० ( स०) उत्तरी पश्चिमी भारत | काश० रु. को. काशरुमूज़ कीमिया (सूबा) (N. W. 1P.) : का. स. कामसूत्र ( वात्सायन) उभ० उभयलिंग : किता. की किताबुल कीमिया उ० वर्मा उत्तरी वर्मा : को. कोंकड़ उर० (उ.) उ, क्रि० क्रिया उ० रस०व० उपरसवर्ग कि० प्र० क्रिया अकर्मक उरुस्तम्भ : क्रि० प्र० क्रिया प्रयोग ए०व० एक वचन ! क्रि० वि० क्रिया विशेषण एकार्थ एकार्थवर्ग | क्रि० स० क्रिया सकर्मक ए० को एकाक्षर कोषको जीव ( नपुसक) लिङ्ग उ. स्तं.. For Private and Personal Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कौ० श्र. को भृ. चिट • चूर्ण ग० [ ग 1 कु. (कुम्भ०) का० कुम्भ कामला चम्द० ते० चन्दनादि तेल कु० टो०, कुसामा० कुसुमावली टीका च० वि० चरक विमान स्थान कु. नफी० कुल्लियात नतीसी च० सं० चरक संहिता कुमा०तं. कुमारतन्त्र । चातु० ज्व० चातुर्थक वर कुश्ता . र. कुश्ताजात रहीमी चाँ चाँदा कुग० (कु०) कुर्ग चि० चिकित्सा स्थान कुश्ता. फो. कुश्ताजात फ़ीरोज़ी चि० ० चिकित्सा कलिका कौटिल्य अर्थशास्त्र | चि० क्र. क. (-वल्ली) चिकित्सा क्रम कौमार भृत्य करूपवली कोंकण देश की भाषा ( कोंकड़ी) चिटगाँव क. क्वचित् अर्थात् इसका प्रयोग बहुत कम चि० सा० चिकित्सासारः देखने में प्राता है। चो० चीनी ख० खसिया चू० बला० न. व लामतुन्नप्राइस छे० शा० छेदनशास्त्र खं० खंड छो० छोटा ग० गं० गलगंड छो० ना० छोटा नागपुर गण जखो स्वा० जखीरहे खारिज्मशाही गढ़ गढ़वाल जटाधर जटा० गज वैद्यक जन्तु० शा० जन्तु शास्त्र ग.नि. गद निग्रह जय.द. जयदत्त ग० मा. गरड माला जरमनी जर० गा. जय० जयपुर गारो जा. जापा गियामुल्लुगात (हिन्दुस्तानी फारमी अरबी लोगत) जापा० जापान जावा. जावा देश की भाषा गुरी (-ही) गुदभ्रं. जंगली गुदभ्रंश गुर्ज०, गु० ( गुज०) ज्योतिष गुर्जरी, गुजराती ज्यो० गु०व० ज्व० गुडूच्यादि वर्ग गो० गोमा ज्वगति ज्वरातिसार गोंड़. गोंडल, गोंडाली मेलम गंगा परि. गंगाधर परिभाषा |ट्रो ई० ट्रांस इस ग्र० दो टीका डत्वण ग्रह ग्रहणी ग्रो० (यु.) ग्रीक (युनानी) डल्ल० डन्सन मिश्र घो मे० मे० घोपेज मेटीरिया मेडिका | डि. मे० एडिक्शनरी ऑफ मेडिसिन रिचार्ड वैन অনন্ত एम०डी०एफ० श्रार० एस० कृत । चक्र० (च)द. चक्रदत्त (चिकित्सा), हिंगल भाषा चक्रपाणि दत्त द्रव्य गुण डेकन चद० (सं०) चक्रपाणिदत्त कृत संग्रह . डॉक्टर इ. री गज० वै० गि लु जं० ग्रह ड. च० For Private and Personal Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir त० न. तश० क० ता० (नामि०) तालु० मु० रा. ता० श. ति.० ति.की. तिब्ब० ति० फा. निर० तुर. तेल( ल.) नो तो. तोड़. तो मो त्रि त्रिका দিঘ था०डि० द. द० ब० द० भा० दन्त रो. द० मु० रो० द०व० तर्जुमा नझीसी | द्रावि० द्राविणी ने सनी इल्मुल अल्विय | द्वि० (-रूप०) द्विरूपकोष तरीह कबीर | ५० धन्वन्तरि तामिल धनिया धन्वन्तरि निघण्टु तालुगतमुखरोग : धर० धरणिः नालीक शरीफो । घा० (-न्य )व० धान्यवर्ग तिब्वे अकबरी धा०वि०प्र० धानुविद्या प्रकाश तिब्बे कीमियाई ध्व० सं० ध्वजभंग तिब्धत न० ज० नरपतिजयचर्या तिब्बी फार्माकोपिया नाना० नानार्थ (१५२भा०) ना०त्रक नाडीव्रण तिरहुत ना० मु० नासिरुल मुलालजीन __ तुलना रो० नासारांग तुरकी भाषा ना० वि० नाड़ी विज्ञान तृष्णा ना० सं० नावनोतक संहिता तेलङ्ग, तेलगु निक निदान स्थान तैल निदा० निदान ग्रई ताला : नि० २० निघण्टु रत्नाकरः तोला ( तोलक) ने०१० रो० नेत्र दृष्टिगत रोग तोड़रानन्द | ने. रा० नेत्ररोग तोहफ़तुल मोमीन ! ने० व रो० नेत्र वत्मंगत रोग विलिंग ने शु० रोक नेत्र शुक्रगत रोग त्रिकाण्ड शेप ने० सन्धि० रो० नेत्र संधिगत रोग त्रिशती थाना डिस्ट्रिक्ट नेपा० न्याय वैद्यक न्या० ० दखिनी दखिनी बर्मा पजाब (बी) भाषा, ( गुरुमुखी) पल; परिच्छेद दाखिन भारत पटना दन्तरोग पट. पर्याय-निर्णायक नोट दन्तगत मुखरोग | प०नि० ना० दधिवर्ग ५०प० पथ्यापथ्य परिभाषा प्रदीप परमद दाक्षिणात्य हिन्दी प० म० दग्धवर्ग पर्या पर्याय दुर्गादासकर अङ्गला भेटी- पहा. पहाड़ी रिया मेडिका पम्तुः, पश्तु श्रमशानी भापा पाली भाषा देशज पा० अजी० বানালী व्याभिधान पा. व पाकावली नेपाल दश० दशक | प० प्र० दा० हिं० दु. १० दुर्गा० मे० मे० देखो । पा. देश. द्रव्याभिः For Private and Personal Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पि० ज्य पित्तज्वर ० क. बच्या कल्पद्रुम पि० व० पिम्पल्यादिवर्ग । चं, बङ्का बंगलाभापा था बंगाल (-ली) पी०व० एम० प्रैक्टिशनर्स वेडमीकम् । वु. खं० बुदेलखंड की बोली पुल्लिंग . ७० मु० बुस्तानुल मुफ़र्दान् गुर्तगालीभापा : बु० का बुहानेकालो पुष्प वर्ग वृ.स. हत्संहिता (वराह मिहिर माहिता) पुरानी हिन्दी ' ० यो त गृहयोग तरंगिणी पूर्व खंड, पूर्व भाग . वेग०, बे० बेरार,येलू ची पूर्वीय भारत बांखा० बोखारा पूर्वीय तराई बुन्देल० बुदेलखंड पूर्वी हिन्दी ब्रिटि० फा० (बी० पी०) ब्रिटिश फार्माकोपिया पोरबन्दर व्या० क. व्याज़ कबीर ( १, २, ३ भाग) प्रत्येक, प्रयोग, प्रसारणीभग भगन्दर प्रत्या प्रत्यय भ० द्विरूप-को. भरतद्विरूप कांप प्रमे० (हः) प्रमेह , रसस० भरनत रभस प्रयोगरत्न प्रयोगरत्नाकर भल्ला० मुड़ भल्लानक गुड़ प्रयोगा० प्रयोगामृत भा० भाग, भारत, भावप्रकाश प्र० शा० प्रत्यक्ष शारीरम( म०म० भा० भावप्रकाश पूर्व भाग क० गणनाथसेन विरचित् ) भा० भावप्रकाश प्रसतं. प्रसूति तंत्र | भा० भै० भारत भैषज्य रत्नाकर प्रसू० शा. प्रमूति शास्त्र | भा० म० भाचप्रकाश मध्यमाग मह. प्रहर | सा० र. शा० भारतीय रसायन शास्त्र प्रा० प्राकत भापा (डॉ. वामन गणेश देशाईकृत महरठी ग्रंथ ) प्लेन भू० उन्माद० भूतोन्माद फ० व० फलवर्ग भूटा भूटानी फा० फारसी भाषा भूरि० प्र० भूरिप्रयोग फा० इ० फार्माकोग्राफिया इंडिका ( डॉ० । भे० सं० भेल संहिता वि० डाइमेंाक विरचित् ) १, २, ३, भा० भेष. (भै०र०) भैषज्य रत्नावली फा:० फाज़ हिंदी अँगरेजी कोप भौ० वि० भौतिक विज्ञान ( सम्बन्धी) फिरंगी म०, मह. महाराष्ट्र, मोडी, (महरी) ० (फ्रां० या फ.) मञ्च(फरासीसी म. श्र० मरनुलअद्वियह भाषा) (हकीम मीरमुहम्मद हुसेन विरचित) ब० (बहु) 0 बहुवचन | म० अक. मरजानुल अक्सीर २०, ३० (बर०) बरमा (बरमी) भाषा म. अ० डॉ० मरजानुल अदविया डॉक्टरी बम्ब० मध्य खण्ड बरब० मरजानुल जवाहर या तिच्यी व घ. ज. बह रूल जवाहिर ( अरबी वैद्यक कोष) डॉक्टरी लुगात बं० से० सं० बंगसेन तंहिता मद० मदरास बम्बई । म० खं. बरबरी | म० ज० For Private and Personal Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir । च ] मह रत्रिका मालाबार । २० खं० मदनानि मदनपाल निघण्टु शरीफ कृत) मधु० मधुमती टीका मेदिनी मधुमे० (म० मे०) मधुमेह । मेमो० मेमारैण्डम शोइंग मनी मनीपूर प्राइसेज एण्ड अदर पार्टीक्युलर्स म० प्र० मध्यप्रदेश ऑफ इण्डियन ऐकोनॉमिक्स । म० मु० मरज नुल मुफ़र्दात मेवा० मेवाड़ मय० मयसूर यम यमनी (पू.) मग मराठी यु०, यू० यूनानी भाषा मल० मलयाली | योग० र०, या० योग रत्नाकर मला० (मलायम भापा) मलायीज ग्रा०चि० योगचिन्तामणि मसू० मसूरिका यो० तरं० योगतरंगिणी महराठी | या०र० गोगरत्नाकर महा० बा० महाबालेश्वर | यो यौगिक तथा दो वा अधिक शब्दों के पद मा० मापा यां० (नि.) व्या० रो० योनि व्यापत् मा० अक० मादनुल अक्सीर मा०नि० माधव निदान | २०भा० रमार्णवः मान० श०र० मानव शरीर रहस्य (१ व २ भाग) रक्ताति रक्रातिसार माला रसायन खण्डम् मिश्री भाषा र० चं० रस चण्डांशुः मि० ख० मिफ्ताहुल खजाइन दर अयान र०चि रसेन्द्र चिन्तामणिः (ढण्ढकनाथ विरचितः) अक्सीर व रसायन (हकीम करीमबरुशकृत) र० त० रसतरंगिणी मिश्र० मिश्रकाध्याय रत्ना० रत्नावलो मुग० मुगली र० पि. रतपित्त मुर। र० प्र० ० रसप्रकाश सुधाकरः मु० ० मुहीत अअजम । २० मं०, रस० मं. रसमञ्जरी मु० रो० | र०मा० रत्नमाला मुझे० मुङ्गर । २० मा० सं० (-ग्रह ) रत्नमाला संग्रह मुनाफा० क. मुनाफा कबीर । र०र० रसरत्नाकरः मुन्त० अ० मुन्तरवुल अवियह । र. (स.)र० स० रसरत्न समुच्चय मुन्त० ला मुन्तर बुल लोगात । र० (ग्सा०) शा० रसायनशास्त्र (Chemistry) मुफ़.. ति० मुरुदात् दर झालम तिच्य। रस० को रसकौमुदी मुफ० मो० मुफत् मामीन रस०प्र० रसग्रदीप मुफ० सिकं० मुर्दात् सिकन्दरी रस. रत्न रसरत्नाकर मुहा० मुहाविरे रस.चि. रसचिन्तामणिः म० कृ० मूत्रकृच्छ, २० सा० रसायनसारः Ho fo मूत्राघात : रसायना० रसायनाधिकार म०र० मूत्ररक । २० सा० सं० रसेन्द्रसार सग्रह रसराजसुन्दरः मारिया मेडिका (डा मोहीदीन, रसेचिन्ता० रसेन्द्र चिन्तामणि मुखरोग मेची : र० स० For Private and Personal Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir राजतरंगिणी वि. ज्वर० विधि रूसी विस० रूखी र० यो० सा० रसयोगसागर ( श्रीहरिप्रपन्नजीकृत) : वा०पि० ज्व० वात पित्त ज्वर रसें नि०,रसेन्द्र चि. रसेन्द्रचिन्तामणि वा०र० ( रक्त) वातरक २० सं० रसेन्द्रसार संग्रह (गोपालकृष्णाविरचितः) । वा० व्या० बातम्याधि र० सं० क. रससंकेत कलिका - वि० विशेष (विशेषण) र० सा० रससार: वि०वि० विकृतिविज्ञान (व्याधिमूल-विज्ञान) रसहृदयतन्त्रम् ! वि०, विमा० विमान स्थान रा० रावी वि०, विश्व० विश्व प्रकाश कोष राज राजवल्लभ विज० र०, बिर० राजए. विजय रक्षित राजपुताना राज० य० राजयक्ष्मा (व्याख्या मधुकोष) विषमज्वर ২০ নং गनिय० राज निघण्टु : विदग्धाजी० विदग्धाजीण रा० मा० राजमार्तण्डः (श्रीभोजमहाराज विरचितः) । विद्र० रिचार्ड० रिचार्डसन्स फ़ारसी अरबी अंग्रेज़ी कोय ! विल. विलम्बिका रिसा०र० इ० रिसाला रफ़ीकुल इतिव्या विल. डा० (डॉ) विलियम डाइमाक (डीमक) रिला० हि० रिसाला हिकमत त्रिप० तं० विष तन्त्र रुपू०३० रुमू जुल इतिघ्या . विज्ञा०प्र० विज्ञान प्रवेशिका विसूचिका रूसी० वृ० चि० वृद्धि चिकित्सा वृ० म० वृन्दमाधवः (वृन्दनिर्मितः ) लिण्ड लिण्डलेज (डॉ. एफ) 'धेजिटिवल वृ०र० रा० सु. वृहत् रसराज सुन्दर किडम्' लु० कि० लुगात किशोरी (फारसी कोष) वृह. सु० बृहस्सुश्रुतम् लुगातुल अद्वियह वृ०नि०र० लु० अ० वृहनिघण्टु रत्नाकर '७-८ भाग' लुगाते कबीर वै० क. लु० क० वैद्यकल्पद्रुमः ( रघुनाथप्रसाद ले०, लेटिक लेटिन ( Latin ) भाषा संगृहीतः) वै० चन्द्रिका लेद० वैद्यक चन्द्रिका लेदक लेप० लेपचा वै. जी. वैद्यजोवनम् (लोलिम्बराज संगृहीतम् ) व० वर्ग वै निघ० वैद्यक निघण्ट वटा० ३० वटादि वर्ग (मोरेश्वर विरचितम् ) चन० द. वनौषधि दर्पण ( राजवैद्य श्री विरजा- वै. र. वैद्यरहस्यम् (विद्यापति स गृहीतम् ) चरण गुप्त काव्यतीर्थ कविभूषण कृत वैविक वैद्यविनोद बंगला पुस्तक ।) वै० श. वैद्यक-शब्द सिन्धु बम, बम्ब बम्बई वर्मा वर्भाक्युलर वै० सं० वैद्यक संग्रह व०वि० वनस्पति-विज्ञान (Botany) व्यव० श्रा व्यवहार श्रायुर्वेद वा बाग्भट्ट व्या० व्याकरण याजी० क० बाजीकरण | व० से. बंगसेनः (वंगसेन संगृहीतः) वा. ज्व० वातज्वर अव्यय For Private and Personal Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ज] ज्याक० व्याकरण | सन्या0 ज्व0 चिo सन्यास ज्वर चिकित्सा व [प] शो० व्रण शोधन | सं० प्र० सयुक्त प्रांत शराव | सर्व० मु० रो० सर्वगत मुखरोग ॥ श प्रद्धशराव सर्व० सर्वनाम ৪০ ০ शब्द चन्द्रिका सा० साधारण, सान्निपातिक श० चि० शब्द चिन्तामणि सा० को० सारकौमुदी शब्द कल्प शब्द कल्पद्रुम | सा0 सु० सार सुन्दरी श० मा. शब्दमाला सि० सिलोन (लंका) श०र० शब्द रत्नावली | सिक्कि० सिक्किम श० शा. शल्य शास्त्रीय सिउ० सिउनी श० प्र० शरह, असबाब | सि० भे० म० सिद्धभेषज मणिमाला शत० वि० शरीरतत्व-विज्ञान (श्रीकृष्णाराम गुम्फिता) शा० शारीर स्थान सिम सिमला शा०प० (शा ) शार्ङ्गधर | सिलह० सिलहट शा०नि० भू० शालिग्राम निघण्टु भूषण सि0 या० सिद्धयोग शा०व० शाकवर्ग सिं० सिंध शा० शारीर अण सिंगा० सिंगाली शा०सं० शाङ्गधर संहिता | सिं० भू० सिंह भमि (शाधर विरचिता) सिरि० सिरिया ( शामी) शिक रोग शिरोरोग | सि0 स्था० सिद्धिस्थान शिरो० वि० शिरोविरेचनम् । सु० ब० सुन्दरबन शोपि० शीतपित्त सु० शु. सु० टी० ड० सुश्रुत टीकr डल्वण श. दो० शूकदोष सु० नि0 सुश्रुत निदान स्थान | सु० मि० सुश्रुत मिश्रकाध्याय श्ली० श्लीपद सुर० सुरयानी (सीरिया या शामी) श्लो श्लोक सु०सं० सुश्रुत संहिता ( महर्शि सुश्रुत सकर्मक विरचिता) सत. सतलज सू० सूत्रस्थान स. फा० ० सप्लिमेण्ट टु दो फार्माकोपिया ! सूति० सूतिका अॉफ इंडिया (डॉ. मोहीदीन । सुय्यसि सूख्यंसिद्धांत शरीफ कृत) स्त० स्तबक स०व० सद्यो व्रण स्त्रि० स्त्रियों द्वारा प्रयुक्र सं० संस्कृत स्त्री० स्त्री लिंग संग्र० स्थान सं० ग्रहणी संग्रह ग्रहणी ! स्पे स्पेनी भापा संता० संताल | स्व० भे (द) स्वरभेद संयो० क्रि० (संयोजक अव्यय,)संयोज्य क्रिया ! ह० हज़ारा स०( सन्निपा०) सन्निपात ! हजा० शुद्ध शेष संग्रह : स्था० For Private and Personal Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ 9 ] हला० हली० हा व. ह० श. र० . हलायुध हिं० श0 साल • हलीमक । हि० श्वा) हरीतकी वर्ग . हरीत निघo हमारे शरीर की रचना , २ भाग (डॉ० त्रिलोकीनाथ बर्मा कृत) हु० का हारीत . हृदो हा० अत्रि. हारा० हासं) हिमां० हिं० हिं बा० हारीतात्तरे अत्रि . हे च० हारावलि (वली) हेमा हारीत संहिता हि मे मे हिमालय हिन्दी भाषा , क्षारा) हिन्द्र बाजार | wil. हिन्दी-शब्दसागर हिक्का श्वास हरीतक्यादि निघंटु हुम्मियात कानून हृद्रोग हेमचन्द्र हेमाद्रिः(नस्कृत टीका) सर विलियम् हिटला मेटीरिया मेडिका क्षारपाणि 11. I wilson नोट- - ज्ञात हो कि इस काम के लिखने में जिन ग्रन्थों से सहायता ली गई है उन सब का समावेश उपयु. सूची में नहीं हो पाया है। For Private and Personal Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org explanation of the Initials and Names Attached to the Botanical names and Synonymes. ACH. OF ACHAR.-E. Acharius, author of Lichenographia Universalis. ADANS.-M. Adanson, author of Histoire naturella du senegal, etc. ALT. OF AITON.-W., anthor of Hortus Kewensis, &c. BALFOUR-Dr. J. 11., author of the Class Book of Botany, &c. BENTH.-M. Bentham, author of Labis torum genera et species, and Schorophularines Indica, &c. BERK.-Berkeley, a Botanist or Naturalist. BL. OF BLUM.-C. L. Blume, author of Flora Javanensis, Etc. BR. Or R. BR.-R. Brown, author of many Botanical works. BURM.-N. L. Burmann, auth or of a Flora Indica. CAV.-A. J. Cavanilles, author of Icones (t descriptiones plantarum. Etc. CHOIS. OF CHOISY-A. D. Choisy, a Swiss Botanist who elabo rated several of the Natural Orders for De Candolle's Prodromus COLEBR.-H.T. Colebrooke, author of several Memoirs in the Linnean Society's Transactions, Etc. COLLADON-Author of Ilistoire des Cassia. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir CORR.-J. Correa de serra, author of some botanical papers. DALZ.-N.A, Dalzel, one of the authors of Bombay Flora. D. C.-A. P. De Candolle, author of numerous botanical works. DEC.-De Candolle, Fil. (Son of De Candolle ). DELILE.-A. R., author of Flora de Agyptiacon Illustratis, Etc. DESV.-N. A. Desvanx, author of some botanical papers and edi. tor of the Journal de Botanique' DON.-D., author of the Prodromus Flore Nepalensis, Etc. DUCH.-A. P. Duchesne, author of Histoire Naturelle des Fraisiers, Etc. DUNAL-M. F., author of Monographie de la famille des anona cees, Etc. ENDL.-S. Endlicher, author of Genera plantarum secundum ordines naturales dispositar, Etc. FABR.-P. C. Fabricus, author of Enumeratio Methodica Plantarum Horti Medici Helmstadiensis, &c. FALC, or FALCONER.-Dr. H., author of some botanical papers. FORSK.-P. Forskaol, author of Flora Agyptico-Arabica, Etc. FORST.-Forster, author of a Flora, Etc. For Private and Personal Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ 2 ] GERTS-J. Gartner, Author of De Fructe bus et Seminibus, G.DON.-Editor of a new Edi tion of Miller's Gardner's Dicti- onary GREVILLE.- Dr. Creville. GRIS.“(i. Grisloy, author of Vi. ridariui susitaricun, Ete. HAM.-Dr. H. Hamiton (forme- ily Buchanan ), anthor of a 01- inoy to wysore, and some botanical papers. HAW.-A. JI. Haworth, anthor of Synopsis Plantarum Succulent artım. H. B. et K.-Humboldt, Boupla- nil, and Kiuth, authors of Novi gencra et species, Etc. BERT.-H. W. Herbert au thor of 'Ilerbert's Amarilliders' Etc. H, et T.-Drs. J.D. Hooker and T. Thompson, author of a Flora Indica, Etc. HEYN. Or HEYNE--B. Heyne, a Botanist or Naturalist. HOOK, Or HOOKEI—Dr. W. J. Hooker, author of Botanical Mis- cellany, and of his (FLooker's ) Jourual of Botany. JACK-Dr. W., author of some papers on Penang plants, Etc. JUSS. Bernard slo Jussien, ali thor of Genera Plantarum, kte. KOEX., KOX. Or KON.-J.G. Ka nig, a Danish Botanist. KTI. Or KUNTH—A. Prussian Botanist. LABILL.-J. J. Labillardiere, author of Icones Pantarum Syriæ rariorum decades. LAM.-J. B. Lamarck, editor of the botanical portion of Encyclopedia Methodic, LEHM.-J. (. C. Lohman, aut. lor of Plantil'e fanilia asperipolirum mucifer, Etc. LESCH-Loschenaut de la Tour, á Director uf the botanical Terlen at Pondicherry. LINDI. or LINDIFY-- Dr. J., author of the Vegetable Kingdom', Ete. LINK-HF., author of Philosophie botaniram novi prodromus, Etc. LIXX-Carl von Linnamus, the founder of Botanical Science. MATON.- Dr. W. E. Maton. MEISN. Or MEISSNER-Loun Fred. Meissier, author of some botavical papers. MIERS--J. Miery, author of a work MIQ. Or MIQUEL.-F. A. W., a Bota uist. MILL.-P. Millers, author of toe Gardener's Dictionary. MOEN.-C. Manch, author of a few botanical works. YULL. or MULL.-Otto Fred. Muller, author of some botanical works. NEES--G. G. Necs von Esenbeck, author of several botanical works. For Private and Personal Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ 3 ] OLIVER-(i, A., author of a bo- SALISB.-R. A. salisbury, authtanical work. or of the Proliomis Londinensis, L'AVON-J.,, anthor of a botani- Etc. cal work. SAR. OR SAV'I--C., Hothor of se. PELL.-Pelletier, author of so- veral botanical works. me botanical papers. SCHOTT-HL., author of a few PERS.-C. H. Persoon, author botanical works. of Synopsis plantaruin seu enchr- SCHRALJ.-I. A. Schrader, alltidium botanicun, Etc. hor of many botanical works. PLANCH.-A. Botanist., SCI. OR SCHULT, - C.F. Schultz POHL-J. J. author of Brazili- author of Prodromus Flora Stadan plants', Etc. gardiensis, Etc. RETZ.-A.J. Retzius, author SEB.-A. Seba, author of a book. of Fasciculus Observationum Bo. tanicarum, Etc. SER ---X. C. Seringe, who has elabora ter several difficult TribRISSO-A. anthor of Histoire es in De Candolle's Prodromus. naturelle des Oranger. SM. OR SMITH. Sir J. E. Smith, ROX, or Roin. et schult.-J. J. author of several botanical works. Romer, and J. A. Schultes, aut. SPR. OR SPRENGEL-K. Sprengel, hor's of Linnæi systema vegetabili author of systema Vegetabilium, um, Etc. and inany other botanical works. ROSC, or Rosco-W. Roscoe, all- STOCKS-author of some botathor of Monanilrian plants of nical papers in Hooker's Journal the Order Scitamine.' of Botany. ROTH--A, W., author of Nova STOK.-J. Stokes, author of Plantariun, and several other Botanical Materia Medica. works. swt.-R. Sweet, a Botanist. ROTT.--Dr. Rottler, an Indian SWZ. OR SWARTZ--0. Swartz, Botanist. author of Prodromus DescriptioROXE. -- Dr. W. Roxburgh, aut. num Vegetabilium Indica Orienhor of Flora Indica, and Plants talis, Ete. of the Coromandel Coast, Etc. THUNB.-C. P. Thunberg, authROY. Or ROYLE-Dr. J. F. Rov- or of Flora Japonica and many le, autho) of the Illustrations of other works. the Botany of the Himalyan Mou- TOURN.-J. P. Tournefornt, auntains, and of a work on the fib- thor of Elements de Botanique, rous plants of India. Etc. For Private and Personal Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ 4 ] VAHL.-M., anthor of Symbola Tentamen Flora Nepalensis Illubotanica, lic. striltill. VENT or VENTX.-- . P. Vente- WEDD.-Vedloll, lithor of l'IiBlat, author of Principes de Bota- stoire naturelle (les quinquinas. nique, Etc. W. ELLIOT—Sir, author of FloVILL. Or VILLARS-D., authorra Auhrican of I-listoire des Plantes du l)auphi WTCTT--1. R author of ne, Etc. . nes Plantarum Indii Orientalis, W. et A-Dy. R. Wright and My. Illustrations of ladin Botany, G.A. Walker Arnott, althor's of and Contributions to Indian Botthe Prodromus Flon leuiusula any. Ete. . . . . . Ini Orientalis. WILLD.-C. L. Wildesow, authWALL.--Di. N. wallich, author or of Species Plantarum, and save of planti. Asiatic lariores, and eral other works, For Private and Personal Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्र श्र इ 04. 3 15 ऊ E ॠ लु लक्ष प A श्री श्र श्रः C त á i í 11 ú ri rí Iri Iri D ai C Ou ǹ aba ah www.kobatirth.org वर्ण विवरण अर्थात बोधिनी-तालिका 11 H क क ख fa ग ग़ घ छ ज ज़ ज़ 15: ज 15! भ For Private and Personal Use Only 3 श्र ز ذ 中 ५. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir q kh kh * gh gh 1g, 11*# ch chh j AN 7 7. ** zh 7 Z። jh Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ 2 ] 4 4 uto 4 4 t : - A - . C. it f Et toi ----- 4 ksh -- -- tr y ..------ ceso c & ac A N. B.--Unable to receive the marked English letters in time, the letters marked with an asterisk (*) in the above catalogue have been used without mark, all through the book, Thorefore the roadersare requestod to read them according to the corrosponding Hindi letters. For Private and Personal Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्र www.kobatirth.org श्री धन्वन्तरये नमः आयुर्वेदीय कोष Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अअ जाय् खादिमहुर्रईसह अ व० ), उजव ( ५० व० ), बदन के टुकड़े या. हिस्से, अवयव, इन्द्रियाँ - हिं० । वे गाड़ी और स्थूल वस्तुएं जो प्रथम खिल्लों (दोषों ) के योग से बनती हैं । श्रम-संस्कृत और हिंदी वर्णमाला का पहिला | श्रजाश्र aazaa - अ० ( Organs. ) ( ब० अक्षर । इसका उच्चारण कंड से होता है इससे यह कंश्य वर्ण कहलाता है । व्यञ्जनों का उच्चारण इस अक्षर को सहायता के विना अलग : नहीं हो सकता, इसी से वर्णमाला में क, ख, ग श्रादि वर्ण प्रकार संयुक्र लिखे और बोले जाते हैं अअयून aaayún - अ० मेथी, मेथिका (Trigonella Foemm=(fraceum, Linn.) अवर aaar-० मुर, वोल ( Myrrh ) श्रअ न्यूतस aãalyútus - यु० अभ्रक, भोडर ( Mica.) 1 श्राकुल aaákull-o जवासा, यवास, हिंगुग्रा ( Alhagi Maurorum, Desc.) श्रब्राडइबोत्तो aádaivotti-aro चिटकी - हिं० 1 वन ओकरा - बं० । ( Trimmfetta Rho mboidea, Jacq.) ३० मे० मे। मेमो० । अश्रानो aani ते०, ता०, मह०, कना० हाथी हस्ति ( Elephant.) श्रश्रारगोस aáragis-रसीत, दारूहल्दो, चित्राहिं० | दारुहरिद्रा-सं० । अंबरबारीस य० । ( Berberis Aristata, D. C. ) श्रचासaas-o श्रयासिल वरी aaasil bari- अ० } ( Myrtus Communis, Jimin ) विलायती मंहदी - हिं० । फा० ई० । अश्रू कुत्र aāqab- अ० गोरखर ( एक जंगली जानवर जो गढ़ की तरह होता है । ) श्रश्र अ+ aajat - अ० दुबला, कृश, एमेशिएटेड ( Emaciated ) इं० । क्षीण 1 अजाश्रू अस लिय्यह aazaa asliyyah - अ० श्रू जा मुम्बिय्यह असली अश्रू जाश्रू अर्थात् शुक्र द्वारा उत्पन्न अवयव, यथा- श्रस्थि, नाड़ी, रंग प्रभृति । अअजाश्र् श्रालयह aāzáa álayah - श्र० अ जाश्रू मुरक्कबह, वे श्रवयव जो कुछ साधारण अवयवों ( धातुओं ) के परस्पर योग से बने हों, संयुक्त श्रवयव । अज़ान इस्तहियाइय्यह aaza istahiyaiyyah अ० श्रन्दाम निहानी, अज्ञान तनासुल ज़ाहिरी (प्रधानतः स्त्री के ), स्त्रां जननेfat (ara )-ft. (Pudendum.) अजा कैलुसियह, aazaa kailúsiyah - अ० श्रालात कैलूसियह् । For Private and Personal Use Only अअ जाय् खादिमिह् aazaa khadimih-o सेवा करने वाले श्रवयव, वे श्रवयव जो किसी अन्य अवयव की सेवा करें, यथा-श्रामाशय जो यकृत् की सेवा करता है अर्थात् भोजन से शुद्ध प्रहार -रस ( कैलूस ) तैयार करके यकृत की ओर भेजता है; श्रथवा शिराएँ जो यकृत् से श्राहार तथा प्राकृतिक शक्ति को ले. जाकर श्रवयवों में वितरित करती हैं । अजाश्रू खादिमहुर्रईसह् aazaa khadimahurraisah-श्रु० उत्तमाङ्गों की सेवा करने वाले अवयव, यथा-धमनी जो यकृत् की Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रजा अजा गिजा अश्य जा. मुफरिदह, सेविका है, और नाड़ी जो मस्तिष्क की सेवा करती क्रीटरी ऑर्गन ( Ixcictory (Organs.) है अर्थात उक्र अवयव की प्रधान शक्तियों को अन्य की ओर पहुँचाती है। अअ.जा. वसीतहza. ytusjtah-अ. अअ जा गिजा hazan ghira-० अाहारे- अजा मुफरिबह । न्द्रियाँ, याहार सम्बन्धी अवयव, अथवा पाहार श्रअ.जा बोलazin-19011-अ० बालात को ग्रहण करने वाले अवयव, अथा-आमाशय, वाल, मुन्द्रियाँ, सूत्रसंस्थान- 1(Urinअंत्र और यकृत् श्रादि। ry sysit:.111.) इसह lazinglhdii. 1 अ जात्र मर ऊसह nizin-11:311usth isah-१० वे अवयव जो न स्वयं किसी को : -० उत्तमांगों से लाभ उठाने वाले अन्यत्र । सेवा करते हैं और न कोई उनकी सेवा करता है । अअ जाथ मुन्शाविहतुल अजज़ा ( nari नोट--किसी किसी हकीपका यह विचार है कि -mittshabihinjzi-० श्रअ जा शरीर में कुछ ऐसे अवयव भी हैं जिनमें जीवन । मुक रिदह, और पोपण की स्वाभाविक शति विद्यमान है। श्रअ जाअ मुन्विथ्यहा Nizan !!!!iyऔर उत्तमाङ्गों से उनमें कोई शक नहीं पाती, I yah)-श्रा० अनजा शालिग्रह । यथा-अस्थियाँ । किन्तु स्वतन्त्र हकीपों का यह । अअ जाअमुक रिद रू. Nazin-litfridah पंथ नहीं और वास्तविक बात भी यही है । शरीर -अ० मुक्तरिय ज.अ, जाथ् बसीतह, में कोई एक अवयव भी ऐसा नहीं जो अन्योन्या- अन जा मुशावित मुल मय जाश्र, वह अवयव ४.य न हो, अथवा जिसमें स्वामी संबक भाव जो स्वयं अथवा उसका कोडमानाज और वास्त. विद्यमान न हो। विकता में अभेद, हो, अर्थात यतिर जव मुफ़रिद अअ जाअ तनफ्स rain taraffils : (मौलिक धातु ) का कोई भाग लेकर कहा जाय - अ० अालात तनाकुस । श्वासोच्छ बासन्द्रियाँ कि इसका पया नाश और परिभाषानो उत्तर -हिं० 1 (Rspiratiyly Org .) में बही नान और परिभाषा यतलाई जाय जो श्रअ जान तनानुल lazin tunitil-अ० वास्तविक सवयन के लिघु कही जाती है: उदा__ पालात तनासुल । जननेन्द्रियाँ-हिं । (R: हरणतया--पथिक मागको भी अस्थि productivi: Orgas) कहेंगे, एवं मांग के सूरन भाग का नाम । श्रअ जा तवइ.स्यह. Nazia tithiyyuh ! मुरिद अशा स.अ. (मालिक बन्नुयाँ) की --अ० प्राकृतिक शक्ति सम्बन्धी अवयव, यथा- . संख्या १० , स्था-अस्थि, उमानिशा कुर्स जननेन्द्रिय वा माहारेन्द्रिय।। ( Cy tilager ), नी, मांस-पेशी, अश जानाक्यह. lazil ki jiyah-अक धमनी, शिरा, कला, झिल्ली, संधि बंधन शाखावयव, वे अवयव जr शाबानों में स्थित है, ( बंधनी, नासु, र ) और कर डरा । ये यथा-हस्ताद आदि। बीर्य से उत्पन्न होने हैं, इसलिए इनको शव.. अअ.जाअ दस्विय्यह. Nazia lains iyy. जा मुनिटयह (शंकावयव ) कहते हैं । इनमें ah-अरक्र. से उत्पन्न होने वाले अवयत्र, से दसवीं धातु लहम (मांस, गोन) है। रक्र जन्य अवयव, यथा-मांस वा वसा । शहन (यसा) तथा समीन (मेन) की गणना अअ.जा नफज़ izin naiz-अ० शारी भी इसी में होती है। ये तीनों शाणित से बनत रिक मल को निकालने वाले अवयव, मल प्रक्ष- हैं। राम तथा नख की गणना वस्तुतः शारीरिक तक अवयव, यथा-अन्त्र, वृकघस्ति, लिंग, मलों में होती है। किन्तु किसी किसी ने इनकी गर्भागश की ग्रीवा और गुदा प्रभति । एक्स- गणना भी अथ जाअ मुफरिदह में की है । For Private and Personal Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धन जाश्र मुग्नवह अ.नश टिमी-घसा नाय मुझपिनह की रचना को | अभूजाअशोका azan shariinh- अ० अरबी में न ( ब) और नमाइज शरीफ़ प्राय हाय, अनजाधू मुहिम्मह., अहम ( ० ) या वायुनंद में नस्तु (धातु) अन्य जाय। वे अवयव जी अपने कार्यकी महत्ता और अंगरेजी में त्रिशु ( its/it) कहते हैं। के अनुसार उत्तमानों की सामीप्य कक्षा का अधिसभी मानके तन्तु विशेष प्रकार की सेलों कार रखते हैं। इनकी गणना उन (उत्तमाङ्ग) (कोदो, घटकों, कीमों ) के परस्पर मिलाप के पीछे होती है, यथा-फुप्फुम, प्रामाशय श्रीर द्वारा बनाते हैं। प्रस्तु-ग्रन्थि, मान्य, रग तथा अंत्र इत्यादि। नालियों की रचना सुध्य भव्य भांति की मेलों प्रअ जा सप्रियह जाहिरह aria-saके पारम्परिक निलार द्वारा होती है। इसका triyyan-zihith-० वदोाङ्ग। वन विस्त बहन नन्तु (धातु )-शात्र ( Thisto के ऊपर के अवयर,यथा-वाशीय मांसपेशियों और logy ) A हंगा। स्तन प्रभृनि । अजाय सुगम zin- kka.: श्रअ जा सदनियह वानिन, aazia-sadri bah-नापामा कालग्रह , मुरक अ y yash-batinath-० वदान्तरस्थ अवयव, ज़ अ । संयुकावा अन्यत्र जो चन्द मुफ़्.. बक्षसे भीतर के अवयव, यथा-हृदय और फुफ्फुस रिशश नन्दु (धान) के पारस्परिक सेल से अादि। थारकिक विनी ( Thoracic Ticबनते। दादर गाल:- नमन अस्थियों, रगों, ना. (1.)-इं। यो परप्रांस पेशियों तथा स्वचा के मिलाप अजा सौत navin-sont-अ० आवाज़ द्वारा बनना है। इस भाँति के अधयय का यदि के अज़ान् , शब्देन्द्रियाँ, शब्दोत्पादक यंत्र, को भाग लिया जाय तो वह अपनी परिभाषा यथा---स्वरयन्त्र, टंट्या (श्वासपथ) और तथा नारा मेनिस होवा, या हाथ की फुफ्फुस इत्यादि । गार्ग श्रॉफ़ वाइम अस्थि अवा मान हम्म नहीं कर लाएगा । ( 11s of mini)-. । श्रअ जा मुहम्म . ४in mahim imah अनजान हम invita-haz.1-अ० पाचक -अ० अअ ज श कह.. यन्त्र, पाकावयव,यथा-ग्रामाशय, यकृत, मासारी कह इत्यादि । डायजेस्टिव मॉर्गन ( Diges. अञ्य जाईलह lizin Thisah-अ० tive Organis)-01 उत्तमाङ्ग । एक्स्ट्रा Extra-१० । जीवनाधार अनजाअ हर्कत azannakat-अ० श्राभूत अवयव, अर्थात वे अवयव जिन पर जीवन अवलम्बित हो । वे चार हैं, यथा-(१) हृदय, । लात हर्कत। (२) मस्तिष्क, (३) यकृत और (१) मुष्क अअ.जा हिस्स nazan hiss-अ० श्रालात ( पुरुपाण्ड), लिंग और शुक्राशय । इनमें हिस्स। से प्रथम तीन मनुष्य जीवन के लिए अत्यन्त | श्रअ जाअ हैवानिय्यह. aazan. haivāniश्रावश्यक है, क्योंकि यह क्रमशः प्राणशक्ति yvth-अ० जीवन शक्रि सम्बन्धी अवयव, प्राणिशनि से सम्बन्ध रखने वाले अवयव, यथा (कुम्बने हयात, कुम्वते है बानी), चेतनाशक्ति हृदय वा धमनी प्रभति। (कुब्धते नफ़्सानी )और प्राकृतिक शनि (कुब्धते. तब ई.) अर्थान् शारीरिक पोषणशनि अवयवों अनय ana.b-अ० जिसको नासिका बड़ी श्रीर को प्रदान करने हैं। इनमें अन्तिम के जननेन्द्रिय लम्बी हो, दीर्घनासा। सम्बन्धी अवयव बजाति रक्षा के लिए परम | अनश aanash-अ० छोगा, छाँगर, छ: अावश्यक हैं। अंगुलियों वाला, छंगा। For Private and Personal Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनाक अयमावेशिकिग्यह. श्रअ नाक nānā|-अ. (व.व.), उ (अ) अन्तःक्षोभ, मनोविकार, प्रान्मा में होने वाली नक (ए. व.) ग्रीवा, गर्दन-हिं । सर्विस दशाएँ-हिं०। ये छः हैं, यथा-(१) शोक, (Cervix), नेक्स (Nicks)-इं। (२) क्रोध, (३) भय, (४) श्रानन्द, अफ़जaafa.j-अ.Copulhotोंबीला,मेदयुक्र, (५) लज्जा और (६) चिन्ता ।। मेदावी,स्थूल,बह व्यक्ति जिसकी तांद निकलीही। अअशा aasha-अ० (Nyetalop:) शबश्रअ फर aitar-अ. सफ़ेद, मैला सुनेद, धूसर कोर-फा०। नकांध, वह मनुष्य लिमको I ( Brownish white ) रतौंधी का रोग हो। अअकाज Nafai-१० ( Intestinis, अमाय asab-अ० (Nerves) (व. ___Entrails.) श्रान्त्र-हिं० । व०), असब (ए. 4.), नाड़ियाँ, वान या श्रमश aanash-अ० जिसके नेत्र से जलस्राव बोधनन्तु( देखो-नाड़ी)-हिं। होता हो। अअ.माव उज्जियह āsa banjriyyah-अ० श्रामा aani-अ० (Blind ) नावीना, कोर (Vachal .. 4 )। स्कधि नाही, का। अंध, अंधा, नेग्रडीन-हि । अझ माअ नितंब (त्रिक) नाड़ी,अमाव सुरीन । ये बात (य०व०) और अमा (त्रिी० लिं.)। तम्नु सुषुम्नाक.एड से निकल कर नितम्बास्थि अअमाले विख्यद् nimals-bilya!-अ० से बाहर आते हैं। ये संख्या में ५ जो होते हैं । (Operation) हस्तकिया, शल्य-हि। इनको शान्बा उरु, रग, क पाँचको नांप पंशियों दस्तकारी-फा०। छेदन विद्या, व्यवछन्द शास। तथा पत्र में नेट व संज्ञा बहाती हैं। साहब काजिल के वचनानुसार इसके नीन भेद श्रअ सारे उजुकि यह aash b amuqiyyah हैं-(१) रग एवं (२) मांस की काट छ.ट, जैसे -अ. (C it is) अमात्रे रक्कमीक्षण, नश्वर देना, पृथक करना ( काटना गर्दन- । ग्रेव नाड़ियां-हि । छांटना ), दाराना और टाके लगाना इत्यादि । अअसावे कतानियह nāsabsetmiyyah और (३) अस्थि को यथा स्थान बिना, टी. -अ० अमावे कर-का० । कटि नाड़ियाँ अस्थि को जोड़ना, और स्थानस्युत अस्थि की - 1(Limbur ves ) संधि को बिना; इत्यादि। । अअसावे जह रिव्यह, aisab.-thriyyath अश्रमिद तुल मित्रगन amidatul-min. . -अ०, ( Dosal Y) अअसावे पुश्त khuriv-अ० ( Nasim Saptam) -फा० । पृट नाड़ियाँ-f60 नासामध्य पटल, दोनों नकुओं के मध्य का असाचे दिमानिय्यह. aasā bodimauh. परदा-हि० । _iyyah - अ० मास्ति'क नाड़ियाँ - हिं० । अअ याश्र. nāyān--अ० (१) कुटना, थकावट । Chumin Sees )। (२) हाथ पैर टूटना, शरीर का थक जाना। अअ.साबे नुखाइ यह āsibe mukhaaiyan अअयुन ayu-अ० प्रसरिन चक्षु, वह मनुष्य -अ० सौपुम्न नाड़ियाँ-हि०। (Spinalजिसके नेत्र की पुतलियाँ फैल गई हो। Nerves.), श्रअ रज uitajअ० ( Lami) लङ्गडा, लुङ्ग : असाये मुरकबह, lasib mrakkabalh --हिं० । -अ. मिश्र नाड़ियाँ-हिं० । मिक्स्ड नई न अ राज़ ārā7.-अ (व.व.) (Symp- ( Nistial Vives )-ई। ____toms) अ.ज़ ( व.), रोग के लक्षण । अअलाये शिर्किय्यह. Yaasāls: shirkiyyah श्रअगजे नफसानिय्यह ātaza mafsan- -अ० असावे हमदर्दी । पिंगल नाड़ियों-हि । .iyyah-१० इन्फिालाने नासानियह। (Sympathetic Yeaves.) For Private and Personal Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रथ सावे हर्कत असावे हर्कन् aāsa be harkat-० हर्कती असुवि । चालक नादियाँ, चेष्टावहा नाड़ियों, यति सम्बन्धी नाड़ियाँ हि० ( Notor Nerves) असावे हास्सह aāşábe-hássah-o विशेष चेतना सम्बन्धी नाहियाँ हि० (Sp.cial Senses Nerves ) असा हिस्स aāsabe hiss अ० हिस्म के पुढे - उ० | सांवेदनिक नाड़ियाँ, चेतना सम्बन्धी नाड़ियों, बांध अथवा ज्ञान तन्तु हि० (ensory Nerves ) श्रग्रिमोईन aigrimoine-i शज्र तुल् राशीम- अ० । (Agrimonia Eupatorinm, Linn.) फा० इं० भा० । श्रना nita-गो० आवर्तनो बरोड़फली - हिं० ।: ( Holectures Isora, Lian.) श्रद्धा aida - अ० । हीरादोस्त्री - हिं० | दर मुल्श्रवन - अ० हिं०, बाजा० Dragons blood ( Dracern einnabari, 1 Balf.) फॉ० ई०३ मा० । श्रहुँधा ainlhá-उ० प० सू० हरथू-चल्ला । श्रजहार- श्रासा । (lagerstremia PlosRegine, Rotz.) श्रइन ain-मह० ५. श्रीमनवृक्ष, साज, सदरी | श्रइनी aini- ना० -हिः । पियासाल- बं० ( Terminalia Tou tosa Bedd.) । इं० मं० मे० | मेम० । 1 श्रर ir - हिं० ( Parsitit Myptiaca, Turr) फ़रोदबूटी । श्रइरनवम्ब० श्ररनी, उरिन, पिस्म-हिं० Phlomoides, ( Clerodendron Dinr.) ई० मे० मे० । इन मूल airamúवम्ब० श्ररनी, श्रग्निमन्थ।(Prema Integritoila, Linn.) ई० मे० मं० । श्रईरसा airasio पुष्कर पूल, पद्मपुष्कर - सं० । ईरसा - हिं० 1 Orris root ( Iris Florentina.) पनि लगाई श्रईल ail- श्रव०, हिं० सातला । सीकी (के) काई - द० | कोसै- बं० | Acacia Concinma,Z.C.) इं० मे०प्र० । फा०ई० १ भाग ujá–बर० Custard apple (Anona squamosa, Linn.)। शरीफा, सीताफल, श्रात-हिं० । अउजा Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उनी ammee-कां० रासन, जञ्जबील शामी, कुरुते - शामी | Elecampane ( Inula Helenium, Linn.) फा० इं० २ भा० । अउसरक ausarak-पं० छद्दीला - हिं० ( Sor Chharila ) । शैलेय, शिलापुष्प- सं० । उनह श्र० श्रऊ - वस्त्र० १ - अण्डा (Ovum) । २--गर्भ ( Enbroyo ) अऊ ad For Private and Personal Use Only }; - यर० ( ए० ० ) कन्द० । (Bulb or 'Tuber) स०फा०] इं० श्रऊमियाश्रा aimiyaa ) -बर० ( ब० व० ) उभयात्रा miyaa j कन्द - हिं० (Balbs, Tubers )। स० [फा० ई० । श्रऋतुमतो avitmati-सं० स्त्री० ( Gumenstruating woman ) श्रदृष्टातंत्रा रजोलोपा, श्रमात्रमती, अनृतुमती । अपगरवल्ली aegarvalli-ar० धारकरेला - हिं०। (Momordica Dioica, Rort.) इं० मे० मे० । अडकुल रीतिचे ardakul-riti-Chexxu - ते०छातिम, सप्तपर्ण, छतिवन - हि० (Alstonia Scholaris, JPBr. ) इं०मे०मे० । अण्डु andu-aro, कना० ( Sheep ) भेंड, मेघ - हिं० 1 ई० मे० मे० । अण्डु aend ता० चक्रमई, चकवड़, पमा fol (Cassiant Tora, Linn.) इं० मे०मे० । अपरिलम्पाल aenilampal-मल० सप्तपर्ण (Alstonia Scholaris, 7. Br.) इं० मे०म० । श्रगलि - लप्पालाई Acli-leppálai- ता० ( A1stonia Scholaris, L. Br. ) छतिवन, छातिम, सप्तपर्ण ! Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शकनना अफ अक inning - ० महका पही, यह एक । (१) शुकाई (hakai )। (२) वादावई . प्रसिद्ध रही है ।यसकर, कान र का। (Volatrella Divariclict, Benth.) श्रकच:akachah-सं० त्रि० । अकतमाअ.antama-अशराव या ग्रंगर का अकंच ( akachu)-हिं० वि० केाय, यात हे । बर: (Bail) : अरुतमारून aatamitin-यु. गरिधान -इं० 1 जारमाथा नेडा-- । ___Elemorrotylis (I!.ori yi) sakachha-१० वि० [सं० अ- रहित । अकालना auntalini-या वादावर्ड (VO. + कच्छ या कर = धोती, परिधान ] (1) नन्न । lutarella Divaricata, Br .) नंगः । (२) व्यनिचाही। परस्त्रीगानी। अकती ti-यु० समान कोर। . अफजkaj.जन.रूर और बकोल अनरूत का नाम । अमटाakti-20 पू0, कार । ग्रेवल (G1. अकलासूसgatisus:-यु० जंगलो मनो. पररय. मूलक ( Th: WiMulish. ) !)-ई० । अत :---सं० मालिश । अरुड़ kara-० संज्ञा . [ = अच्छी तरह + कड् = कहा हम [कि अकना] अकता ॥kati-ता०, मल, समय, घाग. एंड। तनाव निरीह बल ।। मित्या-101(Auti tirliflora, अकड़ तक in tinki-हं ज्ञा १० lirti) इं020 मे०।। न। अतुल मलिक - lik-वम्ब०, अकड़ना akashi - हि०० अ० [श्रा ( Trigonellal Cani, Boiss.) = अच्छी दाद+कइड = सहारन ] [ संज्ञा अकड़ इवलीनुल मलिक-य० । नग्न, नाना-हि। कक्षा सूखकर सिकुन । का होना। अकृदन ]-हिं० मि०वि० ! ३० कदन । खरा होना। में ना। (२) रनः । स्तब्ध अकह Madah-मिथः जरिश्क की लकड़ी, होना । मुल होना । (३) तनना। दारुहानी-हिं० । दोरुहरिद्रा । ( 13:1Uxis अझड़ वाईkartiyai- संजः सं० Asiatica, 1).C. 'wood of') का-क हारन + बायु, हि० बाई - हवा ] 'अनि पr agaihiyi-Y० जौहरी जवाहन, मैंन। कुइल । शरीर को नमः क. पीड़ा के सहित किरमाला, अकसन्तोकुल बहर, एक बारगी सिंचना। दरसनई अकड़ा akari-हे संज्ञा पु. सं. कड्ड् = : . . (Voyin Sitl. ) कडापन ] चौपायों का एक छत का रोग । जब : अकन akan-हिं० आक, मदार, अर्कोद ( cal otropis (iyantea or चौपाप तराई की धरती में बहुत दिनों तक : Proceyn., चर कर महसा किसी जोरदार धरती को घस R. Br.) स० फॅॉग ई०। पा जाते हैं तब यह बीमारी उन्हें हो जाती है। अकन agp-अ० गंदह-बग़लक । कक्षाश्रकड़ाव akariva- संझा प हि : शुद्रि, कजदुर्गन्ध--01 बड़े व्यकि. जिसके कक्ष अकड़न । खिंचाव । से दुर्गन्ध प्राती हो। अफतना अकरनस ।athath tntanas अकनक kamuk गुजान कडुग्रा अकरना अानस qatani fhs ) (Tennodactylus titr) -यु० जरूर-वृक्ष (ZIandi )। अकनना Akanana- ० [सं० ग्राअनाअनाक: aqathi-!... कर्णन-सुनना ] कानगाकर सुनना । चुपचाप अानना लका matinila-lu|| US सुनना, अहट लेना, सुनना, कशाचर करना । For Private and Personal Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अकनादिः अकरकर अकनादिkanadi-बं०, पाडा, अम्बष्ठा ( ( अकयाकलन uqry acailun-रु? चिरायता ssainp.los P.in,Lin.) (Chirata) श्रक नृरू .(mus-यु० नासपातो (Frus . अयान amayan-अ० शुद्धः स्व ।। प्योर गोल्ड Collittis, Jinn.) (ime gold )-इं० । प्राकन्दा akti-हिं० मदार,प्राक (Calo- अकयास acayās-यु० इन्दरतः (खा) रून । ___ropis tijintan. Br. ) अरुयूस ajayus-यु. (१) अमरूत अकailaf-अ. मिलिजु लजिल्द, मिमार, ऐन- ( ( int) । (२)नासपाती ( Pyrils म क कहा । पटना यह Tommis, Lim.) एक प्रकार का चर्म रोग है जिसमें साधारणत: : अकरakart-० वि० [सं० हाथ का, पौध के ग्रेगरेकी संधि अथवा ,गुली की मांधि । हस्त रहित । की त्वया कर और स्थल हो जाती है और : अकर ankit-अ० शिलछट, तेल-त्र, रसोत्र, जूता पहन कर चलते समय व्यथा होती है। दुर्द, गाद, गदलायन, तेल की गाद । कोर्न (COEn), वय ( ( 111115 )-ई। संडिमेण्ट (Siliyn.ht)-c अकय ५६५.-छा० पै, तोत, नस जिससे धनुप : अकरकरतून ! tin यु० गिले अकरीनस, का चिल्ला बनाते हैं। एक प्रकार की मिट्टी है अकयर kitlyan !'-अ० जोम भेद (Ajinal: श्राकार करना kauitkatia bhith-सं० पु० । oib: Sax ) .. अकरकरा (ii. Akalakuli)। प्रज -0 संज्ञा स्त्री० [अ० अकरकरमादिचूर्ण aktinkeera bhaticlhi(1) एक फलहारी मिठाई, तीखुर और उबाली : 10-हिं० संझा पु० अकरकरा, सोंठ, कोल, अरुई को घी के साथ फेंट कर उसकी टिकिया । के सर, पावर, जायफल, लौंग तथा श्वेत चंदन नाम है और घी में तलकर चाशनीम पागते हैं। इन्हें कर्ष कर्ष भरले, चूर्णकर कपड़छान करें, पश्चात शकवी अशरफोkabuinshavali-हि० अहि फेन शुद्र पल, मिश्री (सिता) सर्व तुल्य संज्ञा० स्त्री० [अ० ] सोने का एक पुराना निला चूर्ण कर रखें। मात्रा-१ रत्ती शहद के मिका जिसका मूल्य पहिले १६) था पर अय साथ रात्रि को कासी पुरुष चाटें तो वीर्य स्तम्भन २०)ो गया है। हो। शा० सं०म० ख० अ०६ श्लोक १५ । अकबरूपमkathatus--गु० रूमी और हिंदी अकरकरहा aqarjathi-अ० ( Pyrethri मंदसे यह वृत्त दो प्रकार का होता है। इनमें Radis ) शकरकरा-हिं। सहली को अकवरूप अर्थात गोंद क्रहरुमा का अकरकरा akarakara-हिं० संज्ञा पुं० [सं० वह कहते है। आकरकरभः ] अकल करा, अकोलखर, अकल कोरा अका -याक बन्ध्या अर्थात् बाक होना । -३० । अाकारकरभः, अ (-पा) कहलकः, अक्कगर्भ स्थिर न होना (Stills) लकरः, अकोलर, मोक्षणमूल: और वीराकीलकः अकमाउरु म्मान Janatil' Thmail-० प्रभृति एवं इसके अनेक अभ्य कल्पित संस्कृतनाम शनार की छाल या अनार वृक्ष को कली जिस में . हैं । अकोरकोरा, आकरकरा, रोशुनिया-वं __ फल लगता है । (Pani ranate bik या (-अ) करकरे, ऊदुलकह -अ० । श्र. or hunt) कलकरा, श्राकरकरे हस्सानी, श्राकरकरह-फा० । कमार्मरमानुलहिन्दो famiauirit}111. पाइरीथाई रैडिक्स ( Pyrethri Radix) inml.hindii-अ० नागकेशर- 1(M. ऐनासाइक्लस पाइरीथम (Anacyclus 511 , Lithi.) Pyrethium, D. C. ), पाइरीथम For Private and Personal Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अकरकरा रैडिक्स (Pythrum Halix ) -ले। पेलिटरी श्राफ स्पेन और पेलिटरी रूट, (P:llitory of Spain or Pellitory root)- सैलिवरी डी एस्पैग्नी (Salive uiry l.' Espaugn: )-फ्रां० । अकिरकारम्ता० । अकिकरुका, अकिलाकारम्-मल० । श्रकारकारम्, आकलकर, मराठी-तोगे,मराटी मोग्गा-ते। अकला करे-कना। अकलकरा-मह०। अकरकरा-गु० । कुकजना या कुकया-बर० पोकर. मूल, प्राककरहा-पं० । अर्का-यम्ब०। मिश्रवर्ग (A: 0. Composilte) उत्पत्ति स्थान-भारतीय उद्यान, बङ्गदेश, अरब, उसरी अफरीका, अल्जीरिया और लीवाण्ट । नोट-अकरकरा के उपयुक समस्त पर्याय अकरकरा वृत(Amacyclus Pyrethrum, D. C.) की जड़ के हैं जो वास्तव में बाबना का एक भेद है, जिसे सोनीय बाधूना (Spur mish Chamomile or Anthemis Pyrethrum) कहते हैं। बाबूना नाम की : foarf ( Composited order) की निम्न चार ओषधियाँ जिनका तिब्बी ग्रंथों में वर्णन पाया है परस्पर बहुत कुछ समानता : रखती है, इसी कारण इनके ठीक निश्चीकरण में । बहुधा भ्रम हो जाया करता है। वे निम्न हैं, यथा-(.) बाबूनज रूमी या तुफाही (Anthemis Nobilis ), (?) बाबूनह् बदबू (Anthemis Cotula), (३) बाबूना गावचश्म या उक्रह वान (Matricaria Parthelium) श्रीर (४) स्पेनीय बाबूना या भाकरकरहा (Anthemis Pr(ethrum)। इन सब के लिए एन्धेमिस अथवा कैमोमाइल अर्थात् बावना शब्द का ही प्रयोग होता है (देखो-वायूना अथवा उसके ! अन्य भेद)। इनके अतिरिक्त अकरकरा नाम की इसी वर्ग की दो और ओषधियाँ हैं, अर्थात् (७)/ बोलीदान या मधुर अकरकरा और( २) अकलकर ( pilanthus (Oleira.cee) या! पिपुलक-मह०, यममुगली--कना। अकरकरा से बहुत कुछ समानता रखती हुई भी ये बिलकुल भित्र ओषधि हैं। अस्तु, इनका वर्णन यथास्थान सविस्तर किया जाएगा । यहाँ पर बावना के भेदों में से एक भेद केवल अकरकरा का ही वर्णन होगा। नाम विवरण–पाहरीश्रम पाइराम(1'yros) सं जिसका अर्थ अग्नि है, व्युत्पन्न यूनानी शब्द है। चूँ कि: अकरकरा प्रदाहकारक होता है; इस कारण इसका उक्र नाम पड़ा । श्राकरकहाँ अकर और तकरीह ( त कारक ) से व्युत्पन्न अरबी शब्द है और यूँ कि यह गुण इसमें विद्यमान है अस्तु इसको उक्त नामसे अभिधानित कियागया है। इसके ऊतुल्कह नाम पड़ने काभी यही उपयुक कारण है । अन्य भाषाओं में भी इसी बात को ध्यान में रख कर नामों की कल्पना हुई है। इतिहास-अकरकराका वर्णन किसी भी प्राचीन आयुर्वेदीय ग्रन्थ, यथा-चरक, सुश्रुन, वाग्भट, धन्वन्तरीय व राजनिघंटु और राजबल्लभ प्रभृति में नहीं मिलता। हाँ ! पश्चात कालीन लेखकों यथा भावप्रकाश और शार्ङ्गधर प्रभृति ने अपनी पुस्तकों में इसका वर्णन किया है। (देखो शा. अकारादि चूर्ण' ६ अश; भा०, म०, १भ० ज्वरम्नी वटी और वै० निध०)। इससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि भारतीयों को इसका शान इस्लामी हकीमों से हुआ; जिन्होंने स्वयं अपना ज्ञान यूनान वालों से प्राप्त किया। यूनानी हकीम दीसकरीदूस (Dioscorittis)ने पायरीधीन नाम से, जिससे पाइरीश्रम शब्द व्युत्पन्न है (और जिसको मुहीत अजममें फ़रियन लिखा है), उक्र श्रीषधि का वर्णन किया है । किन्तु, महज़ानुल अद्विय के संखक हकीम मुहम्मद हुसेन के कथनानुसार इसको अरबी में ऊदुलकह जब्ली कहते हैं और यह सीरिया में बहुतायत से पैदा होता है तथा अकरकरा के बहुशः गुए धर्म रखता है । प्रमाणार्थ वे हकीम अम्ताकी का बचन उद्धृत कर कहते हैं कि-अकरकरा दो प्रकार का होता है, प्रथम सीरियन (शामी) For Private and Personal Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अकरकरा अकरकरा जिसका वर्णन दोसकरीस ने किया है, और । दितोय पाश्चात्य जो अफरीका और पाश्चात्य देश में उत्पन्न होता है । उक वनस्पति को प्राकृति, : पत्र, शाखा और पुष्प श्वेतपुष्यीय बाबूना कबीर के समान होते हैं, पर उसके ( अकरकरा के) पुर पीन वर्ण के होते हैं। इसी की जड़ को अकरकरा और फारसी में पर्वतीय तर्ख न । कहते हैं । हकोन अन्ताका का उक वर्णन बिलकुल । सत्य है। क्योंकि पश्चिमी अकरकरा वास्तव में स्पेनीय बावना की जड़ है जिसका वानस्पतिक नास एन्ग्रेभिस पाइरीयन(Authoumis Pr- ! thytm)अर्थात आग्नेय याना या स्पेनिश कमी- . माइल (Spanish Chanomit) अर्थात मोनीय बाधूना है। और इसी की जड़ हमारा : उपयुक्र अकरकरा है जिसका वर्णन हो रहा है। कोई कोई बच को हो अकरकरा कहते हैं। परन्तु अकरकरा और बच वस्तुनः दो भिन्न-भिन्न । तथा भुर्रादार होता है। इसको जहाँ से तोड़े वहीं से टूट जाती है। गंध-विशेष प्रकारकी । स्वाद-- इस जड़के खाने से गरमी मालूम होती है, चरपरी लगती और जिह्वा जलने लगती है, यही इसकी मुख्य परीक्षा है। इसको चबाने से मुंह से लालाखाच होने लगता है और सम्पूर्ण मुख एवं कंड में चुनचुनाहट और कांटे से चुभने मालूम होते हैं। इसकी जड़ भारी ( वज़नदार) श्रीर तोड़ने पर भीतर से सफ़ेद होती है। इसमें शीघ्र कीड़े लग जाया करते हैं। परोक्षा-अकरकरा अरण्य (जंगली)-कासनी की जड़क सहरा होता है; किन्तु यह (कासनी) तिक एवं काले रङ्ग की होती है। __ रसायनिक संगठन-इसमें 1-एक स्फटिकवत अल्कलॉइड ( नारीयसत्व ) पाकरकीन (Pyrethrine ), २--एक रेज़िन (राल) और ३--दो स्थायी ( Fixed Oils) तथा उड़नशील तैल होते हैं। प्रभाव-सशक लालानिस्सारक, प्रदाहजनक और कामोद्दीपक । औषध-निर्माणा-योगिक चूर्ण, वटिकाएँ और कल्क। (१) अकरकरा ४ भाग, इन्द्रायन २ भाग, नौसादर ३ भाग, कृष्णजीरक २ भाग, कुटकी ४ भाग और कालीमिर्च ४ भाग; इन सबको मिला चूर्ण प्रस्तुत करें। अपस्मार में इसको नस्य रूप से व्यवहार में लाएँ। (२)अकरकरा ४ भाग, जायफल ३ भाग; लोग २ भाग; दालचीनी ३ भाग; पिप्पलीमूल; केशर २ भाग, अफीम १ भाग; भंग ४ भाग; मुलेठी ४ भाग; मदार मूल त्वक् ५ भाग; वायविडङ्ग ३ भाग और शहद ५ भाग; सब को चूर्ण कर वटिका प्रस्तुत करें। मात्रा--पाधी से २॥ रत्ती। वानस्पतिक वर्णन-यह अरब और भारतवर्षकी प्रसिद्ध बृटी है ( यह बङ्गाल और मिश्र में भी उत्पन्न होती है)। इसके छोटे छोटे चुप चातुर्मास को पहिली वर्षा होते ही पर्वती भूमि में उत्पन्न होते हैं । इसको शाखाग, पत्र और पुष्प सफ़ेद : बाने के सदृश होते हैं, परन्तु डण्ठल पोली होती। है। गुजरात और महाराष्ट्र देश में इसकी डण्डी : का अचार और साग बनाते हैं। इसमें सोया के : सहरा बीज आते हैं। दालो रोंगटेदार और पृथवी पर फैली हुई होती है तथा एक जड़ में से . निकल कर कई होजाती है। उस डाली के ऊपर गोल गुरछेदार छत्री के प्रकार का, किन्तु बावने से विपरीत पीले रंग का फूल होता है। डाली खड़ी खड़ी और पुष्प--पटल ( Petas) सुनेद होते हैं । इसकी जड़ औषध कार्य में पाती है।। ये सीधे सीधे टुकड़े,जिन पर कोई रंशा नहीं लगा होना, ३-४ इंच अर्थात् एक वालिस्त लम्बे और प्राधे से पौन इंच मोटे बेलनाकार गोल होते हैं। ऊपर के किनारे पर प्रायः बे रङ्ग रोमों की एक ! चोटी सी होती है। वारा याग पूरार वर्ण का गुण-बच्चों के चिड़चिड़ापन, अनिद्रा, संवेदन दंतोद्भेद, अतीसार, उदरशूल तथा वमन के लिए गुए दायक है। For Private and Personal Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अकरकरा अकरकरा ऑफिशल रिपेयरेशन (ए० मे० मे०)टिङ्कचूरा पाइरोधाई ( Pincthua Pyrethri)-ले० । टिचर ऑफ़ पाइरीथून । (l'icture of Pyrethru )-0 ! अकरकरासद-हिं। निर्माणविधि-पाइरीथम की जड़का ४०नं. का चूर्ण ४ अाउम्स अलकुहाल (७० ) श्रावश्यकनानुसार। चूर्ण को ३ फ्लुइड ग्राउन्स अल्कुहाल में तर करके पकॉलेशन द्वारा एक पाइन्ट टिंक्चर तय्यार कर लें। प्रयोग-लालास्राव हेतु इसका स्थानिक ! उपयोग होता है। यह दाँतके दर्द,गठिया,अपस्मार, पक्षाघात, कफवात, तोतलापन और ज्वर तथा अनेक अन्य रोगों में लाभ पहुँचाना है। मात्रा--३॥ मा० । अहित-फुफ्फुस को। दपनाशक-क्रतीरा और मुनक्का । गुणधर्म तथा उपयोग शायद को दृष्टि से अकरकरा उणवीर्यः कटुक तथा बलकारक है, तथा प्रतिश्याय शोथ . एवं घात का नाश करता है। वृ०नि० २०। । वैद्यकीय व्यवहार भावप्रकाश-फिरंग रोग में-विशुद्ध-पारद । आधा तोला, खदिरचूर्ण प्राधा तोला, अकरकरा चूर्ण १ तोला, मधु १॥ तोला, इनको एकत्र मर्दन कर वटिका प्रस्तुत करें। इसमें से प्रातःकाल १-१ : वटी जल के साथ सेवन करने से फिरंग रोग (Syphilis.) नष्ट होता है। युनाना एवं नव्यमत-अकरकरा को चवाने से प्रथम दाह प्रतीत होता है; तत्पश्चात शीघ्र झुनझुनाहट एवं सनसनाहट का ज्ञान होता , तथा अधिक मात्रा में लाला की उत्पत्ति होती है।। क्योंकि मौखिकी धमनी बोधतन्नु तथा लालाग्रंथि पर इसका उत्तेजक प्रभाव होता है। परन्तु थोड़ी देर पश्चात नाड़ियाँ शिथिल होजाती हैं। अस्तु, यह एक सशक्र लालानिस्सारक ( पावफुल स्थालेगॉग ) तथा किञ्चिन् अवसन्नताजनक : (श्रमस्थेटिक) है । उक प्रभावों के कारण | इसको दन्तपीड़ा, कच्चा लटकने (रीलैक्स्ड यूवुला) और कण्ठशोथ (सोरोट)। ___ में मंजन गरडुप प्रभृति रूप से व्यवहार में लाते हैं। दन्तचीड़ा में अकरकरा को विकृत दाँत के नीचे रखने तथा चबाने से अथवा इसका टिंकचर नथा टिंकचर प्रायोडीन दोनों समभाग सम्मिलित कर इसमें जरा सी ई सर करके पीड़ा युर दन्त में रखने से वेदना शमन होती है। २ अाउंस ( छ.) जल में एक डान (३॥॥ माशा) इसका टिंक्चर मिलाकर इसका गंडा करते हैं। डॉक्टर रॉय इसको योपापस्मार (ग्लोबस हिस्टैरिकस) में गुणदायी बनाते हैं। (ए. से० मे०) यूनानो ग्रन्थकार--इसे तीसरी कक्षा के अन्त में और चतुर्थ कक्षा तक रूक्ष मानते हैं। परन्तु कोई कोई तीसरी और चतुर्थ कक्षा में शीतल पानने हैं। देह में जो सुघर ( रुधिर आदि को गाँट) पड़ जाता है उसको ग्बालना, जस्तक को दुष्ट मल से शुद्ध करना तथा मस्तक के अवयव तथा कफ आदि को निस्पंदेह चमक (जिला) देता है। दिन (ला ), ज्ञावात, कफवान, पीड़ा के साथ गईन का जकड़ जाना, जोड़ों का दीला हाना, तातलापन, छाती, दाँत और संधि वेदना, गृध्रसी, जलंधर, एसीना और ज्वर को दर करना शीतल प्रकृति वाले की इन्ट्री की शक्रि को तथा स्तनों में दूध को बढ़ाना, खुलकर पेशाब लाने की व हियों के भाव को पतला तथा गाढ़ा लेप करने से लाभ पहुँचाता है । जनक रंग, संधि के रोग, वाततन्तु (पुटे) के, भुख के और छाती के रोग में अकरकरा को जैतून नेल में पीसकर मर्दन करने से लाभ होता है और कुबड़ापन, सुन्नवान, या ढीलेपन को, अवयवों के पुराने रोगों का भी पूवार उपयोग गणनायक होता है। यदि अकरकरा के क्वाथको गरम गरम मस्तक पर लेप और तालू पर मर्दन करें तो मस्रक को गरम कर नज़ले को नष्ट करता है। यदि इसे मस्तगी या कपैली वस्तु के साथ चटाएँ तो वह मृगी रोग, जो दृपिन दोषों से प्रकट हुआ है, For Private and Personal Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अकरकग अकरकग नष्ट होता है। शहत के साथ अकरकरा चूर्ण को चाटने से मृगी, अंधकार प्राना और पनाघात प्रभते रोग नष्ट होते हैं। अकरकरे के कपड़छन किए हुए बारीक चूर्ण सूधने में नाक रुकना अर्थात श्वासावरोध दर होता है। यदि इमको सिरके में भिगो दाँत के नीचे रश्वं नो द्वन्तगूल नष्ट होता है। चवाने या लिहा पर बुरकाने से जीभ की श्रार्द्रता दूर होकर तुतलाना मिटता है। इसके क्वाथ को मुग्व में रखने मे हिलते । टात मजबन होते हैं। उक्र क्वाथ में सिरका मिला कर गंडप करने में गले का फाडा, काग का लटक अाना तथा जीभ के लटकने (जो करु के कारण हो ) को लाभ पहुँचता है। पीस कर मदन करने से पसीना लाता है। केवल अकरकरा, या अकरकरा और फावामिया दोनों के गले में डोरेसे बाँधकर लटकाएँ नो बच्चे की मगी दूर होती है। यदि इकरेंगे. काले कुत्ते के बाल और अकरकरा दोनों का चालक के बाँध दे ना इन्द्रियों में चैतन्यता हो नया प्रामाशय के रोग और उबर नष्ट हों। ___ अकरकरा के लऊक (अवलेह) में शहद मिला के पीने पे देह की कांति बढ़ती है, तथा छाती । कः दई, करु को पुरानी खाँमी एवं सरदी के रोग दूर होने हैं। यह अामा राय से प्राव को निकालता एवं शीतल प्रकृति वाले की मैथुन शक्ति को बढ़ाता है। * यदि आधा दिरम ( 31 मा.) घोट के पिर तो बलपूर्वक कफ को जुलाब द्वारा निकालता है। वर पाने से प्रथम अकरकरा को जैतून के तेल में पीस सम्पूर्ण शरीर में मालिश करें तो ज्वर, सरदी का लगना दूर होता है और पसीना लाता एवं देह के जोड़ (संधियों) की बीमारी दर करता है। अकरकरा के तेल को इन्द्रीपर मलने से इन्द्री दृढ़ नया कामशकिः प्रयल हेरती है, और मैन में विशेष प्रानन्द प्राता है। विधिपूर्वक शहद में घोल लिला ( पतला लेए) करने से स्त्री को बहत जल्दी स्खलित करता है। यदि बाकला के घाटे के साथ घोट पोटली में रख इन्द्री और अण्डकोपों में बांधे तो गुण करता है, अर्थात जिसके फीतों को बहुत सी लगती हो उसे लाभ पहुँचता है। - सबसे अद्भुत बात इसमें यह है कि इस को नौसादर के साथ बारीक पीस नालु और मुख में खूब लगाए अर्थात् रगड़े, तो आग से मुह कदापि नहीं जलता। अकरकरा को सिरके के साथ औटाप नी खमीर के सदृश हो जाएगा। इसे कीड़े ग्वाए हुए दांतों के ऊपर रग्बने से मन . कीड़े भर के गिर पड़ेंगे। एक श्रीक्रिया शुष्क अकरकरा को कूटे और श्राधसेर जल में श्रौटाए जब एक श्रौकिया शेष रहे तब उतार शीतल कर हाथों से मल कर छान ले, फिर दो औक्रिया जेतून के तेल के साथ दुहेरी देग में मिलाकर काम में लाए । गु -इस रोगन के पीने से पसीना निकलकर सर्दी का जर नष्ट होता है। यह सर्दी के यावन्मात्र रोगों को नष्ट करता एवं मैथुनशक्रि. को बढ़ाता है। अकरकरा का सऊत नाक में टपकाने से मस्तक पीड़ा,प्राधा शीशी तथा मृगी नष्ट होती है एवं यह शीतल व मस्तक को बलिष्ट करने में उत्तम है। जिगर के रोगों में अकरकरा की प्रतिनिधि पीपल और शहत है और प्रामाशय के रोगों में रासमा और अगर । यदि समय पर ये दोनों न प्राप्त हों तो उनके स्थान में सोंड और इससे प्राधी काली मिरच लेनी चाहिए। गंडप में पहाड़ी पोदीना डेढ़ गुना, हलक की पीड़ा में इलायची लेनी चाहिए। एवं अकरकरा के उसारे से निर्मित तेल लेना चाहिए। घामक व विरेचक औषध पीने से पहिले यदि अकरकरा बा ले तो फिर कड़ने, घरपरे, कषैले रस का कुछ भी ज्ञान न होगा। अतएव जिसको काथ श्रादि पीने से धृणा होती है हकीम लोग उसको प्रथम अकरकरा चबाने को देते हैं। जब बह चबाकर थूक देता है तो ऊपर से फिर जो क्वाथ पिलाना हो पिलाते हैं। For Private and Personal Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रकर अकरकरादिचूर्ण अकगस सेपोटा अकरकरादिचूर्ण karkarili chutpl. अकाव व हरो aaab bathri-० सिंगी -है. अकल्लकादि चूर्ण- अमृतमा चूर्ण- (-घी) मछली। यह एक प्रकार की रक अकरकरा,सेंधानमक, चित्रक आनला, अजवायन, प्रामायुक्त खाकी रंग की वृश्चिक सहर छोटी हड़ इन्हें समान भागल और सौ २ भाग लेकर : मछली है। (Sacho B .) बारीक पीस कपड़ छान करें । पुनः विजारे के रस अकाबुलमा anjabiiJ31132-अ० कर्क, की भावना देकर रक्खें। कर्कट, केकड़ा-हि। मान-अ.((Fitb) गुण-मन्दाग्नि, अरुचि, स्वामी, श्वाग्म, गले । अकरयान Augaryain - इम्कनकन्दएन । के रोग, सरेकमा, पीनय, मृगी, उन्माद तथा ! (Asplenimalciatim, I .) सनिपान को नष्ट करता है । श्रभि. नि. भा० । अकरविल्लोसम ( .:.] vil ].)$11111, IT.1.) अकरकराहा akakaraha. -हि. -ले० के डेरा--तिम०। यह चारे के कान में अकरकरोkarkar) -गुरू पाता है। प्रयोगांश-पत्र । मे० मा। कगा( PVTothri Radix.) अकरश indash.-अ० सील भेद । अकरकेशियम : (sim, Tull. अकरा-सोaqls,si-य० दबक, एक फल है -ले० हजल, किलपत्तर। इसका प्रयोग श्रीपध जी चने के दाने के बराबर होता है। किन्तु हेतु अथवा मवेशियों के चारे के लिए होता है। गोल नहीं होता। प्रयोगांश-शाम्बा और पत्र । मेमा । फा० ' अकरा akri-सं० स्त्रो० अामला का वृक्ष इं० १ भा०। P ío I ( Phyllanthus Emblicil. · अकरकांटा akar kanti. -हि०, ५० ढेरा, Lim.)-ले० । श० न० । महँगा, बहुमूल्य । अंकाल (Alangiillin Daptahim, अकराकरमः nkarakarath:h.-6. पु. Lam.)इं० मे० मे० । अकरकरा । (Pyrethrum Ritlix.) .. अकरखना akarakhani -हिं० क्रि० स० शाङ्ग० अकारादि चू०६ अ० । मा० । [सं० आकर्षण] (1) ग्बोंचना, तानना । (२.) चढ़ना। अकरामातोकान [ari-matinin-यु० ज़रूर, अधांत वे शुक ग्रोपधियां जो पीसकर . अकरषिक्टम् amr pictum, Thunm. व्रण प्रभृति पर छिड़की जाती है। अवचर्णन-संक। - -ले० अकर केशियम (ARI Cisit]m.) .. मेो। फा०ई०१ भा० । देखो-किलपत्तर । अकरम्भकः .kayambhakah -सं०पु० अकरप्स kayastu -अजमोद,करस प्रमिह : अकरकर (Iyrtothin tix.) (Apiun involucrarum.) अकरास ( akarāst)-हिं० संज्ञा पुं० [हिं० अकरब anqarab.-अ० (Scorpion.) अकड़ ] (1) अँगड़ाई, देह टूटना । संज्ञा पुं० वृश्चिक, बिच्छु-हिं । कज़ दुम-फा० [सं० अकर] पालस्य,सुम्नी,कार्य शिथिलता । अकरब ३akhab-अ० जंगली सरपी का अकरास सेपोटा achras supota, Lin. .. एक भेद है जिसका बीज श्वेत और लम्बा ! -ले० चिकु-मह| चिकलीचिक्कुकवथ-बस्व०॥ होता है। . फल-सपोट-हि, बं० | शिमैं लुपै-10 अकरवqara.ba-हिं० संज्ञा पु० [अ० शिम-इप्य-ले० । कुम्पोले-कना० । चकची जिस घोड़े के मुंह पर सफेद रोएँ हो और उन कोटी-कजहार-३० । पोडिन्ला प्लम, मफ़ेद रोगों के बीच बीच में दूसरे रंग के भी। (Superdillin ptum.), बुलीटी (Bit. रोग हो उसे अकाच कहने हैं। यह ऐबी समझा lly thi:)-ई। सैरोटिलीर ( Sapotiजाना है। lior-फा । शिमई इल्लु पाई-म० । For Private and Personal Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अकरासुलमलिक अकर्णः ___ मक वर्ग पौधा वा झाड़ी जो पंजाब, सिंध और अफगा. (1.). Seroineeti'. ) निम्नान श्रादि देशों में होती है। पुनीर के श्रीज उत्पत्तिस्याम-पश्चिमी द्वीप तथा भारत वर्ष के । -हि । कञ्ची-५०। प्रालिश-युoritharin अनेक भागों में इसको लगाते हैं। (Pumril ) (on.gulams. ई० मे० इतिहास व प्रयोगादि-पश्चिमी किनारी तथा मे०io इं० २ भा० । स० फा० ई० बंगा में फल के लिए इसके वृक्ष लगाए जा अकरोतन-मानस titas-mata-युगलेहैं और फन बाजारों में विक्रय हेतु लाए जाते ऊलीकुल कुस । है। भारतवर्ष के अन्य प्रान्ती में यह कम अकरुन ankitrinzhit-अ० तल या जतन होता है। पश्चिमी द्वीप य अमरीका में इसकी नैल की तलछट । सेडिमेण्ट ( liment)छाल यल्य तथा वरन प्रभाव के लिए प्रयोग में लाई जाती है। इसका बीज तीन रत्ती की # a krut-o petz Wikimit(Flyनया ( अधिक परिमाण में यह विजा प्रभाव lans regia, Linn.) उत्पन्न करता है) में मृबल है। भारतीयों में अकलबहर akhil-bahar-० माथा के इसके कल की बहुत प्रसिद्धि है। उनका कथन है ___महरा एक जड़ है जिसको लैफूलब हर भी . कहते हैं। कि यदि इसके फल को विघले हुए मक्खन में रात्रिभर गिो रकबा जाय और प्रातःकाल अकरूस quis-यु० अकमूम, मवेज़ज अम्ली मंचन किया जाय तो यह पित्त एवं घर संबन्धी । के नाम से प्रनिद्ध है। अकरांट akot-इ० प्राकरणों से सुरक्षित रखना है। (डाइमाक) ) अखरोट Jing. वानस्पतिक वर्णन-रुको बचा रकवर्ण की अफगेट्ट aktrottu-10 lans trick, हानी है। ऊपरी भाग धृमर वर्ण का होना है । lin.( walant ) स्वाद -निक और अत्यन्त कमैला ।! अकरो! akarolas-यु० हौज़ रूमी । फल-वाहरसे वरदरा और अंडाकार भी घर से श्रकरः akolh- पु० अखरोट (Juglans regia, Linn.) पीताभायुक्र श्वेत, नर्म और गृवादार-और पका : पर इसका स्वाद सेय के समान होता है। योज: अकराहक akolhak-फा अक्षरून (As. tragalus Sucocolla, Dywork.) काले रंगके चमकीले श्री डाकार और लम्बे होते हैं। : फा० इ०। रसायनिक संगठन-(१)दो रेजिन (IR : sins): जिनमें से एक ईथर में घुल जाना है, (२) कया अकोट kaloint- हिअखरोट,अशीट . : अकरीट akutOutli-ते. | Walnut यीन ( Tammin.) 15 प्रतिशत, श्रीर | .}(Juglans अऋगैड alkarold-मह० (३) एक जारीय सत्र मेपोटीन(Spot int) । regia, अकरौडु akaround11-कना० | जो ईथर, मद्यमार और सम्मोहिनी (Chloro linn.) form) में युल जाता है; तथा एमोनिया द्वारा अककर: karkitab । सं.पु. अकरकरा अपने लवणों से मित्र होकर नलम्थायी हो जाता अकलकर:akalkarab) (Pyrethrum है। इं० मे० प्ला०; फा०६०२ मा० । ! ___Radix ) गुणधर्म-उष्णवीर्य, बलकारक और - कटु तथा प्रतिश्याय शोध और बान नाशक है। अकग सुलमलिक Krasnl-malik-अ० एक । हिन्दी बूटी का नात्र है। कोई कोई नफल को । वै० निघ०। श्रकर्णः akarnah-सं० त्रि० (१) ID void अकरा Akuri-E0, (१) Dia.! (sels of ears, leaf बहरा, बूचा, बधिर-हिं० 1 .. of-) अँकरी । (२) एक अमगंध की जाति का : हे०००। (२) कान रहित (Destitute ot For Private and Personal Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अकत्तनः अकलयेर karna.)। (३) साँप, सर्प (Snake, अकलबार जानि a stlpent )! (1.O. Hitiscer.) अकर्तनः alka tarah-सं० त्रि० (Dwarf... उत्पत्ति-स्थान -हिमालय ( काश्मीर से नेपाल पर्यन्त ) और सिन्ध । ish ) वामन ! वै. श० लि.। वाँथोन-बं० । वानस्पतिक विवरण-कागड-२-६ फो0, अकर्षण akarshana- हि० संज्ञा पु० दे० कोर, शाखी: निम्नपत्र-१ फु०, पक्षाकार । आकर्षण। अकलकरः ॥kalkarah-सं० पु० उकरा, लघुपत्र ( पत्रक)-७-११ संख्या में, ई० लम्मा १॥ ई० चौड़ा, पत्रमूल (ठल )-युक, ऊर्च पोकरमूल (Spilanthus (Ocracere) (पत्र) अन्यन्न सूर नथा कम कटे हुए इ० मे० मे० । फा००। पुष्पपत्र (पंग्व डी) मनन्य (अनिश्रिन) अकलकरा akalkar का अकरकरा ३ इं० लम्बा तथा १। इ० चाहा, पुष्पटण्डी में अकलकोरा qalqari ) (Pyrethrumm प्रायः पतली धनियां होती हैं। Radix) FOOT पगग-कोष-लम्बा अधिक बड़ा, तन्तु बहुत अकल akala -हि. वि. [ मं० ] सूक्ष्म । (1) अवयव रहिन । जिसके अवयव न हो। नारितन्तु-चोथाई ई०, डोडा (छीमी) चौथाई (२) जिसके वंड न हो। प्रखंड । सर्वारपूर्ण । इन्ज लन्चा तथा इससे कार चौडा.एक कोषीय, सिरे (Not in parts, without prt s. ) परम्खुला हश्रा: बोज वहसंख्यक धारीदार होते हैं (३) [सं० अ-नहों+हि कल-चैन ] तथा अधार पर एक जालो नुना आच्छादन लगा बिकल । व्याकुल । बेचैन। रहता है। फ्लो नि० ई०। अकलवर akala bar-हिं० संज्ञा पुं० दे० प्रयोगांश-तुप, मूल, और स्वचा । अकलबोर। अकलबोर. a.ka.la.bi1: 16. संज्ञा पु० [सं०] रसायनिक संगठन ( या संयोगी तत्व )-- करवीर भांग की तरह का एक पौधा जो हिमालय पत्र तथा मूल में एक प्रकार का ग्लूकोसाइड पर काश्मीर से लेकर नेपाल तक होता है । इसको अकलबारीन (Dutiscin) क.१ उद२२ जड़ रेशम पर पीला रंग चढ़ाने के काम में श्राती ऊ, एक राल ( It sin) तथा एक भांनि है। ( Dativea, Canna billn, Linu.) का कटु सन्त्र पाया जाना है। अकलबारीन देखो-अकलवार ( Datistiny ) वर्णहीन रेशमवत् सूची अथवा अकलयर्की aka] burki-२० सर्वजया, कामा- छिलके रूप में पाया जाता है। यह शीतल जल क्षो-सं०। सवजया-हि। देवकली-मह० । में कम नथ। उष्ण जल एवं ईथर में अंशतः विलेय कृष्ण ताम्र-ते। कण्डामण्ड-ना०,(Canma. होता है। रवे (Neutral) और स्वाद में कटु Iulien, C. orientalis. ) ९०मे० मे। . होते हैं । १८." शतांश के नाप पर पिघल अकलवार akalabar-हिं० (१) सबजया-वं० : सर्वजया, कामाक्षो-सं० । तेहर्ज-काश। औषध-निर्माण-पौधे का शोनकपाय (Common Indian Shot.) इं० है. (१० भाग में १ भाग ): मात्रा-प्राधे से गा० । ई० मे० मेगा फॉ० इं० ३ भा०। १ श्राउंस (से २॥ ते०), चूर्ण-मात्रा अकलबार akalbir ! -हिं० पैर-वन, ५ से १५ प्रैन (२॥ रत्ती से ७॥ रसी)। अकलबेर aka.ly.:! भङ्गजल(फॉ० ई०) प्रभाष व उपयोग--अकल बार कट तथा -बन्न बंग ( ई० मे० मे० )-पं० ।। सारक है और कभी कभी ज्वर, गण्डमाला तथा वगतङ्गेल तेहर्ज-काश० । रेटिस्का केनाबीना! श्रामायिक रोगों में उपयोग किया जाता है। (Datisca Cannabina, Tinn.)-ले बगान (Khagan ) में इसकी जड़ को For Private and Personal Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अंकलाकरा অান্ধয়া कुचल कर शामक रूप से शिर में लगाते हैं। अकल्यः kalyah-सं० त्रि० रुग्ण, रोगी । मदन (Milken) के कथनानुसार कन्ल डिजीज़ ड ( Disasoil.), इल (III.) ई० (AKIN001) में बज्रबङ्ग नामसे उक औषध को ' अकल्याण Akalyāna-हिं० वि० [सं०] व्यवहार में लाते हैं। (स्टयुवर्ट) . अमंगल, अशुभ, अहित । __ यह पौधा ५ से १५ ग्रेन (२॥ से ७॥ रत्तो) अकालः akallah-सं० पु० अकरकरा (1yrकी मात्रा में विषम ज्वरों में उपयोग किया thrum Radix.) अ० टो० वा० । वै० जा सकता है। (डाइमांक) निव०२ मा० वा व्या० । ___ ग्रामवान (गया) में औषध रूपसे इसका अकल्लकः akallakah-सं० पु. अकरकरा अवसादक प्रभाव होता है । क्वाशिया (PST: thun Radix.) (Ritussja) के समान इसकी छाल में एक अकवारakuvar-हिं० पु० कुक्षि, कोख, गोद, तिक सत्य हेरता है। वैट) यजम (Busom.)-ई। पौधे का शीतकवाय कंऽताला, हि सहित श्रकशakash अ० बालोंका उलझना, गुथजाना, विषम ज्वर तथा कं व वायु प्रणालियों की घरवाले केश । कर्ड हेयर (Curled hair.) श्लप्मिक कलाश्री के प्रवाह में व्यवहार किया जाता हैं। इं० मे० मे०। अकसा akasi-iहं० पु० अकरा। वायु प्रणालीस्थ प्रदाह में श्लेष्मनिःसारक रूप : अकसीर akasira-हिं० संज्ञा स्त्रां० [अ०] में और दंत रोग में इसका स्थानिक प्रयोग । देखा-अक्सीर। किया जाता है । ( लन्दन प्रदर्शिनी १८६२) अका aari-अ० ज्वर के कारण मुख का स्वाद अकलाकरो kalakari -कना० अकर. बदल जाना, रोग से अन्न जल का धुरा लगना। अकलाकरी askākuti) कंग-हिं० । अकारकरभःKakuta bhah-सं० पू० (Pyrethrum Rallis. ) Filo or TFTFCT ( Pyrethrum Radis, स० फा० ई० । अकलं क aktlanka-हि०वि० [सं०] [संज्ञा ! अकाकरा akakira-हिं. करैला, काकरा अकलंकता वि. अकलंकित ] दोप रहित । (Mooli Chalalntia, Linn.) निदोष, बेदाग । | अकाका qatja-मि० एक मिन देशीय वृक्ष अकलंकताkalankati-हि संज्ञा स्त्री केफल हैं। [सं.] निदोपता, सफाई, कलंकहीनता। अकाकालिस jagalis-यु. चाकसू (१) अकलंकित akulankita-हि० वि० [सं०] Cassian absli | फा० इं० १मा०। निकलक, निदीप, ये दारा, साफ, शुद्ध । अकाकिया qasiya-० यह यूनानी शब्द अकरक akulkit- वि० (IT: Fory. प्रकाकिग्रा (akakia) से भरा बनाया गया Stadiun Int, it.) जलरहित, स्वच्छ ।। है। युनानी भाषा में श्रकाक्रिया कीकर को कहते अकल्का talki- हिरो० (Moon light) है; किन्तु प्रामाणिक एवं विश्वस्त अरबी तथा उपेन्सना, चाँदनी। फारसी तिब्बी ग्रन्थों के मतानुसार यह एक सस्व अकल्पन alkalpit 11--हिं० सचाहट, प्रकृत, सत्य, है जो कज (यह मिश्र के एक कण्टकयुक्र वृक्ष यथार्थ, वास्तविक । रीअल ( Real)-501 का फल है, जो कीकर का एक भेद है; कीकरकी अकल्मप akathashia-हिं० वि० [सं०] फलियों से जो सत्व बनाया जाता है उससे भी ये निर्विकार निदोष, पाप रहित, बे ऐब। ही प्रभाव प्रगट होते हैं।)के रस से तैयार किया For Private and Personal Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अकाकिया अकाकिया जाता है। निर्माण-विधि-इसके फल और पत्तों को कूट कर रस निचोड़ लें। पुनः इसको छानकर मन्दाग्नि पर यहां तक पकाएं कि यह गाढा होजाए। विवरण-यह भारी दृढ़ तथा प्रियगंधयुक होता । है। इसके छोटे टुकड़े प्रकार के सामने देखने से । हरित श्रोतल के रंग के म.लून होने हैं; किन्तु ।। को ई२ कुछ ललाई लिए हुए होते हैं। इसके बड़े बड़े टुकड़े काले वर्ण के दीख पड़ते हैं। स्वादमधुर, कसेला और लुग्राबदार होता है। शीतल जल में डालने से यह लुबाब रूप में परिणत हो जाता है और इसमें पीताभायुक्र धूसरवर्ण अथवा भूरापन लिए हुए हरे रंग के पदार्थ तैरते हए प्रतीत होते हैं । छानने के पश्चात् लुश्राब का रंग अबुल गोंद के समान होता है। प्रकृति-३ कक्षा में (अशुन्द्र ) ठण्डी और रूस ' है । हानिकर्ता-रोध उत्पादक है । दर्पनाशक-रोमन बादाम । प्रतिनिधि-चन्दन और रसौत । मात्रा-३॥ मा० । अकाकिया-गुणा बम-यूनानीग्रन्थकारों के जन से अहानिया बालों को काला करता है । क्योंकि यह बालों की तरी को दूर करता है। सभी के फटे हुग हस्तपाद (विवादिका ) के लिए गुण दायक : है, क्योंकि अपनी संकोचनीय शनि के कारण यह . अवयवों से विच्छिन्न भागों को संकुचित एवं एकत्रित करता है, अवयव को अलवान बनाना और इसे फटने से रोकता है। दावस (अंगुल बेड़ा ) । के लिए लाभदायक है, क्योंकि इस में दरदक पैदा करता तथा माहाको लौटाता है । इसी कारण अन्य शोथों कोभी लाभप्रद है। मुह के क्षनों को दूर करता है क्योंकि उन रहूवनों को शुष्क कर देता है जो क्षतको पूरित नहीं होने देती। अपनी शुष्कताके कारण संधियों की शिथिलता को लाभप्रद है। दृष्टि को बल देता और उसे सूक्ष्म एवं तीय बनाता है क्योंकि यह नेत्र की सान्द्र रतूवतों को जो रूहको गलीज़, करने वाली हैं, श्रमिशोषित कर लेता है। श्रात्र प्राने में लाभ व शान्ति प्रदान करता है, क्योंकि यह ौत की और मलों के बहाव को रोकना है। और नाखना (नेत्रम्य र विन्दु) को अापकों में डाला जाता है, क्योंकि यह इन्दि की शक्ति प्रदान करता है, और इसकी चिकिम्मा जो उण नीरस एवं भक (अकाल) प्राधियों उपयोग में पाती हैं उनकी पीड़ा से नेत्र को सुरक्षित रखा है। पान, अनुलेपन तथा बसिस (हु कना) रूप से प्रयुक करने से यह कज पैदा करता है । प्रवाहिका रातोसार र रात्र का नृण करता है। निकली हुई काँच (गुदभ्रश) को अमलो दसा पर लौटाना एवं उसको तिथिला कोदर करता हैं, क्योंकिहममें संकोचक शधि तथा रूजता विद्यजात होती है। उ अभिप्राय हेतु इसकी बिलाते हैं अथवा इसे लेप रूप से उपयोग में लाते हैं। ( नका.) अकाक्रिया या प्रकाकिया के प्रभाव तथा प्रयाग-कफ निस्मारक, वक्षःस्थलस्थ वेदना श.मक, संकोचक,रक्रस्थापक, मताजनक और बल कारक । श्रत प्रणालीस्य कलाओं तथा जननेन्द्रिय या मत्र मान्धी अवयवों पर इसका सर्वोत्तम प्रभाव होता है। इसी कारण अनिमार, प्रवाहिका, पूजाक(पूय मेह), नासूर और पुरातन बस्तिप्रदाह प्रभात विकारों में यह अत्यन्त लाभदायक सिद्ध होता है। यति अकीन तथा इसके कुछ योगिकों को अर्षका यह का प्रभावजनक हाना है, तथापि उस अवस्था में, जब कि यह अकेला उपयोग में लाया जाए, सनस्त वानस्पतिक तथा खानेज संकोचक श्रीपों से अधिकतर प्रभावकारक प्रमाणित होता है । जलोदर के साथ जब अनि सार एवं प्रवाहिका हो तो अपील और इसके योगिक प्रायः हानिकर होते हैं, क्योंकि जिस मात्रा में अतीसार प्रभति को रोकने हैं उसी अनुपात में जलोदर को वृद्धि करने हैं। इसी कारण "श्रतक्रिया प्रांत्र रोगों में अफीम तथा इसके अन्य यौगिकों का अपेक्षा श्रेष्तर तथा लाभदायी औषध हैं। अक़ाकिया मरसूल (धोया हुश्रा)-इसकी विधि इस प्रकार है-अक़ाकिया की पानी में सरल For Private and Personal Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अकाकिया करके ऊपर का पानी नियार कर पका लें, और इसी प्रकार तब तक करते रहें जब तक कि पानी स्वच्छ न दिखाई देने लगे तथा इसका रंग बदलना बन्द न हो जाय । पश्चान उसकी टिकिया बना लें। उपयोग में लाने से पूर्व इसके धो लेने यह और उत्तम होजाता है । १०फा० ई० । ई० मे० ० । फा० इं० २ ० त० न० । देखो-बबुरः । काकिया akakiya-fo, ६० अ० हिं०, बाज़ा०, थकः क्रिया-कर्ज़ का गाड़ा किया हुआ स्वरम ( उमारह), कीकर का रस, रङ्ग अकरir - अ० ( ब० ब० ); अक्कार ( ० च० ) जड़ी बूटियाँ औषधि । ह (Herb)-इं०। काचा akacha-सं० खो० प्रपोटन, पुनीर (एक भारतीय बूटी है), कान | Withania ( Panacaria ) coagulans, Daunat. -ले० अकाम aagam-अ० अक्रीन । बन्ध्या स्त्री वा शुरु | स्टेराइल (Starile)-201 अकाम akánna-सं० त्रि० ( trace from desire ), -हिं० वि० बिना कामना का का मना रहित । इच्छाविहीन प्रथ० सू०, २, ७, का० ६ । अकामा akáua-हिं० वि० स्त्री० [सं० ] (श्री) जिसमें काम का प्रादुर्भाव न हुआ हो । यौवनावस्था के पूर्व को । संत्रा बी० काम चेष्टा रहिन श्री । कामो akani-हिं० वि० [सं० प्रकामिन् ] [स्त्री० प्रकामिनी ] जो कामो न हो । जितेन्द्रिय । अकाय akaya-हि० वि० [सं० ] ( 1 ) ( Without body, incorporeal) बिना शरीर वाला। देह रहित । कायाशुन्य । ( २ ) अशरीरी । शरीर न धारण करने वाला, जन्म न लेने वाला । ( ३ ) रूपरहित, निराकार । कार akava - ० संज्ञा पुं० अक्षर । दे० | आकार | ३ 39 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अकारा, -रः अकारaagar - श्र० ( Wima ) - इं0 1 अकार अनāagar āarbanis- र० या जरा, चत्रक, प्रश्नान - का० । ('yelahtm Persicum, Hitler. अकारथ्यादम-Āagavadam-o मैदा लकड़ी -हिं० । मगास नगासे.. हिन्दी ऋ० । किल्ज़ -फॉ० | Tetrantha Roxburghii, Aees. ( Wood of - ) । मुशैयेहि, मैदा लक्टि, पिशिन पट्टइ-ता० । नरमामिति मेदा -० । कुकुर चिता वं० स० [फा० ई० । अकारक मिलाव akaraka-miláva-fo संज्ञा पुं० [सं० प्रकारक + हिं० मिलाव ] ऐसा रसायनिक भिण वा मिलावट जिसमें तिली हुई वस्तुओं के पृथक् गुण बने रहें और दे अलग की जा सकें । For Private and Personal Use Only शराब, मद्य ' वाइन अकार कोहान aqar-kohán ( 1 ) अकर करा ( Pyothi Radix ) ( २ ) कुदे सलीब, कावानिया फ़ा० अ० । ऊदे सालप-हिं० | Puronia officinalis, Fiung P. Corallina, Tinn. ( Male variety ) अकारकाँटा akar-kánta-हिं० पु० ढेरा, अंकोल | ( Alangium Decapetalum, Lam ) - ले० । अकारनलन akar-talún-रू फारस देश में होने वाले एक जंगली वृक्ष का बीज है। इस वृक्ष का पुष अत्यन्त लाल तथा नीलगू एवं सुन्दर होता है । स्वाद-मधुर । अकारवा aqárava--कराया, जीरा भेद । ( A kind of cumin seed. ) अकार सौसीनाई āagar-sousinai सुर; ईसा - हिं० । पुष्करमूल, पद्मपुष्कर-सं० । Orris root ( Iris Florentina. ) अकारा,-रः akárá,-rah-- हिं० अपामार्ग, चिरचिटा ( Achyranthes aspera, Finn ) फर ३० । Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अकाराअरून अकालशयनम् अकाराअरून āngāra-aartin-सिर० अस्- अकाल जलदः kila-ja !udinh-सं० पु० रारा, एक बारीक चूर्ण है जो कभी कभी प्रांत्र ' येसमय का बादल ।। द्वारा पीर कभी खुन्सा की जड़से बनाया जाता है। ! अकालपुष्पम् akilin itshvanm-सं० क्ली० अकारोकन akārigun-जंगली जैतून का बीज अकाल कुसुन, बे मौसमका फूल (AO ( ।' ( Will Olivi-oil sie) blossoming out of wason.) अकारून amarun-रु० बज-अ० । यत्र-हि। अकाल भोजनम् alkala.bhojit}}:1}}-सं० Acorus calants, Linit. कली असमय भोजन अर्थात् भोजन के समयसे अकाल akāla-हिं० संज्ञा पु० [सं०] (वि० अका- पहिले अथवा समय बिनाकर भोजन करना । लिक) (१) बुर्मिन, दुष्काल, महँगी, कहत गुशा-इससे शरीर असमर्थ हो जाता है और ( Famine ) । (२) । असमय इस कारण शिर दर्द, विचिका, अलसक अनुपयुक्र समय, अनवसर, अनियमित : और बिलम्बिका ग्रादि रोग उत्पन्न होते हैं । समय । ये ठीक समय । कुसमय । . और रोगों की वृद्धि होने पर मृत्यु भी होजाती श्रीक समय से पहिले वा पीछे का समय । प्रिमेचर (Premature ) प्रभातकालभुजाना समर्थतनुर्नरः । अन्टाइम्ली (Untimely) -इ.। तांस्तान्व्याधीनवाप्नोति मरणञ्चाधिगच्छति ॥ (३) घाटा, कमी, न्यूनता । मा० पू० १ भा० १५१ श्लो० ॥ अकालह. kalah-अ० अक्लान, हिकह । अकालमृत्यु ukalamrity हिं० संज्ञा स्त्री० ख़ारिश-का० । कण्डु, खाज, खुजली, खुजाहट, [सं] असामयिक मृत्यु । क समय पहिले -हिं० । पुराइटिस (Pruitis)-इं० । की मृत्यु । अनायास मृत्यु। धेड़ी अवस्था का अकालकु(कृ)ष्माण्डः ॥kāla-ku-kushlan. मरना । अपक्क नृत्यु, कुमय (समय) में dih-rogo(\pionpkin producer मृत्यु (संस्कृत में मृत्यु पुलिङ्ग है)। अन्टायout of seasoi. ) असमय में होने वाला म्लीङथ ( Chillily (11) कुप्माण्ड, ऋतु के अतिरिक्त होनेवाला कुम्हड़ा। अकालमेघादयः akilisit hodnyan-सं० अकालकुसुम akāla-kusuma-हि संज्ञा पु० पु. १-(Anitlistasonable rise (11' [सं० अकाल कुसुमं ] (१) बे समय फूलने gatheriny of clouds) अकाल जलदो वाला, बेसमय का फल । बिना समय बा तु में दय, असमय में बादल होना (mist or फूला हुश्रा फूल । ( flone blossto. fon) कुहिरा, अवश्याय । ming out of saason) (२) समय अकालवृष्टिः ।kālin-rishtin-सं० हि स्त्री० की चीज़। असमय की वर्षा (Lutily rain) नोट--यह दुर्भिक वा उपद्रव-सूचक समझा अकालवला kilasta-हि० मा पु० जाता है। ' (C21csomable or imjunior अकालजम् ॥kiln.jam-सं० त्रि. ( List:- S im) असमय ।। asonable, Premature, policed अकालशयनम् akala-shayaman-सं० क्ली० out of season) अकाल उत्पन्न, अकाल ' . असमय का संांना, वेसमय की निहा। जात,ये समय उत्पन्न हुश्रा, यथा गुए---अकाल शयन से कफ कृपित होता है "श्रकालजन्तु विरसं न धान्यं गुणवतंस्मृतम् ।" , और प्रतिस्याय, दीनस, इय, सूजन, विरोरोग, अर्थात् बे समय उत्पन्न हुश्रा धान्य स्वाद रहित तथा अग्निमांद्य प्रभृति रोग होते हैं। वा० सू० और गुणहीन होता है। राज। अ० । हा० । अत्रिः १ स्थान २३ श्रा For Private and Personal Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रकाशबेल अकालिक अकालिक akālika-हिं० वि० [सं०] असान- यिक । बिना समय का । बे मौके का। अकालीम filim-अ० (व.व.), इलीस (प० व०) देश, भाग, स्थान-हिं० । कण्ट्री : ((ountry)-ई। अकात्र kava-हि. संज्ञा पुं॰ [सं० अर्क] : (alotropis vigantea, R. 1}.. प्राक, मदार । प्रकाशदेवी akasha.tlessiद० एक पौधा विशेष । ' अकाश (स ) पवन akash,s-iita}}-द० श्रकासबेल, अमरवेल--हिं० । कसूस-का0। ((luscita. RI!::I, Rob.) इं० मे० मे० । प्रकाशववर-गे kisha badal,-'--हि. अकासंबल(Cust Restisa, R..) प्रकाशवल्लो akashat]i-सं० स्त्री० अकासवेल (Crascinta Refloxaner.in.) प्रकाश (-1) बेल akasha, sa-ht:Ja -हिं० संता पु०सं० अाकाशवेलि] अकाशवरी, अमर-बेल,प्रकाशबेलि, अंबरवेलि, प्राकास बोर, . -हिं० । अकाशग्री, बबल्ली, अमर बली-सं० । प्रकाशवेल, प्रालीकलता, अल्गुसी, हल्दी, अलगुमालता-बं० । अफूतीमूने हिन्दी यु०, अ०। कप से हिन्दी-फा० । करस्युटा रिफ्लेक्मा ( Kusutaa RoxaRiy) केम्सिधा फिलिफॉर्मिस (Cassytha Fili formis,Lin. )-ले। डोडर (Dorlklor) -₹। कोतान, इन्दिरावल्ली, नान्दे-ता०। इन्द्र जाल, पानीतिगे, पञ्चनिगा-ले०, तेलं० । प्रकाश वल्ली--मल० । बेल्लुबल्लि, नेलमुदत्रल्लि, शविगेबल्लि अमरबलि-कना०,कर्ना। अमरबेल, अन्तरबेल, . सोनल, अलरोहल्ला-मह० । अमरबेल-गु०। कोतन-द०। अल्गजड़ी-सन्ता० । नेदमुनवल्ली-- का० । अन्तरवेल-को ? शियन--तु० । लतावर्गLY.O. Conclularity उत्पत्ति स्थान प्रायः समस्त भारतवर्ष । वानम्पनिक विवरग-अकामबेल पर्वथा एक परायी लता है जो डोरे सी कोकर, बेर, अइसे इत्यादि वृक्षों पर जाल की तरह फैली हुई होती है । इसका तना गहरे हरित वर्ण का होता है जिस पर लम्बाई के रुख पीली पीली धारियाँ पड़ी होती है। अंकुर से पतली जड़ निकल कर भूमि में प्रविष्ट होजाती है और तना शीघ्र शीघ्र बढ़ने लगता है। इससे चीपक सूत्र (Suckers) निकल कर निकटस्थ वृत्त की डालियों में निज श्राहार हेतु मार्ग बनाते हैं और उन वृक्ष से श्राहार सम्बन्धी अावश्यक तत्व, जैसे-जल तथा लवण जो वृक्ष में विद्यमान होता है, प्राप्त करते हैं। इस प्रकार को व्यवस्था होजाने पर जड़ सूग्व जाती है और पुनः लता का भूमि से कोई भी सम्बन्ध नहीं रह जाता । ऐसे भी इसके टुकड़े करके वृक्षों पर डाल देने से यह उस पर बढ़ने लगता है। यदि अंकर को कोई उपयुक्र आधार न मिले तो भी वह सूख जाता है। सूक्ष्म परतों के अतिरिक इसमें पत्ते नहीं होते और नही इनसे उनको कोई लाभ होता है । तने को काट कर देग्वने पर बाहर मज़बूत नालीदार रेशे और मध्य में म गदा दीख पड़ता है। पुष्प श्वेत रंगके पाते हैं,पुष्पवाह्यावरण (Sepals) को हटाने पर भीतरसे मटर के आकार के गोलाकार वीज निकलते हैं। वर्षाकाल में इसकी बेल उगती है तथा एक ही वृक्ष पर प्रतिवर्ष पुनः नवीन होती है। इसी कारण इसको "अमरबेल" ( immortal ) कहते हैं। यह वृक्षों के ऊपर होती है और इसका भूमि से कोई सम्बन्ध नहीं रहता इस कारण इसको आकाराचेल अादि नाम से पुकारते हैं। इसका लेटिन नाम कस्क्युटा (Cusentia) कसूस से, जो अफ़्तीमून (अकारा बेल विलायती) का अरबी पर्याय है, व्युत्पन्न है । देवा-अफ्नोमून। उपयुक्र दोनों लेटिन पर्यायों में से प्रथम अर्थात् कस्क्युटा कॉन्वॉल्ल्युलेसीई वर्ग का तथा द्वितीय अर्थात् कैम्मिथा लॉरेसीई ( Lauractet') वर्ग का पौधा है। छोटे छोटे भेदों के कारण इसकी बहुत मी जातियाँ हे।गई हैं । अस्तु, इनमें से किसी के For Private and Personal Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रकाशबेल डंठल पीले और किसी के लाल होते हैं; किसी के फल बड़े और किसी के छोटे होते हैं; इसी प्रकार और अनेक भेद प्रभेद की बातें है । चूनानी हकीम जिस श्रोष को काम में लाते हैं वह श्रतीसून नामसे फ़ारस प्रभति देशों से भारत वर्ष में आती है । प्रयोगांश- पौधा ( मेकसूस ) और तना । रसायनिक संगठन-क्वरसेटीन ((Queretin) राल और एक प्रकार का क्षारीय सत्र कसूसीन या अरीन ( ( 'usentine ) जो कुछ २तिक एवं ईवर और क्लोरोफार्म में विलेय होना है। गुणधर्म तथा उपयोग आकाराबेल -- प्राही, तिक बिच्छिल, नेत्ररोगनायक, विद्धक, ह और पित्त तथा कफ को नारा करने वाली है। भा० पू० १ आ० । मर० १० १ । २० मधुर, कटुविनाशक, शुक्रबद्ध के और रसायन बल्य है। रा० नि० ० ३ । यूनानी हकीम आकाराचेल को उच्च क्ष मानते हैं । हानिकर्ता - मृच्छोजनक, तृष्णाजनक और वाताजनक है । प्रभाव कासवेल के गुण वैयक न्यों में वर्णित हैं ग्रफ्तीमून के प्रायः देही गुण यूनानी ग्रन्थों में पाए जाते हैं । यही क्यों प्रसिद्ध युनानी free मजनुल द्वियह के लेखक मीरमुहम्मद हुसेन ने तो इसके गुण प्रस्तीमून के सहरा ही वर्णन किए हैं । अतः सर्वसम्मत से इसके मुख्य मुख्य गुणधर्म निम्न प्रकार हैं- परि वर्तक, पित्त, करु, तथा श्रमनाशक प्रशोधन, मस्तिष्क विकार, यथा-- उन्नाद च आदि को लाभदायक, रक्रशोधक, हृदय को हितकारी, शुक्रवर्धक, नेत्र रोगनाशक, अग्निकारक, पिलि, ग्राही, बलकारक, रसायन और दिव्य है । इसका प्रयोग ( पुल्टिस रूप में ) स्थानीय वेदनाशामक तथा कराडुघ्न है । स्वाद--- मधुर, कड़वा, कसैला और चरपरा) : Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कित मति श्री निर्माण रतिकाय, काय, चूर्ण और पुलटिस | मात्रा - रत्ती से || तीला तक दशक से तीरा, बाजरीन | प्रतिनिधि-कली निशय या विमायज ! अकाशवेल द्वारा अहम वस्तुत करनाहरी अकाशन का मानो १० तो निकाल कर चांदी के पत्रो० हाज़कर खरल में घंटें । शुक होने पर डिकिया बना कर छोटे रात्रों में बंद करके पांच सेर उपलों को श्रच दें। होने पर श्याम भरत निकाल लें। मात्राएक चावल से एक रतो तक, उपयुद्ध अनुपान के साथ सेवन करें। अकासकृत अकास akasa हं० ए० दे० आकाश । akasakriti-t० मंत्रा ० [सं० प्रकाश ] बिजली | श्रतेक | कासन akasim-० संज्ञा पु० [ मं० प्रकाशविष्य ] एक पेड़ जिसकी पतिय बहुत सुन्दर होती है। कासवेल विलायत akasab lavilayati - हिं० प्रकाशवेल भेद । श्रतो न श्र० । (Cusenta R-flexa, och,) tariakasa-mugri-को० सन्ध्याराग FLULAÌ, HA-AEta-te 1. Four o' clock flower ( Mirabilis Jatappit, Linn.) । ३० मे० मं० । श्रकाल akahuli-है० ज० अंधाहुली, stage (Trichodesma Indieum) -ले० । अतिagit अ० उस पनीर की कहते हैं जो कही के पानी टपकाने के पश्चात् शेष रहता है । उसमें लवण मिलाकर शुष्क कर लेते हैं । प्रक्तिन agita० या यममुग, मूँग - हिं० (Phaseolus Mango, Lian.) अक्ति मकित akit makit ऋ०, सिर०, करज्जुत्रा, काजी, कः करब ४० । कुशनिफलम् - सं० | ख़ायडे इब्लीस- का० / Cousaipinia ( equilandina ) bouducr]la, Linn. ( Nut of Bonduc-put. ) स० [फा० ई० । फा० ई० । For Private and Personal Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अकिव अकीदन अकय iit;-अ० (१) पारिंग, एड़ी-हिं० । गुग---द्रोग विशेष कर मूर्छा तथा पुरानन पारन --- ( ( iis, Hol. (२) शुष्क कासको अत्यन्त लाभ पहुँचाता है । रुधिरको मंत्रिबंध', म्नायुर-हि । रिवात-अ० । बन्द करता है । उचित अनुपान के साथ सेवन करें। ( Ligitment) (२)री। की छाल १ छटांक, १ तोला किलवहार akilabithai- संज्ञा० पु० अतीक श्याम, एक बर्तन ने उन छाल अकीक कि अफ्रीकुल बह ] वैजयन्तीका पौधा व दाना । के टुकड़ों के नीचे ऊपर देकर बन्द कर कपड़ अकिलिवर nitisha- वि० [सं०] . मिट्टी करके एक जन उपलों की पांच दें। यदि (1) पवित्र (२) निघत, शुद्ध ।-मंग पु० शुद्ध- फल न हो तो एक यांच और दें। प्राणी, पारशून्य मनुष्य ।। गुण-प्रामाराय को बलप्रद, कालोधीपक, हृदय अकोक .in ::-* ना पु० । अगे(Aarat.) वनास्तिक को बलप्रद ( हृद्य व मेथ्य), सुधाअकांक inniff-अ -ई.यह एक प्र- वर्धक और पूय मेह को लाभकारी है। कार का ग्यनिज पथर है जो कई प्रकारका होता है (३) शुद्ध उमान रगरहित अकीक को अर्क इननं यानी.पाताभायुक,रक वर्णीय इसके पश्चात बेदमुष्क और केवड़ा में इतना खुझाएँ कि टुकड़े पीन पुनः श्वेन बीय, सत्ता हेता है। किसी दकडे होजाय फिर उसी अर्क केवड़ा श्रीर बेदमुश्क किमी हकील के विचार में यकृत के रंगका अर्थात से दोपहर खरल करके टिकिया बना लें और लोहित वात्रामा मत्तल हे।ता है। यह बंबई, गुलाब के कस्क में लपेट कर शराव सम्पट कर दांदा और खंभात ने आता है। इसकी कई . २०-२५ सेर उपलों की प्रांचदें। एक या दो किम्म यमन और बादाद में भी पाती हैं। . प्रांची में फुल होजाएगा । मात्रः-एक रती तक। गुगधर्म-अकीक हृन है और मुर्छा, शोक, गुरा-अ.नांगों को अल प्रदान करने, विशेष रजम्यान, पीहा और यकृत के महों तथा अश्मरी को कर मूर्छा, के लिए उत्तन है। ..' नाट करने बाला। इस नेत्र में लगानेसे ज्योति म.ट-कि यह एक अन्यन्त कठोर एन्थर की वृद्धि होती है । इर की असम-उपयुक है अस्तु इसके अग्नीकरण में ऐसा प्रयन्न करें रोगों के अतिरिम जमाङ्गों के बल प्रद, कामो कि जिसमें यह बिल्कुल आटे की तरह बारीक श्रीरक और शुक्रका गाढ़ा करने वाली है । उसरों में । विस काय और इसमें करकराहट अवशेष न रहे। इसका उपयोग लाभदायी सिद्ध होता है उक्र अभिप्राय हेतु इसको बृटियों के जल में देर तन सूज़ाक तथा व्रणों का पूरित करता है। तक खरल कर नीरणाग्नि देने रहें। श्रकीक परम बनाने को विधि- अकोकह anigah-अ० नवजात शिशु के शिर ( ५ ) अतीक 7 मा०, कमल गहा ॥, कमलगट्टा के बाल । को कृष्कर एक टाट पर प्राधा बिछा और अकीक : अकोकलबहार aiqul babar-अ० जयाकी नमूची डलो उन्मपर रखकर शेष प्राधा : पुष्प, जयन्त (Stsbunia anukata, ऊपर बिछा। टट का गुनला मा बनाकर । Pri.) १० सेर उपलों की जांच में एक यांच में भस्म अकील akikh-का. रे., आंत्र, तीन होगी अन्यथा वो तीन च और ।। उचित : (Intestives) तो यह है कि मकोक को गुलायार्क में १०- अकीदुल अनबaaqitlu aanab-अ०. मद्य१५ बार बुझाव देलें जिससे वह टुकड़े टुकड़े हो भेद-हिं० । मैफरतज-अ० । (A kind of जाय । इसे गलाबार्क वा बेदमुश्क में खरल करके ___wine) टिकिया बना कर भाग दें। अत्युनम भम्म प्रस्तुन ! अकीदून akilin-२० सुम, खुर । हूत होगी। मात्रा- ये २ रशी नक । (Cleran, A hoof )-९०। For Private and Personal Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अक्रोम अर्कालिया टर्मिका अकीम् aa[im-अ० बन्ध्या, बॉम चाहे पुरुष हो। अ (ए) कीरैन्धीस एस्परा achyranthas अथवा स्त्री। स्टेराइल (Sterile )-101 asp.ra, I.inm.--ले० अपामार्ग, लटजीरा नोट-नोंक पुरुष वह है जिसके वीर्य में हिं० । स० फा० इ०। ई० मे० मे० । गोत्पादक शक्रि न हो और बन्ध्या स्त्री वह है . मे०लां० । मेम. । इहैंगा. । फा०३०२ जिसमें गर्भ न ठहरे। अक्रीम शकर यथापि पुलिङ्ग भा० । या स्त्रीलिङ्ग धोनों के लिए प्रयोग में लाया जाता अ (ए) कोरन्थीस, क्लाइमिंग (chintहै, तथापि कभी स्त्रीलिङ्ग के लिए अनीसह शब्द hos, cliinbing)--इं० ( A Familको उपयोग में लाते हैं। Hus karin.) ई० है. गा । अकोमह aqimah-अ० बन्ध्या स्त्री । स्टेराइल (ए) कोरन्थोस, ट्रिगडा achyrarth वुमन (Sterile woman )-ई०। ०, triandra, Ren-ले० साँचो, अकीमूज़ akiinuz-अ० शालञ्चह.। ई० है. गा० । अकोसkimus | अ (ए) को रैन्थोस, थ्री स्टेमेग? •hyaयह शब्द एकिमोसिस ( Echymosis) से . nthes, the state intel, Raath. ग्युत्पन्न है, जिससे वे चिह्न अभिप्रेत हैं जो चोट -६०, साँची, शालह । ई० है. मा०। प्रभृति के कारण यः स्वचा में रक के जनने से श्र(ए) कान्थोस, रफ achyranthis, रफ अथवा नीलवर्ण के पड़ जाते हैं, जैसे-नेत्र rough.- अपामार्ग, अगरा (-री), . का लाल विन्दु। हलीम, महत । ईहे.गा। अकोर aaqi1-अ० तिकतम,श्र-यन्त कद (का )। अ (ए) कीरेन्थीस, लैनेटा achyrantha's दी मोस्ट बिटर(The most biti antal, Ro....-ले० चाया । 10 है. अकोरन्थस होलो लोड achyranthus गा । ___holy leared- हरकुच काँटा-यंका श्र (प.) कारन्थोस लेरिया achyrintअ (प) कोरन्थोस श्राइलिसिफोलिया (a.: his Laparia-ले० कापामागं, लाल. chyranthis licitolin)-ले० एकच : ओंगा। काँटा, हरकत। (ए. ) कारन्यास बलाachyranthies, (छ) कारन्यास प्राल्टर्निफोलिया ( wooly-०, चाया ६० है. गा०। chyranthes altermifolia ) ले (ए) कोरन्थस स्पिकंटाichyranth' अजाशृंगी, गंगाटी (--तियः), उतरन-हि।। Spicata, Barm.-ले० अपामार्ग Th: इं० है गा। prickly chaff flowing to अ(प.) कोरन्थोस प्राल्टनेट लोहड achy- : मेला । ranthes alternate leaverlo | Trae E MEET achyranthes गंगाटी, उतरन-हिं०।१० हैं गा०। holyteared-ई. हरच काँटा-बं०। अ (प.) कीरन्थोस ऑन्टयुजोफोलिया achy- | अकोला incila गारह। ranthes obtusifolia, Lamb.- m a at #ETSET achila cuspida(The prickly ehaff flower) अपा- ta, D. C.-ले०, बरजासिफ़-कछ, हिं० मार्ग--हि. । मे० प्लां। बाज़ा० । रोजमरी-बस्व०६० मे० प्लां०। अ (ए) कोरेग्धोस इण्डिका achyran- अकीलिया टर्मिका achillea terinica-ले० thes Indiica, Rorn.ले० अपामार्ग कुन्दस-यु० । जुन्दयेदस्तर ( Castoree-हिं०।९० मे० प्लां। mm.) For Private and Personal Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अकीलियामारकंटा अकवायलास अकोलिया मॉस्कंटा achilla. moschatai पदार्थ जिसमें शहद को हल करके जोश नहीं -ले० यह बाल्पपार्वतीय पौधा है जिसमें कस्तूरी- दिया जाता। हनीवाटर ( Honey watवत् गंध होनी है । इसमें उग्र स्वेदजनक तथा । ) प्रारोग्यकारक प्रभाव होता है । फा०६०२भा०।। अकुरु akuru-सिंगा० गुइ-हिं० । कन्द-फा। अकोलिया मिलोफॉलिअम् ॥chilla mille गृह-द० । जे गरी (Jaggery of sugal tolium, Linm-लं० बरिासिफ, बूथे- cale)-इ० | स० फाई। मादरान-का० । मोमा चोपन्दिया-काश० । अकुरु अरक akuru-arak-सिंगा. गुड़ की बरयर-मि०। सयुबर्ट महोदय के कथनानुसार शराय-हि । गुन की दारू, गुड़ की शराब-द०। यह बाजार में बिकने वाला एक पौधा है। इसके (Liquor of Jaggery) 5o Fitool पुष्प और पन आषध कार्य में प्राते हैं। इं० मे0 अकुल: akulah-सं०बि० (१) निरस्थि द्रव्य, ला० । फा० इ०२ भा०। मेमो०। बीजशून्य । चलचि०१ 01 (२) लम्ब अकालिया संन्टोलोना-achilleu santo. कर्णहीन मध्यम अश्व, यथा-"लम्बकणोंऽजटश्चत्र Tina, lin".-ले० परिक्षासिफ़-फा० ।। अकुलः परिकीर्तितः। जय० अ०। (३) फा० इं० २भा० कुल रहित, परिवार विहीन । जिसके कुल में कोई अकीलीइक एसिड .cbilleic acid-इं० न हो। ( ४ ) बुरे कुल का । अकुलीन । नीच वरितालिफ या विषका तेज़ाब (Atomitic : कुल का । acid) फा०ई०२ भा०। अकुलाना akulani-हि० क्रि०अ० [सं० श्राकु. अकोलाईन chilline-ई. यह अकीलिया लन ] (१) व्याकुल होना, व्यग्र होना। मॉस्केटा द्वारा निर्मित एक क्षारीय सव है। फा० (२) विह्वल होना, मग्न होना, लीन होना, ई०२मा० । श्रावेग में प्राना। अकालीन achilli in-इं० रामायुक्र धूसर : अकलिनो akulini-हिं० वि० स्त्री० [सं० वर्ण का सत्व जो बरसासिफद्वारा प्राप्त होता अकुलीना ] जो कुलवती न हो, कुलटा, प्यमिहै । फा०ई०२भा०। चारिणी । अकीलीस qilis—यु० फरजमिश्क,रामतुलसी, अकलीन akulina-हिं० वि० [सं०] बुरे कुल अम्बल ( (Ocimull gratissimun | __का, नीच कुल का, सुरछ वंश में उत्पन्न, कमीना, Lint.)-ले०। द्र। अकीसून arisin-यु. एक अप्रसिद्ध करटकन य . ; अकल बलसाँ aqulla. balasan-अ. रोगने बृटी है जो बादावद के सदृश होती है, और बलसाँ-फा० । बलसों का तेल-हिं०,०1 द्वन्टलस (Spain) में उम्पन्न होती है। Balsamumm, Var,of (Blasam of अकुजोमड़ akuji madi-ते. थूहर, हुड, Yocca or Balm cf Gilead.)-ले०। (Euphorbia Sevilolia, Linn.). Haiqalan quroyalá-samún- o इं०मेक मे। दोह नुल बलसाँ, रोगने बलसाँ-फा० । बलसाँ अकुप् akup-फा० मुख के भीतर, मुख की नाली का तेल--हिं०, द०। (Balsamum). ((Esophagius) ___ नोट--यद्यपि उपयुक्र शब्द वस्तुतः बालसम अकुप्यम् akunyan-सं० क्ला० स्वर्ण, सोना । * FEI ( Balsam of Mecca ) gold (Aurnim) हला० । पर्याय है, पर वे भारतीय माइल श्राफ कीपैदा अक (-क.) मालो qu-qu-mali-१० मा- (Oil of Copaibal indian ) के लिए उल अस्ल । शहदजल, शहद का पानी या अन्य भी प्रयुक्त होते हैं । स० फा० इं। For Private and Personal Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir काकुशलं २४ श्रन्थस इलिसिफालिया, अस अकुशलं akushalam-सं० क्लो० ).. क्लेश शून्य । जिन किसी प्रकार का अकुशल akushala-हिं० संत्रा पु० संकोच व कष्ट न हो (२) अनाग । सुगम । अकृत akritil-हिं० वि० [सं०] ( १ ) अहित, घुराई, (Evil or misfortun.) वि०( not clevel of skilfun ) जो दक्ष (Not doll: Otp: :!..) (२) स्वयंभू (३) प्राकृतिक (४) नन्द, कर्म न हो, अनिपुण, अनाड़ी। हीन ( (Ot; wito khulon: 10 प्रकटः ukutah-सं० पु० फलवृन विशेष, श्रागई। work.) संज्ञा (1) कारण, (२) रत्ना०। मंरक्ष, (३) स्वभाव ! प्रकृति । अकनीनून tattit til-यु. ( ५ ) अनोस, अकृत काल akrital kil- वि० से अतिविपा (Atomittilm Hoterophylli जिसके लिए कोई काल नियत न हो। जिसके m, Ill.)। (२) वरूनाभ (10. लिए कोई समय न बांधा गया हो। चनियाद। witun Napa: J[ius,l.inn.)। (३) बन्सनाम वर्ग। अकृताख्ययुषः kritik hyii yushah अकनेतस agunaitius-यु० खानिकननभिर ० पु० लवण, स्नेह, कटु यादि पदार्थ व. जित यूय, यह लयु होता है। वे० नित्र । -अ०। विष,मीठा जहर, वत्सनाभ (aconittum Nap;ltus, Lin.) . अकृतार्थ kritanthate चि०सं०] अकनास्यून aqinosyill-यु० र ईयुलश्रवल। अपद, अकुशल, कार्य में अदक्ष । एक बेटी है जिसके लक्षण में मतभेद है। अत्रिम kritrima-हिं० वि० [ ] अपार ॥kipari-हि संग पु०) बेबनावटी, मापसे उम्पन्न, प्राकृतिक, स्वाभाविक, (१)कच्छप, प्रकृतिसिद्ध, नैसर्गिक । अकृपारakujarah-सं० पु. ) (२) असली, यच्चा, वास्तविक, यथार्थ, (३) कछुना (Atortois: in grilhal.) . हार्दिक । ग्रान्त रक । त्रि० का. ( २ ) बड़ाकछुग्रा। वह अकथित फोरम akiitbita-ksbiramकच्छप जो पृथ्वी के नीचे माना जाता क्लीक कच्चा दुग्ध । यह कफ कुपित करता है है। (३) पत्थर वा चट्टान। (४) समुद्र और भारी होता है। वे निघ। . ('The Sta.) (५) सूर्य ( The sun.) , अकाटkriduvihi-हिं०वि० (Unअक्रमाशून qumarshun-यु० जंगली सौंफ jj 1) विधाहिन । ( Wiklanis..) . अकृपच्य akrishtil. pachyn ) । अकरून qurin-यु. वज, वंच (1) cillamus, Lin. ) .. अकृष्ट हो nikrishan rohi t अकल argh] - अ० (५) बुद्धिमान मनुष्य वि० [२०] [यो० अष्टपल्या, 'अकृष्टरोहिन ] (Idem) (२) संकोचक औषध (ust1 जो बिना जति पैदा हो,जंगली ((irowing ingut Velicine.) xuberant or wilt.) असालियून jusaliyin-यु. करम्स नन्नी अन्थिस इलिलिफोलिश्रा, अरू..clithius जो कि बागी से बड़ा होता है। Iliifotills, Li".-ले. हरकृन काँटा प्रकृच्छ, akrichchhita-हिं० संज्ञा प० [सं०] -हिं बं० हरिकपा-सं.) मोरन्ना-गो० मारण्डी (1) क्रेश का अभाव (Absence of liffi- -मह । पैना स्कुलीभान्मला० (Holly,.ly culty. ) (२)आसानी । सुगमता । असंकोच A c anthus):मेलमे , वि०(१) (Flic from difficulty.) है गा०, फा०६०३ भार! For Private and Personal Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org केन्थस होली लीख ३ अभ्थल होली लोह्रड acanthus holly leavod इं० हरकुच काँटा ०ि, बं० । इं० मे० मे०, इ० हैं० गा०, फॉ० ३०३ भा० । श्रकन्थेसीई acanthace - ले० श्रडुसावर्ग, अरू के वर्ग की श्रीषधियाँ। 'The adusa order ( acanthad's)। si aftarent acamp papillosa, hindi. - ले० इसकी जड़ औषध कार्य में श्राती है । मेमा० । केलिफा इरिडका acalypha Indica -ले० केलिफा इण्डियन :acalypha Indian इं० } कुप्पी, श्वेतवसन्त । केलूचांग गुल akelú-chánggula-ते० कुड़ा, कुटज, कोरैया ( Holarrhenaantidysenteric, all.)। श्रक्रेश[] akeshá-सं० स्त्री० जयन्ती, रवासन, जैत -fo (Sesbania Algyptiaca, Pers.) अकेशिया acacia - इं० फलीवर्ग ( Legun inas ) के माइमोसी ( Mimosa) उसवर्ग की पधियाँ जिनसे समग़अरबी प्राप्त होता है । सम अस्त्री 'बबूल का गोंद' (Gum arabic) नोट- प्राचीन थंगरेजी में इसका उच्चारण श्रकाकिया था, किन्तु अर्वाचीन अंगरेजी में अकेशिया - अकेशिया -- श्ररेविका acacia arabica, Willd. ले० बबूल (र), कीकर - हिं० ( Babool tree ) । मे० प्रा० । स० फॉ० इं० | देखा-बन्धुरः । केशिया इन्दलिया acacia Intsia, Villa. ले०, श्रई, घई की बेल - सत० । कर्तार - कुमा० । कोंदुजनुम - सन्ता० । कुन्दुरू- कोल० हर्रारी - ने० । पायिरिक, उग्राविक-लेप० । कोरिण्टा, कोरेण्डम् ते० । चिल्दारी- मह० । माइमा इन्ट्सिया ( Mimosa Intsia Linn. Roxb. ) - ले० । २५ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir केशियागम्माई I :: शिया बुरे वर्ग । (N. O. Leguminas æ.) उत्पत्ति स्थान -"हिमालय के उष्ण प्रदेश, पूर्वी और पश्चिमी प्रायद्वीप । गुणधर्म-संतालों की खियां अनियमित ऋतु ( Deranged comses ) में इसके पुष्प का उपयोग में लाती हैं । इं० मे० प्रा० । इसकी छाल तथा पत्र रंग के काम में आते हैं। मेमो० । अकेशिया कॉन्सिना acacia Concinna, D. C. ) - ले० सातला, श्रईल, रस्सौल-हिं० अव० | शातला, सप्तला, चर्मकषा-सं०। फली या छीमी के नाम ( The Pods )सीकी (के) काई - ६० । शीका, शीकाकाई - ता० । शीकाय, चीकाय, गोगु-ते० । चीनिकू कायमल० । शीगे-कायि-कना० । कोचै, बनरीठाबं० । शीका, तेल सेङ्गा - मह० । केन्मोन सी, केम्मोन पेडाङ्, केङ्गोन-ति-बर० । अ० युगेटा ( Acacia Rugata ) - ले० । स० फॉ० इं० । ई० मे० प्रा० । अकेशिया कॉर्टेक्स acacia Cortexले० बरे त्वक्, बबूल की छाल - हिं० ( acacia bark ) । इ० मे० प्लां० | बी० पी० | देखो - बुर | केशिया के acacia cahou, Willd. -फ्रां० खैर वृक्ष, खदिर वृक्ष, कत्था का पेड़ - हिं० । ( Acacia Catechu, mailld. ) फॉ० इ० भा० । For Private and Personal Use Only शिया कैदेश्य acacia Catechu, Willd.-ले० खदिर वृक्ष, खैर का पेड़, खैर, कथा खैर, खैर बबूल - हिं० । ( Catechu tree, Cutch ) इ० मे० सां० । फॉ० इ० १भा० । स० फॉ० ई० । अकेशिया गम Acacia gumm केशियागम्माई Acaciagummi समग़ अरबी, बबूल का गोंद बंबुर निर्यास, ( gum acacia ) इं० मे० मे० । बी० पी० देखो बब्बुरेः । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अकेशिया जैकोरिट्याइ অজিঙ্কা বা अकेशिया जैक्कीमॉरिटयार acacia Jaque. उत्पत्तिस्थान-पश्चिमी और मध्य हिमालय montii, Benth- ले. कीकर, अबुल, बमुल, मूल | बब्बिल-पं० । हज-अफ़ा। रतौली-गु०। प्रयोगांश-गोंद । देखो बर्बुर। मेमो०। देखो-यम्बुर। अकेशियामालिस acacia mollis-ले० अकेशिया डो अरबी acacia ' alabie : लाको ( acacia soft) ई० है. गा० । -फ्रां० बबूल, बन्चुर । (acacia arabica, अकेशिया यगेटा acain lugath-ले Willd.) फॉ०६०१ भा०1 सातला-हि. | acicia concium, अकेशिया डोकरेन्स cacia decuritus, D. C. ई० मे० मे . Wind.-ले० इसकी छाल रंग के काम . अकेशिया लेण्टिषयुलेरिस Citin lentiमें आती है। मेमो०। cularis, all.-ले. खिन-ब ० कुमा० । मेमो०। अकेशिया नाइलेटिका acacianilatica, : अकेशिया लेटीनम् cincilatiomuml, Detile.-ले० करज़ वृक्ष । फो००१ भा०1: Hilld. ले० मेप-हिं० । पाकीतुम्म-ते । मेमो०॥ अकेशिया पाइएनेन्था acacia pyenantha, : अकेशिया त्युकोफ्लोरा aacia lmeoph. enth-ले. प्रारि विसबूल । ई मे०प्लां० । Pa, til.-ले० रीवा, सुफेद-कीकर-हिं० । अकेशिया पॉलोअकेन्या acacia Polya.. श्वेत बबु र वृक्ष-सं० । उज्लो कीकर पट्टे की cantha-ले० खदिर वृक्ष ( Catechu कीकर, शराब की कीकर-द० । सफेद बाबूलtree.) ई० मे० मे। बं० । वेल-वेल, वेल.. वेलम्-ता०, तेल्ल-तुम्ब अकशिश पिनेटा acacia Penneta, -ते०। वेल-बेलम्-मला० । बिलि जालि मरा Wind.-ले० प्रारि, बिसबूल-हि० ।। - कना० । हेचुरू, पांढर, पादरियो बाबलिचेझाड (Mimosa Pennata)इं.मे०लां। -मह० । सफेद वावल्-गु० । नन्लौनकियिङ्अकेशिया फार्नेशियाना acacia Falasit अफियु, तनोड्-घर० । अरिङ्ग-गज० ।। na, Hilld.)-ले०(अ)इ रिमेद, दुर्गन्ध उत्पत्ति स्थान-पजाब के मैदान मध्य तथा खैर, गृहकीकर ( Farmesiama Mimo- दक्षिण भारत और राजपूताना । sa, Lin.) ले० ई० मे० प्लां। प्रयोगांश- स्वचा । देखो-“बबुर। अकेशिया फेरुंगीनिया acacia ferruginea, अकेशियावेरा acacia vela Mill.-ले० D. C.-ले० खैर-नेपा०, अनसण्ड, अनचन्द्र करज़ वृक्ष । फॅॉ० इ०१ भा० । शोकुल्स कह और बुनि ते० शीमै-वेलवेल, बेलबीलम-ता० शौकुल--एअरावियह, शौकुल-मिश्रियह-अ० । नोट - तेल गुनाम "बुनि" तामिल "वनि" के नाट--अन्तिम तीन नाम मिश्र तथा कारव साथ मिलाकर प्रायः भ्रम कारक बना दिया जाता में पाए जाने वाले बबूर वृक्ष के कुछ अन्य भेदीहै, जो वस्तुतःसमी(Prosopis spirigera) के लिए भी प्रयोग में लाए जाते हैं। फॉ० ई० का नाम है । देखो-बबुर । स. फॉ० ई०। १भा०। स० फें० इं० । अकेशियाबार्क acacia bark-ई. बबूल का अकेशियावैलीक्याना accia IVisilichita.ua .. छाल, बबुर त्वक् ( acacits cortex. )। -ले० कत्थाका पेड़, खदिर वृक्ष । ई० मे मे । देखो-बर्बुर। अकेशिया समा accite suma-ले० स (श) अकेशिया मॉडेस्टा acacia motlesta, . मी, छोकरा । सई-बं० ( Prosopis fall.-ले० पलोस-अफ़० । फुलही-पं० । Spicigra White fimosa.) फॉ० मेमो०। कारटोसरियो-गु०। इ.०३ भा०। For Private and Personal Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अकेशिया सॉफ्ट अफेशिया सॉफ्ट cacia soft-10 लाकी । | अकोड: akoda.h-सं० । अखरोट (Juglans ई. हैं. गा। ___yogia.)। अकेशियासेनेगल acacia sangal, hind. : अकोडगन्धः akoragandhah- सं० हींग --ले०, खोर-सिंध। कुता-राजपु० । हिंगुः समठम् (assafoetida)। उत्पत्तिस्थान--यह एक कंटकमय छोटा वृत है। अकोढ़ई akorhai-हि. संज्ञा स्त्री० [सं० अकर] जो सिंध और अजमेर में उत्पन्न होता है। सरल, मुलायम वह भूमि जो सींचने से बहुत नोट-यह अफरीका के सेनेगल फ्रात में जल्द भरजाए। वह भूमि जिसमें पानी ठहरा होने बाला 'बबुर' ही है। रहता हो। प्रयोगांश-निर्यास। अकोंद akondla-हिं० मदार पाक (Calotr - अकेशिया सण्डा acacia sundra D.C. ___opisgigantea, R. Br.) मदार सं० - ले. नला संडा-ते । इसका गोंद काम में प्राता फॉ०. है। मेमो०। अकोरकपरायः akotaka.parayith-सं० अकेशियाप्टेनोकापस cacian stonoca-i rpus-ले० बर भेद। इसके पत्र द्वारा एक । पु० (chorion Leave)। अकोरा akora-यु. चौदी रजत (Silver) नया स्पर्शाजता जनक क्षारीय सत्व प्राप्त होता है,। जिसको स्टेनो कान (Stonocarpine) (Argentum)-ले। अकोरिया akoriya-उ०प०सू०, भलियून । कहते हैं। इसके दो प्रतिशत के घोल में से दो बूद नेत्रों में टपकाने से यह उन भाग को अकोरीटीन acoretine-५० बचीन बचसत्व पूर्णतः अनसन कर देता है। इसका उपयोग कोलीन (choline )-10। यह मधु सरश करने से ५ मिनट पश्चात् विना कष्ट अनुभव ! तरल ग्ल्युकोसाइड (Glucoside) है जो किए नेत्र कनीनिका में सूची चुभाई जा सकती अस्थन्त तिक और सुगन्धित होता है तथा मद्यतथा उसे खुरचा एवं बल दिया जा सकता है। सार (alcohol), क्लोरोफॉर्म और ईघर में १० से १५ मिनट अनन्तर कनीनिका विस्तार घुल जाता है, और शर्करा तथा उड़नशील तेल उपस्थित होता है, और करीब करीब अत्तीस धण्टे रूप में पृथक हो जाता है। मे० मे।। तक स्थिर रहता है। इससे नेत्रपिण्ड का तनाव | अकोरीन acorina-इं. यह एक उदनशील तेल है कम होता है । अस्तु, हरिन मोतियाविन्द में लाभ | ___ जो बच में वर्तमान होता है। देखो-वच । ई० दायक होता है। इसी भांति स्वचा के किसी भाग मे० मे०। को स्थानिक रूप से अबसन्न किया जा सकता | अकोल akola-६०, हिं० काला अकोला, डेरा है। पी० बी० एम०। भेद (alangium hexapetalum, अकेशिया स्पेसीश्रोज़ा acacia speciosa, Lan.) स० फॉ०ई० । देखो-अंकोल। alld.--ले. सिरस का पेड़-हिशिरीषः अकोला akola-हिं० संवा पु० (सं० अंकोल) -सं०। शिरिस का झाड़-द०। (albizzia देराका पेड़-हिं० । अंकोल, देरा (alangium Hobb.ck ) 10 मे० मे। Deca petalum, iem.)-सफा०५०। अकोटः akorah सं० पु.--सुपारी-गुवाकः, पूग अकोविद akovida-हिं० संज्ञा पु०(सं. प्रन) (गी )-सं०। (areca catechu)। ऊख के सिर पर की पत्ती, अगोला, अगौला, अकोटा akota--कना० कोसम | गौसम्--५० गैड़ा । हिं० । ( Schleichera. Trijuga, ! अकौआ akoua-हिं० (१)संशा पु०(संप्र) Find.) ले। मे०लांग। मदार, आक (Calotropis gigantea, For Private and Personal Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir की दवा हो । अकोल श्रजम् R. Br.) (२) कौश्रा, लालरी, घंटी, (IPyrethri Radix.) फॉ० ई० । १० (Livula.) फॉ००। श्रकौल,-ला ukoul,-la-हिं०, ढेरा, अंकोल ' अका akki-हिं० संवा स्त्री० [सं०] (A (alaygium ).:Capititlum hun) hot hi') नाता । मां । नोट-संबोधन में अकोस amous अ०.कुबड़ा, कुज, जिसका 2 इस शब्द का रूप "श्र" होता है । ... बाहर निकल आया हो । हकड ( hime:b अक्कार innar-अ० (५० ब०) अनाक्रीर .. backul )-इं० । (व०१०) औषधियाँ जड़ी बूटी-हिं० । हर्ष अकं aam-सं) क्ली) संज्ञा दुःख (Pain) (forb.)-२० ! स. फो० ई०। अक् akaitlb-अ० (व०व०), कयूब (प०व०) अक्कारकारम् ॥k kavin-kalam-ते०, ता. ... गुल्फ, टखने वह स्थान जहाँ पर पैर सामने अकरकरा-हिं० (1Pyrethri Radix.) को और पीछे को मुद्र सकना है (ankles) स० फो० ई० । . अक्रअम् agaum-अ० सपाट (चिपटी) नासिका - अक्काल ak kāl -अ० इसका शानिक अर्थ भक वाला (Flat-hosd) अर्थात वाजाने वाला है, किन्तु अायुर्वेद की अक इस qansa-अ. उन्नतोदर वाशीय अर्थात . परिभाषा में उस औषध को कहते है जो अपने वह जिसका वक्षःस्थल बाहर को निकला हो और तीण एवं भरक गुण की अधिकता के कारण पृड भीतर की दबा हो । अवयवों के सार अंशों को नष्ट कर दे। वह श्रोषधि जो नत कारक एवं गलाने वाले गुण के . नोट--ग्रह दब और अकस का भेद अहन | . .में देखो। कारण मांस को खा जाय और उसके सार भाग को सीण कर दे, यथा चूना और हड़ताल । श्र (-) क आद -i-qaad -अ० लुञापन, . करोंसिव (Colosive), एस्कटिक (Eschलंगड़ापन अथवा अवयवों का ऐसा विकार हो। arotic)-ई । - बैठने को वाध्य करे (Jamess.)। अक़ ऊमा aquni-ऋ० अवमा एक प्रकार का अकिंकरका akkikartuki-मला० चक्षुः क्षत । विशेष कर यह कनिता पूर्वक अरछा किराकारम् ॥kkir akayam- तारकरा - होना है। यह पपड़ी के समान होता तथा झिल्ली : अकिलाकारम् akkilakāram-मला० ।-हिं० · को खा जाता और नेत्र को विनष्ट कर देना है। (Pythri Radix )-स. फो० इं! अक्कहaaqqa1-फा० या अक (महका पही): फॉ००। अक्कन aqqat-अ० वह उष्ण रात्रि जिसमें अकीaakki-कना०, चावल ( Rice) स० वायु सर्वथा बन्द हो। फा०1०। नोट-नम्न, रम्जा, सफरह और इह तिदाम् । प्रक्रीसागायिalkkisiriyi-कना० चादल की ... इनमें से अकह वायुके रुकने श्रीर उष्णताधिक्य । को कहते हैं । ग़म्मका अर्थ कनि गर्मी है और दारु-द० । नण्डुल मद्य, चावल की शराब-हिं०। अरिशशाणायम-ता० । विथ्यमु मासयि-ते। फरत तथा हह ति-दामइसके पर्याय हैं। रज़ा परिचारायम-मल०। लाइकॉर गेयी कहिन उरणता एवं उत्ताप को कहते हैं ऑफ राइस जिससे कंकरी श्रादि भी जल । (Liquor of Rices)-ई । स० फॉ० अक्कलकरा akkala-kili मह०) -हिं० ।। ई०। अक्रनाकोkkala.kari कनाशकरकग- अज़म khan- अ० (1) कोताहीनी,, अक्कलाकरो alkala.kari - कना०) (२) जिसकी नासिका छोटी हो। For Private and Personal Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रक्जाज श्रफ्नह अक्ज़ाज़ kzazit-अ. कनि शीन लगना, अकतार पार्जिय्यह_ agtar khar jiyya.hकरन, कापना। अ० शरीरकी बाल दूरियाँ, अंतर (IExternal अकज़ार ।[/ain - अ.(व० व० ) कज़र (१०] Dimstars.) व०) कम फ़त, निजापत, गंदगी-फा० । मेलापन, अकतारदाखिलिग्राह agtar-lakti-liyy...श्रशुद्धि-हिं० । फिल्थ्ज (Elths)-३०।। अ० शरीर की प्राभ्यन्तरिक दृरियाँ (अन्तर, अकaktni-अ० जिसकी अंगलियाँ हथेली फासले ) ( Int.yal Diam: ters. ) की और फिरी हुई हो। अकतारस ल.स.ह. aqtar-salāsah-अ० शरीर अकन अ.autna-अ० छदित हस्त, कटाहुश्रा हाथ, की दरीत्रय, घनमार अर्थात् लम्बाई, चौड़ाई व विछिन्न हाथ । गहराई। अ-इक अगर a-i-qtaarazil-अ० हाँपना, अकृतियूस antiyusn-यू० अक्रतीकस-अ० । हाँफना ( Topant, To to out of यह युनानी भाषाका शब्द है, जिसका अर्थ सत्य व breath.) स्थिर होता है, किंतु तिव्य की परिभाषामें तपेदिक श्रक akti-ह. वि० सं० (Smarol, (राजया , नय ) को करते हैं। हेक्टिक फीवर Anointori) व्याप्त । संयुक्त । सफल । युक। (Hectic Fever)-'ol रँगा हुअा। लिप्त । भरा हुआ। नाट-पह प्रत्यक्ष रूप से शब्दों के पीछे अअ)क द aanda-अ० (ए० व०)गिरह लगाना, गां; देना, आँधना, ग्रंथि देना-हिं० जोड़ा जाता है ; जैसे-विषाक, रक। तरल पदार्थों का स.न्द्र ( गादा ) हो जाना, ध अकतद aktad-अ० उच्च कंधावाला, ऊँचे कंधा जाना, धनोभून होना । अकट (व० व०)। " वाला मनुष्य ।। । अक दह aailah-अ० लुनते- जुबान, अकतन atana-अ० कूजपुश्न-फा० कुबड़ा, कजा : जुदान की लुनन-फा० । हकलाना, तुतलाना, - हम वैक्ड (Hump-buckl) इं०।। शुद्ध शब्द का न निकलना । स्टेमरिंग (Sta. अक नम (111-अ. रक्षणं, श्यानतायुक, : inm.ring ), ***THIT (Balbaties) श्यामा मा युकरर वर्णीय कारुरा (मूत्र) या 3. : निरा रेड (Brownish l)-इं। अक्दह aaklah-अ० (१)बीख जुवान-फा० । श्रका akta-सं० स्त्रो० (might) रात्रि। जिह्वामूल, जुबान की जड़-हिं । (२) हृदय अकृतात atata-अ० घुघराले (लहराए, मुड़े मून अथवा हृदयाधार, (३) मध्य हृदय । बालों वाला पुरुष । कर्ल हेयई ( (11 अक दोदूस aditlus -अ० देखो-ग़दीस । hibited)-६०। अक्न inhit-अ० चोन, शिकन-फ.. । झुरी . अक्नाद | aktaiti [व० व.] कनिद् [प. पड़ना, सिकुड़न, चली जो मेदावी होने के कारण .३० -अ० स्कन्ध, तथा मध्य स्थल पृष्ठ उदर पर पड़ जाय । बलि:-सं० । रिलि की दूरी (Shoulder)। । (wrinkle )-ई। अक्ताफ़ aktafa-अ० (२०व०), कतिक | श्रक नफ aqnafa-अ० लघुकर्ण बाला, छोटे छोटे (१०व०) स्कन्ध, कंधे। शोल्डर्स(Shoul- कान कान वाला-हिं०। (Small eurel )। (lets)-३०। ! अकनह, aakyah-अ० सूरिज्ञान (Hermअक्तार aqtar-अ. (व०५०) कृत ( T o dactylius)। स.फो । व०) शारीरिक दूरियाँ, व्यास, चौड़ाई, अधकट । अकनह. aknah-स.बरलदिनय्यह, दुहनिय्य ह. डायमीटर्म (Diameters)-०। और न्युम्सबा-अ० । यौवन विडिका, .कील, For Private and Personal Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रकनार अक्रानीकी मुहांसे जो जवानी के प्रारम्भ में मुख नंडल पर बॉलिटिङ्ग ( vomiting ), नाशिश्रा निकलते हैं | मुक्नी (en)- । (Vaisen)-ई । नोट-जो युवासी पुरुर नध्य मार्ग का । अकमाल aqmali-अ० (व. व. ), कम्ल अवलम्बन न कर स्वास्थ्य सम्बन्धी नियमों का (ए) य.), जुनी (ढीलों) के अण्डे बच्चे उल्लघन करते हैं उनको सामान्यतः यह विकार अर्थात् लीग्न । निट (it) The ogy of हो जाया करता है। Joilso-इं। अक नार a[mā 1-अ० सुराही में मुह लगाकर श्रमायस aqmavastu- अ. एक देनिक ज्वर, जल पीना अथवा मद्यरान करना । एक दिन का ज्वर । हुम्नायूम-अ० । तप एक श्रक फअ agtaa-अ. जिपके पाँच की अंगलियां राजह-फा० । फेनिक्युला ( Pricula) फिरी हुई हो। श्रक्स akfas:-अ० जिसका पैर टेढ़ाना और अश्याधाल akyaghāsa-हि. अपभ्र० अगिया। वह अपने पैर की छोटी अंगुली पर महारा देकर (.mon grass )-३० । स० फॉ०ई० । चले। क्याघास का इत्र akya-ghas-ka-itya -हिं० । देवजग्धक-तेल-सं०1 अग्याधाम-तैलअफह ॥klth-अ. श्याम, कालः-हिं)। चं०। ( [..mongrnss oil )-इं० । स० ब्लैक ( Black)-50 ।। फॉ० इं। श्रक्वन्द ak balla-अ० यकृत रोगी, वह रंगी अकशajaa-अ० कल, गा, केराहीन, जिसके जिसका यकृत बढ़ा हुआ हो, बढ़े हुए यकृन : - शिर के बाल गिर गए हों, चेंदला । बारुद वाला । एनलार्ज ड लिवर (Enlarged (Bald )-इं० । liver)-ई । अकन् ran-अ० पैयस्तह् अबु-का। जिसकी अकवस akbast-अ० जिसके शिर का प्रागा निकला हुधा और ललाट |सा हा हो। दोनो भौएँ मिली हों। अक्रकanufa-अ० अत्यन्त रक्रवर्ण, गभीर अकवाद kbi I अ० (व. २०), कबिद । रक्रवर्ण-हिं०। डार्क-रेड ( lark-reil ) ( ए० ब० ), यकृत, जिगर, कलेजा। -ई० । (Liver ) i | अकत्रो aak bi-फा० अकबोस aqbisa-१०, रसूलिया, जिसका दरुनज अकबी ( Doronicu Pardaliavches, शिश्नान ( मणिमुण्ड ) खतना से पहिले त्वचा ___Lint.) । फॉ० ई०२ भा० । से बाहर निकलता हो। अकम ukrama-हिं० ब० [सं०] सं०० श्रक मअ aqimaa-अ० जिसके नेत्र से जल क्रम रहित, व्यतिक्रम, विपर्यय, स्राव हो। (Jrregularity, Confusod)-इं० । अकमस akmass-अ० जो कठिनता पूर्वक देख अक्रा aru-अ. (व.व.) क्रु (क) सके। र (ए०४०) रजःकाल, श्रार्तबकाल, मासिक प्रमह. akinah-अ० कोरमादरज़ाद-फा० । | धर्मका समय (Period of the menses) जन्मांव, सहजांध-हिं० । बार्न ब्लाइण्ड अक्रानीकी akranjki-यु० (१) शुकाई( Born Blind) इं बाज़ा० ( २ ) बादावद (shukai) श्रमाक akmakt का यमन, चर्दि, मतली । फॉ० इं०६ भा०। For Private and Personal Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रकान्ता अत्रिका अक्रान्ता aki anta-सं०पुं० कटेरी, भटकटाई, समझ-बूझ, सूझ, मनीपा, धी, धिपण, विवेक वृहती, वृहतीप-सं०। व्याकुड़-पं०। डोरली शक्रि-हिं० । इण्टेलिजेन्स (Intelligene) पाण्डरी, बनभण्टी-म०, कं० । क्रान्ति-उत्० -६० । प्रकृति में यह वह शक्रि अथवा अपार्थिव प्राकुरु चेटु-ते०। र० मा० । गुणधर्म- उष्ण तत्व है, जिससे बुरे भले में विवेक किया वीर्य, पाचन, संग्राही । चक्र० द०। राज। जाना है। यह उष्ण बर्यि, रस में कटु तिक्र, लघु, घात : अक्लफ़ iklafa-अ. उन्नाबीरंग, श्यामाभायुक्त नाशक, ज्वरनाशक, अरोचक व कास नाशक रक्रवर्ण-हिं । ग्राउनिश रेड (Brownish तथा श्वास और हृदरोग नाशक है । रा० नि०. red )-ई। व०४। अक्लफ qlafa-०, वह व्यक्रि जिसका खतना अकाबाज़ोन arābāzina-अ० कराबादीन न हुआ हो । अनसर्कमसाइड (uncircum. किताबे प्रवियह मुरकचह-फा० । योग संबन्धी cised)-ई। अन्य, योग शास्त्र-हिं. वह ग्रन्थ जिसमें यौगिक अक्लव ilabl-अ० जिसके प्रोट उलटे हुए हों। ओपध एवं उनके योग लिखे हों, फार्माकोपिया अल-व-शुर्व ॥kla-va-shur ba-अ० खुर्द व ( Phomacopasen), डिस्न्से टरी नांश-का|भाय एवं पेय अर्थात् खाने पीने ( Despensatory )-101 के पदार्थ-हि. ( edible anb tirinka ble)-इं.। अक्राबादीन arabattina-० अक्राबाज़ीन अकास grasa-अ० ( १० व०), कुस अलह aqlah-० कलह (अर्थात् जिसके दात (ए. ब. ), टिकिया-हिं० । टेब्लाइड्स मैले हों) का रोगी । (Tabloitis)-ई। अलह aklah-अ० एक बार खाना । अकोय akriya-हिं० वि० [सं०1 (1) अक्लाथ् aklan-अ० अवस्था ( उमर ) की पूर्णता किया रहित ( Thactive, dull ) तथा अंत तक न पहुँचना । (२) चेष्ठा रहित । निश्चेष्ट । जड़ । व्यापार अलावातस aqlābotasu-यु० अजुरह-फा० । रहित । जो कर्म करने से रहित हो । स्तब्ध। .. रङ्गन-हि। अकर akruaहिं० वि० [सं०] जो क्रूर न हो, मोट अजुरह, उटङ्गन और कजनह प्रभृति शब्द सरल, दयालु, सुशील, कोमल, मृदु, भूल से "केबाँच" के लिए प्रयुक्र होते हैं । वस्तुतः ( lot calls)। केबांच से ये सर्वथा भिन्न है । ( Blephalmis अक्रोध ukrodha-संहिं० वि० क्रोध रहेत : edulis, Pers.) ( Free from angor) अतारोतस aqlārotasa-यु० भाऊ-हिं० । अकोसाइन achrosiine--३० । अरञ्जक फरास, फरवा-सरले ई-पं०। ( Taimarix (Not colouring )--इं० । फॉ० ई०. Gallica, Linn. ) १ भा०। अक्लिका aklika-सं० स्त्री० अक्ल aka-० व्याधिमूल--विज्ञान की परिभापा । भील, नीलीवृक्ष । The Indigoplint; में उस ग्रीषध को कहते हैं जो अवयवों के मांस (Indirofera tinctoris.)। नीलीचेवा त्वचा को खाजाए अर्थात् उसे नष्ट करदे । झाड़-मह० । नीली-कं० । नल्लचेटु गेरिट पेट्ट करोडि ( Corrole)--इं०। नीलिचेटु-ते० । नीली, महानीली भेद से यह अल angla-अ० ( १०व० ) अक ! दो प्रकारकी होतीहै । गुण-यह उष्ण वीर्य, रस (ब० ब०), लिई, दानाई-फा० । बुद्धि, में तिक और कटु तथा केरावर्द्धक, कफ, कास For Private and Personal Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अधिन्त-वर्म अनशूरीयून और प्रामनाशक, लबु तथा वात, विष विकार, गुण गुरु और कफ कारक है। 20 निघo उदररोग, गुल्ल (बायुगोला) कृमि और उबर | अक्कन uksana-हिं. श्राक, श्राव, मदार, अर्क नाशक है । रा०नि०व०। रेचक, मोह, भ्रम, (Calotropis riyanta, R...) श्रामवात तथा उदावत को नाश करने वाली ।। अक्कम akamid-अकबर का अधोभाग | भा००१मा० । मद०१ब०। । अक्का akra-ह. प्राक, मदार, अर्क अक्लिन्त-वमallinta-Thi-हिं० पु. ) ( Calotropis giganta, .. .) अतिन-चन्मaklin]]-V Itma-सं० पु. अक्का (Jun-ले. जल । देखा एक्का।। नेपर्जन रोग विशेर । जिसमें धोए हुए अक्काअ. akvaa-अ० (३. व. ) कुत्र अथवा बिना धोए हुए पलक परस्पर बारम्बार (५० ब०) पहुँचे अर्थात् कलाई की हड्डियाँ चिपक जाय और कोग पर के पीपसे न चिपकें (Rist boles)। उसे "अक्लिन्न वर्म" नामक रोग कहते हैं। अकान grata-अ० (ब० व.) अब्बन (ए. इसीको वाग्भट्टजी"पिल्लारूप" नाम से पुकारते ' व.) भक्ष्य पदार्थ, निजायें, अरिज़यह हैं। मा०नि०। (Edible)-इ. अलिष्ट aklishta-हिं० वि० [सं०] (1) विना : अक्किलोजिया वगैरिस् aqulisgian क्रेश का । काट रहिन ( diseast-loss ) Tulgaris, Lim.-यह एक रैन्युनक्युलेसीई (२) सुगम । सहज । साधारण | सरल सीधा । . ( Ranunculta ce ) वर्ग की एक (Eisy ) । औषधि है। अकोका aklika-सं० स्त्री. नीलका पेड़, नीली । अक्लेिरियाअगेलोका aquiltitungellocha वृक्ष ( The Intligo Plant) 1010.-ले. अगर, गुरु, ऊद । अगरअकोतासqlitajisa)-१० अरस्य प्लाराड: अ० uple: wood-ई. मे० ठ० । मे० अक्लोतून aqlitun (सं० (Scilla म । अकिलेरिया-श्रांबेटा antilaria Ovata judica, roal)। अक्लीमिया aqliniya-पु. कलीमिया, दीमिया । । -... श्रग (kgle wood )-ई। अ० । धातुओं का मैलजा उनके पिघलाने केबाद । आक्कलारया मलाकान्सस् quilaria ऊपरनीचे माग और तिलछट के समान उत्पन्न हो Malaceensis, lunk.-ले. अगर जाता है | कैले मीन ( calamine)- 1 plt Wood-1. । अक्लोलुल्जयल akhiluljabanta-अ० यह एक अक्वज़ान akver.ana-रु०मटर भेद । इसे कोई २ बूटी है, जो स्पेन तथा मिटा देश में उत्पन्न होती। रइयुल हमाम का कहते है। है। (रोस्मैरिस् Tomaris)-ले । रोजमैरी अकुशाब agsha ba-ऋ० ( ब. ब) (ए. (Rosclary )-३० । रू. फा० ।। व) क्रिश्य (१) नियात, जहरे, विष अश्लीलुल्मलिक aklilulmalika-. बन : ( Daudly poison), घातक विष मेथी, वन मेधिका-सं० । ( Trifolium (२) ज़ज, मुरचा, कीट, ( Rust)। Indicum, Melgiotius patriflora): अकशी aushi-आसा. करकोट -बं० । नाखूना-हिं० । देखो-इक्लीलुल्मलिक । अग्गई-अव०। अक्कथित क्षीरम् akvathiti kshil . 13-सं0 अक शूगीयन aqsiriyāna-यु. एक प्रसिद्ध विना पकाया हुअा दृध । | औषध है । For Private and Personal Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अक शूस. अकहाले अक्शूल. akshisin-अ. कम.स. । प्रकाशवेल | अक्मोरी aksiri-फा) माहिर, कीमिया दाँ, (Cult:। Iflix.)-ले. । कोमियों । कीमिया गर । रासायनिक | सायन अक्स -संज्ञा पु) (य। अवस), शाली । ( .AJsh mist) (१) प्रतिबिम्ब । छाया । परछाई । (२)चित्र, श्रावसारी पाक aksiri aka-हिं० पु. प्रसिद्ध तसवीर । पौधा विशेष अक्स.अ. aksha-० वह व्यक्ति जिसके। अक्सी बूटी aksiri-huti-हिं० बी० यह मसूढ़े फुलेहीं । एक रसायनी बूटी है जो लग भग १ फुट ऊंची अक्स.म aksumt अ. मेदाबी मनुष्य, बह; होती है । हनी तथा पत्र घने, पत्र-जाल-पत्रवत् व्यक्रि जिसका मेद( तांद बड़ा हो। काप्यु लेण्ट : परन्तु उसले अर्धलग्ने, गम्भीर, हरित वर्णके होते (Corptil: nt ), फैटो (Fatty)-इ। हैं। इससे लौह ताम्र हो जाता है । हामि य. जून अक्सह, aksill1--अपाहिज, लोथ, जो अपने . स्थान से हिल न सके । क्रिपल ( Cripple). को अक्सुनाफि (फ)न aksunafin,-(phan) ० हकीमी माप भेद, यह ६ तोले ११ माशे अक्साव ilsāht-अ० (ब. २० ) कुस्य (ए. २ रत्ती अथवा ६ तोले ६ माशे के बराबर व०), अंतड़ियाँ, प्रांत्र-हिं० । ( Intos होता है। t.ints) अक्सफैलस akstituiinst-यु. सहसकोई नाम अक्सियह ॥ksiyaah-nा जी की शराब, यध. को एक यूटी है। मद्य । ( Bayliy nine) अक्सूमानस aksānāthasti-यु० रतनजोत अकिसया asiya-n० सुफ़ेद मातरियून । : ( Alanet)-501 अपराजिता श्वेत ( Chitoin chutca, : अवसूमालो simili-यु० सिकाबीन-अ० Linit. Whita ) Fo, द० सिकङ्गी-का० ((Oxyimel) अक्सियानून aksiyahist-यु० जुन्द्रवेवस्तर अक्सू .स. aksusil-अ० अकासवेल का बीज । जुन्द-अ० (Castorm)-ले० । तुरुमे कसू स-फा० Cuscuta Reflअक्सीर aksila-हिं० छन्डीला (Narlostal- exil (Soods-of) chys Jutamansi, . . )ले० अकहल akhala-अ० स्याहचश्म, सरमगी, अक्सौर aksila-० (1) यह रस वा भस्म आँखवाला । (२) छेदनशास्त्रकी परिभाषा में जो धातु का सोना व चांदी बना दे । रसायन, रगे हान्दाम को कहते हैं। वह रग कुहनी के कीमिया, पारस पत्थर, पारसमणि (Thitor मध्य में भीतर की ओर स्थित है। और कीफाल Sopher'sstone) (२) वह श्रीपधि बवासलीक के मिलाप तथा संयोग द्वारा पैदा ना प्रत्येक रोग को नष्ट करें। वह श्रीपधि होती है । चूकि इसमें क़ीफ़ाल ( Cephalic. जिसके ग्वाने से कभी मनध्य बीमार न हो। वि. Toil) और बासलीक दोनों से शोणित अव्यर्थ। अत्यन्त गुणकारी अत्यन्त लाभ पाता है इस कारण इसके फ़सद (रक्रमोक्षण) कारी। से सम्पूर्ण शरीर का रक निकलता है। मीडियन अक्सीर बवासीर aksira-banasita-हिक कॅलिक ( muliial cephalic )-इ । प. बूटी बवासीर, एक बूटी है जो पृथ्वी से अकहाल khala-० ( व० व० ) कहल मिली हुई होती है । चैत मास में प्रायः होती है। (ए० ब.) सुर्मा, अंजन, नेत्र में लगाने को गुण-रक स्थापक, अतिसार नाशक, हामि यु० शुष्कीपध । कॉलिरियम्ज़ (Collyriums) मार्च १९२० For Private and Personal Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अग्नरांट अख a ha-हिं० संज्ञा प. बारा, बगीचा । (Garden)-ई 1 अखगरिया akhag.riya-हिं० संशापु (फा०) वह घोड़ा जिसके मलते समय उसके बदन से चिनगारी निककती हो। ऐसा घोड़ा ऐबी समझा जाता है । अखट्टः akhartah- सं.पु. चिरौंजी-हिं० १ (पियाल वृक्ष), पीलिया, इसके बीजको पीयाल बीज या चारदाना कहते हैं। चारोली-भा० । रा० . नि० व. ११ । भा० श्राम्रादिव० । ( buchanania lati-foliit, k'o :1.) अखनी akhani-हिं० संज्ञा स्त्री० (अ0 अखनी) ( meint-juice) देखो-अखनो । अवनीkhani-१० मायरस । मांस का रसा। शोरबा। अखन्न akhana-अ० गुमा, गुनगुना, भुनभुना, मुनमुना, मिनमिना, नाकके बल से बोलने वाला. नकनका । अखर akhara-सं०० कर्पास, कपास, बाड़ी ( (iossypit'm Indicum)-ले. प्रवरसाज akhalasaja- फा. एक यन है जो उष्ण देशों में एवं शुष्क स्थानों में उगता है। मनुष्य के कद के बराबर अथवा कुछ अधिक ऊँचा एवं खुरदरा और अमीर के समान नर्म और खोखला होता है। अखरा ak hari-हिं. वि० ( सं० श्र-= नहीं +हिं० खरा) जो खरा वा सच नहा । भूटा। बनावरी । कृत्रिम । संज्ञा पु० सं० (अक्षर) भूसी मिला हुअा जी का श्रारा जि.सको गरीब लोग खाने हैं। अखरोट ak huata-हिं संना पु00, अकोट श्राकोट,-वं. हिं०, ३० । अझोट, पीलु, शैलभवः और कर्पराल:-अक्षोट:: अनोटकः, प्राखेटः, पर्वतपीलुः, कन्दरालः, श्रादोड़ ( ख. ), कः, (शा. र०) गिरिज पीलुः, अक्षो.. डकः-सं० । जौज़, जौजुल खनिफ-अ० । गिर्दगाँ, चारमाज़, चहार माज़ , गौज, फा। कासलीस,फ़ादस्याह-यु. । कोज़-तु. । जुग्लै; Juglans regia जु० रेजिया (.J. Trivia, 21.)-ले० । बालनट (IVainut) ई० बाल. नस श्राम (Walmiss baum)-1० । नायर कल्टिव Ioyer (tiltive-फ्रां० । अक्रोटु - ता० । श्रक्रोटु-ते.। अक्रोडु, अम्बोट-कना. कर्ना० । अक्रोड-म० । अखरोट, अम्बोड-गु० । सिम-गया-सिया तिक्या-जि-वर । अखोड़को । उच्चकाई-द्रावि० । नगशिङ्ग- भटि. । कन्सिङ्ग-पा० | कौवल-लेप० । श्राक, अखोर, अवोट, अखरोट-3० प० प्रा० । अखार, खरोट-कुमा० । अखोर, क्रोट, दृन-काश. अखरोट, दून, चारमाज़, थनथान, खोर, कादारग, अखोरी, क्रोट, कबोट, स्टार्ग, उज, बरज़ थानक, छाल-डिराडासा-पं. 1 उज, यात -अफ। अक्षांट वर्ग (Juglandacat. ) उत्पत्ति स्थान-हिमालय (शीतोपण) पर भूटान से लेकर अफगानिस्तान नधा काशमीर तक होता है। खसिया की पहाड़ियों तथा और और स्थानों में भी यह लगाया जाता है । इसका एक भेद और है [ Aleritras foluceana, Miltd.] बंगाल और दक्षिणी भारत में बहु तायत से होता है। पील [ Anustitud tra.! Of scriptih ke: ] भी कोंकन देशम उस्पन अखरोट जातिका एक प्रकार का वृक्ष है। इनके लिए उन २ नामों के अन्तरर्गत देखिए । श्वेत श्याम भेद से नोट २ प्रकार का और होता है। वानस्पतिक विवरण-- यह शाखा वृक्ष है जो पर्वतों में उत्पन्न होता है । इसके वृक्ष बड़े २ बहुत ऊँचे होते हैं। इनकी उंचाई लगभग ४७ से 80 फी0 होती है। पत्ते ४ से = ईc लम्बे अंडाकार नुकीले और बरावर या तीन तीन कंगूरे युक्र एक डंठल के दानों और विषमय लगे होते है ।छूने में सस्त और मोटे मालूम होते हैं । पुष्प सफेद रंग के छोटे छोटे शाख के शिरे पर गुच्छे में कई कई अाते हैं । एकही गुच्छे में सी For Private and Personal Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अग्नगंट अखातः पुरुष दोनों प्रकार के पुष्प होते हैं। इनमें परिवर्तक, और संकोचक इसका काथ (१२ में) पुरुष (mirucium) की संख्या अत्यधिक कंट-माला, श्वेतप्रदर प्रभनिकेलिए लाभ जनकहै । होती है | फल दे कोप युक मैनफल वा बहेड़े के बीज-इसमें तेल, एल्युमीन या जुग्लेशिडक एसिड मा.न अपडाकार होते हैं। उनके उपर तीन और राल होती है। छिलके होते है, इनमें प्रथम हरा और मोटा अपक्वफल कृमिघ्न | पक्कफलया मांगी-"श्र ( पकने पर जैतूनी रंग का है। जाता है) स्वाद होटः कोऽपि बाताद सदृशः कफ पित्त कृत" भा। कला पोर कवाई लिए हुए होता है । यह प्र.) फव। स्वादिष्ट, भव्य, पुष्टिकर और फल कच्चेग्न में नरन परन्तु सूखकर कठोर हे। , कानोहारक ! फलत्वक कृमिघ्न, उपदंश नाशक जाते हैं । द्वितीय छिलका पहिले छिलके के नीचे वृक्ष-वक संकोचक,कृमिघ्न और दुग्ध नाराक कोर होता है। फिर इसके दो टुकड़े प्रापय (Lactifu0) तथा बणशोधक 10 मे) में मिले और मिरा उनका निकला हुश्रा नथा मे010 मे प्लां०। तीसरे छिलके के भीतर से टेढा मेढ़ा गूदा वा इसकी लकड़ी मेज, कुरसी, बंदूक के कुन्दे, संदूक भीकी निरी निकलती है। मांगी के ऊपर बहन श्रादि बनाने के काम में आती है। इसकी छाल बारीक छिलका होता है। मीगी अंडाकार सफेद रंगने और दवाके काममें भी आती है ।'ठल कुछ चिपटी श्रार चिकनाई लिए पिस्ते श्रीर चिल और पत्तियों को गाय बैल खाने हैं। गोजे की मींगी के समान होती है, इन सबके चार भाग होने हैं । दो दो भाग आपस में मिले * अखरोट-जंगली akharota-jangali-हि. संज्ञा इनके बीच में बहुत बारीक परना होता है। फल पु.(१) जायफल (Nut-imeg) अरण्या . नोट। जंगली अवरोट । का वृहत्सम व्यास लग भग २॥ इच होता है। इसकी लकड़ी बहुत ही अच्छी मज़बूत और भूरे ! अखरोस akharosa-J. (१) एक बूटी है, रंग की होनी है और उसपर बहुत मुदर धारियाँ जो फ्रांस तथा सर्द दरियाई देशों में उत्पन्न होतो पड़ी होती हैं। है (२) जंगली गेहूं। श्राक्षाट तेल-गुण-अवरोट के गूदे में से अखरोट khalouta-वं. अखरोट, अनोट तेल भी बहुत निकलता है । मूलक तेलवन् । Wallut-ई. (Juglans-viii. )। कृमिमा रान हेतु मुख्यनः कदाना ( Tupe . अखर्व khar bu-हि. वि. [ सं०] । बड़ा । worm ) को मारने के लिए मृदुभेदन और लम्बा । (Vot dwarfish. )। पित्तनिःस्पारण हेतु इसके तेल का आभ्यन्तरिक अवयंसakharyusa- • पहाड़ी गन्दना । और दृष्टि मान्य हेतु वाह्य प्रयोग किया जाता है। श्रखलः akhalah-सं० पु. उत्तम बैद्य । नोट--उपयुके समस्तपर्याय इसी के मांगी : : अखसत akhasata-हिं० संज्ञा पु. [ असत] अथवा फलके है। लेटिन नाम जुग्लेज रेजिया ' चावल ( Rice) । ( juslims in) इनके वृक्ष के लिए : अाया है। अखा akha हिंसंज्ञा पु० देखो-आखा । प्रयोगांश---फलत्वक, स्वचा, बीज (मींगी), । अखाड़ा का भेद nkhdqa--ka-bheda-६० फल और खोपरी (Yut) अपामार्ग भेद । प्रभाव चा उपयोग । गुरण----मधुर, बलकारक ! अखात akhata-हि. संज्ञा पुं. बिना स्निग्ध, इपण, वातपित्तनाशक, रविकारहर, खुदाया हुश्रा स्वभाविक जलाशय साल, झील शीतल तथा कफ प्रकोपक है ! ग0 नि0 40 ११: खाड़ी ( A natural lake.)। मधुर, बल्य, गुरु, उष्ण, विरेचक और वातनाशक । अखातम् akhatam-सं० क्री०१. to } देवग्वान-हिं० । मदाबाद। भग्वानः akhatah-मं००। For Private and Personal Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अखाद्य अखण्डल देवग्वाइ-बं० । हेच. का० ४ । पुष्करणी ।। नेत्र के भीनरी कोये का शोध । ऑब्सदक्शन श्रमः।(Ahatural lakt.) ! ऑफ दी पंकटा (Obstruction of the श्रवाद्य khatiyu- वि० [सं० ] शाभन्य, punctin ;-इ। खाने के अयोग्य, (intaiole. )-ई। अविष: Akhil-tishth-सं० प. विन्दाल, अखाव भियाग्रा shar:iyia--वर) घगरबेल, देवदाली-हिं । (Lifl Echin छाल, वक। Barks-06० फाइ। nti, Ron.).०-६०२मा । अखाव at hava--बर, (ए. व.) छाल, त्वक अग्वेटिक: Akhtikah सं.) (१)व पेड़। (Bark)-ई। सा० फो०ई०। (ATinymal) (२) शिकारी अवियाग khiyari-पं.) अरण्य गुलाब, बन गुलाब (will .)-६० । अखेरी1111 पं.) कण्टीच, अाग्बी, देरा । अखिल akhila-fa) वि) [ सं.) 1(१) अखोट khort -को) अखरोट, Witut सम्पूर्ण, समन, पूरा, बिलकुल , सव (uholor) (Jugams it.) - (२) अखरड, मांग पूर्ण । | अखोड khoda गु० अखगेट Wajhunt अखिलिका akhiliki-२०, पु, करेली छटी, (.Jitplans Togin )। तुत्रकारली, उच्छे-बं० kind of | अखोर akhor:-काश। पावरोट | Tant your (Momordica chil!:lltint, (Juglans regit. ) 1 Jinn.) | श्रवार मारलु akhor.marat1 -कना) मिहोर, अम्वीतहे जोइग्यह 1.khitah-zotiyyah- सहोर-हिं), वम्ब) । शाखांटकः--सं० । अ० ख्यालाते चश्म-का० चक्षुरोग विशेष (Styeblus Asper, I.inm.)इं) मेमे)। जिसमें नेत्र के सामने चिनगारियाँ अथवा तारेखोगे akhori-40 कण्टीचा, आम्खो, ढेरा-पं.। दृष्टिगोचर होने हैं। मम्मी बॉलिटेगटीज़ ___-हि संज्ञा पु.) अकोला । अंकल । (Musce volitantas-).ई.) अखोला khola-अङ्कोल । अस्वीफ़ Akhifa-अ. जिसका एक नेत्र श्याम और / अवोह althoh हिं0 संज्ञा प. (सं) क्षोभ = दुसरा हरित वा नीलवर्ण युक्र हो । असमानता ) ऊंची नीची भूनि । ऊमद ग्वाबड़ अम्खोरूस akhis sit-यु० जङ्गली गेहूं के अतिरिक पृथ्वी । असम भूमि । ___ एक बूटी है जो जल के समीप उगती है। श्रखंड Akhanda f) वि० [सं. वि.) ] श्रावील Akhila-अ० अस्थिर, क्षण हरण में रंग अम्बंडनीय, अखंडित, ( Ltbroken, बदलने वाला (१) गिरगिट केमोलियन whole, toitic.) (1) अट्ट । जिसके (Chameleol)-इ. । (२) एक भी टुकड़े न हों। अविच्छिन्न । सम्पूर्ण । समग्र । कपड़ा है जो घंटा घंटा पश्चात् रंग बदलना समूत्रा । पूरा। (minterrupteilly ) है। (३) एक प्रकार का पहीहै, जिसके पैरों । (२) लगातार | जिपका क्रम या सिलसिला न टटे। जो बीच के विभिन्न प्रकार के ग होते हैं । में न रुके। (३) बेरोक। निर्विघ्न । अखीलम Akhilasa-यु. एक काबिज़ (संकोचक ) और शुष्क बेटी है (Ani अखंडनीय Akhandariya-fe. वि) astringent any hurb.) [सं०] (1) जिसके टुकड़े न हो सके । श्रखो (ख) लस akhil us-यु. नानखाह, । जिसका खंडन न हो सके। जो काटा न जा सके। अजवाइन । ( Carlmptychotis! अखंडल akhandala-हि) वि० [सं० 1. C.).. अ. श्रन्तःस्थ वन कोण-शोथ, अखंड] For Private and Personal Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अखंडित खीत अखंडिन tk handitin हिं) वि.) [सं०] भारता-वह घोड़ा जिसे उन्म से अंडकोष की ( 1 Okh) जिसके टुकड़े न हुए हों।. कौड़ी न हो। ऐसा बीमा यो समझा जाता है । अविच्छिन्न । विभाग रहिन । असनसakh.mas - चपटी, सपाट नाक वाला (२) सम्पूर्ण । समृचा । परिपूर्ण । पूरा 1 (110-11Osta ) (३) निर्विघ्न । धाधा रहिन । जिसमें कोई अवनिल huijus-यु) पालक (Spinaरुकावट न हो। (४) लगातार । ___C o rdeal.in.) वा अमूम | अखंडित-ऋतु akhi ndita-riir-हिं० वि० शख्नेनुरु akhtititin यु, एक श्रालिद्ध बृटी (Fruit lul.) ऋतु पर फल फूल दे। है तर स्थानों तथा नहरों के किनारे पर उगती है। श्रख akh अ) बंकार, ग्यांसोका शब्द, वेदना शब्द, . 'अखन चूल khuaimusa-का० पालक । ___ खांसने का शब्द । कफ (Cough)-ई। अरूफश alkhush : अ.) लफ़्श अर्थात् 'धुन्धा श्राव गांर akhri-Fi) अमरूद भेद (IFind (दिवसांच) रोगो ( Daybind ) 1.)।) है। गा) । अफाक infali-) चान्दरेल, इश्कपेचा अम्ल ज hz... अ) गिरफ्त फा) लेना, शामना, (लनानिशेष)! पकाना, नाव चरप (अंग्य ग्राना ), गिरफ्तार अवसान akhiasina. अ.) (५) मलमूत्र होना। । अर्थात् गृहमूत्र ये संकेत है। (२) मुख दुर्गन्धि, अरुजअ khuno-संकुचित ग्रेव, लघुप्रैव, एक्मक्रीमेण्टम (Excmnts)- । श्रीना, गिना-हिं० । इनार्ड ( Dwnlf) अरूम ॥' hima अ.) ललाट और भौं () की पिग्मी( Pigmy)-इ)। शिकन ( बलखान) (Fron)। अरूज़र :khzil::--अ) फा। हरा, हरी हिं, अख्माद akhmadit- अ) नाप बुझाना, गर्मी द)। हरित मं0 हरा, गबुज-बं) । ग्रोन - मारना, आग को ली दवाना, कमजोर करना, ( City;}})-इं० । इतिध्या ( हकीम लोगों ) नाप शमन करना । ने इसकी चार कक्षाएं स्थिर को हैं, यथा--(१) अखkhaba-अ.) वीरान मुकाम-उ) | निर्जन फुम्तकी या पिम्ती अर्थात पीताभयुक्त हरितवर्ण, स्थान, रजाइ-हित) ! तिन को परिभाषा में (2) मीलकी अर्थात् नीलगं, नीलवर्ण, (३) कर्ण फटा को कहते हैं अर्थान् वह व्यकि जिसका जारी या ऊंगारी या मटियाला सजीमायल कान फटा हो । अर्धान हरिनामयुक्त मटियाला और (४) गन्दने अस्त्रम : khan- अ0 जाइज़ाइदहे अरमियह, के सदृश हरित वर्ण । नवरा । छदन शान की परिभाषा में नक्टा श्रराजर akhza1-अकनबियोंसे देखने वाला। उभार, स्कन्धास्थि का वह उभार जो कन्धे की न शीन ऊंचाई बनाता है, अंसकृट । एक्रोमियान प्रॉसेस् (Aeronion Process )-ई। लगना, शीतल वायु लगना, वायु लगना, प्रति अखसkhias- अ) मुक, गा, गँगा । डम्ब श्याय । कोल्ड ( (oli), केनकोल्ड (jumb)-ई। (Cate:hod)-इ'। अखास khasa-यु। नाशपाती, श्रमतफल अस्य जल शम्सhzarshamsa-० चिकनह (Pyrus Communis, lium ) शमिया , ल लगना, प्रातपाघान-हिं0 । सन अखीज़ हम्बुल अस.फर akhrir-habb-ulस्ट्रोक (Simstroke ), इन्सोलेशन asfala-अ) कुसुम्भः, कुसुम ( मभ) ( Insolation )-70 (Carthamus tinctorius, Linn.)! अख्तावर ukhtaritra-हिं संत्रा, पु [फा०] अखीत akhrita-अ) जंगली गन्दना । . For Private and Personal Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अखातृस ३८ अगइधना अस्त्रानुस ।khritis यु) जालो करनव; करम- अगः agah-सं. प. (1) पहाइ, पर्वत-हि. कल्ला, गोभी भेद ( will cabbat.)। (Mountain) (२) एक वृक्ष । (३) श्रल नह khlah एक कंटकयुद्ध बूटी हैं जो पत्थल (४) सर्प (५) मूर्य । पहाड़ श्राग्नेय बालिश्न के बराबर होती है। पुष्प नीले एवं व सौम्य गुण भेत मे दो प्रकार के होते हैं । स्वेत और पत्ते कार होते हैं। इनमें विन्ध्य पर्वत श्राग्नेय गुण युक और हिमालय सौम्य गण यक है। भाग्नेय गण अरूलातhat. -अ, (च) व.)विस्त (ए) विशिष्ट पहाड़ों में होने वाली औषधियों अग्नि व)) यूनानी वैद्यक के मतानुसार खिल्त ( दोप) गुण विशिष्ट होती है, और सोमगुण विशिष्ट चार हैं, यथा---पौदा (वान ) सफ़रा (पिन) पनों में होने वाली ग्रीपधियाँ मोमगुण विशिष्ट बलास (का, श्नेमा) और च न (रक्र) होती हैं। भा...! शारीरिक---द्रव (तरी) अथात् शरीर की यह चारों रतूयने (नरी, स्निग्धता) जो भोजन के अगई ngni-t. संज्ञा पु. (?) चलता की प्रथम परिवर्तन द्वारा उन्न होगी। हार्स जाति का एक पेड़ हो अवध, बंगाल, मध्यदेश (Lumors) 0 और सद्रास में बहुतायत में होता है। इसकी लकड़ी भीतर सफेबीलिए हप बाल होती है। श्रखलीलल मलिक akhiltu-malika जहाजों और मकानों में लगती है। इसका अपभ्र० इकलीलुल्मलिक, ताज बादशाहती। कोयला भी बहुत अच्छा होना है। इसके पत्ते अरशम akhshan . अ। ग्वश्म रोगी, घ्राणज दो दो फुट लम्बे होते हैं और पत्तल का काम संगी। वह रोगी जिसकी घ्राण सक्रि नाश हो गई भी देने हैं। इसकी कली और करचे फलों की हो अर्था 1. जो वस्तुओं के गन्ध को न मालम तरकारी बनती है। कर सके । अॉसनेटिक (AROsmatic.) अगज ayaja-हि० संज्ञा पु० पर्बन से उम्पन्न होने वाला । शिलाजीत। अस्त्र म. akhsi-अ० मोबर, ग । डङ्ग( On:) अगजः aga jah-सं० प. (:) पाई धनियाँ, फासेज ( Forces) इं"। नैपाली धयियाँ, तुम्बुरु-हि.) । नुम्बुरुः, आर्ट अरुसामुलमkhsamulaim-अ) पलकों धान्यकम्-सं० । काँचधनम्-यं । Extecaril के किनारों के मिलने का स्थान । agulocha ( २ ) बन्दकः-सं० यन्दा अव सीनह.khsinah-जङ्गली राई(Brassic बाँदा-हिं० । बाँदड़ा । बरगाछा--बं. A payafuncil, Titltd.)। sitispliant (Epithe ntdrum Tasstt. अग -१० संज्ञा पु. [सं० अङ्ग] मूढ़ अन t um)| जान । अंग, शरीर,-६० सं० पु० [सं० अगजन avajani--पं. भवानी त्रुटी । मे मो०। अङ्गारी ] ऊख के सिरे पर का पतला भाग जिममें गाः बहुत पास २ होती है, और रम अगजम् agin.jn-m-सं० क्ली. शिलाजतुः, शिलाफीका होता है। अगौरा | अगौरा । वि० [.. ।जीत ( Bitumcn ) i० मा० । श्रा मूढ़, अनजान, अनाड़ी | वि० सं० (१). अगट agata-हिं संज्ञा पु. [देश] भिक घा न चलने वाला । अचर । स्थावर । (२) टेढ़ा मांस बेचने वाले की दुकान । चलने वाला। - अगड़धत्ता aar and hatta--हि. प. (१)द्रोण अगंड ganda-it० सं० पु. (सं०) घर से पुप्पी, गूमा । (२)हि. वि. ( अग्रोद्धत, बढ़ा जिसके हाथ पैर कट गए हों। ना] लम्बा नगा । ऊँचा (श्रेष्ठ) अढ़ा चढ़ा For Private and Personal Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अगड़ा श्रगड़ा agadá-हिं० संज्ञा पुं० (देश) ज्वार बाजरे श्रादि अनाजों की बाल जिसमें से दाना झाड़ लिया गया हो । खुखड़ी, श्रवरा | अगरण agana -हिं० वि० जिसकी गिनती न हो | श्रगति agati - हिं० संज्ञा ० [सं० ] ( १ ) गति का उलटा ( २ ) स्थिर व अचल पदार्थ | श्रगतिक agatika - हिं० वि० [सं०] निराश्रय जिसकी कहीं गति वा पैठ न हो । श्रगत| agati-हिं० संज्ञा स्त्री० ( १ ) चक्रमर्दक, चकौड़ | दुघ्न | दादमईन | Cassia tora ( २ ) | अगस्तिया, अगस्त, ( Agati Grandiflora. )। श्रगति agatti-ता० गु०, मला० हिं० श्रगस्तिया श्रस्य वृक्ष | Agati Granddiflora. अगतीहून agatihúna-० पु० एकदा जो मय जड़ और पत्तों के स्वर में दी जाती है । मु० आ० श्रगश्रिया agathiya - हिं० | Agati Grअगथियो agathiyo - गु० j andiflora ३६ श्रगस्तिया, श्रगस्त का पेड़, अगस्त्य वृर । अगद agula-हिं० संज्ञा पु ं० ) ( १ ) रोग रहित अगदः agadah-सं० पु० ) Healthy ( २ ) श्रीषध (Medicine ) ० नि० व० २० । श्रगदम् ayadam - सं० क्ली० (१) श्रारोग्य, स्वस्थ, निरोग ( Healthy ) रा० नि० ० २० बा० उ० ३५ श्र० ( २ ) प्रति विष, विषधन श्रीषध -ft. कादे जहर - फा० । तिर्याक - ० 1 Antidote- इं'० । गदङ्करः againkarah } अगमङ्कारः agadnkárah j चिferee (tA physician ) | रा० नि० व० २० । अगदतंत्र again tantra श्रगदतन्त्रम्agada-tantram J -सं०, पुं० वैद्य सं०ली० त्रिप चिकित्सा विषयक तन्त्र, निखिल स्थावर व जङ्गम विष चिकित्सा; विष तन्य ( शास्त्र ) । इल्मुस्सम्मियात् इल्मुस्सुम्म य० । टॉक्सि Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रगना कॉलॉजी (Toxicology. ) - इ' यह शब्य श्रादि श्रष्टविध तन्त्रार्न्तगत वैद्यक का एक अंग विशेष है । जिसमें सर्प बिच्छू आदि के विष से पीड़ित मनुष्य की चिकित्सा का विधान हो । ॐ० सू० १ ० व अगद वह शास्त्र जिसमें दिषों के वर्गीकरण, उनके मनुष्य शरीरादों पर होने वाले प्रभाव एवं लक्षण तथा उपचार और चिकित्सा प्रभूति का पूर्ण विवेचन किया जाय । अगदनस्यम् agada-nasyaan-सं० लो०, सर्पदं प्रभुति विषयक नस्य विशेष, विष के नस्य(Stermutatoly used in snake poisoning ) लु० कप० । अगदाञ्जनम् agadanjaman-ic, लीo, विष द्वारा मूच्छित हुए प्रभुति का अंजन, विषघ्न. अंजन ( Collyrium used as antidote to poison1. ) सु० करप० । श्रगदेश्वः agadeshvarah-सं० पु० योग शुद्ध गंधक १ भाग, पारद १ भाग, मैनशिल १ भा०, वर्क चांदी १ भाग, हरताल १ भाग, शुद्ध अभ्रक भस्म गंधक का चौथाई भाग, चूर्ण कर इनें हंसराज, चिकुर और नीतू के रस की सौ भावना दें फिर श्रतशी शीशी में रख बालुका यंत्र द्वारा ३२ पहर की च दें। मात्र चना प्रमाण । गुण- यह उचित अनुपान से प्रत्येक रोगों को नष्ट करता है | २० यो० खा० । अगन aghana o मिनमिना वह व्यक्ति जो नकिया कर बात करे । गश्रनत 200a-हिं० संज्ञा स्त्री (१) दे० अग्नि । ( २, ६० अगण | For Private and Personal Use Only " | अगन चश्मानोका agana-chashmanokaहिं० पु० श्रतशी शीशा, सूर्य-कान्त- मणि, श्रग्नि-गर्भ ( 'The sun-stone ) - अगनश aghanasha-यमo, हजार, नौसादर, नृसार । ( Ammonii chloridun ) श्रगना gana -उ० प०सू० धामन | मेमो Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अंगनाद ४० अगमका .वा . अगनाद gaumatla-बं वन तिकिका, याकनादि FO) Srphithia Ilernanclif. ofia फो। इ, १ मा अगनोyami-60 संज्ञा स्त्रा०देअग्नि । संझा स्त्रो० [सं.) अन] घोड़े के माथे पर की भौरी वा घूमे हुए बाल । अगनीन againin-इ, जलीय ऊर्ण वसा (Atips ] ashyarsus): इ0 मे) मे.) श्रग़नीयुम ghaniyusa-मिरिक किर्मिज दाना, मसूर के बरावर रक वर्ण का एक कीट है । (Cochinal) देखो कोचनोल । अगनीस ॥galist यु० निगुण्डी सम्हाल .. feris (Vites begundo, Linn.) अगनू gan) अगनेऊ agmai-हिर, संज्ञा स्त्री) [सं० । अगनेत ghatii ) अाग्नेय ] अग्नि कोण । प्राग्नेय दिशा। अगन्धखर पर्पको amithakha.harpati.. pati-M० स्त्रो० योग-शुद्ध पारद १२ मासे, . लौह भस्म १२ मासे, दोनोंकी कजली करें पुनः थोड़े से घी में मन्दी आग पर पिघला कर विधि बत गोबर के ऊपर केले के पत्र रब उस पिचली हुई कजली को डालकर ऊपर से दूसरे केले के पत्र से दाव। फिर भारंगी, सी, अगस्निया, त्रिफला, जयन्ती, निगुरकी, त्रिकुटा, चाला, कुमारी इनके सम्मकी ७-७ भावना देकर एक लघु पुट दें। गुराग-उचित अनुपानासे समस्त रोगों को नष्ट । करनी हैं । पान, तुलसीके रस तथा गो मूत्रके साथ । सेवन करने से श्वास और स्वाँसी का नाश हाता है। मात्रा-सामा से २ रत्ती । श्रगन्धिकम adhikam-सं) को संचल लवण-बं! sochal-stilt भा) मध्य । देखो-सौवच्चलम् । अगम ॥gin--हिं० वि) [ 10 अगम्य ] (1): अथाह । (२) अलभ्य । अगमको gamki-हि) स्त्रो) विलारी । म्यु. किया स्कैल्ला Mukia sea.bulta, dow.), बायो निया स्कैल्ला (Bryonia Sathi , in )-ले।। अहिल्यकम् , घण्टाली,-सं) । चिरानी, बेल्लारी-सिक चिस्ती-मह) | बाल ककड़ी-उः प। सू)। मोसुमुसती, मुसु मुसुक्काइ-ता) | पुटेन--पुदिङ्ग, पोट्टी बुढ़मु, नृधोय कुलतरू बुदम--ते.) । सुकपिरी, मुक्कल-पीरस्-मल) । विस्टली ब्रायोना ( Bristly Bryony ) कुम्मार वगं. (1.0. Cucurbitaceit) उत्पत्ति स्थान-समग्र भारतवर्ष । वानस्पनिक विवरण-पोवा लोमश, खुरदरा, (विषम तलाय ), अाधारकतन्तु ( tendril ) सामान्य, पत्र-हृदाकार, घर डयुक या कोणयुक पप्प-लब्बन युः, जिसमें असंग्टन्य नर पप्प होते हैं । और पुष्प गुच्छाकार होता है। नारि पुष्प ? में ४, लघु, घण्टाकार और पीत वर्ण का, बोज (berry ) व लाकार, पकावस्था में गम्भीर रजवण का जिसपर लम्बाई की रुव श्वेत धारियों पड़ी रहती हैं, चिकना ( मननल) अथवा कतिपय प्रष्ट रोमों मे व्याप्त होता है । फल एवं पोधा स्वाद में कटु होते हैं । फल अक्टूबर सं दिसम्बर मास तक परिपका होते हैं। इतिहास व गुणधर्म आदि- डाइमांक ऐन्सली के वर्णनानुसार इसका दाक्षिणात्य संस्कृत नाम अहिल्यकमह जो स्पष्टतया अहिलेखनका अपभ्रंश है । इसके फल पर सर्वकार श्वेन धारियों पड़ी रहती हैं इस कारण इसका उर नाम भी उचित ही । इसका तथा शिवलिङ्गी ( BryoniaieiniosI) का दसरा संस्कृत नाम दो प्रयोग में श्राता हुश्रा दीख पड़ना है । वह घरटाली-- है जिसका अर्थ "सून में एक पंक्ति में पिरोई हुई धस्टियां" हैं जैसाकि नर्मक कुमारी गण नृत्य काल में पहनती हैं। यह नाममी उपयंत्र सादृश्यताके कारण ही रखा गया है। यह पौधा साधारण भेड़क एवं प्रामाशय बलप्रद है। इसका शीत कपाय अद्ध प्याली की मात्रामें For Private and Personal Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अगमकी अगर दिन में दो बार दिया जाता है । यह अत्र उन्हीं : हो । जैसे--राजपत्नी, गुरुपरनी, मित्रपस्नी, माता, श्राशयों के लिए व्यवहार में आती है तथा यह बहिन इत्यादि। उन मिश्रणों में जो बालकों को दी जाती है, अगम्या गामी gamyagāmi-हिं0 संज्ञा प्रविष्ट होती है । ऐसलो ।। पुं० [सं० अगम्यागामिन ] (Practising. यह मुबल है-रहीडी। . illicit intercourse ) अगम्या स्त्री से दक है। इसकी जड़ द्वारा संभोग करने वाला। निर्मित का प्राध्मान में हितकर है तथा जड़ गया ayaya हिरोहियका दंत से चर्वण करने से यह दंतशूल को लाभ अगयाघासayaya-ghāsaj तृण, गंधतृण, पहुँचाती है। वट। भूतृण । Andropoyon schooranthus, कोमल अंकुर एवं तिक पत्र सामान्य सारक प्रभाव Lin. फा००३ भा० 150 मे मे०। देखो करते हैं। और डाक्टर पीटर -(Watts' अगिया। (1)जल धनियाँ, देवकाँडर-हिं० । dictionary] शिरोऽर्ति या शिर चकराने स्वरूप-हरा । स्वाद-कडुआ और तीखा । और पित्त विकार में प्रयोग करने की शिफारिश पहिचान-प्रसिद्ध बूटी है। रासायनी लोग करते हैं। इसको ढूढ़ने में बहुत रहते हैं। प्रकृति-तीसरी यह दया कुछ मिश्रित योगों का एक अवयव है कक्षा में गरम और दूसरी कक्षा में रूक्ष है। जो कफयुक्र (मुख्य लक्षण) पुरातन रोगों में हानिकर्ता-त्वचा को और खुजली उत्पन्न करती व्यवहृत है । सम्भवतः इसके श्लेष्म निस्सारक है। दर्पनाशक-मुर्दासंग और गाय का घी। प्रभाव के कारण ही ऐसा किया जाता है। मात्रा-२ रत्ती। गुणकर्म-प्रयोग-(१) यदि इ0 मे0 मे0 1 इसके स्वरस में चालीस दिन गंधक भिगोकर अगमन aguinama-हिं० क्रि० वि० [सं) धूप में रखें फिर उस गंधक को २ रत्ती पान में अग्रवान ] आगे। पहिले । प्रथम । आगे से, रखकर खाएं तो अत्यन्त सुधा लगती है, (२) पहिले से। अति कामोद्दीपन कर्ता, (३) यदि वंग को इसके स्वरस में भस्म करें तो श्वास कास को अगमनीया agamaniya-हिं0 वि० स्त्री अत्यन्त गुण करती है और किसी प्रकार का [सं०] न गमन करने योग्य (स्त्री), जिस अवगुण नहीं करनी (निर्विषैल) ७० मु०। (स्त्री) के साथ संभोग करने का निषेध हो। अगम्य Agamya-हिं० वि० [सं०] ( Un अगर ugara-हिं० संशा पुर) काली अगर, अगर approachable) म पहुँचने योग्य । सत । अगरु, अगुरु, बंशिक, राजाहम, लाह, कृमिज, क्रिमिजं, जोङ्गकं, [0], श्रानार्यजं, अगम्या agamyi-हिं. वि।) स्त्री० [सं०] [हे.) ], बंशकं, [ हा० ], लधु, पिच्छिल [के०] न गमनकरने योग्य( स्त्री )मैथुन के अयोग्य स्त्री। भङ्गज, कृष्णा, लोहाख्यं अर्थात् लोहे के सम्पूर्ण संज्ञा स्त्री० न गमन करने योग्य स्त्री। वह स्त्री नाम [10] रातकं, वर्णप्रसादनं, अनार्य कं, जिसके साथ सम्भोग करना निषिद्ध है। जैसे असार, अग्निकार, क्रिमिजग्धं और काष्टक. गुरुपानी, राजपत्नी, इत्यादि [A women लोह, प्रवर', योगजं, पातकम्, क्रिमिजम्, सं०! not deserving to be approached, अगरु, अगुरचन्दन, श्राग्रु-बं० । ऊ.द, ऊदुल. (for coha bitation ) बख्नुर, ऊदे ग़ी, अगरे हिन्दी-अ०, फ:01 एक्विअगम्यागमन againyagamana--हिं0 संज्ञा लेरिया एगेलोका(Aquilariaagallocha, पुं० [सं०] अगम्या स्त्री से सहवास | उस स्त्री Ro..b.) १) मलाकेन्सिस ( A. Malace के साथ मैथुन जिसके साथ संभोग का निषेध ! ensis, Lemb)ए० ओ बेटा [A. Ovata] For Private and Personal Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अगर अंगर -ले० । एलोबुद्ध Aloe spood, ईग़ल वुड Eaglewood-इ) बायस डी कैलम्बक (Boustic Calambine )-फ्रां)। अगर, अगलीचन्दन-ता। हलाहचेटु--ते । कृनागरु, अगर--ता) ते), कना)। कृष्ण(गरु शिशवाचे झाड़-म । अगरू-गु० । अवयन-बर।। प्राकिल-मलाबा"हागलगंध-तु । चिन-हिअंगचीन । गरू, क्यागहरू--मल । सासी --श्रासा। _ थाईमलेसोई वर्ग [ N. (). thyme:lactiti:] उत्पत्ति स्थान प्रासाम, पूर्वी हिमालय पश्चिमीमलय पर्वत, खसिया पर्वत, भूटानसिलहर, टिपेरा पहाड़ी, मर्तबान पहाड़ी, पूर्वी बंगाल । प्रांत, दक्षिण प्रायद्वीप, मलका और मलायाद्वीप; नाट-अासाम प्रदेश प्राचीन काल से अगुरु वृक्ष की जन्मभूमि होने के लिए विख्यात है। रत्रु दिग्वजय वर्णन काल में कालिदास लिखते अनार्य या अनार्य है। अस्तु विलियम डाइमाक नहोदय का निश्चय है कि भारतीयों से प्रथम कदाचित् पूर्वी एशिया के मूल निवासियों को इसके उपयोग का ज्ञान हुआ। प्राचीन समय में वश्की के रास्ते यह मध्य एशिया और फारस में लाया गया और वहां से अस्य और यूरूप में पहुँचा । राजनिघण्टुकार ने कृष्णागुरु ( काला अगर), काप्टगुरु (पीली अगर), दाह काम्, दाहाग (गु)रू (गुर्जर देश प्रसिद्ध अगरु विशेष ) तथा स्वाद्वगुरु (मङ्गल्यागुरु, मधुर रसागुरु, कंदार देश प्रसिद्ध अगर ) नाम से इसे पांच प्रकार का लिखा है। मघण्ट्रकार के मतसे मङ्गल्यागर है। विस्तृत विवरण के लिए उन उन नामों के अन्तर्गत देखिए । । भावप्रकाशकार-इसके चार प्रकार के भेदों को स्वीकार नहीं करते | ऐसा विदित होता है कि अरब यात्रियों ने इसके व्यापार एवं उत्पत्ति स्थान सम्बन्ध में काफी समाचार संग्रह किए हैं। चकम्पे तीर्ण जाहित्ये तस्मिन् प्राग् ज्योतिपेश्वरः | सद्गजालानतां प्राप्त : सह कालागुरु द्रुमैः ॥ [ रघु०, ४ र्थ सर्ग] इतिहास-अगर का सुगन्धि तथा श्रीषध . तुल्य उपयोग ग्राज का नहीं वरन् अत्यन्त प्राचान है। इसकी प्रचीनता का पता तो केवल एक इसी बात से लग सकता है कि इसका वर्णन सभी प्राचीन आयुर्वेदीय प्रधा-सुश्रत, चरक श्रादि में पाया है। इतना ही नहीं प्रत्युत लोबान और तेजपात प्रमति के साथ अलोट तथा अह.. लीम नाम से इसका ज़िकर यहूदी धर्म ग्रन्थों । में भी पाया जाता है ।(साम ४५ ८, कहा। ७.१७)। डीसकगीदूस (Dioscories) के कथनानुसार यह भारत वर्ष एवं अरब से यूरूप में लाया गया। ईटियस ( tius) से पश्चातकालीन लेखकों ने एलोबुद्ध (Alo. wool) नाम से इस औषध का उस्लेख किया है, और इसी नाम से यह अब तक युरूप में प्रसिद्ध है। अगर का संस्कृत नाम | याना बिन .... सेगपियन-ने हिन्दी, मंडली, सिन्फी और कनारी नान से इसके चार भेदों का वर्णन किया है । दरायीं शताब्दि में इब्नसीनाइसके सम्बन्ध में निम्न बिबरण देते हैं--- मंडली हिंदी या (पहाड़ी) सनंदूरी,कमारी, सम्फी और काकुली,किस्मूरी ये दोनों महुल मधुर होती है !इनमें से सबसे खराब प्रकार हलाई, कम्ताई, मन्ताई, लबथी या स्तार्थी है। नंडली सोत्तम है, इसके बाद सदुरी धूसर व युक्र, वसामय एवंलीय भारी श्वेत धारियों सहित और धीरे धीरे जलने वाली होती है । कोई कोई भूरीसे काली अगर को उत्सन स्याल करने और सबसे अधिकतर काली,श्धेन धारी रहित वसामय तेलीय और धीरे धीरे उ.लने वाली “कमारी" है।ती है। संक्षेप में सर्वोत्तम अगर वह है जो काली, भारी, जल में डूबने वाली, चूण करने पर रेशा रहित हो, तथा जो जल में न डूबे वह अच्छी नहीं । अरव यात्री भी अगर को लगभग उन्हीं नामों से पुकारते हैं। For Private and Personal Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नगर अगर यह निश्चय किया कि यह मगुई प्रार्चिपलेगोदी में उत्पन्न होने वाले एक वृक्ष की लकड़ी है। गैम्बल (Gamble) के कथनानुसार इसका बी नाम "क्यायु"है और यह टेनासरम तथा मई ग्राचिपलेगो में उत्पन्न होता है। मार मुहम्मद हुसेन-[ १७७० ] लिखते हैं- "ऊद जिमे हिन्दी में अगर कहते हैं,यह एक लकड़ी। है जो कि सिलहट के निकट अन्तिया की पहाड़ियों में उत्पन्न होती है। ये वृह बंगाल से दक्षिणस्थ टापुओं में भी जो कि विषुवत रेखा के उत्तर में स्थित हैं, पाए जाते हैं । इसके वृक्ष बहुत अचे होते हैं। और प्रकाएइएवं शाखार वक्र होती है और काम होता है। इसकी लकड़ी से घड़ी, । प्याले तथा अन्य वर्तन बनाने थे । यह सड़ता ग. लता भी है और इस दशामें विकृत भाग सुगंधयुक्त द्रव्य से च्यात है। जाना है। अतः उक परिवर्तन लाने के लिए इसे नर पृथ्वी गर्न में गाद देने , हैं। अगर के जिस भाग में एक परिवर्तन श्रा जाता है वह नेलयुक भारी एवं काला हो जाता है। पुन: इसे काटकर पृथक कर जल में डाल देते हैं। इनमें जो जल में डूब जाता है उसे ग़की ( बने । वाला), जो अांशिक जल मग्न होता है उसे नीम । ग़ी (अाधा डूबने बाला) या समालहे पाला और जो तैरता रहता है उसे समालह कहते हैं। इनमें से अन्तिम सर्व सामान्य होता है। ग़की काला होता है तथा अन्य काले और हल्के घूमर वर्ण के होते हैं। अगर ( alon wool ) धूप देने के लिए अथवा सुगन्ध हेतु समस्त पूर्वीय देशों में व्यवहृत है और पूर्वकालमें यह युरूप में उन्हीं व्याधियों के लिए व्यवहार में श्राता था जिनके लिए श्राज भी यह भारतवर्ष में प्रयुक होता है । एक पेड़ जिसकी लकड़ी सुगन्धित होती है, इसकी ऊचाई ६० से १०० फुट और धेरा से - फुट तक होता है। जब यह बीस वर्ष का होता है तब इसकी लकड़ी अगर के लिए काटी जाती है। पर कोई कोई कहते हैं कि ५० या ६० वर्ष के पहिले इसकी लकड़ी नहीं पकती । पहिले तो इसकी लकड़ी बहुत साधारण पीले रंग की ओर गंध रहित होती है पर कुछ दिनों में धड और शाखाओं में जगह जगह एक प्रकार का रस या जाता है जिसके कारण उन स्थानों की लकड़ियों भारी हो जाती हैं। इन स्थानों से लक इयाँ काट ली जाती हैं और अगर के नाम से बिकती है। यह रस जितना अधिक होता है उतनी ही लकड़ी उत्तम और भारी होती है। पर ऊपर से देखने से यह नहीं जाना जा सकता कि किस पेड़ में अच्छी लकड़ी निकलेगी। बिना सारा पेड़ काटे इसका पता नहीं लग सकता । एक अच्छे पेड़ में ३००) तक का अगर निकल सकता है । पेड़ का हलका भाग, जिसमें यह रस वा गोंद कम होता है, 'धूप' कहलाता है और सस्ता अर्थात् १), २) रुपए सेर बिकता है। पर असली काली लकड़ी जो गेंद अधिक होने के कारण भारी होती है ग़रकी कहलाती है। और १६) या २०) सेर बिकती है | यह पानी में डूब जाती है। लकड़ी का बुरादा धूप, दशांग प्रादि में पढ़ता है। बम्बई में जलाने के लिए श्रौषध कार्य के लिए ऊदे ग़ौ, जो सिल हट से प्राप्त होता है, सर्वोत्तम होता है । इसे तिक सुगंध मय तैलीय तथा किञ्चित् कला होना चाहिए, इससे भिन्न निम्न कोटि के ख्याल किए जाते हैं।। चूकि ऊद की लकड़ी को कुचल कर जल में भिगोकर अथवा इसे बादाम के साथ मिलाकर पुनः कुचल दबाकर इसका तेल निकाल लेते हैं. इसलिए योगों में प्रायः ऊ दे खाम (कच्चा ऊद) ही लिखा जाता है । और क्योंकि "चूरा अगर" नाम पे अगर के टुकड़े भारतीय व्यापारिक द्रव्य है, अस्तु इसमें चन्दन, तगर अथवा एक सुग- ' धित कापड के टुकड़े मिला दिए जाने हैं। . रोगज़वर्ग तथा अन्य वनस्पति शास्त्रियों ने सिलहट में अक्विलेरिया (aquilaria) .. अर्थान् श्रगर को परीक्षा की और हाल ही में : For Private and Personal Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अगर अगर जो अगर काले रंग का होता है उसे कृपयागुरु कहते हैं । यह अधिक गुण वाला और लोहे के सदृश पानी में डूब जाता है। अगर से बनाए हुए तैल में भी काले अगर के सदृश ही गुण है। भा० क०३०। अगर गन्धनारम, तिक्र, कटु, स्निग्ध, मंगल दायक, रुचिकारी धूपके योग्य पित्त जनक, तीक्ष्ण है तथा वात, कफ, कर्ण रोग और कोढ़ का नारा करता है। लेप में पौर लगाने में है। निर० ' वक्तव्य इस देश में अति प्राचीन काल से अनुलेपन व औषध रूप में अगर व्यवहार में प्रारहा है। अतः चरक सूत्ररथान ३४ अध्याय में शिरोवेदनाहर एवं शीतहर प्रलेस में अगरू का उत्रेग्य दिखाई इसकी अगर यत्ती बहुत बनती है। सिलहट में अगर का इत्र अहुत बनता है। बोबा नामक ! मुगंध इसी से बनता है। बानस्पतिक वर्णन-अगर के बेडौल टुकड़े होते हैं जो उनमें राल के परिमाणानुसार धूसर या गहरे धूसर वर्ण आदि विभिन्न रंगों के होने हैं । हलके तथा गहरे दोनों रंगों के टुकड़े लम्बाई की रुख गहरे रंग के नसों से चित्रित होते हैं, ये जल में डालने से जलमग्न हो जाते हैं। इसे चबाने से ये दाँतों में चिपट जाते हैं तथा मृदु प्रतीत होते हैं। स्वाद-तिक्र. तथा सुगन्ध युक्त जलाने से इसमें से ग्राह्य गंध अाती है। प्रयोगांश-काष्ट । रसायनिक संगठन--एक उड़न शील तेल, जो ईथर में विलेय होता है, दूसरा राल जो मासार (अलकुहाल) में धुलनशील तथा ईथर में अन धुल होता है। औषध निर्माण काथ (१० में १ ); मात्रा-४ से १२ डाम । चूर्ण तथा कल्क ।। अनेक औषधियों से युक्र पाक श्रादि मात्रा१० से ३० रत्ती । तैल-३० से ६० बूद। गुणधर्म तथा उपयोग. आयुर्वेदीयमनानुसार--अगर शीन, प्रशमन और कामध्न है । च० । अगर वात-कफहर, वर्णप्रसादक, देह का रंग सुधारने वाला) खुजली नाशक और कुष्टनाशक है। अगर की लकड़ी को जल में प्रौटाकर उस पानी को पीने से स्वर में लगने वाली कृपा न्यून होती है और यह मगो एवं उन्माद श्रादि रोगों में परमोपयोगी है। सु०। अगर तिक, उपण, चरपरा, लेप करने से रूक्षता उत्पन्न करने वाला, स्वचा को हितकर, तोरणपित्तकारक और हलका है तथा ब्रण, कफवात, । वमन, मुख रोग एवं चद् और कर्ण रोग नाश करने वाला है। रा० नि० व० १२। वा० । चि० ४ ०। चरकोक शीत ऋतुचयां में अगर के अनुलेपन का उपदेश किया गया है। सुश्रत में प्रणधूपन द्रव्या के मध्य अगर का पाठ दिया है। (सृ. ६ अ०)। अगर का तेल पीत वर्ण का एवं अगर के समान गंध वाला होता है। भाव प्रकाशकार लिखते हैं --अगर के तेल का गुण कृणागुरु अर्थात् काले अगर के समान है, यथा-- "अगुरु प्रभवः स्नेहः कृपरणागुरु समामतः।" उत्तम अगर की लकड़ी को जल में घिम कर शरीर में लगाने से उसका वर्ण उज्वल होजाता है इसी लिए इसका एक नाम "धर्ण प्रमादन" यूनानो मत के अनुसार-प्रकृति दूसरी कक्षा में गरम और नीसरी कक्षा में रून है। किसी किसी के मतानुसार दूसरी कक्षा में गरम च रूप है। हानिकर्ता-उष्ण प्रक्रति को इसका पीना और धूनी देना । दपंध-गुलाब, कपूर, मिकंजश्रीन । प्रतिनिधि-दालचीनी, लोंग, केशर, चंदन बालछड, रूमी मस्तंगी। गुण कम-प्रयोग(1) हलकी अपनी सुगन्धि एवं प्रकृतोमासे प्राण बायु को बलप्रद होने के कारण श्रामाशय यकृत, हृदय तथा इंद्रियों को बल देता है और इसी For Private and Personal Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अगर अगर-अगर कारण मस्तिष्क के लिए अत्यन्त लाभदायक है, (२) अपनी सूदनः एवम् ऊम्मा से रोधे।. दवाटक है, (३) इसका च पाना मुख के सुगंधि प्रदान करता है। और वायु लयकारक है । त० नो० (५) हृदय को प्रसन्न करता है । (६) वात तन्तुनी बलप्रद (७) पक्वाशय और प्रांत्र को बलाद, (5) गर्भाशय की शीतना, के लाभ कर्ता, (६) श्रोजप्रद और हृदय की व्याकुलता का नाशक है। अगर के सम्बन्ध में नभ्यमत-सुगंध हेतु चूर्ण रूप में तथा उत्तेजक पित्त निम्मारक एवम् रोधादघाटक प्रभाव के लिए इसका ग्राभ्यमरिक उपयोग होता है। अनेक नाड़ी बलदायक वायुनिःसारक तथा उत्तेतक ग्रोवधियों का यह एक अवयव है। निकरस (Gout) नया संधिवात में एवं वमन निग्रह हेतु भी इसका उपयोग होता है। अस्त्र चिकित्सा सम्बन्धी प्रण एवं क्षतों की वेदना शमनार्थ इसको अंगम प्रशमन धूनी रूप से उपयोग में लाते हैं। बालकों की बांसी में अगर तथा ईश्वरी ( Indian birth wort) के कल्क को बागडी के साथ वनस्थल पर लगाते हैं। शिरःशूल में इसे शिर में लगाते हैं। धूप अनियों के बनाने में भी यह प्रयुक्त होता है। इमे अगर की बत्ती कहते है। ___ जवारश ऊद में भी यह पड़ता है (अस्तु, देखो-जवारस ) इसकी मात्रा १० से ३. रत्ती तक है । गुण-शुक्र सम्बन्धी निर्बलना, शिर में ' चक्कर आना नया श्वेतप्रदर में यह नाड़ी को अल दायक औषध है । ई० मे० मे०। अगर agar-फा० सुरीन, चूत ई-30 नितम्ब हि । ( Hip) अगर-अगर ugar-agar-लका (१) चीनी वास-भा० बा०, बम्ब० । दरिया की घास, पाची-मोस-द० । समुहुपु-गाची, समुद्रपु-पाचि -०। अगर-अगर-सिं० । सीलोन मास (C.ylon moss ), एडिब्ल मॉस : (Edible moss ), सी वीडम (Son- weads)-10। ग्रेसिलेरिया लाडकेनॉइडीज (Gracilaria lichenoiles, Grer.) कडल पाश्चि-ता०1कियाव वाषङ्-थर ! ग्रेसिलेरिस कॉनफर्बाइडीज़ ( (incila.jiss confervoides, Gren.)-ले० । शैवाल जाति. (Algin or seit weed.) उत्पत्ति स्थान-लंका का स्थिर समुदी भाग तथा हिंद महासागर । वानस्पनिक वर्णन---अगर-अगर श्वेताभायुक्र या पीतामायुक श्वेत शास्त्री तन्तुमय जलीय पौधा है जो कई इञ्च लम्बा (अश्वेतकृत बैंगनी )होता है। आधार पर बृहत्तन्तु कुक्कुट पक्ष से अधिक मोटे नहीं होते; लखु नन्तु सीने के सूत्र के लग भग मोटे होने है।गी अम्खों से वे तन्तु करीब करीब बेलनाकार प्रतीत होते हैं। परन्तु सूक्ष्म दर्शकयंत्र से देखने पर वे लहरदार या झरी युक दीख पड़ते हैं। शाखाक्रम कभी कभी यम्म | Dichotoimous. ) होता है । और कभी अयुग्म । शुष्कावस्था में सूक्ष्म वृत्ताकार कोष ( Coccidia) अप्रत्यक्ष रहते हैं किन्तु श्रार्द्र होने पर स्पष्ट रूप से तत्क्षण श्रीख पड़ते हैं। वे करीव २ वाखस बीजाकार या प्रवृत्ताकार होते हैं और उनमें सूक्ष्म अायताकार (स्तम्भाकार ) गंभीर रनवीय दानों (Spore) का एक समूह होता है। अगर-ग्रगर (Caylon ymoss) कार्टिलेजीय पदार्थ है। स्वाद-निर्मल लवणयुक शैवालीय होता है। रसायनिक संगठन-वेजिटेबल जेली(वानस्पतीय सरेश)४० से ८० प्रतिशत, अरुन्युमेन नैलिन ( [odine), farfar (True starch), fafiga qaraf (Ligneous matter), लुभाव, लवण यथा सैंधगन्धेत् (Sodium Sulphate) सथा सैंध हरिद (Sodium chloride ), regia ( Calcium phosphate), चूनगन्धेन (Calcium sulphate ), मोम, लौह तथा शैलिका । इतिहास तथा उपयोग-अगर-अगर For Private and Personal Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अगर-अगरं अगर-श्रगर प्रद होता है। यह सिरेशम माही ([sillulass) का उत्तम प्रतिनिधि है। ई० मे० मे। Ceylon moss ) दक्षिण भारत तथा लंका में प्राचीन काल से पोषण मृद्धता जनक, स्निग्धता कारक तथा परिवर्तक रूप से धौर मुख्यतः वह रोगों में उपयोग में लाया जाता है। पुतखन श्रीर कालपेरिटर के मध्यस्थित महाझील वा : प्रशान्त जल में यह अधिकता के साथ उत्पन्न । होता है। प्रधानतः दक्षिणी पश्चिमी मानसून काल में जलस्थ क्षोभ के कारण जब यह पृथक् होजाता है तो देहाती लोग इसे एकत्रित कर लेते हैं।। तदनन्तर उसको (सिवार को) चटाइयों पर विछ। । ___ कर दो तीन दिवस पर्यन्त धूप में शुष्क करते हैं।' ... पुनः ताजे जल से कई बार धोकर धूप में खुला रखने हैं जिससे वह श्वेत हो जाता है। बैंगाल फार्माकोपिया (पृष्ट २७६ ) में उसके । उपयोग का नि क्रम वर्णित है: हिन्द जनता इसे अगर-अगर (Japan isiligitass) की शहा अधिक पसन्द करती है क्योंकि उसका इसके प्राणिवर्ग से निर्मित होने का सन्देह है, जो सर्वथा भ्रममूलक एवं अज्ञानता पूर्ण है। (डाइमॉक) (२)अगर-अगर 1-uyal-जापानीज़ प्राइसिन ग्लास (.Japanest: Isinglass), जेलोसीन ( Gelosin)-१० जेलोडियम् कॉर्नियम् ( (Gemilium Cortium, Ltiit.) जी. काटिलेजीनियम् (C- CartiJaginem, Gain. )-ले०। माउसी डी चाइनी (MOLss. d.. chint)-क्रां०। थेग्रो (Thao)-जाया। याङ्ग-टम चा०॥ चोनी घास-मा० बा० । शैवाल जाति। (NO. Algon ) (नॉट प्रॉफिसल Vot officiall.) उत्पत्ति स्थान-हिन्द महासागर । विवरण-गर-अगर ऊररोज दोनों प्रकार के सिवारीसे निर्मित मिल्लीमय फीता की शकल का शुष्क सरेश है। सम्भवतः यह स्फी रोकॉक्कस कॉम्प्रेसस (Sphosrococcus com pros8119, Ag.) तथा ग्लाइऑपेल्टिस टिनेस (gloiopaltis t.:htax, 4 ) मे भी प्रस्तुत किया जाता है। काथ--शुष्क अगर-अगर चर्ण २ डान, जल १ कार्ट. इनको २० मिनट तक उबालकर अलमल से छान लें। इसमें अर्द्ध पाउंस के अनुपात से विचूर्णित शैवाल की मात्रा अधिक करने से ( या . १०० भाग जल तथा शुष्क शैवाल चूर्ण १ भाग . इं० मे० मे०)--शीतल होने पर छना हुना घोल हद सरेरा में परिणत हो जाता है और जब को दाल चीनी वा निम्फल त्वक् या (तेजपत्र ) शकरा तथा किञ्चित् मद्य द्वारा स्वादिष्ट बना दिया जाता है तो यह रोगी बालकों तथा रोगानम्र होने वाली निर्बलता के लिए उत्तम । एवं हलका(पोषक) पथ्य होजाता है। (डाइमॉक): जमानामा अगर-श्रगर का शुष्क पौधा श्रीपध रूप से व्यवहार में आता है। इसमें पेक्टिन् नया बानस्पतीय सरेश अधिक परिमाण में वर्तमान होने है। इसका क्याथ (४० में ) मद्ताजनक एवम् स्नेहकारक रूप से वक्ष रोगों, प्रवाहिका तथा , अतिसार में लाभदायक होता है। इसके द्वारा निर्मिन सरेश (Jelly) श्वेतप्रदर- अमृग्दर : तथा मूत्रपथस्थ क्षोभ में व्यवहत होता है। इसमें । नैलिका (Ioding) होती है अस्तु यह घेघा । (Goitre ) तथा कंडमाला श्रादि में लाभ हैम्बरो-हमके विषय में निन वर्णन उद्धत करते हैं :-जापानोज प्राइसिन् ग्लास के अशुद्ध नाम से अभी हाल में ही जापान से इङ्गलैण्ड में एक वस्तु भेजी गई है जो दवी हई, असमान चतुर्भुजीय छड़ होती और प्रत्यक्ष रूप से लहरदार, पीताभयुक्र श्वेत एवं अर्द्धस्वच्छ झिल्लियों की बनी होती है। ये छड़ ११ इंच लम्बे तथा १ से डेढ़ इंच चौड़े, आशयों से पूर्ण अत्यन्त हलके ( प्रत्येक लगभग ३ ड्राम) अधिक लचीले परंतु मरलता पूर्वक टूट जानेवाले For Private and Personal Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अगर-मंगर अग़रना तथा स्वाद एवं गंध रहित होते है। शीतल जल । रसायनिक संगठन-उक्र सिवार से प्राप्त सरेश सं स्पर्श होने पर इनका द्वव्यमान बढ़ जाता है में जेलोज (gelose ) जी सरशी सत्व है तथा ये चतु कोणी स्पञ्जवत् होजाते है और प्राप्त होता है। इसमें कोई नत्रजन घायव्य नहीं उनकी भुजाएँ नतोदर तथा चौड़ाई में १॥ इत्र होता तथा शर्करा पदार्थ ( nannite), होती है । यद्यपि जल में यह किसी परिणाम निशास्ता तथा अलव्युमेन वर्तमान होते हैं। में अविलेय हा है तथापि कुछ काल पर्यन्त प्रभाव तथा उपयोग-उम छिद्र प्रादिकों उबालने पर इसका अधिक भाग लय हो जाता को, जिनसे कभी श्रान्त्र वृषण में उतर पाती है, है और घोल, जब कि अभी यह जल निति संकुचित ( छोटा ) करने के विचार से अगर(या पनला ) है, शीतल होने पर सरंश में अगर के कीट रहित घोल का तत्स्थानीय तन्तुओं परिणत हो जाता है। चीन देशीय यूरूप में अन्तः शेप करते हैं। मृदुभेदक रूप से इसका निवासी इसे वास्तविक सिरेशम माही ( Isin- प्रायः सफलता पूर्ण उपयोग किया गया है। glass) की प्रनिनिधि स्वरुप व्यवहार में अगर अगर द्वारा निर्मित रिग्युलीन ( Reguलाते हैं जो कि बहराः उससे भी गुण- lin) नामक एक शुष्क एवं स्वाद रहित औषध दायक है । यह बहुत जल में मिलकर भी उसे जिसमें २० प्रतिशत कैस्करा सच (Extract सरेरा में परिवर्तित कर देता है। उसका यह of eascal) होता है प्रचार पा चुकी है। गुण गम० एन (11. payon) द्वारा अभि. १ से ३ दाम की मात्रा में पुरातन मलावरोध में हित जेलोज ( Glose) नामक पदार्थ के यह भेदक प्रभाव करता तथा मल परिमाण कारण है जो जापानीय शैवाल में विशेष रूप से , की वृद्धि करता है । कुचले हुए बालू व उबाले पाया जाता है । यह सिरेराम माही की अपेक्षा हुए फलों के साथ मिलाकर इसका उपयोग अधिक उत्तार पर पिघलता है । यह अपने से करना चाहिए। अगर-अगर के शुष्क बारीक १०. गुने जल में भी धुल कर शीतल होने पत्र चाय की चम्मच भर की मात्रा में कैस्करा पर सरेश में परिणत हो जाता है । के विना मरोड़ एवं रेचन के उत्सम परिणाम (४) एक ही यमन में इससे सिरेराम माही से १० उत्पन्न करते हैं। अगर के प्रभाव को आन्त्रीय गुना अधिक परेश तैयार होता है । श्राहार हेतु पृष्टों तक ही निर्मित रखने की दृष्टि से इसके चेश्रो सरेश ( अगर अगर ) प्राणिज सरेश से साथ बहुत सी अन्य औषधियां जैसे फिनोलअधिक प्रिय नहीं होता, क्योंकि वह ( वेश्रो) data ( Phenol-pha thaloin ) * मुख में श्रनयुल होता है और उसमें नत्रजन (रेवन्द), टैनोन (कपायीन), कैटेच्यू ( कत्था) भी अभाव होता है । उसमें सर्वोपरि गुण तथा कैलम्बा इत्यादि सम्मिलित करदी गई हैं। यह है कि वह अति न्यून परिवर्तनशील होता है, हिट० मे० भे। अस्तु, उपयोग हेतु प्रस्तुत, स्वादिष्ट एवं मधुरीकृत यह पोपक तथा स्नेहकारक है और सीलोन 'सी बीड जेली' ( समुद्र शैवाल सरेश ) नाम से; मास (चीनी धास नं०१) के समान व्यवहार में कभी कभी सिंगापूर से प्राया हुअा सरेश विना पाता है । यह उत्तम आहार है । ई० मे० मे० । विकृत हुए उसी रूप में वर्षों रक्खा रह गई agarai-हिं० वि० [सं० अगरु ] सकता है। श्यामता लिए हुए सुनहला संदली रंगका अगर । अधुना विशेषतया उष्ण जल वायु में जीवाणु अग़रता :ugharata-वर ब० छोटी माई का शाम्रान्धेपणार्थ व जीवाणु उत्पादन बर्द्धन हेतु यह वृक्ष (फराशवृक्ष) Tamaris gallica, अधिक उपयोग में लाया जाता है। (ढाइमाक) linn. For Private and Personal Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अगर तेलियह अगर तेलियह, agar teliyah - हिं० ऊद अर्थात् पानी में डूब जाने वाली 'श्रगर' या जो अगर तैलीय एवं श्यामवर्ण की तथा ऊपरोक गुण वाली अर्थात् डूब जाने वाली हो- (Aquilaria Malaccensis, Taruh. अगरधत्ता agardhattá - सं० प्र० अगरधा agardhák 33 stogsui ( Leucas Cephalotos, Spreng. फा० ई० ३ भा० : अगरबत्तां agarbatti-हिंο संज्ञा स्त्री० [सं० अगरवर्तिका ] सुगन्ध के निमित्त जलाने की पतली सींक वा बसी जिसमें अगर तथा कुछ और सुगन्धित वस्तु पीसकर लपेटते हैं। इसका उयवहार मद्रास तथा बम्बई में बहुत होता है । अगरलयूस aghar-layúsa - यू० इन्द्रायन का फल - हिं० (Citrulluscolocynthis, Schrad. Fruit of Colocynth.)। अग़ग्स agharay-यू० कृत विशेष, इसके गोंद को कहरुमा कहते हैं । ( Succinuin Amber [ tree of - ] | agar sata - हिं० ० अगर aquilaria agallocha, Roab.) अगरसार agárasára-fo सं० पु० देखो-अगर । अगरसत गूमा, अगर सामिनह agara sominah बर० ब० ग्राफिस के नाम से प्रसिद्ध हैं। एक घास है । अनुरहाल agharastasa-यू० वेद गयाह । एक गाँउदार वृक्ष अथवा घास | श्रगरा - agara ri - सं० स्त्री० A kind of grass Dootar | एक प्रकार की घास । देवदाली । देयताड़ा-बं० । अ० टी० भ० । (२) पीत-देवदाली । भा० रा० नि० ६०३ । अगुरिया aghariya - यू० मिट्टी का नाम है । ( A knid of clay ) अग़रियूस aghariyúsa - यू० ( १ ) गर्जरम्, गाजर Dancus carota, Linn. ! ४८ अरेतुर्की (car-rot) (२) देवदाली, बिन्दाल (Luffa Echinata, Ro.rh.) अगरी agani - सं० स्त्री० देवता वृत्त, देवदालो ( Deotar) बैं० श० । 'श्रपामार्ग' - हिं०, zol ( Achyranthes Aspera, Din.) इं० मे० मे० । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - अगर ! अगरु agaru-सं० कां० अगरू agarú हिं० संज्ञा०पु० लकड़ी। ऊद, काली अगर, अगरु चन्दन, कुष्णागुरु - हिं० अगराइ चन्द्रन - बं० | Aloe wood (Agallochum, the black variety) श्रा० उ० २७ श्र० | देखो-अगर । अगरु मंत्र काष्ठ agaru-gandha.kashtha-सं० लो० रक्तचन्दन | Pterocarpus santalinus, Linn. ( wood of-Red sandal wood) स० [फा० ई० । अगुरू गौलीत. aghari-ghoulitisa-o बोल - हिं० [फा०, बं०, ६० | गंध रस: बोलम् -सं० । मुर - ० Mirrh, (Balsamodendron Mirrh.) अगुरुस agharús - यू० खरहा, खरगोश । हेयर ( Hare ), रैबिट ( Rabbit ) - इं० अगरू सारः agarú-sárah -सं० पुं०, कालीश्रगर, कृष्णागुरु । काला श्रगुरु- चं० । Aloe wood ( the black variety) देखो - अगर श्रगरेतुर्की agare-turki - फ़ा० बच० - हिं० वज, बज - ० ६corus Calamus, Linn. ( Root of-swactflag ) मोर - वहुधा समस्त वर्नाक्यूलर अंगरेजी कोषों में बच ( Sweet flag ) को पुष्कर मूल ( Orris root ) के साथ मिलाकर भ्रम कारक बना दिया गया है। अतिरिक्त इसके अरबी वज या वज रिचार्डसन ( Richardsop ) शेक्सपीअर (Shakespear ) और कॉर्बीज ( Forbes ) प्रभृति कोषों में प्रमादवश लिज ( Gallangal ) के लिए प्रयोग For Private and Personal Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अगल अगस्तिया किया गया है। अनीस प्रकरणान्तर्गन फारसी first ste: It day after casirp.) नाम "बजे तुर्की" के सम्बन्ध के नोट को । नगासी uguvoste-इं. यह एक प्रकार की देखिए । स० फा० इं०। निष्क्रिय शकरा है जी सकसपत्ता ( Agave नोट-हाजिजैनुल अत्तार (१३६८) इसे जल htrian Lim.) नामक वृक्ष के डंठल जज कहते हैं और इसका फारसी नाम बलजज । के रस से पृथक की जाती है। इं० मे० मे। बनाते हैं। अगशि agarhi-कना० अगस्त वृक्ष, अगस्तिया अगलgalh- ताधिकरस्सी-बं० । बागापामा- (Ayati gandiflora, Dase.)फा० आसा० । मे० मी०। ०१ मा०। अग़ल्सोलीस nghal-solin-यू. एक वृक्ष है अगसतामरेरय Agasatanmuk:-Taya-ता० जिससे उशक नामक गांद निकलता है। __ जलकुम्भी--हिं० । कुम्भिका०-सं०। Pistiis अगलहिया agtahiya-हिं० संज्ञा स्त्री० t hitiotnes, Lin. ई० मे में० । फा० [देश॰] एक चिड़िया, ( ऋतु का ) इं०१ भा। अगला ॥gala-हिं० वि० [सं० अग्र] [स्त्री० अगसाक aghusial-अ० (Black erow.) अगली ] (1) अागे का । अग्र भागका । सामने कुलाग़ स्याह (स्वत का कोना )। का । अगाड़ी का। पिछला शब्द का उलटा । . अगसीगिदा agasi.gidi-कना० चकबंड-हिं० (२) पूर्ववर्ती । पहिलं का। प्रथम । (३) चक्रमर्द, बदन-सं० । दादमर्दन-वं० । आगामी । पाने वालः । भविष्य । (४) अपर। Ringworm shrub ( Cassia दसरा । एक के बाद का। alata.) Lin.इं० मे० मे०। अगन्नाकाष्ठ xala-koshtha-हि० पु अगसेयमरनु gaseya-muraru-का० (Anterior' cha.mbol.) अप्रकोष्ठ । अगस्त, अगस्तिया (agati randiflora, Dere.) अगलागल alagala-हिं. कचैटा, किंगलो। . अगस्त pasta-हि० पु., । ---अगस्तिया अगलानअशी phalānashi-तु० जुन्दवे- . अगस्तिःagastih-सं००/-Sesbania दस्तर, गंधमार्जार ( Castorem.) Grandiflora, Pers.) अगलाय agaliya-ता. चिकरस्सी-बं० । बीगा अगस्तिकुसुमः ayasti-kusumah-सं० पु., पोमा-भासा मे० मो०॥ अगस्द्रिः -मः gasti-drub,-arumalh अग़लोकन ayhaliqama-यु० मैफरवतज ( दोशाब अगस्तिया के नाम से प्रमिन्द्र है) Aynti grandi flora, Drsv. अग़लोकश shaliqusha-यु० दोसर (एक अगस्तिपत्र नस्य agastipatra-llasya-सं० ब्रटी है जिसके पत्ते गेई के पत्तों के सदृश होते हैं 4. अगस्ति ( अगस्तिया) के पत्तों के रस की और उसकं फल पर दीनीन पदे होते हैं और नस्य लेने से चौथिया ज्वर का नाश होता है। उस पर बाल के समान रांश्रा होता है।) (वृ०नि०र०) अगलोकी aghalini-यू० (1) मूली का अगस्तिया ugustiya-हिं० पुं० तेल (२) मारूतज ।। प्रगथिया, अगस्त, वस्न, वासना, अगलीत सushali tusa-यू. फाशरा, शिव हथिया हतिया, हृदया-हिं० । पर्याय-प्रथालिंगी-हिं० ( Bryonia Albu) गस्त्यांवंगसेनोमुनिपुप्पोमुनिद्रुमः । अगस्त्यः, अगवन्त nasanta-सं० अरनी [Premi Integrifolia, Linn.) यसेनः, मुनिपुष्पः, मुनिद्रुमः, शिक्वली, पाशुअग़बर (hava-तु० स्वीस, प्यूमी, पीयूप, पतः, एकाप्लीलः, वृकः, वसु, वसुकः, वसूहद्दः, (The milk of a cow during thu वसूकः, वकपुष्पः, शिवप्रियः, शिवमल्ली, काक For Private and Personal Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अगस्तिया अगस्तिया नामा, काकशीर्ष , स्थूलपुष्पः, सुपूरकः, रकपुष्पः, मुनितमः, अगस्तिः , बहुसेन:, शीघ्रपुष्पः,ब्रणारिः, । अणापहः, दीर्घफलकः, पुष्पः. सरप्रियः, शिवापोडा, सुग्रतः, शिवा, शिवेष्टः, शिवाहादा, शाम्भवः, क्रम पूरकः, रविसनिमः, शुद्ध पुष्पः, कनली, खरध्वंसी, और पवित्र-6.। अक्रपुष्पः बक (ओ) बकफुलेर-गाछ बास कोना फुलेर माछ -०। अगस्त- अ०, फा०, उ० । सिम्बनियां। uifitarr Sesbanan tilandiflorat, Pers.) श्रगेटि ग्रांडिफ्लोरा gati full diflora, Dest. ) इस्कीनामेनी ग्रां. (Eschyuotuhelli', (Gr., Linm.)-ले। लार्ज फ्लावई गुगटी (Lags: floke: htd agati)-ई. । प्राकत्ति, ऋगी, अगानि, श्रगति-ता० । श्रानिम, अविसि, लल्लयधिस-: चेह-ते। कत्ति-मल। अगशी (मी)-कना. हदगा, अगस्ता-मह० । अगधियो- गु० । 'गसेयमनु-का० । अगासेल-वाय. । गफलसुन्द. २० । कनुर-मुरङ्गा-सिंहली । लीग्यूमिनासी (शिम्बा वा वब्बुर वर्ग) (... 0. Leguminosa': ) उत्पत्ति स्थान-दक्षिणी तथा पश्चिमी भारत वर्ष। गंगा की घाटी और बंगदेश | वानस्पतिक वर्णन- अगस्तिएका वृक्ष समस्त भारतवर्ष में विशेषकर पुष्पोद्यानों में अधिक होता है । इसकी अवस्था बहुत थोड़ी होती है। यह थो? वर्षों में ही लगभग ३० फीट की ऊँचाई तक पहुँचकर पुनः उत्तप्राय हो जाना है। काण्ड-सरल, ६।६ हाथ दीर्घ शात्रा-घन सन्निविष्ट नहीं-फोक फौक होती हैं। पत्ते-बबल के समान किंतु इससे बड़े दीर्घ वृन्त के जाडेजाड़े दोनों ओर २१ । २१ अथवा इससे न्यूनाधिक संख्या में लगे होने हैं। ये .. 1-1॥ ई. लम्बे और अंडाकार स्वाद में कुछ . अम्ल और कसैले होने हैं। . पुष्प-बड़ा, शुभ्र वा रजवणं का एवं कारकितावस्था में चन्द्रकला के समान वक्र होता है। श्रीहर्ष कवि ने यथार्थ कहा है "मुनिद्रुमः कोरकिनः सितद्युति बनह मुना मन्यत सिंहिका सुतः । तमिस्र पन कटिकृत भक्षितः कलाकलापं किल बैंधवं वमन -नैपधचरित वाह कोष-(Calyx) घंटाकार, द्विश्रीप्टीय और हरितवर्ण का होता है । पुष्प-तितली स्वरूप, श्वेत या रकवीय( श्रायुर्वेद में नील या श्याम दो अधिक लिग्ने हैं ) ॥-२ इंच लम्बा वक्र तथा गृदादार होता है। पुष्पाभ्यन्तरकोष - ( Chion ) में विषमाकृति की चार पंखड़ियाँ ( दल ) होती है। जिनमें से ऊपर ध्वजा ( Standan) और दोनों बगल में १-१ पन (wing ) तथा नीचे नारणी (Rel) होती है । तारणी( keel) के भीतर परागकेशर (10) तथा रनि वा गर्भ केशर (1) ढके होने हैं। प्रत्येक गच्छे में २ या ४ पुष्प कन्नस्थ इंटल में लगे होते हैं। इसका स्याः-लु याबी नया नियः होता है। फलो-लटकनदार, 1-1॥ फीट के लगभग लम्बी कुछ चिपटी तथा बीजों के मध्य में दबी होती हैं। प्रत्येक फलीम लगभग ४०-४१ बीज होते हैं । वृक्ष बचा-लम्बाई के रुख विचिड़ाई और बाहर में देखने में धूमर वर्ण की प्रतीत होती है | शुगक काष्ट मांटाई में ताजे काष्ट के बराबर होता है। नामी उशा में दरारों के मध्य प्रसंगथ मुरम अहवा ताम्रवर्ण के निर्यास श्रीव पड़ते है, किंतु वायु में खुले रहने में ये पुनः शीघ्र श्यामवर्ण के हा जान है । मकान स्वचा का बाह्य तल रखवर्ण का और इसी प्रकार के नर्म गोंद से लदा रहता है। इतिहास तथा नाम विरण- अगम्य मुनि के नाम पर इस वृक्ष के नाम अगस्ति और अगस्य प्रभति रखे गए हैं । कहते हैं जब अगस्त्य मुनि का उदय होना है तब ही प्रगस्तिया के फल खिलने हैं । इसका श्रीपाय उपयांग याज का नहीं वरन अति प्राचीन है। प्रयोगांश-स्वत्रः, पत्र, पुष्प, मृल, शिग्बि और निर्यास | For Private and Personal Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir স্বস্তি ग्यायनिक संगठन--त्वचा में कपायीन (Tamin) और निर्यास होता है। श्रीपधि निर्मागा ... त्या काथ (२० भाग : में भाग), मास-11 तोला म २॥ तोला। मुल (स्वारस) २॥ मा० से ५॥ मा० । इसकी ज की लुगदी और पत्र का पुलटिस स्थानीय रूप से उपयोग में लाया जाना है। शर्यत की मात्रा २ मा० । हानिकर्ता-उदर में वायु उत्पन्न । करताहै । दर्पनाशक-पोट और मिर्च । गुग्ण धर्म (माव ) तथा प्रयोग--श्रायु. वैदिक मतानुमार-गन्तिया पित्त कफ नाशक, गर्मा को शांत करनेवाला, शीतल, योनि । शूल, कृष्णा, कोद तथा शोष नाशक है। थक । अर्थात अगम्न अत्यन्त शीतल, निक्र, मथुर और गदगंध युक (कहीं कहीं "मधु गंधकः' पाठ पाया है जिसमे अभिप्राय 'मधु गंध युक्त' है) तथा पिनदाह, कफ, श्वास एवं श्म नाशक और दीपन है । रा.नि. य ..। सफेद, पीले, नीले और लोहिन पुष्प भेद से : अगस्तिया चार प्रकार का होना है। यह मधुर, शीतल, स्त्रीज्ञाप, श्रम, काम और भूतबाधा का नाश करने वाला है। ग. नि। अगथिया-शीतल, रुक्ष, वातकारक, कड़वा' है, और पित्त कफ चातुर्थिक ज्वर (चौथिया) तथा प्रतिश्याय को नष्ट करना है। अगम्त पुष्प के गुण--अगस्तिथा पुष्पशीतल (मधुर ) है, तथा श्रिदोष, श्रम, वलास, काम, विवर्णता, भूतबाधा और बल को नष्ट । करता है। ग. नि. च०१०। अगस्तिया के फूल-शीतल, चातुर्थिक ज्वर : निवारक, रतौंधे को दूर करने वाले, कडुवे कसैले . पचन में चरपर रूक्ष और वातकारक है तथा पीनयरोग कफ एवं पित्त को दूर करते हैं। भा० पू०१ भा० शा० च० । वृ०नि० 101. अगस्ति के पत्ते के गुण-अगस्तिया के पत्ते चरपरे, कड़वे, भारी, मधुर, किञ्चित गरम और स्वच्छ है नथा कृमि, कफ, कण्डू (खुजली), विष और र पित्त को हरने हैं। ये निघ । শাকিস্তা अगस्तिया की फली के गुण-अगस्तिया की फली मारक ( कुछेक दस्तावर ) बुद्धिदायक रूधिकारक, हलकी, पचने में मधुर, कड़वी, स्मरण शशि वर्धक है तथा त्रिदोष, शूल, कफ, पांडुरोग, विष, शोप, ( कहीं कहीं शोफ पाट है) और गुल्म को दूर करता है । इसकी पकाई हुई भांजी रूत एवं पित्त कारक है। अगस्तिया के वैद्यकीय व्यवहार श्रत-श्रगस्तिया अधिक शीतल एवं उस नहीं है और नझांध रोगी के लिए हित कारक है। स०४६ पु० ब०।। वाग्भट-नकाध्यमं अगस्तिया के पत्र अगस्तिया के पत्र का शिल पर पीस कर इसको गीन में पकाकर पृत सिद्ध करें इस घी को नांध रोगी को पिलाएँ । (उ०१३ अ०) पाक करने की विधि-गो धृत १ सेर, श्रगम्लिया के पत्ते शिल पर पिसे हुए। एक पात्र, इसे मंदाग्नि पर यहां तक पकाएँ कि रम शेष न रहे । पुनः कपड़े से छानकर रवाने । वक्तव्य चरक के पुष्पवर्ग में इसका उल्लेख नहीं है। धन्वन्तरीय निघंटुकार ने अगस्तिया का गुण वर्णन नहीं किया । राजवल्लभ में अगस्तिया के फूल का गुण वर्णित है। पत्र तथा शिम्बी फली का गुण नहीं लिम्बा है। भाव प्रकाशकार-लिखते हैं कि अगस्तिया का पत्र प्रतिश्याय अर्थात तरूण प्रतिश्याय (सदी) निवारक है। वृहनिघगटुकार के मत से श्रगस्तिया की की शिम्बी (फी) 'सरा' अर्थात रंचक है। चक्रदत्त चातुर्थिक वर में अगस्तिया के पत्र-जब दो दिन के अन्तर से बर पाए नब अगस्तिया के पत्र का नस्य दें। (ज्वर वि०) ज्वर आने के दिन ज्वर से पूर्व नस्य लें। यह 'लोहा यकृद्विवर्जित चातुर्थिक ज्वरमें प्रयोज्य है । भाय प्रकाश-चान रक्त में अगस्तिया का फल-श्रगस्तिया के फल को चूम कर इसको भैंस के दध में मिलाकर उमकी दधि जमाणे । For Private and Personal Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अगस्तिया अगम्तिया कम होती है। मूल रय मधु के साथ नहा कफ रोग प्रयोजनाय है । श्रगस्तिया नया धतूरा की जद्द समान भाग लेकर पीस कर वेदना युक्र शोथ स्थल पर प्रलेप करे। (मे० मे०३० श्रारक बन, बारी कृन २ या खंड २२६-६० उस नधि से निकाले हुए नवनीत मे वातरक्रजन्य शरीरस्थ स्फोट (कांटे) अच्छे होने हैं । (म. खं० २ य. भा.)। हागेन-(1) अपस्मार पर अगस्तिया के पत्र-अगस्तिया पत्र बहत मरिच थोड़ी इनको गोमूत्र में भली प्रकार बारीक पीसकर अपस्मार रोगी को नस्य करा । (त्रि. १६ अ.) (२) चालापममार-मैं अगस्तिया के परे के रस के साथ मरिच योजित कर नस्य देने में लाभ होता है। उक्र रस मंगई का फाया भिगीकर से बालक के नामारंध्र के प.स म्यापिन करना अच्छा है। (त्रि. ४३) अगानक सम्बन्धमं यूनानी व डाक्टग मत. युनानी प्रकार अगस्तिया का दूसरी कक्षा में शीतल और रूक्ष मानते हैं। फारसी इन्य गृम. शास्त्र के प्रसिद्ध लेखक मोर मुहम्मद हुसेन लिखते हैं कि मरंकमा अथवा मम्मक दुग्बना हामी इसके पनी का रस निकाल नाकमै ३ बुद टपका नी छांक पाकर नामिका द्वारा जलक्षाव होकर मस्तक का भारीपन दूर हो जाएगा। बम्बई के निवासी इसके पने और पुप के निचोड़े हए रम का प्रतिश्याय एवं मस्तक शूल में नम्य रूप से उपयोग करते हैं। इससे नायिका द्वारा अत्यन्त जलमाव होता है नथा शिर की वेदना एवं भारीपन सर्वथा दूर होता है। वि.. डाइमोक। फूल का साग करके ग्वाने हैं। छान पानन शकि. बढ़ाने में दी जाती है। पसी को गरम जल में भिगोकर उस जल को पाने में जुगलाय लगता है। श्राख में जाला पड़ गया हो तो श्रगस्तिया के फल का रस श्राग्य में डालने से फायदा होना है। म० अ०॥ यह उष्ण ना पिन हारक है। इसका घुप्प पित्तनाशक घ्राणशक्रिको बलपद और नक्राध्य ।। अर्धात रतौंधे को दूर करता है। अगस्तिया का मूल कफ निःसारक, त्वक् कपाय, तिक्र, बलकारक, पत्र तथा पुष्प के रस की नस्य देने मे पीनम, प्रनिश्याय और शिरोवेदना लाल फल बाल अगस्तिए की जड़ को जल के साथ पीसकर बनाई हुई लुगदी का मंधिवात में उपयोग होता है। सं २ ता० तक इसकी जड़का रस प्रतिश्याय में मधुके साथ उपयोग में लानेसे नेता निम्मारक प्रभाव करता है। एक भाग गम्मिए की जड़ तथा इतनी ही धता की जड़, इन दोनों में तैयार की हुई लुगदी को वेदना युद्ध शाय में वर्तने हैं। इसके पनं को माभेदक बत लाते हैं। वि. डाइमॉक । चंचक की प्रथमावस्था नथा अन्य म्फोटकीय ज्वरों में इसकी त्वचा के शीन काय का लाभदायक उपयोग होना है। टो. पन मुकी . डॉक्टर बानेविया ( Dr. Bomisin) के कथनानुसार इसकी छाल अन्यन्त संकोचक है। और ब इम्मको बलकारक ए में उपयोग में लाने की शिफारिश करते हैं। डॉक्टर गम्फिस (Dr. Ruphins) के वर्णनानुसार इसके पत्ते की गुलरिश बाट लगन अथवा कुचल जाने के लिए एक प्रसिद्ध ग्रोवधि है। यह काम अथवा बच्चों की मी में दो बूद अगम्न के पत्ते के रस को नया १०द शहद में मिलाकर इसे अंगुली के सिर पर लगा शिशु कं ब्रह्मरंध्र पर दाई लोग चतुरता पूर्वक लगानी हैं । (इं. मे० मे.) इसके पुष्प को निचोड़ कर निकाले हप रस को चक्षुधों में डालने से दृष्टिमांद्य अथवा 'ध को लाभ होता है । ( डा. मुरै)। ___ अगस्त की ताजी छाल की कूटकर इसका रस निचोइ कपड़े की वर्तिका इसमें नर कर योनि में रग्बने से श्वेतप्रदर तथा योनि करड़ का नाश होना है। (लेखक) For Private and Personal Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अगस्ति रस अगस्त्य मृगज : अगस्ति रस ayasti Ti8 मं० पु. देवी- कबीला के साथ देने : उदर रोग का नाश होता ग्रगम्यरमः। है। (र० स०६०२० से.चि.) प्रागस्ति सूतगजः ॥asti sutifa.jali-20 अगस्यरसारम् astynasayanam - पाग, तांबा, जमाल गांटा, लोहा, मैनशिल निपला, निकुटा, नि.गन्ध (बाल चीनी, इलायची, हल्दी और गंधक इन्हें नुख्यभाग ले कजली तेजपात, ) निशोथ, वायविडंग, चम्य, चित्रक, प्रस्तुन करें पुनः त्रिकुटा, चित्रक, भांगरा, श्रदरग्ब, धत्तर बीज, बिगु कान्ता, सुगन्धवाला, चारक, निम्बू , सम्हाल, श्रमल नाम श्रीर मूली इनके लवंग, नागकेशर, कुलिअन, सफेद मुसली, रमों में पृथक पृथक् भावना, गृह के साथ काकामिंगी, भांग और अशन वृक्ष की छाल सेवन करने से सर्व प्रकार का उदर रोग दूर होना प्रत्येक 1-1 नो० ले चूर्ण कर इसमें 2 लो. ई। मात्रा--३ रत्ती। अभ्रक भम्म मिला पुनः शुद्ध शिलाजीत - तो. (० ल० र चि० मो००) उदाधिकार और १०० वर्षका पुराना मर डर सब के बराबर भगम्य gastya-हिं० २०५०) मिला सतावर का रय । मेर, गांमृग प्राधा अगस्त्य:Hist yah मं० पु. अगम्मिया पर बकरी का दुध मेर और ॥ मेर शकर अग पत्याजय ।।gustyi-jaya ) मिलाकर पाक विधि मे का । जब कार गुड़ ( S i grandiflora, Pors) पाक की तरह मिन्द्र होजाए तो किने पात्र में त्रिका। रावें । मात्रा--5-नाम । (२)एक ऋपि का नाम जिनके पिता मित्र गुग--संग्रहणी, शूल, सूजन, गुदभ्रंश, प्रमेह, यम थे । इनकी मैत्रा घणि और शेय, कुभ विषमज्वर, जीर्णज्वर, य, श्वास, हिचकी, संभव, घटोद्भव और कुम्भज भी कहते हैं । भगन्दर, हदयशूल, पार्श्वशूल, पक्रि शूल, अकांच विन्ध्य कृट, समुद्र चुलक और पीनादि हमके अन्य अम्लपित्त, पांडुरोग, कामला, पानाह, उदररोग, नाम है। कहीं कहीं पुराणों में इन्हें पुलमन्य का और बवासीर को यह स्मायन नष्ट करता है। पुत्र भी लिखा है। इस परम मध्य वातानयिक नान वाले रसायन अगम्न्यनामग्य Agastya-limity-ता० का अगम्य ऋषि ने बताया है। यह बुड्ढे को जलकुम्भी-हि। कुभिका-मं० (pistiii कान शनि देता है । स्त्रियों की पुष्टि देता है। stratistes, li.) और वृद्भास्त्रियों को भी गर्भ धारण कराता और अगस्त्य मांदकः ।।51yu motkah-सं० प्रदा को दूर करता है । ना०वि० । पं. अशांधिकार में वर्षिन यांग विशेय-हड़ अगम्य वटी styanati) मं० त्री ३ पल, त्रिकुटा ३ पल, जपत्र अत्यापल, गृह अममित बटोayasti uti) बच १० पल प्राधा पल में मांदकम्न्त करें। इस संवन कृचिला 10 पल, दोनों को नुपी के काढ़े में पका करने में शोध, अर्ग, ग्रह शादीप, उदावन तथा कर चूर्ण करें तथा इसमें त्रिकुटा, मन्जी ग्वार, काम का नाश होता है। जवाम्बार,अजवाइन, अजमोद, खुरासानी बंग० सं० अर्श० यो० श्ली०४७ प्राजवाइन, विडंग, हींग, मैन्धघ, बिड, पीचर अगम्न्यासः instein-. उदर । नमक, प्रत्येक का चूर्ण ३ पल मिलाकर नीबू के रम में घोट कर बेर प्रमाण गालियां बनाएँ। संगघ्न रम विशेष-पारा, गंधक, जयपाल वीज, लाह, शिलाजनु, ताम्रभस्म, हल्दी समभाग गुण-शूल, मन्दाग्नि, गुल्म, कृमि, तिल्ली ग्रामलेकर त्रिकुटा, भांगरा, दरख, नीम की छाल, यानको नष्ट करनी है । वृ.नि. र. शुलचि० सम्भाल , स्वर्ण वल्ली के एकत्र क्वाथ मैं एकबार अगस्त्य सूतराज रसः agastya-sutarija मईनकर रक्वें । मात्रा- १ रत्ती प्रमाण गड़, हरड़ rasah-सं० पु. पारा, गंधक, सिंगरफ, For Private and Personal Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अगस्त्यह ५४ अगाडा प्रत्येक १-१ नो. धत्त र का कोज २ नां०, अफीम ज्वर, हिचकी, अर्श पीनस, अरुचि और संग्रहणी २ नोला इनका चूर्णकर भांगरे के रस की भावना का नाश हो, यह अगम्यमुनि की कही हरीतकी । मात्रा-रसी मे ॥ रत्ती पर्यन्त | अनुपान । प्रत्येक रोगों का नाश करती है। श्रा० सं० म० मो.मिर्च, पीपर और शहद के साथ देने से मन ग्व० ० २। शून, कफ, वातविकार, मन्दाग्नि तथा घार । (३) दशमल, गजपीपल, कौंच के बीज, निद्रा को तथा धन और मिर्च के चर्ण के साथ भारंगी, कचर, पुष्करमल, मोठ, पाढ़, गिलंय, प्रवाहिका नया छः प्रकार के अतिसार में पीपलमृज, शंखाहुली, सम्ना, चित्रक, झापामार्ग, जीरा और जायफल के चर्ण के माथ दन में बला, जवाया यं प्रत्येक २-२ पल लें। इनका नाश करता है। नया यव (जो । चादक लें., बड़ी हई १५० मा लें. प्रथन ५ द्रो श्रगमत्यहर। sty:- :-# जापुर (१६ पेर) अथवा एक अगस्य हातको Unsta-haritaki अादक ( मेर) जल लेके उप में हमें को ययावतहः Hastyi-VAShah.पु. गोटाना चाधा निम्मा जान शेष रह जाए तो स्त्रो (.) यह कार में हित है। निर्माण उता फिर 17ला (५ पेर) गुड़ लेकर जलमें कमः-शमूल, कोच, शंम्बएप्पी, कचूर बरियारा, टाकरल, शहद, घुन, ४-४ पल डालें पीर गजपीपल, चिचिंटा, पीपलामल, चित्रक, भारंगी पीपल का चूर्ण ५ पल डालें, फिर पूर्वोत्र. हड़ पुष्करमल ये सब या शाः तां० ले और जर डाले, इस प्रकार पाक कर शानल कर उसमें ४ (यव) २५६ तो०, हर १०० अदद, इन्हें पन्न शहद और डालें तो सुन्दर हरीतकी पाक १२७० . जल में पकाएँ जब सीज जाएँ तो यार होता है । यह रसायन,नियन हड़ी उस क्वाथ का वा से छान के मो हड़ों में ४०० को कर के युक्र म्याग नां राजयच्मा, संग्रहणी, तो० गुह और १६ नो० गोयन मिला पकाएँ । सूजन, मंदाग्नि, म्वरभेद, पाड़ श्वास, शिरोरोग और तेल, पीपल का चूर्ण भी १६-१६ मा हदयरांग, हिचकी वीर विमग्घर को नष्ट मिला जब मिन्द्र हो के शीतल हो जाए तो करना । नौर बुद्धि, बल तथा उम्याह गनि, को इसमें १६ नो. शहद मिलाकर यान में रखें । चढ़ाना। यह हरोत्रकाराक सब में प्ट है। ददी हद रसायन विधि में ग्वान से बली व या चि० ० सं० उ० नं. को ४५ पलित पाँची ग्वामी, क्षय, श्वास, हिचकी. विषम नागास्था h in-ग्रो अगस्तिया. ya Sasbasis tranflora, ज्वर, अर्श, संग्रहणी, हृदरोग, अरुचि और पीनस Pers.) | फा००१० को नाश करता है । यह अगम्त्यमुनि का रचा अगहन gatha-हिं० नंज्ञा पु० [सं० हुया रसायन है। बंग० च० द० सं० काम० ग्रहायण, ] [ चि. अगहनिया, अगहन ] अ० यो ने वा० स० चि० अ०३। मार्गशीर्ष नगसिर । (२) बड़ी हड़ १००, अजवाइन । अाइक, : भागहनिया gay hisi-हिं० वि० [मं. अग्रदशमूल २० पल, चित्रक, पीपलामल, चिचिरा, : दारणा ] अगहन में होने वाला धान ! कचर, काँच, शंखपुष्पी, भारंगी, गजनी गर, · अगहनो pathani-०वि० [म. अग्रहायण बरियारा, पप्करमल प्रत्येक २-२ पल, ५ पाक ! अग हन में यार होने वाला 1 संज्ञा श्री. बह जल में यकाय छान लें तिस में१०० हार, बल, फमल जो अगहन में काटी जाती है। जैसे जदहन घत यास पल, गुड़ १० देकर पकार । जब धान, उरद, इत्यादि। डा हो जाए तो इसमें शहद, पीपल का चण अगाडा ukida-हिं०, संज्ञा पु० हि अगादा २-१ कहब डालें, इस तरह इस सिद्ध अवलेह : अपामार्ग ( Aryranthes ., के मंग २ ह नित्य वा नो क्षय, काम, श्वाय, lim.)। (२) कछार तरी । For Private and Personal Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अगात्ति अगा (ग) रिकस् एल्वस अगानि litti-ता० अगस्तिया. अगस्त्य अगा (गे)रिक एसिड ॥parit: itil-इ (Seslinia (irandiflori.) खुम्बान, छत्री सत्व ( \uari itn. अगाथियान"athiyos-सिर. इसका शाब्दिक r...mt.) दखा-अगारिकल एल्वस । अर्थ अन्यन्त पवित्र है, पर शामी हकीम गगए श्रगा (गे) रिक श्राक ओरसन्स ratis इसे मदार के लिए प्रयोग करते थे। इसी का 0:1 k Ol' su con's. अपभ्रंश हजाकियूस अरबी शब्द है। श्रागा ( ग ) रिक फ्लाई garit: fly-.ई.) अगाधम् gandhi-सं. मी. (५) जल अगारिकल अमनिटा। (I ), (HEL ) है. च० ४ का० (२) अगा ( गे ) रिकस अमेनिटा gricis छिद्र, बान (1-holti fontion) Mamita-ले. फ्लाई अगारिक (flv श्रगाव त्वक gaithil- tak-मं० पु०, (I). I. paric ) । अमेनिटा मस्कैरिया mis,) (Annital Discarii) अगाधाबार निरमाना titlhalji: मस्केरिया (agaricu muscirin)--फ्लाई tipashchina ) . O, ( Trans __ श्रगारिक ( Fiy agittic; )-इ) । माक्षीय Vilsus painari profundus ) छयांकुर-ना। ग़ारीकन जबाब, ग़ारीकन नगम श्रगानो gi111-3०प० स०, त्रिधारा, बेतिः , -ति (Yot official) गुग्गुल मे० म. अगा (गे) रिकन ऐल्बम्स :१६icussial us: अगार rail--हिं० संज्ञा पु०, [सं० अगार (D.Sterr1)--ल) । पॉलिपोरस अाफ्रिसि नेलिस(Polypolis officjhalis,tries.) घर, निवास स्थान । धान, गृह, (२) र । हाइट अगारिक (White gasic), पर्जिङ्ग क्रि० वि० अगाड़ी, प्रथम । अगारिक (Pturying inganic), लार्च अगारह apihrih-नीबू वृक्ष । (Common z a ( Larch agario )--go !;111OR :) अगारिक ब्लैक ( Agatic blanch),पालि. अगारधूमः ॥gardihimali-सं० त्रि. गृहधूम, पारी द्वय मलेगी ( Polypore dult:(501), मु.ल वं. ३८ वा० उ० ऋ०। 11:z )-प्रा0। गारीकन-इण्डिा ) या) । अगारधूमावर्तलम् ॥indhulinalyt-tri छत्रिका, गोमय छत्रिका, दिलीरं, शिलीन्धक, lalit-घरका का धुबाँसा (घर) १ भा० बसारोह, गोलासं, उध्यंगं, (हा०), उच्छि. हल्दी २ भा०, पुराकिट ३ मा, इन्हें डालकर लीन्ध्रम्, शि(लि) लोध्रः (कः), भृच्छनेल पाक करें, यह खुजली शाथ को दूर करता, प्राक, संस्वेदजशार्क, भुमिच्छन्नं, भूछत्र, पृथ्वी तथा उपदंश के व्रण का शोधन व रोपण कर कन्द, कवचं, भूमिच्छन, भूमिस्फोटः, धरांकुर, उसे नष्ट करना है 10 र०। चक्र० द०। भूसुना, छुन्न, छन्नाक, स्वेदज--सं० । पाताल फोड़, भा०प्र० । भूई फोड, कादक छाता, पायालछानु, छातकुड़, श्रगा (गे)रिक tilit: अगारीकन, गारीकन छाता, भूई छाति, खुम्बा-ब. | छत्री, कुकुरमुत्ता, अ० सोप की छन्त्री, मुम्बा, कुकुरमुन्ता-हिए। सांप की छत्री, छयांकुर छाना छत्तीना,-हिं० । Boltos (fmyns ) gniarius. अलम्बी, भूई फोड़-महO किन--पं0 जंगली यह एक पराः यी ( 1Parditis) पौधा है, न्य लगर--काश० । अगारीकृन--यू) । कामिल जिसमें रकस्थापक गगा विद्यमान है। इ) है।) -कों) । ऋग्य मीद डॉमीवली--गु) । शारीन गा० । अबैक, गारीकूनतिब्बी--अ) । ग़ारीक़्न सफ़ेद, गा (गे)रिक ऑफ ओक ngari ofok गारीक़न मुस्हिल, ग़ारीकन मनोबर, माह शौ-- -इ० अंक नामक इ न में उत्पन्न गारीकन । । फा०॥ For Private and Personal Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रगा ५६ अगा (नॉट ऑफिशल Not official) छत्रिका वर्ग (5. (). Polyporate " ngiMushroom.") उत्पत्तिस्थान-दक्षिण तथा मध्य युरूप, साहबेरिया; एशिया माइनर, पञ्जाब, संयुक्र प्रान्त प्राचीन ( सनोबर वृक्ष ) । नामविवरण-युनानी हकीम दीसकरीदृस ( Diostoritles) के मतानुसार जिसने सर्व प्रथम उक्र श्रीपध का वर्णन किया है इसका युनानी नाम अगारीकून ( Agarikon) अगारिया यं, जो सर्माशिया में एक देश है, व्युत्पन शब्द है । चूकि उक्र औषध उस प्रदेश में अधिकता के साथ उत्पन्न होती है; अस्तु वह उस नाम से अभिहित हुई । औषधविनिश्चय---गारीकन [कत्रिका ] के विषय में प्राचीन तथा अर्वाचीन चिकित्सकों में बहुत कुछ मनभेद है। अस्तु, किसी के मत से यह किसी प्राचीन वा सड़े हुए वृक्ष यथा अंजोर व गूलर की सड़ी गली हुई जड़ है जो उसके ग्वाम्ग्वलों में से निकलती है; तथा किसी किसी के कथनानुसार यह गार वृत की जड़ है, इत्यादिपरन्तु किसी ने उदाहरण स्वरूप हकीम मुहम्मद चिन अहमद ने इसका यथार्थ वर्णन किया है। कि सारीकृन छत्रिका के प्रकार की एक बूटी है और इग्नमासूया ने जो लिखा है कि गारीक़न नर व मादा होता है तथा विभिन्न वर्ण का (श्वेत, पीत, रक्त तथा श्यान) होता है यह भी सत्य है। अस्तु, श्वेत छत्रिका जो युरूप के कतिपय प्रदेशों में श्रौषध-तुल्य व्यवहृत होती है वास्तव में माना ग़ारीकन ही है। नोट-मशरूम (Hushroom ) जिसका संस्कृत में छत्रिका या वर्षाजा, अरबी में फ़ित र, फारसी में समारांग और हिन्दी उदू में खुम्बी कहते हैं, सैकड़ों प्रकार के होते हैं । इनमें से कोई खाद्य कार्य में प्राने हैं श्रीर कोई ग्रीषध में तथा कोई कोई अत्यन्त विपले होते हैं मुख्यतः वे जो काए वर्ग के होते हैं । अस्तु माक्षिक छत्रिका (Fly agric) इसी अन्तिम प्रकार में से है। यह चमकीले घ की ग्बुम्बी है जिसमें मस्करीन (घातकीन ) नामक पदार्थ वर्तमान होता है । इसमे धर्म ग्रन्थियों में अन्न होनेवाली नाड़ियों (बोधनम्नु) वातग्रस्त होजाती हैं। छत्रिकाएँ बहुधा भूमिपर उत्पन्न होनी हैं। अम्नु, वर्षा ऋतु में ये इतनी अधिकता के साथ उत्पन्न होती हैं कि इनके उम्पत्याधिक्य का उदाहरण दिया जाता है। परन्तु किसी किसी प्रकार की छनिकाएँ प्राचीन वृक्ष की जड़ प्रभृति पर उत्पन्न होती हैं। अस्तु श्वेन छत्रिका (गारीकन नि वी) भी उसी प्रकार की छत्रिकानी में से है । अाज से अर्द्ध शताब्दि पूर्व युरूप में तीन प्रकार की छत्रि. का ( ग़ारीकन ) व्यवहार में पाती थी, जैसे--- (1)-श्वे। छत्रिका, (२)--मान्तिक छग्निका तथा (३)--शालय त्रिका । परन्तु अधुना इनमें में केवल प्रथम प्रकार की छत्रिका ही युरूप के किसी किसी प्रदेश में प्रयोग की जाती है। इतिहास-त्रिका का औपधीय उपयोग अति प्राचीन है। हकीम दीसकरीदस Dioscorithis ने इसके नर मादा दो भेदों का वर्णन किया है । इनमें से नर बिलकुल सीधा लपेटदार गोल होता हैं और इसके भीतर पृष्ठ पर परत नहीं होते, परन्तु यह एक समान होता है। मादाकी अन्तः रचना कंघी के समान परतदार होती है और यही सर्वोत्तम है । स्वाद में दोनों समान अर्थात् प्रारंभ में मधुर तथा पश्चात को कटु होते हैं। इनके अतिरिक्त लाइनी, फ्रीरा आदि ग्रुनानी, इग्नसीना ग्रादि मुसलमान तथा राजमिधंद, भावप्रकाश श्रादि अायुर्वेदिक चिकित्सा ग्रन्थकारी ने अपने अपने तौर पर इसके उपयोग का पर्याप्त वर्णन किया है। वानस्पतिक विवरण - यह वृतो नया भूमिपर उत्पन्न होने वाला एक पराश्रय छोटा पौधा है जो वर्षा ऋतु में अधिकता से उत्पन्न होता है। इसका गर्भान्वित भाग बाहर वाय में होता है। यह सीधा ऊपर को बढ़ना है । इसके नने के आरक कार कला रहता है । भीतर For Private and Personal Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अगा (गे) रिकस एल्बस अगा (गे) रिकस एल्बस वा काज श्वेत, छत्रिका (गारीकन सफेद) दोषों को करने वाली एवं निन्दित है। राज०। सांप की छत्री शीतल, बलकारक, भारी, भेदक, मधुर, त्रिदोषजनक, बीर्य वक और कफकारक है। यह कृष्ण, रक्त और पाण्ड भेद से तीन प्रकार की होती है । कालेरंग की-मधुर, गरम और भारी है। श्वेत-पाक में भारी और लाल अल्पदोष जनक है। निर० । से इसमें स्पावत् कोठरियां होती है । इसका रस दुग्धवत् तथा तीच व अग्राह्य, स्वाद में चरपरा । कसैला और कि चत् लावश्ययुक्र होता है ! काट कर वायु में खुला रम्बने पर यह धूसर वर्ण का होजाता है । रसायनिक संगठन इसमें राल, तिक पदार्थ, ' निर्यास, वानस्पतिक अलव्युमेन तथा मोम आदि होते हैं, इसका वास्तविक प्रभावात्मक सत्य अगारिक एसिड या फञ्जिक एसिड या लार्किक एसिड (कृत्रिकाम्ल ) है। इसमें स्फुरिकाम्ल, पोटाश, चून, एमोनिया और गन्धक प्रभृति होते हैं। श्रगारीसीन निर्यास में १७ प्रतिशत अगारिकारल (Agrics : citl) तथा ३" अगारिकोल . (Agaricol) होता है । अगारिक एसिड [छत्रिकाम्ल ) के अति सूक्ष्म श्वेत चमकीले रवे । होते हैं जो मद्यसार, क्लोरोफॉर्म तथा ईथर में । (शीतल जल में न्यून परन्तु उपण जल में सरलतापूर्वक) विलेय होते हैं । जल में उबा- लने पर यह सरेशो घोल बनाता है। औषध-निर्माण तथा मात्रा - (१) छत्रिका : तरल सत्य F2. ert. (३ में १) मात्राः-. ३ से २) बुन्द या अधिक, (२) एक्सकटम्अगारीसाई ( छत्रिका सत्य) मात्रा२० से ६० बुन्द । (३)टिङ्क चर (१० में) मात्राः-२० से ६० बुन्द (४) छत्रिकाचूर्ण (agiricits powder.) मात्राः -५ से ३० : ग्रेन (२॥-५५ रत्ती), अगारी सीन (शिलीन्ध्रोन मात्राः- से 1!, ग्रेन (-से 2 से 3 ग्रेन ) नोट-छत्रिका चूर्ण को किसी मुख्या में मिला कर देते है तथा इसके सत्व (अंगारीसीन) को डोवर्स पाउडर के साथ वटिका रूप में वर्तते हैं। कार्य-बलवान रेचक, रकस्थापक, सङ्कोचक, वामक, स्तन्यनाराक । छत्रिका (गारोक न ) क गण वर्म श्रायुर्वेदमतानुसार:शीतल, कसैला, मधुर, पिच्छिल, भारी तथा । चर्दि, अतिसार, ज्वर, कफ रोग कारक, पाक में भारी, रूक्ष तथा रेलुज, गोष्टज्ञ, शुचिस्थानज | सर्व प्रकार के संस्बेदज शाक शीतल, दोष जनक, पिच्छिल, भारी तथा वमन, अतिसार, ज्वर और कफ रोगों को उत्पन्न करते हैं। सफेद शुभ्रस्थान में उत्पन्न होने वाले तथा काष्ठ, बांस और गायों के स्थानों में उत्पन्न होने वाले अत्यन्त दोषकारक नहीं हैं और शेष सर्व त्यागने योग्य हैं । भा. प्र. १ खं० व तिब्बी खं० शा०प०। युनानो ग्रन्थों के मतानुसार:यह संकोचक, उष्ण, तथा विरेचक है और इसे ज्वर, पांडु, वृक्कशोथ, गर्भाशयिक रोध, यमा, अजीर्ण, रणतरण, संधिशूल में देते हैं । यह विषघ्न है । दोसकरीस नर छत्रिका अधिक दृढ़ एवं तिक है तथा यह शिरःशूल को भी उत्पन्न करती है । (प्लाइनी) इब्नसीना गारीकून या छत्रिका (agaic) के विपन्न गुण के लाभदायकत्व पर बहुत जोर देते हैं। यह तथा अन्य मुसलमान चिकित्सकों ने छत्रिका के गुणधर्म वर्णन में यूनानो अन्धकारों का बहुत कुछ अनुसरण किया है। उनके विचारानुसार यह सम्पूर्ण पाशयिकावरोधों को नष्ट करनी तथा विकृत दोषों को निकालती है। यक्ष्मा में छत्रिका का उपयोग नवीन नहीं प्रत्युत अति प्राचीन है। इसे बालों की चलनी में छानकर व्यवहार में लाएँ क्योंकि इसमें नस्ववत् जो वस्तु होती है वह विली होती है। (डाइमॉक) प्रकृति-प्रथम कक्षा में उष्ण तथा द्वितीय कक्षा में रूक्ष है। जब इसको चखा जाता है तो प्रारंभ में मधुर पुनः फीका प्रतीत होता है। तदन्तर इसमें तिकता पुनः तीक्ष्णता एवं किश्चित् कषेला. पन प्रतीत होता है। फोकापन जल के कारण For Private and Personal Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अगा (गं) रिकस एल्बस अमा (ग) रिकसगल्बस और तिकता जले हुए पर्धिकांश के कारण होती । चरपरापन-(हिरात) भाग्नेयांश के कारण श्रीर।। संकोच ( कपाय, कटज) पार्थिवांश के कारण होता है। कि यह हलकी होती है, अस्तु इसमें वायव्यका अधिकता के साथ होना आवश्यक है। इसी कारण इसकी उपणता कम और रूहता . अधिक होती है। हानिका -व्याकुलता और गले में रोध उत्पन्न ! करती है। दर्पनाशक-जुन्दबेदस्तर,नाजादुग्ध,नमन कराना। प्रतिनिधि-निशोथ, इन्द्रायण का गूदा, शुगली, बसफाइज। गुण कम प्रयोग--अपनी उपणता के कारण यह ! लय कर्ता और सान्द्र (गादे) दोषों की छेदक एवं उनको रेचन करने वाली है, क्योंकि दोष त्रय (बलगम, सफा , सौदा ) को छेदन करती एवं उनको स्वच्छ करती है और कटुता ना छेदकन्त्र के अतिरिक्त तारत्य (लताफ़न) उत्पन्न करती है। अपनी उष्णता के कारण सम्पूर्ण अबरोधी को उद्घाटित करती तथा मवादमें तारल्योत्पादन । करती है। पार्थिवांश के कारण सङ्कोचक है। अपने विशेष गुण (खासियत ) से वान तानिस्तक : मलों को शुद्ध करती हैं इस कार्य में रांगोद्घाटक, छेदक, निर्मल कारिणी एवं लयकारिणी शक्ति इसकी खासियत को सहायता करती है। यह सम्पूर्ण संधिशोथों, गृध्रसो, अपस्मार, श्वास तथा रोधयुक्र रक्ताल्पता ( यौन सुद्दी) में लान प्रदान करती है । ये समग्र लाभ इसकी तारल्य जनक (तल्लीफ ), लयकारिणी तथा रोधोद्घाटिनी शक्ति के कारण होते हैं । सिकञ्जबीनके साथ यह पाहा शोथ के लिए हिरा है, क्योकि सिकंजबीन इसकी छेदक व रोधोद्घाटक शक्ति को बढ़ा देता है । इसकी पूरी मात्रा - ७ मा: है। यह अपनी रोगोद्घाटक तथा तारल्यकारी शकि कं कारण मृत्र एवं अातंत्र का प्रवर्तन करती है। : तनफी0। · विशेष प्रभाव-श्लेष्मा तथा वायु की रेचक, मृत्र तथा पाच प्रवत्तक 'पौर रोशनाटक है। कफज शिरथल तथा प्रर्दशीशी को लाभप्रद विशेष कर हरीतकी तथा नस्तगी के साथ, काबा. निया के साथ अपस्मार को लाभदायक है । इसका गड़प शोथ लयकर्ता तथा रक निवन को हित और रुबुस्सुस (सत्व मुलही) के साथ उरी. व्यथा की नाशक तथा श्वास काठिन्य को हित है। रेवन्दचीनी के साथ श्रामाशय तथा यकृद्रोगों की गुण दायक तथा पांडु वा प्लीहा को हित, वृक व वस्त्यश्मरी निस्सारक तथा जलोदर को गुण प्रद है । इसका प्रस्तर शोथ लयकर्ता है। मद्य के साथ इसे उपयोग करने से सर्प विषघ्न है। बु. मु.। वायुशाथ और गुल्म लयकर्ता, नाड़ी, हृदय और मस्तिष्क को बलबान करता, प्रायः विष का दर्पनाशक है। कफ ज्वर को लाभ करता है। इसका पान करना उचित नहीं है ( निधिल है परन्तु इसमें एक वस्तु नख के समान होती है, वह विष और घातक है) डाक्टरी मतानुसार छत्रिका चूर्ण १५ ग्रेन (७॥ रत्ती ) को मात्रा में या अगारीसीन या अगारिक एविड, छत्रिका सत्य, छत्रिकाम्ल यह श्वेत स्फटिकवत् पूर्ण है। 'ग्रेन की मात्रामें यदमा रोगियोंके रात्रि स्वेदको रोकने में अपना निश्चित प्रभाव रखता है। पहिले यह विरेचक रूप से उपयोग में प्राता था। अधिक मात्रा में यह जलवन् मल प्रवर्तन करना है, थोड़ी मात्रा में प्रापसार तथा प्रवाहिका को रोकता है तथा रक निजीवन में गुण दायक होता है । यह वायु प्रणालियों तथा स्तन विषयक स्रावी (Svetations) को (अर्थात् कास तथा स्तन्यस्त्राव को ) कम करता है । साधारण स्वेदनाव में ग्रेन की मात्रा का एक ही बार उपयोग पर्याप्त होता है परन्तु धर्माधिक्य में उतनी ही मात्रा में करने से ५ घंटा पश्चात् स्वेदावरोध अथवा उसे बढ़ा बढ़ा कर बारम्बार उपयोग होता है । पर इच्छित प्रभाव हेतु इसके उपयोग की सर्वोत्तम विधेि यह है कि इसे ( इसके सूदुक प्रभाव को रोकने के लिए) For Private and Personal Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अगः (गे) रिकम वम् ५६ अगा (गे) रिकस स्टोरटल १ ग्रेन ( अर्द्ध रत्ती ) डोवर्म पाउडर के माय । (Piltocarpine) के समान होता है। अस्तु घटिका रूप में प्रयोग किया जाय । इससे अत्यन्त लालास्त्राव, स्वेदसावं तथा 'श्र श्रांक अगारिक या सर्जन्म अगारिक जिसको साव होता है, तथा इससे बलपूर्ण एवं वेदना श्रनेडो (A dol) या फङ्गस इग्निपरियम पूर्ण मूत्रनाय और कभी कभी उत्ोश (मतली) (1 18|Is nghiarius ) भी कहते हैं नथा अतिसार उत्पन्न हो जाते हैं। इसका घोल श्रोक अगारिक, नाइटर तथा अल्केली का एक (१० ) जब चतु में डाला जाता है तो मिांगा है जो स्थानिक रक थापक रूप से उप- इससे नेत्र कनीनिका विस्तृत हो जाती है और योग में आता है। हिट० मे. मे। इसका अन्तः प्रयोग करने से निगलन से ) विस्फोट जन्य ज्वरों में विस्फोटकोपत्ति विवईन यह संकुचित होती है। हेतु इसे अधिक मात्रा में नथु के साथ वर्तते है।। स्थानिक कनोनिका विस्तारक तथा म्वेदन प्रभाव जलौका रक्षरण में यह रकम्थापक प्रभाव करना के मस्करोन धत्तरीन Atropine: के प्रत्येक है । ई० म०म०। प्रभावकी निर्णित प्रतिद्वंद्वी (Antirgonist) थोड़ी मात्रा में यह संकांचक और बड़ी मात्रा में है । अझनु धत्तरीन (Atropine ) छत्रिका वामक तथा विरेचक प्रभाव करता है। पी०वी० (Fungi)द्वारा विपाक दशात्रों को प्रतिविप है। एक समय जब पाठशाला के बहु संख्यक गम.। अगद सत्र बालक ( ]ngi) के खानेसे विपात्र हुए उस Fungi (or miscarin) अवसर पर लेखक धत्त रीन (Atropine) विषैले छत्रांकुर ( Poisonous Fullgi ) के स्वगन्तः क्षेप द्वारा कतिपय प्राणियों की में सम्भवतः दो विभिन्न विषैली वस्तुएं वर्तमान जीवन रक्षा करने में अपने को सन्तुष्ट कर सका। होती हैं, यथा मस्केरीन (incurin) जिसका हिट० मे. मेक प्रभाव बिलाडोना नथा धुम्तुर के सर्वथा विपरीत माक्षाय छत्राङ्करागद होता है; और द्वितीय जिपका प्रभाव धत्त रीन Muscarinor Hoisonous mushroo (Atropint) और डैटरिया (धत्त रोन m3 फगाइ (Fungi) द्वारा विपाक्रोपवा धुस्तुर मन्त्र ) के समान होना है। चारवत्यत्न करें (देखो-अगारिकस् ऐल्वस्) अगद-वामक ( जिंक सल्फेट १५ ग्रेन वा यथा स्टमक पम्प अथवा वामक औषध उपयोगाअधिक जल के साथ) वा स्टमक पम्प का व्यव.. नन्तर ऐटोपीन ( धत्त रीन ) का स्वगन्तः रूप से हार करना चाहिए। नदनन्तर अहिफेन सस्तो व्यौहार करें। लिलखित टैनिक एसिड के साथ काफी फाण्ट देना इस प्रकार के विषैले गारीक़न में से एक प्रभा - चाहिए । कनीनिका विस्तार काल तक बारम्बार वामक सत्य निकलता है जिसे मस्करीन ऐटोपीन ग्रेन का स्वगन्तः क्षप' करना अथवा Muscarine (घातकी) कहते हैं । इस प्रकार के गारीक़न को कहीं कहीं अफीम तथा भंग के डिजिटेलिस् या मार्फीन ( अहिफेन सत्व) देना सदृश उपयोग में लाते हैं। चाहिए । स्वतन्त्र उत्तेजना, राई के प्रस्तर अगा (गे) रिकस ऑफिसिनेलिस A.officiतथा घर्षण की आवश्यकता होती है। malis-ले० गारोकृन । इस प्रकार का ग़ारीकन फिरंग के बनों में उत्पन्न अगा (गे) रिकस् ऑस्ट्रोएटस् agricus होता है। यदि इसको दुग्ध में उबाल दिया। ___ ostra tirs, Fact].-ले० फणस पालोम्वे, जाय तो वह मक्खियों के लिए घातक होता है। फनसाम्बा, पनसलम्बे--मह०, को0 Agaric इसको संयोगात्मक विधि से भी प्रस्तुत किया जा of the oak, l'ouehwood; Oystej सकता है। प्रभावमें यह बहुत कछ पाइलोकार्पन mushroom. For Private and Personal Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अगा (गे) रिकस् कैम्पेस्टिस् : ६० अगिकनु,-सी उत्पत्ति-स्थान-फणस ( कटहल ) त ! अगारिक ह्वाइट और पर्जिग aaricrhital प्रयोगांश-त्रिका! Orpurying-50 अगारिकम वेल्बस् । रसायनिक संगठन-राल, ऐन्द्रिकाम्न तथा अगागेकन agarikon-यु० । गारीकन-अ. सरेश ! अगारोकन agariqun-अ० ) खुम्बी साँप प्रभाव नथा उपयोग-संकोचक । मुम्बपाक की छत्री, कुकुरमुत्ता-हि. puuyingdgar(Apthis: ) में मसूड़ों पर इसका प्रस्तर ies, Latge agric, Boletia (du लगाया जाता है। यह लालास्त्राव की अधिकता Tichts Albus ) को रोकती है प्रवाहिका तथा अतिसार में इसका नोट-- श्रोमीदह (सड़ी गली ) जड़ के सदृश अन्तः प्रयोग होता है और मुख पाक से पीड़िन एक वस्तु है । जो किमी वृक्ष की जड़ों के भीतर बालकों के मुम्ब में इसे लगाते हैं । ई० से निकलती है यह वास्तव में एक प्रकार की मे० मेक। खुम्बी होती है । देखो-'प्रगारिकसऐल्बस । अगा (गे) रिकस् कैम्पेस्ट्रिस aparicits ] अगा (गे) गसोन nga tricin-इं. यह ग़ारीGanpas tris, Linm-ले. शिलीन्ध्रः छत्रक कून (agaricus )का एक प्रभावान्मक सन्त्र -सं० खम्बूर बम्ब०, मोक्षा-चम्चा० स्खुम्बह. है। वह शदिनान स्वेदन श्रौषध है जो अचमा ग्वाम्बूर, चश्री अफ०, बाज़ा। मांस खेल रोगी के रानि स्वेद स्त्रात्र को संकता है। - काश01 तुम्बह समारोग (sten art) मात्रा- ग्रेन । इसकं नृदु भेदकी प्रभाव को बाजा । हरार (विपैला) रूप । प्रयोगांश-- रोकने के लिए "डोवर्स पाउडर' के साथ छत्रिका (Mushroom)। श्राहार तथा औषध , मिलाकर उपयोग में लाने हैं। ई० मे० मे० कार्य में पाती हैं । मे० मो० देवी--अगारिकस् पेन्बस् अगा (गे) रिकस्चिरर्गरम् agaricus chi• अगारूस अमरसी aparosi ammarnse-यु. __urgorum-ले० गारोकन बलुती । श्रास विस्तानी, अ.सबागी--उ01 श्राल, श्राछी अगारिकस् मस्केरिया agaricusMuscaria : --हिं0 Morindia"citrifolia, Limm. फ्लाइ अगारिक Fly ngaric-ई01 देखो-याच्छुकः । भगा ( गे ) रिकशिरर्जिअन् aguricus .. अगालजी analoge:-यू० अगर-हिं। loechirurgeon-ले. शाल्य छत्रांकुर (Su. rgeon's agarics ग़ारीकन जराही । ग़ारी wood (Aquillaria agaulocha ) कुन बलूती, अस्सोफान-अ०, । फा० ई० ३ अगाव agara-हिं. संज्ञा पुं० [सं० अग्र] ऊँख के ऊपर का पतला और नीरस भाग जिसमें भा०। इस प्रकार का ग़ाकिन, फिरंग के बनों में प्राचीन गां बहत पास पास होती हैं। अगौर। बलूत वृक्ष के ननों पर पाया जाता है। प्राचीन अधोरी। अँगोरी । समय में इसे विशेष विधि द्वारा शद्ध कर समां में अगास Agasta-हिं० संज्ञा पु[ सं० अन] रक्रराव को रोकने के लिए उपयोग करते थे प्रा. अग्ग--हिं० श्रास (प्रत्य०) द्वार के प्रागे परन्तु अधुना इसका प्रयोग सर्वथा अव्यवहारिक ___ का चबूतरा । संज्ञा पु० [सं० श्राका ] अाकाश | हो गया है। अगास्त gasta-मह० अगस्त, अगस्तिया-हि. अगा (गे)रिकस् पामेलस aga.vitths pal. Sesbania Grandiflora, Pers. malus-ले० पनसलम्बे-मह०, कॉ० । फा० इ०१ भा०। ayarie of theoalk, Totehunod . अगिgi-ल० लाल मिर्च से बनी हई चटनी । फा. Oyste-1-mushroom | ई. मे० म०: ०२भा०। अगारिकस मस्करिया agaricus Mara- श्रगिस.-सोagikest-si-बर० बड़ी अरंडी Tia-ले० अगारिकस अमेनिटा। . का तेल बृहदेरण्ड नैल (Oleum ricini For Private and Personal Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अगिन, ना अगिरटम्-कार्डिफोलियम् obtained rom th: Sesot एक और पौधा है जो धाम के सेतों में उत्पन्न large s ul castor oil plant) होता है। देखो अगया। (३) एक हद ६ से १० पुट लम्बा पौधा जो श्रगिन, ना gina, wa हिं. ममा श्रो. हिमालय प्रामाम ब्रह्मा में मिलता है। इसके [सं०अनि ] [क्रि०अगियाना ] (1) अाग | पत्ते और 'लों में जहरीले रोएँ होते हैं जिनके (२) गोरया वा यया के प्रकार की एक छोटी : शरीर में धंसने से पीड़ा होती है। इसी से इसे चिड़िया जिलका रंग नटला होता है। इसकी : चौपाए नहीं हो । नेपाल शादि देशों में पहाड़ी बोलो बहुत प्यारी होती है । लोग इसे काड़े मे लोग इसकी झल से देशे निकाल कर गरा ढके हुए पिंजरे में रखते हैं। यह हर जगह पाई ! नानक मोटा कपड़ा बनाते हैं। जाती है। (A biida sort of lark ) (४) जल धनियां । । (३). एक प्रकार की बाप जिसमें नीबू की सी (५) पक्षी विशेष । A bird (anti मीसा हक रहती है। इसका तेल बनता है।। नता है । aggiya) अगिया वास । नीली चाय । यज्ञ कुश। .. (६) घोड़ों और बैलों, का एक रोग। संवा नो [.. अंगारिका ] ईग्व के ऊपर (७.) एक रोग जिसमें पैर में पीले पीले छाले. का पतला नीरस भाग । अगोरी ! पड़ जाते हैं। . अगिन-बाल agini-ghara-अगिया घास : अगिया वैताल htiyi.builāla-हिं० संज्ञा रोहिप । भूवण (Andropogo Schee. पु( स० अग्नि,, प्रा० अग्नि+ताल ).. itmthus, in.) (Ignis fatuus, Will-o'-the-wisp) अगिन बाय upina-lyan हि पु0, (1) . दलदल में या तराई में इधर उधर घूमते हुए अशा (thu faler in horse ) रोगः .. .स्फरस (स्फर ) के शो दर से जलते विशेष (२) मनुप्य में फामान्मी निकलने लुक के समान जान पड़ते हैं। ये कमी कभी की बीमारी ( A ruptive distias im कबरिस्तानों में भी *धेरी रातमें दिखाई देते हैं। 1 .)। सहाबा ! अगिन-5ना gina-yuti F०, वम्ब० दाद , अगियाना agiyanā-हिं.. कि० अ० [सं. नारी,जंगली महडी-हि. । (imm.hin अग्नि ] जल उप्रना । गरमाना । जलन वा दाह , baccifra, lin.) ई० मे० मे . युक्र होना । श्रगिनाला गडी.pini-ligadi-चन्दा० फला- : अगिरः agitah-सं० पु. चित्रक का पेड़ गिनी इरिनपली-हिं० । ( kahistiris ' ( 1Plumbago Zlsmicum, Ling. ). gramilaris, Lin.) इं० मे० मे०। . जटा० . अगिया giya- हिका० स्त्री० [स. अग्नि : अगितम् अश्वेटिकम् agrantum arjuati. प्रा० अग्गि] (1) ग क ! कारकी घास जि.प में , norb.-ले. बड़ी किश्ती | इं० हैं। नी की मी सुगन्धि निकलती है और जिससे तेल गा० । बनना । यह दवाओं में भी पड़ती है । अगिया अगिरेटम्-कानिॉइडोज़ agoat.tumh consधाम । रोहिप दृण । भोली चाय । यज्ञ कुश । roides, Lin. देखो-अगिरेटम् कार्डिफोलियम् (Atropogon.cchananthus, अगिरेटम्-कॉर्डिफोलियम् goraa.tkm Cl1Lim.) lifolium, 22..)-ले?) उचण्टी-बं० । (२) एक स्वर वा धाम जिसमें पीले फल लगते । ओसवी-बम्ब० । सहदेवी भेट । फॉ० ६.२ हैं और जो खेतों में उत्पन्न होकर कादों और भा० । ई मेला | पश्चिम भारत में होने ज्वार के पौधों को जला देती है। इसी नाम का वाली एक वनौषधि है । गुग्ग--कृमि नाशक है। For Private and Personal Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रगिला अगेट इसमें एक प्रकार का उड़न सील तैल पाया जाता अगुरुसार: ugurllsirah-सं0 कृपरगागम वृक्ष, काली श्रार हिं० । काल अगर-० । अगिला agila-हि. वि० दे० अगला। aloe wood (theblack variety. ) अगिहाना agihana-हि. संज्ञा पुं० [सं० (२) लौह Iron ( m) रत्ना०, अग्निधान भाग रम्बने का स्थान । जहाँ श्राग एकार्थः । जलाई जाती हो। अगुरुसाग igurisari-सं० ओ०, शिंशपा अगीकर ntikari-ते । धार करेला-हिं०1। वृत्त । सीसी सीसम-हिं । Dalbeergia किरार पं.Momordicatioica,Rost. Sissoo, Rory. भा०। अगोरस agirasa-यु. एक प्रकार का वृक्ष है । अगुरु शिशपाnglishinghapa-स० स्त्री० जिसका गोंद करुन के नाम से प्रसिद्ध है। शीशम (4) मीसोहि । DalberginSucenum (tres ot-) sissoo, Reath. अटी. स्वामी । शिशपाअगोरातून agdirtuna-यु० पटेर-हि. एक सं० । शिश-बं० प्रकार की वृटी है जो प्रायः माथे की शक्ल की | अगुवादिधृष agurvalidhipa-सं. को होती है । इसे गुजेना भी कहते हैं । यह जला- अगर, कपूर, लोवान, नी, नगर, सुगन्धवाला, शयों में होती है, जिससे बोरिया इत्यादि बुने चन्दन और राल इनके धूप में दाह शान्त होनी जाने। है । वृ.नि. २०। अगारिया ghiriya-यु.पृथ्वी, भूमि, धरणी, अगूढ़ apurha-हिं० वि० [सं०] जो छिपा न जमीन (The Earth.) हो । स्पष्ट । प्रगट। प्रगुण aguna-हिं० वि० [सं०] Desti- | अगूढ़ गन्धम् agurhagundham संका। tute of attributes) गुण रहितनिगण, अगूढ़-गन्धा agurha gandha-हि-संज्ञानी धर्म वा व्यापार शून्य, रज, तम श्रादि गुण । (हींग) गाँधी हिंगु-हि । Ful assa रहित । संज्ञा पु. अवगुण, दोष । foetida T०नि० ब०६ । (२) पलांडु अगुरु aguru-सं० क्लीअगर (Sce.Agara)| Ajliumcepal, Lin. ( ३ ) मगनाभि (musk ) लशुन, लहसुन ( lim वा० चि०५०। Sativum,Linu.) अगुरुः aguruh-सं० पु. (१) अगुरु वृक्ष, अगर-हिं० | Aloe wood (agallo. अगूढः agur hah-सं० पु. श्वेतैरएड (सफेद) घरगड या अरण्ड- हिखेत भेरेन्दा-बं० । cha) यथा--"गुरुः श्री वासकं कुकुमम्" । The castor-oil plant (Ricillin. वा० सू० १५ ४० एलादिवगं । (२) कपिल . seommuvis) वै० निघः ।। वर्ण शीखम, सीसम, सीसो-हिं० । कपिल शिंशपा-6. अगृद्धिःugriddhih-सं० स्त्री० अभिलाष,इच्छा Dal belgia latitolia भा० पू०१ मा० वटादि वर्ग । (३) सीसम, . (wish,desire ) । वा० चि० अ०७ सीसो शिापा वृक्ष-हिं० । शिशुगाछ-वं० । भगेथ agatha-संज्ञा!) अगेध agetha, -हि. पु०, अरनी, (Dilbergia sissoo, Bor) (४) ! अगेथुथ gethu-thos) का पेड़, अग्निमन्थ -हिं० वि० हलका ( Light)(५) जिसके । ( Premma Integrifolja, Lin:. ) गुरु ( Teacher) न हो। अगेट ugat:-ले०, (१) अातंगल, नील भगुरु गन्धम् aguru-gandham-सं० क्ली. झिएटी- सं० । कट करैया-हि. Barlerial हिंगु, हींगह। हिरू-बं०। (Assafa. corrulea (२) ई०, अकोक एक मूल्यवान tida ) पत्थर विशेष । For Private and Personal Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अगटि अगवि अमेरिकना allus odoratissimus,Willd.) के लिए व्यवहत होता है। किसी किसी ग्रन्थ में उपरोक पौधे के लिए यी पर्याय कोयानि निश्चित किया जाता है, किंतु ये नाम यदे .बार विषमरल अर्थात् मुख ia (Crinum Asiaticunt, Linn.) के हैं । अमेरिलिडीई अर्थात (मुख-दर्शनवर्ग) (N. 0. amarylliderc ) उत्पत्तिस्थान-इस पौधे का मूल निवास स्थान अमेरिका है, पर अब यह भारतवर्ष के अधिक भागों में या बसा है। प्रयोगांश-मूल, पत्र और निर्यास तम्तु, पुष्प, दरडी तथा मध्य, पाहार श्रौषध सथा डोर अमेदि ग्राण्डिफ्लोग agati grandiflora Lam-ले० अगम्तिया, अगस्त ( Greatra flowered agati) फा०1०।१० मे० । मे०। अगेनोस्मा कैर्योफाइलेटा ganosmatal yophyllata, G. Bor-ले. इसके पत्र : औषधि कार्य में आते हैं । मेमो० । देखो मालनो। अगेनोस्मा कैलसिना aganosmu Caly. cina, A. DE.-ले. मालती-हिं०, बं०, सिं० गंधोमालकी- इसके पौषधि कार्य में पाते हैं। मेमो०। अगरिक ayri:-. । अग़ाशकून . अगरिकस agarills-ले० अगारिकस अमेरिकन्लैंकagarie-bhane-फ्रा० गारी कृन । देवी अगारिक ऐत्यस। अगेला angeli-हिं० संश पुं० [सं० अम] हलका अस जो श्रासाते समय भूसे के साथ आगे जा पड़ता है, और जिसे हलबाहे प्रादि ले जाते हैं। अगेवि अमेरिकेना agart americanit, Zin. lio.b.-ले. राकसपत्ता, बड़ा कॅबार, कंटला, यांस केवड़ा, (मेमो०० मे० प्लां०) जंगली कॅबार, हाथी सेंगा ( स.० फा००) हार्थी चिंघाड़- रावकस पत्ता-द. । प्रानैक्कटड़ा (स. का. इ. ५० मे.लां )। पिथकल बुन्ध-ता० (मे मो० ई० मे. सां.) राकाशि-मटलु- ते पनम् कटड़ाज़- मला०1 भुत्नाले, बुद्धकट्टले नारु-कना० । जंगली या विलायती अननाश (स), दिलाति पात, कोयम मुर्गा, (श्रानारस अपभ्रंश )-वं। जंगली ' कामारी-गु० । जंगली कुँवार, पारकन्द-यम्यक विलायती कैटल-पं० । अमेरिकन एलो ( American alor: ), कैरेटा Calata रसायनिक संगठन-इसके इंदल के रस में एक शर्करा जनक ऐल कोहल ( मद्यसार होता है जिससे एक संधानित मादक पेय पदार्थ प्राप्त होता है जिसको मेक्सिको (Mexico ) में परकी (Pulque) कहते हैं। अगेबोसी (Ayavose) एक निष्क्रिय शर्करा है। प्रभाव-भूल-मूत्रल और उपदंशन है। रसभृदुभेदनीय, मूत्रल रजः प्रवर्तक और स्की नाशक (Antiscorbutic) है। औषध-निर्माण--क्वाथ, पत्र स्वरस, मूली का रस एवं निर्यास । प्रयोग-इसका मूल सारसापरिला के साथ क्याथ रूप से उपदंश रोग में प्रयुक्त होता है, (लिण्डले) अमेरिकन डॉक्टर इसके पत्ते से मिचौड़े हए रस को शोथन और परिवर्तक प्रभाव के लिए विशेष कर उपदंश रोगमै उपयोग करते हैं। इसका रस कोऽ मदुकर, मूत्र विरेचनीय और रजः प्रवर्तक, २ फ्लुइड ग्राउंस की मात्रा में कर्वी नाशक है । (यु० एस० डिस्पेन्सरी) जरनल शरीदन (Genl-Sheridan) का वर्णन है कि उन्होंने अपने श्रादमियों पर जो स्कर्वी से व्यथित थे इसका उपयोग किया और इसे बहुत लाभ दायक पाया 1 (इयर धुकफार्मे0 १८७५, २३२) नोट-(1) हैदराबाद के किसी किसी जिले में अगवि अमेरिकेनाके लिए केतकी शब्द प्रयोग में लाया जाता है, किन्तु यही नाम भारतवर्ष के अन्य भागों में कंवका अर्थान् केमकी ( Pand. For Private and Personal Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org में श्रविले भीफोलिया तर और गृहादार पत्तों का पुल्टिस रूप से ! उपयोग अत्यन्त गुणदायी है। इसका ताजा रस : कुचले हुए स्थान पर लगाया जाता है। पत्रों तथा प्रकाण्ड के निम्न भाग से निकजना हुश्रनिर्यासमै दांत के दर्द के लिए 1 | ! जाता है । इसके पत्ते का सूक्ष मलमल के 'नह में रख श्रख श्राने से चक्षुद्रों पर बांधा जाता | और शर्करा के साथ दिन में दो बार सूजाक प्रयुक होता है। (एच० एस० पी० किन्स मदरास ) देशी लोग इसे पुरातन सूजाक में वर्तते है । ( सर्ज० मेज० आई०एम० बोरह० वाला० शां०) । -T " श्रविजेनोफोलिया agave 1hamitolia-- | श्रगोली agonli-हिं० संज्ञा स्त्री० [देश० ] ईख की एक छोटी और कड़ी जाति है । लें । ट्याagaveCantula, Rock ) गंड agamda - हिं० संज्ञा पुं० [सं०] घड़ ले० विलायती अनन्नास । ई० है० गा० । से जिसका हाथ पैर कट गया हो । विविविagave vivipara Livn. अग्गई aggai श्रव० ककोट्ट - बं०, ६० गई । ले० कंटल - सं० | कलालाई १० 1 पे कलबंद श्ररञ्जन aghraba - अ० ( ५० ब० ) उग़ाज़ित्र ते० । मे० मो० । इसके रेशे काम में श्राते हैं। गेरिक ऑफ दी श्रोकaganic of the oak * इं०- खुम्बी गारीकून बलूनी श्रगा करू, श्रणि एटस् Agaricus ostreatus, Cac इं० मे० से० । ( ० ० ) । लिंग और जांध या रानके ध्य की दूरी, वक्षण, जंत्रासी, निम्नकच्छ । प्रोइन ( Groin ) -- ई० । अज़ल ahzala-० तपेनोबत - फा० । नौबती बुखार, बारी का बुखार उ: । पर्याय ज्वर, पारी का ज्वर - ० | Intermittent fever. श्ररिसीन agaricint० श्रगारोसीन | गेह agcha-i० वि० [सं०] गृह रहित । श्रग्जिय्यह aghziyyah - अ० ( ० ० ) जिसके घर द्वार नहीं । वे टिकाने का । गिजा ( पं० ० ) । अथाय खुर्दनी - फा० । श्रगैरा agaira-हिं० संज्ञा पुं० [सं० श्रम ] भक्ष्य पदार्थ, भोज्य पदार्थ, स्वाद्य आहार, खाने नई फसल की पहली श्रौंटी जो प्रायः जमीदार की वस्तु - हिं० | डाइट्स ( Diets ) - ई० । को भेंट की जाती हैं अनम aphtama-ऋ० वह व्यक्ति जो शुद्ध बात न कर सके । 1 ६४ ' श्रगोवर agochara हिं० वि० [सं०] जिसका 'अनुभव इंद्रियों को न हो । बोधगम्य, इंद्रिया सीन, प्रत्यक्ष । श्रगट । अव्यक्र । ( 1uperceptible by the senses, Not obious) अगर aghora-तु० प्यूसी खीस, हिं० । पीयूष[सं० दुग्ध देने वाले पशु यथा गो, भैंस प्रभूतिके 1 व्याने के प्रथम दिवस से लेकर चार छः रोज बाद Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दूस तक का दुग्ध की अग्नि पर रखने से थका-थक्का जम जाता है। फट्टा | गोही agohi - हिं० संज्ञा पुं० [ ० अ ] वह बेल जिसके सींग आगे की ओर निकले हो । श्रगौड़ी agouri - हिं० संज्ञा स्त्री० [सं० श्रम ] ईख के ऊपर का पतला भाग, श्रगाव | श्रीका agokah - सं० पु० (१) (A fadnJous animal with eight legs. ) शरभ ( २ ) पक्षी (a bird ), । ( 3 ) सिंह | मे० । i । श्रगौरा agaura-हिं० संज्ञा पुं० [सं० श्रग्र + हिं० और ] ऊख के ऊपर का पतला नीरस भाग जिसमें नज़दीक नज़दीक होती है। अतशaghtash o हर रोज़कोर - का० । दिवसांध, दिन अंधा दिनौंधी का रोगी, दह व्यक्ति जो दिन में भली भांति न देख सके । हेमीरीलॉप (पिया) Hemeralape,-piaइं० । श्रीस aghdidisa - अ० खुरु यह फ़ौक़ानी | उपांड-हिं० | ( Epididymus ) For Private and Personal Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अग्नाया अनायो agvayi-हिं० संज्ञा स्त्री० [सं०] The wifo of agní ani goless of fire अग्नि की स्त्री स्वाहा । त्रेतायुग। अग्नाशयः ngnishayinh-सं० अग्न्याशयः । ... ( Paickas) अग्नाशयद्रव aynashaya driva-हि. पु. अग्नाशय रस (pancreutic juice) अग्नाशय प्रदाह Ignāshaya-pradaha. हि. नोम ग्रन्थि प्रदाह, अग्न्याशय प्रदाह, अग्नाशय; का शोथ, (Pancreantitis), इल्तिहाब बन्कर्यास, बर्म बकरास-अ० । सोज़िश : लयलबह, लबलबह की सूजन-उ.1 अग्नाशय रसmashayau Tash-हिं०५०। नोम रस | अग्नि रस । Pancreatic . jilies) अग्नाशयिक प्रणालो Augashayika pran. : ali-हिं० स्त्री० (Pancreatic duct). श्रोम ग्रयस्थ प्रणालो । मजीयुल बाकरास : -० । बाकरास या लबलबह की नाली --उ० । इस नाली द्वारा अग्नाशय रस द्वादशांगुलांत्र में गिरता है। अग्नाशयक क्षय ॥p nashiyika-kshayaहिं० पु. ( IPancreatic phthisis) अग्न्याशय जन्य क्षय रोग । सिल्ल इन्करासी-श्र। लबलबह की सिल-30 | इस प्रकार का क्षय अग्नाशय के विकृत होकर संकुचित होजाने से । उत्पन्न होता है । इसमें भी रोगी दिन दिन निर्बल. होता जाता है। अग्निः aghih-सं० पु. । The fire अग्नि nghi हिं० संज्ञा स्त्री० । of the stomach,ligestive faculty.जठराग्नि, पाचनशक्कि । यह मन्द, तांदण विषम और सम भेद से चार प्रकार की होती है। यथा मनुष्य के . कफ की अधिकता से मन्दाग्नि, पित्त की अधि- कता से तीक्ष्णाग्नि, वात की अधिकता से विष माग्नि तथा तीनों दोषों की समता से समाग्नि होती है। बिषमाग्नि वातज रोगों को, तीचणाग्नि पित्तज रोगों को और मन्दाग्नि कफज रोगों को : उत्पन्न करती है । लक्षण-समाग्नि वाले का किया हुश्रा यथोचित भोजन सम्यग् रूप से पत्र जाता है । मन्दाग्नि बाले मनुष्य का किया हुश्रा थोड़ा सा भी भोजन अच्छे प्रकार नहीं पचता और विषमारित वाले मनुष्यका किया हुअाभोजन कभी भली प्रकार पचता और कभी नहीं पचता; तथा जिस मनुष्य को अत्यन्त किया हुआ भोजन भी सुख पूर्वक पच जाए उसको सीक्षण अम्बि कहते हैं। इन चारों प्रकार की अग्नियों में समाग्नि उत्तम है । मा० नि० अग्नि० मा० (२) पाचक, रञ्जक प्रभृति पञ्चपित्त [ देखोपित्त ] । (३) तेज पदार्थ विशेष, तेजका गोचर रूप,उष्णता,श्राग-हिं० । फायर (Fire)- नार,यरह, भातश-अ०,फा० । प्रागुनि-बं०।यह पृथ्वी, जल, वायु, श्राकाश श्रादि पंच भूती वा पंच तत्वों में से एक है । इसके संस्कृत पर्याय वैश्वानर, वह्नि, बीतिहोत्र, धनञ्जय, कृषीटयोनि, ज्वलन, जातवेदस्, तनूनपात, . तनूनपा, यर्हि, शुष्मा, कृष्णवर्त मा, शोचिष्कता, उपर्बुध, प्राश्रयाश, प्राशयाश, वृहद्भानु, कृशानु, पावक, अनल, रोहिताश्व, वायुसखा, शिखावान्, शिखी, श्राशुशुचणि, हिरण्यरेता, हुतभुक्, हव्यभुक्, दहन, हव्यवाहन, ससार्चि, दमुना, शुक्र, चित्रभानु, विभावसु, सुचि, अप्पित्ती (अटी) वृषाकपि, जुवान्, कपिल, पिंगल, अरणि, अगिर, पाचन, विश्वप्सा, छागवाहन, कृष्णार्चि, भास्कर, जुवार, उदार्थ, वसु, शुष्म, हिमराति, तमोनुत्, सुशिखः सप्तजिह, अपपरिक, सर्वदेवमुख (ज)। अग्निताप के गुण-वात, कफ, स्तब्धता, शीत तथा कम्प नाशक, प्रामाशयकर और रक पित्त को कुपित करने वाला है। राज० भा० । आग्नेय द्रव्य--प्राग्नेय द्रम्य रूत, तीक्ष्ण, उष्ण, विशद (सूक्ष्म स्रोतों में जाने वाले ) और रूप गुण बहुल होते हैं। ये दाह, काति, वर्ण और पाक कारक होते हैं। बा० स०अ०६। (४) द्रव्यों का तीसरा रूप जिसे वायवीय अर्थात् गेसियस (Gaseous) कहने हैं इसे वाप्पीय For Private and Personal Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अग्नि अमिफरीरसः ( भापकासा) कहते हैं। यह हमारा प्राचीन अग्नि-(१५) वैद्यकके मससे अग्नि तीन प्रकार तेजस् सत्य है । हवा, पानी की भाप, इत्यादि । की मानी गई है-यथा-(क) भौम, जो तृण इसके उदाहरण हैं। किसी पदार्थ को जब बहुत | काष्ठ आदि के जलनेसे उत्पन्न होती है । (ख) गर्मी दी जाती है तो वह अंत में इस रूप को ! दिग्य-जो प्राकारा में बिजली से उत्पन्न होती है, धारण करता है। तेजस दम्यों में कुछ सो घरय : (ग) उदर व जठर, जो पित्त रूप से नाभि के हैं अर्थात् देख पड़ते हैं और कुछ प्राश्य, इनमें : उपर हृदयके नीचे रहकर भोजन भस्म करती है। दो विशेष गुण है, एक तो अपना इसका कोई इसी प्रकार कर्मकांड में अग्नि छः प्रकार की श्राकार नहीं होता, जैसे वर्तम में भर दीजिए ! मानी गई है । गार्हपत्य, प्राहवनीय, दक्षिलाग्नि, उसी प्रकार का हो जायगा। गीले, चौखटे । सभ्याग्नि, पावसथ्य, प्रौपासनाम्नि । इममें तिकोने आकार के धारण करने में इसे कोई कति पहिली तीन प्रधान हैं। (१६) वेद के तीन नाई नहीं होती । दूसरी बात जो इसमें पाई जाती प्रधान देवताओं (अग्नि, वायु और सूर्य) में से है वह यह है कि इसका कोई अपना परिमाण नहीं । एक। होता । एक हत्र की शीशी लीजिए। अभी उसमें अग्नि-बार axmi-ara-नेपा० अयार, यज्ञ छाल । गंध के परिमाणु याप्प रूप से हैं, किंतु उनका- मे मो०। परिमाल उतना ही जितनी कि शीशी में खाली अथित जी : अनिउ ignin-कुमा० बसोटा, बक्रार । मे० minा . प्रयोगा aare जगह है। यदि आप शीशीकी डाट खोल दीजिए। मोर तो अभी गंध सारी कोठरी में फैल जायगी । अर्थात् अब वही परमाणु बढ़कर कोठरी के बराबर हो । अग्निउम् ugnium-हिं० पु. बसौटा, बझाच । गया । अतः वाप्पीय द्रव्य वे हैं जो अपना स्वयं _ अग्निरुहा, मांसरोहिणी-सं० । अग्निक agnika-हिं० संज्ञा पु. कोई परिमाण या श्राकार नहीं रखने प्रत्युत्त अग्निकः agnikah स०ए० ) गोप, वीर. (.)इन्द्र जिस पात्र में रक्खे जाते हैं उसी के प्राकार और . बहटी । अषाढ़े पोका-वं० । an insect of परिमाल को महल कर लेते हैं । भौ० वि०। ih bright scarlet colour (Mutella (५)चित्रका चीता (Plumbago Ze. occitlen talis) सु. मि. अाहे. ylanica, Linn.) सियो० ग्रहणी चि०। च. ४ का । (२) चित्रक वृक्ष (Plum. विस्वाच शृत । बासू० १५ १० प्रारग्यध bago zeylanica, tinn.) वा.चि. प० । (६) अमिजार वृक्ष (agnijara) ७१०। (३) भिलावा, महासक वृत्त (Se. रा०नि० २०२३। (.) पीतबालक | mecarpus anacardium, Linn. ) (८) केशर, Saffron (Crocuss ations : भा० ३.१ भा. ह. व.। Linm.) () पित्त (Bile), (१०) अनिकर चूर्ण agnikara-churna-हिं. अम (१)निम्बुक वा नीयू (Citrus me. पु. शरा, अनार दाना, हा, सोचर नॉन, कुडे dicin, (Gold.)। रा०मि.ब.२१ । (१२) की छाल, इनका चूर्ण अग्नि संदीपक चौर अतिस्वर्ण, मुबा (Aurum)। रा०नि०५० सार नाशक है । व्यास. यो. स। १३ । (१३) भल्लातक, भिखादों (Seme. अग्निकरो रसः agnikaro rasah-सं०५० varjus amacardium, Linn.) रा. शिंगरक को काले बैंगन के रस से ३ वार भारिस निव..। (१४) रक चित्रक, लाल करें। पुमः वन भोटा, चित्रक, पीपल की छाला, चीता ( Plunbago Rosea, Linn.): अमली और केले की जड़ इनके रसों अथवा रा.नि.व. ६ । च. ३० प्रहणी चि.।। कार्यों की क्रम से भावमा दें । फिर उसमें मेष. कपिरथाप्टक । नगद (चौलाई वारदार ) श्राक, थूहर, चिर्चिटा, For Private and Personal Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अग्नि कार्गी अग्नि-कुमार-रसः और साक इनके हार, सजी, यवदार, सेंधा जलदाग्नि तृहोल्का, विद्युत । जलत-नृपी-०। नमक, इन्हें शिंगरफ के बराबर मिलाएँ, फिर . (Lightning ) जलता हुआ नृण वा पुवाल सर्वतुल्य काली मिर्च तथा मित्रों से प्राधी लवंग का पला । लुक । लुकारी। मिलाकर नोबू के रस से खूब भावना दें। इसे अग्नि-कुराहु-रस: agni-kundarasahअदरख या पानके रसके अनुपान से अावश्यकता . पु. गन्धक, पारद ४-४ मा०, ताम्रमरम २ नुसार वर्सना चाहिए। मा०, मिला कजलीकर ४ तह मलमल या वादी मात्रा-१-३ मा० पर्यन्त । गुण---यह जठ- में बाँध अमलतास और सागवन के क्वाथ में राग्नि को प्रदीप्त करता है। डालकर १ दिन और एक रात रहने दें ।इसरे अग्नि की agni-karni-सं० स्त्री० दिन निकाल कर १ अहोरात्र खिरनी के दूध में (A tree) वृत विशेष । वै. निघ. २ डालकर रक्वें । पुनः सम्पुट में बांध लघु पुट से भा० अभिन्यास ज्वर त्रि.1 पकाएँ जिससे कि पारद उड़न जाण । पश्चात् अग्नि-कर्म agni.karma-सं० क्री०, हिं० उपयुकद्रयों की पुट दें। इस प्रकार संज्ञा पु. प्रन्ध्यादि रोगों में अग्नि में लाल किए ५ पुट। पुनः उसके समान शुद्ध जमालगोटा हुए शलाका प्रादि से किए जाने वाले दाह क्रिया मिला मर्दन कर २ या ३ रसी प्रमाल की गोली को 'अग्निकर्म' कहते हैं। चार से दाह कार्य धेट बनाएँ । गुण-जल के साथ सेवन करने मे है गुण के विचार से न कि क्रिया के विचार से। रेचन होकर पाध्मान, शूल, उदरामय और मजेकाल-इसके लिए शरद और ग्रीष्मनु को बोड़ रिया ज्वर का नाश होता है। र० यो० सा०। कर अन्य समस्त ऋतु में श्रेष्ट है। इसके लिए अग्निकुमार-मोदक: agni-kumāra-moda. पात्र अर्थान् योग्य रोगी दुर्बल, चालक, वृद्ध kah-खस, नेत्रवाला, नागरमोथा, दालचीनी, और डरपाक प्रभृति के अतिरिक्त अन्य समस्त । । तमालपत्र, नागकेशर, जीरा सफेद, जीरा स्वाद, सु० स०१२ अ० वा. चि०१५ अ०। काकड़ाशिंगी, कायफल, पुष्करमूल, कचूर, सोंठ, अग्निका agnika-सं० स्त्री० (iossypium मिर्च, पीपल, वेलगिरी, धनियां, जायफल, सौंग ___ Indcium) कपास, कपीस । कपूर, काम्तलौहभस्म, शिलाजत. वंशलोचन, अग्नि-काश agni.kasha-हि. (oxygen) छोटी इलायची बीज, जटामांसी, रास्ना, तगर, उष्मजन, श्रोषजन।। चित्रकलाजवन्ती. गुलशकरी. अभ्रक भस्म.बंग अग्नि काप्ट agnikāshtha-हिं० संज्ञा पुं० ।। भस्म, मुरामांसी इन्हें समभाग हैं, इन्हीं के अग्नि काष्ठम् agnilkashtham-सं० क्लो० ।। समान मेथी तथा इस चूर्ण से प्राधी शुद पिसी (.) अगर, अगरु (agalochum) भंग ले, इसमें शहद तथा मिश्री उचित मात्रा "अनिकाष्ठ करीरेस्यात्" रा०नि० २०२३ में मिलाकर मोदक प्रस्तुत करें। मात्रा- तो.। (२) शमी काष्ट acacia suma) रा० अनुपान-जल, बकरी का दूध । नि०व० १२ । करील । यह सेवन से उग्र संग्रहणी, कास, श्वास, प्रामअग्नि कीट agni-kita-हिं० संज्ञा पुं॰ [सं०] वात, मन्दाग्नि, जीर्णज्वर, विषम अर, विबन्ध, समंदर नाम का कीड़ा जिसका निवास अग्नि में अफरा, शूल, यकृत, श्रीहा, 15 प्रकार का कुष्ट माना जाता है। अग्नि-कीलः agni-kilah-स. पु. अग्नि-1 उदावर्त, गुल्म तथा उदररोग को मारा करे। शिस्खा। अग्नि ज्वाला-बं० (gloriosal भै० २० ग्रहण्याधिः । अग्नि-कुमार-रसः agni.kumāra-lasah_superba) लागली, कलिहारी। अग्नि कुक्कुट agni kukkuta-हिं० संज्ञा पुं०1। स. पु. पारद, गन्धक, बग्छनाग, त्रिकुटा, अग्नि-कुकटः agni.kukkutab-स० पु.57 सुहागा भुना, जौह भस्म, अजवाइन, अहिफेन, For Private and Personal Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अग्नि कुमार-लौह प्रत्येक समान भाग सर्व तुल्य अभ्रक भस्म लें । | पुनः चित्रक के रस में प्रहर मर्दन कर चना प्रमाण गोलियां बनाएँ । गुण- श्रजीर्ण, संग्रहणी, जे. राग्नि की मन्दता, पक्कातिसार को दूर करता और बाजीकरण करता है । र० स० । ( २ ) मिर्च, वच, कूद, नागरमोथा, इन्हें सम भाग लें, इनके तुल्य मीठा विष लें, उत्तम चूर्ण कर अदरख के रस से खरल कर एक एक रसी की गोलियां बनाएँ । मात्रा-१ रत्ती | अनुपान ग्राम ज्वर में शहद, मों से, कफ ज्वर में सम्हालू के रस में, प्रतिश्याय और पीनस में अदरख के रस में, अग्निमांय में लवंगसे, शोध ( सूजन ) में दशमूल काथ के साथ, संग्रहणी में ससे, अतिसार में मोधा से, आमातिसार में सांसे, धनियांके. कथसे, शहद, अदरख के साथ, पक्कानिसार में पीवर, अदरख के रस के साथ, सन्निपात रमें कटेरी के रस के साथ, श्वास, खांसी में तैल और गुढ के साथ, यह चित्त स्वस्थ कारक, ग्राम दोष नाशक और जनशक्ति को बढ़ाने वाला प्रसिद्ध श्रग्निकुमार नामक रस है । भै० ० ज्वराधिकारः । ६८ (३) पारा, गंधक, सुहागा ये समभाग ले, मीठा विष ३ भा०, कौड़ी भस्म २ भा०, शंस्वभस्म २ भा०, मिर्च = भा०, पारा गंधक की कजली कर सब औषधियों को चूर्ण कर मिलाएँ पुन: पके जम्भीरी रस से अच्छी तरह मर्दन कर दो दो रत्ती प्रमाण की गोलियां प्रस्तुत करें। इसके सेवन से विशुचिका ( हैजा ) अजीर्ण और वातरोग का नाश होता है। इसमें किसी किसी श्राचायों के मन से १ भाग वच का भी मिलाना चाहिए | रस०रा०सु० 1 भै०र० श्रग्निमा० अधि० । यो० त० श्रजी० श्र० । नोट- इस नाम के भिन्न भिन्न योग अनेक पुस्तकों में वर्णित हैं । अग्नि कुमार-लौह agni-kumara louha- हिं० पु० लीहाधिकार में वर्णित रस | योग | इस प्रकार है :-- I श्रग्निगर्भा यथा--तृतिया, हींग, सुहागा, सैंधव, धनियां जीरा, अजवाइन, मिर्च, सो, लौंग, इलायची, विडंग प्रत्येक १-१ तो इन सबों के समान लौह नधा पारद ४ तो० गंधक तो०, निर्माणविधि-सर्व प्रथम पारद व गंधक की कजली कर पश्चात् शेष औषधियों को मिलाकर भली भांति घोटे पुनः इसकी शीशी प्रभति में सुरक्षित रक्वें । मात्रा अवस्थानुसार । अनुपानवृत और मधु । वृ० ० ० ० ३३४ योग | श्रग्निकेतुः agnikatuh-० ( Smoke ) धूम | अग्निकोण agnikona -हिं० संज्ञा पुं० [सं०] ( 'The south-onst corner ) पूर्व और दक्षिण का कोना, ग्रग्निदिक । अग्निरिया agnikriya - हिं० संज्ञा त्रो० [स ं० ] ( Eoneral ceremoni's ) शव का अग्निदाह । मुर्दा जलाना । श्रग्मि-गर्वः agnigarbah-० पु० । दादमारी इ० मे० मे० ( Ammaunin Barcifora, Linn.) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ܕ श्रग्नि-गर्म agnigarbha हिं० संज्ञा पुं० । अग्नि-गर्भः ampi-carbhah - स० पं० । ( १ ) श्रमिजार वृक्ष ( A plant nsed in medicine of stimulant propartis ) रा० नि० ० ६ । ( २ ) प्रातिशी शीशा, सूर्यकान् नणि ( ' The sima stone ( ३ ) शमी वृक्ष ( Acacia suma ) श्रग्नि-गर्भ- पर्वत nigarbha parvata हिं०संज्ञा पुं० [सं०] ज्वाला मुग्बी पहोड़ (Volcano) For Private and Personal Use Only श्रग्निगर्भा aani garbha-स० ओ० (1) शमी वृक्ष (acacia Suma ) गुरण—निक, कटु, कपाय, शीत वीर्य, लघु रेचनी, कफ, काम, श्वास, कुष्ट, अर्श तथा कृमि नाशक है । भा० पू० १ भा० (२) महा ज्योतिष्मती लता सं० बड़ी माल कागुनी - हिं० । वड़ा लता फटकी चैं० Halicaca(Cardisspermam bmm, him. ) ० नि० । करील । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अग्नि गर्मा बटी अग्निता अग्नि गई वटो gmi-gatha-vati-सं० अग्नि वृतम् ॥ghi-ghritin-स. क्ली० : : श्री० ० र०, र० चं०, उदाधिकारे । शुद्ध पीपल, पीपलामल, चित्रक, राजपिप्पली, होंग, पारा ४ तो० शुद्ध गन्धक ८ ता०, लोह, मुहागा अजमोद, चव्य, पञ्च लवण, अवाग्वार, मजायच, कुट, हींग, त्रिकुटा, और हल्दी ये मय पारे खार, हाऊबेर, प्रत्येक =नो. अदरख का म अर्ध प्रमाण में लें, सबका च कर पश्चात् . रस ६४ तो०, धृत ६४ तो०, दही, कांजी, शुक्र मानकन्द, जिमीकन्द, व्याननम्वी (हि-वध- · पृत के बराबर लं, पुनः विधिवत पकाएँ । नहा, म०-वाघांटी) और त्रिफला के रस अथवा गुग्ग--अर्ग, गुल्म, उदर, ग्रन्धि, अर्बुद, क्वाथ से अलग अलग भाविन करें। फिर ६-६ अपची, ग्यांसी, कफ, मेद, वायुरोग, सग्रहणी, रत्ती को गोलियां प्रस्तुत करें। शोथ, भगन्दर, वस्मिन रोग और कुजिगत रोग गुग-लोहा, गुल्म, उदर रोग, शूल, यकृत, में हितकर है । च. द. । बंग० सेस श्रीजा, कामना, हलीमक, पांड़, कृमिरोग, अजीर्ण श्र. । श्री श्र. . श्रीर कष्ट को नष्ट करती है। अग्निचक्र ॥gni.chak11-हिं० संज्ञा पु. अग्नि गा रसः ( म ) Agniparbho [स] योग में शरीर के भीतर माने 'हुग छः Pasah-स. प. शुद्ध पारा, ताम, लाह, चक्रो में से एक | इसका स्थान भौहों का मध्य, अभ्रक, मीना, अंग प्रत्येक की भस्म, वच्छनाग, रंग बिजली का मा और देवता परमारमा माने मोनानाम्बी शुद्ध, मुर्दासंग शुद्ध, मुहागा भुना, गए हैं। इस चक्र में जिस कमल की भावना को शिलाजीत, मैनसिल शुद्ध, कमीला श्रीर गन्धक गई है उसके इला ( पखुड़ियों) की संख्या दो शुन्द्र प्रत्येक तुल्यभाग और सर्वतुल्य श्वेन पाक और उनके अक्षर ह और क्ष हैं। .. को जड़ की छाल लेकर घी कुवार, चित्रक, अग्नि चार: grithan- सं. पु. एक त्रिफला, अम्लत, कवर, ब्राह्मी और अली के प्रोधि है, जो पश्चिमी समुद्र के किनारे होती रय (जिसका रस न मिले उसके स्थान में उसका है । (Phastolas gallins) . क्याथ ) से सात बार अलग अलग भा बेत करें, अग्नि-चूड़: :.gni-chudah-सं० पु. (A पुनः मिलावे के क्वाथ २६. गोभी के रस में . (Pock ) ताम्र चूड़ पक्षी। कोमड़ा-दा० हिं० । ६, त्रिकटुके क्याथ से १०. जिमीकन्द वाथये कुक्कुट, मुर्ग-हिं० । कूकड़ा-बं ! ग्राम्य व वन्य और तादी ३ भावना दे तो यह सिद्ध होता है। भेद से ये दो प्रकार के होते हैं। इनमें (,) मात्रा १ माशा । ग्राम्य वृंहण, वृष्य, बल्य, गुरु, शुक्र एवं कफ अनुपान-जुलमो, पीपल और राहद ड और कर्मा, स्निग्ध, उष्ण वीर्य और रस में कपैला शहद, काला नमक और चित्रक, त्रिकुटा, जिमी. होता है । (२) पारस्य ( जंगली ) स्निग्ध, कन्द, चित्रक, अजवाइन, गुड़, पीपल, नाड़ी, वृहण , श्ले'मा कारक तथा गुरु है और वात, पौर शतावरी का चूर्ण अथवा अामले का चूर्ण पित्त, क्षत बमन तथा विषम ज्वर नाशक है। और शहद अथना घी और त्रिका है। यह शा० । हृद्य,श्लेप्मा नाशक तथा लघु है.। रा०नि० सभी प्रकार के अर्ग, मन्दाग्नि, प्रमेह कान और . व० ११ । रुन, स्वाद, ( मधुर ) कषैला और नेत्र पीड़ा शुल, गुज्म, उदररोग, अंधेरी, दमा, शीतल है। गज० उदावर्ष, कृमिरोग, पीनम, पेट फूलना, तूनी, अग्निज agnija-हिं. संज्ञा पु. A plant प्रत्याला, प्रहना, शोथ और पांडु रोग को अग्निजः ॥gmi.jah-सं० प. jused in नष्ट करता है । इसे सेवन करने वालों को medicinn of stimulant prop. वैगन, मेल, शाक, स्त्री सङ्ग. दिन का सोना.' Oties. और घोड़े की सवारी मना है। रसावतारे- (१) समुद्र फल का पेड़, अग्निजार वृक्ष । अर्श अधि० (२) ज्यराधिकार रमावतार।। (२) (Som.carpus amacardium, For Private and Personal Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अग्निजननी अग्नितुगडी वटी Lin.) भिलावाँ, भहातक (३) (Gold) | (Gloriosa Superba, Linn.) air सोना, सुवर्ण ( Aurum ), मांस धातु वृक्ष । रखा। कलिहारो-हिं०। कललाथी-म० । (Muscle ) बैश। ईप लांगुलिया-०। अग्नि-जननो agnijanani-सं. खी०, हि.} गुण-दस्तावर, तिक, कड़वी, चरपरी, कषैली, वि० (1) अग्नि से उत्पन्न । (२) अग्नि । तीदह, उष्ण, हलकी, पिसकारक और खारी,गर्भ को उस्पा करने वाला (३) अग्नि संदीपक : को गिराने वाली है । कुष्ट, शोफ (सूजन), अर्श पाचक। (बवासीर)मण, शूल, श्लेष्म तथा कृमि को भग्नि-जननी-पटी apni-jaani vati-सं. नष्ट करने वाली, कफवात नाशक और अन्तः स्व. पारस, गधक, सोंठ, सुहागा, बरछनाग, . शल्य निस्सारक है। भा०पू०१ म.गु.व. काली मरिच समान भाग लें । पुनः बहल के (A tongus or flaime of fire) रस में मर्दन कर चना प्रमाण गोलियां बनाएँ। प्राग की लपट । गुण-यह अग्नि प्रदीपक है। भै० २० अग्नि अग्नि-ज्वाला agnijvala-संखो०(१) गजपीपल मा००। -हिं० । गज पिपुल-बापायोस आफिसिनैलिस् अग्नि-जातः agni-jatah-सं० श्रग्नि जार वृक्ष । (Pothos officinalis)-ले. विद्वान् लोग सव्य के फल को ही गजपीपल कहते है। (See-agnijara.) रा. नि०व०११ यथा-"विकायाः फलम प्राः कथिता गज. अग्नि आर. agnijara-हिं० संशापु) पिप्पली" । भा० ३.१ भ०। अग्नि जार: agnijarah-सं०५० ) गुण-गजपीपल, चरपरी, वात, कफ नाशक, A plant nised in medicine of अग्नि को दीपन करने वाली और गरम है. और stimulant properties.) पश्चिम समुद्र । अतिसार, श्वांस, को के रोग और कृमि रोग को में उक्र नामकी प्रसिद्ध सागर सम्भूत औषध विशेष, नष्ट करने वाली है। (२) लांगली वृक्ष समुद्र फलका पेड़, इसके पर्याय निम्न :-यथा ( (iloriosa superba ) (2) अग्नि निासः, अग्निगर्भः, अग्निजा, बड़वाग्नि-' अग्निजार, ( Agnijara ) (1) मलः, जरायुः, अबोदवः, अग्निजातः और । सिंधुफल ! लक्षण-यह चार प्रकार के वर्ण वाले : जलपिप्पली-हिं० । कांवड़ा-० । जलपिम्पली-म० । (५) धातकी वृक्ष । होते हैं, इनमें लोहित वर्ण का अट होता है। रा.नि.व. २३ । (६) श्राग की लौ, जैसे-जाराभो हमस्पर्शी पिचिडलः सागरोद्भवः । (Flame)(.) आंवले का पेड़, प्रामला । जरायस्तरचतुर्वणः तेषु श्रेषः स लोहितः ॥ (Phyllanthus Einblica ) (s) गुण-कटु रस युक, उप्य वीर्यः लघुपाकी तथा : अग्निबाड़ा 1(Agnibadi) कफ, वायु, सनिपात, गूल रोग नाशक और पित अग्नि-भाल agnijhāla-हिं. संज्ञा पुं॰ [सं॰] कारक है, यथा-~-स्थाग्नि जारः कटु रुप्य वीर्यः । अग्नि ज्वाला । जरायु । सुफेद चित्रक गुदामय वास कामयनः । पित्त प्रदः सोऽधिक (white lead-wort )-101 सचिपातशुलाति शीतामय नाशकरच ॥ रा०नि० (२)जल पिपली का पेड़। व०६(amber) अम्बर भराहव । अग्नि-तत agni-tapta-हिं० वि० श्राग पर अग्नि-जाल: agnijalah.स.पु. श्राग्नजार, गरम किया हश्रा। अग्नि-तुण्डा-बटी agni-tandi.vati-हिं. अग्नि-जिs agnijihva-हिं० संज्ञा पुं॰ [सं०], संज्ञा स्त्री० [सं०] अग्मि-तुण्डी घटी:देवता, अमर । अग्नि-तुण्डी-वरी agui-tundi-vatiसं० सी० अग्नि-जिहाagnijihvi-हिं० संज्ञा स्त्री० । शुद्ध पारद, वयनाग, गंधक, अजमोद, त्रिफला, अग्निजिविका agnijihvika.मो. सजी-सार, जबा-खार, चित्रक, सेंधा नमक, जीरा For Private and Personal Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अग्नितुण्डा रसः अग्नि-उपनावटी काला नमक, वायविडंग, समुद्रखवण, त्रिकुटा, रा०नि० व. १ | वात, गुल्म तथा कफ नाशक सकसमान भाग, सबके समान करना ले और प्री विकार नष्ट करती .शि चूर्ण करें । पुनः जम्भीरी नीबू के रस में घोट कर अग्नि-शाह agnidaha हिं. संज्ञा दु. [सं०] मिर्च प्रमाण गोलियां बनाएँ। (१) भाग में जलाने का कार्य भस्म करना, मात्रा-1-३ गोली । रसेन्द्र कल्पद्रुम में इसकी . उलाना (२) शवदाह, मुर्दा जलाना ( Funमात्रा छः रत्तो लिखी है। परन्तु जब कुचले के eral ceremonies.) स्थान में बकायन के बीज लिए जाएं सा इसकी ! अनिकagni-dipaka-हि. वि. [सं.] मात्रा दो गोली काकी होती है । गुण-इसके बराग्नि को उत्तेजित करने वाला, पाक शनि सेवन से सम्पूर्ण अजीर्ण और मन्दाग्नि दूर होती. को बढ़ाने वाला । अग्नि-वर्द्धक, बीपक (Sto. है । भै० र० । र यो सा. । muchie ) अग्नि--तुण्डी-रसः ani-tundi-Tasah-स. अग्नि-दीपम agni-dipana हि. वि. अग्निपु. पारन शुद्ध, गंधक शुद्ध, विष शुद्ध, अजमोदर । दीपक ।। (यमानी ), त्रिफला, समी, सोश, जवाखार, . अग्निदीपन agni dipana . संज्ञा पु. चित्रक, जीरा, सेंधा लवा, काला लवण, [सं०] [वि. अग्निदीपक ] (१) अग्निवर्सन । जठराग्नि की वृद्धि | पाचन शक्ति की बढ़ती। (सौवर्चल,) वायविडंग, समुद्रलवण, त्रिकुटा, (२)अग्नि बद्धक श्रीषध । पाचन शकिको इन्हें समान भाग लें । सर्व तुल्य विषमुष्टी . (कुचिला) लं, चूर्णकर जम्भीरी के रस में घोट . बदामे वाली दवा । वह पवा जिसके खाने से भूख लगे। मिचं प्रमाण गोलियां बनाएँ । गुण-इस सेवन से मन्दाग्नि दूर होती है। अग्नि दीपनः agni-dipanah-स. पु. शा० सं० मध्य ख० अ० १२। (१) वरुण वृक्ष, बरनानह· । वरूण गाछ अग्निर agnida-हिं० वि० अग्नि दीपन । ०। (Critieva religiosa, Fort.) ( Tonie, Stomachic) - भा०पू० । भा० । ( २ ) अग्नि बाईक अग्नि-दग्ध agni-dagilha हिं. वि० । प्राग (Stomachic, Tonic) अग्निदीपन रसः agni-dipanalasah-सं. से जला हुश्रा। पु. पारद, मीठा तेलिया, खवंग, गंधक प्रत्येक अग्नि-दमनका ghistinintujhilkahसं००) १ भाग, मरिच २ भाग, जायफल आधा भाग। अग्नि-दमनो agni-damani-सं• स्रो० सबको महोन करके अम्ली के रस की भावना Medicinal plant stimulant anal: देकर रक्खें । मात्रा- मासा । stomachie considered as a... गुण-इसे मदरख के रसके साथ सेवन करने small species of Cantactrican से शीघ्र ही अग्नि प्रदीस होती है। र.प्र.सु. चुद कंटक वृक्ष विशेष । गसिकारी हिं० । गणिरी : अ. -401 दुरालभा भेद-हिं०, बं० । धमासा भेद, अग्नि-दीपनी, नीय agnidipunj, niya-स. अगिदवणा-मः । वै० निघ। कोई कोई ! त्रि. दीपन, अग्नि वक, अग्नि वृद्धि करी-हि. शोला को कहते है । इसके पर्याय निम्न हैं:- (A neulicine which stimulates यथा-वहिदमनी, बहुकंटका, वहि कंटकाड़िका, the digestive fine or inereases गुरक्षाखा, पुद्रफला, मुद्रकटकारी, पुददुःस्पर्शा, the appetite, Stomachic.) पुद्रकंटकारिका मय॑न्द्रमाता, बमनी । गुण-: अग्नि-दीपनी बटोagnirtipani-vati-स कदु; उपण, रूप, रुचिकारक, अग्निदीपक है। लो० गन्धक, काली-मिर्च सोंठ, सेंधा नमक, For Private and Personal Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 'अग्नि-दीप्ता अग्नि प्रस्तरः जवाखार समभाग ले मर्दन कर चने प्रमाण गोती : सेंधा नमक, हाई, पीपल, चित्रक इन का चूर्ण माएँ । मात्रा-१ गोली। बनाय उपना जल के साथ खाने से नष्टाग्नि उत्तेगुण - यह जठराग्नि को प्रदीप्त करता है । जित होती है तथा नवीन अन्न, मांस, घृत भक्षण अग्नि-दीप्ता ami-dipta-त. स्त्री० महाज्यो. किया हुआ शीध्र भस्म हो जाना है। तिप्मती लता, मालकांगनी, ज्योतिष्मती-हिं। सेंधा लवण, हींग, हई, बहेड़ा, श्रामला, लताफटकी-० । थोर माल कांगनी-म० । अजवाइन, मोंठ, मिर्च, पीपल इन्हें बरावर ले ( Calastras paviculata, Willd.) और सबके बराबर गुड़ मिला गोलियां बनाएँ, गा०नि०व०२ भा०पू०१सा । इसके सेवन से मन्दाग्नि वाला तृप्त होता है और अग्नि-दोसि agni-dipti - हिं० संज्ञा स्त्री० अधिक भोजन करता है। [सं.] Improved ligistion, वायविडंग, भिलावाँ, चित्रक, गिलोय, मीठ gool appetite:) चुधा वृद्धि, पाचन शक्ति बराबर ले इनकं समान गुड़ और धृत मिला गो. का बड़ जाना। लियां बनाएँ इसके सेवन से मन्दाग्नि दृर अग्नि-धमनः ॥gmi-thamanah-सं० [. होती है । गुड़ के साथ सांड अथवा पीपल, या Julia tntlinchta. in.) कटु . हई अयवा अनार को ग्राम रोग में, अजीण में, निम्न-हि०, म० | कुटु निम, घोड़ा निम-बं। गुदा के रोगों में, मल के विबन्ध में नित्य प्रति देखो-महानिम्ब, बकाइन । सेवन करें। अग्नि-निर्यासः ३५11i-hityisith-स. पु. भोजन के प्रथन नमक और अदरख का खाना अग्निजार वृत । ग. नि. ५० Ste हृदय को हितकारक तथा दीपन है ! चक. द. agui-jára. . . अग्नि०मा० प्रा० . अग्नि-पत्रो goi-patri स. स्त्रा० अग्नि वती, . अग्निपदारसः agri-prarto-tsth संपु. श्रगिया प्रसिद्ध-हिं० ( Atropogon पारद, गंधक, सीसा, वच्छनाग, प्रत्येक १-१ Scheenthus, L.inm.) तो. कजली कर ग्रातिशी शीशी में रख वालुका अग्नि पणी gui-Dali'ni--स. स्त्रो. वानरी, . यन्त्र द्वारा प्रहार की अग्नि से पकाएं। इसमें २ कौंच, केवाँच । ( Niculpturiens, नी० त्रिकुटा मिलाकर बारीक पीस ईख के रस से D.C. ) मर्दन कर 3--१ रत्ती प्रमाण की गोलियां बनाएँ । अग्नि-परिताप uphi-paritapu-हिं० पु. गुगा-इसके सेवन से मन्दाग्नि, क्षय, सन्निपात श्राग की जलन ( Storching hoat और वात रोग दूर होते हैं। र० प्र० सु० (-of fire) अग्नि० मा० अ० र० प्र० सु० अ०८।। अग्नि-परीक्षा agnipariksha-हिं० संज्ञा स्त्री०, अग्नि प्रभा वा agniprabhavati-R. [स] साना चाँदी अादि धातुओं की आग श्री० सेंधा नमक, नौसादर, अत्रावार, विड़ में तपाकर परम्ब । नमक, सिंदूर, प्रत्येक समान भाग ले । पुनः अग्नि पा (मा) लो !!gni-pa (1) 11 स. पटोल की जड़ के रस से. गावना देकर उइद खा. (The white: Jal-VOJt) चित्रक, प्रमाण गालियां बनाएँ । इसे तालमखाने के सुफेद चीता-हि। चिते-चं० । मद. २२० । पंचांग के क्वाथ से दें तो घोर यकृत, द्वारुणsafia Zelia agni-pradipakani प्लीहा, वातीला, मन्दाग्नि प्रो र गुल्म का नाश स. क्ली० सोउ अथवा गुड़ के साथ भक्षण . होता है । २० यो० सा. ...... को हुई अथवा संधालवण के संग भक्षण की अग्नि प्रस्तर gmipjastaहिं . सज्ञा पु.) हुई हरीनकी निरंतर अग्नि को प्रकाशित करती । अग्नि स्तर::mi-pastarah-सा ० ५.) For Private and Personal Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अग्निफला अग्निमुखः ( Firs-Stone, a glint) अग्नि उत्पन्न (१) ( Premma Integrifolia ) करनेवाला पत्थर । वह पत्थर जिससे भाग निकले। अरनी-इरनी, अमेध, टेकार । (२) अग्निवधू अग्निजनक पाषाण, चकमक पत्थर । पूर्व देशमैं--.। सुसू०३६ अ०। (३) अग्नि-फला agni-phala-सं० स्त्री० (Cela. संशोधन । वा० उ० २० अ०। (४) शाल, strus paniculata, Willd.) AET सर्जवृत्त (५) अरणी नामक मन्त्र जिससे यज्ञ ज्योतिष्मतीलता, ज्योतिप्मती लता, मालकांगनी के लिए भाग निकाली जाती है। -हि । बडलता फटकी-बं० । थोर मालकांगनी अग्नि-मन्थादि-क्षार. तैल agnimanthādi• -म०। रा०नि० व०३। ___ksharan tail-सं० पु अरणी, सोनापाटा, अग्नि-बाव agni-biva-हिं० संशा० पु. ढाक, तिलनाल, यला, केला और अपामार्ग । [स० अग्नि+वायु ] घोड़ों और दूसरे चौपायों इनके चारों के पानी से सिद्ध किया हुआ तैल का एक रोग, जिसमें उनके शरीर पर छोटे छोटे | उदररोग और वातज हृद्रोगों का नाश करता है। सावले निकलते हैं और फूट कर फैलते हैं। अग्नि-मयः agni mayah-सं० पुं० सुफेद यह रोग अधिकतर घोड़ों को होता है। (२) विधारा, श्वेत वृद्धदारक । श्वेत विचताड़क-बं०। मनुष्यों का चर्मरोग जिस में शरीर पर बड़े बड़े | श्वेत वरधारा-म०। वै०नि०। श्वेत बुद्धा । लाल चकत्ते वा ददोरे निकल पाते हैं और साथ | Sec-Vidhára. कभी कभी ज्वर भी पा जाता है। पित्ती। अग्निमा admima-(Anoma squamosa) ददरा । जुड़ पित्ती। सोताफल, शरीफा । फा० ई०। अग्निवाहुः agni-bahuh-सं० ० अग्नि-मात ayni-mata-ते. चित्रक, चीता (smoke) धूम्र।। (Plumbago Rosea, Linn.) Filo अग्निभ agaibha-सं० क्लो अग्नि-मांद्य agni-inandya-हिं० संज्ञा पुं०) सुवर्ण, सोना । (aurum) रा० नि० अग्नि-मांद्यम् agni-mandyam-सं० क्लो." व०१३॥ ( Indigestion ) अजीर्ण, मन्दाग्नि । अग्निभा agnibhi-सं० स्त्री० celastius (Anorexia) जठराग्नि की कमी । पाचनpaliculata.-माल काँगनो। शनि की कमी । भूख न लगने का रोग। अग्नि-भु agnibhuसं० क्ली० Gold, (Al- अग्नि-मारुति agni-maruti-हिं. संज्ञा पुं. rum) सुवर्ण | सोना । रा०नि०व०१३। [सं०] अगस्त्य मुनिका एक नाम । (२) जल , Water (Aqua) अग्नि-मुखम् agni-mā khain-सं० क्ली० (१) अग्नि मणि agni-mani-हिं० संज्ञा पुं० ।। (Safflower carthamus Tincto. अग्नि मणिः agni-manih-सं० पु. । rius ) कुसुम्भ पुष्प, कड़ का फूल । (२) The sun stone, a glint सूर्यकान्त Saffron (Crocus) कुकुम, केशर । मणि | श्रातिशी शीशा-फा० । एक वहुमूल्य अग्नि-मुख agni.mukha-हिं० संज्ञा पु.) पत्थर । (२)सूर्य-मुखी शीशा । अग्नि-मुखः agni.mukhah-स. पु.॥ अनि मथनः agni-mathamsh-सं० पु. (Plumbago Zeylanica, Tinn. ) (Premna Integrifolia, Linn.) (.)चित्रक, चीता | चितंगाछ-बं०। (२) अरनी-हिं० अग्नि मन्थ, गणिकारिका-सं० । भिलांचा, भल्लातक । भेलागाल-बं०। (Seगणिरी या धारगन्त-वं०1 रा०नि० वा. । mecarpus anacardium, Linn.) अग्नि-मन्थ agni-naantha-हिं० सं० पु.) अग्नि-मुखः agni-mukhah-सं.पु. पारा, अग्नि-मन्यः agni-manthah-सं० पु. गन्धक, अभ्रकभस्म, ताम्रभस्म, अमलवेत, (Gold) ई० भा० २। अग्निम: aguibhah-संo For Private and Personal Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रग्निमुखचर्णः सिंगिया, त्रिफला प्रत्येक समान भाग लें । सब को कूट-पीस, धतूरा, पान, कटेरी, श्ररनी, कमल, नेत्रवाला, अडूसा, कुचिला, थूहर और बिजौरा नीबू के रसकी पृथक र भावना दे तथा सब के बरावर अदरख के रस की भावना दे । मात्रा-३ रत्ती | --- गुण- इसके सेवन से प्रबल शूल दूर होता है । ब्रु० ० रा० सु० | शूल चि० । अग्नि-मुख-चूर्णः agni-mukha-chürnakसं० ० पु० हींग : मा०, ६ च २ मा०, पीपल ३०, अदरख ४ आ०, अजवाइन १ ना०, हड़ ६ मा०, चित्रक ७ मा० कूट मा० इन सब का चूर्ण कर सेवन करने से उदावर्त, श्रजीर्ण, प्लीहा, उदर व्याधि, अंगों का टूटना, विषभचविकार, बवासीर, कफ, और गुल्म दूर होता है । इसे वातव्याधि में गर्म जल, मद्य, दही, दहीं के पानी इसमें किसी एक के साथ है । बं० से० सं० यो० त० जी० श्र० (२) जवाखार, सज्जी, चित्रक, पञ्चलक्ष्ण, इलायची, पत्रज, भारी, भूनी हींग, गुप्कर नृल, कनूर, निसोथ, नागरमोथा, इन्द्रयव, डांसरा ( तन्तरीक ) अमलवेत, जीरा, ग्रासला, अजवाइन, हड़ की छाल, पीपर, तिलक्षार, सहिजन घार, पलासदार सार इन्हें सम भाग ले महीन पीस कपड़छान कर रस व २ पु है । सिद्ध कर प्रति • दिन २ द क जल के साथ लें तो भूख लगे तथा श्रजीर्णे, गोला, उदर व्याधि, अउबुद्धि और 'वार दूर होता है | श्र० स० अग्नि मुख - चूर्णम् (वृहत् ) agri-makha. Chürnam-( Brihat ) सं० पु० 1 सज्जीखार, यवतार, चित्रक, पाठा, करञ्ज, पांचों नमक, छोटी इलायची, तमालपत्र, भारशी, वीर्य | ब्रिडंग, हींग, पुष्करमूल, सोंड, दारूहल्दी, निसोध, नागरमोथा, बच, इन्द्रजौ, कोकम्, जीरा, श्रामला, गजपीपल, कलौंजी, श्रमलचेल, अली, श्रज्ञवादन, देवदार, es, ग्रतीस, काली निसोथ, हाऊवेर, अमलतास, तिल, मोखा, सहिजन, तालमखाना, और पलाश इनके चार, गोमूत्र में पांकर भाया हुआ मन्टूर, प्रत्येक मुख्य भाग : 1 يف Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रग्निमुख- रसः लेकर बारीक चूर्ण कर लें । पुनः तीन २ दिन तक बिजौरे का रस, सिरका, और अदरख के रस की भावना दे । मात्रा १- ३ मा० । गुण- इसके सेवन से श्रजीर्ण, सम्पूर्ण गुल्म, प्लीहा, बवासीर, उदर रोग, श्रन्त्रवृद्धि, अलीला, वातर, और मन्दाग्नि दूर होती है । र०० स० । श्रग्निमुख ताम्रम् agnimukha tamramm - सं० पु० पारा १ तो०, गन्धक १ तो० गिला कर कज्जली बनाएँ, पुन: अर्जुन वृक्ष की छाल के रस अथवा क्वाथ से वोट कर २ तो० ताम्र के पत्र पर लेपकर पके हुए गूलर के पन लपेट कर कच्चे सूत से लपेट के मिट्टी के बर्तन में पांचों नमक और चूने के बीच में क्रम से रखकर अन्यमूला में रखकर भावी से धोकें जब सिद्ध हो जाय तो निकाल कर रखें । मात्रा - १ रती से प्रारम्भ करें और रोजाना १ रत्ती चढ़ाकर १ सा० तक पहुँचाएँ । यह रस अम्ल पित्त, तयं, शूल, और दारुण पनि शूल को नष्ट करता है । सात रात्रि तक इसका प्रयोग करने से शरीर निर्मल होजाता है । अम्लपित्तविकारे -- र०१०, र० न० । अग्नि-मुख-मंडूरम् agnimukha-mandi• ram - सं० पु० | लो कि ४८ तो० लेकर ठगुने गोमूत्र में पकाएँ पुनः चित्रक, चव्य, सोंठ, पीपर, पीपरामूल, देवदारु, नागरमोथा, त्रिकुटा, त्रिफला, वायविडंग इनका चूर्ण १ पल लेकर उक्त मण्डूर में मिलाकर उपयोग करने से साध्य शोथ तथा पुराने मंटु रोग का नाश होता है । भैप० ० शोधाधिकारे । अनि मुख - रसः agni-mukha-rasah-सं० पुं० ० 1 पास, गन्धक, विष, सम भागलें, इसे दरख के रस से खरल करें, पुनः पीपलदार, अम्लतार, अपामार्गवार, सज्जीखार, जत्राखार, सोहागा, जायफल, लौंग, त्रिकुटा, ये समान भाग लें, रात्र भरन, लवरात्रय, हींग, और जीरा दो दो भाग लें सब को चूर्ण कर नीनू के रस से सरल कर एक २ रची प्रमाण गोलियाँ For Private and Personal Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अन-मुख-गवणम् अग्नियूम बनाए, इसके सेवन से जोण, शूल, विशु- : ईशलागलीया-पं० । (Gloriosa Superचिका, हिचकी, गोला, मोह नट होता तथा ba, Lin.) तकाल पायन बीपन होता है। अग्निमुखी nghi-mukhi-स'. श्रीभल्लातकी यां० त०- रसेन्द्र र । : भिलावाँ भेला-यं० । ( Semecarpus अग्नि-मुग्व-लवणम् Agni-ukha-lasa- macarlim, Linu. ) मे० बचतुष्क । mium-सं०० : चित्रक, त्रिफला, जमालगोटा , ना । च० सू० ४ ० भेदनीय । (२) सूल, निसोथ, पुष्करमल इन्हें समान भाग लें, लांगलिका । ईशलागलीया-बं० । मे० खचश्रीर सर्वतुल्य सेंधालवण लेकर चूर्ण बना धूहर तुक । भा० पू० २ भा० अनेक बं० । (३) के दुग्ध में भावना देकर थूहर के कांड में भरकर ! कञ्चट-स । जलबीलाई-हिं० । कलिहारी-हिं० साधारण कारौटी कर सुनाएँ पश्चात ऋग्नि दे (Gloriosa superba, Linn.) सुन्दर पाक करें, पुनः चूर्ण कर उष्ण जल से चड़ा-बं०। रा०नि० व०४। भा० पू० ह. सेवन करने से अग्नि को दी न करता तथा यकृत, - व० । गुड़ची, गुरुच, गिलोय ( Tinospora तिज्जी, उदर रोग, ग्रानाह, गुल्य, यवासीर, Cordifolia, Jliers. ) पसली के शूल को दूर करता है। : अग्नि-मुखो-रसः agni-mukho-ash-सं० भैपर. अग्नि मान्द्याविकारे । वं०से०सं०। पु। पारा, गन्धक, बच्छनाग तुल्य भाग लें अग्नि-मुख-लोहम् ॥gni-imukha-lonham- चण कर अदरख के रस की भावना दें । पुन: स . प । निसोथ, चित्रक, निर्गुण्डी, थूहर, पीपल (वृक्ष) इमली, और चिरचिरा इनके मुल्टी, भू-श्रामला प्रत्येक बाउ २ पल लें, एक : क्षार, यवक्षार, सजी और सोहागा, जायफल, दोग (१६ सेर ) जल में एकाएँ जब चतुर्थीश . लवंग, त्रिकुटा, त्रिफला ये सब समान भाग, रहे तो इसमें वायभिडंग १२ तो०, त्रिकुटा : . श्रीर शंख भस्म, पांचो नक, हींग, जीरा प्रत्येक तो०, त्रिफला २० तो०, शिलाजतु ४ तो, पारे से द्विगुण डाल कर अम्ल योग से खूब मैनशिल व सोनामाखी से मारा हुअा रुका लौह : घोटकर २ र प्रभासाकी गोलियां प्रस्तुत करें। भस्म का चूण ४८ तो०, धृत, शहद, मिटी गुण-पाचन, दीपन, अजीण, शूल, हैजा, प्रत्येक १६-१६ तो. इन्हें मिलाकर यह लौह । हिचकी, गुल्म और उदर रोग को नष्ट करता है। प्रस्तुत करें, पुनः उचित प्रमाण से इसे सेवन __रसेन्द्रसंहिता में इसे अग्निमुखरस कहा है। करने से अर्श, पांडु, शोथ, कुष्ठ, प्लीहा, उदरा र०यो० सा। मय, शसमय केशों का श्वेत होना, ग्रामवात, अग्नियम agniyuma-हिं० यकार, बकर्च, बसौटा । गुदा रोग, इन्हें सहज ही नाश करता है, इसके : प्रेग्ना लैटिकोलिया ( Premia Latifoसिवाय मन्दाग्नि को दूर करते हुए समस्त रोगों ____lia, Roxb.)-ले। अग्निऊ-कुमा० । दन, को उचित विधान से वर्सने से दूर करता है। खार, गियान- पं०। इसके सेवन करने वालों को ककार वाले पदार्थ । निगराडी वर्ग वर्जित हैं । मात्रा-१-४ मा भैष०र० ! (N. 0. Verilenaceo) अधिकारे । वृ० रस० स० सु० बं० । उत्पत्तिस्थान-उत्तरी भारतवर्ष कमायूसे से० सं०। भूटान तक और खसिया पर्वत तथा सामान्यतः sagar agni-mukhá-cio gio The बंगप्रदेश के मैदान । malking.nuuttree(Senmecarpus- प्रयाग-उपयुक्र पौधे के बक्कल को दुग्ध amacardiuin, Liny.') भल्लातको सूजन पर लगाया जाता है, और पशुओं के मिलावों ( श्र)। भेला-10 । (२) लाङ्ग- उदर शूल में इसका रस प्रयुक्र होता है (पेट्. लिका (वि.)-स० । कलिहारी-हिं० । किन्सन); पजाब देशमें इसका रस औषधिमुल्य For Private and Personal Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अग्नि-रचस् अग्नि- वकः प्रयोग में लाया जाता है । स्ट्यु बर्ट । ई० होता है। लक्षण-पित्ताधिक घातादि दोषों के मे० प्लां। कारण बगल में, ज्वर पैदा करने वाली, मांस अग्निरचस agnirachas) स. प . को विदीर्ण करने वाली, अग्नि के समान तीण अग्निरजः agnirajah, I (1) बीरयही, जो फुन्सियां हो जाती है उन्हें अग्नि-रोहिणो अग्निरजाः agni-rajah / इन्द्रवधू , इन्द्रगोप- कहते हैं । ये पांच वा सात या पन्द्रह दिन में अग्निरः agni-rajjuh | कीट-हिं० । श्रा- रोगी का प्राण नाश कर देती हैं । बा० उ० पाड़े पोका-बं० । हे० च०४ | An insect : ३२ १०। of bright-scarlet colour. (Mu- अग्नि-लोहः agni-louhah-सं०प० । निशोथ, tella occidentalis.) । (२) सुवर्ण : चित्रक, निगुड़ी, सेहुड, मुण्डी, भू-मामला gold (Aurum) प्रत्येक ८ = पल, 1 द्रोण [१६ सेर ] पानी में अग्नि रसः (प्रथमः) र. र. यक्ष्माधिकारे। पकाएँ। पुनः ण्डिङ्ग ३ पल, त्रिकुटा ३ कर्ष, हीरा भस्म २ भा०, सुवर्ण भस्म ३ भा०, पारद । त्रिफला ५ पल, शिलाजीत १ पल, रुक्म लौह भस्म ६ भा०, इन्हें ग्रहण कर दिन भर गोखरु ! चूर्ण १२ पल, दिव्योपधि १२ पल, शुवावृत्त के रस में भावना दें। शाम को उसका चूर्ण छाल १२ पल लें। इनका उत्तम चूर्ण, घृत २४ कर लें । मात्रा-१ रत्ती० । अनुपान थूहर की , पल, मधु २४ पल, शर्करा २४ पल मिलाकर जद और जम्भीरी का रस 1 किस राजयक्ष्मा के । विधिवत् पकाएँ । जब सिद्ध होकर शीतल होजाए साथ ज्वर भी हो उसमें इसका प्रयोग करना तो उतार कर रस्व ले। गुण-अर्श मात्र को नष्ट उचित है । इस नाम के चार योग इन ग्रंधी में : करता है। श्राए हैं । जैसे-(२) २० का०, २० क० ल०, नोट:-दिव्यौषधि-स्वर्णमाक्षिक, मैनसिल । र० र० स०, नि० २०,र० को०,कासाधि कारे। रुक्मलौह-वज्र-पाण्डु-लोह । वै० श. सि. अग्नि-रसः agni-rasah-स. प. मिर्च, अग्निवत्रः agni-vaktra.h-सं० पु. (Se. मोथा, वच, कूट, समान भाग लें, सर्व तुल्य mecarpus anacarlium, Linn.) बिष लें, पुनः अदरख के रस से मर्दन कर मुद् भल्लातक वृक्ष, मिलायां का पेड़-हिं. 1 भेला प्रमाण की गोलियां बनाएँ। यह हर प्रकार के गाछ-बं० । ले. मद. य. १ (२) चित्रक अजीण को नष्ट करता है। (चीता) चुप-हिं० । चिते गाछ-मं० ( Pluभं० २० अजी० अधि० mbago zeylanica, Linn.) अग्निरसः agni-lasah-स. ० (१) अग्निवण्डा agni-vanda-स. स्त्री अग्नि (Pancreatie juice) कोम रस, श्रग्ना- ज्याला (एक गरम दबा है)। See-agniशय रस । असीरुल इन्किरास-१०। (२) jvālā । अग्निमान्याधिकारोक रस विशेष । अग्निवनी agni-vauti-स. स्त्री० (Andrअग्निरूहा agni-ruhā-स. स्त्रो० मांस- opogon Scheranthus, Linn. ) रोहिणी | The Indian old wood अगिया घास एक प्रसिद्ध औषध है।। tree (Soymida Ft. brifuga, Jus.) अग्निवधू agni.vadhu-स. अग्निमन्यः रा०नि० व०१२१ अरनी ( Premna Integrifolia, अग्निरोहिणी agni-rohini-स. स्त्री०, हिं0 Linn.) संज्ञा स्त्री० (Soymidth Febrifuga, : अग्निवर्द्धकः, नः agni-vardhakah,-mah Inss.) (१) मांसरोहिणी-स० हिं स. त्रि० ( Stomachic tonic ) बं० । वा० उ०३१ अ०। (२) Plague - अग्नि उद्दीपक मरिच प्रभृति आग्नेय ग्यमात्र, उन नाम का पुद्र रोग विशेष । यह त्रिदोष जन्य । अग्निवृद्धि कर । देखो दीपक [न] राज। For Private and Personal Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अग्नि-वचन अग्निवृद्धिः अग्निवर्धन agni-vardhana-अग्नि उद्दीपक । अरनो ( Premna. Integrifolia, fiata als: agni.vala-vriddhih Linn.) सं० स्त्री० जठराग्नि वृद्धि | १० द० अर्श अग्निवीय॑म् agni-virryyam -सं० ली चि०। स्वर्ण, सुवर्ण । gold (aurum) रा. नि. अग्निवल्लभ agni-vallabha हिं० संज्ञा पुं० व०३। (१) शालवृक्ष । साखू का पेड़ । (Shorea अग्नियोसपः agnivisarpah सं० १० Robusta, Gerts. ) ( २) शाल से (Pain froin a boil) द्वंद्वज विसों का निकली हुई गोंद | Shorva Robusta, एक भेद है । देखो विसर्पः। Erysipelas. the guyn of-) । मद० २०३See- अग्निविसर्प के लक्षण-वात, पित्त, विसर्प sarjah. राल, धूर, सर्ज, योनिशाल विशेष । में बर वमन, मूळ, अतिसार, तृषा, भ्रम, धूना-०। रेजिन ( Rosin )-ई। अस्थिभेद, अग्निमांद्य, तमकस्वांस और अरुचि च०। रा०नि०1०1१, १२ ये सब लक्षण होते हैं । इसमें सम्पूर्ण शरीर अग्निवल्लभः agni.vallabhah-स'. पुं० : जलते हुए अंगारों की भांति प्रतीत होता है। दे अनि वनभ । शरीर के जिस जिस अवयव में विसर्प पलता है अग्नि वल्लो agni-valli-स. स्त्री० (A: वहीं ही अंग बुझे हुए अंगार के समान काला, crocpor,turning or climbing नीला, अथवा लाल हो जाता है। अग्नि से जले plant) लता विशेष । र०सा०स०अभि. हुए स्थान की तरह बह फुन्सियों से व्याप्त हो न्यास ज्वर० स्वच्छन्दनायक रस । जाता है और शीघ्रगामी होने के कारण हृदय अग्निवास: aagnivasah-स. अग्निका स्थान। प्रभति मर्म स्थानों पर शीघ्र ही आक्रमण करता अग्निवाहः, हु: ugni vihah-huh संपु. है । इसमें वायु अत्यन्त प्रवल होकर शरीर में धूम । स्मोक (Smoke)-इं० । हे० च०४ पीड़ा, संज्ञानाश, निद्रानाश, श्वास और हिचकी का०। (२)agoat अज, बकरा । उत्पन्न करता है । विसर्प रोगी की ऐसी दशा हो अम्निविकारः agni-vikārah-सं० पुं० पुन, जाती है कि वेदना से ग्रस्त होने के कारण भूमि उजमाम के रोग का एक भेद । ग्रह चार प्रकार शय्या या प्रासन पर कहीं इधर उधर का होता है । शा० पू० ७ ० । देखो | लेटने से सुख प्राप्त नहीं होता और देह मन और अग्निः । म जनित वेदना से ऐसा दुःखित हो जाता है अग्निविवर्द्धन: Agni-vivarddhanah-सं. कि प्रबोध अर्थात् चिरस्थायी निद्रा में लीन त्रि. यमानी, अजवाइन, Carum copti. हो जाता है। इन लक्षणोंसे युक्रविसर्प को अग्नि cum, Benth.) विसर्प कहते हैं । वा०नि० १३ १०1 अग्निवर्द्धक agnivardhaka-हिं० (१) चिकित्सा-अग्नि विसर्प में सीबार धुला दीपन ( stomachic ) ( २ ) यमानी हुअा घी का केवल घतमंड अथवा मुलही का (अजवाईन) प्रभृति (Carlim ecpticum, शीतल क्वाथ, कमलका जल, दृध वा ईखका रम Benth.) इनका परिसेक करें और महातिक घृत को पानअग्निविसपः agnivisarpah-सं० पु० अग्नि- लेपन और परिसेक के काम में लाएँ । वा०च० विसर्ग, विसर्पभेद ( Pain from a 1501 boil) अग्निवृद्धिः agni-vriddhih-स. स्त्री० भग्निवीजम् agni-vijam-स. क्ली. स्वर्ण, अग्निदीप्ति, बुधावृद्धि ( Increase of सुवर्ण, gold (Aurum)-त्रिका digestive fire or appetite, Im. अम्निवोज agni-vijah-सं० पु. अग्निमन्थ, proveddigestion,Good appetite.) For Private and Personal Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अग्निधुद्धिकर अग्नि प्यासा अग्निवृद्धिकर agni-vriddhikara-सं० पु. करन-स01 कट करन-हि० । नाटा-बं०। (Stomachic.) (Ciesalpinia Bonilucella, Fleअग्निवेण्डु पाकु agnj.vendupāku-ते. दाद- ming.)(५) सूरगाः (न)-ल! जमीकन्द मारी, चकवड़, चक्रमर्द (Cassia tora, ! -हि । श्रोल गाल-बं०। (AmorphophLinn.) allırs campanulat:s, Blume.) अग्निवेन्द्र पाकु agni.vendra-pāku-हिं० प० मु०। ( Ammaniaa Baccifera, Linn.) अग्निशिष - gni-shisha-० नाट का वरछ अग्निगर्भ-सं० । दादमरी हिं०। फा० ई०३/ नाग, कलिहारी, लांगली । (Gloriosa. - भा०, ५० मे मे01 Suparba, Lin.)। ई० मे. मे। अग्निवेश agni vasha-हिं० संझा पु० [सं.] | अग्निशिपा agai-shishā-स. स्त्रो० (१) मायुर्वेद के प्राचार्य एक प्राचीन ऋषि का नाम (Amaranthus spinosus, Wild.) जो अग्नि के पुत्र कहे जाते हैं। ! तण्डुलीय, चौलाई । ।२) (Gloriostu अग्निशिख agnishikha-हि० सज्ञा प० । superba ) कलिहारी, (३) चित्रक अग्निशिखम् agnishikhain स. क्लो० ] (Plumn bugo zeylanica.) Gold (aarum) (1) स्वर्ण, सुवर्ण, अग्नि शुद्धि ngnishuddhi-हि. संज्ञा स्त्री० सोना । रा०नि० २०१३। (२) कुम्भ [सं.] (1) अग्नि से पवित्र करने की पुष्प-सं। कुसुम वा बरे का फूल । कुसुम क्रिया | प्राग छुपाकर किसी वस्तुको शुद्ध करना। फूल-बं0 | safflower ( Carthaanus (२) अग्नि-परीक्षा। tinctorins; iinn. ) ( ३ ) कुकुम, | अग्निशे वरम् agshishekharan-स. को. केशर । (Saffron Crocus Sirtivas, Linn.) Saffron (Crocus Sativus, Thinn.) कुकुम, केशा। रा०नि० व. १२ । पुलुम्भ भा० पू०२ भा० । मद० घ० ३। (४) T+7, Safflower (Cartha muis दीपक । (१)(An arrow) वाण, तीर । tilletorils, I.in.): (३ ) लांगलीवृक्ष अग्निशिखा agni-shii ha-ससोहि संश - सं० । कलिहारी-हिं । ( Gloriosa खो०। (.) लांगलिका औषधि-सं० । करि Superbil, Finn.) (४) विशल्या [-लि ] हारी-हि. (Gloriosa super bal नामक शाक भेद। Lin.) भा० पू० १ भा० गु० व० अग्नि टुत् agni-shtut-हि० से... कलियारी च करियारी नामक पौधा जिसकी ! [रु०] एक प्रकार का यज्ञ जो एक दिन में पूरा जद में विष होता है होता है। (२) अग्नि की ज्वाला. होता है। यह अग्नि स्टोन यज्ञ का ही संप है। भाग की लपट । अग्निष्टोमः agni-shromah-स. पु. अग्निशिखः agnishikhah-स० पु. । ( The moon plant) सोमलता, सोमः (१)कुकुम, केशर । (Crocus sativus, I सु० चि० २६ अ०। (२) स्वर्ग की कामना Linn.) (Shrub of saffron. )! से किया जाने वाला एक यज्ञ विशेष । रा०नि० व. १२। (२) लांगलिका वृक्ष अग्निष्ठः agni-shthuh-सं० प० तावा, स। कलिहारी--हिं० । विषलागलिका गाछ तंडुल आदि अथवा कोई भी शाक प्रादि भूजने -घं० । ( Gloriosa. superba, का लोह पात्र। Linn.)। रत्ना० (३) कुसुम्भ वृक्ष-स. अग्निवात्ता agni-shvatta-हिं० संज्ञा प.. (Safflower Cartbamus Tinc [सं०] अग्नि-विद्युत प्रादि विद्याओं का torins, Linn.) श० र.। (४) पूति जानने वाला। For Private and Personal Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अग्निसखा ७६ अग्निसाध्य अग्निसखा agnisakha-हिं० संज्ञा पुं... पकाएँ । सिद्ध होने पर इसकी मात्रा २ रत्ती देने [स'.] वायु, हवा । से जराग्नि अत्यन्त प्रदीप्त होती है। अग्निसंस्कारः aguisunskārth-सं० ० ० रस रा० सु. अजाण चि०, भैष । (१) अग्निदाह कर्म (Fumial cerem- अग्नि सन्निभा वटी agnisamibhavati ories )। नृतक के शव को भस्म करने के। सं० स्त्रो०, टो०, र० रा०शि०, र० ( म०) लिए उस पर श्रागी रखने की क्रिया। ना०वि०, अजीर्णाधिकारे । (१) आग का व्यवहार । नपाना । जलाना।। ४० तोले कुचले के बीज और तुषाम्ल (हरे (३) शुद्धि के लिए अग्नि सर्श कराने का जौ दल कर उनकी जो कांनी अनाई जाती विधान । उसको तुपाम्बु या तुपाम्ल कहते हैं ) में उतनी fa ETO agni-sants parşhá-# ही हरहे, उबाले हुए विवंग, हाँग, त्रिकुटा, स्त्रो० पर्पटी नामक सुगन्ध द्रव्य, पद्मावती, - त्रिदीप्य ( अजवाइन, अजमोद, खुरासानी अजयह उत्तर में प्रसिद्ध है। भा०९०पू०भा०क० ‘वाइन) पारा, गंधक, ये सब ४ तो० मिलाकर व०। पपड़ी (-) पनरी (-ड़ी)-हिं० । घोटकर बारीक कज्जली के माफिक चर्चा बनाए अग्निसंदीपन: guisia.indipahalh-सं० । और सब चीजें कुचिले और हड़ वाले करक में त्रि० अग्निवर्धक, धावद्धक (Increasing, मिला के जंगली बेरकी गु.ली के सरश गोलियां appetite) बनाएँ । गुण-कफ साव, मन्दाग्नि, तन्द्रा, अनिसंदीपनोरसः agni-sandipalno-asab स्वरभेद, अफारा, शूल, उदर रोग, खांसी स. पु.। पीपल, पीपलामूल, चव्य, चित्रक, 1 हिचकी, बमन, और कृमिरोग को नष्ट करसी है। सोंठ, मिर्च, पञ्चलवण, जवाखार, सजीखार, ! इसे अगस्त्य, हारित और पाराशरजी ने कहा है। सोहागा. सफेद जीरा, स्याह जीरा, अजवाइन, | श्रग्निसम्भवः agni.siaunbhavah-स'. बच, साफ, हींग, चित्रकको छाल, जायफल, कूट, (Vild Saffron) जंगली कुसुम, अरंड जावित्री, दारचीनी, तेजरात, छोटी इलायची, कुसुम वृक्ष । वन कुसुम-बं० । रा० नि०५० अम्ली क्षार, अपामार्ग ज्ञार, विष, पारा, गंधक, ४ । (१) अग्निजार वृक्ष (Agnijara) लौह भस्म, अभ्रक भस्म, बंग भरन, लोह, हड़ । .. रा०नि०प०६। ये प्रत्येक एक २ भाग, अम्लधेत २ भाग, शंख । माग्नसहायः agvisahavah ) अग्निसखः agni sakhah , स. पुं. भस्म ४ भा० सबका चर्ण कर पञ्चकोल, चित्रक, (१) (Wild pigeon) जंगली कबूतर अपामार्ग के क्वाथ की भावना , इसी तरह क्योंकि उसके मांस से जराग्नि तीन होती खट्टी मोनिया के रस की ३ तीन, तथा नीबू के है । वन्य पारावतः-सं० । घुगु-बं० । होगलापक्षी रस की २१ इक्कीस भावना देकर बेर नुम्य ..म० । रा०नि० ब०१६ । (२) वायु, हवा गोलियां बनाएं, सायंकाल व प्रातःकाल इसके (ail', wind)। (३.) smoke धूम ।। सेवन से तथा दोपानुसार अनुपान से यह रस अग्निसात् agnisat- वि० [सं०] भाग में मंदाग्नि को प्रज्वलित करता तथा अजीर्ण, अम्ल जलाया हुश्रा, भस्म किया हुश्रा। पित्त, शूल और गुल्म को नष्ट करता है। afizkia: agui-sailah-oq'o (In«li. (२) शुद्ध पारा और गन्धक बराबर लेकर gestion) अग्निमांद्य, अपच, १.जीणता, कज्जली कर के गाहे वस्त्र में उसको बांध दें। कफ द्वारा जठराग्नि का निस्तेज होना, मन्दाग्छि, पुनः १ घड़े में नीचे वालू भरकर उस पोटली को सा० को स्व० चि०। इसमें रख दे और ऊपर से घड़े को बालू से अग्निसाध्य agnisādhyah-स. त्रि० अग्नि भर दें। उसके ऊपर से दो दिन तक तृणाग्नि दाहसाध्य, अग्नि से जलने से जो की हो। जला अथवा उसको गजपुट में 1 दिन तक च०० अर्श० चि०। For Private and Personal Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अरबर अग्निसारम् अग्निसागम् agnisaran-सक्लो० रसाञ्जन, अग्निहोत्रः agni-hotrah-स. पु. (१) रसबत ( A sort of collyrium) (Ghee, clarified butter )पृत, घी। रा०नि० व०१३। (२) ( Fire ] अग्नि । मे। (३) एक अग्निसारा agnisiri-स. सो० (1) यज्ञ, वेदोक्र मंत्री से अग्नि में श्राहुति देने की (The fruitless branches) फल क्रिया । यह दो प्रकार की कही गई है-(१) शून्य शाखा, फल रहित डालियाँ । रा० निक नित्य और (1) नैमित्तिक या काम्य । घ०२१ (२) मारी, और, मुकुल (A | अग्नीका agnili-सं० स्त्रो० कर्यास, कपास blossom) ( Gossypium Inclicum) अग्नि सुन्दर रसः agni-sundariu-rasah अग्न्या agnya-स. स्त्री० (१) तीतर स०ए० अजीर्णाधिकार में वर्णित रस, यथा | चिड़िया, तित्तर पक्षी a nartride (Peसुहागा १ भाग, मरिन २ भाग, इनके चूर्ण dix Francolinus) (२)(a cow) में अदरक के रस की भावना दें। अतु०-। गाय, गो हला। लवंग। प्रयोगा। अग्नि-सूनुरसेन्द्रःngni-sānurasendrah-- | अग्न्याशयः agnyashayuh हिं० पु. स०पु०। पीली कौड़ी भस्म १ मा०, शंख भस्म अग्नाशयः agna-shayah-स. अग्नाशय, जठराग्निका स्थान, पैक्रियस( Pancrvas)२ मा०, शुद्ध पारद मा०,शुद्ध गंधक । मा०, काली मिर्च ३ मा० सब को एकत्र कर नीबू के | इं० । क्रोमग्रंथि-हिं० । बन्कर्यास, बकरास, इन्क्रि. रस से खरल करें। मात्रा-१ रसी इसके सेवन ! रास बान्करास, उनुकुत्तिहाल, लब्लयह्य अ०। से मन्दाग्नि शीघ्रदर होती है। नूर मिश्रदह --फा०। यह एक ग्रंथि है जो पतली, नोट-किसी के मत में कौड़ी और शङ्ग की। लम्बी, चिपटी और श्वान जिह्वोपम होती है। भस्में २-२ मा० मिलानी चाहिए। यह नाभि से ३-४ इंच ऊपर प्रामाशय के पीछे कटि के पहिले दूसरे कशेरुका के सामने प्राड़ी अनुपान-गृत, मिश्री के साथ क्षीणता में, पीपर घृत के साथ संग्रहणी में, तक्र के साथ पड़ी रहती है । इसका बायाँ तंग सिरा नीहा खाने से संग्रहणी, ज्वर, अरुचि, शूल, गुल्म, से मिला हुआ रहता है । इसकी लम्बाई ६ से पांडु, उदर रोग, बवासीर, शोप, प्रमेह दूर इच, चौड़ाई १॥ इंच तथा मुटाई १ या ! इंच के लगभग और भार १ छटांक से ३ छटांक तक होता है । इस ग्रंथि में एक प्रणाली होती वृ० रस० रा० सु० स'ग्रहण्याधिकारे । है जो इसके वामपार्श्व से प्रारम्भ होकर दक्षिया अग्निसेवन agni-sevana. हि. संज्ञा पु.। अग्निसेवनम् agni-sevanam सिरे की ओर पाकर पुनः पित्त प्रणाली से मिल अग्निसेवा, अग्निप्रयोग, प्राग ताफ्ना । इसके कर द्वादशांगुलान्त्र में जा खुलती है । इसके द्वारा गुण-शीत, वात, स्तम्भ, कफ कम्पन, प्रभति को बने हुए पाचक रस को अग्न्याशय रस वा क्लोम नाश करने वाला और रक, पित्तकर्ता तथा श्राम रस ( Pancreatic juice) कहते हैं। और अभियन्द का पाचक है। मद० १३व०। इस रस का प्रधान काय यह है कि यह श्राहा. अग्निस्थापनीय agni-sthapaliya-अग्नि- | रस्थ बसा ( fats) अंडे की मुफेदी के सदृश बर्दक, दीपन (stomachic.) पदार्थ (albumen) और सरेशीय पदार्थ को अग्निहानिः agni-hanih-सं० पु. ( Ind पाचनयोग्य बनाता है। igestion, loss of appetite )अग्नि अगयर. aghbara-अ० अरशर । गुब्बार भालूद, मान्ध, अजीता, अपच, मन्दाग्नि वा०नि० गर्दालूद, गुब्बारी, खाकीरंग, मटियाला-300 १३०। धूलिपूर्ण, धूसरवण) मटमैला-हिं० । डर्टी For Private and Personal Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अगमस अग्र-पर्विका ( Dirty ) ( २ )वक्षुधा सर्प के लिए (1Preceding, going the fore) एक यौगिक औषध है। अग्र-गायी agragiyi-हिं० संज्ञा पुं॰ [सं०] अनमसaghmast-अ० चेपदी उ० जिसके अगुश्रा । अग्रसर । नेत्र में ग़म्स अर्थात् चेपड़ (कोच) अाती हो। अग्र गोदम् agra.godity}-सं० क्ली० अग्यारो gyari-हिं० संज्ञा स्त्रो० सं० अग्नि (Fore-brain) अन मस्तिष्क । भेजे प्रा० अग्नि + सं० कार्य ] अग्नि में धूप गुढ़ का अगला हिस्सा। अादि सुगन्ध द्रव्य देने की क्रिया, धूप देना अग्र- चम् agra-charyana-हिं. प.) अग्र-चरणक:nga-charvanakah(१) अग्निकुण्ड । अग्र ugu-हिं० सं० पु.) (1) पल परिमाण , -सं० पु. अंग्रम् agram संक्ती० । यथा-'परिमाणेपलस्य । ( Premour teeth) सामने के दांत च'एक पल तो. के बराबर होना है। से० जिससे चबाया जाता है। रहिकं । (२) वृत आदि का अग्न भाग। अग्रजः agrn.jah-स0पु0 (1) काक विशेष (३) हिं० कि० वि० पहिले, श्रागे, श्रादि । बायस, कौश्रा (a erow) (२) भासपक्षी, आगा, सिरा, नोक,अगला हिस्सा ('The fore कौवे के समान एक पक्षी है। (३) जो भाई part of a thing, adianterior.! पहले जन्मा हो। बड़ा भाई । श्रेष्ट भ्राता । prior, first.) मुकद्दम, कुदामी-०। अनुज का उलटा । हि० वि० श्रगला । प्रथम श्रेष्ट । उत्तम । अग्र-जन्मा april-janma-T० संज्ञा ५० प्रधान | अथ० स०७ 1३ 1 काम [सं०] (१) बड़ा भाई (२) ब्रह्मा । अग्र-काण्ड agra kindiah- सपु(The अग्र-जङ्घा agranjangha सं. स्त्री० जंघानforo part of the stom ) FTSTA, - भाग, टाँग का अगला हिस्सा । The fore तने का अग्र भाग । part-of the leg ) अन कास्थि agra kāsthi-सं० स्त्री० (10- अग्र-जिह्या agra-jihvi-हिं० संज्ञा स्त्री० [स] ntal bone) ललाटास्थि, ललाट की . The tip of the tongue जिहा का अगला भाग। अन-कुम्भः agra-kumbhah-सं० पु . अग्रणी agrani-हिं० वि० [सं०] अगुभा श्रेष्ठ । (Frontal ominenco ) संज्ञा पु. प्रधान पुरुष । मुखिया । अगुश्रा, अन-कोटरमgra-kotaram-स० क्ला० (The hend) (Frontal air sinus.) अग्र-धान्यम् agra-dhānyanm-सं० क्ली. अग्र-कास्ट: agra-kotih-स०पू० (Ocb. धान्य विशेष, ज्वार, बाजरा । ___yon)| अग्र-नाडी-मस्तक agra-nadi-mastakaअग्र-कोणः -konth-स0पु0 (Ant. दिप' ललाट की नाड़ी। erior formis.) योनि का अगला कोण । । अग्र-पणी agra-palni-सं० स्त्री. (१) शूक अग्र-खण्ड agtit-khandis--हिं० पु उरोस्थि शिम्ची; कोच, किवात्र-हिं० । प्रालाकुशी-५० । के तीनों टुकड़ों में से तीसरा नीचे का पतला (Mucuna pruriens.) a plant टुकड़ा जो कौड़ी देश में दबाने से स्पर्श किया : cowhage-य० मु० । देखो-आत्मगुप्ता, जा सकता है । (Xiphoid process.) अजलोमा ( र०) अग्र-पत्रिका agra-parvika-सं० स्त्री० । अग्र-गामी gra-gami-हिं० संज्ञा पु० [सं०] । (Anterior phalaux) पोर्वान, श्र अगुश्रा, आगे चलने वाला, अग्रसर, नेता गला पोर्वा । For Private and Personal Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अग्रपाणिः अग्र- पाणि: agra-pánih - सं० पु० The fore part of the hand. हस्ताम्र, हाथ का श्रम भाग । ८२ अग्र-पादः agra-padah - स० पुं० ( Tho fore part of the foot, tocs. ) अंगुलियाँ | श्रत्र- पुप्पः agra-pushpah - सं० पु० Cal amils rotang, Linn. ( Common cane) बेंत - हिं० । वेतस वृक्ष सं० । बे गाव वं० । प० म० । To ( Flesh in the heart ) हृदय के भीतर होने वाला मांस वृद्धि रूप रोग विशेष | सु० शा० हृदय, बुक्का | ( The heart. ) अप्रया agrayá सं० स्त्री० | The three myrobalans. ) त्रिफला | अप्र· बाहु: agra-bahub - सं० पु० ( Fore arm ) कोहनी के नीचे अथवा कोहनी से कलाई तकका भाग, अग्रबाहु या प्रकोष्ठ कहलाता ! है । बाहु कोहनी के स्थान पर बाहु के ऊपर मुड़ जाती है। साइद, मिश्र सम्, कलाई अ० । श्रबाहु मूलगा पेशी agrabáhumūlagapeshi - हिं० संज्ञा स्त्री० ( Pronator vedii tores.) कोहनी से नीचे की पेशी । अग्र-बीज agra-bija - हिं० संज्ञा पुं० [सं०] ( १ ) वह वृक्ष निसको डाल काट कर लगाने से लग जाए । पेड़ जिसकी कलम लगे। (२) कलम | अब्र-भाग agra-bhaga - हिं० संज्ञा पुं० अगला हिस्सा । पहिला हिस्सा । श्रागे का भाग ( The preceding part. ) (२) सिरा | नोक । छोर । ( 'Tip,point.) अग्रभूमि agra-bhumi-हिंο संज्ञा स्त्री० | असर agrasara हिं० संज्ञा पुं० [स ं०] अप्रभुंग agra-shringa - हिं० पुं० (Anterior horn.) योनि का अगला शृङ्ग । श्रमशोची agrashochi - हिं० संज्ञा पुं० [स ं०] आगे से विचार करने वाला । दूरदर्शी । दूरंदेश | श्रप्रसन्ध्या agra-sandhya - हिं० संज्ञा स्त्री० [ सं . ] प्रभात । प्रातः काल 1 [ स ० ] घर की छत । पाटन । श्र-मस्तिष्क agra-mastishka-स० पु० ( Fore-brain ) भेजे का अगला भाग 1 श्रश्र-मांसम् agra-mansam-सं० (१) आगे जाने वाला व्यक्रि, अग्रगामी पुरुष । अगुश्रा । (२) श्रारम्भ करने वाला । पहिले पहिल करने वाला व्यक्ति । ( ३ ) मुखिया प्रधान व्यक्ति । वि० ( १ ) जो श्रागे जाए | अश्रा ( २ ) जो प्रारम्भ करे । ( ३ ) प्रधान, मुख्य । श्रग्रह agraha - हिं० संज्ञा पु ं० [सं०] गार्हस्थ को न धारण करने वाला पुरुष | वानप्रस्थ । अप्रयुन agrayúna-फा० खारिश, खुजली, कडु, खाज - हिं० | राइगो ( Prarigo ) राइटीज ( Pruritis) देखो -करडुः । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अग्रहस्तः अप्र-लम्बिका agra-lambika-सं० श्री० ( Frontal lobe. ) ललाट-खण्ड । श्रग्र-लोडय: agra-lodyah - सं० पुं० (Ma rselia dentata.) बेथुना, चिचोटक-प - हि० | चेचको, चिचोड़-मुल-ग्रं० । गुण-यह पाक में गुरु, शीतल तथा अजीर्ण कारक है । राज० । श्रग्र-लोहिता agra-lohita-सं० स्त्री० चिल्लीशाक, बेलारी - हिं० रा० नि० ० ७ । श्रग्र-वक्त्र agra-vaktra - हिं० संज्ञा पुं० [सं०] सुश्रुत में वर्णित चीर फाड़ का एक यंत्र | वि० [सं० ] श्रप्रवर्त्ती agra-vartti - हिं० आगे रहने वाला । श्रगुश्रा । अग्र-बीज: agra-vijah - सं० पुं० A vivi• parous plant as the gemphrcena globosa, etc. वीजाम वृक्ष मात्र यथा कुण्डादि । हे०च० | देखो श्रमबोज | श्रव्रोहि: agra-vrihih स• स्त्री० प्रसाचिका, नीवार | र० मा० । अग्रहस्तः _ agra-hastah सं०पु० ( The fore part of the hand.) हाथ का अगला भाग । For Private and Personal Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३ अग्लुकमा अग्रहण agrahana-हि.पु. अग्रेटम् वाटर agra tum-water-10 बड़ी अग्रहायणं ugrahāyanam-स. किश्ती । ० हैं. गा० । अग्रहायण: agrahāyanah-स.पु . अदिधिषु agredilhishu-f६. संज्ञा पु. अग्रहायन: agrahāyanah-सा अमादाय Agreliunishulk० सज्ञा पु. वर्ष का पहिला महिना । मार्गशीर्ष मास अर्थात् । [सं०] ऐसी स्त्री से विवाह करने वाला पुरुष जो अगहन का महिना। प्राचीन वैदिक क्रमानुसार पहिले किसी और को व्याही रही हो। वर्षका प्रारम्भ गहनसे माना जाता था यह प्रथा संज्ञा स्त्रो० वह कन्या जिसका विवाह उसकी श्रम तक गुजरात आदि देशो में है। पर उत्तरी। बड़ी बहिन के पहिले हो जाय । भारत में वर्ष का प्रारम्भ मैत्र मास से लेने के अप्रेटो agresto-रु० अपक्क द्राक्षारस, कच्चे दाख कारण यह महीना नयाँ पड़ता है। का स्वरस (Juice of unripe. grapes) अाँश agriisha-हिं. संज्ञा पुं० [सं० फा०ई०१ भा०1 देखो-अंगूर । ग्रोश ] प्रागे का भाग। अग्रोपाइरम् agropyrun-ले० श्वेतदुर्वा ग्रन्धि, प्रशाशन A hana- मजास सफेद दूब | Conch gyass, ( Tritiभोजन का वह अंश जो देवता के लिए पहिले | cum ) निकाल दिया जाता है। यह अग्राशन पशुओं / अग्रोपाइरम् रिपेस agropyrium depens, और सन्यासियों को दिया जाता है। ___Bear-ले० सफेद दूब । श्वेत दृर्वा । ( Coअग्रास aghrāsa-अ० सुजुल्मम्मा । अंत्री ____uch grass.) तरीय रलेमा-हि । (Mucus)- | अमोस्टिस एल्बा agrostis alba, Linn. अग्राह्य agrāhya-हिं० वि० [सं.] प्रहण --ले० सफेद दूब | श्वेत दूर्वा ( Cymodon करनेके अयोग्य, न धारण करने योग्य । अप्रिय।। ___alba) अग्रहमाीय । सुच्छ, निस्सार । ( Unarmea. अनोस्टिस डाइपराड़ा agrostis hiandra, ble.)(२) न लेने लायक (३) त्याज्य ।। ___Rort -ले. बेनाजोनी-बं० Diandrous छोड़ने लायक। ____ bent grass -ई० है० गा०1 अग्रिम agrima-हि. वि. [सं.] अग्रोस्टिस लिनीएरिस agrostis linea(.) आगे आने वाला। आगामी। (२) ris, Ror. ले० जनेवा, दूर्बाभेद । (Thre. प्रधान । श्रेछ । उत्तम । संज्ञा पु० बड़ा भाई । _ad like bont grass.) ई० हैं। गा० । अग्रिमा agrima-स. स्त्रो० लवली वृक्ष, हर अनोस्टिस साइनास्युरि ऑडीस agrostis. फरी-हि । लोणागाछ- वंश. च०। Cynasureoides-ले. दूब, हरी दूब । अग्रिमोनियम् (-या युपेटोरियम् agrimo | अश्य agrya-हिं० वि० [सं०] (Best, nium Fupatorium, Linn.-ले० शब ____foremost.) प्रधान । श्रेष्ट । संज्ञा पु० बड़ा तुल बराग़ीस, गाफ़िस-१०। (Agri भाई। mony)फा. .भो । अलफ़ aghlafa-० बेखतना, खतना न किया अग्रिमोनी ngrimony-t० ग़ाफ़िस.-अ० । हुआ, जिसका खतना न हुआ हो। अनसम. (See-Ghafis) साइड ( Uncircumcised)-10। अग्रु: agruh सो० । अग्लुकमा aghlilkuma-अ० नुनलुलमाउल अमः agrāh-सा अंगुली, अंगुश्त ___ अज़र, नजरतुलऐन सज मोतिया, नेत्र में -फा० । फिर ( Finger )-'। प्रांगुल हरित जल उत्तर माना, हरित मोतिया । यह -०। ( Bone of finger, ortoa) सब से बुरे प्रकार का मोतिया विन्द है जिसमें नेत्र अप्रेटम् रकेटिकम् agra tum-aquaticum ! पिंड कठिन हो जाता है और दृष्टि शक्ति नष्ट हो -ले०पड़ी किरती है. गा। जाती है। यदि प्रारम्भ में इसकी चिकित्सा न For Private and Personal Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ग्लेयापड्यूलिस श्रग्शयतुल् जनीन की जाय तो यह असाध्य होता है और कह | श्ररिशयद माइयह aghshiyah-maiyah ( Conching ) के अयोग्य होता है । ग्ल कुमा ( Glaucoma ) - इं० । अग्ला इसी का अस्वीकृत है | ० यात्री झिल्लियाँ-३० | जलीयावरण | देखो'निशाय माई'। सीरस नेन्स ( Sorous membranes )-ई० । श्रग्लेयाम ड्यूलिसaglain edulis, 4. gry. - ले० । लतेमहवा - नेपा० । सिनकदंग-लेप० । मी गारो की पहाड़ी तथा सिलहट में बोलते हैं इसका फल खाने के कान में घाता है । में०मी० । अग्लेयाकुमार्य aglaia kamnayuu - ले० गिरथन, शिडड़ाक, कानक-पं० । या पॉलिटेकियाaglaia polystachya -ले० । अग्लेया पालिष्टेकीन aglaia polystachi11- इं० चन्द्रपाल (-० ई० है० गा० । ग्लेया रॉग्ज़बर्ग्याना aglaia Roxburghiana,mug. Dr..लेयिंगु । अभ्र aghshara-० अश्वर । श्रग्शियह aghshiyah - ० ( ० च० ) शिशा ( ए० घ० ) कलाएँ, मिल्लियाँ, परदे - हिं० । मेरोल (Membranes ) - ई० । देखो शिशाश्रू ( कला ) । श्रग्शियहू जमीन aghshiyah-jain-o भ्रूणवरण ( Fortal membranes ) अविशय हू. जुलालियह ughshiyah-zudali yah-ग्र० श्रग्शियह् बल्गमियह, ( Mincous membranes ) श्रशिग्रह खाईयह aghshiyah mukhaãiyah--ऋ० सौषुम्नावरण ( Spinal membranes) श्रयिह बलाभिय्यहaghshiyah-balgha miyyah o प्रशियह जुला लियह, बलामी झिल्लियां, लुनावी झिल्लियां-उ० । श्वधर कला, स्नैहिक कलर, एक पतली चमकदार झिल्ली जिसकी सेलें एक चिकनाईदोर तरल ( स्नेह ) बनाती हैं जिससे संधियां चिकनी और मुलायम रहती हैं। इससे उनकी गतिमें सरलता होती है । साइनोबियल 'मेम्ब्रेन्स (Synovial mem• branes-ze 1 1 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अरिशग्रह मुख तियह, aghshiyah-muk hátiyah-श्च बलामी फितियाँ, लुआबदार झिल्लियाँ- उ० | श्लैष्मिक कलाएँ हि । म्युकस मेम्ब्र ेन्स (Mucous membranes )-इंο देखो - गश खाती। श्रयितुद्दिमाग़ aghshiya taddimagha. - अ० सहायाया - अ० । परदाहा दिवा-० दिन का झिल्लियां, दिमास के परदे उ० । मस्तिष्कीय कलाएँ, मस्तिष्कावरण टि निजी ( Meninges ) -- ' नोट - (१) यह दो सिल्लियाँ है जो मस्तिष्क पर लिपटी हुई हैं। इनमें प्रथम अंतरावरण, जी एक पतली झिल्ली है मस्तिष्क के चारों ओर लिपटी है, की उम्मरकांक ( Piameter ) कहते हैं, और दूसरी बाह्यावरण, जी स्थूल होती और अस्थियों से चिपकी रहती है, उम्मग़लोज़ ( Durameter ) कहलाती हैं | (२) यह उपयु वर्णन यूनानी हकीनों का है, परन्तु चीन देवनाविदों के अन्य के अनुसार उपर्युक्त दो झिल्लियों के अतिरिक्त एक किरती और मालूम हुई है जो उन दोनों के मध्य में स्थित है जिसे हिंदी में मध्यावरण और अरबी में अकबूat तथा अंगरेजी में थरकनॉइड ( Archanoid ) कहते हैं । विशेष विवरण यथा स्थान देखिए । श्रविशयतुन्नुखाय aghsbiyatunmukhaa ० अशियह नुखाइयह । परदाहाय नुस्खा, हुराम भाज़ के ख़िलाफ़ - उ० | सौपनावरण - कि मस्तिष्क के सहरा सुषुम्नां पर भी तीन भिल्लियाँ हैं। इनके नाम वही हैं जो मस्तिक की भिल्लियों के हैं ( Spinal membra nes ) । श्रमिशयतुल् जनीन aghshiyatul janima -- अ० अरियह, जनीन, जमीनके परदे, जमीनगर For Private and Personal Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org असान की तीन झिल्लियाँ - उ० । गर्भ कला, भ्रूणावर - हिं० फीटल मेम्ब्रेन्स (Foetal membranes.) डेसिडस ( Decidus. ) - ई० । ये तीन कलाएँ हैं जो जरायुस्थ भ्रूण के चारों थोर लिपटी रहती हैं। इनमें से धन को हिंदी में भ्रूण वाह्यावरण, अरबी में अनुक्रम और कोरिया ( Chorion ) और द्वितीय को क्रमशः भ्रूणान्तरावरण, नीव तथा जनित्रांन ( Amnion.) और तृतीय को क्रमशः भ्रूण मध्या वरण, लफ़ाफ़ी और ऐलनटाइस | ( Allantois. ) कहते हैं । श्रसान aghsán - ग्र० ( ० ० ) गुरुत ( ५० ब० ) शात्राएँ, दहनियाँ । आन्चेज ( Branches- ) - इं० श्रव agha-संज्ञा पुं० [सं० ] ( 1 ) दुःख । (२) व्यसन | श्रघनम् aghanam--सं० डी० दधि, दही - हिं० दई वं० । ( कर्ड ( Curd ) - ई० । हला० । i श्रश्रम् agham-सं० ० ( Distress ) Ex कष्ट | अ० सू० ६, २६, को० ८ । अघडांडे aghadod -ते० असा, रूस है. ( Adhatoda vasica, Ners. ), धर्म aghrmit - ० ० (not hor, cold) शीतल । श्रविषः aghavishahi-० ० सर्प, साँप (A serpent, A snake) i अघाटः aghátah--सं० पु० अपामार्ग (Achyranthes aspera Linn.) रा० श्रघाडा, -डा aghada, ra-हिं० अपामार्ग, कीवाली ( Achyranthes aspera, Linn.) श्रप्रेरन agherau हिं संज्ञा प ं० [ देश ] औ का मोटा थाटा | घोड़ी-ड़ो achori, o- गु० मार्ग | अवर aghora-सं० पु० रस शास्त्र के पूर्व श्राचार्य 'शिव' | धोरसिंह ( हो ) रसः aghoranrisimha, ho, rush सं० पु० सान्निपातिक ज्वर में प्रयुक्त होने वाला रम | देखो -- घारनृसिंहरसः । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रेश गुटिका ताम्र भस्त ง भा० लौह भस्म २ भा० बङ्ग करून ३ भा० श्रभ्रक भस्न ४ भा० तथा स्वर्ण भस्न १ भा०, पारद १ भा० गन्धक १ भा० शु० मैनसिल : भा० शु० त्रिष २ भा० त्रिकुटा २ भा० श्रथवा समस्त वस्तु समान भाग ले और बिन सब से द्विगुण ले इन्हें चूर्ण कर मछली, भैसा, और मोर के पित्त तथा चित्रक के रस में पृथकू २ एक २ पहर वोटे, पुनः सरसों बराबर गोलियां बनाए, धूप . में सुखा कर रक्खे, इसको जल के साथ खाने से तेरह प्रकार के सन्निपात, विसूचिका, प्रतिसार विशेष जन्य बांसी, त्रिदशेप ज्वर, इत्यादि दूर होते हैं । इस पर दही घौर शीतल जल का पथ्य देना योग्य है । अघोर-मंत्रः aghora-mantrah-s० पु० ॐ द्यावोरेभ्यश्च घोरेभ्यो घोर घोर तरेभ्यश्च । सर्वतः सर्वसर्वेभ्यो नमोsस्तु रुद्र रूपेभ्यः ॥ 'इस मंत्र-से रस क्रिया की सिद्धि होती हैं । भै० र० mai te: aghorastrorasal-tio पुं० शुद्ध पारा, शु० गंधक, शु० बच्छनाग, शु० हरताल, शु० संखिया, सोहागा, तांबा ( भस्म ) और शु० नीलाथोथा इन्हें समान भाग लें खरल मैं वारीक घोट रक्खें । मात्रा - १ रत्ती । गुण-यह सम्पूर्ण सन्निपातों को दूर करता है । योगेश गुटिका aghoreshagutika-स ं० स्त्री० मुरड लोह ( बीड़ लोह ) की कड़ाही में ऊपर और नीचे धान की भूसी रख कर बीच में पारा रक्वें । फिर जामुन के रस मे उस कड़ाही को पूर्ण कर १ रात तक रहने दें। प्रातःकाल जामुन रस अलग करके दिन में कड़ाही को सुखाकर फिर सायंकाल पूर्वक विधि से पारे को रख दें। फिर इसी तरह ३ रात तक उक्त नियम से पारे में भावना । फिर समान भाग चक्र मिलाकर कजली बनाएँ। फिर इसका १ गोला बनाकर धतूर के फल के भीतर रख पुटपाक करें, इसी तरह ७ पुटपाक करें। फिर उस गोले पर धतूर के गाढ़े रसका लेप चढ़ा कर भङ्ग के लुगदी में बन्द करके भङ्ग के इसमें दोला यंत्र में पकाएँ । For Private and Personal Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir সমাপ্ত क इसी तरह अफीम का लेप चढ़ा कर पोस्ता के प्रतिः ankatih-स. पु., (.)(wind) पानी में दोला मंत्र में पकाएं, फिर तीसरी वार वायु । त्रि०(३) Fire अग्नि । वि० । मच में पकाएँ सो यह गुटिका सिद्ध होती है। अनः ankanah-स. पू. अंकोल, कोटवृष, इसे केले के कल, गुड़ अथवा किसी मीठी वस्तु हेरा। श्राङ्कोर गाल-वं०। (Alangium के भीतर रस्त्र कर मुह में रक्खें, जब तक यह ! decapetalium, Lam.) वै० श०। मुंह के अन्दर रहेगी धीर्य स्खलित न होगा। प्रवनम् ankanam-स. ली. (Muk) इसके प्रभाव से 100 स्त्रियों से भोग किया जा ! चिहु । सकता है। र० यो0सा01 भना ankana-हलिखना, छापना, मोलभाव अघोष aghosha-हिं० वि० [सं०] (1) शब्द : करना, चित करना । रहित । नौरव । (१) अपवनियुक्त। अङ्गपादम् ankapādam-स0 को०, (.) अनाaghnā सं०खा० गाय,गऊ गो, गह-ब०। पाइपिझ, पैर का निशान ( Footprint.)। मघ्या aghuya-स. स्त्रो. गवि, गाय। (२) छागणाधवयव विशेष । या० सू०१६ (Cow)-01 गाभी-यं०। भ्र०। अधान aghrana-हि. संना '. [सं० माघ्राण] : अङ्गपाली ankapāli ) स. खो०(1) प्रामाण करना ग्रहमा माईक लेने की अपालि: ankapalih ) (Midwife.a क्रिया । सूधने का कार्य। murse ) धाय, धान, दाई । (२) वेदिकाख्य भवानना aghranana हिं० क्रि० स० [सं० : गन्ध दम्य विशेष, यथा-'धात्री वेकियोरपि । प्रामाणे ] साम्रास करना । महक लेना। मेलं चतुष्क। (३) Embricing, an embra.c) प्रालिन । मे। मधना। अप्रेय aghreya-हिं० वि० [सं०] न सूधने - अपालिका anka-pālikā ) हि. स्त्री० पाली anka pali संहास] योग्य । Midwife धातृ । देखो-ग्रंकपाली। op anka-ficogo 1 () (Limb of į. अङ्क: ankah-स.पु.j the body ) । अङ्कय aanakaba-१० (A kind of शरीरावयव, भंग। काल-4 fish)मबली भेद । एक प्रकारकी मछली है। रा.नि. व. १ ० चि.७०(२)चिह, ! अङ्कसूत् aaukabuta-० (A spider) निशान, बार ऑक, रेखा (Mark Spot.| मकड़ी, द्रणेनाभि शेर मगस-फा। a line. ) 'अतिथ्यह, aanka butiyyah-J० मकड़ी (३)Sin पाप । Pain दु: । मे द्वि के जाले का सा परदा । नेत्र का चतुर्थ पटल | कम् । देखो-तबकहे अतिव्यह। (.) number आँकड़ा, अदर, संकेत, अङ्कमाल ankamāla-हिं० पु. संशा [सं०] संख्या का चिह, जैसे-1, २, ३, ४, ५ श्रादि। __प्रालिंगन, भेंट, परिरभण, गले लगना । (१)शरीर, देह, अंग। अङ्कमालिका ankamālika हि. स्त्री० संज्ञा भाडास Ankadisa-ते. ( Leea sty- [सं.] phylea ) (L. Sambucina, willd. | () छोटा हार, छोटी माला। Staphylea Indica ) कुकुर जिहा, (२) प्रालिंगन, भेंट । कुकुर जिला । ई० मे० मे। करा ankari-हि. प. संज्ञा [ सं. भाड़ो ankaxi-हि. खी० संज्ञा [ स० अंकुर] (1) एक खर वा धान्य जो गेहूं अंकुरबुमा, टेडी नोक] (1) टिया, के पौधों के बीच जमता है। इसे काट कर देखों हुक । (२) बेल, लता। को खिजाते हैं और इसका माग भी पाते है। For Private and Personal Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अङ्करास इसका दाना वा बीज काला, चिपटा, छोटी मूंग के बराबर होता है, और प्रायः गेहूं के साथ मिल जाता है। इसे ग़रीब लोग खाते भी हैं। खेसारी इसी का एक रूपान्तर है । अँकरा । अड्ड्डु-मासु-amkudu-mánu- ते०प०व० अङ्करास ( ankarása ) - हिं० प० संज्ञा । । महुहु-चेद्लु-amkudu-chetlu-००० देखो - प्रकरास | अँकरास | अँकरो (ankari ) हिं० स्त्री० संज्ञा [ अंकरा का स्वार्थक प्रयोग ] A kind of vetch ( Vicia Sativa ) श्रकरी, रवाड़ी, राड़ी । अङ्गलिगे (aukalige ) - फना० अंकोल, डेरा (Alangium decapetalum, Lam.) स ं०, प०, चिचोड़ (चिनो अङ्काय ankáva-हिं० पु०, निरख, दर, माल का व्हराय ( Valuation ) अङ्कित ankita चिह्न किया हुआ, मुद्रित, चिह्नित (Marked, examined, valued, paged.)। 62 फ० इ०२ भा० । अङ्कलेख्य ankalekhyah अङ्कलोड्य ankalodya अङ्कुड्डु विडु-amkude-vittul:- ते० टक) वृक्ष - हिं० बैंचको मूल-खं० | (Marsilea का इन्द्रजौ, इन्द्रव तिन-हिं० | Holarrdentala ) बैं० श० | देखो-अमलोड्यः । hena anti-dysenterica, R. BR. अङ्कुशः ( ankshah ) सं० पु०, क्रोस्थ seeds of-)। स फा० ६० । बालक | कोलेर ऐले- बं० । अङ्कुरः ankurah सं०० ) ( A pla - अङ्का,-ङ्की (anká,-nki ) - स ० स्त्री० मृदङ्ग | अङ्कुरम् ankuram सं०ली० f ntlet, a विशेष | शब्द | र० १ अङ्काना (ankana ) - हिं०, परखना, जैखवाना, दाम कुतवाना ( To cause to value, to examine 'as cloth, to app rore of ) seed-bud) अङ्कारक तैलम् ankáraka-tailam? सौं० भङ्करा तैलम् ankára-tailam ली० । देखो अङ्गार तैलम् | अङ्कुड्डु ankudu ते० कुडा, कुटज, कुरैया Holarrhena anti-dysenterica, R. Br.) स० [फा० ई० । श्रृङ्कुड्डु कर्र _ankudu-karra - ते० गम्बीर मा० ( Uncaria gambier, Road. wood of - ) स० [फा० ई० । अड्डु कोडिश ankudu-kodisha ते० Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अङ्कुरकः काड - वित्त लु । मीठा इन्द्रयथ, इन्द्रजौ । Wrightia tinctoria, &.Br. (seed of-) | स० [फा० ६० । श्रृङ्कुड्डु चे amkudu-chettu-ते०ए०य० श्रृङ्कुडुमाजुलु ankudu-mánulu-लेय.व. कुड़ावृष, कुटजत्रुच, कुरैया । स० [फा० ई० । Holarrhena_anti- dysenterica, R. BR. ( 'free of -) अङ्कुडु-वित्तु amkudu-vittu - ते० ए० ६० अकुंडु - वित्तममुलु-amkdu-vittanamulu ते० ० ० । अंकुर, अँखुआ, गुसा, गाभ, नवोद्भिद, प्ररोह, फुनगी । वा० उ० ३६ श्र० । पांक-२० । संस्कृत पर्या०-अभिनवोद्भिद् (श्र, मे) उद्भिदः, पुरो:, अकुरः ( रा ) रोह: (हे ) । ( २ ) A shoot or sprout, a gerin, a blade. डाभ, कल्ला, कनला, कोपल, प्रां । ( ३ ) मुकुल, कली ( Bud ) | ( ) (sharp) नोक | swelling अर्बुद, शोध । ( १ ) villi अंकुर (अवरा के ) ( ( ) Blood रुधिर, रक्र, खून। ( ७ ) hair शेत्रों, लोम । ( ६ ) water ( Aqua ) जल, पानी । माँसके बहुत छोटे लाल लाल दाने जो घाव भरते समय उत्पन्न होते हैं। मांस के छोटे दाने । अंगूर | भराव। (१) फल Fruit सर्व्वत्र मे० रत्रिक ं । ( 10 ) Tumour. अङ्कुरआना ankuraáná-उगन जमना ह ( germinate, sprout ) अङ्कुरकः ankurakah - सं० पु० पचिवास स्थान, घोंसला, खोंना ( a nest ) बैं० श० । १० For Private and Personal Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रा मात्रकम् अङ्कोट गुटिका अङ्कर मात्रकम् ankura-inātra kaun : अङ्कशिन ankushin-स. त्रि० ( Having o Fajo (radimentary) a hook or goad. ) अङ्कुरना arkirani ) हिं० कि० अ० ! अङ्कुशन ankushta-फा० कोयला | असा ऑफिसिनेलिस anchusa officin. अकराना alkilana) ०श्र कुर a lis ले. गावजुवान । Germinate, shront उगना, जमना, रुह.! असा टिकटारिया anchus tinctorii, अङ्कर-विशिष्ट-आवरण ankita-vishista- ! - Desn.-ले एक पौधा है जिसका तैल औषधि áv rana कार्य में आता है । मेम। अङ्करित ankuriti-हिं० वि०, अंकुर सहित | अङ्गा,- kira-kum-स. पु. अकर gat amat ( Having sprontis ) asprout, a germil हे० च०४ का० । अँखुबाया हुना। उगा हुअा। जमा हुआ। | अइलंग ankulung-ता० श्रश्वगंध, असगंध, निकलाहुा । जिसमें अंकुर होगया हो । (२) ( Withania somnifera, Danul :) उत्पन्न, उगा हुमा (arisen) अङ्गलिया :nkuliya) . अङ्करित यौवना ankuritha-youvanā- अङ्कली aukuli -गु० डेरा वृक्ष । हिं० चिं० [सं.] वह स्त्री जिसके यौवनावस्था अयः Ankusha.h-सं० पु० अश । के कुच आदि चिह निकल पाए हों। उभड़ती अङ्करिया गैश्वियर Uncarin Gantbitl, हुई युवती । श्री जिसकी उमड़ती जवानी हो। Roab. ले० खदिर कत्था वृक्ष, खैर वृक्ष, चीनी अङ्करी ankuri हिं. स्त्री० संज्ञा [हिं० कथा (Funbitr-ई. में० मे । अंकुर+ई] चने की भिगोई हुई धुधनी। अकैरिया गंम्बार ( mcarin Gambir, अङ्कल ankulu ) हि० पु. सना [सं० __Ro.ch. ( Wool oi-) अंकुडुकर-ते० । अङ्कले ankule ) अकोल ] alangium अङ्कोएड tankaari) देरा, अंकोल ducapitalun, Ltm. अकोल, ढेरा। श्रङ्कोएल umkoel) गम्भीरी-मल० । स० अशः ankushah-स'० पु. (१) फा. ३०alangiunm decapetalum [ Hamulal process ] | पं० शा ह० ई० मे० मे। श० र० १ भ० । (२) ऋणि सं० । डाइश वं० अङ्कोटः, ठः ankotah, thah-स. पु. हला० श० स०, ग्रांकुश, अंकुश, A hook | अंकोल, अंकोटक वृत्त, ढेरा (Alangium on goall अांकड़ी, लोहे का एक छोटा श ecapetillum, Linu. ) रा०मा० (सु. वाटा काँटा जिससे हाथी चलाया जाता है ।। मि० अ० ३६) भा० पू० १ मा०, गजबार्ग। गु०व०। अकश कास्थि Rikushasthi-स. स्त्री० | श्रङ्कोटक: a1nkotaka h-स० ० ढेरा, (Hamate ) अकोल । कोइगाछ, धला आँकोड-बं० । अशदन्ता ankusha-danta-हिं० वि० (alangium Decipetalum) भा०। [सं० अंकुश दन्त ] हाथी का एक भेद । रा०प० । मद० २०१। ऋ० च० द. इसका एक दाँत सीधा और दूसरा पृथ्वी की पोर अन्सा-चि०। भुका रहता है। यह और हाथियों से बलवान | अङ्कोट गुटिका askota-gutika-सं० स्त्री० और क्रोधी होता है तथा झुण्ड में नहीं रहता। ढेरे को जड़ ४ तो०, पाठा की जड़ ४ इसे गुण्डा भी कहते हैं। ___तो. दारुहल्दी ४ तो इन्हें चूर्ण कर प्रशदुर्धर ankusha-dudhala-हिं० चावल के जल से घोटकर १-१ तो. की गोलियाँ पु० संज्ञा [सं०] मतवाला हाथी | मत्तहाथी। बनाकर छाया में शुष्क कर रक्खे । इसे चावल के For Private and Personal Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अकोट वटकः अदाल धोवन से उपयोग करे तो वात पित्त कफ और द्वन्द्वज सन्निपात तथा प्रत्येक प्रकार के अतिसारों को दूर करता है। अकोट वटकः ॥mkota-vacakah-सं० पु. दारु हल्दी, हरे को जड़, पाश की जड़ ( निधिपी मूल ), कृडा की छाल, सेमल का गोंद ( मोचरस ) धातकी [धौ पुष्प] लोध, अनार का छिलका प्रत्येक १-, तो० लें, इन्हें चावलों के पानी में पीस कल्क कर शहद के साथ बड़े बनाएँ पुनः इसे प्रभात में सेवन करें तो हर प्रकार के अतिसार दूर हों। चक्र० द. अतिसार० चि०, बङ्ग से। स अति. सा. त्रि अकोढ़ ankodha-हिं०, ढेरा, अंकोल (Ala nginu Duca petalun), 1 m.) श्रङ्कोरना ankorama-अकोरना, घूस लेना, । __ भूजना। अङ्काल ukola-हिं० पु. प्रकोला, अङ्कल, अकोलः ankolah-सं० पु. काला अकोला टेरा, ढेरा, थैल, अङ्कल-हि०, द० । संस्कृत पर्याय-"अक्कोटो दीर्घकीलः स्यादकोलश्च निको. चकः” । अकोटः, दीर्घकीलः, अकोलः निकोचकः [१०] निकोटकः, [भ], अकोटकः [ भा०, रा०नि० ब०६] अकोलकः बोधः, नेदिष्टः दीर्घकीलकः (ज) अोठः, रामः (र)कटोरः, रेची, गूढपत्रः, गुप्तस्नेहः,पीतसारः, मदनः, गूढवालिका, पीतः, ताम्रफलः, गणायकः, को. लकः, लम्बकर्णः, गन्धपुष्पः, रोचनः,विशालतैल, गर्भः,वषघ्नः,घलन्तः, कोरः, वासकः और लम्बकर्णकः, लम्बपर्णः । प्राँकोण, घलाँकोण, धला कुरा, कोद गाछ, अकरकाटा, बाधाङ्कर, बाघअकरा-चं० । एलेजियम डेकापेटेलम् Alangilun dicapetalum,Lam.एले०लेमाकिमाई A. Lainatck ii, Thtotuites. पले० टोमेन्टोसम् A.Tomsntosum-ले० सेज लोहड एलेजियम Saga-lerved alaingitum ई० ! अजिजि मरम्, अलङ्गी ता। उडुग, (अडुगु) चेह, अकोलम् चेडर उडीके-ते०। अयोलम. अजिजि-मरम.चेम्मरम्, अटोलम्-मल। अकोले, कोपोटा, अनीसरूलीमरा-कना ! अङ्गोल, अगोल-सिं० त० शो०-बिड्या, तो शौविड-वर० । अकोलीवृक्ष, आकुल-म० । अकोल्या, ओंका-गु० । डेला-सन्ता० । अकोल-कोल। अंकुला-डोलूक -उडि० । रुक अङ्गुला-सिंहली । कॉर्नेसीई या श्रङ्कोट वर्ग N. O. Cornaceae. उत्पत्ति स्थान-इसका पेड़ हिमालय की घाटी से गंगा तक, सयुक्र प्रान्त, दक्षिण अवध व विहार, बंगाल प्रभूति प्रान्तों के बड़े और छोटे जंगलों में पहाड़ी जमीन पर बहुसायत से पैदा होता है । राजपूताने में भी पाया जाता है । उप्ण. कटिबन्ध में स्थित दक्षिण भारतवर्ष और बर्मा के वों और कभी कभी बगीचों में पाया जाता है। माध से चैत्र तक अर्थात् प्रारम्भिक प्रीष्मकाल में यह पेड़ फूलता फलता है । पुष्पितावस्था में वृक्ष पाशून्य रहता है। वैशाख से सावन तक फल लगते और पकते रहते हैं। इतिहास-चूंकि यह भारतीय पैदावार है इसलिए इसका वर्णन सभी प्राचीन आयुर्वेदीय ग्रंथों में पाया जाता है। यूनानी चिकिरसा ग्रंधों के लेखकों में पीछे के लोगों ने अपनी पुस्तकों में इसका वर्णन किया है। वानस्पतिकवर्णन-यह एक जंगली वृक्ष है जो चनों में तथा शुष्क व उच्च भूमि पर अधिकतया उत्पन्न होता है। अचाई भिन्न २ साधारणतः लघु, प्रारम्भ में कंटक रहित, पुराने अथवा युवा वृत्त के प्रकाण्ड से निकलती हुई पार. म्भिक शाखाएँ भी कांटा रहित होती हैं। उद्भिद विद्यानुसार श्रङ्कोट कंटक को कंटक नहीं कहते किन्तु तयुक्र शास्त्राओं को ती दणाम शाखा कहते हैं । पत्र-एकान्तरीय अर्थात् विषमवर्ती, अण्डाकार व नुमा अथवा तंग अण्डाकार ३-५ इंच लम्बा और १-२॥ इंच चौड़ा, चिकना डंठल युक्त होता है । डंठल-लघु, अत्यन्त सूचम रोम, युक्र, लगभग चौथाई इंच लम्बा होता है । पाप For Private and Personal Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अकोल अङ्काल मध्यवर्ती, सूक्ष्म, सुगन्ध युक, पीताभायुक, श्वेत साधारणतः कक्षीय, बृन्त युक्र । पुष्पवृन्त-लघु, सामान्य । पुष्प-वाह-कोष (Culyx) • ऊर्चगामेय, देशाकार, लघु, स्थायी । पुष्पाभ्यन्तर-कोष ( Corola) बहुदलीय । पुष्पदल-अर्थात् पंखड़ियां ६ से १०, अण्डाकार, न्यूनाधिक उलटी हुई। परागकेशर-पुष्पदल से | द्विगुण । परागतन्तु का निम्न भाग लोमरा । पराग कोष-अण्डाकार । गर्भकेशर-सामान्यतः परागतन्तु से अधिक लम्बा होता है । फल-लगभग छोटे रोम अथवा जंगली बेर के बराबर, गोलाकार चिकना, झुका हुश्रा, अपक्क दशा में नीलाहट लिए और कबुवा तथा पकने पर रक वर्णयुक्त (इन पर स्याही झलकती है) जिसके शिरे पर -पुष्प-बाह्य कोष लगा होता है, एक बीज युक्त सूक्ष्मतः ग्राह्य तथा मधुर स्वाद युक्र, गदराहट को हालत में स्वादम्ल होता है। बीज-गोलाकार ऊपर नीचे कुछ चपटा कोर और धूसर वर्ण मय होता है। इसकी जड़ वजनी, लकड़ो मजबूत हलकी पीलापन लिए हुए, बीच का हिस्सा वादामी रंग का होता है। जिससे सुगन्धि श्राती है। परीक्षा-इसे तथा छाल को परजोराइड श्राफ श्रायन घोल का स्पर्श कराने से ये मटनेले हरितवर्ग में परिवर्तित होजाते हैं। इसकी छाल प्राध इंच तक मोटी, खाको रंग की जिसके ऊपर छोटे २ कोटे से मालूम होते हैं । स्वादतिक और गन्ध अधिकतर मतली कारक ( उत्प्रेश जनक ) होती है। नोट-देशी वैद्य तथा श्रीषध विक्रेता सफेद । तथा काले नाम से इसके दो भेद बतलाते हैं। इनमें श्वेत प्रकार वही है जिसका ऊपर वर्णन किया गया है। परन्तु डाक्टर मोदनशरीफ महो. व्य के कथनानुसार काला उसका भेद नहीं, जैसा कि सर्व साधारण का विचार है, वरन् यह उसी की एक निकटस्थ जाति अर्थात् एलेञ्जियम हेक्साफ्टेलम् Alangium Hexape talum of Lanarck है । वे इसे अडोल का काला भेद इस कारण बतलाते हैं कि यह उससे रंग रूप में बहुत कुछ समानता रखता है। उसके फूल का ग बैगनी और छाल गम्भीर धूसर वर्ण की होती है। इसकी छाल परिवर्तक तथा विषघ्न प्रभाव में किसी-किसी स्थान में उत्तम ख्याल की जाती है और इसमें कभी कभी धान्ति कारक गुण होने का निश्चय किया जाता है। खो--कालाअकोला । प्रयोगांश-मूल, मूलत्वचा, श्रीज, फल, पत्र, पुष्प और तैल । रसायनिक संगठन-इंस की जड़ में एक अत्यन्त तिक, रवा रहित प्रोटीन या एलेन्जीन (Alangin ) नामक हारीय सत्व वर्तमान होता है जो हलाहल ( Alcohol), ईथर लोरोफ्राम और एसेटिक ईथर में तो विलेय होता है परन्तु जल में अविलेय। गुणधर्म व प्रयोग-आयुर्वेदिक मतानुसारअकोल चरपरा, तीक्ष्ण, स्निग्ध, उष्ण, कौला, हलका तथा रेचक है और कृमि, शूल, ग्राम, सूजन श्लेष्मा (कहीं कहीं 'ग्रह' पाउ है) और विष नाशक है । भा० मद० २०११ विसर्प, कफ, पित्त, रक, मूसा तथा सर्पविष को दूर करता है। भा. देरा-कसैला, कडुवा, पारे को शुद्ध करने वाला, हलका, चरपरा, किञ्चित् सर (दस्तावर), स्निग्ध, तीक्ष्ण, गरम और रूक्ष है। (नि. रा.) विसर्प, कफ, पित्त, रुधिर-विकार, तथा सांप और चूहे का विष दूर करता है। अकोल का फल-शीतल,स्वादिष्ट, कफनाशक, पुष्टि कारक, भारी, बलकारक, रेचक है और वात, पित्त, दाह, जय और रुधिर विकार को नाश करता है मद० व. १ भा०। विप, लूना ( मकड़ो) श्रादि दोष नाशक और वात कफ नाशक तथा शुद्धि करने वाला है। रा०नि०व० । च० द० अ० सा० चि०। अकोल का रस -वाम्ति जनक है तथा विषविकार, कफ, वात-शूल, कृमि, सूजन, प्रहपीड़ा, प्रामपित्त, रुधिर विकार, बिसर्प, कुत्ते का विष मूसे का विष, विलाव का विष, कटिशूल, अप्तिसार और पिशाच पोड़ा को दूर करने काला है। _(वृ०नि० २०) For Private and Personal Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अकोल अकोल के बोज--शोतल, धातुवर्दक, स्वादिष्ट मन्दाग्नि कारक, भारी, रस और पाक में मधुर, बलकारक, कफ कारी, सारक, स्निग्ध, घृष्य | ( वीर्य बर्द्धक) तथा दाह, वात, पित्त, सय, रक्र विकार, कफ, पित्त और विसर्प को नाश | करने वाले हैं। नि. रा०) अकोल का अर्क-यूल, श्राम, सूजन, अङ्गग्रह और विष को नष्ट करता है। अङ्काल तैल-इसको पूर्व वैद्य एवं महर्पियों ने वात कफ नाशक और मालिश करने से चर्मरोग नाश करने वाला कहा है (वै निघ०) श्रङ्कोट के वैद्यकीय प्रयोग--(१) दन्तकापट- । गन-विष में अकोटमूल-दन्तकान्ट विषयुक | होने पर जिला एवं दांत पर भैल जम जाता है ! और पोष्ट सूज जाता है । इसके प्रतीकारार्थ ! अकोट की जड़ की छाल का चूर्ण प्रस्तुत कर शहद । के साथ शोथ स्थल पर धीरे धीरे रगड़ें वा प्रलेप करें । ( कल्प० । अ०) (२) विषेले अन से नेत्रों में अन्धता उत्पन्न होने पर अकोल के फूलों का प्रञ्जन नेत्रों में लगाने से अन्धता दूर होती है। (कल्प० १० सुश्रु०) अकोल की जड़ की छाल बकरी के मूत्रमें , पीस कर पीने व लेप करने से चूहे का विष नष्ट होता है। (वा० उ०३०प्र०)। इसकी जड़ की छाल गो दुग्ध के साथ पीस कर पीने से कुत्ते का विष दूर होता है। (भाव० म० ख०४ भा०)। (1) अकोट की जड़ की छाल का क्वाथ प्रस्तुत कर, इसका धन सत्व तैयार कर गो पृत | के साथ सेवन करें। इसके सेवन से पूर्व रोगी के | शरीरको तिल तेल मर्दित कर स्वेदित करलें, यह गरदोष नाशक है (विष. चि.) नोट-उपविष सेवन जन्य उपद्रव को गरविष नोट--यह मात्रा अधुना प्रयोजनीय नहीं। यतन्य चरक में अंकोट के फलका गुण इस प्रकार लिखा है- "श्लेष्मलं गुरु विटंभि चाङ्कोटाफलमग्निजित्" (स. २१ अ.) । चरकोक्त विष चिकित्सा के अमृत धृत करक "पाया. कोटाश्वगन्धा" पाड में अकोट का व्यवहार दिखाई देता है । इससे भिन्न और समस्त विष चिकित्सा में अकोट शब्द नहीं पाया है। सुन ने कल्प स्थान के छठवें अध्याय में चूहे तथा कुक्कुर प्रादि के विष की चिकित्सा लिखी है। सुबत के श्वविष चिकित्सा में श्रङ्कोट व्यवहत नहीं हुआ है, किन्तु मूषिक विष चिकित्सा में चूहा कारे हुए रोगी को वमन कराने के लिए अकोट का प्रयोग किया गया है-छमें जालिनी काथैः शुकाख्याकोट योरपि" क०६० अकोट का एक नाम वामक है । चरक के विमान स्थान के ८ में अध्याय एवं सुश्रु त के सूत्र स्थान के ३६ वें अध्याय में विरेचक तथा बामक द्रव्यों की तालिका है। उस तालिका में अङ्कोट का नाम नहीं है । चरक और सुश्रुतोक्त कुछ, अतिसार एवं ग्रहणी की चिकित्सा में अंकोट का नामोल्लेख नहीं है। सुश्रत के अश्मरी चिकित्साध्याय में अंकोट के फल का उल्लेख है । "पिचुकाङ्कोल कतक शाकैन्दीवरजैः फलैः । चूर्णितः सगुई तोयं शर्करानाशनं पिवेत्" (चि०१ अ०)। निघंटुकार अकोट को फलको “गुप्तस्नेह" बोलते हैं। . चरक के सूत्रस्थान के १३ वें अध्याय एवं सुश्रत चिकित्सा स्थान के ३१वें अध्याय में उक्त स्थावर स्नेह योनि फलों में अङ्कोट का उल्लेख नहीं है । निघंटुकार अकोटका एक नाम "रेची" लिखते हैं, किन्तु उत्वण प्रोटको "संग्राही" कहते हैं। चक्रदत्त व वंगसेन दोनों ने ही अतिसार की चिकित्सा में अकोट को संग्राही रूप से व्यवहार किया है। वास्तव में अङ्कोट रेची है या संग्राही इसकी परीक्षा करनी श्रावश्यक है। .. अकोलके सम्बन्धमें यूनानी मतप्रकृति-यूनानी प्रन्थकार इसे पहिली कक्षा में इसकी मूल स्वचा का चूर्ण १ तो. चापलों के साथ पीस कर सेवन करने से अतिसार और | संग्रहणी में लाभ होता है (च. द० अतिसा.चि.) For Private and Personal Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवाल গান [किसी किसी के मत से दूसरी कक्षा में ] गरम उन छाल को कुछ कुष्ट रोगियों को प्रयोग तर मानते हैं। कराया और अनेक दशानी में मैंने इसे २॥ रत्ती हानिकर्ता-श्लेष्मा अधिक उत्पन्न करता है। की इतनी कम मात्रा में भी वामक प्रभाव युक दर्पन्न--काली मिर्च और शीतल व रूक्ष वस्तुएँ । पाया। अधिक मात्रा (अर्थात् २५ रत्ती) में प्रतिनिधि-किसी किसी रोग में कुकरौंधा है। उपयोग में लाने पर यह योग्य और वेज़रर मात्रा-४ या ६ मा० तक । विशेर प्रभाव--- ( अहानिकर ) बामक तथा थोड़ी मात्रा में विषघ्न व शोथलय कर्ता, हृदय को बलप्रद, उरफ्रेश कारक और ज्वरघ्न औषध सिद्ध हुआ। करता, कफ और वायु के विकारों को इससे भी न्यून मात्रा में यह भारतवर्ष की हरण करता, उदर की पीड़ा को हरण सर्वोतम परिवर्तक, बलप्रद औषधियों में से है। कृमिघ्न, और इसकी जड़ के छाल का चूर्ण इसकी स्वचा अत्यन्त निक है, अतः स्वचा मा० काली मिर्च के साथ बयासीर को बहुत रोगों में इसकी प्रसिद्धि बिना श्राधार के नहीं । गुण कारक है। यदि इसको पर्याप्त काल तक लगातार उपयोग - इसके अत्यधिक उपयोग से श्रामाशय निर्बल में लाया जाय नो मदार की अयेता उन पर होजाता है, और शिर में झनझनाहट के साथ इसका प्रभाव अधिक होता है। मी दर्द शुरू हो जाया करता है । गुदा स्थान वे पुनः वर्णन करते हैं कि यह इपिकेकाना में जलन मालूम होती है । नेत्र पीले पड़ जाते है ( Ipecncuinha) की एक उत्तम प्रतिनिद्रा कम पाती है। एवं मस्तिष्क कार्य करने निधि है और प्रवाहिका के अतिरिक्र उन समस्त को इच्छा अधिक बढ़ जाती है। ऐसी अवस्था रोगों में लाभदायक सिद्ध होता है, जिनमें कि होने पर शंखपुष्पी चूर्ण ४ मा० दुग्ध पावभर इपिकेकाना व्यवहत है। में उबालकर रंगा करके स्वाद के अनुसार मिश्री ज्वरन तथा स्वेद जनक होने के कारण ज्यर . मिलाकर पिलाने से तत्काल समस्त विकार नष्ट होते हैं । जड़ उष्ण और चरपरी होती है । फल नष्ट करने में यह उपयोगी पाया गया है। ठंडा पौष्टिक शरीर को मोटा करने वाला होता उरक श कारक, मूत्र जनक और ज्वरध्न प्रभाव है। यह श्राहार कार्य में प्राता है। किन्तु अधिक हेतु इसकी जड़ की छाल की मात्रा ३ से ५ रत्ती माने मे गरमा मालम होती है। तक और परिचर्नक रुप से १ मे ॥ रत्ती तक अकोल के विविध अंगों के अनेक उत्तम है। यह कृष्ट एवं उपदंश में प्रयुगा हानी है । उपयोग: देशी लोग इसे विशेषतः विषैले जानवरों के काटने में विषध्न खयाल करते हैं । श्रकोल को जड़ तथा छाल-देशी चिकित्सा | में इसकी जड़ की छाल रेचक तथा कृमिघ्न श्रीपधि-निर्माण-अकोलचूर्ण-जड़ की छाल प्रभाव के लिए उपयोग में श्राती है। वम्बई में साए में सुखाकर चूर्ण कर बारीक छान लें और संधिवात की पीड़ा को शमन करने के लिए इसके बोतल में सुरक्षित रक्खें। मात्रा-वमनहेनु २५ पत्तियों का पुलटिस व्यवहार में श्राता है। रत्ती, (५० ग्रेन)। ( मो० श०) (डाक्टर सखाराम अजुन) इसकी जड़ की छाल चावल के पानी में घोट मि. मोहीदीन शरीफ़ के वर्णनानुसार उक कर धोड़ी से शहद के साथ अतिसार में बरती श्रोषधि कुछ एक गुप्त योगों का, जो वीर्य रोग | जाती है । श्रामातिसार और रक्रातिसार में मूल स्वचारोग तथा कुष्टरोग की चिकित्सा में अकोट स्वचा का चूर्ण ५ रत्ती दिन में २-३ बार सेवन तथा बैलौर प्रभति स्थानों में अत्यधिक प्रचार | कराना चाहिए। पा चुके हैं, एक प्रधान अवयव है। और वह | यह नित्य ज्वरों में भी उपयोगी है। ज्वर स्वानुभव का वणन करते हए कहते हैं कि मैंने की अवस्था में २० से ५ रत्ती देने से स्वेद आकर For Private and Personal Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अङ्गाल ज्वर वेग कम हो जाता है तथा नृपा, दाह आदि ज्वर के उपद्रव शमन होते हैं । इसकी जड़ का शीत कपाय तथा क्वाथ घी के साथ श्वान त्रिप नाशक है। यह उदर शूल, कृमि, प्रदाह और सर्पदंश ( २॥ मा० छिलके का चूर्ण) प्रभृतिवियों को शमन करने वाला है | इसकी मूल खचा द्वारा निर्मित तेल का संधिवात में वाह्योपयोग होता है। कम मात्रा में यह रसायनिक गुणों को करता है । I मसूड़े और श्रोष्ठ सुजने पर मधु के साथ प्रलेप करने अथवा इसके काढ़े से कुल्ली करने से लाभ होता है एवं मसूदों से खून बहना च होता है । यह विसूचिका नाशक है तथा कूकर air की प्रथमस्था में प्रयोग करने से लाभ करता है । जलोदर में जब के चूर्ण की १॥ से ३ al की मात्रा देने से दस्त होकर रोग दूर होता है। जीण नष्ट होता है । दर्द और शोथ पर जड़ को पीसकर लेप करने से फायदा होता है । जड़ के छिलके का चूर्ण सेवन करने से दस्त होकर पेट के कीड़े दूर हो जाते हैं ! छिलके का चूर्ण' १ माशा, काली मिर्च का चूर्ण १ प्रा० दोनों को मिलाकर सेवन हरने से बवा सीर में लाभ होता है। इसके की बीम कर लेप करने से वचा के रोग हर दो है। जड़ के छिलके का चूर्ण' जायफल, जावित्री लोग, समभाग के सूप को २ माशे की मात्रा में उपयोग कराने से कोद का बढ़ना रुक जाता है। जड़ के छिलके के चूर्ण को श्रडूमे के कादे के साथ सेवन करने से राजयक्ष्मा के लिए गुणदायी है । यदि छिलका और बीज समभाग लेकर कूट पीस कर गोली चना प्रमाण बना कर एक मा० से दो मा० तक सेवन कराएँ तो वमन व रेचन सरलतापूर्वक लाता है और आमाशय की सूजन तथा बदन के नीचे के भागों के दर्द और जलोदर में बहुत मुनीद है। ६३ : Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अङ्गाल अंतर्छाल का चूर्ण बनाकर शहद के साथ खाकर ऊपर से मिश्री मिला हुआ दुग्धपान करने से प्रमेह दूर हो जाता है और कटिशूल, शिरशूल एवं शारीरिक पीड़ा दूर होती है - तथा पौष्टिक है । कोल की जड़ : तो० कूट ३ मा० पीपल ३. माशा, बहेड़ा ६ माशा मिलाकर इसका काढ़ा बनाएँ, इसे ढा होने पर मिश्री मिला कर पिलाने से इन्फ्ल्युए [ संक्रामक प्रतिश्याय ] में अधिक लाभ होता है। प्रत्येक भांति के विष से जड़ का काढ़ा बनाकर खूब पिलाना चाहिए | इससे के और दस्त होकर far डूर हो जाएगा । इसकी ताजी छाल १ मा० से ४ मा० तक गोदुग्ध में पीसकर पिलाने से बिना कष्ट के वमन और रेचन होते हैं तथा बच्चों की मृगी ( अपस्मार) को बहुत फ़ायदा पहुँचता है। अङ्गोल मूल द्वारा भस्म निर्माण विधि कोल वृक्ष की छाल लाकर सुखा लें । पुनः उसी वृक्ष की मोटी जड़ पृथ्वी के भीतर से खोद लाएँ और उसमें गढ़ा बनाएँ । तत्पश्चात् उक्र गढ़े में थोड़ी छाल रखकर उसमें कलई पत्र लपेटा हुना शुद्ध, ताम्र चूर्ण' [या ताम्र का पैसा ] रक और ऊपर से उभर में इसे पीकर सुखा लें। कोर राजपुट की अनि पात्र है। शीत होने पर निकालें । कागज के रंग की श्वेतभस्म प्रस्तुत होगी । मात्र:-१०-२ चावल यथोचित अनुपान के साथ उपयोग में लाएँ । गुण-सम्पूर्ण शारीरिक व्याधियों के लिए अक्सीर है। ( कु० फॉ० ) अङ्गोल के पन चोट लगने से यदि दर्द होता हो तो अंकोल के पत्ते लाकर उसको जल में उबाल कर उसकी भाप उस जगह देना, पुनः उक पत्तों की गरम २ बांध देने से फौरन दर्द दूर हो जाएगा | (sro सखाराम अर्जुन ) प्रतिसार रोगी की पत्तों का ६ मा० रस दूध के साथ मिलाकर पिलाना चाहिए । इसमे For Private and Personal Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अडोला ६४ अकोल प्रथम दस्त होकर कोप्ट शुद्धि होती है फिर दे एकदम बन्द हो जाते हैं। अंकोल के पत्ते पीस कर पुल्टिस बांधने मे गाया का दईदर हो जाता है पत्तों को पीस कर टिकिया बना लें और । . सरसों के तेल के साथ कड़ाही में डालकर भाग । पर रख जला लें । जब जज जाग तो थोड़ी स्थाह मिर्च का चूर्ण डाल कर मरहम तयार करें। इसको उपयोग में लाने से प्रत्येक भांति के व्रण, खुजली सरवा प्रभति अच्छे हो जाते हैं ।।। । पत्नी को जलाकर उसकी राख १ तो. ले।। फिर इसमें काली मिर्च २५ नग, सूतिया भुनी ३ मा०, हरताल । ना० मिलाकर खूब स्वरल करें । पाद को तिल का तेल जिसमें मोन मिलाया गया हो इसमें खरल करके मरहम तैयार कर लें। इसके लगाने से बवासीर के मस्से सूख कर निकल जाते हैं। श्रराजवृद्धि-ग्रंकोल पत्र उबालकर बांधने | से जल निकलता है। अंकोलकी लकड़ी-नासूरमै इसकी लकड़ी | की राख भरनी चाहिए। इससे नासूर परछा हो। जाता है। ___ इसकी लकड़ी का चूर्ण बनाकर इसे पियारॉगा, काराजी नीबू के बीज तथा दरियाई मारि. यल प्रानि उपयुक औषधियों के साथ मिलाकर निशूचिका रोगी को खिलाने से लाभ होता है। अंकोल की लकड़ी का फर्श बनाकर यदि इस पर सोया जाए तो कोई कीड़ा मकोड़ा पास न ग्राएगा। अंफाल पुष्प-इसके पुष्प मधुर, शीतल, कफ नाक, वीर्यवर्धक, वलकारक, दस्ताघर एवं वात, पित्त, दाह संधिर विकारों को दूर करते हैं। अंकालके फल-इसका फल शारीरिक दाह, राजयस्मा और रपित को लाभ पहुचाता है। शारीरिक दाह में फलों को पीस कर लेप करने से लाभ होता है। रक्रपिस में फल को मिकी के साथ पीस कर पीने से मुंह प्रादि द्वारा रखाव बन्द होजाता है। अतिसार में इसके फल के गूदे को शहद में | मिलाकर चावल के धोवन के साथ उपयोग में लाने से लाभ होता है। ___ फलों के गूदे और तिलों के द्वार को शहद में मिलाकर देने से सूजाक दूर होता है। वर्षा ऋतु में जो फुड़ियां बगल के नीचे तथा गले में प्रायः हो जाया करती हैं, जिनसे अक्सर रोगी मर जाते हैं, प्रारम्भ ही में सबेरे के समय यदि इसका एक फल खिलाया जाए और एक फल का पानी निकाल कर गिल्टियों पर मल दिया जाए तो दर्द को तुरन्त लाभ होगा और रोगी बच जाएगा। अंकोल-तैल निकालने की विधि-एक प्याले के मुहको कासे बांध दें और अंकोल के बीज की गिरी को कूट कर इस पर बिछा दें और एक टुकड़ा अभ्रक का इस पर रखकर कोयलो की भाग करें, इसकी गरमी से तैल टपककर प्याले में पाएगा इसी को व्यवहार में लें। यदि किसी धारदार शस्त्र से क्षत हो जाय तो अंकोल तैल में रुई भिगोकर पट्टी बांध दें तो अहता हुअा रक भी रुक जाता है और घाव भी शीघ्र सूख जाता है। __ अंकोल तेल १ पाव, मोन १ छटांक अग्नि पर जलाकर रख दो, २ मा० भुनी तूतिया मिला को, श्रीरांडा होने पर भली प्रकार मिलाकर किसी बर्तन में रख दो। यह मलहम दाह, खुजली, भगन्दर, नासूर, सत, फोड़ा, फुन्सी प्रभृति समस्त स्वचा सम्बन्धी रोगों को नष्ट करता है। ५ वूद तैल मिश्री में मिलाकर विशूचिका रोगी का उपयोग कराने से उसे लाभ होता है। ५ से १५ द तक तैल उण दुग्ध में मिला कर भिश्री अलका प्रति दिन पीना शरीर को बलवान बनाता है। और प्रमेह, निर्बलता, शरीर में चकर पाना तथा आंखों में अंधेरा पाना शादि को दूर करता है। ३॥ मा० तेल उष्ण जन्ल से पीना खूब दस्त लाता है और पेट के दर्द व बदहज़मी को दूर करता है। For Private and Personal Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५ अलाहर सिर में दर्द हो और किसी तरह अच्छा न | मिलाकर गोला बनालें, फिर तरकाल नारे हुए होता हो तो उक्र तैल को २० बूद की मात्रा में बकरे के मोस का पिंज जैसा बमा कर गोले को बकरी के दूध में थोड़ा सा राहद डालकर पिलामा उसके भीतर रक्खें। फिर लाल चित्रक के रस लाभदायी है। इससे मस्तिष्क पुष्ट होता है। और ताल मूली की जड़ का रस इनमें उसका इसके तैल को तिल के तेल में मिलाकर दुबाकर फिर बाहर से चारों तरफ बकरे का मांस लगाना बालों को बढ़ाता है और सिर के जुत्रों लपेट दें फिर अग्नि के समान गरम तेल में उसको को दूर करता है। डालकर भूनतें । और जब वह मांस पिंह भूनकर गरम पानी में तेल डाल कर कुल्ली करना; सिंदूर का सा रंग धारण करले तो निकाल कर मसूड़ों की सूजन, दर्द, खून बहने को माराम रस्खलें। करता है। मात्रा- रती शहद और घी के साथ खाएँ । चेचक के दाग पर गेहूं के आटे में हल्ली और । गुग--इसके सेवन से मनुष्य वीर्यवान होजाता अकोल का तेल मिलाकर पानी से गीला करके है। नपुसकता जाती रहती है। इस पर कौला उबटना रंगको ठीक करता है और कुछ सुन्दर पदार्थ सेवन करना निवेध है। करता है। अोलन ankolam-मल डेरा अंकोल नोट-प्रायः निघण्टुकार अकोल को रेचक Alangiuin decapitalum, Lam.) मानते हैं पर कई प्राचीन इसे संग्राही कहते हैं। चरक सुश्रुतने विषन माना है पर संग्राही विरेची | अकोलमनचर ankolama-machar-अज्ञात । गुण का उल्लेख देखने में नहीं आया। अकोलम् चे ankolan-chetru-ते. अकोलक: ankolakah-सं० पु. अकोला अकोला, अकोल. डेरा [Alangium deca ( Alangium Deca. paptalum, ! pitalum,Ltm.] स० फा० ई०। Lan.) र० सा-सं०। अकालमु ankolamu ते०, ढेरा, अकोल ( A. अकोल कल्क: Aukola kalkah स०० | ___ducapitalum, Lun) ई० मे० मे०। देरे की जड़ की छाल चावल के धोबन में पीस अकोला ankola-म., डेरा, अङ्कोल, शहद डाल कर पीने से अतिसार और विष के अकोली ankoli-कना । अकोला (Ala विकार दूर होते हैं । । अकोले ankole-कनाtugium duca भा०म० ख०२ अति० त्रि० शा० सं० अकोल्य sukolya-गु० । petalum, म. ख० ० ५ अकालम् ankolum-ता० Lan. -स० अङ्काल तैलम् akola tailam स'० क्ली० " फा० इं०। अकोल बोज तेल । Alangium decan- अङ्कालः ankollah-लं० पु. (Cedrus etalum, Lun. ( Oil of-)। बैं० _deodara) देवदारु। रा० नि० व० २३ । वा०३०३८०।। अकोल फल सकाशः ankola-phala-san अकोलक: ankollakah सं० ० (Alan. kashah- सपु०, फल विशेष । संसार में : gium Decape talum, Lun.) अकोल मद०१०१। पिता नाम से प्रसिद्ध है । वै० श० अङ्कोलसारः ankollasarah-सं०० मालव अकोल बद्धवटो ankola baddha hvati प्रसिद्ध स्थावर विष भेव (A kind of pois. -संस्त्री० यो० म० शुद्ध पारे को श्वेत अकोल on ) हेच. ४ का । अफीम, संखिया, के रस में तीन दिन तक भावित करें, फिर पारे के प्रभृति । औ०२०। समान भाग गन्धक मिलाएँ और खरलम बारीक अहाहर ankohara-हिं०संशरा ,अकाल कजली बनालें। फिर अकोल ही के रस को (Alaigium decapetalum, lan.) निघः। For Private and Personal Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अकरा-विरह प्रद असग-विर ankhura-virai-ता० पुनीर | जड़ता, देह जाख्य, शरीर का जड़ हो जाना। के बीज । तुरुमे काकनजे-हिन्दी-का०। ( Wit (Langour)। वा० चि०२२ १०। hania puneerin Coagulans Dun- | अङ्गघातः anguighātah-सं०प० देह में 1.) सं० का० ई० । चोट का लगना, अङ्गाघात ( 13odily pain) अङ्गम् augam--सं० ली. Myh (,). वै० श०। ( Balsamuodendron Myrrh. ) : अङ्गचयः anga-chayah-सं० ५० पेरीनियम् घोल । सुगन्ध बोल-य० । रा०नि००६। Perineum-t'. गुदा और वृषण का मध्य (२) शरीर, बदन, देह, तन, गात्र, जिस्म, भाग, मूलाधार । इजान-अ०। चै०नि० ( The boly)। (३) शरीरावयव, अवयव ! अङ्गचेष्टा anga-cheshta-सं० स्रो० अङ्ग(An organ, a liinbor members चालन, शरीर को गनिदेना ।वा०नि०११ of this borly. ) उजव-अ०। रा०नि० प्र० । व०१८ अङ्गाजम् ang-jam-सं० सी० १ लाड शरीर के छोटे छोटे भागों को अंग कहते हैं, : (Blood.) र २ - फीसिज freces) मल । जैसे--हाथ, पांव, जंघा, हृदय, अस्त्र, चक्षु-: मे०जनिक । इत्यादि । कुछ अङ्ग पोले होने हैं और कुछ थैली । अङ्गज: anga-jah सं०१०, १-हेयर(Hair) के समान, जैसे-मूत्राशय, शुक्राशय, आमाशय ! केश। २-डिजीज (A disease) रोग। और गर्भाशय । कुछ अङ्ग नली के सहश होते . ३-याल, रोम, मांस। (Muscle ) मसल हैं, जैसे-रत की नलियाँ, शुक्रकी नलियां धातु | ४-इन्टॉक्सिकेशन Intoxication-ई० पाचक रसों की नलियां, और मूत्र की . मद । चि०। ५ देखो -अङ्ग। ६-(A son, नलिया । (३) उपसर्जनभून । हे. च. नानार्थ Love, cupid, intoxicating pa. पु. (४) Earth.भूमि । (५) भाग, ssion. काम । हिस्सा (A part or portion)। (६) अङ्गज्वरः aliga-jvarah-सं० प'. इयरोग, A constituent, part. राज्यच्मा, यस्मा, ( Consumption ) अङ्गक angakam-सं० क्लो०१-(Body.) : अङ्गज्वरम् anga-jvaram-सं० क्ली० शरीर शरीर २--अगर (Aloo wood)। ३ - के भागों में लगा हुअा ज्वर । अथ० सू० ३०, A limb शरीरावयव । का०५ | शरीर के घनो में संताप उत्पन्न प्रतकर ampakura-० धारकरला, किरार किरार । करने वाला। अथ० म. - करने वाला। अथ० सू०८,५, का० । (fomordic dioica,ko.nb.)फा०ई० · अङ्गणं anganain--सं) क्लो. आँगन सहन, २मा०। चौक, अजिर, घर के बीच का खुला हुआ अङ्गगौरवम् a.lagali gouravam-सं० क्लो भाग। अँगना, (ई) अगन भूमि ( A va ( Heariyess of the body.) शरीर ) वै० श०। का भारीपन,शरीरका गुरुत्व । गाभार-बं० । वा० अङ्गतिः aingatih-सं. ० (Air,wind.) नि० १३०। वायु । २-( Fire) अग्नि (श०) ३-- ब्रह्मा अनग्रहः aligangrahah-सं० पु, गठिया, ५..विष्णु । अमवेदना । वा०नि०१६ अ० । शरीर का दर्द अङ्गतापः angu-tapah-सं० प्र०, शरीरोष्मा शारीरिक व्यथा, शरीर की पीड़ा, अकहनाई, शरीरोष्णता, देहकी गरमी (Body heat ) मात रोग, देह का जकड़ना । वह रोग जिससे देह वै० श० । में पीड़ा हो | Spasm, (Bodily pain) अङ्गद angadadam-सं० ली. बाजूबंद अङ्गग्लानिः anga-glanih-सं० क्ली० देह की (An armlet ) For Private and Personal Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अङ्गदरणम् अङ्गबीने खुश्के अगदरणम् anga-daranam-सं० क्लो. भा० । ३-हिं० ए. (A yard ) : आँगन, (Bilious pain) पिस जन्य पीड़ा, पैत्तिक । अमना। व्यथा । वे० श०। अङ्गानाप्रियः angana-priysh-H० पु. १. अङ्गदान anga dana-फा० अजदान, ( Saraca Indica, linn.) अशोक हिंगु वृक्ष, हींगका पेड़ (Farula Foetida, वृत । र० मा० । २-Qमोरपल, कर्णिकार । Bigel .) हि.पु. संज्ञा [सं.] तनुदान, : पोलट्-कम्बल-यम्ब०, बं० । Davil's तनसमर्पण । सुरति । रति । नोट--यह स्त्री के Cotton ( Abroma Augntstit, लिए प्रयुक्त होता है। क्रि० प्र०-रति करना । Linn.) ई० मे० मे) । प० मु० ।। सम्भोग करना। | अगनापिया angana-priya-सं० सी० प्रगदाहः anga-dahah-सं० पु. (Bur- प्रियंगु, फूल प्रियंगु, गन्ध प्रियंगु, नारिवल्लभा, ning of the body ) गाग्रदाह, देहको (prunus mahaleb,Lin.) . भा. ज्वाला। वै० श०। पू० , भा० क० व०। अङ्गवार anga-dvāra-हिं० पु० संज्ञा [सं०] | अङ्गनेर anga-ner-राज. पु. खाजा-हि शरीर के मुख, नासिका आदि दस छेद । अङ्गन्यास anga-nyasa-हिं० संज्ञा पु मंत्रों अाधारी angu-dhari-हिं० पु. संशा [सं०] | द्वारा अङ्गों का स्पर्श । शरीरी । प्राणी | शरीर धारण करने वाला। अजपाक align-pika-हिं० पु . । अङ्गन angana-हि. पु. संज्ञा [सं० अङ्गण] अङ्गपाकता anga-pākata-सं० स्रो० । A yard (1) आँगन । सहन । चौक -! पित्तजन्य रोग, पके फोड़े के सदृश शरीरमें वेदना पं० । (२) चरवा, कुसा-उ०प० स० । मेमो० होना । वै० श० । अगेनोस्मा केर्योफाइललेटा aganosma| अङ्गपालिः anga-pālih-स. बी० ( An Caryophyllata-ले०दखुरी,अंगु प्रैक्सिनस embrace) गोद, श्रालिंगन । रिबण्डा Frasinus Floribunda, | अङ्गपीड़ा anga-pira-स. स्त्री. (Bodily Wall. वनरिश-अफ़ः । सूम,सुनु, शुन-40। pain) वायु जन्य रोग, शरीर व्यथा, गात्र. कङ्ग, तुहसी नेपा०। बेदना। जैतूनवर्ग अङ्गपूजितः anga-pujitah सं००अश्वतर, (N. O. Oleacon) अश्वखरज, खञ्चर घोड़ा । डंकी ( Donkey, उ पत्तिस्थाम-शीतोष्ण और अधः पाल्पीय | mule)-ई० । मद० २०१२ । हिमालय-काश्मीर से भूटान पर्यन्त-तथा | अङ्गप्रसारणम् anga-prasāranan-सं० खसिया पर्वत । क्ली.काय विस्तार, शरीर का प्रस्तार,शिथिलता । उपयोग-इसके प्रकाण्ड (तने) को काटनेसे वा०नि० ४ अ.1 इसमें से एक भांति का डांस, मधुर साव अङ्गबली anga-bali-सं० स्त्रा० शिवलि, जठरा(शीरखिस्त) प्राप्त होता है जो सम्मत शीरखिस्त वयव विशेष। (Officinal manna) का प्रतिनिधि है। अङ्गधार angabāra-फा० अक्षबार (Poly इसे इसके मधुर एवं किञ्चित् को मृदुकारी gonum bistorta, Linn.) प्रभाव हेतु उपयोग में लाते हैं। (वैट) अङ्गबी Angabii-फा० शहद, मधु । honey जना angana-सं० स्त्री० १-(a woman | (Mel) । स० फा० ०। or female in general, a wife) अङ्गबाने खुश्क angabine khushka-फा० नारि, स्त्री, परनी, कामिनी । मे० नत्रिकं । २- खुरकझवीं । एक प्रकार का शहर है जो अत्यन्त (Prunus mahaleb, Linn.) प्रियंगु, शुष्क होता है । गन्ध तीन होती है। For Private and Personal Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अङ्गमईप्रशमनम् महाभः anga-bhangah-सं० पु. (Ya. उद्भव स्थान पर अथवा वाहन पथ में, या उस wning) -अगड़ाई, हफूटन, शरीर भक्त __ स्थान पर, जहां कि वे मस्तिष्क पर प्रभाव डालती वा० उ० २ अ० स०४ अ० २-( Perin ! है, अवरुद्ध कर देती हैं। . eum) गुदा और वृषण अथवा भग के मध्य | ... उक प्रकारकी औषधियों की सूची निम्न है• का भाग, मूलाधार । ३-(Adissase) रोग । यथा-(१) डाक्टरोऔषधियाँ-प्रोपिश्रम ४-( Nervous disease ) घायुरोग । (अफीम ), माफ़ीन (अफीम सर; ), बेला*-( Palsy or paralysis of डोना, धत्त रीन या धन्यूरीन (ऐट्रोपीन ), ब्युटिल limbs..) पक्षाघात । क्रोरल, कोनाइम (शौकरान ), हायोसाइमस मामः angabhuh-स. पु. (A son ) (अजवाइन खुरासानी), स्ट्रेसोनियम (धतूरा), :: पुन1 (२) Cupid-काम | . केनाविस इण्डिका ( भंग ), जेलसीमियम् अभेदः anga-bhedah-सं० पु. ( Ner ( पीली चमेली की जड़ ), क्लोरल, जेनरल vous pain) वायुरोग, वायुजन्य गात्रभङ्ग; ] अनस्थेटिक्स (व्यापक अवसमता जनक औष शरीर में होने वाली पीड़ा । अथ० सू० ३० धियो ), फीनेज न, फेनेसीटीन, एसेटऐनिलाइस -:०८-४०५। (पेरिटफेबीन ), रोग़ान कायापुटी, लौंग तेल, अङ्गमई: anga-marddah-सं० पु. (१) इकोनाइटीन (विष--सत्व, विपीन ), क्लोरोफॉर्म - गात्रवेदना, देह की पीड़ा, अंगडाई । वा० सू० ( सम्मोहनी), कोनाइन (सब शौकरान) केफ्रीन ( कहाला सस्त्र ), कैफर ( कपूर), अंगमर्दक: angamardakah-स'. पु. सिरिटस ईथरिस (Spiritus atheris) (Rheumatism ) अंगमर्दित । अंगमर्प, (२) आयुर्वेदीय औषधियां शालपर्णी, हडियोका फूटना । हड्डियों में दर्द । हडफूटन रोग । वृहती, करटकारी, एएखमूल, काकोली, रक्त (२) संवाहक । अंग मलने वाला । हाथ पैर चन्दन, उशीर ( खश ), बड़ी इलायची, मुलेठी दयाने वाला । नौकर। सेवक (One who चाकुल। shampoos his master's body ) (३) आयुर्वेदीय व यूनानी औषधियाँअगमईनम् anga-marddanam-सली . अगरु, दारुहरिद्रा ( रसौत), रक्सेमल, पुनाग गात्रफोटन, शरीर का फूटना, वेदना, म्यथा । वृक्ष (सुल्तान चम्पा, सुर्पन ), एरक (नागर अङ्गमई प्रशमनम् anga.mardda-prasha. मोथा ), साल (साखू ), पोहकरमूल (कुष्ट), manam-संक्ली वेदना शमन (शा..क), अशोक, नीलोफर ( मीलोत्पल ), कमल (पन), वेदना हर,व्यथा ( व्यथ, रुक, भेद) प्रशंमन-हिं. धारकदम्ब (हल्दी), कायफल, यप्ठिमधु मुखहिरुलश्रलम् (१०व०), मुनाहिरातेप्रलम्, (मुले) मेथी, कैथ, हल्दी, देवदार, तून, बड़ी (व० व०), मुसकिनुल अलम् ( छ. व.) इलायची, ई० मे० मे० । शेष यूनानी औषधियों मुसकिन्नाते अलम् (बहु०व०), मुनविक्रदातुल तथा परिभाषाओं के लिए देखो--मुखदिर और इह, सास-अ०। दाफ़ादर्द-फा० । एनोडाइन्म मुसक्किन। (Ano dynas) एनलगे ( जे ) सिक्स नोट-उपयुक्र औषधियों में से अफीम (Analgesics)-ई। का प्रभाव प्रत्यक्ष एवं स्पष्ट होता है। यह संवे. उक्त प्रकार की औषधियां नाड़ी अथवा वात दना को उपरोल्लिखित सम्पूण स्थलों पर अवरुद्ध केन्द्रस्थ उक्त जना एवं क्षोभ को दवाकर या धीमा । कर व्यथा को नष्ट कर देती है । बेलाडोना करके वेदना शामक प्रभाव करती हैं। ऐसी ! संज्ञावहा यात नाड़ियों के होभ को दबाकर उक्त औषधियां सम्बेदनाओं को मस्तिष्क तक पहुँचने प्रभाव करता है। तथा जेलसीमियम, क्रोरल से रोकती हैं । अस्तु वे संज्ञा को या तो उसके । हाइड्रेट और ब्युटा लोरल प्रभक्ति मस्तिष्क For Private and Personal Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रङ्गमेयत्वम् समन्त्री केन्द्रों की उस जना को कम करके ऐसा प्रभाव उत्पन्न करते हैं । अंगमर्द प्रशमन औषध का उपयोग -जब वेदनाधिक्य के कारण व्यग्रता एवं अनिद्रा जन्य ! कष्ट हो तो ऐसी दशा में डायरेक्ट जेनरल ऐनोडाइन्स ( प्रत्यऩ व्यापक वेदना शासक | को उपयोग में लाना चाहिए । अस्तु, ग्रफीन अथवा उसके सस्व मार्फीन (Morphine ) का येन-केन-प्रकारेण प्रयोग ! अत्यन्त लाभदायी सिद्ध होता है । विशेषतः मान के स्वस्भ सूचि प्रवेश ( श्रन्तः क्षेप ) करने से वेदना तत्काल शांत हो जाती है। युरिनस कॉलिक अर्थात् वृक्क वेदना में वेलाडोना को बड़ी मात्रा में उपयोग में लाने से बहुत लाभ होता है । किन्तु जब यह अभीष्ट हो कि वेदना तत्क्षण शान्त होजाय तो उक्र अवस्था में ( General anesthetic ) व्यापक श्रवसादक श्रीषध उपयोग में लाना चाहिए । यथा प्रसवकाल व यकृत वेदना तथा वृक वेदना प्रभृति में फेनेजन जेसीमियम और ब्यूटिल कोरल प्रभूति वात वेदनाओं में अधिक लाभ दायी होते हैं । श्रङ्गमेजयत्वम् angamejayatvam-सं० क्ली० श्रङ्गकम्पन, देहकम्प, शरीर का काँपना । (Shivering) अङ्गरक; anga-raktah - सं० पु० ( Mon key face tree ) कम्पिल्ल, कमीला | कमला गुंडि - बं० श्रम० | स्त्री० श्रृङ्गरक्षिणी anga-rakshini - सं० श्रृङ्गश्राणु । साँजोया चं० । वै० श० । अङ्गरा anghará युo Hibiscus Rosasinensis, Linn. ( Flowers of - ) गुडहल, जपापुष्प-सं० । उड़उल-हिं० । अङ्गरागः anga-rágah - सं० पु० अङ्गलेपन द्रव्य । यथा--- कुङ्कुमादि अनुलेपन द्रव्य, लेप, गात्र रञ्जन द्रव्य | (Scented cosmetic application of perfumed unguents to the body, Fragrant unguent, Liniment.) मालिश - अ० । ६६ 'अविकले ( २ ) ( Aet. of anointing ) अनुलैप करना । श्रङ्गराए - हिन्दी angharáe-hindi- श्र०, वां० फा०] प्रदउल, गुदद्दल, जवा, जासून हिं० । जासून, गुदेल, कुदल-इ० । जपा- पुष्पम् सं० Hibiscus rosa-sinensis, Linn. ( Flowers of - ) - स० [फा० ई० । अङ्गरापान angará pána-हिं० ताम्बूल भेद ( A sort of betel ) श्रृङ्गरुहम् anga-rnham सं०ली० (Hair) रोम, बाल, लोम । श्रृङ्गरुहा anga-ruha - सं० स्त्री० (Hair ) लोम, केरा । श्रृङ्गलाघवम् anga lāghavam संं की० (Lightness of the body. ) काय. लघुख, शरीर का हल्कापन | चा० उ० १६ श्र० । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अङ्गनीह्र anga-lihna - हिं० पु० सुम्बुलख़ताई, बालछ भेद ( Garden angelica ) इं० ३० गा० । अङ्गलेपः anga-lepah - सं० पुं० चन्दनादि द्रव्य, अनुलेपन, लेप (Liniment.) । अङ्गलेपन anga-lepana - सं० पुं० (१) उबटन (A paste for scouring the skin ) ( २ ) 'The hair wash | का० इं० २ भा० श्रङ्गलोड्यः anga-lodyah सं० पु० ( आर्द्रक, श्रादी - हिं० । श्रादा-बं० | Ginger ( Amomum Zinziber ) ( २ ) Marsilea Dentata-चिचोदक तृख । अङ्गवः agnavah - सं० ० ( Dryfruit ) शुष्क फल, सूखा हुआ फल | श० च० । श्रङ्गवस्त्रोत्था anga-vastrotthá सं० स्त्री० ( White Ajowan - fruit ) श्वेत यमानी, सुफेद अजवाइन । जोयान- वं० । वै० श० । अङ्गविकल anga-vikala - हिं० वि० ( Maimed, paralysed) विकलांग ( Fainting ) मूर्च्छा : For Private and Personal Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अङ्गविकारः १०० अङ्गस्तूराबार्क भाविकार: anguvikārah-सं० (A bo- | अङ्गसुप्तिः anga-suptih-सं० स्त्रो० (an. dily defect.) शारीरिक दोष । asthesia ) स्पशी ज्ञता, शरीर स्वाप, अविकृतिः anga-vikritih-सं० १.. (1) अंग का सुन अथवा जड़ हो जाना, अयसमता। अपस्मार रोग, मृगी वा मिरगी रोग, मूसिंग गार असाइता-बं० । (apoplexy, an apoplectic fit.) : अङ्गसेनः anga-senah-सं० पु. अगस्तिद्रुम रा.नि. व. २० ( २ ) Change of अगस्तिया । बाकस गाछ-बं० । रत्ना० । bodily appearance; collapse. (agti grandiflora, Dese. ) गान्त्र-संकोच । अङ्गसंहतिः imgu-sanhatih सं० बी० अहावभ्रश: anga-vibhranshah-स० पु. (1)Compactness, symmetry. काय शैथिल्यरूप-बायुज रोग । भा०। शारीर का गठात्र। अङ्गविक्षेपः anga-vikshepah-सं० पु. (२) Body शरीर (३) Strength अङ्गहार, अङ्गचालन, अंग ( हाथ पाँव) फेंकना, of the body शरीर बल । (Spasm) वा. उ.२ . । (२) अस्तग छालangastura chhala-० ] Gesticulation. हाच भाव । अस्तुग त्वक् angasturitvak-हिं० प्रशूलम् angashilan-सं० क्ली. (Bo. . अगस्तूग बार्क amgustures-bark-इं० dily pain) गाग्रतोद, गात्रशूल, शारीरिक करीई काटेंक्स (Cusparrial cortex) वेदना । बै० श. -ले. श्र अस्तूरा, पोस्त अंगस्तूरा-तिः । अङ्गशोथः angashothah सं० पु. (Su• : कस्पेरिया बार्क ( Cusparin burk)-६० clling of the body) कायशोथ, शरीर . की सूजन । रपटेलोई अर्थात् नागर वर्ग । अशोषणम् anga-shoshanam-सं० को (N. O. Rutacere ) अंग की शुष्कता ( रूक्षता), शरीर का सूखना । ' (ॉफीशल-official) उत्पत्ति स्थान-दक्षिणी अमेरिकाके डणप्रदेश । वा० उ०३० मनशोषः anga-shoshtha-सं० प्र० लक्षण---उपयुक्र औषधि कस्पेरिया फ़ेनिफ्यूजा वायुज रोग विशेष, गात्रीणता, देह का सूखना, (Cusparia. Febrifuga ) वृक्ष की चय (Consumption) सूखी हुई छाल है जो औषधि तुल्य प्रयोग में अहस angasa-सं०० पक्षी (A bird): प्राती है। ये सपाट, वक्राकार या एक दूसरे पर प्रसङ्गम-anga-sangama-सं० क्ली. रति- ! लिपटे हुए टुकड़े हैं जो ६ . या इससे अधिक संयोग, संभोग, मैथुन, स्त्रीप्रसङ्ग ( Coition, : लम्बे, १ इञ्च चौड़े, - इन्च मोटे होते हैं। Copulation) असदनन् anga-sadanain-सं. क्लो० । त्वचा का वायतल चिह्नयुक्र एवं पीनाभायुक ( Depression) शरीरावसाद, अंग की धूसरवर्ण का होता है, यह उपरी त्वचा सरलता शिथिलता, अवसमता, जड़ता। वा० नि०१२ पूर्वक भिन्न की जा सकती है और इसके अन्तः अ० । तलसे श्याम धूसरवर्ण की रेजिन ( राल ) जैसी प्रसादः anga-sādah-सं० पु. (Depr. ' तह निकल पाती है । भीतरी तल सूच्म धूसर ession) अवसाद, अवसमता | हारा०।। वर्ण का होता है। यह छाल बहुधा परतदार भासुन्दरः anga-sundarah सं० प. श्रीर कोर होती है और इसको जहां से तोड़ें 1-(Cassia Tora) चक्रमर्द, दद्रुघ्न वृक्ष | वहीं से टूट जाती है। टूटा हुश्रा तल राखयुक्र बैंकबद-हिं० । दादमन-बं० । अम. (२) रप्टिगोचर होता है। गन्ध-अप्रिय । स्वाद(Aloe wood )अगर । तिक वा उष्ण । For Private and Personal Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org कस्तूरबार्क १०१ परीक्षा - कुचिला वृक्ष की छाल स्वरूप प्रकृति में इस उपर्युक्र छाल के समान होती है । इस कारण इसमें प्रायः उसका मिश्रण किया जाता है । इसकी एक साधारण परीक्षा यह है कि कुचिला वृक्ष की छाल के भीतरी तलपर शोराम्ल ( Nitric acid ) के लगानेसे उसमें सीन होने के कारण वर्ण उत्पन्न हो जाता है जिससे इसकी ठीक परीश हो सकती है । रसायनिक सङ्गठन - इसमें ये निम्न चार अल्कलाइड्स [ चारीय सत्व ] होते हैं: यथा - (१) एक ति सत्व कस्पेरीन, (२) मैलेपीन ( ३ ) गैलेपीडीन, ( ४ ) कस्पेरोडीन और एक सुगन्धित तेल | संयाविरुद्ध (सम्मिलन )- खनिजाम्ल शोर धातु लवण | प्रभाव - सुगन्धित एवं तिक बलप्रद और ज्वरन । अधिक परिमाण में उपयोग में लानेसे यह आमाशय एवं श्राँतों में प्रदाह उत्पन्न करता है । यूरुप में इसको कैलम्बा के सदरा क्षुधावर्द्धन हेतु अजीर्ण तथा निर्बलता में बरतते हैं। परन्तु इसमें ज्वरम प्रभाव होने के कारण अमेरिका में इसे विषम ज्वर और प्रवाहिका में उपयोग में लाते हैं । ऑफिशल योग [Official preparafiors. (i) इन्फ़्यूज़म् करुपेरी [Infusum | Cusparix. ], इन्फ्यूज़न श्रॉफ कस्पेरिया [Infusion of Cusparia ] - डॉ० ना० 1 गस्तूरा फांट हि० । ख़िसाँदहे अंगस्तुरा तो० ना० । 1 निर्माण विधि-कस्पेरिया बार्क का चूर्ण एक औस, खौलता हुआ परिसुत जल एक पाइंट, १५ मिनट तक भिगोकर छान लें। मात्रा-१ से २ फ्लुइड श्रौंस २८.४ से ५६.८ क्यु० से० ) ( २ ) लाइकार कस्नेरी कन्सेस्ट्रटस ( Liguor Cusparie Concentratus ) -ले० | कन्सेण्ट्रेटेड सोल्युशन श्रौफ़ कस्पेरिया Concentrated Solution of Cusparia. इं० 1 अंगस्तूरा घन द्रव - हिं० | साइल अंगस्तुरा ग़लीज़-ति० ना० । ' Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अङ्गारः निर्माण विधि-कस्पेरिया बार्क का ४० नं० का चूर्ण १० औँस, अल्कुहॉल ( २० ) २५ फ्लुइड औंस या आवश्यकतानुसार, कस्पेरिया को ५ फ्लुइड श्रीस अल्कोहाल से तर कर के पलेटर में जमा दें और तीन दन तक पृथक् रख दें । पुनः अवशिष्ट अलकुहाल को १० बरावर भागों में विभाजित कर के १२-१२ घंटे के अन्तर से एक-एक भाग अल्कुहाल डालकर इसे पके लेट कर लें, यहाँ तक कि एक पाईंद द्रव प्राप्त हो जाए । मात्रा - श्रधे से १ फ्लुइड ड्राम (१.८ से ३.३६ क्यु० से० । परीक्षित-प्रयोग ( १ ) टिङ्कचूरा करुपेरीई 1⁄2 फ्लु० डा०, टिङ्कचूरा कैप्सिसाई बूंद ( मिनिम ), सोडियाई वाइका १५ मेन, इन्फ्युजम रीहाई 1⁄2 औंस पर्यन्त ऐसी एक-एक मात्रा श्रौषध दिन में ३ बार दें। गुण-एटोनिक डिस्पेप्सिया ( श्रामाशयिक निर्बलता जन्य श्रजीर्ण में लाभजनक है। ( २ ) टिकच्युरा प्रारन्शियाई ३० मिनिम, स्पिरिट एमोनिया ऐरोमैटिक १५ मिनिम, सिरुपस जिञ्जिबेरिस ३० मिनिम, इन्फ्युज्म् कस्पेरीई १ यस पर्यन्त, ऐसी १-१ मात्रा औषधि दिन में तीन बार दें । बल्य ( टानिक ) है । अङ्गहर्षः anga harshah. -सं० पु ं० ( Horripilation.) रोमाञ्च, रोमहर्ष, रोंगटे खड़े होना । बा० नि० ३ श्र० । श्रृङ्गहारः anga-hárah. -सं० पु० अंगचालन, विशेष | (spasm.) । ( २ ) gesti culation, a dance. नृत्य | श्रंगहीनः anga-hinah. सं० त्रिo (Having some defective limb.) अंगरहित, विकलांग, जैसे काणादि ( काना प्रभृति ) । ( २ )crippled लुंरंग | श्रृङ्गाकर_angákara. - ते० धारकरेला, किरार, ( Momordica Dioica, Roxb.) फा० ई० २ भा० । अङ्गारः angárah- सं० पु० :- (Firebrand or ombers ) अँगार, अँगरा, निधूम For Private and Personal Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अङ्गारं प्रकाधानिका अग्निपिंड (बिना धुएँ की प्राग), प्राग का दह- नोट:-द्राक्षामा हरिद वे मंजिला चेन्द्र. कता हुया को बला, जलता हुआ टुकड़ा यथा- वारुणी, वृहती सैधर्व कुष्ठ रास्नामांसी शतावरी । "बृहतः काष्टसम्भूतोऽकारः।" वा० सू०६० यो० त० । अर्थात् इसमें दाख और दोनों हल्दी अरुणः । २-अंगारपूर्ण पात्र, बह बर्तन जिसमें | अंगार रखा हुआ हो। ३ Yellow ama. | अङ्गारक मणिः angataka-manih सं० पु. ranth) कुरुएक वृक्ष । झांटी विशेफ, पीली प्रवाल, दंगा-हिं. 1 कोरल ( Coral) कटसरैया, पीतवर्ण, अम्लान वृत्त । रना।। -इ.० । र०नि० व० १३ । ४ ( Musk melon).ई. हैं. गा! : अङ्गारककटी angara-karkati-सं० स्त्री० ५-चिनगारी।६-Charcoal, (whether (Balls or thick cakes of breall heated or not) balked on coal ) अंगार की रोटी अङ्गारं angaram- क्ली (Reil colour): अर्थात् लिट्टी, बाटी-हि. | रोटिका-सं० । रक्रवण । रुटी । श्रङ्गारक: angaraka h-6.पु. १-कोयला! : प्रल्तुतविय-गेहूं अथवा चना प्रभृति (Asparl, embers) अंगारा, के श्राटे को बल के साथ मर्दन कर कोर अंगार । २- कुरुक, करसरैया का पेड़, पिया कर लें। पश्चात् उसमें से थोड़ा २ लेकर घण्टी बाँसा- ह मांटी जाति-०। (Yellow or white amaranth) मे. कचतुष्क । २ अथवा गोल वटी के आकार के घाटी बनाएँ, 3-(wedelia calondulacca, Less.) पुनः उन्हें धूम्र रहिन अग्नि पर शनैः शनैः पकाएँ । बस यही अंगार कर्कटी है। भृगराज, भोगरा, भेंगरा, भैगरैया । रा०नि० वा० ४। भा० पू० १ भा० गु० ३०। ४... गुण-यह वृहणी, शुक्रल, लघु, दोपनी, कफ (Barleria prionitis, Linn.) कट- कारक, अलकारक तथा पीनस श्वास और कास सरैया ( पात)।५-कोयला (Charcoal.) को जीतने वाली है। व०नि०मा०। प्रकारक तेलम् | angaraka-tailam-सं० : अङ्गारकित angarakita-हिं०वि० (Char अङ्गारतैल को० कुडारा १०० तो० भर red, roast:l) भष्ट, भुना हुश्रा, अंगार पर लेकर १०२४ सोले पानी में पकाएँ, जब चतुर्थाश पकाया हुअा। शेष रहे तो इसमें ६४ तो० तिल तेल डाल कर अङ्गार को बटो angara ki bati-हिं० । पकाएँ, तथा इसमें कुडारा, अपामार्ग, प्रोस्टिका अङ्गारशी लिट्टाgara ki litti-f.। नामक मक्खी इनका कल्क बनाकर उक्तेलमें डाल देखो प्रहार कर्कटी। कर सिद करें तो यह तेल घायों को शीघ्र शोवन | 1 अङ्गार इ. angarh-30 सांसर्गिक कृमि। देखो कर अंकर लाताई और इसकी मालिशसे नारियां अंग्रास (Anthrax)-इं०। सबल होती हैं। च द० प्रग० शां० चि.। अङ्गारह का ट का augarah-kaitika-30 (२) मरोड़फली, लाख, हल्दी, मजीठ, सांसर्गिक कृमिघ्न सीरम । देखो-इण्टि अन्ध्रा इन्द्रायन, बड़ी कट ली, सेंधानमक, कूट, रास्ना, क्स सोरम स्क्लेवास (Anti Anthrax जटामांसी, शतावर, इनका कल्क बनाएं, २५६ Shrum Sclavos)-10। तो धारनाल नामक कांजी और ६४ तो० तिल । अहार कण्ठा angara-kushthaka-सं. तैल मिला तैल सिद्ध करें। इसकी मालिशसे हर स्त्रो० हितावली। हिंगोट, हियावली-हिं० । प्रकार के ज्वर नष्ट होते हैं। ( Ingua ) चकद० । | अङ्गारधानिका angara-dhanika-सं० स्त्रोक भैष०र० ज्वरचि. (A portable fire-pan, brazisr) व० से० सं० अंगेडी, अंगार धारण पात्र, श्रृंगार (भाग)रखने For Private and Personal Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अङ्गार धूपः अङ्गारिणी का बरतन, बोरसी-हिं० । साँजाल व । प्राति- करा विशेष (Ovieda verticulata.) शदान-फा०] भाषा में नाटा कर कहते है। प्रकार धूपः angara-dhipah-सं० पु० अङ्गारवल्ली angara-val]i-सं. खो० - ( Incense, aromatic vapour) ( Cæsalpivia Bonduc»lla, अंगार पर किसी औषधि को डालने से जो धूम्र । Ro..) महाकरम्ज, रक्तकरज । २-(Clerनिकलता है उसे अङ्गारधूप कहते हैं, वा०नि० cdendion serratum, Spreng.) अ०। भार्गी । वा० सू० १५ श्र० । सुरसादि । ३प्रहार परिपाचितम् angira-paripach-: (Ocimum album, Linn.) सुरसादि itam-सं० क्ली० (१) शूलादि पक्कमांस, तुलसी । भा०पू०१ भा०।४-(abrus prलौह शलाका श्रादि पर पकाया हुअा मांस ___ecatorius, Lin.) गुञ्जा लता, धू'धत्री (Roasted food ) ( २) त्रि० अंगार की बेल । चिरमटी की बेल हि बं० । पक्क, अंगरा पर पकाया हुआ। भा० पू० अने० व०। (५) कटुकरम्ज, करज अङ्गारपर्णी angara-parni-सं० स्रो०, (Cl- यल्ली। (६) रक्रगुजा (लालघुघची)। erodendron Serratum, Spreng.) भ० पू० १ भा० गु० २०। भार्गा, भारंगी बामण हाटी-बं०।० सा० सं०। अहारवृक्षः angara-rikshah-स.. अङ्गार (क) पुष्प: angara-k-pushpah - Balanitos Roxburghii, Plato -सं० पु. Balamites Roxburghii, neh.) इंगुदोवृक्ष । हिंगोट-हिं० । मा० पू० Panch. जीवपुत्रम । जियापोता-हि । इंगुदी १ भा० बटा० । रत्ना० । (२) पूतिकरभ्ज । -बं०। (fagun) श०र० । हिंगुश्रा, गोंदी। अङ्गारवेण: angat :- venuh-सं० पु. ईगुदी वृक्ष जिसके फल अंगार के समान लाल ( Bambagaarundinacea, Retz. होते हैं, हिंगोट का पेड़ ।। The red variety ) रनववंश विशेष, अझारपात्रो angarapitri-सं० स्त्रो० (A. i लालबाँस । ____portable fire-pan) बोरसी। अङ्गारशकटी anganashakuti-स. स्त्री० अङ्गारपूरिका angara-purika-सं० स्त्री० । (A portable fire pan) चुल्लि, ( Bread)रोटक; रोटी | रूटी-बं। चुल्ली, चूल्हा (ही)-हिं० । चुलो-बं० । अङ्गारमञ्जरी angata-manjari | -सं० | अङ्गारा angara-स. स्त्री० (Ingua.) मकार मो angara-manji -स्त्री० हितावली। गुदी वृक्ष, हिंगोट । प० मु०॥ कर त्रिशेप (a, spacies of Bonduc जियापुसा -पं० । or Bonducella)श०र०। महा करा अङ्गारिका amgarika सं० स्त्री०१ इकाण्ड, -हिं। इहर करन-बं० । रा० नि० व० ईख का तना ( The stalk of the१० । sugar-can) 8-( Butea frondअङ्गारमणिः lugāra-manih-सं० पु. | osa, Beed.) किंशुककीरक, पलाश की कली ( Coral) प्रवाल, मूगा । मे० कचतुष्क (३) The bud of the अङ्गारवर्णी angara-varni-सं० स्त्री०, (C]- tres किंशुक-कली । (४) चूल्हा (A por ero:lendron Serratum, Spreng. ): table fire-pan) भार्गी, भारंगी । बामन हाटी-ब० मङ्गारिणी angivini-स. स्त्री० ( A अङ्गारबम्लरो augara-vallari-सं० प्रो० small fire-pan) छोटी कड़ाही, अंगारि । For Private and Personal Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अशारित १०४ अङ्गएण्टम् ऑलियो रेज़ाइनी केप्सिसाई (२) अंगेती, बोरसी, श्रातिशदान (३) (A या मृदु यौगिक है, जो केवल वाह्यरूप से उपcreeper in general) लता । योग में लाया जाता है । मलहम प्रस्तुती करण अङ्गारित angarita-सं० त्रि. ( Roasted, . में निम्नांकित वसामय तैलीय पदार्थ बेसिस half-burnt) भूना, श्रधभूना, । श्रा० सं० । (मुख्य अवयव) रूप से अकेले अथवा एक दो इं० डि। मिलाकर उपयोग में आते हैं, यथा-(१) अकारितम् angaritam-स. क्लो० (The विशुद्ध भेड़ की वसा, (२) शूकर वसा, (३) early bud of Butea frondosa. ) शूकर की लोबान युक्र बसा, (५) हेल मरय पलाश (किंशुक) की प्रारम्भकालिक कलियाँ, । के शिर की वसा, (५) मेर ऊर्यवसा, (६) किंशुक-कोरक, पलाश कलि कोद्गम, हारा। मोम, (७) जैतून तैल, () बादाम तैल, अङ्गारिता angarita सं० स्त्री० १-( A और (3) पैराफ़ीन | सचना-उन्य देशों में creeper in general) लतामात्र- जहां ऊष्माधिक्य के कारण मलहम अत्यन्त अंगारधानी, चुल्लि, चूल्हा मे० चतुष्क । ३-- मृदु हो जाती है, वहां पर साधारण बेसिस के (A bud in general) कली।। स्थान में इण्ड्योर्ड लार्ड) दबाकर कठोर की अङ्गारी angari-सं०स्त्रो०(A portable हुई) शूकर वसा, विशुद्ध भेड़ की वसा और fire-pan) छोटी कड़ाही । प्रा० सं० ई० श्वेत वा पीत मोम उपयोग में ला सकते हैं। उि० अङ्ग एण्टम् आयोडाई Unguentum iodiअङ्गारीय angariya-सं०वि०, कोयला बनाने ले० प्रायोडीनानुलेपन, नैलिक प्रलेप (Iodineमें प्रयुक्र होना, ( To be used in pre ointment) । संयोगी अवयव-प्रायोparing coal) डीन ( नैलिका ), पोटाशियम् (पांशुजम् ), अकार्कित angarkita-स. (Fried ) भूना श्रायोडाइड (नैलिद), मधुरीन (म्लीसरीन ) हुधा | मा० सं० इ० डि। लार्ड (शूकर बसा) । शक्ति ४ । देखोअङ्गिका angika-स. स्त्री. कञ्चक, सर्पका श्रायोडम् 1 मि० फा०1 काँचुल, (The skin of a serpent, | अङ्गएण्टम् आयोडो-पैराफ़ीनी Unguentum slough.) Iodoparaffini-ले० नैल-पैराफ्रीन प्रलेप । अङ्गिरः angirah-ल. पु. ( Party __ देखो-आयोडोफ़ॉर्म । ___idge) तित्तर पक्षी, तीतर । | अङ्गएराटम् श्रायोडोफामाई Ungtentum अङ्गिरसीः angirasih- सत्रि०(१) अंग या | Iodoformi-ले० श्रायोडोफॉर्म प्रलेप । शरीर में रस उत्पन्न करने वाली श्रौषध । (२) । ( Iodoform ointment)। संयोगी शरीर शास्त्र बेत्ता। (अथ० सू० ७, १७, अवयव-प्रायोडोफॉर्म तथा शूकर वसा ( लार्ड का०-) या पैराफ़ीन ऑइण्टमेस्ट ) शक्ति-१00/ अङ्गएण्टम् unguontum-ले० (ए० व०)! देखो-आयोडीफॉम । बी० पी०। अंग्वेण्टा jnguenta (व० व०) ऑइण्टमेण्ट Ointment ( ए. व.) अॉइंट अनुएण्टम् अायोडाफामाई कम पट्रोपीना unमेण्ट्स Ointments (व. २०)-३० ।। grientuin Codoformi com a troमलहम, अनुलेप-हिं० । महम् (ए. व.), pina-ले० धत्तूरीन व पायोडोफार्म प्रलेप । देखो-प्रायोडोकाम। मराहम (व. २०)-अ०, फ़ा। __ अंग्वेण्टम् अर्थात् मलहम एक या अनेक अङ्गएराटम् ऑलियो रेज़ाइनी केप्सिसाई औषधों को किसी प्रकार की वसा या तैल प्रति unguentum oleo-resine capमें मिलाकर निर्मित किया हुश्रा एक अर्ध तरल sici-ले० र मिर्च प्रलेप । For Private and Personal Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०५ अगुएण्टम्-इविधाल अल्गुएण्टम् काक्युखाई अगुपएटम् इक्थिॉल unguentum ich. | . शक्ति- २० । देखो-एसिडम् सैलिसिलिकम् । thyol-ले. इक्थिनॉल प्रलेप बी० पी०। अडगपएटम् इकोनाइटीनी unguentum | अगुएण्टम् पेटेंपोनो unguentum atroaconitine-ले० विपीन वा वत्सनाभी pine. ले. धत्तरीन प्रलेप (Atropine नानु लेपन (aconite ointment) ointment ) संयोगी अवयव-ऐट्रोपीन संयोगी प्रययय एकोनाइटीन ( वत्सनाभीन),! (घत्तरोन), पालीइक एसिड, लार्ड (शूकर शूकर वसा ( लाई) अालीइक एसिह । शक्ति- यसा)। शक्ति-२० । देखो-बिलाडोना | २०० देखो-वत्सनाभ । बी० पी०। बी०पी०। अगुएण्टम्मकीरोज़ी unguentum aque | अङ्गुषण्टम् पेट्रोपीनी कम एसिडो बोरिक rose-ले० गुलाब जलानुलेपन ( Rose unguentum atropinæ cum aciwater ointment)संयोगी अवयव- do borico-ले० धत्तूरीन व कयास गुलाब जल ( रोज बाटर), ह्वाइट बीज़वैक्स प्रलेप । संयोगी अवयव-ऐट्रोपीन, मोरिक ( श्वेत मच्छिष्ट ), बोरेक्स (टङ्कण), श्रामण्ड एसिड तथा सॉफ्ट पैराफ्रीन । देखो-विताडोना । हल (बादाम तेल ) तशा गुलाप तैल अगुपण्टम् पट्रोपीनी कम कोकीनी ungu(आइल ऑफ़रोज़) शक्ति-२००( में . entum atroping cum cocainæ रोज वाटर ) देखो-एक्का रोज़ी। -ले० धत्तरीन व कोकीन प्रलेप । संयोगी अगुपएटम् एमालिएन्स unguentum Em अवयव-ऐट्रोपोन, कोकीन तथा सापटपैराफीम) देखा-बिलाडोना। ollions ले० अश्वेएटम् एका रोज़ी (गुला. अगुवराटम् ऐट्रोपीनी डाइल्यूटम् ungu. पार्क प्रलेप । देखो गुलाप वा एक्क' रोज़ो। entum atropince dilutum-ले. अगुएण्टम् एलिमाई unguentum clemi जल मिश्रित (हलका किया हुआ) धत्तरीन -ले० एलीमाई प्रलेप । देखो- अरण्य वातादि प्रलेप। संयोगी अवयब-ऐट्रोपीन तथा पीत (नं०३) मृदु पैराफ्रीन । देखो-बिलाडोना । अङ्गएराटम् एसिडाई काबोलिसाई ungl. अङ्गएण्टम् पोरिटमोनियाई टार्टरेटो unguentum acidi carbolici--ले. कार्बो entum antimonii tartaratæ लिकाम्ल प्रलेप । ( Carbolic ointm -ले० टाट रेटीय अञ्जन प्रलेप, वामकनमक ent ) संयोगो अवयव-फेनोल, हाइट पैरा. प्रलेप (ointment of tartarated तीन प्राइस्टमेण्ट । शक्ति ३°/01 देखो-एसि.. antimony)। संयोगी अवयव-टाट डम् कालिकम्। रेटेड ऐस्टिमनी, सिम्पल पाइण्टमेण्ट । देखोअगुएण्टम् इसिडाई बोरिसाई unguen : अञ्जन । tum acili borici-ले०, टकसाम्ल प्रलेप अङगएण्टम ओपियाई unguentum Opii (Boric ointment)। संयोगी अवयव । -ले. अहिफेभाबुलेपन, अफीम प्रलेप (opium बोरिक एसिड (टकणाम्ल ), हाइट पैराकीन Ointment)। संघोगी अवयव-एक्सप्राइस्टमेण्ट । शक्ति-१०। देखो-एसिडम । ट्रैक्ट ऑफ भोपित्रम् (अदिकेन सत्व में स्पर्मबोरिकम् । वी० पी०। सेटाई बाइण्टमेण्ट । देखो-पोस्ताम्तगत मागुणण्टम् एसिडाई सैलिसिलिसाई ungu- (अफीम) entum acidi salicylici-ले० सैलि-अगुपएटम् कॉक्युलाई unguentum co. सिलिकाम्ल प्रलेप ( Salicylic Acid i cculi-ले. काकमारी प्रलेप (Kakmari ointment. ) संयांगो अवयष-सैलि. ointment)। संयोगी अवयम-काकमारी सिलिक एसिड, हाइट पैराफ्रीन पाइण्टमेण्ट । बीज, प्रीपेयर्ड लाई। देखो-कोकमारी। For Private and Personal Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अगुएण्टम् केश्रोलीनी अ एएटम् जिन्साई भालिएटिस मगुएण्टम् केओलांनी unguentum kao अज एण्टम् क्रियोजटाई unguentum cre lini-ले० केनोलीन (चीन मृत्तिका) प्रलेप ।। - osoti क्रिमोजूट प्रलेप (Creosote ointसंयोगो अवयव-वैजेलीन, हार्ड वैरानीन, । ment) संयोगो अवयव-क्रिपोजूट, हाई केप्रोलीन । देखो-केमोलीनम् । एण्ड सॉफ्ट (डाइट) पैराफ्रीन । शक्ति-1.0/मगुपएटम् कैन्थेरीडाइनाई mguenthim देखो-क्रियोजूट । बी० पी० cantheri dini-लं. तेलनी मक्खी प्रलेप भङगुपएटम् गाइनोकाई unguentum (Cantheridies ointment ) il Hynocardie ले० सालमगरा प्रलेप संयोगी अवयव-कैन्येरोडीन, बेझोएटेड लाई, (Ointment of chaulmogra oil) खोरोफार्म। शक्ति-०.०३३/। बी० पी०।। संयोगी अवयव-चालमूगरा तेल, हाई और देखो-कन्येरिस। साफ्ट पैराफीन देखो-चालमगरा । शक्तिमगुपएटम् कैप्सिसाह unguentum cap- 10/10 पो01 sici-ले० कुभिरब (रक मिरचा ) प्रलेप । अङ गुएस्टम् गाली unguentum galls ( capsicum ointment, chilly -ले० माई (मा) प्रसेप (gall ointpaint)। संयोगी अवयव-कैप्सिकम् कट | ment) संयोगी अवयव-गाल (माई) ( रा मिरच ), हार्ड एण्ड सॉफ्ट पैराकीन | तथा बेजोएटेड बाई । शक्ति-२-०/। देसो(कमि वः मृदु राफ्रीन) और लाई (शूकर माई। बी० पी०। बसा)। ति २५०। देखो रक्त मिरन अङगुपएटम् गाली कम् ओपियां unguenबी० पी०1 tum galla cum opio-ले० माई व अडगुएण्टम् कोकीनी unguentum cocai अहिफेन प्रलेप (Gall and opuim ne)-ले. कोकीन प्रलेप ( cocain ointment ) संयोगो अवयव-गांव ointment ) संयोगी अवयव-कोकीन ग्राइण्टमेण्ट तथा प्रोपिनम् (अफीम) । शकिमालीइक एसिद्ध तथा लाई। शक्ति ५ 01 019 । देखो-माई । बी० पी०।। देखो-कोका। बी० पी०1। अगएण्टम् चालम्ग्रो unguenturn chaulअगुपएटम् कोनियाई unguentum conii | moogTil-ले० अङ गएण्टम् गाइनोका डीई । चालमगरा प्रलेप । बी० पी०। -ले० शूकरान लेप | ( conium ointm. ent)। संयोगी अवयव-जूस श्राफ कोना अङ्ग गुएण्टम् ग्लीसराइनाई प्लम्बाई सवरसिटे इम (शूकरान स्वरस) हाइड्स वल फैट । शक्ति। टिस unguentum glyceriri plumbi १ में २ । देखो-कोनाइम्। वी० पी०। subacetatis-ले० मधुर सीसक सबएसीटेट . प्रलेप (glycerin of lead Subacअगुएरटम् क्युप्राई डालिएटिस unguen otate ointinent) tum cupri oleatis-ले० तान प्रालि संयोगी अवयव-सबएसीटेट, हाइट पैराफ्रीन • एट प्रलेप । संयोगो अवयव कॉपर प्रालि, इस्टमेण्ट । देखो सीसक! एट सॉफ्ट पैरीफ्रीन । देखो-ताम्र । प्रगपएटम् जिन्साई unguentum zinciमगुएएटम् काईसारो बाईनाई unguen- ल. यशद प्रलेप ( Zinc ointment)। tum Chrysarobini-ले. क्राईसारो- संयोगो अवयव-शि मलाइ (बसद बीन प्रलेप (Chrysarobin ointment) भस्म) बेजोएटेड बाई । शक्ति-१५०/- । देखो संयोगों अवयव-क्राइसारोबीन और सॉफ्ट | बरादम् । बी. पो.। वैराकीन ( मा बेजोएटेड लाई)। शक्ति- अजए एटम् जिन्साई प्रालिएटिस ungu1761 देखो-अरारोगा । बी० पी० ___entum zinei oleatis-से. वराह For Private and Personal Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मा एण्टम् जिन्साई १०७ . श्रङ्ग एण्टम् नग्धाईसबएसिटैटिन ऑलिएट प्रलेप (zinc oleate oint. | अगएण्टम् पाइसिस मोली unguentum ment)संयोगो अवयव जिस प्रालिएट ।। picis inollo-ले. मदुकान्तरान (चव जिंक सल्फेट, हाई सोप, जल, हाइट सॉफ्ट | तैल ) प्रलेप । संयोगी अवयंव-गार,बेम्ज वैक्स पैराफ़ीन शकि००। बी० पी० देखो-यशद। श्रामण्ड प्राइल (याताद तैल )। देखो- पिक्स मङ गुएण्टम् ज़िन्साई कम एसिडी सैलि- लिक्विडा (या देवदारु) सिलिको unguentum zinci cum ! अङगुपएटम् पैराफाइनो nguenturm acido salicylico-ले० यशद व सैलिसि. paraffili-ले० पैराफ़ीन प्रलेप (Paraलिकाम्ल प्रलेप । संयोगो-अवयव सैलिसिलिक ffin ointinent) संयोगी अवयव-हाई एसिड, जिंक प्राइस्टमेण्ट, सॉफ्ट पैराफीन । और साफ्ट पेराफीन श्वेत या श्वेत 4 पीत देखो-यशवम् । मधूच्छिष्ट ( हायट या हाइट एण्ड एलो बीज . मक गुपएटम् डायाकिलाई unguentum | वैक्स)। शक्रि १७ 0/0 । बो० पो०। देखोDiachyli-ले० हेब्रास प्रलेप (Hebras | पैराफीनम् 1 ointment)संयोगा अवयव लेडलाटर, | अगुपएटम् पोटेसियाई आयोडाइडाह unguप्राइज माफ बेवेदर । देखो-सोसकम् । enturn potasii io lili-ले० पांरानैलिद मा गएण्टम् थाइमोल unguentuin प्रलेप (Potassium - Iodide oint thymol-ले. थाइमोल (बन पुदीना ) ment ) संयोगों अवयव-पोटासियम प्रलेप । संयोगी अवयव वैजेलीन व थोइमोल । प्रायोडाइड, पोटाशियम कानेट, जल और देखो-थाइमोन, पुदीना । वेम्जोएटेद लाई। शक्ति-१00/01 बी० पी० मगुएण्टम् नेफ्थोलिस · nguentum देखो-पोटेशियम । naphtholis-ले. नैफ्रथोल (कार अङगुएएटम् पोटेशी सल्फ्युरेटो ungueकोलटार) प्रलेप (Kaposis ointment)। Intum potasse sulphurate-सो. संयोगी अवयव-वीटा नैफ्योल तथा लार्ड। पांश गन्धेत प्रलेप । संयोगी अवयव-सस्पयु. देखो-नेफ्थोल । रेटेर पोटास, हाई पैराफीन, साट पैराफीन । मागुपण्टम् नेपथोलाई कम्पोज़िटस unguni देखो-गंधकम् (या पोटाशा सरुम्युरेटा)।' entun maphtholi compositus- अङ्गुएण्टम् प्लम्बाई भायोडााडाई ungue. ले. मिश्र नेप्रयोल प्रलेप । संयोगो अवयव ntum plumbi iodidi-ले० सीसनैलिर नैफ्योल, बाद, ग्रीन सोप, प्रीपेयर चाक । । प्रलेप (Iodid of lead ointment) देखो-क्योल संयोगी अवयव लेड प्रायोडाइल (सीस प्रगुपएटम् पाइलोकापीनी unguentuni नैलिद), और बेन्जोएटेड लाई। शनि-१०0/0 pilocarpine-ले. पाइनोकान प्रलेप । वी० पी० । देखो-सीसकम् संयोगी अवयव पाइलोकार्पान, वैज़े लीन,लेनो- भकएण्टम् प्लम्वाई कार्बोनेटिस unguen देखो-पाइलोकार्पोनों नाइट्रास tum plumbi carbonatis-ले० सॉस अगुपएटम् पाइसिस लिकिती unguen- कमजेत् प्रलेप ( Lead-carbonate tum picis liquide-ले चुरेल तेल ointment) संयोगी अवयव-लेर कागप्रलेप ( Tar ointment )। संयागी नेट (सीसभस्म )और पैराफीम । शक्ति-100/0 अवयव--सार, साई, पीत मधूपिछष्ट (पलो | देखो--सीसकम् । बीड रेस्स) शक्ति ७०० बी० पी० मा गएण्टम् लम्बाई सबपसीटेटिस angue. देखो-पिक्स लिकिडा (या देवदारु) ntum plumbi suhacetatis-ले. For Private and Personal Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रा एण्टम् विम्युधाई अॉएएटम बेरेट्राइनी सीससबएसीटेट प्रलेप (Lead subace | ungnentum myrobalani cum tate onitment ) संयोगोअवयव- opio-ले. हरीतकी व अहिफेन प्रलेप स्ट्राँग लाइकर ( तीषण), घुल फैट ( अर्थवसा) (ointment of myrobalan with हाई व साफ्ट पैराफीन | शक्ति-१२ 0/01 opium) संयोगी अवयव-हरीतकी प्रलेप बो०पी०। देखो-सीसकम् तथा अहिफेन । देखो-हरोत की। बी० पी० । मागुपएटम् बिडम्युथाई unguentum | अङ गुएरटम् माइलेब्रिहिस unguenturn bismuthi-ले० स्वर्णमाक्षिक प्रलेप ( IBis. mylabyidis स्निग्धमाशी प्रलेप (Jiyla. muth ointment)। संयोगी अवयव- bris ointment) देखो केन्थेरिस। विस्मय सबनाइट्रेट, बार्ड। देखो-विमथम् ! श्रङ गएण्टम् मेटेलोरम mguentum me. मा गएएवम् विम्युशाई आक्साइडम् unrutallorum ले. खनिज प्रलेप । संयोगो entum bismuthi oxidum-ले. स्वर्ण- अवयव-मक्युरिक नाइट्रेट आइरटमेर ट, लेड. मात्रिक भम्भ प्रलेस। संयोगा अवयव-: ___ एसोटेड प्राइस्टमेण्ट और जिङ्क पाइरटमेरट । विजय प्राक्साइड, प्रान्तीइक एसिड, श्वेत : देखो-पारद । मरिष्ट । मोम । (साफ्ट) पैराफीन । देखो-- ! अगुएरटम मेन्थीलाई ॥mguentuna mer.. विन्यथम् । tholi ले. मेन्थोल प्रलेप (Menthol प्रगुपएटम बिलाशेना unguentum bea oiltynent) संयोगी अवयव-मैन्धोलाई iladonnu-ले० विनाना प्रक्षेप (Be- २१, बालसम ग्राफ पेरू ५ तथा लेनोलिनाई lladlonna ointment ) संयोगो १००1 पो० वी० एम० । देखो-मेन्धोल । अवयव-सिकिड एक्सट्रैक्ट छौफ बिलाडोना अङगु एगदम् युकलिप्टाई unguen tum (विक्षाना तरख सत्व 'बाप्पीभूत' ), बेझो. ___eucalypti-ले० युकेलिप्टस प्रलेप (Eu. पटेड बाई' और वृक्ष फैट ( उर्ण वसा )। calyptus ointment) संयोगी अव. शक्ति- ६००/) अलकलाइड (क्षारीय सत्व)! यव-प्राइल श्राफ युकेलिप्टस, हार्ड पैराफीन, बो० पी० । देखो-बिलाना। साफ्ट (साइट ) पैराफीन । शक्ति-100/01 मक गुपण्टम् बेजोईनी unguentum be. | देखो-युकेमिष्याइ। बी० पी०।। nzoine लेनोमानानुलेपन, कुन्दुरु प्रलेप । भङ गुएराटम रज़ाइनी unguentum rosinne संयोगी अवयव-वेज़ोईन, एडेप्स (शूकर -ले. राल प्रलेप ( Resis ointme t) वसा)। देखो-कुन्दुरु या वेडाईनम् । संयोगो अवयय-रेजिन ( राल ), एलो बीज मगुएएटम् बोरेसिस unguentum bo- । वैक्स (पीत मधूच्छिष्ट )। प्रालित श्राइल racis-ले० टहण प्रलेप ( Boric oint- | ( जैतून तेल ) तथा लाई (शूकर वसा)। ment) संयोगा अवयव-बोरेक्स (टकण) शक्ति:-२६९/0 (३१ में.)। बी० पी०। स्पमेंसीटी ऑइस्टमेण्ट (मत्स्य वसा प्रलेप) देखो-राल । . देखो-रहम् । अङ गुएरटम लेनी का unguentum ante अगएएटम् माइरोवेलेनाई unguentum co-ले० संयोगी अवयव-लाई, वृत्त myrobalani-ले० हरीत की प्रलेप . फैट तथा पैराफीन बाइरटमेगट । शक्ति( Ointment of myrobalan ) 10/0। बी० पी० । संयोगी अवयव-हरीतकी चूर्ण तथा वेझोए- अगुएरटम् देरेट्राइनी unguentum va रेड खाई। देखो हरोतको। बी० पी०। retriina-ले. अमरीका विधिका सत्व भा.गुएण्टम् माइरोवेलेनाई कम प्रोपियो। प्रलेप (Varetuni ointment) संयोगी For Private and Personal Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भएण्टम् सल्फ्युरिस १०६ अङगुएर टम् हाईडार्जिराई श्रावसाईधाई पलेवाई अवयव बेरेट्रीन आतीहक एसिड तथा लाई। chloritis--ले० संयोगी अययनशक्ति-४१ में १ । देखो-वेरेट्रांना सन्जाइम सस्फर ( पातित गंधक ). अडगुपएटम् सरफ्युरित ngnentam | एसेन्शल प्राइल श्राफ श्रामर ड्ज (स्थिर वाताद sulphuris-ले. गंधकानुलेपन (Sul. तैल ), प्रिपेयई लाई, सरफर क्लोराइड (गंधक phur ointinent) संयोगा अवयव- हरिद)। देखे।-धन्गकम् । सब लाइम्ड सल्फर (ऊध्र्वपातित गंधक) तथा | अगुपण्टम् सिटेलिभाई unguentum बेन्जोएटेड बाई । शक्ति-10/1) बी०पी० । retucti-ले. ह्वेल मत्स्य शिरो वसा प्रलेप देखो-गंधकम् । ( Spermacuta ointinent ) अगुएराटम् सल्फ्युरिस छायोडाइडाई ।।10. योगी अवरय-स्पोरसेटाई, हाइट बीज guentum sulphuris iodidi-ho वैक्स ( श्वेत मच्छिष्ट) लिहिड पैरोफ़ीन । गंधक नैलिद प्रलेप (Sulphur iolitle शक्ति-२०0/1)। देखेः- बी० पी०। ointment) संयोगां श्रय-व--सल्फर अङ गुपस्टम् सलोल कम का नि mgu. घायोडाइड, ग्लीसरीन तथा बेजोगटेड लार्ड। entum salol cum cocain-ले० शक्ति-२५ में ३ । देखा-गन्धकम् । सैलोल कोकीन प्रलेप। संयोगा अवयव-सैअङगुपएटम सल्फ्युरिल पर रिसासाना खोल, कोकीन हाइडोकोराइड, पेट्रोलियम् साइ. ungue:tum sulphinis it roso- ट्रेटा देखो. सलोला । reiti-ले० गथक व रिसासनि प्रलेप । | अङगुएराटम् स्टेफिसैनिई unguentum संयोगो अवयव-प्रेसिपिरेटेड सल्फर, रिस: staphisagrie-ले० अरण्यद्राक्षा वा सन, सॉफ्ट पैराफोन पीत । बो. पो० सो० । स्टैफिसैनी प्रलेप (staphisagrie oint. देखा-धकम् । ment) संयोगी अवश्व स्टेवी सैक्री सी. अगुपएटम् सल्फ्युरिस कम्पोजिटम् ungu. | ड्स । येलो बोजवैक्स (पीत मच्छिष्ट) तथा enton sulphuris composituin बेन्जोए टेड लार्ड । शक्ति २० % बी० पी०। ___---लेनि : गंधक प्रजेप, विल्किन्सन प्रलेप देखो-स्टैफीसग्री। (wilkinsoi tment) संयोगो | अङ गुपएटम् हाइडाजिराइ unguontum अवयव-माफ्ट भोप, सब्लाइन्ड सल्फर hydrargyri-ले० पारद प्रलेप ( Merc. (अर्चपातित गंधक)। प्रेसिपिटेटेट चक, टार, ury ointment) संयोगी अवयव-म. लाई (थकर वसा ) बाकी० सी० । देखा- करी (पारद ) वेजोएटेड लाई । प्रिपेयर्ड गन्धकम् । स्वेट ( शुद्ध मेध वसा ) शक्ति -३०%। बी० श्रङ गुपएटम् सत्फ्युगिस कम हाइडार्जिरो | पो० । देखो -पारद। ungalentim sulphuris eum hy- अगुपण्टम् हाइडार्जिराइ आयोडाईडाई रुबाई drargyro-ले० गंधक व पारद प्रलेप । ungnentuin hydrargyri lodidi संयोगा अवयव-सम्लाइमई सल्फर (ऊर्ध्व Tubri-ले० संयोगो अवयव-रेड प्रायोडा. पातित गंधक) मक्युरिक-सल्फाइड (पारद इड । वेज़ोएटेड लार्ड । शक्ति-४%। यो० गन्धिद), मोनिएटेर मर्करी, श्रालि व प्राइल | पी० । देखो-पारद। (जैतून तेल,) लाई (शूकर बसा) देखो- अङ गुरस्टम् हाइडार्जिगई श्राक्साईडाई फ्लेवाई गन्धकम् । mguentum oxidi flavi- to dra अङगुएण्टम् सहफ्युरिस हाइपोक्लोगहटिस | पारद भस्म प्रलेप ( yellow mersuric ungruentum sulphuris hypo. | oxide ointiment ) संयोगी अवयव For Private and Personal Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org एटम् हाइडर्जिराई श्री क्साईडाई रुबाई एलो मक्युरिक क्साइड ( पीत पारद भस्म ) सॉफ्ट पैर फ्रीन (एलो) शक्ति - २ % । बो० पी० | देखो - पारद । श्रङगुपरटम् हाइडार्जिराई ऑक्साईडाई माई u..guentum hydrargyri oxidi rubri-ले० र पारद प्रलेप redmercuric oxide ointmet) संयोगो श्रवयव - रेड मक्युरिक श्रंक्साइड ( रक पारद भस्म ) पराफ़ीन ऑइस्टमेण्ट (पीत) शक्ति-१० % | बी० पी० | देखो पारद । श्रगण्यम् हाइड्रार्जिगई एमोनिएटी utruentium hydrg- ammoniati- ले० पारमोनी प्रलेप ( ammoniated _m3rcury of tment ) संयोगां अवयव एमोनिएटेड मर्करी, बेन्जोएटेड बाई । शकि५% । वो० पी० | देखो - पारद । अङगुटम् हाइड्राजिराई श्रलिटी) unguentum hydrarg oleati - ले० मक्युरिक श्रीत्रिएट श्रीइण्टमेण्ट ( Mercaric oleate ointment ) संयोगो अवयय-मक्युरिक चलिएट, बेन्ज़ोएटेड लाई शक्ति - २५ % । बी० पी० । देखो पारद । अगुएरटम् हाइड्रार्जिराई कम्पोज़िटम् g ११० Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुयाः ric nitrate ointment, citron ointment) संयांगी श्रवयव-मर्करी (पारह) नाइट्रिक एसिड ( शोरकाम्स ), बार्ड ( शूकर वसा ) तथा अंजिव चाइल (जैतून तैल ) शक्ति १३ % । पारद । बी० पी० 1 देखो - पारद । श्रग एण्टम् हाइड्राजिंगई नाइट्रेटिस डाइस्यूटस unguentum hydrg nitratis dil.-ले० जलमिश्रित शोरकपारद प्रलेप (Diluted mercuric nitrate ointment ) संयोगी अवयव मक्युरिक नाहट्रेट आइस्टमेण्ट, सॉफ्ट पैरानोन ( पीत ) शर्कि २०% । उक्त प्रवेश बी० पी० | देखोपारद । अङगु, एण्टम् हाइड्रार्जिगर मोटिस unga entum hydrg. mitius ले अगुवटम् हाइड्र: जिगर डाल्युटम् देवी - पारद । श्रङ्ग एण्टम् हाइडार्जिगराई सबक्लोराइढाई unguentum hydrarg subchloridi-बे० रसकपूर प्रक्षेप ( Mercurous chloride ointment, calomel ointment ) संयोगी अवयव मयु रेस कोराइड तथा बेन्जोएटेड लाई । शक्ति २० % बी० पी० | देखो पारद । अग ुटम् हेमेमेलिडिस unguentum entum hydrarg compositum ) ले० मिश्र पारद प्रलेप ( Compound m rcury ointment ) स योगी श्रवयव मर्करी इस्टमेट, श्रीसिद्ध ऑइल ( जैतून तैल ) एलो बज़धैक्स ( पीत मधूच्छिष्ट ), कर्पूर | शक्ति - १२ % पारद । बी० पी० । देखो - पारद | अग पण्टम् हाइड्रार्जिराई डाइल्युटम् ungu entum hydrarg Dilutum-ले० जलमिश्रित पारद प्रलेप ( Ung. hydrg mitiusor blue unctio ) संयोगी श्रवयव-मर्करी इस्टमेट ( पारद प्रलेप ) तथा | अङ्गुः anguh-सं० पु० १- ( A hand ) हाथ बार्ड (शूकर बसा ) देखो - पारद । अग परटम् हाइड्राजिराई नाइट्रेटिस ungu entum hydrarg ritratis ले० नागरंग प्रलेप पारद नाइट्रेट प्रक्षेप, ( mercu [झा० सं० ई० डि० । hamamelidis--ले० हेमेनेलिस प्रक्षेप ( Hamamelis ointment ) संयोगो अवयव-लिक्विड एक्सट्रैक्ट ग्राफ हेमा मेडिस सॉफ्ट पैराफ़ीन तथा बूल फैट (वसा) । शक्ति – १०% । बी० पी० | देखो हमेमेलिडिस ( मेमेसिस वर्जिएना ) ग्रह augu-उ० ६० सू० २ - Fraxinusf]oribunda, Wall. अकून । मे. मो० । अङ्ग ुणः angunah - सं० पु० ( Solanum melongena,Linn. ) वार्ताकी, बैगन, भोटा | बेगुन- बं० श० र० । For Private and Personal Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अगु रि:--, री अङ्गुलिमानम् अङ्ग रि:-री angurih,ri-सं० स्त्रो. (A । यन्त्र विशेष । अङ गुस्ताना अङ गुष्टाना । या० jinger ) अंगुनी, हाथ पैर को अँगुली। सू० २५ अ०। (A fingin-protoctor) अ० टी० | देखो अंगुलिः । । अङगलिनलकम् guli-11alakam-सं० अङ्ग रीयःnguriyah-सं० पु, क्लो०, अंगु- क्ली० ( Pha.lalig.:) अङ गुल्यस्थि । रोयक । श्राड-टि बं० । अंगी। अङ गुलिपञ्चकम् anguli-panchakamअरू anguru सिं० Carboil लकड़ीका संजी० (The fiva fi gar's) कराङ्गुलि कोयला (Charcoal) ई० मे० मे । स० पञ्चक-हाथकी पांच उंगलियाँ जिनके नाम ये हैंफा० । श्रङ,गुला, तर्जनी, मध्यमा, अनामिका और अङ्गालः angulah-सं० पु. (1) A finger : कनिच्छिका। अगली । ( २ ) Thuinb अङ्गा | अङगलिपवं anguli-parv va-सं० क्ली० ( ३ ) A finger's bre dth (n. अङ गुल्यस्थि, पर्व, पोर्वे, पोर, अङ गुलिग्रन्थि । also ), equal to 8 barley corns | उंगलियों की पोर, उँगली का गाठ वा जोड लम्बाई की एक नाप । देखो-अंगुल । । ( Phalanx,phalanxes ) मालः angulah | सं० ० स्त्री०, १- _Phalanga (०२०), फैलेजीज़ Pha अलिः angulih (figer) पंगुली : langes (वय०) ई० मैंगुरी, करपाद शाखा | अगुस्तका । पाँचों अंगु- बुर्जुमर (ए०व०), बसजिम् (व०व०)। लियों के नाम क्रमशः इस प्रकार हैं। यथा- ' सुलामा (ए०व०), सलामय्यात् (व०व०) अङ्गुष्ठ, प्रदेशिनी, मध्यमा, अनामिका, कनिष्ठा ..अ०। रा०नि० २० १८ । प्राङ्गुल-० [२] श्रङ गुट में दो और शेष अङ गुलियों में तीन गजकर्णिका वृह । (३) हातिशु हे बं० । तीन पर्व अर्थात् अस्थियाँ होती है। पहिली पंकि करिशुदाय भाग, हाथोशण्डो ( Heliotro. : के पोयें सब से लम्बे और मोटे होते हैं । दसरी pinm Indicum, Lim) है. च० : पंति के इनसे छोटे और तीसरी पंक्रि के सब से (४) वृद्धांगुष्ठ, अंगून ( Guatitue ) छोटे होते हैं । अगुष्ट में केवल दो ही पक्रिया (५) लम्बाई का एक नाप । अङ गल The , हैं, अङगुम का दूसरा पो शेप अछ.गुलियों के measure. तीसरे पोर्वे के सदृश होता है। तीसरे पोर्वे पर प्रड लिकराटक: anguli-kantakah-सं०।। नख लगे रहते हैं, इन तीसरे पोवी को शकल go A finger nail (Ilelix __ घोड़े के खुर जैसी होती है । अङ्गुष्ठ के पोर्वे शेष Pashura) अगुलियों के पोव से मोटे होते हैं। ग्रह गलिका angulika-संस्रो० दे० अंगली। अङ्ग लिप्रसारणी पंशो nguliprasarani** at farm anguli-toranam-O poshi-,ino alto ( Extonsor of the को ललाट में चन्दन प्रगति द्वारा श्रङ किन finger उंगलियां फैलाने वाली पेशी । अर्द्ध चन्द्राकार चिह्न विशेष, तिलक विशेष । अङ गुलिफला inguli-phali-सं० श्री. देखी अंगुलितोरण । A sort of pulse ( Pascolus भागलि angulitram-सं० हाथ की पांच | radiatus.) श्वेतनिष्पावः,सफेद सेम । श्वेत अंगुलियाँ जिनके नाम ये हैं :-अंगुष्ठ, सर्जनी ! शिम्-बं०। रा०नि०। मध्यमा, अनामिका, कनिष्ठा। अङगु लिमानम् anguli-inānam-सं० क्ली० बङ गलिताणकम् anguli-tranakan- श्रङ गुलि से योजन पर्यन्तमान यथा । - यवः सं.क्ली. अड गुलिवाणक यन्त्र, उ नाम का अङ्गुल । २५ श्रगुल = हाथ । ४ हाथ= For Private and Personal Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अङ्गुलिमुखम् ११२ अगुल्यास्थियाँ १ दंड । २००० दंड-1 क्रोश । ४ क्रोश- अङग लिवाणकयन्त्रम् aligulitranakaयोजन । ya.ithun--सं०मी०यह हाथी दांत या काष्ठ अङग लिमुखम् ॥igitli-mukhan-संकी० का बनाया जाता है । इसका प्रमाण ४ अंगुल ( The forepart of thifinger)i होता है, यह असं यंत्र के सह गी के स्तन के श्रङ्ग ल्यग्रभाग अननो का श्रगे का हिस्सा । आकार वाला छिद्रों से युक्त होता है, इससे मुख अङगलि लरून्धि anguli-imla-sihindhi सहज में तुल जाता है। इस यंत्र से अंगुलियों सं० ना करभास्थि तथा अङ्गल्य स्थिको मिलाने! की रक्षा दॉनो से हो जाती है। इसी से इसका वाली सन्धि । मेटाकापों फैलेझियल या मेटाटासों | नाम अंगुली प्राण यंत्र है। वा० सू० अ० । फेलेजिअल जाइण्ट (Jleta.cimpo pha देवो-अंगुलित्राणकम् । langwal or lictatayrso pbalang.अङगुली anguli-स. स्त्री० १-गजकर्णिका cal joints )-इं० । अफिस लुल प्रस लुल (gajakarmika) मे० लत्रिक २-(A असाबीअ-अ०। ___finger ) अंगुली | अंगुलियों की अस्थियौं । अलिमाटनम् auguli-imota.nam ।। ___ अंगुली माप । अङ्गुलि-स्फोटनम् anguli-sphotunam | अङगुलाय anguliya-ki० अंगूठी । सं० क्ली० (Shipping or eucking: अरगुली प्रसारिणी (Anguli prasurini of the fingr) अंगुलि तोड़ने का शब्द, सं० स्त्री० अगुली को फैलाने वाली पेशी । अंगुलि मनज शब्द, अर्थात् जो शब्द अंगुली अजलद वासि गुल असाबीन-० । एक्सटेन्सर महन द्वारा उत्पन्न हो । त्रिका०। डिजिटोरम् कम्युनिस (Extensor Digiअङग लियाथूर tortun communis )-10। galisi thuhan ! हिं० पु. छोमियां सें हुई। अङगुलीया श्रमनी nguliyill hamariअङग कियापोपर anguliya pipart--हिं. संत्रो० शिरियान असावियह, अङ्गुली की पु. बड़ी पीपर । पापण करने वाली धमनी ( Digital ately) अङ्गलिसंकोचनो पेशियाँ angulisankocli- . अङग ल्याकुञ्चनो angulyakunchanimipshiyin- हिंस्त्री० उंगली सिकोड़ने सं० स्त्रो० अङ्गुली को सिकोड़ने वाली पेशी | वाले पट्टे । अजलह त झरीजुल असायी-अ०। फ्लेक्सर अङ गुलिसंकाचनो पेशा anguli-sankoch- लिजिटोरम् सनिलमिस ( Flexor Digit. anirushi-feo eto (Floxor of orum sublimis)-o! finger.) उंगलियों को अन्दर मोड़ने वाली अगत्युा angulytilya-सं० स्त्री० पेशी। __ अगुल्याधरा पेशी। श्रङ गलि संध angulisandhi-सं० स्त्री० ग्रॉपर धूलर डिजिटल (PTo: Tolardi अङ्गुलियों की सन्धि या जोड़ । डिजिटल पार्टी : gital)-इं०1 क्युलेशन ( Digital articulation) अङ गहयस्थि angulyasthi-स. स्त्री० । इं० । मसिलुल असायी-अ०। अङगुत्यस्थानि aligulyasthini-सं-स्त्री अङग लिसम्भूतः anguli-sambhutah अंगुलीपर्व, पोवं ( Phalanx. ) सं. पु. mai (Helix ashort ) नख (व०व०) रा०नि० व०१। श्रअ ल्यास्थियाँ angulyasthiyai-हिं० सी० अङग लि संवा anguli-sunjya--सं० २०व० पंचे की हड्डियाँ ; (Boney finge. ना० यवागू (yasagi) अंग लि-संधि ) | For Private and Personal Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमुश्त अङ्गष्ट बहिर्नायना अाश्त 11guzht..03-(A finger)! नेवला | Ifongoose (Virer: Mull अगुली, अङ्गुरी--हिं० । २--एक माप जो लगभग go)। २-( Ash arrow) वाण, तीर । ६ इंच के बराबर होता है। ३-( The अङ्गठः angishthah-सं० पु० वृद्धांगुलि, thunity) अङ गुप्त ! अगुांगलि, अंगूठा ( 'ille; thumb or अङ्गश्त-कोचक ngishta-kochak--फा० eat to.s)। अगश्त बुजर्ग-फा०पाँची कनिष्ठा-सं० । कानी अगुली, छोटी . अंगुलियों में से सब से मोटी अंगुली। बुहो अङ्गुली, छंगुली-हिं० । लिट्ल किंगर अागुल-वं० । रा०नि०३०१८ | ३ । (Little finger)-ई० । अङ्गाट अन्तरनाय नो Englishtha-alitala. अङ्गश्त गन्दह ngushtil-gandah-फ.. āyani- सं० स्त्रो० अंगुष्ठ को अभ्यर की (Assafa tila) हींग-हिं । श्रङ्गीजह- शोर ले पाने वाली पेशी | पुड्डक्टर पॉलिसिस फा० । हिल्तीत-अ०। हिंग , रामःम्-सं०। (Aductor pollicis)-३० । अज़लह, हिंग-वं० । मा०२० । मुकरिबह, अस अइयह अ० । अङ्गश्त दराज़ nggishta-lavaza-फा० , श्रष्ठ पृष्ट्या mgushth prishthya बृहदांगलि, मध्यमा, बीचकी अंगुली, लग्नी -सं० स्त्रो० एरिएरिया डार्सेलिस हैल्युसिस अंगली-हि । मिडल फिंगर (Middle (Atitniil (litisalis Hallucis ) finger)-इं०॥ - ई०। Ka Tara angushta-luşhuána- 463 saratati agit angushtha prata अंगुश्त शहादत--फ़ा। तर्जनो, प्रदेशिनी, अंगू: mani px;shi--हिं० स्त्रो० (Extensor के पास वाली अंगुली । कोर फिगर (Fore Primitent modii pollicis) अंगूठा finger )-इं०। खींचनेवाली पेशी अङ्गश्त नर augushta para-का० (The अङ्गष्ट प्रत्याकुञ्चनो ngishtha pratyak. thumb) अङ्ग प्ठ। umehli संस्त्रां अंगुष्ठ सम्मुख कारिणी श्रङ्गश्त वर्ग unglishta-buurga-शो० छुछून्दर,। पेशी । अपोनिअस पालिसिस (Opponcus चूहाभेद । Mol,musk rat (Sorex pollicis)--ई० । caerulescens) अङ्गष्ट प्रसारणी दीर्घा angilshthis prasiअङ्गश्त वुज़गnglishti-bIITY-अङ्गश्ता Tani dirgha--सं. स्त्री अङ्ग को फैलाने नर-का० । अङ्गष्ठः, अंगूठा--हिं० । थम्ब वाली दीर्घ पेशी । एक्सटेन्सर पालिसिस लोनस (Thtml))-इं० । (Extensor pollicis longus )-01 श्रङ्गश्त मियानह mgushtia-ilhiyansh.. अजलह, बासितह असावित्र ग्रह कबीरह अ० । फा० (fille fing:1) मध्यमा, बिनली अङ्गुष्ठ प्रसारणी हस्वा amgushtha-prasa. अँगुली। Titani-hitsva-- सं. स्त्री० अङ्गुष्ठ को अगश्तरी ingashtauri-हिं० संज्ञा स्त्रो० फैलाने वाली ह्रस्वा (छोटी) पेशी । एक्स[फा०] अंगूठी | मुंदरी । मुद्रिका । टेन्सर पालिसिस ग्रेविस ( Exteysor अङ्गश्त हाकह augushta-halqah-फ़ा० । pollicis brosis )--इं० । अजलह बासि. अनामिका, अंगूठो की अंगुली, छंगुली ! तह असबइ यह, सगीरह.- अ० । (कनिया) के पास की अगुली हिं० 1 रिंग | शान 'ठ बहिर्नायनो aungishtha-bahirnaफिंगर ( Ring finger')-ई। ymi--सं० स्त्री० अङ्गर को बाहर ( शरीर श्रङ्ग पः migtushah-सं० पु. (1) नकुल, की मध्य रेखा से दूर ) ले जाने वाली पेशी । For Private and Personal Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अङ्ग बहिर्नायनी दीर्घा १२४ ऐरुडक्टर पलिसिस ( Abductor poll- अङ्ग ठावनीपेशी angushthavarttani. icis )-ई। अज़लह, मुबइ.इदह अस .peshi-हि.न. (Abductor pojliबइयह--अ०। cis) अगूठे को लपेटने वाली पेशी । अङ्ग उयहि यनी दीर्घा augushtha-ba hir- अङ्गष्टयः angushthyah-सं० पु. (The nayani-dirgha--सं. स्त्री० अङ्गुष्ठ को . thumb-ilail) अंगूठा का नाखून । बाहर अर्थात् शरीर की मध्य रेखा से दूर ले जाने अष्ट्र angi--उ०प० स०अंगन । (Fraxills वाली दीर्घ पेशी। एन्डक्टर पॉलिसिस लॉगस । floribunda Wall.) मेम। (Abductor pollicis longus )-ko! प्रहरangira-ह. संज्ञा प.फा०,०। (1) अजलह मुबह इदाह असवह यह तवील-अक। दाक, दास-नह। अगर, डाक-द०। संस्कृत प्रा.प्ठ बहिर्नायनो ह्रस्वा ungus htha पर्याय-कृष्णा, चारफला (ज), रसा (शब्दर०), bahirnayaní-hrasvá-fo to मुहीका, गोरतनी, स्वाद्वी, मधुरसा (०), अगर को बाहर ( शरीर को मध्य रेखा से यमनी (शब्दमा०), प्रियाला, तापसप्रिया, दूर) लेजाने वाली इस्त्र पेशी। ऐठडक्टर पोलि गुच्छफला, रसाला, अमृतफरला, स्वादुफला, हारfame after (Abiluetor pollicis brevis)-१०। अजलह मुबइ इदहे अङ्गश्त हूरा, दाता, फलोत्तमा और सुफला सं० । सगीरह-०। दारणा, प्रांगुर-बं । इनव, अनय-अ० । प्राप्ठ सङ्कोचनी angushtha-sanko. . प्रोज़म--तुर० । वाइटिस बाइनिफेरा Vitis chani-सं. स्त्री गुरु को सिकोड़ने । vinifera,linr. (Fruits of grapes) वाली (मोड़ने या भुकानेवाली) पेशी । फ्लेक्सर -ले० । प्रेप वाइन Grape-vine, पॉलिसिस ( Flexor pollicis)-ई। प्रेप (iraps', वाइन Vine (try of-) प्रा. सङ्कोचनी दीर्घा angushtha-san- , - fazant #fazat Vigne, Cultivce kochinidirgha-सं. स्त्रो अगुष्ठ को . -फ्रां० । पडलीवीनरीबी Edleweii.rebe , मोड़ने साली दीर्घ पेशी। फ्लेक्सर पालिसिस . रोजीनेन Rosine:: जर० । दिराक्ष- पज़म, लॉगस (Flexor pollicis longus). कोडि-मुन्दिरिप-पजम,दिरा - परम (मो. श०); -₹.1 कोडि महि-ता० । दाह-पंदु, गोस्तिनिपरडु, अाठ सोचनो लम्बो angashthil- ; द्राक्षा-ते० । मुन्तिरिकप-पजम, मुन्तरि-परम sankochani iambi-हिं० स्त्री० पञ्च मुन्तिरिप-पजम (मो0 श०)-मल। (Flexor longus pollicis) लम्बी . द्राती-हर गु (मा. श०), द्राक्षे-कना । अगूठा सिकोड़ने वाली पेशी । द्राक्ष, द्वापो-मह । दाख (मो. श.), द्राक्ष, अङ्ग 8 सङ्कोचनी ह्रस्था ungushtha-san. धाव. मुद्रक-गु० । मुद्र-पलम्, मुद्रका (मा० kochani-hrasta-सं० स्त्री० अगुष्ठ श०)-सिं० । सबीसी, सध्या-सी, या ताति को मोड़ने वाली हस्व पेशी । फ्लेक्सर पालिसिस -वर० । दादा-को। ग्रेविस ( Flexor pollicis brevis ) सूर्यताप या कृत्रिम ताप द्वारा शक किए हुए पक्क अंगूर - मुनका, सूखे अंगूर (काली दाख) श्रत ठाकर्षणी angus hthākaushani -हि० । मुनक्का,-01 गोस्तनी, कपिलद्राक्षा, सं. स्त्री० अंगुष्ट अन्तरनाय नी । एड्डक्टर महीका, कपिलफला, अमृतरसा, दीर्वकला, पालिसिस (Adduetor pollicis)-10 | मधुवली, मधुफला, मधुलि, हरिता, हारहूरा, अज़लह मुकरिबहे गुश्त-अ० सुफला, मबी, हिमोत्तरा, पथिका, हैमवती, शतअष्ठाना angushthani-सं0 स्रो० (१). वीर्या,तथा काश्मीरी (-रिका )-सं० । मोनक्ख, अगुष्ठ । (२)अंगुलित्राणक, अंगुश्ताना | मनेका, सस्का-द्राख्या-बं० । बीब, मवेग, For Private and Personal Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रङ्गर प्रङ्गर मुनाका,-अ० । अंगरे खु.रक-फा० । यूवी ! Uvil,यूबी पैसी Uvat pussur-ले० । रेजिन्स Raisins-५०,०। रोजिनेन Rosinen -जर० । Monaqqa मोनकर-हि०,३०,फ़ा। उलन्दंदिराक्षप-पज़म्, उलन्द्राच-परम्-ता० । दोपद्राक्ष-पण्डु,सन्न-दान-पंदुरंदुद्राक्ष पंडु-ते। मुन्तिरिरूप-पज म, उहिल्य-मुन्तिरिकरूप. पज़म् (-परम् )-मल०। दीप दाक्षि-कना । । थेलिचे मुद्र-पलम्, वेनिश-मुद्रका-सिं० । मबी. सी, सन्यासी या तबी-ति-- सर० । पीज. : रहित लधु द्राक्षा-किशमिश, बेदाना-हिं० द०, फा० । काकली छावा, जानुका, फलोसमा, लघुद्राक्षा, चुद्र द्राधा, निर्धा, सुवृत्ता, रुचिकारिणी, ( रमाधिका, लघुद्राक्षा )-सं० । किसमिस-०, गु०, म किसमिस-द्राकसुल्तानस Sultanas, रेजिन्स Raisins - किशमिश, अगुल दाख (मा० श.)फा०। चिकुद्रा-कना०। किसमिस पंडु-ते। नोट-पके सूखे हुए लाल अगूर को मुनक्का और छोटे एवं बीज रहित को किसमिस तथा बड़े और काले वर्ण वाले को गोस्तनी , (काली दाख ) कहते हैं। काले 'गूरोंकी काली दाखें और भूरे अंगूरों की भूरी दाखें होती हैं। चरक में केवल मीका और सुश्रत में केवल द्राक्षा के गुण का निश किया गया है। पर्वती तथा करोंदी नाम से इसके और दो अन्य भेद हैं। भाव। एम्पेलिडोई अर्थात् द्राक्षावर्ग (NO. Ampetidece ) उत्पत्ति स्थान-यह उत्तरी पश्चिमी हिमालय | (या भारतवर्ष) अर्थात् पंजाब, काश्मीर, काबुल, बलूचिस्तान, अफगानिस्तान, कन्दहार तथा फारस और यूरूप प्रभृति प्रदेशों में बहुत लगाया जाता है । हिमालय के पश्चिमी भागों में यह पाप से पाप भी होता है। और और जगह भी लगाया जाता है। संयुक्त प्रदेश के कमाऊँ, कनावर और देहरादून तथा बम्बई प्रांत के अहमदनगर और औरंगाबाद, पूना और नासिक प्रादि स्थानों में भी इसकी उपज होती है । बंगाल में पानी अधिक बरसने के कारण इसकी बेल वैसी नहीं बढ़ सकती। वहाँ केवल तिरहुत और दानानगर में थोड़ी बहुत रट्टियाँ हैं। इतिहास-दाता और मदीका नाम से अ'गूर का वर्णन सुश्रुत और चरक मादि सभी प्राचीन आयुर्वेदीय ग्रन्थों में मिलता है। यही दशा यूनानी तथा अरबी ग्रन्धी की है। इसकी कृषि एवं उपयोग का ज्ञान उन्हें बहुत प्राचीन कान से रहा है, और निज प्रमों में अपने अपने दृष्टिकोण के अनुसार इसके उपयोग एवम् गुणधर्म के सबन्ध में उन्होंने काफी प्रकाश डाला है। जैसा कि प्रागेके वर्णन से विदिन होगा। इसके द्वारा प्रस्तुत हुए मध के मारक प्रभाव से वे भली भाँति परिचित थे । अस्तु श्राों का सोम तथा यूनानी पुराणों का प्रारम्भिक मद्य निःसन्देह स्वर्गीय अमृत था। भारतवर्ष में इसकी खेती कम होती थी। फल प्रायः बाहर ही से मगाए जाते थे। मुसलमान बादशाहों के समय में प्रगूर की ओर अधिक ध्यान दिया गया । अाज का हिन्दुस्तानमें सबसे अधिक अंगुर काश्मीर में होते हैं। जहाँ ये क्वार महीने में पकते हैं। वहाँ इनकी शराब बनती है और सिरका भी पड़ता है। महाराष्ट्र देश में जो अगर लगाए जाते हैं उनके कई भेद है, जैसे प्राबी, फकीरो, हबशी, गोलकली और साहेबी इत्यादि। अफगानिस्तान, बिलूचिस्तान और सिंध में अंगूर बहुत अधिक और कई प्रकार के होते हैं, जैसे-हेटा, किशमिशी, कलमक, हुसैनी इत्यादि। किशमिशी में बीज नहीं होता । कंधारवाले हेटा अगर को चूना और सजीखार के साथ गरम पानी में डुबाकर प्राबजोश और किशमिशो को धूप में सुखा कर किसमिस बनाते हैं। वानस्पतिक वर्णन-अगर की बेले काठ की रष्टियों पर चलसी हैं। इसके पत्र हाथ की प्राकृति के कुम्हदे वा नेनुए की पत्तियों से मिलते मुलते होते हैं, मानो हथेली में पाँच अंगुलियों लगादी गई हों । फल गुच्छों में लगते हैं। For Private and Personal Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अङ्गर अङ्गर अगर पुष्प में दो कोपीय डिम्बाशय होता है : और प्रति डिम्बाराय में दो-दो डिम्ब होते हैं। ये डंठल युक, स्थूल, गदादार, गोल या अएदा- । कार (झड़येरी के सदृश ) फल रूप में विकास पाते हैं। कोष भिन्न हो जाता है तथा उनमें से कुछ बीज साधारणतया नष्ट हो जाते हैं। चूँ कि फल ईटल से और उंटल शाखा से नहीं जुड़े रहने, इस कारण परिपकावस्था में ये झड़ते नहीं, किन्तु उन पौदे में ही लगे रहते हैं ( पर यह शर्त है कि सूर्यनाए काफी हो) और धीरे धीरे सूख जारे हैं । उक्र शुष्क फल को सूर्य ताप द्वारा पका हुआ किशमिश कहते हैं । फल इसके छोटे, ब, गोल और लम्बे कई श्राकार के होते हैं। कोई नीम के फल की तरह लम्बे और कई मकाय ! की तरह गोल होते है। __ रासायनिक संगटन-फल के ग्ढे में अगरी | शकर (दादोज) तथा क्रीम ऑफ टार्टार ( Cream of tart:#7 ) SACST होता है । इसमें निर्यास तथा सेब की तेजाब भी विद्यमान होती है । बीज में एक प्रकार का स्थायी तेल होता है । (एट-)। धीज तथा फालत्वक् में ५-६ प्रतिशत करायाग्ल (दैनिक एसिड) पाया जाता है। फार्माको । डॉ जे० कानिक तथा सीक्रश्च के विचार से ! काली दाख में जल २३. १८, अल्ब्युमिनस पदार्थ | . २. ७१, घसा ०.६६, द्वाज ( ग्रेप शूगर) १५.६२,अन्य अनत्रजनीय पदार्थ १४.१२,काष्टोज १.१४, तथा गत १.३६ प्रतिशत विद्यमान होती हैं। शुकद्रव्य में उन्होंने मत्रजन ०.१६ और । शर्करा ७२.४३ प्रतिशत पाया। डॉक्टर इ०क और कपोटलो के परीक्षणानुसार किशमिश में जल २०.४, ट्रात रारा ३०२ लिप्यु जोज़ ३६.४, पेक्टिन १८६, फ्री एसिड्स ३.७६,सेब की जा ०.३८, अलि ३.२८, अनवुल पदार्थ ५.० तथा भस्म २.०३ होती है। डॉक्टर एम. सी. म्युयार के परीक्षानुसार अगर पत्र में | इमली की नेजाब (टार्टरिक एसिड) थाइटार्टेट ऑफ पोटाश, कसेंटीन, क्वर्सिट्रीन, कपायिन, | श्वेतसार, सेव की तेजाब, गिर्यास, इनोसीट, अस्फटिकवन शर्करा, प्रॉकज़लेट श्रॉफ लाइम तथा एमोनिया और फॉस्फेट व सल्फेट प्रोफ़ लाइम विद्यमान होते हैं। प्रयोगांश-फल (पक्व या अपक), कुछ शुष्क फल [ किशमिश मोगका प्रभ। ) तथा पत्र। __ मात्रा-शर्यत, प्राधे से एक फ्लुइड ग्राउन्म (२४ घण्टे में ५-६ यार)। किशमिश या मुनक्का १ तो० से २॥ तो० तक (दिन रानमें ३-५ वार )। . औषध-निर्मागा--द्राहा सुरा (Vimum), द्राक्षारिष्ट, द्वाज्ञासव, द्राक्षाचुक या अगरी सिका ( vingar of graps) प्रभति। प्रनिनिधि-यूरोपीय औषध, इमली और नीबू की तेज़ाब (अगर के लिए ), 'पालुबुस्वारा और शीरतिशत (किशतिरा के लिए) मो० शु० । गम्भारी फल । . सि. यो. व. चि० विपयादि, वा० सू०१५ श्र० परुप कादि, च. द. घा० ज्व० चि) पिपयादि, पा० ज्य. चिद्राक्षादि। द्राक्षा के गुणधर्म व उपयोग श्रायुर्वेद को दृष्टि सेः-- पका अंगर-दस्तावर, शीतल, नेत्रों को हितकारी, पुप्टिकारक, भारी, पाक नथा रममें मधुर, स्वर को उजन करने वाला, कला, मल तथा मूत्र की प्रवृत्ति करने वाला, को में वायकारक, वृष्य ( वीर्य को बढ़ाने वाला), कफ तथा मचि को उत्पन्न करता है और नृपा, ज्वर, श्वास, काम, वानरक, कामना मूत्रकृच्छ, रनपित्त, मोह, दाह, शोप नथा गदात्यय रोग को नष्ट करता है। गोम्तनी ( गाय के स्तन के सहश) अर्धान कालीदाख घीर्यवर्धक (वृष्य ) भारी और कफ नथा पित्त को नष्ट करने वाली है। कचा अंगर सीन गुण वाला नथा भारी है । खट्टा अंगूर रक्रपित्त को करने वाला है। बीज रहित अथवा छोटे बीजों वाली (किशमिश) गोस्तनी दाख के सदृश गुणों वाली है। पर्वतमें उत्पन्न हुई (पम्वतीय) दाख हलकी, अम्ल और कफ तथा रक्रपिन को करने वाली है। For Private and Personal Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रङ्गर १६७ करमकि ( करौदे के सह ) दाख में भी पर्वतोत्पन्न दाख के सदा गुण हैं । भा० द्राक्षा २० । दाख मधुर, खट्टी, करौली है और किसी चार के साथ पित्त, बात और कफ का नाश करती है, उत्तम है तथा रुधिर रोग, दाह, शोष, मूर्च्छा, ज्वर, श्वास (श्वसन ) और खाँसी को दूर करती है। जो दाख विपाक में कषैली व म्ल ( कपायाल ) होती है वह कफ में दिन है श्रत्रि० १७ श्र० । 1 शीतल, नक्षीण, दाख मधुर, स्निग्ध, वीर्यवद्ध के, मतभेदक, बलकारक एवं वृष्य हैं तथा बाव और पित्त का नाश करती है । रा० नि० । दा मधुर, खट्टी, शीतल, पित्तनिवारक, दाहनाशक, सूत्रदोषहारक रुचिकारक, वृष्य और तृप्तिकारक है । रा० नि० । कच्ची दाख कटु, उष्ण, विशद, रकपित्तकारक है । मध्यम अवस्था की दाख खट्टी, रुचिकारक और अग्नि है । पक्की दाख, मधुर, खट्टी, नृनाशक और रकपितनाशक है । पक कर सूख गई हुई दाख श्रमनाशक तृप्तिकारक और पुष्टिजनक है। धातु के शोषनाशक, प्यास को हरनेबाली, धान को दूर करने वाली, वगन रोग : नाशक, पचने में अम्ल, सुरस, मधुर, शीतवीर्य, ज्वर और कफ को हरने वाली, सूत्र और मल को शोधने वाली । गोस्तनी दाख शीतल, हृदय को हितकारी, कानुलोमक, स्निग्ध, और हर्षजनक है तथा श्रम, दाह, मुर्च्छा, श्वास, खाँसी, कफ, पित, ज्वर, रुचिरविकार, तृषा, वार और हृदय की व्यथा को हरने वाली है । किशमिश मधुर, शीतल, वीर्यवर्धक, रुचिप्रद, हा रसाल है तथा श्वास, खाँसी, ज्वर, हृदय की पीड़ा, पित्त, सतवयं, स्वरभेद, कृपा वात, पित्त और मुख के कड़वेपन को दूर करता है | द्राक्षा रस में मधुर, स्निग्ध, शीतल, हृद्य ! Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रङ्गर और स्वयं है तथा रकपित, ज्वर, श्वास, तृष्णा और दाह का नाश करने वाली है 1 मृद्रका मधुर, स्निग्ध, शीतल, वृष्य और अनुलोमक हैं तथा रक, पत, श्वास, कास, श्रम, कृष्णा और ज्वर का नाश करने वाली है । धन्वन्तरीय निघण्टु | गोस्तनी - मधुर, शीतल, हृद्य और मदहर्षिणी है तथा दाह, मूच्छां, ज्वर, श्वास, तृषा और हल्लास को नाश करने वाली तथा शीतल और मनुष्यों को प्रिय है । द्राक्षा के विशेष गुणदावा 'वालफल' कटु, उष्ण, विषदोष जनक और rafter को करने वाली है। 'मध्य' और रसान्तर को प्राप्त अम्लरस युक्र रुचिकारक और अग्निजनक है । 'प' और मधुर तथा अम्लरम सहित तृष्णा और पित्त को दूर करने वाली है। "क" अत्यन्त सुखी हुई श्रमजनित पीड़ा को शमन करने वाली, संतर्पण और पुष्टिदायक शीतल तथा पित्त और रक के दोषों को शमन करती है । एवं मधुर, स्निग्धपाकी शोर श्रत्यन्त रुचिकारक है । चतुष्य, श्वाल, कास, श्रम तथा वमन को शमन करने वाली, सूजन, तृष्णा और उवर का नाश करने वाली है एवं श्राध्मान, दाह तथा श्रम आदि को हरण करनी और परम तर्पण है। द्वाता जीस श्रीर्थ वाले को भी मदनकला केलि में दक्ष बनाती है । रा० नि० । तृष्णा, दाह, अब, श्वास, रकपित्त, न वा क्षय, वात, पित्त, उदावर्त, स्वरभेद, मदात्यय, मुँह का कड़वापन, मुखशोप और काम को दूर करती है | मुद्रीका बृंहण, वृष्य, मधुर, स्निग्ध, और शीतल है । चरक फ० ० । द्वाचा दस्तावर, स्वर्य, मधुर, स्निग्ध और शीतल तथा रकपित्त, उजर, श्वास, तृष्णा, दाह श्रौर क्षय का नाश करने वाली है । सुश्रुत | द्राक्षा के वैद्यकीय व्यवहार सुश्रुत-मूत्रावरोधज उदावतं अर्थात् मूत्रवेग के धारण से उदावर्त रोग होनेपर द्राक्षा का का प्रस्तुत कर पिलाना चाहिये । ( उ० ५५ ० ) For Private and Personal Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११. वाग्मह (१) मदात्यय रोग में होनेवाली पि. पासा में वात, पित्त की अधिकता वाले मदात्ययी को, शीतल किया हुश्रा द्राक्षा का काथ पिलाना चाहिए। श्रीपध के पच जाने पर बकरे के मांस से बनाए हए यूप के साथ गधुराम्ल वस्तु का भोजन करने का आदेश कर देना चाहिए । (चि०७०)। (२) मूत्रकृच्छ, में द्राक्षा को बासी जल के साथ पीसकर जल के साथ सेवन करने से मूत्रकृच्छ. प्रशमित होता है। (चि०११ अ०) चकदत्त दश वर्ष का पुराना धी ६४ सेर, द्वाक्षा करक 5 सेर एवं जल १६ सेर का मृदु अग्नि से यथा विधि पाक करें। यह पृत रक पित्त, कामना, गुल्म, पांडु रोग, ज्वर प्रमेह और उदर रोगों को नष्ट करता है । (रक्तपित्तचि०) - यूनानो ग्रंधकार अंगूर को-दूसरी कक्षा | में गरम तर मानते हैं। कच्चा प्रथम कमा में डा और दूसरी कक्षा में रूप है । हानिकर्तास्निग्ध प्रामाशय और नीहा को तथा वायुजनक | है। दर्पध्र--- सॉफ और गुलकन्द । प्रतिनिधि किसी किसी गण में श्रीर व मवेज़ मुनबका। गुण, कर्म, प्रयोग- यह अत्याहार है; क्योंकि इससे शुद्ध रूधिर उत्पन्न होता है जो अपनी मधुरना के कारण हृदय को अत्यन्त प्रिय है; अतिरिक इसके अपनी तारल्यता के कारण यह शीघ्र शाषित हो जाता है और इसी कारण वल्य है। पूर्णतया पका हुश्शा अंगूर उत्तम होता है; क्योंकि यह अत्यन्त मधुर होता है तथा इसमें अपक द्रव बहुत कम होता है। लटका कर रखा हुआ अंगूर इससे उत्तम होता है; क्योंकि इस दशा में वायु का, जो अवशिष्ट द्रव को लयकरता है, चारों ओर से प्राधिपस्य रहता है । इसके विपरीत जो किसी स्थान में रखे हुए हों विशेषतः जब अत्यधिक तह पर तह रखे हुए हों तब वे इससे कनिष्ऽतर होते हैं। इसी प्रकार विलम्मका तोड़ा हुश्रा अंगृर भी उत्तम होता है, क्योंकि रस ! जो अंगूर के प्राहार में व्यय होता है उसकी और शीघ्र शीव्र पहुँचता है। इसका कारण यह है कि अगूर का वृत्त अपनी उत्ताप शनि के कारण जल शोपण में अधिक शनिशाली है। इसके अतिरिक्र इसका वृक्ष पूणरूप से सीधा खड़ा हुधा नहीं होता । इस कारण जल भी इसकी यो। सरलतापूर्वक शोपिन होता है। इसके सिवा यह अत्यन्त पिलपिला होता है, और इसमें अाहार नजिकायें अत्यन्त विस्तृत होती हैं। और चूंकि अंगूर की भोर अाहार प्रवेश तीव गति से होता है, इमलिये वह अप' रहता है तथा उक्र अवस्था में शेर होता है, जिसमे वाय एवं सदरामान उद्धत होते हैं। किन्तु, तोड़ने के पश्चान् जब कुछ समय तक रखा रहता है तब इसके अवशिष्ट रतूयतों का प्रायः भाग लय हो जाता है। अगर वस्ति को हानिकर्ता है; क्योंकि यह शिथिलता, तीरणता और शोपण उत्पन्नका।शैथिल्य जनन का कारण यह है कि उक रतूबत के कारण वसि अधिक स्नेह युस हो जाती है, क्योंकि इसकी और अंगूर को रतबत अधिकताके साथ प्रवेशित होती है। और क्योंकि इसकी रतूबत मात्रा में अधिक प्राशुकारी तथा मत्रजनक होती है। नीषणता का कारण इसका माधुर्याधिक्य है। (मो.) अंगूर शीघ्राकी, पक्राशय को थैला में शीत्र उतरनेवाला और प्रत्याहार है; उत्तम रुधिर उत्पन्न करता और शरीरको वृहण करता है। यह रमशोधक वातजमल को हराकर्ता, स्वच्छ करना, मल को पक करता है। यदि इसको विस्मी के साथ पक करके शोथ पर लगाएँ तो यह शोध को शीघ्र ही लय करे । यह छिद्रोद्घारक है और मन को प्रसन्न करता है। अंगूर के छिलका और बीज शीतल तथा रुस हैं। गुठली वायुकारक, विवंधकारी, मूत्र एवं वीर्यस्तम्भ कारी है। अपक्क घंगर शीतल तथा संकोचक है। इसके बीज तथा स्वचा को नहीं खाना चाहिए। इसकी लकड़ी की राख वस्तिस्थ अश्मरीध्वंसक, शीतल, अण्डशोध तथा पर्श For Private and Personal Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अंतर नाशक है । अन्तिम दो रोगों में इसका वाह्य तथा | याभ्यन्तर उपयोग होता है। मुना-प्वरूप-काला और लाल | स्वादमधुर । प्रकृति--१ कक्षा में गरम और सर।। हानिकर्ता-उरण प्रकृति वालों को और रुधिर, वृत को स्वच्छताप्रद है । दर्पनाशकसिकबीन, खशवाश और अम्ल फल स्वरस । : प्रतिनिधि-किशमिश तथा इसका अभ्य भेद पावजोरा । मात्रा--१. दाने से २० दाने तक। गुण, कर्म, प्रयोग-विशेष कर यह अत्याहार, वृंहण, कामधंक तथा हृय है । पिन की तीक्ष्णता और उष्णता को शमनकर्ता, कफशोधक, . दोषों को पक्कीर समपक्क करता, प्रकृति को मृदुकर्ता, वायु को लयका, आमाशय और शांत्रियों को स्वच्छकर्ता, शरीर को श्रृंहणकर्ता, यकृत और शीत प्रकृति बालों के प्रोज को बलप्रद तथा फुप्फुस प्रान्त के अनुकूल है। पशुओं की चरबीके साथ इसका लेप शोथको लय . करता है । यह भुना हुअा गरमागरम खाँसी को गुणकारक है। मुनक्का रेचक औषधियों का सहायक एवं बस्ति व वृक्क के रोगों को लाभप्रद है 1 गावजुबान ' तथा ताजे छुहारे के साथ मूर्छा को लाभप्रद और लोबान के संग विस्मति तथा सिरके के साथ पांडु को लाभप्रद है । कालीमिर्च के साथ मूत्र. कृच्छ, तथा बृकाश्मरी एवं वस्त्यश्मरी को लाभप्रद है । इसका क्वाथ प्रकृति को मृदुका तथा | शीत कपाय सिरके के साथ प्लीहा शोथ को लय. ! और तर तथा बीज डे और रूर हैं । हानिकर्तावृक एवं उष्ण प्रकृति को । दनाशमसिकं जमीन व स्वसवास तथा उमाब । प्रतिनिधि. मवेज मुनक्का उचित मात्रा में । गुण, कर्म,प्रयोगइसका विशिष्ट गुण यकृत, हृदय तथा मस्तिक को बलप्रदान करना श्रीर कामशति को बढ़ाना है, एवं गाड़े दोषोंको पक करना, प्रकृतिको मृा करना, रोध उद्घाटन नथा श्रामा सयको स्वच्छ करना है। यह कठोरता को मका , कफ प्रकृति को कोमल करना, श्वास को लाभद, प्रोजको बलवान करता, शरीर को वृहण करता, रेचक होते हुए भी मस्तिष्क को लाभप्रद है। मुच्छ नाराक, वस्ति तथा वृक्करोग को लाभप्रद, अंगूरी सिरके के साथ प्रीहाशोथलयकारक तथा हृदय व वात तंतुओं को अलप्रद और प्रत्याहार, एवं विस्मृति रोग नाशक भी है। अंगरक्षार-इसके पञ्चांग से निकाला हया शार अश्मरीभेदक है । मात्रा-२ - ४ रत्ती । अंगूर आदि के गुणधर्म व प्रयोग डॉक्टरों के मतानुसार। डॉक्टर मोहीदीन शरीफ़-स्वलिखित मेटेरिया मेडिका में स्वानुभव को निम्न प्रकार से पेश करते हैं। यथा प्रभाव-अंगूर, उत्तापशामक, मूत्रजनक, तथा ज्यरनाशक है। किशमिश (अधिक मात्रा में ) स्निग्धताकारक श्लेष्मानिस्सारक तथा उदरकर्मा (Laxativ.. ) है । (थोड़ी मात्रा में) संकोचक है। करता है। मुनक्का के बीज-प्रकृति-१ कक्षा में उंडे और २-कक्षा में रुक्ष । हानिकर्ता-वृक्क को । दर्पनाशक-उमाब व अमलतास । स्वादफीका, दुःस्वाद। गुण, कर्म, प्रयोग-बद्धक, प्राध्मानकर्ता, । स्निग्ध-प्रामाशय तथा प्रांग्र को अलप्रद तथा स्निग्धता शोषणकर्ता है। किसी किसीने स्तम्भक भी लिखा है। किशमिश। स्वाद-मधुर और चारानीयुक । प्रकृति-गरम प्रयोग-गूर का शर्बत अतिग्राह्य तथा शीतजनक पेया है और अनेक ज्वरों में ज्वर सम्बन्धी लक्षणों तथा तृपा को शमन करने में अत्यन्त लाभदायक सिद् होता है । उक डॉक्टर महोदय कहते हैं कि मैंने मुत्रदाह, मूग्रावरोध तथा मूत्रकृच्छ, और पैत्तिकाकीर्ण की कतिपय दशात्रों में इसका उपयोग किया और इसे लाभप्रद पाया । यह अन्य औषधियों के लिए विशेषतः उनके लिए जो अजीर्ण, प्रवाहिका, अतिसार तथा जलोदर For Private and Personal Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अगरी शराब प्रति विकारों में व्यवहत होती है, सात्तम एवं ! किशमिश - विविध ग्वं इमोदकादि में व्यव. अतिग्राम अनुपान है। हत होता है। शवंत निर्माण-विधि--पक द्वाजा स्वरस (मे० मे० ई०२ य शा० १३७ पृ.) १ सेर, जल १॥ सेर, शुद्ध स्वच्छ शकरा २ सेर । । मुकर्जी-किशमिश शीतल तथा मृटुभेदक सर्व प्रथम शर्करा को जल में डाल कर अग्नि पर स्याल किया जाता है और खाँसी, प्रतिध्याय रखकर धोलें, पुनः अंगुर स्वरस मिलाएँ ।। तथा पांडुरोग में व्यवहृत होता है। तत्पश्चात् सम्पूर्ण द्रव को मधुर अग्नि द्वारा यहाँ हि. संज्ञा पुं० [सं० अंकुर ] (२) मांस तक पकाएं कि वह रह जाए । मात्रा-प्राधा से । के छोटे छोटे लाल दाने जो घाव भरते समय १ फ्लुइड श्राउंस ( २४ घंटे में ५-६ बार )। दिवाई पड़ने हैं । (३) अंकुर, अंग्वुअा। डाइमक-प्रया अगर स्वरस को अरबी में श्रपरका मड़वा anguri-ka-mastvā-हिं० हम रम, फ़ारसी में ग़रह, अंग्रेज़ा में वरजूस . संज्ञा पु. अंगूर की बेल को चढ़ने और फैलने (Varjiivs) तथा रूमी में अग्रेस्टो के लिए बॉस की धज्जियों का बना हुआ मण्डप । (Angr'sto) कहते हैं। वह इटली में श्रय : श्रङ्गर की टट्टी tiguru-ki-tatti-हिं० तक कंठरोगों में व्यवहृत होता है । वसंत ऋतु में संज्ञा स्त्रा० अंगूर का मड़वा। अंगूर की शाखाओं को काटने से उनमें से अधि- अगर को शकरा amgirit-ki-shutkula कता के साथ रस निकलना है। यह त्वचा रोगों हि संज्ञा स्त्री० दादीज, द्राक्षा खंड, दाख में व्यवहृत होता है । अब भी यूठा में चतु प्र... की शर्करा | (iyap; Sigity' (Dextrose, दाह के लिए यह एक प्रसिद्ध श्रीपथ है। glucost.) इसका पत्ता संकोचक है, तथा अतिसार में श्रार शेका ligurashifa-हिं० संज्ञा प. उपयोग किया जाता है । [फा०] (Dulcaman) एक जड़ी जो भार० एन० खंरो-औषधार्थ प्रयाग करने । हिमालय पर शिमले से लेकर काश्मीर तक होती से पूर्व अंगूर के बीज एवं छिलका नर कर देने है । इस स'ग अंगूर, सूची, जवराज तथा गिर बूटी भी कहते हैं। इसकी जड़ और पत्तियां दमे चाहिए। मुनका महर, स्निग्ध, शीन तथा : मृदुरेचक है। इसको प्रायः ग्रीषध को मधुर और वायु के दर्द को दूर करती हैं। देखाकरने के लिए प्रयोग में लाते हैं। यह ज्वर की अंगरे शिफ़ा। पिपासा, प्रदाहमुलक पीड़ा एवं कोयन्द्र रोग में अङ्ग Tanguri--हिं० वि० [फा० अंगूर+ई] सेवनीय है। पत्र-कपेल्ला है और अतिसार रोग (1) अंगूर से बना दुा । (२) अंगूरी रंग में व्यवहृत होता हैं। का । काठ की भस्म-अश्मरी रोग के पूर्वरूप में संज्ञा पुं० कपड़ा रंगने का हलका हरा रंग एवं भावीरोगोत्पादनानुकल अवस्था में शरीर में जो नील और टेसू के फूल को मिलाकर बनाया युरिक एसिड सञ्चय हेतु अनागनव्याधि प्रतिषेधक : जाता है। रूप से अर्थात् भावी व्याधि उत्पन्न न हो; इस अङ्गरी शकर anguri-sha kart-फा--हिं लिए इसका उपयोग करते हैं। एतद्देशीय लोग संज्ञा प. द्राक्षीज, द्राक्षखंड, अंगूर की शर्करा कोष्ठ वृद्धि रोग एवं अर्श में इसका प्रलेप (Dextroso) करते हैं। अङ्गग शराब anguri-shariba-हिं०, द० कपिलद्राक्षा ( भूरीदाख ) साधारणतः । द्राक्षासव, मथ । खम्र, शराष-अ० । मै, बादह, रेचक मिश्रणों में उपादान रूप से व्यवहृत होती मुल-फा | शाइयाम-ता० । द्राक्षसारायि, । द्राक्ष रसम्-ते० । मुन्तिरिट ङप पज़म-चारायम For Private and Personal Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अङ्गरा सिका अहि: जिति -मल० । द्वा-नु-दारु-गु० । मूदिर-का-अरकु, ! अङ्ग रे सगanguis-sing-फा० (Jacquins मूदिरक-पान--सिं० । वाइनम Vinum lightshale) इहे गा० । (Foment: 1 juic of rapese K Ti angúshah-ri T. (An ichuWin; OF Port wite )-ल० । स० on) एक चारपाया जानवर । फा० इं०। अङ्गज़ angriza-अफ० अफगानी भाषा में इस अझरा सिर्का anguri.sirka-हि०, द. अंग का नाम नरेअालम है। यह एक घास है जा र सिर्का-बं० । खल्लुल खमर, वल्लुल अमब ___ गीलान के पहाड़ों में उगता है। नर व मादा -अ० । सिहे अंगरी-फ़ा० । दिरात काडी भेद से दो प्रकार का होता है। -ता० । दान-पुल्ल नील्लु-ते०। मुन्तिरिङङ ! अङ्कज श्रवरतस anger.a-avarathasaकाटि-मल. द्राक्षी-काडी-कना । द्राख्नु प्र. अजफारुतीब,नख (Helix ashelia) सिौ -गु०। विनेगर श्राफ ग्रेप्स (\ imegal ! अहोकर anokara-ते० (Homoridica of grapes or with vinegar) dioica Rord.) धारकरला-हि० । फा० - इं० । स० फा० ३०। इ. भा०। अगरे कायुलीgurrey killi-फ: अशोज़ह. angozath-फा० (Assufastida) किशमिरा, काबुली किशमिश । Ruisin | हींग-हि. हिंगुः, रामटम्-सं०। (Cvit, Uriu patssit.) अङ्गोज़हे इलरी ungora he ilari-फा० अरे कोली angurt-kuuli ) -फा० (Asafoetida) हींग, हिङ्ग -हिं० । अङ्गरे खिरस angure-khirus) रीछदाख । यूवी प्रसाई फोलिया ( Uvursi folit) प्रमोदवर्तन aligoda-vartanu-सं० अंग. लेपन, अनुलेपन, लेप । 'Thy hair-wush -ले०। ए० मे० म०। (Lininent) फा० इं० २ भा० । angure.khushi-फा० मुनक्का, सूखे अंगूर, किशमिरा | Raisins (Uvie, अशोरम् | ngoram-कोपल,नवपल्लव (Bud). अङ्गोल augola-सिं० अङ्कोल (Alangilim Uve passi!' ) अङ्गर सिर्का angreja-sika-० अंगूरी ___tlecape talum, Lan.) स० फा० इ० । अङ्गीन 1mgouna-बर० (ए० व०) मुकुल, सिर्का ( Vinegar of grPUS ) स० कलो ( Bud.) फाइ01 अङ्गीन मियात्रा angon-niyaa वर. (ब० अरे रूवाह aligolti-rābāh-फा० मको, व०) कलियाँ ( Buls). काला मको, ऊदा मको-हि.1(Solanum अङ्ग वेण्टा ungnenta-ले० ( ब० व. ) Nigrum, H. hot Lin.) स० फा० अङ्ग एण्टम् (ए० ब०) अङ्गरे रूवाह पुत्र ligure-ribihasy- अङ्घालजी ghala.ji-सं० स्त्रा० अन्ध्रालजी kha-का0 मका, रक (लाल) मको-बं०, रोग (Andhrilaji). feel( Solanun Rarian, Jill.) 5:aughrihgo 9-( The अङ्गरे रूबाहे सियाह inguits-rubahes- | अंह्निः mhrih toot of tree) siyah-का० काला मका-हिं०। (Sola. द्रुम मूल, वृक्ष को जड़ । रा०नि० ब०२ । Jilm highlim, ht. not Lin.) अम० । २-(Foot.) पाद, घरण, पाँव ! अङ्गरे शिगाल anguts.shighala-का0 (Lower limb) ग०नि० २०१८ ! # Hittur sweet(Duicamara). / anth anghri-yranthikano अगरे शिफ़ा nigurashifa-फा० ( Dil | क्लो० पिप्पलीमूल (Pipal !oot. ). Manmall ) मको-हि । अयि जितिक; ghri-jihvikali-सं० पु. For Private and Personal Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir / अडि नामकः,-नामन् १९२ अचलेश्वरः दमनक वृक्ष ( Artemisia indica, ! - mountain पर्वत । (२)A iolt or Pld.). pill शंकु । संज्ञा पुन चलने वाला। अति नामकः,-नामन् aughri.hamaka hi, -अचलकोला : Jultkila-सं० रा. (CRI__laimit]}-सं० पु. १-( Authemjsia. th ) पृथ्वी। : indica) दमनक वृत्त । २-(The Root, अचल स्विट (-) chalit trit,sha of a tat) वृत् मूल, जड़। 1. नि० सं० पुं० कोकिल, कोइल (Aackon) व०२। अम! अचल सन्धि ith all sil turthi-सं०, हिं० अधिप: anghripah-सं० ० (A Tre::) स्त्री० अचाट मंधि, स्थिर संधि, सन्धियाँ जिनमें अंदि,प, पेड़, दरस्त, वृक्ष । ग० नि० घ. २॥ गति असम्भव है। जैसे दानी पाश्विकास्थियों के बीच की संधि । इम्मवेबल जाइरंट [m. अचि पर्णिका anghri-painikā) --सं० लां० DIOVIUle joint, Am Synaralegrianghri-parní : 1 (Doolia throsis-ई । Ingoportioities) पृश्निपरी । चाकुलिया। मसिल्स.ाधित, ममिल मुवस स क -बं० ! भा०पू०१ भा० गु०३० । -अ०। अबिना nghli-bali संस्त्रो० पृश्निपणी नाट–() श्रधाहन्वास्थि और शंखास्थि की " (Hemiouites cordifoliu) संधि को छोड़कर कर्पर की शेष सन्धियाँ स्थिर अघिल्लिः, का anghrivallih,-ki ] -सं० अङ्क्षिवल्लीanghrivalli ) ना (२) अचल संधियाँ तीन प्रकारको होती है:( Urariit Lagopoicios, !). ) १--दरजवाला जाड़ ( मधिल नद्ज़, पृश्निपणी । चाकुलिया-वं० । अ० टी० २०।। मसिल तीही) जैसे कपान की अस्थियों । अधिपः aughrishah-सं० पु. उक्र नाम का २-कील नुमा, गड़ा हुअा जो (मसिल महत, तालु रोग । देखो-अध्रुषः (Adhunshi h) मनिल निस्मारी) जैसे दन्त और हनु की सन्धिः alehristlithi}h - । संधि । ३-नलिकाकार सन्धि (मसिल शक्ती, अति कन्धः ।.1ghri-skuldhah |सं० पं. मग्मिल मीज़ादी) जैसे जतूकास्थि और नासा. श्रद्धयःunghyah-सं०प० गुल्फ, । वंशास्थि की सन्धि । इनके अंगरंजी गाम क्रमश: . पादगुल्फ, गद्दा-हि. 1 हे० च० । 'The | इस प्रकार है:-(१) म्युचर (Sutre.), linkle (Malleolus), पायेर गोडालि ! (२) कम्फोसिस ( Couphosis ), (३) -व । स्कैरिडलेसिस (Scholysis) अचण्ड Achiindas - सं०. सुसुम । अचला hali संक स्त्रांक अचता achatar रा लाल कोईपुरा-सिलहट । | अचला कोताchaalikini | अचला कोनाchali-kila j पृथ्वी (The मे० मो०। Carth.) श्रचर achatra-हिं० वि० [सं०] ( In- | अचला achalijit हिं० संज्ञा प'. इटिया मै. movable) न चलने वाला। जड़ । स्थावर । क्रोफाइला Itea macroplaylla. . संज्ञा पं. न चलने वाला पदार्थ । जड़ पदार्थ । अचलेश्वरः achaileshvaraji-सं० ० स्थावर द्रन्य। एक योग जिससे वृद्धता नष्ट होता है। आचरणा charani-संस्त्री० वह योनि जो पाराभस्म, शुन्छ गन्धक, त्रिफला और गुग्गुल मैथुनके समय पुरुषसे प्रथम स्वलित हो जाती है। इन सबको समान भाग लेकर बारीक चूर्ण करके अचल ivchula-हि० वि० ( Innovable) एरण्ड के बल के साथ राज चार्ट। इस प्रकार . स्थिर ।-11 पु, लः-सं० पु. (1) A ६ महीने सेवन करने से वृद्धता दर होता For Private and Personal Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अना १९३ श्रचिगंशु और श्रायु की वृद्धि होती है । इसके संघन करने ! अचिन्ता achiinti-हिं० संज्ञा स्त्री. ये फ़िकरी, वाले को बकरे के अण्डकार की कीमा को गाय निश्चिन्तता (Absence of thought). के दूध में उबाल कर मिश्री मिलाकर खाना अचिन्त्य achintya-हि० वि० [सं०] (1) उचित है। रस यो सा . बोधागम्य । अजेय। कल्पनातीत । (२) प्र. अचक्षु achakshu-हिं० वि० ). बिना नुल । (३) आशा से अधिक । नत्रशुल achakshus-सं० त्रि० ) अाँख अचिन्त्यजः achin tyinjah सं० पु. पारद, का। अंधा. 1. नेत्र रहित । (Eyeliss, पारा (Mercury) रा०नि०व० १३ । blind). अचिन्त्यशक्तिरसः . Achintya-shaktiraअचापल,-त्य - achapala,-lya सं० वि० .. sah-सं० पु. पारा, गन्धक प्रत्येक ....( Stainly) मिथर, श्रचंचल । २ मा०, भोंगरा, केशराज (काला भाँगरा ), अचापलं,-'यं chaptlum,--|yam---सं० सम्भालू, ब्राह्मा, पथसुन्दर (गृमा), सफेद अपरा.. मी०(Stanliness ) स्थिरता । . . जिता को जह, शालिञ्च राक और कालमरिप प्रचार Acharitfie संज्ञा पु. (1) ग्वटाई इनको ४- भाग ले उपक सभी श्रीवधियों भेद । (२) बाल वचन, अ.नार, व्यवहार । के रस में बारीक पीस, फिर सोनामाखी मा०, (३) चिरीजी का पेड़ । प्रियाल वृत (Buch कालीमिर्च १ मा० मिज़ाका नेपाली ताम्बे के avania latifoli, Pol. ) . डण्डे से खरल कर मग प्रमाण गोलियाँ बना श्रचार वांगडा chiln-bondi-म० पोकर- साया शुष्ककर रक्खें । इस प्रयोग को सन्निपात : मल, उकरा-हि । अकलकर-सं० । बन मु. में बरसे । देखो-भै०२० सन्निपानाधिकारः । गलो-कमा। Para..14:5s (Spilan. शचित्यात्मा achintwitma-सं०प० [सं०] thes Oleracea, Jacq.) परमात्मा ( The Supreme Soul ) अचागhiri- वि०सं०] अचार करने- अनिchinnam) सं०. f. क्रि० वि० " वाला । भाचरण शील | : . Trichira j (40011, quickly ) . शीव्र । तुरन्त । जल्दी । अचिकिमय :hikitsya- वि० । अचिकिप: achikitsvah-वंत्रिक प्राचर द्याल achirarilynti-हि. मज्ञा स्त्रो. - [सं.] बिजली । क्षणप्रभा । विद्युत । बे उपाय । बे इलाज । ला दवा। जिसकी दवा . न हो सके। चिकित्सा के अयोग्य । असाध्य (Lightning) अचिर-पल्लवः .chira-pallarah-सं० पु. ( [merable.) (Alstonial scholavis, R. BP.) सप्त. अचिकुर: chikunth-सं० पु. कपाल रोग, खालित्थ, इन्द्रलुप्त । (Alopucia Baitle पर्णवृक्ष । छातिम । छतोऊन । छतिवन । सतवन । Less ). अचिर प्रभा achiit-prabhā )-सं० स्त्री० अचिकन uchikkumuf० वि० [सं०] खुर- . व अचिर भास् achiraa.bhās ( हिं० . खुरा, खादरा, (Rough, unpolished.) अचिर रोचिस् .chitayochis )संज्ञा स्त्री०) अचित्: achit-हिं० मंज्ञा पुं० [सं०] (१) बिजली, चपलः । विद्युन । ( The lightning. ) : ... Devoid of understanding wat अचिरात् achirat कि० वि० [सं०] .: जड़ :प्रकृति । “चिन्" का उलटा । (२) शीघ्र । तुरन्त । जल्दी ।। Material प्राकृतिक ! , . . . : अचिराभा achirabhā | -सं० स्त्री० विद्युत । 'अंचितchiita-हिं० वि० [सं०] चिम्ला- अधिगंशु achiranshu jबिजली । ( Lightरहित, निश्चित क्रिक .. : . ning) For Private and Personal Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अचीता अच्छिन्न श्रचीता achita-हिं० वि० स्त्रो० [सं०] अनि- विमुच्छदा (Euphorbin pilulifera, च्छित । अचिनिन । ( Unished.) Linn.) अचुका achukā सं० स्त्रो० श्राच्छुक । पाल 1 | अच्छitchchha-हिं० संज्ञा पुं० [सं०] (1) श्राछी (Morinalis citrifolin, Linn.) (A crystal) स्फटिक । (२) (A DHaY) अचुवागन्दी uchvāganli-ना० असगन्ध । रीछ, भाल । भल्लक, भल्ल । (३) स्वच्छ जल । अश्वगन्धः । (IVithalmin Somuifera - हिं० वि० (elets, politcial transDunal.) parent) स्वच्छ ।-सज्ञा पुं॰ [सं० अक्ष] अचूक achuku -हिं० वि० [सं०] अच्युत । (१) आँख, नेत्र । (२) रुद्राक्ष । जो न चूके । ठीक । जो अवश्य फल दिवाए। अच्छः ॥chchhah-लं. प. (1) गुन्द्र । अवश्य निर्दिष्ट कार्य करने वाला । भ्रम रहित । (२) रीछ, भल्लक । (३) स्फटिक । म छद्रिक । पक्का | ज़रूर । ( Sur, unfailing) (४) पटेरे । अचेत a.chota-हिं० वि० [सं०] अज्ञान । अच्छकीकसम achchhu-kikayam-सं० मूञ्छिन । सुन्न होना । चेतना रहित । संज्ञा शून्य । क्ला० मूत्रविहीन कारटिलेज (Hyaline बे होश । (Out of mind or senstis ) . cartilage ) श्रचेतन chetatila-हिं० संशा पु० । 6. अच्छटा achchhuri--स. स्त्रो० भुई अचेतनःnchtanah-संत्रिक श्रामला, भूस्यामलकी (Phyllanthus nirmi, Linm.) (iyanimati obj.act)जद व्य अचैतन्य : अच्छतachelhhata-हिमनाए[सं० अवत] पदार्थ ।-हिं० वि० [सं०] Instonsible, बिना टा हुआ चावल ( Whole rice ). ५.satss बेहोश | संज्ञा होन। मूछिन । वि० अखंडिन । चेतना रहिन । अात्मविहीन । अच्छ-मल्लः, ग्लुकः achchha-bhullah,-llu. अवेल: chalah-२००वत्रहीन ।नंगा । kah-सं०प० १--सोनापाठा (Oroxylum 17 ( Naked, lothless.) indicum, Tent.) | देवा-भल्लुकः । अचेल पग्मिह achin-prith-हि० पंजा रा०नि०प०१६ । रत्ना०1 २-(Ahar) पुं० [सं० अचलपरिसह ] अागम में कहे हुए ___ भाल , रीछ । वस्त्रादि धारण करने और उनके फटे एवं पुर,ने । अच्छर्दिका achchhadiki-मं० रोक होने पर भी चित्तौ ग्लानि न लाने का नियम । (Vomiting, an enctic) वमन । प्रवेष्ट संधि cheshrau-sathi-सं० त्रि० . छदि। उकाई । वमी । यान्ति। ग. नि. अचल सन्धि (Symarthrosis) व०२० । अनेष्टा cheshti- सं० स्त्री अटल । स्थिर : अच्छलः nehehhulth-सं० प. निल की (innovable). लुगदी। तिलकल्क (Paste of smsanum अचैतन्य achuitanya-हिसंज्ञा पु., निश्त्रे.. inmticum) अचैतन्यः achaitanyah-सं० त्रि०, ता, अच्छा ichchha -हिं० वि० [सं० अच्छ-स्वच्छ, चेतना का अभाव, अज्ञान-हिं० वि० [सं०] निर्मल] [स्त्रो. अच्छो ] मनोहर । सुन्दर । श्रात्माविहीन, अज्ञानता, जड़, चेतनारहित । श्रच्छा-विच्छा achchhā-vichchha-हिं० प्रचैन acchaina-हिं० संज्ञा पुं० [सं० = ! वि० [हिं० अच्छा ] (१) दुरुस्त । खामा । नहीं+शयन याना ] धाराम न करना, विकलता, चुना हुआ । (२) नीरोग । भला चंगा । दुःख, कष्ट । ( Uncomfortable). अन्छिन achchhinna-हिं० वि० [सं०] अच्चेगिडा achchevidi-कना० दुद्धि, रक- छिद्र रहित, जो कटा न हो। अम्बणिहुन । For Private and Personal Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अच्छिन्नपत्रः अजकम् अच्छिन्न-पत्र: Ruchchhinmantra.h-सं० : अछूना achhita-हि. वि० [सं० अनहीं ५० (१) शान्बोट वृत, मिर(Stiblius + छुप्त छुपा हुआ ] अनछुपा, नवीन, पवित्र । aspyr, Linn.)। (२) युकात्र वृत्र मात्र । अच्छुक: achchhaka.h-सं० ए० उक्र नाम छेद achhala-हिं० वि० [सं० अच्छे ] का रञ्जन पुष्प वृक्ष । निनिश वृष । पाल | जिसका छेदन न हो सके । जो कट न सके। पाल फुलेर गाछ-चं० । (Ligerstremit अछेद्य । श्रखंड्य | flosaragina', Retr.) प० मु०। __संज्ञा पु० अभेद, अभिन्नता । अच्छादन .hchho lina-f० संज्ञा पु० अछेद्य achhodya-हिं० वि० [सं०] जिसका शिकार । श्राग्वेट | अहेर । ( The chistm, छेदन न हो सके, जो कट न पके, अभेद्य । hunting ). अछे? achhe ha-हिं० वि० [सं० अछेद्य ] अच्छोदन achchho lan-सं० त्रि० ( Ha- | बहुत अधिक । अनंत । अत्यन्त । (२) अग्लंडव । ring clear watar) निरन्तर । अच्युत achyutu-हिं. वि० [सं०] (१)| अछोप achhopin हिं० वि० [सं० अ+छुप ] स्थिर, अटल, रद, नित्य, अविनाशी । (२)| अाच्छादन रहित । नंगा । नीच । तुच्छ । जो गिरा न हो । (३) जो न चूके, जो त्रुटि न अछाम Fuchhobhia-हिं० वि०[सं० प्रक्षोभ] (1) करे, जो विचलिन न हो। नोभरहित, उद्वेग शून्य, चंचलता रहित, स्थिर, अच्युता ichyutā-सं० स्त्री०, नेपा० लाल गम्भीर, शांत। ___ काईपुरा--मिलहट । अछोह achhoha-हि. संक्षा पु० [सं० अक्षोभ, अच्यतावासःchyuta-vasith) मत प्रा० अच्छांह ] क्षोभ का प्रभाव, शांनि, अध्यनवासःnchyuth-lasahj स० पु. स्थिरता। Ticus religiosit, linn.) अश्वत्य अज aja.-नह० वि० [सं०]। horm) वृक्ष, पीपलवृत्त । ग० नि० १० ११ । (२) मज: ajah-सं० कि. १ उदुम्बरबृत, गुलर का पेड़ ! The sincient जिसका जन्म न हो । अजन्मा | fig tree (Ficus glomerata, __सज्ञा पं० (१) Cupidl कामदेव । (२) Pory.) foom चन्द्रमा । ( ३ ) A Jam, he अछवानो achhavani-हिं० सज्ञा स्त्री० [सं० goat बकरा । (४)A sort of corn or यवनिका वा अमानी] कॉइल (Calls)-ई० ।। gruin अनाज । बती, बाती, प्रसूता त्रियों को प्रावध | अजर azaar-अ० कम बालों वाला। जिसके अजवाइन, सोंठ तथा मेवों को पीस कर घृत में बाल कम हो। पकाया हया मसाला जी प्रसूना स्त्रियों को अज़क iamag-० फलदार वजूर का वन। पिलाया जाता है। Fruitful date tree ( Phenix अछाम achhima-हिं० वि० [सं० अक्षाम् ] | sylvestris) () जो पतला न हो । मोटा। बड़ा | भारी। यजक न z aazaq-ibna-zaid-go (२) जो क्षीण घा दुबला न हो । हष्ट पुष्ट ।। खजूर भेद । ( A kind of date). मोटा नाजा । बलवान् । अज़क इन्न ताव aamag-ibma-tab-अ० अछिद achhidra-हि. वि. छिद्र रहित खजूर भेद । (A kind of date:). ( Impervious ) ! आजकम् ajakam-सं० क्ली साखू, साल | अछी achhi-हिं० संज्ञा स्त्री० [देश॰] श्राल का 'The sal tree (Shorta robusta, ( Vlorinda citrifolia, Linn.) Garin.) इं० मे. मे०। For Private and Personal Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रजक अजमली. आजको ajalkarnah -. ए है, इससे इसमें वेदा की वृद्धि होती है। मा० श्रजकर्णकः janka.!12 alka h निक नेत्रदृष्टिगत रो० निदा० । टेरीजियम् श्रजकर्णक jakalink:-4. संज्ञा पु. Preyginn-इं० । नाखुनह, नारवूनह, बकरा के कर्ण के समान पत्र-वाला शालवृत -alo ज फरह , जफरह-या। विशेर, असन । १० मा० । यालमर्ज । रना। अजका ailmaqub-० वामनी । बभनी । इसका प्रसिद्ध नाम पीतशाल है। (Indian (A let tails lizay) kina tya) भासन, विजयपार साल का नाका aji.kashi-सं. नी. नीलीवृत, नील पेड़-हिं । श्रारना, पियामाल-० . ( Indigol.1 tinctoria, Line.) गुण-कटु, मित्र, कपाय, उणवीर्य, का निधन पाण्डु, कर्णरोग, प्रमेह, कुट, विष विकार तथा अजीक Anjak his:-अ० छा (A onll) श्रण-नारांक हैं। मा०पू०मा० वटा ३०। शाग jagil-.. सई. म.रमों, सर्पप,(in(Hal tri) सर्ज वृक्ष, साग्व । ग. निp is tichotoma) . • २० । महास नर, शाल का एक भेद है। अजगर ....!! - fho.संज्ञा प... [सं.] महामालवृद। सु०स०३८, गंगः डा . IITH SAnt, th: bot com.. आजकसाशाल •njakalna.shala-f: संज्ञा victosकरी निगलने राला कंच, बहन The walint (Shorn rohtun मोटी जाति का मजा अारने सरीर के भारीपन Sta, certn.) साल, माव। . . ... के कारण पुरती से इधर उधर डोल नहीं सकता saja ka omato "9-( Sciofulous और यकी नथा हिरन बरे पानीको निगल discist of the goat) अजागलस्तन · .. .. जाना है । और य में के समान इसमें विप नहीं (अकरे का गलगण्डरोग)। देखा-गल स्तन । होना । यह संग अपनी स्थजना र नियमा ...२ छाग पुरीष, लेंडी ( Mats iduny) के लिए प्रसिद्ध है। ३-( A young shc.goint)ो अगा : jitali-सं० पु. सर्प विशेष, शुक्र कुछ ताँबे के से रंग का, पिच्छिल, रकवावी, . · श्रचार janसंज्ञा पुं बहुन मोटा . साँप । A larg. 5.1 : IIT ( Bon (20कुछ नाँबे के से रंग की फुमियों में युक्त, mstrictor) whmisairl to:51. अत्यन्त वेदना सहित बकरी की मंगनी के सह ॐच और कृष्ण वर्ण का होता है, उसे श्राजका। loti goril: । मद, १२ । १०६.। विले. शय(अर्धात् विल में रहने वाला) भग विशेष । करते हैं। ग्रह रन से उत्पन्न होता है। और "श्रसाध्य भी है। वा० उ० १० अ०। (५) . पा --शंयुः, बाहनः, । (१०)। यह अर्श शु, तुलसी (Ocimum album,Linm.) ( वासीर) में हिनकही है । सु. म. ४६ . श्र०। .. इं० मे० मे. अजगल ajilalit-दे० अनागल । अजका जान ajakijatal-foto मजा प. अजगलिका jasgalika-हिं० संमा स्ना० अजकाजातम् n.jaki.jatan.:सं०ी०..... जगलिका javalliki.सं. स्त्री० भाग्य में होने वाली लाल फली जो पुतली को : अजगली .jaya.lli-सं० स्त्री . ढक लेनी है। टेंट वा छड़ । नाखूना । चक्षु बर्बरी वृक्ष, वनतुलसी । बाबुद्द तुलसी-बं० । तारा में होने वाला रोग विशेष । काले भाग में . ( Ocimum aham, Tinm. ) भा० बकरी की सूखी लेडी के समान पीडायुक लालपू मी० प० । शुद्ररोगाम्तर्गत बालरोंग तथा गादे आँसुओं को बहाने वाली शुक्रं (फली) विशेष । यह कफ बान जन्य होता है। वा० उ. की वृद्धि होती है उसको अजका जात नानक शुक्र ३ अ०। बालकों के चिकनी, शरीर के समान जानना चाहिए। यह तृतीय त्वचा में प्राप्त होनी वर्ण की, गीली, पीडा रहित, मूंग के दाने के For Private and Personal Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अजगवं. राबर छोटी पिडिका (फुसी) जो कफ और अजघोषः jaghoshah-सं० ०. सविपात वात के प्रकोप से शरीर पर निकलती है, उसका ! वर भेद । लक्षण- शरीर में कर के समान ___ अजगल्लिका कहते हैं । मा० नि० क्षुद्ररो। | गन्ध श्राए, कन्धों में पीड़ा हो, गले का छिद्र अजगव ajagata-हिं० संज्ञा पु० दे० अजकका रुक जाय, और नेत्र लाल होजा, ये सब लक्षण अजमवः,-वं.jakuvauth, Va.12-सं० पु, क्ली। जिस घर वाले को ही उसका "ग्रजघोष" समिशिव का धनुप (The bon of Shiva). पात से पीड़ित जानना । भा० म०मा०। अजगुत a jugata-हि० वि० अद्भुत, अचरज । । अजज za.j-- फतह, चतुर्थ कोट (Fouth अजगुर a.jagra-हिं० सज्ञा पु. एक बूटी है entricle ) जो एक से १॥ बालिश्त ऊँची होती है। इसमें अजजीयः ajnjivah . सं.पु. (A तुलसी महश पत्र एवं मरी लगनी है। स्वाद- अजजीविकः ja jivikah jgat: herd) अत्यन्त तितः । : गड़रिया । . गुण-विषमज्वर में इसके ५ञ्चाङ्ग का येन केन अजटा ajuri-सं० स्त्री० में ई श्रामला, भूश्यामप्रकारेण उपयांग लाभदायक होता है। लकी (Facourtin Chuta phracta, अजगंधा ajagandhi-हिं० संज्ञा स्त्री० [सं०] :..Reath.)। रसे.मि. अर्शअग्मिमुख लौह । अजमदा (Anium inyo!ucatum, : अजड़ ajara-हिं० वि० [सं०] जो जड़ म हो। - वेतन । (Not stiupirt) अजगंधा ajapurdha .. । सं० ना० संज्ञा पचेतन। चेतन पदार्थ । अजगंधिका ajagandhikāj सं स्त्री० : . (१) वनयमानी, जंगली अजवाइन, क्षेत्रयमानी । " अजड़ा a.jara-सं० स्त्री. भूम्यामलकी; भुई " (Sest:li Indicillul, I & .1.) अम०। A Phyllanthus niruri,l.inn.) (२) कौंच, केवाँच, कारकरछु-हि । श्राहा . रत्ना०। (२) पा-वस्तगंधा, खरपुष्पा, ' अविगंधिका, उपगन्धा, ब्रह्मगर्भा, ब्राह्मी, पूति कृशी, शुया शुम्बा-वं० | Corpopogroll मयूरिका-सं० समतुलसी-हिं०1 ((): i n pulie}} | मा० पू० गु० ब०। (३) #. लालमिर्च, कुमरिच-हिं । सहा मरिच-वं० । gratissiinull, Lim.) गुग-केदु, : ( Capsicum , Lizn.) तीरण, रूक्ष, हृद्य, अग्निधई नी,हास्कारिणी, अत्रि० । लघु, शुक्र, बात एवं कफ नाशनी है । मद० च. १। (३) (Ocimum album, Lixn.) | अजड़ाफलम् ajara-phalam-सं० क्लीक शुकबनतुलसी का पौधा, ममरी, बर्बरी, बबई-हिं०।। शिम्बी फल, कीच, केवाँच-हि. | Corpopo. तिलौणि । मदः । रानतुलस, तिलवण-म०। gon puries ( Pod of-.)। च.चि० रा०नि००४। गुण-प्रभाव- लघु, रूक्ष, २० वृष्य शीर। हृद्य, वात एवं कफ नाशक । मद० व. १ । वन श्रजच्या aat.hyari स्त्री०, हिं संज्ञा स्त्री० यमानी। ब००वि० ज्व। "नालिनामज पीलीजूही, स्वर्ण यूथिका, पीले रंग की जूही का गन्धाच" । नील पुनर्नवा । फोफान्दो, बनयमानी । पेड़ और फूल | A plant (Tilon च०सू०४ श्र०। च. सू० २ शिरी वि०। jasmin ) । (२) पीली चमेली चमेली, जई ... वा. चि.१५० उ०२२० । .. चमेली (Jelsinnium)। (३)छाग समूह अजगंधिनी ajugandhini-सं० स्त्री०, हिं० (Flock of goints ) वै० श० । संज्ञा स्त्री. मेढासिंगी। मेपङ्गी (Helicte- | अजद aajala-ऋ० (Aeroin ) कौग्रा। . . ris isora, Linn.). पाइल-शिडे-बं० ।। काग । (२) मवेग (मुनक्का)। (३) रूम . र. मा० । (२)काकलस्सींगी ( Rhus stu-! (बीज ) अंगर । (४) मुनक्का सदृश खजूर ___ecedanca, Liter) का एक भेद (A kind of latc) For Private and Personal Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अजदग्धी अज़फारुत्ताब अजदग्धी ajadagdhi-सं० नो बड़ी रास्ना। अजन्तुजन्धः ajantti-jagdha b-6. त्रि० अजदरडी ajinlandi-सं० स्त्रो० ब्रह्मदण्डा श्रकीट भक्षिन । च. द०० रू10(च० कुटज (Echinops tochintus, P. C.) ई० पुट पाक । मे० मे० । फाइं०२ भा० । अजन्म :njayma सिं०11अज़दद indurla-पर-हिन्दनकी । 'अजन्मा ह वि० [सं० (U1विपखपरा। born, unhegotton) जन्सरहित । अजदहा zada hā-फा• अजगर, बड़ा मोटा अजप au.jaypa-हि. सज्ञा पु. [स] (1) __ और भारी सॉप( 1:oa co. strictor) A shepherd बकरी भेड़ पालने वाला। अजदहा l jadahi-हिं, सज्ञा प० [फा०] गड़ेरिया । (२) A butcher' कसाई । अजगर । अजपत्रो aja.patri-सं० स्त्री. राजा। अज़दाद Zaditla-एक प्रकार का कपूर जो अजपा ajapi-हिं. सज्ञा प० [सं०]Ash. गदला, और नीला-मैला होता है । ( A kind . epherd बकरियों का पालक । गड़ेरिया। of camphor) अजपाद: ajapadah-सं. 4. पारी । * Zacúmfiro farate, niz (Gum ). Anisochilus carnosas ( Thick अजदूवajalub-बर० अज्ञात । : leaveel lavender) to ÃO À अज़दूय Azndiyan-दरव० कायफल । अज़री। अजपाल: ajnpalah-सं० ए (A butc:(Hyrica. nagi, Thunb.) ___her') कमाई। अज़दूये ताज़ा availuys.tari-फा० (inm अजपा वरुणः ॥japaivarunah-सं० पु. ___actia) बबूर गोंद । अश्मरीन, पाशुङ्गद, वरुण। Crathava अजन a.jana-हिं० वि० [सं०] जन्म रहित । Hur Vala or C. Bligiosa, forsk. अजन्मा । श्रनादि ।-धि. [सं.] निर्जन, सुन- (Threate ita.sad capal) इं० म० मे। सान। अजपिया ajapriyi--सं० स्त्री० ब्रदरी या वेर अजनस aajanas-अ० मोटा बलवान ऊँट - वृक्ष(Zixyphus jijinha, Inunk. )भा० (Fat camel) पू०१भा० फ. व01 प्रजनह ajanah-अ० गालों का उभार । जल अज़फ ३azafa-अ० यस खजूर नारियल अादि का वर्ण व गंध बदल जाना । वृक्षों के पत्तों को कहते हैं। जिसके पत्ते लम्बे व अजनाय zanab-अ० जनब का बहु व. बारीक हो। अर्थ पुच्छ (दुम ) है । टेल ('Thil)-ई। अजफ anjafa-अ० ( Thiness ) हज़ाल । अजनावल खील Azamabul-khill-या लागरी | दुबलापन ! दौर्बल्य । कार्य । लिह यिनुत्तीस । यह एक पौधा है जो विदेशों · अजफारजन 12-failujja-० कर्नपान । में उत्पन्न होता है । इसके लक्षण में मतभेद है। ____एक बूटी है जिसमें फूल और पत्ते नहीं होते। अजनामकम् ajananakam-सं० क्ली० वा-श्यामाभायुन धूसर । यह वृटी नख से चुना Rifat (Ferri Sulphuratum ) श होती है। है. च०। ज़फा-कत्तीवmalaruttibt-० नस्त्र-हिं। अजनुल्फ़ील-azal-filt-अ० राकम गड्ड नास्वन परियाँ, नाव न देव, । नाव न विरस, TO( Bryonia pigri, Nolil.) नावन सद्फ़-फा०। सीपी के किस्म का एक इसकी जड़ का मलहम गरिया को दूर करता है। . ___ कठोर वस्तु है जो समुद्र तट के निकट पाई जाती इं० है. गा। है। यह नख सदृश गोलाकार एवं सुगंधियुक अनन्ता bjanta-हि. संज्ञा स्त्री० कुम्बी-पं०। होता और मुगंधियों में प्रयुक्त होती है। For Private and Personal Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२६ अज़पूत सयाज किया जाना कि यह भी घोंघे सीपी चाव से खाती हैं । गाई, बायर-वं० । ग. प्रादि के पहरा किसी समुद्री जीव का कोच है। नि०य । अजात inza futa-वामनो, बभनी । (A red | अजमक्षा ajabhaksha-सं. स्त्री० छटा ध. taill lizard). मासा । तुद दुरालभा (Nut of ) ०नि० अजन aa.jaba.-अ० (१) कालादाना, च.४। हुन्छजनीन । नुमे-नील-फा । फार्विटित-निल अजमān.jana-०१--(Fruits toh) Pharbitis hil, Choisy. (seeds फलों की गुठली । २-(Young-one of of-kiladani). camsl) ऊँट का यच्चा । (२) पाश्चर्यजनक बात, अनोखी बात, अनोखा- ! अज़म inzami-अ० पुरत पजह । कसा । पन-हिं० । अज़म aazama-हड़। हरीतका (Termi. अजय iazaha-अ (1) मीठा पानो, मीयो n alit chobula, Rols.) वस्तु । (२) एक वृक्ष का नाम । (३) एक वस्तु । अजमह.injamah -अखजूर का न जो बीज जो बना उत्पन्न होने के पश्चात् जरायु से निक- __ से निकलता है। खर का नाभा(Shoot of खती है। Dats tree ). अज़ा aza ba-अ. स्त्री रहिन पुरुष अथवा अजमद ajamada-सं• यवानिका, अग्निवर्दन, पुरुष रहित बी। दीन्यक । अजवाइन-हिं० । (Ptychotis अजब jababhrit सं० वह वृद्ध जिस पर बक Ajowan, D. C.)। वोमम (सीड्स) रिया चराई जाती है । जैसे- बरगद, बेर, पोपर Omun ( seeds ), बिशप्स बीड प्रादि । अथ० । (Bishop's wil)- । 10 मे० मे। अजबह, iazabah-अ० बेवा, रॉड, वह स्त्री अजमलः ajumalnh-सं० पु. ( Comm. ___on wheat) गोधूम । गेहूं। गम्-वं.। जिसका पति मर गया हो । विडो Widowi प.मु.। ! अजमसी jamasi-t. (A kind of अजरह zaba th-अ० (१) छोटो माई', sma.jl lat)) छोटा खजूर भेद ।। माई खुर्द, छोटे भाऊका फन । ('Tamarix orit;ntalis, Trthi.)। (२) मोजा पानी । अजमा ajana-गु० अजवाइन, Carum (Ptychotis ) Ajowan, 1). C. (३)काई (Moss) फा० इं! | अजमाय aajivaya-अ० (१) क्वाटरूपेश अज़ाबर azabara फ़ा० छोटी माई का वृक्ष । (Quadrupx).-ई। चारपाए,चतुप्पदजीव । ( Tainarix orientalis, tree of). (२) सनगन्यून। प्रजवला ajabali-सं० स्रो० कृष्ण तुलसी अजमारः jamārah-सं० पु. (A ( Ocimum sanetium, Linn. ) ___butehel) कसाई। वे० श०। अज़मालस azamālusa सिर० अजवाइन मजबू ajabu-सं० सुगन्धवाला । (Pavonial खुरासानो ( Hyoseyamus migrum, odorata, Willd.) Linn.) अजयुता aztsbita.h- अ० यरबू का मादह, | अजमांसम् a.jainainsan-सं० को (io घूस मादा, चुहिया, सूम (Rat, mouss) at's flesh ) छाग मांस। देखोअजमक्ष ajabhakshi-हि. संज्ञा पु. . छागमांसम् । या० स०अ० । अजमशः jubhakshuh-सं० पु. अजन्त azamita-मरन गठा, अरिष्टक, 1- Acacia arabica, Linn.) TST 1 Soapnut tree (Sapind119 यबुरी वृश, बबूल का पेड़ जिसे बकरियाँ अधिक trifoliatus, tinn.). For Private and Personal Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रमेई १३० अज़मेई azami-० ० चाय | Tea pla ant (Gamellia theifera ). अजम ajamo-no (1) अजमोदा | ( Apium involucratum. ) . ( २ ) | अजवाइन ( Carun ptychotis Rox burghianun, math.) अजमोदः ajamodah सं० पु० ) Car अजमद ajammoda - हिं० संज्ञा पुं० ) um Ajowan D. ( ( ) दोष्यक | वा० सू० ३५ अ० वत्सकादि० ० | देखा - ! अजमोदा (Apium involneratum.) श्रजमोदा, दिका ajamodá, diká-सं०, हि० स्त्री०बोड़ी श्रज्भोद, श्राजुमूद, बाजूमूदा, श्रज्मद् । श्राजमूदह, श्राजमुदह-अज्ञान दू० । संस्कृत पर्याय- श्रजमोदा, खराश्वा, मयूर, दीप्यक, कुशा, कारवी, समस्तका, वराह्ना, वस्तमोदा, मर्कटी, मोदा, गंदला, हस्ती, गंधपत्रिका, मायूरी, शिखिनोदा, मोढ्या, वह्निदीपिका, ब्रह्मकोशी, विशाली, हृद्यगंधा, उमगंधिका, मोदिमी, फलमुख्या, मयूरका, दीप्यका, वल्ली, लौमकर्कटी, रोमकर्कट, यवान, कृमिरोगजित् दीप्यबल्ली, मर्कटा, कराह्ना, कर्कटा, लोचनस्तका, यथानिका, मेध्यदा, त्रिशल्या, हस्तिकावरी, हयगंधा, उग्रगंधा, वनयमानी, हस्तिकारी I राँधनी, ग्रामूद, वनयमानी, चन् वनयोयान । - बं० । करसे-गुखुरी, करफ़ मुल-जिवली, करक, सुल- मक़दूनी, ब जुल् - करस अ० । करफ़ से कोही, करसे महती, करफ़से हिन्दी, गुरुःमै-करस-फूा० f बित रासालियून, (फि. रासलिन ० ६० ) - यू० । केरम ( टाइकोटिस ) राक्सवर्थ्यानम् Carm ( Pryebotis ) Roxburghiamm. Benilia, एविश्रम इन्वाल्युकेटस Apimm Involucratan, Rab. (Erint of --), एपिश्रम पेट्रोसेलिनम Apium Petroseli 111, पेट्रोलेशिन Petroseliim, २० दियाले A Graveolens, Linn. पिकां इन्वाल्युक्रेटा Pimpinchha involucrata, लिग्युस्टिकम् अवान Li- | अजमोदा gusticum ajwana-ले० | सेलेरी ( सीड ) Celery ( sooil ); वाइल्ड जेरी (Wild celery), पार्स्ले (Parsley) इं०1 सेलेरी Colori-फ्रां० । अशम-नागम्, अशम्ता श्रीमन्-ताः । अमोद - चोमम्, अशु-मदागवोम् श्राजमोदा, वामम् ते० । श्राजमोदाश्रीमा, अजमोदा - क. ना० | मोदा-मह०, कर्णा० । श्रजमोदा-धोवा-मह० बोडी अजमो, बोडी - श्रजमोदा, श्रज्मो-गु० । श्रजमुद्र, बोदी-तमोदा - चं०, प० । श्रजवान के पत्ते, वुडी-यतिबाइए- कछ | भूतघाट पं० । अम्बेलिफेरी अर्थात् छत्री वर्ग ( N. O. Umbelliferae . ) उत्पत्तिस्थान-उत्तरी पश्चिमी हिमवती पत मूल, पजाय की बाह्य पहाड़ी, पश्चिमी भारतवर्ष और फ़ारस | इतिहास - अजमोदा का वर्णन लगभग सभी प्राचीन एवं अर्वाचीन श्रायुर्वेदीय ग्रन्थों में पाया जाता है | अरब लोगों ने इसका ज्ञान सम्भवतः यूनानियों से प्राप्त किया । हकीम दीसकदूस ( Dioscorides ) ने पाँच प्रकार के करप्रस का वर्णन किया है । थोश्रो फैस्टस ( 'Theo phrastus) ने सीलिनॉन ( करक्र्स ) नाम से इसका वर्णन किया है। मीरमुहम्मद हुसैन लिखते हैं कि करस ( अजमोदा ) को रेजी में सेलरी (Colery. ) तथा यूनानी में ऊ सालियन कहते हैं । वह इसके तीन अन्य भेदों का भी वर्णन करते हैं, जिनमें ( १ ) सुखरी जिसको यूनानी में फ़िनरसालियून, (२) नवती जिसको यूनानी में असालियन श्रौर ( ३ ) तरी जिसको यूनानी में शमरीनियून कहते हैं । वास्तव में ये क्या है ? इसका निश्चय करना श्रति दुःसाध्य है। बबई में "कितरासालियून" नाम से जो श्रोषधि दिकती हैं वह पहाड़ी सौंफ है जिसको हिन्दी में कोमल कहते हैं । परन्तु वह बीज जो ईरान से बम्बई में थाकर करफ़स नाम से त्रिकता है उसको वहाँ "बड़ा अजमोद" कहते हैं । वानस्पतिक विवरण - अजमोदा श्रजवाइन For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir , Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अजमोदा १३१ जमोदा - -- - ही का एक भेद है। इसके सुर अजवाइन के ही : मसान होते हैं। इनकी शाखाग्री पर बड़े बड़े छसे लगते है; उनपर श्वेत रंग के पुष्प पाते हैं और जब वे छते पक और फूट जाते हैं तब उनम मे जो दाने उत्पन्न होते हैं वे छतों से ! अलग होते हैं, उनकी अजमोद कहते हैं। करम या बड़ी अजमोदा जी फारस से बम्बई में पानी है, वह एक अति सूचम फल होता है। यह गोलाकार और चिकना होता है। स्वाद-प्रधम सौंफ के समान पुनः कडुअा 1 गंध-सौंफ के समान, किन्तु उससे निवल ।। यांगांश--बीज तथा मल। . गमायनिक संगटन-(1) गंधक, (२) एक उदनशील नैन, (३) अल्यु मीन, (४) लुमात्र तथा (१) लवण | इसमें से एक प्र.. कार का कर निकलता है जिसे एपिसोल । (Apiol ) कहते हैं। औषध-निर्माण-चूर्ण, काथ, परिभुत, श्रौषधीय जल ( अर्क) श्रादि । , अजमोद के गुणधर्म तथा प्रयोग। मायुर्वेद की दृष्टि से श्रजमाद शूलप्रशमन और दीपन हैं। (स.)। वातकफनाशक, अरुचिनाशक, दीपन, गुल्मथूल नाशक नोर धामपाचक है। सू०। __ अजमोद, चरपरा, गरम, सूखा, कफवातनाशक श्रर रुचिकारक है तथा शूल, 'अफरा, परोएक और उदररोग का नाश करनेवाला है। (रा०नि०व०६) अजमोद चरपरा, सीगा, अग्निदीपक, कफ, तथा यात को नष्ट करने वाला, गरम, दाहकारक दृश्य को प्रिय, वीर्यवर्द्धक, बलकारक (कहीं कहीं "बद्ध मला" अर्थात् विवंधकारी पाठ है) और | हलका है तथा नेत्ररोग, कफ (कहीं कहीं कृमि पार है), वमन, हिचकी, तथा वस्तिशूल नष्ट | करने वाला है। मद० व० २, भा० पू०१. भा०६०व०, सि. यो. अग्निमांद्य चि०। अजमोद रुचिकारक, दीपन, चरपरा, रूखा, गरम, विदाही, हृदय को प्रिय, वीर्यवर्द्धक, बलकारक, हलका, कड़वा, मल स्तम्भक, प्राही और | पाचन है नथा अफरा, शूल, कफ यात, अरोचक, उदर के रोग, कृमि, वमन, नेत्र रोग, वस्तिशूल, दन्तरोग, गुल्म और वीर्य के विकार को दूर करता है। (नि०र०) अजमोदा के गुण अजमोद का पार्क वाल कफनाशक और यन्ति। शोधक है। युनानो ग्रन्धकारों को दृपिट से अजमोद . के गुण व ब प्रयोग। . स्वरूप-काला | स्वादतीखा और चरपरा । प्रकृति-१ कक्षा में उपण और २ कक्षा में रून है। हानिकर्ता-गर्भवती तथा दुग्ध पिलाने वाली नियों और उष्ण प्रकृति व मृगी के रोगियों को । दर्गनाशक-अनीसून और मस्नगी । प्रतिनिधि-खुरासानी अजवायन । मात्रा-६ मा० से मा० नक । गुण, कर्म व प्रयोग-समस्त श्लेप्मज एवं शीतजन्य रोगों के लिए विशेषकर लाभदायक है। यह नीदण तथा कड़वा है, इसलिए उण, मुक्त्त झ ( काटने छाँटने वाला) और तीब्र रोधउद्घाटक है । यह प्राध्मान लयकर्ता, रोधउद्घाटक और स्वेदजनक है तथा श्लेष्मा एवं वायुजन्य वेदनाशामक है । मुखकी गंधको अत्य... मा सुगन्धि युक्र बनाता है। क्योंकि यह मसूदों, ताल, कन्चे नथा श्रामाशय की दुर्गन्धि युक्र एवं सड़ी गली रतूबतोंको लयकर्ता तथा काटता छाँटता है । अपस्मार के लिए हानिकारक है और अपस्मार रोगियों के दोपों को कुपित करता है । क्योंकि आमाशय को गरम करता है और उसमें बाप्पाभूत करनेवाला उत्ताप उत्पस कर देता है। जिससे तीन धूनमय वाष्प उस्थित होता है । जिस समय यह मस्तिष्क तक पहुँचता है उस समय घनीभून होकर वायु बन जाता है । इसी से अपस्मार पैदा होता है । इसके अतिरिक्र यह शिर की पोर मलों को भी चढ़ाता है । किसी किसी के मतानुसार मल नलिकाओं को खोलने के कारण यह आमाशय, शिर तथा जरायु की योर नीव मलीय रतुयतों को शोषण करता है। इस हेतु अपम्मार को For Private and Personal Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अजमोदा अजमोदा हानि करता तथा कास को लाभ पहुंचाता है। यकृत, प्रीहा, वृक तथा वस्तिके लिए लाभदायक | है, जलोदर और मूत्रावरोध को दूर करता है।। अश्मरी को टुकड़े टुकड़े कर डालना है, क्योंकि इसमें ततीन (मवाद के छाँटने ), रोध । उद्घाटक तथा रंचक शकि पाई जाती है। रजः प्रवर्तक होने के कारण गर्भवती को हानिकर्ता है और इसी कारण तात्र मवाद एवं तीन रत्- . बतों से गर्भाशय की पूरित कर देता है। जिस समय यह भूप की आहारमें सम्मिलित हो जाता है उस समय उसके शरीर में स्थराव फुन्सियाँ तथा दुपता उत्पन्न हो जाते हैं चाहे ये जन्म के बाद ही क्यों न प्रगट हों। अपनी रोध उद्बाद शनि के कारण यह गरम मवाद को शुक्राशय की चार गति देता है, अस्तु यह कामाठीपनका है जिससे कामेच्छा को उत्तेजना मिलती है। ( ना.) अजमोद स्वाम, रूपकास पार भागरिक प्रच-: यय के शीत को गुणका, यकृत पौर नीहा के रोध को संदन कर्ता, अत्यन्त मूत्रप्रवर्तक, बुधा । और श्रीज को पालनकर्ता है। इसकी जड़। सम्पूर्ण कफज रोगों को काम करती तथा धाहारको पञ्चाती और जलोदर को गुमा करती है। यह प्रभाव में अपने बीज से बलवान है। नौके पाटे साथ इसका और शाथ को लयकर्ता तथा पार्श्वन और चान्तिनाशक है। डॉक्टरों एव थन्य मत अजमोद के पनों को कुचल का स्तन में लगाने . से दुग्धनाव श्रवस्त हो जाता है।(नकिन). यह जमली नेत्रों में पुलटिश रूप से उपयोग में माना है। अजमोद की जड़ का वृक्ष पर लाभदायक प्रभाव होना है। ई. मेम० अजमोद बदहजमी और दस्त की बीमारी में अत्यन्त उपयोगी है नया खराब म्वाद वाली दवा प्रजमोद के पानी के साथ देने से उलटी भाने की सी शंका नहीं होती। इससे ये सब दवाएं पेट में शूल होने की सी शंका होने को बन्द करनी है। यह अत्यधिक लालावावक है ।। इससे पाचक रस अधिक उम्पन्न होते हैं. उदरशल नष्ट होता है तथा पाचन शनि यदाती है। गले के भीतर की सूजन पर भी प्रजमाद को अन्य ग्राही पदार्थ के साथ मिलाकर उपयोग करना हित है। (डॉ० वोडा)। अजमोद तैल अर्थात एपिभील (Apiol ). नेट किरात (Not oiticist ). लक्षण---या एक पीतवरणं का मिलीय द्रव है जिससे विशेष प्रकार की गन्ध पानी है। स्वाद-तीण एवं प्रमाझ ।। घुलनशा जता-यह जल में ना नहीं घुलमा किन्नु हलाहल (Alcohol) और इधर में सरलतापूर्वक घुल जाता है। मात्रः-३ से ५ मिनिम् (बुन्द)। उपयो-विधि-इसको साधारणतः फैक्यूमन में दाबकर देते हैं। नं-फटिकन एपिभील (कर मजमोदा), इसकी भी कभी उनैल के स्थान में उपयोग करते हैं। भाव व प्रयाग-परिमान को रजःप्रवर्तक तथा मूशजनक रूप में रजरोध तथा बाधक वेदना और वृक आदि रोगों में (२-३ बुन्द की मात्रा में फैशुजज या शर्करा के साथ ) यतते है। कहते हैं कि विषम ( मलेरिया ) ज्वरों में भी यह लाभदायक होता है, पर कर साहमाफ महोदय के अनुसार हमकी परीक्षा करने पर निम्न इन्द्रियम्यापारिक क्रिय.ए. संपादित होती हैं, यथा शिरोवेन, मदकारी, बाद को बारम्बार बाने की इच्छ', 'धन विकार, पुषा का नष्ट हो जाना और ज्वर यादि । सूक्ष्म मात्रा में एपिगोल प्रापस्मारिक मूर्छा के लिए गुणदायक बतलाया जाता है। ई. मे. मे। नोट-पूनानी हकीम भी फिनरासानियून का मूत्रविरेचक, रजःप्रवर्तक तथा वृक्त, यस्ति एवं गर्भाशय के लिए लाभदायी जानते हैं तथा उसे इन्हीं गुणों के लिए उपयोग में लाते हैं। योग-निर्माण--(.) किनीन सल्फेट १ रत्ती, एपिग्रोल ग्रेन ( रसी) और पौंगनेट ऑफ पोटाश ? रत्ती ( ग्रेन ) इनको मिला For Private and Personal Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मजमोदास्या - RAM का यटिका प्रस्तुर । य? एक मात्रा है। र यहिन जोशंधाया मलरिया उमर में नाम होता है . ३० मे में। ( २ ) ए प ५४म् थोटी ! रनो ( 1 ग्रेन), परियोज ३ सिनिम् (बुद). उपयोग-विधि-इन दोनों श्रीपयों को एक याला केरल में डालकर ग्विना दे और ऐमा एक एक कैर गृल दिन में ३ बार दे। गुण-- र नया बाधक वेदना में लाना दायक है। अजमावास्या ijnitikh; i-० लोक (1) यनयमाना, यन वाइन । अयमानी, या पापा । रत्ना०, गृहन् लवंगादि चूर्ण ! (२) यमानी। अइन । am (Pte. . hotis ) Lili, '। रा०नि०। अजवादि गुटेका jmy li ligitiki - प्रा. अयोड, भिवं, पीपल,चिक, : या विवंग, दास, ग्राम पान, या भव पीपलामूल, पम्हें । पल और गो; १० पल, : विधारा १० पल, दनी (जलालगोटा की जड़) ५ पल इनका चुगा कर चई के बराबर गुर निला गोलियों बना।। मात्रा-२-६ मा० । इमे गर्म जल मे उपयोग ! करने से मरम्न वात रोग दूर होते है। (ोगचिन्तामणि) अजमेदादि वर्णः ॥jimili-churniahi -सं० पु. अमादबायदि,मेधानान,देवदास, चित्रक, पीपसमता, मोफ, पापर, मिर्च, इन्हें कप' कर्म भर लें । इ ५ कप, विचारा १० , मो. १. कर इन्हें चणं कर गई पुसना : मिति कर या मान से सने से शोथ, : प्रामदान, सन्धिपाया, (गठिया) मधमा, कटिपीदा, पी:, आँध का पाहा. तूही. प्रतितणी वाय. विश्वाची, कफरोग तथा वायु के रोग दर होने ! हैं। शाई सं० मध्य० ख० अ०६ ग० चि०म० । HRAIETT TIF: a ja no lá lyži-vărţizkih . -०० अजमादादि गुटिका। अजमोदाचं बदका (1) अंजगोद । सेर, हाइ, बधा, अमला, सोंठ मुलतानी, विन्दारी कन्द, धनियाँ, मोथा, मांचाम, गायन, लौंग, जायफल, पीपर, भित्रक, अनारदाना, मांगी, कमलपक्ष, मिर्च, दोनों जीरा, कुटकी, उसन, पान, रेणु का, वायविडंग, वच, कायफल, पिसमापदर निधारा, दन्ती की 5, कुदानापार इन्हें एक एक तोता लें, चर्ग व फाइछान कर इसमें २० वर्ष का पुरानी गर एक र मिल कर पाक विधि से क एक को प्रसारण गनियों बनाएँ । इगे उष्ण अज में उपयोग करने से पेट का भारीपन, कछुई तथा उदर विक र रमाने हैं। (३) प्रजनंद, निला, विदारीकन्द, मांस, धनियाँ, नंबरम, मोथा, गीरल, लौंग, जाय. फल, पीकान, विजयामुजनानी, अनारदाना, दोनों औत, चित्रक, सारंगा, कामता, कोचीज, गुनह।, शिल तु, काकालिंगी, केसर, नाग. केतर, मुकरनन, नायर, इन ६-६ मासे लं, पुनः चूई का काहान को । पश्चात् ३५ सेर गां दुग्ध श्रोटाए र एक सेर शेष रहे एक मेर निजी की चासनी कर, जन अणं मिला १ तो. प्रमाय गालियः बन.. । इसके सेवन से सीयं पृद्धि होकर बल बढ़ता है । (अमृ० सा.) (३) आजाद १२ ग, चित्रक :: भाग, हैं. 10 भाग, कृटहभाग, पीपर भाग, मिर्च ७ भाग, मॉल भाग, जीरा भाना, मेघालवण ४ भाग, वायविडंग ३ भाग, वय २ भाग, हींग : भाग । इन्हें चूर्ण कर च से द्विगुण पुराना गुड़ मिलाकर ॥२० प्रमाण गलियाँ बनाएँ। इसके सेवन से अनेक प्रकार के वानरोग, १४ प्रकार के हवं रोग, १८ प्रकार के गुल्म, २० प्रकार के प्रमेह दूर होते हैं। तथा, यह हृद्रोग, गुल, कु, वायु, गुल्म, गलग्रह, श्वास, संग्रहणां, पांडु, शानिमान्य, अरुचि, इत्यादि को दूर करती है। (४) अजमोद, मिर्च, पीपर, वायविडंग, देवदाल, चित्रक, शतावरी, संघालवण, पीपराभूज, इन्हें चार चार ताला लें। सॉट ४० तोला,विधाए For Private and Personal Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org मोदिका १३४ अरियून J (A rod tailed ४० तोला, ह २० तोला इन सब का बारीक | श्रृज एक rfuta ] ब्रासनी, बभनी । चूर्ण बनाएँ और सर्व तुल्य पुराना गुड़ मिलाकर | अफ़ anzafuta १ तोला प्रमाण गोलियाँ बनाएँ। इसकी उच्या जल से सेवन करने में आमवात, विश्वाची, तूणी, प्रतितूणी, हृदरोग, गृधयो, कटि, वस्ति, गुदास्फुटन, शोध, सन्धिपी इत्यादि रोग दूर होते हैं । चक० ६० उस्ता० त्रि० । वङ्ग० से० सं० । भैष० र० । 1 श्रजमोदिका ajamodika-co० श्र० श्रजrar (A jamodá ). lizard ). अज़ब zarabao छोटा जइह (अजगर ) Bon constrictor ( Smail ). श्रम् ajaram सं०ली० स्वर्ण Gold (Auram ) रा० नि० च० १३ । - त्रिο जरारठित 1 डिवाइड ऑफ एन ( Devoid of old age ) - ई०। अज़रद्द् ãazarah-० पायखाना (Latrine). अनह ajamah० वृक्ष प्रभति की गिरहें । वृक्ष ग्रन्थि (Node ). जरा-नं० जी० (१) ( A lizard ) गृहगांधिकः-० । छिपकी, पिकली - हिं० । टिकटिकि वं० । (२) फजीलता । (३) ( Gmelina asiatica, Lian. ) वृद्धदारक, विवारा |रा० नि० ० ७ । ( ४ ) ( Alo inlica, Roy.) गृहकन्या, घृतकुमारी, घीकुकार | रा० नि० च० २ । ( १ ) (Corpopogon pruriens) आत्मगुप्ता, पाँच कोंच-पं० श्राला कुशी-२० भा० पू० १ भा० गु० ब० । - यु० श्रर्तकान ( हलके पीतवर्ण के संगरते होते हैं। ) श्रजुराक azaraka छोटे आलूबुखारा की एक जिस्म है। A sort of small vaarity of Prunus commumis. अज़गर 12241217 -नौशादर नसा ( द ) र ( Am onii chloridum.) : पुं० ( 1 ) भक Sea-bh.ka. । बिना दाँत का । I म: ajambhah - सं० (कृष्णा, मंढक ) । शु० To (२) वे दाँतका बच्च । दन्त रहित अजय ajaya-हिन् चि० सं० ] ( Not victorious, unsuccessful, Subded) जयरहित, भकृतार्थ । हि० संज्ञा ० पराजय, हार । अजयपाल ajaya-pala-हिं० संज्ञा पुं० [सं०] जमालगोटा | (Croton tiglium, .in.). श्रजया ajayá सं० श्री० ( Cannabis In dica, Linn. ) विजया, भंग, भाँग । भाषा में इसको सिद्धि कहते हैं । रा०नि० । (२) हिं० स्त्री० [सं० जा ] करी ( A shegoat). अजर ajara--सं० क्रि० हिं० वि० [सं०] (1) (Not Subject to old age or decay, ever young ) जरारहित, जो वृढ़ा न हो । (२) [सं० =नहीं+ज=पना ] जो न पचे, न हज़म हो । अजरकम् ajarakam सं० को० अग्निमांच, जो ( Indigestion सि० यां० कास० वि० वृन्दः । ० द० पांडु चि० योगराज | 1 अज़रद azarad समुद्रफेन की एक क्रिस्न है ( A kind of cuttle-fish ). अज़रन āaza1a11-बोरहे अरमनः । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अजयनुल अज़ azarásulaajouzaअ० (Tribulus terrestris, Lim.) गोखरू, गोक्षुर ( ) । अज़रा गुरु azarásul kalba-o ङ्गाली जो बसफ़ाइन के नाम से प्रसिद्ध है। Polypolium_vulgare, Linn.) अजराशी ajaráshou तु० खाशी- फा० । खुबकलाँ हिं० । Sisymbrium Iris, Linn.) अजरियून ajariyúna - ० सूरजमुखी ( सूर्य - ) The Sunflower ( Helianthus annimus, Linn.) For Private and Personal Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अजरूफ जरूफ़ aajarifa- अ० एक कीड़ा अथवा चिटी जिसके पाँव लम्बे होते हैं। abdo. १३५ जलहजा तुरुन अजनह आसरतुल् ल avalahaasira tul boula - ० मूत्रमार्ग सङ्कोचनी पेशी - हिं० । कम्प्रेसर युरैथी ( Compressor Urethra )-ई० । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अजरूम āajarúma ऋ० अन्त का एक है। अजल ajala-० काल, अन्त, अवस्था, मृत्यु ( ० ० ), प्रजाक ( ० ० ) । क्षेत्र ( Death ), मॉर्टिफिकेशन ( Mortifica tion ) - ई० । अजल aajala-ऋ० १- अड़ा, गाय का दवा, बत्रा - हिं० । गो-मालह का० ( A calf.) २- काली मिट्टी (1Black clay ). अज़ल 2azala- श्र० पृथक करना, भिन्न करना । मैथुन में पृथक वीर्यपात करना । अज़लम Razalama-अ० नील वृक्ष, नीली ( Indigofera 'Tinctoria, Linn.) अजलम्बनम् ajalambanam-सं० की ० यामुन स्रोतोञ्जन, सुर्मा (काला) 1 AntiMolly | श० च० | देखा-श्रञ्जनम् । अजलह āazalah-अ० अलह सती - उ० । मांसपेशी, मांस, पेशी - ई६० । इसका बहुवचन जलात है । मस्सल ( Muscle ) ( ए० ० ), मसलन ( Muscles ) ( ब० ब० ) - इं० । अजलह का बह aazalah--kábahहस्त को श्रधा या पर करने वाली पेशी | प्रोनेटर भस्म ( Pronator muscle ) - इं० । अजलह श्रषम, इय्यक्ष मुकद्दमह dazalah akhamaĀiyyah-ruuqaddamah-० अशलम का विजह āazalab-gabizah-श्र० अ अलह, उक्कलह । सङ्कोचनी पेशी-हिं० । ( Sphincter ). मध्यग्रीवा के कशेरुका पावों से प्रथम पशु का तक एक मांस पेशी है। स्केवेनस एण्टाइक्स ( Scalenus anticus ) - इं० । अजल अरांजह यत् निह aazalab• ãarizah-batuiryah ) - श्र० अन्तःउदरच्छदा पेशी-हिं० सैलिस fafa (Transversalis minis ) - इं० । अज़लह आसिह ãazalahāasirah-o संपानी पेशी - हिं० फिटर (Sphineter ), फ्लेक्सर ( Flexor ) - ३० अजलह आसिग्गुल इस aazalahaasira tul-ista अ० मलद्वार की पेशी-ि स्क्रियूटर नाई ( Sphincter ani ) - इं० । अजनह असिरतुल् मह बिल् āazalah ãâşiratul-mahbil- अ० योनिरुङ्कोचनी पेश - हिं० । रिक्रक्कूटर बेनी (Sphincter ragin)-इं० । अजनह जानित्र्यहमुत्तच रिज़ह aazalah --aijániyyah-mustaarizah - अ० सेवन स्थल की पौड़ी पेशी जो पेड़ के श्रव को सहारा देती है । सर्कस पेरिनियाई (Transversus perinari ) इं० अज़लह इल्यियह कबीर aazalah-ilviyah-kabirah-आ० नैनम्विका महती पेशी - हि० | ग्लूटिस मैग्नस ( Gilatous magMus) - इं० । आज नह उस उसियम, āazalahāusāusiyah - ऋ० पुच्छिका - हिं० । कॉक्सी जीवस ( Cocygeous). I जलह जह वियह श्रह aazalahzahriyyah-āarizah श्र० पृच्छा पेशी । वह पेशी को कटि एवं कूषहेसे लेकर बाज़ू तक फैली हुई है। टिमिस डॉर्साई (Latissimus dorsi ) - इं० । अजलह जाते सु.. लासितुरंऊस aazalah záte-sulásiyaturraúsa-. faRT रस्का पेशी - हिं० | ट्राइसेप्स ( Triceps ) - ई० । जलह जातुरसेन zalah zaturrasain - अ० द्विशिरस्का पेशी - हिं० । बाइसेप्स ( Biceps ) - ६० For Private and Personal Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अज़ला तर तुल कतफिय्यह अवली. अज़लह न तुल्कतफियह, aazilah-tah-अज़लह, राफिअतुल ज. aa.zalah-lafia tu.katafiyyath-अ० अधः स्कधिका- tul-jafna-भ० ऊपरी पठक को ऊपर उसमे पेशी-हि। सयम्केन्युलेरिस (Subscap बाली पेशी । लीवेटर पैल्पएनौलिस (Lerator ularis )-इं०। Palpebralis', atat (Lover)-fo अज़ह, तह तुल्तक वह arzalalh-tahtul. अजलह, सरिय्याह कबीरह, aazalah targurah-० प्राधः अतिका पेशी । Factriyya h-ka birah-अ० उरश्छादनी -० । सबने विश्रस (Subejarcus) वृहती पेशी-हिं० । ऐक्टोरेलिस मेजर (Poctor ralis mr.jos)-इं० । अज़लह, दालियह zalab-ialiyahi yah | अजलह, सदारियह, सगीरह, az.alah. -श्रा. अंसाच्छादना पेशी-हिं० । डेलॉइड | sadriyya h-saghiyah-अ० उछा(Deltoid )-11 . दनी लघवी पेशी-हिं० । पेक्टोरेलिस माइमर अज़लह. बातिह.ह. aama lah-batihah अ० : (Peetoralis Mino1 ) । करीत्ताननी पेशी-हिं० । सुकाइनेटर( Supi- अजलह सुगिरयह ३aza.lahsndghiyyah mator)-ई । -अ. शाक्षिकी पेशी-हिं० । टेम्पोलिस मजलह बासितह aazaah-basitah- (temporalis )..। अजनह शाह, । प्रसारणो पेशी-हिं० । एक्स- अझलह सुलबिय्य ह. कबीरह. azalah रेन्सर ( Exteysor )-इं। sulibiyyah kabírah. Setअजालह. मुक्तिबह. azalah-mugatti- म्बिनी वृहती पेशी-हिं० । सकस मैग्गस bah-अ० संकोचनी (मुर्रा डालने वाली) (Psoas Magnus )-ई।. .' पेशा-हिं। करूगेटर ( Corrigator) अज़लर हरफफियह zazalah-har. -10। (afiyyah-म० श्रोणि पक्षिणी पेशी-हि.1 अज़लह, मुकरियह iazalah-muqarr इलायकस ( Iliactus )-11 ibah-अ० अन्तरनायनो, अन्तरवाहिनी-ह1 प्रजलामा-मो ajaloma-ini-सं० ५०, हि. एक्टर ( Adductor)-10।। संज्ञा स्त्री० (1) कौंच, केवाँचकी वेल, शूकअज़लह, मुबर इ.दह, aza.lah.mmbnaii. शिम्श्री, प्रारमगुप्ता । पालाकुशी-यं० । Cowach dah- ऋ० बहिर्नायनी पेशो- हि० । ऐगस्टर (Corpopogon pruriens) र• मा० । (Abductor )-इं० । (२) महौषधि विशेष । देखा-पोषधिः। अजमह मुसव्विाह 5.7.0lah-mubayvi. अझ aza.lla-अ. (२०००); जब (ब० gah-० मुखग्रसारणी, करोलच्छदा पेशी व०.), अंगुली का भोसरी अर्थात् इभेनी की जो मुख को फैलाती है। बक्सिनेटर ( Bucei और वाला भाग। na tor)-६०। अजवला ajayala-म० वननुलसी-स.। रामअजला मसाशन कबीरgazalah- तुलसी-वं०. द01 बनजदी- हिशबी बेजित musanninahe.kabirah-अ० दंष्ट्राकार (Shrubby Basil)-0(Ocimum ऊध्र्वपार्टीकीयवृहती, वृहत् दन्दानादार पेशी जो __Gin tissiinum, Linn.) मे० मे। उपरी माह पेशियों के सामने से प्रारम्भ होकर | अजवजा ajavalli-म०) रामतुलसी (Ociस्कंधास्थि के पिछले किनारे तक जाती है। सरेटस | आजवल्ल ijavalla-सं० num Grati मैग्नस (Serratius Magnus )-ई। 3simum, Linn.) फा०ई०।। अज़लह राफ़िअतुल इस azaja.h.raffia- | अजवली ajavalli-सं०सी० (Helicterint tul-ista-. गुदोत्थापिका पेशी-हिं० iso1R, Linn.) मेदासिंगी, मेषशी । मेहालीवेटर एनाइ ( Levator ani)-इं०। . शिडे-बं० । For Private and Personal Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अज़वा भजवाहन अनघा azavi-तु० (Aloes) पलुवा, कुमारी. सारोवा, मुसब्बर । अजवाइन ajaviina-हिं० संज्ञा स्त्री० [सं०] | यवानिका, अजवायन, ( अ ) जवान, (अ) जमान, जवाइन-हिं । अजयान-२० । संस्कृत पर्याय-अजमोदा (-दिका ), ब्रह्मदर्भा, क्षेत्र यमानिका, भूतिकः, यवनिका, यवनी, यबानी, दीप्यः, दीप्या, दीपकः, दीप्यका, दीपनी, दीपनीयः, यवजः, यवसातः, यबसाहया, यवाग्रजः, उपगन्धा, वातादिः, भूकदम्बकः, शूलहन्त्री, उग्रा, तीवगन्धा, कारवी, भूमिकः, अग्नि गन्धा, अग्निवर्धनी, यवान, था, ब्राह्मदर्भाय, यवाह। अजोवान, जोवान, योयान, यमानी, अजवाइन, अजवान-बं० । केरम कॉप्टिकम् । (Caruin copticum, Bruth.),लिग्युस्टिश्राम अजवान ( Ligustiasni-ajowan, Road.), केरम (टाइकोटिस) अजीबान Car. um (Ptychotis ) Ajowan, ]). C. ( Fruit of- A jowan-fruit. ), अम्मी काप्टिकम (Ammicopticum)-ले० । किंग्स क्युमिन King's cumin, स्लोवेज Lovaga, fatais Bishop's weed, श्रोमम् Omum (seeds )-६० । अम्मी डी इण्डी Ammi de IInde-मां० ।। इण्डिस्कोज फ्राल्टीनोर Indisches faltemohr-जर० । माननाह., कमने- मलूकी, । ज़िम्यान-१०, फा० । श्रोमम, अमन-ता० । श्रो- ! ममु (-मी), वाममु, यामु-ते० । अयमोदकम, होमम . -मल० । बोम, श्रीमु, ओएछु, श्रीम,-कना। बोषसादा, धोवाअजमा,उवा-मह । श्रोडी अज्ञान, अजमो, जवाइन-गु०। अस्समोदगुड, अस्समोउगम, प्रोमम-सि । सम्हूम-बं० । प्रांमा-तु01 अम्मी, यासलीकन कमूनी ( मलु की)-यु०। चोहरा-कछ० । श्रीगड, प्रोम्-करना। ओम । -माला० । अजवाइन--40। जाबिनकाशा वोवा-बम्ब०। वोघो-को । लावि लार्मिसी : -मला अभ्वेलिफरी अर्थात् क्षत्री वर्ग-- (V.0. Umbllirere) उत्पत्तिस्थान-एक पौधा जो सारे भारतवर में विशेषकर बंगाल में लगाया जाता है। यह पौधा अफरीका, दकन तथा पंजाब, मिश्र और ईरान ( फारस), अफगानिस्तान प्रादि देशों में भी होता है। नाम विवरण तथा इतिहास-यूनानीहकीम डायोसकाराइडोज़ ( Dioscorides ) ने अम्मी ( अखीलूस ) नामक जिस अफरीकीय श्रोपधि का वर्णन किया है वास्तव में वह यही दवा है । अस्तु, हकीम जालोनूस अम्मी और कमूने मल की या किंगज़ क्युमिन ( King's cumin ) को एक ही दवा मानते हैं । फारस में भी एक इसी प्रकार का बीज जिन्यान तथा नानखाह के नाम से बहुत प्राचीन काल से प्रयोग में माता था। नानखाह (नान-रोटी+ खाह = चाहने वाला) का अर्थ "रोटी का चाहने वाला" है। चूंकि यह बुधावर्द्धक है इसलिए इसका उक्र नाम पड़ा । प्राचीन काल में ईरानी लोग जिन्पान को, वास्तव में जो नाताह ही था, तनूरी रोटियों पर लगाया करते थे। इनसीना ने नान्नाह नामसे इसका वर्णन किया है। प्लाइनी अम्मी और किंग्ज क्युमिन (कमूने मलूकी) को एक ख्याल करते हैं। हाजी जेनुलअत्तार डायोसकोराइडीस द्वारा वर्णित अम्मी को नामवाह बतलाते हैं तथा उसके औषधीय गुणधर्म के सम्बन्ध में उन्हीं चिकित्सकों की सम्मतियों को उद्धृत करते हैं। वे और भी बतलाते हैं कि उक ओषधि शोधक रूप से प्रसिद्ध है और दुष्ट प्रणों को अच्छा करने तथा उनसे दुर्गन्धि युक्र साबों को रोकने के लिए उपयोग में पाती है। तुह.फनुल मोमनीन के लेखक तथा अन्य इसलामी चिकित्सक डायोसकोराहीज़ के अम्मी या बैसिलिकॉन क्युमिनॉन ( Basilikon kuminon) तथा फारसीयों के नान्नवाहब जिन्यान को अजवायन ही मानते और इसका . अरबी नाम कमूनुखमलको (King's cu. min) बतलाते हैं । पश्चात् कालीन यूरूपीय लेखकों का यह टिकोटिस भजोवान (Ptyc. hotis a jowan)है। For Private and Personal Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अंजवाइन २३ श्राजवारन प्राचीन श्रायुर्वेदीय ग्रंथकारों ने इसी प्रकार के एक श्रोषधि का यवोनी तथा यधानिका नाम से वर्णन किया है, जिससे इसका विदेशी होना साफ सिद्ध होता है । उनके वर्णनानुसार यह अजमोदा के भेदों में से एक है। वानस्पतिक विवरण-अजवायन तुप जाति की वनस्पति के बीज है। ये एप लगभग चार फीट ऊँचे होते हैं। पत्ते छोटे छोटे हालों के पत्तोंके समान एवं कटीले होते हैं और इनकी डा. लियों पर छत्ते से पाते हैं जिनपर सफेद फूल लगते हैं। जब वे इसे पक जाते हैं तब उनमें अजबाइन उत्पन्न होती है । उनको कूटने से छोटे छोटे दाने से निकलते हैं, इन्हीं को अजवाइन कहते । है । अजवायन (फल) रूपाकृति' में अजमोदा | समान तथा धूसर वर्ण की होती है, जिसका ! ऊपरी धरातल अदाकार पञ्च उभार युक्र होता है । इनकी मध्यस्थ नालियाँ श्याम धूसरित होती हैं, जिनमें एक तेल नलिका होती है। संधिस्थल में दो तैल नलिकाएँ होती हैं। गंध हाशा अर्थात् जंगली पुदीमा के सदृश होती है। भारतीय कृषक प्रायः धनिए के साथ इसे खेतों में बोते हैं। बोने का समय अक्टूबर से नवम्बर तक (कातिक, अगहन) और काटने का समय फरी है। इसके लिए खेत खाददार होना चाहिए। नोट- श्रायुर्वेद में यमानी, बनयमानी, पारसीक तथा खोरासानी ग्रादि नामों से श्रजवायन को चार प्रकार का बतलाया गया है। इनमें से प्रथन दो में कोई भेद नहीं (दूसरी केवल जंगली है ) और अंतिम की दो अन्वायन म्युरा. सानी ही के पर्याय है: किन्तु यह अजवायन से सबंध भिन्न वर्ग की श्रोपधियाँ हैं। इनका वा न यथास्थान किया जाएगा। . प्रयोगांश-फल, पत्र । रासायनिक संगठन-स्टेनहाउस (१८५५)! महाशय के मतानुसार अजवाइन के फल में एक प्रकार का प्राता सुगंधियुक उड़नशील सैल (५-६ प्रतिशत) होता है जिसका विशिष्ट गुरुत्व ०६६ है। परिशुत जल के ऊपरी धरातल पर एक प्रकार का स्फटिकवत् द्रव्य ( Ste:aroptin ) इकट्ठा होता है। उसे अजवाइन का फल या सत कहते हैं। स्टॉक ( stock ) महाशय ने सर्व प्रथम इसका बयान किया तथा स्टेनहाउस (Stenhouse) और हेन्स (Haines) ने परीक्षा करके इसकी थाइमोल (Thymol) से, जो जङ्गली पुदीना (Thymus Vulgaris) से प्राप्त होता है, समानता दिग्वलाई। देखो-थाइमोल । इसमें क्युमीन (Citmene), टीन (Terpelle) तथा श्राइसीन (Thy. mene) भी पाए जाते हैं। औषध-निर्माण-अजवायन गुटिका (शा), चूर्ण, काय, अर्क ( अमूम का पानी) और तेल । अजवायन के गुणधर्म व प्रयोग । श्रायवदीय मत के अनसार . अजवायन लेखन ( देहस्थ धातु तथा मसलों को शोषण करने वाली), पाचक, रुचिकारक, तीक्ष्ण, गरम, घरपरी, हलकी, अग्नि को दीपन करने वाली, कड़वी और पित्तकारक है तथा वीर्य, शूल, वात, कफ, उदर, पानाह, गुरुम, प्लीहा तथा कृमि को नष्ट करने वाली है। (भा० पू० १ भा०) इसके शाक के गुण-अजवायन का शाक अाम्नेय, रुचिकारक, धात-कफ-नाशक, चरपरा, कड़वा, गरम, पित्तकारक, हलका तथा शूलकारक है। (भा० पू० शा० व.) अजवायन चरपरी, कड़वो श्रीर गरम है तथा बात की बवासीर, कफ, शूल, असान, कृमि और वमन को दूर करने वाली तथा परन दीपन (ग. नि० ब०६) अजवायन कोढ़ और शूल को नष्ट करने वाली है, हृदय को हितकारक, पित्तवईक तथा अग्निबद्धक है। जवायन चरपरी, कड़वी, रुचिकारी, गरम, अग्निप्रदीपक, पाचक, पिसजनक, तीक्ष्ण, हलकी हृदय को हिसकारी, सारक और श्रीर्यजनक है तथा बा.ी की यवासीर, कफ, शूल, प्रफरा, वमन, कृमि, शुक्रदोष, उदररोग, प्रामाह, हवय. For Private and Personal Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अजवाइन प्रधाइन रोग, लोहा, गुल्म, इन्ज रोग और आमवात को नाश करती है। (रा०नि० . अर्क अजवान-अजवायन का अर्क-ह. द.। . अजोबान Ajowan, एका राइकोटिस Agua Ptychotis-ले०। प्रोमम् वाटर Onum watar-इं०। श्रीमत्ति-नीर-ता०। श्रीमद्राव. कम् ते०। अजवायन के अर्क के गुण-अजवायन का अर्क पाचक, रुचिकारक, दीपन तथा शुक्रनाशक एवं शूल नाराक है। यूनानो मतानुसार अजवायनके गुण धर्म | व प्रयाग-स्वरूप-अनीV के समान कालापन लिए भूरी । स्वाद-कडुवास लिए तीखी ! और तीचया गंधयुक्र है। प्रकृति--३ कक्षा में गरम और रूद है। हानिकर्ता-उष्ण प्रकृति को, शिरः पीडाप्रद और स्तनों के दुग्ध की ! हासकर्ता । दर्पनाशक-उमार, धनियों, खाँड । तथा स्निग्ध व शीतल द्रव्य । प्रतिनिधिकलौंजी और काला जीरा । मात्रा-६ मा० से १ तोला तक। गुण, कर्म, प्रयोग-अजवायन विशेष कर समस्त अवयवों की वेदना को शमन करने वाली शोथों के लय करने वाली तथा कामोद्दीपक है। यह पाता शोषक, कोष्ट मृदुकारी, वायु : लय कर्ता तथा अगद शनि से संयुक्र होती है, अजवायन को शर्बत लकवा, कम्पनवायु तथा : शैथिल्य को लाभदायक है। इसके क्वाथ द्वारा प्रॉम्ख धोने से नेत्र स्वच्छ होते हैं। इसे कान में : डालने से वधिरता को लाभ होता है, यह वक्षःस्थवेदना तथा रतूबतों को नष्ट करने के लिए उसम है और रोधउद्धाटक, कोष्ट मृद्धकारक, यकृत एवं नीहा की करता को लयकर्ता, हिचकी, वमन, मतली, दुर्गन्धियुक्त डकार, बदहज़मी, उदर में शब्द होना, मूत्रावरोध तथा प्रश्मरी प्रभृति के लिए गुणादायक है। कामोही : पक है तथा यकृत, श्रामाशय, वृक तथा वस्ति । को उष्णता प्रदान करती एवं शक्ति देती है । यह । सूत्र, प्रातव, दुग्ध तथा स्वेद की प्रवर्तक है।। जलोदर के लिए गुणदायक है और हर प्रकार के केचुत्रों को निकालती है। लेमू (नीबू) के रसमें यदि इसे सातबार डुधोकर शुष्क कर लें तो यह नपुसकता के लिए अत्यस्त गुण दायक हो। इसका शर्बत श्लैष्मिक ज्वरों में विशेषकर चातुर्थिक बर के लिए अत्यन्त लाभदायक है तथा ज़हरों को नष्ट करने में अगद है। अण्डशोथ के लिये इसका लेप उत्तम है। शाहद के साथ मिलाकर उपयोग में लाने से यह सम्पूर्ण श्रावयविक वेदना तथा शोथ के लिए लाभदायक है । म. प्र.। (निर्विषैल, परन्तु अधिक मात्रा में विषैल है।) एलोपैथिक मेटोरिया मेडिका तथा अजवाइन । यमानो तेल-अजोवान प्रालियम् (Ajo. wan Oleum)-ले. ! अजोवान श्राइल ( A.jowan oil ), टिकोटिस प्राइल (Ptychotis oil )-10 रोगने नाम्खाह -फा० । अजवाय (इ) न का तैल-हिं०, उ० । यवानीर तैल-बं०। ऑफिशल (Official.) लक्षण-यह एक वर्णरहित तथा उदनशील तैल है जो अजवायन के फल द्वारा परिश्रुत करके प्रस्तुत किया जाता है। इसका स्वाद तथा गंध अजवायन के समान होती है। इसका प्रापेक्षिक गुरुत्व ११७ से १३. तक होती है। ३२० फारनहाइट पर इसे शीतल करने से इसमें से ४० प्रतिशत थाइमोल पाया जाता है। नोट - थाइमोल को भारतवर्ष में अजवायन का फूल और पञ्जाब में अजवायन का सत कहते हैं और मध्य भारत के किसी किसी स्थान में इसको बनाते हैं। पहाड़ी पुदीना जिसे अरबी में हाशा और सातर तथा यूनानी में थाइमस (Thymus) कहते हैं और प्राचीन अरबों ने जिसका उच्चारण सोमस किया है। वस्तुतः उसके जौहर या सत को अंगरेजी में थाइमोल ( Thymol ) कहते हैं । परन्तु उपरोक वर्णनानुसार ग्रह जौहर For Private and Personal Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अजवाइन अजवाइन - - - - - अजवायन प्रादि से भी प्राप्त होता है। देखो- . oplum) मिति कर व्यवहार करना उत्तम है थाइमोल। तथा २॥ तो० अर्क अजवायन और उतने ही प्रभाव-वायुनिस्सारक (Cerminative) चिरायते के शीत कपाय में 1 प्रेन (आधी रत्ती) तथा कृभिन्न (Anthelmintic). लोहगन्धेत् [ सल्फेट श्रॉफ प्रायनं ] मिति कर __ मात्रा-1 से ३ मिनिम ( ३ से १८ सें दिन में २ बार व्यवहार करना उत्तम व्यापक मि० ग्रा. ). बलदायक श्रीषध है। यमानो तैल के प्रभाव तथा प्रयोग-थाइ । ___ इसे अन्य सुगन्धित पधियों यथा यूकेमोल तथा अन्य धाफ़िराल तेल के तहश ३ बुद लिप्टस, पेपरमिरट तथा गालथेरिया श्रादि के की मात्रा में यह प्रबल बायुनिस्सारक है । थाइ ।। साथ मिलाने से यह लाभजनक वायुनिस्मारक मोल के समान द्व.शांगुलीयांत्रस्थ (द्वादशा- श्रीपध होजाती है। यमानीत तथा अजवायन गुल नामक अंग्रमें पाए जाने वाले ) केचुश्री पर का फल इन दोनों को सांडा के साथ देने से यह सशक कृमिघ्न प्रभाव करता है । परन्तु अम्लपित्त, अजीर्ण तथा उराध्मान में लाभ उ अभिप्राय हेतु एक फ्लु इड डान से अधिक , होता है। मात्रा को प्रावश्यकता होती है जो थाइमोल के अजवायन का श्रीज, कालीमिर्च, सी: प्रत्येक तरल रूप में प्रारमीकृत होजाने के कारण सम्भ- प्राधा डाम और इलायचो । डान इन सबको बतः विषेना होगा। श्राभ्यन्तरिक रूप से श्रज- | चूर्ण का डाम की मात्रा में उदरशूच में दिन वायन का अक उदराध्मान (Flatulence) में दो बार यवहार करने के लिए में यह बदिया तथा उदरशूल में लाभदायक है।। बायुनिस्सारक दवा है। | অলসন স্ক যুগল গ ন ম ম चक्रदत्त-अजवायन, सेंधानमक, पोंचलडॉक्टर एवं अन्य मत-अजवायन के बीज लवण, यवचार, हींग तथा हर्रा इनको समभाग तथा उड़नशील तेल उदरामान, उदरशूल, अति- ले चूर्ण करें। मात्रा-५ रत्ती से १० रत्ती मय सार, विशूचिका, योपरापस्मार, और अत्राक्षेप में के साथ । गुण--अंतड़ियों की वेदना व शन को लाभदायक है। इससे उप्मा एवं प्रासाद की दूर करता है। वृद्धि होती है और प्रांत्रविकार के साथ होनेवाली - अमवायन के बीजों को मुंह से चबाकर उदासीनता तथा निर्बलता दर होती है। उक निगल जाये और ऊपर से उष्ण जल पान करें। तल को १ से ३ बुद की मात्रा में किञ्जित शर्करा इससे प्रामाशय शूल, कास तथा अजीर्ण नष्ट पर डालकर अथवा गोंद के लाब और जलके माध इसका इमलशन बनाकर उपयोग में लानः | अजवायन का मेल प्रस्तुन करने के लिए. ३ पाहिए। वान व प्रामवान सम्पन्बी बेदनात्रों को ! मेर दुचली हुई अजवायन में १५ सेर पानी दूर करने के लिए इसका वाह्य प्रयोग होता है। झाल के मद्य संधान की विधि से १० सेर पानी त्रिशूचिका की प्रथमावस्था में वमन व रेचन को | काढ़ना चाहिए । (मिलिंसडेल) . रोकने तथा शरीर को उत्तेजित करने के लिए, पैसिक यमन एवं शीत लगना प्रभृति में अजयमानी तेल एवं इसके बीजों द्वारा परिणत अल ! वायन के बीज तथा गुड़ मिलाकर भक्षण किया (अजवान के अर्क) को 1 से २ पाउंस ( २॥ जाता है। तो० से ३ छ. तक) की मात्रा में उपयोग जुकाम, प्राधाशीशी तथा उन्माद इत्यादि में करना गुणदायक होता है। इसके बीज के चूर्ण को बारीक कपड़े में बाँध कर अतिसार में एक माउंस ( २॥ तो.) अज- थोड़ी थोड़ी देर में मुंघाना चाहिए अथवा उक्त वायन का अर्क तथा उसने ही चूने के पानी में चूर्ण का सिगरेट बनाकर पिलाना चाहिए। . ५ बुद अहि फेनासच ( Tincture of ! उदरशूल निवारण हेतु इसके बीजों का उपाना For Private and Personal Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अजवाइन www.kobatirth.org १४१ ( पुलटिस ) या स्तर उपयोग में आता है । इसके बीजों को गरम कर दमा में सीने को तथा विशुचिका, मृर्धा व बेहोशी में हाथ पत्र को शुक सेक करते हैं। अजवायन के बीज, पिप्पली, प्रड्स पत्र और पोस्ते के ढोंद इनका काथ कर आधे से : श्राउंस की मात्रा में श्राभ्यन्तर रूप से वर्तते है । श्लेना के शुष्क हो जाने या चिपचिपा हो जाने के कारण जब फलाच कठिन हो जाता हैं, उस समय इसके श्रीशों के चूर्ण में क्वन मिलाकर खिलाने से लाभ होता है । बनयतानी भी उत्तम है श्रोर श्रनेक कृि नाक योगों का एक मुख्य अवयव है । ! शिथिल-कंत में इसका भी संकोचक श्रीधियों के साथ उपयोग में श्राता है। श्रीप धियों विशेषकर मरड तेल के ग्राह्य स्वाद को छिपाने के लिए एवं उनकी वामक प्रवृत्ति व ऐंठन युक्र बेदना को रोकने के लिए इसका उपयोग किया जाता 1 आभ्यासिक मादकता नया पागलपन में यह लाभदायक है। अपने वरपरे तथापि मनोहर स्वाद और श्रनाशयिक उत्ताप विवर्द्धन के कारण मादक तव पान की इच्छा से व्यथित व्यक्तियों का इसे व्यवहार में लाने की आधुनिक काल में बहुत सिफारिश की जाती है । यद्यपि इससे नशा नहीं पैदा होती तो भी निर्बलता दूर करने के लिए यह सामान्य उनक श्रौषधों की एक उनम प्रतिनिधि है - बुड ) ! श्रापका कथन है कि यह बहुत से वुद्धिमान व्यक्तियों को मद्यपान के अभ्यास की किकरता से मुक्ति दिलाने के लिए उत्तम कारण सिद्ध हुई है। अजवायन ( श्रीज लगने से प्रथम ) के पौधे के कोमल पत्तो कृमिघ्न प्रभाव हेतु व्यवहार में आते हैं । कृमि में इसके पत्र का स्वरस दिया जाता है I विषैले कीटों के काटने पर देश स्थान पर इसके पत्तों को कुचल कर लगाते है । T Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अजवाइ ( 2 ) न खुरासानी अजवायन के पत्ते का स्वरस, स्पन्द ( हेना ) और मालकांगनी इनको समान भाग लेकर इससे तिगुना मीठा तेल जिलाकर पकाएँ । तैयार होने पर उतार लें और नासिका व क * रोगों में इसका व्यवहार करें। ( इलाजु० गु० ) अजवाइनका फूल ajavái a-ká-phúla जन-का-सन ajavaina-kásata किं० संज्ञा पुं० श्राइमोल ( blowers of Ajowan Camphor ) | देखो - थाइमोल व अजवादन | फा० ई० । ई० मे० मे० । ८० [फा० ई० । अजवाइन- फे-बू-का-पत्ता ajawaina-ke-búka-patti-इ० सीता की पञ्जरी । वाह (य) न खुरासानो ajavai (ya) nakhurasáni-60 संज्ञा स्त्री० [सं० यवा निका ] खुरासानी जया (मा) यन । बुरासानी श्रज्ञान- ३० । नदकारिणी, तुरुष्का, तिब्रा, यवानी, यावनी, मादक, मदकारक, दीप्य, श्याम, कुचैराख्य, पारसीक यवा (मा) नी, खोराखानी यमानी-सं० । खुराशानी योयान, खुरासानी जीवान- बं० | हाइयो साइमस नाइप्रभू Hyoscyamus Nigrum, Linn. ( Seeds of - ), हाइयां साइमस ( Hyoseyamus ), हा० रेटिक्युलेरिस (H. 13ticularis ), हा० रेटिक्युलेटस (H. Reticulatus, Lin".) - ले० । हेन्येन (सीड्स) Henbane ( Soods ) - | जस्कीएमिनचार Tusguiam-फ्रां० श्रफ़िग्रूम Aliyum जर० । खराशानि-योमम् - ना० । खुरासानि -वामम्, खुरिक्षिघामम् । खुरासानी-यमनी, खुरसान वाली ते०, तै० । खुरासान बीमा, खुरासानि वादकि कना० । किरमाणि श्रवा, खोरासारणी-नि-श्रीवा, सुरबंदीचे - फूल - मह० | खुरासानि श्राज्मो, खुशसानि - श्रजवान, खुरसाणा - अजमा, करमाणीछहारी - गु० व्रजरभंग, इस्किरास-काश० । काटफिट - ० 1 ब जुल्ब, बञ्ज, सीकशन, दाउरे जाल-अं० | अंक, बंग, अंगदीवाना- का० श्रृज़ूमालस-लिपि० । वानवात-तु० । अफ्रीकून, । For Private and Personal Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अजवाद (य) न व रासानी अजवाद (य) न व रासानी अफ्रियून-यु० । अक्तफीत, इस्कीरास बरव० । व्यापारिक आयात निर्यात हो रहा है। विदेशों कीर्धक-देल्मी। की उत्तम चाँजों का अपनाना और अपनी चीजें सोलेनेसीई अर्थात् धुस्तु (तू) रवा विदेश में भेजना भारतीय अपना ध्येय बनाते रहे धत्तर वर्ग हैं। इसी प्रकार बहुत सी ओषधियों जिनको (3.0. Sultanacee.) हमारे पूर्वाचायौं ने रोगियों पर लाभदायक पाया उत्पत्ति स्थान-उत्तरी भारतवर्ष, ( काश्मीर, : उनका मंगाते थे। खुरासानी अजवायन भी उन्हीं गढ़वाल ) पश्चिमी हिमालय के शीतोष्ण प्रदेश। श्रीपधियों में से एक है। समस्त हिमवती पर्वत-श्रेणियों में ... से । ... प्राचीन यूनानी चिकित्सकों ने तीनों प्रकार के ११००० फीट की ऊँचाई पर यह वन की तरह वा (पारसीक यमानी ) का वर्णन किया है। उपजता है। बलूचिस्तान, (ईरान) खुरासान, ' परन्तु उनमें श्वेत प्रकार को ही श्रोषध तुल्य उपमिश्र, एशिया कूचक और साइबेरिया के अतिरिक्र य.ग में लाते थे । डायोसकाराहडीस सहारनपुर के सरकारी वनस्पस्योद्यान में भी बोया ( Dioscorides) ने भी इसकी प्रशंसा की जाता है। यूरुप, (पुर्तगाल और यूनान . है, एवं वह इसीके उपयोग करने की सिफारिश घारधे और फिनलैण्ड तक ) अमेरिका प्रादि।। करते हैं। इस सम्बन्ध में इस्लामी चिकित्सक नाम विवरण-इसका लेटिन नाम हायो- . भी अबतक उन्हीं के अनुयायी है। साइमस यूनानी इनास कुप्रामास (Huos. : लेटिन लेखक हायोसाइमस को अल्तर्कम kuamos) से लातानीकृत शब्द है जो एक (Altercum) तथा हर्वासिम्फोनिएका यौगिक है (हुाँसयूककुनामास-याकला, (Herba, Symphonica) बोलते हैं। लोबिया)। अस्तु उक्र शब्द का अर्थ शूकर । लाइनो के कथनानुसार अरुतकर्म अरबी शब्द है। लोनिया हुा । चूं कि इसके पत्त लोबिया पनके सम्भवतः यह अत्तिर्याक का अपभ्रंश है जो मूल . सरश होते हैं एवं इसे सूअर बहुत रुचिपूर्वक में फ़ारसी शब्द है और जिसका अर्थ विपन है। खाता है इसलिए यूनानियों ने इसका यह नाम . मुसलमान लेखक इसे बन कहते हैं जो फारसी रक्खा । बंग का प्रारबीय अपभ्रंश है। इनके कथनानुसार नाट-महानुअद्रिया तथा मुहीताज़म | यह यूनानियों का अनियून, सिरियन लोगों का में जो इसका यूनानी नाम अफ्रोकन लिखा है यह . श्रजमालुस, मूर लोगों का करीत या इस्कीरास शुद्ध अम्यून है । कोई-कोई प्राचीन इस्लामी है। वे पुनः कहते हैं कि देल्मी भाषा में इसे हकीम इसको यूनानियों का अफ़्यून घ्याल करते कोर्सक कहते हैं। रहे। अस्तु, इसीके वर्णन में लिखा है कि कभी टिप्पणी---- ल् बञ्ज अवैज़ ( तुरुमबङ्क इसके पत्तों तथा शाखाओं का उसारह. अफ्रीम । सफेद) जो खुरासान से भारतवर्ष में अधिक की प्रतिनिधि स्वरूप उपयोग में प्राता है।। धाता है, भारतीय चिकित्सकों ने अजवायन के अक्यून यूनानी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ समान समझ उसका नाम खुरासानी या पारसीक निद्वाजनक है। यमानी रख दिया जो अब उठ भाषा एवं तिव इतिहास-यपि उक्र बूटी हिमालय पति में अजवायन खुरासानी के नाम से प्रसिद्ध है। तथा उत्तरी भारतवर्ष व इसके अन्य भागों में भी परन्तु इस बात को भली भोति स्मरण रखना अधिकता से उत्पन्न होती है, तथापि सम्भवतः चाहिए किब अल बञ्ज (अजवायन खोरासानी) प्राचीन श्रायुर्वेदिक चिकित्सकों को इसका ज्ञान और मानवाह (अजवायन ) गुण धर्म के विचार न था। पारसीक तथा खोरासानी यमानी श्रादि से सर्वथा दो भिन्न औषधियाँ हैं। प्रस्तु, पार. नाम इसका विदेशी होना सिद्ध करते हैं। सीक यमानी को कदापि यमानी ( अजवायन) अाज ही नहीं प्राचीन काल से ही भारत में | का भेद न ख्याल करना चाहिए । For Private and Personal Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अजवाइ ( य)न खुरासानी अजवार (य)ने ब्रुरासानी . .. वानस्पतिक विवरण-खुरासानी या किर- अर्थात् श्वेत श्रीजयुक्त है जो समस्त चिकित्सकों . मानी अजवायन वास्तव में अजवायन के वर्ग की द्वारा स्वीकृत है। उनके कथनानुसार इन सभी में प्रोधि नहीं। अपितु, यह यादान अर्थात् चकर तथा पागलपन पैदा करने का गुण है। सोलेमेसीई वर्ग की ओषधि है जिसमें बिलाडोना पारसीक यमामी बीज जो स्खोरासाम से लाया य धत्त र प्रादि विषैली दवाएँ सम्मिलित हैं। जाता है वह उक्र चारों में से प्रश्नम का ही बीज इसका जुपअजवायन के सुपसे ऊँचाई में कुछ बड़ा है । यह क्वेटा में बहुतायत से होती है। इसके होता है। पत्ते कटे हुए करेदार करोय करीब अतिरिक्त इसका एक और भेद है जिसे कोही ., गुलदाउदी के समान होते हैं। पुष्प श्वेत, अनार 2 (H. inuticus, Linn., or H. की कलियों के समान, परन्तु पईयों के कारे व Insavus, Stocks. ) कहते हैं । यह प्रत्यमध्य व मूल भाग सुर्ती मायल होते हैं। न्त विषेला होता है। देखो-कोही भंग । जिनके पकने पर मूल भाग में छत्ता सा लगता है। प्रयोगांश-वैद्यगण बहुधा इसके पीजों को जिसमें अजवायन खुरासानी के बीज लगते हैं; व्यवहार में लाते हैं और तिब्धी हकीम भी प्रायः ये अजवायन के बीज से दृने बड़े एवं वृताकार उन्हीं का अनुकरण करते हैं। प्राचीन यूनानी (जिनका पार्श्व भाग वषा हुआ होता है।) लोग तो इसके पत्तों, शाखों तथा मूल व बीज सथा धूसर वर्ण के होते हैं। बाह्य स्वचा भली अर्थात् पञ्चाङ्ग को व्यवहार में लाते थे। परन्तु, प्रकार चिपकी हुई होती है। अल्युमीन तैलीय मध्यकालीन यूरुप में इसके बोज, मूल अधिक होता है। वृक्ष गर्भ इस प्रकार (५) वक्र उपयोग में प्राते रहे। श्राजकख यूरुप व अमे. होता है, जिसका पुच्छ अङ्कुर बनता है। रिका में अधिकतर इसके पत्ते और जह न्यूनतर स्वाद-लीय, तिक एवं चरपरा होता है।। ग्यवाहत हैं। प्राचीन यूनानी व इस्लामी चिकि भेद-महजनके लेखक मीर मुहम्मदष्टुसैन । रसक तो घेत पुष्पीय बा को प्रौषध रूप बञ्ज के नाम से उक प्रोषधि का वर्णन करते हैं । उपयोग करना उत्तम ख्याल करते थे। यद्यपि वे इसके तीन भेद यथा श्वेत, श्याम तथा रक का बा स्याह के उसारह, का भी उन्होंने ज़िकर जिकर करते हैं (किसी ने पीत धुपवाले का किया है, पर अधुना यूरुप में पारसीक अमानी वर्णन किया है ) और इनमें श्वेत प्रकारको उत्तम श्याम औषध रूप से व्यवहत है । अस्तु, डाक्टर झ्याल करते हैं। प्राचीन ग्रन्थों में यही अर्थात् लोग इसकी (शुष्क या नवीन) पसियों से श्वेत प्रकार (Hyoseyamus Albus, तरह तरह के योग निर्माण करते हैं। वे पत्तियों Linn.) ऑफिशल थी । मुर्दात नासरी में को मय शाखा व फूल सावधानी से संग्रह करते इसके बीजको ब जुल बज अब ज (श्वेत पारसीक : हैं । यह उस समय किया जाता है जब खुरा. यमानी बीज ) लिखा है। प्लाइना (Piny) सानी अजवायन का पेड़ फूलने फलने लगता है ने उक्र पौधे अर्थात् हा० रेरिक्युलेटस के चार । तथा अपनी पाकावस्था में दिखाई देने लगता है। भेदों का वर्णन किया है। उनमें से प्रथम रासायनिक संगठन-हेनबेन ( पारसीक (H. reticulatus) at at arat यवानी) में एक हायोसायमीन (Hyoscyaजिसमें नीले रंग के पुष्प पाते हैं, तथा जिसका nine) नामक सरव जिसको रासायनिक रचना तना काँटेदार होता है और जो गलेशिया में धतूरीन (एट्रोपीन) के समान होती है, पाया उत्पन्न होती है; द्वितीय या साधारण प्रकार जाता है। यह विभिन्न प्रकार के हायोसायमस हायोसाइमस नाइगर (श्यामपारसीक यमानी); (ना) के बीज तथा पत्र स्वरस में हायोसीन तृतीय भेद जिसका बीज मूली के सदृश होता है ... या विकृताकार हायोसायमीन के साथ पाया जाता अर्थात् हायोसाइमस श्रारियस (H. aureus, है । इसके सूचिकाकार या निपाराकार रखे Lin.) और चतुर्थ हा० एल्बस (H.al bus): होते हैं और यह धतूरीन की अपेक्षा जल एवं For Private and Personal Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अधार य) न रासानो अजवाइ (य ) न खुरालाको डायलूट अलकुहोल में अधिकतर लयशील होता है। यह धतरीनके समान नेत्र कनीनिका विस्ता हायोसायमीन अनेक सोलेनेसीई पौधों यथाधतूर,विलाद्वाना और सम्भवतः इसके कुछ अन्य भेदों में धतूरीन के साथ मिला हुआ पाया जाता है । हानोसायमीन उन्हीं थ्यों में विश्लेषित किया जा सकता है जिनमें पेट्रोपीन । वियोजित होता है, यथा-ट्रोपीन और ट्रॉपिक । एसिड। हायासीन (स्कोपोलेमीन) या विकृताकार : हायोसायमीन-अपने कनीनिक। प्रसारक नथा : अन्य गुणों में निकट को समानता रखते हैं। जल में उबालने से यह ट्रॅापिक एसिड तथा स्युडोट्रोचीम में दियोजित हो जाते हैं। (वैटस डि० ऑफ केमिस्टो, द्वि० संस्क० ११, ७४४)। उनके अतिरिक पत्ते में हायोस्क्रीचीन ( HyOscripin), कोलीन ( cholin), फैटी : भाइल, लुत्राथ, अरुच्युमीन-(अंडे की सुफेदी) , और पांशुनत्रेन (पोटेशियम नाइट्रेट) २ प्रतिशत . तक होते हैं। श्रीज में एक स्थिर या वसामय तैल २६ प्रतिशत, एक एम्पाइर युमैटिक तेल (Empy- ' reumatic oil ) जो विनाशक परिति ! विधिद्वारा प्राप्त होता है, और वार्नीक (Warneke ) के मतानुसार ४.५१ प्रनिशत भस्म . वर्तमान होती है। प्रभाव-बोज-मादक, निद्राजनक (मद्कारी), वेदनामाराक, पाचक, संकोचक तथा कृमिघ्न है । ०५ तथा हायोसाइमीन-अबसादक, वेदना-शामक, श्राप निधारक, उत्तेजक और नेत्र कनीनिका प्रसारक है। इनका उम्मस. कारी प्रभाव बिलाडोना की अपेक्षा मानर तथा निद्राजनक अधिकतर एवम् अधिक विश्वसनीय व शीघ्र और अफीम सरख ( माफिया) : ग्रोरल से उत्तम होता है। औषध निर्माण-पत्र चूर्ण, मात्रा २॥ से । ५ रसी (५ से १० ग्रेन); ताजा स्वरस : ( दवा कर निकला हुआ एवं सुरक्षित रक्खा : हुथा ), मात्रा-प्राधा से १ लाम; शुष्क पौधे द्वारा निर्मित टिचर, मात्रा-चौथाई से . ड्रामः ताजे पौधे का एक्सट्रैक्ट { सस्व), मात्रा-श्राधी से ॥ रमी (१ से ३ ग्रेन)। इनके द्वारा प्रस्तुत प्रस्तर (पास्टर ) एवम् तेल का वाह्य उपयोग होता है । अत्यधिक मात्रा में यह मदकारी विष है तथा इससे उन्मशता, मूर्धा एवं मृत्यु उपस्थित होती है । और इसकी क्रिया अति शीघ्र होती है। सत्व निर्माण-विधि-खुरासानी अजवायन का पौधा जब फूलने फलमे लगे, तब मय पत्तियों के उसकी छोटी छोटी शाखाओं को लेकर पानी से भली भाँति धोकर स्वरस निकाल लें। शुद्धता आदि का विशेष ध्यान रखना श्रावस्यक है । स्त्ररस को छानकर अग्नि पर पकाएँ, जब खोलने लगे और बोलते हुए १० मिनट हो जाएँ तथा स्वरस के ऊपर मैल के मांग से, जैसे कि खौड़ को चाशनी करते समय प्रायः हुत्रा करते है, उठने लगें, तब स्वरसको उत्तार कर छामलें, और निधारने के लिए स्वरस को धीमी के प्यालों में भर कर १२ घंटे रक्खा रहने । तदनन्तर सावधानी से निधार कर फिल्टर करले अर्थात् (फिल्टर पेपर ) में छान लें और फिर पकाएँ। जय गाढ़ा होजाय अर्थात् अवलेह समान गोली बनाने लायक होजाय तो उतार लें। मात्रा३-३ या ४-४ रत्ती। पारर्स कयधानी तरल सत्व-पूर्वक विधि से स्वरस को फिल्टर करके १० प्रतिशत के हिसाब से हली [ रेक्टीफाइड स्पिरिट ] मिला कर सशः निर्गत स्वरस का गर्म पानी मिलाकर वजन पूरा कर शीशी में भरकर उपयोग करें । मात्रा-३०बुद से ६०बुद तक २॥२॥ तो जल में मिलाकर सेवन कराएं। पारसीक यमानी के गुण धर्म ध प्रयोग आयुर्वेदिक मतानुसार- खुरासानी अजवायन के गुण अजवायम के समान ही हैं, परन्तु विशेष करके यह पाचक, रुचिकारक, ग्राहक, मादक सथा भारी है । For Private and Personal Use Only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अजवा (2) न जुरासानो १४५ अजवाइ (य) न खुरासानी पारसीक यमानी तिक, गर्म, कटु, तीखी, यवों में शैथिल्पोत्पादन कर्ता, निद्वापद, अवयवों अग्निदीपन करने वाली, वृप्य तथा हल्की होती के म. विशेषतः प्रातय इत्यादिका रुद्रुक व बद्धक है । त्रिवोष (सनिपात), अजीर्ण, उदरज कृमि है। कफज कास को गुण कर्ता, खखार में रुधिर रोग,दर्द,ग्रामगुल (पेचिश को ऐंडन) तथा कफ आनेकी नाशक तथा अधिक रूक्षताकता है। प्रत्येक रोग आदि को नष्ट करती है। वै० निघ०। भाँति की वेदनाशमनार्थ इसका बाह्य उपयोग खुरासानी अजवायन चरपरी, रूखी, पाचक, होता है । अस्तु, तिल तेल में अकेले इसे अथवा ग्राही, गरम, नशा करनेवाली, भारी, वातकारक अन्य औषधियों के साथ पकाकर सन्धिवात, और कफनाशक है, शेष गुण अजवायन के गृध्रसी या कटि वेदना (अर्क निसा ) तथा निज समान हैं। वै. निघ०। रिस (Gout) प्रभृति में इसकी मालिश . यह बुद्धि और नेत्रको मन्द करती है, कानों में की जाती है। उक्त तैल के अधोंष्ण भारीपन, कंग्रह, चित्र के चलायमान होने, कर्ण में टपकाने से कर्ण पीड़ा नष्ट होती तथा रुधिरस्राव और सर्व प्रकार की पीड़ा को है। अग्नि पर डालकर धूनी देने से अथवा नष्ट करती है । विशेषकर पाचन, प्राही, | इसके क्वाथ द्वारा कुल्ली करने से दाँतों का दर्द मादक और भारी है । अभि० १ भा०।। दूर होता है । मुखहिर अर्थात् अबसन्नताजनक खुरासानी अजवायन का अर्क-यह व निद्गाप्रद होने के कारण यह उन्माद, पागलपन मलरोधक, पाचक और मदकारक है। तथा अनिद्रा रोगमें प्रयुक्र है । अफीम व अजवायूनानो मतानुसार अजवायन खुरासानी यन खुरासानी दोनोंको समभाग लेकर माघ समान के गुण-धर्म व प्रयोग । यटिका निर्मित कर उपयोग करने से बहुत नींद स्वाद-तीखी और कड़वी । प्रकृति (श्वेत) | प्राती है और इसका लेप पुरातन यकृत् वेदना, २ कक्षामें अंडी और रूस(काली) ३ कक्षामडो जरायुस्थ व्रण तथा वंक्षण वेदना को बहुत लाभ और रून है। हानिकर्ता-(सफेद) चकर, क. पहुँचाता है । वस्ति-शोथ, प्रोस्टेट ग्रंथि प्रवाह, माला एवम् उन्मत्तकारी है; (कालो जाति की) वस्त्यश्मरी में वेदनाशमनार्थ तथा हृदय विकारघातक है । दर्षनाशक-शहद या अनी सम- जन्य दमा और खाँसी, विशेषकर काली खाँसी भाग या न्यूनाधिक किसी किसी ने अफीम और में इसे वर्तते हैं। नको. २ भा०, बु. मु०, पोस्त लिखा है। प्रतिनिधि - अफीम, अजवायन देशी, और खशखाश स्याह । मात्रा-(श्वेत) अजवाइन खोरासानी के सम्बन्ध में २ मासे से ३ मासे तक, (सुर्ख) २ से २॥ मासा डॉक्टरी तथा अन्य मत तक । आधुनिक मात्रा-प्राधा माशासे १ मा० प्रादाहिक शोधों की वेदना शमनार्थ इसके तक। स्वरस तथा यब के आँटे द्वारा प्रस्तुत प्रस्तर गुण, कर्म, प्रयोग-मोरमुहम्मद हुसेन इसके (पुल्टिस ) व्यवहार में आता है। इसके बीजों ताजे पत्ते के स्वरस के सूर्यतापी सत्व निर्माण का को मथ अर्थात् प्रांडी में पीसकर इसकी पुलटिस वर्णन करते हैं और कहते हैं कि इसके पत्तों को का संधिशोथ, शोथ युक्र छातियों एवं अण्ड में कूटकर आँटे के साथ कल्क प्रस्तुत कर उपयोग करते हैं । अर्ध ड्राम के लगभग इसके इसकी छोटी छोटी बाटियाँ बनाकर सुखा लें। बीज तथा १ डाम खसखास को जल एवं शहद इससे कुछ काल पर्यन्त इसमें औषधीय गुणधर्म के साथ पीसकर खाँसी तथा संधिवात प्रादि में विनमान रहेगा। वेदनाशमनार्थ वर्तते हैं। जरायुस्थ वेदना में यह सब नजलानी को लाभ कर्ता, स्निग्धसा | इसकी वर्ति व्यवहृत है। इसके बीजों का स्वरस युक स्राव (भाँख की ओर ) को हरण कर्ता, अथवा तीच्य हिम मछुपीड़ा हरणार्थ नेत्रों में डाला सम्पूर्ण प्रकारको कण पीड़ा को शान्तिप्रद, अव. जाता है। घोड़ी के दुग्ध में इसके बीजों को For Private and Personal Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अजवाइ (य)न खुरासानी अजवाइ (य) म खुरासानी पीसकर कल्क प्रस्तुत कर पुनः जंगली साँड | के चमड़े में बाँध कर स्त्रियाँ गर्भ निरोध हेतु इसे पहनती है। इसके बीजों के स्वर्ण तथा राल दोनों को मिश्रित कर वेदना नाशन हेतु खोखले दाँतों में भरते हैं। माल काँगनी, बच, अजवायन खुरासानी के बीज, कुलजन और पीपल इनको समभाग लेकर जल के साथ पीसकर कल्क प्रस्तुत करें। पुनः इसमें शहद मिलाकर स्वरयंत्र प्रदाह में ३|| मा. की मात्रा में दिन में दो बार व्यवहार में लाएँ। ( इलाजुलगुर्वा) खोरासानी अजवायन और सेंधानमक को खाली मेदा बहुत सवेरे सेवन करने से एकिलोस्टोमा ( Ankylostoma) नामक कृमि में लाभ होता है। (डॉ. रॉय) एलोपैथिक मेटीरिया मेडिका और .. हायोसाइमस (पारसीक यमानी ) पारसीक यमानी पत्र हायोसाइमाइ फोलिया ( Hyoseyani | Folia)-ले० । हायोसाइमस लीभूज़ (Hy. ! •oscyamus Leaves), हेनबेन लीज ! ( Henbane Leaves)-३० । औरानुल्बा, प्रौरानुस्सीकरान-अ० । बर्ग बक-फ़ा। सोलेनेसीई अर्थात् धुस्तुर वर्ग (N. 0. Solanacee ) silinga ( Official) .' उत्पत्तिस्थान-ब्रिटेन । वानस्पनिक नाम व प्रयोगांश-इसका वानस्पतिक नाम हायोसाइमस नाइगर ( Hyo. seyllmus Nigal) अर्थात् काली खुरासानी अजवायन है। इसके नवीन पत्र व पुष्प को शाखा सहित अथवा केवल पत्र तथा पुष्य को तोड़कर शुष्क करके श्रीपध कार्य में वर्तते है । __ लक्षण-पत्ती की लम्याई विभिन्न होती है। ये दस इंच तक लम्बी और कई अंशो में विभाजित हेती हैं | कोई डंडल युक्र एवं कोई डंठल रहित होती है । इनका रूप अंडाकार और किसी कदर त्रिकोणाकार होता है। इनके किनारे अनिय मित रूप से दंष्ट्राकार होते हैं। वर्ण सूक्ष्म हरा तथा निम्न भाग एवं शाखा विशेषकर रोमयुक्र होती है। नवीन पत्ती एवं शास्थानों की गंध तीत्र व बुरी होती है। स्वाद-कड़वा संथा किञ्चित् चरपरा । __ समानता · बिलाडोना और धतूरे के पत्ते इन पत्तों से मिलते जुलते हेाते हैं। किन्तु, वे रोमरहित होते हैं। रासायनिक संगठन-इसमें (१) हायो. सायमीन और (२) हासीन ये दो प्रभाव कारी अल्कलाइज़ अर्थात् क्षारीय सरव तथा एक विपला सैल होता है। - असम्मिलन (संयोग विरुद्ध)-लाइकर पुटासी, लेड एसीटेट, सिल्वर नाइट्रेट और वानस्पतिक एसिड्स । . प्रभाव-निद्राजनक ( Narcotic ), बेदनाशामक ( Anodyne ) और प्रवसादक (Sebative). ऑफिशल योग ( Official preparations ). (१) ऐक्सट्रैक्टम हायोसाइमाई (Extractum hyosoyami)-ले । एक्सट्रैक्ट श्रॉफ हेनबेन या हायोसाइमस ( Extract of Henbane or Flyoscyamus )ई । पारसीक यमानी सरत्र, खुरासानी अजवायन का सत-हि । खुलासहे यश, रुब्द बङ्क निर्माणधिधि-डायोसाइमस नाइगर (काली खुरासानी अजवायन) के नतीन पत्तों, फले तथा कोपलों को कुचल कर दबाने से जे स्वरस प्राप्त हो उसे कतराः १३. कारनहाइट का ताप दें तथा कॉलीको फिल्टर द्वारा छानकर रंगीन अंश भिन करलें, पुनः छने हुए रस को २००° फारनहाइट की तापदें और उसे छानने के पश्चात् शीरा के समान गाढ़ा कर लें। पुनः उस रंगीन पृथक किए हुए द्रव्य को बालोंकी चलनी में छानकर इसमें सम्मिलित कर दें, और लगभग १४०० के ताप पर इतना शुल्क करें कि वह मृदु अवलेह के सदृश हो जाए। For Private and Personal Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अजवाद (य)न खगसानो अजवाइ (य) न खुरासानी मात्रा--२ से = ग्रेन अर्थात् १ से ४ रत्ती (१२ से १० से० प्रा०). (२) पिल्युला कालोसिन्थिडिस पट- | हायोसाइमाई (Pilula colocynthidis et Hyoscyami. )-ले० । पिन श्राफ़ कालोसिन्ध एण्ड हायोसाईमस (Pill of colocynth and Hyoscyamus ) -ई। इन्द्रायन व पारसीक यमानी वटिका -हि । ह.ब हज ल व या (बक )-१०, | फा० निर्माण-विधि-कम्हाउण्ड पिल आफ्न कालोसिन्थ २ प्राउंस (१०), एक्सट्रैक्ट बाफ हायोसाइमस १ आउंस दोनों को मिलालें । मात्रा- से , प्रेन अर्थात् २ से ४ रत्ती (२६ से १२ ग्राम). (३) सकस हायोसाइमाई ( Succus, Hyoscyami )-ले० । जूस माफ हायोसाइमस (Juice of Hyoscyamus) -० । पारसीक यमानी स्वरस-हिं० । असीरबा, अशुदेह बडू-अ०, फा०। निर्माण-विधि-नवीन पत्रों, पुष्पों तथा शास्वात्रों को कुचलने से जो रस प्राप्त हो उसके ! प्रति तीन भाग (आयसन के विचार से) में । भाग हली (१० प्रतिशत ) सम्मिलित करें और एक सप्ताह तक पड़ा रहने दें, पुनः फिल्टर कर लें। __ मात्रा-प्राधा से १ फ्लु. डा०-(१ से ३.६ क्यु० सें.)1. (.) टिंकचूरा हायोसाइमाई (Tinctura Hyoscyami)-ले० । टिचर जॉफ हायोसाइमस (Tincture of Hyoscyamus)-इं० । पारसीक यमान्यासत्र-हिं० । सबग़ह बम, तक्रीन यङ्क-फा०, अ०। निर्माण-विधि-हायोसाइमस के पत्तों और पुष्प युक्र शास्याओं का २० नं. का चूर्ण २ प्रा. उस, हली (Alcohol ) १५ % यथोपित । चूर्ण को २ फ्लुइड पाउंस हलाहल से तर करके पकॉलेशन (टपकाना) द्वारा , पाइण्ट | टिका तयार कर लें। . मात्रा-प्राधा से १ फ्लहड हाम (२से ४ मिलिग्राम) नाट श्राफिशल योग . (Not official preparations. ) (१) क्लोरोफार्मम् हायोसाइमाइ (Ch]oroformum Hyoscyami)-पारसीक यवानी मूल ( Hyoscyainus root) चूर्ण किया हुश्रा ३० भाग, कोरोफॉर्म २० भाग । यह क्रोरोफार्म एकोनाइटीनी के समान प्रस्तुत किया जाता है। (२) टिंकचूरा हायोलाइमाइ रेडिसिस ( Tinctura Hyoscyami Radicis )-चूर्णित पारसीक यमानी मूल पाँच भाग, हली (६० प्रतिशत ) ४० भाग में एक सप्ताह तक भिगोकर पकॉलेट कर लें। मात्रा-२० से ६० मिनिम ( चुद)। हायोसाइमस के गुणधर्म व प्रयोग पारसीकयमानीपत्र अर्थात् हायोसाइमाइ फोलिया ( Hyosoyami Folia). प्रभाव-हायोसाइमीन ( पारसीक थमानी का स्फटिकाकार सत्व) जो हायोसाइमस अर्थात् खुरासानी अजवायन का प्रभावात्मक सत्व है, अपनी रचना में धतूरीन ( एट्रोपीन ) के समान होता है। प्रस्तु,स्थायी सार (फिक्स्ड अलकेलीज़) की उपस्थिति में सामान्य उत्ताप पर वह धत्रीन (एटोपीन ) में परिणत हो जाता है। इसलिए यद्यपि पारसीक यमानी के बहुशः गुणधर्म स्वभावतः विलाडोना और स्ट्रेमोनियम् (धुस्तुर, धत्तूर ) के गुणधर्म के समान होने चाहिए (देखो--बिलाडोना), तथापि उनके प्रभाव में निम्नोल्लिखित पारस्परिक भेद प्रभेद पाए जाते हैं:(१)विलाडोना की अपेक्षा हायोसाइमस से उन्मत्तता तो कम उत्पन्न होती है। किन्तु मस्तिष्क पर इसका अवसादक (Sedative) तथा निद्राजनक (Soporiflc) प्रभाव शीघ्रतर एवं बलवानतर होता है । (२) सुषुम्ना कांड पर भी इसका अवसादक प्रभाव अधिक स्पष्ट होता है। (३) यह आंत्र के कृमिवत् श्राकुचन को तीन करता तथा प्रवाहिका या मरोड़ा को For Private and Personal Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org अजवाइ (य)न ख गसानी अपेक्षाकृत बहुत कम करता है। (४) विला. डोना के सरश यह हृदय पर सबलो उ.क प्रभाव . नहीं करता, अपितु हृदय पर हायोसीन का अत्यन्त निर्बल प्रभाव पड़ता है। (५) मृग्रेन्द्रिय विशेषतः वस्ति पर विलाडोमा की अपेक्षा इसका : अधिक तर अवसादक प्रभाव पड़ता है। क्योंकि वस्तिस्थ श्लैष्मिक कला की नाड़ियों के अन्तिम: भाग पर अवसादक तथा निर्बलताजनक प्रभाव: करके यह उसके मांस तन्तुओं की ऐंठन को दर करता है । (६ ) हायोसीन से इस्ट्रारंाक्युलर . टेन्शन ( नेत्रपिंड का तनाव ) कम हो जाता है। प्रस्तु, हायोसायमस का यह प्रभाव उतना नहीं . होता जितना कि बिलाडोना का । उपयोग---हायोसायमस का उपयोग प्राप बिकार की अवस्थानों के अतिरिक्त जिनमें बिला- । डोना व्यवहत है, निम्नांकित दशानों में भी होता है । (1) विविध रोगों की तीन पीड़ा में मस्तिकोत्त जना को कम करके मीद लाने के लिए, यथा उन्माद ( मेनिया) अनिद्रा या निद्रानाश (इन्सानिया), खियों की हिस्टीरिया (योगापस्मार के दौर में ), उ.चा की उन्मशास्था में तथा वात वेदनात्रों में इसे देना चाहिए | उन्मत्त शराबी को भी नींद लाने के लिए दे सकते है। अतः खुरासानी अजवायन के तरल सन्ध को १-१ घंटे के अन्तर से ३०-३० बुद दवा और २॥-२॥ तोला पानी एकत्र कर पिलाते रहें। जब नींद श्राजाय तब व करदें। इस प्रकार १-६ मात्रा सेवन कराने से ही रोगी सो जाता है। नींदके लिए हायोसायमीन (कुरासानी अमा. ! यन का सत्व) मेन (श्राधी रत्ती) को साफ गरम जल ३ मा ६ रत्ती में मिलाकर हायपोडर्मिक सिरिज में भरकर । से ५ बुद तक त्वचा के नीचे पहुचाएँ । इसी को हाइपोडर्मिक इलेयशन हाइयोसाइमीन कहते है। (२) रेचक श्रोपधियाँ जो मरोड़ पैदा करने | वाली हैं उनके उक्र गुण को कम करने के लिए अजवाइ (य)न खुरासानी तथा पेचिस की ऐंठन को दूर करने के लिए इसे व्यवहार में लाते हैं। (३) मूत्रपथ सम्बन्धी चीस चबक अर्थात् दृक, घस्ति तथा मूत्र प्रणाली के रोगी यथा-- बस्ति प्रदाह, प्रोस्टेट ग्रन्थि प्रदाह, सथा अश्मरी प्रभति में स्तिस्थ आक्षेप निवारण हेतु इसका प्रभावकारी सर, हायोसायमीन, मृदु मंत्राधिरे. चनीय है, और शरीर से विसर्जित होते समय प्रदाह युक्र झिल्लियों में अंत होने वाली वाततंसुश्री पर अवसादक प्रभाव करता है । प्रस्तु. जब मावश्यक रूप से थोड़ा थोड़ा मन्त्र निकालने के लिए पस्ति में बार बार ऐंठन होती है, तब विशेष रूपसे इसका उपयोग होता है। उक दशा में इसे सारों के साथ संयुक कर सेवन करना गुणदायक होता है। ऐसी दशा में इसको साधारणतः अन्य युरिनरी सिडेरिभज (मूत्रावसादक) या मूत्रल श्रोपधियों यथा-ट्युक्यु या युवा आई प्रथवा बेी. इक एसिड भृति तथा एल्केलीज़ (हारों) के साथ मिलाकर सेवन कराने हैं। (४)प्रांकाइटिज (कास या श्वास नलिका प्रदाह ) में खांसी को कम करने के लिए। (५) यण शोथ की बीस वक को दूर करने के लिए इसका पुस्टिम व्यवहार में पारा है । (६) पुतली लाने के अश्य से स्खों में डालने के लिए। (७) यह बिलाडोना के समान उन्माद, मुखशोथ, ने.कनीतिका विस्तार तथा निद्रा उपस करता है । सूक्ष्म मात्रा में यह अवसादक और हृदयसलदायक है। अधिक मात्रा उरोजक एवं अत्यधिक मात्रा निर्दल साजनक है। प्रस्तु, हृदय सम्बन्धी दमा तथा हृदय कपार सम्बन्धी विकार एवं तजन्य हृदयोसेजना में इसका उपयोग किया जाता है। बच्चों में इसकी बड़ी मात्रा के सहन की समता होती है। किन, वृद्ध एवं निर्बल व्यक्रियों में इसकी छोटी मात्रा का भी गहरा प्रभाव होता है। एक चाय के चमचा भर इसका रस सॉसम औषध है, परन्तु यह जानिराश नहीं । For Private and Personal Use Only Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अजवाइ (य)न खुरासानी अजवाद (य) न खुरासानी हायोसीन( Hyoscine) यह हायोसाइमस का एक क्षारीय सत्व (AI | kaloid) है जो उसके द्वितीय रत्रा रहित सत्व हायोसायमीन में भी पाया जाता है। यह एक उदनशील तैलीय घ होता है जो अपने प्रभाव में हायोसायमीन से पाँच गुणा अधिक प्रभावशाली होता है । यह स्वयं औषध रूप से व्यवहार में नहीं आता । इसके हाइड्रोलोरेट, हाइडियोडेट तथा हाइड्रोनोमेट आदि लवणों में से अंतिम का लवण ही अधिक उपयोग में आता है । हायोसीनी हाइड्रोमोमाइडम् ( Iyoscine hydro bromidum)-ले। हायोसीन हाइको प्रोमाइड ( hyoscine hyarobromide ', स्कोपोलेमीन हाइड्रोत्रोमाइड ( Scopolamine Hydrobromide), हाइड्रोयोमैट प्रॉफ हायोसीन ( hydrobr. Omate of hyoscine )-३० । पारसीक यमानी सत्व-हि । जौहर बञ्ज, जौहर सीकरान -ति। रासायनिक संकेत (CFHINOS Hr,y 1130) ऑफिशल (official ). उत्पत्ति-यह हायोसाइमस (पारसीक यमानी )के पत्तों तथा विविध भाँति के स्कोपोला के वृक्षों एवं सोलेनेसीई पौधों में पाए जाने वाले एक एलकलाइ (बारीय सत्व) का हाइडोप्रोमाइड है। लक्षण-इसके घण रहित रवे होते हैं जो घायु में स्थिर तथा स्वाद में तिक्र और जल में अस्य लयशील होते हैं। एक भाग यह, ४ भाग जल में घुल जाता है। प्रभाव-निद्राजनक ( hypnotic). मात्रा-'से- ग्रेन( ३ से.६ मि. ग्राम) मुख या स्वगस्थ अन्तःक्षेप द्वारा । नॉट ऑफिशल योग (Not official preparations ). (1) इजेविशनो हायोसीनी हाइपण डर्मिका ( Injecti) hyoscinto hypodermica. )-राति १००० मिनिम परिशु त जल में ? ग्रेन ( श्राधी रत्ती)।मात्रा-५ से १० मिनिम (बुद). (२ ) हाइंपोडर्मिक लेमोली ( llypodermie la.mele )-हरएक लेमोली में .... ग्रेन हायोसीनी हाइड्रो ग्रोमाइड होता है। (३) गटो हायां सीनी (Guttan hyoscinth) एक ग्राउंस परिश्रुत जल में २ ग्रेन हायोसीन हाइड्रोयोमाइड होता है। (५) आप मक डिस्क्स (Ophthalmic Dises)-प्रत्येक डिस्क में, ..से.. ग्रेन हायोसीन हाइड़ानोमाइड होता है। हायोलीनी हाइडोनमाइड के प्रभाव तथा प्रयोग यह अधिक विषैला है और प्रभाव में धतूरीन (पेट्रोपीन) से जिससे रसायनवाद के अनुसार यह इतना निकट का सम्बन्ध रखता है, किसी किसी बात में भिन्न होता है। यह सशक श्रवसादक तथा निद्वाजनक है और इसमें धतूरीन (ऐट्रोपीन ) के समान हृदयोजक प्रभाव नहीं पाया जाता, एवं इससे मस्तिष्क के बहकलस्थ गत्युत्पादक सेल मिल हो जाते हैं। इसे २२० ग्रेन को मात्रा में उपयोग करने से ऊँघ, सुस्ती, स्तब्धता तथा प्रकट रूप से स्वाभाविक निद्रा शीघ्र या जाती है और जागने पर रोगी अपने को भला चङ्गा मालूम करता है । कुछ समय के लिए कंठ में केवल कुछ शुष्कता शेष रह जाती है। पागलपन ( मेनिया) तथा अनेक प्रकार के मानसिक दिकारों के लिए यह सर्वोत्तम निद्राजनक औषध है । उक्र प्रौषध को स्वचा के नीचे अन्तःक्षेप करने से सबातम प्रभाव होता है। परन्तु किसी किसी रोगी में इसके प्रभाव के प्रहश को क्षमता अधिक होती है। अस्तु, इसे ... ग्रेन से अधिक की मात्रा से प्रारम्भ न २०० कराना ही उत्तम है । इससे तीपण उन्माद, जैसा For Private and Personal Use Only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अजवाइ (य) न स्वगरानी अजवाइ (य)न खुपसानी कि धस्तूरीन ( Atropine) द्वारा विषाक्रम निद्रा में व्यतीत हो जाता है। शिशुजनन काल रोगी में देखा जाता है, बिरला ही उत्पन्न होता में इससे “गोधूली निद्रा" उत्पा होगी। (५० है। ऐट्रोपीन के समान यह तरकाल व बलपूर्वक मे० मे०) नेत्र-कनी नका को प्रसरित कर देता है और इसका ! निद्वाजनक रूप से ज्वर सहित तीवोन्माद यह प्रभाव एट्रोपीन से ४-५ गुणा अधिक होता। समन्धी रोगियों में यह गुणदायक पाया गया है। इससे इस्ट्राआक्युलर टेन्शन ( नेत्र पिण्ड है। इससे किसी प्रकार की हामि की सम्भावना का तनाव) स्पष्ट रूप से नहीं बढ़ता। नहीं । वृधिकार में जहाँ अफीमसत्व (मार्फिया) डॉक्टर क्रॉस (Crauss) के वर्णना सर्वधा वर्जनीय है और जब सम्पूर्ण अवसादक मुसार इसके उपयोग करने के पश्चात् उन्मत्तता घोषधियाँ निष्फल सिद्ध होती हैं, उस समय विद्युताघात के समान तत्क्षण स्थिरता को प्राप्त . इसका उपयोग निर्भयतापूर्वक किया जाता है। होती है और रोगी की प्यग्रता शीघ्र शान्तिमय ।। हायोसीन के हाइड्रोनोमेट, हाइड्रोक्रोरेट तथा निद्रा में परिवर्तित हो जाती है। परन्तु यह म्या-: हाइदियोडेट शुक्रमेह में लाभदायक पाए गए। पक वातग्रस्तता रूपी स्थिरता धीरे धीरे होती है। (40 वो० एम०). मघोन्माद ( डेलीरियम ट्रीमन्स ), प्रसूतिको- हायोसाइमीन ( Hyoseyamine). न्माद (प्योरल मेनिया) एव विविध भाँति के यह रचनामें धत्तरीन (ऐट्रोपीन ) के समान अनिद्रा विकारों में यह गुणदायक सिद्ध हुआ है। होता है तथा हायोसीन व हायोसिनिक एसिड उस अनिद्रा रोग में जिसमें पागलपन का छिपा में विश्लेषित किया जा सकता है। यह स्फटिकवत् हुमा माद्दा हो, यह सर्वोत्कृष्ट निद्राजनक औषध एवं विकृताकार दोनों रूपों में पाया जाता है। प्रमाणित हुश्रा है । डाक्टर ब्रस (Bruce ) के इसके सूक्ष्म श्वेत रके होते है या यह श्यामधूसर अनुभव के अनुसार यह वृक्ष रोगों में अच्छा। वर्ण का सत्व सदृश पदार्थ होता है। प्रभाव करता है। इच्छुल (प्राइना पेक्टोरिस)। ___हायोसायमीनी सरफ़ास में इसका उपयोग कर सकते हैं। Hyoscyawina sulphas. दमा, वीर्यस्त्राव तथा राजयरमा रोगी में स्वेद पर्याय-हायोसायमीन सल्फेट (Hyo. स्राव को रोकने के लिए और अफीम सव seyamine sulphate )-501 (Morphia) तथा कोकोन के अभ्यासियों रासायनिक संकेत (C17 H.23 NO3)2, की चिकित्सा में यह उपयोगी सिद्ध हुआ है। । H2 504 2H2 0. जर्मनी के प्रसिद्ध डॉक्टर शनोडरलोन! (Schneiderlein) जेनरल अनस्थेसिया ऑफशल ( Official ). (ज्यापकायसन्नता) उत्पन्न करने के लिए स्की ___ यह पारसीकयमानी पत्र तथा अन्य सोलेपंलेमीन तथा मीन को मिलाकर प्रयोग करना नेसोई पौधों में पाए जाने वाले एक ऐलकलाहर लाभदायक ख़्याल करते हैं। अस्तु, वे भऑपरेशन (चारीय सत्व) का गन्धेत ( सस्फेट) है। की पूर्व संध्या को लगभग १ से १. ग्रेन लक्षण- यह एक पीत या पीत श्वेतवर्ण का स्फटिकवत् व गन्धरहित चूर्ण है जो वायु में से स्कोपोलेमीन तथा चौथाई ग्रेन मॉर्फीनको परस्पर नमी को अभिशोषित करता है। संयुक्त कर इसका स्वचा के भीतर अन्तः क्षेप स्वाद-तिक एवं चरपरा । करते हैं । आवश्यकतानुसार प्रापरेशन की सुबह नोट-इसको वायु विशेषकर तर वायु से को इसे अधिक मात्रा में दोहराया जाता है। सुरक्षित गहरे अम्बरी रग के मज़बून डाट वाले इससे रोगी को गम्भीर निद्रा प्राजाती है और बोतलों में रखना चाहिए। वह ग्रॉपरेशन के पश्चात् कई धरटों तक सोता लयशीलता--यह २ भाग, एक भाग जन में रहता है। इस प्रकार वह दुःख व वेदना काल | और : भाग ४॥ भाग हली (१० प्रतिशत) १०० २० For Private and Personal Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अंशवाद (य)न खुरासानो। अंजवाइ (य)न खुरासानी में और अत्यन्त खफ्रीक कोरोफार्म और ईथर में | दुख जाता है। प्रभाव-व्याप्तावसारक (General se. dative) और निर्वस्व निद्राजनक (Weak hypnotic)। सामुद्र रोगों (Sea sick- ! ness ) में लाभदायी है। मात्रा--१ से २- ग्रेन (३ से ६ मि. २०० १०० 'प्रा० ) मुख से या स्थगस्थ प्रातःक्षेप द्वारा। नॉट मॉफिशल योग (Not official preparations). (१)हायोसायमोनो हाइड्रोग्रामाइडम् । (Hyoseyaminie hydrobroiniduni) इसके छोटे छोटे श्वेत दामेवार रवे होते हैं, जो १ भाग १ भाग जल में लय होजाते हैं। मात्रा से .. ग्रेन। (२) इविशो हायोसायमीनो हाइपोडर्मिका (Injectio hyoscyamilie hvpodermicai-हायोसायमीन सल्फेट , ग्रेन (साधी रसी), परिस्रत जल २ हाम । मात्रा-1 से ३ बुद। (३) हाइपोडर्मिक लेमेल्ज़ (Hypo(dermic laimels )-प्रत्येक लेमीली में १-से ... मेन उन औषध होती है। १००" 100 (४) आफ्थैत्मिक डिस्कस (Ophthalmic dises )-प्रत्येक डिस्क में ग्रेन दया होती है। (१) हायोसायमीनो ग्रेन्यूज़ ( Hyoscyamin granules )-17 Å ग्रेन। यह सी-सिक्नेस (सामुद्र रोग ) में लाभदायक है। ___ हायोसायमीनो सस्फास के गुणधर्म व प्रयोग प्रभाष-हायोसायमीन या हायोसाहमस का द्वितीय क्षारीय सत्य नेत्रकनीनिका प्रसारक है, और थोड़ी मात्रा में यह नाड़ी की गति को मंद करता है तथा धामनिक तनाव की वृद्धि करता एवं शारीरोग्मा की कमी को रोकता है और भूल चूक ( Hallucination ) व विभ्रम पैदा करता है। अधिक मात्रा में यह तरक्षण नाड़ी स्पन्दन को कम कर देता है तथा प्राकटय पातप्रस्तता या चालन की अशक्रता तथा निद्रा उत्पन्न करता है। उपयोग-हायोसीन की अपेक्षा हायोसायमीन प्रभाव में धत्तूरीन (Atropine ) से अधिक समानता रखता है। अधिकांश रोगियों में यह बिना पूर्व विभ्रम के निद्रा उत्पम करता है। हायोसायमीन ( Hyoscyamine ) ऐद्रोपीन के समान हो, किन्तु उससे अधिक नेत्रकनीनिका प्रसारक है। इसमें एट्रोपीन से विभ्रमकारी प्रभाव कम तथा निताजनक प्रभाव अधिक है। इसमें अधिक विश्वसनीय तथा शीघ्र मदकारी (नारकोटिक) गुण है। और यह सत्व अफीम ( मॉर्फीया ) तथा फोरल हाइट से पूर्ण सथा कम बर्जमीय है। यह बातमंडलायसादक है। डॉक्टर रिङ्गर ( Ringer ) के कथनानुसार जिन्होंने सम्भवतः अशुद्ध लवण का नवीमोन्माद में उपयोग किया इसके प्रभाव का एट्रोपीनसे तुलना करने पर कोई भेद नहीं ज्ञात हुश्रा । यह बलवान नेत्रकनीनिकाप्रसारक है तथा नेत्र रोग में इसका उपयोग होता है। परंतु ऐट्रेोपीन की अपेक्षा यह विशेष लाभदायी नहीं है। डॉक्टर.ए० श्रार० कुश्नो (Cushny) के वर्णनानुसार विशुन्छ हायोसायमीन शुद्ध ऐहो. पीन की अपेक्षा नेत्रकनीनिका प्रसारण तथा लालास्राव प्रतिबंधन में द्विगुण शक्रिशाली है। किरती पर सवार होने से प्रथम यदि इसे कुछ ५०० दिवस तक - ग्रेन की मात्रा में प्रयोग करें तथा १०० इसे कुछ समय तक प्रति घंटा २-२ घंटा पर दोहराते रहें तो यह सामुद रोग (Sea sickmess) को रोकने के लिए सर्वोत्कृष्ट प्रौषध है। यह कनीनिकाप्रसारक रूप से भी ज्यवहार में आता है। कालिज (श्रद्धांगवात या पक्षाघात) For Private and Personal Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अजवाइ (य)न खुरासाना अजवाब (य)न खुरासानो सहित कम्पन में कपकपी को रोकने तथा पारदीय पक्षाघात के लिए श्रौषध रूप से उपयोग में प्राता है । परन्तु उन प्रयोजन के लिए यह हायोसीन से किम कोटि का है । अनिद्वा ( इसीमिया), पागलपन (मेनिया), मधोमा द ( हि रियम ट्रीमेस ), साद्वांग कम्पन (पैरालिसिस ऐटेिस), दमा (ऐज़्मा), वातवेदना (न्युरेहिया) तथा कम्पन (कोरिया) में इसका उपयोग किया गया; किन्तु यह हायोसीन की अपेक्षा कम उपयोगी प्रतीत हुआ । (एलो० मे० मे० हिटला) मानसिक विकार-व्योन्माद, असीम व्यग्रता, श्रम, शंका, सोत्तेज्य स्मृति ग्रंश तथा | अघयवस्थितता, अपस्मारोन्माद तथा पुरातन विस्मति रोगमें इसका व्यवहार होता है। पागल पन एवं तत्सम्बन्धी दशायों में बिना किसी कुप्रभावके क्लोरल की अपेक्षा निश्चित निद्रा उत्पन्न करता है। तांबोम्माद में इसके उपयोगकी उत्तम विधि त्वगन्तर अन्तः क्षेप है। वात विकार--साङ्ग कम्पन में यह बह | काम करता है जो किसी और औषध ने कभी | नहीं किया अर्थात् अचेतना उत्पन्न किये बिना ही यह अंगचालन को चार घंटे तक रोक देता है।। जब सम्पृण ओषधियाँ असफल होजाती हैं उस समय यह वायु कम्पन को दीक करता है एवं उसी प्रकार यह पारदीय कम्पन. वृद्धावस्था अथवा निर्वलता जन्य कम्पन, रेशा (कोरिया) तथा थोषापस्मारीय प्रक्षेप को शमन करता है। युवा या बाल दोनों के तराज ( आक्षेप) की श्रवस्था में यह वेदना तथा प्रदाह को शमन करता है। वातवेदना में इसका उपयोग किया गया और सम्भवतः ज्ञान तन्तुओं की उत्तेजना कम होकर वेदना शाम्त होगई। श्राक्षेप शमन-यह आक्षेपशामक है और | इस लिए प्राक्षेप युक्र कास, श्वास, हिकफ (हिचकी) आदि में इसका लाभदायी उपयोग होता है। मूत्रविकार-यह मूत्रविरेचक है तथा एक गविन्यु (युरेटर ) तथा बस्तिस्य वेदमा एवम् ख़राश को शमन करता है। ... निद्वाजनक-यह सार्वाधिक वेदनाशामक तथा निदाउ.नक औषध है और जब अफीम का उपयोग अनुचित होता है उस समय इसे देनेसे नींद श्रापाती है । इससे विवन्ध नहीं पैदा होता । औषध-निर्माण तथा मात्रा-हायोसायमीन ( स्फटिकवत् ).. से . प्रेम । हायोसायमीन (विकृत कार) से ग्रेन। नवीनोम्माद में से १ मेन की मात्रा में भली प्रकार हलका कर ( diluted ) तथा चतुरतापूर्वक उपयोग करना चाहिए। क्योंकि कुछ रोगियों में इसके बरदाश्त की शक्रि नहीं होती। हायोसायमोनी सरुफ-१. से . ग्रेन स्वगन्तरीय-सामान्य माणा-या, प्रेन, अधिक से अधिक, और कम से कम, (० वी० एम०) परीक्षित योग (१) एक्सट्रैक्टम् हायोसायमाई ३ ग्रेन, पल्विस कैम्फोरी २ ग्रेन, दोनों की गोली बना कर रात्रि में सोते समय ६ । कार्ज (सुज़ाक सम्बन्धी शिश्नोत्त जना ) में लाभदाक है। (२) एक्सट्रैक्टम् हायोसायमाई २ ग्रेन, जिन्साई वेलेरीएनेट्स २ ग्रेन, , गोली बनाएँ और ऐसी १-१ गाली दिन में २ बार दें । नर्व सिडेटिव ( वातावसादक) है। (३) हायसीनी हाइडाप्रोमाइड) ग्रेन, पल्विस सैक्रिलैक्टस ( मिल्क शूगर) २ प्रेन | गोली बनाकर सोते समय दें। पैरेलिसिस एजि. टैन्स ( पक्षाघातीय कम्पन ) में गुणदायक है। (४) सोडियाइ ब्रोमाइडाई १५ ग्रेन, सकाई हायोसाइमाई श्राधा दाम, सीरूपाई पेफेवरस १ ड्राम, एक्का डिस्टिलेटा १ पाउस तक. For Private and Personal Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अजवाइन मुदब्बर ऐसी एक मात्रा औषध रात्रि में सोते समय दें | अनिद्रा (इन्सानिया ) में लाभदायक है । ( १ ) टिक्कूचूरा हायोसाइमाई ३० मिनिम, सोडियाई बेजोएट्स १० मेन, एलिक्सर सहि राइनी ५ मिमिम, इन्फ्युजम् ब्युक्यू १ श्रस तक | ऐसी एक एक मात्रा प्रति चार चार घंटा पश्चात् है । वस्तिनदाह ( सिस्टाइटिस ) और प्रदाह (पाइलाइटिस ) में फलदायक है । अजवाइन मुदम्बर ajavain-mudabbar -ति० शुद्ध अजवा इम । विधि- अजवाइनको तीन दिन रात इतने सिर्काम तर रखें कि वह अजवाइन से चार अङ्गुल ऊपर रहे। फिर उसे सिकसे बाहर निकाल कर शुल्क कर लें। जीरा को भी इसी प्रकार शुद्ध करते हैं। प्योरिफ्राइड श्रजोवान ( Purified Ajowan ) -ro | अजषाण ajavana - जय० | अजवाइन अजान ajavana - हिं०, द०, गु० ) ( Carum Ajowan, 7. C. ) अजवान का अर्क ajavana-ka-arka - To अर्क अजवाइन - हिं० । श्रमम् वॉटर ( Om um water )-इं० । अजवान का पता a ajavána-ká-patta-zo पञ्जीरी का पता । पञ्जीरी का पात, सीता की पञ्जीरो - हि० । ऐनीसा किलस कानोंसस (Avisochilus Carnosus, Wall ) - ले० । थिक-लीभ्ड लेवेण्डर ( Thick-leaved }avender )-इं० । इं०मे०म० । फा०ई० । अजवान का फूल ajavána-ka-phula-द०, i हिं० अजवाइनका सत | स्टियरॉटिन (Stearoptin ), लावर्स श्रॉफ अजवान कैम्फर (Flowers of ajowan camphor ) - इं० । देखो - अजवाइन । 1 नोट :- यह अरेजी थाइमाल (सत पुदीना) के समान होता है । १५३ प्रभाव --- प्यासोसेजक, श्रामाशय वल्य, वायुनिःसारक, श्रपशामक, शोधनीय । यह पुरातन स्रावों, यथा-कास में अधिक श्लेष्मास्राव को रोकता है। प्रयोग - अजवाइन का तेल और सत श्रज २० Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रजभ्टङ्गी वाइन को सोडा के साथ मिलाकर देने से श्रामाशयस्थ अम्लरोग, अजीर्ण तथा श्राध्मान दूर होते हैं । ई० मे० मे० । देखो - अजवाइन तथा थाइमोल | अजवायण ajaváyana - जय० अजवायन ajavayana - हिं० संज्ञा स्त्री० [ सं० यत्रानिका ] अजवाइन ( Carum Ajowan, D. C. ) अजवायन गुटिका ajavayana-gutika -सं० स्त्रो० अजवाइन, जीरा, धनियाँ, मिर्च, विष्णुकान्ता, अजमोद, मँगरैल प्रत्येक ४ शा०, हींग भुनी ६ शा० तथा सज्जीखार, जत्राखार, पञ्चलत्रण, निशोध प्रत्येक ८ शा० और जमालगोटा, कचूर, पुष्करमूल, बायविडंग, अनारदाना, बड़ी हड़, चित्रक, अम्लवेद और सोंठ प्रत्येक १६ शा० लें, पुनः बिजौरे (नींबू) के रस से मर्दन कर अने प्रमाण गोलियाँ बनाएँ । सेवनविधि तथा गुण-- घृत, दूध, मद्य, नीबू के रस और उष्ण जल के साथ देने से गुल्म का नाश होता है । मद्य से बात गुल्म, गोदुग्ध से पैत्तिक गुल्म, गोमूत्र से कफज गुल्म, दशमूल क्वाथ से त्रिदोषज गुल्म एवं स्त्री का रक्तगुल्म तथा ऊँटनी के दूध के साथ देने से हृद्रोग संग्रहणी, शूल, कृमिरोग और अर्श का नाश होता है । शाई० सं० मध्य० ख० अ० ७ । अजङ्गका ajashringiká-सं० त्रो० अजी ajashringi सं० स्त्री० - हिं० संज्ञा स्त्री०, एक वृक्ष जो भारतवर्ष में प्रायः समुद्र के किनारे होता है। इसकी छाल संकोचक है और ग्रहणी आदि रोगों में दी जाती है । इसका लेप घात्र ओर नासूर को भी भरता है । मेदासि (शिंगी, पटकी । ऐस्क्रीपिश्रास गेमिनेटा ( Asclepias Gemimata, Roxb. ) - ले० । भा० पू० १ भा० गु० व० ३७१ । रा० नि० ० ; सु० सू० ३८ श्र० रा० मद०० १ । (२) कर्कटशृङ्गी, काकड़ा सिङ्गी । ( इसका वृक्ष पुत्रजीव वृक्ष के समान होता है) । (Rhus succedanea; Acuminata)-ले० । सु० सू० ३७ ड | For Private and Personal Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अजश्री १५४ प्रजाजी,जि. (अ), भा० ४ भा० रेवतीग्रह-चि० । (पौधे) के रूप की, शंख, कुन्द, तथा चन्द्रमा मेषशृङ्गी वा कर्कट शृङ्गी । सु० सू० ३८ अ० जैसी उज्वल और पांडुर रंगवाली महौषधि है। वल्लीपञ्चके । वा०चि०:01 "अजशृङ्गी : सु. चि०३० अ० । देखो-अओषधिः । (२) जटाकल्कम् ।" भा० पू०२ भा० अने० ३०। ! प्रकृति या माया ! सां० द०।-हिं० वि० जिसका अजश्री ajashri-सं० स्त्री० फिटकिरी, फटिका- जन्म न हुआ हो । जो उत्पन्न न की गई हो । . रिका, फटिकारी, स्फटिकारि। मा० नि०1 जन्म रहित । Alum (Alumen). अज़ा aza-अ० सीपी का एक भेद है । (A अजस āajasa-अ० अज्ञात । kind of common oyster shell. ) अजखर ajakhala-अ० रोहिषतृण । इश- अजाकर्ण ajakarna-सं० मदी ( एक बड़ा खिर (Andropogon schoeranthes) हिंदी वृत है)। (A. huge indigenous अज़ह ३azah-अ० हरिण, मृग । ग़ज़ालह, trea). पाहू-फा० । (A dee) or antelope). । अागर: ajagarah-सं० पु०(१) भांगरा, अज़हल aazahala-० नर कबूतर, कपोत, : मैंगरैया, भृङ्गराजच ! भीमराज-पं०। एक. पारावत । (A pigeon), facer daar ( Eclipta alba, Hassk.) अजहह aaza hah-० मादा लोमड़ी। फॉक्स श० र० । (२) महासर्प, दर्वीकर सर्प (A for)-इं०। (फणदार या गेहुँअन साँप)। ( The अजहा ajahā-सं० स्त्री. कौंच, केवाँच, शुक cobra). शिम्पी । पालाकुशो-बं० । ( Carpopo अजागरी ajiguri-सं० वि० Name of a gon Pruriens )। अ०टी०। plant. एक पौधा है। अज़हार azahāra-अ. (ब० व०), ज़हर · अजागलस्तनः ajagalastanah-सं० पु. (ए. व. ), कलियाँ, कलिकाएँ-हि०, The fleshy protnberance or द० । गुहा-का० । बड्स ( Buds)-ई। nipple hanging down from the देखो-कला (-लि), . meck of goats. ललरी। अज़हारह azharurreh --फा० अजाघृतम् ajaghritam-सं० क्लो. छागी वृत, अज़हारूल्फ़स ह azharulfash अनाभून . बकरी का घी | गुण-करी का घी चतु (Pulsatilla ). के लिए हितकारी, दीपन, बलवर्द्धक, वृष्य, अजहून ainmantha-अ० ऊट (A Camel) पाक में कटु, कास, श्वास और सय को नष्ट स० फा०५०। ___करता है एवं कफ, अर्श (बवासीर) तथा राजअऊक्षीरम् ajakshiram-सं० क्ली. छागी-: यक्ष्मा के लिए परन हित है । वै० निधः । दुग्ध्र, अजादुग्ध, दकरी का दृध । वा० उ०१६ अजाज iajaja-० (१) Dust गुब्बार, अ० । ( Goat's milk ). . धूल; Smoke. धूम्र । (२) A fat अजोरनाशःujakshira-mashah-सं० पु. camel बहुत मोटा ऊँट । शाखाट वृक्ष, सहोरा (सि.), रुसा, सिग्रांड-हिं० ।। अज़ाज़ aazaza- अ० बढ़ा ऊँट (A huge शेओडा--गाछ-बं०। (Stre bJus aspe!', i citmel ). Lin.) रा०नि० 1.। . : अजााजिकः, का ajajikah, ka- सं० पु. अजा aji-सं० स्त्रा०, हिं० संज्ञा स्त्री० (१)A | पीला जीरा, पीतजीरक . Yellow cumin she-goat. छागा, बकरी । (२) उन नामकी | seed) रा०नि०व०६। महौषधि विशेष । इसका स्वरूप-अजा (बकरी) अजाजी,-जिः ajaji,-jih-सं० स्त्री०। (१) के स्तन जैसी आकार घाली, दूध युक्र, सुप, हिं० संज्ञा स्त्री० जोरा, For Private and Personal Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir घाला । भाजीव: अजान्तो सफेद और काला जीरा । जीरक, स्थूलजीरक । अझाद aazada-अ० पस्तकामत-फा० । बौना, -सं० । Cumin seed (Cumint लिंगना, छोटे कद का-हिं० । पिग्मी Pigmy m cyminum ) रा०नि० व०६। -इं०। 4. दसंग्रहणी चि० वृहच्क्षुक्र । (२) अजात दन्तः ajatadantah-सं० त्रि० छः Ficus oppositifolia काकोदुम्परिका, मास व्यतीत होने पर भी जिस बालक के दन्त अशोर । जीरा, सफेदजीरा। मा० पृ०१भ० न उगे, अर्थात् दन्तोछेद न हो उसे 'प्रजातदन्त' ह.व०.च० द० संग्रहणी चि० पायाम- . कहते हैं। कालिजक । र० सा• सं० माणिक्य रस | · अजादनी a.jadani-सं० क्ली० शुद्र दुरालभा ! (३) Nigella sativa or Indica, छोटा धमासा, जवासा । (A small spe. कृष्णमीरक, कालाजीरा । सि० यो० दिवारात्रि cies of prickly night-shade.) ज्वर वृन्न । "गुड़ संयुक्त जीरा विषमज्वर . रा०नि० घ०४। नाशक है।" अजादुग्धम् ajadugdham-60 क्ली० छागी 1519: ajájívah ) अजाणलanjapilakan सं० पु. ( A (-म) दुग्ध, करी का दुग्ध (Goat's milk. ) वै० श० । goat-herd ) गड़ेरिया, भेड़ बकरी पालने 'अजान ajana-हिं० वि० (१) अज्ञान, मूर्ख, faafu, ( Ignorant, simple,innoc. अजाज्यादि चूर्णम् ajajyādi-churnam ent.)। (२) अजायन । एक पेड़ जिसके नीचे सं. स्त्री और श्वेत ८ तो०, जवाखार ४ तो०, जाने से लोग समझते हैं कि बुद्धि भ्रष्ट होजाती नागरमोथा ८ तो०, अहिफेन शुद्ध ४ तो०, मंदार है। यह पेड़ पीपल के बराबर ऊँचा होता है मूल १६ तो०, ले चूर्ण कर सेवन करने से उप्र और इसके पत्ते महुए केसे होते हैं। इसमें लम्बे संग्रहणी, जरातिसार, रक्रातिसार, निरक्रातिसार, लम्बे मोर लगते हैं। तथा घोर विशूचिका दूर होती है । भैष २० ग्रहण्याधिकारे। अजानयः ajanayah-सं० । उत्तम अश्व, अजानेयः a.janeyah-सं० पु. । कुलीन घो. मजात ajita - हिं० वि० [सं०] (Unborn) टक, अरछी जाति का घोड़ा । (A horse जो पैदा न हुआ हो । अनुस्पन | जन्म रहित । of good breed.) जयदत्तः । अजन्मा। । अजानस aajanasa-ह जानस, जुगलान | गोबआतक्रम् ajatakram- सं० क्ली० छागी रोंदा, गुबरौंता, गोबरीला (एक प्रकार का कीड़ा सक्र, बकरी का तक्र । गुरण-बकरी का तक लघु, जो गोबर में पैदा होता है) । A beetle स्निग्ध तथा वाह, गुल्म और अर्शनाशक है एवं found in dunghill or old cowत्रिदोष, शोथ ( सूजन), ग्रहणी और पांडुरीगमें dung (Scarabeus or stor conarपरम हितकारी है । वै० निघ। । ius copris. ) प्रजात ककुत्, ajata-kakuta-सं० पु. अजान्तो ajantri-सं० स्त्री० (१) नील बुह्ना । ( A young bull whose hump is : नीलबाना, छागल बेटे-बं० । A pot-herb. not yet fully developed) वह युवा convolvulusargenteus.) रत्ना०। साँढ जिसका ढील पूर्ण विकास को प्राप्त नं पर्याय-नीलवुहा, नीलपुष्पी (नील अपरा. हुप्रा हो। जिता ), अतिलोमशा, नीलिनी, छगलान्त्री, प्रजातान् ajatan-सं० क्ली० वह स्थान जहाँ अन्तः कोटरपुष्पी (र), वस्तान्त्री, वृद्धदारकः, केश न उगें । अथ०। सू० १३६ । २ । का०६। (रा)। गुण-रस में कटु, कासनाशक, वीर्य For Private and Personal Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अजानिः भजाप्म् वक तथा गर्भजनक है । रा० नि० व.३ । __-फा. । ( Citrullns colorynthis, (३)( Gmelina Asiatica or Schrad. ) Rourca. santaloides. ) वृद्धवारक, । अजाम anjāma-० बड़ा चमगादर, चामविधाग। रा०नि० २०३। चिड़िया, चमगादड, चमगुदड़ी (A bat). अजानिः ajanib-सं० पु. ( Vithout a अजामांसम् ajamansam-सं० क्ली० (Go. wifea witlover.) श्रा । at flesh) छाग मांस, बकरे का मांस । अजानिक: ajanikah-सं० पु. (A goat-! गुण-लघु, स्निग्ध, किधित् शीतल, रुचिकारक, _hed.) गड़ेरिया, भेड़ बकरी पालने वाला। मधुर, पुष्टिकारक, बलकारक तथा बातपिश नाशक अजापकम् a.japa.kvam-0 क्ली० पकघृत है। ० निघ०। विशेष । अजावूत्रम् ajami tham-सं० ला० (Sheप्रजापञ्चकम् Hjapanchakam-सं० क्री० goat's urine ) छागीमूत्र, सकरीका मूत्र । यक्षमा रोग में प्रयुकाने वाला घृत । निर्माण- गुण-रस में कटु, उष्ण वीर्य, रूक्ष, नाड़ी. विधि-छागीयन ४ श०, छागविष्ारस श०, विपन,एवं प्लीहोदर, कफ, श्वास, गुल्म तथा छागीदुग्ध ४ श०, छागीदधि ४ श०, छाग मूत्र | शोथ (सूजन ) नाशक और लघु है । ग० न० ४ श०, इनको एकत्रित कर उसमें पल यवक्षार घ०१५ । १० उ०२४५०। दालकर यथा विधि पाचन करें । बस इसी को | अजामेद: ajainidah-सं० ला (Goat's "अजापञ्चक" कहते हैं। च० द० यक्ष्मा- fat) छागवसा, बकरे की चर्बी । वा. चि.. चि० । सैष०। ३०। । प्रजापञ्चक वृतम् ljapanchaka-ghyi- | अजायन ajayana)-180 संघा पु• नीम के tam-सं० को. छाय । पुरीष रस, नाग मुत्र, अजान ajana. बराबर होने वाले एक भारछाग दुग्ध, छागदधि, इनमें घृत मिद्ध कर सेवन तीय वृक्ष का नाम है। इसके पसे श्राम के पत्तों करने से राजयक्ष्मा, श्वास तथा ग्वामी दर होती। के समान किन्तु इससे बारीक और लम्बे होने हैं । इसने फलियों लगती है जो अंगुली के अजापयः japityah-सं० ली. (Goat बराबर मोटी और आध गज तक लम्बी होती है। milk.) छाग दुग्ध, बकरी का दृध । बा० उ० इसकी छाल रमशोधक है। | अज़ायह, anzayah-अ० माररा (छिपकली के अजापाद injipada-सं० पजीरी, सिटकी। क्रिस्म का एक जानवर है)। A kind of इन्दुपर्णी, उल्पलभेद-सं० । ऐनिसाकिलस कार्ने:- lizard. 49 (Anisochilus cariosus ) अजार ajara-हिं. संज्ञा पुं० [फा० प्राङ्गार ] -ले । ई० मे० मं० 1 देखो-सीता की रोग । बीमारी { (A disease). पोरो। अज़ार aa.z.ara-० अज अह , माई खुर्द, अजाप्रिया ajapriya-संत्रो० झाझेरी-पं0 (छोटी या बड़ी माई), भाऊ । ( Tamarix वदरी वृक्ष, बेर-हिं० । बालक प्रिया, भू-कर्टक, Gallica, l.inm.) सूक्ष्म-फल-सं० । मल्ल, बेर, झाड़ी-यू. पा०।। अजारम् aajarama-१० मज़बून सूई अथवा ज़िज़िफस नुम्मुलेरिया( Zizyphus in.- पुरुष शिश्न । ( Strong-needle or mutaria, ), जि० माइक्रोफाइला (Z. humain penis ). Microphylla)-ले० | भा० फ० व.। | अजारह anjarah अ० स्वरभेद । (A kind . अजाफ aajafa-अ० इन्द्रायनका फल | ह.जल of Date). For Private and Personal Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अज़ाराको अजित प्रसारणी तेल अज़ाराको azar aqi-अ० कुचिला । नक्स: अजाक्षोरम् ajakshiram-सं० क्लो. छागी बानिका (Nux vomica), कानिट नट दुग्ध, बकरीका दूध (Shs.gost milk), (Vomit-1ut)-ले० म० अ०। म० । व० श० । अ०। अजिका ajiki--सं० स्त्री. (१) रामतुलसी, अज़ाराको सिरिया azaragi-Syria-९० कु- बन तुलसी (Ociinum gratissimum. चिला। (Nus vomics) का इं०। Jinn.) ई० मे० मे० । (२) (A young अङ्गालत azalata-० पिस्सू ( केक )- shy. gost) जवान बकरी । ५ फ्ली (A flea)-९०। अजिज़ aa.jiz::-अ० विबशहोना, निर्बलता, अज़ाल हेवकारत zala he-bakarata अ० अराक्रता हि0 | 'डेबिलिटी (De bility) कुमारिरछद को नष्ट करना । रचर अफ दी -९० ! हाइमीन ( Rupture of the Hy- अजित ujita- हिं० वि० [सं०] अपराजित | men ) जो जीता न गया हो। अजग्ययः ajavaya-h-स० पु. वह अोपधियाँ : अजित तैलम् a.jita-tailam-सं० को० मुलेटी जिन्हें बकरियाँ खाती हैं । श्रय० । सू० ७ । १॥ . का करक ४ तो०, भामले का रस ६४ तो०, गो का..। दुग्ध ६४ तो०, तिज तेल मिलाकर तैल सिद्ध अजाविक ajavikam-. सौ. (Small . करें। गुगण-इसके सेवन करने से दृष्टि विमल cattle) पशु । होती है । अप० २० नेत्र० रो० चि० । अझ अजाविट् ajavit-सं० क्ली० छाग विष्ठा, बकरे . से० स० लेत्र, रांगचि . । की लेंगी। Goat's Fieces ( exere. ments)| वा० उ० १० न०। अजित प्रसारगी तैलम् ajita- prasārtuni-tai. प्रजावी सीड्स ajave seeds, Percivul. . lam-सं० क्ली० शरत्कालके सुपक प्रसारणी मूल -१० अजवाइन । फा. इं० २ भा०। ४०० ता०, दशमूल, बरियारा (बला), भश्चप्रजातो ajashringi- सं० नो. मेदासिंगी, गंध, शतावर, पियाबासा, गोखरू, रास्ना, काँचATPIFT 1 (Asclepias Geminatit, बीज, गुरुच, पुनर्नवा प्रत्येक पृथक् पृथक् ४०० Roxl.) तो० । कुलश्री, पदरीमूल, यव प्रत्येक २५६ तो. प्रजाश्वम् ajashvam-सं० लो० (Goats, कूटकर छः द्रोण (२६ सेर) जल में काथ.करें,जय , and horses) बकरे और घोड़े। द्रोण शेष रहे तब उसमें तिल तेल ४ सेर,मांसरस प्रजाहन aajahana-अ० साही-हि ४ सेर,दही ४ सेर, गोदुग्ध १६ सेर, शुक्र. ४ सेर, खारपुरत-का । पॉक्यु पाईन ( A Porel- दही का पानी ४ सेर, मूलीका रस ४ सेर, कॉजी pine), हेज हॉग ( Hedge-hog )-ई.। ४ सेर, तथा रास्ना, सौंफ, अगर, देवदार, मजीड अजाहा ajihvā-सं० क्ली० (Carpopogon ! मुलही, महुधा पुष्प (मधुक पुष्प), नख, नेत्र pruriens.) केवच, प्रात्मगुप्ता । आला. वाला, बालछड़, बच, संधानोंन, चित्रक, जवा कुशी-श्र०टी०१० । देखो-अजहा । खार, सरल, दारुहली, वायविडंग, भिलावा, असाह, aazah-अ० कण्टकयुक्र बड़ा वृक्ष, जैसे- पुष्करमूल, कूट, पीपलामूल, चव्य, मेवा, महा बेरी अथवा बघूर वृक्ष । (Aly spinous ! मेदा, जीवक, ऋषभक, काकोली, क्षीर का कोली, tree). निर्च, दालचीनी इलायची, काकहासिङ्गी, कचूर, अजाक्षो ajakshi-सं० नो० अओर A ! नखो, गजपीपल, स्पृका, मैनफल, सोंठ, केशर, fig (Ficus oppositifnija, Rorb.) i चन्दन, तेजपात, गोखरू, अदरख, कंकोल, ऋद्धि ग०नि०प०११ । वृद्धि, हल्दी, कमल, अजवायन, जीरा, श्रजमोद, For Private and Personal Use Only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अजितागदः १५ अजिर नागरमोथा, सिंघाड़ा, तज, पोपर, इन्हें २-२ | अज़िन azina-१० जिस मनुष्य के कर्ण द्वारा तोला लेकर, कूः बारीक चूर्ण कर उक तैल में | सर्वदा सरल स्त्राव होता हो। मिलाकर पकाएँ । सेवन विधि तथा गुण-! अजिनम् ajinam-सं० क्लो० ) (.)मगधर्म, इसके सेवन से पंगुरीग बाले, विसर्प, स्नायु, अजिन ajina-हि. संज्ञा पु। मृगछाला । संकोच, खंज, शिरा संकोच, गान भग्नता, (The hairy skin of any antolops.) गति की नष्टा, नन्यास्नम्न, भुमा, कंट- अमः । (२) चम्म, खाल, छाल । (३) स्तम्भ, एकांगवात, सांगवात, लकबा, सोजा, ब्रह्मचारी प्रादि के धारण करने के लिए कृष्णास्खुजली, हनुग्रह, महाबात तथा जिनके अंग । मग श्रीर ज्यान श्रादिका चर्म । श्रथ० सू०६८। जरिन हो गए हो, कटिं, काल, जानुस्थित . ३ का० । वायु, मंत्रियों का मारजानः, शिरास्तब्ध, स्नायु, अजिनपत्रा ajina-patri-सं० स्त्री० ( A अस्थि, सन्धि, उरु, इनमें स्थित वायु, शूल, . bat.) चमगादड़-हिं० । जतु (तू) का, शिरोशूल, गाप्रशूल, एकांग तथा सर्वांग वात, चर्नचटका ( टी )-सं०। बाबा, चाचिकी त्रियों का योनिशूल जो वातरक्त के प्रकोप से -५०रा०नि० ५० १ हुना हो, पुरुषों का शुक्र क्य, मेढ़राल, विकलता, : अजिन एत्रिका ajina-patrika-सं० श्रो. इन्द्री कीरणता, D गापन, स्तुतिविभ्रम, तुतलाना, : (१)( A bat ) चर्मचटी, चमगादड़ निरुद्ध वाणी, रियों की सन्तान होनता, प्रावि, -हि । है. च०। (२) (An owl) पेचक शक्र का दूषित होजाना, इन समस्त विकारों को उलूक पक्षी, उन्न। दर करते हुए मनुष्य को स्पति प्रदान होताहे। : अजिनपत्री ajiva-patri सं०सी० (A bat) इसके सिवाय, प्राध्मान, प्रत्याध्यान, अधिक जतु (-तू-)का, चमगादड़, सामचिदिया-हि०। डकार का पाना, जम्भा, कर्णनाद, तत, वातो. चाचिकी-बार ०नि० २०१६। न्माद, अपस्मृति, शाखाबात, गृध्रसी, अस्सी अजिन योनिः ajina-yonih-सं० पु. । प्रकार के वातरोग, मिति वात, कफ के रोग, अजिन योनि ajina-yoni-हिं. संझा पु., इसके अभ्यंग, पान और नस्य से दूर होते हैं ! हरिण, मृग (A deel, An Antelope). तथा जिनके अंग सिकुर गए हों उन्हें प्रसारित मु०। करता है। उर्ध्वगत, अधोगत समस्त वात रोगों अजिन्नहajinnah-० (ए० व०), जनीन को यह प्रजितप्रसारणी नामक तेल शीघ्र दर (घ०व०) गभं, भ्रण, जरायुस्थ शिशु, बह करता है। बं० से० सं० घातम्या० चि०। शिशु जो माताकी उदर में हो । फीटस Fetus, अजितागदः njitagadah-सं० क्लो० वाय एम्ब्रयो Embryo-इं। विडंग, पा: (निर्दिपी हरिद्वारे), यामला, हर, नोट-अंगरेजी में ३ मास से न्यूनावस्था बोरा अजमोद ग सॉटनि. पीपल वाले भ्रण को एम्ब्रयो और इससे अधिक वाले की फ़ीटस कहते हैं। चिक, लवणों का सूचम वर्ग चूर्णकर शहद मिला कर गाय के सींग में भर कर १५ दिन तक बंद : अजिप्टिशां इण्डिगोप फ्लेख agyptische रक्खें । प्रयोग-इसके सेवन से स्थावर तथा ____ Indigop fange जर. श्वेतनील, मीजंगम विष दर होते हैं । भै. र० विषाधिकारे। लिनी-सं० । नील बं०। ( Indigofera ____Argenta) ई० मे० मे० । अजितात्मन् ajitatiman 16.पु.(Oneअजितेन्द्रिय ajitendriya, who has | अजिब aaziba-० वह जल जिस पर काई जमी हो। not subdued his mind or his senses. ) वह मनुष्य जिसकी प्रास्मा एवं : अजिरः ajirah-सं० ० क्लो. (१) मण्डक, इंद्रियाँ वश में न हो। अजिर ajira-हिं० संज्ञा० पु. मेंढक,दर । For Private and Personal Use Only Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ক্লিাব अजीणि: 1 .1 . .. . . . A Frog ( Rana, tigrina). (२) मैथुन काल में वीर्यपात समय मल निस्सरित हो Wind, air. वात । (३) A ny object . जाता है। of sense विषय (इन्द्रिय)।() The अजीन aajina-अ० जमीर, खमीरी श्राटा। body तन, शरीर । (५)A court-yard. ! गुधा हुधा पाटा । डओ ( Dough)- 1 माँगन, सहन । सर्वत्र मे० रत्रिक । अजोसा azimā-अ० ० तहब्बुज, वर्म रिश्व अज़िरत aazirata-० (ए० व०), मजिरात -अ०। शिथिल सूजन, दीली सूजन-हिं० । (य०व०) मल, विट, गृह, पाखाना (मनुष्य अडीमा (Edema.)-ई.। *) i Fæces, Excrement. मज़ोमाटेद्राकैन्था azina tetiacantha, अज़िरत aaziralta-अ० मूलाधार, गुदा और वृ. . lam. -ले० कुण्डलो-सं०। कण्ट-गूरकामाई षण के मध्यकी रेखा (चुरट),वह रेखा जो वृषणोंके -हि। त्रिकरट जटी-बं०। अज़ीमा टेवा कैन्थानिम्नभाग से लेकर गुदा तक है; सेवनी, सीयन । से150 मे० मे० । फा०६०२ भा०। इसका उचारण इ.जरित और सही है । पेरीनिश्रम् अज़ीमा टेवाकैन्था ziina tebracantha, Perinenin, ** Rhaphe-toi i Lim. )-ले. कुण्डली-सं०। कस्टागूर. अजिह्म ajihma-सं० वि० (Straight) कामाई-हि. । त्रिकण्ट-जति-ब०। सुक-पात- सरल, सीधा । द० । सुशेली-ता० । तेलउपी -ते। मेमो०। अजिह्मगः jihmagah-सं० पु० (Ani ई० मे मे० । फा०ई०२ भा। arrow) तोर, बाण । अज़ोर aazira . . अजित: ajihvah -सं० पु. मण्डूक, : अज़ोरन aaziranas अजिह्मः ajihmah .) मेंढक,भेक | A Frog | ___anthus anatolicus, Boiss.) ( Rana tigrina ) त्रिका । अजीरन a.jirala-हि. संशा पु० दे० अजोग । अजा aaji - अ. सूखे छिल्के जिनको पकाकर !. पकाकर अजोर a.jaru-कां० हत्ता जुड़ी-हिं० । सूर्यावर्त, खाते हैं। ४ी हस्तिनी-सं० । हीलि श्रोट्रापिअम् इण्डिकम् अजीगतः ajigarttah-सं0पु0 (A ser ( IIoliotropium indicum ), ही. ___pent) सर्प, साँप । कार्डिफोलिग्रम् (11. cordifolium)-ले। अजीज़ aujiza-अ० प्रीय, नपुन्सक, नामर्द, न हीलिओ ट्रॉप ( Helio-trope )-इं० । जो मैथुन न कर सके ( Impotent). । ई० मे० मे०।। अजीज़ aziza-० देग के उबलने की आवाज़ । अजीर्ण ajina-सं० त्रि, हिं० वि० (Undबादल गरजने की आवाज़, मेघराब्द । वर्तमान igested ) अपक्क । वैद्यकीय परिभाषा में हाँप कर श्वास लेने तथा । " अजाणम् ajinam सं० ली. ) (1) अपाक खर्राटे का शब्द । ((Sncring), अजीणं ajirna-हिं० संतापु अजीजा iazizi-अ० यौगिक सुर्मा (Comp- अजीणिः ajirnih-सं० स्त्रो० ) अपच, अध्य. रोग विशेष, ound antimony). सन, बदहज़मी-हिं० । ज अफ हम, अजीडेर क कॉमून azedarak commun- फसादुल हज़म, सूत्रहज़म-अ० । हजम में बकायन, महानिम्ब (Melia azedar , का जईफ या कमजोर होना, हाजमा की rach) इ० मे० मे। कमज़ोरी, खाना अच्छी तरह हजम न होना, अजोडेरक मीलिया azedarach, nmelia, बदहजमी, खराबिये हजम-उ० । इण्डाइजस्चन Linn.-ले० बकायन । ( Common; ( Indigestion ), डिस्पेप्सिया (Dyspebead tree)९० मे० मे। psia-10। अजोतह, azitah-अ. रोग विशेष जिसमें श्रा को निरुक्ति-जिस रोग में प्रश्न For Private and Personal Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रजाणम् अजाणम् पचे नहीं, अपितु जल जाय उसको अजीर्ण कहने | हैं । भा० म० ख०१ भा० अ० अ०मा०। प्रायः पेट में पित्त के बिगड़ने से यह रोग होता है जिससे भोजन नहीं पचता और वमन, । दस्त और शूल ग्रादि उपद्रव होते हैं। आयुर्वेद में इसके छः भेद बतलाए हैं: १-आमाजीर्ण जिसमें खाया हुअा अन्न कञ्चा गिरे। २-विइया जाये जिस में अन्न जल जाता है।। ३-विष्टल्याजास-जिसमें अच के गाटे । वा कंडे धकर पेट में पीड़ा उत्पध करते हैं। ४--रसशेषाजीर्ण जिसमें अन्न पतला पानी। की तरह होकर गिरता है। -दिनाकी अजीर्ण जिसमें स्वाया हुआ प्रा दिन भर पेट में बना रहता है और भूख नहीं लगती है। ६-प्रकृयाजाणं वा सामान्याजीर्ण जो सदैव स्वाभाविक रहे। डॅपिटरी में इसके दो भेद मानते हैं-(१): उग्र अजीर्ण (Acute dyspepsia) और । (२) पुरातनाजीर्ण (Chronic dyspepsia). पुरातनाजीर्ण के पुनः तीन भेद होते हैं----(१) आमाशयविकार जन्य अजीण (Atonic dys- I pepsia), दोभमन्याजीर्ण ( Irritative | dyspepsia) और वाताजीर्ण (Nervous dyspepsia). अजाण निदान। ईर्षा ( पराए धनधान्यादिको देखकर जलना), । डरना, क्रोध करना इन कारणों से व्याप्त तथा लोभ, शोक, दीनता इन कारणों से पीड़ित और दूसरों के शुभ कामों का बुरा समझने वाले मनु- प्यों का किया हश्रा भोजन भली भाँति नहीं पचता है। ये अजीर्ण के मानसिक कारण हैं। शारीरिक कारण ये हैं.प्रत्यन्त जल पीने से, विपम ( असमय वा । न्यूनाधिक ) भोजन करने से, नल-मूग्रादि के | वेग रोकने से, दिन में सोने से, रात्रि में जागने । से, इन कारणों से भोजन के समय यदि प्रकृति अनुकूल, लघु तथा शीतल पदार्थ सेवन करें तो भी अन्म भली प्रकार नहीं पचे उसको अजीर्ण कहते हैं। जो लोभी मनुष्य जिह्वा के वश होकर पशु के समान वेप्रमाण भोजन करते हैं उनकी सब रोगों का कारण अजीण रोग शीघ्र उत्पन्न होता है। माधवः । अजीक लक्षण (१) प्रामाजीणं-यह कफ के प्रकोप से होता है । इसमें देह का भारीपन, जी मचलाना, कपोल व नेत्रगोलक में सूजन, मी: खट्टा जो ही रस खाया गया हो उसी की डकार पाना प्रभृति लक्षण होते हैं। (२) विदग्धाजोण:-यह पित्त के प्रकोप से होता है । इसमें भ्रांति, तृष्णा, बेहोशी, प्रमेक प्रकार की पिसज पीड़ा, धूएँ के साथ खट्टी डकार पाए, पसीना आए तथा दाह हो, ये लक्षण होते हैं। (३) विष्टब्धाजीर्ण- यह वायु के प्रकोप से होता है। इसमें रोगी को शूल, पेट फूलना, नाना प्रकार की बातज पीड़ा, मल तथा अधोवायु का न निकलना, पेट का जकपना, इन्द्रियों में मोह और शरीर में पीड़ा, ये सब लक्षण होते हैं। (१) रसशेष जीणं-इसमें अन्म में अरुचि हृदय में जड़ता और देह में भारीपन होता है। माधवः । बा०नि०१२ अ०। नाट-दिनपाकी तथा प्रकृत्याजीण के लक्षण अजीण के भेदों के अन्तर्गत वर्णित है। अजीर्ण के उपद्रव अजीण रोगी के बेहोशी, प्रलाप, यमन, मुख से पानी का पाना, देह शिथिल होना, भ्रांति होना, ये सब उपद्रव होते हैं। अत्यन्त बढ़ा हुधा अजीण मनुष्य को मार भी डालता है। नोट - अग्नि मन्द होने ही से अजीण और ग्रहणी पैदा होती है अर्थात् अधिक समय तक अग्निमान्द्य और अजीर्ण रोग रहने से पीछे इसी की गणना ग्रहणी में होने लगती है। उपरोक्त प्राम, विष्टब्ध तथा विदग्धाजी से विसूची ( हैजा), अलसक और निलम्बिका For Private and Personal Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अजीर्ण वस्टकरसः Ė रोग की भी उत्पत्ति होती है । मा० नि० । त्रि' केल्ला - मन्दाग्निवत् । अजीर्ण कष्टकर ajirna-kntaka-rasah - सं० पु ं० श्रजीर्ण नाशक योग विशेष | शुद्ध पारा, बच्छनाग, गन्धक प्रत्येक तुल्यांश, सब के समान काली मिर्च लें, फिर कंटकारी के रस अथवा काथ से भावना देते हुए २१ बार मर्हन करें। मात्रा - २ रत्ती । गुए यह सभी प्रकार के अजीर्णो को नष्ट करता है । यो० २० वि० सा०, वै० क०, २० सं०, भै० सा २० सि० र० स० सं० २० क० ल०, २० चि०, २० ख०, २० मं०, र० २०, नि० ० वि०र०, २० सु०, वै० चि०, भै०र०, र० ( मा० ), २० कां०, २० क० ०, ० वि०, २० का०, रसायन० सं०, ना०धि०, चि००, र० क० भा० प्र०, अजीर्णाधिकार० व० रा० ( श्रग्निकुमारः ) । अजी कटक घटी ajina antaka-vati -सं० स्त्री० शुद्ध पारा, बच्छनाग, गन्धक प्रत्येक समान भाग, सबके बराबर सुहागा भूना, सत्र को मिश्रित कर २१ बार नीबू के रस की भावना दें, फिर चने प्रमाण गोलियाँ बनाएँ। गुरु- यह अजीर्ण तथा अलसक आदि को दूर करती है । यो० म० । अजीक एटकोरस: ajina-kantako-rasab - सं० पुं० सोहागा भूना, पीपल, वच्छनाग, शिंगरफ प्रत्येक समान भाग लें, और काली मिर्च सोहागे से द्विगुण लें, पुनः नीबू के रस से घोटकर मटर प्रमाण गोलियाँ बनाएँ । गुण-- यह रस ग्रजीण की शान्ति, जराग्नि की वृद्धि करता और कफ के रोगों का नाश करता हैं । मात्रा - १-२ गोली । यो० म० भा० प्र०, र० क० ल०, रसायन० सं०, वै० २०, श्रजीर्णाधिकारे । नि० २०, २० रा० सु०, farer रत्नाकरे, रसराजसुन्दरे चास्त्र दो. धकेति नाम । अजीर्ण कालानलारस: ajirna kalanalo-rasah - स० पु० शुद्ध पारा, गन्धक, प्रत्येक २१ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जीर्ण बलकालानलो रसः तो०, लोहा, ताँबा, हरताल, वच्छनाग तूतिया, अंग, लवङ्ग, सुहागा, दन्तीमूल और निसोथ का चूर्ण प्रत्येक ४ तोल, अजमोद, अजवाइन, सज्जी, जवाखार और पाँचो नमक, प्रत्येक २ तो० इनका चूर्ण करके २० बार अदरख के रस की और पीपल, पीपलामूल, चव्य, चित्रक तथा सोंठ के क्वाथ की १० और गिलोय के रस की १० भावना दें। पुनः सब के आधा भाग काली मिर्च मिला मर्दन कर चना प्रमाण गोलियाँ बनाएँ । गुण- यह प्रत्येक थजीण' के विकार को शीघ्र दूर करता है । र०सु०, ब० रा० श्रजीर्णाधिकारे । श्रजीर्णं गजाङ्कुशः ajirna-gajánkushah - सं० पु० शुद्ध पारा, गन्धक, विडङ्ग, अजमोद, बच्छना, सूरन, पुनर्नवा, पाँचो नमक, पञ्चकोल, अम्लवेत, तीनों चार, अम्ली, हस्तिकर्णी, ( एरंड की जड़ की छाल ), कालीमिर्च और हींग प्रत्येक समान भाग लें, इसमें समुद्र लोन को भूनकर मिलाएँ। सब का बारीक चूर्ण करके चित्रक, पाठा और शरपु के रस अथवा काथ से पृथक पृथक भावना दें। मात्रा - 1⁄2 तो० । अनुपान दरखका रस है । गुण - यह सम्पूर्ण अजीर्ण के विकारोंको शीघ्र दूर करता है । २० क० यां० । अजीर्णजरणः ajirna-jaranah - सं० पु ं० कचूर | See Karchura। वै० श० । श्रजी‍ नाशनः ajirna nashanah - सं०ली० पारे को भोजपत्र में बाँध के काँजी में लवया डाल के तीन राश्रितक स्वेदन करें तो यह पारद सुवर्ण श्रादि धातुत्रों के प्रजीण को दूर करे | जब तक जीण दूर न होजाय तब तक पाराप्रसन का अधिकारी नहीं है। योगतरङ्गिणी० पारद० विधान० । अजीर्ण बलकाला नलो रसः ajirna-balakálá-nalo-rasah - सं० पु० शुद्ध पारा २ पल, शुद्ध गन्धक २ पल, भस्म, हरिताल, विष, नीलाथोथा, बङ्गभर विवर लौंग, सोहागा, दन्ती की जड़, निशोथ पृथक पृथक एक-एक पल लें; अजमोद, स For Private and Personal Use Only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अजीर्ण हर महोदधि वटीः अजुगा बेपटीश्रोसा बाइन, जवाखार, सज्जीखार, पञ्चलवण प्रत्येक रहें फिर गजपुट में उसे इस प्रकार पकाएँ कि चार चार तो इन्हें एकत्र कूट पीस कपड़छान उसका धुश्रा (बाप्प ) बाहर बिल्कुल न निकले। कर अदरख के रसकी २१-२१ भावना दे। इसी ठंडा होनेपर निकालें । फिर उसमें लवङ्ग, काली. तरह पञ्चकोल, तथा गुरुच की १०.१० भा मिर्च, फिटकिरी प्रत्येक ४ तो० मिलाकर बारीक बना दें । पुनः सब के अर्द्धभाग कालीमिर्च का चूर्ण करें और शीशी में रख लें । मात्रा - २ चूण मिलाएँ । सब को खरल कर चने प्रमाण रत्ती सायंकाल खाने से खाया हुआ क्षण भर में की गोलियाँ बनाएँ । जब सूख जाय शीशी में पच जाता है। इसको सेवन करने वाला भोजन बन्द कर स्वच् । गुरा-इसके सेवन से पुरातन करने के एक पहर बाद पुनः भोजन करने की अजीर्ण, श्रामवात, पारडु, धीहा, मेह, विटभ, इच्छा करता है। यह मांसको भी जीर्ण कर देता है। प्रसूत, संग्रहणी, खाँसी, श्वास, पीनस, चय, अजीर्णारि रसः ajinari-rasah-सं० पु. अन्लपित्त, शूल, भगन्दर अर्श, पाठ प्रकार के शुद्ध पारा, गंधक प्रत्येक ४ तो०, हड़ - तो, उदर रोग, यकृत रोग तथा मन्दाग्नि को दूर करते सोंट, पीपल, मिर्च, सेंधानमक प्रत्येक १२ तो०, हुए खाए हुए 'अन्न को प्रहर मात्र में भस्म भाङ्ग १६ तो. सब को मिलाकर दा करें, करता है। यह गहमानन्द सिद्ध का कहा हुआ फिर नीबू के रस से घाटें । इसी तरह धूप में रस है । वृ० ररु० रा० सु. अजीण चि० । सुखा सुखा सात भावना दें। मात्रा-१-३ मा० । अजीर्णहर महोदधि वटा jirnthara.ma. गुण-शूल, प्लीहा, उदरशूल, अजीर्ण और गुल्म hodadhi-varih-सं० स्त्री० शुद्ध जमाल- रोग को नष्ट करता है । २० क० ल०, रसायन गोटा चीज, चित्रक, सौंठ, लौंग, गन्धक, पारा, सं०, चि० क०, टो०, अजीर्णाधिकारे । सोहागा, मिर्च, विधारा, विष इन्हें सम भाग ले | अजीण a.jirni सं०वि०हिक अजीर्ण रोगी, मन्दा चूर्ण कर दस्ती के रस की पन्द्रह भावना दें। स्नि रोग वाला ( Indigestire-person, इसी तरह नीबू के रस की तीन, चीते के Dyspeplic.)वै०२० रस की तीन तथा अदरख के रस की सात भावना देकर शुष्क कर जब गोलियाँ बनाने | अजोलह यत स aa.jilah-yatusa--गिरगिट । योग्य हो जाए तब मटर प्रमाण गोलियाँ बनाएँ। बह-फा०। (A lizard, tu chameleon) गुण- इसके सेवन से शूल, अजीर्ण, ज्वर, ! अजाव a.jiVia-हि० संज्ञा पु० [सं०] ( Lif., झाँसी, अरुचि, पारडु, उदर रोग, श्राम रोग, ___eless) अचेतन जीव तत्त्वस भिन्न | जड़ पदार्थ पेट का गुड़गुड़ाहट, हलीमक, मन्दाग्नि तथा सब वि०बिना प्राण का । नृत। रोगोका नाश होता है। वृ० स० रा. .अ. श्रजीवनिः a jivanih-6. स्त्री० मृत्यु । जीण चि०। ( Death, Non-existevsc).. अजीणहर- ajir na-hara-ra.sah-सं० श्रजांविज: ajivijah-२०१० अनैन्द्रिक । पु साम के तीन योग हैं (Inorganic. ) (पारसन्दुभं । (२) यो० २०, अजी | अजुगा केमी-पाइटिस ajuga cha nu pitys ofirधीकारे (३) यें।०र०,अजीर्णाधिकारे ।। ___-ले० कमानीतूस-यु० । कुतौंधा-हिं० । ममीक्षार,जवारवार सुहागा, पारा, ल बङ्ग, | अजुगा डिस्टाइका ajugal distica-ले. (लवणत्रयांकाला मधा और विड़ नमक), | गोवरा । पीपख गधकामान कालीमिर्च प्रत्येक ४ तो०, अजुगा षटीोसा ajngu brasteosa, घन्छनागाला भीमाबारीक चूर्ण कर लें। Van.)-ले. कौड़ी वृटी-मे०। ककू, आकाके मेदिन तक भावना देते मील करी-सत० । खुर-बनरी-ट्रां० ३० । इसके For Private and Personal Use Only Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रजुज़ बाजारू नाम निम्न प्रकार हैं, यथा वने श्रदम, मुकुंद बाद, नीलकी । जाज्ञ नोट- मि० बेडेन पॉवेज़ "जुग रेपटन्स " ( एक यूरोपीय भेद ) को कर में जनेमनमानित करते हैं, पर लि स्वयु ( Stewart ) सैल्जिया ऐनलेा | ( Salvi anlati) की उक नाम प्रदान करते हैं । मेमा० । ई० मे० प्रा० । अजुज़ aajuz-० ( ८० व० ) (FOTO) सुरीन, चूतड़ उ० । नितंब, चूतड़ हिं० । अर्वाचीन वैद्यकीय परिभाषामें यह शब्द नितंबास्थि (अज़ मुल झजुज्ञ ) के लिए प्रयोग में लाया जाता हैं |टक्स ( Buttocks ), नेट्स (Notes ) श्रोर सेक्रन (Sacrum ) - इं० । श्रद्र ajara-2 ॐ ई- श्रमजा, भम्यामल को । (Phyllanthus niruri.) अ (इ) जुद्द Āa(āi)zad - अ० भुजा, बाजू, डण्ड, कुनो और स्कंन का मध्य । श्रर्म Armo | अजुमोद बोमम् ajimoda-vomam - ० अजमोद | स० [फा०] इं० | Carum ( Ptychotis ) Roxburghianum, Beath. १६३ अजूजा ajuja-हिं० संज्ञा पु ं० [देश० ] बिजू को तरह का एक जानवर जा मुर्दा खाता है । अज़त azút - अ० यह यूनानी शब्द अजूद का अरवी कृत शब्द है (जिसका अर्थ प्राण-नाशक है ) । यह नाइट्रोजन का पर्याय है। नाइट्रोजन (नत्रजन ) एक सूक्ष्म वायव्य है जो वायु में ७७ प्रतिसत पात्री जाता है। नाइट्रोजन Nitrogen - ई० । अजूम aajum-० ऊँट का बच्चा । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अज़ोमूत अजूस ajórá- बर० अज्ञात | अजून āajula-बड़ा। गोसाइकु० । अजू{ aajúh-अ॰ खजूर भेद | यह मर्दाना में होता है। (A kin l of dat)). ajayaiअर्जुन ajaya f ( Termin पु० alia arjuna वि० न जीते जाने सके | अत्रे घृतम् ajeya ghritam - मुलहठी, तगर, कट, देवदारु, तिवापर, केशर, एलुग्रः, नागकेवर, कमल, तित्री, वायविडंग, श्वेत चंदन, तेजपत्र नियंधू, रोहितृण, हल्दी, दारूहल्दी, छोटी कटेजी, बड़ी कटेतो, शारित्रों, शान र वला, इनके करकों से सिद्ध घृन प्रत्येक वि को दूर करता है । वङ्ग० से० सं० त्रिव० चि० । अज़ेन azarona - ( Artemisia sibarsi ana, all ) माज़रोना । फा० ३०० २ भा० । अज़ेडिये डी' इण्डो azadire D' Inde-no नोम | The Neem tree | इं० मे० मे० । अडिरेक्टाइfuser azadirachta Indica, Kuss. - ले० नोम - हिं०, ६०, पं०, बं० । रात्रीप्रिय, व्रणशोधक-सं० । मीलिया अजुलीनी ajulini - अज्ञात । अजू (जौ) ज़aajuz-० ( १ ) शराब, ( २ ) लामो, (३) शेर, ( ४ ) गाय, ( ५ ) भेदिवा, (६) च, (७) विच्छू, (८) घोड़ा, ( ६ ) कुता, (१०) डेंनो, ( ११ ) इविनो, (१२) एक का नाम है, (१३) निश्क ओ (१४ ) एक प्रकार का खाना भी है । । श्रजैडकं ajnidakam-सं० की ० (Goats and ( १५ ) पोरहाल - रु० 1 ही स्त्री, चुढ़िया महि० । डिरेक्टा ( Melia azadirachta ) -ले । दी नीम ( 'Tha Noom ), मार्गाला ( Margosa tree ), इण्डियन लिलैक ( Indian lilac ) - इ० । rams) करे और भेड़ें। ई० मे० मे० | स० फॉ० ई० । श्रजैपाल ajaipala हि० संज्ञा पुं० जमालगोटा (Croton seeds). जेरु ajvirú-नैपा० बण्डा-म० सं० सी० पी० । श्रज़ो नून azomúta ) - गोश्रा० प्रेस्मोमम् मार्गउजोमेन uzometa ) टिफ़ॉर्म (Plósmomi For Private and Personal Use Only W. &. 4. ) बै० नित्र० । योग्य | जिसे कोई जीत न m Margortiform, Scholl. ), एरम मार्गो फिॉर्म ( Arum Margortiform, Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रजोवान प्रजभः मॉक) Rozb.) फॅॉ. इं०। ई० मे० ०। (बाइ- तह नानो । अधोमा महाशिया, निम्न महाशिरा। प्राचीन छेदन मात्र की परिभाषा में उपरोलिखित ___मदनमस्त या सूरण वर्ग शिरा का वह भाग जो यकृत से निम्नावयवों (y.O. fritle:se or Araceae) की ओर जाकर शाखायों में विभाजित होता है। उत्पत्तिस्थान-बंगाल (राज.),सिरामर Exiffc dar #1 (Inferior vena (बेग्य०), प्रस्तोरा गोप्रादे" (डाइ.), ca:-ई। हिन्दुस्तान । majolf-fo.gani-अ० देखोउपयोग-गोवा में देशो लोग इसके बीज को अनौफ साइद ( Superior vena. कुचल का दंतरोग में वनेने हैं। थोड़ी मात्रा में . civ). इसे रुई में रख कर खोखले दाँतों में भर देते हैं । । अरु लाइ ajoafar-saai 1 अ कोहानी, इससे न य य झोन तक ल श न होमाता है। प्रो अभूजा और अजफ तालअ-अ.। इसो आमादा गुग के कारण चार लो प्रथा ऊ(गः) महाशा -है। प्राचीन छेदन शाम कुचल जाने प्रनिति में इसका पान उपयोग होता को परिमाया में उपरोल्लिखिर शिस का वह है। ( डाइमॉक) भाग जो या संकार हदय को और तथा नोट-देव--सूरन श्राएरन सिपेटिकम् उसने ार जाका असंख्य शान्वयों में विभाजित ( Attun sylvatieum,Bh. ) या होता है। सुपीरियर वेना केवा ( Supal. सिनैन्येरिस सिटिका ( Synanther- rior. vena cava ) jas sylvatica, Schol. ). टिप्पणी-प्राचीन हकीमलांग चूँ कि शिरात्रों अनोवान ajowall-च० अजवाइन । Car- | का उद्गम यका से मानते थे । श्रस्तु, वे शिरा (ptychotis ) Ajowan, D. C. i के उस भाग को जो यकृत के उनमोदर भाग से अजोवान ॲइल ajovan oil निकल कर व उदरमण्यस्थ पेशी को छेदन कर अजोवान आलियम ajowan olt:lum-ले० । ऊपर हृदय की ओर जाता है ऊबंगामहाशिरा यानी तेल । देखो-अजवाइन । श्रार्थात "जौफ़ साइद या अौफ़ फोक्रानी" जो ajonfl-अ०( बहु. ५०), जौफ़ (ए.. कहते हैं। इसके प्रतिकूल शिरा के उस भाग व ) शाहिदक अर्थ जोकदार या खोखली । को जो यकृत से निम्नभाग की ओर उदर में वस्तु; किन्तु छेदन साख को परिभाषा में उस घड़ी पृष्ठकशेरुका के समान्तर पे तक जाता है नलीदार शिस को कहते हैं जो यकृत के उन्नतोदर अधोग.महाशिरा अर्थात् “अजौफ नाज़िल या भाग से निकलकाजोफसाइद वा नाजिल अजौफ़ तह तानी" कहते है। परन्तु अर्यामीन दो भागों में विभाजित होती है। महाशिप योरोपीय डाक्टरगर कि शरीरस्य समस्त -हि. | ( Vena cava) शिरात्रों का अन्त हृदय के दाहिने ग्राहक को नोट-पाहब कुस्तासुल निम्बा अजौफ को में मानते हैं । अतः उनके वर्णनानुसार उपयुक उदर तथा योनि के लिए भी प्रयोग में लाते हैं दोनों शिराओं, यथा-"अजौफ़ साइद और अनौफअगला ajoufaraala श्र. देखो-- अतोक नाज़िल" का समवे। निम्नमहाशिरा अजौफ़ स इद । ( Suprior Vena ! (Inferior vena cava) ही में होता ca.va). है।शिरा सम्बन्धी अर्धा वीन डाक्टरी मत तथा अजीफ़ तह तानो ajoufa-tahtani-० प्राचीन वैद्यक मत के लिए देखिए "शिरा' । देखो-अजीफ़ नाज़िल ( Inferior vena | अम ajambha-सं० वि०,०वि० ('oo. cava ). ___thless) दंतहीन । अजौफ़ नाज़िन ajo:fa-nāzil-अ. अजौफ | अजंभ: ajambhah-सं० पु. (A frog) For Private and Personal Use Only Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अजः भावितलाम मण्डूक, मेंढक । (२) 'The sum सूर्य । दवास्वानह -30 औषधालय-हिं । हिस्पेन्सरी (३) 'oothless state (of a. Dispensary-To child ) वह बालक जिसके अभी दाँत न ! अजाजा ajzaji-१० प्रजाई, सदली। दयासान, निकले हों। अत्तार-३० । श्रौषध-निर्माता, श्रीषध-विक्रेता अजःajah-सं० (.)छाग, बकरा (A. -हि । अपायकरी Apothecarry, केमिस्ट he-goat)| भा० पू० । (२) स्वर्णमाक्षिक Chemist, fire. Druggist-to (Ferri sulphuretum) सोनामक्खी। जित्कुलपगन्दीazziftul-barghandi-अ. हे० च०(३) उक्र नाम को श्रोषधि विशेष, वगुण्डो पिच ( Burgundipitch ) TAXE ( Asclepias geminata, -:00 Road.) च० चि०१० । | अनाप-सगोnjza..sachirah-श.प्रव साना (Do यवों के सूक्मातिसूपर अंश.अरा-हिं। मॉलीदूना करना, बड़वेश । (२)( Viraken) क्युलज़ (Molecules )-01 निर्बल करना, श्रशन करना। अजमा ajzemi-० अरोना से अरबीअज़गास. अह लाम azghāsa-ahlāma-अ० कृत शब्द है। नार फारली, पानशक, जलनदार वैकल्य कारक स्पन्न | असत्य वा मिथ्या स्वप्न। फुन्सियाँ-उ० । एक्जेचा (Eczema) ई. कन्फ्युसिडीम ( Confusing dreum) श्रावकुल का लियाई arzaibaqul-qiun. üliyai-अधूबर चूर्ण, खाकी सात। ग्रे अ.aazza-० दंगन, दाँतसे कारना । अज , पाउडर (Gray powder )-01 सा, कम्म, नक, कस्त्र. लस्म, महश और नका अझटाः ajjhatāh-सं० स्त्रो०(Phyllanthप्रभृति के अर्थ भेद विवरण प्रत्येक पशु के काटने __us niruri, linn.) मुँई मामला, भूम्या मलको, काम्बरा । मा०पू०१भा.गु०प० । को अजज और प्रत्येक विषधर जीवों के काटने अज्मलं ajjhala.in-सं० क्लो. 1-(A shield) को रज और कदम, पवियों के काटने को नक, वृश्चिक के बाद मारने को कस्त्र और सर्पदंशन को ढाल | २ (A live coal) हड़ी का कोयला। लस्त्र, नह श और नक्त कहते हैं । अज्झन: n.jjhalah-सं० प. कोकिल, कोईल अमज़म a.jzama-०(१० ब०), जज़म (ए. for The black or Indian १०) जुजामी, कोढ़ी-उ० । कुष्ट रोगी, कुरुती, cuckoo (Cuculus ). निसकी अंगुलियों के पोर्वे मड़ गए हों। लेप्रस अज { aazda-१० (An arm) भुना, बाहु । (Leprous)-ई० । सहायक, सहायता करना ( !lelpar ). अजज़म ajama--अ० प्रज्दश् । नक्टा, । अज्अ , ajilaa अ. नक्टा, बूचा, वह व्यकि जिसकी नासिका कटी हो। नोजनिष्ट (Nose जिलकी नासिका कटी हई हो । नोज़क्जिष्ट clipt)-ई। ( Nose clipt) roll अजज़ा ajza-१० (२०५०), जुन (ए. व.) अदरान azdarāna-० शंखस्थल पर दो रगें ह.स्सस,हि.स.प, टुकड़े-उ० । भाग, अंश. टुकड़ा हैं जो कर्ण और बाह्य चक्षुकोणके मध्य स्थित है। -हि । पार्ट स ( Parts)-ई । (२) अद्- अज्दार aj.lara-० (ब०व०), जद(ए० ३०) वियह । औषधियाँ । ड.गज़( Drugs)-ई। दाग, धब्ने, पिङ्क। स्कार्ज (Scars) अज्जा अवलिय्यह ajzaaravvaliyyah | -अ० अर्कान । नत्व-हिं० । (Elements)| अदिलाम azdilama-अ० नासिका को मूलसे प्रज्ज़ाइयह, ajzaiyah-१० अग्लाखानह । काट डालना। For Private and Personal Use Only Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अदिवाजिनाज़ १६६ वज़ म अदिवाजिल्नरज़ azdivijil-nabzi-० नब्ज़ : होता है, यथा-मुश्क श्र र अर्थात् उग्र सुगंधि. जितरकी । नाड़ी में एक ही.बार दो गतियों (धमक, यूज कपूरी और यदि बुरे और थपक) की प्रतीति होनी । डाइक्रोटिजम ( Dic-i वस्तु से हो तो उससे अभिप्राय तीव दुर्गन्धि rotism )-ह। होती है। अदिवाजिबन azdirajil-basrs - अ. एक अकान ajfaima (३०व०), जान (१०३०) वस्तु का दो दिखाई देमा । डिप्लोपिया ( Dip : -अ० पोटे, पलक । श्राई लिइज़ ( Eys lopia)-इ.1 ___lids)-ई। अज़दिवाजिल हदव azlivajil-hadaba- | अज फार azfara-अ० (०२०), ज़ कर अ. पलक के रोमों का दोहरा अर्थात् दो पंक्रियों ( ए०व०) नख चाहे मनुष्य का हो या में होना । नेत्र में रोमाधिक्य ( परवाल ) का , पशु का | नेल्ज़ (,Vails)-इं०। होजाना । अज्य aajba-अ० हुद्अतुलवकं । कुकुन्दर पिराड, अन्न aajna-अ० संधातिन करना, खमीर करना, नितंत्रशस्थि का वह भाग जो बैठने में पृथ्वी पर सौंदना, सानना, गूंधना-हिं । निबलेता के लगता है। इस्कियल ट्युयॉसिटी ( Ischial कारण पृथ्वी पर हाथ टेक कर उना । फरेंट tubarosity )-ई। (Ferimant ), लोवेन ( Laven) अज़ बन azbata-अ० खेबड़ा, बाँया हाथ, वाम (बा ) हस्त से खाने पीने और काम काज अज्नास ajnasa-०(३० ब०), जिन्स (०। करने वाला। व.) जाति-हि। Genuses | देखो- अज़बह aazbah-अ० (१०व०) अज़न जिन्स। (य०३०), अजबात । जिह्वाग्र, जिला की नोक अग्निहह ajnihah-अ० (ब० व०), जनाह वा तीवता ।। (ए० व०) शाब्दिक अर्थ पंख,पत,पक्षियोंके पंख । अवतह, atzbutah-१० घूस मादा, मूस छेदन शास्त्र की पारेभाषा में पृष्ठ के मुहरों के A she rat). उस उभार या प्रबर्द्धन को कहते हैं जो उनके : अगदzbala-श्र० झाग निकालना। दोनों अग़लों पर स्थित होते हैं और जिन पर : श्रमama- एक ही प्रकार का भोजन करते पशु कात्री के शिर जुड़ते हैं । पाश्चात्य कूट, करते उकता जाना | इतना अधिक भोजन करना पश्चिम प्रबर्द्धन | लेटरल प्रोसेस (Lat- कि करीव तीर्ण के हो । सनक और अज्म के eral process)-इ. । भेद को "सनक" में देखें। अज्जिह ह .सगोरह ajniha hisaghirsh-अज़ा a.ma-३० निराहार रहना, उपवास करना अ० अनिह ह, कबीरह, बतदी,अस्तीनी | जतू. -हिं0 1 फास्ट (Fast)-इं० । कास्थि, तितली स्वरूपास्थि-हिं० । स्फीनॉइड | अज म aazma-१० (ए०व०), इजाम् (ब० ( Sphenoid )-'OI व०)। उस्तखाँ-फा० । अस्थि, हड्डी-हि. अक azia-अ० प्रण पूरित होना, घाव भर बोन Bone, श्रॉसिस osis (ए०१०), जाना, आत का अंगूर ले पाना । ग्रेन्युलेशन ___Bones बोन्ज, घाँसा ossa (ब० व.) (Granulation)-ई। अजफर azfara-० साधारणतः उमगंध चाहे धुरी नोट--यह मून धातुओं अर्थात् अवयवों में हो या अच्छी । विशेषण या संबन्ध द्वारा इसमें से एक कटोर व श्वेत अवयव है जो अपनी कठो - भेद किया जाता है अर्थात् इस शब्द का सम्बन्ध रता के कारण दोहरी नहीं हो सकती। यूनानी यदि किसी अच्छे या सुगन्धित द्रव्य से हो तो वैद्यक के अनुसार यह वीर्य से उत्पन्न इससे कोई उम्र सुगन्धित द्रव्य अभिप्रेत होती और शरीरका अाधार बनती है । For Private and Personal Use Only Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अंज म अरीज जम मुदरखरी (अायुर्वेद में अस्थि की उत्पत्ति मेद धातु से अजम कासिमुल अफ aazma-qasimulमाना है कि धीर्य से ) विस्तार हेतु देखिए- anfa-अ० उत्तखाँ परदहे-बीनी- फानासा इजाम। फलकास्थि-हिं० । वोमर ( Vomer'), अजम अरोज़ aazma-aariza-अ० चौड़ी बस वोमर (os vomer) ई०।। अस्थि, कुकुन्दरास्थि, नितंबास्थि, रिकास्थि, चूतड़ अज़म कुर्सना aazma-kursani-अलवली को हड्डी। सैकन (Suerun )-इ। -श्र० । वत्तलक, मटराकार, गोलाकार-हिं। देखो-त्रिकास्थि । पिसीफॉर्म ( Pisiform)-इं। अज़म अल्फ़नो aazma-asfanji-० अज़म : श्रजम खञ्जरी aazma-khanjari-अ० वतदी ( स्कोनॉइड ) का बह पतला परत जससे ग़जरूफ रखञ्जरी, गजरूफ सैफी उस्तखाँ, खारी प्रारम्भावस्था में इसके दोनों रन्ध्र बन्द रहते हैं। । -फा । खरनमा हड्डी-उ०। वकास्थि. दात्रझझरास्थि चूड़ा। एथ्योइडल क्रेस्ट ( Eth- वत्, फणधर-हिं०। प्रन्सिफॉर्म(Uneiform), moidal erest)-ई । हैमेट बोन ( Hamate bone)-इं०। । अज़म अस्फजो अअला-aazina-asianji- अज़ म नर्स aazma-nardi-० अनर्दी । नर्द aala-. ऊध्वशुक्तिका, अलसीपाकृति । नुमा हड्डी-उ० । घनास्थि-हि० । क्युबाइड सुपीरियर कोचा (Supeior concha), (Cuboitl)-ई० । । सुपीरियर टर्मिनेटेड बोन (Superior Tur- | अज.म मशाशो aazma-mashashi-०. binated bone )-301 ___ अज म असामी । झझरास्थि चूणा हिं० । ज़म अस्फ़जो अत्फल aazma-asfanji- - - एथाइडल क्रेस्ट (Ethmoidal crest ) asfal-अ० अज म मशाशी अस्फल, अज मु. ई० । देखी-इज़ाम मशाशियह, तथा असम स्सदाह अजम-मुल्तवी । उस्तखाँ सदी, सीप- समी असफल इत्यादि । नुमा हड्डी फा० । अधः सीपाकृति, अधः अज़म मइय्नी aazma-muaiyni अम्मुरउग्रशुक्तिका-हिं० । इन्फ्रीरिअर कोचा (Inferi अउल, मुन्ह रिफ-ऋ० । विषमकोण चतुर्भुजास्थि or concha), इम्फीरियर दबिनेटेड बोन -हिं । यह उन स्वरूप की अस्थि पहुँचे की ( Inferior Turbinated bone ) संधि की दूसरी पंक्ति की अस्थि और संधि की -इं०। वाह्य पोर स्थित है। ट्रेपीजि श्रम् ( Trapeअजम अस्फी मुत्यस्सित-aaz.ma-asfa-. zium)-इं० । nji mutvassit-१० मध्य सीपाकृति, । अज म मुकद्दम रास ३azina-muqaddamमध्यशुक्तिकाहि । मिडिल कोचा, middle । las-० ललाटास्थि-हिं० । फ्राएटल बोन concha), मिडिल टर्मिनेटेड वोन (Midd (Frontal bane)-ई। देखो-अज़ मुल le Turbinated bone)-इं०। जव्हह । अजमकमह. दुबह azma-qamah-duvah-. अज़.म मुबलबर रारू-aazma-muvakhkh. अ० (Occipital bone ) अल्मुपख्तिरी, ! 61-lasa-० पश्चात् कपालम् पश्चात् अजममुबखर रास । उस्तखाने कहा--फ। ___ कपालास्थि, गुद्दी की हड्डी-हि. ! ऑक्सीपीटल गुद्दी की हड्डी, शिर की पिछली हड्डी, पश्चात् . योन (Occipital bone)-इं० । देखोकपालास्थि-हि० । अज़म मह दुबह । अज म काइदतु द्दिमाग़ āazina-qaaidatu- ; अज म मबख्खरी aazma-muvakhkhari ddimāgh-१० मस्तिष्क तलास्थि, जतूकास्थि : -अ० पश्चात् कपालास्थि, गुडी : की हड्डी -हिं० । देखो-अज़म वतदो। (Sphenoid | -हिं०। प्राक्सीपीटल बोन (Occipital bone )i bone )-ई. । देखो अज म कमह दुवह । For Private and Personal Use Only Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अंजुम रिका १६८ अमरिका azmarikabi o धरिका । रकावास्थि - हिं० । सेप्स ( Stapes ) - इं० अज़ म ला इरम लह aazma laism-lah अ० उस्तखॉ बेनान। बेनाम, हड्डी-फ़ा० 1 (--) नाजास्थि - हि । ग्रॉस इन्नॉफिनेटम् ( Os innominatum )-इं० 1 नं. ट - एक प्रस्थि में यह तीन भाग होते हैं अर्थात् ( १ ) १ जार चरिक, (३) स्थान देखिए । (२) श्रज़ मुल् ज़ मुल् कानह जिनको यथा अ अमलाकaarma-miso मुलसान | रानफू० | कान की हड्डी, यह हड्डी युनानी अचर लामकी सी होती है और कंप्र जिह्वामूल में स्थित है । करिक स्थि-हिं० । अजू मसिन्दानी āazma sindání अ० श्रस्सि स्थान | नेहाई, कर्णान्तरस्थ शूर्मिकास्थि - हिं० । इङ्कस ( Incus ) ० । अज्महajmah ऋ० नैज्ञार, नेस्ताँ फ़ा० । दलदल, फँसाव - र्हि ० | मार्श ( Marsh ) - इं० अमा aazmá- ० मापभेद। यह सात श्रौक्रियह या उनतीस तोला ८ मा० २ रती २६ तो० ८ मा० २ २०) के बराबर होता है । A measurement equal to 29 tolas,8mashas & 2ratis. साइड (Os hyoid ) - इं'० अज़मती azma vatadi oज़ मुल् तद । उक्तखाने क्रइतुरिमाग़- फा० । करोदि सलास्थि । अतूकास्थि - हिं० स्क्रीनाइड दोन ( Spheroid bone ) - ० | #73 ofayefaaaazma-shabiyha bilmaaiyni अॅ• श्रशवियह बिलमुन्हरिन । ट्रैपीजाइड (Trapezoid)-० अज्माश्रू āajinaa-० बहीमह, चौपायह, उ० । वह स्त्री जो शुद्ध बात न कर सके, गूँगी या हकली की हि० । ऋज्ञ मान ãazmána-० (अजूम का द्विवचन) दो अस्थियाँ, किसी स्थानकी दो अस्थियाँ । श्रच्छेदशास्त्र की परिभाषा में यह शब्द ऐसे स्थान पर अर्थात् तालू की अस्थियाँ इत्यादि । श्रमिदह azmidah - ० ( ० ० ), जमाद ( ए० ० ) लेप, अनुलेप-हिं० । पेस्ट Pas te-gol | | अज़ मुज्ज़री Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अज मुलअन् बोला जाता है जहाँ एक समान दो अस्थियाँ पाई जाती हैं। उदाहरणार्थ जु माउल्फ अर्थात् नासिका की दो स्थियों और ऋतूमा उल्हन क ( Scaphoid ) -- इं० । अज़ मुज़ौज anuzzouja i āazpuzzouragi - श्र० जौरी | नौकाकृति- हिं० । स्फीड अज मुस्सु द्ग़- अ० उस्तत्राँ बिनागोश- फा० । शंखास्थि-हिं । टेम्पोरल बोन ( Temporal bcne ) - इं० | देखो - अजमुस्.सु.द्ग । अज़मतकुबह-Āazmuttarquvah-श्रत कुह श्र० उस्तखाँ चम्बरहे गर्दन फा० । अक्षकास्थि, हँसली की हड्डी । यह संख्या में दो होती हैं जो वद के ऊपर प्रीवामूल में स्थित हैं । ॐ विकल ( Clavicle ) - ई० । अज़ मुद्दम्य azmuddama श्र० भज़ मुलमान, श्रृज म ज फ्री । उस्तखाँ गोशहे चश्म उस्तम्नाने मरश्क-फा० । अवस्थि, सू की हड्डी, जो अन्तरीय चक्षुकोण में नख के बराबर होती है। लैक्रिमल (Lacrimal ) - इं० । ऋजू मुर्रज फुह aazmnrrazfah अ० श्रजुमुरु वह । उस्तखाने जानू - फ्रा० । पाली, जान्वस्थि - हिं० । पैटला ( Patella ) ई० । मुल्य aazmul-āaqba-श्रञ्ज-०। उस्तवाने पारह - फा० । पार्थस्थि, पाणि, एड़ी, कूर्च हिं०। कैल के नियम ( Calcaneum ), श्रस कैरिरुस (Os calcis ), होल ( Heel ) - इं० 1 1 अमुल अजुज़ aazmulaajuzo श्रज मुल् अज्व, अज मुल अरीज़, अलअजुन । उस्तवाने सुरीन फा० । त्रिकास्थि - हिं० । सैक्रम ( Sacrum ) - इं० । अज़ मुल्झन्फ़ 2azmular fa० उस्ताखानेबीनी- फा० । नासास्थि - हिं० । नेजल बोन ( Nasal bone ) - ई० । For Private and Personal Use Only Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अज मुल अर्जद अज मुल हजबह अजमल अज़द aazmuj-aazuda-१०! अज़ मुल फ़ाइक aazmul-faiga-१० देखो उस्तरवाने याज़ का० । प्रगण्डास्थि,बाहु-हिं०। अज म लामी । कंठिकास्थि-हिं०। (Osआर्म (Arm ), झुमरम् ( Humerus): hyoid.) अज़ मुल मशाशियुल अस्फल Jazmul-maश्रत मल श्रानह, aazimmu-aailah-अ० shashiyul-asfal-अ० अल करीनुल श्रभगास्थि, पेड़ की हड्डी-हिं०। श्रास प्युबिस । फल,अजम अस्फ़जी अस्फल । सीपीनुमा हड्डी ((Os pubis )-ई। . -उ० ! अधः शुक्तिका, अधः सीपाकृति-हिं० । अजमल उस उस aazmul-ausaus-अ० इन्फीरिश्रर टर्बिनेटेड बोन ( Inferior अल उस उस । उस्तखाने दुम-फो। दुम्ची की| . Turbinatead thone )-इं० । हड्डी-३० । गुदास्थि, पुच्छास्थि, चञ्च्वस्थि अज़ मुल मा aaunul-nnaqa-अ० उस्तवाने -हि. । कोकसिक्स (Coceys)-इं०। गोशहे चश्म -फा० । देखो-अज़ मुद्दम्भ । अज मुलक अ य aazmulikaaba-अ० अल्- | अवस्थि-हिं. ! (Lacrimal.) झु.ई । उस्तरवाने बुजूल-फा० । टखनेकी हड्डी अज मुल मि.त्रको aazinul-mitrani-१० -हिं० । अस्ट्रागेलस (astragalus)-इं०। । अमिन रकह । मुद्रास्थि-हिं० । मालिस आज मुल कति aazinut-katif-० अल्लौह । १० अल्लाह (Halleus)-३० । । उस्तवाने शानह -फ० । स्कंधास्थि, अंसफलक -हिं० 1 स्केपुला (Scapua)-ई। अज मुल् मिस फात aanti-misfata-१० अज मुल काह, दुवह aazmul-qamah ___ अज.म मशाशी । छलनीनुमा हड्डी-उ० । duvvith-अलमुवावरी, अज म मुबलवर रास झझरास्थि, बहुछिद्रास्थि-हिं० । इमॉइड बोन -० । उस्तखाने कफा-फा० । पश्चात् कपा (Ethmoid bone )-ई० । लास्थि, पश्चात् कालम्-हिं । प्रॉक्सीपीटल ! अज मुल याफ़ख aazmal-yaf ukha-१० बोन (Occipital bone)-इं०। ताल्वस्थि, पाश्चिकास्थि-हिं० । देखोअज मुल कस स aazmul-qassa-अ० उस्तखाने | अज मुल किह.क । (Parietal bone.) सीनह -फा० । वक्षोऽस्थि, उरोऽस्थि, उरः | अज़ मुलवजनह aazmu]-vajnah-१० फलकम्-हिं० । स्टर्नम ( Sternuun ) । उस्तनाने हसार-फा० । कपोलास्थि-हिं० अज मुल् किह फ aazmul-qihfa-१० | (Cheek bone). अन मुल्याफोरख, अल्जिदारी । उस्तखाने अज मुल वतीरह aapmul-ratirah-१० कासहे सर-फा० । पाश्विकास्थि,पाश्विक कपा श्रृजम कासिमुल अन्झ, अलमेकशाह । नासालम्-हिं० । पेराइटल बोन ( Parietal-bo. फलकास्थि, नासावंश-हिं०। प्रॉस बमर ne )-इं०1 (Os romer', बूमर (Vomer ) अज मुल जन्य aazmul.janbi-अ० शंखा. स्थि-हिं० । देखा-अज़ मुस्सु.द्ग़ । (Pemporal bone). । अज मुल वरिक aazmul varika-१० उस्तअज मुल जव्हह aazmul-ja.bhah-अ० खाने निशिस्तगाह-फा० । कुकुन्दरास्थि अल्जव्ही,अजम मुहम राम । उस्तम्याने पेशानी' -हि० | बॉस इस्कियम ((Os ischium), -फा० । ललाटास्थि-हि । फ्रॉण्टल बोन! इस्किअल बोन (Ischial bons)-ई। ( Frontal bone )-ई। अज मुल हजबह aazmul-ha.javah-१० अज मुल खिज़ aazmal-fakhiz-अ० सर उस्तनाने निशिस्तगाह-फा० । कुकुन्दर अल्फ़नज़.! उस्तवाने रान-फा। उर्वस्थि पिण्ड-हिं० । इस्किप्रल ट्युबमिटी (Ise. -हिं० । फ़ीमर ( Femur)-इं० । hial tuberosity)-ई। २२ . For Private and Personal Use Only Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अझ मुल हलो अज रास सु..लासि यह आज मुल हब्री aazmul-hajri-१० उस्तखाने देखो--अज़ मुश्शसी । वक्रास्थि--हिं० । (Unc सङ्गी-फा । अश्मास्थि, अश्मकृट-हिं। iform). पेट्रोसल श्रोन ( Petrosal bono ), पेट्स | अज मुस स दूग aazmussualgha-१० प्रोसेस ( Petrous process)-ई०। अससुद्गी, अज़ मुरूजन्य | उस्तखाने-बिना-गोश अजमुल हनक aa.zmul-hanaka-१० -फ़ा० । शंखास्थि-हिं०। ( Temporal उस्तखाने काम-फा० । ताल्वस्थि-हिं० । boue) पैलेट ब्रोन( Palate bont: )-ई। श्रज मे कबीर azmerka bilku--१० पहुँचे अज़ मुल हर्कफ़ह. aazmul-harqafah-१० (कलाई),की बड़ी हड्डी। अज मुल खासिरह । उस्तखाने तिरगाह-का०। श्रीस मैग्नम (Os magnum ).-६० । जघनास्थि, नितम्बास्थि-हिं० । ईलिश्रम् । अजय zya-० अजय्यत । दुःख, क्लेश-हिं० । ( Ilium), ईलिक रोन (fliac : इञ्जरी ( Injury)-10। bone), ॉस काक्सी (Os coxa)-ई० असक azraga-० जुर्कम, ज़रका (स्त्री०)। बिअज़ मुश्शसी aazmushshasi-१० अल्क- लाव जैसी चतुओं वाली-हिं० । गुबह चश्म-फा० । लाबी, असि सनारी । फणधर, वक्रास्थि, दात्र-! अजद ajrada-अ० जिसके सिर पर बाल न हों, वत् हि । अन्सिफ़ॉर्म ( Uncifornm )), . गमा, चन्दला, खालित्थी-हिं० । बल्ड (Bald) हैमेटबोन ( Hamate bone)-ई० । । । अज मुस सफ़ह, aazmussadfah.अ. श्रधः । अबब ajraba-अ० जर्ब अर्थात् तर खाज ( कण्ड) शुक्तिका-हि० । देखो-अज म अस्फजी अस्कल का संगी। स्कैबी (Seaby)-100 ( Inferior turbinated bone. ). । अज्जम aajrama-R० बीन ज़कर-फा० । शिश्न. अज़ मुम्सफ़ोनी aazmussafini-१० अल्ह-: मूल-हि. | रूट अंक दी पेनिस ( Root of रमी । कलाई की नौकाकृति अस्थि । क्युनि- the Penis)-इं० । श्राईफ़ॉर्म ( Cumeifotin)-ई। श्रजा aaura-अ० विक्र,दोशीज़ह., कुंवारी लड़कीअज़ मुस्सफ़ीनियुलइन्सी aazmussafiniyl- --उ० । कुमारी, कुवारी, अक्षतयोनि, अविवाहिता i-insi-१. अल्पस्सफ्रीनियुल्सव्वल । अन्तः -हिं० । वर्जिन ( Virgin),मेडन (Jlailत्रिपाश्चिक-हिं। en) इण्टर्नल क्युनिश्राईफ्रॉन ( Intermil : अज़ार लह. मिय्यह azaara-lahmiyyahcumeiform)-६०। अ० जख्मके अजर--उ० । ग्रेन्युलेशन (Grallअज मुस्सफ़ोनिय्युल्बस्ती aazmissefiniy. ulation) इं० । लाङ्कुर ।। yrl-vasti-अल्मस्फीनियुल सानी-१० । मध्य- 'अजास zrasa-० (ब० व०), जिर्स (२० त्रिपाश्चिक-हिं० । भिड्ल क्युनिघाईफ़ार्म : व०) हन्वस्थि--हिं० । मोलज (Molars) (Miillo cuneiform )-- --९०। अज मुस्तकोनियुत्वह शो aazmmssatini- ! अज़ास खुमासियह azrasa.khumais yyul-vahshi-अ० अल्पस फ़ीनियुल सा- ___iyah-अ० पञ्च उभार युक्र सिरे की दाढ़ें। ल स । बहिः त्रिपाश्चिक-हिं०। अज़ास बायहazrasa-tubaaiyahएक्सटर्नल क्युनिआईफ़ार्म (Externa] अ० चार उभार युक्र सिरे की दादें । cumeiform)-इ० । अज गस स नाइयह lisa-sunaiyah अज़ मुस्स बक़ aazmussa baqa-१० अरन, -अ० द्वि उभार युक्र सिरे की दाढ़ें। पर जो घोड़े व गदहे के खुरों से ऊपर होते हैं। | अज रास सु..लासि यह azlisa- stulasiअज़ मुसि सनारी a zimussinari--१० yah-१० तीन उभार युक्त सिरे की दा For Private and Personal Use Only Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org जराल, हु, हम अर्थात् वे जिनके वाह्य सिरे पर जरा जरा सी तीन उभारें होती हैं। अज्ञ रासुल हु.हम azrásulḥulma-o I कल दन्त, बुद्धि, दन्त-हिं० | अक्कल दाढ़ें अर्थात् अंतिम की चार दादें जो युवावस्था ( बालिग़ाaar ) पश्चात् से पचीस वर्ष तक के काल | मैं निकलती हैं । अम्ल ajla - अ० ( ५० व० ), श्राजाल ( ब० To ) मुहत, उम्र, मौत - उ० । काल, अवस्था, मृत्यु - हिं० । डेथ ( Death ), मॉर्टिफिकेशन (Mortification) fo अल अबल ajla atvala-० लम्बी मौत, वह मत्यु जो सब से बड़ी अवस्था अर्थात् १२० वर्ष की अवस्था में आए । अल आज ajla āarzi- अ० श्रज्ल हख़्तरामी । स्वाभाविक मृत्यु, अप्राकृतिक मृत्यु, अचानक मृत्यु - हिं० | सडन डेथ (Sudden death) -- इं० । १७१ अल इतरामी ajla ikhtarámi ऋ० देखोअजल श्री । अचानक मृत्यु श्राकस्मिक मृत्यु - हिं० । ( Sudden death ) अज्लज् ajlaj - श्र० जिसके शिर के दोनों बगल के रोम गिर गए हों | श्रज्ल बोई. ajla-tabiai- अ० तुबई, मौत, बुढ़ापे की मौत-उ० । प्राकृतिक या स्वाभाविक मृत्यु अर्थात् वृद्धावस्था के कारण होने वाली मृत्यु | नेचरल डेथ ( Natural death ) --० । अजुलाअ, azláā-० ( ब० ब० ), जिल् ( ० ० ) पसलियाँ- उ० । पशु काएँ हि० । रिब्ज़ ( Ribs ) - इं० । अजलाअ हकीकिष्यह् azlā haqiqiyyah -अ० श्रृज्लाश्रू खालसह, श्रजुलाच सादिक, अजुलाउ रु. सद्र, जुला, मकफ़लह । सच्ची पसलियाँ - हिं० | रिब्स ( True ribs ), स्टर्नल रिन्ज़ ( Sternal Ribs ) - ई० । प्रजलाल खुल्फ़ azláāul-khulk -- अ० अजुलाउफ़्ज़ोर, अजुलान् काज़िय सूत्री पस श्रभिञ्जोमरम् लियाँ, प्राज़ाद पसलियाँ - उ० 1 फ़ाल्स रिव्ड़ा ( False Ribs ), फ्लोटिङ्ग रिब्ज़ ( Floa ting Ribs ), ऐब्डोमिनल रिज़ ( Abdominal Ribs) और वर्टिब्रोकॉण्डूल रिब्ज ( Vertebrochordral Ribs ) - इं० । अज्ञात āazlát - अ० ( ब० व० ), अजलह ( ए० ० ) देखो श्रृजल अज्बा ajvaf - अ० ( ब० च० ), जौफ़ ( ए० च० ) गढ़े, पोल - उ० । नालियाँ, को - हिं० | बेलीज़ (Bellies ) - इ० अबाज azváj—० ( ब० ० ), जौज ( ए० च० ) जोड़े, नाड़ियोंके जोड़े, युगल, युग्म - हिं० । अज्सम ajsam- ऋ० जसीम, बद्दीन, समीन, मोटा, चाक - उ० | स्थूल, मेदावी, वृंहित- हिं० । iig लेट ( Corpulent ) – इं'० । श्रज्साद ajsád—श्र० ( ० ब० ), जस्द या जसद (५० व० ) १ - बदन - उ० । शरीर, वस्तु - हिं० | बांडीज़ (Bodies ) - ई० । २धातु (Metals ) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir असाम तुवामिह श्रह, ajsám-turá miyyah-arbaåah ) - ० साम अअह । चार जुड़े हुए छोटे छोटे उभार जो बृहत् मस्तिष्क में पाए जाते हैं । कापोरा क्वाड्रिजेमिना (Corpora Quadrigemina. )-go | असाम दसिमह ajsamadasimah--अॅo वसा वा तैलीय पदार्थ, यथा - तैल, वसा ( चर्बी ) वा मल्हम प्रभृति । फैट्स ( Fats ), ब्रॉइली सब्सटैम्सेज़ ( Oily substances ) -- ०। श्रज्साम मुजलग्रह ajsáma-muzalaã aho असाम मुखत्त तह । रेखांकित प्रव. र्द्धन धारीदार उभार - हिं० | कॉर्पस स्ट्राइटम (Corpus striatum )--goi श्रज्साम शरियह, ajsáma-shaāriyyah -- अ० लोमश या रोमयुक्त सेलें । सिलिएटेड सेल्ज़ (Ciliated cells )--go 1 अजूहान azhana - झ० ( ब० ब० ), ज़िहन ( ५० व०) बुद्धि, समझ, स्मरणशक्रिः । श्रमिजी ajhinji-ता० श्रभिओमरम् ajhinji- maram~~aro } For Private and Personal Use Only Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अञ्चकम् प्रज्जदान ठेरा, अकोल (Alangium Dcapeta- रासायनिक संगठन-एक उद्दनशील तेल, lum, im.) शर्करा, पैक्टिन ( Pectin) नीबू और सेव अञ्चकम् anchakam-सं० क्लो. नेत्र, चक्षु, के तेज़ाब (Citric and malic acids), आँख । ऐन-२० । चश्म-फा० । श्राई (Eye) खनिज तथा रक्षक पदार्थ, कुछ स्खनिज लवण --इं०। रा०नि०व०१८ । और जल | अञ्चञ्चक anchanchak--अञ्जकक । Pyrus गुणधर्म-यह ज्वरतापशामक है। ताज़े होने communis ( seeds of-) Flo to पर यह केसरी (Strawberry) के अति१भा०। रित किसी भी अन्य फलकी अपेक्षा तृष्णा शमन अश्चित anehita-हिं० वि० ( Rent; cills- हेतु श्रीप्टतर है। इसको अकेले खाने से प्रामाराय ed) झुका हुआ, तिछो, टेढ़ा। में अम्लीय संधानोद्भूत होने की आशंका नहीं अञ्चसा anchusa-यु०, रू. अजुसा। दम्मुल- रहती | इसका अचार अथवा मुरम्मा सातम अवैन, खुनाखराबा, विजयसार निर्यास | फा० पदार्थ है । अञ्चू के पत्ते का शीत कषाय तीब्र ६.२ भा०। अांत्रशैथिल्य, प्रवाहिका, विसूचिका, शिशुम्याधि अञ्च unchu- नेपा०, हिमा०, प्रसिद्ध । कलहेर, : तथा उत्तापल्यथा और भामाशय द्वारा रकस्राव में कलहिसरा (-री )--गढ़०. हिं० । फ्यु फ्लावई : उत्तम श्रीरध है । ई० मे० मे०। रेस्पबेरी (Few flowered raspberry) अञ्ज āanza--.. बकरी-हि०। (Sho-gont) -ई। रशुबस पासीफ्लोरस ( Rubus अक्षunzui-. जिसके ललाट के दोनों pauciflorus लिकियाई (R. बगल से रोम जाते रहे हों। wallichii )--ले०। ई० मे. मे० । इ. अखकक anjakak | हैं. गा०। अञ्जकक anjukek-का० कु.तुम हिन्दी । गुलाब वर्ग (ये जङ्गली अमरूद के बीज हैं जिनका छिलका (NO. R.Uncrete ) श्यामवर्ण का होता है। ये विहीदाना से किसी उत्पत्ति स्थान-नेपाल, हिमवती-पर्वतणी । भाँति बड़े और उसके सरश त्रिकोणाकार होते तथा उत्तरी पश्चिमी भारत । ब्रिटेनमें यह जंगली हैं। इनके भीता से श्वेत गूदा निकलता है)। पौधों की तरह बहुतायत से होता है। फा० इ०१ भा० | Anjukak, Pyrus वानस्पतिक विवरण यह एक झाड़ी है communis (seeds of-) जिसका तना सीधा होता है और जिसमें असख्य . अजद anjad.-अ.. मुनक्का के बीज (तुम सुक्ष्म मई कस्टक लगे होते हैं। पत्र गुलाब के मवेज़ ) अथवा फलों के दाने | ममान और कॉपल बदामी रंग के मखमली जी : प्रदान an jadan-१०० यह अङ्गदान से देखने में अत्यन्त मनोहर प्रतीत होते हैं। पए श्ररमो बनाया हुआ शब्द है जिसका अर्थ अङ्ग अत्यन्त सूक्ष्म श्वेत और गुच्छे मैं पाते हैं । फल का दाना अर्थात बीज है। इस वृक्ष के पद को गोल और रक्क, पीत एवं श्वेत वर्ण के तथा रस से | हींग कहते हैं । इसी कारण हींग का फारसी परिपूर्ण होने हैं। फलका ऊपरी धरातल सूचम मदु : नाम अमजद अर्थात् अङ्गका गोंद है। इसके मूल गोलाकार दानों से युक्त होता है। फूल गुच्छों में : (बीख़ अनदान ) को अरबी में मजरूस और अथवा अकेले होते हैं। रस मधुराम्ल और सुस्वादु : ऊदुहह कहते हैं। इसका बीज किसी किसी के होना है । बीज अस्यन्त सूक्ष्म और गोल होते हैं। विचार से काराम है। चैत में यह पुष्पित होता है तथा प्रापाढ़, श्रावण नोट-अङ्गदान का वृक्ष काशम वृक्ष के में इसमें पक्क फल प्राप्त होते हैं। पीले फलवाले समान होता है तथा यह खुरासान, मार्मीनिया को गढ़वाल में पांडा कहते हैं। और भारतवर्ष के पर्वतों में उत्पन्न होता है। For Private and Personal Use Only Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भ्रमदान रूमी १७३ श्रञ्जनगुटिका फेरयुला फोटोढा ( Ferule Foetida, गृहगेाधिका, छिपकलो-हिं० । टिक्टिकी-बं० । R-gpl.)--ले। दी गन रेज़िन (The वै० श० । देखो-ज्येपी। ggium resin )--ई० । फा. इं० २ भा० । अननक anjanal:a-हि. पु. अञ्जनभ, सुमा देखो-हींग या हिङ्गः। _ । (Antimony). अञ्जदान रूमो anjadana-lumi-०३० । अखनक कल्ल' ah janak-kallu-ता० मुर्मा सोसालियूस (भापङ्गी); कोई कोई काशम . -हिं० । (Antimony sulphide). को कहते हैं। (Sce..Sisaliyus) देखो-अञ्जनम् । स० फा० ई० । अजदान विलायतो anjidana-vilayati'. , अञ्जन कर्म anjana-karmma-सं० क्ली. -अ०३० अगदान--फा हिज, हींग का वृक्ष । ' (Ferula Fætida, Regrl.) (१) नेत्रप्रसादन ( Anointing or अवदान स्याह anjadānarsiyah-१० कमात । making clear ) सुर्मा, काजल, जन हींग वृक्ष, हि । फेरशुला फेरिडा ( IFerula -हि० देखी अञ्जनविधि । foetida, Regel. )--ले। अञ्जन का पत्थर, anjana-ka-patthar द. अञ्जन anjana-हिं० संज्ञा पु०(१) वह औषध सुमा-हिं० । अञ्जनम्-सं० । ऐरिस्मोनिश्राई जो आँख में डाली जाती है। (२) स्रोताञ्जन सल्फ्यु रेटम Antimonji sulphure tuna सौवीर-सं। अञ्जन, सुर्माका पत्थर-हि०।ऐस्टि ले०। सल्फ्युरेट श्राफ़ ऐरिटमनी sulphu. मनी सल्फाइड (Antimony sulphitle) ret of Antiinony-ई। रू०फा०ई० । -ले०। किर्मीज़ निनरल (Kermes mine. अञ्जन शिका anjana-keshika-संत्री। ral), ब्लैक ऐएिटमनी ( Black anti अञ्जनकेशी anjan-koshi- , (१)हनु-हविलासिनी, नखी, नख-60) नातून mony) ई० ।। ई० मेम्मे० देखो. अञ्जनम् देव, छोटे नख को कहते हैं-हिं । नास्त्र न पर्या ( ३ ) धोधुधेरा ( गोण्डा )। मेमां० । -फा० । अज फारुत्तीब-अ Helix ashe(४)-वर्ना० अनि, याल्की, कुर्प, लोखण्डी ra हेलिक्स प्राशरा-ले० । शेल Shell-६० । -म० ! काशमरम्--ता० । अखिचेड्डु --ते० । सुर्मा : (२) नलिका नामक गंध द्रव्य । यह उत्तरी देशों -कना०। बरीकहा, सेरुकाय--सिं० । श्रनो , में प्रसिद्ध हैं | ए वेजिटेवल पफ्यूम A vege. -स० । मेनीसीलोन एडली ( Memacy. table perfum:-इं० । मा० पू० १ भ. lon Edule, Hort. )ले० । प्रायनवुटु । ट्री ( Iron-wood tree )--ई० । मेमी क०व० । देखो-नख । सीलोन कमेस्टिवल (Memacylon com. : .. अञ्जन गुटिका anjanil-gutika-सं० स्त्रो० estible) फा० १० । देखो--अञ्जनो। (१) सोंड, मिर्च, पीपर, करंजफल, हरदी, विजौरे की जड़, इनकी गोली बना छाया में शुष्क (५) कहुश्रा, अजुन, अर्जुना-हिं० ।। अर्जुना-पं० । हाल-उड़। अर्जुना मं०। ___ कर नेत्रांजन करने से विशूचिका (हैजा) दुर वेलमर वेशमट्टी-ता० । मही, विल्लीमट्टी-मै०। होती है। (२)महा पुष्प, श्वेत अपराजिता, अपा एरमही, टेल्लामडु-तै। तौक्यान-ब। रर्मिनेलिया अर्जुना (Terminalia Arjuna, मार्ग मूल और त्रिकुटा इनकी गोली बना नेत्रांजन Bedd.)-ले० । मेमो०। -पं० घरवा, कुसा करने से विशूचिका दर होती है । -उ. प. प्रा० । मेमा । पं-पेनिसेटम् सिंको.' (भैष० र० अग्निमांचि .) श्रॉइडिस । (३) मैनसिल, देवदारु, हल्दी, दारुहल्दी, अञ्जन anjan-देखो-अञ्जनम् (सुर्मा) । अथ० | श्रामला, हड़, बहेड़ा, सोंठ, मिर्च, पीपल, लाख, सू०६।३ । का०४। लहसुन, मंजीठ, सेंधालवण, इलायची, सोनाप्रअन anjana h-सं० पु. ( A lizard ) : माखी, सावर लोध, लौहचूर्ण, ताम्रचूर्ण, काला. For Private and Personal Use Only Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अञ्जनगुड़िका १७४ अञ्जनम् नुसारिवा, मुर्ग के अंडे का छिलका, इन्हें समान अञ्जन दृष्टि प्रसादनो शलाका anjana-diisभाग लेकर स्त्री के दूध में घोटकर गोली बनाएँ । hti.prasādani-shalalki-संत्री शुद्ध इसका अञ्जन खाज, तिभिर, शुक्रार्म तथा नेन की । सीसे को बारम्बार तपाकर हड़, बहेदे, आमला, रक्र रेखा को दूर करता है। के रस में, घी में, गोमूत्र में, शहद में, तथा बकरी (४) काँसे के पान के रगड़ने से उत्पन्न । के दूध में बुझाएँ, पश्चात् उक्र सीसे की सलाई स्याही, मुलटी, सेंधालवण, तगर, एरंड की जड़ बनाकर नेत्रों में फेरें तो नेत्र सम्बन्धी समस्त इन्हें बराबर लें, तथा इनमें से एक से द्विगुण रोग नष्ट हों। बड़ी कटेली मिलाएँ, इनको बकरी के दूध से (भा० प्र० ख० ने० रो० चि०) पीसकर ताम्र पात्र पर लेप करें। इसी तरह सात : अञ्जन नामिका anjana-namika-सं० स्ना. बार बकरी के दूध में पीस पीस कर उऊ पात्र । (Stye) नेत्रपरम में होने वाले नेत्ररोग का एक पर लेप करें और छायामें शुष्क कर वटी बनाएँ। भेद । यह रोग कसे उत्पन्न होता है। यह बरौं. यह अञ्जन नेत्र रोग को दूर करता है। हियों ( नेत्रपक्ष्मों) के मध्य में अथवा किनारे की (सु० सं० अध्या० १२, नेत्र रोगचि.)! तरफ खुजली, माह और वेदना से युक्र, ताम्र वर्ण (१) गेरू १ माशा, मेधा लवण २ मा० की, कोर, मुंग प्रमाण की फुन्सियाँ होती हैं। पीपर ३ मा०, तार मा०, इस प्रकार ले इनमे । इन्हें अञ्जन रोग अथवा प्रजनमामिका कहते द्विगुण जल से खरल करें, पुनः गोली बनाकर हैं। वा० उ० - अ० । जो फुन्सी दाह, सुई नेत्रांजन करने से नेत्र रोग दूर होता है । चुभाने को सी पीड़ा वाली, लाल, कोमल छोटो (भैष० र० नेत्र गे० चि०). और मन्द पीड़ा बाली ने के कोपे में उत्पन्न होती प्रअनगुडिका anjana-gurika-सं० स्त्री० है उसको अन्जना (अजनहारी ) या श्रञ्जन विसूचिका में प्रयुज्य औषध विशेष, यथा-महुआ नामिका कहते हैं । यह रक से उत्पन होती है। के पुष्प का रस, चिर्षिया बीज, अपराजिता मूल, म.०नि० । हरिद्वा और त्रिकटु । इनका अञ्जन करना । (च० अञ्चन पम्रो anjana-patri-सं० श्रो० (१) द० अग्निमांद्य चि०) भंग के पत्ते Cannabis Indica, Linn. अञ्जन ताडनाधुवायः anjana-tāranadyai ( Leaves of-)। (२) गाँजा । payah-स. पु. शुद्ध मनुष्य के प्राचार अखन भैग्वः anjana-bhairavah-सं० के नष्ट होजाने पर तीक्ष्ण नस्य, ती पण अजन, : प. पारा, लौहभस्म, पीपर, गंधक इन्हें एक एक ताइन तथा मन, बुद्धि, स्मति इनका संवेदन, ये भाग लें, जमालगोटा के बीज ३ भाग, इन्हें हित हैं। उन्माद से विस्मृति होजाने पर तर्जन : जम्भीरी के रस से अच्छी तरह पीस नेत्रांजन दुःखदेना, मांस्त्रना, हर्ष, आनन्द, भय दिलाना, करने से सचिवातवर दूर होता है। अप० २० । विस्मय (पाश्चर्यान्धित ) मन को प्रकृति में । स्थिर करें । काम, शोक, भय, क्रोध आनन्द, ईर्षा । अन माई anjana-mai-ता० सुर्मा । ऐरिट मोनियाई सल्फ्युरेटम् ( Antimonii Sulp. तथा लोभ से उत्पन्न उन्माद में परस्पर प्रतिद्वन्द : ___hure turn.)-ले. । देखो-अञ्जनम् । क्रिया से शाँत करें। वांछित द्रव्य के नष्ट होने से उत्पन्न उन्माद में तत्तुल्य द्रव्य प्राप्ति, शांति अञ्जन मूलक anjana-mulaka-सं० प्रथारह प्रकार के मनियों में से एक । यह नीला और तथा प्राश्वासन से उसकी शांति करे। (चक्र० द. उन्माद चि०) काला मिश्रित वर्णका होता है । कौटि० अर्थ । अञ्जनत्रयम्,-त्रित्रयम् anjana-trayam,- अञ्जनम् anjanam--सं० क्लो० ।। ) tritrayan-सं० ली. कालाञ्जन, स्रोताअन अञ्जन anjana--हि. संज्ञा ५० । और रसाअन । रा०नि०व०२२"यथा-काला. ( anointing, smearing with, अन समायक्र' स्रोतोऽअन रसाञ्जने।" mixing ) लगाना! For Private and Personal Use Only Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अञ्जनम् अजनम् ( २ ) Collyrium or black pigment used to paint the eyelashes प्रांजन,कज्जल,काजल । हे० च० लि. यो कामला चि०, रकपित्त चि.। । श्रअन--हल्दी, गेरू, आमलेका चूर्ण इन्हें द्रोण । पुष्पी ( गूमा के रस में मिलाकर अञ्जन करने से । कामलो दूर होता है। यो० त०पाण्ड०नि०। शिरिस श्रीज, पीपल, कालीमिर्च, संधा: नमक, मैनसिल, लहसुन, अच इन्हें गोमूत्र में पीसकर श्रअन करने से सनिपात रोगी चैतन्य होता है। यो० त० ज्वर० चि० । भैष. र० . ज्वर. चि.। करंज की मींगी, सोंठ, मिर्च, पीपर, बेल की जड़, हल्दी, दारुहल्दी, तुलसी की मंजरी इनको गोमूत्र में पीसकर अञ्जन करने से विषाक्त रोगी जी उठता है । यो त. विष नि। जमालगोटे का बीज शुद्ध ४. मासे, सोंठ, मिर्च, पीपर चार बार मासे इन्हें गम्भारी के रस में घोट अञ्जन करने से सन्निपात दूर होता है । शाई सं०म० ख० १२ १० श्लो० २१।। पीपर, मिर्च, सेंधालवण, शहद, गाय : का पित्त, इनका अञ्जन बनाकर नेत्र में आँजने । से प्रत्येक भूत दोषों से उत्पन्न उन्माद श्रीर' महानुन्माद का नाश होता है। भैष० र० : उन्माद० चि० । त्रिकुटा, हींग, सेंधालवण, वच, कुटकी, सिरस के बीज, करंज के बीज, सफेद ! सरसों, इनकी बत्ती बनाकर नेत्राअन करने से : अपस्मार, चातुर्थिक ज्वर, और उन्माद दूर होता है। च.द. उन्माद,चि०। तगर, मिर्च, जटामांसी, शिलारस इन्हें समान भाग ले, सर्वतुल्य मैनशिल, पत्रज ४ भाग( तगरकादि से चौगुने )तथा सबसे द्विगुण शुद्ध सुमो, और उतनी ही मुलहली लेकर बारीक : पीस प्रक्षन बनाएँ । सु. सं० उ० अ० १२।। हल्दी, दारुहरूदी, मुलेठी, दाल, देव. दारु, इन्हें समान भाग ले बकरी के दूध से : जन करने से अभिष्यन्द दूर होता है। भै० र० (३)Acosmetic ointment कांति जनक प्रलेप, वरयंलेपन । (४) Ink रोशनाई। (५) Night राश्रि, रात । (६) Fire अग्नि, प्राग । (७)स्त्रोतोअन । मा०।सु०चि०२५ 01 (८)रसाञ्जन । च० द० अ० सा० चि. प्रियङ्गवादि । रक पित्त-चि०।०३० प्रदे. हषटके । स्तम्भन योगेच । भा० बाल चि०। (१) सौवीराम्जन वा० सू० १५ अ० अनादि 1 सु० सू० ३० अ० । देखो-अजनविधि। (१०) सुर्मा धातु विशेष । यह प्रामा प्रभायुक्र एक श्वेत धातुतत्व है। यह कठोर होता तथा तोड़नेसे टूटजाता है, और सरलतापूर्वक चूर्ण किया जा सकता है। इसका रासायनिक सत अन(Sb. )तथा परमाणुभार १२० है और प्रापेक्षिक गुरुल ६. ७ है। यह ६३०° शतांश की उत्ताप पर गल जाता और चमकीले रताप पर वाष्पीभूत हो जाता है। ___सामान्य तापक्रम पर वायु तथा प्रार्द्रता का श्रअन पर कुछ भी प्रभाव नहीं होता । वायु में उत्ताप पहुँचाने पर यह हरिताभायुक्र नीले रंग के लौ में जलने लगता है। प्रकृति में अंजन स्वतन्त्र या शुद्ध रूप में नहीं मिलता, अपितु गन्धक के साथ मिला हश्रा स्रोताअन या सुर्मा रूप में पाया जाता है । यह . प्रायः सोमलिका, निकिलम् और रजतम् धातु के साथ मिला हश्रा यौगिक रूप में भी पाया जाता है। विशेष रासायनिक विधि द्वारा इसे अन्य धातुओं से भिन्न कर लेते हैं । इसके पर्याय-अञ्जनम् (अञ्जनक)-सं०, हिं० । इस्मद, हनुल कोहल, अनीमूनुल मादनी --अ० | अन्तीमून, संगेसुमह --फा० । ऐण्टिमोनियम् ( Antimonium ), स्टीबिश्रम् (Stibium)--ले० । ऐण्टिमनी ( Antiimony)--६० नाम विवरण-ऐण्टिमोनियम् यौगिक शब्द For Private and Personal Use Only Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अजनम् २७६ अञ्जनम् है (ऐण्टि - विपरीत + मोनाक्स = उपदेष्टा, सन्यासी) जिसका अर्ध सन्यासी या साधु के विपरीत अर्थात् नष्ट करनेवाला है । कहा जाता है कि सन् १७६० ई० में बालरटेन नामी एक रासायनिक ने, जिसने कि सर्व प्रथम उक्र शुद्ध धातु के असली गुण-धर्म का वर्णन किया, इसके औषधीय गुणधर्म दक्ति करने के लिए इसे कुछ सन्यासियों को खिलाया । फलतः वे सब के सब इस विष द्वारा मरणासन्न हो गए। इसी | कारण इसका नाम ऐरिटमोनियम पड़ गया। ___ इतिहास-उपयुक्र वर्णनानुसार स्रोताजन : अर्थात् सुर्मा रूप से यह श्रौषध प्राचीन वैदिक काल से, यूनानी व रूमी चिकित्सकों को मालूम थी। अस्तु . हकीम दीस्करी दूस (Dioscori. des) यूनानीने स्टीमी नाम से तथा हकीम बली. नास रूमी ने स्टीबियम् नामसे इसका वर्णन किया है। इन दोनों ने इसको शोधक (एवेकेण्ट) अर्थात् । वामक तथा रेचक लिखा है और अबतक प्रायः । चिकित्सक इनके अनुयायी हैं। परन्तु, हकीम । बुकरात व हकीम जालीनूस ने इसमें संग्राही तथा मुकत्ता ( काटने छाँटने वाले ) गुण की विद्यमानता का भी वर्णन किया, पर उन्होंने इसका वाह्यरूप से ही उपयोग किया था। प्राचीन चिकित्सक इस धातु को प्रकृति में पाया जाने वाला यौगिक सुर्मा रूप से उपयोग में लाते थे । उनका यह विचार था कि सुर्मा ! (अंजन गन्धिद) गन्धक और पारद का यौगिक ! है और किसी किसी का यह विचार था कि यह गन्धक और सीसा का यौगिक है। इससे स्पष्ट है कि उनको अंजनम् धातु के मौलिक रूप का । ज्ञान न था । शेखुर्रईस ने इसे मृत सीसा का | जौहर लिखा है । जिसका कारण आगे वर्णित । होगा । । प्रायः प्राचीन भारतीय आयुर्वेदिक चिकित्सा एवं रसशास्त्री में सभी जगह सुर्मा के विविध प्रयोगों का वर्णन पाया है। वे इसके गुण धर्म : एवं वाह्य व प्राभ्यन्तर उपयोग से भली भाँति परिचित थे। इतना ही नहीं अपितु, संसार के सब से प्राचीनतम ग्रन्थ वेद (अथ०) में तो इसका पर्याप्त वर्णन उपलब्ध होता है। नोट-शुद्ध प्रअनम् धातु (Antimony), औषध रूप से व्यवहार में नहीं आता, किन्तु इसके निम्न लिखित प्रकृति में पाए जाने वाले या रसायनशालामें बनने वाले यौगिक ही औषध रूप से उपयोग में आते हैं। आयुर्वेद शास्त्र में प्रजनम् धातु (Antimony ) अर्थात् इसके यौगिकों के अतिरिक श्रअन शब्द उन समस्त अर्थी के लिए व्यवहार में आता है जिनका आँजने से सम्बन्ध है। फिर चाहे वे खनिज या चानस्पतिक दम्य हों, अथवा प्राणिज । कहा भी है :-- अञ्जनं क्रियते येन तद्रव्य चाजन स्मृतम् । अर्थात् जिस प्रष्य से आँजन किया जाय वह अञ्जन कहलाता है। प्रस्तु, जहाँ इसके भेदों का वर्णन होता है। वहाँ से भी यह बात स्पष्ट होती है। यथासौवीरमजनं प्रोक्तं रसाअन मतः परम् । स्रोतोऽजनं तदन्यच पुष्पाजनकमेव च । नीलाअनञ्चति ॥ (गस. दपं०, वा०) अर्थात्---सौवीरांजन, रसांजन, स्रोताजन्, पुप्पाजन और नीलाञ्जन प्रमति पंचविध अंजनों में से रसांजन किसी किसी के मत से पीले चन्दन का गोंद है अथवा पीले चन्दन के काढ़े से बनता है और पीत होता है । यथा-- पीत चन्दन निर्यास रसांजनमितीरितम् । तरक्काथर्ज वा भवति पीताभं वक्य रोगनुत् ॥ और किसी किसी के मत से दारुहरूदी के काढ़े को बकरी के दध में मिलाकर श्रौटाकर गाढा करलें । यही रसांजन अर्थात् रसवत् है । यथादावी काथ सम तीरं पादपका यदा धनम् । तदा रसांजनाख्यं तनेग्रयोः परमं हितम् । (भा०) और किसी किसी के विचारानुसार यह कृष्ण. पाषाणाकृति का एक द्रव्य या नीलांजन है। इसे अंग्रेजी में गैलेना (Galena) या सल्फेट ऑफ लेड (Sulphate of Lead)कहते हैं। यह गन्धक और सोसा का एक यौ गिक है। For Private and Personal Use Only Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org भजनम् १७७ प्रसनम् और भी कहा है:सौवीर जाम्बलं तुत्थं मयूरं श्रीकर तथा। दविका मेघनीलञ्च प्रअनानि भवन्ति षट् ॥ (कालिका पुराण) अर्थात् सौवीर, जाम्बल, मयूरतुत्थ ( सिया भेद), श्रीकर, दम्बिका ( काजल ) और मेषमील (नीलांजन ) ये छः प्रकार के अमन कालिका पुराण के रचयिता ने लिखे हैं। इनमें : तुस्थ सथा कजल अंजनम् ( Antimony) से सर्वथा भिन्न वस्तु है । इन सब बातों से साफ । विदित होता है कि अंजन से उनका अभिप्राय उन समस्त वस्तुओं से था जो नेत्रचिकित्सा में म्यवहत होती थीं । इनके विभिन्न भेदों का पूर्ण विवेचन यथाक्रम किया जाएगा । यहाँ पर जो । कुछ वर्णन होगा वह अंजन (सुरमा) अथवा इसके यौगिकों का ही होगा । __ स्रोतोऽअन अर्थात् सुरमा सौत्रीरं, कापोताम्जनं, यामुन, मदीज, पीतसारि, वारिभव, स्रोतोनदीभवं, स्रोतोभवं, सौवीरसारं,( का-) कपोतसारं, वल्मीकशीर्षम् ।। २० मा०, सु० चि० । १७ . । वाल्मीक, जयामलं, स्रोतर्ज, सौवीरसार, ! कपोतांजन,-सं० । सुरमा, सुरमे का | पत्थर, अंजन-हि.। अंजन, अंजन का पत्थर | -२० । सुर्मा, शुर्मा, जलांजन, काल शुर्मा-बं०।। इ.स.मद, कुहल-१०। सुर्मह, संगेसुर्मह,, स्याह ! सुर्मह, सुमहे अस्फ़हानी-फा० । ऐण्टिमोनियाई सल्फ्युरेटम् ( Antimonii Sulphuretnm), एण्टिमोनियम सल्फ्युरेटम् ( Antimonium Sulphuratum)-ले० । ऐरिट. मनी सल्फाइड ( Antimony Sulphin | de), सल्फ्युरेट ऑर टर्सल्फ्युरेट ग्राफ ऐण्टिमनी ( Sulphuret or Tersulpburet of Antiimony), ग्लैक ऐ० ( Black Antimony), किर्मीज़ मिनरल (Kerm-i es mineral)-०। अंजनक-कस्लु, अंजन-: माह-ता० । अंजन रायि, नीजांजनम्, कटुक -ते. । अंजनक-का-मल० । अम्जेना -कना० । सुमों, सुमो-नु-फत्रो, कुह ल-अंजन- गु०। धर्म-खिमिश्र, सुमें-खियो, तपलकयोपर० । सुर्मा-मह०, कों० । काला-सुरमा -मह० । रासायनिक संकेत (मम्ज, गं )(Sb eS3). (ऑफिशल) काला सुरमा जो प्राकृतिक रूप में खानों से निकलता है उसे पिघला कर शुद्ध कर लेते हैं। नोट-आयुर्वेदिक शुद्धि का वर्णन आगे होगा। उद्भवस्थान : चीन, जापान, (ब्रह्मदेश ) वर्मा, थोड़ी मात्रा में मासूर में भी पाया जाता है । विजयानगरम तथा पम्जाब (झेलम आदि स्थानों से खानों से निकलता है। चीन में यह सब से अधिक मि लक्षण-किञ्चित् धूसर श्यामवर्ण का दानेदार चूर्ण होता है । यह भंगुर द्रश्य है। घलनशीलता-यह जलमें अनघुल होता है, किन्त कॉस्टिक सोडा के सोल्युशन ( दाहक सोडा घोल ) और गरम हाडोक्लोरिक एसिड (लवणाम्ल ) में घुल जाता हैं तथा उदजन वायम्य उत्पन्न करता है। परीक्षा-कोइले पर सोडियम् कार्बनित स हित दग्ध करने से श्वेत चूर्ण सा प्राप्त होता है । अजनम् धातु के कण प्राप्त नहीं होते। मात्रा-श्राधी से १ रत्ती (१ से २ ग्रेन ). मिश्रण-सोमलिका तथा अन्य गन्धिद । प्रभाव-स्वेदक, परिवर्तक और वामक । नोट-स्रोताजन जैसा कि वर्णन हुआ अम्जनम् धातु तत्व (Antiinony) तथा गंधिका (Sulphur) अधातु तस्व का एक यौगिक है । परन्तु, भारतवर्ष तथा पंजाब में जो कंधारी सुर्मा अधिकता के साथ बिकता है, यह वस्तुतः गंधक और सीसा का एक यौगिक है जिसको अंग्रेजी में गैलेना (Galena) या सल्फ्यु रेट ऑफ लेड ( Sulphuret of Lead) कहते हैं । यह कृष्ण वर्ण युक्र एक गुरु कोर पदार्थ है । यही कृष्णाजन पा काला २३ For Private and Personal Use Only Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अञ्जनम् १७८ अर्शनम् सुरमा है । यह सीसक और गन्धक को मूषा में | उण करने से भी प्राप्त हो सकता है। यही सीसक की कृष्णा भस्म है। कदाचित् इसी भांति के सुरमाके लक्षण को जनाब शेख ईस बू अलीसीना ने मालूम करके इ..समद अर्थात् सुरमा को मत सीमा का जौहर लिखा है। सुरमो-यह भी काले सुरमे का एक भेद है जिसमें गंधक जस्ता (यशद) के साथ मिला हुआ होला है । यह अधिक कठोर होता है। ___ सुरमहे श्रस्फहानो–सम्भव है शुद्ध होता हो । परन्तु, डॉक्टर पावल महाशय अपनी पुस्तक "एकोनोमिकल प्रॉडक्ट्स अाफ़ पञ्जाब" के पृष्ठ ११ पर लिखते हैं कि सुरमहे श्रस्फ़हानी के नमूने की परीक्षा करने पर इसमें लौह का मिश्रण पाया गया। वह पेशावर के निकटस्थ आजीर नामक स्थान के खनिज सुरमा को शुद्ध सुरमा बतलाते हैं और पर्वतीय सुरमा तथा ५. जाब के किसी किसी अन्य स्थान के सुरमा को अशुद्ध बतलाते हैं। सफेद सुरमा-वास्तवमै खटिक धातु का एक योग विशेष अर्थात् काबोनेट श्राफ लाइम (संगमरमर ) है। अायुर्वेद के अनुसार इसको सौबीसम्जन कहते हैं। इसको लोग भूल से सुरमा समझ कर उपयोग में लाते हैं, किन्तु यह बिलकुन्न सुरमा नहीं। तोड़ने पर भीतर से यह सरमा के सदृश चमकदार होता है। प्रस्तु, इसी सादृश्य के कारण यह सुरमा खयाल किया जाता है। अञ्जन शुद्धि (1) सब अञ्जनी की शुद्धि भांगरे के स्वरस में खरल करने से होती है । (२) सूर्यावर्त ( काला भांगरा अथवा हुल. हुल ) के रस में खरल करने से अजजन शुद्ध होता है। (३) सब प्रजनों का चूर्ण कर एक दिन जंभीरी के रस में भावना देकर धूप में सुखा लेने से उनकी शुद्धि होती है तथा वे समस्त कार्यों में योजनीय हो जाते हैं। (४) गोबर के रस, गोमूत्र, घृत, शहद तथा | बसा इनकी बहुत बार भावना देने से सुरमा शुद्ध होता है। (५) श्रोताअन और सौवीराजन की त्रिफला के काढ़े या भौगरे के रस में प्रौटाने से शुद्धि होती है। . (६) नीलाअन के चूर्ण को१दिन जंभीरी के रस में खरल कर धूप में सुखा दें तो यह शद्ध और समस्त रोगों में प्रयोज्य हो जाता है। इसी प्रकार गेरू, कसीस, सुहागा, कौड़ी, मैनसिल एवं मुरदासंग की शुद्धि होती है। (७) सर्व प्रथम केले के तनेमें गढ़ा अनाएँ। पुनः अञ्जन का एक टुकड़ा उसमें रखकर ऊपर से वही केले का छिलका भर दे और इसे २१ दिन तक इसी प्रकार रहने दें। इसके बाद निकाल कर इसी प्रकार नीम के वृक्ष में उतने ही दिन तक रक्ख । इससे अजन की विशेष शुद्धि होती है। नेत्र के लिए तो यह अमृत समान गुणदायी है। सलायह, सुरमह. (१) रक सुरमा १ तो०, काली हर जो बहुत छोटी हो ४ तो०, पृथक् बारीक करके मिलाएँ और एक दिन तक खूष रगड़ कर रख दें। गुण-अर्श भेद और नासूर के लिए परी. मात्रा- रत्ती से ४ रत्ती तक सवेरे, शाम को किञ्चित् गड़ के साथ मिलाकर खिलाएँ। इसके पश्चात् रोज सुबह को गोघृत और पानी पिलाएँ । ५० दिन तक लगातार सेवन करते रहें । पध्य-दो प्याज या चौलाई का साग और घी चुपड़ी हुई गेहूँ की रोटी खिलानी चाहिए। इससे मस्से गिर जाएंगे। (मरुजन) (२) र सुर्मा ५ तो० को निम्नलिखित पोषधियों के रसमै खरल करें । यथा-त्रिफला की छाल, माजू, माई, करथा, रसवत, गूगल प्रत्येक ५ तो०, काली हड़ यात छोटी ६ तो, कूट कर मूली के चार सेर पानी में एक दिन रात तर करके एक दो जोश देकर साफ कर लें और For Private and Personal Use Only Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भानम् अञ्जनम् सुरमा को इससे खरल कर के चने बराबर गोली बनाएँ। गुण-अर्श तथा असाध्य नासूर के लिए रामबाण है। १ गोली से ४ गोली तक१० दिन मक्खन में खाते रहें। और उन प्रोधियों को जो रस निकालने के पश्चात् बच रहें, बारीक करके जंगली बेर के बराबर वटिका बनाएँ और सुबह शाम १-२ गोलियाँ खाते रहें। ३ सप्ताह में ही रोग को जब-मूल से नष्ट कर देगा ! (मनह.) (३) काला सुरमा, जलाए हुए नील के बीज, प्रत्येक १ तो०, फिटकरी ( भुनी हुई) अनविध मोती प्रत्येक १ मा०, यशद भस्म २ मा०, चाँदीके वर्क ५ इनको ५ दिन मेंहदी और गुलाब के रस में खरल करके रख दें। गुण-उक औषध अम्जन रूप से नेत्र रोगों विशेषकर मोतियाबिन्द की प्रारम्भिक अवस्था, जाला और रक्रबिन्दु के लिए परीक्षित है। (मनह) (४) सुहागा शुद्ध, नौसादर, समुद्र झाग, कलमी शोरा, संगमसरी, फिटकरी का लावा, । पलाश की जड़ की गुद्दी, राई की गिरी, प्रत्येक | अर्ध तोला और काला सुरमा १० तोला को | खरल में नीबू का रस डालकर ३ घंटे तक भली भाँति घोटकर मिलाएँ । शीशी में रखने से पूर्व | इसे साया में मुखा कर खूब बारीक कर लें। · गुण इसको अञ्जन रूप से उपयोग में लाने | से यह गत दृष्टिशकि, अाँख पाने, नेग्रकण्डु, । नेत्ररक्रता, खराश और नेत्र द्वारा जलस्राव प्रभृति | के लिए अत्यन्त लाभप्रद है। संक्षेप में यह अनेक नेत्र रोगों की अचूक औषध है। __ (पं० जे० एल० दुबे जो) (५) सुरमा श्वेत को ताजी इन्द्रायन में अष्ठ प्रहर डालकर रख दें। पुनः उक्र शुद्ध सुरमा को कुक्टारडत्वक भस्म तथा मोती की सीपी की भस्म प्रत्येक १-१ तो. के साथ मिलाकर एक दो दिन खरल करके रख दे।। ''गुण-यह सुरमा पढ़वाल के लिए एजाज़ मसीही के समान और सदैव का परीक्षित है। (मनह ) (६) सुरमहे असाहानी २ तो०, मोती ६ मा०, प्रवाल ॥ मा०, शादनह, अदसी मरसूल (धोया हुआ) ४ मा० पृथक पृथक बारीक करके मिला लें और गुलाब में हल करके संगबसरी ६ मा० बढ़ाएँ तथा बारीक करके रख लें। गुण-यह सुरमा दृष्टि को निर्बलता तथा जाले का लाभदायक और आँख पाने में जो जलस्राव होता है उसका शोषणकर्ता है। (शरीफ) (७)काला सुरमा, यशद भस्म प्रत्यक २०मा०,समुद्र झाग,ज़गार,केशर, प्रत्येक १ तो०, सफेदा और अफीम प्रत्येक ३ मा० बारीक कर लें। गुण-दृष्टि को निर्थलता अर्थात् दृष्टिमाय के लिए सर्वोत्तम औषध है। इसे चतुओं में लगाया करें। (इ० सद०) (८ , सफेद सुरमे को अग्निमें तपा तपा कर सातबार हरड़, बहेडे तथा प्रामले अर्थात् त्रिफला के रसमें ढाल कर बुझाएँ, फिर तपा तपा कर सात बार स्त्रीके दूधमै बुझाएँ । पुनः उक्र सुरमे का चूर्ण करके नित्य नेत्रों में आँजें तो नेत्रों को हितकारी होता है और नेत्र सम्बन्धी सम्पूर्ण विकारों का निःसन्देह नाश होता है। मा० । सुरमे की भस्म. (३) तबकदार श्वेत सुरमे को १० दिवस पेठा के रस में खरल करके टिकिया बना लें और एक पेश में डालकर भली भाँति कपरौटी करें। गण-ज्वर की उन्मत्तावस्था में इसे १ रसी की मात्रा में श्रर्क सौंफ तथा श्रर्क केवड़ा के साथ तीन बार खिलाने से लाभ होता है। नपेमुह रिकासफरावो (अांत्रिक ज्वर)मूत्रदाह, यकृ दोमा, नवीन सूजाक के लिए उपयुक शर्बतों के साथ व्यवहार में लानेसे लाभ होता हैं। चक्षुत्रों में लगाने से दृष्टिवक और नेत्र स्वक्षकारक है। (कु० रही०) (२) श्वेत सुर्मा को हरे लम्बे कद्दू की गर्दन में रखकर कपरीटी करें और बहुत सी अग्नि दें, भस्म होगी। इसमें सम भाग नीले बंशलोचन मिलाकर अर्क बेदमुश्क व केवड़ा में १ सप्ताह खरल करके रख दें। For Private and Personal Use Only Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अञ्जनम् १८० प्रधनम् - गुण-मुख, नासिका तथा शिश्न प्रभृति से रत्राव होने और शुक्रप्रमेह, रजःस्राव सथा सम्पूर्ण जन्मा सम्बन्धी रोगों के लिए लाभदायी है । राजयक्ष्मा के लिए सुर्मा की भस्म । तोला, चाँदी का वर्क, अनविध मोती प्रत्येक ३ मा०, स्वर्ण वर्क (पत्र) १ माशा, केशर ४ रत्ती सत्रको अर्क बेदमुश्क में खरल करके २ रत्ती की मात्रा सवेरे व शाम खिलाएँ । परीक्षित है। (मनह) (३) काले सुरमे की भस्म-भिलावे की स्याही, भाँगरा, ग्वारपाठे का लुभात्र प्रत्येक प्राधपाव कूटकर नुरज़ा ( कल्क ) बनाएँ । शुष्क होने पर इसमें 1 तो० सुरमेको इली डालकर बंद करें और सकोरे में बन्द कर गिलेहिकमत (कररौटी) कर सुखा कर २५ सेर कराडेकी अग्नि हैं। भस्म प्रस्तुत होगी। मात्रा-१ से २ रत्ती तक मक्खनमें । ऊपरसे दुग्ध दें । गुण-पुरातन सुजाक तथा शुक्रमेह में | लाभप्रद है । सम्पूर्ण त्वम् रोगों, नासिका तथा | मुख द्वारा रकस्राव, त्रियों में अनियमित एवं अधिक रकमाव और अर्श में मुफीद एवं प्रभावकारो है। (कुश्ता० फो०) (४) मुरमा श्वेत, मङ्गजराहत समान भाग, मुरमा को एक दिन दही के जल में और एक रोज़ घृतकुमारी में खरल करके टिकिया वनाएँ और अग्नि दें। संगजराहत को मदार के दूध में घोटकर अग्नि दें । पश्चात् दोनों को मिला लें। गुण--पुरातन सुजाक और नवीन चन प्रति के लिए परीक्षित है । मात्रा-२ रत्ती तक मक्खन (इस. सद०) ब्रिटिश फार्माकोपिया द्वारा स्वीकृत (ऑफिशल ) अञ्जन के यौगिक (१) अञ्जनीष्मिद अर्थात् ऐण्टिमोनियाई बॉक्साइडम् (Antimonii Oxidum). ऐण्टिमोनिश्रस ऑक्साइड (Antimonias Oxide )-इं० । किर्मि जुल्मऋदनी, किनिस ! मदनी-फा० । श्रॉक्सीदुल अन्तीमून-अ० । रासायनिक संकेत (Sb203) निर्माण विधि-ऐण्टिमोनियस क्रोराइड घोल को जल में मिलाने से ऑक्सी क्रोराइड ऑफ ऐण्टिमनी घनीभूत होकर अधःक्षेपित हो जाता है। इसे पृथक करके काबोनेटाफ सोधियम के साथ मिश्रित करने से ऐण्टिमोनियस बाक्साइड प्राप्त होता है। लक्षण-किञ्चित् धूसर श्वेत रंग का धूण । घुलनशीलता - जल में तो यह बिलकुल नहीं घुलता, किन्तु लवणाम्ल (हाइकोमोरिक एसिड ) में सरलतापूर्वक धुल जाता है। मिश्रण-अम्जन के अन्य अम्मिद (ॉक्माइडम् )। __ प्रभाव--स्वेदक और वामक ! मात्रा-१ से २ प्रेन (६ से १२ सें. ग्राम), १ वर्ष के बालक को से ग्रेन तक। यह ऐण्टिमनोनियम् टार्टरेटम के बनाने में काम प्राता है और यह उसका एक यौगिक भी है। ऑफिशल योग (Official preparations ). पल्विस पेण्टिमोनिपलिस (Pulvis Antimonialis )-ले। ऐण्टिमोनियल पाउडर ( Antimonial Powder ), जेम्सेस पाउडर ( James's Powler )-१०। अञ्जन चूर्ण, जेम्स का चूर्ण-हिं0 1 मर हूक या सफफ अन्तीमून, सफफ जेम्स ति। निर्माण-विधि-ऐरिटमोनियस पावसाइड (अजनोमिद ) धाउंस, कैस्सियम फास्फेट (चूनस्फुरेत् )२ पाउंस दोनों को परस्पर संयोजित करलें। मात्रा-३ से ६ प्रेन अर्थात् १॥ से ३ रत्ती (२ से १ देकाग्राम); १ वर्ष के शिशु को ! से ग्रेन। प्रभाव-टार एमेटिक के समान, किन्तु उससे निर्बल । मृदुस्वेदक प्रभाव के कारण यह ५ ग्रेन (२॥ रत्तो) की मात्रा में उदरावस्था में उपयोग में आता है । (ए. मेमो०) अल कुहाल ( मद्यसार ) तथा डोवर्स पाउडर के समान यह यक्ष्मा के रात्रि स्वेदस्राव को रोकता है। में। For Private and Personal Use Only Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अञ्जनम् पेरिटोनियम् टार्टरेटम् (Antimonium Tartaratum ) - टार्टरेटेड ऐस्टिमनी (Tartarated Antimony), टार इमेटिक ( Tartar Emetic ), पोटासियो टार्टरेट ऑफ ऐस्टिमनी (Potassio Tartarate of Antimony ) - इं० | दाराञ्जन, वामक लवण, पांशु दाराञ्जन, वामक टार - हिं० । रासायनिक संकेत www.kobatirth.org ( K SbOC4H4H4 06 2, H20. निर्माण - विधि - ऐस्टिमोनियस प्राक्साइड और एसिड पोटेसियम् टार्टरेट को कुछ जल के साथ परस्पर मिश्रित कर इसकी लेई सी बना लें और इसे २५ घंटे तक पड़ा रहने दे जिससे इनका पारस्परिक संयोग हो जाए । पुनः श्रच देकर जल को जला डालें। शीतल होने पर इसके रवे बन जाएँगे । लक्षण - वर्ण रहित, स्वच्छ रवे जो त्रिकोणाकार होते हैं । स्वाद - कुछ कुछ कसेला तथा मधुर । घुलनशीलता - यह एक भाग १७ भाग शीतल जल में और १ भाग ३ भाग उबलते हुए जल में धुल जाता है। धोल की प्रतिक्रिया अम्ल होती है । मिश्रण - एसिड टार्टरेट ऑफ पोटेसियम् । सम्मिलन ( संयोग विरुद्ध ) - क्षारीय द्रव्य, सीसा के लवण, माजूस (गैलिक एसिड) | और कषायरल (दैनिक एसिड ) तथा अनेक अन्य सक्कोचक द्रव्य । प्रभाव - स्वेदक, श्लेष्मा निःसारक, हृदयाव सादक तथा वामक 1 ง २५ १ १८१ मात्रा- स्वेदन हेतु प्रेन ( २५ सेम मि० ग्राम ); श्लेष्मानि:सारण हेतु है से + ग्रेन: वमन हेतु, 1⁄2 से १ प्रेन (३ से ६ सें० ग्राम), एक साल के बालक के लिए चौथाई मेन । इन fafभन्न मात्राओं को ध्यानपूर्वक स्मरण रखें | योग-निर्माण-विधि - इसको घोल रूप Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir काञ्जनम् में या इसका मद्य उपयोग में लाना चाहिए । यदि इसको टिका रूप में देना हो तो इसे दुग्ध की शर्करा ( मिल्क शूगर ) के साथ भली प्रकार मिति कर और द्राक्षाके शीश (ग्ल्युकोज़) द्वारा afटिका प्रस्तुत कर उपयोग में लाएँ । ऑफिशल योग ( Official preparations ). श्रञ्जनात्र अंजनीय मद्य - हिं० । वाइनम् ऐष्टिमोनिएली ( Vinum Antimoniale ), ऐरिटोनियल वाइन (Antimonial Wine ), डा० ना० । निर्माण विधि टार्टरेटेड एण्टिमनी २० रती ( ४० ग्रेन ), खौलता हुआ परिश्रुत जल (डिस्टिल्ड वाटर ) १ फ़्ल्युइड आउन्स और शेरी वाहन १३ फ़्ल्युइड ग्राउन्स । टार्टरेटेड ऐस्टिमनी को पहिले खौलते हुए परिश्रुत जल में डालकर घोल ले पुनः इसे शीतल कर शेरी मद्य मैं मिश्रित कर लें I शक्ति- इसके एक फ़्लुइड श्राउन्स में २ प्रेन अर्थात् एक रत्ती ऐण्टिमोनियम् टार्टरेटम् होता है । मात्रा स्वेदक रूप से १० से ३० बुंद (मिमिम) और वामक रूपसे २ से ४ फ़्लुइड डाम । एक वर्षीय बालक के लिए श्लेष्मानिःसारक रूप . से ३ बुइ और वामक रूप से १५ द ( मि. निम ) तक । नोट - इनके अतिरिक्त ऐष्टिमोनियम् नाइप्रम् प्योरीफिकेटम ( शुद्ध स्रोतोंजन ) और ऐस्टि मनी सल्फाइड ( काला सुरमा ) दो और - जन के यौगिक ब्रिटिश फार्माकोपिया में ऑफिशल हैं। इनका वर्णन प्रथम स्रोतोंजन में कर दिया गया है। अतः यहाँ देखिए । नॉट ऑफिशल योग ( Not official Preparations ). म ऐस्टिोनियाई टार्टरेटी Unguentum Antimonii Tartrata -ले० । श्रइण्टमेंट श्रॉफ टार्टरेटेड ऐस्टिमनी ( Ointment of Tartrated antimony) For Private and Personal Use Only Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भजनम् १९२ -ई। मरहम बामक टार्टार ( लवण), टासराअनानुलेपन-हिं० । मरहम तरुल मुकई, मरहम नमक -ति। निर्माण-विधि-टार्टरेटेम् ऐण्टीमनी का बारीक । चूर्ण १ भाग सिम्पल अाइरटमेण्ट ( सादा मर. , हम) ४ भाग भली भाँति मिश्रित करलें । (ब्रिटिश ' फामाकोपिया के परिशिष्टांकस्थ योगानुसार) अंजन के विभिन्न यौगिकों के विस्तृत गण धम व प्रयाग (१) श्रायुप्रेदिक मतानुसारअजन सम्पूण चतुदोषनाशक, प्रायुष्यदीर्घ करता, सर्व रोगनाशक, ज्ञान प्रकाशक, शान्ति दायक, प्लीहा रोग नाशक, हियों से प्राप्त होने वाले तपेदिक, श्रङ्गभेद, यमा श्रादि रोग नाशक है ।निककुत् नामक पतसे उपस अम्जन । सर्वष्ट है । अथ । सू०४४। ६ । का० १६ । स्रोतोऽजन काला सुरमा और सौवीर श्वेत सुरमा को कहते हैं । जो बांधी के शिखर के सरा होता है वह स्रोतोऽऊन कहलाता है। सफेद । सुरमा भी स्रोतांजन के सदृश होता है । किन्तु । कुछ पीले रंग का होता है। भा०। काला सुरमा शीतल, कटु, कषैला, कृमिघ्न, रसायन, रस रोग्य और स्तन्यवृद्धिकारक है । (रा. न०व०१३) । स्रोतोऽजन ( काला सुरमा ) मधुर, नेत्रों को हितकारी, कषैला, लेखन, ग्राही तथा शीतल है और कफ, पित्त, वमन, विष, श्वित्र ( सफेद कोढ़), क्षय तथा रक्रविकार को नष्ट करता है । यह सदा बुद्धिमानों को सेवनीय है। जो स्रोतोऽजन में गुण हैं वे सौवीर में भी हैं; ऐसा विद्वानों ने : कहा है। किन्तु, दोनों अंजनों में स्रोतोऽजन ही रेष्ठ है। भा०1 सफेद सुरमा नेत्रों को परम हितकारी है। अतएव इसे नित्य लगाना चाहिए । इसको लगाने से नेग्र मनोहर और सूक्ष्म वस्तु के देखनेवाले होते हैं । सिन्धु नामक पर्वत में उत्पन्न हुश्रा । काला सुरमा (शुद्ध किया हुअा. न होने पर भी) उत्तम होता है । इसको लगाने से यह नेत्रोंको खु-: ज़ली मैल, तथा दाह को नष्ट करता है, और केद ( नेत्रों से पानी का बहना ) तथा पीडा को दूर करता है । नेम स्वरुपवान होते हैं, और बात तथा नायु और धूप को सहन करने में समर्थ होते हैं। काला सुरमा लगाने से नेत्रों में शेग नहीं होते, इस कारण इसको भी लगाना चाहिए । रात में जागा हुश्रा, थका हुश्रा, वमन करने वाला, जो भोजन कर चुका हो, ज्वर रोगी और जिसने शिर से स्नान किया हो उनको सुरमा नहीं लगाना चाहिए। (भा० प्र० ख०१) (२)यून नो मतानुसारस्वरूप-श्याम, श्वेत तथा रक वर्ण । स्वाद-बेस्वाद। प्रकृति-प्रथम कक्षा में शीतल और द्वितीय कक्षा में रूक्ष (किसी किसके विचार से २ कक्षा में उंडा और रूक्ष)। हानिकर्ता-वक्षस्थलस्थ अवयवों को । दर्पनाशक-कतीरा तथा शर्करा । प्रतिनिधि-अनार । गुण, क्रमव प्रयोग---सुरमा पारद तथा गंधक दो वस्तुओं का यौगिक है जिनमें गंधक प्रधान है। इसी कारण यह विबन्धकारी या बद्धक ब रूक्षता प्रद है। रूक्षता की अधिकता के कारण यह प्रणपूरक है तथा उनके बढ़े हुए मांस को नष्ट कर देता है। अपनी कब्ज तथा रूतता एवं नेग्र की ओर मलों को रोकने के कारण दृष्टि को बलप्रद तथा नेत्र की स्वस्थता का रक्षक है । उस नकसीर को बन्द करता है जो मस्तिस्क के परदे से फूटा करती है। नेत्र की सरदी गरमी और कोचोंका हरणकर्ता है । इसका हुमूल (वर्ती ) जरायु द्वारा रकस्राव होने को रोकता है। (फो। इसकी पिचुमिया अर्थात् भिगोया हश्रा कपड़ा रखना गुदभ्रंश (काँच निकलने ) को गुण करता है और गर्भाशय की कठोरता को मृदु करता है । सुरमा शुक्रमेह और श्रार्तव का रुद्धक है तथा रकस्राव ( मुख. द्वारा रकलाव), पुरातन सूजाक, प्रण, अर्श, तथा नासूरों ( नाड़ीग्रण) को लाभप्रद है और राजयक्ष्मा को दूर करता एवं अन्य भाँति के ज्वरों के लिए गुणदारी है। For Private and Personal Use Only Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भजनम् १६३ (३) डाक्टरी मतानुसार अञ्जन के वाह प्रभाव अजन के योगिकों का त्वचा पर सशक । उग्रतासाधक वा सोभक (इरिटेण्ट) प्रभाव होता । है । अस्तु, टाटरेटेड ऐण्टिमनी को मलहम रूप में त्वचा पर लगाने से शीतला सश दाने उत्पस हो जाते हैं, जिनसे पत होकर सर्वदा के लिए चित । रह जाते हैं। श्राभ्यंतरिक साव आमाशय तथा श्रांत्र-जन के यौगिकों . के प्राभ्यंतरिक उपयोग से भी वैसा ही उग्रता साधक (क्षोभक) प्रभाव होता है जैसा कि उसके बाह्य उपयोग से । अस्तु, यदि टार्टरेटेड ऐण्टिमनी । को अधिक मात्रा में खाया जाए अथवा अधिक समय तक औषध रूप से उपयोग में लाया : जाए तो मुख, कर, अन्नप्रणाली, श्रामाशय और प्रांत पर इसका वैसा ही उग्रता साधक . प्रभाव होता है जैसा कि स्वचा पर । __ इसे सूचम मात्रा में व्यवहार करने से आमाशय में उम्मा एवं वेदना का भान होता है और किचित् मात्रा में देने से धुधा प्रायः नष्ट होजाती है, जी मचलाता है और प्रामाशय व आंग्र की श्लैष्मिक कला से अधिक द्रवस्त्राव होता है। . इससे भी अधिक मात्रा अर्थात् २ या ३ प्रेन की मात्रा में देने से यह वामक प्रभाव करता है और इसका यह ( वामक) प्रभाव प्रामाशयपर इसके प्रत्यक्ष (सरल) वामक (डायरेक्ट एमेटिक) प्रभात्र , का प्रतिफल स्वरूप होता है। किन्तु,तत्काल अभिशोषित होकर मास्तिष्कीय बमन केन्द्र पर भी ! यह किमी भाँति अप्रत्यक्ष ( श्रमरल) बामक । (इरडायरेक्ट एमेटिक) प्रभाव करता है। यदि : इसको त्वक्स्थ अन्तःक्षेप द्वारा रक्त में प्रविष्ट किया जाए तो भी इससे वमन आने लगता है; जिसका कारण . यह होता है कि कुछ तो इसका प्रभाव वमन केन्द्र । पर होता है और कुछ इस प्रकार कि यह शोगित में अभिशोषित होकर किसी भाँति प्रांत्र तथा प्रामाशय में खारिज होता है जिससे कुछ समय तक बमन पाता रहता है। और यदि इसको । बहुत से पानी में घोल कर दिया जाए तो वमन . तो कम प्राता है। किन्तु, दस्त अधिक आते हैं। अञ्जनम् अत्यधिक मात्रा अर्थात् विषैली मात्रा में इसे देने से प्रानातय तथा प्रांत्र में स्त्रराश होकर विशूचिका के समान लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं और पदर में जरोड़ होकर दस्त प्राने लगते हैं। अति सूरन मात्रा में यदि हमे मुख द्वारा प्रामाशय में प्रवेशित किया जाय तो यह बड़ी मात्रा में शिरा अन्तःप द्वारा पहुँचाए जाने की मापेक्षा शीघ्र प्रभाव करता है। इससे यह सिजू होता है कि यमन लाने में बालक केन्द्र की अपेक्षा इसका स्थानीय प्रभाव ही मुख्य है। हदय तथा शाणित परिचालन-जन के विलेय गुण युक लवण शीघ्र रक में शोषित होजाते हैं । परन्तु, ग्रे रक्रवार (प्राज़्मा) की अल्ब्युमिन में मिति नहीं होते | उपयोग के प्रारम्भ से ही चाहे इसको सूक्ष्म ( ग्रेनसे ग्रेन) मात्रा में ही दिया जाए तो भी यह हृदय की शक्रि तथा गति दोनों को कम कर देता है। परंतु, मतली को उत्तेजना मिलती है। उसकी गति रुक-रुक कर (के होने लगती है। इसे अधिक मात्रा में व्यवहार करने से हृदय अत्यन्त निर्बल होजाता है। और द्वितीय यह कि वैसोमोटर सिस्टम के किसी स्थल पर निर्बलताजनक प्रभाव पड़ने से धामनिक मांस पेशियाँ शिथिल होजाती हैं। इस कारण अंजन (ऐण्टिमनी) रक्रभ्रमण तथा हृदय को सशक्त निर्बलकारी या हृदयावसादक औषध है। (अंजन का उक्र निर्बलकारी प्रभाव बहुतांश में विष अर्थात् सींगिया के समान ही होता है।) फुप्फुस तथा श्वासोच्छ्वास---अंजन के प्रभाव से प्रथम तो श्वासोच्छ बास में सूक्ष्म सी उक्तेजना होती हैं, तत्पश्चात् वह अत्यन्त शिथिल होजाता है । अस्तु, श्वासकाल घट जाता है और वास छोड़ने का समय बढ़ जाता है। अन्ततः श्वासोर घास का मध्य काल बहुत बढ़ जाता है और उसकी गति अनियमित होजाती है। अंजन बायुप्रणाली की श्लैष्मिक कला के मार्ग से विसर्जित होता है। इस हेतु यह शोफघ्न श्लेष्मानिस्सारक (ऐरिटफ्लोजिस्टिक एक्सपेक्टोरेण्ट) प्रभाव करता है। For Private and Personal Use Only Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अजनम् अञ्जनम् .. शारोरोष्मा-स्वस्थ दशा में अन्जन की | । थोड़ी मात्रा से शारीरिक ताप पर कुछ भी प्रभाव नहीं होता । किन्त, ज्वरावस्था में उपयोग करने अथवा बड़ी मात्रा में देने से शारीरिक ताप कम होजाता है। जिसका कारण अधिकतर तो (१) हृदय का निर्बल होजाना तथा शोणित के दबाव (रक भार) का कम होजाना है, (२) स्वेद स्राव और (३) तापोत्पादन (थमोजेनेसिस) कार्थात् मास्तिकीय तापोत्पादक केन्द्र पर इस का किसी भाँति नियंल ताजनक प्रमाव पड़ता है, जिससे शरीरोप्मोत्पत्ति न्यून होजाती है। __यकृत्-टार्टार एमेटिक तथा विशेषकर ऐण्टि. मोनियम सल्फ्युरेटम् प्रत्यक्षतया पित्तस्राव की वृद्धि करते हैं। अस्तु, ये पित्तनिःसारक (कोले. गाग) हैं। ये यूरिया तथा कालिकाम्ल ( कार्या. लिक एसिड) की पैदायश की वृद्धि करते और यकृत् की लाईकोजनिक (शर्कराजनन ) क्रिया को निर्मल करते हैं । यदि इसका अधिक समय तक उपयोग किया जाय तो मन तथा स्फुर के समान ये यकृत् की क्रिया को खराब करते और इसमें फैटीडीजेनरेशन ( यकृत का वसा में परिणत होजाना) उत्पन्न करते हैं। त्वचा-स्वचा पर अंजन का सशक स्वेदजमक प्रभाव पड़ता है, जिसका प्रधान कारण रक्रभ्रमण का शिथिल होजाना हैं। किसी | भाँति रवेदजनक अधियों पर इसका दूरस्थ स्थानीय प्रभाव पदना भी हेतु होता है। यदि मंदूक की त्वचा पर अंजन को लगाया जाए तो यह उसे मल की भाँति सरेश जैसा मुदु कर देता है जिसे सरलतापूर्वक खुरचा जासकता है। वृक्क- टार्टारएमेटिक गुों में से गुजरते समय सूक्ष्म मूत्रजनक प्रभाव करता है, जिसका यहुत कुछ भाधार त्वचाकी क्रिया पर होता है। अस्तु, यदि अत्यधिक स्वेदस्राव हो तो मुत्र कम आता है और यदि स्वेदस्राव कम हो तो मूत्रनाव अधिक होता है। घात संस्थान-मस्तिम्क तथा विशेषत: सुषुम्ना कांड पर अंजन का अत्यन्त निर्बलकारी प्रभाव पड़ता है। यही कारण है कि इसके उप- | योग के पश्चात् तबीयत सुस्त हो जाती है और ऊँघ सी प्रतीत होती है तथा काम करने को जी नहीं चलता । प्राणियों पर परीक्षा करने से ज्ञात हुआ है कि अंजन के प्रभाव से परावर्तित क्रिया नष्ट हो जाती है और सौषुम्नीय चेतनास्थल शिथिल एवं निर्बल हो जाता है। मांस संस्थान-ऐच्छिक तथा अनैच्छिक दोनों प्रकार की विशेषकर ऐरिछक मांस पेशियाँ निर्बल एवं शिथिल हो जाती हैं। विशेषतः उस अवस्था में जब कि इसे वामक मात्रा में उपयोग किया जाए । अस्तु, अंजन मांसाक्षेप. निवारक ( मस्क्युलर ऐरिटस्पै मोडिक ) है। मेटाबोलिजम (अपवर्तन )--शारीरिक परिवर्तन पर अंजन का प्रभाव बिलकुल मल्ल तथा स्फुर के सदृश ही होता है ( अस्तु, उक्त वर्णनों का अवलोकन करें)। अति न्यून मात्रामें देने से यह सूक्ष्म परिवर्तक प्रभाव करता है । किन्तु, यदि इसको अधिक समय तक व्यबहार में लाया जाए तो यह धातु या सन्तुओं (टिश्यूज़ ) के साथ कुछ मास तक मजबूती से चिपटा रहता है। जिससे प्राभ्यन्तरिक अवयवों विशेपतः यकृत में फैटीडीजेनरेशन (धातु की वसा में परिणति ) हो जाता है। - डॉक्टर रिंगर महोदयके कथनानुसार अंजन जीवनमूलीय विष है तथा यह मल्ल, सींगिया और हाडड्रोस्यानिक एसिड के सदृश नत्रजनीय (नाइटोजीनस) धातु या तन्तुओं की क्रिया या म्यौपार को निर्बल करता है। विसर्जन-अंजन के लवण मन. पिस. स्वेद वायु प्रणालीस्थ श्लेष्मा, दुग्ध, तथा विशेषकर मल द्वारा शरीर से विसर्जित होते हैं। इनका कुछ भाग शरीर में अयशेष रह जाता है । हृदय--औषधीय मात्रा में प्रयुक्त मात्रा के अनुसार इसके प्रभाव में भेद उपस्थित होता है। प्रेन की मात्रामें इसके हृदय पर प्रत्यक्ष प्रभाव • पड़ने के कारण यह नाड़ी की गति को कुछ धीमा कर देता एवं स्वेदक प्रभाव करता है, जिससे खुलकर स्वेदस्राव होता है। इसका यह प्रभाव सम्भवतः क्युटेनियस मसल्ज़ा (वगीय मांस तन्तु) के प्रसार For Private and Personal Use Only Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अंजनम् १५ अजनम् के कारण होता है। यह वायु प्रणालीस्थ श्लेष्मा स्राव को अधिक करता है। उक्र औषध का यह प्रमुख प्रभाव है जो इसे श्लेष्मानिःसारक औषधों की ओणी में प्रथम स्थान प्रदान करता है। अञ्जन के प्रयोग वाहा प्रयोग यद्यपि अब से कुछ काल पूर्व एमेटिक द्वारा प्रस्तुत मलहम काउण्टर इरिटेण्ट (स्थानीय उग्रता साधक ) रूप से फुफ्फुस, मस्तिष्क तथा सन्धिवात प्रभात रोगों में व्यवहार किया जाता । था, किन्तु इसके लगाने से कठिन वेदना होती एवं इससे सदाके लिए बि पड़ जाते हैं, इसलिए अाजकल इसका उपयोग सर्वथा • स्याज्य है। आभ्यन्तर प्रयोग आमाशय तथा प्रांत्र-विषाक्क प्राणी को वमन कराने के लिए टाटार एमेटिक का उपयोग उचित नहीं; क्योंकि प्रथम तो इसका प्रभाव : बिलम्ब से होता है, और द्वितीय इससे अत्यधिक । निर्बलता उत्पन्न होती है । किन्तु, वासीय प्रादा. हिक रोगों, यथा कलिन कास अर्थात् वायनलिका । प्रदाह, स्वरयन्त्र प्रदाह (लेरिजाइटिस) तथा : खुनाक ( कृप) प्रभृति में जहाँ कि वमन एवं | रक संचालन की निर्यलता दोनों प्रभावों की। आवश्यकता होती है, वहाँ पर उक्र औषध अत्यन्त गुग्ण प्रदर्शित करती है। विषम ज्वरमें जब । किनाइन से लाभ नहीं होता तर टटीरएमेटिक | से वमन करा के पुनः किनाइन खिलाने से लाभ होता है। रक्त भ्रमण तथा श्वासोच्छवास-राथन | (ऐण्टिफ्लोजिस्टिक ) प्रभाव के लिए टार्टार एमेटिक को -ग्रेन को मात्रा में सीगिया (एकोनाइट) के समान बहुत से कठिन प्रादाहिक रोगों । की प्रारम्भावस्था,यथा-गलग्रह (टॉन्सिलाइटिस), । स्वर यन्त्रप्रदाह ( लेरिझाइटिस ), कठिन कास (वायुप्रणाली प्रदाह ), फुफ्फुस प्रदाह (न्युमोनिया ), फुफ्फुसावरक कला प्रदाह ! (प्ल्युरिसी), हृदयावरक प्रदाह (पेरिका - इटिस), उदरच्छदा कला प्रदाह (पेरिटोनाइटिस) श्रीर डिम्बाशय प्रदाह (श्रोबेराइटिस ) प्रभति में उपयोग करते हैं।। बच्चों के कठिन कास या ऋप (खुनाक ) श्रादि में जब कि इसे अकेले अथवा इपीकाकाना के साथ मिलाकर दिया जाता है तब यह और अधिक लाभ करता है। नोट---नवीन तीब्र कास के ग्रादि में इसको सामान्यतः व्यवहार में लाते हैं। परन्तु, यदि रोगी बलवान अर्थात् रज प्रकृति का हो तो इसके प्रयोग से अधिक लाभ होता है। और जब इसके उपयोग से पतला होकर श्लेष्मास्त्राव प्रारम्भ हो जाए तब फिर इसका उपयोग स्थगति कर देना चाहिए । डिफ्थोरिया में इसका उपयोग न करना चाहिए। टार्टार एमेटिक प्रतिश्याय ज्वर के प्राक्रमण को शीघ्र कम कर देता है। हृदय दौर्बल्यकारी होने के कारण अञ्जन को अब स्वेदक प्रभाव हेतु बहुत कम उपयोग में लाते हैं। पर यदि रोगी सशक्र हो तो कभी कभी इसे उक्र प्रभाव हेतु उपयोग में लाते हैं । पल्विस ऐण्टिमोमिएलिस एक सूक्ष्म स्वेदजनक ( डायफॉरेटिक) औषध है, तो भी प्रतिश्याय ज्वर तथा कासीय फुफ्फुस प्रदाह में इसको देने से कभी लाभ होता है। डॉक्टर ग्रेविस महोदय ऐसे ज्वर में जिसमें कठिन उन्माष की अवस्था हो, (चौथाई) प्रेनकी मात्रामै टार्टार एमेटिक को उतनी ही अफीम के साथ योजितकर एक एक या २-२ घंटा पश्चात् कुछ बार उपयोग करना लाभप्रद बताते हैं। सर वि० हिटला के कथनानुसार मदात्यय ( डेलीरियम ट्रीमेन्स ) में जब अफीम निद्रा उत्पन्न करने में असफल हो जाता है उस समय उसके साथ से ग्रेन उक्र औषध को मिलाकर व्यवहार करने से शीघ्र प्रभाव होता है। वात संस्थान तथा मोस संस्थानमेनिया ( उन्माद ) रोग में पागलपन को दर For Private and Personal Use Only Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अनम् १८६ करने के लिए तथा हली द्वारा तीव्र विषाक्रता. अर्थात् उग्र मदात्यय ( एक्यूट अलकुहलिज़्म ) में निद्रा हेतु टार्टरेटेड ऐस्टिमनी उपयोग में ला सकते हैं । यथा व्यापक अवसन्नताजनक श्रौषधीं कोरोफॉर्म आदि के प्रचार पाने से प्रथम टार्टरेटेड forest वृद्धि (हर्निया) रोग तथा संधिच्युति ( डिस्लोकेशन ) में पेशियों को ढीला करने के लिए अधिकता के साथ व्यवहार में लाते थे, किन्तु क्रोरोफॉर्म के दर्यातके बाद उत अभिप्राय हेतु अब यह बिलकुल व्यवहार में नहीं श्राती । परिवर्तक तथा पित्तनिःसारक रूप से ऐस्टमनी सल्फ्युरेटम् को प्रायः गठिया रोग ( गाउट ) और (पैटिक फुलनेस ) में देते हैं । कैला मेल के साथ पलसर चटी रूप से इसे उपदंश रोग में वर्तते हैं । नोट- डॉक्टरी चिकित्सा में काला श्रज्ञार के लिए तो केवल एक टाटर एमेटिक ही एक ऐसी श्री सिद्ध हुई हैं जो कि उक्त रोग को समूल नष्ट कर सकती है । पूर्ण विवेचन के लिए देखो --काला आजार | श्लीपद रोग में सोडियम् ऐस्टिमनीarr : कराना गुणदायी है । श्रावश्यकतानुसार १, २ या ३ सप्ताहके अन्तर से दें। टार्टरेटेड एण्टिमनी अब बहुत कम उपयोग में श्राती है। चूँकि यह घुलनशील एवं स्वादरहित औषध है; अतएव इसको घोल रूप में व्य वहार करना उत्तम है। इसको सदा श्रतिन्यून मात्रा ( (सेग्रेन ) से आरम्भ करना चाहिए क्योंकि यह देखा गया है कि इसकी ? * ग्रेन की मात्रा में बारम्बार देनेसे वमन आने लगता है। इसको रेचक प्रभाव के लिए कदापि उपयोग में न लाना चाहिए । इसके उक्त प्रभाव को रोकने के लिए प्रायः इसको अफीम के साथ मिलाकर । दिया करते हैं। जब इसको नैलिद आयी. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अञ्जनम् डाइड्ज़ ) या इपिकेक्काना के साथ मिलाकर दिया जाता है तब वायुप्रणालीस्थ श्लैष्मिक कला पर इसका अति तीव्र प्रभाव होता है । एक वर्षीय शिशु को श्राक्षेपयुक्त खुना (Croup ) मेंऐस्टिमनीटार्ट १ ग्रेन वाइनाइ इपीकाक ४० सिरुपाई सिम्प० एक्का इनको मिश्रित कर १२-१२ मिनट पर एक एक चाय के चमचा भर जब तक चमन न हो देते रहें । पश्चात् श्रावश्यकतानुसार एक दो, या तीन घंटे बाद दें | सल्फ्युरेटेड ऐस्टिमनी ( काला सुरमा ) न्यून मात्रा में टार्टर एमेटिक के संपूर्ण गुणधर्म रखता है । यह परिवर्तक होने के कारण उपदेश (सिफिलिस) चिकित्सा में प्रसिद्धि प्राप्त कर चुका है। किन्तु, मार्टिएडेल्स सोल्युशन ऑफ़ ऐण्टिमनी अॅक्साइड ( मार्टिर डेल का श्रज्जनोमिद घोल ) तथा केस्टेलेनीज़ इण्ट्रावेनस ( शिरान्तरीय ) या इण्ट्रामस्क्यूलर ( मांसान्तरोय ) इंजेक्शन श्रीफ़ टार्टर एमेटिक के ि कार के साथ उसका उपयोग कम होगया । इसे त्वगन्तर, शिरान्तर या मांसान्तर अन्तःक्षेप द्वारा उपयोग में लाना चाहिए । १ श्राउं० ३ ग्राउंο अञ्जन विषतन्त्र ( अगद तन्त्रम् ) तोदण विष के लक्षण – इसके विष के लक्षण संखिया विष के सहरा ही होते हैं । अस्तु, पौन घंटे से एक घंटे भीतर निम्नलिखित लक्षण उपस्थित होजाते हैं । यथा- For Private and Personal Use Only गरमी तथा दाह प्रतीत होता हैं और गला घुटकर गिलन कठिन होजाता है। जी मचजाता है । बारम्बार दस्त व वमन थाते हैं । वमन किया हुआ द्रव्य कभी हरा का काला और कभी आकाशवत् नीला होता है । उदरमें पीड़ा होती है, और पिंडली की मांस पेशियाँ आकुचित होजाती हैं । सूत्रावरोध होता है। विषक को कभी उन्माद या शिथिलता भी हो जाती है और अंतिम कक्षा की निर्बलता होती है । नाड़ी Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir घोलकर दें या एपोमाकान से१० प्रजनयुग्मम् श्रञ्जनविधिः संकुचित तीव्र और अनियमित तथा अप्रकट रूप से सन्निपात ज्वर दूर होता है । से चलती है। स्वचा शीतल तथा पिचपिची हो (र० सा० सं० ज्वर० चि०।) जाती है। कभी शरीर पर दाने निकल पाते हैं। | अञ्जन रायि anjana-layi-ते० काला सुरमा अगद-यदि स्वयं खुलकर वमन न पाता -हिं० । देखो-अञ्जनम। ऐरिटमोनियाह सलहो तो वामक प्रयोग करें, यथा--१५ रत्ती (३० फ्युरेटम् (Antimonii Sulphure tuim) ग्रेन सल्फेट श्राफ जिङ्क को प्राउंस उष्ण जल ।.१ प्रअनवटो anjana-vati सं. स्त्री० पारा टक, गंधक २ टङ्क, मिर्च ६ टङ्क सत्र को पीस प्रेनका बक्स्थ अन्तःक्षेपको अथवा म पम्प । कजली करें, पुनः करेले के रस की २१ भावना या टयूब से प्रामाशय को भली भाँति धोएँ। देकर मर्दन कर एक रत्ती प्रमाण गोलियाँ बनाएँ। पुनः माजू सव (टैनिक एसिड ) को जो कि इसको जल से घिस अान करने से हर प्रकार इसका मुख्य अगद है किसी न किसी रूप से के ज्वर दूर होते हैं । (किसी किसी जगह केले के व्यवहार में लाएँ। पत्र के रस से ३१ पुट देने को कहा है।) अस्तु, टैनिक एसिडको १५ रत्ती (३० ग्रेन) की (वृ० रस० ग० सु० ज्वर चि०।) माया में एक पाव गरम पानी में मिलाकर पिलादें अञ्जन विधिः tijana-vidhih-सं० पु. और यदि आवश्यकता हो तो ऐसी एक एक ( Method of using collyrium ). माया औषध और २-३ बार पिलादें, या (२) नेत्रप्रसाधन भेद,अञ्जनकर्म यथा-दोष पकने के पश्चात् माजू चूर्ण १ तो० पावभर पानी में जोश देकर योग्य अञ्जन आँजना चाहिए । जो पदार्थ नेत्रों या (३) कीकर को छाल १ छ. अर्द्ध सेर जल में आँजा जाता है,वह अञ्जन कहलाता है । गोली, में कथित कर पिलाद या तेज़ चाय अथवा रस, और चूर्ण रूप से अज्जन तीन प्रकार का काफी पिलाई और जब वमन बन्द होजाय तब होता है। इनमें चूर्ण से चटो बलवान है, और पुनः अण्डों की सुफेदी जल वा दुग्धमें फेंटकर या वटी से रस बलवा केवल दुग्ध ही पिला। वेदना शमन हेतु अनीम ' प्रअन को सलाई अथवा अँगुली से आँजना सत्व (मॉरफ़ीन का ) स्वस्थ अन्तःक्षेप करें। चाहिए। गोली रूप प्रअन से रसरूप अञ्जन निर्बलता हरण हेतु उत्तेजक औषध उपयोग में और रसरूप अञ्जन से चूण रूप अञ्जन लाएँ था कुचला सत्व (स्ट्रिकनीन) अथवा निर्बल है। प्रागुक्र प्रत्येक प्रअन के स्नेहम डिजिटेलिस का स्वस्थ अन्तःक्षेप करें । रान रोपण और लेखन आदि तीन भेद होते हैं। हार, और बगल में उपए जल की बोतलें लगाएँ। कड़वे ( तीक्ष्ण भा० प्र० ख०१) और खट्टे नोट--बटर अॉफ ऐण्टिमनी के वेही अगद रस वाले अञ्जन को लेखन कहते हैं। (यह हैं जो स्खनिजाम्लों के। इस लिए देखिए-खनि अञ्जन नेत्रों में, पलकों में, नसों के समूह में, HIFT (Mineral acids ) कान में और कपाल की हड्डी में रहने वाले दोषों को स्थान से गिराकर मुख से, नाक से तथा नेत्रों अजनयुग्मम् anjana-yugimam-सं. स्त्री० से निकाल देता है । ) कषैले तथा कडुप रस साताजन और रसाञ्जन । वा० सू० प्रियंगु वाले और स्नेह युक्र श्रअन को शंपण अञ्जन पादि। देखो-असनम् । कहते हैं । स्नेह तथा शीतल होने से रोपण अञ्जन मजन रसः anjana-rasah-सं० ०(१) वर्ण को उत्तम करता है और दृष्टि के बल को पारा, मिर्च, इन्हें बराबर ले पीसकर नस्य दे तो भी बढ़ाता है। (भा०प्र० ख०१.) , सन्निपात ज्वर दूर हो । ___ मधुर रस युक्र और स्नेह युक्त प्रअन स्नेहन (२) हींग, फिटकरी इन्हें पीसकर नस्य देने कहलाता है ( स्नेहन अञ्जन रष्टि के दोष को For Private and Personal Use Only Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रञ्जनविधिः i शुद्ध करने के लिए और दृष्टि को स्निग्ध करने के लिए उपयोगी हैं। भा० प्र० खं० १ । अंजन तीरण ( लेखन ) हो तो उसकी मटर ( एक थंडी के बीज की बराबर ) के समान गोली बनानी चाहिए और मध्यम ( दृष्टि का बल बढ़ाने के लिए ) श्रर्थात् तीच्ण न हो, और कोमल भी न हो तो उसकी १॥ ( मटर के बराबर गोली बनानी चाहिए और कोमल ( दृष्टि को स्निग्ध करने वाला ) हो तो उसकी २ मटर के बराबर गोली बनानी चाहिए। आँख में यदि रसांजन अर्थात् रसरूप अंजन डालना हो तो तीन वायविडंग के बराबर डालना उत्तम है ( एक वायविडंग के बराबर भा० प्र० १० १ ), दो वायविडंग के बराबर डालना मध्यम है और एक वायविडंग के बराबर डालना कनिष्ट है ! चूर्णरूप अंजन जो स्नेहन हो तो उसकी चार सलाई आँख में लगानी चाहिए, रोपण हो तो उसकी तीन सलाई और जो लेखन हो तो उसकी दो सलाई नेत्रों में लगानी चाहिए। श्राँजने की मलाई दोनों श्रोरके मुखों से सकुची हुई, चिकनी, श्राट अंगुल लम्बी और उनके दोनों मुख मटर के समान गोल और वह पत्थर अथवा धातु की होनी चाहिए । स्नेहनांजन श्रजिना हो तो सोने अथवा चाँदी की, लेखन अंजन श्रजना हो तो ताँबे, लोहे, अथवा पत्थर की सलाई होनी चाहिए श्रौर रोपण अंजन आँजना हो तो कोमल होने के कारण उसके श्रीजने के लिए गुली ही ठीक है 1 काले भाग के नीचे आँख के कोये तक श्रञ्जन | श्रजे । हेमन्त ऋतु में और शिशिर ऋतु में मध्याह्न के समय श्रञ्जन श्रौंजना चाहिए। ग्रीष्म और शरद ऋतु में पूर्वाह्न के समय अथवा अपराह्न के समय श्रञ्जन sजना चाहिए । वर्षा ऋतु में बादलों के न होने पर तथा जन बहुत गरमी न हो उस समय अञ्जन श्राँजना | चाहिए और वसन्त ऋतु में सदैव जन करना चाहिए, अथवा प्रातः और सन्ध्या दोनों समय अञ्जन श्रजना उचित है, किन्तु निरन्तर न श्रजे । ter श्रञ्जनादिगणः थका हुआ, बहुत रोया हुआ, भयभीत, मद्यपान किया हुआ, नवीन ज्वर वाला, जीर्ण रोगी और जिसके मल मूत्रादि के वेग का अवरोध हो गया हो उनको अञ्जन नहीं लगाना चाहिए। ( भा० म० २ ) । जिनको प्रअन श्रीजने का निषेध किया है। उनके श्रञ्जन श्रजे तो नेत्रों में लाली होती है, नेत्र सूजे से होते हैं, तिमिर, शूल, तथा दोषों का कोप होता है, और निद्रा का नाश होता है । ( भा० प्र० ख० १ श्लो० ५८ ) अञ्जन शलाका Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir anjana-shalásá—• स्त्री० ( A stick or pencil for the application of collyrium सलाई, सुरमा लगाने की सलाई । अञ्जना avjaná-सं० [स्त्री० मादा हाथी, हथिनी । ( A female-elephant ) अञ्जनादिः anjanadi-सं० स्त्री० मैनशिल श्रीर पारावत ( कबूतर ) की बीट का अञ्जन करें तो अपस्मार विशेषकर उन्माद का नाश हो । मुलहकी, हींग, वच, तगर, सिरस बीज, कूट, लहसुन, इन्हें बकरों के मूत्र में पीस नेत्राम्न करने से तथा नस्य देने से अपस्मार और उन्माद दूर होता है । पुष्य नक्षत्र में कु का पित्त लेकर अन्जन करें तो अपस्मार दूर हो या उसी पिछ मैं घृत डालकर धूप दें तो अपस्मार ( मृगी ) दूर हो ! चक्र० १० अपस्मार त्रि० । निर्मली, शंख, तेन्दू, रुपा, इन्हें स्त्री के दूध मैं काँसे के पात्र में घिस श्रञ्जन करें तो व्रणसहित नेत्र की फूली दूर हो। रन, शंख, दन्त ( हाथी दाँत ), धातु (रूपा), त्रिफला, छोटी इलायची, करज के बीज, लहसुन, इनका प्रअन फूली के व्रण को दूर करता है तथा श्रवणशुक्र, गम्भीर धरण शुक्र, त्वग्गत शुक्र इन्हें भी दूर करता है । ( बं० से० नेत्र रो० शि० ।) श्रञ्जनादिगण : anjanadi ganah - सं० पु० सौवीराजन, रसाञ्जन, नागकेशरपुष्प, प्रियंगु, नीलोत्पल, उशीरा (खस), नलिन, मधुक और पुलाग । सु० सू० ३८ श्र० । स्रोताञ्जन, सौवीराज्ञ्जन, प्रियंगु, जटामांसी, पद्म, उत्पल, For Private and Personal Use Only 1 Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir সুনাথি अञ्जनी रसौत, इलायची, मुलहठी प्रभृति द्रव्य विष और अन्तर्दाह तथा पित्तनाशक है। वासू० १५. ! १० । सुर्मा, फूल प्रियंगु, जटामांसी, सफेद कमल, नीलकमल, रसांजन, इलायची, मुलहठी, ! नागकेसर। यह गण विष अन्तर्दाह तथा पित्त शामक है। बं० सं० व्यगणाधिकारे । अञ्जनाधिका anjanādhika-सं० स्त्री० (१)। .. काली कपास का सुप। देखा-कालाअनो। (२) अञ्जनी, लेपकारिणी। आजनाह-बं०। हारा० । हे० ० ४ का । जुद्रमूषिका। असनाम्भः anjanambhah-सं• क्लो० अञ्जन | जल, लोशन, चक्षु प्रसाधनार्थ औषधीय द्रव ।। लिक्विट कोलीरिश्रम् ( Liquid coll ritium), श्राई वाटर ( Eye Water')| -ई० । वै० श० । अञ्जनिकः Anjanikah-5. पु. गंधरास्ना। वै० श० । प्रचनिका anjanika-सं० स्त्री० देखो-अञ्ज नाधिका । डाँगरी । लु० क०। अजनी anjanj-सं०सी० (1) कटका (की)-60 कुटकी-हि । पिकारहाइजा करोना ( Pic. rorrhiza. kuron)-ले०। (२) काली कपास । देखो-कालाञ्जनी । रा०नि०५०४।। (३)-हि. संज्ञा स्त्री० अञ्जननामिका ।। अञ्जन, यासिक, कुर्प, लोखण्डी ( फा०ई० २ भा०), लिम्ब (10 मे० प्लां.)- मह । काशमरम (फा०६०२ भा० , कायमस्वचेष्टि, केसरी-चेष्टि (इं. मे० प्लां.) ता.। अल्लिचेड्डु-(चेष्टु) ते० । सुर्प (फा० इं० २ भा०), लिम्ब-तोलि-कना० । बारी-काइ, सेरू काय . -सिं० । काशवा-मल । अंजन, याल्कि, लोखण्डी -बम्ब०| कालो कुडो-कॉ०। मेरिटोरियम् ' M. ''inetorium, मेमीसीलोन ईदगुली (Memeeylon Edule, nort.)-ले०। श्रायर्न युट दी lion wood tree)-३०।। मे० कमेस्टिवल (Memecylon Comestible) फ्र० । ___ मेलास्टोमेसोई वर्ग (10. Jeluslomncene. ) उत्पत्ति स्थान--पूर्वी व पश्चिमी प्रायद्वीप और लङ्का। वानस्पतिक विवरण-अञ्जनी के लघु वृक्ष अथना झाड़ियाँ होती हैं, जो पर्वती भूमि में उत्पन्न होती हैं। "फ्लोरा |ॉफ ग्रिटिश इण्डिया" में इसके द्वादश भेदों का वर्णन किया गया है। यह एक वृहत् झाड़ी है जिसमें चमकीली हरित वर्ण की पन्नावली और निम्न शाखाओं में नीला. भायुक बैंगनी रंग के पुष्प-तुच्छ लगते हैं। चौथाई इंच व्यास के फल लगते हैं। इसके सिरे पर चार पंखड़ी युक्त पुष्प-गाल-कोष (Calyx ) लगा होता है। फल खाद्य है। किन्तु कपेला होता है। पत्ते १॥ से ३॥ ई० लम्बे, 1 से 11 ई० चौड़े, सम्पूर्ण (अखण्ड), हृढ़, चमोपस, पत्र-डंडी लवु, अत्यन्त अस्पष्ट पाश्चिक सिरायुक्र होते हैं। ये सूखने पर पीतामायुक हरितवर्ण के हो जाते हैं। स्वाद-अम्ल, तिक और कसैला। रसायनिक संगठन-पत्र में प्रोरोफिल (हरिमूरि) के अतिरिक्र. पीत ग्ल्यकोसाइड, राल (Resin), रसक पदार्थ, निर्यास,श्येतसार, सेब का तेज़ाब, येल रेशे (Crude fibre) और शैलिका ( silica )युक अनन्द्रियक द्रव्य विद्यमान होते हैं। प्रयोगांश--मूल और पत्र । प्रभाव व प्रयोग-भारतवर्ष और लङ्का में इसके पत्र रश के लिए प्रयुक्त होते हैं। इसका विशेष प्रभाव रंग को पक्का करना है। इसलिए मदरास में चटाई बनाने वाले हड़, पता और मजीठ के साथ इसे विशेष रूप से उपयोग में लाते हैं । गम्भीर रकवर्ण उत्पन्न करने में बे इसे फिटकिरी से उत्तम ख़याल करते हैं। __ अजनी शीतल और संकोचक है । इसके पत्ते का शीत कषाय (२० भाग में भाग ) आँख श्राने में संकोचक लोशन रूप से ग्यवहार में पाते हैं और सूजाक एवं श्वेत प्रदर में इसका For Private and Personal Use Only Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अखबार अजवार प्राभ्यन्तरिक उपयोग होता है । इसकी जड़ का ! फाथ (१० में १)। तो० से ३॥ तो की मात्रा में अत्यधिक रजःस्राय के लिए लाभदायी खयाल किया जाता है, (दुगरी)। अञ्जनी की छाल का चूर्ण सुगन्धित द्रव्यों, । यथा-अजवायन, ( काली मिर्च और जदयार प्रभति के चूर्ण के साथ मिलाकर इसे कपड़े में बाँधकर मोच पाने अधया कुचल जाने में इसका सेक करें अथवा इसे लेप के काम में लाएँ। (चि० आइमॉक)। डेंकटर पीटर के वर्णनानुसार अञ्जली पन । बेलगाँव ( दकन) में सूजाक के लिए बहुत । प्रसिद्ध है। इस हेतु इसको खरल में कुचलकर उबलते हुए जल में डाल इसका इन्फ्यूजन (शीत कपाय ) तय्यार करना चाहिए । अज्जबार) anjabara-अ० किसी २ ग्रंथ में अजवार) अजुबार और अञ्जिबार भी पाया है। अङ्गवार होज़र, बंदक-फा० । बु० म० । मिरोमती -सं०।३० मे० मे० । मचूटी, इन्द्राणी, केसर, कुयर,निसोमली, बीज बन्द-हिं० । मस्लून, बिलौरी अक्षयार-पं० । द्रोब-काश० । इन्द्रारू-सिंध । पॉलीगोनम् अविक्युलरी Polygonum Aviculare, to faszizi P. Bistorta Linu., पा० विविपरम P. riviparuin-ले० । नोटमास knot grass-इं० । फॉ० इं०। इं० म० मे० | ई० मे० प्लां० ।। मेमो० । रिनोवी अोइसी Renolice toise. ! aux-फ्रां०। पोलिगोनेशिई ( अमबार ) वर्ग . (N. 0. Polygonacego ) उत्पत्ति स्थान-उत्तरी एशिया और यूरोप । । वहीं से यह भारतवर्ष में लाया गया । फा. इं० ३ भा० । पश्चिमी हिमालय, काश्मीर से ! कुमायूँ तक, रावलपिण्डी और डेकन । ई० मे० प्लां० । इतिहास-सर्व प्रथम यूनानी ग्रन्थों में अंजुधार का वर्णन किया गया है । श्रस्तु, दासकरीदस ( Dioscorides ) और लारो ( Pliny) के ज़माने में यह रवापरोधक । मभेदनीय तथा मूत्रल प्रभाव हेतु उपयोग में श्राता था। जलनयुक्र प्रामाशयिक वेदना में इसके पत्र को स्थानीय रूप से प्रयोग में लाते थे और मूत्राशय एवं विसर्व संबन्धी व्यथा में इसका लेप करते थे। इसका रस तिजारी और चौथिया प्रभुति ज्वरों में, ज्वर चढ़ने से थोड़ी देर पहिले विशेषरूप से उपयोग में प्राता था। स्क्रियोनिअस (Scribonius) का कथन है, कि चूँ कि यह प्रत्येक स्थान में पाया जाता है इस लिए इसको पालिगोनोस ( Polygonos) कहते हैं। इब्नसीना तथा अन्य अरबी हकीम इसको असाउर्राई. तथा बर बात नाम से पुकारते हैं। इनके विचार से अम्बार शीतल एवं रूस है तथा वर्णन क्रम में वे इसके उन्हीं गुणों का उल्लेख करते हैं जिसका वर्णन यूनानियों ने सर्व प्रथम अपने ग्रंथों में किया । फारसी लेखक इसको हज़ार बन्दक कहते हैं । आयुर्वेदिक ग्रंथों में इसका कहीं भी वर्णन नहीं मिलता। हाँ! भारतवर्ष में हकीम लोग अभी इसको उन्हीं रोगों में वर्तते हैं जिनका ज़िकर दीसकरीस ने किया है। __वानस्पतिक विवरण- इसका वृक्ष प्रादमी के कद के समान होता है । मूल तन्तुमय, लम्बा अत्यन्त कठोर, कुछ कुछ कालीय; निम्न माग शाखी एवं सिरा साधारण, श्यामाभायुक्त रक एवं विपम होती है। प्रकाण्ड अनेक, प्रत्येक दिशा में फैला हुआ,माधारणतः दण्डवत पड़ा हुआ,(नस) बहशाखा युक्र, गोल, धारीदार अनेक प्रन्थियों पर पर्णसंयुक होता है। पत्र-एकातरीय अर्थात् विषमवर्ती, ई.ल युक्र, मुश्किलसे एक इंच लम्बा, श्रण्डाकार या बछ के प्राकारका,सम्पूर्ण (श्रखंड), अधिक कोणीय, एक नस से युक्र, किनारेके सिवा चिका, विभिन्न चौड़ाई वाला, पदार्थ अधिक चोपम, पण कुछ कुछ धूसर अथवा नीला और डंटल की ओर गावदुमी होता है । पुष्प श्वेत गंभीर क्र तथा हरित वण से चित्रित होता है। बीज-त्रिकोणाकार चमकीले और काले रंग के होते हैं। For Private and Personal Use Only Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अजरह अज़रूत प्रयोगांश जड़ (अधिकतर जड़ की छाल, अक्षरा anjara-F० सिरियारी, सिरवाली-हिं० । श्रश्रवा जड़के रेशे ) उपयोगमें पानी है । स्वाद- अज़रान aawarana . आज़रबू। लु०क०। फीका । प्रकृति-३ कक्षा में उंडी और रूक्ष है। अक्षरूत Maruta-अ. सिर०,अज़रूरा ! गूजर हानिकर्ता-शीत प्रकृति को ! दपनाशक-सोंड, । -बम्ब०। यह गूज़द (फ़ा०) शब्द का अपभ्रंश शहद । प्रतिनिधि-जारिश्क और गिले अरमनी ।। है। "मरज नुल अद् वियह.' के लेखक जीर मात्रा-3 से ६ मा0 तक। मुहम्मदहुसैन महाशय के विचार से इसके पर्याय रासायनिक संगठन-अजुबार सस्व अर्थात : निम्न प्रकार हैं, यथा-कुह ल फारसी (फारसी पॉलिगोनिक एसिड ( Polygonic acial ), . अभजन ), कुह ल किर्नानी ( किर्मानी प्रजन) कपायाम्ल ( Tamic acil), माज्याम्ल -अ० । अजदक, कुजुद, अगरधक, कुन्दरू ((Gallic acid), श्वेतसार और कैल्सियम् -फान लाई,लाही-हिं। ऐस्ट्रागैलस सकोकोला प्राजोलेट (Calcium oxalate)। ( Astragalus sarcocolla, Dyगुण, कर्म, प्रयोग-(१) सम्पूर्ण प्रचयबाँके । mock.) रुधिरका रुद्धक, फुफ्फुस और विशेष करके वक्षः लिग्युमिनोसी अर्थात् शिम्बो वर्ग स्थल के रुधिर का रुद्धक है। (२) पित्त और (N. 0. leguminose.) रुधिर के दाह का शमनकर्ता । (३) बवासीर उत्पत्तिस्थान-कारस । सम्बन्धी रुधिर, प्रवाहिका, धमन और जीर्णातिसार ( पुराने दस्त) का बद्रक और नजलाश्री इतिहास--यद्यपि पूर्वी देशों में आज भी अऊजरूत अधिकता के साथ उपयोग में प्राता का रुद्रक है। (४) इसका चूर्ण ता पर बुर. कने से रतस्त्राव रुककर वे भरने लगते हैं। है, से भी वर्तमान कालमें लोग युरूपमें मुश्किल (निर्विपैल). से इसे जानते हैं । दोसकरीदूस ( Diosco. rides) हमें बतलाता है कि यह एक फारसी अजुबार श्लेष्मानिस्सारक, मूत्रविरजनीय, वृक्ष का गोंद है जो चू किए हुए लोबान के बल्य, सङ्कोचनीय और परियायज्वरनिवारक है। सदृश और सुर्तीमायल तथा कुछ कुछ तिक इसकी जड़ का काथ (१० भाग में १ भाग) स्वाद यक होता है। इसमें जन्मों के बन्द करने २॥ तो० से ५ तो० को मात्रा में जनशन : और चावाबरोधक गुण है। यह प्रस्तरी(पला( Gentian) के साथ विषम ज्वर ( Mal स्टरों ) का एक अवयव है इसमें गोंदी का alia), पुरातन अतिसार और अश्मरी रोग मिण करते है। में तथा रक्रकेशिका सम्बन्धी कास, कुकुरखाँसी और अन्य फुप्फुसीय रोगों में भी व्यवहत होता . पलाइनो ( Piny) उन्हीं गुणों का वर्णन है । इसका रस भी लाभदायक है। श्वेतप्रदर , करता है और इतना विशेष बतलाता है कि चित्रकार इसकी बड़ी इज्जत करते हैं। तथा प्रणों में इसका काथ पिचकारी द्वारा (पाव इन लोमा करते हैं कि यह बिना खराशके व्रणों धोने में ) व्यवहृत होता है तथा मसूड़ो की सूजन को पूति करता एवं अंकुर लाता है। प्रस्तर और कच्चा लटक पाने पर इसकी कुल्ली करना (प्लास्टर) रूप से उपयोग करने पर यह सर्वोत्तम है । ई० मे० मे। समस्त प्रकार के शोथों को लयकता है। नासिका प्रभृति से रकस्राव को रोकने के लिए मसीह इतना विशेष बतलाते है कि यह तीकरण अनुसार उपयोग में आता है । वि० डाइमॉक; रेचक है और कफ एवं विकृत दोषों को निकाइसकी सूखी जड़ का वेदनाशमन हेतु वाह्य लने के लिए उत्तम है। हाजी जैनुल अत्तार प्रयोग होता है। (स्टुवर्ट ). कहते हैं कि इसका फारसी नाम गूज.६ है और अक्षरह anjarah-फा०, अ० देखा-अञ्जरह ।। जिस वृक्ष से यह निकलता है वह शीराज के For Private and Personal Use Only Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अंजरुत १६२ अज़रूत निकट शबानकारह की पहाड़ियों में पाया जाता है। उक्र निर्यास का अन्य नाम जवुदानह है। जब यह पहिले निकलता है तब श्वेत होता है, किन्तु वायु में खुले रहने पर लाल होजाता है। अर्वाचीन लेखकों में “मज़नुल अद्वियह" ! के लेखक मोर मुहम्मदहुसेन हमें बतलाते हैं । कि इस्फहान में अञ्ज रूत को कुजुद और | अगरधक कहते हैं (शेषके लिए देखो-पर्याय सूची)। श्राप के कथनानुसार यह शाइकह, नामक दार वृक्ष का गोंद है जो ६ फीट ऊँचा होता है। श्रीर जिसके पत्र लोबान पत्र सहरा होते हैं।। इसका मूल निवास स्थान फारस और तुर्किस्तान | है। पुनः वे उक्र औषध का ठीक विवरण | देते हैं। आयुर्वेदीय ग्रन्धों में इसका कहीं भी जिकर नहीं पाया शाता । वानस्पतिक विवरण-सार्कोकोला के न्यूनाधिक सामूहिक एवं अत्यन्त विचूर्णित दाने होते हैं। यह अपारदर्शक अथवा अर्धस्वच्छ होता है और गम्भीर रक्त से पीताभायुक्र श्वेत अथवा धूसर वर्ण रूपान्तरित होता रहता है। इसमें मुश्किल से कोई गन्ध पाई जाती है। इसका स्वाद अत्यन्त कडुपा और मधुर होता है। उत्तप्त करने पर यह फूलता है और जलते समय इसमें से जले हुए शर्करा की सी गन्ध पाती है । सार्कोकोला (अज रूत) निर्यास फारसी बन्दरगाह बुशायर से थैलों में बम्बई प्राता है । इसके अन्य भागों का विवरण निम्न प्रकार है फल-इंठल छोटा, पतला, पुष्प-वा-कोप श्रण्डाकार, घण्ट्याकार, भूसी संयुक्र, 1 इञ्च लम्बा, ५ तंग विभाग युक्र (पञ्च सूक्ष्म खण्ड.युक) और खुला हुआ होता है। इसके भीतर पुष्पदल ( Petals ) और एक अण्डाकार, सरत, तुण्डाकार, फली जो धान के इतनी बड़ी | और जिसका वाह्य धरातल एक धने सुफेद वर्ण । के रोवों से श्रावरित होता है । यद्यपि फली पक जाती है तो भी पंखड़ियाँ लगी रहती हैं। उनमें । से सबसे ऊपर वाली फणाकार होती थीर फली के तुण्ड भाग को ढाके रहती है। फली द्विकपाटीय होती है, उभारकी सीवनसे लगा हुश्रा एक पोर धूसरवरण का उपद सदृश बीज होता है, जिसका व्यास। इन होता और जो जल में भिगोने से फूलता और फट जाता है एवं अंज़रूत समूह में निकल पड़ता है। कुछ छीमियाँ पत. नीय तथा निर्यासपूर्ण होती हैं। प्रकारात -अर्थात् तना-काष्टीय, जिसमें असं. स्य प्रकाश मय गट्टे होते हैं, करटकमय; कोटे ३ से १ इंच लम्बे जो लघु शाखा सहित रोंगटौं से प्रावरित होते हैं और जिन पर अज़रूत की पपड़ी जमी होतो है। पत्र-कहते हैं कि इसके पत्र लोबान पत्र सदृश होते हैं । ( सर विलियम डाइमॉक) प्रयोगांश-निर्यास । रासायनिक संगठन-सार्कोकोलीन ६५.३०, निर्यास ४.६०, सरेशी पदार्थ---३.३०, काष्ठीय द्रव्य प्रभुति २६८०। साकोलीन ४० भाग, शीतल जल तथा २१ भाग उबलते हुए जल में धुलनीय है । (गिवर्ट) मात्रा-२। मा० से ४॥ मा० (४ रती से १ मा०) । प्रकृति-दूसरी कक्षा के अन्त में उष्ण और उसी कक्षा के प्रारम्भ में रूक्ष | हानिकर्ता प्रांत्र को। ५ दिरम पिसा हुआ विशेषकर अभ्रक के साथ विष है । दर्षनाशककतीरा, बबूल का गोंद और रोशन बादाम प्रभुति । प्रतिनिधि-इसके समभाग एलुश्रा और कुछ श्रधिक निशास्ता : मुख्य प्रभाव- प्रणद्रवशोषक और नेत्ररोग को लाभ पहुँचाता है ।। गुण, कर्म, प्रयोग-यद्यपि इसमें एक प्रकार की रतबत भी होती है। जो इसकी खुश्का के साथ दृढ़ता पूर्वक मिली हुई हैं, किन्तु, तो भी खुश्की ग़ालिब रहती है। इसी कारण बिना कांतिकारी गुण एवं तीपणता के यह आदें. ताशोधक है और इससे यह व्रणो को पूरित करता है, क्योंकि यह उस राध और उन पीत दत्रों को जो व्रणों को भरने नहीं देते नष्ट कर देता है। अपने लहेश के कारण प्रणों के किनारों को जोड़ देता है। For Private and Personal Use Only Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मारूत অঞ্জলিকাৰিকা आँख पाने को अन्त में लाभप्रद है, क्योंकि है। इसका पीना गर्भपातक और कृमिघ्न है। बिना कांतिकारिणी गुण एवं कष्ट के दोषों को तरबूज के पानी में तर किया हुआ शरीर को लयकरता है और नेत्र की ओर बहकर आनेवाले धृहण कर्ता है । यह वायु लयकर्ता, रोधउद्धाटक दवों को रोकता है। संधियों से गाढ़े दोषों को | और श्लेष्मानिस्सारक है। दस्त द्वारा विसर्जित करता है। क्योंकि इसमें : अञ्जरूत लेपन श्रोषधियों का एक प्रधान अवयव एक तिक अंश है जिसकी क्रिया में तस्वीन (खुरदरा कारिख ), नु जुज ( परिपाक ), है। पारसी लोग इसके साथ रुई मिलाकर टूटी तातीह. ( स्रोतावरोधन ) और तइलील : हुई अथवा मोच श्राई हुई अस्थियों तथा निर्बल ( विलायन ) समावेशित हैं। परन्तु किसी सन्धियों में भी उनको सहारा देने के लिए किसी के विचारानुसार उसकी यह क्रिया (गादे । इसका उपयोग करते हैं । साधारण लेपन योग दोषों को दस्त द्वारा निकालना) केवल इसकी । निम्न है - खासियत की वजह श्रमज रूत ३ भाग, जदवार १ भाग, एलुमा ( नको.) सकोतरी १६ भाग, फिटकरी = भाग, मैदालकड़ी अब्जरूत रेचक और विकृत एवं श्लैष्मिक ४ भाग, गूगल ४ भाग, लोयान ७ भाग और दोषों को लयकर्ता है । निशोथ तथा हड़ : उसारह रेवन्द १२ भाग । इन समस्त श्रौषधों · प्रभृति के साथ मिलाकर उपयोग में लाने से का बारीक चूर्ण कर पुनः जल मिलाकर सिल यह सर्वोत्तम प्रभाव करता है। अपस्मार में एरंड। यहा द्वारा इसकी लुगदी प्रस्तुत कर उपयोग में तैल के साथ मिलाकर भीतरी रूप से और नेत्र ! लाएँ । ( वि० डाइमांक) द्वारा जलस्राव होने पर इसका स्थानीय उपयोग । अञ्जल anjala-खित्मी, खैरू । ( See-Khiहोता है। संधिवातनाशन और कृमिघ्न प्रभाव tini) ल० क०। हेतु इसका प्राभ्यन्तरिक प्रयोग होता है। हण प्रभाव हेतु मि.देशीय स्त्रियाँ इसे अञ्जलिः anjalih-सं० पु०(१) प्रसूति द्वय भक्षण करती हैं । मात्रा प्राधा से २ मिस्काल है। (१६ तो०); ३२ तो. (प० प्र०१ ख.)। अधिक मात्रा में प्रांत्रीय ग्रंथ्यवरोध के कारण (२) कुड़पः (व:) मान (=३२ तो०, ८ यह घातक सिद्ध होता है। अंजन रूप से उपयोग वा ४ पल )। रत्ना० नानार्थः। भा० उ० करने के लिए इसे गधी के दूध में रगड़ना चाहिए। वाजी० । (३) अञ्जलिपुट, करसम्पुट, अँजुरी । तत्पश्चात् इसको चूल्हे में यहाँ तक शुष्क करें: मेलनिकम् । कि यह हलका भुन जाय, पुनः घोट कर अंजन अञ्जलिका anjalika-सं० स्त्रो० (१) लज्जाप्रस्तुत करें । इसका प्रास्टर (प्रलेप) सम्पूर्ण प्रकार लका । (२) क्षुद्रमूषिका । जटा० । के शोथों को लयकरता है । प्याज के भीतर अञ्जलिकार anjalikāra-अोषधि विशेष । भरकर अग्नि पर भूनकर इसका रस कान में ! कौटि० अर्ध। टपकाने से कर्णवेदना 'शमन होती है। प्रशलिकारिका anjalikārikā-सं० स्त्री० ( मीर मु. हुसेन) लजालुका, लज्जालु, छुईमुई। माइमोसाप्युडिका अऊज़रूत, श्वेत सीसा प्रत्येक २ भाग, । (fimosa Pudica )-ले० । सेन्सिटिव निशास्ता ६ भाग इनको खूब घोटकर बारीक चाल unez ( Sensitive plant ).80 i tro लें | यह उत्तम अंजन प्रस्तुत होगा । नि० ५० ५। भा० पू० गु० व०। (२) (तिम्बे अकयरी) वराहक्रान्ता, वाराहीकन्द-हिं० । लाइको. मोती, मूंगा जलाया हुआ और मिश्री पोडिअम् इम्बिकेटम् ( Lycopodium समभाग के साथ आँख की सुफेवी को लाभदायक | imbricatum )-ले० । For Private and Personal Use Only Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अजलिनी १६४ अञ्जलिनी anjalini-सं० स्त्रो० लजालुका, Jinn.)-ले० कारखा उम्बर-मं । किगू Figue छुईमुई-हिं० । देखो-लजालु । वै० श०।। फ्रां०। फाइक्रस केरिका( Ficus carica, दो सेन्सिटिव प्लाण्ट (The sensitive Linn.) ले। फिग ( Fig) । plant)-इं०। अश्वस्थ वा वटवर्ग (अर्टिकेशिई) प्रअलिपुटः,-पुटं anjalipurah, putain, (N.O. Urticarea) -सं०पू०,क्ली०('The Cavity formedi उत्पत्ति स्थान-इसका मूल निवास स्थान by joining the hands together): फारस वा एशिया माइनर है । अब यह भारतवर्ष कर सम्पुट । अञ्जलि । में भी बहुत होता है । अरबिस्तान, अफगानिस्तान अक्षस,-सी anjas, si-सं०नि०, स्त्रो० ( Not : तुर्किस्तान और अफरीका तथा विलोचिस्तान और crooked, straight) सरल, सीधा । काश्मीर इसके मुख्य स्थान हैं। अञ्जस anjas-० अशुद्धतर, अत्यन्त अपवित्र : वानस्पतिक विवरण-अंजीर गूलर की ही (नजिस ), बहुत पलोदा | म० ज० । जाति का एक वृत है। इसमें स्थूल, गूदादार, अञ्जायना पेक्ट्रोरिस angina pectoris-इं० , खोखला, नासपाती की शकज का एक प्रावरणा हृच्छूल । (receptacle ) होता है जिसकी भीतरी अञ्जिवम् anjivan-सं० क्लो० प्रकर कामी। रुख पर सूक्ष्म फल समूह उत्पन्न होता है उक्त प्रावरण के सिरे पर एक चित्र होता है। अथः । सू०६।६। का० । वह प्रथम ( अपरिपकावस्था में ) हरा, अञ्जिष्ठः, छुः jishthab, shthuh-सं० । कठोर और चर्म सदृश होता है। कोई अस्त्र पु. ( 'The stuli) सूर्य । सुभामे पर उसमें से दुग्ध स्राव होता है। अञ्जीरः anjirah-स. पु०, का०, हिं०, संज्ञा : परिपक्वावस्था में वह मदु एवं रसपूर्ण हो जाता पु. यं०, द०, अंजीर को०, म०, गु० ।' तथा दुग्धीय रस शर्करा रस में परिणत हो मम्जुलं (-लः),काको दुम्बरिकाफलं, अंजीर (वृक्ष) जाता है। छिद्र घिरा हुआ एवं अनेक छिलकों -सं० । अंजीरी, गुलनार, खकार, बेरू, बेलू, । से आधरित होता है। उसके निकट तथा अंजीर अजीर । ई० मे० प्लां०, मेमो०। (काक)डुमुर, । के भीतर नरपुष्प स्थित होते हैं, किन्तु, प्रायः अञ्जीर, बड़ पेयारा गाछ,आँजीर-यं । भगवार, उनका अभाव होता है अथवा उनका पूर्णविकास काक, कोक, फेड, इजर, फाग, किम्रि, फगोरू, नहीं हुआ होता । ना पुष्प प्रावरण के भीतर फागू, फोग, स्वबारी, फेना, थपुर, जमीर, धूल, ___ कुछ दूरी पर स्थित होते हैं जहाँ वे परस्पर गुये दूधी, दहोलिया, फगूरी, फगारी (मेमो०)-पं० ।। हुए और डंठलयुक्र होते हैं, इनमें पंच पखड़ी फगवार-पश्तो० । अंजीर, इजर-अफगा।' युक्र पुष्पकोष और इयरेशीय खुकल (Stiफेम्बा-राज० । धीरा-म० प्र० । पेपरी, अजीर : gma) होता है। दिम्बाशय, जो साधारणतः -गु० । फगवार, थपुर-उ०मा० के मैदान । एक कोषीय होता है, परिपक्क होने पर एक (इ०० म०), अमीर-चम्ब० । शीमद-अत्ति, : सूक्ष्म, शुष्क कार गिरी में परिवर्तित हो जाता तेन यत्ति ताशीम यत्ति, तेने-अत्ति, अंजूस, है जिसे ही बीज ख़याल किया जाता है। (फार्मामांदी पातू-त० । शीम-अत्ति-मला। बैण्डनेड- कोग्राफिया )। करना०। शीमे-अलि-कना० । रट-अत्ति-का इसके लगाने के लिए कुछ चूना मिली हुई -सिं० । स-फान्-सी, तिम्बो-थान-दि, सिम्बो । मिट्टी चाहिए । लकड़ी इसकी पोलो होती है। सफान-सी-वर्मी । तीन, बल्स-अ० । सीडियम | इस के कलम फागुन में काटकर दूर दूर क्यारियों पॉमिफ़रम् ( Psiliun Pomifestum, ! में लगाए जाते हैं। क्यारियाँ पानी से खूब तर For Private and Personal Use Only Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अरेर श्रीर रहनी चाहिएं। लगाने के दो ही तीन वर्ष बाद इसका पेद फलने लगता है और १४ या १५ वष तक रहता और बराबर फल देता है। यह वर्ष में दो बार फलता है। एक जेड असाढ़ में और फिर फागुन में । माला में गुथे हुए इसके . सुखाए हुए फल अफ़ग़ातिस्तान प्रादि से हिन्दुस्तान में बहुत पाते हैं । सुग्वाते समय रंग . सदाने और छिलके को नरम करने के लिए या तो गंधक की धूनी देते हैं अथवा नमक और शरा मिले हुए गरम पानी में फलों को दुबा देते । हैं । भारतवर्ष में पूना के पास खेड शिवपुर नामक गाँव के अंजीर सबसे अच्छे होते हैं । पर अफगानिस्तान और फारसके अजीर हिन्दुस्तानी अंजीरों से उत्तम होते हैं। यह दो तरह का होता है, एक जो पकने पर लाल होता है, और . दूसरा काला। प्रयोगांश-शुष्क प्रावरण अर्थात् ( अंजीर ) लक्षण-यह मृदु होता है इसके भीतर बहुत से कांप एवं बीज होते हैं। दबने से फल चपटे, और बेकायदा हो जाते हैं। वर्ण--पीताभायुक । धूसर, पर कोई कोई श्वेतामायक रक्क व श्याम । | स्वाद--मधुर। वर्ण भेद से यह तीन प्रकार का होता है। यथा (1) पीत, (२) श्वेत और (३) श्याम । ब्रिटिश फार्माकोपिया के अनुसार स्मरना का अञ्चीर दवा के काम में आता है जो पीला होता है। रासायनिक संगठन -फल-इसमें द्राक्ष शर्करा ( Grape sugar) ६२ प्रतिशत, निर्यास, घसा और लवण होता है। शुष्क अजीर में शर्करा, वसा, पेक्टोज, निर्यास, अल्युमीन (अण्डे की सुफेदी) और लवण होता है। दुग्ध-में पेप्टोनकारी अभिषव (Peptouising ferment) होता है। गुण धर्म प्रयोग आयुर्वेद में इसे शीतल, स्वादु, गुरु, रक्रपित्त, वात, क्रिमी, शूल, हस्पीपा, कफ | और मुख की विरसता नाश करने वाला कहा है । मद० व०६। अजीर अत्यन्त शीतल. तत्काल रक्रपित्त ना. शक, पित्त और शिरोरोग में विशेष करके पथ्य है तथा नाक से रुधिर गिरने की बन्द करता है। अजीर भारी, शीतल, मधुर, वातनाशक, रक्रपित्त हारी, रुचिकारो, स्वादु, पचने में मधुर तथा श्लेष्मा और ग्रामवातकारक है एवं रुधिर विकार को दूर करता है । वृ०नि० २० । युनानो ग्रन्थकार इसे ( ताजा अजीर) १ कक्षा में उपण और दूसरी में तर मानते हैं। हानिकर्ता-यक्रत, प्रामाशय और अधिकता से खाना दाँतों को । दपनाशक-बादाम और सासिर । प्रतिनिधि-चिलगोज़ा और दाम्य । ताजा अजीर मदुकत्ता, पोषक और शीघ्रपाकी है। कच्चा अजीर अत्यन्त जाली ( कांतिकारी ) है; क्योंकि इसमें दुग्ध बहुत ज्यादा होता है और पार्थिवांश की अधिकता के कारण यह सर्दी की और मायल है। शुष्क अजीर शीतोत्पादक है । जलांश की न्यूनता के कारण यह १ कक्षाके अन्तमें उष्ण और सूक्ष्म है । इससे पतला ख न उत्पन्न होता है जो बाहर की ओर गति करता है । अजीर सम्पूर्ण मेवों से अधिक शरीर का पोपण करता हैक्योंकि पूर्व कथनानुसार जलांशाधिक्य के अतिरिक्र पार्थिवांश की अधिकता भी है। भली प्रकार पका हुआ अजीर तकरीबन निरापद, होता है; क्योंकि इससे वह तीपण दुग्ध जो इसमें होता है, नष्ट हो जाता है और इसके पार्थिवांश में समता स्थापित हो जाती है। अधिक गूदादार अजीर शारीरिक दोषों का अधिक परिपाक करता है। क्योंकि गरम व तर होने के कारण दोष परिपाककारी ( मुजि ) है। इसके गूदे में स्नहोप्मा विशेषकर होती है। इसी कारण अधिक गूदे वाला अजीर अधिक . परिपाक करता है। इसमें अन्तिम कक्षा की कुव्वते तल य्यन (दोष मृदुकारी शक्रि ) है; क्योंकि इसकी उष्मा रतूबतों For Private and Personal Use Only Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अर के बहाने पर अधिकार रखती है। परन्तु, शुष्कता उत्पन्न करने पर इसका कोई अधिकार नहीं होता अर्थात् यह शोषक गुण रहित है । यह स्वेदजनक एवं उत्तापशामक हैं । अन्जीर कान्तिदायक है; क्योंकि यह सूक्ष्म शोणित उत्पन्न करता है और उसको बहिर्भाग की गति देता है। अपनी तूबत, उष्मा और सूक्ष्मता के कारण इसका लेप फोड़ों की पकाता है । अपनी तीक्ष्णता ओर मधुरता द्वारा धानाशय को उत्तप्त करने के कारण वह उष्ण प्रकृति वालों को तृषान्त्रित करता है और उस पिपासा को जो खारी श्लेष्मा ( बल्ग़मशोर ) के कारण उत्पन्न हुई होती है उसको शमन करता है; क्योंकि यह बलगम ( श्लेष्मा ) को दिखलाता एवं पतला करता और काटता छाँटता है। १६६ अजीर पुरानी खाँसी को लाभ पहुँचाता है; क्योंकि यह खाँसी केवल बलगम से उत्पन्न होती हैं और श्री बलराम को पिघलता या नु जुज ( पका ) देता एवं तहलील ( लय ) करता और दोषों से शुद्ध करता I अपनी रोधउद्घाटक तथा कान्तिकारिणी शक्ति के कारण यह मूत्रविरजनीय है तथा यकृत एवं प्लीहा के रोध का उद्घाटक है 1 क्योंकि यह तीच्ण मलों को त्वचा की ओर प्रक्षेपित करता है; श्रस्तु मूत्र उनसे राहत होता है, जिससे वस्ति में मूत्र सम्बन्धी कोई कष्ट नहीं होता | इससे सम्भव है कि मूत्र चिरकाल तक वस्ति में बिना किसी कष्ट के बन्द रहे । 'यह वस्ति और वृक्क प्रत्येक के लिए उपयुक्त है, क्योंकि यह कान्तिप्रदायक है एवं दोनों के मलों को मूत्र द्वारा विसर्जित करता तथा उनको त्वचा की ओर मायल कर देता हैं। निहार मुँह खाने से यह अन प्रणाली को खोलने में आश्चर्यजनक लाभ दिखलाता है । जब इसे अखरीद अथवा बादाम के साथ खाया जाता है तब यह श्राहार से मिश्रित नहीं होता, जिससे इसकी वैयक्रिक शक्ति टूटने नहीं Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अञ्जीर पाती, क्योंकि उनकी चिकनाई अधीर के प्रदाह को जो तीक्ष्ण दुग्ध के कारण होता है, तोड़ देती है। अखरोट के साथ इसका खाना अधिक पुष्टिकारक हैं । अंजीर ग़लीज़ ( स्थूल ) श्राहार के साथ अत्यन्त रही होता है। क्योंकि वह इसको शरीर के वाह्य भाग की ओर गति देगा । अतः इससे चेहरे में रोध एवं अन्य रोग होजाएँगे । इसका दुग्ध तीक्ष्णता के कारण रेचक है और रक्क एवम् दुग्ध को जनः देता है । क्योंकि इनके द्रवत्व को लय एवम् शुल्क कर देता है। यदि रक्त व दुग्ध जमे हुए हों तो उनको पिघला देता है क्योंकि यह अपनी तीक्ष्णता एवम् उत्ताप से दोनों के बनांश को पिघला देता है । ( नको० ) यह वायु को लयकर्ता, अपस्मार (जगी ), पचबद्ध और बहुधा कफ के रोगों को लाभ कर्ता, प्रकृति को न कर्ता क्रम क्रम से रेवन्वर्ता, रोध, लोह, शोध, बहु मूत्रता और वृङ्ककी कृशता को हरण करता है। इसका शर्बत कास को गुण कर्ता है। शुष्क सर्व कर्मों में हीन है । इसका मुख्य प्रभाव शरीर को स्थूल करना और सीरुल्ला. जा ( जिसका अधिक भाग शरीर का भाग बने, जिससे अधिक रक बनें ) है, विशेषकर उस अवस्था में जब इसे सौंफ के साथ ४० दिवस पर्यन्त सुबह को खाएँ । बादाम और पिस्तेके साथ भता करने से बुद्धिवृद्ध के है | सुदाय के साथ विघ्न, कुतुमे बीज ( कुसुम्भ ) और बोरहे अरमनी के साथ विरेचन और अखरोट के साथ विशेष कर कामोद्दीपक है । इसका लेप खना ज़ीर को लाभप्रद है । इसका दुग्ध चतुओं में लगाना मोतियाबिन्द के लिए लाभदायक है । ( बु० मु०, मु० अ० ) अजीर पथ्यं सहज में पच जाने वाला और औषध रूप से उपयोग करने पर वृक एवं वस्ति संबन्धी अश्मारियों का नाश करने वाला और यकृत तथा प्लीहा के अवरोधों को दूर करने वाला है | यह गया एवं प्रर्श चिकित्सा में For Private and Personal Use Only Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अजीरी व्यवहृत है। मुख व्रण में इसका दूध लगाया जाता | बच्चों के यकृत रोग में इसका उपयोग लाभदायक है । शुष्क श्रञ्जीर, बादाम की गुड़ी, पिस्ता, इलायची छोटी, चिरौंजी, बेदाना, शकर इन सबको समभाग लेकर चूर्ण बनाएँ और उसमें किञ्चित् केसर मिलाकर पुनः उसे आठ रोज तक गोत में डुबो रक्वें । मात्रा -२ तो० प्रति सुत्रह । गुगा-- श्रत्यन्त पुष्टिकारक एवं कामोद्दीपक | २ या ४ तर और थोड़ा सा शर्करा चूर्ण इन दोनों को मिलाकर रात्रि में आरेख में सुला हुआ रक्वें और सवेरे इसे खाएँ । इसी प्रकार पत्रभर करें । गुण - शारीरोज्नाशामक, निर्बल मनुष्य के श्रोष्ठ, ज़बान और मुख चिड़चिड़ाते हों उनके लिए ताजा अंजीर उत्तम बलवद्धक श्रीष है। इ० मे० मे० । Le विधता, वस्ति तथा फुफ्फुस व्याधि में पध्य रूप से इसका विशेष उपयोग होता है । (to to cato) डॉक्टर मत विटिश फार्माकोपिया में जीर श्री. फिराल हैं । प्रभाव-मभेदक या कोष्टमृदुकारी | यह कन्कयो सेना में पड़ता है । प्रयोग यह श्रीरपोषक मेवा है । साधारण विष्टब्ध रोग में इसके कुछ दाने निहार मुँह खाने से कब्ज दूर हो जाता हैं । किन्तु इसके बीज यांत्र में किंचिद्धर्षण करके कुछ मरोड़ उत्पन्न करते हैं । श्रीरो anjiri-हिं。 संज्ञा स्त्रो० खबार, गुलनार, बेड़, बेडू | फाइकस ( Ficus Pal (mata, Fors/. ) - ले० | भगवाड़, काक, कोक, हेड, इंजर, फांग, किर्मी, फगोरू, फागू, फोम, खबारी, फेमा, थपुर, जमीर धूड़, धूड़ी, बहूलिया पं० | फगवार - पश्तु० 1 अंजीर, ईजर - अफ्० । केभ्ब्री - राजपु० धौरा - म० प्र० । मैंपरी - गुज० । भगवार, थपुर - ( ऊर्ध्व भारतीय मैदान ) । ई० मे० लां० । वादि वर्ग (N. O. Urticacea.) उत्पत्तिस्थान - उत्तर पश्चिम भारतवर्ष, 1 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अज्जुकक पूर्वीय सिन्धु नदी से लेकर अवध पर्यन्त, हिमालय पर्वत ( ३००० फीट की ऊँचाई पर ) और श्रानू पर्वत | उपयोग- इसके फलमे मुख्यतः शर्करा तथा लुात्र वर्तमान होते हैं, तदनुसार यह स्नेहजनक एवम् को प्रडुकर प्रभाव करते हैं। कोटवद्धता ( विवन्ध ), फुफ्फुस एवम् वस्ति रोगों में यह मुख्यकर पथ्य वा आहार रूप से व्यवहार में आते हैं । इनका पुल्टिस रूप में भी प्रयोग होता है | ( Punjab Products.) Hajire-ahmaga का ० गुल्लर, गूलर - हिं० । फाइकस ग्लोमरेटा Ficus glomerata, Ro : b. (Fruit of - ) - ले० । अरे दम anjire-adama- का० गुल्लर, गूलर हिं० । किसी किसी ने ग्रन्य फल का नाम लिखा है जिसको हिन्दी में "कलह " कहते हैं । यह कालके पर्वतों पर उत्पन्न होता है। हकीम अली गोलानी के कथनानुसार एक भारतीय वृक्ष का फल है जो इन्द्रायन के समान गोल और रक वर्ण का होता है। लु० क० । श्रखोरे दश्ती anjire-dashti-फू० काकोदुम्बरिका सं० | कटूसर, कट्म्बरी, कठगूलर, जंगली श्रञ्जीर-हिं० | देखो - कटुम्बर | Ficus oppositifolia, Paab ( Fruitof-) - ले० 1 लु० क० । स० [फा० ई० । नेपाल anjire-naipála-यज्ञछालनेपा० । अजोरे बग्दादी anjire-baghdadi फ़ο अखरोट वृक्ष के बराबर लम्बा एक वृक्ष है जिसके पत्ते चिनार पत्र सहश और फल अञ्जीरके समान होते हैं । रुक अयमानां (देखो ) का फल | लु० क० । श्रञ्जीरे यमन anjire-yamana-फा० अंजीरे बग़दादी । लु० क० । श्रञ्जोलक anjilaka - माजन्दरानी खुच्चाज़ो का पौधा | लु० क० । अञ्जी anjisha- सिराजुल कुतरत्र । लु० क० । अञ्जुक anjukak - का० Pyrus comm For Private and Personal Use Only Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org खुदान ब्रटकुज़ unis, Linn. )-ले० । अकक, कु. तुम श्रखेलिका श्रावैखेलिका angelica archan हिंदी | gelicu-ले० | सुबुल खताई। बालछह भेद | इ० हैं० गा० । श्रञ्ज,दान anjulán काश० हींग, हिंगु-हि० । Assafoetida-फा० ई० । १६८ अञ्जुवारे लु० क० । अञ्जु बार anjubar - अ० मीरोमती सं० | देखो - अञ्जबार | Polygonan aviculare. रूमो anjubáre-rūmi—अ प्रसिद्ध | यह फ़ारस से भारतवर्ष में लाया जाता हैं । यह एक वृक्ष की जड़ की छाल है जो मोदी, सङ्कोचक और ललोई लिए धूसर वर्ण की होती है। फा० ई० । श्रञ्जरक anjurak- मज़ेओश । श्रञ्ज तुरुदाश्रु anjuratussoudaa-अ० स्याह ( काली ) ङ्गन या एक घास है जो नाग शुद्धि तथा उसके हल करने में काम श्राता है | श्रञ्जरह, anjurah-फा० क़रोज़, क़रीशुल् कल्ब, मुजर्रबुकला अ" | कुर्नह- शीराज़ | कजीततु० ! उटजन, उटङ्गन - ६ि० | फा० ६० ३ भा० मु० श्र० । म० श्र० । कपिल्युलिफ Urtica phiulifora, Linn.) एक बूढी के बीज है जो अलसी या तालमखाना के सदृश होते हैं। किसी किसी के नतसे अज्जुरह और उदङ्गन भिन्न भिन्न बीजे हैं । E श्रञ्ज लो anjuli - हिं० संज्ञा स्त्री० [सं० ] अञ्जु anjuri | अंजलि । दे०- श्रञ्जली, जली । अञ्जसा anjusá यु० रतनजोत | Alkanet ० क० | फा० इं० । असा anjusá-यु० रतनजोस । ( Alka• net) लु० क० । अजेना anjená कना० सुर्मा, अञ्जन | An timonii Sulphuretum. : 1 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ओलिका गार्डेन angelica garden-हूँ • 'सुळे बुल् ख़ताई । बालछदभेद । इ० है० गा० । श्रञ्जलिका ग्लॉका angelica glauca, Edge. - ले। चोरा या चुरा-पं० मेमा० । यह औषध तथा भोजन के काम में आती है । प्रयोगांश- जड़ या पौधा । अञ्जेलिका रूट angelica-root-T'• श्रीख सुबुल ख़ताई | अंगलीनह । बालछड़ मूल । जेलिका सीड angelica-seed-इ o तुख्म सुबुल ख़ताई | बालछड़ बीज | श्रञ्जलिम् angelim - ६० जोकमारी । जैंगनी । फा० ६० । श्रञ्जलिम् श्रमरगांसो angelim-amargoso - इ० अरारोश ( Araroba ) फा० ३० १ भा० । अलिम् श्रासि angelin arvensis - ले० ! जोकमारी । जैंगनी । फा० ई० । प्रश्जेली वुड anjelly-wood इं० यह एण्टिएरिस हिस्टा (Antiaris hirsuta ) नामक वृक्ष से प्राप्त होता है । इसको दक्षिण भारतवर्ष में अजेली वुड और मालाबार में श्र यानी कहते हैं । वहाँ यह अधिकता के साथ होता है। फा० ई० ३ भा० । अजाह anjoh-० ऊद, अगर । ( Aloe wood.) लु० क० | जनक कल्ल anjanak kalla-मल० सुर्मा । भञ्जनम् ( Antimonii Sulphuretuml-)ले० । स० [फा० ई० ! अजरक anjürak - फ़ा० ( १ ) रुतीला हिं० । मकड़ी का बड़ा भेद । लु० क० । ( २ ) मर्ज़ जोश | अज्म-ज़बोत्र aajmaza.biba अ० मुना | श्रञ्ज रू anjürü-ते० श्रञ्जर (Ficus cari. अमोर azmora - बरब० मकोय ( Solaea, Linn.) रू० फा० ई० । nain nigrum ). श्रटकुड़ा atakura - सन्ताल० तिक इन्द्रमी । देखो - इन्द्रजौतिक ( Wrightia Tomentosa, Raems & schult. ) -ले० । ई० मे० प्रा० / For Private and Personal Use Only Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रहक अटवी जम्बि (म्बी, म्भी)रः अटक takka-मल० सुपारी-हिं०। Areca ! मिचम्, कटचालु-ता० । कटुमिम्बे-गिडा,कनिम्बे, Catechu, Linn. (Nut of--Be- ! अष्टधी-निम्ब-कना। नरगुनी-उड०। मलtel nt. )-ले० । स० फ ई । नारङ्गा, मले-नारकम-मल। माता नर-द०, प्रामा-मणि atakki-mani-मला. मगडो । को। चोर-निम्बु, ईद-मिम्बु-को। भोदी-निम्बु (Sphæranthus hirtus, Villd.)! -T° | स. फा०६०। नागरङ्ग वर्ग ni açací-io oftaar, farera ( Brass ). (X.O. durantiaceve. ) ० मे मे01 उत्पत्ति स्थान-पूर्वीय बङ्गदेश, दक्षिणप्रभूषण atabhusbana-सं० क्ली० हड़ताल भारत, ला, सिलहट, खसिया पर्वतमूल, Orpiment ( Trisulphuret of ' . सम्पूर्ण पश्चिमी प्रायद्वीप, कारोमण्डल तथा कोंकन Arsenie) लु०क०। से दक्षिणात्य । #1# açarú-o $361 ( Justicia वानस्पतिक वर्णन-अटवी जम्बीर एक adhatoda). विशाल, करटकमय, धारोही झाड़ी है जो अटरूषः atarushah | -सं. पु. अड़सा, पश्चिमी प्रायद्वीप तथा सिलहट की पहाड़ियों पर अधरूषः agarushah | वासक वृक्ष ( A. | सामान्य रूपसे पाई जाती है । इसके पत्र नारङ्गी dhatoda Vesica, Verg. ) २० सा. पत्रवत् सुगन्धित होते हैं । फल गोलाकार, पीले सं० सूतिकारि रस और कन्दर्पसार सैल । या ! लगभग १ इन्च मोटे ( व्यासमें ) और झिल्लीदार चि०२ १० । देखो-घासकः। परदे द्वारा चार कोपों में विभाजित होते हैं। अटरूष: atarushah -सं० पु. : एक कोष साधारणतः पतनशील होता है । मजा अटरूषक: atarusha.kah) (१) चासक ( गूदा ) नीबूवत्, परन्तु अति न्यून होता है । वृष, अड़सा । र० मा०। च०६०, रक्तपित्त चि० । (२) पाड़ । (३) अरलू । (४) प्रत्येक कोष में ३ इञ्च लम्या और १ इञ्च चौड़ा महानिम्ब । शा० श० । इं० मे. मे० । एक बीज होता है उसके एक उन्नतोदर ( उभरा अठवि: atavih ) -सं०स्त्री० (A forest, हुआ) और दो चिपटे पृष्ठ (नारंगी के फाँक अटवो atavi Voud.) अरण्य, वन । की तरह ) होते हैं । फलात्वक में नागरग त्वक्वत् अट (द)बो-अत्ति atavi-atti-कना० जंगली ! अल्प (निर्बल गंध एवं असंख्य तैल की। zant-fam | Ficns oppositifolia, ग्रंथियाँ होती हैं। देहाती लोग इसके बीज को korb. (Fruit of ) जो ताजा होने पर माल्यन्त सुगन्धियुक्त होता है, अटवी जम्बि (म्या, म्मो)र: atavi jambi,- चूर्ण कर इसे मी से ( तिल तैल ) में छोड़ _inbi,-imbhirah-सं० पु. जंगली निम्बू कर निचोड़ लेते हैं । फलतः इस एक गम्भीर -हिं०, द० । ऐठलेण्टिया मोनोफाइला (At- हरितवर्ण का प्रिय गंधयुक्त तेल प्रस्तुत होता है । lantia Monophylla, Corr. ); इसका त्वचा पर अभ्यङ्ग करने से यह उसे ऐ० फ्लोरिडा ( A. floribunda, आवश्यक उष्णता प्रदान करता है। बीजों को Kheede.); लाइमोनिया मानोफाइला (Li- दबाने से इसमें से किसी प्रकार का सामय inonia monophylla, Linn.). To सैल नहीं प्राप्त होता; प्रत्युत वह वस्त्र जिसमें वाइल्ड लाइम ( wild lime )-३० । बीज दबाए जाते हैं, स्थिर तेल द्वारा तर होजाता मलङ्गनार (इ० मे० मे०)-०१ मतङ्गनार, है । मीलगिरि पर्वत पर पाए जाने वाले कुरुन्थु मखुर, माकड़-लिम्बु-मह । अडवी-निम-ले०। (सा०) नामक ( Limonia alata, कटइ लुमिश्चई, को-इलुमिश्चम परम, कट-इलि- W. and a.) नीबू से भी इसी प्रकार की For Private and Personal Use Only Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अटवा जारका अट्टनम् एक औषध निर्मित होती है तथा इसके पत्र का अटलेण्टिया मॉनोफाइला atlantia mono. क्वाथ कराडधन है एवं अभ्य त्यग्दोषो को हित- phylla, Corr.-ले० । माकर लम्बू.-म० । अस्त्री नीम-ते०। माखुर-ता। मे० मो० । ___ प्रयागांश-तल, मूल, फल ( Berries) अटवीजम्बोर,जङ्गली नीबू । (Wild linut) और पत्र । -इं० मे० मे। औषध- निर्माण--काथ, तेल व प्रलेप । अटलोपटकम् ataloctakam-मल. अडसा प्रभाव तथा प्रयोग-रीडी (Rheede) (Adhatoda vasika.)ई. मे० मे । का वर्णन है कि पत्र द्वारा निर्मित तैल शिर के | अटाइलोसिया बारबेट-atylosiu barbलिए हित; जड़ प्रापशामक; और फल स्वरस ata, Bike :--माषपी । इं० डू ई० । पिरान है । लरीरो ( Lourcino ) के मता- अटापू atāpu-शोरा ( Nitre ) लु० क०। नुसार इसको जड़ उष्णताजनक, लयकर्ता और अदि: arih-सं० ० शरारिः, शरालिः, शरारिपरि उशेजक है। (Turdus ginginianus) हला० । एन्सली ( Ainslie) कहते है कि इसके । अटिक मामिडि utika-māmidi-ते० टीकरी फल (Berries) से एक उपण, प्रिय गंधि-: बूटी, ठिकी-का-झाड़-द० । गद्हपुर्ना, युक्त तैल निर्मित किया जाता है जिसे दक्षिण पुनर्नवा-हि, बं०। Barhaavia diff. भारतमें पुरातन प्रामवात (गरिया) एवं पक्षा- usa, En-ले०। स० फा००। घात में एक मूल्यवान बाह्य औषध ख्याल किया अटि(ति सीन atisine -ई. अतीस सत्व । जाता है। कोंकण में इसके पत्ते का स्वरस श्रद्धांग देखो-अतांस | फा० ई० । रोग में प्रयुक एक मिश्रित प्रस्तर का एक प्रय- ! अटीari -हिं० संशा स्त्रो० (सं० अडी) एक यव है । वनौषधि-प्रकाश, १,४०४ । डाइमांक । चिड़िया जो पानी के किनारे रहती है। चाहा । - इसके फल का उत्तम अचार ( Pickley अटुप्प करी acuppa-karki-मल. लकड़ी का बनाया जाता है जो ज्वर एवं स्वाद वा नधा! कोयला I Carbon---ले. I Charcoal ह्रासयुक्त अन्य रोगों में लाभदायक पथ्य है। । (wood )-इं० । स० फा० इं०। ई० मे० मे। अट्ट arta-सिं• बीज । (Sced)स. फा००। ITT FITT: ațaví-jirakah-logo -मल. जोंक Lech ( Hirudo). स.फा. इं०। जङ्गलोजीरा-हिं०। अट्ट arta-हि०संजापु०) (१)पट्टवस्त्र (२)दोतला अटवी मधुकम् atari-imadhukun-सं० अष्टः artah- सं० पु ) कोठा घर, द्विमंजिला क्ली० जङ्गली महुअा-हिं। मकान,कोठा-हिं० । (An apartment on अटवालता atavi-lata-सं० स्त्री० कुम्भाटवृक्ष, the roof or upper stotrey) देखो कुम्भाडुया । रत्ना० । देखो-कुम्हड़ा, क्षौमम् । वै० श०। (३)-मल० । जोक। कोहड़ा । (Leech)ई० मे० मे01-हिं संज्ञा पु० [सं० अटलरिया atalariya-ता० लरबोरन, विह- हह । बाजार ] हाट । बाजार-हिं०।-डिं। लाङ्गनी, पथरुमा--प्रासा० । पॉलिंगनम् | अट्टई attai-ता० जाँक I : Thirudo) स० ग्लैबम ( Polyganum gla brum)- फा० इ० । ले०० मेगमे। अट्टका attakah-सं० प० को , अटारी । अटलरी atalari-ता. बीख श्रजुवार (An upper storey ). (Polyganunm ballatum)-इं० । | अट्टनम् attanam-० क्ली. अस्स भेद । मे० मे। त्रिका०। For Private and Personal Use Only Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अद चाहिए। अहम् २०१ अहम् attam--सं० को (१) अन्न । (२)शुष्क ।। बूटी है जिसका स्वाद मारीय होताहै। यह कंकरीली मे कद्वकं । ( Food, boiled rice )| भूमि में अधिक होती है। इसका पकाया हुआ प्राहार; भत्र। शाक अत्यन्त सुस्वादु होता है । इसमें शार अंश अहलु artalu-10 जाक, जलायुका । Leech ! की अधिकता के कारण लवण 'कम डालना (Hirulo) सल्फा०ई० । ई० मे० मे अट्टहासः,-कः atrahasah,.kah-सं० पुं० अठपहला athapahala-हिं० वि० [सं० अष्ट महासक artahasaka-हिं० संज्ञा पु . पहल, पा० अट्पटल ) आठ कोने याला । (1) कुन्द पुष्प वृक्ष, कुन्द का फूल और पेड़ जिसमें पाठ पार्श्व हो। -हि० । द फुलेर गाड-बं०(Jasminuin imultiflorum-ले० । रा०नि० ३०१०। अठमासा athamāsā-हिं० संज्ञा पुं॰ [सं० (२.) Very loud langhter कहकहा अष्ट, प्रा० अट + सं० मास] वह खेत जो मार के समा। बहुत जोर से हँसना । पाषाद से माघ तक समय समय पर जोता जाता रहे और जिसमें ईख बोई जाए । 'अचाँसा ।। अट्टाल: artālah- -सं.पु. (An | * *: attálakah ) apartment | अठमासी athainasi-हि. संज्ञा स्त्री० [सं० on the roof, all upper storey) अष्टमाश ] आठ मासे का सोने का सिका। सावरिन । गिनी। उपरितलगृह, दोतसाधर, अटारी। वै०२० । अट्टालिका attaliki-सं० स्रो० ( A pal- अ अठवाँस athavansa-हिं० संज्ञा पुं॰ [सं० ace, lofty mansion) राजोचित गृह, | अष्टपार्श्व] अपहली वस्तु । अठ-पहले पत्थर महल । २०श०। का टुकड़ा। अट्रफिatraphy-इं० सुखड़ी या कृशता, शोपरोग, वि० अ-पहला। अठ-कोना । कारय । मठयाँसा athavansa-हि. वि० [सं० श्रष्टअट्रिप्लेक्समांनेटा atriplex mone ta, मास, पा० अदमास ] वह गर्भ जो पाठ ही Bunge.-ले. सरमक, सुरका, कोरके, पोई महीने में उत्पन्न होजाए। -पं० । मे० मो०। -संज्ञा पु. (१) सीमन्त संस्कार । अट्रिप्लेक्स लेसिनिस्टा atriplex lacini. | (२) वह स्खेत जो अषाढ़ से माघ तक समय ata, Li-ले० ऋतफ, भतुवा-40। मे० समय पर जोता जाता रहे और जिसमें ईख मो०। बोई जाए । अट्रिप्लेक्स हॉटेन्सिस atriplex horten. | अठाना athāna-हि. क्रि० स० [सं० अष्ट sis, L.-ले० कतफ, भतुमा--पं० । मे० बध करना] (1) सताना । पीड़ित करना । मो.। अड ada-उड़ि लिसोदा-हि. । श्लेष्मांतक अदापा-अक्युमिनेटा atropa acuminata, -सं० । Sebesten pluin (Cordia Royle.--ले० एक प्रकार का बेलाडोना है। myxa) ई० इ०६०। अडकुमणियम adakumaniyam-मल. अझोपा बेलाडोना atropi belladona, I गोरख मुण्डो-हिं०। मुमुरिया-बं० । Lin-ले० देखो-बेलाडोना। कमाज़रियूस-अ०। ( Spheeranthus अठखटा athakhata-सं० अस्थिसंहार, | hirtus ) ई० मे० म० । हड़जोड़ । लु० क.। | अडण्ड adiinda-ते. करवील-पं० । भठगठिया athagathiya-हि. संज्ञा स्त्री० एक अडद arada-गु० उर्द, उड़द-हिं० । माघ-सं० । For Private and Personal Use Only Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org * डर वेल ( Phaseolus roxburghii ) ६० अडस्वेदी adambedi - ता० मे० मे० । २०२ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अडवी- इरुली वासुक-सं० । Indigofera Enneaphylla-o इ० मे० मे० । श्ररूप, असा Adhatoda अर्सा adarsa - हिं०, ६० अडुसा, वासक - 6० । Vasica, Nees. - ले० । स० फा० ई० । अल्सा adalsá हि० द० अरूप, अरूसा, डसा, वासक - हिं० । Adhatoda Vasica, Nees. - ले० स० [फा० इ० । अडवाऊ गाजर adavau gajar-गु० जङ्गली गाजर - हिं० | (wild carrot) झडबन @पोरियो ada.ban-uporiyoकच्छ० पोरबन्दर० १- (Gram) एकः, चना | 9-( Lady's finger ) भिराडी -हिं० । डमरम् adamaram मल० जंगली वादाम - हिं० । ( Terminalia catappa, T. myrobalans ) । The Indian almond | इं० मे० मे० । श्रडमोरिनिका adamorinika-ते० असल, सरह अ० | Indian cadaba (Cadaba Indica ) इं० मे० मे० 1 डम्पाकु adampáku- ते० श्ररूप, अड़सा, वासक - हिं० | Adhatoda Vitsika - ले० Malabar nut-इ० । ई० मे० मे० । अडद-वेल adada-vela-गु० मात्रपर्णी, मपवन । ( Glysine debilis, Roxb.) श्रडद वेल्य adada-volya-गुo वन उड़द, करियाम । माषपर्णी । अडवेल्य काडोगलिया adada-velya -kádo-galiya-गु० बन उड़द, बन उर्दी - हिं० । अडवाड मगवेल adavada maga-vela -- गु० मुद्गपर्णी । वन उर्दी, मात्रपर्णी । अडन्सोनिया adan-sonia-इं० गोरख इमली । श्रन्डसोनिया डिजिटेटस adansonia digi. tata, Linn.-ले० गोरख इम्ली -हिं० । बोचाबाच या मी बेड ट्री ऑफ़ अफ़रीका Boabab or incnkey-bread tree of Africa-० । इं० मे० मे० । फा० इं० : मे० मो० | स० [फा० ई० । सोनीन adansonin - इं० गोरख श्रम्लीन, | अडवी adari-ते. कना० नन्य, जंगली - हिं० । गोरख इमली सत्व- हिं० । इं० मे० मे० । wild- इं० । स० [फा० ई० । reg-कोडी adapu-kodi - ता० दोपातीलता अडवी अत्ति adavi-atti--कना० जंगली - हि० । चाङ्गलाङी, छागल खुरी बं० । श्राह अंजीर द० Ficus opposi tifolia, पोमिश्रा बाइलोबा Ipoma biloba, Roxb. (Fruit of - ) - ले० | स०फा०ई० Forsk. - ले० । गोट्स-फूट कॉमवालव्युलस श्रडवी - अलवा adavi alavá - सं० चाकसू । Goat's foot Convolvulus ई० । वृद s. m. ( Cassia absus, Linn.) दारक, विधारा - सं० । फा० ई० २ भा० । इं० अडघी- श्रमुदमु adavi•ámúdamu ते० मे० मे० । अडवाड़ adavára- गु० बन उदीं, वन उड़द - हिं० । माषपर्णी-सं० | ( Grangea Ma dras patana.) जंगलीएरंड, जंगली रेंड- हिं० | Jatropha Cureas--ले० | Angular-leaved physic-nut - इं० 1 ई० मे० मे० । ( २ ) जंगली जमालगोटा - हिं० गु० । Croton Polyandrum, Roab, Syn. C. Roxburghii, Wall. -ले० स० [फा०ई० । डो-इप्पे-चेछु adavi-ippe-cherxn--ते ० जंगली महुआ - हिं०, ६० । Bassia La• tifolia, Roxb... ले० स० [फा० इ० । डी इरुली adavi-irulli कना० अङ्गलो प्याज, काँदा-हिं०, ब० | Urginea Ind. ica, Kunth syn. Scilla Indica, Roxb. (Bulb ef Indian Squill.) - ले० | स० [फा० ई० । फा० ई० ३ भा० । For Private and Personal Use Only Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अडवो-पलकाय २०३ अडवी मन्दारमु अडवो-रेल काय adavi-elakāya-जंगली | छोटा जंगली व्याज-हिं०, द० गु० | Scilla इलायची, बड़ी इलायची-हिं० | Amo- | Indica-ले० । ई० मे. मे । mlm subulatum, Roxb. ले० । स) अडचो-नाभी adari-Pabbi-ते. नाट का फाइ मे० मे। बच्छनाग-३० । अग्निशिखा-ते.| Aconiअडवो-कछोला adavi-ka.chhola-मल० : tum ferox, Wall. ( Root of-) कचुर-हि। Curcuma Zodoaria, i -ले० स० फा००। Rose.-ले०। Round Zedoary-६। अडवानिम्म . davi-mimma ते० जंगली ई० मे० मे०। नीबू-हिं० । अटवो जम्बार-सं0 Atalaअडवी-कन्द adari-kanda-सं० जंगली : ntia monophylla,corr -ले। Wild सूरन, जिमीकम्द-हिं।S.M. lime-ई। इ० मे० मे। अडवो-कन्द-गई adavi.kanda.gadda- . अडवी-नीम adavir.iina-ते. जंगलो ते० सेवाला-बं० । जालो सरन-हिं नाबू-हि. Atala.lutianonophylla. Amorphophallus Panicnlatus. -ले. Wild line-इं० । फा० ई० । Blume. ! अडयो-पसुपु aduri-pasupu-ते० जंगली अडवो-गन्नेक adari.ganneri-ते. गुल-! हल्दी, वनहरिद्रा-हिं० । Curcuma चीन-हिं0 1 Plumeria Acuminata romatica, salisb.--ले. 1 Wild ले। turmusic-इं। इं० मे० मे०। मे० मे०। अडवो-गारण्टा adavi.goranti-ते. देव-: अडवा-पुश्च adavi-puchcha-ते. जंगली दारु-ता। Erythroxylon monogy इन्द्रायन-हिं० 1 Cucumis trigonus, num, Roxb.-ले। मे० प्लां। ___Rorb.-Sy. . Cucumis pseudocolअधी-गारण्टी adavi-goranti-कना० . ocynthis, Roy. (Fruit of-.)-ले०। Bitter gourd-ई । ई० मे० मे० । Erythroxylon inonogynum, or E. Indicum, Rozb.-ले० । नाट का देव मा० श०। दार-दः । अडवी गोरयडा-ते। देवदारु-ता। 'अडवी-पोगाकु adavi.pogāku-ते. धवल इमेल01फाई। -म० । जंगलो तम्वाकृ-हिं० । Lobelia अडवा-गोरण्डा adavi.gornda-ते. nicotiamefolia, Hene.-ले० । नाट ! Wild tobacco-ई। फा०ई०२मा० । कादेवदार-दछ । Erythroxylon mono. i gynum, Rozb.--ले। मेल01 अडवा-पाटगल adavi-potagal-ते० ) अडवी-जाजी काय adavi-jaji-kāya-ते० : . अडवा-पाटला adavi-potala-ते. जंगली चिचिण्टा, जं. चिचोण्डा-हिं०, द० । जंगली जायफल-हिं० | Pyrrhosin Hor- Trichosanthes sfieldii, Blume. (Nut of--Wild cucumerina, Linn.-ले० । स. फा.१०।। nutimeg)-ले. ( स० फा०६० अडवी प्रत्तो adavi-pratti- ते. वन अडवो जिलकर adavi-jilakara-ते. सोम- कपास-माशा०, बं०। रान-भिण्डी-महः । राज- सं०, बं०। बकुची-हिं० । अटवी-जीरक । - Hibiscus lampas.-ले० । ई० मे. -सं0 Vermonia anthelmintica, मेछ। Willd. ( seeds of-)-ले० । स. फा० अडवो मन्दारमु adavi-mandaramuई०। ते. कचनार-हि. । ( Bauhinia अडचा तेल्ल गड adavi-tella gadda-ते। variega ta. Linn. ) For Private and Personal Use Only Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अडवी मल्ली २०४ अडवी मल्ली adavi-malli-ते. मधुमाधत्री कासनी-द० । कमाफ़ी न स.यु. । ( Bluinea --सं० । चमेली, चम्बेली--हिं० । नवमालिका eriantha. D.C.)-ले। फा० ई०१ -10 i (Jasinimin ittborescens, HTOI (Blumca auritá, D. C.) Roxb.)-ले। ई० मे० मे। -ले० | स० फा० ई०। अडवी मल्ले udavi-imalle-ते. मालती अडवी येलकाय adavi-yela-kāya-ते. --सं०, हिं०। (Jasminuin angusti बड़ी इलायची--हिं०, द० | Amomum. folium, Vah.)-ले० 1 ई० मे० मे01 sp. of.( Capsules of ).-ले० । स० अडवो मामडीadavi-mamadi-ते. पाम्रा फाई। तक-सं० । मड़ा, अम्बाड़ा-हिं । Hog. अडवा-लवङ्ग-पट्टे adavi-lavanga-parte pliim- ई०। (pondias elliptica.)| -ना. जंगलीदारचीनीपत्र, तेजपात-हि.। -ले० । ई. मे० मे०। Cinnamomum Iners; C. Tamaअडवी मुनगा adavi.imunaga la; ले. इ. मे० मे। अडवा मनगadavi.munanga | अडवी-लवमु-पट्ट adevi-lavangamuजंगलो कासनो-हिं । श्रोकार्पम् सेना patta-ते. तेजपात-हिं० | Cinnumeste (Ormocarpum sennoides, Omum Iners- ले. । मेमो01 D. C.)-ले० । काट मोङ्गि-ता। कडु अडयो-धुदनु adavi-vudkiulu-ते. माणमुमो-कना। | মিন্ম যা খুব पर्णी, जंगली उड़द, बनउड़द-हिं. | रान (.1.0. Leguminosoe ) उड़िए-मह । मापानि बं| Teramous उत्पत्ति स्थान--पश्चिम प्रायद्वीप और | labialis, Spreng wight, Ie. t. 118 - ले. । फा००१ भा०। अडवी-सुदाप adavi-sudapa--सं० सुदात्र, वानस्पतिक वर्णन-एक छोटी झाड़ी है जंगली तितली. हिं० । ( Ruta graveo. जिसकी शाम्बा पतली होती है। नतन ग्रंकर lens, Linn.! तथा पुष्पवान भाग एक प्रकार के चिपचिपे सोम से आच्छादित होते हैं । चिपचिपा व सुवर्ण अडसी adasi-महानिन्ध । पीत रंग का होता है। पत्र-पज्ञाकार, लघु पत्र अडस्पुड्स duspudisa-मल. सोबा, (या पत्रक) ३ से १७, एकान्तरीय, प्रायताधिक सांया--हिं| Policelanum Gre0कोसीय और झिल्लीदार । पूष्प-कक्षीय, एक दुरव lems ले। मे० मे01 मैं ३ से ६ और पीत वर्ण के होते हैं । फली अड़हुल arahul-: संना पु. [ सं. (छीमी) २ से ५ जुड़ी हुई, पेण्डुलमवत्, संधि श्रोण+फुल्ला, हिं. प्रोणहुल ] श्रीड़ (क), स्थल पर अधिक सिकुड़ी हुई और चेपदार देवीफूल, जपा या जवापुष्प, इसका पेड़ होती है। ६-७ फुट ऊँचा होता है और पत्तियाँ उपयोग-इसकी जद का काथ ज्वरावस्था हरसिंगार से मिलती जुलसी होती हैं । फूल में वल्य एवं उत्तेजक रूप से व्यवहस है । इसका इसका बहुत बड़ा और खूब लाल होता है। प्रस्तर ( या तैल ) पक्षाघात और कटिशूल में | इसके फूल में महक ( गंध ) नहीं होती। बरता जाता है। ( डाइमाक ) फा० ई० । (Hibiscus Rosa=sinensis, Linn.) १भा०। सरा adasara-ते. अडूसा, वासक, अरूप अधी मुलगी adavi-mullangi-ते० कुक- fi Adhatoda Vasica-Nces रोदा-हिं । जंगली था दीवारी मूली, जंगली मेमोः । For Private and Personal Use Only Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मडिएण्टम् कॉडेटम् अनिस अडिएण्टम् काडेटम् adiantum cauda-! कना० । हेड-मह । हलधवान-गु० । Nane thim, Linu-ले. मोरपंम्वी, मयूर-शिषा loa cordifolia, वैशाना । ई० मे० -हिं० : मेमा० । अधसारित की जड़ी- प्लांसफा०.२भा० । थरली, बला, गुञ्जा पं। डू. ई.। अहिएण्टम् कैपिलस वेनेरिस adian tum श्रडिनेन्थेरा पेवोनीना Adenanthera par____ capillus veneris, Liv. .ले० onina.Li:21.-६०रक्र-कम्माल-बं० ० ड. बिस्फाइज--अ.कृ. देखो-मुबारक- कुमा०, --हि । हंसराज-हिं० । मेमो०। श्रडई adui-पं० श्राड़ । Seeradu. अडिरएटम् पोज़िक मौ liantran Tya- अड़पकरी aduppukari-ता. लकड़ी का को. p3ziforme, I..-ले. हंसराज । यला-हिं । Wood charcoal-६० । sec-Hangarája. ई० मे० मे० । स० फा. इ.। अडिरण्टम् पेडेटम् alliantun pedatum, अडरास्पो adurāspi. ! --ग. अड़सा,अरुस. __Linn-ले० हंसराज । sec-Tansalijil , अर्द्धसा adulsa अडिएएटम् फ्लेवेल्ल्युलेटम् adiantim ila- असो dulso हि | Adha bellulatum, Line.- ले० मयरशिया: toda vasica, Linn--ले० । इ० मे० मे० --हिं० । इसको जड़ औषध कार्य में बरती अडु adu-हि. पु. अरु- म० । शफ़ताल-फा० । जाती है । मेमो। अडुसांगए adusogue-को० असा, अरुप-हिं०। अडिरसटम् ल्युन्युलेटम् attiantumn lunu- (Adhatoda vasica, Nees.)--ले। latum, Linn.--ले. हंसराज या राजहंस ई० मे० मे । --हिं । कालीझाँट(प) --बं० । मुबारक- कुमा०। प्रइनाइडोन adonilin-इं. अडनो सत्र । मेमो.। देखो-अनिस । म० अ० डा. १ भा०। अडिएण्टम् वेनस्टम् adiantum venu- अनिल adonis.ई. अडूनी, अडूनी बूटी-हिं । -stum, Don-ले. हंसराज--हिं० । अनिसवर्नेलिस ( Alonis vernalis.) बाजार परसियावशान--फा० । कालीझाँट--हिं० ।। --ले । मुबारक-बम्ब० । म.प्र. मेमो०। वत्सनाभ वा रैनन्क्युलेसाई वर्ग अडिक adike-कना० सुपारी-हिं० | Areca | ___Catchu, Linn..-ले० । स० फाई। (9.. Ranunculaceae) श्रडिन adin-ले० अज्ञात । नोट-यह बूटी तोन प्रकार की होती है और atti trifası adina Cordifolia, यरोप व एशिया के भिन्न भिन्न प्रदेशों में उत्पन्न _Hook- f:--ले० धारा कदम्ब-सं० ।। होती है। पर कदाचित् यह भारतवर्ष में नहीं हल्दु, हनु, कमी, करम-हिं० । बङ्गका, केलि. होती क्योंकि डॉक्टर बाट महाशय और डॉक्टर कदम, पेट पुदिया-अं० । हा , हर्दु-म० प्र०।। डाक महाशय के भारतवर्षीय श्रोषधि सम्बन्धी करम-नै । कुरम्बा, कोम्बासंकु--कोल । कराम- विस्तृत प्रन्धों में इसका कहीं भी उल्लेख नहीं पाया सन्ता० । बड़ा कुरम-मल० । तिक्का-भड़ौ० व | जाता है। गो० । हदुः, परभु, कुर्मी ( गो० ), होलोंदा ! __वानस्पतिक विवरण-यह झाड़ी १. ईच --उड़िा सा डोंग-गारो । रोधु,केलो कदम-श्रा। के लगभग ऊँची होती है। इसकी पत्तियों चममजाकदम्बे-ताण वाढावेत्तर्गणप,बनदारु, दुडागु, ! कीली हरितवर्ण की और बारीक बारीक पुस्पुकन्दी ,पुष्पुकादमी-ते.। अर्सिन्तेग-मैस० ।। सूत्रों में विभाजित होती हैं । इसके पुरुष सुवर्ण. ... हेहे, येत्संग-पेत्तेग, असन्तेग, येत्तद, अहुन- मय रक वर्ण के होते हैं। For Private and Personal Use Only Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अडूनिस ईस्टीवैलिस असा रासायनिक संगठन- इसमें ग्ल्युकोसाइड और कुछ, पिपासा, उन्माद तथा बहुशः साव की तरह का एक सस्थ "ग्रडूनाइडीन" और एक ! (Sacretion ) संबन्धी रोगों के योग में धन्य सत्य "अधु नैट" नाम का होता है । अड- बरता जाता है । यह कृमिघ्न भी हयाल किया नाइडीन जल और मयसार ( अल्कुहाल) में । जाता है। (बेडेन पावेल ) विलेय होता है। इसका फल अत्यन्त मधुर एवं यि होता है। मात्रा-इसका चूर्ण १ से ३ रत्ती तक और । वृक्षस्थ दुग्ध कर्णशोथ तथा नेग्नशोथ (आँख इसी अनुपात से इसके हिम अथवा टिकचर या श्राने ) में व्यवहत है। (डॉ० इमर्सन ) स्वरस को भी प्रयोगमें ला सकते हैं । इसके सत्य ___ जड़ एवं स्वक् संकोचक यकीन किए जाते हैं अडनाइडीन की मात्रा से ग्रेन तक है और और शिश्वतिसार में इसे जल के साथ पीसकर इसको वटिका रूप में वर्तते हैं। तथा शहत योजित कर प्रयोग में लाते हैं। नोट-यूरोप के इटली, रूस व स्पेन प्रभते । इसके पत्र को तिल तेल में उबाल कर विचूदेशों में यह प्रौषध फिशल है। र्मित त्वचा में योजित कर व्यवहार में लाना प्रभाव- हृदय बलकारक (हृद्य), हृदय रोगके बेरो बेरा रोग के लिए उसन औपच स्याल लिए लाभदायक है । म. श्र० डॉ० १ भा० । किया जाता है । त्वचा सकोचक होता है तथा अडनिस ईस्टीवलिस idonis a stivalis, इसमें से एक प्रकार का निर्यासवत तरल निकLin-लेबल्सनाभ वर्ग की एक श्रोषधि है। लाता है। इसके पत्र को पीसकर इसमें हलबी इं० १०ई०। और सोंड मिला ग्रंथियों पर प्रस्तर रूप से लगाते अडनिस वनैलिस adouis vells]is--ले० । है। (डी)। ई० मे० प्लां। अनिस का वानस्पतिक नाम । देखो-अड- अडलसा adilasi--मः। देखो-अडूसा । निस । म० अ० डॉ० १ भा०। अडूसक adusak-हिं. | Adhatoda प्रडनी adunj- हि, उड़ि. अनिस- ई० । Vasica Nees.--ले । अनि०१ भा०। See-Adonis. अडसा adisa हिं० संज्ञा पुं॰ [सं० अटरूप, अडोमा adoma--गोत्रा० माइम्युसॉप्स कौकी मा० अरूस] अलसा (-सो), अरूशा (-सा), (fimusops kauki, Lin.), मा० : बाँसा, रूसा, घसौंटा, वामा, बिसोटा-हि०, डाइसेक्टा (M. disecta, Br.)--ले. । शम्य० । अदलसा, अर्सा, अरूसा, बसौंटा, बुधा--सोच-मल०। (मेमो०)। सीरिनी-०।। श्रइसा--३०, हि। खीरी घिरह (खिरनी भेद )--हिं० । कौकी.. । संस्कृत पायमह। हीरिका-सं० । ई० मे० प्लां० । । दारिका वा मधुक वर्ग वासको बाशिका वासा निषड्माता च सिंहिका। (N.O. Supotacks) सिंहास्यो वाजिदन्ता स्यावाटरूपोऽटरूषकः ॥ उत्पत्ति स्थान-ब्रह्मा तथा मलाका; कभी : बाटरूषो वृषस्नानः सिंहपर्णश्च सः स्मृतः ।। कभी होशियारपुर, मुल्तान, लाहौर और गुजरान । भाषा-वासक, वाशिका, बासा भिषामाता वाला के निकट श्रमीनाबाद में लगाया जा सिंहिका, सिंहास्यः, बाजिता, बाटरूपः, अट रूपकः, वृषः, साम्रः, सिंहपर्ण ये अहसे के उपयोग---इसके श्रीजका चूर्ण नेवाभियन्द । संस्कृत नाम हैं (रामरूपक, मातृसिंही, वैचमाता, रोग में व्यवहृत्त होता है और ज्वरघ्न एवं बस्य ।। वृषः, कसनोस्पाटन, कमलोपाटल, सिंही, वाजि. रूप से इसका अन्तः प्रयोग भी होता है। इसकी ! चन्तकः, मामलक, वाशा, अटरूपः, वासः, जद लाहौर में फिशल है । ( स्टधुवर्ट) वाजी, वैद्यसिंही, सिंहपर्णी, रसादनी, सिंहमुखी, श्रीज उष्ण एवं तर ल्याल किया जाता है। कंठीरवी, सितकर्णी, वाजिदम्ती, नासा, पंचमुखी, चुका है। For Private and Personal Use Only Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अडूसा २०७ सिंहपत्री, सुगेन्द्राणी और सिंहानन ये अडूसे के संस्कृत नाम अन्य ग्रन्थों में पाए जाते हैं. ) बाकस, ग्रारूसा, बासक, छोटावासक, वासन्तीफुलेर गाछ - य० । हशीशतुस्सु झाल्ऋ० । बाँस, बाँसा, ख़्वाजह - का० । ऐढाटोडा वैसिका ( Adhatoda vasica, Nees. ), अडे - मैन्थेरा वैसिका ( Adenanthera vasica ), जस्टीशिया ऐडाटोडा ( Justicia adhatode, koab; Linn. ), श्रीशेकीलम इण्डिकम् ( Orocylum indicum .) -ले० । ऐडाटोडा ( Adhatoda ), मलाबार नट ट्री ( Malabar nut tree ) -- इं० । आडाटोडई, अघडोडे ता० । अड्डुसरम्, अडम्पाकु, पेद्दामानु, अडसरा, अहसर ते०, तै० । आलोटकम्--मल० | ब्राउसोगे-सम्पु, आडूसाल, श्राडूसोगे-कना० । शोणा, शोढीलमर-करना० । श्राडाटोड, पावह - लि० । मेस. म. बिहू-बर्मी । बसूटी, तोरबंजा, याशङ्ग-श्ररूप, भिक्कर- हिं० | अडुलसा मह० । श्रडुलसो, बाँस, श्रडूरसा (सो), अरसी ( शी ) -- गु० । बाइक एटरअगा- । श्राडसांगे का० । भीड़ - पं० । सीई (श्रारुप ) वर्ग A. C. Acathaceur.) उत्पत्ति स्थान - भारतवर्ष के अधिकतर भाग, पंजाब और अासाम से लेकर लङ्का एवं सिङ्गापुर पर्यन्त । राजपूताना, शाहजहाँपूर, रनबीरसिंह (जमूँ, कशमीर ) प्रभृति स्थान | वानस्पतिक विवरण -- यह क्षुप जाति की वनस्पति है; परन्तु किसी किसी स्थान में इसके बहुत बड़े बड़े वृष्ठ पाए जाते हैं। शरद ऋतु में इसमें पुष्प आते हैं । प्रकाण्ड सीधा; त्वचा सम, धूसर वय शाखाएँ श्रर्द्ध सरल, स्वचा प्रकांड के सदृश किन्तु समतर; पत्र सम्मुखवर्ती, ५ से ६ इंच लम्बे और १॥ इंच चौड़े, नुकीले, जिनके दोनों पृष्ठ चिकने होते हैं, पोटिल ( Petiole ) अर्थात् पत्रवृन्त सूक्ष्म, पुष्प प्रधानाक्ष कम्बा, शाखा रहित, बालियाँ गा कक्षीय और अकेली; पुष्पडंठल ( पुष्पवृन्त ) छोटा और बड़े बड़े बन्धनियाँ | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अडूसा ( Brackts ) से ढका होता है । पुष्प सम्मुखत्त, बड़े, श्वेत रंग के होते हैं जिनके भीतरी भाग पर रक्राभायुक्त लोहित वर्ण के होते हैं, पुष्प के दो श्री सिंह मुखाकृति के होते हैं जिनकी भीतरी पृष्ठों पर बैंगनी रंगको धारियाँ पड़ी होती हैं। बन्धनियाँ तीन, सम्मुखवत्तों और . एक पुष्पीय, तीनों में से वाह्य बन्धनी ( Brackt बड़ी, अण्डाकार, अस्पष्टतया पञ्चशिरायुक और भीतरी दो अत्यन्त छोटी होती हैं। ये सब स्थायी होती हैं। पुरा कोष (Calyx) पाँच समान भागों में विभाजित होता है; पुषश्राभ्यन्तर- कोष ( Corolla ) विस्तीर्ण श्रोष्ठीय, लघुनालिकेय, विशाल मैत्र, ऊर्ध्वं श्रोष्ट नौकाकार, जिसका मध्य भाग परिखा युक्त होता है जिसमें रति केशर स्थान पाता है, निम्न श्र चौड़ा, जिसमें तीन भाग होते रुप-केशर तन्तु लम्बा और ऊर्ध्व श्रोषीय खात के सहारे रहता है और ये संख्या में दो होते हैं । प्रयोगांश - पञ्चांग, चार । प्रयोगाभिप्रायश्रौषध, रङ्ग, खाद्य | रासायनिक सङ्गठन - एक सुगन्धित उड़नशील सत्व, वसा, राल ( Resin ), एक तिक्रक्षारीय सच जिसे वासीसीन ( Vasicine) जिसे संस्कृत में वासीन वा दासकीन कह सकते हैं, एक सेन्द्रियक अम्ल (बासाउल) ऐहायोटिक एसिड ( Adhatodic Acid ), शर्करा, निर्यास, रंजक पदार्थ, और लवण । वासीन का अधिक परिमाण असे की मूल त्वचा और पत्र से प्राप्त होता है । वासीन के स्वच्छ श्वेत रखे होते हैं जो अल हॉल ( मधसार ) में सरलतापूर्वक घुल जाते हैं। ये जल में भी विलेय होते हैं । इनकी प्रतिक्रिया वारीय होती है। खनिजाम्लों के साथ यह स्फटिकवत् लवण बनाता है । अमोनिया भी किसी अंश में विद्यमान होती है। श्रीषध निर्माण - शीत कषाय ( १० भाग जल में १ भाग ); मात्रा - १| तो० से ५ तो०; तरल सत्य; मात्रा -२ से १ रत्ती । पत्र स्वररू; ७ ॥ मा० से १ तो० ३ मा० : टिङ्कबर ( १० में १ ), मात्रा - २ मा० से ४ मा० । संयुक्त क. थ, For Private and Personal Use Only Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अडूसा २०E अडूसा घृत, अवलेह, चूर्ण और वटिका (साधारण मात्रा ! ६ मा.)। डॉक्टर लोग शसेको द्रवसत्व, स्वरस और रिचर रूप से उपयोग में लाते हैं। प्रतिनिधि-इसके समान गुणधर्म की यूरोपीय श्रीपधि मिनीगा (Senega) है। स्वाद-फीका और कुछ मीठा । प्रसाति-- गरम और रूक्ष तथा फूल 1 कता में डा है । हानिकर्ता-मैथुन शक्ति को | दप-शहद शुद्ध और कालीमिर्च । गुणधर्म व प्रयोग श्रायुर्वेदीय मतके अनुसारवासा तिता कटुः शीता कासानी रजापित्त जित् । । कामला कफ वैकल्य ज्वर श्वास यापहा ॥ (रा०नि० २०.४) भापा---अडूसा तिक, कटु, शीतल है, तथा खाँसी, रकरित्त, क.मला, कफ, विकलता, ज्वर, । श्वास और इय रोग को नष्ट करता है। बाटरूपः शीतकीयों लघुझ्यः कटु स्मृतः । सिक्रः सवर्यः कास.हस्ता काम ला रक्रपित्त हा॥ विवर्णता-ज्वर-पवास-कफ-मेह-क्षयापहः । कुलाचि सपा कान्तिनाशकः परिकीर्तितः ॥ (वैद्यक) वासकस्य = पुष्पाणि बङ्गसेनस्य वाह ! कटपाकानि तिक्रानि कास दय हराणिच ॥ । राज० ३ चिकित्सालार संग्रहकार । वृष तु वमि कासनं कपित्त हरं परम् । (वा० सू० अ०६) वासको बात कृत्स्वर्यः क.फ पिसाननाशनः । तिक्रस्तुवरको हृयो लघुशीतस्तृ उर्तिहत् ॥ कास श्वास ज्यर छदि मेह कुष्ठ क्षयापहः ।। (वृ.नि. २०)। भाषा-अडूसा शीत वीर्य, लधु, हृदय को हितकारी, तिक, स्वर के लिए उत्तम, कासन, कामला तथा रक्रपित्तनाशक है । विवर्णता,ज्वर,श्वास, कफ, प्रमेह तथा हय, कोद, अरुचि, प्यास और वमन को नष्ट करता है। वैद्यक । असा और अगस्तिया के फूल तिक, पाक में कटु एवं खाँसी और क्ष्य को हरण करने वाले हैं। राज० ३२० । अङ्कमा बमन, खाँसी और रवित्त को दूर करता है। वा० स० अ० ६ । असा वातकारक स्वर के लिए उत्तम, तिक, कला, हृदय को हितकारी, लबु, शीतल, कफपित्त, रवि कार तृपा की पीड़ा का हरण करने वाला तथा श्वास कास, ज्वर, वनन, प्रमेह और सय को नाश करता है। वृ०नि० र०। युनानी मत के अनुसार अडूसे के गुणधर्म व प्रयोग भारतीय द्रव्यगुणशास्त्र के नरसी लेखक हिन्दुस्तानी नाम असा के नाम से उक्र श्रोषधि का वर्णन करते हैं। अतः जीरमुहम्मदहुसेम महोदय ने स्वरचित "मजनुल अवियह" नामक वृहद् ग्रंथम इस पौधेका वर्णन किया है। उनके कथनानुसार अडसे का फूल यक्मा, रक्रपित्त श्रर्थात् रक्रोमा और प्रमेह में लाभदायी और पित्तनाशक है। अडसे की जद खाँसी, श्वास, ज्यर और प्रमेह, बलग़मी और सफ्रान्ती ( पित्त को )मतली, यमन, पाण्डु, मूत्रदाह, सूजाक और राजयरमा को नाश करती है। बच्चों को शीत लगने या खाँसी से पचाने के लिए कभी कभी अड़से के बीज को उनके गले में लटकाते हैं। अडहरे के विभिन्न अवयवों के परीक्षित प्रयोग मूल---अडसा पत्र और मूल दोनों साज्य श्लेष्मानिस्सारक ( Stinalaint expecrant) और आक्षेप शामक (antispas. modic )हैं। इसीलिए अधिकतर इसकी जड़का सीनीगा (Senega) के स्थान में पुरातन कास, श्वास में उपयोग करते हैं। अडुमा की जड़ का काथ बच्चोंकी कुकर खोसी तथा साधारण ज्वर में लाभ करता है। __ अडूसा की जड़ पुरातन खाँसी, सफेद क्षग, कोढ़ और सूजाक के लिए लाभदायी है। यदि असा मूल स्वचा को चोचीनी के क्वाथ में एक सप्ताह तक भिगो रक्खें । पुनः निकाल शुष्क कर चूर्ण करलें । इसमें से १ माशा प्रति दिवस खाएँ तो पुरातन उपदंश से मुक्ति प्राप्त हो। For Private and Personal Use Only Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir असा अडसा इसकी जद और मुण्डी घुटी दोनों को घोट छानकर शहद मिलाकर नित्य पीने से कोढ़ से ! छुटकारा मिलता है । इसकी मूल-स्वचा को जौकुट कर तथा जल में भिगोकर और उस जल को घूट चूंट पिलाने से वमन तथा मतली को अवश्य लाभ होता है। _यदि पावभर जड़का नियमपूर्वक एक बोतल शर्यत बनाकर उचित मात्राम प्रति दिवस उपयोग किया जाय तो श्वास और पुरातन कास जड़ से । उखड़ जाता है। जड़ द्वारा धातु मारना इसकी जड़ के छिलके के पानी में एक तोला । सुवर्ण को लाल करके सौ बार घुमाएँ । पुनः सत्यानासी के कल्क (लुगदी) में रखकर अग्नि द्वारा भस्म करें। गुण-इस भस्म को उचित मात्रा में उपयुक्त अनुपान द्वारा सेवन करने से मुहत की गर्मी और । पुरातन शुक्र प्रमेह नष्ट होता है। अड़से के पत्र अडसे के समान रक्रपित्तनाशक कोई अन्य ! श्रोषधि नहीं है । कहा है:वृषपग्राणि संपीड्य रसः समधु शर्करः । अनेनैवशमं याप्ति रऋपित्तं सुदारुणम् ॥ अर्थात् अडसा-पत्र-स्वरस (अथवा क्वाथ ) ' मधु मिलाकर सेवन करने से । दारुण स्क्रपित्त शांत होता है। अडूसे के स्वरस का नस्य देने से नाक, कान, : नेत्र से रुधिर का बहना बन्द होता है। अडूसे के पत्तों में कीटाणु नाशक (Inse. ' cticitle )गुण विद्यमान है और इस कारण जब धान या अन्य फसलों पर कीड़े लग जाते है तो उनको मारने के लिए इसके पत्तों का उपयोग अत्यन्त लाभदायी खयाल किया जाता है। (डॉ० वैट) कि इसके पत्तों में किसी कदर अमोनिया भी होती है इसलिए इसके चुरट बनाकर पिलाने ! से दमा के दौरा में कमी हो जाती है । डॉ. वैट : महोदय अपने अनुभव के आधार पर इसकी बड़ी प्रशंसा करते हैं । देखी-"डिक्शनरी ऑफ़ दी एकानामिक प्रॉडक्ट श्राफ इण्डिया।" ___ यदि इस वृक्ष के ताजे पत्ते अथवा पुष्प को कूट कर टिकिया बनालें और इसे लाल तथा दुखती हुई आँखों पर बाँध दें तो तीन चार रात ऐसा करनेसे बिलकुल पाराम हो जाता है। इसके पत्तों के चूर्ण को दांतों पर मलने से दाँत मजबूत होते हैं और दर्द दूर होता है एवं दाँत के समस्त विकार नष्ट हो जाते हैं। इसके परो को कूटकर रस निचोड़ लें और उसमें शहद मिलाकर चाटें तो खाँसी दूर हो और कंठ साफ होकर वाणी की शुद्धि हो। १ तो० असे के पत्ते, ६ मा० भूली के ग्रीज और ६ मा० गाजर के बीज इनका क्वाथ कर कुछ दिन पिलाने से रजःरोध दूर होता है । अडसे के पसे और सफेद चन्दन इनके सम. भाग बारीक चूर्ण में से ४ माशा प्रति दिवस खाने से खूनी बवासीर को बहुत लाभ होता और खून का दौरा बन्द हो जाता है। यदि किसी अवयव में शोथ हो तो इसके पत्ते के काय का बाप्प देने से लाभ होता है। ___ इसके पत्तों को रोगन बाबूना में घोटकर लेप करें तो फुफ्फुस प्रदाह दूर हो। अडूसा-पत्र-स्वरस को तिल तेल में मिलाकर पकाएं जब केवल तेल मात्र रह जाए तब उतार कर ठंडा होने पर शीशी में रख लें । इस तैल से प्राक्षेप, वातम्यथा उदरस्थ वायुवेदना और हाथ पाँव की ऐंठन दूर होती है। इसके पत्ते समभाग स्वबूजा बीज के साथ घोट छानकर पीने से पेशाब खूब खुलकर पाने लगता है और मूत्र सम्बन्धी बीमारियों में बहुत कुछ न्यूनता पाजाती है। यदि अडूसा पत्र १ तोला, शोरा कलमी ६ माशा और कासनी ६ माशा इनको घोट छान कर पिलाएँ तो मूत्र अधिकता के साथ आता है जिससे कामला रोग दूर होजाता है । इसके पत्तों के जुलाल को पीने से ज्वर, सृपा और घबराहट प्रभृति दूर होते हैं। असा के पनों को पानी से पीसकर प्रारम्भ For Private and Personal Use Only Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अंडसा २१. अडूसा ही में यदि इसे फाड़े पर लेप करें तो उसे बिठा देता है और कोई कष्ट भी नहीं होता। अडूसे के पत्ते को कूट कर गोला सा बनालें और उस गोले पर एरण्ड के हरे पत्ते लपेट कर ऊपर से मास ( उड़द ) के आटे का लेपन कर भूबा में दवाई जब पाटा पक जाय तब उसे हटाकर अरण्ड पत्र को पृथक करके अड्सा का रस निकाल कर रखलें । अब उस निकाले हुए रस में से प्राधसेर बह रस, १ पाव खाड़ देशी, ४ . तोला पीपल का चूर्ण और चार तोला गोघृत मिलाकर पकाएँ । जब चाशनी गाढ़ी हो जाए तब उतार कर उसमें एक पाव शुद्ध शहद मिलाकर माजून बनाकर रख लें। मात्रा-४-४ माशा शाम व सुबह । इसे . क्रमश: बढ़ाते जाएँ। गुण--राजयामा, खांसी, दमा, प्रतिश्याय, अजीर्ण और वक्षःस्थल स्थ वेदना को अत्यन्त लाभाद है। भस्मोकरण यदि शुद्ध तास पत्र को अड़से के पत्ते के रस में सौ बार बुझाएँ । पश्चात् राई की गन्दलों की लुगदी में एक मन उपलों की अग्नि दें। इसी प्रकार तीन बार करें, भस्म तैयार होगी। . गुण- इसमें से १ रत्ती उचित रूप में उपयोग करने से सः पूर्ण वातव्याधि, कफ, खाँसी, दमा, निर्बलता एवम् बुढ़ापा ग्रभूति दूर होता । "हिन्दू मेटीरिया मेडिका' के लेखक यू. सी दत्त महोदय के कथनानुसार यह कहावत प्रसिद्ध है कि वह व्यकि जो राजयमा से पीड़ित हो उसे उस समय तक उदास न होना चाहिए जब तक वासक वृक्ष यहाँ स्थित है। यह पुरातन काम, दमा और अन्य फुफ्फुसीय एवं कफ सम्बन्धी रोगों में अत्यन्त लाभदायक है। (डॉ० जैक्सन और दत्त) ___इसका पुष्प राजयचमा नाश करने वाला, पित्तघ्न और रुधिर की उरणाता का शामक है। यदि पुष्प को रात्रि में जल में भिगो दें और सवेरे मल छानकर पान करें तो मूय की जलन एवम् अरुणता दूर हो। - इसके शुष्क किए हुए पपी को कूट छान कर उससे द्विगुण बङ्गभस्म मिलाकर शीरा काह, .खुर्की और खीरा के साथ व्यवहार में लाने से शुक्रप्रमेह नष्ट होता है। शुष्क पुष्प चूर्ण के साथ इससे चौथाई जौहर नौसादर योजित करके २ रत्ती बताशा में रखकर खिलाने से तर खाँसी दूर होती है। इसके एक पात्र पके फूल का एक बोतल शर्बत तय्यार करें। चार मा. यह शर्बत ६ मा० रूह केवड़ा और उचित मात्रा में कुएँ का जल मिला कर सवेरे पिलाने से हृदय की धड़कन, श्वास फूलना, पथराहट और पुरातन गर्मी दूर होती है। अडसेका फूल १ सेर,इससे द्विगुण शर्करा डालकर गुलन्द तैयार करें। यह कास, श्वास और यक्ष्मा में लाभप्रद है। अडसा पुप्प द्वारा भस्म प्रस्तुत करना अड़से के फूल को कूटकर रस निचोड़ें और उस रस में गोदन्ती हड़ताल को खरल कर नियमानुसार अग्नि दें। इसी प्रकार सात बार करें तो गोदनी भरत प्रस्तुत होगी। गुण-यह जीर्ण ज्वर के लिए अत्यन्त लाभदायी सिन्दमोगी। खून थूकने में ५ मा०कहरुवा में एक रत्ती यह भस्म रखकर शर्बत प्रजबार के साथ खिलाने से कुछ ही खुराकों में लाभ है अडसे के पुप्प श्रडूमे के पुष्प, पत्र और मूल, परन्तु | विशेषकर पुष्प में श्राप शामक गुण होने का निश्चय किया जाता है और मा की कई अवस्थाओं तथा विषमज्वरों की तीव्रता के पुनरावर्तन में योजित किए जाते हैं। ये किञ्चित् : तिक एवं अर्ध सुगन्धि युक्र होते तथा शीत कपाय एवं अवलेह रूप से उपयोग में पाते हैं । अवलेह की मात्रा लगभग चाय के चम्मच भर दिन में दो बार प्रयोग में पाती है। (डॉ० एन्सली )। For Private and Personal Use Only Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अडोमा पहुँचाएगी। पुरातन कासके लिए २-२ ती यह दमा और ना सुहम (खन थूकने ) के लिए भस्म शर्यत एजाज़ के साथ खिलाने से राम- अनत समान है । १ रत्ती से तीन रत्ती तक वाण सिद्ध होगी। पान के साथ उपयोग में लाने से यह प्रत्येक अडसा द्वारा प्रस्तुत विविध योग भाँति की खाँसी और दमा को लाभ पहुँ(१) वासक क्वाथ, वासा घृत तथा वासा- चाता है। बलेह प्रभति तथा अनेक अन्य योग "शाङ्गधर" असा काला adusa-kāla-० । अडूसा भेद एवं "भावप्रकाश" थादि ग्रंथों में वर्णित हैं। (Black adhatoda)-इं०।। इस कोष में भी वे यथाक्रम आए हैं। अतः । अडसा क्वाथ: adusa-kvathah-सं० पु. वहाँ वहाँ देखिए। अडूसे के पत्र या मूल १ तो०, जल १६ तोला (२) असा पत्र १ सेर, असा पुष्प में काथ करें: जब चतुर्थांश शेष रहे तब उसमें १०ती०, जल ४ सेर डाल कर रातको भिगो दें। शहद डालकर पीने से रऋपित्त तथा क्षय का सवेरे एक जोश देकर गोम्म चार सेर मिलाएँ । नाश होता है। और भपका (नाड़ीयंत्र)द्वारा ५ सेर अर्क खीचें। (यो० त०; ला० सं०) १० तो यह अर्क शर्यत एजाज़ ५ तो०में मिला.. कर सवेरे और शामको पिलाएँ और उष्ण वस्तुनी अड़सा पुटपाकः adusa-pitapakah - सं. से परहेज कराएँ । राजयक्ष्माकी प्रथम एवं द्वितीय पु. अडूसे के पुटपाक का रस निचोड़ कक्षा में लाभदायी है। दो सप्ताह पश्चात् रोगी कर शहद मिला पीने से रक्रपित्त, छर्दि, कास के वजन में आश्चर्यजनक वृद्धि दीख पड़ती है ___ तथा ज्वर का नाश होता है । तथा शरीर लाल और प्राभायुक्र हो जाता है। (शाई० सं० म० ख०१०) मूत्र की अरुणता, जलन और रक्रोप्मा को तर अडसा सुकंद adisa-sufeda-हिं० संज्ञा पु. अडूसा भेद । देखो-अड़सा । White करने में अनुपमेय सिद्ध होता है। udhatoda-इं०। (३) अडसा पत्र, असे की जड़ की छाल । अडेका मजेन adaca man jen-ले० मुण्डी, और अडूसा का फूल प्रत्येक २ सेर, २० सेर जल गोरखमुण्डो-हिं० । देखो-मुगडी । (Sphडालकर जोश दें। श्राधा रह जाने पर मल कर छान लें । उक्त जल में उपयुक्र तीनों ueranthus Indicus, Linn.)-ले० फा० इं०२ भा०। वस्तुएँ १-१ सेर डालकर पुनः जोश दें। श्राधा अडेनऐन्थेरा पेवोनीया रह जाने पर उपयुक नियमानुसार मल कर छान teenanthera ले पीर उपयुक्र वस्तुएँ प्रत्येक प्राधा सेर डाल pavonia, Liun. )-ले० लाल चन्दन, कर जोश दें। प्राधा रह जाने पर छान कर रक्तचन्दन-हिं० । देखा-रक चन्दन ! इं० मे० प्लां। इं० मे० मे० । मे० मो०। बोतलों में भर कर रख दें। दिन में तीन बार २॥ तोला की मात्रा में रोगी को पिलाएँ। (Pterocarpus santalinus, Linn.) स्वाद के लिए शहद, तो० मिला लिया जाए । -ले० । का० ई०। गुण-खाँसी, ज्वर, मुंह द्वारा रक्तस्राव, रक्त- शडेन्सोनिया डिजिटेटा adansonia cligiबमन, रमार्श तथा पाचनशक्रि को लाभ tata, Linn.)-ले० गोरख इम्ली । मे० पहुंचाता है। मो०। अड़सा क्षार अडोमा adoma-गोवा बुबा-सोव, मलय। . भासा के पश्चांग को लेकर जलाएँ और नोट-इस शब्द का वर्णन भूलसे पृष्ठ २०६ इसकी भस्म द्वारा नियमानुसार क्षार प्रस्तुत पर अडूनी शब्द के श्रागे कम्पोज हो गया है। करें। यह क्षार २ रत्ती की मात्रामें खाँसी, अस्तु, वहाँ देखें । For Private and Personal Use Only Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अडूः अडुः addah - ता० ( Sec - Malajan ). अडलय www.kobatirth.org मालतन-हरा० २१२ addalaya-ro निकुम्भ-सं० । (See-Nikumbha.) अडसरम् addasarm ते० अड़सा, बासका -हिं । ( Adhatoda vasical, Nees. ) -ले० | स० [फा० इं० । श्रड्डुतिन पल्लो addntina-palli- ना०कीड़ा- श्रणुः anuh-सं० पु० मार-४०। श्रृड्डुनम् addmam-सं०ली० ( A shield) ढाल । अडुगजः aragajah सं० पु० चक्रम । चाकुन्दे-बं० । बैं० श० । (Cassin tora, Linn. ) - ले० : फा० ई० १ ० । अडङ्गः arangah-६० पु० गोधूम, गेहूंCommon Wheat-go I ० श० 'J'ritiemn valgare-० ।। अद्दुः aahuh-सं० पु० लकुच वृक्ष 1 वड़हल - हि० | Artocarpus Lakoocha, Foxb. -ले० । ० श० । अढ़उल adhaala-हिं० जपा पुरुष, श्री -सं० | देखा-श्रोड़: (:) | Shocflower (ilibiscus Rosa-sinensis, Linn ) केसरनु adhakeyasaram-10 सुपारी - हिं० | Areca catechu -ले० | श्र० नि० 1 भा० । अढ़हर adhahara हिं० संज्ञा पुं० अरहर, रहर, नुवर, श्राढ़की | Soe-arhaki. अढैया arhaiya-ft० संज्ञा पुं० [हिं० चढ़ाई, ढाई ] ( १ ) एक तौल जो २ ॥ सैर की होती है । पंसेरो का आधा । ( 22 Seers. ) श्रढ़ईका बेल hui-ka bela - रूतलज०, पं० (Acacia Intsia, Willd.) fecer - ते० | कटार- कुमायूँ । मेमो० । श्रणि ani-हिं० संज्ञा स्त्री० ( ( 1 ) The point श्रणिः ani - सं० पु० f of a needle. नोक, मुनुई। ( २ ) धार | बाढ़ । (३) धुरी की कील । ( ४ ) सीमा । हद्द | सिवान । मेड़ । ( ३ ) किनारा । ( ६ ) अन्यन्त छोटा ! ! अणु-तैलम् अणिमरम् animaram मल० तून वृक्ष । ( Cedrela toona, Josh ) अयाली aniyali-०ि संज्ञा स्त्री० [सं० आणि, धार ] करी। डि श्रणी ani - हि० संज्ञा स्त्री० दे०- प्रति । अणीय aniya-fo वि० [सं०] प्रति सूक्ष्म ! बारीक | झींना । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir | श्रभु, रवी वि० an - हिं० संज्ञा पुं० स्त्र० ] ( १ ) जब एक परमाणु दूसरे परमाणु से मिल जाता है तब उस मिले हुए रूप को श्रणु कहते हैं। केवल तत्वोंके हो नहीं होने, प्रत्युत यौगिक पदार्थों के सूचना भाग भी अणु कहलाने हैं | लीक्यूल (Molecule.) - ३० । ह रेजह... खुदंतरी जुद-उ०1 (२) सेल (Cell) + ( ३ ) सूक्ष्म धान्य । ( ४ ) व्रीहि विशेष | मे० डिक । ( १ ) चीन धान्य ( ६ क से सूक्ष्म, परमाणु से अड़ कण (७) ६० परजःशुका संघानायना हुथा का । ( 5 ) परमाणु । ( ६ ) सूक्ष्म कण । (१०) रज, रजका | ( ११ 1) अन्यन्न सूचन मात्रा वि० ( 1 ) श्रति सूक्ष्मद्र । (२) अत्यन्त छोटा । ( ३ ) दिखाई न दे वा कठिनाई से दिखाई पड़े | श्रृणुक annka-सं०(संज्ञा ) त्रिव्यतिलघु (Vory small, atomic ( Subtle, too fine ) अत्यन्त सूक्ष्म अणु कोष: anu-koshah-सं० [हिं० पु० जीवकोप वा सेल ( Cl) | देखो - सेल । श्रृणु-ज्योतिः anu-jyotih to लो०] स्तोक दृष्टि, ज्योति अथवा तेज को असपता, दृष्टिमांय ! चा० श० ५ श्र०, ६२ श्लो० । अणुता, त्वं anuta tvam ( १ ) Minuteness सूक्ष्मता, अणुरूप होना । (२) Atomic Nature परमाणु स्वभाव | अणु-तैलम् anu-tailam-सं० ली० शरीर के सूक्ष्मातिसूक्ष्म भागों में प्रवेश करने वाला 'तैल 1 केश में होने वाले रोग के लिए प्रयुक्त होने वाला तैल विशेष | वा० सू० २० अ० । For Private and Personal Use Only Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir অন্যহাব্দ अब्राही (१) जिस किमी कार; के कोरह की लाड . मुबारवर दिमाग, दसीग़, सगीर दिमाग-१०। के नीचे विल मरमा प्रादि पदार्थ घानी में पेरकर । सेरी बेलम् ( b-111am इं०। तेल निकाला जाता है, उस उम लकड़ी के स्वर छ 'अगमांगी :: mummingi-हिं. स्त्री० नुविरयह, खण्ड करके एक बड़ी कड़ाही में जल भर कर ! - ० । न्यु योलम Nueltol15-इं० । अग्नि में पकाएं। उत रीति से पकाने पर उन मेल ( (II) को बड़े यंत्र की सहायता से लकड़ियों से जो तेल का अंश पानी पर या जाए ध्यानपूर्वक देग्यन पर मींगी के भीतर जो एक उसको काछ कर अलग कर लें। उस तेल में छोटा सा विन्दु दिखाई देता है, उसकी अगुमीगा वातनाशक श्रापधों को मिलाकर स्नेह पाक की कहते हैं । ह० श० र० ! देखा सेल।। विधि में पका लें, इस अणु नैल कहते हैं। अगामुष्टिः anmmshkin-सं० पु. विषमुष्टि, गण-यह विशेष कर वान रांगों को दूर करता महानिन्छ । रा०नि००४S-Fisha. है और भगन्दर में भी इसका प्रयोग होता है। mishtih. ( स० सं०नि० श्र०, व. का प० ।) श्रणमुष्टिका: 10:11s tikah-२० स्त्री० २) जीवन्ती, नेत्राला, दवदार, नागर- डोडा, मुष्टिका। ..Dori. मोबा, दाजचीनी, कालावाला, अनन्तमल, रस- अभ्रम hai-400 (Foचन्दन, दार हल्दी, तज, मुलही, कदम्य, अगर, : 11.0lii ) सन्म दि . त्रिफला, पौर डरीक, बल गिरी, कमल, इंटी अगरवता marati-सं०० ( (Ptol करेंरी, बड़ी कटेरी, मल्लकी, शालपर्णी, पृष्टपर्णी, olyalitlrlim, Roxi-) दन्नी वृक्ष । १० वायविडंग, तेजपात, छोटी इलाचयी, रेणुकीज, मु०। गनि० २०६। नागकेशर, पद्मरेणु इन्हें समान भाग लेकर अणक्षण antarikshiinis-हिं० संक्षा प. मोगने यांतरिक्ष जल में क्वाथ करें, और ऊपर गुदर्शक, श्रमदर्शक यंत्र । नक रहू, मकबरह. कथित द्रव्यों के तुल्य तिल नैल लें । जब तेल से -अ० । माइक्रोस्कोप Microscope-ई। दस गुना शथ रह जाए तब उतार कर तेल पाक सूचन वस्तुओं का बड़ा करके दिखाने वाला यंत्र करें और जव तैलमान शेष रहे तन्त्र पुनः उस नैल वह यंत्र जिसके द्वारा अत्यन्त सूक्ष्म से मूरम के बराबर क्वाथ मिलाकर पकाएँ इस प्रकार दम बस्तु भी देखी जा सकती है। इसी के द्वारा वि. बार पकाएँ अन्न में अब तैलमान शेष रह जाए तो । ज्ञान ने से अनेक सूरम कोट. ग.त्रों का पता उसमें तेल के बराबर ही बकरी का दूध मिलाकर लगाया है जिनकी विद्यमानता का मनु य को पुनः पका। फिर नैल शेष रहने पर उतार लें। स्वप्न में भी ख्याल न था। देखो-सूक्ष्मदर्शक ! इसे अणु नैल कहते हैं । यह नस्य द्वारा अणुवोदय anurikshya-हिं० वि० सूरमदर्शक प्रयोग करने में महा गुणकारी है। चूंकि यह .. यंत्र से दिखाई देने योग्य ! नकारह मकबरियह, सूक्ष्म छिद्रों में प्रवेश करता है इसलिये इसे अगा। ___-अ० 1 माइक्रोस्कोपिक Microscopic.to/ नैल कहते हैं। (वाग्भट्ट० अ०२०) श्रणब्रोहिः ant-brithih-सं० पु ... ) अणदर्शक n ashaktik० संज्ञा पु० अरणवीहि Anil-krihi-हिं० संज्ञा पु. (Microscope ) सन्मदर्शक। अगुब्रोही 1011-yribi-हिं० संज्ञा प... " ) अपभा Anubha-हि. संग स्त्री० [ सं०] श्यामक, माँवा, साँ, छोटे धान । सुत्मधान्य, Lightning बिजुली । विद्युन् । अनि । : . एक प्रकार का दिया धान, जि.रूका चावल बहुत ताइन् । छोटा होता है और पकाने से बढ़ जाता है और. श्रणमस्तिष्क inmastishka- हिंज्ञा पु। महँगा नी दिकना है। मोतीचूर-हि । ग०नि० अणु मस्तिष्कम् anumastishkam-संक्ला. व. १६ । पं०-1 लघुमस्तिष्क, अनुमस्तिष्क lily. For Private and Personal Use Only Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भएटगलु কা । प्रएटगलु anta-galu कना० (ब. २०) गोद, (३) डिम्बः (मे०), स्त्री अरष्ट-हि० । बै जह, लासा-हिं० । गम् gums, रेजिन्स Resins जनुल्मनी-अ०। प्रोवम् OVIm-०। डिम्, - ई० । स० फा०ई० । देखो-निर्याल । श्रागडा-ब० । इसके पर्याय--पेशी, कोषः, अण्टि anti-मल. (Nut) गुठली-हिं० । स० (अ) पेशः, कोशः, पेसीकोषः, (श्र० टो०)। फा०६०। पेशी (के)। गुण-पाक कटु, मधुर (रस, में) अण्टिकल anti-kala--मल० ( १० व.), रुचिकारक, शुक्रजनक, वात तथा कफनाशक । अण्टि (ए०व०) गुठलियाँ--हिं । नट्स (४) गंधमाजोगराड । व० निघ. २ Nuts--ई। स० फा०ई०। मा० वा. व्या. विपगर्भ तैल । ( ५ ) अपिटचेट्ट anti-chettu |ते. केला, कदली Musk bag कस्तुरिका, नाफा, कस्तूरी प्रण्टिपगडु antipandn j-हिं० । म्युसा सेपि का नाफा, मृगनाभि । (६) Semen एण्टम (Husa sapientum, Linn.) स० virile वीर्य, शुक्र-सं०। वि०। (७) एरण्ड फा०ई०। --हिं०। पामा क्रीस्लाई Palna christi अएिटमलरी anti-malaria ( Ricinus Vulgaris)-ले । (८) ) --मल० । अस्टिमन्तारम anti-mantaram S गुलाबास अण्डा ( An Egg.) हिं० १० डि० । (६) -हिं० । गुले अब्बास-फा० । (Mirabil : पंच आवरण । दे० कोश ।। १०) कामदेव । is jala pa, Linn.) ले । स० फा००। ( Cupid ). देखो-गुलेअब्बास। इ.एड उपांड खात anda-uranda-khata अण्टिश antisha--ते० चिरचिटा, चिचित्री, अपा. -हिं• संज्ञा पुं०(Digital fossil ). मार्ग--हि. I (Achyranthes aspera, jण्डक: andakah-सं० पु (Scrotum) Lian.) स० फा० ई०। अण्डकोष। हे० च.। भण्टु anu- कना. (ए. व.) गोंद, लासा | -हिं० । गम, Gum, रेजिन Resin-० । अराडकं andakan-सं० क्लो. पुद्र डिम्ब, छोटा अंडा (An small egg ). देखो-निर्यास । स० फा०.। प्रण्ड anda--हिं.. भएएककडी anda.kakari ) अण्डकर्कटी anda-karkati | हि० भण्डः andah-सं०. हिं० संज्ञा अण्डम् andam--सनी स्त्री० अण्डख— ज़ा, पपेया, पपीता Carica, (.)अंडकोप को टटोलने पर उसके भीतर Papaya, Linn. ( Fruit of ). गुठली के समान जो दो सख्त चीजें मालूम होती अण्डकोटर पापा andakotira-pushpal हैं, उनको अंड कहते हैं । इसकी सम्बाई अण्डकोटरपया anda.kotaru pushpi ) से १३ इञ्च, चौड़ाई। इन और मोटाई सं० स्त्री० नीलवुहा । देखो-अजान्ता। A potइनसे कुछ कम होती है। उसका भार एक तोले herb (Convolvulus argenteus ). के लगभग होता है । टेस्टिकल 'Lesticle, टे रत्ना । स्टिस. Testis-०। आएक, मु, पुल ,अण्डकोश: andakoshah शुक्रग्रंथि-हिं० । बैजतुलमनी; जुस यह, मरवसा, अण्डकोषः anda-kosha_ म. ए. दौमद-०। रा. नि. २०१। अण्डकोषक: andakoshakath (२) अण्डकोष, वृषण--हिं० । सतन, (.) कुट्मल । दृषण (Serotum, फ्रोतह, कीसहे ख्नुस यह-१० । स्कोटम् Scrot. Tunica albuginea testos)! um-है । हि०० डि.! रा. नि. व०८ For Private and Personal Use Only Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अण्डखरबूजी २१५ संस्कृत पर्याय -- मुल्कः, वृषणः, ( अ अ ) । चंड, पेलं, अण्डकः ( है ) । सीमा ( ज ) । फलकोशकः (त्रि ) । फलं (के) | श्री जपेषिका ( रा ) | सफन ( स् फान, सिक्रन ब० व० ), कीसुल उन्स, यैन, कीसह खु. स्वह ( खुसिया ) फ़ोतह ( फोता ) - अ० । पोस्न खाय- फा० 1 खुस्त्रों की थैली उ० | लिंगेन्द्रिय के नीचे और पीछे वह चमड़े की दोहरी थैली जिसमें वीर्यवाहिनी नसें और दोनों गुलियाँ रहती हैं। दूध पीकर पलने वाले उन समस्त जीवों को यह कोश वा थैली होती है जिनके दोनों थंड वा गुठलियाँ पेडू से बाहर होती हैं । ( २ ) फल का छिलका | फल के ऊपर का बोकला | अण्डखरबूज़ा anda kharabüza-हिं० संज्ञा पुं० श्ररण्डखरबूजा, अरण्डककड़ी, एरण्डकर्कटी, अरण्ड पपैया पपैया पीवैग्रह, विलायती रेंड, पपीता, पता - अम्बा, पपैयह । श्ररण्डखरबूजा - पं० । पोपाई ३० । एरण्डचिनिंट, वातकुम्भ, मधुकर्कटी, नलिकादल:- सं० । पपैया पौपुश्रिअश्रा, पेपाई, पलिया, पेपिया, पपया-ग्रं० । अम्बहे - हिन्दी-अ०, फा० । शजरतुल् बतीख - अ० । दरख्त खुरपूज्ञह दरख्तखयु ह - फा० । खुरपूज्ञह का दरख्त उ० । पपाय (Papay ), पपात्रषेपा ट्री (Papaw tree), मेलन्ट्री, ( Melon tree, ), मेलन मेमेयो ( Melon - Mainao ), कुकुरबिटा पेपा ( Cucurbita papa ) - ई० । (Papaya ), पपात्र (papaw) केरिका पपाया Carica Papaya Lin. (Fruit of - ) - ले० । पपायेरकम्यून Papayer commun-फ्रां० । मेलोनेनबोम Melo. len baum-जर० । पप्पायि, पप्पायिप जुम, पप्पालि पजुस, पप्पालिमर म्- ता० । बोन्यायि पडु, मदन- अनपकार, मधुरनकम्, बपैय- पण्डु - ते० । पध्याय-पज़म, आपपाय-पज़म, पप्पायम्, कप्पालम्-मल० | बोध्यायि-हरणु, फरक ! पपाया Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अडखरबूजी - हरणु परङ्गी, पेरी, पेरिब्जि-पल्लसु । पप्पाङ्गाये - कना० । पोपया, पपाई, पपथा मह० । पपई, पपया - मह०, करुछ०, बम्ब० । पथ्यो, पाय, पपिया, पयाई, पयाईकाट, पपाऊन, frest, पुरण्डककड़ी, फाद - चिमडी - गु० 1 पपोल्का सिं० । सिबो सि, तिभ्यां स बर० १ पप्पागाई - तु० 1 पप्पाए - फल- कौ० । पप्ता, करचिडो-सिंघ० । कुमकोलता या पपीता वर्ग ( N. O. Papayosee, or Passifloracea, ) नॉट ऑफिशल ( Not Official ). उत्पत्ति स्थान--- इसका मूल निवासस्थान अमेरिका है, परन्तु श्रव यह सम्पूर्ण भारतवर्ष ( विशेषकर पश्चिम भारतवर्ष ) में तथा पुरानी दुनियाँ के उप प्रधान प्रदेशों में लगाया जाता है । नोट --- किसी किसी प्रन्थ में इसका अरबी फ़ारसी नाम अनवहे हिन्दी लिखा है । परन्तु प्रामाणिक चिकित्सा प्रन्थों में यह नाम नहीं मिलता । मुहीत आज़म में पपय्यह तथा मजनुल् अद्विग्रह में पपीहा श्रादि नामों से इसका वर्णन किया गया है। गीलानी ने शरह मुफ्तकानून में बतख के अन्तर्गत इसका वर्णन किया है। इग्नेशिया श्रमारा ( Ignatia Amara ) को भी जो कि कुचिला वर्ग की ओषधि है उसके हस्पानी नाम पपीता से ही अभिहित करते हैं, परन्तु वह विषैली तथा श्रण्डसे सर्वथा भिन्न वस्तु है; अस्तु, उसके लिए देखो - पपीता । खरबूजा वानस्पतिक वर्णन - इसके वृक्ष २० से ३० फीट ऊँचे, आरम्भ में श्रशाखी ( अर्थात् खजूर व तालवत् एक ही तनेपर ); किन्तु प्राचीन होने पर शाखा ( पृथक् पृथक् शिरोमय ) हो जाते हैं । पत्र लम्बे ईल युक्र ( १–१ गज लम्बे ), एकांतरीय ( विषमवर्ती ) पब्जाकार, सप्त खंडयुक्र, एरण्डपत्रवत्, किन्तु उससे मृदु एवं लघु For Private and Personal Use Only Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अण्डखरबूजा अण्डखरबूजा होते हैं। खरड-अायताकार, न्यूनकोणीय, , . है, जो दुग्ध को जमा देता है, उसको शिरानी से च्याप्त होता हैं जिसके सिरे पर पत्तों पेान ( IPupin) या पेंपयोसोन ( Papकी छग्री बनी होती है । "Isotin) कहती हैं | ताजे फल रबरबत् मध्य खराड-पुनः निखण्डयुज होता है। एक पदार्थ, एक मदु पीतवर्ण का राल, वसा, पुष्पभ्यनारकोष नरपुष्प में नलिकाकार और . अल्युमीनाई इम, शर्करा. पेक्टीन, निम्बुकाम्ल (Citric Acid), अम्लीकाम्ल (Tart- . मादा में पञ्च खर इयुक्त होते हैं । नरपुष्प कक्षीय । किञ्चित् भित्रित गुच्छों में एवं श्वेत होते हैं। dri: A cit! ), सेव की तेजाब (Jfalic Acid). और ब्रानौज ( अंगूर की शर्करा) मादा (नारि ). पुष्प साधारणानः भिन्न वृह में प्रभति पदार्थ पाए जाते हैं। शुष्क फल में अधिक कशान्तरीय, बृहत् एवं गृहादार और पीताभायुक्र । परिमाग में भस्म (८.४%) होती है होने हैं। फल रसपूर्ण प्राणत.कार, धारीदार, . जिसमें सोडा, पोटाश और स्फुरिकाम्ल( Phoलघु खबूजा के प्राकार के परिपक्वावस्था में पीनाभाय क्र हरिन या सुमिायल वर्ण के र sphoric Acid) पाए जाते हैं। इसके श्रीजों में एक प्रकार का तेल होता है जिससे अपक्व दशा में हरे रंग के होते हैं। इनमें बहु अग्राह्य गंध पाती है। (स्वाद-अनास) इसको संस्यक गोलाकार भूमर वर्ण के चिपचिपे भरिच. श्रण्डखरबृजा तेल या पपैया तेल ( Panaबत बीज होते हैं इनमें से चुनसरवत् गंध पाती है। अपरिपक्कावस्था में फल गाढ़े दूध से भरा | ya Oil or caricial ) कहते हैं। इनके अतिरिक्त इसमें पामिटिक एसिड, कैरिका फैटरहता है । पत्र एवं प्रकांड में भी दुग्ध होता है । एसिड, एक स्फटिकवत् अम्ल जिनको पपीताम्ल इसमें पेपीन ( अर डस्नरयूज़ा सत्व) नामक एक । (Papayic Aein) कहते हैं और रेजिन प्रभावसाली पाचक सत्य होता है। ऐसिड तथा एक मदुराल प्रादि पदार्थ पाए नोट-फल के विचार से ये चार प्रकार के जाने हैं। इसके पत्र में कापीन (Calpaino) होते हैं:-- नामक एक क्षारीय सत्व होता है जिससे कान - १-नर- जिसमें फल नहीं लगते, ये केवल TE GTX1833 (Carpaine hydro. पुष्प श्राचुकने पर शुष्क हो जाते हैं। शेष तीन । chlorid: ) बनता है। यह जल में विलेय फलदार होते हैं । २-इनमें से एक बेल पपय्या होता है और हृदय बलप्रद रूप से डिजिटेलिस है । इस प्रकार का फल तने से लगा हुआ नहीं। के स्थान में - से लेकर ' ग्रेन तक के मात्रा होता, अपिनु लयुक्र, . होता है। शेष दो ३० . १५ 5.कार (तीन व चार ) के फल वने से लगे होते में स्वगन्तःशेष रूप से उपयोग किया जाता है । हैं केवल फल के छोटे बड़े होने का भेद कानि एक विषैला पदार्थ है। होता है। औषध निर्माण---१-पपीता स्वरस, मात्रा २० से ६० बुद। २-शुकः परीता स्वरस, अंडखरबुजा बम्बई, कराँची और मदरास में मात्रा-1 से २ ग्रेन या अधिक । इससे भाग अधिकता से होता है। पेचीन (पपीतासत्य) प्राप्त होता है। ३-पपीता प्रयोगांश-दुग्धमय रस, बीज तथा फल- | सत्व अर्थात् पेपीन या पेपेयोटीन, मात्रा-1 से मजा श्रीर पत्र, दुग्धमय रस द्वारा प्रस्तुत सत्व ग्रेन। ४-फल मज्जा । ५-शर्यत, चटनी "पेपीन" प्रादि। श्रादि । ६-कल्क व पुल्टिस । रासायनिक संगठन--इसके दुग्धमय-रसमें सेवन विधि-इसको कीचट में डालकर एक प्रकार का अल्ब्युमिनीय पाचक संधानी- या मिश्रण (मिक्सचर) या गुटिका रूप में त्पादक ( अभिषत्रकारी ) पदार्थ होता। तथा एलिक्सिर और ग्लीसरोल की शकल में देते For Private and Personal Use Only Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir है। डिस्पेनिसा सिरप से इसकी उत्तम बटिकाएं प्रस्तुत होती है। मॉट ऑफिसल योग (Not official preparations ). और पेटेन्ट औषध-- (1) एलिक्सिर पेपीन ( Elixit : papain) अक्सीर जौहर पपश्यत् । पेपीन " भाग, मपसार (ऐल्कोहल) भाग, परितुत वारि ( लिस्टिक वॉटर) ! भाग, ऐरोमैटिक एसिक्सिर आवश्यकतानुसार बस इतना जिससे पूरा सौ होजाए। (बी०पी० · सी.). मात्रा---प्राधा से। ड्राम भोजन के साथ । .. (२) ग्लीसराइमम् पेपन (Glyceri nurn papa.in) ग्लीसहीनोहर पपाह मारिवीम पपीतासरवासीमाम.साडीअमेरिक एसिड स्पट भाम, झिम्पल पशिक्सिर ५ भाग, ग्लीसरीन (मरीन) १०० भाग पर्यन्त । मात्रा-डाम भोजन के साथ । () ट्रॅाकिस्काई पेपोम ( Trochisci papain) पीन की टिकिया-- शति--प्रत्येक टिकिया में प्राधा प्रेम पेपीन होता है । टेम्लेट्स पेपीन, प्रत्येक में २ प्रेम पेपीन होता है। इतिहास तथा गुण-धर्म- मागील निवासी इसको प्राचीन काल से जामते थे। अस्तु, 'अण्डखम्बूजा की नरमादा जासिको वहाँ मेमेत्री। मेको Mamao macho( नर मेमेमो या पपीता) तथा फखान्वित होने वाली बी आति । को मेमेस्रो फेमिया mamao famea (मावा पपीता) और अन्तिम की बोई जाने वाली जाति को मेमेनो मेसेनो (फीमेल मेमेनो) कहते थे। परन्तु, उसके दूधिया रस का कृमिन प्रभाव १० वी शतान्ति मसीही में ज्ञात हुआ । पश्चिम भारतीय द्वीपों में इसका मांसपाचक प्रभाव सम्भवतः प्राचीन काल से ज्ञात था। ऐसा प्रतीत होता है कि पुर्तगाल निवासी अब इसको भारतवर्ष में लाए सब उनसे भारतीयों को भी इसके मांसपाचक प्रभाव का ज्ञान होगया; क्योंकि भारतवर्ष में भी यह बहुत काल से ग्यवहार में पा रहा है। प्रस्त, मांसको कोमल करने के लिए कच्चे अंडरव का का रस उस पर मलते हैं अथवा उसको इसके (पपया) पत्र में संपेट देते हैं। (पत्र सायनवत् है-ई. मे० मे01) मरजानुल अद्विह, तथा मुहीत प्राङ्गम प्रभृति अन्यों में भी पपरयह, * दुध इस गुण का वर्णन है कि वह गौरत की गुज़ार करसा ( कोमल करता या गला देता) और दुग्ध को जमा देता है। " ___ मजनु अद्वियह के लेखक मीर मुहम्मद हुसेन (१७७० ई.) ने पपस्यह, पूरका सष्ट वर्णन किया है। इसके रस में बाईक को मिश्रित कर मांस के मृदु करने के उपयोग का बर्थन करते हैं। उनके बईमानुसार यह रा. निष्ठीवन, स्कार तथा प्रमालीस्थी की औषध है और जीर्य में भी हितकारी है। वा या विचचिका ( जिसमें प्रवन्त लाज उठती हो एवम् जिससे अधिक स्नेहसाव होता हो) में इसके दुग्ध को ३.४ मार लगाने से लाभ होता है। प्रकृति-प-गर्म तर; भपक-उच्चा, सा, वृष-रवा-उस रूप, किसी किसी के मत से सईतर कक्षा में। . .... हानिकायकृत को वा शीत प्रकृति और कफ प्रकृति बालों को । दर्पनाशक-सिकंजबीन बरी (खाँद, समर सपा सिको प्रभृति) । माहार मध्य में इसका लामा सम है। स्थावअपर कदुमा और पक्व मिस लिए स्वाद होता है। प्रतिनिधि-हिन्दी बजार ।। मात्रा-४.मारे। गुण, कर्म, प्रयोग कोलमृदुकर, तुपाहर, प्रवाहिका, पर्स, जीरादि, कर मुखकी स्पसा तथा व न और रमा को लाभप्रद है। अशुद्ध मलोंकी त्वचा, हस्त व पाद द्वारा विसर्जित For Private and Personal Use Only Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मण्डखरबूजा अर्डखरबूजा - करता है। वहण विस्मृतिहर, रुक्षता, रन- को इसका तिहाई अथवा एक चाय की चम्मच निष्ठीवन, रकपरण, रकाश, भूत्रप्रणालीस्थ क्षत, भर देना चाहिए । यदि ऐन प्रतीत हो रत व प्रामाशय व यकृद् दाहहर, शीघ्रपाकी, जैसा इससे कभी कभी होता है तो शर्करा योजित कफ तथा रक्रवर्दक, कफज व वातज प्रान्ग्रकूजन- पनिमा ( वस्ति ) करने से वह दूर हो जाता प्रद है। मु. आ० । इसका परिपक्व फल उपवंश को गुणप्रद है । इसके पके हुए मुख्यतः यह केचुआनिस्सारक है। कदाना और करचे फल का अचार पीहा के रोग में (Tax.lija) पर इसका कम प्रभाव होता है। गुणकारक है। यह पाचक, सुधावर्धक, वायु. बीज में भी कृमिघ्न प्रभाव होने का वर्णन लयकर्ता, सववस्त्यहमरी निःसारक और मूत्रल * किया गया है, परन्तु इसके गुण विषयक प्रभावों है। मांस विशेषतः कबाबों के मांस को अतिशीघ्र से भलीभाँति यहं परिणाम नहीं निकलता ।' गलाता एवम् उसका दर्पघ्न है। भारतवर्ष में ' दक्षिण तथा पश्चिम भारतवर्ष और अङ्गप्रदेश प्रायः यह इसी काम में आता है। म० म०। की सभी जाति की स्त्रियों में इसके बीज के भाविप्रवर्तक गुल में प्रगल विश्वास है । उनकी यहाँ तक धारणा है कि यदि गर्भवती सी इसे भारतवर्ष में डॉ० फ्लेमिङ्ग ( १८१०ई०) मण्यम मात्रा में भी स्थाए तो गर्भपात से इसके दुग्ध के कृमिघ्न रूप से उपयोग की | अश्यम्भावी परिणाम होगा । यही पूर्वाग्रह ओर ध्यान दिलाया। इसके कथित गुणधर्म के । इसके फल खाने के खिलाफ है। तो भी पपीता प्रभास के लिए वे मि० कारटीर कोसिनी . के प्राकथित पार्सवप्रवर्तक गुणों के प्रमाणभूत : (M. Carpentier Cossigni) a arat घटनाओं की बहुत कमी है। ( बीज सशक .: से एक मनोरक्षक भाग उद्धृत करते हैं । अभी श्रावप्रवर्तक है-इं० मे० मे०) गर्भपात हेतु . हाल ही में मिल बॉटन (Mr. Bouton) ने इसके दूधिया रस का गर्भासयिकद्वार में पेसरी इसका प्रयल प्रमाण पेश किया है। जिससे यह निश्चिततया निष्कर्ष निकाला जा सकता रूप से स्थानिक उपयोग होता है। यह जमे . हुए अंशुमन का बयकर्ता है। . है कि इसके कृमिघ्न प्रभाव विपयक. वर्णन वास्त माउंस इसके पत्र, ६० ग्रेन (३० रत्ती) :. विक घटना पर स्थापित किये गये हैं। वे डा. अहिफेन तथा ६० प्रेन ( ३० रत्ती) सैंधवमारचन्द ( IDr. Lemarchand ) १.लवण इनको रगड़ कर करक प्रस्तुत करें। इसके द्वारा व्यवहृत निम्न सेवन विधि का उल्लेख स्थानिक उपयोग से गिनी कृमि (Guinea : Worn) नष्ट होती है। 'ले. कर० : । ताजे अखरबूने का दुग्ध, और शाहर, प्रश्यक काफ्स। .. . समय की मच भर इनको भली भांति मिति। .. एक चाय की चम्मच भर अंडखरबूजे के दुग्ध कर उसमें उबलसा हुआ उल ३ या ४ चम्मच तथा उतनी ही शर्करा वा परस्पर मिलाकर इसकी भर धीरे धीरे योजित करें। और अन्न यह काफी तीन मात्राएँ बनाकर दैनिक सेवन करने से नीहा शीतल होजाय तो इसे एक चूंट में पी जाएँ । एवम् यकृत वृद्धि चिकित्सा में उत्सम परिणाम इसके दो घंटे पश्चात् सिको या नीबूके रस मिले । प्राप्त हुए । एयर्स (50 में ग० फर० १८८५ . हुए एरड नेता , की एक मासा सेवन करें। ई०)। ..... : वश्यकतानुसार इसको दो दिन तक वहाबर । ... फल पुरातन अतिसार में गुणदायक होता है। सेखनको सह.पूर्व वयस्क मा ७ से १० .. इसका अपत फल कोष्ठभूदुकारक तथा मूत्रल .. केलीतर के बालक को इसकी प्राधी मात्रा है। इसका ताजा दृधिया रस. वएयलेपन देनी चाहिए और तीन वर्ष से भीतर के शिशु . (Rubifacient ) तथा दद्रु हेतु उत्तम , करते हैं For Private and Personal Use Only Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अण्डखरबूज़ा प्रलेप है। यह वृश्चिक दंश की निश्चिन औषध । है। बीज भी इस हेतु उत्तने ही लाभप्रद हैं। पक्क फल परिवर्तक है और इसका निरन्तर सेवन आदती मलावरोध को नष्ट करता है। यह अजीण तथा रक्तार्श में हित है। उबालने के पश्चात् इसमें निम्बु सरस तथा शर्करा सम्मि. लिन करने से इसकी उराम घटनी प्रस्तुत होती है। इसका शुष्क किया हया एवं लवणा-योजित फल नीहा शोथ तथा यकद् शोध को कम करता है। इसके अपक्क फलकी कड़ी प्रस्तुत कर स्तन्यजमन प्रभाव हेतु नियाँ सेवन करती हैं। बातवेदनाओं में इसके पत्र को उपण जल में डुबोकर | अथवा अग्नि पर गरम करके वे नास्थल पर बाँधते हैं। पनियों को कुचलकर इसको पुल्टिस बाँधने से कहा जाता है कि श्लैपदिक शोध कम होता है। इस हेतु इसके फल द्वारा निष्कासित प्रगाढ़ दुग्ध का ३ से ४ 'ग्रेन ( से २ रत्ती) की मात्रा में वटी रूप में आन्तरिक उपयोग होता है । ई० मे० मे। अण्डम्बरबूज़ा का दृधिया रस और तनिर्मित सत्व (पेपीन ) दूधिया रस __प्राप्ति व निर्माण-विधि--गपक ( वा अई. पक) फल में लम्बाई की रुख बारम्बार चीरा दें। इस प्रकार जब पर्याप्त दुग्ध निकल पाए तब उसे एकत्रितकर सैण्डवाथ (बालुकाकुण्ड)पर रख मन्द अग्नि द्वारा शुष्क करें। इस प्रकार एक मन्द श्वेत व का चूर्ण प्राप्त होगा । आन्तरिक रूप से प्रयुज्य यह एक उत्तम औषध है। पूर्ण बयस्क मनुष्यको इसकीया २ ग्रेन की मात्रा शर्करा वा दुग्ध के साथ देनी चाहिए । इसी प्रकार की एक औषध "फिलर्स पेपीन" के नाम से बिकता है । स्वाद अमिय होने के कारण इसका टिंक्चर उत्तम नहीं होता । आवश्यकता होने पर बालकों अथवा सियों के लिए इसके चूर्ण का शर्बन बनाया जा सकता है। अजीण। में यह अत्यन्त गुणदायक है। लक्षण तथा पेपोन से इसकी तुलना क्षारीय, अग्लीय, तथा न्युट्रल (उदासीन) धोतम विलायक रूपसे यह पेप्सीन के समान एक एन्जाइम है। यह मांसीय एल्ल्युमेन का प्रबल पाचक एवं वास्तविक पेयोङ्ग का निर्माण करता है और पेप्सीन के समान दुग्ध को जमा देता है । पेप्सीन से यह इस बात में भिन्न है कि बिना अम्ल योग के तथा अधिक उत्ताप पर एवं थोड़े काल में यह प्रभाव करता है। फाइदिन तथा अभ्य मब्रजनीय पक्षों का विला होने के कारण यह मांस को गलाता है। ना हुधा रस पेप्सीन से रासायनतः इस बासमें मित है कि उबालने पर वह सलस्थायी . ( भवःयातित) नहीं होता। और मक्युरिक कोराइड ( पारदहरिद), प्रायोडीन ( नैलिका ) एवं सम्पूर्ण खनिजाम्लों द्वारा तलस्थायी हो जाता है। इस बात में वह पेप्सीन के समान है कि न्युट्रल एसी. टेट ऑफ बेड द्वारा वह. तबस्थायी हो जाता है तथा कॉपर सल्फेठ ( ताम्रगन्धेत ) और भावन • मोराइड (लौह हरिद ) के साथ तालस्थायी नहीं होता। - पेपीन या पेपेयोटीन (Papain or papayotin ) मात व लक्षण - यह एक एल्ब्युमीनीय वा पाचक खंभीर वा अभिषय (प्रभावात्मक सत्व) जो अपक्क भण्डखवूजा के दूधिया रसको मवसार (ऐलकुहॉल) के साथ तलस्थायी करने से प्राप्त होता है । यह एक श्वेत वर्ण का विकृताकार ( अमूर्त ) बाभूत चूर्ण है। जो % शुद्ध मबसार, जल एवं ग्लीसरीन (मधुरीन) में विलेय होता है । इसमें प्राबिज प्रमों के पचाने की शक्रि है। एक ने पीन २.. ग्रेन ताजे दवाए हुए रक फाइनिन को पा देगा। नोट-यद्यपि भण्डसजा के अपत रस से निकाल कर शुष्क किए हुए दूधिया इस को अंग्रेजी में पेपेयोटीन रहते हैं , तथापि पेपीन और पेपेयोटीन अधुना पर्याय रूप से ग्यपहत होते हैं। For Private and Personal Use Only Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir डसरजा प्रखरदूजा पेपीन ( Papain) को पेपाइन ( pap- ine) के साथ मिलाकर धमकारक न बनामा चाहिए । पेपाइन. एक द्रव पदार्थ है, जिसमें अफीम के वर्जनीय शारीय सखों से भित्र उसमें अजमर्दप्रशमन गुणे के होने की प्रतिज्ञा की जाती है। इन्द्रियव्यापारिक कार्य या प्रभाष - इसकी प्रभाव विषयक बातों में सिवा इसके और कोई स्मरशीष पास नहीं कि इस नत्रजनीय पदार्थों पर प्रपत्र प्रभाव होता है और जब देखोटीन को सीधा हमें पहुँचाया प्राता है सब यह प्रमख विपेक्षा प्रभाव उत्पन्न करता है। जिस जय तथा वातकेन्द्र बातग्रस्त हो जाते है। अन्यथा आन्तरिक रूप से औषधीय मात्रा में | यह सर्वथा निरापद है। . .. उपयोग–विस्थीरिया (.सुनाक, करो। हिणी), अल्सरेटेड थोर (कक्षत), ऋष (स्वरम्नीकास), एकज़मा ( फन्द) और फिशर श्राफ दी टा(जिला की कर्कशता) भादि में इसका स्थानिक उपयोग और अग्निमांय, अजीर्ण वृष्यल, कद्दाना (टीनिया सोलियम् ), प्राध्मान, अनिसार तथा वृकाश्मरी एवं दो भेदजन्य संग्रहणी (Lientric Diari rhora.) प्रभृति में इसका अान्तरिक उपयोग लाभदायक होता है। (3) पेपन तथा पीना पंकि एटीन ( क्रोमीन. ) क. पाचक प्रभाव को ! तुलनात्मक व्याख्या--. :- ( अम्लीय. वारीय तथा म्युरल घोलों । ( सध्यम) में भी इसका प्रभाव होता है। . जिससे उस अवस्था में भी इसके प्रभाव करने की प्राशा की जा सकती है जब कि अस्वस्थता के कारण अथवा कृत्रिम रूप से जैसा औषध. काल में होता है. प्रामाशयस्थ पदार्थों की प्रति. किया वारीय या मुख(उदासीन)होजाती है । उक दर्शाभा में पेपीन सत्पत्तः व्यर्थ प्रमाणित होगा । (ख) पारीय एवं न्युट्रल घोली में प्रभाव. जनक होने के कारण प्राहारीय पदार्थों के प्रामा ! शय से मांग में जिसकी प्रतिक्रिया चारीब होती है, प्रा जाने पर भी इसका प्रभाव होता रहेगा जो पैडीएटीन (क्रोमीन ) के प्रभाव के तुल्य है । सम्पूर्ण मांत्र पर इसका प्रभाव होता रहेगा। (ग) इसमें कुछ ग्रामप्रशमन वा शूलहर प्रभाव भी है। (घ) पचनीय सान्द्राहार के अनुपात से दवाहार की मात्रा औसत वा अत्यधिक होनेपर भी यह पेप्सीन की अपेक्षा प्रबलतर प्रभाव प्रह र्शित करता है। (क) Proteolytic प्रभाव के सिवा पेपीन का तेल पर स्पष्ट इमल्शनीकारक प्रभाष होता है। (-) पेपसीन तथा पेडिएटीन (ोमीम) . की उपस्थिति में पेपीन का प्रभाव का जाना है। ___ मांस को कोमल करने के लिए पेपीन बोस में हुबा रखने पर वह अधिक काम सक विना सदे गले सुरजिम रहता है जो इसके बिना कदापि सम्भव न होना । इससे अनुमान किया जा सकता है कि इसमें प्रेरिटसेधिक (पचननिधारक) तथा पाचक प्रभाव भी है । (ज) गादे द्रवों में इसका विलक्षण प्रभाव होता है। (२) प्रामाशय व मात्र विकार-अजीयोवस्था तथा अन्य भामाशयान्त्रधिकार जन्य वानों में मांस पचाने में सहायक होने के लिए कांस देश में पेपेयोटीन का उपयोग किया गया। बालकों के कतिपय प्रामाशय व आंत्र विकारों में इसका.. सरलतापूर्ण प्रयोग किया गया । कहा जाता है कि थोषी मात्रा में इससे अग्निमांद्य एवम् कर्दि में अतिशीघ्र लाभ प्रगट कुमा । स्वाभाविक प्रामायिक रस के कम बनने की अवस्था में पेपेयोटीन को मुस्स द्वारा अथवा पोषकवस्ति का में प्रयोग करने से विशेष लाभ होता है। पेपीन पालकों के पुरातन भामाशपिक प्रतिश्याय,अम्बानी, ती भामाशयल (भामशूल जो भोजनके थोड़ी देर परमात प्रारम्भ होता For Private and Personal Use Only Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भण्डम्बरबूजा १८ है) में विशेष रूप से लाभदायक होता है। "पी० पी० एम०"। २ से ३ ग्रेन की मात्रा में अजीर्ण, पुरातन प्रामायिक प्रदाह तथा प्रामाशयिक प्रण (अल्सर ) वा सान या मांसा. बुद (कैन्सर) में शुद्ध पेपीन द्वारा उत्पन्न मूल्यवान प्रभाव से लेखक को अत्यन्त सन्तुष्टि हुई। वे निम्नलिखित पेपीन मिति योग के विषय में लिखते हैं कि बहुत से भामाशयिक विकारों में इससे उत्तम प्रभावकारी कोई अन्य योग नहीं। योग-पीन ३ ग्रेन, सोडाबाईकाई ३० ग्रेन मैग कम् पॉण्ड (विचूर्णित मैग्नेशिया कार्ब) २० ग्रेन, विम्युधाई कार्य १० ग्रेन, मॉर्फीई हाइयोकोर -प्रेन, यह वटी रूप में सोया के साथ अथवा विना सोडा के और किसी शकि के ग्लीसराहनम् पेपीन रूप में दिया जा सकता है। इसके भामाशयिक प्रभाव में क्रियोजट से कोई साधा उपस्थिन नहीं होती है। "हिट. मे० मे."। (क) बालकों का पुरातन आमाशयिक प्रतिश्याय-वालकोंके उस पैसिक विकारमें जिसमें सुधा का नष्ट हो जाना, मालस्य, चेहरे के रंग का पीला हो जाना, रात्रि में निद्रा का न थाना, दिन में शीघ्र क्रोधित होना, प्रायः शिरः शूल का होना, चूना जैसा मूत्र शाना इत्यादि लक्षण होते हैं । (जब यह दशा कुछकाल लगातार रहती है तब इससे बालक दुर्बल हो जाता है एवम् विकृतरलेप्मा श्रामाशय तथा प्रांत्र की भीतरी पृष्ठ को प्रारछादित करलेसी है जिससे पाहार रस उचित मात्रा में अभिशोषित नहीं होता। ऐसी निर्बलता की दशाओं में जो । साधारणतः कॉडलिबर मोहल (कोड मत्स्य यकृतैल) तथा सिरप फोस्फॉस कम्पाउणादि औषधे म्यवहार में जाई जाती हैं, उनका अत्मीकरण नहीं होता। किसी किसी समय कास विकास पाता है जिसमें बालक को प्रारम्भिक यस्मा से ग्रस्त कहा जाता है । डा. हर्शल ( Dr. Herschell) ने उन दशाओं में निम्न योग से बहुत लाम होते हुए पाया__ योग-पीन (फिलर) प्राधा से एक प्रेन, सैकरम् लैक्टेट १ प्रेन, सोडा बाई कार्ब इनकी एक गोली बनाएँ। इसे प्रत्येक खाने के बाद सेवन करना चाहिए। थोड़े जल के साथ , या दो बुक टिनक्स वॉमिका भोजन केक पहिले देने से भी लाभ होता है । बालकों को उ.व हरे रंग के दस्त और दूध के यमन होते है जैसा कि दन्तोद काल में प्रातः होता है तब उक्र अवस्था में निम्नलिखित योग लाभदायक सिद्ध होते हैं। पेपीन ' ग्रेन, पल्ब, डोधराई (डोवर्स पाउ. डर ) ४ प्रेन, सोडा बाईकाई १० ग्रेन, इसकी १२ मात्रा बनाकर १-१ मात्रा प्रातः साये सेवन कराएँ । पपीता स्वरस के किचित् को-मृदु कर प्रभाव के कारण अतिसार की अवस्था में डॉ. हशिसन ( Dr. Hutchison) पीन को उससे उत्तम खयाल करते हैं। (ख) अम्लाजीर्ण-( Acid Dyspepsia) इस प्रकार के अजीर्ण में पेपोन अत्यन्त लाभप्रद सिद्ध होता है। कि यह क्षारकी विचमानता में भी उतना ही उसमतापूर्वक प्रभाव प्रगट करता है, आमाशयस्थ अम्माधिक्यता को न्युट्रलाइज (उदासीन )करने के लिए पर्याप्त परिमाणमें बाइकाबानेट श्रोत सोडा देना चाहिए। यह अपने ऐण्टिसेप्टिक (पचननिवारक )प्रभाव द्वारा प्राध्मानजन्य अस्वाभाविक संधान (अभिपब ) को रोकता है । उक अवस्था में निम्न योग उसम प्रमाणित होते हैं। १-पीन २ प्रेन, सैकरम् लैक्टेट (दुग्धोज) प्रेन | इसकी एक मात्रा बनाकर भेनिन के एक घंटा पश्चात् निम्न मिश्रण के साथ सेवन करें। मिश्रण-सोडाबाईकार्ब १५ ग्रेन, ग्लीसरीन, एसिड कार्बोलिक मिक्सचर ८, स्पिरिट एमोनिया ऐरोम्युटिक मिक्सचर २० जल , ग्राउंस For Private and Personal Use Only Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org घडखरबूजा इसको भोजन करने के एक घंटा पश्चात् सेवन करें । इसको भोजन के साथ सेवन करने से पेपीन की उससे न्यूनतर मात्रा भी वहीं प्रभाव प्रगट करेगी ! २२२ डॉक्टर हशियन (Dr. Hatchison) जीवस्था में अबूजा के शुल्क रस को अधिक उत्तम ख्याल करते हैं। जैसे अण्डखरबूजा का शुल्क रस १२ ग्रेन, प पीकाक ( इपीकेक्वाना चूर्ण ) १२ ग्रेन, पल्व रहीआई ( रेवन्दचीनी का चूर्ण ) ३ अन, ग्लीसरीन (मधुरीन ) श्रावश्यकतानुसार इसे चाहे चूर्ण रूप में रखें अथवा इसकी १२ वट का प्रस्तुत करें। इसको वे भोजनोपरांत सेवन करने का आदेश करते हैं। शुष्क पपीता स्वरस को पसन्द करने का कारण यह है कि उसका श्रपयोगिक प्रभाव किंचित् कोष्टमृदुकर हूँ और यह श्रधिकतर संतोषप्रद है । जैसा कि प्रागुक्त मात्रा (प्रत्येक बटी में १ ग्रेन) में सेवन करने से यह अत्यन्त भेदक प्रभाव करता है और किसी भी भाँति रोगी । को विरेक नहीं कराता । उक्त डॉक्टर महोदय के वर्णनानुसार पपीता वृच से चतुरतापूर्वक निकाल कर शुल्क किया रस या पपीतादुग्ध पेपीन के सहित अपने संयोगी प्रवयवों की उपस्थिति में अनेक दशाओं में स्वयं प्रभावात्मतक सत्व पेपीन की अपेक्षा श्रेष्ठतर प्रमाणित होता हैं। भोजनोपरान्त होने वाली बेचैनी को वास्तविक उदरशूल में परिणत होजाने पर श्रापने पपीता को अफीम | के साथ निम्न प्रकार यांजित किया :--- पपीता स्वरस १२ ग्रेन, ग्रहिफेन चूर्ण ३ ग्रेन ग्लीसरीन श्रावश्यकतानुसार। इसको चूर्ण रूप में रक्स् अथवा इसकी बटिकाएँ प्रस्तुत करें। प्रति भोजनोपरान्त १ वटी सेवन करें | (३) कण्ठरोहिणी तथा स्वरोकास ( Diphtheria and Croup ) - उक्र रोग के निवारणार्थ पेपीनका स्थानिक प्रयोग लाभदायक होता है । इस हेतु उसका तीक्ष्ण घोल तैयार करना चाहिए। इसकी उम्र स्थल पर लगाना तथा नासिका एवं मुख में १-२ मिनट Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अण्डखरबूज़ा के अन्तर से पकाना चाहिए। इसके उपयोग से डिप्थीरियाजन्य मिथ्याकला बुलजाती है। उम्र अवस्थाओं में इससे पहिले ही दिन लाभ अनुभव होता है, जिससे स्वर लुप्तप्राय होजाता तथा नाड़ी स्वास्थ्यावस्थापर आजाती है। सदा इसका ताजा घोल प्रस्तुत करना चाहिए। श्रथवा पेपोयोटीन १ भाग, जल ४ भाग तथा ग्लीसरीन ४ भाग, श्रावश्यकतानुसार इसे घंटा दो दो घंटा पश्चात् लगाएँ । ( ४ ) वृकशूल (Nepthritic colic)वृक्काश्मरी में १ से ३ ग्रेन पेपीन को वटी रूप में सेवन करने से लाभ प्रतीत होता है ! डॉ० ई० एच० फेन्त्रिक | (५) कृमिघ्न (Anthelmintic) - केचु श्रा और कद्दूदाने के लिए भी इसका ( पंपीन ) श्रीपधीय उपयोग किया गया इसके पाचक प्रभाव के कारण इससे कभी कभी लाभ प्रदर्शित हुआ । हिट० मे० मे० । खरजा के दूधिया रस को शहद के साथ मिलाकर देने और उसके पश्चात् एक मात्रा गुरण्डतैलका व्यवहार करानेसे केचुश्रा में अत्यन्त लाभ होता है | एक पोडशवर्षीया कम्या जो कहदान (Penia Solium) के कारण अत्यंत पीड़ित थी एवं उसके उदर में तीव्र शूल हो रहा था, उसको डॉक्टर हरिसन (Hutchison) ने शुक पपीता स्वरस ३ प्रोन में शूलशमनार्थं ४ ग्रेन वर्स पाउडर सम्मिलित कर सेवन कराया । इससे कद्दूढाना टुकड़ा टुकड़ा होकर मल के साथ निकल थाया तथा रोगिणी के सम्पूर्ण विकार जाने रहे एवम् उसको अत्यन्त लाभ प्रतीत हुधा ! ६ ) स्तन्यजनक तथा गर्भशातकआंतरिक रूप से उपयोग करने अथवा स्थानिक रूप से लगाने से यह सशक्र स्तम्यजनक प्रभाव करता है । हिट० मे० मे० । पी० बी० एम० । गर्भवती स्त्री को उपयोग कराने से इसका गर्भशातक प्रभाव होता है । जिह्वा तथा कंठरोग - श्वीमर Schwimmer महोदय ने जिह्वा की कर्कशता ( जिह्वा For Private and Personal Use Only Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अरंडखरबूजा २२३ अण्डधारक रज्जुः के फटने ) में इसके बोल (१० में ) का ग्रन्धि विषयक शोधों प्रभति के लय करने के सफलतापूर्ण उपयोग किया ! हिट० मे. मे० । लिए पैपीन का स्थानिक उपयोग होता है। निसा की कगना तथा जिह्वा और कंड की पतज | अगडगः nndagab-सं० पु. Wheat 'अवस्था में चाहे वह श्रौपदंशिक हो या अन्य, (Triticum sativum, Linn.) 7. १ श्रीस ग्लीसरीन में १० से २० ग्रेन पेपीन धूम, गेहूँ । वै. श०। का घोल बनाकर उसमें वेदना हरणार्थ किञ्चित् ; अगडगजः and gajah-सं.पु. (Cassia कोकीम सम्मिलित कर इसको बुरा से लगाने से । ___ Ton, liun.) चक, चक्रमई सुप अत्यन्त लाभदायक प्रभाव होता है । औपदंशिक - ___-हिं० । रा०नि०व०४ तथा शतज मुम्ब वा कण्ठ में मि. ३० एन० । अराडगा धमनियाँ andagarihanmaniyan फेधिक उ प्रयोग के स्थान में पपीन ग्रेन __-हिं० संज्ञा स्त्रो० (ब० व.) Spermatic Arteries अण्डकोष को रक ले जाने वाली तथा कोकीन ग्रेन इनके द्वारा निर्मित टिकिया नलियाँ। के उपयोग की असीम प्रशंसा करते हैं। पेपीन : इण्डजः andajah-सं० पु । (१) अण्डे के द्वारा प्रौपदंशीय धच्छे तत्काल लुप्त होते हैं। है अगडज andaja-हि. संज्ञा से उत्पन्न श्रीर कोकीन के प्रभाव से निगलन में वेदना का ! होने वाले जीब, अरडे से जिसकी उत्पत्ति हो, बोध नहीं होता एवं प्रदाहित श्लैदिमक कला को यथा-वर्ष, मत्स्य, पक्षा और छिपकली शान्ति मिलती है। प्रभति । ये चार प्रकार के जीवों में से एक है। चिकित्सक लोग जब ऐसे रोगी की परीक्षा श्रोत्रीपेरस श्रींग Ovipurous being-३० । करने जाते है जिसमें कंडकी श्लैष्मिक कला के हि . डि. । (२) मत्स्य (A Fish)। संक्रमण का भय होता है तब वे उन टिकिया को (३) पक्षी (A birtl)| भा० पू०२ भा० । रक्षक रूप से अपने साथ ले जाते हैं। (४) A smake सर्प, सांप। (E) त्वक गंग-पुरातन कंद (Eczer : अण्डा anda-ja-सं० स्त्रो ( ) ma), विशेषतः हस्तपादस्थ, विचचिका (Pso अण्डजा andaja-हिं० संज्ञा स्त्री० । गिरगिट, riasis ), हाथ की हथेली की प्रधर्द्धित अवस्था, . शरट- शेमेलिअन (A chemeleon) कदर या घट्टा ( corn), मशक ( Wart) -इं० । वि०। (२) सर्प-हिं० । सपेंट (A तथा त्वकाटिन्य में उसको प्रथम जल व साबुन Serp::nt)-इं० । (३) मत्स्य-हिं० । से प्रक्षालित कर दिन में दो बार निम्नोल्लिखित फिरा (A fish)-ई.। (५) पती-हिं० । घोल के लगाने से लाभ होता है । जैसे- पेपीन | बई (A bird)-३० । मे०जत्रिका (५) १२ प्रेन, टण ( सुहाग) ५ ग्रेन तथा जल ५ : ( Musk ) मृगनाभि, कस्तुरिका । ट्राम, यथा विधि घोल प्रस्तुत करें। वाहेमा। इमके ताजे दुग्ध को दिन में दो तीन बार : अण्डधारक रज्जुः anda-dhāraka-rajjuh दद्रु पर लगाने से लाभ होता है। -सं० पु. Spermatic cord ) (१) कर्ण नाव-मध्यकर्ण के पुरातन : मालीकुल नुम यह हबल मन्त्री, हलुल पूयवाव में ऐपीन अभी हाल ही में लाभदायक मनी-अ०। अण्डकोष के उपर के भाग को पाया गया। श्राधे श्राउंस पेपीन घोल (११) टटोलने पर उसमें एक रस्सी या डोरी जैसी में ५ ग्रेन सोडा बारकाई मिला लेने से यह ौर | चीज़ मालूम होगी। इस-डोरी को अण्डधारक उत्तम होता है। रज्नु कहते हैं। यह वस्तुनः धमनी, शिरा, वात(१०) प्रैवेयी ग्रन्धि, दुग्ध प्रन्थि और कक्षीय तन्तु और शुक्र प्रणाली का एक संधात है जिस For Private and Personal Use Only Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अण्डधारक रज्जु २२४ प्रण्डसत्वं पर स्लैष्मिक कला का एक बेन्टन चढ़ा रहता है। इसीसे अण्डकोषके भीतर अंड लटका रहता है। अण्डधारक रज्जु anda-dhāraka-kyju | -हि० संज्ञा स्त्री० देखो-अण्डधारक रज्जुः।। प्राडपर्णः anda-parnah-सं० पु. मलाण्ड : मरु | See-mal ande h. अधिक अण्डपेशी anda.peshi-सं० स्त्री० कोष (Sac, cyst)i(?) ( l'esticle ) मुष्क, अण्ड, शुक्रग्रन्थि । हे० च०। अण्ड प्रदाह andapradaha-हिं० संज्ञा पु. अंड की सूजन (Orchitis). अण्डर सेनिया रोहितका undersonia, rohituka, Roxb.-ले०(Amoora rohituku,", &. A.) रोहिना, रोहेड़ा, रोहि. सक, तिराज- हिंदेखो-रोहितक। भराड-लाल anda-lala-हि. संज्ञा पुं० अण्डे की सुफेदी, अगदोदक । The white of . the ogg ( Albumen ). भएडवर्धन anda-vardhanam-सं० को० । एडवृद्धि anda-vriddhi-हिं० संज्ञा स्त्रो०। ( Swelling of the scrotum ) एक रोग जिसमें अंडकोश वा कोता फूलकर बहुत बढ़ जाता है। मोते का बढ़ना । देखो-अन्नवृद्धि। अरड वहा नाली anda-vahinili-हि. संज्ञा स्त्री० (Fallopian tube) रजः कोष (डिम्ब ) लाने पाली, जो मासिकधर्म के बाद अण्ड (डिम्ब) गर्भाशय को लाती है। अण्डवेष्ट: anda-veshth-सं० पु ०(Sel otum, Tunica albuginea testus) अण्डकोष । अण्ड श्वेतक anda-shvetaka हिं. पु. अल्ब्युमेन ( Albumen )। अण्डलाल । जुलाल-अ०। भण्ड सत्व anda satya-हिं संज्ञा पु०, मुष्कीन, मुष्कसच, मुष्क रस, शुक्रीन, शुक्रकीट सत्व,उपाण्ड सस्व । टेस्टिस्युजर एक्सट्रैक्ट (10 sticular extract); टेस्टीससिका (Tesi tes sicca), टेस्टिक्युलीन (Testicul- in), आर्चीडीन (Orchidin), स्पर्मीन (Sperinin), डिडोमीन (Didymin)-ई० नुत फ्रीन या जौहर मन्त्री, स्नु स्यीन या जौहर, नु.स्यह,, जौहर जुस यह मौकानी-अ०, फ़ा० । नोट-जैसा कि उपयुक नामों से प्रगट है, यह सम्पूर्ण औषधियों पुरुष के उत्पादक भवयत्रों द्वारा बनाई जाती हैं। रासायनिक लक्षण तथा परीक्षा-पाहत (Pochi) का निर्माण, विभिन्न जीवधारियों विशेषकर साँड़ ( bull) की शुक्रग्रन्थि द्वारा निर्मित रासायनिक पदार्थ का, जो पाउन सीक्वार्ड के इमल्शन का प्रभावात्मक तत्व है, दो प्रतिशत का कीररहित धोखा है। यह रासायनिक दृष्टिसे पायपेराजीन (Piperazine)का सहधर्मी है । शुक्रीन (Spermin) के हायदोफोराइड ( उज्जहरिद ) और फास्फेट ( स्फुरत् ) भी उपयोग में प्राचुके हैं। परन्तु, पाहल ( Poehi ) का दो प्रतिशत का विलेय घोल सम्पूर्ण कार्यों के लिए सर्वश्रेष्ठ है। प्रन्थियों द्वारा निर्मित शुष्क भारतीय पदार्थ वा सत्व ५-५ ग्रेन (२॥ रत्ती) की रिकियामों (Tabloids) के रूप में मुष्कीन (प्रा डीन, टेस्टिक्युलीन, पाचटीन) और उपाएडीन ( Didymin) प्रभृति नामों से उपयोग में लाए गए हैं। एक द्रव भी प्राप्य है, जो एक प्रकार का ग्लीसरीन एक्सट्रैक्ट है और जिसे १५ से ३० मिमिम् (बुन्द ) की मात्रा में मुख अथवा स्वस्थ अन्ताप द्वारा देते हैं।। शुक्रीन की मुख्य मुख्य प्रतिक्रियाएँ : शुक्रीन (Spermin ) में स्वयं विशेष शुक्रीय गंध नहीं होती, तथापि उसे धाविक मग्न (Metallic magnesium) के साथ मिलाने पर उसले शुक्रवत् गंधका बोध होता है । मिश्रण को उत्ताप पहुँचाने पर शुक्रीय गंध अमोनिया में परिवर्तित हो जाती है। शुक्रीन (sperinim) घोल में न तो प्रायोडाइड श्राफ पोटाशियम (पांशु नैलिद) और न एसीटेट ऑफ़ लेट (शीप भरम ) ही से तलस्थायीत्व For Private and Personal Use Only Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रेण्डसत्वं अण्डसवं उत्पन्न हो सकता है। हाइपोनामाइड श्रीफ सोडियम् शुक्रीन से नत्रजन भिन्न नहीं कर । सकता। गोल्ड क्रोराइड (स्वर्ण हरिद ) और टिनिक कोराइड शुक्रीन के साथ तलस्थायी हो । जाते हैं। उत्ताप पहुँचाने पर शुक शुक्रीन से । श्वेत बाप्प उद्भूत होता है। इतिहास-अगड सव का उपयोग नया नहीं, प्रत्युत अति प्राचीन है। हाँ ! निर्माण क्रम में चाहे भले ही कुछ भेद हो । वाग्भट्ट महोदय स्वलिखित "अष्टांगहृदय संहिता" में सर्व प्रथम हमारा ध्यान इस ओर आकृष्ट करते हैं, यथावस्ताण्ड सिद्ध पयसि भावितान सकृत्तिलान् । ! यः खादेससितान् गच्छेत्सस्स्रो शतमपूर्ववत् ॥ : ( वा० उ० ४० अ० ) : अर्थ-बकरे के अण्ड को दुग्ध में पकाकर उस दुग्ध की काले तिलों में बार-बार भावना दें। इन तिलों को जो मनुष्य शर्करा के साथ । सेवन करता है उसमें शत स्त्री सम्भोग की शक्ति बढ़ जाती है, और यह प्रथम समागम का सा । सुख अनुभव करता है। थोड़े परिमाण में जल, प्राण्डीय शिरा का रक्र, शुक्र, कुक्कुर था गिनी.पिग (guinea-pig ) के श्रण्ड को कुचल कर निकाला हुअा ताजा रस इन चार यस्तुओं को एकत्रित कर अापने इसका स्वगन्तः श्रन्तः क्षेप लिया । अधिक से अधिक प्रभाव प्राप्त करने के अभिप्राय से प्रापने अन्तः क्षेप भर में प्रत्यल्प जल का उपयोग किया। प्रागुन अन्तिम के तीनों पदार्थों में प्रापने उनके द्रव्यमान से तिगुने या चौगुने से अधिक परिसत जल का उपयोग नहीं किया; तदनम्तर उनको कुचल कर फिल्टर पेपर (पोतनपत्र)द्वारा छान लिया। प्रत्येक अन्तःक्षेप में उन्होंने १ घन शतांशमीटर छाने हुए द्रव का उपयोग किया। पास्चर्स फिल्टर द्वारा छान हुए द्रव का १५ मई से ४ जून तक आपने १० अन्तःक्षप लिए; जिनमें से २ वाहु में और शेष समग्र अधो शाखा में। परिणाम निम्न प्रकार हुए__ प्रथम त्वगन्तः अन्तःप तथा दो और क्रमानुगत अन्तःक्षेपों के पश्चात् आप में एक स्वाभाविक परिवर्तन उपस्थित हुश्रा और उनमें वह सम्पूर्ण शनि जो बहुत वर्षों पहिले थी पागई। बिस्तीण प्रयोगशाला विषयक कार्य कठिनता से उन्हें शान्त कर सकते थे । वे कई घण्टे तक खड़े होकर प्रयोग कर सकते थे और उन्हें बैठने की कोई आवश्यकता नहीं प्रतीत होती थी। संक्षेप यह कि उन्होंने इतनी उन्नति की कि वे इतना अधिक लिखने तथा कार्य करने के योग्य हो गए जो आज २० वर्ष से भी अधिक काल तक में वे कभी न हुए थे। उन्हें मालूम हुश्रा कि प्रथम अन्तःक्षेप से १० दिवस पूर्व मूत्र-धार की जो औसत लम्बाई थी वह पश्चात् के २० दिवस की मूत्र-धार की लम्बाई से कम से कम न्यून धी। अन्य क्रियाओं की अपेक्षा मल विसर्जन क्रिया में उन्होंने अत्यधिक उन्नति को । ___ इन्द्रियव्यापारिक क्रिया-उपयुक्र प्र. योगों से यह बात सिद्ध होती है कि ग्राण्डीय दव के अन्तःक्षेप का हृदय एवं रक परिभ्रमण पर उत्तेजक प्रभाव होता है. सर्व शरीर की पुष्टि पाश्चात्य अमरीकन डाक्टर ब्राउन सोचार्ड (Bron Sequari) महोदय का बहुत : काल तक यह विश्वास रहा कि वृद्ध मनुष्यों की . निर्मलता के मुख्य दो कारण हैं:-(७) प्रावयविक परिवर्तन का प्राकृतिक क्रम । (२) शुक्र : अन्थियों की शक्रि का क्रमिक हास। उन्होंने विचार किया कि यदि वृद्ध मनुप्यके रक्त में शक का निर्भय अन्तःक्षेप किया जा सके तो सम्भवतः विभिन्न शारीरिक एवं मानसिक शकियों की। वृद्धि प्रत्यक्ष रूप से प्रदर्शित होने लगेगी। उक्त : विचार को ध्यान में रखकर अापने सन् १८७५ '. ई. में जीवधारियों पर अनेकों प्रयोग किए। परिणामतः प्रयोग क्रम के अनपकारकत्व एवं उन जोवधारियों पर होने वाले उत्तम प्रभाव विषयक उनके सन्देह की मिवृत्ति हो गई। उस का निश्चय हो जाने पर उन्होंने स्वयं अपने । ऊपर प्रयोग करने का निश्चय किया। प्रस्तु, २६ For Private and Personal Use Only Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भण्डसत्व अण्डहानिकर. करता, यातकेन्द्रीय क्रिया शक्रि पर श्राधारीभूत पोह लस स्टेरिलाइज्ड सोलूशन का १५ मिसम्पर्ण कार्यो का विशेष रूप से सुधार करता, निम (बुद) की मात्रा में रकाल्पता, वातनवस्ति पर सुषुम्णाकाण्ड की शक्रि की विशेष | बल्य, उन्माद (पागलपन), शीघ्रपतन, यक्ष्मा, वृद्धि करता और प्रान्त पर शैथिल्यजनक प्रभाव चाल का लड़खड़ाना (Ataxy ), बिचर्चिका उत्पन्न करता है। (IPsoriasis), बहुमूत्र रोग और बहुसंख्यक, रोगों में अन्तः क्षेप करते हैं । दैनिक अन्तः क्षेप औषधीय उपयोग-अण्ड द्वारा स्रावित | के हिसाब से १२ बा १४ दिवस के चिकित्सा (secreted) शुक्र में ऐसे पदार्थ होते हैं। क्रम में प्रागुक्र सम्पूर्ण रोगों के लाभ के प्रज्वलित जो शोषण क्रिया द्वारा रत में प्रवेशित होकर वर्णन प्रकाशित हप हैं और यह हृच्छूल तथा वातसंस्थान तथा अन्य भागों को शनि प्रदान अन्य हार्दिक वात विकारी (Cardiac cilकरने में अपना सब से आवश्यक उपयोग रखते Toses) को मूल्यवान औषध कही गई है। हैं। इस पदार्थ (वा पदार्था) में महान गतिजनक इसका शरीर परिवर्तन क्रम अर्थात् अपवर्तन 'शक्रि है जिसके लिए रक मुष्क का ऋणी है । यह । (Metabolism) पर प्रगट प्रभाव होता है। बात इस घटने से प्रमाणित होती है कि साना (हिट्ला) गिक निर्वलता तथा मानसिक वा शारीरिक स्फूर्ति के अभाव ही नपुसक के स्वभाव कहलाते हैं। इन्हें कामोद्दीपक रूप से व्यवहार करते हैं और इस बात से भी कि अप्राकृतिक वा हस्त तथा वातनैवल्य, लइखड़ानी चाल और एक्समैथुन द्वारा मनुष्य के शरीर वा मन ( विशेष कर अाफथैल्मिक गाइटर में वर्तते हैं। शुम अन्धियों के अपनी पूर्ण शक्रि प्राप्ति करने श्रण्डसित inda-sitiu-हिं० वि० (Albumसे पूर्व या अधिक अवस्था के कारण जय शक्ति का ameous ) अंडश्वेतकीय, अंडलाल सम्बन्धी । हास हो रहा हो उस समय ) कितने विकृत हो । quan trei anda-sita padártha जाते हैं। इसके अतिरिक्त यह भली भाँति ज्ञात है __-हिं० संज्ञा पु० ( Albumlneous कि शुक्रक्षय चाहे वह किसी कारण उत्पन्न हुया. matter) अण्डश्वेतकीय वस्तु । हो शारीरिक वा मानसिक निर्बलता उत्पन्न क. रता है। (डॉ. बाउन सीकार्ड) अण्डस् andasu-सं० वि०, हिं० वि० (Ovi. parous ) अण्डज। अएड सत्व के उपयुक्र इन्द्रियव्यापारिक कार्य अण्ड स्कन्दः andaskandlh-सं० पु. घोड़े एवं गुण से यह सिद्ध है कि यह रोगीकी सामान्य : के अण्ड में स्कन्द सदृश एक रोग होता है । दशा को स्पष्ट रूपसे सुधारता है। इसके सिवा . जयदत्त ५० अ०। बात संस्थान पर इसका उत्तेजक श्रीर बल्य प्रभाव श्रण्डहस्ता andt-hasti-सं० पु. बँकवड़, अन्य सब प्रभावों की अपेहा अधिकतर होता है। HET ( Cassia Tora, Linn.) यह विबंध को दूर करता तथा मूत्रविरेचक है। ग. नि. च०५। इन अन्तःक्षेपों से सिबा स्थानिक किञ्चित् सूचम . अल्प समयक वेदना के कोई और अप्रिय सहा- अण्डहानिकर andahanikar हिं० वि०, यक साानिक या स्थानिक दृश्य उपस्थित नहीं मुज़िर्गात् उपायन-श्र० । अरहु को हानि होता । इनसे स्थानिक प्रदाह धा पूय उत्पन्न नहीं पहुँचाने वाले संज्ञा पुबे द्रव्य जो 'अंड को होता । पेपर फिल्टर के स्थान में पास्चर्स फिल्टर हानि पहुँचाएँ । वे निम्न हैं--- से उक तरल को छानकर व्यवहार में लाने से इकलीलुल-मलिक, शेज़ीदान, तुम खधार यह वेदानाएँ एवं अन्य कुप्रभाव भी किसी भाँति (खीरा के बीज ), अतसी, जाबशीर, हुल्बह, कम प्रतीत होते हैं। (डॉ. पाटोकी) (मेथी ) और फायून । For Private and Personal Use Only Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अण्डा अण्डारा इनर्मिस अण्डा Indi-fi संज्ञा पु० पक्षी आदि के उत्पन्न (Steeds of Castor oil plant)(२) होने का स्थान । एग ( Egy)-इं०। गुण-धर्म गंधमार्जागी । आदि के लिए देखा-कुट ! प्रगडोका तेल andi.kā tela-हि. संज्ञा पु. राहाकषराम andakarshanam-सं० की. एरंडतल । (Oleumm ricini) देखो-एरण्ड। (Castration ) बधिया करना । अगडो माल्लेयं andi-malleryya-मल. सन्ध्या राग--सं०। गुलशब्बी, गुलचेरी-हि.1 अण्डाकार andikāra-हिं० संत्रा पु... अण्डाकृनि Indakriti-हिं० संक्षा यो० वि० रजनी गंधा-बं० । गुलसबो को०, हिं० । पॉलि[सं०] (Egg-shap.doval,Ovoid, . . एन्थस ट्युवरोमा ( Polyanthus tube Yost, Linu.)-ले. । ई० मे० मे० । elliptica.! ) ऐसा वृत्त जिसका एक अक्ष। दूसरे की अपेक्षा लम्बा हो, अरद्धा की शकल । अण्डोरः andirah-सं० पु. पुरुष, युवा मनुष्य (A full grown man ) मे० रत्रिकं । का, अण्डा की तरह। उस परिधि के प्राकार का जो अंडे की लम्बाई के चारों ओर खींचने श्रण्डोरा इनर्मिस andirn inermis-ले० जियोफ्फ्रोया इनर्मिस (Geofiroya Ineसे बने । लम्वाई लिए हुए गोल, अण्डे के rinis)। कैबेज ट्री ऑन ट्रॉपिकल अफरीका श्राकार का । वैजाबी। ( Cabbage tree of Tropical अण्डाकार खात Indakain-khāta- हिसंज्ञा Africa)-६०। पु. ( FOssia Ovajis) अरडे की शकल वर्ग अबरः; उपवर्ग-पैपिलिोनेसीई का गढ़ा । हुक र जावियह --१०। अण्डाकृति andakriti-हिं० संज्ञा स्त्रो० [सं०] V.O. Leguminosic. Sub-Order अगडे का श्राकार, अरडे की शकल । Papilionaceae चि० अंडे के आकार का । अण्डइन । अण्डाकार । उत्पत्ति स्थान-वेष्ट इंडीज़ (विशेषकर अण्डाली indali-सं० स्त्री० भुइँ श्रामला, जमेइका)। भूम्यामलको ( Phyllanthus niruri, प्रयोगांश-स्वक् । linn.). औषध-निर्माण-(.)-चूर्ण को हुई त्वचा भण्डालः andalth-सं० पु. (A fish)| २०-३० ग्रेन (१०-११ रत्ती) कृमिघ्न रूप से, मत्स्य, मछली । श० च० । ३०-४० ग्रेन (१५-२० रसी) विरेचक रूप से। (२) टिंक्चर (३० से ६० मिनिम (ईद)। अशिडका andika संवस्त्रो० चार जौ के बराबर का । (३) सरल सरव १० से ४० मिनिम (द)। एक माप विशेष, यवचतुष्टय परिमाण । च। (४) घन सरव ३ मेन ( ॥ रत्ती)। अरिडनी andini-सं० स्त्री० सान्निपातिक योनि | प्रभाव तथा उपयोग-कैबेज वृक्ष स्वा रोग विशेष । लक्षण- स्थूल मेद वाले पुरुष से (Cabbage tree bark) नामक स्वचा ग्रहण की हुई तरुणी ( छोटी अवस्था वाली स्त्री) में जिसका व्यापारिक नाम कृमिस्वक की योनि अण्डिनी अर्थात् अंडाकृति (कहीं (Worm bark) भी है, कृमिघ्न, ज्वरघ्न कहीं फलिनी पा: अाया है) हो जाती है। और मेदनाशक गुण है और निम्बु. सु०नि० । त्रियों का एक योनि रोग जिसमें काम्ल (Citric Acid) के साथ यह कुछ मांस बढ़कर बाहर निकल पाता है। इससे स्थौल्य रोग में अधिक उपयोग की जाती है। योनिकन्द रोग भी कहते हैं। अधिक मात्रा में यह वामक, विरेचक और मादक अण्डी andi-हिं०संज्ञा स्त्रो० (१) डी एरण्ड बीज है तथा इसकी इससे भी अधिक मात्रा विपैल -हिं। Ricinus communis, Linn. | है। (पी०वी० एम०)। For Private and Personal Use Only Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भगडेल २२८ प्रतफ अण्डेल andela वि० [पाडा ] ! (Aprecipice, A steep crag ) अण्डैल andailaj पर्वत का गिग्घर । चोटी | टीला। जिसके पेट में अंडे हो, अण्डा यक, अर वाली। अनड़ो utadi-हिंस्त्री० अन्न (Intestine). - संज्ञा स्त्रो० वह मछली जिसके पेट में अंडे हो। अतण्डक्स ..thaindaks) -ता० अरण्ड, एरण्ड अण्डोदकः andoda kah-सं० पु० अंडलाल, अतगड्य standya (Cirdabet. Ha अंड श्वेतक | the white of an egg ! rika, linn.) (Abumen). ! अतदिम्पत्त atadinmatta-सिं० गम्भार, अण्डोत्थापिका प्रतिक्रिया :undotthā pika खुमेर-वि० । ( (imelina Arborea, pratikriyā-हि. संज्ञा स्त्रो० (Crem- Lil.)-ले। astric reflex ) जाँध के अंतरीय भाग को अतनामोस ataranis-यु. बावना, बाबूनह. खुजाने से यह उत्पन्न की जाती है । इससे अंड! -हिं० । (taticarin Chumoऊपर को उठता है। milla, Lin.)-ले० । लु० क..! अण्डोली andoli हि संद्या स्त्री०डी, एरण्ड : तलु aunti-हिं० वि० [सं०] (1) शरीर बीज ! Ricinus commanis, Linn... रहित । बिना देव का । (२) मोटा । स्थूल । (Seeds of-)। देखो-एण्डः । संज्ञा पु. अनंग । कामदेव । अण्डोश्रा andoui-हिं. संशा पु० अरर ड, तन्द्रा-द्रित, न,-ata.ndi,ritin-in,-il ki एरण्ड। (Ricinus committis, Linm.). -सं० वि० भैतन्य, जाग्रत (careful, visil. ant). अरणाशुष्पूinna shuppu-RTO अनासफज -हि० । वादियाने खताई-फा०, अ०।। अतन्द्रा ataunari---1 स्रो० काफी, कहवा, (Illicium anisatan, Lim.) -हि० 1 coffee Aabien, Linm. स० फा०ई०। -ले। श्रात्रि । अवस्थि antasthi सं. क्लो. मणि बन्ध अन्द्रिक atauntirika-हिं० वि० [सं०] श्रादिमें स्थित एक सूक्ष्मास्थि विशेष । सशाला . (१) प्रालय रहिन । निरालस्य । चुम्न। चंचल । अण्वोanvi-स. स्त्री अहलि. याला अंगरी (२) व्याकुल । विकल । बेचैन । (A Finger. ) तन्द्रित utunilrita-हिं० वि० सं० ] अतकतatukatil द्वारचीनी, दाल चीनी । Chum. श्रालय रहित । निद्रा सहित । निरालम्य । चञ्चल । चपत्व । ____amoman Zeylamin, Vees. : - (Bark of-immamol). । सातन्द्रियः tandriyah-हिं०म० पु तन्द्रा हर पत, कहवा का सत-हिं. | Cuttein, अनकुमंह atakimah-अ० चिर्चिटा, अपा.. Caffeine-ले। देवो कावा, नन्द्राहर मार्ग-हि। (Achyu thes astra, . सन । म० श्रा० डा०मा० । Lin.)सफा०६०।। तन्द्रीa.tandhi-सं० स्त्री० काफी, अतन्द्रा अनगोकुडो a tugokudo-को० काला इन्द्रजी (coffee Arabical, Linn.) (Nerin 'Tomentosim, Rob.) अतन्शुमत्फला ataushumat-phala. सं. . ई० मे० मे। स्त्री० केला,कदली (Musa, sapientium, अतची atacbi-f६. पाल- । प्राच्, घाछू: Linm.) -०। (Morinda. 'Tinctorin, अतप्त ataptia-हिं० वि० [सं०] जो तपा न Roxb.)-ले० । फा० . २ मा० । ... हो। ठंडा । (२) जो पका न हो। देखो-आच्छुक । ... अतफ staf-अ० चित्रक,चीता (Plumbago अतट nata-हिं संज्ञा पुं० [सं० श्रतटः ] : Zoylanica, Lin.) . For Private and Personal Use Only Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अनुकूल अनुकृत aatafal ( 1 ) वैदमुश्क - फा० । ( calis caprea, Linn. ) - ले० । ( २ ) सऊमर - अ० । तु० क० । अतफ़ाल ratafála-फा० ( ब० व० ), तिल ( ५०० ) Children बच्चे दि० | अतय āatab-० मध्यमा तथा तन्निकटस्थश्रङ्ग ुल्य खात | म० ज० । अतुच āatab-ऋ० ( Cotton) रुई, तूल | लु० क० । वह āatabah - अ० (१) श्रास्तान दहलीज, चौखट । (२) श्रवभुजवात । दोनों खातों को अस्थी में अतदान या अनवैन कहते हैं । म० ॐ० । श्रनमल 4 tama]-श्रन्तमल ( Tylophora asthmatica, W. &. 4) ई० है० गा० । अभूम aatamusa- गोरकू ( पहाड़ी या अ का S त्रि० । ( Gmelina Asiatica, Linn.) श्रतरुन ataruma-वस्त्र० लाल तालमखाना See-Tálamakhana 1 मेमो० । श्रतुर्यह ataryah-अ॰ ( १ रिश्ता, नाता, संबन्ध | म० ज० । ( २ ) मैदा की सोय्यान, प्रसिद्ध भोजन है । लु० क० । म० ज० । अतुलब āatalaba दशकों बदकशाँ 1 अतलब āatalúba f लु० क० । अतलरूनी काली atalasani-kali-गु० श्रतोस भेद ( Aconitum heterophyllum, Wall, ); Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अतलस्पर्श atalasparsha | तलस्पर्शी atalasparshi अतलस्पृक् atala-sprik अनलस्पृश् atala sprish (Aqua ) हे० ० ४ का | हिं० वि० [सं० ] श्रतल को छूने वाला । श्रत्यन्त गहिरा, अथाह ( Bottomless, very deep,unfathomable ). अतली atali-गु० हरिताल, हड़ताल (Yellow orpiment..) श्रुतवस् atavas - गु० भतीस ( Aconitum heterophyllum, Wall.) ई० मे० मे० । अतवान atavanao एक घास है । ( A sort of grass.) जङ्गली गधा ) लु० क० अ(इ)तर a-i-tar-हिं० संज्ञा पुं० [अ० इत्र ] मिस, पुष्पसार, भभके द्वारा खिंचा हुआ फूलों की सुगंधि का सार । स्थिर तैल (Hissentia! oil ) | देखो -- . इ. तूर । 1 श्रतर atara - हिं० संज्ञा पुं० अ० इत्र ] | Essential oil पुष्पसार । भभके द्वारा सिंचा हुथा फूलों की सुगन्धि का सार । निर्यास | देखो-(इतर) इत्र | अवरदान ataradana हिं० संज्ञा पुं० [फा० दान ] सोने चाँदी या गिलट के फूलदान के आकार का एक पात्र जिसमें इतरसे तर किया हुआ रुई का फाहा रक्खा जाता है। तरल atarala-हिं०वि० [सं०] गाढ़ा | जो तरल या पतला न हो । अतरानृस ataranisao एक मान है जो ४ ती० ४ मा० के बराबर होता है । अतरार atarara - अ० ज़रिश्क ( Berberis Asiatica, D. C., Berries of-; अनरुदारुः atarunadaruhश्ररुदारः ( कः) atarunadárah, kah j सं० पु० विधारा - हिं० । वृद्वदारक "श्रतरुण दारुरास्नापुरा: !” भा०म० १ ० सन्धिक ज्व० ! ! For Private and Personal Use Only सं०ली० जल, पानी । Water श्रतविष atavisha मह० अतीस (Aconitum heterophyllum, Wall.) go मे० प्रा० । श्रवि (ब)पनी कली atavi(ba)shani kali-गु० श्रतोस | इं० मे० प्रा० | फा० ई० । अतशान aatashána अ० मश्मुराई ( एक प्रकार का काँटा है ) । लु० क० । अश् āatash अ० तृष्णा, प्यास लगना, प्यासा होना । थर्स्ट Thirst- ई० । म० ज० अत्श् काज़िय् āatash kazibo मिथ्या तृष्णा, झूटी प्यास, वह प्यास जिसमें जितना जल पान किया जाय, उसी भाँति तृष्णा की वृद्धि होती है । किन्तु उसको दमन कर यदि संतोष रक्खाजाय तो वह बुझ जाती है तथा Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अतसी अतश् मुक रित मनुष्य शान्ति लाभ करता है । म० ज० अतश् मुफरित aatash-nutrit-) शिद्दतुल अतश् shidda tul.aatash तृप्याधिक्य बहुत प्यास लगना, घड़ी घड़ी प्यास लगना । पालीडिप्सिया Polyclipsia-इं०। म० ज०। प्रतल atala-हिनिक [सं०] ( BottomIss ) निस्ता, तल राईत, चिकनी जगह पर न हरमे बाला अर्थात् झट लुढ़क जाने वाला । अतसरून atasalina--यू० सुमाक Rhus coriaria (Dry sand of Sumach Or sumaC). अवस: utilsah-सं० पु. (१) (Winti, til ) वायु, हवा ! (२) Agriment ! malo of th: fibre of flax watt यस, अलसी के रेशे का बना हुया कपड़ा । अतसि-नने tasi-title---ते. Linum; Usitatissimum, Linn. ( oil of Linse:ed-Oil.) स० फा०६०। । अनसो. atusi-सं. (हिं० संज्ञा) पी० एक पांधा और उसका फल वा बीज । लाइनम यसि. टेटिम्मिमम् Linum Usitatissimum, liun. (Seeds of), लाइनम् (Linum) -ले० । कामन प्लस ( Common : Fix ), था फ्लैक्स ( Flux.) लिनसीद। (Linseerl )-९० । लिन कल्टिस (Lin-! cultivo ), fæa gramat ( Lionsvel) -झांकन जमीनर लीन और फ्लैक्स (Gemeincr: Loin or Flachs ) जर० । अलसी के बाज-३० । तीसी, अलसी-हिं० । संस्कृत. पर्याय-चणका, उमा, कौमी, रुद्रपत्री, सुव र्चला, (. २०); पिच्छिला, देवी, मदगन्धा, . मदोत्कटा, तुमा, हैमवती, सुनीला, नील-: पुलिपका और पार्वती । तैल फला । पूर्वीचार्य : कृत वर्णन--'अत्तसी मशिना इति लोके प्रसिद्धा" : इत्वरण (सु० टी० स० ३६ अ.)। "अतमी: तिसीति विख्याता" चक्रपाणि-(सु० टी० स० : ३६१०)। तीसी, मोसिना-बं० । कत्तान, ब त्रुल । कत्ता (ता) न-अ० । कताँ, तुमे कता, यज्र का, तुमे ज़गार, बनक-फः। अलिशि विरै -ता० । अतसी, मदन गिजलु, नल्लयगसि चेटु-ते० । चेडु, चाणत्तिन्ते-वित्त-मला। अलसी --कना० । अल शी, जोशी, जवस-मह०, को, गु० । पेयु-उड़ि। अतसीतेलम् आलियम् लाइनाई (Oleum Limi) --ले० । लिनमीड माइल ( Linseed oil ) -इं० । अलसी का तेल, तीवी कर, तेल-हिं । अलसी का तेल-द० । मोसिनार तैल, तोसि नैल-म० । दोहजुल कत्तान, दोहनुल कों, जैतुल कता-अ० । रोगने जशोर, रोगने को-फा० । अलिशिविरै-थेरणे-ता० । मदन गिअलु-नृने, अतसि-नने-ते। चेरुचाण विनिन्त-एएगा-मल। अलशी-यरणे -फना। मोद-यह एक गादे पीले रंग का तेल है जो अतशी के बीजों से दबाकर निकाला जाता है। इसका आपेक्षिक गुरुत्व '६३ से १४ तक होता है । वायु में खुला रहने पर यह रालवत् शुष्क हो जाता है। अतसी वर्ग (N. 0. Linaceo or linese ) उत्पत्ति स्थान-इसका मूल निवासस्थान मिश्र देश है। परन्तु अब समन भारनवर्ष विशेपतः बंग देश, विहार व श्रोड़ीसा एवं संयुक्रमांत में तथा रूस, होलैंड और घिटेन में इसकी कृषि की जाती हैं। वानस्पतिक वर्णन-ग्रतसी एक फलपाकांत पौधा है । यह पौधा प्रायः दो ढाई फुट ऊँचा होता है । इसमें डालियाँ बहुत कम होती हैं, केवल दो या तीन लम्बी कोमल और सीधी टहनियाँ छोटी छोटी पसियोंसे गुथी हुई निकलती है। पत्र विपमयी और सूचम तथा लम्बे होते हैं। इसमें नीले और बहुत सुन्दर फूल निकलते हैं जिनके झड़ने पर छोटी घुडियाँ बंधता है। ( इन्हीं धुड़ियों में बीज रहते हैं । ) ये चुहियाँ गोलाकार होती और परदों द्वारा पाँच फलकोपों में विभक होती हैं। प्रत्येक कोप में दो For Private and Personal Use Only Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अतसी २३१ अतसी " श्रीज होते हैं। बीज चिपटे, प्रलंबमान, अंडाकार होते हैं जिनका एक सिरा न्यूनकोणीय और | किञ्चिन वक एवं प्रवकुटित नोक युक्र होता है।। इनका वर्ण' बाहर से श्यामाभायुक धूसर । चनकद्वार एवं सचिक्कण होता है किन्तु भीतर से गूदा का वर्ण पीताभायुक श्वेत होता है। नोक के कनीचे एक सूचन छिद्र (Ililam) होता है ।। बीज बहिर्वक् के भीतर अल्ल्युमोन की एकपतली । तह होती है जिसके भीतर रहे, युग्म पैदा होते । हैं । और उनके भोकीले सिरेपा गाकुर होता है। विभिन्न देशों के बीज प्राकार में 1-1 ई० लम्बे । होते हैं ।( उप्ण प्रदेशों में होने वाले अपेक्षाकृत बड़े । होते हैं)। यह गंधरहित तैलमय लुनाबी स्वाद युक्त होता है । जल में भिगोने से बीज एक | पतले, फिसल नदार व रहित श्लैष्मिकावरण से श्रावृत्तहो जाते हैं । यह शीघ्र न्युट्रल ( उदासीन): जेली रूप में घुल जाते हैं श्रीर वीज किचित् फूल जाते हैं और उनका पालिश जाता रहता है। नोट--(१) कलकत्ता यादि स्थानों में धूसर, श्वेत और रक्षा श्रादि तीन प्रकार की अलसी पाई जाती है। इनके अतिरिक्र एक । प्रकार की और अलसी होती है, जिसको लेटिन ! भाषा में लाइनम् कैयार्टिकम् ( Lintim ! Ca.bharticum) अर्थात् विरेचक अतसी । कहते हैं । यह यरूप में होती है। (२) किसी किसी ग्रन्थ में अनीस भूल से , तीसी के लिए प्रयोग किया गया है । कभी कभी अल सी, अलिशि, अलशी, तिसा, अतसी या . तीसी इत्यादि उपयुक्त संज्ञाएँ अधिसि, अगशि, ! श्रगत्ति प्रती इत्यादि संज्ञाओं के साथ मिलाकर भ्रनकारक बना दी जाती हैं जो वस्तुतः श्रमस्तिया के पर्याय हैं। रासायनिक संगठन-बीज की मींगीमें स्थिर । तैल ३० से ३५ प्रतिशत ( यह ग्राफिराल है ) होता है । बीज स्वर में म्युसिलेन (लुग्राब) १५ प्रतिशतः, प्रोटीड २५ प्रतिशत, एनिग्इलीन, राल, मोम, शर्करा तथा भस्म ३ से ५ प्रतिशत और भम्म में फास्फेट्स, सल्फेट्स और क्लोराइड्स श्रॉफ पोटासियम, कैल्शियम और मग्नेसियम् (पांशु नैलि चूर्णनैलिद, और मग्न नैलिद ) प्रादि पदार्थ होते हैं। ( मेटिरिया मेडिका श्राफ इंडिया प्रार० एन० खोरी, खंड २, पृ० १०) बीज में एक स्थिर तैल होता है जिसमें ३० से . ४० प्रतिशत लाइनोलिक, एसिड ( Linolic Acil ) तथा उपरोल्लिखित पदार्थों के साथ मिला हुआ ग्लीसरील (Glyceryl ) होता है । तैल उबलते हुए जल में विलेय होता है। _प्रयोगांश-अतसी बीग, तैल, पत्र और पुष्प एवं तन्तु । औषय-निर्माण-(बोज ) क्वाथ तथा शीत कपाय Infusion (३० में १), पाक वा मोदक, पुलटिस, धूम | (तैल )-इमल्शन, लिनिमेंट और साबुन (मदु साबुन)। मात्रा--शीत कपाय ( Infusion ) २ से ४ फ्लुइड पाउंस । युरूपीय प्रतिनिधि द्रव्य-भारतवर्ष में होने वाली तस्सी सर्वथा युरूगीय अतसी के समान होती है। अतः इनमें से प्रत्येक गक दूसरे की उत्तम प्रतिनिधि है। इतिहास-पायुर्वेद में अतसी का औषधीय उपयोग अाज का नहीं, प्रस्युत अति प्राचीन है जैसा कि प्रागे के. वर्णनों से ज्ञात होगा। चरक, सश्रत आदि प्राचीनतम ग्रंथों में इसके उपयोग का पर्याप्त वर्णन पाया है। तिसपर भी वि०डिमक महोदय लिखते हैं- . "Linseed, called in sauskrit Atasi, appoils to have been but little used as a medicine by the Hindus." अर्थात् हिन्द लोग अतसी का बहुत कन व्यवहार करते थे। यह बात कहौं तक सत्य है-इसका निर्णय स्वयं पाठकगण ही कर सकते हैं। इसलामी चिकित्सकों ने इस ओर काफी ध्यान दिया है। For Private and Personal Use Only Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अतसी अतसी फरकोजर तथा हेनबरो अपने फार्माकोपिया (पृ. ८६ )में पाश्चात्य अतसी दुप के इतिहास का सारोल्लेख करते हैं और २३ वीं शताब्दि बो० सी० (मसीहसेपूर्व) में इसके उपयोगका पता देते | हैं। दोसकरोदस और प्लाइनीने लिनम् नान से इसका वर्णन किया है । गैलेस्की ( १७६७) ने चित्रकारों के उदरशूल ( Painter's colic ) तथा अन्य प्रान्त्रीय प्राप विकारों में इसके तेल के उपयोग को बड़ी प्रशंसा की है। ! अतसी के प्रभाव तथा प्रयोग . आयुर्वेद अतसी मधुर, बलकारक, कफवातबबूक, कुछ कुछ पित्त की नाश करमे वाली और कुछ तथा वात की जीतने वाली है। रा०नि० व. १६ । धन्व०नि०। अतसी मधुर, तिक, किग्ध तथा भारी और पाक में कटु है, उष्ण, दृष्टि को हानिकर एवं शुक्र, वात, कफ तथा पित्त की नाशक है। धन्व०नि०। अतसी दृष्टि के लिए हानिकारक, शुक्र को नष्ट करने वाली, स्निग्ध तथा भारी और बातरक को जीतने वाली है। मद०व०१०। । अतसी उष्ण, तिक, वातघ्नी, कफ पित्तजनक और स्वाद्वग्ल ( मधुराम्ल ) है। राजवल्लभः।। अतसी मधुर, तिक, स्निग्ध, भारी, पाक में कट, उष्ण, दृष्टि को हानिकारक, शुक्र तथा । वातनाशक और कफ एवं पित्त को नष्ट करने वाली है । भाव। पाक में कटु, तिक तथा कफ वात और प्रण। को नाश करने वाली है । पृष्ठशूल, सूजन, पित्त, शुक्र और दष्टि का नाश करने वाली है । वृ० नि०र०। अतसी तैल मधुर, पिच्छिल, वातनाशक, मदगंधि तथा कपाय है और कफ एवं कास को हरण करती है । रा०नि० २०१५। आग्नेय, स्निग्ध, उपण तथा कफपित्तनाशक पाक में कटु, चतु को अहितकर, बल्य, वात नाशक तथा गुरु है, मलकारक, रस में मधुर, ग्राही, स्वग्दोष एवं हृद्रोग को नष्ट करने वाली और वात प्रशमनार्थ वस्ति, पान, अभ्यङ्ग, नस्य और कण पूरण रूप से तथा अनुपान रूप से भी प्रयोजनीय है। भा० पू० तेल० ब० । __अतसी तैन उष्णवीर्य और कटुपाकी है। (गजवल्लभः)। মরা স্বল্প तीसी का पत्ता खाँसी तथा कफ बात और श्वास तथा हृद्रोग नाश करने वाला है । वृक्ष नि. र०। | ময়দ্ধ ম স্বৰী স্কা ওয়া। चरक-(१) फोड़ा पकाने के लिए, अलसी को जल में पीसकर उसमें किञ्चित् जब का सत्त योजित करें और अम्लवधि के साथ इसका फोड़ा पर प्रलेप करें। इससे फोड़ा पक जाएगा । (त्रि० १३ श्र०)। (२) वातप्रधान व्रण में जो दाह और वेदनान्वित हो तिल और अलसी को भूनकर गोदुग्ध के साथ निर्वापित करें। शीतल होनेपर इसको उसी दुग्ध के साथ पीस कर फोड़ा पर प्रलेप करें। (चि. १३ अ०) (३) पक शोथ प्रभेदन हेतु अतसी"xx उमाथ गुग्गुल: xx1" अलसी का प्रलेप करने से फोड़ा फट जाता है। (चि०१३ अ०)। सुश्रुत-(.) वाताधिक वातरक्त में वेदना प्रशमनार्थ अलसी को दुग्ध में पीस कर प्रलेप करें। (चि० २६०)। (२) प्रमेह में अतसी तैल प्रमेह रोगी को सेवन कराना चाहिए, जैसे"कुसुम्भ सर्षपातसी x x स्नेहाः प्रमेहषु' (चि० ३१ अ०) मात्रा-प्राधा से १ तो० । वक्तव्य चरक और सुश्रत में उपनाह स्वेद (जिसे अंगरेजी में पुल्टिस कहते हैं। ) के उपादान स्वरूप अतसी व्यवहूत हुई है- "उमया For Private and Personal Use Only Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भतसा प्रतसा पीसकर अनुलेप करने से शोधजन्य शिरोशूल एवं मास्तिप्कीय कूबा (दद्रु) तथा शिरोवण के लिए उपयोगी है । इसबगोल के साथ सन्धिशूल को लाभ करते हैं । इसका लाब, नेत्र में टप. काने से अभिप्यन्द तथा नेत्र की लालिमा को दूर करता है । इसका लऊक ( अवलेह) श्लेष्मज कास को गुणदायक है और तीन दिरम (३॥ मा० ) पीना वक्षःस्थल को शुद्ध करता है तथा यकृत शोथ और प्रान्तरावयवी के शोथ का लयकर्ता है। भूनी हुई अलसी सङ्कोचक (काबिज़) है और २१ मा० देनिक सेवन करने से प्रान्त्रवेदना को लाभप्रद है तथा मन्त्र. स्वेद. दुग्ध एवं प्रार्तव की प्रवर्तक है। प्रकृति का मुदुकर्ता और वृक्क एवं वस्तीस्थ क्षत को लाभप्रद है। 1 तो० पानी में कथित कर पीना काश्मरी के निकालने में शतशोऽनुभूत है। मधु के साथ लीहा शोथ के लिए लाभप्रद और काली मरिच और मधु के साथ कामोद्दीपक और शुक्र को गाढ़ा करता है। कुष्ठतैलाभ्यां युक्तयाचोपनाहयेत्' (चरक .. सू० १४ १०) "तिलातसा सर्षप कल्केस्तनु वस्त्रावनद्धः स्वेदयेत्” (सुश्रुत चि० ३२ अ.) निघण्टु ग्रंथों में अतसी तेल के गुण इस प्रकार लिखे है-अलसी का सैल वात नाशक, मथुर और बलासकारक है। (धन्वन्तरीय निघण्टु) नोट-शेष देखो-अतसी तैल। अतस्यादि क्वाथ-अलसी के फूल, मजीठ बड़ के अंकुर, कुश आदि पंच तृण । सबको समान भाग लेकर यथाविधि क्याथ बनाकर पीने और पथ्य में मूंग का यूप (और भात) खाने से रक्रपित्त का नाश होता है। वृ०नि० र०। यूनानी मतानुसार प्रकृति-२ कक्षा में शीतल व रूक्ष। किसी किसी ने २ कक्षा में उष्ण और ३ कक्षा में रुक्ष लिया है। हानिका-ष्टि शकि, पाचन तथा मुष्क को। दर्पघ्न-धनियाँ, सिकञ्जबीन और मधु । प्रतिनिधि-मेथी । शर्बत की। मात्रा-१०॥ मा०। प्रधान कर्म-कास, वृक्क एवं वस्त्यश्मरी को लाभदायक है तथा मूत्रकारक एवं स्तन्यजनक है। गुण, कर्म, प्रयोग-इसका कपड़ा पहिनना । उत्ताप को दूर करता तथा स्वेद को शुष्क करता . और कंडू एवं कठिन शोथ को लाभप्रद है।। परन्तु, उष्ण प्रकृति वालों को एवं प्रीष्म ऋतु में : पहिनना चाहिए | इसमें जूएँ कम पढ़ती हैं। इसके पत्र एवं छाल मस्तिष्क के अवरोधों की उद्घाटक और जुकाम को बहाने वाली है । इसकी। छाल को जलाकर छिड़कना रुधिरस्थापक है तथा क्षतों को भर लाता है। इसके पुष्प हृद्य : एवं हृदय वलदायक है । योज लयकर्ता, प्रण को स्वच्छकर्ता (जाली) और प्रकृति को मदु । करने वाले ( मुलरियन तब्स) हैं । ठंडे पानी में | नन्य मतानुसारएलोपैथिक मेटिरिया मेडिका ऑफिशल प्रिपेयरेशा (Official preparatious ) लाइनाइ सेमिना--( Lini Semina) -लं. लिन्डीस (Linseed)-ई० । अतसी बीज, सीसी का बीज । प्रभाव-अरेबिन (ATHbin) के समान लुभाबी पदार्थ की विद्यमानता के कारण यह स्निग्धता एवं मृदुताजनक है। ___ लाइनाइ सेमिना कंट्य जा--( Limi semina contusa). लाइनम् कराव्युज़म् ( Linunm contusun )-ले० । क्रश्ड fatais (Crushed linseed )-. कुट्टित ( कण्डित ) अतसी, कूटी हुई अलसी । अल स्त्री को कूट कर उसका मोटा चूर्ण तैयार करलें। यह ताज़ा तैयार किया हुश्रा होना चाहिए। यह कैटाप्लाज्मा लाइनाई (अतसी की पुल्टिस) बनाने में काम पाता है । For Private and Personal Use Only Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra सी www.kobatirth.org -२३४ ऑलियम् लाइनाई - ( Oleum Lini) -ले० | लिन्सीड ऑइल ( Linseed oil ) - इं० । अतसी तैल । मृदुताजनक रूप से इसका बहिर प्रयोग होता है । प्रभाव तथा उपयोग -- लाइनम् कंट्यु जम् अर्थात् कुट्टित अतसी उत्कारिका ( पुल्टिस ) रूप में स्थानिक प्रदाहों पर अवांतर श्रार्द्र उष्मा के उपयोग की सर्वोत्तम माध्यम है। जब अलसी की उष्ण पुल्टिस किसी भाग पर लगाई जाती हैं तब उष्मा के प्रभाव से बुद्र alag (Small vessels) बाध्य रूप से विस्तार को प्राप्त होते हैं और स्वगीय मांस तत्व, लोमकोष तथा ग्रन्थिक नलिकाएँ शिथिल हो जाती हैं । श्रतएव धातुएँ कोमल हो जाती हैं और कठोरता की अनुभूति एवं प्रादाहिक तनाव का सर्वथा लोप हो जाता है अथवा उसमें कमी आती है। रुधिर के धरातल की ओर आकृष्ट हो जाने के कारण बीच तन्तुयों के श्रन्तिम भागों को दवा की कम अनुभूति होती हैं । कूल्हे की ! सन्धि के प्रदाह में उष्ण उत्कारिका के प्रयोग मे | कभी कभी मांसपेशीय श्राकुञ्चन शिथिल हो जाता है और स्थानान्तरित जानु वेदना घट जाती है । पुल्टिस को फलालैन पर फैलाना चाहिए और उसे इतना गरम रखना चाहिए जितना सुखपूर्वक सहन होसके | स्थानिक उत्तेजक प्रभाव के कारण अत्यधिक उष्ण पुल्टिस से प्रायः तनाव एवं वेदना की वृद्धि होगी । प्रायः यह प्रश्न होता है कि स्थानिक प्रदाह पाटिल ( नाखून खोरा ) में पुल्टिस का व्यव हार किस समय किया जाना चाहिए ? यदि बहुत देहिले पुल्टिस का उपयोग किया जाता है। तो फलतः धातु (Tissue) का सागिक शैथिल्य उपस्थित होता है और तनाव जो जीवन के लिए घातक है दूर होजाता है तथा उसके आय की अधिकतर संभावना होती है परन्तु यदि प्रदाह यहाँ तक विवर्धित होगया हो Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अतसी कि श्वेताण तत्व स्रोत के परदे से बाहर आग हों अथवा एकत्रित होगया हो तो पुल्टिस उसको धरातल तक पहुँचाने में सहायक होती हैं । श्रतः पुष्टि ( उत्कारिकाएँ ) प्रदाह की समग्र दशाओं में उपयोगी होती हैं । यदि उनका उपयोग बहुत पहिले किया जाए तो वे भूय निर्माण को रोक देती हैं और उन्नत अवस्था में उसके निर्माण में शीघ्रता उपस्थित करत एवं उसे साहस प्रदान करती हैं । यदि उनमें पचननिवारक गुग्ण वर्तमान होता तो उनसे प्रत्येक अभीष्ट की सिद्धि होती । मेलाक रेशम में श्रावृत्त करने पर यही कभी हम स्पिरिट लोशन या बोरिक लोशन में पाते हैं । बनूस या स्केल्ड्स अर्थात अग्निदग्ध या श्राग से जले हुए स्थान पर घतसी तैल में सम भाग चूने का पानी मिलाकर, जिसको कैरन श्रइल ( Cannon oil ) कहते हैं लगाना -उपयोगी होता है। बृहदान्त्र के अधोभाग में जब अवरोध के कारण मलावरोध हो तब कभी कभी आधा पौंड ( १ पाव ) अतसी तैल की afer करने से विष्टम्भ दूर होकर एक दो दस्त श्रा जाते हैं । वि० हिटला० । कूटी हुई अलसी की पुलटिस को प्रादाहिक रोगों और फोड़े फुन्सियों पर लगाते हैं। इसके लगाने से न केवल वेदना कम हो जाती है, प्रत्युत शोथ भी कम हो जाता है, और यदि सूजन में पीव पड़ गई हो तो उसके विसर्जन में सहायता मिलती है ! गंभीर शोधों जैसे फुफ्फुसौप; फुफ्फुखावरण प्रदाह, कास, परिविस्तृत कला- प्रदाह, सन्धि प्रदाह ( Arthritis ) इत्यादि रोगों में अलसी की पुल्टिस अत्युत्तम श्रल्प स्थानिक उग्रता साधक ( काउंटर इरिटेट ) है । इसके उक्त प्रभाव को किञ्चित् प्रभावशाली बनाने के लिए पुल्टिस के धरातल ( सतह ) पर विचूर्णित राई छिड़क देते अथवा कैम्फोरेंटेड श्रॉइल ( कर्पूर मिलित तेल ) चुपड़ देते हैं या पुलिस बनाते समय १६ भाग अलसी में १ भाग राई मिला देते हैं । For Private and Personal Use Only Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अजसो नोट--पुल्टिस बहुन मोरी नहीं होनी स्वाहिए और लगाते समय उसके निम्न धरातल पर किञ्चित् तेल प्राति चुपड़ देना चाहिए जिसमें वह शरीर से चिपक न जाय । अलसी की पुल्टिस इस प्रकार बनाई जाती है-४ भाग कटी हुई अलसी को १० भाग खौलते हए पानी में धीरे धीरे डालकर मिलाते जाएँ । परन्तु, जिस बर्तन में पुल्टिस बनानी हो उसको पहले से गरम कर लेना चाहिए और पुल्टिम को पाग के सामने तैयार करना चाहिए। अलसी को खली (Linsect meal) से भी पुल्टिस बनाई जाती है । श्रलमी के बीज में एक प्रकार का लबाबदार सत्व होता है जो उबलते हुए पानी में प्राजाता है । जव श्रामाशय-प्रान्तीय श्लैष्मिक कलाओं से इसका सम्बन्ध होता है, तब यह शांतिप्रद स्निग्धताजनक प्रभाव करता है और क्षोभक मात्री मे उनकी रक्षा करता है। इसमें प्रख्यात कगठ्य अर्थात् श्लेष्मानिस्पारक गुण है जो सम्भवतः श्रामाशय की ओर जाते समय कण्ठ पर प्रभाव करने पर पूर्णतः आधारित है । अधिक मात्रा में इसका फांट ( Infusion) वृक्क को मन्दोत्तेजन देकर मूत्रकारक प्रभाव करता है। श्रतएव वस्निपदाही प्रायः इससे लाभ अनुभव करता है। फांट वा अतसी की चाय-(Infusion or linseed tea)-१५. ग्रेन अलसी और ६० मेन मुलेठी, इनके चूर्ण को १० फ्लुइड ग्राउंस खौलते हुए पानी में दो घंटे भिगोकर शीतल होने पर छान लें । मोहीदीन शरीफ-अलसी के बीज स्निग्धतासम्पादक ( Demulcent ), मृदुताकारक (Emollient), भूत्रल और तर्पक (वृंहण या पोषक ) हैं। मूत्ररोध वा कष्टमूत्र (Dysuria), मूत्रकृच्छ,, वस्तिप्रवाह और वृकप्रदाह में एवं बहुशः अन्य वस्ति, वृक तथा मूत्रप्रक्षाली सम्बन्धी विकारों में मूत्र की प्रदाहक अनुभूति के निवारणार्थ अलसी के बीज का प्रान्तरिक प्रयोग अत्यन्त उपयोगी होता है। (मेटिरिया मेरिका ग्रॉफ़ मैडरास) आर० एन० खारी--अलसी स्निग्धता. सम्पादक, कफनिःसारक और मूत्रकारक है। अधिक मात्रा में मृदुरेचक है। अल्प मात्रामें सेवन करने से वृक्कद्वय अर्थात् भूत्रोत्पादक अधयय की क्रिया वृद्धि होती है। पिपिछल वा स्नेहाविस रूप से अलसी को कफ कास में प्रयुक्र करते हैं। स्निग्ध एवं मूत्रल होने के कारण यह मूत्रकृच्छ, अश्मरी, शर्करा एवम् शूलरोग में हितकर है। अलसी के तेल के धूम ग्रहण करने से शिरः स्थित श्लेष्मा तथा योषापस्मार (Hysteria) में लाभ होता है। अलसी के क्वाथ का उसमें तैल को विद्यमानता के कारण, अनुवासनवस्ति रूप से लाभदायक उपयोग किया जा सकता है। इसका तेल मृदुरेचक है; अतएव अशं रोगी गाढ़ बिटकता की दशा में इसका उपयोग होता (मेटारिया मेडिका श्रीफ़ इंडिया २ खं-पृ० १५) पूयमेह तथा जनन-मूत्रावयवस्थ गोभ में इसके बीज का अान्तरिक प्रयोग होता है। पुष्प हृदय बलदायक माने जाते हैं । (इमर्सन) यह भारतीय तथा ब्रिटिस फार्माकोपिया में श्राफिशल है । उस्कारिका अर्थात् पुल्टिस रूप से इसका औषधीय उपयोग होता है । (१० मे. प्लां०-कर्नल बो० डी० वसुकृत) १ माउंस पिसे हुए अलसी के बीज को रात्रि भर शीतल जल में भिगो रक्खें । प्रातः काल ही इसे हिला कर डंडा ही प्रथषा गरम करके और नीबू का रस मिलाकर प्रयोग में। यक्ष्मा रोगी के लिए यह एक उत्तम पेया है। इस प्रकार पोला हुमा ताज़ा तैन अत्यन्त रोग For Private and Personal Use Only Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir असत्यादिश्वाथः प्रति ::प्रशामक है। भोजन से पूर्व इस अलसी की चाय ! Cloth)। (३) पांशुशय्या 1 (४) भंग । को पाइंट की मात्रा में दिन में तीन बार सेवन ( Ilemp) कराना चाहिए। अर्श रोग में १ से २ प्राउंस की | अतसी तैलम् antasi tailam-संशो० अलसी मात्रा में इसका तेल प्रातः सायं प्रयोग में का मेल, नीमी का नेल- I Lithum श्राता है। (६० मे० मे. नदकारणी कृन) txitantissimum, Linn. (Wil ofएक ग्राउंस अलसी के बीज को १ पाईट जल Linsteal oil.) ग. नि० २० १५ । में १० मिनट तक उबाल कर छान लें। इसे अ. भा० पू० तैन ब० । देखो-अतसी। लसीकी चाय कहते हैं। यह थतीसार, प्रवाहिका | अतह aatnh-१० (Unconsciousness) और मून विकारों के लिए एक उत्तम पेया है। भूर्छा, अचेता, अचेत होजाना, विसंतता, (इं० ड़. ई०-आर० एन० चोपरा कृत) येहोश हो जाना | म० ज०। (२) विरेचक प्रतसो अता ata-हि. पत्थर फोड़ी (Pattharaलाइनम् कैयार्टिकम् Lintum Catha- fori) फा०६० ! भा० । लु० य.० । • 1 ticum )-ले. । पर्जिङ्ग फ्लैक्स (Purgi अतात्तार anti-quttit-अ० शिकारी पक्षी ng flax)-इं० । कत्तान मुम्हिल-अ०।। (The birds of pirey.) _नॉट ऑफिशल अजान पत्रिका atāna-patrika-सं. स्त्री० (Not Official.) अरण्ड, एररड। ( Ricinus Commuउत्पत्ति स्थान-युरोप । nis, Line.) वानस्पतिक वर्णन-यह एक वर्षीय पौधा अताप atapi-हिं०वि० [सं.] ताप रहिन । है। कांड सरल, कोमल ६ से है ई. तक ऊँचा | दुःख रहित । शांत । · होता है । पत्र-सम्मुखवर्ती, संपूर्ण ( अखंड) | अतार atar अंडाकार, नोकीले, होते है। पुप्प लघु, श्वेत | ।.०(१)स, जुनालहशफह tājitlhashfah j घेरा, किनारा । रंग के दल अंडाकार होते हैं। (२) शिश्न-मुण्ड, मणि। कोरोना ग्लैण्डिम स्वाद-तिक व चरपरा । (Corona ilandis )-ई० ।। रासायनिक संगठन-इसमें लाइनीन | (३) चतारा-मंडल । म० ज० । (अतसीन) एक न्युट्रल ( उदासीन ), वर्ण अतारद aatarail - नब्ज. सुम्वुल रूमी । .: रहित, रबादार अत्यन्त तिक सत्व होता है जिसमें a, határah i Seo-sumbul-rúmí विरेचक गुण का प्रभाव होता है। A határail-TIETO Mercury मात्रा-६० ग्रेन च रूप में। यह पौधा (Hydrargyrum ) पारा, पारद-हि । विरेचक रूप से व्यवहार में श्राता है । म० अ०डॉ.२भा० । अतस्यादिक्वाथः a tiusyali-krathah-सं० अतारा aatari-दना-फा० । गोनी-हि । हिं० पु. अलसी के फूल, मजीठ, बदके अंकुर, See-gandaná. कुश श्रादि पञ्च नृण । सब को समान भाग लेकर 'यथा विधि क्वाथ बनाकर पीने और पथ्य में , अतालीतून atalitāna-गु. प्रज्ञात । समूग का यूप ( और भात ) खाने से रक्त पित्त अति ati-हि. वि० [सं०] बहुन । अधिक । • :' का नाश होता है । वृ०नि० र०। ज्यादा । अतसी-कुसुम atasi-kusuma-सं० पु. संज्ञा स्त्री. अधिकता । ज़्यादती । सीमा (१) तीसी का फूल । (२) रेशमी वस्त्र ( Silk का उलन ! For Private and Personal Use Only Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अति. अतिगण्डः अति ati-ना० कचनार ( Bauhinia Lce- | अनिकृत नाशिना atikrituashini-सं. mosit, Lm. ) to Morcury (Ilydrargyru). -बर्मी फल । अतिमि प्राणा ( व० व.) पारा, पारद । साथ० । सू० ६ । ४४ । ३ । स० फा० ई० अतिक्रशः atilvishan सं० मि. अति दुर्बल, अनि अक: atitarkah-मं. प. श्वेनमदार, बन्द हुयता । २०४०। । सफेद धाक (Cajotropis gigmt:, : अनिकेशन) atikshasath.सं. पु. R. Br.)। देखो-पाक । कुब्ज पुप्प वृक्ष। कूजा-हिं० । कोंकन देशीय अतिश्रा atia-खलि. पखानभेद, पाषाण भेद । __ पुष्प विशेष । रा०नि० व. १० । भा० पू० प्र० पुष Saxifraga ligulata, Tull.-ले० । व० । कर टक सेवती। फा० इ० १ भा. 1 श्रति कोपवन utikoeram-11. अकोल, अतिकुटः ati-kutab-सं० त्रि. निम्बादि अव्य । . डेरा ( Alanginm despitalim, 2. श०। Lein.) ई. मेमे । अनिकराटः कः ati-kantah.kah- '' अतिकम tikya11-हिं. संहा पु. [सं.] (१) छोटा गोखरू । (२) दुगलमा । (Act of overstepping; Brunch मद०३.१। of tle orum or duty ) नियम वा अतिकन्दः-*: a til:antdah,-kah-सं. पु. मर्यादा का उल्लंघन । विपरीन व्यवहार । हस्तिकन्द, यह प्रसिद्ध महाकन्दशाक है ।। अतिक्रमण atikramana-हि. संज्ञा प.. देखो-हस्तिकन्दः । रा०नि० २०७। [सं०] उल्लङ्घन । पार करना । १६ के बाहर अतिक-मामिडि atika-mamidi-ते. पुनर्नवा जाना । बढ़ जाना। ( Bcer huvia diffusa, Linm.)। अतिक्रांत atikrānta-हि. घि. [सं.] प्रतिकर्षणं ntikarshanam-संकी अत्यन्त ! (१) (ione beyond ) सीमा का कृतीकरणा, बहुत दुर्बला करना । प्रतिकार्य कर, ! उल्लंघन किए हुए । ६६ के बाहर गया हुश्रा। बहुत निर्मल ताजनक ( कृशताकारक ) द्रव्यों वा । बढ़ा हुधा । (२) (Past,gone by ) बीता उपायों का सेवन करना। हुआ । व्यतीत । गया हुश्रा । अतिकायः atikāyuh-सं०.त्रि०) १. Gi श्रतिकांता वेक्षणम् atikranti-veksh. ' anam-सं० वी० जो घात पहिले कहीं अतिकाय atikāya-हिं० वि. gantic) गई । जैसे-चिकित्सा स्थान में कहा कि दीर्घकाय । बहुत लम्बा चौड़ा। बड़े डील डौल श्लोक स्थान में हम यह बात कह चुके है। का | स्थूल । “अतिकाय-गृहीतायास्तरुण्या सु०३०६५ श्र० श्लोक २८ । “यत्पूर्वमुक्त स्त्वरिदनी भवेत् ।" मा० नि०। २--स्थूल तदति क्रांताबेज्ञणम् । यथा चिकित्सितेषु या. मेद घाला। सु० सं० उ०३८ । च्छलोकस्थाने यदीरितमिति ।" अतिकाल atikala-हिं० संज्ञा पु. [सं०] अनिखिरेटी atikhireti-सं० स्त्री० पीली यूटी। ( विलम्ब । देर । (२) कुसमय । कंघी-हि । अतिबला-सं०। (A butilon अतिकच्छ, atikrichchhra हिं० संज्ञा पु. Indicum, G. Dow or A. Asia. [सं०] (१) बहुत · कन्ट । (An | ticum, G. Don.) ई० मे० मे० । extraordinary hardship)। -वि० अनिगएड: atigandah-सं० नि: वृहदण्ड । अति कठिन ( Very difficult). मे० डचतुष्कं । For Private and Personal Use Only Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भतिगुप्ता प्रतिछत्रका अतिगुप्ता atigupta-संत्री पियनहि । अनिचर atichara-सं० त्रि० ( Tring ( Uraria lagopoides, D. C.) itnt)णिक, अस्थायी | -ले० । ई० मे० मे० । देखो-पृश्निपी। । अतिचरः aatichurah-सं०० (१) एक प्रकार अतिगुहा atiguba-सं० स्त्री० (१)पि बन-हि।। पृश्निपी -सं०। (Uraria lagopoitles, । कीपनी (A sort of bird) (२) वृक्ष विशेष (al tree)। वै. श० । 1). C. ITO ATO() (Hedysal'lim gangeticum,Lin.) शाल पग । मद. अतिचरणा aticharan --सं० (हिं०संज्ञा) स्त्री. १०१। वा. सू० २६ अ० । "लक्नी गुहा- (१) अत्यन्त मैथुन करने के कारण जिस योनि में मतिगुहाम् ।" सूजन हो जाती है उसे प्रतिवरणा कहते हैं। श्रतिगो atigo-सं० स्त्री० (An excellenti कफज योनिरोग विशेष, ग्रथा---"सैवातिचरणा cov) उत्तम गाय । शेफ संयुकातिव्यवायतः" । वा. उ० ३३ अतिगन्धः atirandhah-सं० पु. ।। श्र० । देखो--अचरणा । (२) स्त्रियांका एक रोग अतिगंधatigandha ह. संज्ञा प.) जिसमें कई बार मैथुन करने पर तृप्ति होती है। भूतृण, गन्धरण-बं० । (Ses-Bhut. (३) वैयक मतानुसार वह योनि जो अयंत rinam ) रा. नि०व०। (२) गंधराज, मैथुन से न हो। मोगरा-वृत, मुनगर पुष्प वृक्ष-500,सं०। अतिचग,-ला atichara,-la-सं० स्त्रो० (1) A sort of Jasmine (Jasminum 2(s)ambae, it.) रा. नि. २०१० : पद्मचारिणी-सं० । गैंदेका फूल, गेंदा। ('age(३) गंधक-हि। (Sulphum) रा०नि० . tes Erecta, Linn.) । मद० २०३। व० १३ । (४) चम्पक बृत, चापा, चम्पा का अभि०नि०१ भा० । (२) स्थल कमल-हि। पेड़ वा फूल-हिं०। (fichelia chali. स्थल पम, थल पम-पं० [Hibiscus inu. tabilis मेमो०। गुले प्रजाइय-काका रा०नि० paca, Linn. ) रा०नि० ३.१०।। व०५। भा० पू० १ मा० । देखो-स्थलपन । fao ( Having an excessive or (३) भूत रुण । (४) A lotus plant overpowering smell) अत्यन्त गन्ध कमल । पद्म। पूर्ण । अतिगंधकः atigandhakah-सं० पु. (1) अतिच्छत्रः atichchhist.inh. सं. ० हस्तिकम् (पलाश) वृत्त । (२) चम्पक वृक्ष, (3) लाल तालमखाना-हिं० । रक कोकिलास चम्पा । रा०नि० व०१०। -सं०, ० । प. मु. । रत्ना। (२) छत्रा, साँप की छतरी, कुकुर-मुत्ता, भूमिछमा,काटछातु, अतिगंधा, लः atigandha,.mh-सं० स्त्री पुत्रदात्रीलता, पुत्रदा-सं०। बाँझ खेखसा, पोयाल छातु-बं0 (A mushroom) ल चमणा-हि। रा०नि० ५० १०। । (३) स्थूल तृण विशेष । (४) anise | सौंफ । अतिगंधिका atigandhika-सं० स्त्रा० पुत्र : अतिच्छत्रक: a tichchhatrakah-सं० पु. दात्रीलता, पुनदा-सं० । देखा-पुत्रदात्री । रा. (१) भूततृण । प० मु. । (२) भूतृण, नि०व०४। (See-Putradatri ). : गंधराज । रा०नि० व० । (३) साधारण अतिघूर्णता utighulnata-सं. स्त्री. अति- तृण । (४) एक वृद्ध जिसके मूल एवं पत्र निद्रा, निद्राधिक्य, अत्यन्त निद्रा। भा० म. ! बच की प्राकृति के होते हैं तथा जो रस में कटु ४ भा० श्लो० २४ मसूरिका । "तृष्णा-दाहो. होता है । ग०नि० । (५) शरवान, छतरिया । तिघूण ता" ! शा० औ० श० सा। For Private and Personal Use Only Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रतिच्छत्रका अतिदेश अतिच्छत्रका atichehhatraki अतितपनम् atitarpanam-सं. क्लो. श्रतिच्छत्रा atichchhatra अति नृसि, अति तर्पण । वा० सू० - १० प्रतिच्छत्रिका atichchhattika ) अतितार्या atitārya-सं० स्त्री० पार करने योग्य । सं० स्त्री० (,) सौंफ, जंगली सौंफ- । श्रथ० । स०२ । २७ का० । रा०नि० २०४ । मद. व. २ । वा. उ० प्रति तोबा atitibri-सं० स्त्री. गांडर दूब ६१० महापैशा० घृ० ! 'अतिछत्रा पलपा'। -हिं० । गंड दूर्वा-सं० । रा. नि०१०। सिं० यों उम्माद चि. महापशाच घृते ।। (Sae-Ganda-durvva.) (२) मधुरिका । मोरी-वं० । चलचि००। अति तीक्षणः ati-tikshnah-सं० पि. (३) छप्रवृत । वह वृद्ध जिसके मूल व पत्र बचकी (१) मरिय प्रभृति (Black pepper). प्राकृति के और रस कटु हो । (४) भूत तृण।। -पु. (२) सहिजन, शोभाअन वृस (Moरा०नि०। (५) अजशृंगी, मेढ़ासिंगो-हिं० । ringapterygosperma, Gtertn.)। विषाणिका-सं० । वा. सू०२६ अ० । (६) उक्त -क्ली०(३) अजमोदा ( A pium involनाम की महीपध । दनी-श्रोरधिः । (७) lucratuin ). (A mushroom) साँपकी छनी । श्रगारि अतितृप्तिः atitriptih-सं० पु. पित्तजन्य रोग कस ऐल्बस। विशेष ( Biliary disease. ) । असिजव atija.va-हि. वि० [सं०] जो बहुत वै० निघ सेज़ चले । अत्यन्त वेगगामी। अतितेजिनी utitsjini-संत्रो० तेजबल-हिं०, अतिजागरःntijagalnath-सं० पु. बं०, मह०, गु० । विपर्णी सं०।मद० २०।। अतिजागर atijagara-हिं. संज्ञा पु.) | अतिदग्धम् atidagdhan सं० लो० अग्निनील वर्ण का बगुला पक्षी | A kind of | दग्ध रोग ( Burn) सु० सु० १२५०। heroin (Ardca jaculator). | श्रातदाहः abidahah-स | अतिदाहः atidahah-सं० ए० अप्तिसन्ताप, देखो-नील क्रौञ्च । ग०नि० व०१६। दाहाधिक्य, तापबाहुल्य | वै० निघ०। अतिदीप्तिः atidiptih-सं० स्त्री० श्वेत तुलसी अति जागरणः ati-jagaraah-सं० पु. ) -हिं० । श्वेत सुरसा-सं० । श्वेत बाबुई. तुलसी अतिजागरण ati-jagarana-हिं० पु. -पं० । (Ocimum Basilicum, Linm.) अधिक जागना । वा० सू०२०। वै० नि । अतिजात atijatra. वह संतान जो पिता के | अतिदीप्यः,-क: atidipyah,-kah-सं० अधिक गुण रखती हो । अथ० । सू०६। पु. लाल चीता, रक चित्रक ( Pluinका० । ___bago Rossa, Linn.)रा०नि० व. ६ । अतिजीयः atijivah सं० पु. अन्य सामान्य | अतिदुष्टः atidushtah-सं० प. गोखरू जीवों की दशा को अपने ज्ञान बल से पार ! -हि० । गोनुर-सं०। (zygophyllere. करना । अथ। सू०२। कां । i Tribulus terrestris, Linn. ) निघ०। अतिजम्भः atijrim bhah-सं० पु. प्रति अँभाई का आना, वायु रोग विशेष निघत अतिदेशः atideshah-सं० पु . अतितपस्विनी atitapasvini-सं. स्त्री० अतिदेश utidesha-हिं० संज्ञा पु. मुण्डी, गोरखमुण्डी (Sphoeranthus : (१) प्रकृतस्यानागतेन साधनम् अर्थात् प्रकृत Indicus, Lint.) भा०पू० १ भागुवा का अनागत ( भविष्यत् ) से साधन किया जाना For Private and Personal Use Only Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रतिनिद्रः प्रतिपीड़क 'अतिदेश' कहलाता है । जैसे, अमुक कारण से दुग्ध प्रतिशृत धन दुग्ध । यह अत्यंत भारी होता इसका वायु अगामी होता है इसलिए इसे है। “भवेद्वरीयोऽतिशतम" या० टी० हेमाद्री उदावत होगा। यहाँ वायु का ऊर्द्धगमन प्रकृत झारपाणिः । है इसका साधन प्रगाड़ी होने वाले उदावर्त | अतिपज़म atipazan-ता. गूलर-हिं० । उदुम्बर से होता है । स० उ०६१ 1 ___ फलम्-सं० | Ficus Glomerata, Roard. (२)एक स्थान के धन धा नियम का दसरे ( Fruit of) स. फा. ई.। स्थान पर प्रारोपण । (३) वह नियम जो अतिपश्चा atipancha-सं० स्त्री. ( A girl अपने निर्दिष्ट विषय के अतिरिक्र और विपयों ___past five) पांच वर्ष से ऊपर की कन्या । में भी काम श्राए । अतिपत्रः, कः atipatrali, ka hi० पु०(१) अतिनिद्रः atinidrah सं०वि० (१) (Given ( The toak-trse ) सागबन to excessive sleep ) निद्रालु, वह -हिं० । शाकतरु-सं० । सेगुन गाछ जिसको अत्यन्त नोंद प्रारही हो । -बं०। रा० नि० व०६, उन्माद-चि., (२)( Without sleep, sleep- महापैशाच घृते । (२)हस्तिकन्द नामक महाकन्द । less ) अनिद्रा। रा०नि०व०७। अतिनिद्रता atinidrata सं० स्त्रो । अतिपत्रा atipatra-सं० स्रो० (Sida corअतिनिद्रा ati-hidra-हिं० संज्ञा स्त्री० difolia, Linn. ) बलाभेद, खिरेटी, बरियारा, (Excessive sleeping) निद्राधिक्य, बीजबन्द । तेड़ेला-ब। देखो-बला । नींद को अधिकता । कफन्द्वि जन्य रोग विशेष । | अतिपरिचम् atiparichcham-ता० ) सु० स १५ अ०। अतिपर्या atiparya-सं० स्त्री० अतिनिद्राना(शि)नी गुटिका tinidrinash. मालकांगुनो-हिं० । कटुम्भी-सं०। (Celaini gutika-सं० स्त्रो० काली मिर्च को stills paniculatus, Willd.)ito शहद में घोट कर गोलियाँ बनाएँ । इसे घोड़े के मे० मे० । फा. इं० १ भा० ।। लार से घिस कर नेत्रों में लगाने से घोर निद्रा । भी दूर हो जाती है । यो चि०। अतिपातितम् atipatitam-सं० को (Fru ature) अस्थिभंग, कांडमग्न, अस्थि का बीच अतिनिद्रा रोग a timilia rogu-हिं० संज्ञा से टूटजाना, जिससे अस्थि पूर्णतः पृथक् हो जाती पु. बह रोग जिसमें बहुत नींद आती है।। है । सु० नि० १५ १० । (Sleeping sickness. ) असिनेरश्चि utineranchi-सिं० बड़ा गांखरू अतिपिच्छ: tipichehhah-सं० पु० श्वेत (Polalitim futex, Linn.) स० TH17 ( Dioscorea sativa, Lim. ) फा० इ०। वै०नि० । अतिपकमांसम् atipakva.imansam-सं० अतिपिछला atipichchhala-सं० स्त्री० पु. खर पाक युक्र मांस, अधिक पकाया हुश्रा कुमारी, घृतकुमारी, घीकुवार-हिं०। ( Aloe सिद्ध मांस, पाकाधिक सिद्ध मांस । गुण- ___Barbadensis.) वै० निघ०। अधिक पकाया हुआ मांस विरस ( स्वाद रहित), | अतिपिजरा atipinjarah ) .. .. वातकारक और भारी होता है । वै० निघः। (Fou अतिपक्षीरम् atipakvs-hshiram-सं० पु. alatigh: a tipírakah - अग्नि पर पकाकर अत्यंत गाड़ा किया हश्रा | ulcer) दुष्ट ग्रण, दृषित क्षत । च.। For Private and Personal Use Only Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अंतिपित्ता २४१ अतिमदुरम्-पाल अतिपित्ता atipitta-तं. खो. मनालू, प्रतिभक्ता atibhakta-संत्रा०गुलाव (The संजालु, छुईमुई (Sensitive plant). rose) Aant atiprage-( Very early in afah (1) 1: atibha.,-bhá,-rah-ra ___the morning) प्रातःकाल । ! पु. ( Excessive burden) भारी अतिप्रभजनवात atiprabhanjana-Tatai बोझ । -हि. संशा प० [सं०] अत्यन्त प्रचर और . अतिभारगः ati-bhāraga.h-सं० पुं० अश्वतीन वायु जिसकी गति एक घंटे में ४० वा १० ___ तर । खच्चर, अश्वभेदह । (Donkey, कोस होती है। mule) वै० श०। प्रतिप्रवाहण atipravahana-सं० वि० (To "! अतिभीः atibhih-सं० ली. क्ष-प्रभा, विद्युत्, grunt) किनछिना,कॉखना । सु० नि १३ मा बिजली (Lightning, flash of Ind. अतिप्रसुतम् ati-prasrute m-सं० क्ली। ra's thuderbolt.) अधिक रा.मोक्षण, अधिक रक प्रावण । सु० । अतिभोजनम् ati-bhojayam-. क्ली० शा०प्र० श्लो०१७।। अधिक मात्रा में भोजन करना, अधिक भोजन, प्रतिपदा atiprourha-सं० स्त्री० (A | प्रत्याहार । गुण-इससे श्रालस्य, भारीपन, grown-up girl ) विवाह योग कन्या । पेट की बेदनासहित गुड़गुड़ाहट तथा शरीर के प्रतिबरसण atibarasana-हिं० संज्ञा पु. शिथिल होजाने प्रभतिकी अधिकता होतीहै । सु० [सं० प्रतिवर्षण ] मेघमाला । घटा । -दि। स०४६ ० कृतान्नयः । प्रतिबल atibala-हिं० वि० [सं०] ( Very ग्व० [स] (very . प्रतिमङ्गल्यः ati-mangal-yah-सं० पु. strong or powerful ) प्रयल, विल्व वृक्ष। बेल का पेड़-हिं० । (Egle प्रचंड, बनी। or cratceva inarmelos, Corr. ) प्रतियला ati-bala-सं० नो० (१)(A but-i -ले०रा०नि० व. १७। ilon Indicum C. Don.) एक ओषधि, कंघी ,घही; ककही, ककहिया-हिं । देखो अतिमञ्जुला ati-nanjalā-सं० स्त्री० सेवती गुलाव-हि. । कराहक सेवती वृक्ष:-सं० । कंघी वा वला | रा. नि०५०४। मद०५०१। गोलाप, रक गोलाप-बं० । ( Rosa damaभा० पू०१ भ० गु० २० । सु०स. ३६ ___scena,Jill.) भा० पू० १ भा० पुरव। संशमने | च०स०४ अ० । सु०स० कृमिचिः । मद० २० ३ । देखो-सेवती।। मि. क्र. क. वल्ली स्त्रीरोगश्चि० । वा० . अतिमरडलः ati-mandalah-सं० पु. उ० ५० १० । (२) श्वेत वाध्यालक । . भूधामन वृक्ष । वै० निघ० । (३) गोरक्षतण्डुला । विष्णुनारायण तेले ।। शतावरीयो-सा. कौ । चि. क. अतिमदुरम् ati-madiram-ता०, सिं० वल्ली केतक्यादि तैले। मुलेहवी, यष्टिमधु, जेटीमध-हिं० । Glycyl: rhize (Radix) glabra, Linn. प्रतिबलिका atibalika)-सं० स्त्री० वाट्या : (Liquorice root or Liquorico ) प्रतियली atibali ल क । बरियारा स० फा० ई०। -हिं०। ( Sida. cordifolia, Linn.), अतिमदुरम्-पाल ati-maduram-pil-ता० रा०नि० व०४। मुलेठी का सत-हिं० । रुघुस्सूस-० । Glyप्रतिबाला atibāla-स० स्त्री० ( A cow cyrrhiza. ( Extract of-E.of liq. two years old ) दो वर्ष की गऊ। uorice) स० फा० इं० । For Private and Personal Use Only Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रतिमधुरम् प्रतियवः अतिमधुरम् ati-madhuram-मल. मुलेली mosa) प० मु० । “अतिमुत्र कमिच्छन्ति (Glycyrrhizie "Radix' glabra, वासन्ती माधवीलताम् ।" हला० ५४। Liun. ) स० का. इं०। वासन्ती । तिनिश । मे० तचतुष्क । या० उ० अतिमधुरम्-पालु ati-madhuram palu १३ अ० गाव, तेंद । भा० पू० १ भा०। -ते. मुलेटी का सत-हि। Glycyrrhi- . गुण----कसेली, शीतल, ४ मघ्न, पित्त, दाह,. za ( Extract of-)। स० फा० ई०। । ज्वर, उन्माद, हिक्का, तथा छर्दिनाशक है। ग. अति-मधुरमुati-nnadhuramti-ते. ) नि०व०१०। देखो-तिनिशः । माधवी मधुर, प्रतिमधुरा ati-nadhura-कना. शीतल, लधु तीनों दोषोंको नाश करने वाली है। मुलेडी (Liquorice root) स० फा० मा०पू० १ भ .पु०२० । -(का) हरिमन्थ । . हारा० । (५) मरुना का पौधा । मतिमन्थः,-क: ati-manthah, kah-सं० अतिमुक्त तैलम् ati-mukta-tailam- सं. क्ली श्रतिमुक्रा के बीज का तेल, अतिमुक्रक पुअरनी, अरणी, अग्निमन्ध ( IPremna } बीज तेल। serratifolia ). गुण--वातपित्तनाशक, केशवबुक अथवा प्रतिमात्रम् ati-mataram-सं० ली. अधिक केश के लिए हित, श्लेष्माकारक, भारी और मात्रा (परिमाण), मात्राधिक्य । माया से शीतल है । वा० टी० हेमा। शियादा वा० स० अ० प्रतिमात्र ati-matra-हिं० वि० [सं०] .. अतिमुक्ता ati-mukta-सं. स्त्री० अति मुक्तका। रा०नि० व. १०। (Excessive) अतिशय | बहुत { ज़्यादा।। अतिमूत्र ati-mitra-हिं० संज्ञा पु० [सं०] प्रतिमानुष ati-mānusha-हिं० वि० [सं०] ( Diabetes) देचक में प्रात्रेय मत के (Super human) मनुष्य की शक्ति के , अनुसार छः प्रकार के प्रमेहीं में से एक । इसमें बाहर का । अमानुषी। अधिक मूत्र उत्तरता है और रांगी क्षीण होता प्रतिमित ati-mita-हिं० वि० [सं०] अप- जाता है। बहुमत्र।। रिमित । अतुल । बे अन्दाज । बहुत अधिक | | प्रतिमैथुनati-maithuna-हिंसंज्ञा पुतिसङ्ग, थे ठिकाना । के हिसाब । स्त्री सहवासाधिक्य, अधिक स्ली संग करना । प्रतिमुक्तः,-क: ati-muktah,-kahसं.पु०) अतिमोदा ati-modi-सं. स्त्री०, हि. संज्ञा भतिमुक्त ati-mukta-हिं० संज्ञा पु स्त्रो० (1) गुल सेवती-हि नवमल्लिका-सं० । प्रतिमुक्ताका ati-imuktaka सेउति-पं० । (Jasminumar bor-सं०पु(१)तिनिश वृक्ष । तिनसुना । तिरिच्छ। Usuni, Road.) रा०नि० २०१०। (ltomtain chomy)। अमः । (२) (२) गणिकारी बज-को। गणिरि-बं। तिन्दुक वृक्ष (See-lindukl) । तंद, ग०नि० व. १०। गान-बं०,हिं० । तत्पर्याय-पुरकः, मल्लिनी, (३)नेवारी का पौधा या फूल । भ्रमरानन्दा, कामुककान्ता-सं० । (३) नवः | अतिमोक्षा uti-mokshi-सं० स्त्रो० नेवाड़ी. मल्लिका भेद । वासन्ती, नेवारी-हि। पुष्पवृक्ष (Jasmimum rambue florरायवेल-40 रायविर-म०, ते (J. za- | ibus multiplicatils.) mbac floribus multiplientis)! अतिययः ativyavah-सं०० निःशूकयव । देखो-नवमल्लिका । (४) माधवीलता, काली यव । मद० २०१०। “निःशूकोऽतियवः कुसरी, कस्तुरमोगरा (Garthela - स्मृतः" अर्थात् जो जो शूक (सुई.) रहित हों For Private and Personal Use Only Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra म० ज० । www.kobatirth.org श्रतियुक्तः प्रतिलेशा उन्हें प्रतियव कहते हैं । जौ से श्रतियव में अल्प श्रतिरुच् atiruch-सं० पु० ( The knee गुण हैं । भा० पू० १ भा० धान्य य० । अतियुक्तः ati-yuktah - सं० त्रि० बारम्बार उपयोग में लाया हुआ । स्नेह श्रादि पञ्चकमों का श्रतियोग अर्थात् अत्यंत प्रयोग करना | भा०म० ख० १ भा० अ० सा० । “स्नेहाचैरतियुकैः ।" श्रतियोगः ati-yogah - सं० पु० श्रुतियोग ati-yoga-हिं० संज्ञा पुं० जानु, घुटना । प्रतिरुहा ati-ruha-सं० स्त्री० मांस रोहिणी -सं० | रोहिणी-हिं० रा० नि० ० १२ । भा० पू० भा० । मद० ० १ । ( See-mánsarohini ) (1) श्रति प्रयोग, प्रतिशयित प्रयोग, अधिक उपयोग में जाना | वा० सू० १७ श्र० । ६ ) अधिक मिलाव । (३) किसी मिश्रित श्रोषधि में य का नियत मात्रा से अधिक मिलाव | अतिर् aatiro सुगंधित, सुगंधित होना । अतिरक्त atirakta - हि० पु० अतिरक्तः ati-raktah सं० ० अतिरक्ता a tirakta-सं० स्त्री० (1) हिंगुल, सिंगरफ | Cinna २४३ : bar ( Hydrargyri Bisulphur - etumn.)। (२) श्रदहुल, श्रईडलका फूल-हिं०] ! जया पुष्प वृक्ष-सं० । (Hibiscus Rosa= sinensis, Linn.) बै० निघ० । श्रतिरजःस्राव atirajahasrava - हिं० पुं० (Menorrhagia ) मासिकधर्म का अधिक होना। देखो - प्रदर | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रतिरुक्षः ati-rukshah स० शि० अत्यन्त रूस, स्नेह रहित, यथा- कंगु और कोदो प्रभृति । ( Very dry. ) अतिरेचकः ati-rechakah - सं०पु० काकोली कॉकला - बं० । ('Tizyphus napeca.) बै० निघ० । प्रतिरोग: ati-rogah - सं० पुं० चयरोग | क्षयरोग | राजयक्ष्मा (Pthisis, consumption.) रा० नि० ० २० । प्रतिरो (लो) मश atiro-lo-masha - सं० त्रिo ( Very hairy, shaggy ) बहुत रोमयुक्त । अतिरोमशः ati-romashah-सं०पु० (१) बम बकरी, वन्यछाग ( A wild goat.) । ( २ ) ( A sheep ) भेद, मेष । हारा० । ( ३ ) ( A large monkey ) बड़ा बन्दर ( वानर ) । अतिरोमशा ati-romasha-सं० स्त्री० वृद्धदारकलता, विधारा, नीलवुद्धा । प० मु० । See-Vidhárá. [सं० ] जीवन वा ज़िन्दगी । ( Life. ) अतिलङ्घन ati-langhan - हिं० संज्ञा पुं० श्रतिलङ्घनम् ati-langhanam - सं० की ० श्रुतिरसः ati-rasah - सं० पुं० पौएड्रक सं० १ श० मा० | See-Pundrakah. श्रुतिरसा ati-1asá-सं० [स्त्री० ( १ ) मूर्धा ! श्रतिरोहण ati-rohana - हिं० संज्ञा पुं० - सं० । चूरनहार, मुरहरी-हिं० । ( Sanso vieria, zeylanica, Pilld.) । मुर्गा - बं० । ० नि० २ भा० प० चि० पलकथा तैले । ( २) रास्ना (Vanda Roxb - urghii ) । म० ० १ । ( ३ ) मुलेटी (Liquorice ) रा० नि० व० ६ । ( ४ ) शतावरी - हिं० । शतमूली-सं० । ० सू० ४ । श्रतिराष्ट्र atiráshtra - हिं० संज्ञा पुं० [सं० ] पुराणा के अनुसार एक नाम वा सर्प का नाम । श्रतिरुक atiruk-सं० खो० ( A very beautiful woman ) अस्थन्त सुन्दर (Excessive fasting ) अधिक उपवास, अधिक निराहार रहना । श्रतिलङ्घितम् ati-langhitam - सं० की० वह पुरुष जिसने प्रतिलंघन उपवास ) किया हो, अत्यन्त उपवास किया हुआ । श्रतिलम्बी ati-lambi-सं० स्त्री० सौफ । Anise ( Pimpinella Anisum, Linn.) भा० पू० १ भा० । श्रतिलेशा ati-leshá सं० त्रो० ग्रीवा की पहिलो स्त्री । For Private and Personal Use Only Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अतिलेशा पृष्टकीयः अतिविषादिक्वाथः कशेरुका (Atlas=First convical rel- ! अतिविकट ati-vikata-सं० त्रि. ( Very tebra.)। फह कह -अ० । fierce ) अतिभयावह । अतिलशा पृष्ट काय: ati.lesha prishra- अतिविकटः ati.vikatah-सं० पु. ( A kiyah-सं० त्रि. ( Atlanto occi. vicious elephant ) दुष्ट, बिगड़ा हुभा pital.) वा पागल हाथी । अतिलेशाप्रष्टकीय-सन्धिः ati-leshiprishta. अतिविरेचक ati virechaka-हिं० वि० अधिक kiya sandhih सं० पु. ( Atlanto मात्रा में मल (दस्त) निकालने वाला । ( Dra. occipital joint ). stic purgative) अतिलेशाक्षसमोयः ati-leshaksha-sami• अतिविदाही ati vidahi-सं• त्रि. बनी सरसों, - yah-सं० ० ( Atlanto axial lig. ! राज सपंप. श.। . ament) प्रतिविद्ध ati-viddha-सं० पु. जाँच में तीन अतिलोमशः ati-lomashth-सं०प० (): वेदना पननेका रोग । शथ. स. १०६।१। भेड़ । (२) वन अकरी (A wild goat) का०६। (३) बन्दर, वानर (A large monkey ) प्रतिविर भेषजी ati-viddha-bheshuji-सं० अतिलोहितगंधः ati-lohita-gandhah ! स्त्री. अत्यन्त पीडाको दूर करने वाली प्रोपधि । - पु० दौना, दमन वृक्ष ( worm. - food ) पं० मु०।। अथ । स० १०६ । १। का०६। अतिवडयम् ti-vadayam-ता. अतीस | अतिविद्धा uti-riddhi सं. मी. जो नस Root of-(Aconitum Heteropb.i प्रमाण से अधिक खेदित होजाए और हम भीतर को प्रविष्ट हो जाए या बहुत अधिक खन शिकले yllum, Wull.) सफाई। अंतित्रयस ati-rayas-सली वह प्रतिविदा है। सु० शा०८। (Very old, ! अतिषिश्वा ati-vishva-सं० स्त्री. अत्यन्त 'agat) अधिक उम्र वाला, वृद्ध । अतिवत्तलः ati-varttulnh-सं. पु० मटर, . व्याप्त होने वाली । __केराव-हिं० । कलाय विशेष-सं मटर प्रतिविष ativisha-मह, गु० (Aconitum घाटुना, कहाइ-चं०। (Sila thombifo Heterophyllum Wall.) श्रीसाई. lia, 1.inm.)। र० मा० । मे• प्लां । फा० ई. । वृ.नि. र. । अतियल ti-Tala सं० लघु चोंच, चोंच वर्द।। अतिविषः, या ati.visha b,-sha-सं. खो ___यह एक बूटी है। प्रतिधिष, ati-visha,sha-हि. संशा पी. अतिवला ati-vala-सं० श्री. नागवता, गंगे- अतीस ( Aconitum Heterophरन, गुलसकरी । (Sida Spinosa, Lin.) | yllum, Wall. ) रा०नि० घ०६। व.. अति-वला-चेट ati-vali.chettu-ता० महा. स० ३१ अ. वचाद्रि० । च० द. ज्य. चि. बला, सहदेवी । See-Mahabala. पिपल्यादिघृते । मद.व. १ । सा. की । अति-वष ati-vasha-गु० प्रतीस ! (Aco- अतिविषनी ati-rishani-गु० (Aconitum अति-यस ati-vasa--ते. nitum He- | Heterophyllum, Wal.) अतीस । ई० अति-वसु ati-rasu-ते. , terophy- मे लां । ___llum, full.) रु.० फा० इं०। प्रतिविषादिक्वाथ:ati-vishādi-kvathahअतिवासा • at:-vasi-ते. अतीस ( Acon- सं०५० सीस, मोथा,नेत्रवालंग, धवपुष्प, कुराको itum Heterophyllum, Wall.) छाल (इन्द्रजी), अनारदाना, लोध,वरियारा, सुरूप क० । वृ०नि० र०। भागले यथा विधि काथ प्रस्तुत कर पीने से प्रवल For Private and Personal Use Only Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अतिविषादिचूर्ण २४५ प्रतिसादः संग्रहणी, ज्वर, अरुचि और मन्दाग्नि का नाश ! म को अधिकता । अधिक व्यायाम पथ्य नहीं होता है तथा यह धातुवर्द्धक है । वृ. नि. र. है। इससे कास, सर, छर्दि, क्रान्ति (थकान ), पति वेषादिचूर्णम् ti-visha li-churnum-सं. प्यास, क्षय, प्रतमक श्वास तथा रऋपित्त प्रभृति क्लो० प्रतीस,त्रिकुटा, सैंधव, यवहार और हींगका रोग हो जाते हैं। भा० पू० १ मा० । वा. क्वाथ या चुणं गरम पानी के साथ लेने से प्राम: स. १० १। युक्र संग्रहणी नष्ट होती है। अथवा पीपल, अतिशकुलो uti.shashkuli-सं. श्री. सोड, पा, शारियों, दोनों कटेली, चित्रक, इन्द्र- तिलकृत रोटिका । यव, पॉचो नमक और यवहार का चूर्ण बनाकर गा-यह रूझहै और श्लेग्म, पित्त तथा रत. दही, गरम पानी और सुरा अादि के साथ सेवन । की नाराकाने वाली भारी, विष्टम्भ( मलावरोध) करने से अग्नि प्राप्त होती और कोगत करने वालो और चर के लिए हितकारी नहीं है। वायु मिट जाती है । च०सं० चि. अ० १५ । भा० पू० कृतानव०। प्रतिवीज ativijali-सं० पु. बवूर (बबूल) अतिशारिवा ntishāriva-सं० स्त्री० अनन्त. qel ( Acacia Arabical, 11i!!!.) मूल-हि, यं० । अनन्ना-सं० । (Hmilबै. निघ । esmus indicus, R. B)170 मा० । प्रतिवृष्टिःti-rishti-हिं. संज्ञा स्त्री० [सं० देखा-शारिवा। पानी का बहुत बरसना जिससे खेती को हानि अतिशीत ati-shita-सं० (हिं०) श्री. अधिक पहुँचे। अत्यन्त वर्ण । डा, अत्यन्त जाड़ा। अतिवृहत्फल: tirihint-phalah-सं० पु. अतिशुपर्णा atishuparni-सं. स्त्री. वन पनस । कटहल (Artocarpus integrifo मूंग, मुदगपर्णी । (Phasoolu; triloblia, I.inn) भा० पू०१ भा० । __us, Ait.) अतिवृहण ati-vrinhana-सं० त्रि. अत्यंत दूध, अतिशूक: ati-shikah सं० पु. यव-सं० । घी तथा सांसादि भक्षण द्वारा प्राप्त स्थूलता। जी-हिं० 1 ( Barley )। प. मु०। अतिहित ati-Tithiti-हिं० वि० [सं०] / अतिशकजः nti-shuka.jah-सं० पु. गेहूँ हद । पुष्ट । मज़बून । __-f. गोधूम-सं० । ( Wheat. ). अतियथा ti-syathi-सं० स्त्री० अतिवेदना, अतितक्षारम् ati-shrita-kshiram-सं० अतिपीड़ा, अतिशयित यन्त्रणा। क्ली. अत्यन्त प्रौटाया हुश्रा दूध । यह अतिव्याप्ति ati-rryapti-हि. स्त्री० [सं०] | यहुत भारी होता है वा० सू० ५ अ० । न्याय में एक लक्षण दोष । किमी लक्षण वा अतिशेषः atishoshah-सं. प. क्षयरोग कथन के अन्तर्गत लक्ष्य के अतिरिक्र अन्य ! तिरिक्र अन्य ! (Pthisis.)। देखा क्षयः । यस्तु के श्राजाने का दोष । जहाँ लक्षण वा लिंग | अतिसय्या ati-sayyi-सं० स्रो० अप्टिमधु लक्ष्य चालिंगी के सिवाय अन्य पदार्थों पर लता, मुलेठो की बरुली ( Glycyrrhiza भी घट सके वहाँ अतिव्याप्ति दोष होता है। ___glabra) वै० श.। अतिव्यात्ताननम् ati-vy:attanaham-सं० ! अतिसर्जनमati.sarjanam-सं० की. वेध, की मुँह फाड़ कर, मुँह खोलकर । सु. शा० . वेधना, छेदन । मे० नपञ्चकं । श्र० श्लोक ८ । अतिसान्द्रः ati-sindrah-सं० पु. प्रतिव्यायामः ati vāyāmah-सं० पु. लोयिया, बोड़ा-हिं । राजमाष-सं० । (A व्यायामाधिक्य, अधिक व्यायाम करना अर्थात् । kind of buan ( Dclichos Sineकुश्ती व कपरत करना, किसी प्रकार के शारीरिक nsis. '. For Private and Personal Use Only Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रतिसाम्या अनिसार अतिसाम्या ati-samya-सं० नो० मुलेठो की लता, काली मुख वाली गुञ्जाकी बेल | (A brus | precatorius ) 1 970 || प्रतिसारः anti-sarah-सं० पु. । (१)पर्यटक अतितार atisira-हिं० संज्ञा पु " -सं० । पित्तराड़ा, पापा-हि। (olden landia corymbosa) (२) स्वनाम.ख्यात उदरामय रोग । वहुदवमलनिःसारण रोग । एकरोग जिसमें मल बढ़कर उदराग्निको मंद करता हमा और शरीर के स्लों को लेता वृत्रा बार बार निकलता है। इसमें श्रामाशय की भीतरी मिनियों में शोथ हो जाने के कारण खाया हुत्रा पदार्थ नहीं हरता और अंतड़ियों में से दस्त के रूप में निकल जाता है । पर्याय-इसहाल-अ० । शिकम रवी, ! पा रथी-फ़ा। डायरिया Diarrhoea, डीफ्लक्सियो Defluxio, एल्वी फ्लक्सस Alvi fluxus, कैधार्सिस Catharsis, पगैंशन Purgation--इं० । दस्त, दस्त पाना, दस्त लाना, पेट चलना-हि, उ०। कोर्स डी वेण्ट्री Cours (le ventre, डीवायमेण्ट Devoyement-फ्रां। और डर्खफाल Der Dutchfall, बॉनफ्लस Bauchfluss, डुर्खलाफ Durchlauf -जर। परिभाषा-प्रकृतिका अतिक्रमण कर गुदा मार्ग द्वारा अत्यन्त प्रवाहित होना अति(ती)सार कहलाता है। नोट-जिस अवयव विकार द्वारा यह रोग होता है उसीके नाम से इसे अभिहित करते हैं। जैसेश्रामाशयातीसार, प्रांत्रातिसार तथा यकृदातीसार प्रभुति । इसी भाँति मल में जिस दोष की उल्व. णता होती है उसी दोष के नाम से इसे अभिधानित करते हैं। जैसे पित्तज अतिसार, कफज अतिसार तथा यातज अतिसार यादि। डॉक्टरी नोट-जब रोग के कारण दस्त श्राएं तय डायरिया और जब विरेचन द्वारा धाएँ तब उगे कथासिस तथा पगेंशन कहते हैं। ___ कोई कोई डॉक्टर इसकी रोगोंमें गणना न कर केवल इसको उपसर्ग मानते हैं । निदान भारी ( मात्रा गुरु, स्वभाव गुरु ) गुण और पाक में भारी, अत्यन्त चिकनी, अत्यन्त रूखी, अत्यन्त गर्म, अत्यन्त पतली चीजों के ख.नेसे, अति स्थूल (अति कठिन), अति शीतल, विरुद्ध ( संयोग विरुद्ध, देश विरुद्ध, समय वि. रुद्ध और मात्रा विरुद्र). अध्यशन अर्थात् एक भोजन के बिना पचे फिर भोजन करने तथा अजीर्ण और विपस भोजन करने आदि कारणों तथा स्नेह, स्वेद, वमन विरेचनादि के प्रतियोग, श्रयोग और मिथ्यायोग से, विष भक्षण, भय, शोक, दूषित जलपान, अतिशय मद्यपान, स्वभाव तथा ऋतु विपरीत और जल क्रीड़ा करने से, मल मुयादि के वेग को रोकने से तथा कृमि. दोष आदि कारणों से यह रोग उत्पन्न होता है। सु० उ०४००। मानि । सम्प्राप्ति शरीर के दूपित रस, रन, जल, स्वेद, मेद, और मूत्र श्रादि सम्पूर्ण जलीय धातु बढ़कर मन्दाग्नि को पैदा कर मल के साथ मिल जाते और वायु द्वारा नीचे की ओर प्रेरित होकर अधिक मात्रा में निःसत होते हैं, इसी को अतिसार कहते हैं। वैद्यक के अनुसार इसके ६ भेद हैं । (1) वायुजन्य, (२) पित्तजन्य, (३) कफजन्य, (४) सभिपात जन्य, (५) शोकजन्य और (६) श्रामजन्य । नोट-उपयुक भेदों के अतिरिक शाधर में भयजन्य अतिसार भी लिखा है। प्रस्तु, उनके मत से अतिसार सात प्रकार का हुअा ! वाग्भट्ट महोदय उक्र छः प्रकार के अतिसारों में नामजन्य की गणना न कर उसके स्थान में भयज अतिसार के वर्णन द्वारा उछः भेदों की गणना की पूर्ति करते हैं । वे पुनः कुल अतिसारों को दो भागों में बाँटते हैं। जैसे (१) साम और (२) निराम तथा एक सरल और दूसरा निरन । For Private and Personal Use Only Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भतिसार अतिसार कोई कोई श्राम, पक्क तथा रा नामक अतिसारों को प्रतिसार की अवस्था मानते हैं नकि स्वतन्त्र व्याधियाँ। लक्षणों का अनुशीलन करने से भयजन्य और शोकजन्य अतिसारों के लक्षण एक समान पाए जाते हैं । अतएव किमी किसी प्राचार्य ने इनका पृथक् वर्णन नहीं किया और यही प्रशस्त भी जान पड़ता है। श्राम और पक प्रतिसार की दो अवस्थाएँ हैं तथा रत. पित्तातिसार का परिणाम । इस प्रकार कुल अतिसार पाँच ही प्रकार के हुए। पाटकों की ज्ञानवृद्धि हेतु प्रब डॉक्टरी मत से | अतिसार के भेदों का, मय उनके श्रायुर्वेदिक एवं यूनानी पर्यायोंके, यहाँ सक्षिप्त वर्णन कर देना उचित जान पड़ता है। डॉक्टरो मतसे अतीसार के मुख्य मुख्य भेद निम्न हैं-- (1)श्वेतातिसार--सफेद दस्त । इसहाल श्रव्य ज-०। डायरिया पुल्या Diarrhoea Alba, हाइट आयरिया White Dia. rhoea-ई। उष्ण प्रधान देशों में साधारणतः बालकों को इस प्रकार के दस्त प्राया करते हैं। इसके कारण विशेष प्रकार के कीटाण माने जाते है।। (२) हरितातिसार-हरे दस्त | इसहाल अनजर-अ। ग्रीन डायरिया Green Diarrhera-हं० । इस प्रकार के दस्त शिशुओं को ग्रीष्म ऋतु वा दन्तोझेद काल में पाया करते हैं। (३) शिश्वतिसार वा बालातीसारबखों के दस्त । इन्फस्टाइल डायरिया Infan | tile Diurhca-इं.। (४) इल्हाल बुगनी-अ० । क्रिटिकल ; डायरिया Critical Diarrhora-ई। । जब प्रकृति किसी रोग में विकृत शेष की , रेचन द्वारा विसर्जित करती है तब उक्र प्रकार के दस्त की इस नाम से अभिहित करते हैं। (५) श्लेष्मातिसार-कफजन्य अतिसार । इस हाल बलगमी-अ० । भ्युकस डायरिया Mucous Diarrhora इं० । इस प्रकार के दस्त शरीर में श्लेष्माधिक्य एवं उनके प्रकुपित होने से प्राया करते हैं और उनमें श्लेग्मा मिली हुई होती है। (६) क्षोभजन्य अतीसार---खराशवार दस्त। इस हाल तहरयुजी-०। डायरिया क्रप्युलोसा Diarrhea Crn.pnlosa, gfiziza Eufeat Irritative Diarrhoea-इं। इस प्रकार के दस्त किसी शोभक आहार या औषध के सेवन द्वारा अंग्र में खराश होने के कारण आया करते है। क्षोभजन्य अतिसार वस्तुतः प्रादाहिक, प्रावाहिकीय तथा वैशूचिकीय आदि अतिसारों की प्रारम्भिक अवस्था है। (७) वातानिसार मास्तिकोयातिसार)मस्तिष्क के योग या विकार द्वारा उत्पन्न हुमा प्रतीसार । इस हाल दिमाशी-अ.। नर्वस डायरिया Nervous Diarrhoea, कटारल डायरिया Catarrhal Diarrhoea-इं। यूनानी मतके अनुसार वह अतीसार जो मस्तिष्क से कराठ एवं अन्न प्रणाली के रास्ते प्रामाशय में नजलह, तथा रतूबतों के गिरने से हुआ करता है। इसी कारण उसको इस्हाल नजली ( प्रातिश्यायिक अतिसार) भी कहते हैं। डॉक्टरी गत से इस प्रकार का अतिसार प्रायः मनोविकार एवं श्रान्त्रीय कृमिवत् श्राकुअन और सद्स्थानीय ग्रंथियों की क्रिया की वृद्धि के कारण हुअा करता है। इस प्रकार के दस्त बहुधा स्त्रियों एवं बालकों को प्राया करते हैं। (E) प्रादाहिकातिसार-प्रदाह जनित अतिसार । इस हाल धर्मी-अ० इन्फ्लामेटरी डायfor Juflamatory Diarrboca, चायरिया सिरोसा Diarrhoea Serosa, कैटारल एरटेराइटिस Catexrhal Enterritis ई०। इस प्रकारके दस्त सामान्यतः श्रौत्रीय श्लैस्मिक कलाओं के शोथ से लौर कभी यकृष्प्रदाह के कारण पाया करते हैं। (६) वैशूचिकीयातिसारइस्हाल मानिंद हैजा-अ। कॉलरीफॉर्म For Private and Personal Use Only Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अतिसार अतिसार बायरिया Cholariform Diarrhoea, कॉलरिक डायरिया Choleric Diarrhoea, थर्मिक डायरिया Thermic Dia. Trhea-t01 उमा प्रधान देशों एवं ग्रीष्म ऋतु में आहार विहार ग्रादि योग के कारण प्रायः इस प्रकार के दस्त धाया करते हैं। इसमें विसातिसार एवं विचिका के बहुत से लक्षण मिलते जुलते हैं। (१०) प्रातिनिधिक प्रतिसारइस्हाल बिजो-अ० । विकेरियस डायरिया : Vicarious Diarrhæa-or वर्षा ऋतु में शीतल वायु के कारण स्वेदा- . वरोध हो जाने से श्रथवा किसी प्रवृत्त हुए रतूबत के बन्द हो जाने से इस प्रकार के प्रातिनिधिक दस्त प्राने लगते हैं ! (११) पित्तातोसारपित्त के दस्त । इसहाल सरांची-अ.. बिलियरी या बिलियस डायरिया Biliary : OT Bilious Diarrhoea-इं. उणा प्रधान देश तथा ग्रीस ऋतु में प्राहार प्रादि दोष के कारण प्रायः इस प्रकार के दस्त पाया करते हैं। ऐसे दस्तों की श्रादि में पित्त के : घमन भी श्राते हैं। (१२) गिर्यातिसार - पर्वती अतीसार । हिल डायरिया Hill Diarrho:1-10 अतिसार का वह भेद जिसमें दस्त बिलकुल सफेद खड़िया मिट्टी और जल के मिश्रण जैसा । पतला होता है। (१३ ) चिरकारी व पुरातन अतिसार पुराने दस्त । इस्हाल मुजिमन-ऋ० ।, *rfata graftar-Chronic Diarrhoa : -इं०। नोट-- प्रसंगवश यहाँ डॉक्टरी मत से सामा- न्य परिचययुक्त प्रतिसार के कतिपय भेदों का उल्लेख कर अब आयुर्वेदीय मत से इसके अलग ।। अलग भेदों श्रादि का पूर्णतया वर्णन होगा। अन्त में इसकी सामान्य चिकित्सा व पथ्य प्रादि देकर इस वर्णन को समाप्त किया जाएगा। इसके पृथक पृथक भेड़ों की चिकित्सा क्रम में उन उन नामों के सामने दी जाएगी। यूनानी वर्णन एवं भेद के लिए देखिए---इस्हाल । अतिसार के रूप जिम मनुष्य को प्रतिसार होने वाला होता है. उसके हृदय,गुदा और कोष्ठ में सुई चुभाने की सी पीड़ा होती है; शरीर शिथिल पड़ जाता है, मल्ल का विवंध अर्थात् मलावरोध, प्राध्मान, और अन्न का अपरिपाक होता है। वा. नि. १०। माधव निदान में नामि तथा कुक्षि (कोस्य) में सुई छिदने की सी पीड़ा और अधेविायु का रुक जाना, इतना अधिक लिखा है। अतिसार के लक्षण (1) वातातीसार-इसमें जलबत् थोड़ा थोड़ा शब्द (गुड़गुड़ाहट ) और शूल से य बँधा हश्रा झागदार पतला, छोटे छोटे गांठों से युक्र, बराबर जले हुए गुड़ के समान, पिच्छिल, (चिकना), कतरने की सी पीड़ा से संयुक मल निकलता है। इसमें रोगों का मुख सूख जाता है । गुदा विदीई हो जाती ( गुदभ्रंश ) और रोमांच होता है। रोगी कुपितसा मालूम होता है। वा.नि.प्र. माधव निदान में ललाई लिए हए रूखा मल उतरना. कटि. जाँघ और पिंडलियों का जकड़ना ये लक्षण अधिक लिखे हैं। (२) पित्तातिसार ... इसमें दस्त पीले व लाल रंग के होते है, गुदा में जलन तथा पाक हो जाता और रोगी प्यास और मूर्छा से पीड़ित होता है। मा०नि० । वाग्भट्ट महोदय ने काला हरा, हरी दृषके समान, रुधिरयुक, अत्यन्त दुर्गधि युक्र दस्त होना, दस्तों से रोगी की गुदा में दर्द होना, शरीर में दाह और स्वेद होना ये ल. क्षण अधिक लिखे हैं। (३) कफातिसार-इसमें मल सफेद, गाढ़ा, चिकना, कफ मिति, श्रामगन्धियुक्र प्राता तथा रोमहर्ष होता है। मा०नि० | कफातिसार में गाढ़ा, पिच्छिल तन्तुओं से युक्र, सफेद स्निग्ध, मांस और कफ युक्र, बारबार भारी For Private and Personal Use Only Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अतिसार २४॥ अतिसार (जल में डूब जाने वाला), दुर्गन्धि युक, विबद्ध, निरन्तर वेदना युक्र, प्रवाहिका से युक्क थोड़ा थंडा दस्त होता है। इसमें रोगी को निद्रा, श्राल स्य, अन्न में अरुचि, रोमहर्ष और उलश होता है।। वस्ति, गुदा, और उदर में भारीपन होता और दस्त होने के पीछे भी ऐसा मालूम होता रहता है कि दस्त नहीं हुआ है। वा०नि० ८ श्र.।। (४) त्रिदोषज वा सान्निपातिकातिसार शूकर की चरबी के समान व मांस के धोए | पानी के सदृश तथा वातादि तीनों दोषोंके लक्षण जिसमें हो अर्थात् जो दोपत्रय से उत्पन्न हो उसे सानिपातिकातिसार कहते हैं। यह कष्टसाध्य होता है । मा०नि० । वा०नि० - १०। (५) शोकातिसार के लक्षण-- जो प्राणी पुत्र, स्त्री, धन, बांधवादि के नाश होने से अति शोक युक्र होकर अल्प भोजन करते हैं, उनकी बाप्पोमा नेत्र, मासिका, कण्ठ आदिका पानी धायुमे को में प्राप्त हो अग्नि को मन्द कर । रुधिर को दूषित कर देती है जिससे धुं घची के समान लाल रुधिर गुदाके मार्ग होकर विष्ठा मिला हुआ या विष्ठा रहित, निर्गन्ध वा गन्धयुक्त . निकलता है। शोक जनित अतिसार प्रायः अति कठिन होता है। कारण यह शोकशांति हुए बिना केवल औपधों से शांत नहीं होता, इस लिए इसे कष्टसाध्य मानागया है । मा० नि० । नोट---एक भयज अतिसार भी होता है जो भय द्वारा चित्त के क्षोभित होने पर पित्त से संयुक वायु मल को पतला कर देता है, तदनन्तर वात पित्त के लक्षणों से युक परन, पतला, प्लवतायुरु जल्दी जल्दी मल निकलता है। इसमें प्रायः शोकातिसार के लक्षण घटित होते हैं। वा०नि०:०। (६) आमातिसार - जब अन्न के न पचने के कारण प्रकुपित हुए दोष (वात, पित्त और कफ) अपने मार्ग को छोड़कर कोड, रसादि धातु तथा मल को दूषित कर बारबार गुदा मार्ग से अनेक प्रकार के मल बाहर निकालते हैं, तब उसको आमातिसार | कहते हैं । इससे रोगी के पेट में अत्यन्त पीड़ा होती है। (७) रक्तातिसार पित्तातीसार रोगी यदि अत्यन्त पित्तकारक द्रव्यों का भोजन करे तो उसको निश्चय रूप से रकातीसर रोग हो । रातिसार के धातजादि विशेष लक्षण उपयुक्र अतीसार के लक्षण के समान होते हैं। अतीसार रोग में अंतड़ी श्रादि में घाव होने से भी मल के साथ रक गिरता है। रोग विनिश्चय कुछ व्याधियाँ ऐसी हैं जो अतीसार से बहुत समानता रखती हैं । अतएव इसके ठीक निश्चीकरण में बहुधा भ्रम हो जाया करता है । वे निम्न है-- १-विशूचिका वा वैशूचिकातिसार, २-ग्रहणी, ३-प्रवाहिका और-मलावरोध जन्य भामाशयस्थ श्लैष्मिक कलाओं का लोभ । यहाँ पर अतीसार के साथ इनकी तुलनात्मक व्याख्या कर दी जाती है जिससे अतीसार एवं उक्र व्याधियांके ठीक निदान करने में सुविधा रहे। (1) अतीसार के प्रारम्भ में मल संयुक्र किन्तु पश्चात् को नल संयुक्र एवं पतले दस्त श्राते हैं और उनका रंग प्रारम्भ से अंत तक पीला अथवा दोपानुसार विविध वर्ण मय होता है। परन्तु विशूचिका में मल संयुक्र न रहकर केवल सड़े कोहड़े के जल की भाँति पतले दस्त श्राते हैं। __ अतिसार अपने उत्पादक विशेष कारणों से उत्पन्न होता है। पर विशूचिका में स्पष्टतया कोई विशेष कारण लक्षित नहीं होता। इसमें यमन और पेशाब बन्द हो जाते हैं और रोगी शीत असीम निर्बलता का अनुभव करता है। प्रतीसार में प्रायः ऐसा नहीं होता। मल में पित्त का पाया जाना सदा अतीसार का सूचक है। विशूचिका में वमन बहुत श्राते हैं और वे एक वर्ण रहिन इव होते हैं । अतीसार में वमन बहुत कम पाते हैं और जब कभी श्राते भी है तो उनमें पित्त अथवा अजीर्ण आहार को कुछ अंश विद्यमान रहता है For Private and Personal Use Only Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अतिसार अतिसार (२) ग्रहणी-पाहार के पचने पर च्याधि । द्वारा अतिशय साम या निराम मल निकलना अतीसार कहलाता है। अत्यन्त मल निकलने के कारण इसको अतीसार कहते हैं. यह स्वाभाविक ही शीघ्रकारी है। परन्तु, ग्रहणी रोग में भुन अन्न के श्रजीर्ण होने पर कभी श्राममाहित और कभी मान्न । (भुक अन्न ) मल निकलता है। अन्न के जीर्ण । होने पर कभी पक्क मल और निकलता है और कभी कुछ भी नहीं निकलता । कभी बिना। कारण ही बारबार बँधा हुश्रा और कभी ढीला दस्त होता है । यह रोग चिरकारी होता है । और मल इकट्ठा हो होकर निकलता है। अतीसार और ग्रहणी में यही अन्तर है। ग्रहणी चिरकारी है और रातीसार आशुकारी है। (३) प्रवाहिका ( Dysentery). नाना विध द्रव धातु का अचुर परिमाण में . निकल ना अतीसार और केवल कफ का निकल ना । प्रवाहिका कहलाती है । वरांश, मरोड़, गुदा में : एक अवण नोय वेदना की अनुभूति होना, प्रायः अल्प मात्रा में ग्राम व रक्तमिश्रित मल का निकलना प्रवाहिकाके सामान्य लक्षण हैं । यद्यपि प्रारम्भिक अवस्था में कभी कभी अतीसारवत प्रचुर मात्रा में जलीय वा मल मिश्रित दस्त श्राते हैं, पर मरोड़ आदि प्रवाहिका के पूर्वोक्र लक्षण तथा अन्त्रपुट एवं सरलांत्राधः भागका अदु स्पर्श रोग के प्रावाहिकीय स्वभाव को प्रगट करते हैं। रोग के पूर्व इतिहास में उग्रवाहिका का अ.. भाव पाथवा श्लेष्मा एवं गुदस्थ थेदनानुभूति का न . हो- श्रीर मल के साथ का कम ग्राना श्रादि लक्षण अतीसार सूचक है। (४) मलावरोध के कारण बिलकुल अनीसार के समान ही अवस्था उपस्थित हो सकती। है... प्रायः पतली श्लेप्मा व मल मिति दस्त श्राने लगते हैं। परन्तु, अन्वेषण करने पर थे। मात्रा में कुछ कम पाए जाते हैं। प्रतासार के पक अथवा अपक्क होने के लक्षण স্বথা (सामत्व या निरामत्व ) वह मल जी पूर्वाक वातादि लक्षणों से युक हो तथा जल में डालने से इस जाल और अति दुर्गन्धित या पिच्छिल (लसदार ) हो उसको श्राम या अपक्क कहते हैं। साम तथा निराम भेद से अतीसार को दो वगा में बाँटते हुए बाग्भट्ट महोदन साम अर्थात् श्रामातीसार के मल को इसी प्रकार का होना बतलाते हैं। वे और भी कहते हैं कि इसमें रोगी के पेट में पीड़ा, गुड़गुड़ शब्द होना, विष्टभ या खट्टा पाम्बाना होना, लार से मुंह भरा रहना एवं मल बदबूदार होना ग्रादि लक्षण होते है। ___इसके विपरीत जब देव हलका हो, मल जल __ में न डने और दुर्गन्धि एवं लुभाव रहित हो तब उस मलको पक्र मल कहते हैं। वाग्भट्ट महोदय ने इसे निरान लिखा है और वे लिखते हैं कि निराम के लक्षण साम से विपरीत होते हैं, कफजन्य होने के कारण पक्क होने पर भी यह जल में इब जाता है । इसे निरामातीसार बा पकातीसार कहते हैं। अतिसार की असाध्यता जिस अतीसार रोगी का मल पके जामुन के समान काला, यकृत् पिरड के समान कृष्णलोहित वर्ण का, साफ तथा वृत, तेल, वसा, मज्जा, वेगवार (पक मांस विशेष) के रंग का, दुध, दही तथा धुले हुए नांस के जल के समान वर्ण का, चित्र विचित्र रंग का, दिकना, मारकी पूंछ को चन्द्रिकाके बदरा बर्णका, धन (भारी), मुर्दा की सी दुर्गन्धियु, सस्तक की नजाके समान गंधयुकः ( माकस्थित स्नेह तुल्य गाभायु), उत्तम गंध या दुगन्धियुः अत्यधिक मल निकले और जिसके दाम, दाह, अंधेरा गाना, श्यास, हिचकी, पावशल, शस्थिशून, इंद्रियों मे मोह, अनिच्छा, मन में माह थे लक्षण हों तथा जिसकी गुदा की बलिया (यो) पक गई हों और जो अनर्थ भापण करें ऐसे अतीसारी को वैद्य छोड़ दे। अपरञ्च जो मलद्वार धोने में असमर्थ हो जिसके बल व मांस कीण हो गए हों, For Private and Personal Use Only Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अतिसार श्रतिसार अत्यन्त राहो, सूजन हो, अनिसार के उपइवयुका जिसकी गुदा पक गई हो और शरीर शीतल हो उसको वैद्य त्याग दे। और भी जी मनुष्य श्याम, शूल तथा प्यास से पीड़ित हो, बल मांस हीन हो तथा स्वर से पीडितहो उसका और विशेष कर वृह रोगी का अतीसार नाश कर अतिसार निवृत्ति के लक्षण जिस मनुष्य के मल से भिन्न मृत्र उतर अर्थात् दोनों की क्रियाएं पृथक पृथक हों, मल अलग उतरे और मूत्र अलग, शुद्ध अपानवायु खुले, । अग्नि दीप्त और कोठा हलका हो उसको अती. सार से मुक जानना चाहिए। अतोसार को सामान्य चिकित्सा प्रतीमारी को सुखपूर्वक शय्या पर लिटाए रखें और उसके शरीर को गरम रखें । रोगारम्भ काल से २४ घंटे पश्चात् तक उसे किसी प्रकारका ! श्राहार न दें, प्रत्युत उपवास रूप लंघन कराएँ।। यथा वाग्भट्टः अनीसारोहि भूयिष्ठं सवत्यामाशयान्वयः हत्वाग्नि वातजेऽप्यस्मात्माक तस्मिन्लंघनं : हितम् । वा. चि० अ०६ । अर्थात्-अग्नि को मन्द करके अतिसार रोग प्रामाशय में उत्पन्न होता है, इसलिए यातज अतिसार में भी प्रथम उपवास रूप लंघन देना हित है। अपि शब्द से कफादि जन्य अतिसार में भी लंघन हित है । प्राक् शब्द के प्रयोग से यह समझना चाहिए कि उत्तर काल में लंघन कराना हित नहीं है ।। अपरञ्च यदि रोगी बलवान हो तभी लंघन भी कराना चाहिए । अन्यथा दुर्बलता की दशा ! में लधु पथ्य (पाचक तथा अग्निसंदीपक ) की | व्यवस्था करनी चाहिए। अस्तु, केवल क्वथित कर शीतल किया हुश्रा जल, फाद्दे हुए दृध का पानी तथा पत्र, अतीस, नागरमोथा, पित्तपापड़ा, नेवाला, और सोंठ, | इनमें से किसी एक के साथ पकाया हुया पानी १ छ. की मात्रा में ३-३ घंटा पश्चात् रोगी को तृषा उत्पन्न होने पर देते रहें। २४ घंटे पश्चात् सुधा लगने पर उपयुक्त भोजन काल में उसको अधोग तरल आहार २-२ छ, की मात्रा में ३-३ घंटा के अन्तर से है। हलकं अन्न से रोगी की शीन हो अन्न में रुचि बढ़ जाती है और उसकी जयराग्नि प्रदीप्त तथा देह बलिष्ट होता चला जाता है। अतः पका कर शीतल किया हुया दुध उत्तम श्राहार है। उन दूध में ३ ग्रेन सोडियम् साइट्रेट प्रति १ ई० दृध में मिलाकर देना उपयोगी होता है। अथवा पावभर दृध में ३० बुद मधुर चूर्णादक (मीठा चूने का पानी) मिलाकर देना लाभदायक है। यदि दृध से उदराध्मान हो तो दूध के स्थान में अरारोट या सागू (साबूदाना ) पका कर दें। पुनः मूंग के दाल का पानी, दाल भात, शोरबा चावल, खिचड़ी और दूध तथा पाव रोटी प्रभति भी सकते हैं। अतिसार रोगो को जल के स्थान में तक्र. पेया, तर्पण, सुरा और मधु यथा सात्म्य अर्थात् प्रकृति के अनुकूल व्यवहार कराएँ । पके केले को जल में भली भाँत्ति मल छान कर पुनः कित्रित मिश्री मिला कर श्राहार के स्थान में व्यवहार कराते रहना अत्युपयोगी है। उसके आहार में ग्राही, अग्निसंदीपक और पाचन प्रोपधियों का समावेश होना अत्यावश्यक है। उक्त प्रतीकारों द्वारा जब रोग शमन हो जाए तब रोगी को क्रमशः उसके पूर्व श्राहार पर ले झाएँ । परन्तु, अधिक जल वा दुग्ध से परहेज रखें। मीठे अनार का स्वरस थोड़ी मिश्री मिलाकर देना रोगों के बल का रक्षक एवं आमाशय की क्षोभ का नाशक है। और किसी वस्तु को न देकर केवल इसको ही देते रहना पर्याप्त है। उपचार चिकित्सक को रोगी तथा रोग की दशा की भली प्रकार परीक्षा करने के पश्चात् खव सोच समझ कर ही किसी औषध की व्यवस्था करना उचित है। प्रारम्भ में ही किसी संग्राही घोषध को देकर तरक्षण दस्त बन्द कर देना उचित नहीं। यथा For Private and Personal Use Only Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अतिसार अतिसार २५२ प्रयोज्यं नतु संग्राहि पूर्वमामाति सारिणि । ___ या चि० अ०। क्योंकि पहली दशा में धारक औपच द्वारा ! मलनिरोध करने पर पेट फूलना, ग्रहणो, ' बवासीर और शोथ प्रति उत्पन्न हो सकते हैं। परंतु दस्त होजानेपर भी यदि दोपोंकी प्रबलता रहे वा रोगी शिशु, वृद्ध अथवा दुर्बल हो तो पहिले ।। ही से धारक औषध का प्रयोग करना चाहिए । यदि रोगी शूल यामाह और प्रसेक से पीड़ित . हो तो उसे दमन कराना हित है। और यदि बोप । अत्यन्त वृद्धि को प्राप्त होगए हों तथा विदग्ध अर्थात् पक्कापक याहारने मिलकर अतिसार उत्पन्न करते हो तो उसस्य उत्तशजनक अर्थात् अतिसार को उत्पन्न करने में समुद्यत और बिना यत्न ही चलने में प्रवृत्त हुए दोयों में पाचनादि किसी श्रीपध का प्रयोग न करके केवल ५ध्य अर्थात् हितकारी श्राहार का ही सेवन कराना उपयोगी पर यदि मलावरोध के कारण थोड़ा थोड़ा मल निकलने से उदर में अफरा, भारीपन, शूल तथा स्तिमिता उत्पन्न हो अथवा उदर में कोई क्षोभक दृष्य या अजी या सड़ा गला याहार हो तो सर्व प्रथम किसी सामान्य मदभेदक ग्रीषध को देकर पेट को साफ़ करना चाहिए। फिर दस्तों को रोकने के लिए धारक औषध का व्यवहार करना उचित है। पकानिसार थाम के पके हुए होने को दशा में प्रथम बार बार मृदु धारक धीर वाद को बजवान धारक श्रौषध व्यवहार करनी त्ताहिए ! अत्यन्त निर्बलता की हालत में उत्तेजक औ. षध यथा सुरा ( ब्रांडी ) जेल में मिलाकर देना , लाभदायक होता है। अब स्वानुभूत बहुशः योगों में से यहाँ कतिपथ ऐसे योगों का उल्लेख किया जाता है जो अतिसार की प्रत्येक अवस्था की चिकित्सा में प्रत्युपयोगी सिद्ध हो चुके हैं और सहस्रों बार परीक्षा की कसौटी पर आ चुके हैं। मात्रा रोगो, रोग तथा अवस्था प्रादि के अनुसार न्यूनाधिक हो सकता है। इनको कोः, शुद्धि पश्चात् ही देना चाहिए, योग निम्न हैं: (1) अवयय-सफेद राल, अतीस, मोच. रस, दालचीनी, छोटी इलायची के बीज, कपूर, अजवायन और सफेद जीरा । निर्माण-विधिइन सबकी समभाग लेकर चर्चा करें फिर खट्टे अनार के रस में भली भोति १२ घंटे तक स्वरल कर के चना प्रमाण गोलियाँ बनाएँ। अनुपान-जल, थकं सौर और अर्क पुदीना। (२ ) अवयव-वटांकुर, अहिफेन शुद्ध, हींग धी में भुनी हुई, जीरा भुना, शंख भस्म, सुहागा भस्म और पोदीना। निर्माण-विधिइन सबका चूर्ण समान भाग लेकर कहा की छाल के रस की सात भावना देकर एक रत्ती प्रमाण की गोलियाँ प्रस्तुत करें। सेवन-विधि---खट्टे श्रनार के रस के साथ अावश्यकतानुसार १ या २ वटिका दिन में २-३ बार दें। (३) अवयव-भङ्ग, छोटी इलायची, सफेद जीरा, जायफल, कपर, अनारदाना तुशं और कौड़ी की भस्म । निर्माण-विधि-इनको समान भाग लेकर बारीक चूर्ण कर रखें। सेवन-विधि व मात्रा-३ रत्ती से १ माशा तक उक चूर्ण को अर्क पुदीना के साथ सेवन कराएँ। ( ४ ) मेथी भुनी, जीरा भुना, रूमी मस्तगी, कपूर, इन्द्रयय, जामुनको गुटली और ग्राम की गुली । इन सबको समभाग लेकर बारीक चूर्ण करें और जितना यह चूर्ण हो उतनी ही मात्रा में शब्द भाँग का चुण मिलाकर कागदार बोतल में युरक्षित रस्ने । मात्रा-च्चों को ग्राधी रत्ती से १ रत्ती। पूर्ण वयस्क मात्रा-२ रत्ती से मासा तक । श्रनुपान-अर्क पुदीना और अर्क सौंफ । शूलयुक्त अतिसार मेंसत अजवायन, सत पोदीना, जौहर नौसादर, For Private and Personal Use Only Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अतिसार अतिसार जीरा सफे। भुना हुअा और सौं: प्रत्येक २-२ अनपान-इसकी एक माना द्विगुण मो०, छोटी इलायची दाना ६ मा०, शंख भस्म शुद्ध .ल में मिलाकर रांगानुसार दिन में तीन १ तो०, कौड़ी भस्म १ तो. और मूली का हार ! बार अथवा तीव्रता की हालत में २-२, ३-३, १ सो । निर्माग-विधि--इन सबको पुदीना घंटे के अंन्तर से । के रस से बारह प्रहर घोट कर सुखा लें । पुनः । उपयोग-इसे अतिसार की प्रत्येक अवस्था चूर्ण कर शीशे के कागदार बोतल में वायु में दे सकते हैं । यह उक रोग को रामबाण श्री. से सुरक्षित रखें । मात्रा-१ रत्ती से ६ रत्ती पध है और शतशोऽनुभून है। तक। नोट- अतिसार के अन्य भेदों की चिकित्सा अनुपाज-राद्ध जज । गुग--3 प्रकार के पादितथा योगों को क्रम में उनके पर्यायों के शूल तथा अन्य सभी प्रकारके उदर शूल की दशा सामने देखिए। में इसकी एक मात्रा देते ही तत्काल शूलकी शांति अतोसारमें प्रयुक्त होनेवालो पोषधियाँ ( श्रायुर्वेदीय तथा युनानी) डॉक्टरी योग (1) सोडा बाईकाई . अमिश्रित 1 ग्रेन सिरिट श्रमानिया ऐरोमेटिक २०मिनिम (बुद) सुगंध वाला, लवंग, नीलोत्पल, (निलोफर), स्पिरिट ओरोफा ५ मिनिम उशीर (खस), लोध, पाा, वच, चिरायता, धय. लिंकवर काई को २०मि. पुष्प ( धातकी), दाटिम्य अर्थात् अनार की छाल टिंक्चर केनाबिस इरिडका ५ मिनिम (रस, पत्र, फलत्वक और बीज), सप्तला; (चिरएका एनिस १ ग्राउंस . कारो वा पुरातन ) अगारी फून, विल्य, सप्तयह एक मात्रा है। पर्ण, भंग, भंडखरबूजा, काफी (मले क्षफल ), ऐसी ही एक एक मात्रा दिनमें तीन बार देनी दा, जामुन ( जम्बु ) सरपुखा, निर्मली चाहिए। ( कतक ), हरीतकी, 'अंगूर वा लाल मुनक्का, उपयोग--यह अतिसार के लिए सदोत्कृष्ट . चौलाई ( तण्डुलीय ), सीताप.ल ( शरीफ़ा), वायुनिःसारक औषध है। सुपारी, समुद्रफल, समुद्रशोष, कचनार, पलास (२) सिस्टि कोरोफॉर्न निर्यास ( कमरकस, ढाक का गोंद), पतंग, देव५ डाम दारु, दालचीनी, जावित्री, नागरमोथा, कसेरू, स्पिरिट अमोनिया ऐरीमैटिक डाम तिन्दुक, गाजिह्वा, श्रामला, कपिन्थ और भूम्या. टिंकचर भोपियाई मलकी; (उग्र व पुरातन) ईसबगोल का " कैनाबिस इरिटका छिलका, कुड़ा की छाल, इन्द्रजौ. राजन, कानन, " काई को एरण्ड, जगम हयात (घाव पत्ता), चन्द्रसूर, " कचियाई 1 ड्राम श्राम्र ( बीज व छाल तथा निर्यास), कायापुरी " कैटेक्यू १ ड्राम और केला; (बेशुचिक तथा ग्राम ) जायफल, रैक्टीफाइड स्पिरिट ८ अाउंस नीबू का रस, सन्तश का रस, मेंहदी, कृष्ण शुगर प्योर ( शुद्ध शर्करा ) ६ पाउंस जीरक, कमल, कपूर, दरियाई नारियल, जहर इनको भली प्रकार मिलाकर स्टॉपई (शीशे : मुहरा ख़जाई, अर्क सौंफ, प्रकं दीना (अर्क के कागदार ) बोतल में रखें। __ माना ) अहि फेन, पत्थर का फूल, करन, पीतशाल मात्रा-पूर्ण वयस्क मात्रा, १० से ३० वुद . साल बीज, रुद्राक्ष, अजवाइन, माजूफल और कतक | बालक को, २ से १० वुद तक ( अवस्था- ! तक, (दामोद्रेजन्य) चन्दचीनी, और चूणोदक; नुसार)। । (व लातीसार) काकड़ासिंगी, और एरण्ड तेज, १ दाम २ ग्राम For Private and Personal Use Only Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अतिसार श्रनिसार अनीनः (वनज्यगतासार ) श्रगतिया को . रकतो ण, स्थानि, लाइकर फेरि पर नाइटिस, जाति के वृक्ष, साल, रोहिना और सन; (एटो- लाहकर फेरि पर जोराइड, लादकर हाइडार्ज, निक अर्थात् प्रामाशयनैल्य जन्य) कुचिला, श्रा- विस्ट्रिाम बिरिडि, सैलिसिलेट, सिमा रियुबा, सन प्रभृति, पिर डगर भेद, अर्जुन, बहेड़ा, निर्याक मल्फ्युरिक एसिड, सयमाइदि, सोडियाई जोरा. फारुक, जंगली कानी मरिच प्रादि और ऋग.टक : इडम् (संप्रय), सल्फर (गंधक), सैलील, हाइड्र्ज (सिंबादा प्रभति); (बालतिक) सम्भालू प्रभति, . को सब सब्लि मेट और हिमेटिक सिल्लाइ । भ्रातकी (धवपुर ), मेश्री, अन्तमल ( जंगली . पिकवन ), मूत्र ( ऋष का ), पाईक ग्रोर बदरी : (बालातीसार में )--थर्जेरटाई नाइट्रास प्रमति । इपिकाक्वाना, एसिड सल्फ्युरिक डिल, प्रोपि यम् (अहिफेन), कलम्बा, काफी, कम्फर अतिसार में प्रयुक्त डॉक्टरा। श्रौषध (कपुर ), कुमाई सल्फास, कम्पेरिया, करोसिव सबिलमेट, जिन्साइ बाक्साइडम्, नाइट्रिक एसिड अगल, (पपित्त) अर्जेरटाइ नाइट्रास, अर्जेण्टाइ : डाइल्युटेड, पेप्सीन, प्रम्बाई गसिटास, माप्टिक, कोराइडम्, पार्सेनिक (सखिया), ग्राइल टेरे- : बिस्नथाई कार्य, टिंकचर केनाबिस इण्डिका, बिन्थीनी (निराध तेल ), परिका ( सुपारी), स्युबाई, लाइकर हाइ डार्ज, लाह कर कैल्सिस, पाल्सटोनिया (सप्तप), युवी अर्साई (रीछ । लाइकर फेरि पर नाइट्रिस, सैलोल, हाइड्रार्ज कम दाख ), इयेप्ट ( सुरावीज), इपिककाना, ईसब क्रीटा, हाइड्रार्ज करोंसिव सब्लिमेट । गोल, प्रसिद्ध नाइट्रिक ( शोरकाम्न ),. इन्फ्युजन लाइनाई ( पतसो फांट );' नोट--अतिसारक योगों का वर्णन क्रमागत इसके भेदों की चिकित्सा लिखते समय किया एकारस ( बच ), एलम ( फिटकरी ), जाएगा। अकेशिया ( क्रीकर ), पापियम् (अफीम), | एसिड सल्फ्युरिक डिल (जलभितिगंधकान्ल ), : অনিমা নাহা গল্প যান अकेशिया कैटेचू ( खदिर ), क्युमाई अमोनिया ' नेत्रवाला, अदरग्ब, नागरमोथा, पित्तपापड़ा सल्फास, कन्या, कालोनिक मसिड (कज और बस इन्हें पकाकर वस्त्र से छानकर पिलाएं, लाग्ल ), कारोफार्म (संमोहिनी), केम्फर । क्षुधा लगने पर नियत समय पर लाजामण्ड ( कपूर ), केनाधिस इरिका ( भंग ), कैल्सिस । कार्यनास, करिसस हाइपोफॉस्फॉस, कैलाट्रापिस, | शानपणी, पृष्टपी, बड़ी कटेरी, छोटी कटेरी, काफी, कैप्सिकम् ( लाल मिर्च ), कैटाक्यु । विरेटी, गोखरू, पाटा, सौर, धनिया इन्हें भोजन (खदिर), कैसकेरिला, कुर्चि ( कुटज त्वक् ), ! के साथ काय कर देने से अतिसार शांत होता है। क्रियोज़ोट, क्युप्राई सरुफ.स (ताम्र पंधिद)। शालपर्णी, खिरेटी, वेलगिरी, पृष्टपणी इनसे कम्पेरिया, कैस्टर प्राइल (एरण्ड तैल ), । सिद्ध की हुई पेपा नीबू तथा अनार का रस डाल काइनो (विज (सारनिर्यास), क्यासिया, कोपर्कस, कर पीने से कफ और वित्तातिसार दर होता है। गाय, गैलिक एसिड (माज्वाम्ल ), डिकवट ग्रेनेटा, श्रामातिसार से पीड़ित रोगी को प्रथर संग्राही ज़िन्साइ सल्फास, ज़िन्साई आक्साइडम्, तथा कब्ज़ करने वाली कोई भी श्रीपब कदापि टैनिक एसिड ( कपायिनाल ), नाइट्रो हाइदा | मदे, क्योंकि ऐसा करने से श्रादि में ही दोष कोरिक एसिड, नक्सवामिका ( कुचिला), पोटास ! वध्य हो जाने से शाय, पांडुलोहविवद्धन, कुष्ट, सरुफ्युरेटा, लम्बाई एसिटास, पलास गोंद, गुल्न, उदरशूल,ज्वर, दण्डक,अलसक, प्राधमान, माइरिष्टिस, मैटिको, फेरम ( लौह ), विस्मथम प्रशं, संग्रहणी इत्यादि रोग पैदा हो जाते ऐल्बम, विस्मथाई टैनास, बाबुई तुलसी, वेल, हैं। जिनका दोष वृद्धि होकर बल, धातु अधिक For Private and Personal Use Only Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अतिसारकी २५.५ क्षीण हो गए हों तथा ग्राम भी जाता हो तो उसे क्रमशः स्तम्भित कर देना उचित है। जिस रोगो को थोड़ा थोड़ा धा हुआ शूल सहित दस्त प्राते हो ऐसे रोगी को हड़ और पिप्पली की चटनी द्वारा लघु विरेचन देना चाहिए। चक द० अते चि० । अतिसारको ati-sataki-० श्रि० ) - ० अतिसारी ati-sari अतिसार रोगी ( Dysenteric, afflicted with dysentery; Cathartic ) चं० श० । अतिसारकुठारः atisárakutharah-सं० पु० बड़ी इलायची, बच्छनाग, धतूर के बीज, सुहागा, इन्द्रजी, जीरा, सोंठ, ग्रहिफेन, नागभस्म, धत्रपुध, तीस, करज के बीज प्रत्येक समान भाग चूल कर धर के पत्र के रस में घोटकर सुखाकर चूर्ण कर लें। मात्रा - १-३ रती । श्रनुवान शहद | यह शिवजी का कहा योग है। बा० । श्रतिसारनः atisaraghnah सं० पुं० क्षेत्र पापड़ा, खेतपापड़ा, दन पापड़ा - हिं० क्षेत्र पर्यटक-सं० | (Oldewlandia biflora, Ror%. ) वे० श० 1 श्रतिसारो atisaraghui-io स्त्री० प्रतिसार नाशक औषध, श्रतीस ( Aconitum heterophyllum, Wall.) fa. प्रतिसार दलनोररूः atisáradalano-Tasahi--सं० पु० (1) पारा, गंधक, बच्छनाग प्रत्येक समान भाग ले चित्रक के काव्य के साथ पीलें, फिर इसे कौड़ियों के भीतर भरें। उन कौड़ियों के मुखों को पिसे हुए भिलावों की लुगड़ी से करके हाँडी में र उनका मुख बन्द कर और इस तरह जंगल कंडों में पका । इसी तरह तीन पुट देने से सिद्ध होता है। मात्रा - ३ रत्ती । गुण- अतिसार, संग्रहणी, शूल और मन्दाग्नि को नष्ट करता है। अनुपान - भाँग और जीरा | र०या० सा० 1 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रतिसाविदारणम् (२) तूतिया, पारा, वच्छभाग, गंधक, शंख भस्न, अकरम, अफीम और धतूरवीज प्रत्येक समान भाग लें । फिर भोंग के रस और समुद्रशोष से पृथक पृथक सात सात भावना दें। मात्रा१ रती । गुण-सम्पूर्ण श्रुतिसारों को दूर करता है । रसायन सं० प्रतिसाराधिकारे । अतिहि रः atisara-nrisinharasah--रुः० पृ० शुद्ध यहिफेन २ तां०, शुद्ध पारद १०, शुद्ध व १ लो० प्रथम पारद, गंधक की कली कर पुनः अहिफेन भित्ति कर भंग के रस से मर्दन करें। इसी तरह धत्तूर के रस से मर्दन कर १ रत्ती प्रमाण गालियाँ बनाएँ । इसे जायफल के साथ देने से घोर प्रतिसार दूर होता है । वृ० रसरा० सु० । अतिसार भेषजम् atisára-bhosha.jam - सं० को ० ( १ ) लोध - हिं० 1 लोध्र--सं० । ( Symplocos racemosa ) । (२) तोगनिवारक औषध । अतिसारघ्न, अतिसार नाशक औषध ! (Anti lysenteric ). अतिसार भैखinst atisara bhairavivati-सं० स्त्रो० जावित्री, लवंग, सोंठ, शीततीनी, चन्दन, केशर, पीपल, अकरकरा प्रत्येक समान भाग लें, फिर चूरा कर पुनः पारा भस्म, श्रहिफेन जावित्री के बराबर ७ जिला कर १ प्रहर तक खरल कर ३ रत्ती प्रमाण की गोलियाँ बनाएँ । अनुपान-चावल का पानी । गुण-यह सम्पूर्ण प्रतिसारों को नष्ट करती है । ० ८०सु० प्रतिसारे । frencacy: ati-sá ca-várana-rasah - सं० पु० तितार में प्रयुक्रहोने वाला रम । सिंगरफ, पक रत कपूर, नागरमोथा, इंद्रयव इनकी तुल्य भाग लेकर कशी अफीम के पानी की ७ भावना है। इसको यथायोग्य अनुपान और उचित मात्रानुसार सेवन करने से हर प्रकार के अतिसार नष्ट होते हैं । ० सा० सं० अति चि० । प० । अतिसार विदारणम् atisara-vidàragam - सं० पु० जायफल, धत्तूर भीज, सोंठ, अतीस, For Private and Personal Use Only Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अतिसार सेतुः अतिस्वेदः बच्छनाग, ग्राम की गुठली, धब पुष्प, अफीम, अतिसारस्या ati-sirasya सं० स्त्री. रास्ना भाँग प्रत्येक समान भाग ले चूर्ण कर गिलोय के (Vanda Roxburghii) वै० निवः । स्वरस में घोटकर १ रत्ती प्रमाण की गोलियाँ अनिलदमः uti-sukshina.h-तं. त्रि. अत्यबनाएँ । गण ---इसके सेवन से सम्पूर्ण अति- न सूक्ष्म, अतिशय सूचन, बहुत छोटा (very सार क्षण नाम दूर होजाते है । र यो० सा०।। subtle ). अतिसार सेतुः atisāra-so buh-सं० । अतिसेवनम् a.ti-savitnam-सं० क्लो किसी सिंगरफ, ल बङ्ग, राल, मिी , ताम्रभस्म, अहि वस्तु का अधिक मात्रा में सेवन, अधिक उपयोग फेन प्रत्येक समभाग लेकर चूण करें। इसे चाल में लाना । बल के धोवन से सेवन करने से सभी प्रकार के ' अतिसौम्या nti-soumyi-सं. स्त्री० यष्टिसाध्य असाध्य अतिसार दूर होते हैं । मात्रा मधुलता, मुलेठी की बेल ((Glycyrrhizan १-२ रत्ती | रस. यो० रु.। pia brin) रा०नि० व० । अतिसार हरो ररूः atisara-hatolasah अतिसीरमः ati.soula bhah-सं०प० अाम्रवृक्ष -सं० पु. (1) पारा, गंधक, अभ्रक भस्म, हर आम का पेड़ । ( Mangifora Indica ). ताल,सुहागा,सिंगरफऔर बच्छनाग प्रत्येकको तुल्य भा०पू० फ. ५० भाग लेकर चूर्ण करें । पुनः धत्त र के पत्र के रस अनिस्कंधा atiskandhi-स. स्त्री० रक्त से सात दिन तक अच्छी तरह घंटें । फिर रसी- कुलत्थी, लाल कुल्थी-हिं० । र कुलत्थक-स। प्रमाण की गोलियाँ प्रस्तुत कर रख लें। (Dolichos biflorus. ) वै० निघ० । मात्रा- रसी, भाँग के चूर्ण और शहद के ' अतिस्तम्भित् ati-stanbhit-हिं० अत्यन्त साथ खाने से ज्वर और अतिसार नष्ट होते हैं। रुका हुआ। रस० यो० सा०। अतिस्थूल atisthula-हिं० वि० [सं०]बहुतमोटा • राल, मोचरस, अफीन, मी तिलिया, अतीय, : संज्ञा पुं० [सं०] मेद रोग का एक भेद सोंठ इनको समान भाग लेकर चूर्ण बनाएँ । इसको: जिस में चरबी के बढ़ने से शरीर अत्यन्त उचित मात्रा के साथ खाने से अतिसार नष्ट मोटा हो जाता है । होता है । र० प्र० नु० अ० । | अतिस्थूल वर्मा ati-sthula.vartini-सं० अतिसारान्तको रसः ntisirintakorasain | पु. ( Foul ulcer ) दुष्टयण-विशेप, -सं० पु. म्यण चरित रससिंतर, सकारापत क्षत चि० । मे निकाला पारा और स्वर्ण भस्म घटित पर्पटी , . अतिस्निग्धः a ti-snigdhah-सं० त्रि. अत्यंत इन सब को बारीक घोट कर रक्खें। मात्रा स्निग्ध, बहुत चिकना । लक्षण-मुख द्वारा श्लेष्म प्रत्राव का होना, १ रखी | गुणा-यह मृत्यु से भयानक अति-: शिर का भारोपन और इन्द्रियविभ्रन ये अति सार को दूर करता है। ररू० यो० सा। स्निग्धता के लक्षण हैं। इसके निवारण हेतु रूक्ष अतिसारेग सिंहो रसः atisarcbha.sinho- प्रक्रिया ग्रहण करनी चाहिए । वै० निघ० Yasth -सं० पु. शुद्ध पारा, शुद्ध गंधक, i नस्य चि० । श्रहिफेन प्रत्येक समान भाग और पारेका ! भा. अतिस्त्रया nti-star-सं० सी० मयूरकल्ली । जायफल मिलाकर भाँग और धतूरे के रस की मुम्बा-बं०। वै० निघ० । पृथक पृथक भावना दें। मात्रा-१ रत्ती ।। अतिस्वेद: a ti-svedah-सं० पु. (१) अति यह अतिसार रूपी हाथी के लिए सिंह है। पसीना देना, अति स्वेदनाव कराना । वा० स० रस० यो० सा। । अ० १७ । (२) बहुत पसीना आना | For Private and Personal Use Only Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रतिक्षित संधिः अतीस प्रतिक्षिप्त संधिः ati-kshipta-sandhih - सं० पु. (Complete dislocation) संधि का सर्वथा भिन्न हो जाना, अन्यन्त संधि- । च्युति, जिसमें मंधि और अस्थि दोनों हट जाएँ। इसमें दोनों संधियों और अस्थियों में अन्तराय हो जाता है और पीड़ा होती है। सु०नि०१५ प्र० । “अतिषिले दुयोः संध्यस्थनोरतिक्रांतता वेदना च"। - । देबो- भग्नः । अतीक aatig-० (१) पुरातन, प्राचीन, पुराना-हि० । देरीनह , कुह नह , पुराना-फा (२) पुरातन वसा । (३) छोहारा भेद । (४) जल । (५) सुवर्ण । (६) मघ । (.) अतीत atit-अ० (.) पुधा । (२) पाटोप, गुडगुदाहट (कराना ) । गलिज Gurgling-इं० । म० ज. अतीन्द्रिय atindriya-हिं० वि० [सं०] जो इंद्रिय ज्ञान के बाहर हो। जिसका अनुभव इंद्रियों द्वारा न हो। अगोचर | अप्रत्यक्ष | अन्यक्र। अतीस atisa-हि. संशा पु. [सं०] अति विषा, अतिक, प्रातहण । एकोनाइटम् हेटरो. फाइलम् Aconitum Heterophyllum, Wall.. ( Root of-); ए. कॉडेंटम् ( A. Cordatum)-ले० । इंडि. यन अतीस ( Indian Atoes )-101 ___ संस्कृत पाय-घुणवल्लभा ( भा० ), निका (शब्दर०), विश्वा, विषा, प्रतिविषा, उपनिषा, अरुणा, शशी, महौषधं (अ.), काश्मीरा, श्वेता (र०), प्रविषा (के), श्वेतकन्दा, भुजा, भङ्गुरा, विरूपा, श्यामकन्दा, विपरूपा, बीरा, माद्री, श्वेतश्चा, अमृता, अतिविषा, । अतिविषः, शुक्रकन्दा, शृङ्गीका, भृङ्गी, मृद्री, । शिशु भैषज्य, अतिसारनी, घुरणप्रिया, शोकापहा, ! । (बिलायसो) वज्जे-तुर्की-२० ।। माता-बं० । बजे-तुर्की फा०। (शीम)। अतिवडयम्-ता० । (सीम) असिवस (खेड्डु ), प्रतिवासा-ते, तै। अतिविप-मह । अति- वख ( विष) नी-कली, अतिवस, अतिवख, अतिविष-गु० । अागे सफेद, मोहन्दे गज सफेद -काश० । प्राइस-भोटि. । सूखी हरी, चिति जदी, पत्रीस, पीस, बोंगा-६० । अतीविषा -क । ___ वरूनाभ वर्ग (N.O. Ranunculacere.) उत्पत्ति-स्थान-एक पौधा जो हिमालय के किनारे सिंध से लेकर कुमाऊँ तक समुद्र-तट से ६,००० से लेकर १५,... फ्रीट की ऊँचाई पर पाया जाता है। नाम विवरण-"श्वेतकन्दा", "भंगुरा"; "धुवावल्लभा" आदि परिचय ज्ञापिका संज्ञाएँ और "अतिसारनी" और "शिशुभैषज्यम्" प्रभृति गुणप्रकाशिका संज्ञाएँ हैं।.. __ वानस्पतिक धर्णन-अनीस के क्षुप हिमा. लय के ऊँचे भागों पर उत्पन्न होते हैं । इसके पत्ते नागदौन पत्र के समान किन्तु चौड़ाई में उससे किञ्चित् छोटे होते हैं । शाखाएँ चिपटी होती हैं और पत्रवृन्त मूल से पुष्पदण्ड निकलते हैं पप्पदण्ड (पुष्पदण्ड की व्याख्या के लिए देखो-"प्रारग्वध" ) पत्रवृत्तसे दीर्घतर होते हैं प्रस्फुटित पुष्प देखने में टोपी की तरह दीख पड़ते हैं। ईपट्टीर्घ कंद के गाय से मूल निकलता है। यह मूल प्रतीस (अतिविषा) नाम से विख्यात है। यह प्रोषधि धूसर और श्वेत दो भागों में विभक्त होती है। धूसर लहरदार कंद जो श्वेत को अपेक्षा बड़े और लम्बे होते हैं, प्रधान मूल हैं और प्रायः पृथक कर कम दाम पर बेचे जाते हैं। सज्जन्य लघु कंद बाहर से धूसर वर्ण के और शाखकों के सूक्ष्म चिह्नों से व्याप्त होते हैं । ये से २ इंच लम्बे, शंक्वाकार या लगभग अण्डाकार, पतले मूस. लावत छोरयुक्र, जो कभी कभी दो वा दो में विभक होने की प्रवृत्तियुक्र होते हैं। सिरे पर छिलकायुक्र पनाङ्कर होता है। तोड़ने पर भीतर श्वेतसार के सफेद कण दिखाई देते है। यह स्वाद में अतितिक और गंधरहित होता है । For Private and Personal Use Only Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अतीस www.kobatirth.org राजनिघस्कार के मत से तीस ( प्रतिविषा ) तीन प्रकार का है । जैसे, "त्रिविधातिविषा ज्ञेया शुक्रकृष्णारुखातथा ।" अर्थात् प्रतीस शुक्र, कृष्ण तथा अरुण भेद से तीन प्रकार का होता है । तीनों रस, वीर्य और विपाक में समान होते हैं । परन्तु इनमें श्वेत जाति का उत्तम होता | मदनपाल के मत से यह चार प्रकार का है । जैसे, "श्यामकंदाचातिविया सा विज्ञेया चतुर्विधा । रका श्वेता भृशंकृष्णा पीतवर्णा तथैव च ॥" अर्थात् रक्र, श्वेत, अत्यन्त कृष्ण और पीतवर्ण भेद से यह चार प्रकार का है। इनमें यथापूर्व अर्थात् क्रमशः पीन से कृष्ण और कृष्ण से श्वेत श्रादि गुण में उत्तम और श्रेष्ठ होता है । मजनुल् श्रद्वियहू में इसके तीन भेदों का वर्णन है अर्थात् ग्रतीस, प्रतिभिका और और श्यामकंद | मुहीत श्राजम में केवल इसके दो ही भेद माने हैं। यथा-श्याम और श्वेत | २५८ रासायनिक संगठन - तीसीन ( Atisine ) नामक रवारहित एक प्रत्यन्त तिन चारीय सत्र ( यह निर्विषैल है ), वत्सनाभाम्ल ( Aconitic acid ), कपायीन या कपायिनाम्ल ( Tannic acid), पेक्टस सब्सटैस ( Pectous substance ), बहु-: संख्यक श्वेतसार, बसा तथा लीक, पामिटिक, स्टियरिक, ग्लिसराइड्स, वानस्पतिक लुझाव, इतु शर्करा और ( भस्म के मिश्रण २ प्रतिशत तक होते हैं । मेटीरिया मेडिका श्रॉफ इण्डिया- श्रार० एन० खारी भाग २, पृष्ट ३ ) । प्रयोगांश — कन्द्र | श्रीषच निर्माण -- ( १ ) चूर्ण; मात्रा - रत्ती से ३ ॥ मा० तक | · ज्वर प्रतिषेधक रूप से १ से २ ड्राम ( २ ॥ ड्राम पर्यन्त यह निरापद होता है ) । वस्य रूप से-१० से ३० प्रेन ( ५ से १५ (सी) इस मात्रा में इसका ज्वरग्न प्रभाव ग्रध्यन्त निर्बल होता है ! ज्वरनरूप से- ४. -४० ग्रेन से १॥ ड्राम तक । ! Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कृमिघ्न रूप से - (२) टिंबर - ( मात्रा-१० से ३० बुंद | (३) द का काथ । ८ में भाग ); अतीस वे शुरूषीय श्रीषध जिनका यह प्रतिनधि हो सकता है। ज्वर प्रतिषेषक रूप से सिंकोना के हारी सत्व (क्षारोद ) यथा क्वीनीन प्रभुति । ज्वरन रूप से – पल्विस जैकोबाइ बेरा, पल्विस एण्टिमांनियम् ( अंजन चूर्ण ), लाइकर एमोनियाई एसोटास । वय रूप से --- जेशन और कैलंबा | इतिहास - प्रतिविषा नाम से प्रतीस का ज्ञान आज का नहीं, प्रत्युत प्रति शचीन हैं 1 अतः श्रायुर्वेद के प्राचीन से प्राचीन ग्रंथ यथा चरक, सुश्रुत तथा वाग्भट्टादि में इसका पर्याप्त वर्णन आया है। यही नहीं बल्कि विभिन्न रोगों पर इसके लाभदायक उपयोग की उन्होंने भूरि भूरि प्रशंसा की है जैसा कि श्रागे के वर्णन से विदित होगा । For Private and Personal Use Only फिर डिमक महोदय तथा उनके पादानुसरण - शील एवं आयुर्वेद शास्त्र से सम्यक् श्रपरिचित चोपरा महोदय के ये वचन "The earliest notices of Ativisha are to be found in Hindu works on Materia Medica, Sarangad. hara and Chakradatta." किसका यह अर्थ होता है कि शार्ङ्गर तथा चक्रदत्त से पूर्व के प्रायुर्वेदिक ग्रन्थों में अतिविषा का उल्लेख नहीं हैं; कहाँ तक सत्य है, इसका पाटक स्वयं निर्णय कर सकते हैं । आयुर्वेद के अति प्राचीनतम ग्रन्थों में तो इसका उल्लेख है हो जिसके लिए हमें किसी प्रकार के प्रमाण की आवश्यकता नहीं; यह तो सूर्य प्रकाशवत देवीप्यमान एवं स्वयं सिद्ध हैं । हाँ! अरबी तथा फारसी ग्रन्थों में इसका बहुत संक्षिप्त वर्णन श्राया है और यह स्पष्ट रूप से Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रीस २५६ ज्ञात होता है कि उन्होंने इसके वन में श्रायुर्वेद कर्त्तानों का ही अनुकरण किया है। 1 इन सबके पश्चात् पाश्चात्य लेखकों ने अपने ग्रन्थों में इसका उल्लेख किया | प्रभाव तथा उपयोग श्रायुर्वेदीय मतानुसार अतीस, दीपन, पाचन, संग्राहक और सर्वदोष नाशक हैं । त्र० स० २५ श्र० । 1 प्रतीस कटु, उष्ण, तिक तथा कफ, पित्त और ज्वर नाशक, श्री मातिसार, कास, विष, एवं छर्दिनाशक है। रा० नि० ००६ । वा० स० ३५ श्र० चचादि० | धन्वं० नि० । सर्व पातक, शोधन ( लेपात् ), श्लैष्मिक रोगनाशक ( २० प्रकार के श्लेष्म रोग का नाशक ) और रसायन है। मद० ० १ । तीस गरम, कटु, तिक्र, पाचन और दीपन कर्त्ता है। जीर्णज्वर, अतिसार, श्रमवात, त्रिप, खाँसी वमन और कृमि रोग को दूर करता है । भा० । अतीस, पाचन, विक, ग्राही और दोषनाशक | राजवल्लभः । प्रतिविषा तथा कटुकी प्रभृति को उष्ण गांमय जल द्वारा शुद्धि होती है । सा० कौ० । शिशु के कास, ज्वर तथा मन प्रतीकारार्थ उपयुक्त मात्रा में तीस का चूर्ण मधु के साथ सेवन कराना चाहिए। बंग० जी० सं० ८१६ पृ० वैवकीय व्यवहार (१) श्रामातोसार - "दद्यात् सातिविषां पेयां सामे साम्लां सनागराम् ( च० ० २ श्र० ) ।" तीस १ तोला, सो तो, इनको २ जल में सिद्ध करें। जब ७१ जल शेष रहे तब इसे लवण से छौंक कर इसमें अभीष्ट वस्तु की पेया प्रस्तुत करें। इसमें किञ्चित् खट्टे अनार का. रस योजित कर श्रामातीसारी को व्वयहार कराएँ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रतीस (२) कुत्र्यामय - - श्रंकोट की जड़ की छाल ३ भाग और प्रतीस १ भाग इसको तंडुलोदक ( चावल के घीवन ) में पीस कर पान करें । इससे ग्रहणी रोग शमन होता है । बंग० जीः सं० १२१ पृष्ठः । ( ३ ) " नागराति विपाभयाः " । ० द० ज्वर० चि०पिपल्याद्यघृत | वक्तव्य चरक चिकित्सास्थान २२ श्र० एवं सुश्रुत कल्पस्थान २य अध्याय में स्थावर विष का वर्णन थामा है । चरको मूल विष एवम् सुश्रुत के मूल विष वा कन्द विष को नामावली में प्रतिविधा ( अतीस ) का उल्लेख दीख नहीं पड़ता । उपविष के मध्य इसका पाठ महीं । सुत और चरक में जहाँ सम्पूर्ण विषों का उल्लेख श्राया है वहाँ वे इसके गुणों से सम्पूर्ण परिचित हैं । सुश्रुत के प्राचीन टीकाकार डम्ण मिश्र लिखते हैं "मूलादि विनयनगरैरपि धातुमशक्य त्वात् । तत्र तानि हिमवत् प्रदेशे किरात शवरादिभ्यो शेयानि ।” क० स्था० २ ० अ० टी० । मदनपाल व भेत्र से इसका गुणांतर स्वीकार करते हैं । परन्तु, राजनिघंटुकार ऐसा नहीं करते । सुश्रुत प्रतिसार चिकित्सा में और चक्रदत्त प्रतिसार, ज्वरातिसार, और ग्रहणो चिकित्सा में भिन्न भिन्न औषध के साथ अतीस का पुनः पुनः प्रयोग दिखाई पड़ता है। चरक और सुश्रुत 金 केवल जीर्णज्वर की चिकित्सा में श्रतीस का प्रयोग नही आया है। चरक के "कालिंगक त्वामलकी सारिवातिविषा स्थिरा ।" (चि० ३ ० ) पाठ में तथा सुश्रुतोक “पिप्पल्यतिविषा द्राक्षा | ” ( उ० २६ श्र० ) पाठांतर्गत विषम ज्वरहर घृत में श्रन्यान्य बहुशः वस्तुओं के साथ तीस व्यवहृत हुआ 1 सुश्रुत एवं वाट्ट में केवल ग्रहणी तथा कास चिकित्सा वा रसायनाधिकार में श्रतीस का व्यवहार नहीं दिखाई देता । For Private and Personal Use Only Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रतास अतुल्जन यूनानीमतानुसार मात्रा में उपयोग करना चाहिए जो स्वयं मेरे प्रकृति-२ कहा उष्ण और १ कहामें रूत। अनुभव के अनुसार १ से २ डाम तक है। स्वाद-किञ्चित् यिकता । हानिकारक--श्रामा- २॥ डाम तक यह सर्वथा निरापद सिद्ध होता शय . के लिए । काबिज़ है । वपन्न-सई व तर है । लघुतर मात्रा (२० से ४० प्रेन) में यह वस्तुएँ । मात्रा शबंत-प्राधा से १ माशा उत्सम वल्य है । परन्तु, इससे इसका परियाबतक । मुख्य प्रभाव- श्लेष्मघ्न और वायु- निवारक प्रभाव अत्यन्त न्यून होता है। ( मेटिलयकर्ता। रिया मेडिका श्राफ मेडरास न खंडपृ. ४) गण, कर्म, प्रयोग-अतीस कामोद्दीपक, आर. एन. चोपरा एम० ए० एम० सु' सुधावर्द्धक, स्वर प्रतिरोधक, कफ तथा पित्त मन्य | पहाड़ो लोग इसको प्रभावशून्य रूपसे भली विकारों को नाश करनेवाला, अर्श, जलोदर प्रकार जानते हैं एवं इसे शाक रूप से खाने के तथा कफ वा पित्तजन्य वमन एवं अतीसार को। काम में लाते हैं। देशी श्रीपध में यह न एवं दूर करता है। वायुको लय करता और श्लैष्मिक | तिक बल्य रूप से व्यवहत है। इस देश में रोगों को लाभप्रद है। म० अ०। (निर्विवैल ) इसको परियायनिवारक, कामोद्दीपक, काय नयमत-प्रतीस, तिक, पाचक, वृष्य, बल एवं बल्य रूप से व्यवहार में लाते हैं । कारक पुर्व ज्वरप्रतिषेयक है और जर तथा उम्र : (इंडिजिनस इग्स ऑफ इण्डिया) प्रादाहिक-विकारादि-जन्य रोगावसान की द। में | अनीसारः atistiah-सं० ( हिं० संझा दौर्बल्य दूर करने के लिए इसका व्यवहार होता पु.) देखो-अनिसार ( Diarrhoea). है। कास, अजीर्ण और अग्निमांद्य में असीस का | अतुकार्णी atukarni-सं० श्री. जमालगोटा उपयोग किया जाता है। इन सब रोगों के उप- । ( Croton polyandrum, Roxb. ). सर्गरूपसे हए अतिसार में इसे सुगन्ध,तिक एवं ! देखो-दन्ती। कप.य द्रव्यों यथा गुरुच, करंज और कुटज प्रादि के साथ एवं ज्यर प्रतिषेधक रूपसे मलेरिया ज्वरों अतुतिन्लप atutinlap-मल. गृध्रणी, धूम्रपत्र, (विषम ज्वरों) में इसका योग किया गया पत्र-सं० । गुधाटी, किरमरा-हि., ग०, और इससे कुछ सफलता भी हुई; परन्तु क्वीनीन द०, बं० | Aristolochia Bractenta की अपेक्षा यह अत्यन्त निम्नणीका सिद्ध हया ले० । Birth-wort, worm-killer विट के साथ इसको सेवन करने से प्रांत्रस्थ -। ई० मे० मे०। कृमियाँ निर्गत होती है। ( मेटीरिया मेडीका | अतुनेदी atulveti ता. सोल- sch. श्रॉफ इंडिया-२ य० खंड ३ पृ०) ___ynomen Aspars). पौकान,-पौक न्यु ___ मोहीदीन शरीफ -बर। प्रभाव-ज्वर प्रतिषेधक ( परियाय उवर । . | अतुलः atulah-सं० पु. ) ( ) कफ नाशक ), ज्वरन और यल्य । उपयोग--सवि. 'अतुल atula हिं. संज्ञा पु० । रलेष्म । राम ज्वर तथा सामान्य स्वल्पविराम या निता (phlegm)। (२)तिल का वृक्ष; सिलीका पेड़ ज्वर, कई तरह के अजीण एवं नैवल्य में लाभ -हिं० । तिलः (क:)व-सं० । ( Sesamum दायक है। orientale ) Too श्वेत अथवा साधारण प्रकारका प्रतीस अत्यंत प्रतुल्जम atuljan-१० देबर कखुम, काखूरी, लाभप्रद परियायनिवारक (Antiperiodic): गुगुल, बन्दाह-पं० । मर्सिनी अफ़रिकेना एवं ज्वरघ्न है; किन्तु इसके सर्वोत्तम एवं । ( Myrsine Africana, Lin.), निश्चित प्रभाव के लिए इसको पूर्ण औषधीय; मा थाइफेरिया (M. Bifuria, fall.) For Private and Personal Use Only Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अहिलरश्मि श्रत -ले। बेबग बाइ बढ़ -40, काश०, हि । स्निोप, तृप्त न होना । र.संतोष, मन न भरने गुवाइनी--स०प्र० । पहाड़ी चा, चूपा-३० को अवस्था । 2. श। asa ataich, Te ( Acouitum विडङ्ग वर्ग Ilestorophyllum, ई० मे० मे । (V.O. Jyrsinucnce ) उत्पत्तिस्थान--यह एक छोठा प है। तेजateja-हिं०वि० [सं०]() तेजरहित हिमालय, काश्मीर और साल्टरेश (लवण श्रेणी) से ___ अंधकार युक, मंद, धुंधला । शाल तक। अनेजाः ato jah..सं. स्त्री० ( Shade, प्रभाव तथा उपयोग-इसका फल सराक ___Shadow ) छाया । रा०नि० व०२१। रेचक तथा विशेष कर कद्दाना निःसारक : अतीय उदर atoytidara-हिं. संज्ञा पु. माना जाता है। यह बेनत नाम से बिकता है। "सर्वस्वतोयमरुण माफकम् माति भारिकम् ।" श्रीर (Samara Ribes ) की प्रतिनिधि वा० नि० अ०१२ श्लो०११ । स्वरूप उपयोग में पाता है । स्ट्यु बर्ट ! लक्षण जलोदर को छोड़कर सय प्रकार के प खुप से एक प्रकार का निर्यास प्राप्त होता उदर रोगों में उदर का वर्ग लाल, सूजन रहित है जो कप्टरज की एक उत्तम औषध है ( बैन.. और गुरुता रहित होता है । नमों के जाल के फोर)। जलोदर एवं उदरशूल में यह को:--' समुह से झरोग्वे की तरह हो जाता है और मदकारी प्रभाव करता है । ई० मे० मे०। । सदा गुड़गुड़ गुड़गुड़ करता रहता है। याय इसका लगातार प्रयोग मूत्र को अत्यन्त | नाभि और अंग्र में विष्टब्धता उत्पन्न करके हृदय रजित करता है ! ई० मे. सां। कटि, नाभि, गुदा और वंक्षण में वेदना करता अनुहिनाश्मि ntnhinaashmi-हिं० संज्ञा । हुअा अपने रूप को दिखाकर नष्ट हो जाता है पुं० [सं०] the sum सूर्य । तथा शब्द करना हश्रा बाहर निकलता है। अ.तूत aatita-अ. तस्तू य (एक पक्षी है)। इससे मलबद्धता और मत्र की अल्पता हो (A sort of bird.) लु० क० । जाती है। इसमें जठराग्नि अत्यन्त मन्द नहीं अतृन athima-शात। होती है, भोजन में इच्छा नहीं होती और मुख में अ.तुस aatasha विरसता उत्पत्र हो जाती है। उत्तास, मुअत्तिस् auttasa, in laattis अन इमह, ataimah- १०. (०२०) तमाम -अ० सुस्कारक औषध, वह औषध जो छींक ! (प०१०), आहार, भोजन, खाना । डाइटम लाए । इसका ( ३० व.)प्रतमात है। इहा- . Dicts.ई. ( म० ज० । इन Irrhine-इं। म० ज०।। अनला atusa-हि. भोजपत्र । ( Betula अत्क: atkah-सं. प. प्रा. अवयव ( An Bhojapatra).हैं. गा। organ) उणा० । अतृष्ण atrishna-हिं० वि० [सं०] तृष्णारहित । अकुमः atkumah-अ० प्रगामार्ग । (Achनि:स्पृह । कामना हीन, निलोभ । yranthes aspera, Linn. ) अतृप्त atvipta -हि. वि० [सं०] [ संसा अन्डी atdi-० पित्तल, पीतल ( Brass )। अतप्ति (1) जो तृप्त वा संतुष्ट न हो, जिसका | अतः attah-मल. जलोका, जोंक, जलायुका । मन न भरा हो। (२) भूस्खा । (Hirudo medicinalis).ई. मे०मे० । अतृप्तिः atriptih-सं० स्त्रा० । तृप्ति शू-प्रत atta-मल०, सिं० सीताफल, श्रात, शरीफा ! प्रवृति atripti-हि. संज्ञा स्त्रो० न्याव, अप- Custard apple ( Anona squ. For Private and Personal Use Only Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अन्नका अत्तिग्लि-पाल mos)-हिं० संज्ञा स्त्री० [सं० अति] | अत्तिररttir-कां० शरीफ़ा, सीताफल । श्रति। अधिकता । ज्यादती।। Custard apple (Anona Sq. अत्तका attaki-मन. मुडी, गोरखमुण्डी, most)। इं० मे० मे । (Sphanthus Hindkicus ). अत्तिएवयर nt.titly]-ता. गृलर की जड़ । शतनामामिडोattata-mani फा००। माँ (Baahtarin diffilsa) । ई० मे मे। अत्तर-वयर नन्निर utti..wityra-tamily ता. कूलपान । गूलर का नोर-हिं० । फा०३० । श्रत्तन,-ना attal.in,11- सिंधुपुर, श्वेत धतूरा, अत्तिक्क लु attilk-kall!!-सा० ) गुलीर कनक, धतरा ! (Datiya atha, Lin.) अत्तिक लु atti.kallu-10 का नीश, ( White flow.rol Dhatura ) फा ई० । ई० मे० मे। गुल्लर का नीर-हिं० । 'Toily of Picne (itomatit--ले० । रु.. फा० ई० । अत्तवालेहदी uttabaghli-hindi-t.. अत्तिका intt.i-ka-R. गूनर-हि.। उदुम्बर पाताल बन तामाल-01 अमरीका का जंगली . तम्बाकू-हि । लोबोलिया Lobelia-ले० । -20 (Ficus Glomeratil, los?s.) म० अ० डा० २० अत्ति-ति.लि attitinniti-ना. मजबड़ीअत्तबड़ atta bara-चं. पाया, यड़, कगारी पिएलो, गज-पिप्पलोहि गज-पिगली-सं०। Seindasuls ( Poubos) Officina -खा० । ( Ficus Elastica) lis, Selott, ( Bensins of ) Hofira अत्तमामी attamimi-अज्ञात । अनमज़ाजो attartium..aji-अ० कृ. पांशु गंधेन-सं० । पाटेसियम सल्फेट (Pota. अत्ति-पजम् atti-par.ham-ता० गूलर-हि । ssium sulphate)-इं०म० अ० डॉ० . उनुम्यर फलम्-म । Ficus glome. २भा०। Jatil, 1.inm. ( Fruit of-)। स० फा० इं० अत्तलु attali-ते. जलायका, जलौका, जोंक। ( Ilirudo melicinalis )। ई० मे. अत्ति-पर atti pandu-ते. गूलर-हिं० । मे । अत्ति-माणु atti.mānu-ते० ) (Ficus gl ____omerata, Rash.) रू. फा० ई०। ६० अत्तार aattara-अ० युनानी दवा बनाने मे० मे० और बेचने वाला, औषध विक्रेता, पनसारी । (A druggist)। -हिं. संज्ञा ५०(२) अत्तिमोर-अलोन attimir-alol-~-मल. गंधी, मुगन्धि वा इत्र बेचने वाला। (Fiens exeelsa, Valil.) इसकी जड़ __उपयोग में प्राती है। मेमो० । अत्तास anttisa-अ० नाक किनी-हिं० । क्षवः (क) ( कृत् )-सं० | Drogen अत्ति-यालुम् attiryalum-मल० गूलर volubilis. ! -हिं० । (Ficus glomerata, Rasiy.) अत्ति atti-ता०, मल०, कना. गूलर-हि।। स० फा० ई० । उदुम्बरफलम्-सं. | Ficus Glomerata, . अत्ति-rutti-ri-सिं० गूलर का नीर ('Toily Roxb. ( Fruit of-)-ले० । -हि. of Ficus (dlomerata) सफाई । संज्ञा पु० [सं०] देखो-अत्त। ! अनिरिल्ल-पाल attirilla-pala-सिं० बालू. For Private and Personal Use Only Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अस्तियाक २६३ अत्यम्ल का साग, बालू की भाजी-द० । ( Gisekia (Policteres Isora) फाई। Pharmacioides, Liun.) सफा०६०। मे० मे० । आत्ताक attiryaq-अ० विषघ्न, विषहर, | अत्यः atyah--सं०५० अश्व, घोड़ा ( A hor प्रतिविष । (Antitlote)। फा०६० २ भा० ) ) । श.1 अत्ति-हरणु atti-hannil- कना० गूलर ( Fi. : अत्यग्निः atyagnih--सं०१० (१) क्षुधाधिक्य, Stus glomeratia, Roxb.) सफा०ई० । भूख की अधिकता। चन्द.अग्निमा०वि०। अत्तीर sttien'-फ्रे० सीताफल,शरीफ़ा (Anona (२) भस्मक रोग विशेष । ऐसे रोगी को अत्यधिक shuamosa)। ई० मे० मे०। सुधा प्रतीत होती है। देखी-भस्मकाग्निः। अत्त तुम्मट्ट attit-tummatti-ता० इन्द्रायन . विज० र०। ( Citruliis colocynthis )ito ! । अत्यन्त कुसुमाकरः atyanta-kusumāk. मे० मे०। aah-स'. पु. कङ्गुनी बृक्ष, मालकांगुनी । अत्तई attri-ता० जलायुका, जोक,जलीका-हिं। (Celastrus paniculata, 17'illd.) (fitlo imedicinalis. ) ई० मे मे । अत्यन्तपझा atyanta-padma--सं० स्त्री अत्तोर uttora-सिं० दाद मर्दन, चकबंद, चक्र ___ कमलिनी । ( Nymphaa edulis, RŽI ( Cassia alatit, Linn.) ___D. C. ) वै० नि। स. फा००। अत्नः thah-स. पु. सूर्य्य ('he stum) ....... | अत्यन्त शोणितः atyanta-shonitish-सं० घनित्र त्रि०(१) अतिरक, रक्राधिक्य । -क्ली (२) सुवर्णगैरिक । वै० निघ० । अत्नु a tnt-fह. पु. [ स ] The still अत्यन्तसुकुमारः atyanta.sukumārh-- -सं० पु०(१) कंदली वृक्ष ( Parmicum अत्वात न atbatuna-यु. एक प्रकार का मद्य italicum ) । ( २ ) कङ्गणी माल कोगुनी जो द्राक्षारस, मधु तथा गरम श्रोधधियों द्वारा (Celastrus paniculatus, Hilla.) प्रस्तुत किया जाता है । लु० के० । रा०नि०व०१६। अत्यान athāna- अ० (२०५०), तिटन (ए०५०) अत्यावपानम् atyambu-pananm--सं० क्ली० घास,लण (Gilass)। रु० फा० ई०। । अधिक जल पीना, परिमाण से ज़्यादा पानी श्रवान् aatbal-अ० कक्ष, कक्षतल, बगल पीना, इससे निम्न दोष होजाते हैं, यथा-अधिक -हि। परिज़ल्ली Axill:-ले । ग्रामपिटप जल पीने से तथा बिल्कुल जल न पीने से अन्न (Armpits)-ई । म० ज०। का विपाक नहीं होता। इस लिए मनुष्य की त्यूत atbutilबर रीठा, अरिष्ट । पाचकाम्नि वर्द्धन हेतु थोड़ी थोड़ी देर में जल अरम atttina--ऋ० धुना हुआ उन । लु० के०। पीते रहना चाहिए । इति जलपान लक्षण | रा. अन्मात atm itih--बर० । रीठा (Sapi निव०१४। अरमून atmuta.-बर० d ustri अत्यम्लः atyamlah--सं० पु. । foliatus, Lin. ) अत्यम्ल atyamla-हि. संज्ञा । अत्मारह atmorah-बं० । मरोड़ फली, । (५) अम्ली , इमली का पेड़ ( Tama. प्रत्मास atmora--बं० श्रावनी Tindus Indicus)तुल-बं०रा०नि० सूरर्य। For Private and Personal Use Only Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अत्यम्लदधिः अत्युणे: व०६ । (२)मा तुलुग । (३)वन मातुलुग । (४) R. Br. ( the white vai. of-) अाम्रातक (Spondias mangifera) रा० नि०प०१०।देखो-आक । -त्रि०अत्यन्ताम्ल रसयुक। अत्याग atyāga-हिं० संज्ञा पु० [सं० ] अत्यम्ल दधिः atyamla-dadbib--सतो. ग्रहण । स्वीकार । . अत्यन्त खट्टा दही। अत्यानन्दा atyānanda-सं० स्त्री० कफजन्य योनिरोग विशेष । बैरक के अनुसार योनियों का लक्षण-जिस दही से दात हर्षित होजाए, एक भेद। वह योनि जो अत्यन्त मैथुन से भी रोम हर्ष हो और के प्रादि में दाह हो. सन्तुष्ट न हो। यह एक रोग है जिससे वियाँ जाए उसे अत्यम्ल दधि कहते हैं। वंध्या होजाती हैं। इसका दूसरा नाम रतिप्रीता भी है । भा० म० ख०४ भा०, योनिरोग। गुण-यह अग्नि प्रदीपक, रऋविकार, बात तथा 'अत्यानन्दा न सन्तोष ग्राम्यधर्मेण विंदति' पित्त को अत्यन्त उत्पन्न करता और रोगकारक है । वृ०नि०र०। अन्यारता atyarakta-सं० स्त्री. जया पुष्पवृक्ष -सं० । प्रदउल का पेड़-हिं०। (Hibiscus अत्यालपर्णी atyamla parni--सं० स्त्रो० Rosa-Sinensis) (१)लताशूरणा, सूरन । वनिशूरण लताविशेष । कड़बड़वेनि । हेग्गोलि । रा०नि० व० - प्रत्यार्तवः atyartavah-सं० पु मात्रा से अधिक रजोराव । मेनोरेजिया Monorha. ३ । इसके पर्याय निम्न हैं, यथा --! gia-ई। व क०। कीपणा, कर डुरा, वल्लिशूरणः, करवड़वल्ली, ' वयस्था; अरण्यवासिनी । (२) अम्ल लोणी । मण- अत्यालः atyalah-सं० पू० रर भित्रक वृक्ष, अत्यम्लपर्णी रस में अम्ल, तीक्ष्ण, प्लीहा लाल चीता का पेड़ । ( Plmbago रोग व शूलको नाश करने वाली, वात एवं हृदय Rosea.)। रा० । के लिए लाभदायी, दीपक, रुचिकारक तथा । था | शत्युग्रम् atyugram-सं० ० हींग-हिं० । गुल्म व श्लेष्म रोग को लाभदायी है । मात्रा ३ मा० । ग० नि० व. ३ । (३) रामचना वा हिंगु-सं० | (assafoetida) मदव०३। खटुमा नाम की बेल । अत्युग्रगंधा atyugra.gandhi-सं० स्त्री० हिं० संज्ञा स्त्री. १. कृष्ण गोकर्णी (Sanseअत्याला atyamla-स. स्त्री० जंगली बिजौरा . vieria zeylanica.)। २-कृष्णापराजित।। नीबू-हि० । मातुलुङ्गा वृक्ष, वन बीजपूरः-सं०। Clitorea Ternatza, (the रा०नि० २०११। रत्ना० तिन्तिडी । श० black var. cf-) । ३-अजमोदा (Apim involucratum.) । मद० घ०२। प्रत्ययः atyaya.h-सप १-नाश, अत्तय atyaya-हिं. संज्ञा प वंस, मृत्यु अत्युदणों atyindinā-सं० स्त्री० दुष्ट व्यधन २-अतिक्रमण । हद से बाहर जाना | ३-दोष ।। विशेष । बहुत तीक्ष्ण, बड़े मुंह के शस्त्र से जो ४-कृच्छ., कष्ट । रत्ना० अने. प० । मे । बहुत विस्तृत छेद हो जाए उसे "प्रत्यक्षी " यत्रिकं । कहते हैं । सु० शा० ०! प्रत्यक: atyarkan-त. पु. श्वेत मदारका वृक्ष अत्यु अत्युष्णः atyushnah-स०प० ( Very -हिं० । शुक्रार्क वृक्षः -स01 श्वेत प्राकन्द hot ) अति गर्म, अत्यन्त उष्ण । सु० शा० गाछ-छ। Calotropis gigantea, I ० श्लो०४। For Private and Personal Use Only Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६५ मस्यूहः अ.पू.फया प्रत्यूहः atyāhah-सं० पु. कालकराठपक्षी।। तीत | सत, रज, तम नामक तीनों गुणों से दास्यूह । मे० हनिक । See-Kalakant पृथक। hah,.kah. अत्रिज a trija-हिं० संज्ञा पु० [सं०] अनि के अत्यहा atyihi-संस्त्रीनीलशेफालिका-सं०1 पुत्र-(१) चंद्रमा, (२) दत्तात्रेय और (३) नील निगुगडी-हिं० । नीलिका । मेक-त्रिक । दुर्वासा । ( Vitex negundlo ). अनिमातः atrigjatch-सं० पु. चन्द्र । अत्र atra-हि. संज्ञा पु. अत्र का अपभ्रंश ।। अत्रकतूस atrakabusa-यु. कड़, कुसुमबीज । ( Carthamus tinctorius, tinn.)! अ(इ)लीफल atrifala-०० हिन्दी 'त्रिफला' फा०ई०। से उन अरबी शब्द व्युत्पन्न है। त्रिफला अमजatraja-फा० निम्बुः । नीबू । (Citron)| से अभिप्राय हरड़, बहेड़ा और प्रामला आदि ई. है. गा। तीन फलों से है। अतः जिस मजून में उपयुक्र प्रोषधित्रय पड़ती है उसे "श्र(इ)त रीफ़ल" अक्षा कुलबत्न atraqul.batn-१० पेट का कहते हैं। मोर । म० ज०। महागलोदूस atrighālidusa-यु. शोरह अलीफ़ल की तैयारी में यद्यपि उन समस्त जैसे-शीरह नवात, शीरह, क्रन्द । See बातोंको ध्यान रखना चाहिए जिनका आगे म. shirah। म० ज०। जून के प्रकरण में वर्णन होगा, तो भी इसकी भलाफ़ atrata-अ० हस्त व पाद। यह तर्फ निर्माण विधि में उससे केवल इतना भेद है कि का बहुवचन है जिसका अर्थ "और" था 'दिशा' | इसमें हरड़ बहेड़ा और मामला को बारीक कूट है। इसका शब्दार्थ "किनारे" है। पर | छानकर बादाम तेल अथवा गोघृत में मलकर म्यवच्छेद शाम की परिभाषा में इससे हस्त व चाशनी में मिलाते हैं। इससे इसकी शनि घिरपाद अभिप्रेत है। इसको हिन्दी में "शाखा" स्थायी रहती है एवं चाशनी मत बनी रहती है। कहते हैं। एक्सट्रीमिरीज Extremities. म० ज० । व्या०३ भा० । इं. म.ज.। अत्रीलाल atrilal-वाजा-ना. राजिले गुराब, अलाफ उल्या atrifa-aulya-अ० उर्ध्व राजिले-ताइर-अ० खिलाले-खलील-फा० । फा. शाखाएँ; दोनों हाधों से अभिप्राय है। स्कन्धों से। इं. भा० २ । देखो-यात रीलाल । लेकर अङ्गुलियों पर्यन्त । अपर एक्सट्रीभिटीज़ | अबन atma-बम्ब० (1) शेरवानी बूटी, Upper Extremeties इं० । म० ज०।। खटाई, किशरू -प० । को उई-हिं० । ई० मे० अलाफ सुपला atrafa-stufla-अ० अधः मे० । Flacourtia sepiaria-ले. । शास्त्राएँ, निम्न शाम्खाएँ । लोअर एक्सट्रीमीटीज मे० मो०। (२) सगवानी, अरस्तू Swa: Lower Extremities-हूं। llow wort, Prickly (Aselepias अत्रिः atrih-सं०पु० ऋषि विशेष (A Rishi)। echinata). 1 ई० है० गा० ।। सप्तर्षियों में से एक । ये ब्रह्मा के पुत्र माने जाते अगिया atrighiya , ये शब्द "अटोहैं। इनकी स्त्री अनसूया थी । दत्तात्रेय, दुर्वासा, असफिया ataufiya फिया" से अरबी और सोम इनके पुत्र थे । इनका नाम दस प्रजा- बनाए गए हैं। श्राहार न मिलने के कारण शरीर पतियों में भी है। का दुबला हो जाना, क्षय, क्षीणता, कृशता । भत्रिगुण atriguna-हिं. घि [सं] त्रिगुणा- अट्रोफी A trophy-ई० । म० ज० । For Private and Personal Use Only Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रखश श्रदन् अरश atitisha अ० ( ए. व. ), अहिंसक । (२) विद्वान । अथव० । सू०३७ । अलश a trashaa अंतारशह ( ब० ध०) । का० ४। बधिर, बधिरता का रोगी, जो ऊँचा सुने । डेफ अथानीकन uthanikuna यु. उशक्क, कौंदरDeaf-इं० । म. ज०। फ, अ०, हि० । कांदल-अफ० । (Doreina अवशाउखमरम् trishankhu-manu m montincilm, Don. & Fr.) फा० -ता. शावक, थाणुक-सं। भाऊ(Turn. arix ga. licil, or Indlies, Litm.) अथारियून athariyhin यु० दुरालभा-सं० । ई. मे. सां । खारे-शुतुर-का० । (Alhagi cameloअत्रेय treylहिं० संज्ञा पु० दे० प्रात्रेय। Th, Irsch.) फा० इं० १ भा०। प्रांगा atrogha-फा. नीबू, तुरञ्च । ( Cit. अभिवला चेटु athi-thali-chettu-ता० 101) ई. है. गा० ! __ महावला-सं० । महदेवी हिं। अतलियह. atlivah-अ० ( ० व ), निला अदकर lakal-40) um श्रदरख, प्रादी-हिं० । ° ३०) मर्दन, मालिश, अभ्यतम श्रदका ardhakt ज०। · Frish root of Groen ginyer अत्यस atvas-मह० ) अनोस (Aco.. (Zingiber officinalis, Nor).) फा० ई० । देखो-पादक। प्रत्वोका atvikā-३०) mittim hote3. अकमणियम् dakumuniyain-मल. ophyllum, ) लु० क० । स० फा० ई०। गोरखमुण्डी, मुरिडका । ( Sph: Tenthus अत्वीन atvill-40 गिदड़ तम्बाक, विथुग्रा h in ths). ई० मे० मे। (Heliotropium) Etronirum) इं० श्रदम्बन attakhana-य० लूना, मकड़ी- । • मे० मे०। स्पाइडर Spitler'-इं० । ल. क०। अत्सी utsi-हिं० स्त्री० [सं० अतसी ] तीसी- अदगा alagi-ता० अरहर, रहर-हि. । ( Pig. हिं०, उ. । लाइनम् Linum-ले० ! म० अ०. con Pia; Dial ). ई० मे० मे । डॉ०२भा०। अदना atlutti-हिं० संज्ञा स्त्री० [सं०] श्रतह ल uthalu-अ० धूसर वर्ण, धूसर वर्ण की अविवाहिता कन्या ( Unmarried girJ). चीज़ । इस्टी Dustv-01मजा श्राइनम् ndanam-सं० को०) भक्षण, खाना। अह.लक athalaya-अ. रेणका सीना । अदन dani-f. संज्ञा प. (Vite:x agris costus ) ई० मे... . (io cnt.). मे०। अदनागलो atda.nagali-हिं० संज्ञा स्त्रो० गुले. अहानिकन athanijil यु० उशक-अ०, . सुख, लाल गुलाब । (Dumask lose) इं० हैं. गा। . फा०, ई० बाजा । ( Woremaamang. __miaetm, Mon.)-ले० । फा० ३०२ भा० । अदनातील lanātist यु० अनार की कली । { set:-Amān) लु० क० । अत्हा(था) रयून athāriyun-यु० दुरानभा अदनीय udaniyaहिं० वि० [सं० ] भक्ष्य । - सं० । खारेबुज, खारे शुलर-फा) । (Alhagi स्त्राने योग्य । ( Fatable) Chinelortin, Fisch.) फा० इं. १ भा० । अदनूस ndalisa.--यु०पहाड़ी सशे । लु० क० । अथर्वा atharsa-सं० पु. एक ऋषि का नाम | अमन adan--अ० प्रौकिया । आउस(An oz.) अथर्ववेद के रचयिता । यह लगभग २॥ अथवा । तो० के बजन का अथर्वाणः atharvānah-सं० पु. ( १ ) होता है । म० ज० । For Private and Personal Use Only Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अन्त श्रन्त adanta-हिं० वि० अन्तः adantah सं० त्रि० www.kobatirth.org ( १ ) इन् हीन, दन्त रहित ( Toothless ), बे दाँत का । जिसे दाँत न हो । ( २ ) जिसके दाँत न निकला हो । बहुत थोड़ी अवस्थाका, दुधमुहाँ । ( ३ ) जिसने दाँत न तोड़ा हो । ( चौपल्या ) श्रदमनिः adamanih सं॰ स्त्री॰ ग्रग्नि | (Wire) श्रदमलो adama-sali श्रासा० बिल्ला सिलह० | मेमो० । अमिलो aadamili० पुरातन स्थूल वस्तु । लु ० ० क० । मुत्तम्मुल āadamutta.hammilo असहनशीलता, प्रसवेदनिकता । Intolerice - ई० । म० ज० अदभुत जौन adamul-taãazour--अ० नई साख्त का उत्पन्न न होना । ऐप्लैप्सिया Aplapcia - ० म० ज० । २६७ अदरक adarak - अ० श्रालूचह 1 Seealuchah. 1 लु० क० । अदरक adarak हिं० संज्ञा पुं० अदरख adarakh - हिं०, उ० [ सं०श्राईक, फा०] अदरक ] श्रईक | The green ginger ( Zingiber officinalis, Rorh ) अदमूल āadamūla o मण्डूक, मेंढक | Frog ( Rana Tigrina ) लु० क० | अदम् āadam - अ० अस्ति, ऋण, प्रभाव, न होना । ऐडसेन्स Absence इं० | म० ज० । rai adambedi ना० भुइ-गुलि - मह० । केने गिलु - कन 1 (Indigofera enneaphylla Din ) फा० ई० १ मा० । ऐन्सली के मतानुसार उन पौधे का रस परिवर्तक, मूत्रल तथा ऐटिट्युटिक है । अम्बुवल्ली adambu-valli- कना० दोपाती लता, उतरन की बेल -हिं० | देखो - उतरन । छागल-खुरी - बं० । ( Ipomoea Biloba, Forsk ) फा० ३० २ भा० । प्रदर्शन अदरको adaraki - हिं० संज्ञा स्त्री० [सं० आर्द्रक ] सांड और गुड़ मिलाकर बनाई हुई टिकिया | सौर | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अदरख अवलेह adarakha-avaleh-fe पुं० देखो - श्रार्द्धक अवलेह | पुराना गुड़ | एक पात्र, प्रदरख का रख 59 एक सेर लेकर गुड़ मिलाकर पतली चारानी करें, पुनः तज, पत्रज, नागकेशर, छोटी इलायची, लवङ्ग, सौंठ, कालीमिर्च, पीपर इन्हें टके के भर लेकर महीन कूट कपड़ छानकर उक्त चाशनी में मिला रकवें । मात्रा - १ माशा से १ तो० । गुगा इसके सेवन से श्वास, कास, मन्दाग्नि तथा शरुचि दूर होती हैं । अमृ० सा०यवमा०वि० । अदना āadaran - सोरि० कुन्दरा । लु०क० । अदरा adará-हिं० संज्ञा पुं० देखो - आर्द्रा । अदाकुल adaráfas - यु० सूरजमुखी, सूर्यमुखी । ( Helianthus Annuses. )। श्रदरारा adarára मारिनका एक भेद है अदगुरु adaráruf जिसके परो बीड़े होते हैं । लु० क० | Sec-Mazariyún अदरूमालां adarimali - यु० वह मद्य जो वृष्टिजल तथा शहद से बनता है । ( Asort of wine prepared from rain-wator & honey ) । लु० क० । श्रदलीस adaru-lisa - रू० स्वेद, धर्म, पसीना । ( Perspiration ' लु० क० । श्रदमू'न adarmüna-श्र० सूर्यमुखी, सूरज | मुखी (Talianthus annuus, Linn.) दर्शक adarshaka - हिं० संज्ञा पुं० पदार्थस्थित गुण विशेष | यह पदार्थ का वह गुण है जिससे उनमें से कुछभी नहीं दीखता । इसे “अपारदर्शक वा अस्वच्छ भी" कहते हैं । श्रोपेक Opaque - इं० । श्रबैज़ हक़ीक़ी - अ० 1 श्रदर्शन adarshana - हिं० संज्ञा पु ं० [सं०] ( १ ) अविद्यमानता । श्रसाक्षात् । ( २ ) लोप विनाश | For Private and Personal Use Only Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अदलः adalah-सं० पु० (१) समद्रपल | श्राता है और प्रायः धातक होता है। (२) श्रदल adula-हि.सं आँख का पथरा जाना । (३) लालाटीय सुनहिं० । हिजलवृक्षः-सं० । (Barringtonial वादह, रोग विशेष । (४) अर्वाचीन मिश्री हकीम acutangua, Gurtn.) श० च० । चतु के स्फटिकवत् द्रव को भी सदसिस्यह, (२) घृत । Ghee(Clarified butter)! (मासूरिकीय ) कहते हैं, जो बांग्ल शब्द लेन्स -हिं० वि० [सं०] (१) बिनादल घा पसे का श्रीक पर्याय है। म० अ०। का। पन विहीन । ( २ ) पंखड़ी रहित सदसुरुमाaadasul-māa-१० हंसराज अथवा दलशून्य । काई भेद । (Adiantum venustunm, lon. or a sort of inoss ). अदलसा adulasi-६०, हि. वासा, मडूसा। (Adhatoda vasica.)। असुल्मुर adasulmur-० अप्रसिद्ध घोषध । (An uniimportant drug). अदला adali-सं स्त्री० घृत कुमारी, घीकुवार (Aloes Barbedensis) |रा०नि०।| प्रदहन adahana-हिं० संज्ञा पुं० [सं० श्रदली adali-हिं० वि० [सं० अदल] (1) भादहन खूथ जलाना ] खौलता हुमा पानी । बिना पत्ते का । (२) पंखड़ी रहित । भाग पर चढ़ा हुम्रा पर गरम पानी जिसमें दाल चावल भादि पकाते हैं। अद्वो aadhvi-० अकरी का बच्चा । ( A. kid ) लु० क०। प्रदr adahya-हिं०संज्ञा पु. पक्षास्थित गुण अदबोका adavikā-यु० भूतांकुश । (An | विशेष । यह पदार्थ का यह गुण है जिससे वे जल Indian plant ). महीं सकते अर्थात् "मज्वलनशील" पदार्थ । अदस aadas-अ० मसूर । नरक-फा०1 (E: ( Incombustible ). vim lens, Linn.) प्रदक्षिण addakshina-हिं० वि० [सं०] अदस aadas-१० मसूर-हिं० । नश्क-फ० । अकुशल, अनाड़ी। प्रदात adata-श्न शस्त्र, अन, कारीगरो । उद्यात A sort of pulse or lentil ( Erv. un hirsutum) ल. क. । ई० मे. (प० व०)। म. ज. । मे । यादा adada-घर० मा जरियून भेद । प्रश्नीस । लु० 4.0 । श्रदस जबली aadasa-jiubali-अ० श्वेत goria 17 TT ( Viola odorata ). 1977 atlánuddubba- ) लु० का। | अदानु:दुब्बadanul-dubbaaa-. अदस नबतो aadasa-mabati-० (A प्राण्यतम्बाक, बन तम्बाकू (Wild plant like lentil ) मसूर के सदृश एक Tobacco, Mullein)-इं0 Verba. पौधा है। ल• क०। scum Thapsus--wo अदसबरी aadasa-barri-अ० जंगली वा बन अदाम aadlāma-अ० (A kind of Date ___ मसूर । (Will lentil). लु. क. !! palm.) तरखजूर भेद। यह मदीना में होता श्रदसिथ्यह. aadasiyyah है । लु० क०। अदसह, aadasth | श्रदामिल aadamila-अ० पुरातन स्थूल वस्तु । -अ०(१)मसूरिका | प्रेग के प्रकार का मसूर | लु० को | सरा एक दाना है जो मनुष्य शरीर पर निकल अदार aadara-०पृथ्वीपर चलने वाला प्राणी, For Private and Personal Use Only Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मशागका अद्हनुन अनउल प्रखर थलचर । ( Moving on land,terme. ! -२० स्त्री० ( Unmenstruating strial). लु० क०। woman) वह सी जि.से प्रार्तध न पाता हो। अदारिका adarika-सं० स्त्रो० वृक्ष कमल, | वह जिसका मासिकधर्मरुक गया हो | नष्टार्तवा। वृत्तास्पल-सं० । उलट कम्बल-वं०। (Pete. रजः शून्या। rospermum aserifolium ). वै. अदृष्टम् addrishtam संकी. जो नेवसे श्रोझल निघ०। हो । अथर्य। सू०३१ । का०२ । प्रदाहत dihata-हि. वि० [सं०] न अष्टहा adrishaha बह कीट जो घाँख से न जलाने वाला, जिसमें जलाने धा भस्म करने का दीखें, अणुवीय । अथर्ष। सृ. २३ । गुण न हो जैसे, जल में। ६।का । अदिक adike-कना० सोंड, शु। ( Dry: अदृष्टिः advishrih-सं० ० (१) ___ ginger )- देखो-आर्द्रक । अदृT adrishti-20 था. अंधा,अंध मदित adita-हिं० संज्ञा पुं० दे० प्रादित्य।. (Blind)। (२) शिष्यों के तीन भेदों में अदितिः aditih-संस्त्री० Acowवि, गायक से एक । मध्यम अधिकारी शिष्य । अदील iadila-० पुरातन स्थूल वस्तु । ल० प्रदेद adaha हिं० वि० [सं०] बिना शरीर का । क०। : संडा पु कामदेव । अदुतिन पालई adutin-palai-ता. कीडामार, भदौरो adouri-हिं० संला स्त्री० [सं० शुद्ध, गंधानी-हि । फ.०९. ३ मा०। (Aristol. पा० उई, हि. उद०+सं० बटी, हिं० बरी] ochia bracteata,Retz.) । केवल उर्द को सुखाई हुई बरी । अदुमालदा adunattada-.ना. जंगली अशः adanshah-सं.पु. महालक । बह पिकवन, अन्तमूल-हि० । देखो-अन्तमूल । मूला-यं० । See-mahamulakah. ( Tylophora Asthmatica ). ! अदाँत adanta-हि. वि. [२. अवन्त ] बिना फा००२ मा०1 दाँत का । जिसे दॉत न अाए हों। (प्रायः पशुओं अदुल adul- हिं• प्रोदुल, पुबान, पुवेत । मेमो के सम्बन्ध में)। अदनाः adānāh-सं० विना जले ही सूख जाना । | अदज adaaj-अ. श्यामचक्षु, काले नेवाला। अथवं । सू० ३१ । ३ । का०२। ब्लैक आईट (Back eyed )-ई. । अरक adrik-सं० त्रि. ग्रंधा, अंध । (Bhind). म० ज०। वे. श० । अह aadd-अ. (.) गिनना, गणना करना अहम् adrig-सं० पु. पृत ghee (Clari.. ( Count), (२) उद्यत करना, तैयार fied butter ). 30 || अढ़ः ॥dridhah -सं० त्रि. (.) अस्थिर । करना ( To make ready)। म० ज० । ( Restless, Unsteady ) । (२) | अहन्दु.स्सोनी adilandussini-अ० जमाल-ली. तृणविशेष । ( A kind of grass). गोटा ( Croton sceds) | म. १० बै० निधः । डा. २ भा०। अहद adri ha-हि. वि० [सं०] (१) जो अहोजतालुल-फर्फरो addijatalul-farfiri रद न हो । कमजोर । (२) अस्थिर । चंचल | -अ० (Digitalis Folia) डिजिटेलिस। अश्र adrishra-सं० अन्धा, अंध | (Blind) म० अ० डा०२ भा०। अदृष्ट पुष्पवती adrishta-pushpa-vatil | अदुदुह नुन्न अनल अखज़र adduhnunATTi allrishțártavá ____naanaaula khzar-० रौशन नअन For Private and Personal Use Only Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अहदन अद्विजः सदन फतामा हरे पुदीना का उदनशील अद्यम् alytm-सं० को • धान्य । ((Olyzik तेल (Oleum ninthia vitrilis ). Satisa) देवा-धान्यम् । म० अ० डॉ० २ मा० । प्रद्यश्विना adyastusini अहदन adduilat-अ० रफ कृमी सं०। कृमी- अधश्चाना ulyashrina -सं० श्री. श्रासन दाना । (Cochivealt० अ. डा०२भा. प्रसवा गवि, हाल की व्याई गार । ( Receदेखो-कोची नोल। it.ly born cow). श्रद्द द सिटग adludatussibalh-अ० अद्रका dink th-सं० पु. महा नभ्य वृत्त, कृमीदाना । देखो-कोचोनील । (Cochineal). यकाइन । (Iclin azedarach, Linn) वै० निध० । म० अ० डॉ० २ मा अदना adhāt-अ. कृश होना या कृT करना, ! अइव asava-हि. वि० [सं०] जो द्रव जतप्राय होना । म० ज० । i वा पतला न हो । गादा, घना, ठोस । अद्भुत बालक adbhutahalakatश्रव्य allavya-हिं. संज्ञा पुं० [सं०] यंदा पु० विलक्षण बालक । (fonster ). सत्ताहीन पदार्थ श्रवम् । असत् | शून्य । कभी कभी जन्य दो शुक्राणुनों का एक डिम्ब से प्रभाव। संयोग ही जाता है। नय ऐसे गर्भ से जो बच्चा . अदगम् ॥dramm-अ० दुग्ध दन्त का हिलना, उत्पन्न होता है उसके दो शरीर होते हैं जो अपस जिससे वह गिर कर उनके स्थान में नवीन देत मंजुड़े रहते हैं। इनकी अद्भुत बालक कहते हैं। . उगें । म० ज० ! ये बालक बहुधा अधिक का नक नहीं जिया अद्रिः addrih-सं० पु. (१) पर्वत (Mouकरते । ___ntain.)। २) शैलन( Hilly-trety ). अद्भुतसार: adbhutasarah-:. पु.: मे० रद्विम् । ( ३) परिमाण विशेष (A खदिरसार, खैरमार | ०नि०१० ८। देखो- ' weight. ) खदिर। अद्रिकर्णी dri-karni-सं० श्री० (१)अपश्रमह, admah-- अधोचर्म, निम्न वा गजिना (Clitorea ternata, Linm.) धः त्वचा । कोरिश्रम (Corium), डर्मा । (२) श्वेतापराजिता, विष्णुकान्ता | ग० मि. (Derma).ई.। व०२३ । नोट-त्वचा के स्थूल निम्। भागको 'पद्मह' अद्रिका adiki-0 स्त्रो (1) महानिम्ब और पतले ऊर्ध्व परत को 'वह' करते हैं।' (Melin azedarnch)। (२) धान्यक, म० ज०। धनियों । ( Coriandrum sativum, अमिय्यह admiyyah--अ० त्वगन्तर, त्वगधः।।। _Linn. ) भा० पू० १ गु० ०। म० ज०। अद्रिकी adviki-कना० सोंड, शुलि। ( Dry अद्य ndya-सं० 'भाजन । ( Food ginger'). देखो-आद्रक । ___ -हिं० क्रि० वि० [सं०] अब । अभी । श्राज । अदिछिद् drich hid-हिं० संज्ञा पुं॰ [सं०] प्रयतन: ndyatanab-सं० वि० । प्रसव . अन । बिजली ! ( Lightning). अद्यतन adyatant-fवि० । ' अद्रिजः drijah-सं० त्रि०(१) गिरिजात । अद्यतनीय । श्राज के दिन का । वर्तमान । पर्वत से उत्पन्न । -क्ली० (२) शिलाजतु, शिलाजीत । अद्यनि: ndyanih-सं-पु. अग्नि । (i ) (Bitumen)२० मा० रत्ना० । (३) तुम्वुरुवृक्ष (Xanthoxylon ala tum). For Private and Personal Use Only Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अद्रिजतु अवियह मुरकर रा०नि० व. ११। (४) गैरिक (Sce-! अदा allva-० अस्ल मिदी । (१) यीGairika), मारी की छून या लाग जो एक से दूसरे को लग जाए। (२) रोग का वह विष या व्याधि बीज अद्रिजतु adirijatil-60 तो शिलाजनु, शिलाजीत I (Bittimem) हेमा० । भा०। अर्थात् छुन या लाग जो रोगाक्रांत प्राणि द्वारा देजा advija-सं-स्त्री. सिंहली पीपल-हि । स्वस्थ व्यक्ति को लगकर उसी रोग का प्रादुर्भाव महल पिप्पली 'प-सं० । ग०नि०व० ६। करती है। (३) एक व्यक्रि की व्याधि का अन्य को लग जाना । (४) वह रोग जो एक से See-Sainhalí. अन्य को लग जाए। काटेजियन् ( contaअद्रिभूः ndribhuh-5. क्लो. पाखुकर्णीलता। -60 । भूपाकानी, मूपाक -हि । (Salvi. . gion), इन्फेक्शन (Infection)-ई। hitt ellculatu)। ग. नि० २०३।। देखो-संक्रामक रोग या यकटेरिया । पार्वतीय लता ( Hilly creepers )। श्रद्वार dvār-०(ब० ब०),दौरह, (ए०व०) अद्रिमाया drinasha-सं० प्रा० बनमाप, पोय, पारी, बारी, रोगों की पारी, वेग, दौरा । वन उड्द, माषपर्णी । (Terranus labia पैरों क्सिाम Proxy sim, फिट्ज Fits-इं०। lis) वै० निघ म० ज०। अद्रिमान जा addri-sānuja-सं. ली. वाय- अद्वितीय ndritiya-हिं० वि० [स] प्रधान । माणा । वै० निघee-Trayanānā. मुख्य । अद्रिसार: drisarah-सं० पु. ) ( ) । अघियह adviyah-१० (400), दवा (एक व०) औषधे, श्रोपधियाँ । रज़ Drugs अद्रिसार lrristira-हिं०संज्ञा पु. लोह, -९० म.ज. । लोहा Tyon (Felim)। रत्ना० । | अदवियह खक adlviyah-khushka-का. (२) शिलाजीत ( Bitilimen). खुश्क औषध, सूखी दवा ; ( Dried अद्रेष्का, का alreshkah,shki-सं० पु, ! rugs )। स्त्री० बकाइन-हिं० 1 निम्ब भेद। पाहा निम् : अदवियह खुश्बू allviyah-khushbu-फा० -वं० । भैष० कुष्पचि०। (Melia Azed (Aromatic drugs) सुगंधित श्रौषध, ararh.) सगंधित वस्तुएँ जो भोजन में प्रयुक्र होती हैं, अट्रोक addrok-बं० श्रादी,*गवेर | Zingibar : यथा-लोग प्रभृति । मसाला । officinalis, Ror). (Fresh root: 6. T adviyah.tar-filo nat of-iletin ginger ) । देखो-आईक। शोषधि ( Fresh urugs). अदुल 11-० घण के खुरण्ड का स रखकर गिर : अवियह बतीतह, adlviyth-busitah | जाना 1 म० ज० । अद्वियह मुफरदह adviya b-mufadah | अद्ल aadla-अ० न्याय, न्याय करना; समान -अ० साधारण औषधियाँ । अमिश्रित (अकेली) करना, सादृश्य करका | म० ज० । श्रीवधियाँ । सिम्प्ल ड्रग्ज (Simple dru. अद्वद् anirah -अ०(१) संक्रमण,छूत | gs) ई० । तअदियह taaadiyuh | लगना, किसी छूतदार | अद्वियह, मुरकब, adviyah-inutrakar रोग का एक दूसरे को लगना । (२) वह छूत h ah-मिश्रित व यौगिक औषधे । वह नौअथवा विशेष कीटाणु (रोग सम्बन्धी) विष जो अन्य औषधियों से मिश्रित की गई हों, जिससे उक्र रोग उद्भूत हो । (Contagion, यथा पाक, शर्यत, खमीरा प्रभृति । कम्पाउण्ड डाज Infection)म० ज०। Compountl drugs-ई०। म० ज०। For Private and Personal Use Only Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अधमः भघियह हारह २७२ अवियह हारह. adviyah-harlah R० अधगोहुआँ adbagohuai- हिं० संज्ञा पु. . (मबाजीर) गरम मसाले को कहते हैं। [सं० श्रद्ध+गोधूम ] जो मिला हुमा गेहूं। अद्हान adhān-१० (य. य०), दुहन अय dhanga-हि० पु माझियात, पक्षा. (ए. व.)। तैलम्-सं० 1 तेल, तैल-हि । घात | ( Palsy, Ilmiplegia.). रोगन--फा० | Oil (Oleum ). अधङ्गी adhangi-हिं० वि० पक्षाघात रोगी, मध adha-अव्य० दे० प्रवः । वह रोगी जिसे पक्षाघात हुना हो। (Affec. वि० [सं० अद्ध, प्रा. अदा] प्राधा शम्द ted with hemiplegia ) . का संकुचित रूप । प्राधा । ( Half). अधजर adhajara-हि. वि. पु. [सं० अधकचरा adhakachari हिं०वि० [सं० अ +हि. जलम ] अधजला । अधमरा । प्रद्ध अद्ध आध+हिं०-कथा(1) अपरिपक्क । ! विदग्ध । ( Half-burnt.) अधूरा | अपूर्ण । (Unripe;Imperfect). | अधड़ी adhari-हिं० वि० स्त्री० [सं० अधर ] (२) अकुशल । प्रदर।। (.)न ऊपर न मीचे की, प्राधार रहित । निरावि० [सं० अद्ध आधा+हि. कचरना] धार । ( Suspending; In the midd. श्राधा कटा बा पीसा हुआ। दरदरा । अधपिसा ... le) अधकुटा । अरदावा किया हुमा । ( Course अधपई adhapai-हिं० संज्ञा स्त्री० [सं० मई' powder) प्राधा+पाद-चौथाई ] सोलने का एक गाट । एक प्रयकच्चा adha-kachcha-हि. वि० : सेर के श्रावें हिस्सेको तौल । प्राधा पाव तौलने (Half-ripa) अधपका ।। का बाट वा मान । दो छटैकी । दसभरी । अध. अधकपारी adhakapari-हिं० स्त्री० ) पैया । अधपौया । (A imeasurement अधकपाली adhakapāli-fह स्त्री =4 oz.) [सं० अर्द्ध-प्राधा+कपाल-सिर] प्राधे सिर का दर्द जो सूर्योदय से प्रारम्भ होकर दोपहर अधवर्नी adha harni ! - बं० जलनीम सक बढ़ता जाता है और फिर दोपहर के बाद से अधविन; adhabirni ( Herpestघटने लगता है और सूर्यास्त होते ही बंद होजाता ! is monnieria, '! hime leaved है। आधासीसी, सूर्यावर्ग। (Hemicrania). herpestes) t० हैं. गा० । मे• मो० अविभेदक। अधमरा adhamasa -हिं० वि० सं० अधखिला adhakhila-हिं० वि० [सं० श्रद्ध। अधमुश्रा adhamia अद्ध', प्रा० अद्ध +हिं० खिलाना] [स्त्री० अधखिली ] (Ha.. f-blown ) आधा खिला हुआ। श्रद्ध! +हि. मरा ] श्राधा मरा हुा । अमत । मृत विकसित । प्राय। (Half-dead) अधत्रुला adhakhuli-हि. वि. पु. [सं० : अधमाजम् adhamangam-सं• ली । अद्ध प्राधा=हिं० खुलना] [स्त्री० अधखुली ] अधमांग adhamānya-हिं० संज्ञा पु० (Half-opon) प्राधा खुला हुश्रा। पाद, घरण, पैर, पाँव । देखो-चरण । श. अधगति adha.gati-हिं. संज्ञा स्त्री० दे० : च०। अधोगति। अवमुख adhamukhaa-हि. संज्ञा पु. अधगो adhago-हि. संज्ञा पु० [सं० अधः= [सं० अधोमुख ] नीचे+गो-इंद्रिय ] नीचे की इंद्रियाँ । शिश्न वा अधमः adhamah-सं० पु. (१) अम्लवेत, गुदा । ( Lower crgans; Penis | अम्लतस । ( Rume x vesicarius ). or anus). । (२) पाद ( Foot)। For Private and Personal Use Only Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भैधर २४ अधर नासाशक्तिका अधर adhara-हि०संज्ञा पु'० [सं०] (1) भोठ, | अधर ग्रहणी adhara-grahani-सं० रा. ओष्ठ । ( Lip, Labium ) । शत-०। (Colic valve or lleo-circal). लब-का. । (२) नीचे का प्रोड ( Lower- | अबर चतुपिण्ड adhara.chatashpindalip) | -संज्ञा पुं० [सं० अ-नहीं+-धरना ] ___ हिं०संक्षा पु०( Inferior colliculus ). (1) पाताल । (२) बिना प्राधार का स्थान । सात बारadhara-chatushnअन्तरित | आकाश । शून्य स्थान । inda bahu-हिं. संज्ञा स्त्रो० (inferior वि० नीच, बुरा । brachium ). अधरकण्टकः adhara-kangakah-सं० अथर-चालनी-ओष्ठ-नाड़ी adhara-chalani पु० जवासा, धमासा, दुरालभा । (Alhagi ___oshtha-nari-हिंस्त्रो० ओठ चलाने वाली maurorum ). ० नि० 1 नाड़ी। अधरकण्टिका dhara-kantika-सं० स्त्री० अधरज adhara ja-हिं० संज्ञा पुं० [सं० छोटी रासावरी, चुद शतावरी । (Asparag अधर+रज ] अोठों की ललाई । श्रोठों की सुरखी । us racemosus (The small var (२)ोंठों की धड़ी, पान वा मिस्सी से रंग of-) कै० निघः। की लकीर जो ओंठों पर दिखाई देती है। अधरकएख्या adhara-kanthya-सं० स्त्री अधर जंघासन्धिः (dhara-janghāsa (Iuferior or Inferior--laryng ndhih-coat (Dista! Tibio-fib eal Artery ) कण्ठायोगा धमनी। ular ). अधरकाकलकीया adhara-kākala.kiya | अधर जानी adhara-janavi-सं० स्त्री० -सं० स्त्री० ( Inferior Thyroid (Inferior genicular ). artery) अधः चुनिका धमनी । अधर-तिरश्चीन स्थाविर विबलः adharaअधरकाण्डसिरा adhara-kānda-sira | tirashchina-sthavira-vibalahअधरकायसिरा adhara-kāyasira सं०५ Inferior-transverse tibio. -सं० स्त्री० (Inferior Vena cava)| fibulal ligament). अयोगा महाशिरा । प्रजौफ़ नाजिल, अजौफ़ | अधरदन्त्या adhara-dantyi-सं० सी० तहतानी-अ०। ( Inferior alveolar ). अधरकेदारः adhara-kedarah-सं० पु. अधर दार्शन केन्द्रम् adhara-darshana. (Cerebellar Fossa) लघु मस्तिष्क ___kendram-सं० पु'०, क्ली० (Lower खात । हु.प्रह, महमखिय्यह-१०। visual centre ). अधर कौक्षय (यी) adhara-kouksheya, अधर धमनी adhara dhamani-सं० स्त्रो. -yi-सं० स्त्री० ( Hypogastric ) (Inferior labial) अधः प्रोष्ठीया धमनी । कौक्षोया, पेडू सम्बन्धी । खस.ली-अ.। अधर धारा adhara-dhāra-हि. संज्ञा स्त्री. अधर गल-सङ्कोचनी adhara-gala-sankol अधोधारा, निम्न किनारा ( Inferior chani-सं. खी० ( Constricter | border ). Phary.) कंठ संकोचनी। अधर नामनी adhara-nāmani-सं० स्त्री० .. अधर गुदः adhara-gudah-सं० प (Quadratus labii inferioris). (Anal canal). गुद नलिका । अधर नासाशुक्तिका adhara-nasashuk. ३१ DE For Private and Personal Use Only Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २७४ अधर पश्चिमसरदा अधरा _tika-सं० स्त्री० ( Inferior masal -सं० क्ली० (Cere bellum) अणु मस्तिष्क, concha) अधोशुक्तिका। लघु मस्तिष्क अधर पश्चिमसरदा adhara-pashchima- | वधर यमला adharka-yamili-सं० स्त्री० saradá-KİNESIO (Inferior post- (Etemelus 1vferior ) Faton TATI I . erior serratus). अवर ललाट सीता adhis-lalitil-sita अथरपान adhara-para-हि. संका प. __-हिं० संज्ञा स्त्री० ( Inferior frontul [सं० अधरम्योपानपीन', चूसना ] सात ____sitleus) प्रकार की बाह्य रतियों में से एक रति । श्रांठों अथर-वर्तिमका tihara-Vartimiki -सं० का चुम्बन । स्त्रो० ( Inferior Palpibral.) अधर-पायवी alhara-pāyari-सं. स्त्री० | अधर-वस्तीया adhuriz-vastiya-सं०स्त्री० ( Inferior Humorrhoidal. )| (Inferior vesical.) अधरपाणि नौकीयः adhara-parshni-no- | अधर-व्रणः adhura-sunah-सं० प. ओठ ukiyah-सं०नि० (Inferior Calca का घाव, ओ में होने वाला नण। neo-naviculas.) अधर द्रणका यल-घृत, फाणित अधर-पृष्ट-कीया बनता adhala-prishta. ( गुडभेद ), तिल तैल, धतूरा, गेरू, kiya-vallata-सं० स्त्री० (Obliquus | राल, लवण, मै नफल इन्हें एकत्र पीसकर Capitis Inferior. ) लेप करने से गोठ (अधर) का महात्रण (घाव) अधर-पेश्या adhara-peshya-सं. स्त्री० । तथा श्रोंठों का फटना दूर होता है। ( Sural muscular. A.) अधर शाखा क्षेत्र adhasa-shik ha-ksheअधर-प्रकोण-गो-जिह्वकीया adhara.prakori tra-fco FETT ESO ( Lower extro na-go-jihvakiya-सं० स्ना० (Infe- | mity area ) rior Aryepiglottideus. ) । अधर adhitra-shringt-हिं०संज्ञा पु. अधरप्रकोष्ठ-सन्धिः adhala-prakoshtha (भगास्थिका) inferior horm (Coru). san:hili-Ho 1o Distil Rarlio 10- अधर-साय की alhaja-sayaki-सं० स्त्रो० ular joint ) (Inferior Longituclinal.) अधर प्रास्तर-सरिका adhura-prastara sahitka-सं० सो० ( Inferior Pet:- ! अधर-हानी alhara-hanavi-सं० स्त्री० osal Sulcus.) i (Handibulal ) अधर पास्तरी llharu-prastari-सम्रा० अधर-हार्श addha.la-harli सं० स्त्री० (Inferior latiosal Sinus.) (Inferior Cardiac.) अधर प्रेरिकी adhara--prainiki-सं० स्त्री० श्रधरः क्षुद्रांत्र adhara-kshudrāntra (Inferior Phrenic. ) -हिं० संशा जी० (Ileum ). देखा-तुद्रांत्र । अधरनीधी (थी) addiyar-proudlii (--thi ) . प्रaraसखी adhara-shutiri-sathi O Esito ( inferior Gluteal. ). OSIO ( Voua Ilemi-azygos ). अधर बिम्ब adhara-bimba-हिं० संश पु० : अyadhari-सं. स्त्री० निम्न, निम्न दिशा, [सं०] कुन्दरू के पके फल जैसे लाल श्री। नीचे की तरफ। ( Dowtrards) वं. अधर मस्तिष्कम् adlara-mastishkanna निघ। For Private and Personal Use Only Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अधराग्नया शयीय पौरोतती अधमारी अधरानया शय पारीतती adharignyi अधराक्षि कुण्डीय विशरणम् dharakshi.k. .. shayiya-pouritati-सं० स्त्रो०( Inf| undiya-visharanam-सं० क्लो०( In. erior Pancreatic duoleval art ferior Orbital fissure ). ery ). अ० श०। अयोधुः lhalelyuh-हिं० संज्ञा पुं० [सं०] अपराच्यम् adharachyan-सं० को नीचे : गत दिन के पहिले का दिन । परसो । भूमिमें सरकने वाले कीट । अथर्व० । स०७। अपरात्तर adharottara-हिं० वि० पु. ३। का० । ) ऊँचा नीचा । खइबीहड़ । थधाजिdhurijih-सं. स्त्री० (Unst- अवरोत्तरकोक्षेयीadharottara-kouksheyi ripad musels ).धारी बिहीन मांस पेशी । - सं० स्त्रो०( Inferior Epigastric) अधरा जिह्मा duara jilhna-सं० साल अधरोथा indhurontha-हिं० वि० [सं० ( Rectius Infrior). अधरासरला।। अर्द्ध = अाधा+रोनंथ = 'जुगाली ] प्राधा जुगाली कियाहुन। । अाधा पागुर गिया । अाधा चबाया श्रधराश्चम् adhuranchan-स० को० नीचे हुया । दवाना ! अथव०। सू० १२७ । ३ । का० ६ । अधरोचकौक्षयो adharordhva-koukshअधातानिक रासनो adhura-tāsika-ii- eyi- aio (Deeper Inferior Sani-सं० स्त्रा० ( Longitulinalis Epigastric). Lingua Inferior ). अवरोष्ठया adharoshthyā-सं० स्रो०( In. अधरातानिका adharitāniki-सं० स्त्री० ferior Labial ). (Inferior Longitudiunls.), अधरोदूखल-स्रोत: adharoudakhala-sro. ___tah-सं० पु. (Mandibular caअवराधर adharadhalu-हिं० पु. [सं० । 11a1 ). अधः+अधर ] नीचे का ओठ (Lowerlip) अधरीदवलो adharoudukhali-सं० स्ना० अपरान्तर कीपरो alharantara-kour. (Inforior Alveoler ). pari-सं० स्त्रो० (Inferior Umar ). अयरोपमस्तिष्क पदकम्d haroupatnasti. 171914 19. aldaráutiíyit-plak- shkil-paddakam-सं० पु.(Inferior shukain-सं० बी० (Inferior mes. Cerebellar Pelum or Pedu. enteric Plexus ). ncle ). अधरान्नाया adharantriya-सं० ला अधरंगा adharanga-हिं० संज्ञा पु० [हि. (Inferior mesenteric). श्राधा+रंग ] एक प्रकार का फूल । अधरः adharah-सं० पु. (१) पोष्ठ, ओठ श्रधरामहाशिरा adhara-mahashiva-हिं० --हिं० । टोट-बं० । लेवि यम् Labium,-iaस्त्री० अधोगामहाशिरा( Inferior-vena ले० । लिप (Lip)-इं० । रा०नि० व०१८। cava ). -ला. (२) स्त्री योनि ( Vagina ). अधरावनता adharaivanata-सं० स्त्री० अथवा adhavi-हिं० संज्ञा स्त्री० [सं० अ+धव (Obliquus inferior ). -पति) जिसका पति जीवित न हो । विधवा । अवरांसवरा adharansardhara-संस्त्रो। बिना पति की स्त्री । राँड़ ! सधवा का (Lower subsea.pular ). अंसाधरा उलटा। अ. श०। | अधवारो addhavari-हिं० संज्ञा स्रो० [ देश०] For Private and Personal Use Only Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रधश्चर अधिजिशिका एक पेट का नाम जिसकी लकड़ी मकान और अधिकरणम् adhikaranam-संकी जिस असबाब बनाने के काम पाती है। अर्थका अधिकार करके और अर्थोका वर्णन किया अयश्चर adhashchara-हिं० वि० [सं०] जाए उसे अधिकरण कहते हैं । जैसे रस अथवा जो नीचे नीचे चले। दोष अर्थात् रस का अधिकार करके और बातें कही गई या दोष को अधिकार करके या यों अधसेरा adhasera -हिं० संज्ञा पु. [सं० कहो कि रस के ग्रहणार्थ रस शब्द कहा गया अद्ध प्राधा सेटक=पेर ] एक भाँट वा तौल जो (कई जगह विना कहे भी उसका ग्रहण किया एक सेर की प्राधी होती हैं । दो पाव का मान । जाता है। ये सब अधिकरण ही होते हैं)। अधस्तल adhius tala-हिं० संज्ञा पु[सं०] सु० उ० ६५ अ । यमर्थमधिकृत्योच्यते (१) नीचे की कोठरी । (२) नीचे की तह ।। तदधिकरणम् । यथा-रसं दोषं वा।६। (Inferior Surface ) जहाँ कोई काम किया जाता है। अधिष्ठान | अधस्तल कारिणी adhasta.la-kārini-सं० | श्राधार | सु०सू०४१० । सु० उ०६५०। हिं० स्त्री० ( Pronator t:Yes). अधिकार adhikara-हिं० संज्ञा पं० [सं०1 श्रधातु adhi tu-हिं. संज्ञा पु० (You me (1) कार्यभार । भुरव । प्राधिपत्य । प्रधाtal) जिनमें धातु के लक्षण न पाए जाएँ। नता । (२) प्रकरया । शीर्षक । (३)तमना । देखी-धातु। सामर्थ्य | शतिः। अधिकारी adhikari--सं० पु. पुरुष । (A अधामार्ग: adhamargah-- ____man) वै० निघ। अधामार्गवः addha-mārgavah अधिकारी adhikari-हिं० संज्ञा प[सं०अधि. -सं००(१) अपामार्ग । ( Achyran- कारिन् ] [ स्त्रो. अधिकारिणो ] (२)योग्यता thes aspara) धामागव वृक्ष | Sce. ! घा क्षमता रखने वाला । उपयुक पात्र । (.) Dhamargavah | अटी। स्वत्वधारी । हकदार । (३) प्रभु । स्वामी । श्रधावट adhavara-हिं० वि० ए० [सं० अधिकृत adhikrita-हिं० वि० [सं०] (१) प्राग्राधा+मावर्त=चक्कर ] प्राधा श्रौटा हुआ। अधिकार में पाया हया। हाथ में पाया दुचा। जो पोटाते वा गरम करते करते गाढ़ा होकर ! उपलब्ध । जिस पर अधिकार किया गया हो। नाप में श्राधा हो गया हो। संज्ञा पु. अधिकारी। अध्यक्ष । अधि adhi-(ASanskrita Pretix) एक | अधिकांग adhikāinga--हिं० संज्ञा पुं० [सं०] संस्कृत उपसर्ग जो शब्दों के पहिले लगाया जाता अधिक अङ्ग । नियत संख्या से विशेष अवयव । है और जिसके ये अर्थ होते हैं-(1) ऊपर । वि० जिसे कोई अवयव अधिक हो । उ० ऊँचा । पर। (२) प्रधान । मुख्य । (३) छांगुर । अधिक । ज्यादा। (४) संम्बन्ध में । उ० श्राधक्रम aankr प्राध्यात्मिक । श्राधिदैविक । श्राधिभौतिक । । पारोहण | चढ़ाव । चदाई। अधिकराटक: adhi.kantakah--सं० पं. अधिजिह्वक: adhi-jihvakah-स. प.निद्वायास सुप, दुरालभा विशेष । (Alhagi ma. गत रोग विशेष । देखो-अधिजिह्वा । Seemorum) रा०नि० व०४। । Adhijihvá अधिकारियम् adhika-priyam--सं० क्ली अधिजिह्वा adhi-jihvi ) सं० स्त्री० त्वचा, दारचीनो । Cinnamomum अधिजिहिका adhi-jihvikas (.)रले. zeylanicum, teps. (Bark of- म शाणित जन्य जिला रोग विशेष, इसमें मिता cinnamon ) | बै? निध। के ऊपर जिला के अन्य भाग के समान सूजन For Private and Personal Use Only Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अधिजिह अधिमन्या होती है। देखो-अधिजिह्वः । सु० नि० | अधिपतिः adhi-patih-सं०५० सद्यः प्राणहर अ०१६ । (२) घोड़े की जिह्वा के उपरी भाग | मर्मस्थान विशेष । मस्तक के भीतर ऊपर को में शोफरूप से होने वाला जिला रोग विशेष । जहाँ बालों का पावर्त (भँवर ) होता है वहाँ ज० द० २६१०। शिरा और संधि का सन्निपात ( मिलाप ) है । अधिजिह्वः adhi.jihvah--सं० पु० यह “अधिपति" नामक मर्मस्थान है। यहाँ पर अधिजिस adhijihva--हिं० संज्ञा स्त्री । चोट लगने से तत्काल मृत्यु होती है। सु० शा० एव्युमरॉन दी टङ्ग (A tumour on the | ६ १०। tongue).ई.। हि. प. [ स्त्रो० अधिपत्नी ] सर. ___ कण्टगत मुखरोग | एक बीमारी जिसमें रक्र से ! दार, मालिक । मुखिया। स्वामी । नायक । मिले हुए कफ के कारण जीभ के ऊपर सूजन हो | अधिपति रन्नम् adhipati-1andhram. / जाती है। इसका द्विाजहा भा कहते है। इसक। अधिपति विवरम् adhi-pati-fivarum ) लक्षण निम्न हैं; यथा-इसमें जिम में कफ -सं०को० (Posterior Fontanelle) से शोथ होता है तथा जिह्वा के प्रबन्ध (मूल) पश्चात् विधर । दो मास से कम आयु वाले बापर रुधिरसे मिला हुग्रा र वर्ण का शोध हो जाता | लक के शिर में जहाँ पाश्विकास्थियों के ऊपर के है। सूजन पक जाने पर यह त्यागने योग्य पिछले कोने पश्चादस्थि से मिलते हैं वहाँ पर अर्थात् प्रसाध्य हो जाती है । सु० नि० अ०१६। एक गढ़ा रहता है उसको अधिपतिरन्ध्र कहते अधितुण्डो रसः adhitundi.rasah-सं०५. | हैं। यहाँ भी मस्तिष्कको फड़क मालूम होती है। शुद्ध पारद, शुन्द्र विष, शुद्ध गम्धक, अजमोद, । अधिपय देश: adhiparyunka deshahत्रिफला, सजीखार, जवाखार, चित्रक, जीरा, सं.पु. ( Epithalamus ) कौड़ी प्रसेंधा नमक, कालो नमक, वायविडंग, गंगलव , देश । श्रोर त्रिकुरा प्रत्येक तुल्य भाग लें तथा सर्व तुल्य अधिबिना dhibinna-हिं० संज्ञा स्त्री० [सं०] शुद्ध कृषिला चूर्णकर मिलाएँ, पुनः जम्भीरी के रसमे घोटकर मिचं प्रमाण गोलियाँ बनाएँ । इसके : अध्यूढ़ा । प्रथम स्त्री । प्रथम विवाह की स्त्री। वह सेवन से मन्दाग्नि दूर होती है। अमृ• सा०।। स्त्री जिसके रहते उसका पति दूसरा विवाह अधित्वच: adhitvachah-सं० पु० श्रावरण : भाग । अथव० । सू० २१.१का०६। अधिभूतः albi-bhutah-सं० . जिस अधिदन्तः,-क: adhidantin, kah-सं०प० इन्द्रिय का जो कार्य है वह कार्य ही उस इन्द्रिय दन्तमून्न रोग विशेष, गजनन्त । (A tooth . का अधिभूत विषय है । परन्तु किसी किसी ने growing over' another ) ज.द. उनके विषय को ही अधिभूत माना है। सु. शा० . अ.। अधिदेव adhi-daiva-हिं० वि० [सं०] दैविक, अधिभौनिक adhi-bhoutika-हिं० घि० दे०. दैवयोग से होने वाली, प्राकस्मिक । आधिभौतिक। अधिदेवतम् adhidaivatam सं.की अधिमन्य adhimantha-हि. संज्ञा पु. । अधिदेवतadhidaivata-हि संज्ञा प० । अधिमन्थः adhimanthah-सं० प. (1)पदार्थ सम्बन्धी विधान, विषय वा प्रक- (Acute Pains in the balls of रण । (२) अधिदेवता । प्राधिदैविक रोग। the eyes with pain and swelling देवताधिकृत । सु० शा० १ भ० । of one side of the head.) अभिष्यन्द वि. देवता सम्बन्धी । (पानी पाना ) द्वारा उत्पन्न नेत्र रोग विशेष । ___ - - - For Private and Personal Use Only Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अधिमुकका अधिश्रयणी अभिष्यन्द रोग का एक अंश। यह बातज, पिसज सक" कहते हैं। यह कफ के प्रकोप से होता कफज और रकज भेद से चार प्रकार का होता है। भा० म० ख०४ भा० मु० रो० चि० । है। इन सम्पूर्ण रोगों में तीन वेदना होती है । मा. नि । सु०नि० १६ अ०। यही इनका मुख्य लक्षण है । अभिष्यन्द ( चोक अधिमांसम् adhi-mausam-सं० तो०, ए. उठना, नेत्रशूल ) रोग की उपेक्षा करने से नेत्र रोग विशेष । मा० ने० रो०। देखो-नेत्र फलतः अधिमन्य नामक रोग उत्पन्न होता, (अधि) मांसामं । अधिमांसाम्म alhi-minsātmn:-सं०पु. लक्षण-अभिष्यन्द रोगों के बढ़ने पर उपाय ( Fleshy exerescenc:) on the और पथ्य नहीं करने वाले मनुष्यों के नेत्र में eye, cancer of the cyc ) 1 पीड़ा करने वाले उतने ही प्रकार के अधिमन्थ दृष्टि शुक्रगत रोग विशेष। यह "मांसवृद्धि" रोग उत्पन्न हो जाते हैं। जिस रोग में ऐसी नाम से प्रसिद्ध है। इसके लक्षण–नेत्र के श्वेत पीड़ा होती हुई प्रतीत हो मानो नेत्र अत्यन्त भागमें जो फैला हुश्रा यकृत सदश अर्थात् ईपन् उखाड़े या बांधे जाते हो और आधा शिर मथा नीललोहित वर्ण का मोटा मांस दिखाई देता है सा जाता हो तो उसे अधिमन्थ जानना चाहिए। उसे "अधिमांसा" कहते हैं। मा०नि०। अधिमन्थ वातादि दोपोंके लक्षण से युक्त चार ही · श्रधिरूढ़ा adhi-rhi-सं० स्त्रो० प्रौढ़ा, दृष्टाप्रकारका होता है। श्लैष्मिक अधिमन्थ सप्त रात्रि चा, ३० वर्ष से ( ऊपर) ५५ वर्ष पर्यन्त की मैं तथा रक्रज, वातज क्रमशः ५ व ६ रात्रियों में : अवस्था धाली स्त्री । Soo-Proudha. और मिथ्या प्राचार से पैत्तिक तरकाल दृष्टि का . अधिराहण adhirohana-हिं० संज्ञा पु. नाश कर देता है। - [सं०] चढ़ना । सबार होना । ऊपर उपना । चिकित्सा-सभी प्रकार के अधिमन्य रोगमें अधिरोहिणोandhi-rohini-सं० (हि. संथा) सर्वधा ललाटस्थ शिराका वेधन करें अर्थात् फ़सद , स्त्री० (Stair case, a ladiler.) सीढ़ी । निसेनी । जीना । बाँस का बनाया हुग्रा चढ़नेका करें। इसकी अशांति की दशा में भौहों को मार्ग : इसके पर्याय,-निःश्रेणी। अ०टी० | प्रदाहित करे। सु० उ०६ श्रा निःश्रेनिः (अ.)। अधिमक्तकः adhi-muktakah-सं० पु. धिवास adhivasa-हि० संज्ञा पु० [सं०] माधवी लता । वै० निघte-madha-! [वि० अधिवासित ] (1) निवास स्थल । vijatá. रहने की जगह । (२) महासुगन्ध । खुशबू । अधिमुक्तिका adhi-muktika-सं० स्त्री० (३) उबटन ।। सीपी, मोती की सीपी-हिं० । मुक्रागृहम्, शुक्रि अधिवासन adhivasana-हिं० संज्ञा .. . To Oyster shell (Ostrea | (१) सुगंधित करना । (२) रहना । Edulis ) वै० निध। अधिवृक्ल adhivrikka-हिं. पु. ( Supra अधिमांसकः adhimansakah-सं० पु. renals) उपवृक। (Inflammation of the tonsils) अधिवेत्ता athivatta-हिं० संज्ञा प० [सं०] कफ जन्य दन्तवेष्टज रोग विशेष । एक रोग पहिली स्त्री के रहते दुसरा विवाह करना। जिसमें कफ के विकार से नीचे की दाद में विशेष अधिवेदन adhivedana-हिं. संज्ञा पु. पीड़ा और सूजन होकर मुंह से लार गिरती है। [सं०] एक स्त्री के रहते दूसरा विवाह करना । लक्षा–यदि हनु (डाद) की पिछली तरफ के अधिश्रयणी adhishrayani-सं० स्त्री. दन्त (मूल ) में घोर पीडायुक्र भारी सृजन हो चुलि । -हिं. संज्ञा स्त्री० [सं०] सीढ़ी । और मुंह से लालाम्राव हो तो उसे "अधिमां निसेनी । निःश्रेणी । जीना । For Private and Personal Use Only Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अधिश्रवण अधिश्रवण adhi-shravana - हिं० सं०ज्ञा पुं० : [ सं० ] ( १ ) चूल्हा, भोजन पकाने की अँगीठी, २७६ संदूर | भाड़ के लिए अग्नि स्थान । चुल्लि सं० । ( Ove", A fireplace ) ( २ ) आग पर चढ़ाना | श्राग पर रखना अधिष्ठाता adhishthata - हि० संज्ञा पुं० [सं०] [ स्त्रां० श्रधिष्ठात्री ] ( 1 ) करने बाला | नियंता । प्रधान | ( २ ) किसी कार्य की देख भाल करने वाला । वह जिसके हाथ में किसी कार्य का भार हो । अधिष्ठान adhishthana--सं० पु० कलाई । टखने की हड्डियाँ | ० | कूर्च | सु० । श्रधिष्ठानम् adhishthaum-सं० क्लो० अधिष्ठान adhishthana हिं० संज्ञा पुं० ( १ ) बासस्थान ( Place ) 1 ( २ ) प्रान (Village) 1 ( ३ ) नगर | शहर | जनपद | ( ४ ) स्थिति । पड़ाव, मुकाम, रहरने की जगह । टिकान | रहने का स्थान । ( ५ ) श्राधार, सहारा । अधिष्ठानकला adhishthanakala-सं० [स्त्री० ( Basement membrane ). अधिस्कन्द adhiskanda श्रपने क्षेत्र में । श्रथर्व० । अधिक्षित adhikshipta - हिं० वि० [सं० ] फेका हुन । अधिक्षेप aāhikshepa-हिं० संज्ञा पुं० [सं०] फेकना । अधीरः adhirah--सं० पु० ) (१) अर्धा, अधीर adhira -हिं०वि०, पु० धीरता हीन, धैर्य रहित, जिसको धीरज न हो । उहिग्न, व्यग्र, व्याकुल चिह्नल, बेचैन, घबड़ाया हुआ । (२) योग्य वैद्य । वै०निघ० । (३) चंचल, स्थिर, उतावाला, तेज़, आतुरा ( ४ ) संतोषी । अधो adho-श्र० दे० श्रधः । अधोगा महाशिरा श्रधोश्रो adho-oshtha - हिं० संज्ञा पुं० निम्न दइ । (Lower-lip). श्रधी श्रोष्ठोया श्रमनी adho-oshthiya-dha maní अधः श्रधा श्रमनी--adhahoshthya-dhamani-हिंοसंज्ञा स्त्रो० ( Inferior labial art (ry) निम्न श्रोकी पोषक धमनी । श्रयोऽङ्गम् adho-angam सं०ली० ( १ ) मलद्वार | चूति (Anus) । ( २ ) योनि ( Vagina ). Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अधोऽशुक adho anshukam-सं०ली० शुक adhonshuka - हिं० संज्ञा पु ं० परिधेयवत्र, एक नीचे का वस्त्र | जैसे पायजामा, धोती इत्यादि । श्रम० । ( २ ) अस्तर । श्रत्रोऽन्वायाम रसनिका adho-anváyámarasanika-हिं० स्त्री० ( Longitudinalis ) अधोऽन्वायाम शिरा कुल्या adho-anvayámna-shirá-kulyá-fgo io ( Inferior sagital sivus ). risपित्तम् 1 1 adho-asrapittam-to लो० अधोगत र पित्त रोग | देखो - रक्तपित्तम् । अयोगतः adho-gatah-सं० पु० अस्थिभंग रोग | ( Fracture ) वै० निघ० । अधोगमन adho-gamana-हिं० संज्ञा पुं० [सं०] (१) नीचे जाना । ( २ ) पतन । अधोगा महाशिरा adhoga-mahashira अधोगामी महाशिरा adhogámi-maháshirá f - सं० स्त्री० निम्न महाशिरा । ( Inferior vena cava ) जौफ़ नाज़िल - अ० । दाहिनी र बाईं संयुका श्रोणिगा शिरात्रों के मेल से महाशिरा बनती है। यह उदर में वृहत् धमनी की दाहिनी ओर रहती है। देखो - श्रधोगा महाशिरा । अधोगा महाशिराadhoga-maha-shirá हि० संज्ञा स्त्री० नीचे सब शरीरसे अशुद्ध रुधिर लाने For Private and Personal Use Only Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अगोगामहा शिरा खात २० अधोमुख वाली । नीचे की महाशिरा। ( Inferior | -ई० । (२) योनि-हि. । मह बिल, अनुकरvena cava ). हिम् - १० वेजाइना ( Vagina)-100 अधांगा महाशिरा खात adhoga-imahā-s हे.१०। hiraikhata-हिं० संज्ञा स्त्री० (Groove अयोधारा adho-dhārā--हिं०. संज्ञा स्रो० for inferior vena cava ) निम्नधारा, नीचे का किनारा 1( Inferior border.) अधोगाबृहद्धमनी adhogā-vrihad.dhar | __mani--सं० स्त्री०( Descending ao- | अधोनेत्रच्छद adho-metracbchdada-fre rta) निम्न महा धमनी। संज्ञा पु. (Lower eyelid) निम्न पलक, नीचे की पलक । अधोगामी adho-gami-हिं० वि० [सं० ! अधोगामिन् ] [ स्त्री. अधोगामिनी 1 अधीपाश्विक चक्राङ्ग adho-parshvika-cha. नोचे जाने वाली ( Descending ). kringa--हि. संज्ञा पु. ( inferior अधोगामो महाधमनी dho-gamimahad. | lateral gyrus) hamani-सं० स्त्री० अधोगाबृहमनी। अधापुष्पी adhorpushpi-सं० स्त्री० अंधा. प्रयोगामोवृहअन्त्र adhogami-vrihad. ! । हुली । देखो-अधः पुष्पी ( Adhahpush. antra-finding. (Desconding ___pi). colon) बृहत् अन्न का तीसरा भाग जो प्लीहा अधोपृष्ट adhoprishtha- हिं० पु. भीतरीन से नीचे की ओर जाकर वामपार्श्व से वस्तिगह्वर (Inferior surface ) में पहुँचता है । कोलून नाजिल, कोलून हाबित अधोभाग adhobhaga-हिं० संज्ञा पु. -अ०। ( Base) अस्थि की तली का सौला भाग । अनोगामोवृहत् धमनी adhogami-vrihat- अधोभार adhobhara--( Downward dharmani-सं० स्त्रो० ( Descending pressure) गैसों के तीन प्रकार के दबावों aorta). निग्न महाधमनी । में से एक । वायु का नीचे को दवाव डालना । अधोघण्टा adho-ghanta-सं. स्त्री. (Ac- अधोभागहरः adho bhāga-harah-सं. hyranthes aspera) अपामार्ग, चिचड़ा। त्रि० नीचे के भाग की शुद्धि करने वाला। रत्ना । विरेचन कर्म में हित कारक । विरेचन |च०। अधोजिह्वा adho-jihvā )-सं० स्त्री० | अघोभुवन adho-bhuvama-हिं० संज्ञा पं. अधोजिहिका adho-jihvikis (Uvula) [सं.] पाताल । नीचे का लोक । अधोलोक । • अलिजिता, उपजिला, तालुमूलस्थ पुद्रजिता । | अधोमम्म adhomarmmd--सं० क्ली०(१) हारा०। (२) जिह्वाधः शोथरोग, अधोजिह्वा, गुदा ( Anus)। (२) गुपद्वार ( Pude. की सूजन ( Uvulitis)।च. ndum)। हे० च०। अधादेश adhodesha-हिं. संहा प[सं०] | अधोमार्ग adhoniarga--हि. संज्ञा प. (१) नीचे का स्थान | नीचे की जगह । (२) [सं०] गुदा ( Anus ) । नीचे का भाग। अधोमुख adho-mukha--हिं० वि० [सं०] अधोद्वारम् adho-drāram-सं० क्ली० मलद्वार, (१)नीचे मुख किए हुए । मुंह लटकाए हुए । .. चूति, गुदा,-हिं० । इस्त, दुन, शरज, मन अद्, | (२)। औंधा उलटा । मुँह के बल । कि.वि. मयूरज, रोदए-मुस्तकीम-अ । एनस anus श्रीधा। उलटा। For Private and Personal Use Only Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अधोमुखा,-खी २८७ अधःकाय अधोमुखा, खो adho mukhā-khi-सं० नीचे की शाखा । इसमें नितंबास्थि, ऊर्वस्थि, श्री. गोजिह्वा । गोभी--हिं० । रा. निक जंघास्थि, अनुजंघा, पाली, कूर्च, प्रपाद तथा TOYI ( Elephantopus scaber). अँगुल्य स्थियों का समावेश होता है। प्रत्येक अधोयन्त्रम् adhoryantam--सं० क्लो० | शाखा में ३१ अस्थियाँ हैं, दोनों में ६२ । बकयन्त्र । ( sec-vakayantra). यांशिरा कुल्या adioshira kulya-सं. अधोरेचनः adho rechanah--सं० पु . स्त्री. देखो-शिराकुल्या। भारग्वध वृत्त । अमलतास का पेड़-हिं० । afegeist. adho-shuktika Logo Cassia fistula (Tree of-). अधोसीपाकृतिadhosipākriti अवार्द्ध adhorddha--हिं. कि. वि० [सं०] io (Inferor turtbinate ) art ऊपर नीचे । तले ऊपर । की बाहरी दीवार पर की तीन मुड़ी हुई अस्थियों में से नीचे वाली अस्थि । यह तीनों में सब से प्रधाललाटचक्राadholalata.chakranga बड़ी है और एक पृथक् अस्थि है । इस अस्थि -हिं० संज्ञा पु० ( Inferior temporal की शकल सीपी जैसी होती है। gyrus ). | अधोहनुः adhohaluh-सं० पु. नीचे का अनोलामः adholomah--सं० (हिं०) प० गुण । स्थान के अर्थ भाग के केश को कहते है। झाँट. __जाबड़ा । (Lower jaw ) देखो अयो हन्वस्थि । कामाद्रि केश-हि । ( The hair on the groin). प्रधाहन्वस्थि allho-hanvarsthi-हिं० संज्ञा अयोलंग adho-lamba-हिं• संज्ञा पुं॰ [सं०] स्त्रो० नीचे के जबड़ेकी अस्थि । इजामुल-फक्कुल असफल-० | उस्तत्वानुल-वारहेजेरी फा०। (.) लय । (२) साहुल । मैरिडब्ल ( Mandible ). इन्फीरियर मधेविर्ती क्षदांत्राय धमनी adho-vartti | मैरिजलरी बोन (Interior' imaxillary kshudrántriya-dhainani-to FITO bone)-इं.। (Lower inesontoric artery ) sizi यह चेहरे की अस्थियों में सबसे बड़ो और भानों के नीचे की धमनी । मज़बूत अस्थि है और सब से नीचे के भाग में अधोयातावरोधोदावर्स adho-vā tāvaro ! रहती है, इड्डी (ठोड़ी) इससे बनती है। यह dhodivartta-हिं० संज्ञा पुं॰ [सं०] अस्थि देशी जूते की नाल की भाँति मुड़ी हुई रोग विशेष | अधोमयुके वेग को रोकने से उत्पन्न होती है। उदावत रोग । इस रोग के लक्षण ये हैं-मल मूत्र । : अयंतरी adhantari-हिं० संज्ञा स्त्री० [सं० का रुक जाना, अफरा चढ़ना, गुदा-म्बाशय लिने न्द्रिय में पीड़ा तथा बादी से पेट में अन्य रोगों अध:+तरी] मालखंभ की एक कसरत । का होना। अधः adhah-सं० त्रि० (अव्यय) निम्न | नीचे । अधोवायुः adho-vayuh--सं०५० तले । ( Down, below. )।-संज्ञा पुं० अधोवायु adhovayu--हि० संज्ञा पु. ) (१) अधोभाग, निम्न भाग । (२) योनि । (१) अपानवायु । गुदा की वायु । (२) पाद । वै० निघ०। गोज़ । पढन । नीचे की हवा । See-Apana. अधःकर्षणम् adhah-karshanam-संक्ली० vāyu. ata ataar ( Drawing Downw. अधोशाखा adho-shakhi-सं० सी०( Lo ards.) wer extremity ) निम्न शाखा, धद के | अधः काय adhah.kaya-हिं. संज्ञा पु ३६ For Private and Personal Use Only Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अंधःकुन्तलः २५२ अधःपुष्पी [ अधः नीचे+काय-शरीर 1 कमर के नीचे के श्रीधा कर रख दें। दोनों पात्रों के मुख को अंग | नाभि के नीचे के अवयव । मिलाकर मा मत्तिका द्वारा उनकी संधियों को अधः कुन्तलः adian-kuntalah-सं० पु. । भली प्रकार बन्द कर दें। उपर के पात्र को अन्तलाम। उत्तार देने पर पारद पृथक् होकर जल में गिरेगा । अधः कुति देशः adhaln-kukshiddeshali यह पारद शुद्ध होगा। पारद शोधन की इस -सं०० (Hypogastric region. ) क्रिया को अधःपातन और जिस यंत्र कुक्षि निम्नभाग, पेड़ के नीचेका हिस्सा । इङ्गलीम् । द्वारा यह क्रिया सम्पन्न होती है उसको आयुर्वेद खस ली, किस्म वस.. ली-अ० । में भूधरयंत्र कहते हैं। देखो-पारद । मधःकौक्षय-सक्षम् adhan-kouksheya- "नवनीताद्वयं सूतमित्यादि ।" र० सा० सं०। plakshan-०प० कक्ष्यधः भाग स्थित (२) अर्वाचीन रसायनशास्त्र की परिभाषा में माड़ी जाल | जफ़ीरह, खस लिय्यह-अ० । इसने अभिप्राय विलयन में से किसी द्रव्य का (Hypogastric Plexus.) पात्र तल पर शनैः शनै बैठना अथवा तलस्थायी अधः पतन niha.h-patana-हिं. संज्ञा पुं० होना है। [सं०] (१)। ( Precipitation.) अधः कुछ द्रव्य ऐसे होते हैं, कि यदि उन के पिलक्षेपित वा तलस्थायी होना । (२) नोचे गिरना । यन पृथक् पृथक् शुद्ध जल में बनाए जाएँ, तो (३)विनाश, 'हय, पतन । देखो-अधः पातन । वह विलयन सर्वथा स्वच्छ और पारदर्शक होते अधः पात adhah-pata-हिं० सज्ञा प. हैं। पर यदि उनको मिला दिया जाए, तो उनमें [सं०] (१) अधः क्षेपित (प), तलस्थित, नीचे कोई ऐसा परस्पर रासायनिक विकार होता है, गिराहुा । (Precipitate)। (२) नीचे | कि एक अविलेय वस्तु बन जाती है, जो पहले गिरना। देखो-अधः पातन । (२)तल छर, गाद। विलयन को कलुपित कर देती है, और पुनः अधः पातनम् adhah-patanam-संलो। पात्र तल पर शनैः शनैः बैठ जाती है। इस अधः पातन adhah patuna-हिं०सज्ञा प०।। प्रकार दो विलेय द्रव्यों के मेल से एक भिन्न अधःपातनम् ... इसका शाब्दिक अर्थ नीचे अधिलेय वस्तु का बनना और पात्र तल पर गिराना है । अधःक्षेपण तलस्थिरीकरण । शनैः शनैः बैना अधःपातन (अधः क्षेपण) (१) किन्तु, प्राचीन भारतीय रसायनशास्त्र कहलाता है, और जो द्रव्य पात्र तल पर पैरता की परिभाषा में इसका अभिप्राय "पारद है, उसे अधः पात ( अधः क्षेप ) कहते हैं। शोधन के तीन विधानों में से एक" है । पाय-अधःपातनविधि- नवनीत (मैनुश्रा) नाम का गंधक ग्रेसिपिटेशन Precipitation इं०। तीब और पारद इनको सम भाग लेकर जम्पीर के रस -अ०। तह नशी करना-उ० । से मईन करें। फिर कैयौंच की जड़, शोभाजन की जड़, श्वेत अपामार्ग, सर्पप और सेंधा नमक अधःपात-- (किसी किसी जगह पारद को त्रिफला काथ, प्रेसिपिटेट Precipitato-६० । रूसोब, शोभाजन बीज, चित्रक मूल, रक सर्पप और उकार, इकर अ० । दुर्द,तल छर,तहनशी-उ० । सेंधा लवण में मन करने का विधान है।) अधः पाश्चात्य चक्राsadhah-pashchatya के समान भाग करक को मिश्रित कर यंत्र के . -chakringa-हिं. संज्ञा पु. ( Posऊपरी पान के भीतरी पेंदे में उन मिश्रित कल्क tero-inferior gyias) के साथ पारद का प्रलेप कर दें। यंत्र के जल- अधः पुट: adhah.purah-सं० पु. चारोली पूर्ण निम्न पाम्र को पृथ्वी में गढ़ा बनाकर उसमें । वै० निघ० । रखें और उसके ऊपर से पारद लिप्त पात्र को । अधः पुष्पी adhah-pushpi-सं० ली० (१) For Private and Personal Use Only Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रधः प्रस्तरः २८३ अध्युषितः गोजिह्वा चुप सं० । गोभी--हिं० । ( Hiera- ! (२) भम्यामलकी, भूमि अामला, भूई cinum ) रा० नि०१०। (.) चोर आँवला ।Phyllanthus nirturi पुष्पी तृण विशेष | नीले फूल को एक बड़ी जिसे | रत्ना०। (३) कोकिला-सं०। तालमअंधाहोली भी कहते हैं। CIAT ( llygrophila spinosa )at संस्कृत पर्याय-प्रथाकपुष्पी, मङ्गल्या, | व० १ । भा० पू० । १० मु०। श्रमर पुष्पिका रा०। -हि. स्त्री. अनंतमूल | अध्यधं adhyartha-हि. संज्ञा पुं० [सं०] नामक श्रोषधि। चोर काँटकी, चोर खड़िका, (१) डेढ़ । (२) वायु जो सबको धारण भाँटुइ, उकड़े, बटिया, लेङरा-बं०। हेटाहुली करने वाली और बढ़ाने वाली है और सारे -गोड़ । वै० निघ० सततज्वर, ब्रह्मदण्डी। संसार में व्याप्त है अधः प्रस्तर: dhuh-pras tarah-सं० पु. | अध्ययंदम् adhyarvudain-सं० जी० । __ तृणासन । वै० निघ०। अध्ययुद adhyarbuda-हिं० संज्ञा पु० ॥ अधःशङ्ख चक्राङ्ग adhah-shankha-chakr- | रोग विशेष। जिस स्थानपर एक बार अदरोग anga हि. संचा पु. (empero-in हुाहो उसी स्थान पर यदि फिर अर्बुद हो तो ferior gyrus ). उसे अध्यर्बुद कहते हैं। अधः शशन adhan-shayana-हिं० संज्ञा पु० यथा--नु०नि० ११ श्र० । "यजायतेऽन्यत् [सं०] पृथ्वी पर सोना । खलु पूर्वजाते शेय तदध्यधुंदमधु दक्षैः" अधः शत्यः dhah-shalyah-सं० पु. अध्यशनम्' adhyashanam-सं० क्लो० । (१)अपामार्ग क्षुप । (Achyranthes अध्यशन adhyashana-हिं० संज्ञा पु० । aspera) रा०नि० ३० ४ । भा० पू० । (१)अजीर्ण पर भोजन करना । यथा-धै निघ० १ भा०। (२)श्वेन अपामार्ग । Achyran- दिनचर्या । "अजीर्णे भुज्यते यत्तु तदध्यशनthes Indica, roxb. ('The white मुच्यते ।" पहिला भोजन विना पचे अर्थात् variety of-) 3. श० । अजीर्ण रहते हुए और भोजन कर लेना अध्यशन अधः शाखः n.dhah-shakhah-सं० पु. कहलाता है। भा० म० ख०१ भा० अनीसा० संसाराश्वत्थ वृक्ष | वे०२०। चि० । वा० सू० ८ ० । (२) अजीर्ण । #7: gat: adha h-shekharah Bogo अनएच । (Indigestion ). श्वेत अपामार्ग। Achyranthes asperat अध्यक्षः adhyakshah-सं०प०(१) सीरिका (th) white variety of ). वृक्ष, राजादनी-सं० । खिरनी-हि. । ( Mim usops hexandra ) श. २०। (२) अध्मान adhmāna--हिं. संज्ञा पुं० [सं०] ! महावृक्ष अर्थात् बड़े मदार का पेड़ । (Flatulent)रोग विशेष । पेटका अफरना । त्रि० (३) एक मानहै जो प्राधा कर्ष (१ तो.) आध्मान। के बराबर होता है। सि0 य० र० पि.चि. इस रोगमें पेठ अधिक फूल जाता है, दर्द होता एलादिगुटिका वृन्द। और अधोवायु का छूटना अन्द हो जाता है। ___-हिं० पु. (१) स्वामी । मालिक । अध्यण्डा adhyanda ) -सं० नो० (1) कपि. (२) नायक । सरदार । मुखिया । प्रधान । व्यण्डा vyanda कच्छु लता। (३) अधिकारी | अधिष्ठाता । केचाँच, कौंच, वानरी-हिं० । पालकुशी--बं० । | अध्यषितः adhyushitah-सं० प. (Mucuna proriens,carpopogon समस्त चक्षु रोग। pruriens)-ले० । देखो-प्रारमगुप्ता या केवाँच। त्रि. उपविष्ट । अासीन । For Private and Personal Use Only Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मध्युष्ट २८४ भनऋतु अध्युष्ट adhyitshri-हिं. वि) पु. [सं०] अध्यरा adhvara-सं० स्त्री० मेदा । (Seeबसा हुआ | श्राबाद । Meda) भा० पू० १ ह० व० । अध्यूढ़ा adhyurha-सं० स्त्री० (Married अध्व शल्यः adhva-shalyah-सं० पु. woman ) प्रथम विवाहिता ली। वह स्त्री अपामार्ग । चिचड़ी । ( Achyranthes जिसका पति दूसरा विवाह करले । ज्येष्ठा पत्नी। aspara) रा० । अध्रियामणो ndhiyāmuni-हि. संज्ञा स्त्री० श्रध्वशोषः adhvil-shoshah-सं०(हिं०)पु.) [?] कटार । कटारी । ई० । अध्वशोपि adh vit-shoshi-हिं० संज्ञा पुं० ) अध्रुव adhruva-हि. वि. पु. [सं०] रोग विशेष । रास्ता चलनेसे उत्पन्न शोष (यघमा) (१) चल । चंचल | चलायमान । अस्थिर । रोग । नि। (२) अनिश्चित अनित्य ! अध्वसिद्धक: adhya-siddhakalh-सं.ए. अधूपःdhrushah-सं. प. उन नाम का सिन्धुबार वृज, सिन्दुवार ISOh Sindhu. तालुगत मुख रोग विशेष । इस रोग में Varah. | रा०नि०व० । कड़ी सूजन, तालू प्रदेश में अधिक रकता, वेदना : अध्याण्डशायः ndhvāndia-shatravithश्रीर ज्वर होता एवं यह राधिकार से उत्पन्न सं० पु. श्योणाक वृक्ष-सं० । अलु, सोना. होता है। सु०नि० ५६ श्र० । यह रक दोषसे । पाठा-हिं० । ( Calosanthas Indica, उत्पन होता है। इसमें तालु देश में लोहित or Oroxyluin Indicum. Syn. वर्ण की अति स्थूल सूजन होती है जिससे ताय ! Bignonia Indica.)। श. च० । वेदना और ज्वर होता है । मा० नि०। अध्वान्तं adhvāntam-सं० क्ली. सायंकाल अध्धगभोज्यः,-ग्यः arthvagis-bhojyah,.! (Evening, Eventide ). gyan-सं० पु० अाम्रातक वृक्ष । श्रध्वः adhvali-सं० पु (1) नेत्र वर्म, नेत्र अध्वगवृक्षः adhvaga-vrikshali-सं०० पक्ष्म (Eye-lid)। (२) पथ, मार्ग, रास्ता । (Spondias inangife?)श्राम्रातक अन ama-हिं० कि० वि० [सं० अन् ] विना । वृक्ष, श्रम्बाढ़ा। यौर । वि० [सं० अन्य-दूसरा ] अध्वगक्षमी adhvaga-kshami-सं० ० ! संज्ञा पुं॰ [सं०] (1) अन । धनाज । (१) (Sce-Khecharah) खेचरः (२)दमुल भवन-२०। हीरादोखी, खूनाखराबा -सं० । (२) पही-सं०, हिं० 1 ( A bird) वैनिघ०। -feo | Dragon's blood ( Dracce. na Cinnabar, Bulf.f-) फा०० अध्वगः adhragah-सं० पु. (१)(Ca- ३ मा। mel) उद-सं० । ऊँट-हिं० । (२) अन अफा सोडियम क्लोराइड Unaqua ( Donkey ) अश्यतर-सं० । खच्चर-हि. Sodium chloride-ले० कालानमक । (३) बटोही, पथिक, यात्री, मुसाफ़िर । ( Black Salt)-501 श्रध्वजा adhvaja-सं० पु. पण लोक्षुप । अनसी ana-asi-मेदा। Sea-Meda. See-Srarnali रा०नि० २०४। अन-क-कट्ट ana-ik-katta-ता० बड़ा कवार। श्रध्वनिषेवगणम् ॥dhya-nisheranam स० ___ अगेविअमेरिकेना (Agave Americana). की अध्वचलन, भ्रमण । बै० निघ० | Sue-. नऋतु ana-ritu-हिं. संज्ञा पु. [सं० अन् चंक्रमण ( Chankramana ). +ऋतु] (1) विरुद्ध ऋतु । अनुपयुक्र ऋतु । बे For Private and Personal Use Only Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (उ)नक प्रनम्नः मौसिम । अकाल | असमय । (२) ऋतु -विप. अाधुनिक भिश्रदेशीय चिकित्सक रकचतुरिहम य॑य | ऋतु के विरुद्ध कार्य ।। के स्थान में अपने वास्तविक अर्थों में गर्भाशय (उ)नक ३a-an-naq-२० (२०१०) अझ-। की ग्रीवा के लिए अनरिह म शब्द का प्रयोग नाक (ब०व०) प्रीवा। नेक ( Neck ), करते हैं और अनकुहिम के स्थान में मधिल सर्विक्स (Cervix )-१०। शब्द का, जो अधिक उपयुह एवं यथार्थ है। शनका aanakab-अ० मत्स्यभेद, एक प्रकार ! __ नोट-डॉक्टरी में अनरिह म या गर्भाशयको की मछली । ( A sort of fish ). नोवा के अर्थ में रकवतुरिह म को सर्विक्स युटराइ अनकर aanaqar-० मर्जनाश | See. (Corvix Uteri) पोर मविल या श्रन्दाम Marzanjosh. निहानी अर्थात् योनि के अर्थ में अनरिह म को शनकलो Jangali-यु० सलजम । वेजाइना ( Vagina) कहते हैं। देखो-योनि । शनकलीमन lmagaliimina-यु. बहार | जिसको हिन्दी में पाया कहते हैं। यह बाबू ना | अनकद ana-quda-फा०, तु. काली तुलसी । गाव का एक छटा भेद है । लु० क०। ममाम | लु० क.। अनकद aana-ludi -० गबु शो । एक पौधा अनकवानकस an-qavinlisa-यु० मरी. है। लु० क०। हहू या दोक । गाजर का बीज अथवा करप्स कोहोका बीज । लु० फ०! अनकन ana-quna-यु० सदा गुलाब । लु० अनकिजल maqilasil-यु० मसूर सहश एक क.। बूटी है जो उच्या प्रदेशों में उगती है । तु. क०। अनकूस una-qusa-यु० नाशपाती लु० ३०॥ अनकोली aana-jili-यु. सलजम | ( Pyrus communis ). अनक रिहम aanaqurrihm-१०) ( Va. अनकंप ana-kenpa-हिं० संज्ञा पु० देनामह बिल fah-bil-१० अर्कप। gina) यद्यपि [अनक-ग्रीवा+रहिम-गर्भाशय धनक कालिक anak-kalika--वृश्चिपग्री। का शाब्दिक अर्थ गर्भाशय की प्रीवा है, तो भी अनगना Hnagana-है. संज्ञा पू. गर्भ का प्राचीन तिव्बी परिभाषा में यह योनि के लिए पाठवाँ महीना। प्रयुक्त होता था। जरायु के साथ इस नाली अनग्ना amagna-२० स्त्री० ( योनि ) का सम्बन्ध वैसा ही है जैसा कि अनग्निका anāgnika सं० ओ० कपास सुराही का उसकी ग्रीवा के साथ 1 इसीलिए | -हिं०। कार्पासी-सं०। ( Gossypinm प्राचीन यूनानी चिकित्सकों ने इसको अनक रिहम | _herbace tum, Linu.) ई० मे० मे । नाम से अभिहित किया। उक्र नाली के वहिार | अनघः anaghah-सं०प० । र (छिद्र) या दरार को फर्ज और उन नाली | अनघ anaghu-हिं०संजाप सफद सरसों मनिया नामनिटानी करते है। -हिं० । गौर सर्षप-सं०। ( Brassica नक हिम और रकबतुर्रिहम का juncea ) रा. नि० व० १६ । भेद हिं० वि० पवित्र, शुद्ध । उपयुक दोनों शब्दों का अर्थ 'गर्भाशय की | अनघुल amaghula-हिं० वि० अविलेय ( Inप्रीवा' है । परन्तु, अनरिह म तो योनि के लिए ___soluble ). प्रयोग में प्राता है, पर रक्यतुर्रिहम अपने अनघ्नः anaghnah-सं० पु० श्वेतसरसों-हिं० । वास्तविक अर्थों में गर्भाशय की प्रीवा के लिए गौर सर्षप-सं०। ( Brassica juncea) प्रयुक्त होता है। | वै० निघ० । For Private and Personal Use Only Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अंनङ्गम्, कम् अनझुन्जिला अनङ्गम, कम् a.nngam, kam-संक्लो० मन।। -सं०प० (१) पारा २ पल,गंधक ३ पलं, सुवर्ण (Mind)श. र० । भस्म १ कर्ष, ताम्र भस्म १ पल, चाँदी भस्म . अनङ्गनिगडोरस: ananganigaro Tasah . निक। सबको एकदिन तक पंचामत अर्थात् गिलोय -सं० पु ताम्बा, हीरा, मोती, हरताल, कांत गोखरू, मूसली, मुण्डी और शतावरीके रसमें घोट (नुरमली), सूर्यकांत,माणिक्य इनकी भस्म,सोना, कर बेर प्रमाण गोलियाँ बनाएँ । गुण--यह चाँदी, सोनामाखी और अभ्रक सस्त्र प्रत्येक अत्यन्त पौष्टिक है। रस० मं०। समानभाग और सबके बराबर पारा और पारा (२) शुद्ध पारा, मुद्ध गंधक समान मिलाकर सब के बराबर गंधक मिक्ति का करास भाग लेकर तीन दिन तक कुमुदिनी के के फलों के रस से तीन भावना देकर सुखा ले। रस से भावना दें। पुनः सम्पुट के भीतर रखकर फिर तशी शीशी में बन्द कर यालका यंत्र में वालुका यंत्र में पकाएँ, फिर निकाल कर लाल क्रम से मन्द, मध्य और तीब्र अग्नि से तीन दिन . रंग के अगस्त और सफेद कमल के रस से पृथक पकाएँ। फिर शीतज होने पर निकाले' और पृथक भावना देकर रक्खें। सोलहवाँ भाग विष, काली मिर्च, कपूर, अंश मात्रा-३ रत्ती । इसके सेवन से मनुष्य 100 वोचन, जावित्री, लकङ्ग और कस्तूरी की भावना स्त्रियों से रमण करने की शक्ति प्राप्त कर सकता दें तो यह सिद्ध होता है । मात्रा-१ रत्ती । गुगा-- है । रस. यो० सा0 1 इस नाम का दूसरा दूध मिश्री के साथ खाने से नपुंसकता योग र० मं०, रसायन सं० वाजीकरण प्रकरण दूर होती है। रस० यो० सा० । में लिखा है। अनर मेखला गुटिका ananga imekhalā अनङ्गरः anaugurah सं० पु. विना यंगुली garika-सं० स्त्री० देखो--परिशिष्ट भाग। वाला । श्रथव । सू०६ । २२ । का० । अनमेखलामोदकःnangamekhala अनचराई anti-chandai-ता० मोलक काय _modakah-सं०० देखी-परिशिष्ट भाग।। -ते. (Solanum Ferox)-इं० मे०मे। अनङ्ग घद्ध कोरसः anangavarddha ko. अनचन्द्र ana-chandan ते. अमसंड़ । rasah-सं० पु. पारा और धत्तुर बीजको सम ( Acacia Ferruginea, 1). C.) भाग ले, धत्त रके बीजको तेल डाल कर खरल में -ले। सफा०ई०। घोटें, पुनः गंधक द्विगुण भाग मिला बारीक घोट अनज़āanaz-अ० बकरी, छागी। (A she- . कर रख लें। इसमें पारे की भस्म (चन्द्रोदय) मिलानी चाहिए। मात्रा-१-३ रत्ती । गुरण- | ___goo.t). लु० क०।। इसके सेवन से मनुष्य कामान्ध हो जाता है। अनजम्ला ana-jalli-ता० रानफनस-मह० । अन्य पनस, जंगली कटहल | Artocarpus रस. यो. सा Hirsuta, Lam. | फा० इं०३ भा० । अनङ्ग सुन्दर रसः ananga-sundara-: अनजान ana.jana-हिं० संज्ञा प0 (१) एक asah-सं० पु. वाजीकरणाधिकारो रस प्रकार की लम्बी घास जिसे प्रायः भैंसे ही स्वाती विशेष । यथा-एक पल पारा और एकपल गंधक हैं और जिससे उनके दूध में कुछ नशा पा जाता को तीन दिन तक लाल कमल के रस की भावना है। (२) अजान नाम का पेड़ । दें। तत्पश्चात् इसको प्रहर भर बालुकायंत्र में पकाएँ । पुनः उतार कर एक दिन रक्त अगस्त अनटोपण्डु anati-pandu-ते० केला, कदली । पुष्प रस तथा श्वेत कमल के रस में भावना (Musa paradisiaca, Lin.)फा० दे। र. सा.सं.। इं०३ भा० । अगङ्गसुन्दरो रसः anangasundarorasah ! अनडुजिह्वा anadu-jjihva-सं० स्त्री० गोजिद्वा, For Private and Personal Use Only Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनइंह २७ अनन्तः गोभी-हि० । गोजिया शाक-बं० । रा० नि. (२) नलतण-सं०। नरकट-हिं० । Phha TOPI( Elephantopus, Scabor.) gmites kurkes | मद० व० । अनडुह anaduha-हि. संज्ञा पु० [सं०] | अनन्त गुण मण्डरम् anantaguna ma. __वैल । वृष । (An ox). ndiram-स. क्ली०(नवायस मरडर)गन्धक, मनडुही amaduhi-सं०(हिं. संज्ञा) स्त्री सुहागा, पारा, त्रिकुटा, त्रिफला पृथक् पृथक् सम. मी गवि । गाय । (A cov ) देवो-गाय ।। भाग लें और सर्व तुल्य लौह किट्ट शुद्ध मिलाएँ । मनवान् anadvān-सं० पु०, हिं० संज्ञा पुं० पुनः सब से दूने गोमूत्र में पकाएँ ओर फिर (A bull, an ox) वृष-सं० बैल सर्व तुल्य पुरातन गुड़ मिलाकर घोटें। मात्रा माशे । न्थ्य छाँछऔर चावल खाना चाहिए। साँड़-हिं। इसके पर्याग-बलीव, बृपभ, ! वृष, अनवान, सौरभेय, गौ, उक्षा और भद्र गु णा-इसके सेवन से क्षग और पांडुरोग का बैल के संस्कृत नाम हैं। भा० पू० । रमा० । नारा होता है । ररु. पाँ० सा। ( the Sun सूर्य। (उपनि)। ! अनन्त मूलम् anantamulam-स'. की. अनड़वाही anadvahi-सं० स्त्री० (A cow), : (.) करालाख्य औषध । देखो-कराल । स्त्री गवि-सं० । गाय-हि। इसके पर्याय-सुरभि, (२) सुगंधा। (३)वचा भेद । श. चि०। सौरभेयी, महेयी और गौ ये गाय के संस्कृत नाम : (४) अनन्ता । देखो- शा(सा-)रिवा।। हैं। हला। अनन्त ठूलो ananta.muli-सं.क्लो। (1) अनण: amanuh-सं० पु०, क्ली. सूक्ष्म धान्य ।। दुरालभा ! (Alliagi Maurotum)1(२) ___ सरुधान-वं० । वै. निय० । रक्रदुरालमा Alhagi maurorum (the अनत ana ta-हिं० वि० [सं०] न झुका हुआ। _red variety of-) . निघः । सीधा। अनन्तरन्ध्रका allanta-randhraka- सं. अनत्रजनोय alhatsa-janiya. हिं० वि० स्त्रो० खर्पर पोलिका । श्रास्के विटे-बं० । ० ( Non-mitrogamous ) नत्रजन विहीन । निघ। वे पदार्थ जिनमें नत्रजन नहीं होती जैसे-वसा अनन्तवातः allanta-vatah- सं० प. ( चरबी), शर्करा ( शकर ), श्वेतसार (मांड), उक्र नाम का शिरोरोग विशेष । लक्षण जिसमें अनद्यः anadyah-सं० पु. गौरसर्षप-सं०। तीनों दोष कुपित होकर मन्या ( गर्दन ) की श्वेत सरसों-हिं . । (Brassica. juneea). : नाड़ी को तीव्र पीड़ा समेत अति पीड़ित कर, रा० । चक्षु, भौंह कनपटी में शीघ्र जाकर विशेष स्थिति अनद्यतन anadyatana-हिं० वि० [सं०], __ करते हैं, और गण्ड स्थल की बगल में कंप, अद्यतन के पहिले वा पीछे का। ठोड़ी की जकड़न और नेत्र रोगों को करते हैं। अननस a.mala,S-म० । देखो अनन्नास। इन तीनों दोषों से उत्पन्न हुए शिर रोग को अननाश ananasha-बं. छोटा घीकुवार, छोटी . बोरासीमार हो "अनन्तवात" कहते हैं। मा०नि०। ग्वार-हिं० । { Aloe litoralis ) ई० मे. अनन्तः anantah-सं० पु०,(1) दुरालभा | मे । (Alhagi maurorum) वै. निघ० अननाल avanasa-हिं०, मल०, मह, गु० . २ भा०, अनन्तादि चूर्णोक,सबज्वर प्रकरणोक । अनन्नास, अनरस-हिं०1 (Ananas sati-: (२ ) सिन्धुधार वृक्ष अर्थात् सम्हालू Fus) ई० मे०. मे (Vitex negundo)(३) अभ्रक अनन्तकः anantakah सं० पु. (१)म् | धातु | Tale (Mica ). रा. नि० घ. जक, मूली । ( Rapharious sativus ). १३ । (४) आकाश। For Private and Personal Use Only Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनन्ती श्रनन्नास अनन्ता anantā-सं० (हि. संज्ञा) स्त्री० (१) अनन्तो मूल ananto-mula-० उश्या । देखो उक्र नाम की प्रसिद्ध लता विशेष । अनन्तमूल शारिवा । (Crountry Sarsapariila). -हि, बं० । सु० मिस श्र० । उत्तर में यह स. फा०६०। शारिवा नाम से प्रसिद्ध है । रा० नि० व. । अनन्नास amannās--हिं० संज्ञा पु. [ ज़ि१२। देखो-(शा-)सारिया तथा श्यामलता लियन (श्रमे रेकन) नानस, पुतं. अनानास] (Sariva) च० द. पि. ज्व. चि. अनानास । असक्षस, अनानास-३० । अनन्नास, शिरोलेप । "कालेय चन्दनानन्ता ।" भा० म० पारवती, कौतुक-सज्ञक--सं० । अनानाश (स ), ख. ५ भा० गर्भ-चि० । "अनन्ता शारिवा अनारस, अनानस--चं० । ऐनुशास. अ०, फा० । रास्ना " भा० म० ख० १ भा. ज्वर० शारी. ! अनानास सेटियस ( Ananas Sativus, वादि। "अनन्ता बालकं मुस्तम् ।” च. सू०४ mill, Lin.)--ले । पाहन एप्ल ( Pine ३१ दश । (२) दुर्चा, दूध ! ( Cynodoin apple)-10 । अनानास ( Anamas) Dactylon ).. . ४ । (३) स्वर्ण -फ्रां, पतं०, अमे। अनाशप-पजम्प रङ्गिक्षीरी । भभाँड़ । सत्यानाशी (Agrommons Mexicana)| प. मु.। लागली, करि थला ई-ता० । अनासु-पण्डु, अननाश-पण्डु-ते। कैत-चक, परलि-चक-मल। अनानसु हरण , यारी का पौधा । विपलागली-वं०। (Glor अनासु, परङ्गि-काई-कना० । अमिनस, अना. iosn Super ba)। प० सु० । भा० पू० रस, मनमास-गु० । अननस, प्रसास, श्रीनास १गु० व० । (१) दुरालभा, जवासा (Aih -मह । अनासि-सि । नम-सी, नना-सी agi Maurorum)140 मु० । भा० म० --वर | ख० ४ भा० मु. रा. चि० । "कल्कैरनन्ता खदिरारिमेद्... ....।" वा० १५ अ०, प्रिय अनन्नास वर्ग। ग्वादि-२० । प्रियजनबादि-दूादि-व हेमा तथा (N. o. Bromeliacete. ) अरुण । “दूबोनन्त निम्नवासात्मगुप्ता पमाद्र उत्पत्ति स्थान-समस्त भारतवर्प, प्रधानतः जो योजन वल्ल्यनम्ता।" ( ६ ) नीलदूर्वा । समग्र पूर्वी देशों में इसको खेती होती है। भा० ३० । रा०नि० व० २३ । (७) गोलोमी अमरीका। श्वेत दूर्चा | रा०नि० व० - 1 () यवासा । नामविवरण-इसकी बहुशः बर्नाक्युलर (Alhagi Mauronm) भा० म०४. संज्ञाएँ अमेरिकन अनासी तथा नानस संज्ञा से भा० काकोल्यादि.व.। व्युत्पन्न हुई हैं। "अनन्तां कुक्कुटी बिम्बोम् ।" दुरालभा के ' इसकी मालाबारी सशा परुङ्गि-चक्क का अर्थ प्रभाव में यवासा ग्रहण करना चाहिए । (६) युरूपीय फणस ( European jack अग्निमन्थ | अरणी (Premina Serra.tif. ! fruit) है। olia)। (१०) गुडूची, गुरुच । (Tinos. वानस्पतिक वर्णन-राम बाँस की तरह pora Cordifolia)। (१) पीपर । का एक पौधा जो दो फुट तक ऊँचा होता है। अनन्तामल an.in tamala-सं० हरताल । | यह पौधा घृतकुमारी के समान द्विवर्षीय होता (Yellow orpinment ). है। किन्तु, इसके पत्र अत्यन्त पतले होते हैं अनन्तो unanto-4. उश्या ।-हिं. सालसा, जिनकी रचना कठोर तन्तुओं से हुई होती है। करी । Hemidesmus Indicus, पौधे के मध्य भाग से निकले हुए लघु प्रकांड R. Br. (Country Sarsaparilla). ! पर छिलकेदार गाबदुमी शकल की बालियों स० फा०ई० लगती हैं। जिस पर फल उत्पन्न होते है। For Private and Personal Use Only Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अनशास इनफे ऊपर बहुत से छोटे छोटे कंटकमय पत्र होते हैं जिनको ताज कहते हैं । उन गावदुमी बालियों में बहुसंख्यक क्षुद्र नीले रंग के पुष्प आते हैं । पुष्पाभ्यंतर कोष त्रिपटल ( तीन पंखड़ी युक्र ) एवं पुष्पवाह्य कोष विभाग युक्र होता है। पुष्पित होने के बाद ये क्रमशः मोटे और लम्बे होते जाते हैं और रस से भरे होते हैं। यह अंकुर पिंड नागरंग पीत क्या' का एवम् खटमा स्वाद युक्र होता है । २८६ रासायनिक संगठन - ब्युटिरेट ऑफ़ इथिल ( Butyrate of ethy) ) को वा १० भाग स्पिरिट ऑफ़ वाइन के साथ योजित करने से अनास का एसेंस प्रस्तुत होता है । अनन्नास स्वरस में प्रोटीड - पाचक सम्धान ( अभिषव ) होता है। तीन फ्लुइड आउंस यह स्वरस १० से १५ प्रेन घनीभूत ऐल्ब्युमीन को पचा देता है । चार तथा अम्लीय घोलों (विलयन ) में इसका समान और न्युट्रल ( उदासीन ) द्रवों में सर्वोत्तम प्रभाव होता है । स्वरस में एक भाँति का दधिप्रवर्तक संधान ( अभिषव ) होता है । भस्म में स्फुरिकाम्ल तथा गंधकाम्ल, चून मग्न, शैलिका, लौह और पांशु हरिद् एवं सैंधहरिद् श्रादि होते हैं । प्रयोगांश-पक वा थपक्क फल और पत्र । श्रीषध निर्माण तेल, स्वरस का एसेंस और पत्र का ताज़ा रस | इतिहास, प्रभाव तथा उपयोग-श्रमेरिका के दर्यात होने से पूर्व भारतीयों को धनन्नास का ज्ञान न था | सर्व प्रथम युरूप निवासियों को हर्नेडीज़ ( १५१३ ) द्वारा इसका ज्ञान हुआ और सन् १५६४ ई० में पुर्तगाल निवासी मैजील से इसको भारतवर्ष में लाए । अफ़ज़ल ने श्राईने अकबरी में इसका उल्लेख किया है | दार शकोव के लेखक ने भी इसका किया है। हीडी ( Rheede ) के कथनानुसार मालाबार में इसके पत्र को चावल के धोवन में उबाल कर इसमें ( Pulvis Baleari ) ३७ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनन्नास योजित कर जलोदरी को जल से मुक्ति प्राप्त करने के लिए व्यवहार करते हैं । अपक फल सिरका के साथ गर्भपात कराने तथा उदरस्थ श्राध्मान को दूर करने के लिए व्यवहार किया जाता है । मजनुल द्वियह के लेखक मीर मुहम्मद हुसेन लिखते हैं- अनास दो प्रकार का होता हैं- (१) साधारण और ( २ ) इद्र जो अत्यंत मधुर एवं सुस्वादु होता है । प्रकृति-सर्द व तर द्वितीय कक्षा में ( किसी किसी के मत से १ कक्षा में उस और २ कक्षा में तर है ) । हानिकर्तासर्वव तर प्रकृति को, स्वर यंत्र तथा श्वासोच्छ वास सम्बन्धी अवयवों को । दर्प घ्न लवण तथा आर्द्रक का मुरब्बा ( किसी किसी ने शर्करा वा सोंठ का मुरच्या लिखा है ) । प्रतिनिधि - सेब या वही प्रभृति | मुख्य कार्य - पित्त ( उष्ण ) प्रकृतिको लाभप्रद है ( कफज प्रकृति को नहीं ) । शर्वत की मात्रा -२ तो० से २ तो० तक | ( गुण, कर्म, प्रयोग - श्रनश्नास पित्त की तीता का शामक और यकृत, उष्ण श्रामाशय को शक्तिप्रद एवं विलम्ब पाकी है । श्राह्लादकर्ता ) और हृदय को बल प्रदान करता एवं मूर्च्छा को दूर करता है t उष्ण व रूक्ष प्रकृति वालों के लिए वल्य एवं हृ है । इसके शर्बत, मुरब्बा, मिठाई और चटनी श्रादि पदार्थ बनाए जाते हैं। इसके मीठे चावल भी पकते हैं और यह अत्युत्तम आहार है। I । इसकी शीतलता को कम करने के लिए इसके बारीक बारीक परत काट कर प्रथम उसको नमक के पानी से धोकर पुनः स्वच्छ जल से धोना चाहिए । फिर उस पर शर्कश एवं गुलाब जल छिड़क कर व्यवहार करना चाहिए। कहते हैं कि किंचित् सोंठ का चूर्ण मिलाने से भी वह उत्तम हो जाता है 1 For Private and Personal Use Only अनन्नास मस्तिष्क एवं श्रामाशय को बलप्रद और निर्बल तथा शीत प्रकृति को बल प्रदान करता है । म० श्र० । तु० | नोट -मज़न में अपक फल एवं उसके पत्र Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भनन्यज २६० अनबुल्हि.यह के औषधीय उपयोग के सम्बन्ध में कोई वर्णन | अनपकाय anapakāyu-ते. कडुई तुम्बी, नहीं आया है। tait (Lagenaria Vulgaris ). अनन्नास पत्र का ताजा रस सरात कृमिघ्न इं० मे० मे। और शर्करा के साथ विरेचक है। पक्क फल का अनपच anapacha-हिं० संज्ञा पुं० [सं० रस स्क:हर (Anti-scorbutic), मुघल, अन्नहीं+पच:चना ] अजीर्ण । बदहज़मी । स्वेदक, मृदुभेदक और शैत्यकारक है तथा ऐल्ल्यु- ( Indligestion ). मिनीय पदार्थों के पचाने में सहायता पहुँचाता अनपत्य allapatya-हिं० वि० [सं० ] है। अपक फल का रस अम्ल, रकाबरोधक, [स्रो० अनपत्या ] निःसन्तान । लावल्द । सशक मूत्रल और कृमिनाशक तथा रजः प्रवत्तक (ड)नव aanaba-अ० द्रात फलम्-सं०। है । अधिक परिमाण में यह गर्भपातक है। अंगूर, दाख-हि। Vitis Vinifera, लिका प्रशमनार्थ इसके पत्तों का ताजा रस | Linn, (Fruits of-Grapes ) स. शर्करा के साथ व्यवहार में प्राता है। यह विरे- फा० इं चक भी है। अनव anaba-अ. बैंगन, भाँटा । (Solaपक्क फल का रस ज्वरजन्य अामाशधिक झोम 1111n Melongana ) को शांत करता है। कामला ( Jaundicc ) में भी यह उपयोगी है। । अनबहे-हिन्दी auna bahe hindi-अ०, का. अधिक परिमाण में अपक्क फल का रस गर्भा पोपैया, पोता-हं । अरंड खळूजा-सं०। शथिक श्राकुचन उत्पन्न करता है । अस्तु, गर्भवती देखो- अण्डखरबूज़ा । Curicu Papaya, स्त्रियों को इससे सख्त परहेज करना चाहिए। Linn (Fruit of) स० फा०-६०। अनन्नास का तेल या एसेन्स मिठाई बनाने में | भा. म | अनवा hamabi-एक हिन्दी पौधा है जिसका उसे सुस्वाद करने के लिए व्यवहत होता है । यह ! . फल गूगल सदृश होता है । जमेइक मद्य (Jamaica nim) को स्वाद अनविद्या mabidhi-हिं० वि० [सं० श्र+ प्रदान करने में भी व्यवहत होता है। अनन्नास बिद्ध ] विमा बेधा हुश्रा | बिना छेद किया जैम बनाने में प्रयुक्त होता है । ई० मे० मे०। । हुा । इसके पत्र कृमिघ्न और फल गर्भशातक है। अनवुझा चूना anabujha-chānā-उ०, हिं० (इं० ड्र. ई. पृ० ४६१) चूर्णम् सं० । कलीका चूना, प्रशांत चूर्ण-हि | भारतीय मेडिकल अफसरों की मुख्य सम्म- ' अनस्लैक लाइम् Unslalkerl-lime-इं.। तियों से, जिसका डिक्शनरी ऑफ़ एकॉनॉमिक प्रॉडक्ट अॉफ इरिडया (10, २३८ ) में वर्णन : अनवुल जन ailmabuljal-अ० फाशरा । श्रा चुका है, यह प्रगट होता है कि समन भारत. अनवुत्थालिब aallabutthalib-यु० मकोय । वर्ष के दिहातियों में इसके पत्र एवं अपक्व फल (Solanum Dulcamara, Linu. ) के गर्भशातक प्रभाव में सामान्यतः विश्वास फा०-६०२ मा०। है। फा. इं० ३ भा० पृ० १०६ । अनघुददुबaanabuddub-अ० एक छोटे पौधे अनन्यज ananya.ja-हिं० संज्ञा पु० [सं०] का फल है जो बेर के बराबर, गोल एवं रक्रवर्ण कामदेव । ( Cupid). का होता है और गुच्छों में लगता है। पत्ते अनन्यपूर्वा amanyapuiva-हिक स्त्री० [सं०], अनार के पत्ते के सदृश होते हैं। (१) जो पहले किसी की न रही हो। (२) अनवुल्हियह. ana.bul-hiyah-अ. हजारकुमारी । कारी। बिन ब्याही। (Virgin). जशान या कबर का फल । For Private and Personal Use Only Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्र(३)नवु..स्स.अ.लव २६१. अनमचि (इ)नयु..स्स अ लव aanabus-saalab-० अनम् aanam-अ० गुलनार । शकरदारी । मको ( काला वा लाल )। (Solanum अनमद anamala-हिं० वि० [सं० अन्+मद] nigrum, Bl. or solanum rub- । मद रहित । अहंकार रहित । गर्वशून्य । 1m, Min) स० फा. इं०। Nightअनमना inamana-हिं० वि० [सं० अन्यshade-ई। मनस्क ] [ स्त्री० अनमनी ] बीमार ! अस्वस्थ । श()नवु..मस अलबे-श्रस्वद annabus-sa अनमल anomal-याकला। labe-asvad-अ० मको, काला मको । अनमिल anamila-हि०वि० [सं० अन-नहीं+ (Solallllm nigrum, Bi. not | मिल=मिलना] (१) बे मेल । (२) पृथक् | भिन्न Jinn.) . फा० इ०। अलग । निलिप्त । अ(इ)नव..मस अल ये-हमर aana bus-saa- अनमिलत aniluta-हिं. जो मिलती न हो। la.bi.ahmar-अ० मको, लाल गको । अनमोलना Immitma-हिं. कि० स० [सं० (Solanumn rubram, Jin. )स. उन्मीलन-आँख खोलना ] वाँख खोलना ।। फा० ई०। . अनमोव: anamivah-सं० पु० अमीव, अनय स्स.अलबे-कवार athabus-shalabe. रोगरहित,रोगोत्पादक कीड़ोंसे रहित । अथर्व। kabira-अलबेलाडोना । सूची पं०- पं० । सू० २६ । ६ । का०२ । प्लां० । (irreat More!-ई० । म० अ० अनमेल alamela हिं० वि० [सं० अन्+हिं० डॉ०१भा० मेल ] बिना मिलावट का । विशुद्ध । खालिश । अनबु..स्स अलबे-मुखांदरतnabussailabe| अनयन antayana-हि०वि० [सं०] नेत्रहीन ! mukhadilir-अ०बेलाडोना । (Bellad.. दृष्टिहीन । अंधा। ona). अनरनिया anaraniyā-यु० विलायती का. अनय..स्स.अलये मुजनिन aanabus-saala. alas सनी। bo-mujanmina- बेलाडोना । डेली। yatı kanarab- I (Sumach.) नाइटशेड (Deadly hightshade)-ई। अनरस anaras - बं०, हिं० (१) अनमास । अनबु स अ लवे-मुनस्विम् aanabus-sa- | Ananas Sativus, Mill. ( Pine ala bemunavrin-अ० बेलाडोना। apple) (२) जो रस रसनेन्द्रिय द्वारा स्पष्ट अनबु. स्स अलबे मुहलिक ana bus-saala be- रूप से मालूम नहीं होता उसे अनरस या 'अनु muhiika--. बेलाडोना । डेड्ली नाइटशेड । रस कहते हैं। देखा-अनुरसः। ( Deadly Nightshade) इं०1 अनरस anarasa-हिं० संज्ञा प० [सं० अन् अनबेधा ana bedha-हि. वि० दे० अन- नहीं+रस] (1) रसहीनता । विरसता । शुष्कता। विधा। (२) रूखाई । कोप । मान । अनब्याह anabyāha-हिं० वि० [सं० अनअनरसा anarasa-हिं० वि० [सं० अन्+रस] नहीं+हि. व्याहा ] ( Unmarried) बिना | अनमना। माँदा । बीमार 1 -संज्ञा पु० दे० व्याहा । क्वाँरा। अविवाहित । अँदरसा। अनभिलाषः anabhi-lashah-सं० ० | अमराफेनूस marafen āsa-यु० एक बूटी है अनिच्छा,रोचक,अनविद्वेप, अरुचि । ( Ave. | जिसके पत्ते गन्दना के समान होते हैं। . rsion, lislike, want of appetite) अनाचि .nariuchi-हिं० संज्ञा स्त्री० [सं० रा०नि०व० २० ____ अन्+रुचि ] (1) अरुचि ! घृणा । अनिच्छा ! For Private and Personal Use Only Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनरूप २६२ अनल्जीन (२) भोजन अच्छा न लगने को बीमारी। श्रनलमुत्र amla-mukha-हिं० वि० [सं, मन्दाग्नि । जिसका मुख अग्मि हो। जो अग्नि द्वारा पदार्थों अनरूप amarupia-हिं० वि० [सं० अन्धु रा+ को ग्रहण करें। -संज्ञा पु. (१) चित्रक,चीता। रूप ] (1) कुरूप | बदसूरत । (२) अस (Plumbago Z :ylanica) (२)भिलावाँ मान | अतुल्य । असहरा । ( Somecarpus Anacardium). अनजेल anurjala-काश० श्राइरिस सोसन । 'अनल रसः analasah-से 40 पारे को Iris sosan (Iris Eusata). तामेकी सफेद भस्मके साथ वोटकर पिष्टी बनाएँ। अनलः analah-सं० पु. (१)चि.! पुनः उस पिष्टी के बराबर गंधक मिलाकर घाट । अमल anala-हिं० संज्ञा पु. । क धुप, फिर पास, बच्च, कलिहारी, चियक, धतूर, थूहर a( plumbiyo zeylanica ).. और पाक के रस से पृथक् पृथक् पुट दें तो यह रा०नि० १०६ । भा०पू० १ भा० ह० २०। अनल नामक रस सिद्ध हो। मात्रा-३ रसी। च. द० संग्रहणी चि. पाटादि चूर्ण । (२)! गुण-इसे पीपल तथा गृह के साथ देने से लाल चीता, रक चित्रक। ( Plumbago गुल्म का नाश होता है। र० यो. सा०। Rosea ) र० सा० सं०। (३) भिलावाँ, अनलविवर्द्धनो anala-vivarddhuni-सं. भल्लातक वृक्ष । (Senacarpus amn.ca- श्री टिका.. | ककड़ी-हि01 (A kind ardium.) रा०नि० व०११। (४) पित्त। of cucumber) वै० श० । (Bile) ग०नि० २०२१। (१) देव : .. अनलसूतेन्दो रसः unaasutendrorasah धान्य । मद० २०१०। (५) अग्नि, प्राग . -सं० पु. शुद्ध पारा । भाग, गंधक २ भाग, (Fire), इनकी कजली करें। फिर विष्णकान्ता, वच, पाटा, अनलम् malam-सं.काभिलावाँ का बीज । कलिहारी, मालकांगनी अथवा शाकाशयेल और senecarpus Anacardium (seeds of-) “श्रनल मरिच दूो" भैप० कुष्ठ तितली ( पीत घेणी ) इनके रसों से पृथक् पृथक चि०। एक एक दिन भावना दें। पुनः सबके रसों की मिलाकर १५ दिन तक बारीक घाँटें | फिर करती अनलचूर्ण unalachārna-हिं० संज्ञा पु. प्रमाण की गोलियाँ बनाएँ। [सं० ] बारूद । दारू। अनलनामा amalanāma-सं० पं. चित्रक सेवन विधि तथा गुण-घी, अदरख, या सम्हालू के रसके साथ स्वाने से घोर गुल्मका नाश वृक्ष, चोता। (Plum bagol Govinnica) वै.श ! होता है। र. यो० सा०। अनलपंख amaln.pankhar - पेशा अनला लिन् (लिः) alli,-lina-lin-सं०प. अनलपक्ष anala paksha पु[सं०] वक वृक्ष-सं० । अगस्त वृष, अगस्तिया-हि। एक चिड़िया । इसके विषय में कहा जाता है (Agati grandiflora) प्रिका०। यह सदा श्राकाश में उड़ा करती है और वहीं ! अनलगे(जे)सिक analgesic-५० अङ्गमईशअंडा देती है। इसका अंहा पृथ्वी पर गिरने से मनम्, वेदना शामक, पीबाहर । (Anod. पहिले ही पक कर फूट जाता है और बच्चा अ y ne). से निकल कर उड़ता हुश्रा अपने माँ पाप से जा अन गेलिया analgesia-t० प्रवसन्नता, स्पर्धामिलता है। । ज्ञता । ( Anasthesia). अनलप्रमा anala-prabhā-सं० स्त्रो० ज्योति- । अनल्जोन analge: -इं०वेङ्ग, अनलजीन Benz मती लता मालकांगुणी (Cardiosperm- analgen, किन अनल जीन । (Quin-anar um halicaca bum )। रा०नि०५०३। lgin) अवससी :-हि. । मुनाहिरीन ति:। व०१० For Private and Personal Use Only Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनवगाह २६३ अ()नाकार्डिअम् लैटिफोलिया नॉट श्राफिशल (२) चित्तनांचल्य, उद्विग्नमन, चित्त की (lot officiul.) पञ्चलता ( अस्थिरता)। (Restlesses). लक्षा--यह एक श्वेत वादार, गंध रहित । अनशनम् avashanaul-सं. क्लो एवं स्वाद रहित चूर्ण हैं, जिसका रासायनिक | अनशन ॥mashana-हिं० संज्ञा पु. संगठन और गुणधर्म एवं प्रभाव फेनेसी- लइन, उपवास । ( A fast, fasting) टीन के समान होता है। पर इसमें फेनोल के मा०नि०! शन्नत्याग । निराहार । सिवाय क्विनोमीन का प्रॉकड़ा होता है। अनसखरो masakhari--हिं० संज्ञा स्त्रो० घुलनशीलता-यह जल में नहीं घुलता तथा ! [सं० अन्नहीं+हिं० सम्बरी] निखरी । पक्की ईथरमें भी करीब करीब नहीं धुलता और शीतल । रसोई । घी में पका हुभा भोजन । या उष्ण अलकुहाल ( मद्यसार) में भी प्रति ! अनस्थोटक anusthetic-t० अवसभनान्यून धुलता। परन्नु, क्रोरोफॉर्म में किसी प्रकार जनक, कायस्पर्शाताजनक | सुन्न करने वाला। अधिक घुलता है। अनस्थेशिया Esthesia-इं०अवसन्नता। भाव-सथाशामक ( वेदना नाशक)। शनस्थेसीन amarsthesile-इं. इसको अजीर्ण मात्रा-॥से १५ ग्रेन पर्यन्त (५ से रोग में से १० ग्रेन की मात्रा में कीचटस में ग्राम तक)। डालकर देते हैं। अनवगाह anavagāha-हिं० वि० [सं०] अनस्लैक्ड-लाइम unshaked-lime-इं० चूना । [संज्ञा श्रनवगाहिता ] अथाह । गंम्भीर । अनबुझा चूना । कली का चूना । अशांत चूर्ण । बहुत गहरा। अनवगाहिता anavagahiti-हि. संज्ञा स्त्री० ((Quicklime). [सं०] गंभीरता | गहराव । अनहद नाद mahada-nada-हि. संज्ञा प. अनवगाह navagahya-हि० वि० दे० [सं० अनाहतनाद] योग का एक साधन । अनवगाह । अनहाइड्रस वल-फैट anhydrols.woolअनवच्छिन्न amavachchhinna--हिं० वि० fat-x) ATE ( Gluten). [सं०] (1) अखंडित । अटूट । (२) पृथक अमक्षः nakshah-सं० त्रि. ग्रंध, धंधा। न किया हुश्रा । जुड़ा हुशा । संयुक्त । | (Blind ). अनति antkshi-सं० श्लो० कुचपु, करिसत अनवद्यरागः anavidyarigah--सं० पु. चषु । माणिक्य भेद । केशर के रंग का एक प्रकार का मणि विशेष । कोटिक अथ० । अनाक anaq-अ० बकरीका बच्चा । (A Kid). अनाकर anākar-कुस्तु० भनाग़ालुस । अनवम बीजी anuvann-biji-य. मुनका । Sea-Anaghalus. (Dried grapes ) अनाकार्डिश्रम् anacardium-ले. मनातक i . अनवय anavaya-हिं० संज्ञा पुं॰ [सं० (ब)नाकार्डिअम् प्राक्सिडेर टेली anacardमन्वय ] वंश । कुल । खानदान । ium occidentale, Linn. ( Nut of मनवस्थानः anavasthānah-सं० पु. Cashew nut)-ले. काजू । स. फॉ० वायु । ( Air) रा०। ई०। फॅॉ. इं० १ भा० । मेमो0 Seeअनवस्थित चित्तत्वम् anavastbita-chi-| Kaju. ttatvam--सं० श्री. (1) बायु रोग। (ए)नाकार्डिनम् लैटिफ़ोलिया anacard. (Nervous disease) वै. निघ01 ium latifolia-ले० भिलावाँ, भल्लातक । For Private and Personal Use Only Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (प)नाकार्डिरसाई नाचारः होती Marking titut-tree. (S Cur- इसे अनागतावेज्ञग कहते हैं। नु० उ० प्र० pus anacardium). श्र(प.)नाकाडिएसीई anancardiaceat- ले -लअनागलुस amaghaling यु०) इसे नती ना भल्लातककी अथवा काजूवर्ग। (Allucards, अनागालुस naghi ltus" | भाषामें श्रना'Herebinths or Sunacs). किर और फिरङ्गी में अन्कालन कहते हैं। कोई अनाकार्डिक पक्डि neardincid-ले० कोई इसका युनानी नाम फ़ज़रियून और अरबी भलातस्यान्त, भिलावे का तेजाय । फाई. नाम हशी शतुल अलक लिखते हैं । यह पक घटी १ भा०। है । इसकं स्वरूपके सम्बन्ध में बहुत मतभेद है। अनाकार्टापर curdist-० (१) काजू । . यह अराक और शाम ग्रादि प्रदेशों में उत्पन्न Cashew nut-truo (Alacallidium occidentale, Linu. ) फ० इं० ' अनाग़ालिस ilaghilis यु०, अ० श्रनाकिर १ भा० । (:) भल्लातक, निलायाँ ! The -कुस्तु०। मरिजानह -अ० । जोकमारो, जैवनी 3marking at tree ( Semcca. . -हिं० । ( Anugallis arvensis, rpus Anacardiuli) ई० मे० मे०। _t.inn.) -ले० ! फा० ई० २ भा० । अनाक्रांत anilkanta-हि. वि० [सं०] अनागीलस anaghilas-य० माशोश 1 sec[स्त्रो० अनाक्रांता ] जो याकांत न हो। अपी. .. arzanjosha ड़ित । रक्षित। अनागैल्लिम श्रान्सिस anagallis arven. अमाकांतता anākrantata-हिं० संज्ञा पु.] sis, Linn. -ले० अँधनी, जोखमारी। उ० [सं०] अाक्रांतता का अभाव । रता । अपीड़ा ।। प० सू० । मे० मो०। अनाक्रान्ता anakranta-सं० स्त्री० कण्टकारी, अनागोग्स anaghoras-5. सलवान्-यु० । कटेरी, भटकटैया-हिं० । सोलेनम् जेन्योकार्पम् . रखनबुल नङ्गीर-मिश्र० । इसके फल को हव्यु( Solanım Xantho-carpum): लकुल्या कहते हैं। गुलेकर्नय के समान एक बूटी • ले० । र. मा. है जो शामादि देशों में उत्पन्न होती है। किसी अनाका सांडिलाई लोराइडम् amaquu-sottii ! किसी के विचारानुसार एक अन्य बूटी है जिसके chloridum-ले० सोचर नोन | sochali पसे एवं शाखाएँ मैंभालूके समान होती है। इसका salt. वृक्ष बड़ा हो जाता है। अनागत anigatia-हिं० वि० [सं०] (१) | अनाचारिता anachārita--हिं० संज्ञा स्त्री० न पाया हुया । अनुपस्थित । अविद्यमान । [सं०] निंदित पाचरण | दुराचारिता । अप्राप्त । (२) पागे पाने बाला । भावी । । '। अनाचारी anachāri - हिं० वि० [सं० श्रनाहोनहार । चारिन्] [स्त्री०अनाचारिणी । संज्ञा अनाचारिता] अनागतात्तंबा nāgatārttavā-सं० स्त्री० श्राचारहीन, भ्रष्ट, बुरे प्राचरण का, पतित कन्या, अजात रजस्का, घरजस्का, गौरी, नग्निका, दुराचारी। कुमारी, बालिका । जो स्त्री रजोधर्मिणो न हुई हो। अनाचार: anachārah-सं०प०(१) असरकर्म, (A little girl, a girl nine years अनिष्टकर्म, दुराचार, कुव्यवहार, निंदित प्राचरण । old, a virgin.)। रा०नि०२०१० (Undesired or ovil or Improअनागतावेक्षणम् anagala-vekshanam per conduct) वै० निघ०। (.२.) कुरीति, -सं० क्ली० आगे इसे कहेंगे (या ऐसा कहेंगे) कुप्रथा, कुचाल । For Private and Personal Use Only Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org अनाज २६५ श्रनामकम् अनाज naja-हिं० संज्ञा पु० [सं० अन्नाद] अनान nan-वर० (Fagara fragra.]]s, अन्न, धान्य, नाज, दाना, गल्ला । R0.) मेमो०। अनाडेण्डम् पेनिक्यलटम् anadendrum अनानस्तु हराणु manasn hanni-कना० Pa.miculatum-ले. योलया- अण्ड अनन्नास, अनानास-हिं० । टा० । मेमो०। अनानास anānās-हिं० अनन्नास । ( Pinc अनातकः aatunkah-सं० वि० अरोगी, apple) इं० । मो० श०। नीरोग, रोग रहित, स्वस्थ । ( IIsalthy). ! अनानास सेटाइवस 1.12 m as sativils.- ले० वैश०। अनन्नास । (Pine apple)-इं०1 मोश ! अनातपः anatapah-सं०प०) .. फा० इं०३ भा०। धनातप anātapa-हि० संज्ञा पातपा अनाप्तः amaptahभाव, छाया । ( Shade) धै० श० । धूप का (१) अविप्रभाव । वि० (१) पातप रहित । जहाँ धूप न । ' अनाप्त anāpta-हिं० वि० ___ हो। (२) तर, उंडा, शीतल । श्वस्त, अविश्वसनीय, अश्रेष्ठ । (२) पाकुशल, अनिपुण, अनाड़ी। अनातीतस natitasa-यु० करन। A pl. ! ant ((ralodupa arborea ). .910 affigat anaphalis nec. अनातुरःāturah-सं०बि० , ___igeriana, 11. C.-ले० ग्रह पौधा तथा अनातुर anatura-हिं० वि० खी० अनातुर] ' इसके अन्य भेदके पौधे नीलगिरि पर्वत पर क्षतम श्ररोगी, निरोग, रोगरहित, स्वस्थ | (Free fi.. प्रयुक्त है। इसके पत्र उर्णवत् लोमसे आच्छादित on sickness or pain, healthy)! रहते हैं और यहाँ के दिहाती लोग उसे काटवेशन प्रास्टर या देशीय प्रस्तर ( Country plas. अनात्मन् naimall-सं०० ।। ter) कहते हैं । ताजे पत्र को कुचल कर चिथड़े अनात्म anatma-हिं० मंज्ञा पु वि० श्रात्मा - के भीतर रख कर वे इसको क्षत पर बाँधते हैं। का विरोधी पदार्थ, अचित्, पंचभूत । डाइमॉक। वि० श्राता रहित, जड़। अनावम स्कैरिडअस arabus scandeous अनात्मक दुःख anatmaka-lukha-हिं० -ले० । कबई मछली । (Climbing perell) संज्ञा पुं० [सं०] सांसारिक प्राधि व्याधि, ई० मे० मे। भव बाधा। अनाविद्ध albildhaहि. वि. [ सं०] अनात्मधर्म alātmadham-हिं० संज्ञा (१) अनविधा । अनछेदा । बिना छेद का। प'० [सं०] शारीरिक धर्म । देह का धर्न। (२) चोट न खाया हुश्रा। अनात्मीकृत rātmikrita-वि०बिना पचा या , छानाबेबुर्रियह anābe burniyah-अ० ) अपक अंश ! ( Unabsorbel). उरुखश्नह auriqa khashmah अनादिल anadila-अ० (ब०व०) अन्दलीय . फुफ्फुस प्रणालियाँ, वायु वा श्वास प्रणालियाँ। (२०व०) बुलबुल (एक पक्षी विशेष)। प्रॉक्षिपोल्ज़ Bronchioles--10 | मज०) (Nightingale.) अनायेसिस मल्टिफ्लोरा ana basis multifअनादील anadila-१० बुलबुल का गोश्त 1 - 10ra, Jig.-ले० बूहुचोटि,मेवलाने,गोरलाने, ( Flesh of Nightingale). ।। शोरलान, लान, घालमे-गर्ना० । मे० मो०। अनावृपः anādh rishab--निर्मल । अथर्व० अनामस्म् anāmakam-संक्ती० ( Pile ) सू०२१ । ३ । का०६ अर्श रोग, बवासीर, । श० २० । For Private and Personal Use Only Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अनामक २६६ अनामक (स्त्री०-मिका) anamak (-miká ) -सं० स्त्री० ( 1 ) Innominate बे नाम का । ( २ ) अंगुली विशेष | अनामा | www.kobatirth.org अनामयम् anámayam सं० की ० श्रनामय anámaya - हि० संज्ञा पुं० (1) Health रोगाभाव श्रारोग्य, निरोगता, स्वास्थ्य, तंदुरुस्ती, रोग हीनता । रा० नि० व० २० । ( २ ) कुशल खेम | हिं० वि० ( 1 ) निरामय, 1 रोगरहित । नीरोग चंगा | स्वस्थ | तन्दुरुस्त । ( २ ) निर्दोष | प रहित । I श्रनामय anámaya-सं० क्रि० रोग रहित | श्रथव ० सू० १३ | ७ | का ४ | अनामयाः anámayah - सं० त्रि० ( ब० व० रोग रहित । श्रथ० | सु० ८ | १५ |का० ६ । श्रनमल anámala-अ० ( बहु० ब० ), अन मिलह ( ए० ० ) अंगुल्याग्र भाग या अंतिम (श्रम) पोरवे । अनामा anámá-सं० पु०, हिं० संज्ञा स्त्री० अनामिका । श० रo See-Anamika. हि० वि० स्त्री० (१) बिना नाम की । ( २ ) श्रप्रसिद्ध । 'श्रनामिका anamika सं० त्रां०, हिं० संज्ञा श्री० कनिष्ठा और मध्यमा के बीच की अंगुली | सबसे छोटी उँगली के अगल की उँगली । श्रनामा | अंगुश्ते हल्क, बिम्सुर अ० । रिङ्ग फिंगर ( Ring finger ) - इं० 1 रा०नि० ० १८ | ६० श० ० १ भा० । gafaz saci anámiká-dhamani-go संज्ञा पुं० ( Innominate artery ) एक धमनी त्रिशेष । अनामिका धमनी परिखा anamika-dhamani-priká-fo daro (Groove for innominate artery ). अनामिकॉक्युलस anamirta Cocelus, I&. ले० कामरि-हिं०, कना०, ते०, बं० । काक्फल-गु० सं०। Cocculus अनामिन 1ndicus | फा० ई० १ भा० | देखो काकफल । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनार anámirtin-go काकफलीन, काकफलत्व | फा० ० १ भा० देखो - काक फल | अनामिष anamisha - हिं० वि० [सं०] निरोमित्र | मांस रहित । For Private and Personal Use Only अनार anára-हिं० संज्ञा पुं० [फा०] एक पेड़ और उसके फल का नाम दादिम है । युनिका ग्रेनेटम् ( Pmica Granatum, Linn. ) - ले० । पोंमेग्रेनेट ( Pomegra Date ) - ई० । ग्रेनेडियर कम्म्यून ( Grenadier Commun ) - फ्रां० । श्रनार, अनार का पेड़ हिं०। अनार का फाइद० । संस्कृतपर्याय-- दामि वृक्षः, करकः ( श्र० ), पिण्डपुष्प:, दादिम्य: पर्व्वरुट् स्वाद्वम्लः, पिण्डीरः, फलशात्रः, शुकवल्लभः ( प्रि० ), मुखवल्लभः, ( शब्दमा० ), रक्रपुष्पः ( २० ), डालिमः ( श्र० डी० भ० ), शूकादनः ( श० ), दा हिमीसारः, कुट्टिम, फलसाइवः, फलपाड़व:, स्क्रबीजः, सुफलः, दन्तवीजकः, मधुवीजः, कुच. फलः, मणिबीजः, कल्कफलः, वृत्तफलः, सुनील : नीलपत्रः, नीलपत्रकः, लोहित पुष्पकः, रक्रवीजः, दन्तीजः । दाडिम गाछ, दालिम गाछ-यं० । राज्रतुर्हम्मान-ऋ० | दरख़्ते नार फा० । रुम्मानसिरि० | तोन्स - यू० । मादलै - च्- चेडि- ता० । दानिम्म चेदु, दाड़िम चेदु, दालिम्प चेदु-ते० । मातलम् - चेटि- मल० दालिम्बे-गिडा-कना० । दालिस्त्र - फाड़ - मह० । दाडम-तु-भाइ -गु० । tarar-fa-fig, ant-fag-aÁŤ | दाडिम्ब ॐ० | दालिम्ब उत्० । ढालम - गज० । दादसनु काढ दालिम, दालिस्त्र उड़ि० । दालिमअला० मादल, मीची उ० प० स० दाबू, दानी, दादियूम, दानू, दोश्राथ, जामन, दादन, अनार पं० श्रनार, नरगोश, घरंगोई- पश्तु० । जम्बू वर्ग | (V. C. Lylhracee or myrlucea ) उत्पत्ति स्थान दक्षिण युरोप, अफरीका, मध्य ' Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनार २६७ मनार एशिया (अरब ईरान, अफगानिस्तान, बलूचिस्तान, भारतवर्ष तथा जापान ) । पश्चिम हिमा- ! लय और सुलेमान की पहाड़ियों पर यह वृक्ष पाप से प्राप उगता है। यह सम्पूर्ण भारतवर्ष । में लगाया जाता है। काबुल कंधार के अनार | प्रसिद्ध हैं। भारतीय अनार वैसे नहीं होते। वानस्पतिक वर्णन-यह पेड़ १५.२० फुट ऊँचा और कुछ छतनार होता है । इसके तने की गोलाई ३-४ फुट होती है। माघ या फागुन में इसके नए पत्ते लगते हैं । इसके पत्ते टहनियों के प्रामने सामने लये रहते हैं। यह कुछ लम्बे नोकदार और सिरे पर गोलाई लिए होते हैं। इनके फूल की पंखड़ियाँ रक्रवर्ण की होती है ! और फूल अधिक तर एकं एक स्थान पर लगते | है। इसके फल की मध्य रेखा २ से ३॥ इच लम्बी होती है। इसके फूल हर मौसम में लगते लेकिन चैत, वैशाख में बहुत लगते हैं। अपाद से भादों तक फल पकते हैं। . रासायनिक संगठन वृष एवं फलस्वक् में २२ से २५ प्रतिशत कयायीन (Taunin) होता है। वृक्ष मुल त्वक में २० से २५ प्रतिशत प्युनिको टैनिक एसिड (दादिम-कनायिनाम्ज) मैनिट (Matthit), शर्करा, निर्यास, पेक्टीन, भस्म १५ प्रतिशत, एक प्रभावात्मक पैलीटिएरीन या प्युनीसीम ( अनारीन) नामक तरल धारीय सख होता है और तैलीय द्रव प्राइसो पैलीदिएरीन या प्राइसोप्युनीसीन (अनारीनवत् ) तथा मीथल पैनोटिएरीन व स्युडोपेलीटिएरीन (मिथ्या अनारीन) नामक दो प्रभाव शून्य क्षारीय सव होते हैं । माडिम कपायाम्ल ( Punicotannic acid) को जब जलमिश्रित गंधकाम्ल (सल्फ्युरिक एसिड) में उबाला जाता है तम वह इलैजिक एसिड ( Ellagic acid ) और शर्करा में विलेय होता है। नोट-जड़ की छाल में यह सरव अपेवाकृत अधिकतर होते हैं। विशेषतः स तथा श्वेतपुष्प वाले अनार में। प्रयोगांश-मूल त्वक, वृक्षस्वक, अपकफल, पचफल, बीज स्वरस, फलस्वक, पुष्प, कलिकाएँ और पत्र। इतिहास-चरक के छहिनिग्रहण एवं श्रमहर वर्ग में दाडिमका पाठ पाया है और वहां इसे वमन नाशक एवं हृद्य लिखा है। सश्रत में भी अन र का वर्णन पाया है। तो भी इसकी जड़ की छाल के उपयोग का वर्णन किसी भी प्राचीन भायुर्वेदीय निघण्टु ग्रंथ में नहीं दिखाई देता । भावरकाश में इसकी जड़ को कृमिहर लिखा है। .. .. . . . बकरात ( Hippocrates ) ने पोमा. साइड नाम से 'अनार का वर्णन किया है। झीसकरोदस ( Dioscorides ; ने पराइ. पोप्रास के नाम से अनार की जड़ की छाल का " वर्णन किया है। इसको वे कृमियों को मारने एवं उनके निकालने के लिए सर्वोत्तम ख्याल करते थे । प्रस्तु; आज भी इस औषध को उसी गुण के लिए व्यवहार में लाते हैं। . इसलामा हकीम सङ्कोचक होने के कारण इसके पुष्प एवं फल स्वक् को विभिन प्रकार से उपयोग में लाने के अतिरिक्र वे इसके मूल स्वक् को जो इसका सर्वाधिक धारक भाग है, कद्दूदाना के लिए अमोघ प्रौषध होने की शिफारिस करते हैं। अनार का बीज प्रामाशय बलप्रद और गूदा हृदय एवं प्रामाशय अलप्रद ख्याल किया जाता है। दोसफरीदूस ( Dioscorides ) एवं प्राइनी ( Piny ) के ग्रंथों में भी इसी प्रकार के वर्णन मिलते हैं 1 अत: ऐसा प्रतीत होता है कि अरब लोगों ने अनार के औषधीय गुणाधर्म का ज्ञान अपने पूर्वजों से प्राप्त किए। अनार की जड़ की छाल एवं फल का छिलका ये दोनों फार्माकोपिया ऑफ इंडिया में प्रॉफिशल भनार (फल) दाहिम फलम्, दादिमः सं० । अनार, दादम, दामु-हि० । प्युनिकाप्रेमेटम् Punica Granatum, Line. (Fruit of Pomegr For Private and Personal Use Only Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भनाई अनार anate.)-ले०। पाँमेनेनेट Pomegranate. . -६०। अनार-६०। ग्रेनेडियर कल्टिव Grenadier Cultive.-फ्रां० । अनेट बॉम Granat baum.-जर० । अनार, इलिम्, दारिम, दाइमी, दाड़म-401 रुम्मान, राना - । अनार, मार-फा० । रुम्माना-सिरि० । कूतीनूस-यु० । दाखिम्ब-तु० । मादलैप-पज़म्, माउले-ता। दानिम्म पण्डु, दाडिम-पण्डु, दालिम्ब-पए-ते। मातलम्--पज़म्-मल। दालिम्बे-कायि-कना० । वालिम्ब, इसलिम्ब -मह । डारम, दाम-गु० । देलुङ् या देशुरु -सिं । सुख-सि या तली-सी-बर० । दालिम्, दामिम्ब-उड़ि। दालिम्-मासा। अनार, दादिम-उ०प००। पं० तथा परतु-देखोमनार पूषा बनार, पालिम, धारिम्प, बाढ़सिंध। भीम-काश० । दाबिम्ब-को। दाइम •मारवादी । मावल-दाविती । दालम्बि-कर्मा ।। उत्पत्तिस्थान-मनार । वानस्पतिक वर्णन-प्रमार का फल गोला. कार किश्चित् चपटा, अस्पष्टतः षटपात्र, सामान्य मागरंग के प्राकार का प्रायः वृहत्तर होता है | जिसके सिरे पर स्थल, नलिकाकार, ५-६ दंष्ट्राकार सपमयुग पुष्प वाय कोष खगा होता है। फल त्वक् सचिवण, कठोर एवं चर्मवत होता है। जो फल के परिपक्व होने पर धूसर पीतवर्ण का प्रायः सूरम रारजिस होता है । फल की लम्बाई की रुखक: मिल्खीदार परदे होते हैं जो अपर मिलते और फल के अर्व एव हसर भाग को बराबर कोषों में विभाजित करते हैं। उनके नीचे अग्यवस्थित गावदुमो चौड़ाई की एख पड़ा हुआ एक परदा होताहै जो मीचेके लघुरमाधे भागको उससे (अर्व भाग से ) भिन्न करता है। यह । " या ५ असमान कोषों में विभक्त होता है। प्रत्येक कोप स्थूल, स्पावत् अमरा से संलग्न बहुसंख्यक दानों से पूर्ण होता है जो उन कोषों में पाय, किन्तु मधः कोषों में केन्द्रीय प्रतीत होते हैं। दाने खगभग प्राध इंच लम्बे प्रायताकार मा गावदुमी, बहुपारचं तथा एक पतले पारदर्शक | कोष से श्रावृत्त और अम्ल, मधुर तथा स्वादुम्ल रक रसमय गूदे से भावरित लम्बे कोणाकार बीज युक्र होते हैं। मोट-(१) धन्वन्तरीय निघण्टुकार और सुश्रुताचार्य ने रस के विचार से इसे दो प्रकार का लिखा है अर्थात् (1) मधुर और (२) अम्ल । "द्विविधं तच्च विशेयं मधुरम्चाम्ल मेव च।" (ध० नि०, सु० ४६ अ०) परन्तु, युनानी निघण्टुकार तथा भावमिश्र इसे तीन प्रकार का लिखते हैं, यथा--"तरफलं त्रिविधं स्वादु स्वाद्वम्ल केवलाम्लकम् ।" अर्थात् (क) स्वादु, मधुर-हिं। अनार शीरी-फा०। रूम्मान हुलुम्ब (इलो)-9.1 स्वीट sweet -ई । (ख) अम्ल, सट्टा-हिं० । अनार तुर्श-फा०। हम्मान हामिड-१०। सावर sour-०। (ग) स्वाद्वान्न, मधुराम्ल, खटमीप्र-हिं। अमार मैनोश-फा० सम्मान मुज-१० । (२) खट्टे अनार के वृक्ष में खट्टे ही अनार .. लगते है और मी में मो लगते हैं। अषाद से ... भादों तक फल पकते हैं परन्तु देश के हर भाग में ऋतु के अनुसार अलग अलग मौसम में फल पकते हैं। खट्टा अनार गुग में मीठे से बलवानतर होता है। यद्यपि इसकी प्रत्येक चीज़ अपने गुण में दूसरी चीज़ के बराबर होती है, तो भी कुछ कमी-धेशी ज़रूर है, जैसे, गूदा में पत्तों की अपेक्षा अधिक प्रभाव है और इससे अधिकतर पभाव निसपाल में है । फूल में कली से कम असर होता है | इसकी जड़ की छालमें सब से अधिक प्रभाव है। ___ इसके अतिरिक्त अनार के दो और भेद हैं. यथा (१) गुलनार का पेड़ (नर अनार)। Punica Granatum, Linn. (Male variety of.)। इसका पुष्प जिसको गुलनार कहते हैं, औषध के काम आता है। देखो-गुलनार । इसमें फल नहीं लगते ।। (२) अनार जंगली-यह अनारका जंगली For Private and Personal Use Only Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनार मनार प्रयोगांरा-दाडिम (फल ) स्वक्, दाडिम्ब के फल का रस । औषध-निर्माण-( १ ) दाडिमाष्टक (च००) (२) रुब्छे अनार-ताजे अनारदाना का । पानी लेकर भाग पर पकाएँ । पाद शेष रहने पर । उतार कर शीतल करके रक्खें। (३) मधे अनार कन्दी-ताजे अनारदाना के पानी में समान भाग खाँड मिलाकर भाग पर शहद की चाशनी करें। मात्रा२ तो० से ३ तो० तक । () शवंत मनार-१ सेर मिश्री था। खाँड की चाशनी में . पाच रुम्बे अनार सादा या प्राधसेर अनार क्रन्दी मिला दें। मात्रासेतो० तक। (१) शर्बत मनार तुर्श-जिस अनार का जिसका पतला और रंग सुर्ख हो, दाने उम्दा और मोटे हों, उसका छिलका उतार कर दानों से पानी निघोर लें और छान कर १ सेर पानी में सवापाव मिश्री मिलाकर शर्बत बनाएँ । मावश्य- . कतानुसार पानी में मिलाकर पिलाएँ । गुणतृषाशामक होने के सिवा मतली बमन और पिसी.. स्वराय के लिए प्रत्यन्त लाभप्रद है। (६) शर्यत अनार शीरी-प्रत्युत्तम मीले अनार लेकर पानी निचोड़ लें। पावभर उक रस में प्राधसेर श्वेत शर्करा मिलाकर मुलायम आँच पर पकाएँ और शर्बत की चाशनी लें। मात्रा-२ तो० से ५ तो0 तक। सेवन विधि-अवश्यकतानुसार शीतल जल में मिलाकर सेवन कराएँ । गुण-तृषाशामक एवं हृय । (.) शीतकषाय (ना.)-५ तो० शुष्क अनारदाना को प्राध सेर पानी में तीन घंटा तक भिगाएँ । बाद को मल छान लें और काम में लाएँ । मात्रा-२ तो० से ५ तो० तक। फलत्व, मात्रा--10 से ३० मेन (५ से १५ रसी)। अनार के गुण-धर्म तथा प्रयोग आयुर्वेदीयमतानुसार अम्ल, कषेला, मधुर, वातनाशक, प्राही, दीपन, स्निग्ध, उष्ण तथा हृय है और कफ एवं पित्त का विरोधी नहीं है। खट्टामनार mt तथा पित्त एवं वात प्रकोपक है। मधुर अनार पित्त नाशक होने से उत्सम है। (ब० फ० ५० स० २७५०) अनार कषेला एवं फीका ( अनुरस ), अति पित्त कारक महीं है सभा, दीपन, संचिकारक, हच एवं मलविवम्धकारक है। या अम्ल तथा मधुर दो प्रकारका होता है। इनमें से मधुर त्रिदोष नाशक और अम्ल वात एवं कफ माशक है । सुभुत स०४६०। अनार स्निग्ध, उध्याय और का पित विरोधी है। धन्वन्तरीय निघण्टु ।। मनार मधुर अम्स कोला, पातमाशक, कफनाशक, पित्तनाशक, प्राही, दापन, मधु, उम्म शीतल, श्रमनाशक तथा अधिकारक है और कास का नाश करने वाला है। अनार अम्बा, मधुर भेद से दो प्रकार का है जिनमें से प्रथम बातकफ, नाशक और द्वितीय तापशामक, बघु एवं पथ्य है। अन्य ग्रंथों में इसको अम्म, कला, मधुर, घातनाशक, प्राही और दीपन लिखा है। रा०नि० व." अनार का फल तीन प्रकार का होता है। मीठा, मीठाखट्टा और केवड महा। इसमें मीठा अनार त्रिदोषहर, प्यास, वार, ज्वर, हृदयरोग, करोग, मुख की गंध को नष्ट करता तृप्त करता, शुक्रकर तथा इलका, काय रस, ग्राही, स्निग्ध, स्मरणशक्रियरक और खकारक है। खट्टा और मीठा अनार अम्भिदौतिकर, रोचक, किंचिस्पित्तजनक, सयु और केवल सहा अनार पित्तकारी और बात का भाशक है। भा०। य, अम्ल, श्वास, रूचि तथा तृष्णा का नाश करने वाला है और संशोधक एवं पित्त कफ का बोध करानेवाला है। राजा। For Private and Personal Use Only Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनार ३०० अनार अनार श्रेष्ठ तथा वातादिक रोग नाशक है। यूनानी मतानुसार अत्रि. १७ ०। । प्रकृति-मीठा अनार प्रथम कक्षा में सई तर दाहिम हर, अम्ल, वातनाशकं, दीपन, है। शीतल होने का कारण यह है कि इसमें कषाय तथा कफ पित्त विरोधी है। मधुर अनार अत्यधिक भावंता होती है। और तर स्निग्ध होने निदोषनाशक और खट्टा एवं वात व कफ नाशक का कारण यह है कि इसमें उफाण नहीं पैदा होता है। वरनाशक, दीपम, पथ्य, लघुपाकी जो तरी को कम करने का कारण हो सकता है। तथा अग्निप्रदीपक है। राजवल्लम। अन्यथा यह मधुर न रहता प्रत्युत अम्ल हो जाता । अनार के वैद्यकीय व्यवहार किसी किसी के मत से यह शीतोष्ण ( सम प्रकृति) है। हारोत-मुख द्वारा रक्तस्राव में दादिम फल | खट्रा अनार द्वितीय कक्षा में शीतल एवं रूत १ स्वक् को चीनी के साथ चाटने से मुख द्वारा : है। शीतल होने का कारण यह है कि इसकी • रजपात प्रशमित होता है(च. ११ श्र०)। . प्राकृतिकोमा उफाण के कारण लय हो जाती है चक्रवच-भरोचक रोग में अनार के फरन । तथा रूप होने का कारण यह है कि इसमें का रस विट-लवण-चूर्ण एवं मधु के साथ मुख आर्द्रता की कमी होती है। खटामिटा श्रमार में धारण करने से. असाध्य अरुचि भी प्रशमित | प्रथम कक्षा में सर्द घ सर है। श्रमार के होती है । ( अरोचक-चि०) वीज-प्रथम कक्षा में शीतल्ल एवं रूह है। बंगसेन-(1) ज्वरकृत मुख वैरस्य में हानिकर्ता-(मधुर.) भामाशय तथा वरी चीनी के साथ पिसा हुआ .अनार. दान्ध किंवा. को । (अम्ल ) शोत प्रकृति को, कुब्वत जाङ्गिबह शर्करा मिश्रित, अनार का रस, किसमिस तथा (भिशोषक शकि) को, यकृत तथा बाद को। अनार के रस.से ढीला कर मुख में धारण करने (स्वाद्धम्ल) शी र प्रकृति को। (दाडिमयोज) वा गण्डप करने से ज्यर रोगी के मुख की बिरसता शीत प्रकृति को। वपनाशक-( मधुर) ख? नष्ट होती है। (ज्वर-त्रि०), शनार तथा शीत प्रकृति वालों को सॉऽका मुरब्या; ( दाहिम बीज ) जीरा । प्रतिनिधि-मा अनार ( २ ) रातिसार में अनार का रस की प्रतिनिधि खट्टा अनार, बहे थनार का मीठा (दाडिम बीज स्वरस),-कूटा दुना ताजे कुटज अनार । खटमिट्टा का करचा चंगर और अनार - स्वाद तो० को ६४ तो. जल में पकाएं। पाद बीज का सुमारू है। मात्रा थनार बीज की (१६ तो०) शेष रहने पर उतार कर यन्त्र से मात्रा र माशे से ६ माशे तक । छान खें। इसमें १६ सो• अनार का रस मिला कर पुनः पाक करें । जब यह सामिकावत होजाए गुण, कर्म, प्रयोग- अनार अपनी शीतलता एवं अम्लता के कारण पिस का नाश करता है। ..(अर्थात् राब की चाशनी लें ।) तव उतार कर और अपने करज़ तथा रूक्षता के कारण इह शाय , रक्खें । इस फाहिताकार धस्नु में मे १ तो० लेकर तक के साथ सेवन करने से मृत्यूनमुख अतीसार (कोला)की भोर मल वहन को रोकता है। रोगी भी जीवन खाम करता है। विशेष कर इसका शर्बत, क्योंकि इसमें तारल्यता कम होती है। इसके सम्पूरण भेदों में यहाँ तक भावप्रकाश-मामाजीणं में दाडिम फल को | कि अम्ल में भी कठन (संकोच ) के साथ भली प्रकार पीसकर पुराने गुड़ के साथ खाने से कोतिकारिणी.शक्रिया यशोधकरात्रि(क्रातजिल्ला) भामा जीर्श प्रशमित होता है। यह अर्श प्रभति होती है खट्टे शनारमें उफाण तथा अम्जताके कारण गुद रोगो एवं कोटबलू में प्रशस्त है। (अजीर्ण कांतिकारिता ( जिला ) होती है। परन्तु, मधुर -चि०। । अनार में उन गुण होने का कारण यह है कि For Private and Personal Use Only Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रनार ३०१ अनार उस में मृचम अम्मा होती है जो कि मधुरता के लिप. अत्यावश्यक है। कब्ज़ का कारण यह है | कि सम्पूर्ण अनारों की प्रकृति में कब्ज अन्तर्नि. हित है जैसा कि जालीनूस ने इसकी व्याख्या । की है। इनके दानों को पका कर उसमें मधु मिलाकर . प्रलेप करने से कण शूल, दारिखस (अंगुन येहा) कुला ( मुँह आना), भामाशयस्थ क्षत और . सुदर घण के लिए उपयोगी है। क्योंकि उसमें कज (संकोच ) और कांतिकारिता होती है। शहद के साथ मिनिस करने से जिला अधिक हो जाता और कब्ज़ बढ़ जाता है। क्योंकि । मधु अपनी उपमाता के कारण संकोचकारिणी एवं . संग्राहकीय शति को शरीर के गम्भीर: भागों में प्रविष्ट करा देता है। खट्टे प्रनार में मीठे अनार की अपेक्षा अधिकतर रेचनी शक्रि है। यद्यपि दोनों रेचक है; क्योंकि धानों में कांतिकारियी शनि (क्रध्यत जिलाभू ) : पाई जाती है। तथापि खट्टे में रेचनो शनि के अधिक होने का कारण यह है कि इससे प्रांतों में ; कज़ हो जाता है जो इदार (प्रवर्तन) पर मुश- | रियन हाता है । इसके अतिरिक इसमें लजा (बाम) भी है। मी अनार में रेचन के कम होने का कारण यह है कि इसकी रसूक्त सूक्ष्म उमा । के साथ होती है जो कोष्मदकारिणी तथा रेचनी शनि से खाली नहीं होती। खटभिट्टा अनार प्रामायिक प्रदाह को लाभ । करता है। क्योंकि यह उसको सरदी पहुँचाता । एवं पित्तोमा को शांति प्रदान करता है। क्योंकि । खट्टे . अनार के समान इसमें सोभ - एवं तीक्ष्णता नहीं होती और न मी अनारके समान । इससे प्रामाशय में उफान पैदा होता है और न पित्त की अोर इसकी प्रवृत्ति ही होती है। अतएव यह वातावयवा को हानि नहीं पहुँचाता । खट्टा अनार अपनी स्तम्भिनीशक्रि तथा कषायपन के कारण कंट एवं वक्ष में कर्कशता उत्पन्न करता है और मीठा अभार इन दोनों अवयवों को कोमल करता है। चूंकि इसमें सूचम उष्मा के साथ रतूबत होती है ! इस हेतु से और अपने स्तम्भनसे यह पद को शक्रि प्रदान करता है और अपनी कांतिकारगी (जिला ) एवं मृदुकारिता के कारण कास को लाभ करता है। अमलसी ( अनार बेदाना) जिसकी गुठली म होती है, सर्वश्रेष्ठ है । अमलस वह जंगल है जिसमें कोई वृक्ष न उगा हो। सब तरह के अनार मूरी को लाभ करते हैं। क्योंकि यह रूह तथा हृदयकी प्रकृतिको समानता सम्पादित करते हैं और इसलिए भी कि ये हृदय को मलों से स्वच्छ करते हैं।नफो। मोठा अनार--रुधिर उत्पन्नकर्ता, शुर प्राहाररस उत्पश्नकर्ता, लघुश्राहार, श्राध्मानकर्ता, मलों को स्वच्छ कर्ता, उदर को मृदु करता तथा मूत्रकारक है और यकृत को शांति प्रदान करता, प्यास को शांत करता तथा कामोद्दीपन . करता एवं उरामांगों को बल प्रदान करता है। स्वगं युक्र इसका अर्क दस्ते को बन्; करता है। सम्पूर्ण कर्मों में विलायती अनार उतम है। ___अनार फज स्वक् भस्म कास को लाभ पहुँ. घाती है। . खट्टे अनार-वन प्रदाह, भामाशय की गर्मी एवं यकृतोप्मा को प्रशमन करता है तथा रक्त प्रकोप एवं वाप्प को दूर करता है। ज्वरजन्य अतिसार एवं श्मन को लाभप्रद है। यौन और शुष्क खर्ज को लाभ करता तथा व मार एवं गर्मी की मूर्छा को लाभप्रद है। खटमिट्टा अनार-इसके गुण मीठे अनार के समान है । बल्कि यह उससे अधिकतर प्रभाव शाली है। छिलका सहित इसके फल को कुचल कर निकाले हुए रम में शकरा मिलाकर पीने से पैशिक वमन तथा अतिसार, खुजली और यक्रॉन में लाभ होता है और यह भामाशय को बल प्रदान करता मोर हिका को नष्ट करता है। अनार का बीज-संकोचक, पाचक तथा पुधाजनक है और भामाशय को बल प्रदान - करना, पैसिक मवाद को प्रामाशय प्रभृति पर For Private and Personal Use Only Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनार ३०२ अनार नहीं गिरने देता और पैसिक वमन, अतिसार तथा दोनों प्रकार की खुजली को लाभप्रद है। अनार फल तक दादिम स्वक, दाहिमफल वल्कल, अनार के फल का छिलका, नि ( ना )सपाल । पोस्त श्रनार-फा | क्रशरुम्मान-अ० । पॉमेग्रेनेट पीत Pomegranate peel, Trofis Pomegranate rind-go वर्णन-अनारके फल की छाल के विषम, न्यूनाधिक नतोदर टुकरे होते हैं जिनमें कतिपय ट्राकार नलिकामय पुष्पवाह्य कोष लगे होते है जिसके। भीतर अब तक परागकेशर तथा गर्भकेशर मात होते हैं। पर, से १६० मोटा सरलतापूर्वक टूट आने वासा (टते समय जिससे कॉकंवत् धोमा शल हो) होता है। इसका नाम अधिक | खरदरा एवं पीत सर वा किंचित रक्रवर्ण का | होता है। भीतर से यह न्यूनाधिक धूसर वा पति | वर्ण का, मधुमक्षिका गृहवत् और वीजखातयुक्त होता है। इसमें कोई गंध नहीं होती; अपितु यह सी काय स्वादयुक्त होता है। लक्षण-रक्राभायुक पीतवर्ण । स्वाद-बिका प्रकृति-मीडे की सई तर और सट्टे की प्रथम कवा में शीतस्त्र तथा १३ । हानिकर्ता शीत प्रकृति को । वपन्न-पाक । प्रतिनिधि-जरेवर्द (गुलाय का केशर)। शयंत की मात्रा-१ से २ तोला । प्रधान गुण- अर्श के लिए उपयोगी है गुण, कर्म, प्रयोग-(.) गरमी की सूजन को लाभ करता और मसूढ़ों को शकि प्रदान करता है। (२) धनार के सूखे छिलकों को पीसकर छिडकनेसे काँचका निकलना बन्द हो जाता है। (३) अनार के फल को पीसकर गोला बना पुटपाक की विधि से पकाकर रस निचोद कर मधु मिला पीने से सब तरह के.दस्त बन्द होते हैं। (४) अनार के फल का छिलका | पुराने अतिसार तथा ग्रामातीसारको मिटाता है ।। (५) पाँच तोले अनार के छिलके को सवासेर दूध में प्रौटा १५ छटाँक रख छान दिन भर में ३-४ बार पिलाने से प्रामातिसार मिटता है। (६) खट्टे अनार के २ तोले दिल के और दो तोले शहतूत को यौटा छान के पिलाने से पेट के कीड़े मरते हैं। (.) इसके छिलके की योनि में धूनी देने से मरा हुआ बचा याहर निकल पाता है। (८) इसके छिलके को छुहारे के पानी के साथ पीसकर लेप करने से सूजन बिखरती है । (६) अनार के छिलके और लोगका कादा पिलानेसे पुराना प्रामातिसार मिटता है । इस काम के लिए अनार के छिलके और इसकी जद की ताजी छाल लेनी चाहिए। नव्यमत पक अनार का रस प्रिय सथा स्वर जन्य उत्ताप एवं तृष्णा मादि को शमन करने वाला है। बर रोगी के सिवा यह हर एक रोगी और नीरोगी को लाभदायक है। मस्तिष्क, हश्य और यकृत को घस्यम्त पखवान बनाता एवं शुद्ध धिर उत्पन्न करता है। अनार के वाने निकाल कर मावत और झरझरे कपड़े में से निचोड़ कर केवल उसका रस पिलाएँ। अस्यन्त मचयपाम जन्य यकृतोष में तीन तीन घंटे बाद अनार का रस निकाल कर पिलाते कामला रोगी को प्रातः सायं ६-७ तोला अनार का रस और ६ माशे जरिस्क मिलाकर संघम कराएँ। चमन एवं उत्प्रेश विकार में खट्टे अनार का रस गुणदायक है। विसूचिका रोगी के लिए खट्टे अनार का रस एक उत्तम औषध है । रस न प्राप्त होने पर रूल्य या शर्बत का सेवन कराना चाहिए । छोटे धरचे को प्रति दिन प्रातः सायं एक-दो तोले एक समय अनार का पानी पिलाते रहें। ४० दिन तक ऐसा करने से जिस्म की रंगत सर्व निकल पाती है। अनार दाने का ताजा रस उदर शूल प्रशामक है। For Private and Personal Use Only Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अमोर www.kobatirth.org जिसकी चमड़ी से तुरन्त रुधिर निकल आए ऐसे बच्चों की जुबान का खून बन्द करने के लिए अनार खिलाना चाहिए । बवासीर वालों को श्रनार खिलाना हितकारी है । इसके रस में शकर मिलाकर कुछ गर्मकर पिलाने से वमन रुक जाता है । अनार के रस में जीरा और शर्करा मिलाकर पिलाने से अरुचि मिटती है। अनार के दाने खाने से रुचि बढ़ती है । खट्टे अनार के रस में कुछ मधु मिलाकर कान में टपकाने से कान का दर्द दूर होता है। मीठे अनार का रस निकाल बोतल में भर कर धूप में रख दें। जब वह चाशनी जैसा हो जाए सब उसका अंजन करने से सब तरह की ख की खुजली मिटती है और आँख की रोशनी बड़ती है । जिस ज्वर रोगी को प्यास बेचैनी, मतली, यमन एवं रेचन होता हो उसको रुरुव अनार या शर्बत अनार का उपयोग लाभदायक सिद्ध होता है । अनार का फूल ( दाड़िमपुष्प ) दाहिमपुष्पः सं० । गुले अनार - फा० बरु म्मान अ० । प्रेनेटाइ फ्लॉरीस Granati Flores - ले० 1 पॉमेग्रेनेट फ्लावर्स Pomegranate Flowers-६० | वह अनार जिसमें फल लगते हैं उसकी कली को अरबी में श्रक्रमाउरु मान या जुबरु भ्म म कहते हैं। पर वह अनार जिसमें फल नहीं लगते उसके फूल को गुलनार कहते हैं । वा गुणधर्म तथा उपयोग - " घ्राणात् प्रवृते रुधिरे दाहिमपुष्परसः स्था दादिम पुष्प तोयम् ।" अनार के फूल के रस का नस्य लेने से नासिका द्वारा रकस्राव अर्थात् नासा मक्सीर को लाभ होता है । च० नि० ५ ० / अनार की वह कलियाँ जो निकलते ही हवा के भकोलों से घृत से गिर पड़ती हैं, क्षतों के लिए हितकर हैं। क्योंकि ये अतिशय सङ्कोचक ३०३ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभार एवं दघ्न ( मुजफ़िफ़ ) होती हैं, विशेष कर जलाई हुई | क्योंकि जलाने से उनका शुकका रिव अधिक हो जाता है। नफ़ो० । खट्टे अनार के शुष्क फूल को बारीक पीसकर अवचूर्णन करने से मसूड़ों से रक्तस्त्राव का होना रुक जाता है एवं यह प्रणपूरक है । म० श्र० । ( १ ) इसके पुष्प में सङ्कोचक गुण है । अनार की कली को चूर्णकर ४ से ५ ग्रेन की मात्रा में देने से कास को लाभ होता है । ( २ ) अनार की अविकसित ताजी कलियों को पीसकर चूर्ण किए हुए खुद एला बीज, पोस्त बीज तथा मस्ती में मिश्रित कर शर्बत के साथ इसका अवलेह प्रस्तुत करें। बालकोंके पुरातन अतिसार एवं प्रवाहिका की चिकित्सा के लिए यह अमोघ औषध है। (Tukina). अनार के फूल का रस और दुर्ष्या का रस इनको समान भाग सेवन करने से अथवा इसके लाल फूलों का रस नाक में टपकाने से या सुधाने से नकसीर बन्द होती है । अनार के सूखे फूलों को दस्त को बन्द करनेबाले योगों में डालने से इनका गुण वड़ जाता है। अनार और गुलाब के सूखे फूल लेकर पीस कर मंजन करने से मसूदों का पानी बन्द हो जाता है । इसकी कलियों का दो ढाई रत्ती चूर्ण खाँसी के लिए बहुत गुणदायक F अनार के ताजे फूल ४ तो०, मेथी सब्ज़ १० तो० इनको बारीक रगड़ कर ३ सेर पानी में पकाएँ । जब पककर लेई की तरह गाढ़ा गाढ़ा लुभाव सा हो जाए तब सिर के बालों पर लेप करें। इसके दो घंटे बाद स्नान करें तो बाल घूँघरवाले और बारीक हो जाते है । For Private and Personal Use Only अनार की कली जो खिली न हो ताजी लेकर खूब कूटकर निचोड़ कर धूप या पानी की भाप पर शुल्क कर लें । मात्रा ३ माशे से ६ माशे तक | Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनार . ०४ अनार दाडिम मूल त्वक् . लें और इसमें इतना और परिश्रुत जल मिलाएँ अनार को जा की छाल, अनार को छाल कि प्रस्तुत क्वाथ पूरा एक पाउंट हो जाए। -हिं० । टाई कोर्ट क्स ( (iranati मात्रा- अाधा से २ फ्लुइड ग्राउंस=(१४२ से Contx)-ले. ! यॉमेग्रेनेट पार्क (Pome. I ५६८ क्युयिक सेंटीमीटर)। granati burk) ।कधुरम्मान अ. (२) चूण किया हुअा मूलत्वक् २ से पोस्त अनार-ता। ३ दाम कृमिन्न रूप से । नोट-इसकी तिब्ली, बैरक संज्ञाओं से (३) इसी का क्वाथ ( २० में १ )। यहाँ दाडिम फलत्यक् (जिसे हिन्दी में नस. मात्रा---३ से ६ फ्लु० पाउंस। पाली कहते हैं ) नहीं समझना चाहिए; प्रत्युत (४) मूल स्वक् का तरल सस्थ, मात्रा-- यह दाडिम वृक्ष के कांड तथा राहिम की जब चोथाई से २ फ्लु. दाम । की छाले हैं। यानस्पतिक वन-इसके छोटे छोटे धनु प्रभाष तथा उपयोग पाकार अश्रोन मुडे हुए या नजोदार टुकड़े होते . आयुर्वेदीय मन से-(चरक रक्रार्श में हैं जिनको लम्बाई २ से १ इंच तक सौर चौड़ाई - 'दादिम त्वक् ) अनार वृक्ष की छाल के कादा में अाध इंच से १ इंच तक होती है । छाल का सोंठ का चूर्ण मिलाकर पिलाने से अर्श रोगी का बाहरी खुरदरा धूसराम पीतवर्ण का और | ' कसाव विनष्ट होता है। (चि०६०)। भीतरी पृ: सचिक्कण पीतवर्ण का होता है । चक्रदत्त--(१) सरक्त अतिसार में यह सरलतापूर्वक टूट जाता है। यह गंधरहित दाडिम स्वक्-कुटज और अनार वृक्ष की छाल तथा स्वाद में कषाय किंचित् ति होता है। इन दोनों का क्वाथ प्रस्तुत कर मधु के साथ रासायनिक संगठन-इसमें पैलीटिएरीन सेवन करने से दुर्निवार्य रजातिसार में भी शीघ्र या प्युनीसीन (अनारीन ) नाम का एक द्रव विजय प्राप्त होता है। ( अतिसार चि०)। क्षारीय सत्व होता है। देखो-अनारवृक्ष (२) उपदंश में दादिम वृक्ष स्वक् (अनार वृक्ष वर्णनान्तरगत रासायनिक संगठन । की छाल) के चूर्ण द्वारा उपदंश के क्षत को अव. चूर्णन करने से व्रणरोपण होता है । ( उपदंश__ संयोग-विरुद्ध-ऐलकेलोज़ ( क्षारीय चि.)। औषधे ), मेटैलिक साल्टस ( धातुज लवणे), भावप्रकाश-इसकी जड़ कृमिहर है। लाइम वाटर ( चूने का पानी, चूर्णोदक ) और युनानी एवं नव्यमत. अनार वृक्षकी छाल जेलेटीन ( सरेश)। विशेषतः उसकी जड़ की छाल कद्दाना प्रभाव-संकोचक तथा त्रिकृमिहर । ( Tapeworm) के लिए प्रत्युत्तम कृमिघ्न औषध-निर्माण-(१) दाडिम त्वक् । औषध है। इसको अधिक मात्रा में देने से चमन क्वाथ, अनोर की छाल का काढ़ा-दि। हिकॉ- एवं रेचन श्राने लगते हैं। इसके उपयोग की क्टम् ग्रेनेटाई कार्टेक्स ( Decocturn Gra- | सर्वोत्तम विधि निम्न है-- nati Cortex)-ले०। डिकांक्शन श्रीफ | इसकी जड़ की छाल ५ तो०, जल २ सेर । पामेग्रेनेट बार्क (Decoction of Pome- इसका क्वाथ करें, जब एक सेर पानी शेष रहे anate Bark)-ई। मत बूरन क्रश- उतार कर छान लें। इसमें से ५ तो. प्रात मोन-अ० । जोशाँदहे पोस्त अनार-फा० । काल खाली पेट सेवन करें (बालक को 1 से निर्माण-विधि- पामीग्रेनेट बार्क (अनार की २ फ्लु. डा०) ऐसी ऐसी ४ मात्राएँ प्रतिछाल )का १० नं. का चूण ४ाउंस, परिश्रत श्राध श्राध घण्टा पश्चात् देनेके बाद एक मात्रा वारि के साथ १० मिनट तक क्वथित कर छान एरंड तेल का देकर प्रांतों को साफ कर दें। For Private and Personal Use Only Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रनार ३०५ अनार इससे कद्दाना मर कर निकल जाता है । म० अ०। डिमक। ई० मे० मे। श्रार. एन. चोपरा । पो० वी० एम०। पुरातन अतिसार एवं प्रवाहिका में अनार की छाल तथा फल त्वक के स्तम्भक गुण का उपयोग किया जा चुका है । श्रार० एम० चोपरा । aafitria( Pelletierine ). (CSH NO ) (ऑफिशल Official ) लक्षण एवं परीक्षा--यह एक सारीय सत्व है जो दादिम की जड़ की छाल द्वारा प्राप्त होता है। इसके वर्ण रहित सूचम रवे होते हैं जो खुली वायु में या ऐसी शीशी में जो पूरी भरी न हो बहुत शीघ्र वर्णयुक्त हो जाते हैं । यह जल में विलेय होते हैं। मात्रा-५-10 ग्रेन । पलोटिएरीन सल्फास Pelletierine Sulphar प्युनिसीन सल्फेट Punicine Sulphatv-. 1 अमारीन गंधेत् । लक्षण एवं परोक्षा- यह एक भूरे रंग का . शर्यती द्रव है जो जल में सरलतापूर्वक विलेय । होता है। कभी कभी इसकी रवायुक डलियों । होती हैं। इसको टेपवर्म ( कदाना) को निका- : लने के लिए ५ से ग्रेन की मात्रा में देते हैं। श्रस्तु, इसको बासी मुंह खिलाकर उसके दो : घंटा पश्चात् कम्पाउंड टिंकचर ऑफ़ जैलप की : एक पूरी मात्रा पिला देते हैं। (चकोडेक्स) मात्रा-चूर्ण वयस्क को से : प्रेन तक; मेरह वर्ष के नवयुवक को २॥ से ४ धेन तक और दो वर्ष के बच्चे के लिए ' से . श्रेन ; लक्षण एवं परीक्षा-यह एक हलका विकृताकार पीत वा धूसर वर्ण का चूर्ण है जो अनार Punica granatum (Byrtacece) की जड़ एवं कांड की छाल द्वारा प्राप्त हारीय सत्य का टैनेट मिश्रण होता है। प्रभाव-कहदाने (Tape srorm)के लिए कृमिघ्न है। मात्रा२ से - ग्रेन (१३ से ५० सेंटीग्राम)। यह अनार को जड़ एवं कांड की छाल की प्रतिनिधि स्वरूप व्यवहारमें श्राता है। यह छाल. द्वारा प्राप्त चार क्षारीय सत्वों के टनेट का मिश्रण है। यह जल में कम परन्तु ऐलकोहल (100/) के ८० भाग में भाग विलेय होता है। प्रभाव तथा उपयोग- कद्दाना ( Ta. poworm) पर इसका विशेष मारक प्रभाव होता है। पेलोटिएरीन नामक क्षारीय सत्व के विलयन (१०,००० में १ ) में थोड़ी देर तक डुबो रखने से यह मृतप्राय हो जाता है। इनमें टैनेट अधिक पसंद किया जाता है। क्योंकि पल्प विलेय होने के कारण इसका अधिकांश अपरिवर्तित दशा में ही प्रामाशय से गुजर कर तुद्रांत्र में पहुँच जाता है, जहाँ कि इसका कृमि के साथ सम्पर्क होता है । इसका शुद्ध क्षारीय सत्व अथवा विलेय सल्फेट (गंधेत्) सम्भवतः प्रामाशय द्वारा अभिशोषित होकर कतिपय प्रकृति सम्बन्धी लक्षणों को उत्पन्न करता है, यथा-सिर चकराना, दृष्टिमांद्य, मांसपेशीस्थ प्राक्षेप और कायविस्तार । परन्तु टैनेट के सेवन के बाद ये लक्षण बहुत कम दीख पड़ने है। इसको उपवास के बाद ग्रेन ( रत्ती) की मात्रा में देना चाहिए और उसके एक या दो चंदे पश्चात् मत कृमि को निकालने के लिए तीव्र रेचन जैसे जैलप (७॥ रती) अथवा एक पाउस (२॥ तो०) पुरंड तेल व्यवहार कराएँ (इससे कृमि भो निर्गत हो जाता जाता है और उदर एवम् सिर में दर्द भी नहीं होता )। थोड़ी मात्रा में रिटनस (धनुस्तम्भ) और पक्षाघात के कतिपय भेदों में पैलीटिएरीन सल्फेट का स्वगन्तःअंतःक्षेप किया जा चुका (Sir W. Whitla. ). तक। पैलीटिएरीनी नास ( Pellctieriner Tannus) पेलीटिएरीन टैनेट Pelletierine ran. nate-ई। अनारीन कपाये । ३६ For Private and Personal Use Only Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनार अनार नोट-इसके नृतन लवण तो विश्वास के अनार के पत्ते योग्ग होते हैं, परन्तु पुरातन होने पर ये ख़राब हारीन-चलित गर्भ में दाडिम पत्र, हो जाते हैं। अस्थिरगर्भा अर्थात् जिसका प्रायः गर्भमाय ही जाता हो उस स्त्री के गर्भन्नाव की प्राशका के अनार फल त्यक् अथवा मूल त्वक् के क्वाथ से। निवारणार्थ गर्भ से पाँचवें मास में अनार के पत्र, कभी कभी शिथिल कराउक्षत प्रादि रोगों में | श्वेत चन्दन को दधि और मधु के साथ पालो गण्डप कराते हैं । इस हेतु इसकी जड़ की छाल हित कर सेवन कराएँ । (चि० ४६ श्र०)। के कल्क का कंठ में प्रलेप करते हैं। गुदा एवं जरायु सम्बन्धी क्षती में इसका स्थानिक प्रयोग ! रिसाला शामृत के कतिपय उपयोगी होता है। चुने हुए प्रयोग इन योगों में मोहे अनार के पत्ते लेने चाहिए। इसकी जड़ की छाल श्वेत प्रदर तथा रसाक्षरण के लिए अत्यन्त गुणदायक है। इसको । अनार के ताजे पत्तों को पत्थर पर पीस कर रात प्राधसेर जौ कुट करके ३-४ सेर पानी में धीमी । को सोते समय हाथ की हथेलियों पर और पाँव यौंच पर पकाएँ जब पाच भर पानी रह जाए तब के तलवों पर लेप करने से यह हाथ और पाँवकी 1. जलन को दूर करता है। उतार कर छान लें। इससे की अपनी योनि धोया करे। और मलमल का कपड़ा तर करके अनार के १० तोले ताजे पत्तों को 5? पानी योनि में रक्खे। में प्रौटाएँ, 5॥ पानी शेष रहने पर छान कर दिन में दो तीन बार इसी रानी से गुदा धोने से प्रतीसार में इसकी छाल के क्वाथ में थोड़ी गुदाश रोग दूर होता है । गर्भाशय के बाहर सी अफीम मिलाकर प्रयोग करने से बहुत लग्भ निकल याने पर भी इसका प्रयोग गुणदायक होता है। होता है। इसकी छाल के काढ़े में सोंट और चन्दन का गर्भाशय के बाहर निकल पाने और गुदर्भश बुरादा छिड़क कर पिलाने से रुधिर युक्र संग्रहणी में अनार के हरे पत्तों को साया में सुखा कर मिटती है। बारीक पीस कपड़ छान कर ६-६ मा० प्रातः अनार की जड़ को पानी में घिस कर लेप सायं ताजे जल से सेवन कराएँ । करने से शिर का दर्द दूर होता है। अनार के ताजे पत्ते दो तोले, स्याह मिर्च इसकी छाल का चूर्ण बुरकाने ने उपदंश की । 1 माशा, दोनों को 5- पानी में पीस और छान टांकी मिटती है। प्रातः एवं इसी प्रकार सायंकाल में पिलाने से यह स्त्रियों के प्रदर रोग को दर करता है। इसकी छाल के काढ़े में तिली का तेल डाल कर तीन दिन तक पिलाने से पेट के कीड़े बाहर अनार के दो ताले ताजे पत्तों का प्राधपाव निकल जाते हैं। पानी में रगड़ और छान कर पिलाना और अनार आँख पाने में अनार का क्वाथ एक दो बुद के एनों को पीस कर पेड़ पर लेप करमा गिरते हुए गर्ग को रोकता है। आँख में टपकाएँ। कुकरे में पास के पपोटों को उलट कर उक्र काढ़े से आँख को धोने से अत्यन्त अनार के पत्तों को साया में सुखा पीसकर लाभ होता है । कर्णशूल तथा कान के भीतर की कपड़छान करके ६-६ आ. सुबह गौ की छाछ सूजन में अनार के काढ़े को कान में डालना और शाम को ताजे पानी के साथ खिलाने से चाहिए। पांडु रोग दूर हो जाता है। For Private and Personal Use Only Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनार ३०७ अनार अनार के पत्तों को यारीक पीसकर थोड़ा स. रसों का तेल मिलाकर उबटन के तौर पर दिन में एक बार प्रयोग करना नुजली को दूर करता है। उपयुन विधि के अनुसार सेवन करने अथवा पाव भर अनार के पत्तों को पाँच सेर पानी में श्रौटाकर ४ सर शेष रहने पर इससे नहाने . से गरनियों में. पित्ती निकलने को लाभ : होता है। अनार के दो तोले हरे पत्तों को श्राध पाव पानी में रगड़ और छान कर प्रातः सायं श्रीर। रोग की अधिकता में दोपहर को भी सेवन करने से सिल ( उरःक्षत)को लाभ होता है। गंड को दूर करता है। इसी भोति सेवन करना भगन्दर में भी लाभप्रद है। छाया में सुखाए हुए अनार के पत्ते ५ भाग और नवसादर १ भाग, दोनों को बारीक पीसकर कपड़छान करें, और ३-३ मा प्रातः सायं ताजे पानी के साथ खिलाएँ । यह प्लीहा के लिए गुण दायक है। अनारके पत्तों को कुचल कर निकाला हुश्रा रस मेर और मिश्री ग्राधसेरका शर्बत तय्यार करें। २-२ तोला यह शर्बत दिन में दो तीन बार चटाना यावाज के भारीपन, खाँसो, नजला तथा जुकाम (अतिश्याय ) को दूर करता है। धनार के पत्तों को छाए में सुखाकर बारीक पीसकर कपड़ छन करें और शहद के साथ जंगली बेर के समान गोलियाँ बना कर छाए में सुखाकर रक्खें। यदि शुद्ध शहद न उपलब्ध हो तो गुड़ के साथ गोलियाँ बनालें । इन गोलियों को मुँह में रख कर चूमने ये भी यह प्राचाज के भारीपन, खाँसी और नजला व जुकामको दूर करता है। अनार के हरे पत्तों को ग्राध पाय पानी में पीस' श्रीर छानकर प्रात: सायं पिलाने तथा अनार के । हरे पसी को पत्थर पर बारीक पीसकर मस्तक । पर लेप करने से नकसीर को लाभ होता है। अनार के हरे पत्तों को कुचल कर निकाला हुधा रस १० ती०, गोमूत्र ६० तो०, तिल तैल १० सी०, तीनों को नरम श्राग पर पकाएँ । जब तेल मात्र शेष रह जाए तब भाग पर से उतार कर और छानकर ठंडा होने पर शीशी में डाल रखें। इसको दो तीन बुद थोड़ा गरम करके प्रातः और सायं कान में डालने से बहरापन, कान का दर्द और कानों को खुश्की और साँ साँ शब्द होना बन्द होता है। अनार के पत्तों को कुचल कर निकाला हुप्रा . रस १ सेर, बेल के पक्षों को कुचल कर निकाला। हुआ रस १ सेर, गाय का घी १ सेर, तीनों को नरम आँच पर पकाए । केवल घी मात्र शेप | रहने पर छान कर रखें। दो दो तोला यह धी गौ के पाव भर गरम दूध में मिलाकर प्रातः सायं पिलाना बधिरता को दूर करता है । दूध में श्रावश्यकतानुसार मिश्री या खाँड़ मिला लें। अनार के दो तोले ताजे पत्तों को श्राध सेर पानी में पकाकर श्राधपाय रहनेपर छानकर प्रातः सायं पिलाना और अनार के पत्तों को पानी में पीस टिकिया बनाकर बाँधना कंठमाला और गल २तो. अनार के पत्तों को प्राध सेर पानी में प्रोटा । जब आधपाव जल शेष रहे तब छान कर १ तो० खाड़ मिलाकर प्रातः सायं सेवन करें। इससे अावाज का भारीपन खाँसी, नजला व जुकाम और दर्द सीना इत्यादि दूर होते हैं। __ अनार के पत्ते को छाया में सुखा बारीक पीस कर कपड़छान करें और ६-६ मा० सुबह गो की छाछ और शाम को ताजे पानी के साथ खिलाएँ । इससे पेटक कीड़े दर होते हैं। अनार के ताजे पत्तोंको कुचल कर रस निकालें और इससे कुल्ले कराएँ । इससे मुख, हलक और जवान का पकना, मसूढोंसे खून और पीव का थाना, जुबान और मुंह के छाले तथा जरूम दूर हो जाते हैं । रस निकालने के लिए यदि काफी पत्ते न मिल सके तो पत्तों को दुगुने पानी में पीस और छान कर रस निकालें। अनार के दो तोले पत्तों को१. तो पानी में For Private and Personal Use Only Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनार ३०८ अनार रगढ़ और छान कर सुबह इसी तरह शरम को। पिलाना बवासीर के खून को कन्द करता है। अनार के पक्षों को पीस कर पिया बनाकर जरा गरम करके घी में भून कर याँधना अवासीर के मस्सों की जलन, दई और शोथ को दूर करता है और मस्सों को स्वश्क करता है। २ तोले अनार के पत्तों को १० तोले पानी में रगड़ और छान कर सुबह और शाम को पिलाना खून के मन को रोकता है। इसी प्रकार सेवन । करने से खन के दस्त भी अन्द होजाते हैं। अनार के पचों को पानी में पीस कर लेप करने से पिच का सिर दर्द दूर होजाता है। वात और कफ के सिर दर्द में अनार के पो को पानी में पीस कर किञ्जित् गरम करके लेप करना चाहिए। छाया में शुष्क किए हुए अनार के परे 51, धनियाँ शुष्क ॥ इनको बारीक पीस कर कपड़ छान करें, गेहूँ का पाटा 51 तीनों को मिला. कर गाय के 5२ घी में भून कर ठंडा होने पर s४ खाँड़ मिलाकर रखें। इसमें से १-१ ई० या पाचन शक्ति के अनुसार न्यूनाधिक मात्रा में प्रातः सायं गरम दूध के साथ खिलाना सिर के दर्द तथा सिर चकराने को दूर करता है। अनार के दो तोले ताजे पत्तों को पानी में रगढ़ और छान कर प्रातः सायं पिलाना खूनी पेचिश को दूर करता है। अनार के पते को छाया बुखा बारीक पीस कर कपड़ छान करें। ६ ना. प्रातः गा की छाछ और सायं उसी छाछ के पनीर के साथ खिलाएं। कामला में लाभप्रद है। शनार के पसी की छाया में मचा बारीक पीय कर कपड़ छान करके सुबह और शाम ६-६ मा. ताजे पानी के साथ खिलाना दाद, चंबल और सुन की खराबी को दूर करता है। अनार के पत्तों को पानी में पीस कर दिन में दो बार 1-1टे के लिए लेप करना गंज को. दूर करता है। अनार के ताजे पत्तों को कचल कर निकाला हा रस १ सेर, श्रनार से ताजे पांकी चटनी सरसों का तेल प्राधसेर, तीनी को मिलाकर नरम आँच पर पकाएँ । तैल मात्र शेष रहने पर श्राग पर से उतार और छान कर ठंडा होने पर शीशी में भरकर इस तेल को दिन में दो बार लगाना गंज ार बालझर को दूर करता है । इस तेल की मालिश करने से चेहरे की कील झीप और काले धन्धे भी दूर हो जाते हैं। अनार के पत्रों की छाए में सुखा कर पारीक पीस कपर छान करें और 1-1 तो. प्रातः सायं पानी के साथ खिलाने से प्रातशक (उपदेश) दूर होता है। माधपाय अनार के ताजे पत्तों को कुचल कर १सेर पानी में औटाएँ, प्राधसेर पानी शेष रहने पर छान कर इस पानी से दिन में दो तीन बार श्रातशक के जख्मों को धीना चाहिए। अनार के पत्तों को छाए में सुखा बारीक पीस कपड़ छान करें और अनार के पत्रों को कुचल कर निकाले हुए रस में २१ दिन खरल करके शुष्क होने पर कपड़ छान करें। प्रातशक के जख्मों को शुष्क करने के लिए यह एक अजीब चूण है। अनार के दो तोले नाजे पत्रों को प्राधसेर पानी में जोश देकर अाधव पानी शेष रहने पर छान कर पाच भर गरम दूध में मिलाकर पिलाने से शारीरिक एवम् मानसिक क्रांति प्रशमित होती है। प्रातः एवम् रात्रि को सोते समय इसी भैाति सेवन करना अनिद्रा या स्वल्प निद्रा के लिए लाभदायक है। माँद पाने के लिए भंस का दूध भेवन करना अत्युत्तम है। अनार के २ तोले हरे पतों को श्राधपाद पानी में रगड़ और छान कर सुबह इसी प्रकार शाम के वक्र पिलाना पेशाब के रास्ते खून थाने में गुणदायक है। अनार के ताजे पचों को पत्थर पर बारीक पीस कर दिन में दो बार लेप करना दाद और चंबल । को दूर करता है। For Private and Personal Use Only Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनार ३०६ अनार छानकर सुबह और शास विनाना, पित्त को अनार के हरे पते २ तोने को गाय मेर पानी में पकाकर प्राधपाव शेष रहने पर छानकर सो० जागृत और १ ता. खाँड़ मिलाकर सुबह शार सान पिलाने से मुंगी दूर हो जाती है। २ तोल्ने अनार के हरे पत्तों को प्राधसेर पानी में रगड़ और छानकर सुबहशाम पिलाना सूक को दूर करता है। अनार के पचों को कुचलकर निकाला हुआ रस एकसेर सत्यानासी कटेरी को कुचल कर निकाला हुश्रा रम १ सेर, गोमूत्र १ सेर, काले तिलों का तेल २ सेर, अनार के पत्तों का कल्क श्राधसेर सबको मिलाकर भाग पर चढ़ाएँ। केवल तेल मात्र शेप रहने पर पाग पर से उतार और छान कर रक्खें । इस तेल को दिन में दो तीन बार फुलवरी (शिवत्र) के दागों पर लगाना गुणदायक है। इस तेल कं लगाने से | काले धब्बे, झीप, दाद, चंबल, भगंदर और कंठमाला इत्यादि रोग दूर हो जाते हैं। इसे कोढ़ के जख्मों पर लगाने से भी लाभ होता है। इसको दिन में तीनबार लगाने से श्लीपद को लाभ होता है। अनार के पत्तों को छाया में सुखा बारीक पीसकर कपड़ छान करें और १-१ तो सुबर और शासनाजा पानी के साथ खिलाएं। इससे कोदर हो जाता है। साया में शुष्क कर बारीक पीस कर काड़ छान किए हुए अनार के पत्ते ६-६ सागा सुबह श्रीर शामताजा पानी के साथ खिलाना, प्रमेह और कुरह (जत) को दूर करता है। साए में शुष्क किए हुए अनार के पत्ते ४ भाग, सेंधानमक १ भाग, दोनोको बारीकीय कर कर छान करें और ४-५ मा. दोनों समय भोजन से पहिले पानी के साथ खिला । यह भख को कमी एवं बदहजमी को लाभप्रद है। अनार के पो २ तो०, - पानी में रगड़ और छान कर पिलाना, मृच्छा को दूर करता है । यदि रोग चिरकालीन हो तो सुबह शाम दोने वा पिलाएँ। अनार के परी १ तो०, गुलाब के साजे फूल १ तो० (यदि ताजे फूल न मिलें तो शक पुष्प ६ मा० ले ले),दोनों को पानी में श्रौटाएँ । (पानी शेष रहने पर छानकर एक तो० गोघृत मिला कर गरम गरम सुबह और शाम पिलाने से योषापस्मार ( Hysteria) दूर होजाता है । इससे उन्लाद को भी लाभ होता है। अनार के हरे पतं १ तो०, गोखरू हरा १ तो दोनों को पानी में रगड़ और छानकर सुबह और शाम पिलाना पेशाब की रुकावट और जलन को दूर करता है। २ ती० हरे पत्तों को पानी में रगड़ और छान कर सुबह और शाम पिलाना लू लगने में लाभप्रद है। श्रनार के पत्तों के छाए, में सुखाकर बारीक पीसकर कपड़छान करें। ६-६ मा० मुबह और शाम ताजे पानी के साथ खिलाने से श्वित्र । ( मफ़ेद कोड़) दूर हो जाता है। अनार के २ तोले हरे परी को प्राधपाध पानी में रगड़ और कपड़छान कर सुबह इसी प्रकार शाम के वा पिलाने से यह सोम रोग को दूर करता है। अनार के ६ माशे हरे पत्तों को २ तो. पानी में रगड़ और छानकर २ तो० शर्बत मिलाकर लाभ होने तक एक-एक घण्टा बाद पिलाना हैजे के लिए अत्यन्त लाभद है। यह वमन को भी बन्द करता है। __एक नो० अनार के हरे पत्ते और । मा० कालीमिर्च, दोनों को पानी में रगड और अनार के पचों को छाए में सुखा बारीक कर कपड़ छान करें और एक-एक तो. सुबह और शाम ताजा पानी के साथ खिलाने से श्लीपन दूर होता है। For Private and Personal Use Only Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अनार अनार के पक्षों को पानी में करना श्वीप का साभप्रद है । कनफेड के बरम को दूर करता है। www.kobatirth.org पीस कर लेप । इसका प्रलेय ३१० अनार के २ लो० पत्तों को ॥ पानी में क् थित कर = पानी शेष रहने पर छान कर ४ रत्ती संधानमक मिला सुबह और शाम पिलाने से भी यह कनफेड़ के बरम को दूर करता है । ! प्रवार के २ तो० हरे पत्तों को ॥ पानी में करें। पानी शेष रहे तब छानकर ठंडा होने पर इससे गड़प कराने से यह खुनाक ( Sore throat ) को दूर करता है । श्रातशक में पारद सेवन से मुँह आने पर भी इसका उपयोग लाभदायक होता है I अनार के २ तो० हरे पत्तों को ॥ पानी में जोश देकर = रहने पर छानकर ठण्डा करके सुबह इसीतरह शाम के वक पिलाने से वह सुना (Sore throat) और मुँह थाने में मुफीद है । अनार के पतों को छाए में सुखा बारीक पीस और करड़ छान करके सुबह और शाम दाँत और मसूढ़ों पर मञ्जन रूप से लगाने से दाँतों के हिलने, मसूड़ों से खून या fta श्राने और मसूदों के फूलने इत्यादि में लाभप्रद 1 5- अनार के पत्तों को 59 पानी में जोश देकर || पानी शेष रहने पर छान कर इससे जख़्मों को धोने से उनसे खुन खाना बन्द हो जाता है और ज़ख्मोंका गन्दापन दूर हो वे शीघ्र भर जाते हैं । इस प्रकार धोने से और पूर्वोक अनार पत्र तथा सत्यानाशी द्वारा प्रस्तुत तैल के लगाने से नासूर भी दूर हो जाता है । अनार के पत्तों को छोएमें सुखाकर बारीक पीस कपड़छान करके ६-६ माशा सुबह शाम ताजे पानी के साथ खिलाना भी नासूर में लाभ करता 1 अनार के पत्तों को पानी में पीसकर दिन में दो बार लेप करना या अनार के पत्तों को पानी Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रनार में भिगोकर बतौर पोटली आँखों पर फेरना दुखती आँखों को लाभ पहुँचाता है । प्रचार की पत्तों को कुचल कर निकले रस को कपड़े में छान कर दिन में दो बार चन्द्र कतरे आँखों में टपकाना आँखों की सुर्खी, बरम, खुजली और गंदपन को दूर करता है । अनार के १ सेर ताजे पत्तों की सेर पानी में भिगोएँ । २४ घंटे बाद भाग पर पकाएँ जब २ सेर पानी शेष रह जाए छान कर इस पानी को दुबारा आग पर चढ़ाएँ । जब शहद की तरह गाढ़ा हो जाए तब याग पर से उतार कर पंडा होने पर शीशी में डाल रक्खें । इसे सलाई से सुबह और रात्रि में सोते समय श्रख में लगाना दुखती खों को लाभ करता है और श्रोंखों की खुजली, ललाई, गंापन, पलकों की खराबी, पानी जाना और कुकरों को दूर करता है | अधिक काल तक सेवन करते रहने से परवाल भी दूर हो जाते हैं । पत्ती को पानी में भिगोने से पहिले पानी से अच्छी तरह साफ कर लें जिसमें मिट्टी आदि अलग हो जाएँ । यथासम्भव इसकी ताम्र पात्र में तय्यार करें । अनारकी हरी पत्तीको कुचलकर निकाला हुआ रस ४०-४००, सुरमा स्याह २ तो०, दोनों को खरल करें। शुष्क होने पर कपड़छान कर रखें | इसको दोनों समय श्राखों में यांखों के उपयुक्त रोगों को दूर करता I लगाना नार के हरे पत्तों को कुचल कर निकाला हुआ रस खरल में डाल कर खरल करे । जब शुष्क हो जाए तब कपड़े में छान कर रखें । प्रातः सायं सलाई द्वारा आंखों में लगाना पूर्वोक नेत्र रोगों में यह प्रयोग ग्रधिकतर लाभप्रद है For Private and Personal Use Only सिंगर रूमी १ तो०, अनार के हरे पत्त े २ तो० दोनों को खरल करके ७ टिकियाँ बना कर छाया में शुष्क करें। तामे के टुकड़ों को आग पर गरम करके उस पर एक टिकिया रखकर जलाएँ और श्रावक के रोगी को नंगा करके Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनार अनार उसके बदन पर एक कपड़ा सापेट कर कपड़े के दें, अाध पाच पानी शेष रहने पर छानकर और भीतर बह तामे का गरम टुकड़ा रखदे, जिस पर | ४ रत्ती सेंधा नमक मिलाकर सुबह और इसी टिकिया पड़ी हो । जब धुआँ निकलना बन्द हो प्रकार शाम को पिलाया करें। जाए और यवन पर व पीना चुके तो तेज अनार के पत्तों को छाया में सुखाकर बारीक हवा से बचा कर रोगी के ऊपर से कपड़ा हटा पीसें और कपड़ छान कर के ६-६ माशा सुबह कर दूसरे कपड़े से पसीना साफ करदें। सात ! ब शाम ताजे पानी के साथ पिलाएँ या ५ तो. दिन तक यह प्रयोग करने से प्रातराक दूर हो । . अनार के ताजे पत्र को - पानी में रगड़ और जाता है। छान कर सुबह और शाम पिलाने से दिल के श्रीपध सेवन काल में गेहूँ और चने की रोटी : धड़कन को लाभ होता है । छाए में सुखाए हुए अनार में दही, नीम के पत्र १-१ ती०, छोटी घी के साथ खिलाएँ । अनार के हरे पत्तों का । पत्थर पर बारीक पीसकर ग्राग से जली हुई इलायची और गेरू १-१ तो. सच को बारीक जगह पर दिन में दो तीन यार लेप करना लाभ कपड़ छान कर और ४ - ४ मा० स बह और शाम ताजे रानी के साथ सेवन कराने से दिल की दायक है। धड़कन, धूप या उग्यताधिक्य के कारण शरीर १० तोला अनार की पत्ती को कुचल कर २० । से चिनगारियों के निकलने में बहत लाभ होता तोला तिलों के तेल में जला कर काला होनेपर है। इससे प्यास भी कम हो जाती है। भाग से उतार लें और छान कर रक्खें । प्रावश्वकता होने पर इस तेल को ७ बार पानी से बढ़ी हुई प्यास में अनार के पत्तों को कुचल घोकर मलहम सा तय्यार कर, श्राग से जली कर मुंह में रखकर चूसते रहना या १ तो. हुई जगह पर लगाने से लाभ होता है। अनार के पो को पानी में रगड़ और भिड़, ततैया, मधु मक्खी, मकड़ी और बिच्छू छान कर सुबह शाम पिलाने से बहुत लाभ प्रतीत होता है। प्रभनि से वंशित स्थान पर अनार के हरे पत्तोंको रगड़ कर लेप करना चाहिए। श्रनार के पत्तों को पीस कर लेप करना तेजाब और भिलाके तैल प्रभति, तेज चीजों । स्तनों को दृढ़ करता है। से जली हुई जगह पर उपयुक्र प्रयोग उत्तम । श्रनार के पत्तों को कुचल कर निकाला हुया है। मकड़ी के विष में दर्द सर त्रुखार और दाह : रस १, तिल तैल २० तो० दोनोंको गरम अाँच आदि कई रोग पैदा हो जाते हैं। इन सब में । पर पकाएँ, तेलमात्र शेष रहने पर उतार कर अनार के दो तोले ताजे पत्तों और दो माशे । छान कर रखें। इसकी दिन में दो तीन बार काली भरिच को प्राधपाय पानी में रगड़ और । मालिश करने से भी स्त्रियों के कुच कठोर हो छान कर मुबह और तकलीफ की अधिकता की । जाते हैं, परंतु शीत्र नहीं। दशा में इसी तरह शाम को भी मिलाएं। अनार के ताजे पत्तों को कुचल कर निकाला अनार के पत्तों को छाया में सुखाकर बारीक हुअा रस १२, गाय का घी ३१, अनार के ताजे पीसकर कपड़ छान करें। पित्त उबर में सुबह पसी का कल्क, तोनों को मिलाकर नरम व शाम को ताजा पानी के साथ ६-६ माशा भाग पर पकाएँ। जब पानी जल कर धी शेष खिलाएं, बात कफ दर में गर्म पानी के साथ रह जाए तब उतारकर कपड़े से छानकर टण्डा विताएँ । होने पर मिट्टी के चिकने बर्तन में रख छोड़ें। टाइफाइड ( श्रोत्रिक सन्निपात ज्वर) में यह घृत मेदाजनक, वीर्य एवं बुद्धिवर्द्धक है। २तो. अनारके पनों को प्राध सेर पानी में जोश । उप्ण गोदुग्ध में श्रावश्यकतानुसार मिश्री For Private and Personal Use Only Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनारकली अनावृतं मिला कर उक्त औषध २ तो० सुबह व शाम अनारतुर्श anāra-tulsh-फा० खट्टा अनार पिलानी चाहिए। (Sour l'omegranate ). अनार कली anara-ka.i-हिं० स्त्री. दाडिम- अनारदश्ती Anāra-la.shti-फा० जंगली अनार | कलिका, अनार की कली । Punica Gun. ( Wild l'omegranate ). natum, Linn. ( Bulls of-pomeg. रुम्मानबरी, मज-१०। तुह.फ्रा महोदय बचनाJanate) देखो-अनार । नसार हन्बुल कलकल इसी का फल है और पानारका झाड़ mara-ka-juara-द० दाहिम महशी तुह फाने लिखा है कि अनारदश्ती गोरख वृक्ष, अनार का पेड़ । Punica. Chana- पुर (संयुकप्रांत) के पास पास बहुतायत से tumn, Linn. I स. फा० ई० । देखो- पैदा होता है । इसके तीन चार पत्त भूमि से अनार । उत्पन्न होने के बाद ही पुष्प श्राजाते हैं जो गुलअनार की कली a.hāra-li.kali-हिं० संक्षा स्त्री० अनार के समान होते है और परी कासनी के दाड़िम कलिका । ( Buds of pomegr- | पदों के सदृश होते हैं। anate) देखो-अनार । | अनारदारणा anaia-dana-राज० पु० दाडिमअनार की छाल anāra-ki-chhai-हिं० संज्ञा बीज, अनार का बीज । ( Seed of pome. त्री दाडिम स्वचा-सं०। रुम्मान-अ.। granate) देखो-अनार । पास्त अनार-फा० । ग्रेनेटाइ कॉर्टेक्स (Gra. ! अनारदानह anāra-dānah niti cortex ). ले० । पामेग्रेनेट बार्क | अनारदाना anala-dana-हिं संज्ञा पु. । pomegranate bark-ई० । देखो- अनारका बीज । खट्टे अनारका सुखाया हुश्रा दाना। अनार । हम्बुरुम्मान-01(Punica Grana.tum, अनारकंवा atta-keva-फा० खसखास, | Linn. (Seeds of l'omegranate ). पोस्ता । ( Poppy seeds). स० फा० इं०। देखो-अनार । (२) श्रनारको टोन anarcotine-इ० नारकोटीना ! रामदाना । Narcotinit, नारकोटीन Narcotine 1 अनारदानहे-तुर्श anāra-danahe tursh-फा० अवसन्नीन-हिं० । मुस्किरीन, मुपदिरीन-अ०1 खट्टा अनारदाना ! (Seeds of sour pome इसके वर्ण रहित, चमकीले तथा बड़े बड़े ये grante.) होते हैं जो जल में तो अविलेय पर ईथर वा अनारदानहे-दश्तो anāra-dantahs; dushtiउबलते हुए मद्यसार अथवा अम्लीय (बिलयन) ने फा० हजुल कलाल (बार चिकना )। विलेय होते हैं। इसमें सुजताकारक ग न होने के कारण इसे "अनारकोटीन" अर्थात् नत्र. अनारदानहे शो 11āru-dainahe.shitiiiमक्रीन कहते हैं । यह परियाय निवारक ( एण्टि फा० मीठा अनारदाना । पोरिॉडिक ) है और इस विचार से यह कोनीन के समान है। अस्तु, जूड़ी तापों (एग्य) अनारपुष्प amara-pushpa- हिपुअनारका में इसे क्वीनीन के स्थान में वर्तते हैं। मात्रा फल । Pumical granatuml, Linn. १ से ३ ग्रेन तक। ( 'lowers of-Pomegranato.) अनारकोही alāra-kothi-फा० पहाड़ी अनारजो ! नारवृक्ष nāra-rriksha-हिं० पु. अनार अधिक अम्ल होता है। का पेड़। ( Punica Gianatum, अनारगुली a.āra-guli-फा० गुलनार । Linn. ). For Private and Personal Use Only Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनारमुश्क ३१३ अनाविल अनारमुश्क anara-mushka-फा० नारमुश्क, अनातंय जलम् anārttavt.jalam-सं० नागकेशर । ( Mesia ferrea). क्ली० जो जल ग्रिना ऋतु अर्थात् चौमासे ( वर्षा. अनार मैखोश ana1a-mailk hosha-फा० ऋतु) के सिवा पौष श्रादि महीनों में बादलों खामिटा अनार, स्वादुम्लद डिन । ( Pome- द्वारा वर्षता है उसे "अनार्तबजल" कहते हैं। granate of a mixed taste of sour यह प्राणियों में वातादि तीनों दोषों को कुपित and sweet). देखो अनार । करता है । "अनार्त्तवं प्रमुञ्जन्ति वारि वारिधराअनार वित्रतोस anāra-vitra-tisa-o० स्तु यत् । तस्विदोपाय सर्वेषां देहिनां परिकीर्तिफ्राशरस्तीन I Sec-Fasharastina. तम् ॥" भा० पू० वारि०व०। वर्षा ऋतु के अनार शीरी anara-shirii-फा० मीठा अनार । सिवा अन्य ऋतु का जल अथवा वर्षा ऋतु के भी (Sweet Pomegranate ). देखो- श्र- प्रथम वृष्टि का जल । यह जल पीने योग्य नहीं नार। होता । वा० सू० ४ ० श्लो० ७॥ अनारस anarasa-गु० अनन्नास । Ananas | अनातवा anārttara-सं० स्त्री०, हिं० वि० sativus, Jill. ( Pine apple ). En ata (Unmenstruating woman) फा० ३०१ जो ऋतुमती न हो । रजः शून्या, वह स्त्री जिसे अनारहिन्दी anaa-hindi-फा० श्री फल, मासिकधर्म न होता हो यथा-"अनार्तवस्तनापंडी" बिल्व, बेल (gle marmelos). "बेल- स० सं०३०३८। "अनात वास्तनी पण्डी गिरी इसी का गूदा है।" खरस्पर्शा च मैथुने।" मा०नि०। अनारित anāriksha-सं० श्राकाश (Sky ). | अनार्य anārya-हिं० संज्ञा पु० [सं०] [स्त्री० अनारिक्ष जलम् amariksha jalam -सं० अनार्या । संज्ञा अनार्यत्व, अनार्यता] (1) वह क्ली० अन्तरीक्ष जल, वर्षा का जल | ___ जो श्रार्य न हो । श्रश्रेष्ठ। (२) म्लेच्छ ।। अनारी anari-हिं० वि० [हिं० अनार ] अनार अनार्यकम् anāryyakam-सं० क्ली० (१) के रंग का लाल । अगर, अगुरुकाष्ठ । Aloe wood-ई. । __ हला० । (२) काष्ठागुरु । रा०नि० २०१२। संज्ञा पु० (१) लाल रंग की आँख वाला | भा० पू०१ भा० क०व० । देखो-अगर । कबूतर । (२) एक पकवान | यह एक प्रकार अनाऱ्याजम् anaryya.jam-सं० की. अगर । का समोसा है जिसके भीतर मीठा या नमकीन अगुरु । Aloe wood-इं० । रा०नि०.। पूर भरा जाता है। अनाथ्यतिक्तः-कः anaryyatik tah,-kah अनारीत्रह, amarichah-फ़ा. एक अप्रसिद्ध बूटी | -सं० पु. चिरायता, भूनिम्ब । ( Gentia. है (अकरा भेद की ). na Cheray ta, Raeb.) अम० । अनार्जव: ayarjavah-सं० पु. 1. अनार्ष anārsha हिं० वि० [सं०] जो ऋषि अनार्जव anar java-हिं. संज्ञा पु. प्रशीत न हो। जो ऋपिकाल का बना हुआ रोग । ( Disease) रा. नि. व. २० । । (२) सिधाईका श्रभाव | टेढ़ापन | असरलता ।। अनालगोलम् anāla-golam-सं० पुं० (Du. अनार्तव anārtva-हिं० वि० [सं०] [स्त्री० | ctless gland) प्रणालीविहीन प्रन्थि । अनार्तया ] बिना ऋतुका । बेमौसिम । श्रनवसर । | अनालीकी analiqi-रू० अञ्जरह., उतञ्जन । संज्ञा पु० स्त्रियों के ऋतुधर्म का अवरोध ।। ___Blepharis Edulis, Pers.) रजोधर्म की रुकावट । | अनाविलः anavilah-सं० त्रि० अनार्स: anarttab-सं० त्रि० अकालज, बेसमय, अनाविल anavila-हिं० वि० बिना ऋतु । ( Untimely). निर्मल, स्वच्छ, साफ, ( Clean,pure). For Private and Personal Use Only Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनावृत्त ३१४ प्रनासुप्पा अनावृत्त anavritta-हिं० वि० [सं०] [स्त्री० प्रभाव-इसका फल सुगन्धितयुक्र सथा अनावृत्ता] जो ढंका न हो । अनावेष्ठित । वायुनिस्सारक है। परिस्त करने पर इसमें से प्रावरण रहित । खुला। (२) जो घिरा | सौंफ़ ( Anise ) के सदृश एक प्रकार का न हो। तैल प्राप्त होता है । इसी कारण यह सौंफ के अनावंशः anavavshah-सं० पु'. मम्मविशेष ।। स्थान में व्यवहत होता है । मद्य को सुस्वादु के०। (A marmma.) Sce-Mal- बनाने के लिए इसे उपयोग में लाते हैं। mma अनासफूल awasa-phula-हि० देखो-अनास. अनाशप्-पज़म anashap-paz ham-ता. फल। अनन्नास । ( Pine apple). स. फा. । अनासाइकलस पाइरीध्रम anacyclus pyr. अनाशवादी anashavadi-ता० गोभी ! ethium, D.C.)-ले. अकरकरा । (Pel. (Elephantopus sca ber).-10 मे! litory) फा. ई०१ भा०। मेमो० । मे०। अनासिकः allasikah-सं० त्रि० नासिकाहीन, अनाशोवदी anasho-vadi-ता० गोभी । नाक रहित, बिना नाक का, नकटा । (Nose(Elephantopus scaber ). फा० ई० clipt) २ भा० । अनासिक anāsika-हिं० वि० [सं० अनहीं अनासपण्डु anāsa-pandu-ते. अनन्नास ! +सिका ] अनासिकः । ( Pine apple ) स. फा. इं० । । अनासिर aanāsira-१० (ब०२०), उन्.सुर अनासपुव्वु alāsa-puvvil-ते. अनासफल (ए.व.) तत्व । देखो-एलीमेंट्स ( Ele-हिं० । वादियाने खताई-अ०, फा० | Iilic ____nments)-इं०। ium abisatum, Linn. ( Fruit ! . ': अनासिर अब अह allāsira-arbaaah-अ० of-star anise ) ले० । स. फाइं०। तत्व चतुष्टय । युनानी लोगों के निकट केवल अनासफल anāsa-phala-हिं. सौंफ । अनस- । फज-द० । बादियान-बम्ब० । अण्णाशुप-पू । चार मूल तत्व हैं। वे प्रायों के माने हुए पाँच तत्वों में से श्राकाश तत्व को तत्व नहीं स्वीकार -ता० । बादियाने-खताई-१० । राज़ियानहे- । करते, प्रत्युत वे इसे खलाऽ अर्थात् शून्य मानते खाताई, बादियाने-खताई-फा० । अनास पुवु -ते० । ननत-पोएन-बर्मी० । Iliciumm हैं, पर नवीन अनुसन्धानों द्वारा यह बात भली anisatum,Linn. ( Fruit of-Stat' : भाँति सिद्ध हो चुकी है कि प्राकाश शून्य नहीं, प्रत्युत द्रव्यों की एक ऐसी दशा है जिसमें anise )-ले० । स० फा० इं० । मेमो०। देखो-सौफ। द्रव्य एक-रूप होते हैं । इसको अंग्रेजी में नोट-उपयुक फलका एक प्रकारके पुष्प के साथ ईथरिक ( Etheric) कहते हैं। देखो तत्व वा श्राकाश । साहश्यता होने के कारण किसी किसी ग्रंथ में : भ्रमवश इसका नाम "अनास फल" के स्थान में अनानु anāsu-कना अनरस, अनन्नास । (Ana "अनासफूल" लिखा गया है। इसके अतिरिक्र । nas sativus). किसी किसी फ़ारसी ग्रंथमें शब्द "अनास" तथा । अनासुप्पा anāsuppa-ता. वादियान ख़ताई । 'अनानास' अभेद रूप से उपयोग में लाए गए सोफ( Iliciuni anisatum, inm.). हैं; तदनुसार स्टार-एनीसी (अनास फल ) का | अनासुप्पान nāsuppan-त. बादियान नाम ग़लतीसे गुले अनानास अर्थात् अनन्नासपुष्प खताई । सौंफ (Illicitinm anisa tum, लिखा गया है। Linn.)-इं. मे० मे। For Private and Personal Use Only Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनास्टेटिका हीरोकंटीना ३१५ अनिद्राजनक अनास्टेटिका होगकंटाना anastution hie.| अनाहारी anahari-हिं० पु. भूखा रहने वाला। rochuntina,Linn.-ले. कफेमरियम. कफ़े- भूखा | (Fasting). प्रायशा-फा० ।गर्भफूल-हि०, गु० । फा० ई० | अनाहूत anāhuta-हि. वि. अनिमंत्रित, बिना. भा० । देखो-कमरियम् (Kafema बुलाया हुश्रा, बिना न्योता दिए । riyam). अनाहः amāhah-सं० पु रोग विशेष, श्रा(अ) अनाह aniha-हिं० संज्ञा पुं० देग्यो-अनाहः। . नाह रोग, मलमूत्र रोधक व्याधि, अफरा, पेट अनाहतम् anahatam-सं० क्लो० । । फलना, प्राध्मान ! (Flatulence). अनाहत anahatato संज्ञा पु.) अनिकर्ग anikara-ता. जिङ्गिनी, अजशृङ्गी, नूनन वस्त्र, नया वस्त्र ( New cloth) अ०। (२) शब्द योग में वह शब्द वा नाद ! नेत्रशुद्धी-सं०। ( Odina vodier ) जो दोनों हाथों के अंगों से दोनों कानों की . ई० मे० मे०। लवें बन्द करके ध्यान करने से सुनाई देता है। अनिकेत anike ta-fr. वि० ।। गृहहीन, . देखो-शब्दयोग । (३) हठ योग के अनुसार अनिकता aniketa-सं० स्रो० बिना घर का, स्थान रहित । शरीर के भीतर के छः चक्रों में से एक | इसका स्थान हृदय, रंग लालपीला-मिश्रित और देवता अनिगीर्ण anigirna-fa. वि० [सं०] जो रुद्र माने गए हैं। इसके दलोंकी संख्या १२ और निगला न गया हो। श्रदर 'क' से '' तक हैं। श्रनिगुण्डुमणि anigundumani-ता० रकवि० (१) जिस पर श्राघात न हुआ हो । कम्बल । ( Adenanthera Pavoni. अशुब्ध । (२) अगुणित | जिसका गुणन __na). न किया गया हो। अनिग्रह anigraha-हिं० वि० [सं०] पीड़ा अनाहत चक्रम् anāha ta-chakram-सं० | रहित । नीरोग । क्ली० हृदयचक, द्वादश-दल-कमल । ज़फ्रीरह । अनिच्छः anichchhah-सं० त्रि० तृप्त इच्छा कल्बिस्यह -अ० कार्डिएक प्लेक्सस (Car न होना । वै० निघ० 1 ( Indifference.) diac plexus )-ई० । देखो-हृदयचक्र । अनिच्छा anichchha-हिं० संज्ञा स्त्री० [सं०] अनाहत शन्दःanihata-shabdah-सं० ० [वि० अनिच्छित, अनिच्छुक ] (१) इच्छा का अनाहत चक्र में होने वाला शब्द । अभाव । अरुचि । (२) अप्रवृत्ति । अनाहद वाणी anahada-vani-हिं० संज्ञा |. ! | अनितून anitān-यु. । सोप्रा-हिं० । स्त्री० [सं० अनाहत+वाणी] (१) घट में अनिथूम anithum-यु. ) शूद-फा० । डिल होने वाला आवाज । (२) श्राकाश वाणी । ( Dill )-इं० । फा० ० २ भा० । देववाणी । गगनगिरा। अनाहशूलभ anaha-shulan--सं० को दर्द | अनिंद्र anidra-हि. वि.सं.] निद्वारहित । के साथ पेटका फलना ( Flatulent with बिना नींद का | जिसे नींद न श्राए । संज्ञा पु० नोंद न आने का रोग । pain). प्रजागर। अनाहारः anihārah-सं० (.) भोजन | का अभाव वा त्याग । अाहाराभाव (Absti. | अनिद्रा anidra-हि. स्त्री० निद्रानाश, नींद न nence, star vation)। हि. वि० । wrar 1 (Insomnia, sleeplessness). (1) भूखा, निराहार । जिसने कुछ न खाया अनिद्राजनक anidrajanaka-निद्राहर, निद्राहो । (२) जिसमें कुछ न खाया जाए। नाशक, निद्रा न्यूनकर ! For Private and Personal Use Only Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनिद्रान्तक अमिलरसः अनिद्रान्तक anirantaka-हिं० वि० निद्रा- अनिर्माल्या anirmalya-सं० स्त्री० पिण्डिका, जनक । ( Ilypnotic). एक्का-सं० । पिडिङ्ग शाक-बं० । पुरी-हिं० । अनिपीपुल anipipul-द० पीपल वृक्ष, अश्वत्थ | Medicago esculenter, Rux)) । घृक्ष । ( Fiens Religiosa). ई० मे० रत्ना० । मे । अनिर्वाण: anirvanah-सं०५० कफ। (Pl. अनिफ anif-अ० नासिका रोगी । (Ncse legim ) चै० निध। Clisonsod.)। अनिलः amilah-सं० पु. । (१) वायु, अनिमा onema-हिं. संज्ञा औ० देखो- अनिल uiiltu-हिं० संज्ञा पु. पवन, हया। एनिमा । (Air or wind )। (२) शेगुन गाछ अनिमिषः animishah-सं० पु. -ब०| शाकतरु। रा०नि० २०२३। अनिमेषः animesha.h-सं. त्रि० अनिल anila- सिटेक्रोसिया किटोरिया (Te. (१) मत्स्य । मछली । ( Afish) त्रिका० phrosin tinctoria, Pers.)-ले। मे. पचतुष्कं । (२) क्षण रहित, निमेषशून्य । इसके पत्र रंग के कान में पाते हैं। मेमो० । अनिमिप aninmisha-हिं० वि० [सं०] निमेष | अनिल कपित्थकः anila-kapitthakah-सं० रहित । स्थिर दिट । टकटकी के साथ देखनेवाल।। पु० स्थूल आम्रातक । (Spondias man. कि० वि० (१) बिना पलक गिराए । एक gifera) वै० निघः।। टक । (२) निरन्तर । । अनिलकारक: anila-kārakah-सं०प. संज्ञा पु० मछली । ( A fish) काँजी भेद । वै० निघ० ! See-Kanji. अनिमेष animesha-हिं० वि०, क्रि० वि० दे० अनिलनः, कः aniliughnahi,kah-सं० पु. अनिमिय। बहेरेका पेड़, विभीतक वृत्त । टर्मिनेलिया बेले. रिका ( Terminalia belerica)-ले । अनियारा aniyāra-हिं० वि० [सं० अणि= | रा०नि०व०११।। नोक+हिं०-पार ( प्रत्य)] [स्रो० अनि भारी ] नुकीला ! कटीला । पैना । धारदार । | अनिलज्वरः anila-jvarah-सं० प वातिक तीषण । तीखा । ज्वर, वातज्वर। यह साम और निराम भेद से दो प्रकार का होता है। च० द०/Seeअनिरुद्धम् aniruddham-सं० की अनिरुद्ध aniruddha-हिं० संज्ञा , Vatajvara. . (१) पशु श्रादि बाँधने की रज्जु विशेष । अनिल निर्यास: anila-niyasah -सं. १० ( Rope,string )।-हिं० वि० पियाल वृक्षः-सं० । नियवेरू, चिरौंजी का वृक्ष अनिवारित, जो सेका हुअा न हो, अबाध । | -EिO Buchanania latifolia ले। (Unobstructed) 1 विवला-मह । वै० निव०॥ अनिरुद्धपथम् anjuddha-patham-सं० अनिलपर्ययः anilaparyyayah-सं. प. क्ली० आकाश! (Sky) श० । वायु रोग ( Nervous disease.)। अनिर्दशा anirlasha-हिं० वि० स्त्री० [सं०] अनिलभुत anila-bhuk-सं. प. सर्प, जिसको बच्चा दिए दस दिन न बीते हो।। साँप, कीरा ! स्नेक (Snake), सर्पएट (Serनोट-इस शब्द का व्यवहार प्रायः गाय के | pent)-ई. । वै० निघ० । सम्बन्ध में देखा जाता है । ऐसी गाय का दूध अनिलरमः anila-rasah-सं० ० (१) यह पीना निषिद्ध है। | रस पांडु रोग में हित है । रस. २० । For Private and Personal Use Only Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनिलरिषः अनिष्टकर - - - (२) ताम्रभस्म, पारद भस्म, गन्धक, बच्छ मात्रा-१ रत्ती। नाग प्रत्येक समान भाग ले चूर्ण कर चित्रक के गुग-सेंधानमक के साथ या मिर्च, घृत, काथ से भावना दें और चौथाई पहर तक मन्द त्रिकुटा, चित्रक के साथ खाने से वात रोग दर अग्नि (लघु पुट ) में पकाएँ । होता है। मात्रा-२ रत्ती। (३) पारा, मैनशिल, हल्दी, शुद्ध जभालगुण-इसके सेवन से शोथ और पांडु दूर ! गोटे के बीज, त्रिफला, त्रिकुटा और चित्रक प्रत्येक होते हैं । रस० यो० सा० । समान भाग लें और गन्धक पारेसे दूना ले एकत्र अनिलरिप:anila-ripuh-सं० एरंड वृक्ष, . चूर्ण करें । फिर दन्ती, थूहर और भांगरा इनके अरण्ड । ( Ricinus communit ) वै० । रम, दूध और क.थ से भावना दें। निघ. २ भा० सन्धि० ज्व० चि० रास्नादि। मात्रा--२ रनी। अनिलरूखः amila.sa.khah-सं० पु अग्नि, गुण-इसके प्रयोगसे रेचन होगा | जब रेचन श्राग। फायर | Fire)-ई. हो चुके तब हलका पथ्य मरे के साथ कोई अनिलहरम् anila-haran-M० क्लो० कृष्णा- अंडी वस्तु न। फिर शरीर में शनि भाजाने पर गुरु, काली अगर। वै० निघ। Pugle ! उसी प्रकार उपयुन रस को तब तक दें जब wood ( Aquilaria agailocha.) तक कि रोग शान्त न हो जाए। यह 20 प्रकार अनिला anila-सं. स्रो० (1) नदी (River) || के वात व्याधियों को दूर करता है । रस. यो सा । (२) खटिका, फूल खड़ी, सेतखड़ी। ( Cha. k)र० ना० । अनिलाशिन् anilashin-सं० अनिलाशो anilashi-हिं. संज्ञा पु. अनिलाजोणंम् amilajirnam-सं० क्ली० धाता. अनिलाषी: amilāshih-सं०ए जीणं । वा० सू० ८ श्र० । See - Vataji. सर्प, साँप (A serpent )।-हिं० वि० Ina. अनिलाटिका anilariki-२० स्त्रो रक्त पुन हवा पीकर रहने वाला । ( Air eatel) नया। See-Rakta-punamava अनिलास: anilāsalh-सं० प. कृष्णकान्ता अनिलान्तकः anil anta.kah-सं० पु. (Clitorrets ternatea) देखो-अपरा जिता। इंगुदो वृक्ष । इङ्गोट् , हिंगुश्रा । ( Balanitis roxbilughii )रा०नि०२० अनिलेकायो mile.kayi-कना० हड़, हगोतकी । अनिलामयः amilamayah-सं० पु० (१) (Terminalia chebula) इं० मे० वायुरोग, वात व्याधि । ( Nervous dise. मे०। ase) (२) अजीर्ण ।। अनिलोचितः tamilochitah-सं० पु. नीलअनिलारिरस:anilari-rasah-सं० १०(१) माप, राजमाप, काली उड़द। ( Dolichos पारद । तो0, गंधक २ तो० की कजलीकर अरंड | sinensis ) वै. निध० । और निर्ग राडी के रस से १-१ दिन खरल करें। पुनः ताम्र के सम्पुट में रख कपरौटी कर बालुका. अनिष्ट anishta-हिं० वि० [सं] जो इष्ट न हो । यन्त्र में जंगली कंडे के चूर्ण की अग्नि दें। जब इच्छाके प्रतिकूल । अनभिलपित । अवांछित । शीतल हो तब निर्गुण्डी, अरण्ड, चित्रक इनके संज्ञा पु अहित । हानि । • रस की भावना दे रकने । | अनिष्टकर anishtakara-हिं० वि० [स] For Private and Personal Use Only Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनिष्टा,-टा ३१८ अनीमून [स्त्री० अनिष्टकरी ] अपकारक, अहितकारी, फा० इं० | मावजुबान-हिं० । मोगबिरकु, अनिष्ट करनेवाला, हानिकारक, प्रशुभकारक | मभेरी, चीना, रणभेरी-ते०। पेमैरुति-ता० । मेमो०। अनिष्टा,-ठा amishra, shtha-सं. स्त्री नागवला, गुलसकरी । (Siddu spinosa) अनितुः anikshuh-सं० ० इतु विशेष रा०नि०। (Saccharum spontaneus)। खागड़ा अनिस anis-० राजियानह -फा० । राज़िया- -यं०। र०मा० । ग्रानाखुः । रत्ना०। नज-अ० । Anisc ( Pimpinella : अनी arti-हिं० संज्ञा स्त्री० [सं० अणियप्रभाग, anisum, Linu. )-ले० । फॉ० इं० २ . . नोक ] नोक, मिरा, कोर (The point or मा० । edge of any sharp instrument.). अ(ग्रा)निसवाईबेरैल amis.biberrell-जर० वि० तीखा, पैना, नोंक । सौंफ । ( Pimpinella anistum ) अनी ani-41. (Rel) रक्क, लाल-f० । मुर्ख, इं० मे०० । ग्रह मर-अ०। अनिःसारा anih-sāra-सं० स्त्री० कदली वृक्ष, अनीक aniq-अ० ( Yeck, cerrix ). केले का पेड़ ( Musa sapientum. ग्रीवा । धड़ और शिरका मध्यस्थ कशेरुका । Linn.)| कला गाछ-अं० । रा०नि० व० ११॥ अनोकरूस anigarās-यु० किर्मिङ्ग । निघ अनीकस anikas-रु. शिगूफ़ा, कली 1 (Bud). अनिसैकी anisacrt:-फ्रें० सुफेद जीरा, श्वेत अनकस्थः anikasthah-सं० वि० हस्तिजीरक ।( Cumintim cymium.) ई० शिक्षाविचक्षण, कोचवान । मे० थचतुष्क । : मे० मे। (An elephant lriver ). अनिसो-किलस-कारनोसस् anisochilus | अनोकाही anikini-सं० स्त्री० एक वृक्ष है । carnosus, Wull.-ले० पोरी का | (A tree) पात, सीता की पोरी-हिं० । फजीरी का पत्ता-द० । स० फा० इं० । फॉ०ई० ३ भाछ। अनीकिनी ani-kini-हिं० प्रा० सेना, भीड़, मेमो०। ई० मे मे०। इसके पत्र एवं पौधे कटक, सैन्य । ( An army, a force). औषध कार्य में पाते हैं। अनोकिनी anikini-हि. संज्ञा स्त्री अनिसोमेलिस प्रोवेटा anisomelis ovata, | [सं० ] कमलिनी । पद्मिनी । नलिनी । __R. Pr. -ले. गोबुर । मेमो० । (Mala- | अनीचो anichi-तु० मोती ( pearl )। bar catmint)-ई० । मोगबीर- द०। अनातरून anitarin-रू. गंदना के समान इं० मे० मे। एक बूटी है जो कोर भूमि पर उगती है। A अनिसोमेलीस डाइस्टिका anisomeles | plant like Gandana. ___disticha-ले. मोगबीर । ई० मे० मे०। अनीदोतूस anidotus-यु० माजूनात (Conश्रनिसोमेलीस फ्रटिश्रोसा anisomeles tectiones) । देखो-मअ.जून । ___frutiosa-ले० मोगबीर । ई. मे० मे। | अनीनशन animashan-खं० विनाश कर देते अनिसोमेलीस मालावेरिका anisomeles | हैं। अथर्व। malabarica, R.Br.-ले० भूताङ्कुशम्-सं०। अनीमून anemone-इं० शकायिकुमुझ मान, मोग्गीरे का पत्ता-३० । मालाबार कैट मिण्ट | शक्रीक-अ० । वायुपुष्प-सं० । पल्साटिल्ला ( Malabar catmint )-इं० । स. (pulsatilla)-ले० फा० ई० भा For Private and Personal Use Only Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनीमून श्राब्ट्युज़ीलोया - ३१६ अनीसन अनीमून आट्यज़ीलोबा anemone obtil- | siloba, Don., Royle: -ले. शनीक-अ०।। वायुपुष्प-सं० । रत्तनजोग, पादर-40 | फा० इं०१ भा० । ई० मे० प्लां० । मेमो०। अनीमून डिस कलर anemoine discolor -ले० रसनजोग, पाडर-१० । काकरूज -कुमा० । ई० मे० मे० । अनीमून पल्सेटिल्ला anemone pulsatilla -ले० शनायिकुम् अमान-अ० । वायुपुष्प-सं० । (pulsatilla. ) अनोमून हार्टेन्सिस anemone hartensis -लं० । बिस्तान अफरोज़-का0 महूरा, कलगा। अनीमून हेपेटिका anemone hepetica ले. लीवर बर्ट ( Liver wort)-इं०। अनोमोनिक एसिड anemonic acid -इं० तेज़ाबे--शक़ायिन अमान--१० । वायु. पुप्पाम्ल--सं० । फा० ई० १ भा०। अनीमोनीन anemonin-३० जौहर शकीक । -अ० । वायुपुष्प सत्व-सं० । फा००१ भा०। अनीमोनाल anemowol--इ.पीत वायुपुष्प तैल ( Yellow ancinone oil) । इं० फा० १ भा०। अनीली anili-सं० स्त्री० काशतृण | A speci es of grass ( Saccharum spont- : aneum) र० मा० । देखो-काशः । । अनीलेमाट्युबेरोसा ancilema tuberosa, ! Ilan.-ले. स्याह मुसली । मेमो । अनीलमा स्कैपीफ्लोरम् ancilema scupi. : floruin, Wisht.-ले० स्याह मुसली । कुरेली। बं० | सीसमुलिया-गु० । ई० मे० प्लां । देखो -मुसली। अनीसून anishna हिं० संज्ञा पु' [ यू०] ! अनी anisain |विलायती रन्दनी । सौंफ रूमी-उ० । अनीसून (anison)-यु०। एनिस फ्रट ( Anise Fruit ), एनिस ( Anise ), glaats (Ani-seed)-801 एनिसाई फ्रकटस (Anisi Fructus ), fafgaar gaar ( pimpinella abisun, Linn.)-ले० | एनिस( Anis )-फ्र। राज़ियानजुरूमी, राज़ियानजुश्शामी; (बीज) बर्राज़ियानजुरूमी, बर्राज़ियानजुश्शामी, हब्बुल हलो, कमूनुल हलो-अ० । बादियान रूमी--फा० । विलायती रधूनी-बम्ब० । छत्रक वा शतपुष्पा वर्ग (2.0. Umbellifera. ) उत्पत्ति स्थान-यह एक वार्षिक पौधा है जिसका मूल उत्पत्तिस्थान मिश्र और लीवांट है। परन्तु, अब यूरुप में विशेषकर रूस और स्पेन, हॉलैंड, बलगेरिया, फ्रांस, टर्की, साइनस तथा अन्य प्रदेशों में इसकी कृषि होती है। फारस और भारतवर्ष में यह संयुक्रमांत और पंजाब के विभिन्न भागों तथा ओड़ीसा के थोड़े भाग में पाया जाता है । अनीसू अब उत्तरी भारतवर्ष में बोया जाता है। यद्यपि अब भारतवर्ष की भूमि इसकी प्रकृति के अनुकूल हो गई है तो भी वह इसका वास्तविक जन्मस्थल नहीं है । संझा निर्णायक नोट-इंडियन मेडिसिनल प्लांट्स, इंडियन मेटीरिया मेडिका और इंडिजिनस ड्रग्स ऑफ इण्डिया इत्यादि ग्रन्थों में से किसीमें इसका संस्कृत नाम मधुरिका लिखा है तो किसी में शतपुष्प वा शतार तथा किसी में उभय नामोंका उल्लेख अाया है जो सर्वथा भ्रमकारक है । अनीसून उनसे भिन्न प्रोषधि है। मधुरिका वा मिश्रेया अर्थात् सौंफ ( बादियान) Fennel ( Focniculum Capillaccum or Vulgare ), शतपुष्प अर्थात् सोना ( शिवित्त ) Dill ( Peucedanum Graveolens ), arlega marg staranise( Illicium Verum) श्रादि और कतिपय अन्य ओषधियों में बहुत कुछ पारस्परिक सादृश्यता के कारण प्रायः ग्रन्थो में संज्ञा निर्णय में भूल किया गया है। इनकी विस्तृत व्याख्या के लिए यथा स्थान देखो। इसको बादियान रूमी इसलिए कहा जाता है कि इसकी शकल बादियान (सौंफ)एवं जीरा के सर्वथा समान होती है। For Private and Personal Use Only Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अनीसन www.kobatirth.org इतिहास -- धनीसून अति प्राचीन श्रोपधियों में से है। सारिस्तुस (Theop hrastus) और दीसकुरादूस (Dioscorides ) ग्रादि यूनानी तथा प्लाइनी ( Pliny) प्रमति रूमी चिकित्सकों ने भी इसका उल्लेख किया है। पर, ऐसा ज्ञात होता है कि प्राचीन हिन्दुओं को इस श्रोषधि का ज्ञान नहीं था; क्योंकि आयुर्वेदीय ग्रंथों में इसका उल्लेख नहीं | पाया जाता है। अनुमान किया जाता है कि मुसलमान आक्रमणकारी इसे फारस से अपने साथ लाए जहाँ से कि अब भी यह बम्बई के बाज़ारों में लाया जाता है । वानस्पतिक वर्णन - इसका पौधा लगभग १ गज़ ऊँचा होता है । शाखाएँ घनाकार पतली होती हैं । पत्र एला पत्रवत् किंतु छोटे एवं सुगंधियुक होते हैं। प्रत्येक शाखाके सिरे पर श्वेताभ पुष्प होते हैं, जिनके भीतर कोषावृत्त जीरा के समान छोटे छोटे बीज होते हैं । प्रनीसू के फल का श्राकार एक सा नहीं होता। उत्तम भूमि में होने वाला २ से, इं० लंबा होता है । सासा ? न्यतः ये ६० लंबे श्रौर, ६० चौड़े होते ३२० हैं। ये किसी प्रकार गोल, अंडाकार, किनारों पर से दबे हुए, लोमश, ख़ाकी या भूरे रंग के और दो भागों में विभक्र होते हैं । इनके संधिस्थल पर एक छोटी सी दंडी होती है । प्रत्येक फल पर इस उभरी हुई रेखाएँ होती हैं । ये सौंफ से छोटे और रंग में उनकी अपेक्षा हरित एवम् श्यामाभायुपीतवर्ण के होते हैं । इनकी गंध श्रत्यन्त प्रिय होती है। शुष्क बीजें को कूटने और फटकने पर इनके कोप भूमीकी तरह पृथक् हो जाते हैं I इनमें सर्वोत्तम प्रकार वह हैं जो आकार में अपेक्षाकृत वृहत् एवं तीव्र सुगंधिमय है। और जिनके ऊपर से भूसी के समान छिलका न उतरे । क्योंकि इनका प्रभाव अधिकतया इनके कोप में ही है । स्वाद-सुगंधियुक्त, प्रत्यन्त प्रिय एवं मधुर | परीक्षा - यद्यपि धनीसून के बीज, शतपुष्प ( Dill ), बिलायती जीरा ( कराविया ), सौंफ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनीसुन ( Fennel ) और शूकरान ( Conium ) तोभी, अपने विशेष वानस्पपहिचाने जा सकते हैं । के समान होते हैं। तिक लक्षणों द्वारा रासायनिक संगठन - फल में २ से ३ प्रतिशत उडनशील तेल होता है जिसको अभीसून का तेल कहते हैं । इसमें एनीथोल ( श्रनीसून सत्व ) या एनिस कैम्फर ( Anise camph 01 ) ८० प्रतिशत, एनिस एल्डीहाइड ( An ise aldehyde ) तथा मीथिल - केविकोल ( Methyl chavicol ) होते हैं । प्रयोगांश- श्रीतुल्य इसके बीज (फल) ही अधिकतर व्यवहार में आते हैं । प्रकृति- तीसरी कक्षा में रूस और जालानूस के दो भिन्न उद्धरणों के आधार पर इसकी उष्णता दूसरी या तीसरी कक्षा में है । परन्तु, म, खूज़नुल्अद्विग्रह के लेखक के मतानुसार यह दूसरी कक्षा में उष्ण और तीसरी कक्षा में रूक्ष है । प्रतिनिधि - सोना, श्रामाशय के लिए सौंफ और कामोद्दीपन हेतु तुख्म जुरह । हानिकर्तातथा दर्पन - वस्ति को हानिकर हैं और बुस्सूस ( मुलेठी के सत ) से उसका सुधार होता है । उस प्रकृति वालों में शिरःशूल उत्पन करता है और सिकञ्जबीन से वह दूर होता है । मात्रा -- १॥ सा० से ६ मा० तक । शर्बत की मात्रा ७ मा० ले ६ मा० है । औषध निर्माण - युनानी चिकित्सा में इसके हर प्रकार के मिश्रण, यथा क्वाथ, श्रकं, तैल, घनसत्व (रु), अजून, शर्बत, चूर्ण, अनुलेपन, हुमूल (पिचुक्रिया ) और धूमी (धूपन ) प्रभुति व्यवहार में थाती हैं। इनमें से कतिपय मिश्रण निम्न प्रकार हैं (१) श्रनोसुन का मिश्रित काथ-नीसून, हुबह ( मेथिका ), लोबिया सुख प्रत्येक १५ मा०, सुदाब १० || मा० । निर्माण-विधि— सबको तीनपात्र पानी में क्वाथ करें। जब एक पाव रह जाए तब उतार कर साफ करें। सेवनविधि - धोड़ा गुड़ मिलाकर सेवन करें। गुणश्रावप्रवर्तक और अवरोध उद्घाटक I For Private and Personal Use Only Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अनीसून ફર (२) अर्क नसून --- २० तो० श्रनीसून को जीकुट करके १ सेर जल में भिगो दें। चौबीस घंटे पश्चात् यथाविधि अर्क खीचें । मात्रा व सेवन - विधि-२ से ४ तो० तक दिनमें २ या तीन बार सेवन करें। गुण-बालकों के लिए विशेष कर लाभप्रद है । श्रामाशय, यकृत् तथा प्रांत्र के वायुजन्य रोगों के लिए अत्यन्त लाभदायक है । (३) श्रनीसून का मिश्रित तैल - धनीसून ५ तो०, अकरकरा १ तो०, शिगूफ़ा इखिर १ तो०, दारचीनी १ तो०, ऊद सलीब ६ मा० और कुचिला ३ मा० । निर्माण - विधि - सम्पर्ण दृष्यों को १० तो० तिल तैलमें जला कर साफ़ करलें और यथाविधि मालिश करें। गुण-- पक्षाघात, शैथिल्य, अवसन्नता एवं श्रवयविक विकार के लिए लाभदायक है । (४) अनीसून का मिश्रित चूर्ण-अनसून ५ तो०, अजवायन ५ तो ०, सोचा २ तो०, काला नमक ? तो०, और नौसादर ४ मा० । निर्माण-विधि : - सब श्रौषधियों को कूट खानकर चूर्ण बनाएँ । मात्रा व सेवन विधि - इसमें से ३ मा० चूर्ण दिन में २ बार सेवन करें । गुण-- आमाशय, यकृत, श्रांत्र और जरायु के वायुजन्य वेदनाओं में लाभप्रद है । मूत्र खाता एवं प्रातंत्र की प्रवृत्ति करता है। (५) शर्बत अनीसून ( मिश्रित ) - श्रनीसून ३१ मा०, अफ़सन्तीन १७॥ मा०, तुख्म करक्र्स १० ॥ मा०, तज ७ मा०, गुलाब ३५ मा० और बालछड़ २४ ॥ मा० | निर्माण - विधि - सबको अधकट करके १ सेर पानी में कथित करें। जब आधा रह जाए, मल छानकर तीनपात्र मिश्री मिलाकर शर्बत की चाशनी करें। शीतल होने पर ७ मा० मस्तगी, रूमी वारीक पीस कर ऊपर छिड़क कर सेवन करें | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री सूने मात्रा - १॥ तो० से २ लो० तक । गुण - आमाशय नैर्ऋत्य में लाभप्रद है । श्रामाशय, आध्मान एवं शूल को 'दूर करता है । नीहा एवं यकृत के रोध का उद्घाटक है तथा पेशाब जारी कराता है । एलोपैथिक चिकित्सा में यह निम्न रूपों में प्रयुक्त होता है। 1 ऑफिशल योग (Official preparations. ) (१) एनिसाई फ्रक्टस (Anisi Fructus ) - ले० । एनिस फ्रूट ( Anise Fruit ) - इं० 1 अनीसून के बीज । ( २ ) एक्का पनिसाई ( Aqua anisi ) - ले० | एनिस वाटर ( Anise water ) - ई० । अर्क अनीसून, अर्क बादियान रूमी । निर्माण-विधि - एनिसफ्रूट ( अनीसून के वीज ) १ पौंड, पानी २ गेलन, अनीसून को कुचल कर और पानी में भिगोकर एक गैलन ( ८ पाइंट ) अर्क खीचें । मात्रा - श्राधा से २ फ्रुइड आउ'स = ( १४ २ से १६° ८ सी० सी० ) एक वर्ष के बालक को १ से २ ड्राम । ( ३ ) ऑलियम् एनिसाई ( Oleum anisi ) - ले। ऑइल ऑफ़ एनिस (Oil of avise ) - इं० । श्रनीसून तैल-हिं० 1 जैस अनीसून - ० 1 रोग़न श्रनीसून फा० । यह एक उड़नशील तेल है जो एनिस फुट प्रनीसून ) से अथवा स्टार एनिस ( अनीसून नज्मी, बादियान ख़ताई ) से प्रस्तुत किया जाता है । (यह दोनों श्रीफ़िशल हैं ) । लक्षण - यह एक वर्ण रहित वा किखित् प वर्ण का तैल है जिसका स्वाद एवम् गंध श्रनीसून के समान होती है । श्रापेक्षिक गुरुत्व ६७७ से १८३ तक | १००० से १५०० शतांशके ताप पर इसके रवे बँध जाते हैं । रासायनिक संगठन - इसमें (१) ७५ प्रतिशत एमीथोल ( अनीसून सत्व ), (२) एनिसिक एल्डिहाइड और ( ३ ) मीथिल फेविकोल होता है । For Private and Personal Use Only Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३२२ प्रभाव-आक्षेपहर और वायुनिस्सारक । । मात्रा-भाधा.से ३ बुद (०३ से २ घन शसोशमीटर)। बह टिंकचूरा कैम्फोरी कम्पोजिटा, टिंकचूरा शोपियाई एमोनिण्टा और निम्नलिखित मिश्रणों में पड़ता है। (४) स्पिरिटस एनिसाई ( Spiritus anisi)-ले । स्पिरिट अॉफ एनिस (Spirit of anise.)-२० । रूह अनीसू, रूह बादियान रूमी। निर्माण-विधि-ऑइल आफ ऐनिस ' भाग, ऐलकोहल (१०%) भाग दोनों को मिला लें । यदि निर्मल न हो तो विचूर्णित अभ्रक मिलाकर हिलाने के बाद छान लें । प्रभाव-माक्षेपहर और बाबुनिस्सारक। मात्रा-५ से २० बुद( -३ से १.२ धन शतांशमीटर )। एक वर्ष के बालक को नॅॉट ऑफिशल योग ( Not Official Preparaticus. ) (१) एलिक्सिर एनिसाई ( Elixir | Anisi ) ले । एनिसीड कॉर्डियल ( Aniseed Cordial)-इं०। अक्सीर अनीसून, मुफ़हि अनीसून । निर्माण-विधि-एनिधोल '३५ भाग, ग्राइल | ग्राफ फेनेल ०५ भाग, स्पिरिट श्रीफ़ बिटर प्रामंड १२५ भाग, ऐलकोहल (80%)२४ भाग, सिरप ६२.५ भाग, मैग्नेशियम कार्बोनेट । ५भाग, डिस्टिल्ड वाटर श्रावश्यकतानुसार या इतना जितने में सारी औषध पूरी १०० भाग हो जाए। मात्रा-मध्यम मात्रा बालकों के लिए १५ बुद=(१ घन शतांश मीटर )। (२) एसेंशिया एनिसाई ( Essentia . Anisi)-ले० । एसेन्स अफ एनिस (Essence of Anise)-इं० । रूह अनीसून, रूह बादियान रूमी। निर्माण-विधि-श्राइल अफ एनिस । भाग, रेक्टिफाइड स्पिरिट ४ भाग दोनों को मिला लें । (नि० फा० सन् १८८५ ई० के अमुसार)! नोट-उपयुक स्पिरिटस एनिसाई की अपेक्षा इस एसेंस की शकि लगभग द्विगुण है। (३) निसिक एसिड ( Anisic Acid )-अनीसूनाम्ल, अनीसून की तेजाब | हम्ज़ ल अनीसून, तेजाब यादिग्राम रूमी । अनीसून के तैल वा सब को ऑक्साइड ( उष्मिद) करने से यह अम्ल प्राप्त होता है। इसके चमकदार, वर्णरहित एवं सूचिकाकार पतले रखे होते हैं। (४) सोडियम् एनिसेट (Sodium Anesate )-यह एक स्वादार एवं सूक्ष्म सुगन्धिमय चूर्ण होता है जो सोडियम को एनिसिक एसिड में मिलाने से बनता है। घुलनशीलता-यह एक भाग ५ भाग जल में और एक भाग २४ भाग ऐलकोहल (60%) में विलेय होता है। नोट-कहते हैं कि एनिसिक एसिड ( अनीसूनाम्ल) और सोडियम्एनिसेट सैलिसिलिक एसिड के समान पचननिवारक और ज्वरघ्न प्रभाव रखते हैं। एनीथोल (Anethol.) अर्थात् अनीसुन का सत्व पनीथाल ( Amethol )-ले० । एनिस कैम्फर ( Amise Camphor )-501 अनीसून सरव, अनीसून कपूर-हिं० । जौहर अनीसून, काफर अनीसून । यह स्टियरीष्टीन अर्थात् वाले दाइल या उड़नशील तैल का सांद्रांश है । यह अमीसून तेल तथा बादियान खताई हर दो तेलों से प्राप्त होता है। . नोट--घॉलेटाइल प्राइल अर्थात् अस्थिर तेल में जो जम जाने वाली वस्तु होती है उसको डॉक्टरी परिभाषा में स्टियराप्तीन कहते हैं जिसका सामान्य उदाहरण कपूर है। अतएव अनीसून सत्व को भी अंगरेजी में एनिसाई कैम्फर अर्थात् अनीसून का कपूर कहते हैं। For Private and Personal Use Only Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अगोसून लक्षण-एनीधोल की श्वेत रवेदार डलियाँ । होती हैं जिनसे अनीसून की तीब्र सुगन्धि पाती है। स्वाद-किञ्चिन्मधर । यह ६८° फारनहाइट के उत्ताप पर पिघल जाता है। द्रव रूप में यह घणरहित होता है और इसमें से सूर्यरश्मि बक्रीभूत होकर गुजरती है। विलेयता-यह एक भाग लगभग ३ भाग ऐलकोहल (२०००) में विलेय होता है। मात्रा-१ से २ बुद-( ०६ से १२ घन सतांश मीटर )। अनीसून के प्रभाव तथा उपयोग यूनानी मतानुसार-(१) यह वृक्ष, वस्ति, जराषु एवं प्लीहा व यकृत् के अवरोधों का उद्घाटक है। क्योंकि यह चरपरा और तेज है। और इनका कर्म रोधोद्घाटन है। (२) अपने | संशोधक, विलायक और उत्तापजनक प्रभाव के कारण यह वायुनिस्सारक है, विशेषकर जब यह | भुना हुआ हो । व्योंकि भूनने से इसकी प्राता कम हो जाती है एवं इसकी तीक्ष्णता बढ़ जाती है । (३) मुख तथा हस्तपाद के मंदशोथ के लिए लाभदायक है। क्योंकि यह प्रवर्तनकर्ता | है और अवरोधउद्धाटन एवं किञ्चित् संकोच द्वारा यकृत को शक्ति प्रदान करता है। (४) नेत्र में लगाने से पुरातन सबल रोग को लाभदायक है। क्योंकि यह उसके माहाको लय करता | है। (१)शिरः शूल होता तथा सिर चकराता ! हो, ऐसी दशा में इसका नस्य एवं धूपन (धूनी) अत्यन्त गुणदायक है। क्योंकि यह उनके माहों। को लय करता है। (६) यदि इसको गुल रोगन में खरल करके कान में डालें तो अपने थोड़े संकोच के कारण ठोकर या घोट के द्वारा उत्पस हुए कर्ण क्षतको अच्छा करता है और विलायक शनि से कर्णशूल को दूर करता है। (.) रोध उद्घाटन तथा उष्मा बाहुल्य से मूत्र, प्रार्तव और जरायुस्थ भाईता को रेचक भनोसम क्योंकि यह श्लेष्मा को पिघलाता एवं लय करता है । (१) स्तन्यजनक एवं शुक्रवर्द्धक है। क्योंकि आहारीय पथों को मुक तथा स्तन की ओर उद्घाटित कर देता है। (१०)विषदोपन है। क्योंकि मूत्र तथा प्रार्तव के प्रवत्त न द्वारा स्रोतों को विष से शुद्ध कर देता है। (११) प्रायः यह उदरीय विष्टभ उस्पन कर देता है। क्योंकि यह रुचताजनक एवं प्रवर्तक है और पाहार को अवयवों की ओर प्रविष्ट करा देता है जिससे प्रांत्र में रूक्षता उरपा हो जाती एवं कब्ज हो जाता है । (नफ़ो.) नव्यमत:--एलोपैथिक मेटिरिया मेडिका(एनियम तथा एनिसम), डिल (सोमा, शतपुष्प ), एनिस (अनीसून ), कोरिएण्डर (धान्यक), फेनेल (सौंफ मधुरिका) और कारवी अर्थात् करवे ( Caraway ) प्रभाव में समान हैं । ये सशक पचमनिवारक है। अधिक मात्रा में ये सार्वाजीय उत्तेजक हैं तथा विरेचक औषधों के ऐंठन के निवारवार्थ चायुनिस्सारक रूप से और बासकों के उदरशूल एवं प्राध्मानजन्य पीड़ा के लिए इनका व्यवहार किया जाता है । इस हेतु अनीसून अधिकतर उपयोग में आता है। सम्भवतः इन अन्तिम दशात्रों में ये परावत्तित क्रिया द्वारा आक्षेपहर प्रभाव करते हैं । थोड़ी मात्रा में इनसे प्रामाशयिक रस का और सम्भवतः अान्यायिक रस का भी नाव बढ़ जाता है। श्वास द्वारा निःसरित होते समय श्वासोश्वास सम्बन्धी कलाओं को उसेजित कर इन सबका निर्बल कराच्य ( श्लेष्मानिस्सारक ), प्रभाव होता है। पूर्ण ( वयस्क) मात्रा में इनमें मन्द निद्राजनक शनि है। किन्तु, यदि इनको अन्त:क्षेप द्वारा सीधे रुधिराभिसरण में पहुँचाया जाएं तो इनका सशक हृदयावसादक प्रभाव होता है। (सर वि. हिटला) (-) श्लेष्मज तृषा को प्रशमन करता है। For Private and Personal Use Only Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३२४ मनुकूला डॉ० के० एम० नदकारणो-फल जिनसे अनुकदली anukadali-सं०. कदली वि. अनीसून के बीज तैयार किए जाते हैं, अजीर्ण शेष, केला । लोखण्डीकेल मह । A Planरोग की एक विश्वस्त औषध है। अनीसून के | tain tree. फल व तेल की सुगंधि, दीपन पाचन और वायु- अनुकम्पा amukampa-हिं० वि० ( Tendनिस्सारक प्रभाव का बड़ा प्रादर किया जाता ___erness ) दया, कृपा । है । सब उड़नशील तैलों के सदृश इसका तैल अनकणंम् anukarnain-संक्ली० कर्ण समीप, उत्त जक एवं कराध्य है। श्राध्मान जनित उदर ___ कान के पास । वा० शा० ४ अ० । शूल में उदर तथा शिरोशूल की अवस्था में सिर अनुकर्ष anukarsha-हिं० संज्ञा पुं० [सं०] में इसके तेल का स्थानिक प्रयोग होता है। भाकर्षण । खिंचाव। इसके बीज सुपारी के साथ चबाए जाते हैं और अनकर्षणम् anukarshanain-सं० फो०) इसकी चटनी श्राहार में काम आती है । प्रान्त्र अनुकर्षण anukarshana-हिं० संज्ञा पुं० ) विकार एवं वायुप्राणालीय प्रनिश्याय में भी, (१) पानपात्र । (a glass, a drinking विशेषकर बालकों में, जब कि उग्रावस्था व्यतीत vessel ) हाग०। (२) अनुकम, अनुकर्षण । हो चुकी हो, उस समय यह उपयोगी होता है। खिंचाव। अनीसून के बीज ड्राम, शर्करा तथा हरीतकी अनुकल्पः anukalpah-सं० ए० किमी चौ. प्रत्येक १-१ डाम । इनका चूर्ण उराम कोऽमृदु पध के अभाव में उक्र औषध के गण के समान कर ( Laxative) है। अनीसन के बीज अन्य प्रौषध का ग्रहण । प्रतिनिधि या बदख। . और कराविया (Caraway ) को समभाग ( an alternative)-इं०। ले भूनकर चाय की चम्मच भर की मात्रा में . भोजनोपरांत सेवन करें। यह उत्तम पाचक है। अनुकूट प्रवर्द्धन anukuta-pravarddha. चूर्ण किए हुए बीज की मात्रा-१० से ३० ग्रेन Ha-हि. संक्षा पु० (Jugular pro. (५-१५ रची) है । शीतकषाय एवं परित जल cess). (८० में 1 ) की मात्रा-१ से २ श्राउंस ( अनकूल anukula-हिं०वि० सात्म्य, मुआफ्रिक। से १ छ.)। तेल की मात्रा-४ से २० बुद ( Favourable). शर्करा पर डालकर दें। (इं० मे० मे०) अनकुलका anukulaki-सं. स्त्री) लघुदन्ती, अनु anu-उप० [सं०] जिस शब्द के पहिले यह | पुद्रदन्ती, जमालगोटा भेद । वै० निघ० । लगता है उसमें इन अर्थों का संयोग , Croton Tigliumm, Linn. ( the होता है । (१) पीछे । जैसे, अनुगामी, अनु- small var.) करण । (२) सदृश । जैसे, अनुकाल, अनुकूल, | अनुकुलन anukulana-हिं० अनुरूर, अनुगुण । (३) साथ । जैसे, अनुकंपा, अनुकुलना annkilana-हिं० कि० स० ) धनुग्रह, अनुपान । (४) प्रत्येक । जैसे, अनु (१) (Accomodation) अप्रतिकूल होना। मुत्राक्रिक होना । (२) पक्ष में होना । हितकर . खण, अनुदिन । (१) बारंबार । जैसे, अनुगुणन, होना । अनुशीलन । संज्ञा पु० दे० अणु । इसके विप. रीत "अभि" आता है। अनुकूल सन्धिः anukula sandhih-सं.पु. अनुक: anukah-सं०० (Cupid अल्पसन्धिः ( Amphiarthrosis, yielअनुक anuka-हिं० संज्ञा पु. inous, | ding joint.) Lustful ) कामुक, कामातुर, कामी, वि- अनुकूला anukula-सं० स्त्री० ह्रस्व (लघु) षयी। म०। दन्ती वृक्ष, शुद्र दन्ती । रा०निक व०६। For Private and Personal Use Only Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुकूलिनी ३१५ अनुतकम् अनुकूलिनी anukālini-सं० स्त्री. पुद्रदन्ती। | अनुच्छ वास: anuchchhvasah-सं० पु. Croton 'Tiglium, Linn (A small श्वासरोध, साँस बन्द होना, दम बन्द होना, val. of-). दम घुटना । इहितनाक-२०। (Asphyxia) अनुकंपा anukarnpi-हिं० संज्ञा स्त्री० [सं०] अनुज anuja-हि. वि० [सं०] जो पीछे [वि० अनुकंपित ] सहानुभूति । उत्पन्न हुअा हो | --संज्ञा पुं॰ [स्त्री० अनुक्त anukta-सं०, हिं०वि० जिसका वर्णन न अनुजा ] (1) छोटा भाई । (२) एक पौधा किया गया हो । जो न कहा गया हो । ( Not स्थलपन । Spoken, not told ). अनुजम् anujam-सं० स्त्री० (Root stock अनुकद्रय anukt-adrava-हिं० वि० निद्रव, of Nymphica lotus:) FIRECT * जहाँस्वरसादि पतले पदार्थोका वर्णन नाया हो । (कमल नाल ) नामक गंध द्रव्य विशेष । अनक्त परिमाण amukta-parimāna--सं० पुण्डरिया-40 | रा०नि० व० १२ ॥ त्रि, हिं० वि० जहाँ द्रव्यों का परिमाण (मान) श्रनुजस् anujns सं० पु. पुण्डरिया, कमलन दिया गया हो। नाल । (The root stillk of Nymअनुक्रम unukraina-सं० ५० विधान, कायदा । phra lotus.) (methol, order). अनुजा anuja-सं० स्त्री० बायमाए लता । गोश्रोअनुखाल anukhāla-हिं. पु. खाई, खाड़ी, यालियालता-बं० रा०नि०३०५। बलानाला। (A creek). मुर-वं० । भा० पू० १ भा० गु०व०! अनगः anugah-सं० पु. । परिचारक, से- Thaliclrum Fliosan | देखी-- अनुग anuga-हिं० संज्ञा प वक ( An त्रायमारणा। . attendant.) रत्ना०1-हिं०वि० (fol!. अनुजात aunjita-सं०प. वह सन्तान जो पिता owing.)पश्चाद्गामी, पीछे चलने वाला, अनु के गुण रखती हो । अथर्व) । सू०६ । का० । गामी, अनुयायी, पैरोकार । अनुगत anugata-सं०५०,-foवि.संझा | अनुजिघ्रम् alimjighram-सं. गंध लेकर। अथ । अनुगति ] (१) पीछे पीछे चलने वाला, प्राति, अनुगामी, अनुयायी (Dependant on)। | अनुजंघास्थि anujanghāsthi-हिं० संशा स्त्री टाँग या जंवा की दोनों लम्बी अस्थियों में (२) अनुकूल । मुशाफ़िक । -हिं• संज्ञा पुं० से वह जो अंगुष्ट (शरीर की मध्यरेखा के निकट) सेवक, अनुचर । की ओर रहती है। फिव्युला Fibula t०। अनुगमन anugamana-हिं० संज्ञा पु. [सं०] पीछे चलना। अनुसरण । (२)| अनुज्ज्वल मण्डल amjjvala-mandala (Non-Luminous Zone) ज्वाला के समान पाचरण । ( ३ ) सहवास । संभोग । मण्डलों में से वह जो उसके उज्यल मण्डल के अनुगामी anugami-हिं० वि० [सं०]] सर्वतः बाहर स्थित है। इसमें प्रोषजन के श्रा[स्त्रो० अनुगामिनी ]() पीछे चलने | वाला, पंश्चाद्वर्ती ( Followrig)। (२) धिक्य के कारण कजल कणों का ज्वलन सम्यक समान अाचरण करने वाला। (३) सहवास | रीतिसे होता रहता है। एतदर्थ इसमें उज्ज्वलता चा सम्भोग करने वाला। की न्यूनता होती है, परन्तु ताप सब से अधिक अनुधात anughāta-हिं० संज्ञा पु० [सं०] होता है । देखो--ज्वाला। नाश । संहार । अनुतकम् anutakram-संक्ली तक्रानुपान । अनुचिबुक anuchibuka-हिं० संज्ञा पु. “जग्ध्वा तक्रं पिवेदनु ।" सि० यो० पाण्डुमेड़ी या टी के नीचे का भाग। चि. वृन्दः । For Private and Personal Use Only Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुनन्त्री अनुन्मदिनम् अन मन्त्री anatantri-स०स्त्री पिंगला नाड़ी। | अनद्भत ताप anudbhuta tapu-ह.पु. (Syınpathetic nerve) लेटेण्ट हीट श्रीफ़ वेपराइ जोशन ( Latentअनुतन्त्रो पद्धतिः anutantri-paddhatih heat of vaponrisatiou ) a ang -सं०स्त्री० पिंगल नाड़ी मंडल । (Sympa- जो किसी तरल ट्रष्य को वाष्पीय thetic system ) रूप में परिणत करने में व्यय हो; अनुतप्त anita.pta-हिं० वि० [सं०] (1) किन्तु, जिसका कोई प्रत्यक्ष फल विदित न हो, तपा हुश्रा । गर्म । उस व्यको बाम्पीय "अनुगत ताप" कहते हैं। अनुनर्षः ammtarshah-i० पु. (१) उदाहरण-यदि आप एक बर्तन में जल लेकर उसे तृष्णा ( Thinst)। (२) मद्य पोनेका पाय, गर्म करना प्रारम्भ करें तो जैसा श्राप जानते सुरापान पात्र । भैष । मे० ष चतुकं । हैं, उसका तापक्रम बढ़ने लगेगा और बढ़ते अनुताप auntāpa-हिं० संज्ञा पुं॰ [सं०] बढ़ते वह १००° सें० तक पहुँचेगा। उस समय [वि० अनुतप्त ] तपन । दाह । जलन । जल उचलने लगेगा। परन्तु उस समय एक बड़ी अनतापिकाण्ड anutāpikanda--सं० पु. विलक्षण बात देखने में पाती है । जल के तापक्रम पिंगल कांड : (Sympathetic trunk) का बढ़ना बन्द हो जाता है, आप चाहे पाँच अनुनापिनीपद्धतिः auutāpini-paddhatih दुगुनी या तिगुनी कर दे' परन्तु तापक्रम वही -सं० स्त्री० पिंगल मंडल ! (sympathe १००° पर ठहरा रहेगा और जब तक सारा अक्षा tio system ). भाप में परिणत न हो जाएगा वहीं हरा रहेगा परन्तु आप जो ताप देते जा रहे है वह कहाँ अनुत् केशः int.kleshah-सं० पु. उस्ले चला गया ? इसका यही उत्तर हो सकता है कि शाभाव, वमनावरोध । च० सं० विसूची। बह किसी अप्रगट रीति से मल को तरन से अनुस्थित विद्धा "शिरा" utthita-vi भाप बनाने में व्यय हो रहा है। इसे 'अनुन्नत ddhi "shiri"-सं० स्त्रो० टोक पट्टी न . बाँधने के कारण जिसकी शिरा न उठी हुई हो वह । ताप' कहते हैं । भौ० वि० वेधित की हुई । इससे रुधिर नहीं निकलता । | अनुद्वाह auudvaha-हिं०पु० अविवाह,कुमारपंन । सु० शा०८ श्र.। (Virginity)। अनुत्रिकास्थि anutrikāsthi-हिं० स्त्री० | अनधावन audhavana-हिं० संझा पु० पुच्छास्थि, गुदास्थि, चन्चु अस्थि । इस उस, [सं०] [वि० अनुधावक, अनुधावित, अनुअल्स उस अज मुल उस उ.स.१० दुम्गजह, । धावी ] (१) पीछे चलना, अनुसरण, (२) उस्तखाने दुम-फा० । दुम्ची की हड्डी-उ० । अनुसन्धान | खोज । विकास्थि के नीचे रहने वाली एक छोटी अननाद anunada-हिं० सज्ञा प० [सं०] सी अस्थि है जो बस्तुनः चार छोटी छोटी अस्थियों . । [ वि० अनुनादित ] प्रतिध्वनि, गूंज, गुजार । के जुड़ने से बनी है । इस अस्थि में न कोई छिद्र । ! अननादित anumādita हि वि० [सं०] होता है न कोई नली। इसका स्वरूप कोकिल च धत् होता है। इसलिए अँगरेजी में इसको , प्रति ध्वनित । जिसका अनुनाद या गूंज हुई कॉक्सिक्स (Coccyx ) कहते हैं। अनुदर anudara-हिं० वि० [ सं खी अनुन्मदिनः amunmaditah-सं० पु.) अनुदरा ] कृशोदर । दुबला पतला। अनुन्मदितम् aunmaditam-सं0 क्ली. अनुद्धत anuddluata -हिं० वि० [सं०] उन्माद रहित । अथर्व सू०११।२। काल जो उद्धत न हो । अनुग्र | सौम्य । शांत । ६ । अथवं सू०११।१ । का०६। For Private and Personal Use Only Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुपकार अनुपान अपकार anupakāra-हिंo संज्ञा पुं० [सं० ! गई हुई औपध को पथप्रदर्शक का काम [ घि० अमुपकारक, अनुपकारी] अपकार, ! देता है। हानि । वह वस्तु जिसके साथ औषध खाई जाए। वह अनुपकारी anupakāri--हिं. वि० [सं०] वस्तु जो औषध के साथ या ऊपर से खाई जाए। (१) उपकार न करने वाला ! अपकार करने औषधांगपेय विशेष । घाला । हानि करने वाला । ( २ ) फजूल, . बद्रिक्रह, मुवकि -अ.। पेशदारू-फ० । - निकम्मा falgar Vehicle-01 अनुपमः anupa.jah-सं. त्रि. अनुप देश में .. ___ नोट- यह बात सिद्ध है कि यदि किसी तरल उत्पन्न हुआ। देखो-अनूपवर्गः (Anāpa- ! वस्तुके साथ श्रौषध सेवनकी जाए तो इसका शीघ्र vargah ) : प्रभाव होगा और वह औषध को शरीर में उसके अनुपदीना anupadina-सं. स्त्री० उपानह, अभीष्ट प्रदेश तक प्रविष्ट कराने में सहायक होगी। जूता, खड़ाऊँ इत्यादि । हला० । यही कारण है कि प्रायः सभी औषधे किसी न अनुपल anupal-हिं० पु० सेकेण्ड कॉल-मान | किसी तरलके साथ सेवनकी जाती हैं। वह वस्तु *विशेष । (A second of time). जो अनुपान रूपसे व्यवहारमें लाई जाए, रोग पर समुपशयः amupashayah सं० पु. । उसका भी प्रभाव औषध तुल्यही होना चाहिए। unupashaya-हि. संज्ञा . कतिपय रोगों के प्रशस्त अनुपान निम्न हैं:-- (What increases the disease ) वात रोग-स्निग्ध तथा उष्ण द्रव्य । (१) उपशय के विपरीत, व्याध्यसारम्य औषधान श्लेग्म व्याधि-रूस तथा उध्या पदार्थ । विहार आदि अर्थात् वह औपत्र, अन्न तथा पित्त रोग-स्निग्ध वस्तु । बिहार जो रोगी के रोग के खिलाफ, हानिकारक स्नेहपान में-उष्ण जल इत्यादि । मद० अथवा असात्म्य (अर्थात् जो उसके अनुकूल न व० १३ । हो)हो उसे अनुपशय कहते हैं। चूण, अवलेह, गुड़िका और कल्क के अनुपान (२) रोग-ज्ञान के पाँच विधानों में से एक जिसमें । की मात्रा वात, पित्त तथा कफ के प्रकोपमें क्रमश: आहार विहार के बुरे फल को देख यह निश्चय ३, २ तथा १ पल है। किया जाता है कि रोगी को अमुक रोग है। (शाहू म० ख० ६०) मा०नि० । दे. उपशय । श्लेष्म ज्वर-मधु, पान (पत्र) का रस, अनुपात anupita-हिं० संज्ञा पु० [सं०] पाक स्वरस और तुलसी के पत्र का रस चा (Ratio) सम, बराबर का सम्बन्ध, गणित ! क्वाथ । की त्रैराशिक क्रिया । तीन दी हुई मख्यानों के । पित्तज्वर-पटोल फल स्वरस, क्षेत्रपर्पटक द्वारा चौथी को जानना । स्वरस वा क्वाथ, गिलोय का स्वरस, निम्बत्वक श्रमपानम् amunanam-सं. नी. .. | क्वाथ वा स्वरस । अनुपान anupāna-हिं० संज्ञा पु रा वातज्वर- शहद, गिलोय का रस, पटसन नि.व.२० । अनुपान का प्राथमिक अर्थ वह ( लाल पटुपा) तथा चिरायता का शीत कपाय तरल था जो औषध सेवनोपरांत व्यवहार में और तुलसीपत्र स्वरस वा क्वाथ | . लाया जाता है । परन्तु, बहुत काल से अब यह उस द्रव पदार्थ के अर्थ में प्रयुक्र होने लगा, विषम-स्वर---मधु, पीपल (पिप्पली) जिसके साथ औषध सेवन की जाती है। दूसरे का चूर्ण, शेफालिका (हरसिंगार ) के पत्ते का शब्दों में इससे वह द्रव अभिप्रेत है जो सेबन की! रस, विल्वपत्र स्वरस, विल्य ( मूल ) चूर्ण, For Private and Personal Use Only Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ૩૨૬ अनुपान कुटज बीज नागरमोथा, ( इन्द्रयत्र ), पात्र ( श्रबण्डा ) मूल, आम्र बीज, दाड़िम्य अनार) मूल वा फल त्वक्, धत्रपुष्प और कुटज ( वृक्ष ) वक् यक्ष्मा, कफज श्वास, प्रतिश्याय और तत्सम अन्य रोग - वासक अर्थात् घड़ से के पत्तेका रस, तुलसी पत्र स्वरस, पान का रस, आईक स्वरस, अड़ से की छाल का काथ, बामुनहावी, मुलेठी, कण्टकारी, कट्फल और कुष्ट इनमें से किसी का क्वाथ; चचाबीज चूर्ण, तालीसपत्र, पिप्पली (पीपल ), काकड़ासिंगी और वंशलोचन इनमें से किसी एक का चूर्ण । वातप्राधान्य श्वास हेड़े का काथ अथवा चूर्ण मधु के साथ | रक्तातांसार तथा रक्तपित्त - प्रसे के पत्तों का रस, अयापान-पत्र स्वरस, दाड़िम्ब (नार पत्र स्वरस और कुलहला पत्र स्वरस; गूलर का फल, कुटज वृक्ष की छाल और दूर्वा का रस, बकरी का दूध और मोचरस की चू । शोथ रोग - विल्व पत्र स्वरस, श्वेतापामार्ग का क्वाथ अथवा स्वरस, शुष्क मूली का काथ और कालीमरिच का चूर्ण तथा प्रर्क मको वा भको स्वरस | पाण्डु वा रक्ताल्पता और स्त्रियोंके हारिद्र रोग- क्षेत्रपर्पटक स्वरस और गिलोय का रस । विरेचन योगों में-- निशोथ का चूर्ण', दन्ती की जड़ का चूर्ण, सनाय ( सोनामुखा के पत्तों का काथा चूर्ण, कटुकी का क्वाथ, हरीतकी का शीतकषाय उष्ण जल और उष्ण दुग्ध । · सूत्रोद्घाटन अर्थात् मूत्र के योगों के अनुपान स्थल पद्म के पत्तों का रस, पाथरकुची के पत्तों का रस, कलमीशोश का विलयन, कत्राचीनी का चूर्ण और गोखरु, कुसमूल, कास मूल, खस की जड़ तथा इक्षुमूल इनका काथ । बहुत्र (सूत्रातीसार ) - गूलर के बीज का चूर्ण', जम्बु के बीज का चूर्ण और मोचरस का चू', तोरई के भूने हुए फल का रस और कन्दूरी ( कुन्दरू ) की जड़ का रस । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुपान पूयमेह ( सूज़ाक ) – गिलोय का रस, कच्ची हल्दी का रस, श्रामला का रस, लघु शाल्मलीत स्वरस, दारुहरिद्रा का चूर्ण', जी और श्रश्वगंध का काढ़ा, सफेद चन्दन का कल्क, बबूल के गोंदका हिम, कदम्ब की छाल का रस और कसेरू का रस । श्वेतप्रदर - गिलोय का रस, अशोक की छाल का क्वाथ और स्वस्थापक औषधें । रजःप्रवर्त्तक योगों के साथ -- घृतकुमारी के पतों का रस या मुसब्बर ( एलुआ ), बस को छात्र का शीत कषाय, कर्णिकार ( उलट कम्बल ) के पत्रका रस, कलिहारी ( नाङ्गलिका ) के पत्र का रस और अत्रापुष्प का रस | अजीर्ण व अग्निमांद्य -- अजवाइन, बनयमानी और सौंफ का फाण्ट, पीपल, पीपलामूल कालीमरिच, चण्य, सोंठ और हींग इनका चूर्ण । श्रात्रीय कृमिनाशक योगों के साथ -- वायविडंग का चूर्ण, अनार की जड़ का काढ़ा, अनन्नास के पतों का रस तथा खजूर, भिण्डी और चम्पाके पत्तियों का रस, वेंटू और निर्गुण्डी का रस । छर्दिन योगों में अनुपान -- बड़ी इलायचीका चूर्ण वा क्वाथ | वायु रोग - त्रिफला का हिम, शतमूली का रस, बरियारा ( बला ) का काढ़ा, भूमिकुष्माण्ड का रस और श्रामला या त्रिफला का फांट 1 शुक्रवर्द्धक तथा घृष्य अनुपान -- नवनीत (मक्खन), मांस रस, दुग्ध, केवच के बीज, विदारीकन्द, अश्वगन्ध, सेमल के मूसला का रस और अनन्तमूल का रस । रोगी और रोग दोनों की दशा का भली प्रकार विचार कर अनुपान चुनना चाहिए, काथ और फांट की मात्रा १ ० ( २ श्राउंस ), श्रोषधियों के निचोड़े हुए रस की मात्रा १ या २ तो० श्रर चूर्ण की मात्रा १ या श्राध श्राना भर लेनी चाहिए | जब चूर्ण अनुपान रूप से व्यवहार में लाए जाएँ तब उनको मधु में मिला कर बरतें । पित्तोल्वणता की दशा को छोड़कर शेष सभी For Private and Personal Use Only Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अनुपान दशाओं में शहद को अनुपान रूप से प्रयोग करें । www.kobatirth.org (२) श्रष्टांग हृदय से अनुपान का संक्षिप्त वर्णन | उपर्युक्त अनुपानों को केवल उस दशा में काम में लाएँ, जब कि औषध वटिका अथवा चूर्ण रूप में बरती जाए । किन्तु जब मोदक, गुग्गुल श्रीर श्रोषधीय पाक प्रभृति का उपयोग किया जाए नत्र शीतल व उष्ण जल अथवा उध्य दुग्ध की अनुपान रूप से व्यवहार में लाया जाए | सभी श्रीषधीय वृतों में चवनी भर शर्करा | योजित कर लगभग एक छटांक अर्धाण दुग्ध के साथ सेवन करें। बहुत से घी बिना शर्करा के भी उपयोग में आते हैं। "विपरीतं यदस्य गुणैः स्याद विरोधि प” । बा०सु० श्र० ६ | श्लो० ५१ । खाश पदार्थों के विपरीत गुण वाले अविकारी यों का अनुपान सदा ही हिसका है। जैसे रूक्ष का स्निग्ध, स्निग्ध का रूस, गरम को ठंडा डे का गरम, खट्टे का मीठा, मोठे का खट्टा इत्यादि ! परन्तु ऐसा विपरीत सम्बन्ध न होना चाहिए। जैसा दूध और खटाई का होता है । ३२६ अनुपान का कर्म - अपुपनि से उत्साह, तृप्ति शरीर में श स का संचार, दृढ़ता, अक्षसंघात, शिथिलता, मिता और अन का परि | पाक होता है । अनुपान के अयोग्य रोग --जत्रु ( ग्रीवा और वचःस्थल ) के ऊपर वाले अंगों में होने वाले रोगों में अनुपान श्रहित होता है। जैसे--- श्वास, खांसी, उरःक्षत, पीनस, अत्यन्त गाने वा बोलने के सम्बन्ध में वा स्वरभेद में अनुपान हितकारी नहीं है । अनुपान के अयोग्य रोगी - जिनका शरीर विसर्पादि रोगों से क्रिम हो गया हो अथवा जो नेत्र और चत रोगों से पीड़ित हों उन्हें पीने के पदार्थ स्याग देने चाहिए | स्वस्थ और अस्वस्थ सभी लोगों को पान और भोजन के ४२ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुबन्धः पश्चात् अधिक बोलना, मार्ग चलना, नींद लेना धूप में जाना, श्रग्नि तापना, सवारी पर चढ़ना पानी में तैरना और घोड़े आदि पर चढ़ना इत्यादि प्रत्येक काम स्याग देना चाहिए | वा० सू० अ० ६ । अनुपार्श्व सरिका anuparshvasaritká सं० [स्त्री० (Collateral Fissure ). अनुपालुः anupáluh सं० पु० अनुपदेशज बोलू पानी लुक, वन श्रातू । २० नि० ० ७ । See-Pániɣálub. अपुष्प: anupushpab-सं० पु० (, ) शरमृण-सं० | सरपत - हिं० । Ponreed. grass ( Saccharum sara. ) शु० च० । ( २ ) खङ्गतृण । (३) वेतसः । Common cane ( Calamus rotong. ) अनु anupta-हिं० वि० [सं०] जो बोया म गया हो। बिना खोया हुआ । अनुप्रस्थ anuprastha-सं० पुं० (Horizo ntal, transverse ) समस्थ, व्यत्यस्थ, श्रादा, चौड़ाई की रुख मुस्तश्वरिज़, अरीज़ - श्र० । अनुपस्थ वृहदन्त्रम् anuprastha-vrihad antram-सं० ली० अनुपस्थ वृहत् अन्त्र anuprastha-vrihat antra-f६० संज्ञा स्त्री० ( Trans verse colon ) वृहद् अन्त्र का समस्थ या आदा भाग | वृहत् अन्त्र का वह भाग जो यकृत् तक पहुँच कर बाई ओर को मोड़ खाता है और नाभि प्रदेशमें होता हुआ जहा तक पहुँचता है । बृहद् अन्नका दूसरा भाग जो व्यव्यस्त या श्राढ़ा ( चौड़ाई की रुख ) यकृत् से प्लीहा की ओर जाता है । कालुन मुस्तश्वरिज़ ऋ० । अनुप्राशन anuprashana - हि० संज्ञा पुं० [सं०] खाना । भन्त्रण | अनुबन्धः anubandhah सं० ० (१) वात, पित्त और कफ में से जो प्रधान हो । For Private and Personal Use Only Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुबन्धी भमुहा (२) बंधन । लगाव । ( ३ ) अनुसरण - जाए ) उसे "अनुमत" कहते हैं। जैसे-किसों में (१) प्रारम्म । कहा है कि सात रस होते हैं और दूसरे ने इसे अनुबन्धी anubandhi-सं. स्त्री. ( . )। मान लिया, यहो अनुमत हुआ। सु० उ०६५ मृष्णा, प्यास ( Thirst) । (२) हिका, अ० । सम्मत, स्वीकृति, एक मत । हिचकी । (Hiccup) मे । -हिं० वि० अनुमति mumati-हिं० स्त्री. अनुशा, प्राज्ञा, [अनुगंधिन् ] 1 स्त्रा० अनुबंधिनी ] (1) ___ सम्मति । ( an order, advice.) जगाव रखने वाला, संबन्धी। (२) फलस्वरूप अनुमस्तिषम् anumastishkam-सं० क्लो. परिणाम स्वरूप। अनुमस्तिष्कम् ( Cerebellum ). अनुबोध anubodha-हिं० संज्ञा पुं. गंधोद्दीपन अनुमान anumāna-हिं.. अटकल, विचार अनुभास: anubhasab-सं०१० कक विशेष। भावना, क्रयास।Inference, guess) .(A kind of crow) • निघ। अनुमानी anumani-यु० मद्य और शहद मिला अनमत anubhuta-हिं०वि० (Experien हुआ ( Wine and boney mixed)। ced) परीक्षित । सिद्ध । तजरवा किया हुश्रा । भनुमाली anumāli-यु. एक प्रकार का मद्य प्राजमदा । (२) जिसका अनुभव हुअा हो। जिसको अंगुरको निचोड़ कर बिना पकाए (मध) अनुभूत चिकित्सा anubhuti chikitei प्रस्तुत करने हैं। हिं० वि० परीक्षित इलाज । नुमेला mumesa-रू. गुले-स्लाजा, वायुपुष्प। अनुभूत योग anubhuta-yogia-हिं० वि० शनाय कुन्नभमान-अ०। ( Pulsatiila ) परीक्षित योग । देखा-पल्साटिल्ला । अनुभूत लक्षादि तैल anubhuta..likshadi• अनुयवः anuyavah-सं०० ( १ ) जो यव taila-सं० १. एक सेर नाव को चार से न्यून हो उसे "अनुयव" कहते हैं। धा० । सेर पानी में श्रौटाएँ । जब पक सेर जन्त शेष रहे। (२) निःशूक यव, शूक रहित यव, व तय उतार कर छान छ । पुनः इसमें । सेर शुद्ध : रहित औ । हेमा०। (३) क्षुद्रयव, यह जी तिल तेल डालें, और चार सेर दही का जल की अपेक्षा गुणहीन होता है। वा० स०अ०॥ द्वाती। फिर सौंफ, असगन्ध, हल्दी, देवदारु, : शूक धान्यवर्ग। (A sort of Barley) रेणुका, कुटकी, मुन्या, कूर, मुलहठी, मोथा, अनुयोजनम् anuyojaunam-सं० क्ली० (A. चन्दन, रास्ना प्रत्येक एक एक तोला ले', इन p position ) सबका फलक कर के उन नैल में डाल मन्द मन्द ' अनुरस anurasa-हिं० संज्ञा पं० [सं॰] अग्नि से पचाएँ, फिर सिद्ध कर रक्खें। इसके ' गौण रस । अप्रधान रस | वह स्वाद जो किसी मर्दन से विषमज्वर, खुजली, देह का दर्द दुर्गन्धि : वस्तु में पूर्ण रूप से न हो । वा. सू०। तथा अंगों का स्फोटक इत्यादि दूर होते हैं। अनुराधा umuradha-हिं. स्त्री० २७ नक्षत्रों में (यो० त० ज्वर० चि०) से १७ व नक्षत्र। The 17th Naksna. अनुभूतिः anubhutih-सं० स्त्री० त्रियता, त्रिवृत् tra or lunar imansion. desigha...सं.। निशोत, निसोध-हिं० । तेउड़ी-बं०। ted by a row of oblations (St. Ipomcea turpetbum | दे० त्रिवृत् . ars in Libra.) (ता, ह्वा)। : अनरुहा anuruhi-सं०स्त्री० नागरमुस्ता-सं०। अनुमतम् arumatam-सं० ली० जहां पराए नागरमोथा-हिं० । ( Cyperus perts. मत का निषेध नहीं किया जाए ( स्वीकार किया। nuis ) For Private and Personal Use Only Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुरेवती मनपालन बस्तिः मनुरेवती anurevati-सं० स्त्री. (Smalli को तोड़ फोड़ के यथा मार्ग नीचे ले जाए उसे var. of Croton Tiglium, Linn.)| "अनुलोमन" कहने हैं, जैसे-हरड़ । भा० । सुवदन्ती । रा०नि०व०६। (२)कापबद्ध को दूर करने वाली रेचक वा अनुगंध anurodha-हिं. पु० अपेघ, बाधा, भेदक औषध । - पक्षपात, उपरोध । (Obligingness )। मनुलास: anulasah सं० पु. ) मयूर ! अतुल्की Anulki-सं, स्त्री. ( १ ) हिक्का, अनुमास्य: nulasyah-सं० पु., पक्षी, ! हिचकी ( hiccup, Hiecongl) । (२) मोर ! (Apeacock ) तृष्णा, तृषा, पिपासा ( Thirst)। मे० । अनुलिप्त anulipta-हिं० वि० (Smeared) अनुल्या anulvana-सं. त्रि. फटा सा न . लिप्त, अभिषिक, पोता हुआ। दिखने वाला। यह चन्दन का एक विशेषण है। कौटि. अर्थ। अनुलेप: anulepali-सं० पु. ) मनुलेपनम् anulepanam-सं० क्ला. लेपन, । " अनबंधी anuvandhi-सं० स्त्री. प्यास तृषा । किसो तरल बस को तह चढ़ाना । ( २ ) 1 (Thirst). To plaster' लोपना, पोतना । (३)। अन्य अनवास: anurāsah- ) सं० १०, (Cosmetic)सुगन्धित द्रव्यों वा औषधोका अनुवासनः anuvāsanath- क्ला (1) महन । उबटन करना बटना, लगाना, गराग, मनवासनक: anuvasanakah) Fragra क्षेप (न), चन्दन श्रादि वा गंधद्रव्य श्रादि का nt सौरभ, सुगंध, मुबास । (२) स्नेह वस्ति । क्षेपन । मुहासन, गुनाह-श्र० 1 हुस्न अङ्ग जा, (Oily one mata) । ( ३ ) स्नेहन । रुशोयह, । ग़ाजह . उष्टना-फा० । (४) धूरन । मे० । जो स्नेह अर्थात् चिकनाई इसके गुण-अनुलेपसे तृपा, मूच्छी, दुर्गधि, प्रदान करे उसे "अनुवासन” कहते हैं। इसको भम और वात दूर होते हैं तथा मौभाग्य, तेज, | मात्रा दो पल का प्राधा अर्थात् एक पल ( ४ स्वचा, वर्ण, प्रीति, पोज और बल की वृद्धि होती . तो०) है। भा० । दे. अनवासन वस्तिः । है। मन० २०१३। अनुलेपन बक्य नथा तेज भनवासन वस्तिः auuvisant vastih-सं० एवं सौभाग्य का देने वाला है। पूर्व प्राचार्यों ने | ( Oily enehata ) स्नेह वस्ति, इमे स्वध्य, प्रोनि का देने वाला, तृषा, मृच्छी मानावस्ति । पिचकारी द्वारा गुदा मार्ग ( रेक्टम) एवं श्रम का नाश करने वाला तथा बासनाशक से तरल पदार्थ अन्दर पहुँचाने का नाम "चस्ति" कहा है। वै. निघ०। प्रीतिकारक, प्रोज का (पिचकारी डूश, एनिमा ) है देखो-वस्ति । देने वाला, शुक्रवडूक, दुगंधिनाशक तथा श्रम, इस का एक भेद "अनुधासन वस्ति भी है। पाप और तन्द्रा का नाश करने वाला है । यह वस्ति घी तेत श्रादि स्नैहिक पदार्थों से की राज। जाती है । इसलिए इसे स्नेहवस्ति भी क. अनुलोम anulona-हिं० संज्ञा पुं॰ [सं० ] | उपर से नीचे की ओर आने का क्रम । मीधा | अयुर्वेद शास्त्रमें सोना आदि धातुओं और बांस, क्रम से, अवरोही, जाति विशेष । नन. मींग तथा जानवरों को अँतड़ी, अण्डकोष मनुलोमन anulomana-हिं० संज्ञा पु० । श्रादि से वस्ति बनाने की क्रिया लिखी हैं। परन्तु अनुलोमनम् anulomanam-सं० क्ली. अाजकल अंग्रेजी दवा बेचने वालों के यहां जा (१) अनुजोमकरण । वह औषधि जो मलादि धा- रबर की नजी वाली वस्ति मिलती है. उसी से तुओंको यथा मार्ग प्रवृत्त करे, जो मलादि धातुओं | समस्त प्रकार का वस्ति कर्म सिद्ध हो सकता है। का पाक करके और बात बारा हुए मन के बंध | धनवान मनम्मों को बस्ति देने के लिए For Private and Personal Use Only Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुवासनोपयोग ३३२ भनष्णम् ६ पत्त, मध्यम बन वाले को ३ पत्र, और निबंत मनवासनांगवर्गः anuvisanapavargah अनुष्य का बस्ति देने के लिए : पन्त ने लेना -मं० पु. षड़ विशदशक-नामकपायवर्ग । वह चाहिए । दम पोषधियां जो अनुवामन के लिए अनवामन वलि का एक भेद मात्रावस्ति भी । उपयोगी हैं। यथा--( १ ) राम, (२) है, इसमें १ पन्ज मे २ पन तक, स्नेह लिया : देवदाम. , ३) बेल, (2) मैनफल, (५ ) जाता है। मौक, (६) श्वेन पुनर्नवा ( • ) लाल पुन. अनवासन वरित रूद श्रर वान रोगी के लिए : नवा, { ८ ) अरनी, ६) गोम्ब रूऔर (10) मोनापाटा । ००४०।। द्वितकारक है। परन्तु रोगी को जठराग्नि नोब। हा, नमी यादवस्ति देनी चाहिय ! मन्दाग्नि, वाले ! मनवानाखयः nuvisakhyal-मं० ० कुष्ठरागी, प्रमेही, उदर रोगी श्री. म्धन शरीर अनवासन । वै० निघ० । वाले पुझा को नहवन कदापि न देनो चा. : अनव जीurrijou-सं० पु. फेफड़े, प्राशि, फुफ्फुम दम् । चम्यो-सं० । अध० ।मु०६। स्नेह व स्ने मन्त ऋतु में मायंकाल में और ५। १२ । श्रीरम, या नया शरद ऋतु में रात में दनी चा- । मनवेदना amyriani-सं० ना. ममवेदना, हिए । पहिने गंगा का विरंचन , फिर ६ दिन । महानुभूति । (Sympathy ). धान पूर्ववत् शनि पाने पर स्नेह वरित देनी चा. | मनवेल्लिनम् anuvellitein-सं० का० शाखा हिए । जिम रोशने, यतिनी हो, उस दिन प्रण बन्धन भेद । मु०म० १८ ०। रोगी के शरीर में नैग मनन करके पानी की भाप अनुशयanushilsa-f० संज्ञा पु. पश्चाताप, से पसीना देना चाहिए। और चावलों की पतली अनुनाग, द्वेप। या आदि शाम्रीक भाजन कराके जरा देर टह. बना चाहिए, इसके बाद यदि अावश्यकता हो अनशी anushari-20 श्री. दरोगान्तर्गन ना मन मुत्रादि त्याग करके यथा विधि अग्नि पादरी । विशेष । देनी चाहिए। उम रोज़ रोगी को अधिक स्निग्ध लक्षगा-जो फोदा गहरा हा, प्रारम्भ में धोड़ा भोजन देना हानिकारक है। मा दीग्ने, ऊपरमे त्वचा के रंग हो का हा ( भीतर __ मन लेने के समय रोगी को छींकना,, भाई | चकरार हो) और भीतर होमे पकता पाए उसे लेना बोलना प्रादि कार्य न करने चाहिए । वैन पैरका अनुसयों' कहते हैं। इसको कफ से ग्नेह प्रति लेने के बाद रोगी को हाथ पैर उत्पन्न जानना चाहिए। "कफादन्तः प्रपाकातो सीधे फेलाकर लेट रहना चाहिए। यदि म्नेह विद्यादनुशयी भिएक' ! सु० सं० १० १३ । वनि का स्नेह मन युक्र होकर २५ घंटे के अन्दर चि-श्लेष्म विधिक समान इसका उपचार बमेव बाहर न निकले, ना रोगी को नीषण करना चाहिए । भा० पाद रो० चि०।। निरूहमा वनि, नीषण फलवनि (शाका),नीरण जनाब शोर तो नभ्य देनी चाहिए । मनुशनम् anushastaram सं० ली त्वक पार, स्फटिक, काच, अलोका, अग्नि, हार नया वहित देने के बाद यदि समस्त स्नेह बाहर नख श्रादि रूप शस्त्र । यह शिशु एवं भीर प्रभृति गा गया हो और रोगी की जटगरिन ना हो के लिए होता है । सु० सू० ८ म० । नी उसे सायंकाल में पुराने चावल का आहार देना चाहिए। भनष्ठान शरीर. anus htbāna-sharira हिं० संज्ञा पु. लिंगदेह, प्रायदेह, पुरुषचिन्ह । श्रमवासनोपयोग Anuvasanopayogo-सं० गु० अनवासनांपग वर्ग। अनुष्णम् anushiam-60 क्ली० उपन, For Private and Personal Use Only Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मनावलिका भनयस नीलकमल, कुमुद । रा०नि०। ( Blue lot- अनूदिया anudiya-बण्डा (दाल का रस us). (उसारहे किस्त उहिमार)। (Succi. अनुग इलि का nishna-valliki ) ____s Flaterinam), -सं० अनुष्णवल्लो nashna-valli * अनूग anupn-हिं० संज्ञा पुल (.) (A अनूग: a.nipah-मं पु. buffalo) स्त्री नीन्त टूटवा, नीली दूब । ग.नि०१० : महिष, भैंस । मे० पत्रिक । (२)अम्बु(जल प्राय (Sco-Nila-lurrvá) देश जान प्लावित देश, मजल देश, वह स्थान जहाँ अनुसंधान msadhana-हिं० पु. खाज, जल अधिक हो । मे। अनप देश के लक्षण नलाश । ( Search) जिस प्रदेश में जल तथा नहत हो और जहां मनुसार्यकम् a musatyyakan-सं० क्लो. वान कफ के रोग होते ही उस देश को भनूप सुगंध द्रव्य विशेष। छहीला-महONard देश कहते है। ostachys Jatamansi, D. C. . गुण -- गुरु, मान्द्र, पिरित, मधुर, कफश01 कारक नया स्निग्ध है और प्रमेह, गलगगर, भनुह anuha ) श्तीपद, ( फोलपाव ) और छर्दि आदि रोगों का -श्र० श्वाम लेना, दम बढ़ना, उत्पादक है । ग) नि। अनृह ambha ) बामना, ग्वकारना, रमा । ( Dyspncea). गजवल्लभ के मत के अनुसार स्निग्ध, शीतल वान तथा कफ कारक और भारी है। ma anúka. अनकम् anuk: - प. पसली. वि० [सं०]जल प्राय | जहां जन अधिक हो । भनूक्यम् nukyam) अनुपजम् anupa.jan-सं. न. (.)अनू. पशुका (Ribs )। कसकराणि । शनए० ३० पज-हि. पु० । अाईक, अदरक, प्रादी । ( Zingiber officinalis, Rorb.) भनक anuka-हिं० मंज्ञा पु०() पीठ की हड़ी । (२) कुल, वंश । (३) गन जन्म, पूर्व ग०नि० व०६ । पु. (२) वृक्ष विशेष । पानारम गाय-बं। वे निघ० । -त्रि० अनुप देश में उत्पन होने वाले दुण्य मात्र । अनूक aniqa-० (A birt) धेनुक पक्षी हरकोलह । See.dhonukal मनूरदेश: anupadeshan-सं० पु. अनूप लक्षण युक्र प्रदेश । वे प्रदेश जिनमें अनूप के से अनुचान: aniclinali- सं. पु. (.) अगसहिन वेद का अध्ययन करने वाला उत्तम लक्षण हो । देवी-अनुपः। O-Anup. h. वैश। (२) वह जो वेद वेदांग में पारंगत हो कर गुसकुन्त में प्राया । म्नानक ! म् anup-mansam-सं० की. अनूपदेशस्थ जन्तुमाप । अनूप देश में होने वाले अनुदा anurhi-हि. मो. कुमारी, कुवाँगी, अविवाहिना स्त्री । ( Virgin, maiten). जन्तुओं का मांस । देखो-मानुपमासम् । See-inupam insam. अनूदागामा Anurhi-gami-हि. पु. लम्पट व्यभिचारी, छिनरः । अनुफ़ोतानस Unifotinas-यु. गांड, सूसमार अनूतीलून anitilina.-यु. एक प्रसिद्ध बुटी | ( A guana) See Súsamāra. है जो कदन के समान, प फा रहित होती है। भनुमा anima-यु० रजनजात (Alkanet). (A plant). अनूयस niyas-मश्रास । See-Ashras For Private and Personal Use Only Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मनारा अमेशिक अनुराग anushari-J० जना, महज । (Hi में शब्द न सुन सके, वाश्रुति रहित, यहिरा, biscus Rosa Sinensis).. बधिर । रेफ ( Deaf )-ई० मे. । (२) भनूपणम् anushnam-सं. १० डरपल, नील . . अन्धा । लाई ( Blind )-इं० ।। कमत (blue lotus)! शुन्दिफुल, ह्याला अनेमन Anemal-सं० क्ली० ( Enamel ). 40। रा०नि०१०१०। भनेमुई anemui-ता. असन वृक्ष-हिं० । अनूम anus-यु. मरोकोही, पहादी सरो। See-Asana. अनृजः anrijah-सं. पि. शल, असरन । पु नेमांनाम anemonin-० काकरून सत्व, - सगर पुष्प वृक्ष । See-shatha.m, मनामीनान, रतन जोग सस्व-१० । औहर अनेक aneka-हिं० वि० अधिक, बहु, भूपि । शकाायक-अ० । यह उपयुक प्रोषध अनीमून (many, inuch, a hanılant ). stoch naar ( Anemone Obtusilo. भनेकदिवायुः aneka-digvasuh-सं० पु. : ba.) अथवा पसाटिहा। (Pulsatilla) (A whirl wind ) विषम्पायु, पूर्णिन मर्थात् शक्रायिक वा रतनजोग के पौधे का सत्व वायु, बवंडर, घूमती हुई है, जो १५२० के उत्ताप पर पिघल का तुल्यचा. भनेकप: aneka pah-सं0 0 गज, हाथी | तुभुजीय रवारूप में तलस्थाई हो जाना है। वाष्प के साथ उड़नशील होता है और साधारण (An elephant)। मद० वि०११। तापक्रम पर वायु में खुला रहने पर पहश: अनेस aneka-ripa. 1-हिं० संज्ञा पुल शनैः भनीमानिक एसिड में परिगान हो भनेकाकार aneki-kara नाना रूप, माति जाना है। मानि के रूप, बहुरूप | मटिफॉर्म Multif. प्रभाव-चरपरा और फोरका जन। अनी orm-ई। मोनीन विपेला पदार्थ है। इसके प्रयोग से मध्यअनेकान्तः anekintah -सं० पि० । जा स्थ बातमण्डत बातमस्त (पैरालादा ) हो अनेकांनanelkantaf.वि. स्थिर | जाना है। ई० मे० मे. ! फ. ९० न हो । चंचळ । -स० पु. कोई ऐसा कहें और अनेसाइलल पारेथ्रम amacyclus pyretकोई अन्यथा (और नरह) वह "अनेकार्थ" , hrum-ले. अकरकरा। (Pellitory). कहलाता है । जेसे कोई प्राचार्य द्वण्य को प्रधान | अनेक कट रई naik.katrazhai-aro मानते हैं कोई रस को प्रधान कहते हैं, कोई सकसपत्ता, कराटाल। (Agave ameri. बीर्य को और कोई विपाक का प्रधान कहते हैं। :: cana). सु० उ०म०६५। "कचिसथा स्वचिदन्यथेनि यः सः ।" मनैछिक anaichchhika-हिं० वि० स्वाधीन गैर इरादी, मुहलिक विना इगदडू-अ० । इन्वॉभनेगुन्दुमनी anegundumani ता. फुल जएटरी Involuntary, माँटोमैटिक Ant. म्दन, कम्बोजी-सं० । र कम्बल, अन-बं० । अडेनन्धरा पैनोनीना (Adenanthara Oinatic-101 शरीर को दो गनियों में से Paronini )-ले। मे० मे० । वह जो हमारी इच्छा के प्रधान न हो। हम उनको अपनो इछा से रोक नहीं सक्ने अनेनेरिगल anenoggilln का बड़ा माखक और जब वे न होती हो या होनी बन्द हा जाएँ दि०, द०, गु०, 401 पेडेलियम म्युरेक्स नब हम अपनी इच्छा से उमको रोक नहीं सकते। ( Pedalium Murex)-ले० ९० मे. ये और ऐसी मोर गतियाँ इच्छा के बाधीन न होने के कारण स्वाधीन या अनैजिक कही अनेडमक: anedamukath-सं. त्रि.() जाती है। For Private and Personal Use Only Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ege पेशी अच्छुक पेश: anaichchhika-peshi अनैच्छुक्रमांस anaichchhika mausa हिं० श्री० [हिं० पु० ( Involuntary muscle ) स्वाधीन मांस, अनैच्छिक मांस । अजनह गैर इरादों - ० | अनैरिक्षक मांस से | हृदय नालियों, मार्गों और श्राशयों की दीवारें बनी हुई हैं। " ३३५ nàísza nieèm auaichchhika-mán. Sasula - हिं० पु० स्वाधीन मांस सेल । | अनैपुलियरोय anaipuliyaroya ता०गोरख इमली | ( Adansonia Digitata, Linn ) मेमte | (Involuntary muscular cell) यह सेल लम्बी होता है; बीच में से मोटी होती है और सिरों पर पतली और मोकोली। उनकी लम्बाई 1 १ इ सकऔर मोटाई 3 से. ४८० १०० ३००० ८०००सं इच तक होती है। प्रत्येक सेल में भंडा कार या सजाकाकार मींगी होती है। प्रत्येक सेल से बात मंडल का एक सूक्ष्म तार लगा रहता हैं। अनैनेरुञ्ज anai-nerunji - ता० बड़ा गोखरू । (Pedalium Murex, Linn) Fo इं० ३. भा० । अनैन्द्रिक anaiudrika - हिं० वि० निरैट्रिक, निरायविक | ( Inorganic ). fige 21 anaindrika-dosha fo पु० अनैतिक शुद्धि InorganicIunpurities. नैन्द्रिक द्रव्य aindrika dravya-हिं० पु० अर्मेन्द्रियक पदार्थ । ( InorganicSubstances) अमोमा खुशी अनेन्द्रियक रसायन anaindriyaka. rasa yana - हिं० संज्ञा पुं० ( Inorganic chemistry ) रसायनका वह विभाग जिसमें अनेक पदार्थों का वर्णन होता है । अनैपुलियप्ररम् anaipuliyamarain-ता. गोरख इमला । ( Adansonia Digita ta, Linn.) ('० मे० मे० स० फॉ० इ०फा० ६० । नैन्द्रियक पदार्थ anaindriyaka-pa• dártha-feo T पुं० सृष्टि में पाए जाने वाले दो प्रकार के पदार्थों में से वह जिसकी उत्पत्ति में वर्ग का कोई हाथ नहीं, जैसे जन, वायु, मही, लवण, शोक, गंधकाम्ल, स्वर्णादि धातु वा अधातु । इन्द्रगनिक सब्सटैन्स Inorganic subs tance-० । जमादी - ऋ० । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनेक naif-अ० जिसकी नासिका में व्यथा हो अथवा चाट लगी हो । अनोकहः ayokahal-सं० पुं० वृक्ष, पेड़ ी ( 'I'ree ) - इं० । ० ६० । अनोजसिसश्रक्युमिनेटा anogeissus acu "minata, Pull- ले० चकवा बं० । पाँची, पासी - उदि । नुम्मा-ता०| पाची-मांगु, पाशी, पाँसी ते० ! फास मं० | यॉ बर० । इसके पत्र रंग के काम में आते हैं। मेमो० । अनोजीसस लेटिफोलिखा anogeissus latifolia, Wall. - ले० धमः । ( Conocar. pus Latifolia) का ( प ) नोडाइन anodyne-६० वेदनानाशक, व्यथाशामक, अङ्गम् प्रशमनम् । : Anal gesic ). अनाना anoná हिं० वि० (१) अखोना, मोम रक्षित | सास्टलेस (Saltless ) - ० हिं० को०।- सि० । (२) प्रतिबला, कंधी । श्रध्यु- " fran gura (Abutilon iudicum) - ले० । ६० मे० मं० : अनोना यमांसा anona dumosa, Roxb -ले० बाई चारहू । ( Unona bushy ). इ० ई० गा० । अनोना नेरम anona run-ले० श्रज्ञात । अनोमा खुशी anoa bushy - ६० बाई चार For Private and Personal Use Only Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org नाना स्युरिटा ३३६ ( Unona dumosa, Roxb. ) - ले० । इ० ६० गा० । मोना युरिकंडा aloha muricata-ले०यह तृष्य वर्ग ( या सीताफल वर्ग ) अर्थात् ( Anonaccer ) की वनस्पति है । इसका मूल उत्पसिस्थान पश्चिमी द्वाप समूह है, परंतु अब यह पूर्वी भारतवर्ष में भी लगाई गई है । 1 गुणधर्म-पक्कफल में प्रियव किंचित् अम्ल गूदा होता है जिससे ज्वर में शेय्यकारक प्रपानक प्रस्तुत किया जाता है। अपकफल- अत्यन्त संकोचक होता है और श्रान्त्रिक असुस्थता एवं स्कर्षो की दशा में व्यवहार में भाता है। व संकोचक होता है तथा मूल त्वचा शत्र अर्थात् मृत शरीर जन्य विषाक्रता ( Plomwaivepoisoning ) में बरती जाती है, विशेषतः सड़ी हुई मलिया के खाने के बाद । पत्र कृमिघ्न रूप से और पूजनन हेतु इसका बहिः प्रयोग होता है । इ० मे० मे० । अनांना रेडिक्युलेटा reticulata, Linn.- ० रामफल- द० । नाना- ६० । मा० । शरीफा Bullocks beart-to ६० हैं० मा | Citron-ro ! mája: aíg áigs auoua, long-leaved, - इ० कलाकुश ( unona longifolia, Pro., Lind. ) - लॅ० । ६० ६० गा० । अमन लॉज फोलिया anona longifolia, Pro., Lind. -लं० कलाकुरा । ( Uona long-leaved, R. )-ão इ० ६० 1 गा० । अमीना रक्कामाला squamosa, Li-ले० शरीफ, सीताफल, श्रानृष्य । अमोनलाई alolace-ले० श्रमृष्य वा सीताफल वर्ग । I अनोफिलिज़ anopheles - ६० यह रोग की एक से दूसरे मनुष्य तक पहुँचाने वाला एक विशेष जांति का मच्छर 官 अनोप्ल्युरालेण्टाइसी anopleura lentiser -ले. अफिस । फा०ई० १ ० ३८९ | देखोपिस्ता | अनार Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनंगा norasmá अ० धामनीयार्बुद | देवी- श्रबरस्मा । अनोशहरू alosha-datú ] -ऋ० कृ० माजून नोशाक mosha-dárú- J के समान एक यौ. गिक श्रीषध है, जिसका प्रधान अवयव मामला है। इसकी निर्माण विधि-पक्व आमला ताजा तोल कर जल में पकाकर भली भांति मल कर इसके बीज पृथक् कर' और भरभरे कपड़े में छानें जिसमें रेशे को छोड़कर आमले का गूदा निकल आए । तत्पश्चात् बीजतथा रेशेका तौलें और इस प्रकार कुल आमले के भार में से इनके ( रेशे के ) शर को घटाकर आम लेके गरेका भार मालम करें। इस गूरे के भार से दुगनी मिश्री ( श्रथवा केहूं अन्य शुद्ध शर्करा ) मिलाकर पाशमी करें | पक होने पर अभी जब कि यह कुछ २ गर्म ही बन्य रहे, इसमें औषधों के चूर्ण मिश्रित करें। और यदि श्रामला शुष्क हो सो उसके बीज निकाय, मापकर घी डालें, जिसमें वह धूल प्रमृत से रहित होकर शब्द होजाए । इसके पश्चात् उसे इसमें गोदुग्ध में भिगोए जिसमें श्रामले डूब जाए । चार प्रहर पश्चात् अधिक जलडालकर उबाले जिससे भ्रमले का कषैलापन एवं दुग्ध की चिकनाई दूर हो जाए । पुनः अन्य स्वच्छ जल में उबाल कर उपरोलिखित नियमानुसार "अनोशदारू" प्रस्तुत करे ! अनोम 10-अ० निद्रापूर्ण, जिसके नेत्रों में निद्रा भरीक्षां । निद्रालु निहित ( Sleepy, sleeping) अनंग nanga f६० वि० [सं०] [ क्रि० अनंगना ] बिना शहर का । देह रहित । संज्ञा पु ं० कामदेव ( Cupid ) । दे०अनङ्गम् । For Private and Personal Use Only अनंगक्रीड़ा ananga krirá - हिं० संज्ञा स्त्री० [सं० ] ( १ )रति । संभाग 1 ( Coition ) अभंगवता auaugavati - हिं० वि० श्री० [सं०] कामवती, कामिनी । अनंगारि auangari- हिं० संज्ञा पुं० [सं०] कामदेव के देरी | शिव । Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनंगी अन्तमूल मनगी anangi-हिं० वि० [सं० अनङ्गित् ] | व०। (२) नाशकर्ता, काल ( the Sup [स्त्री. अनंगिनी ] अंग रहित । बिना देह का। posed regent of death)। (३) समिअशरीर। पात ज्वर विशेष । इसके लक्षण-अंगोंका टूटना संज्ञा पु कामदेव । (Cupid ). भ्रम, कम और शिरका हिलना, खाज तथा रोना, अनत ananta-हि. संझा पु० दे० कुछ का कुछ अकना, संताप, हिचकी का पाना जिसमें ये जक्षण हों उसको असाध्य अम्तक सनि. - मनन्तः । पात जानना चाहिए । इसकी अवधि १० दिन मन त चूल anantamāla-हि. संज्ञा पुं० की है, जैसे-"अन्तके दश वासराः ।" मा. [सं० अनन्त नूलम् ] नि० । मनता ananta-हिं० वि० खो० [सं०] ___उन सनिपात के लक्षण भावमिश्र महोदय जिसका अंत वा पारावार न हो। ने निम्न प्रकार वर्णन किए हैं, यथा-जिस ___ संज्ञा स्त्री० (१) पृथ्वी । (२) अनन्तसूत्र मनुष्य के अन्तक नामक सबिपात कुपित होता देखो-अनन्ता। है, उसके शरीर में बहुत सो गाँ पर जाती हैं, उदर चायु से भर जाता है, निरन्तर श्वास से अनदी anandi-हिं. संज्ञा पुं० [सं०] पीड़ित रहता है और अचेत रहता है । भा० म) (१) एक प्रकारका धान । (२) दे०-प्रानन्दी । मा. अनंभ anambha-हिं० वि० [सं० अन् महीं। | अन्तकांटर पुष्पी antakorala-pushpi-सं० + अम्भ = जल ] बिना पानी का। स्त्री० नील बोना-०। अन शुमरफला ananshumatfala-सं० नो. कदलीवृक्ष, केता का पेड़ । (Musa sapie. अन्तड़ी antari ) -हिं० स्त्री० आँते, आन्त्र । अन्त्री antii- J(Intestines, Bowels, ntum, Linn.) जटा० । Entrails, Gut.) अन् an-अप० [सं० । संस्कृत व्याकरण में अन्तरम् antaram-सं० की. अवकाश, छिन्द्र, यह निषेधार्थक 'न' अव्यय का स्थानादेश है मध्य; बीच, दूर, भीतर । ( Interval, और प्रभाव वा निषेध सूचित करने के लिए hole or rent, midst ). स्वर से प्रारम्भ होने वाले शब्दों के पहिले लगाया जाता है। उ.-अनन्त, अनधिकार अन्तमल antamala-सं० (१) मद्य, मदिरा अनीश्वर । पर हिन्दी में यह अव्यय वा उप- (Wine) । (२) मल, विष्ठा (Fores)। सर्ग, कभी कभी सस्वर होता है और व्यंजन से। अन्तमात्रिका धमनी antamatrika-dham. प्रारम्भ होने वाले शब्दों के पहिले भी लगाया ani- f ato ( Internal carotid जाता है। उ.-अनहोनी, घनबन, अनरीति artery) ग्रैवान्तरिक धमनी । शिर्यान सुधाती इत्यादि। माइर-अ०। अन्त anta- हिंगु नाश स्वरूप, शेष, समाप्ति, अन्तमल antaimala -हिं० संज्ञा पु.. सीमा, निकट, अति । (End, completion, अन्तमूल antamula काला मदार । death.) [सं० अन्तर्मलः ] जंगली पिक्चन (-क्वा-)। अन्तकः antakah-सं० पु. (.) काचनार टाइलोफोरा अस्थमेटिका Ty]ophora. वृक्ष:-सं०। कचनार का पेड-हि.।(Bau. asthmatica, W.&d., ऐस्क्रिपिस hinia Variega ta, Linn. ) भा० गु०] अस्थमेटिका Asclepias Asthamati For Private and Personal Use Only Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धम्तमूल ३३५ अन्तमूल ca, Willd., Roxb.-ले० । इंडियन इपीके- अधिक होती हैं। ये स्पष्ट वर्ण की अथवा धूसर वाहना Indian Ipecacuanha-कंट्री | श्वेत वर्ष की होती है। जड़ें प्रायः अशास्त्री होती इपिकेश्वाइना प्लांट Country Ipecacu.} हैं । पर साधारणतः उनसे बहुत पतले लोमवत् anha plant-इं०। संस्कृत पर्याय-मलाण्डः, ! तन्तु या युद्ध मूल लगे रहते हैं। अण्डमलः, पूति, अम्भपण :, रोमशः ( भा०); | इससे २ से ३ श्राकाशी धड़ (कांड) निकअन्तर्पाचक, मलान्तः, अन्तमलः, अण्डपणः, लते हैं । कांड, अनेक, दाएँ बाएँ लिपटे हुए लोमशः । पित्-काडी-द० । इकु जज़हब हिन्दो . साधारणतः कुक्कुट-पराकार, कभी कभी हंस के पर -अ० अन्तोमुल-बं० । पितमारी,खड़की रास्ना, के समान मांटे शाखायुक्रकिचित लोमश होते हैं। प्रन्थमुल, पितकाड़ी-बम्ब०। पितकाड़ी, खड़की पत्र सम्मुखवी, पत्र-प्रांत समान अर्थात् प्रखंड रास्ना--मह । मेराडी -उड़ि । मन्--नुरुप्पान, (जड़ के समीप प्रायः व्यत्यस्त) २ से ३॥ वा ५९० ना--मुरिश्चान, नाय--पालै, पैय्प्-पालै--ता० ।। श्रीर्घ और 10 से २॥ इं० चौड़ा, पायताराकार, देरिपाल, कुक्कपाल--ते० । वल लि-पाल-मल। डंठल ( पत)के पार कभी कभी तथा कुछ हृदयाबिन्नुग-सिं० । अदु-मुत्तद-कना। कर,किजिन नोकीला, ऊपरका भाग(उदर)चिकना शारिवः वा मूलिनो वर्ग और नीचेका भाग(पृ.)किज्ञित् लोमरा और उठज (1.0). Asclepiadec. ) युक्त होता है । पत्रवृत (दंठल) लवु, प्राधा से उत्पत्ति स्थान-उत्तरी तथा पूर्वी बंगाल, इं० लम्बा, लोमरा किञ्चिन् नलिकाकार होता आसाम से वर्मा पर्यंत, दकन (वा दक्षिण भारत है। पत्र शुकावस्था में अधिक पीले सस्त और वर्ष ) और लंका। पीतामहरित वर्ण के होते हैं। उनमें पर्याय-निर्णायक नोट अन्तोमुल ( अन्त । किसी प्रकार की अप्रिय गंध नहीं होती। स्वाद मल, अंन्तमूल-हिं० )तथा अनन्तोमूल (अनन्त बहुत कम होता है । पुष्प सूक्ष्म, तारा के सडरा मूल-हि.) इन दो बंगला भाषा के शब्दों के प्रातः सायं तथा रात्रि में विकसित होते, परन्तु उच्चारण में बहुत कुछ समानता होने के कारण दिन में जर सूर्य का प्रखर उतार होता है तब वे ये भ्रमवश एक दूसरे के लिए प्रयोग किए जाते कुम्हला जाने हैं । ये वृन्तयुक्रा, छत्रकाकार और हैं। परन्तु, इनमें से प्रथम अर्थात् अन्तीमुल पुष्पावल्यावरण युक होने हैं। पुष्पधून कक्षीय Fiat Ta Country Ipecacua साधारण, सामान्यतः विषमवर्ती, पत्रवन की nha ( Tylopuora Asthanatica) अपेक्षा दीवंतर होते हैं ! छत्रक (Umbel) और दूसरा शारिवा चा अनम्तमूल Country साधारणतः मित्रित, चिपम, वाधार पर पुष्पा. Sarsaparilla ( Hemilesuls वल्यावरण ( Tvolucres)द्वारा घिरे होते Indicus, R. HE ) के लिए प्रयोग किया हैं। पुष्पावल्यावरण ( Insolicies) जाना चाहिए। अत्यन्त लघु और स्थायी होता है। पूष्पवाद्या वरण वीजकोषाधः, स्थायी,बहुमपलीय (Poly. चानस्पतिक वर्णन-यह शारिवा को जाति का एक ब्रवर्षीय लता है। मूल एक लघु काष्ठ sopalous) होता है । सपल (Sepals) मय ग्रंथि है जिससे बहुसंख्यक सूत्रमय ५, लबु, से। इंच लम्बे, हरित वा पीतजरे निकल कर नीचेकी ओर जाती हैं। यह २ से हरित होते हैं। पप्पाभ्यं नर कोष, बीजकोषाधः ५ वा ६ इंच या अधिक लम्बी और । या. एवं बहुदलीय होता है । दल ५, त्रिकोणाकार, इं० व्यासमें और अत्यन्त कर्कश अर्थात् टूटनेवाली | से 1 इंच लम्बे, कभी कभी एवं किजिस् (भंगुर) होती हैं । सौनिक जड़ों की संख्या विभिन्न पीछे को झुके हुए; पीले ( विवाय अाधार के होती है । ये१ से १५ या २० और कभी इससे भो सामीप्य भीतरी भाग के जहाँ वे गुलाबी रंग के १२ For Private and Personal Use Only Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org मन्तपूल अन्तमूल अथवा गुलाबी रंग के चिड्डों से युक) होते हैं। पराग-केशर तथा गर्भशा परम्पर संप्रक्र होकर एक हो जाते हैं जिसका व्यास लगभग र इंच होता और जो पंच पीताभ उभरी हुई रेखाओं से अंकित होता है। बीजकोष (डिम्या. शय) दो होते हैं। शिम्बो युग्म, एक दूसरी के सम्मुख और अाधार पर किश्चित् चिपकी हुई, एक अोर गाव हुमी, २ से ४ इंच लम्बी, मध्य में लगभग : इंच मोटी, चिकनी, एक कपाटयुक और स्फुरित होने वाली होती है। बीज लोमश जिसके ऊपरके सिरे मा अाधार पर रूईका एकगुच्छा होता है, लधु, अत्यन्त पतला, रजाभायुक धूसर वर्ण का पोर किञ्चित् अंडाकार होता है। इसका पौधा वर्ष भर पुष्पमान रहता है, विशेषतः उस समय जब कि लगाया जाता है । इस पौधे दो भेद होते हैं । यह केवल प्राकार एवं कुछ अन्य साधारण लक्षणों में एक दूसरे से मित्र होते हैं । जब इनको एक अवस्था में रक्ता नाता है तब इनमें से एक दूसरे से सदा बड़ा होता है । बड़ी जाति में पुष्पदल वृहत्तर एवं न्यू. माधिक परावर्तित और कभी कभी किनिन् लिपटे हुए भी होते हैं। पुरातन पत्र अधिक चौड़े, पतले, गम्भीर वर्ण के और कुछ कुछ पीछे को भोर मुके होते हैं। इस पौधे को जड़ के सम्बंध में ऐसा प्रतीत | होता है कि कतिपय ग्रंथो में यह एक दूसरी जड़ के साथ मिलाकर भ्रमकारक बना दिया गया है। उदाहरण के लिए मेटीरिया मेडिका खंड २ पृ० ८३ पर लिखे हुए वाक्य को ही लोजिए जो इस । प्रकार है__ "The root of this plant, asi it appears in the Indian baza. rs, is thick, twisted, of a pale colour,and of a bitterish and somewhat nauseous taste." I अर्थात् इस पौधे की जड़ जो बाजारों में दिखाई। देती है, मोटी, बलखाई हुई, अस्पष्ट वण की और किञ्चित् निक्र एवं कुछ कुछ उस्लेशजनक स्वादयुक्त होती है । प्रथम तो इसकी जड़े विक्रयार्थ बाजारों में नहीं पाती और द्वितीय यह कि इसकी जड़े पूर्वोक्र वर्णनके अनुसार नहीं होती। देखो-चानस्पतिक वर्णनांतर्गत मूल वर्णन । रासायनिक संगठन-इसके पत्र का धन शीतकषाय स्वाद में किञ्चित् चरपरा होता है। पत्र एवं मूल में टाइलोफोरीन (Tylophor. inc) अर्थात् अंतमलीन नामक एक हारीय सत्व और दूसरा एक वामकसत्व ये दो प्रकार के सत्व पाए जाने हैं। टाइलोफोरीन जनमें से कम परन्तु मप्रसार एवं ईधर में अत्यन्त विलेय होता है। प्रयोगांश-शुष्क पत्र तथा मूल । औषध-निर्माण-(1) पत्र का अमिश्रित चूर्ण Simple Porder of Tylophora Leaves (Pulvis Tylophore Folice Simplex )-पत्र जड़ की अपेचा कठिनतापूर्वक चूण किए जा सकते हैं। पहले उनको धूपमै अथवा सैंडबाथ (बालुकाकुड) पर रखकर भलीप्रकार सुखा लें । फिर चूणकर वसापूत करलें । इस स्थूल चूर्ण को पुनः विघूर्णित करें और पुनः बारीक चलनी वा वस्त्र से छान लें. तथा बन्द मुँह की बोतल में सुरक्षित रखें। मात्रा-मूल चूर्ण वत् । (२) जड़ का अमिश्रित चूण Simple Powder of Tylophora Root (Pul. vis ''ylophore Simplex)-सामान्य विधि से तैयार कर बन्द मुख के बोतल में रकरने । मात्रा-वामक प्रभाव के लिए . से १० प्रेन (२० रत्तीसे २५ रत्ती तक); प्रवाहिका में १५ से ३० मेन ( ७॥ रत्ती से ११ रत्ती) या इससे अधिक | कफनिस्सारक रूप से -प्रेन। (३) अभ्यङ्ग वा उद्वर्तन (Liniment). (४) टाइलोफोरीन नामक सस्व । . प्रतिनिधि-यह इपिकेक्वाइना की उत्तम प्रतिनिधि है और प्रायः उन सम्पूर्ण दशाओं में For Private and Personal Use Only Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सन्त मूल ३४० अन्तमूल जिनमें इपिकेक्वाइना व्यवहत होता है, इसका , बहुत वर्ष पूर्व से ज्ञान है। ऐसा मालूम होता है उपयोग किया जाता है। कि इपिक क्वाइना सर्वथा समाप्त हो चुका था ___ इतिहास, गुणधर्म तथा उपयोग–यद्यपि . और डॉक्टर एण्डरसन ने देशी चिकित्सकों की ऐसा प्रकट होता है कि भारतवर्ष के उस प्रांत के चिकित्सा में अपनी अपेक्षा अधिकतर सफलता निवासी जिसमें अन्तमूल होता है, इसके औष- : प्राप्त करते हुए पाकर उन्होंने सहज पक्षपातशून्य धीय गुणधर्म से अति प्राचीन काल से परिचित हृदय से स्वीकार किया कि उनसे शिक्षा ग्रहण है; तथापि इसके व्यापारिक द्रव्य होने का हमारे ... करने में मुझे कोई लजा नहीं। और उन्होंने उनके पास कोई प्रमाण नहीं और न किसी प्रामा- रतलाए हुए पौधे को अधिक परिमाया मैं एकणिक हिन्दू अथवा इसलामी निघस्ट ग्रन्थों में त्रित करक उनकी जड़ का एक बड़ा गढ़ा मदरास इसका वर्णन पाया है। किसी किसी ग्रंथ में ... को भेजा। प्रस्तुतः यह हिन्दू मेटिरिया मेडिका भावप्रकाशक्ति मलाण्ड शब्द इसके पर्याय । (श्रायुर्वेदीय निघ) का वह द्रव्य है जिसकी स्वरूप लिखा है। भावप्रकाशकार मनाएद का। ओर अत्यन्त ध्यान देने की प्रायश्यकता है। गुण इस प्रकार लिखते हैं- "वामनः स्वेदजननः (फ्लोरा इंडिका वं० २, पृट ३४, ३५) कफनिहरणस्तथा ।" अर्थात् मलार वारक, पसला लिखते हैं -इसकी जड़ श्लेष्मस्वेदजनक और श्लेष्मनिस्सारक है। ये सण निस्सारक (कए ज्य) तथा स्वेदक प्रभाव के गुण अन्नमूल में विद्यमान हैं । अत: मलारड को : लिए अत्यन्त प्रशस्त है। इसका शीतकपाय (Infusion) प्राधे चाय की चम्मच की अन्तमूल मानना हमें अनुपयुक नहीं प्रतीत मात्रा में कफ पीड़ित बालकों को यमन कराने के होता। लिए प्रायः प्रयोग किया जाता है। इपिकेक्वाइना रॉक्स यग लिखते हैं -कारोमण्डल तट पर के कुछ कुछ समान गुण रखने के कारण प्रवा'अन्तमूल की जड़ इपिकेश्वार ना की प्रतिनिध हिका जन्य विकारों में यह लाभदायक भौषध रूप से प्रायः प्रयोग में लाई जा चुकी है। मैंने ज्ञात हुई और लोअर इंडिया के युरोपीय प्रायः इसका सेवन कराया और सदा इससे वे चिकित्सकों द्वारा समय समय पर इसका अत्यंत ही भाव उत्पस होते हुए पाया, जिनकी इपिके लाभदायक प्रयोग किया गया । ( मेसिरिया काइनाक द्वारा होनेकी धारााकी जाती है। इसरों मेडिका ऑफ़ इंडिया, २, पृ० ३) से इसके अनुसार प्रभाव होने की भी मुझे | ..क्टर माहीदीन शरीफ़-इस देश के प्रायः सूचनाएँ मिली । सन् १७८०-८३ ई० के कालबेलियों ( सपेरों) में यह सर्पदंश आदि के युद्धकाल में प्रभाग्यवश हैदरअली द्वारा बन्दीकृत अगद होने के लिए बहुत प्रसिद्ध है। उनका यूरोपियनों के लिए यह अत्यन्त उपयोगी औषध कहना है कि जब नकुल को सर्प काट लेता है तो सिद्ध हुई । अधिक मात्रा में वामक, थोड़ी मात्रा वह इसी पौधे की शरण लेता है। देशी लोग में और बारम्यार प्रयोग करने से विरेचक, उभय इसके बामक प्रभाव से परिचित है. किन्तु वे 'विध यह अत्यन्त प्रभावामक सिद्ध हुश्रा। इसका बहुत कम उपयोग करते हैं। इस पौधे डॉक्टर रसेल (Dy. Russell) को का कोई अंग बाज़ार में नहीं विकता। उपयोग में मदरास के फिज़िशन जनरल (चिकित्सकों के लाने के लिए इसके एकत्रित करने की आवश्यकता अधिनायक) डॉक्टर जे०एण्डरसन (Dr.J. होती है। Anderson) ने सूचित की कि उनको इसके कांट एवं फली सहित उक्र पौधे का सांग युरोपीय तथा देशी दोनों सेवात्रों द्वारा प्रवाहिका | .. धारक है। परन्तु जर एवं पत्र केवल सर्वोत्तम में जिसने उस समय सेनामें संक्रामक रूप धारण ही नहीं, प्रत्युत उपयोग के लिए सरलतापूर्वक की थी, सफलतापूर्ण उपयोग किए जाने का चूर्ण भी किए जा सकते हैं। For Private and Personal Use Only Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अन्तमूल ३४१ पुनः प्रवाहिका में तथा कराज्य एवं स्वेदक रूप ! से इसको जड़ इकाइना की कहीं सर्वोतम प्रतिनिधि हैं । चार वर्ष हुए जब मुझे कतिपय देशी दवाओं की आलोचना का अवसर प्राप्त हुथा, तत्र ग्रन्तमूल के सम्बन्ध में मेरे विचार निम्न प्रकार थे । वामक रूप से तथा अधिक मात्रा में प्रवाहिका की चिकित्सा में दोनों प्रकार से इविकेकाइमा का प्रतिनिधि स्वरूप में पाए जाने वाली एतद्देशीय औषधों में यह सर्वोतम है । २० से ४० प्रेन ( ३० से २० रत्ती ) इसका चूर्ण और इतनी हो वुद की मात्रा में टिंक घोपियाई २४ घंटों में दिन में तीन-चार बार सेवन कराने से यह उतना ही शीघ्र एवं सफतापूर्वक रोग का निराकरण करता है जितना शीलकि पिकेका इनाः । श्वास रोग में वामक या कण्ठ्य रूपसे भी इसका श्रपेज्ञा उपयोग इपिकेकाइना की रहता है। उत्तम सर्पदेश के अगद स्वरूप कोई अन्य श्रौषध की अपेक्षा एमोनिया के बाद श्रन्तमूल पर मेरा विश्वास है। जब तक स्वतन्त्र धमन न आने लगें तब तक इसका ताजा रस अधिक FO मात्रा में थोड़ी थोड़ी देर पर देते रहें। इसके बाद सशक एवं सर्वागिक उत्तेजक का व्यवहार करें | अनु- देशी औषधी के अपने अधिक विशाल भव के पश्चात् मैंने अन्तभूल को सर्वोत्तम ही नहीं, प्रत्युत भारतीय ४, २ सर्वोत्कृष्ट नामक श्रोधियों में एक पाया । कतक ( निर्मली ) तथा मदनफल के पश्चात् इसका दर्जा शाता है । यद्यपि इसका श वामक है तथापि प्रवाहिका में केवल इसकी जड़ उत्तम. रोगनिवारक कार्य करती हैं। । उक्त रोग मैं इसका प्रभाव कतकवत् होता है। (स० फाo इं० पृ० ३६३ ) डॉ० कि पत्रक ( Cat. of mysore drugs) में लिखते हैं-यदि प्रबल वमन फी आवश्यकता हो तो २० से ३० मेन की मात्रा Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अन्त मूल में उक्र श्रीषधि को एक या श्राध मेन टार इमेटिक के साथ दें। मैं शुष्क पत्र का चूर्ण औषध रूप से व्यवहार करता हूँ । कोकड़ में १ से २ तो० तक रस वामक रूप से व्यवहार किया जाता है। शुष्क कर इसकी मूँग के बराबर टिकाएँ प्रस्तुतकर भी प्रवाहिका में बरती जाती हैं। पर्याप्त मल प्रवर्तन हेतु एक गोली काफ़ी है। इंडियन फार्माकोपिया में इसका फिशल है । ( फा० ई० २ भा० पत्र पृ० ४३६) । डॉ० नदकारिणी प्रभाव में पत्र से जड़ श्रेष्ठ हैं। ये कोटकर ( Laxative ) और प्रवाहिका में १५ मेन की मात्रा में उपम श्रौषध हैं । इनको साधारणतः चूर्ण रूप में किंचिद र निर्यास तथा फीम १ ग्रेन के साथ मिलाकर व्यवहार करते हैं । शिरोरोग एवं बात वेदना में शिर में इसकी जड़ का प्रलेप करते हैं । कःस तथा अन्य उन शिरोविकारों में जिनमें साधारणतः इपिकेकाइना व्यवहृत होता है । यह श्रत्यन्त लाभदायक पाया गया है । अतीसार तथा वाहिका की प्रथमावस्था में भी जब कि ज्वर विद्यमान हो इसकी १० मेन की मात्रा में १ थाईस जल के साथ तथा उसमें १ ड्राम कीकर का तुग्राव और श्रावश्यकतानुसार 4 ग्रेन अफ़ीम मिलाकर दिया जा सकता है । यदि विषन अथवा मलेरिया ज्वर हो तो इसके साथ कीमीन ( कुनैन ) सम्मिलित कर देना चाहिए | श्वासोच्छवास विकार तथा कुकुर खाँसी ( Whooping Cough) की प्राथमिक श्रवस्था में इसे ३ ग्रेन की मात्रा में दिन में तीन बार अकेले अथवा श्राधा ड्राम जुलेटी के शर्बत में श्रधा ग्राउंस जल मिलाकर इसके साथ दिनमें तीन बार सेवन करें। यह रकशोधक तथा परिवर्तक रूप से श्रति प्रख्यात है और श्रमवात में इसका उपयोग किया जाता है । यह तिक्र सुगन्धित तथा उत्तेजक हैं। यह औपदंशीय आमवात में भी प्रयुक्र होता है । स्थानिक रूप से यह प्रशासक हैं और संधिवात जन्य वेदना निवारणार्थ प्रयोग में श्राता है । इं० मे० मे० । For Private and Personal Use Only Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनमोरा .३५२ अन्तरामिषीय: श्वास, कास और प्रवाहिका में अन्तमूल के एक जाँघ को दूसरी जाँघ की ओर ले जाने पत्ते के क्वाथ (१० में) तथा इसकी जड़ के। वाली)। एड्डक्टर (Adductor musशीत-पाय की परीक्षा की गई । उक्र रोगों में ___cle)-इं० । भू ज़लह मुकरिवह-अव।। ये अत्यन्त लाभदायक पाए गए । ( Ind. | अन्तरपडत antara-padata-हिं० पु. योनि Drugs Report, Madras.) का भीतरी पर्दा। बं० कल्प। यह औपच बंगाल फार्माको पिया (१८४४) अन्तरपाचक antilra-pachaka-सं० प. और फार्माकोपिया ऑफ इंडिया (१८६७) में अन्त पूल ( Tylophora asthama. प्रविष्ट है । विस्तार के लिये देखो-फार्माकोग्रा tica.). ई. मे० मे। फिया फल्कोजा महोदय रचित पृ०५७। | | अन्तरम् antaram-सं० की अवकाश । छिद्र । आर० एन० वापरा-यह पौधा नीची एवं मध्य । मे० रनिक। रेतीली मूभि में साधारण रूप से मिलता है ।। | अन्तरमुख antaramilkhu-है. पु. जहाँ यह प्रोरधि देगी चिकित्मा में विस्तत रूप से गर्भाशय की ग्रीवा तथा उसके अन्दर का भाग व्यवहार में पा चुकी है। इस लिए इसके पत्र मिलता है उसको “अन्तरमुख" कहते हैं। एवं जड़ प्रत्युत्तन ख्याल की जाती हैं । कल्प। इसके सूखे पत्तों को ५० से २० ग्रेन की मात्रा अन्तर लसिका antara-lasika-हि.स में दिन में २-३ धार देने से कहा जाता है कि प्रवाहिका में उपयोगी है। पुरातन कास में ( Endolymph). कराठ्य रूप से भी यह लाभप्रद है। (१० ड० अन्ता वाहिनी antara-vahini-सं० स्त्री ई० पृ० ६००)। अन्तरमायनी । (Adductor). अन्तमोगरा anta-mora-० मरोडफला, पाव- अन्तर वाह्य कृमिनाशक Antara-vahya तकी, पावर्तनी । ( Helicteres Isora, ___krimi-nashaki हिं० पु । Linn)। मगङ्ग-गु०, सं०। अन्तरा antali-हि. पु. चरण, मध्य, पद, अन्तर antara-हिं०, संज्ञा पु0 (1) एक कीड़ा निकट, बीन, बिना । ( In the middle, जो बैलों को काटता है। -जय० (२) दूतर । among; near at hand; without. अमृ० सा। except)। अन्तरङ्ग antaranga-कुम्भिका । -सं० भीतरी | अन्तरा ज्वर antara-jvaran, अंग । अथव। सु०७ । का न्तगतप antaratapa. -हसज्ञा पु. अन्तरगङ्गा, antara-ganga,ige-कना०, (Tertial-fever ) वह ज्वर जो बीच में द० जलकुम्भो । ( Pistia stratiotes, एक एक दिन का अंतर देकर चढ़े । एकतरा ज्वर, Linn.) मे० मो०। अँतरिया बुखार, तिजारी बुखार । देखोअन्तर तामर antara-tama.1-ते. जलकुम्भी । तृतीयकः। (Pistia stiatiotes, Lin.) मेमो० । अन्तरात्मा antalātmā-हि. पु. जीवात्मा, ई. मे० मे। rui (The internal and spiritual अन्तर नायनी antara.nayani-सं० स्त्री० part of man, the soul). अन्तर वाहिनी। (Adductor). अन्तरापत्या antarapatya-सं. स्त्रो . अन्तर नायनी पेशी antara-tlāyani-peshil गर्भिणी, गर्भवती । हामिलह, हामिलह, हब्ला अन्तर वाहिनीपेशी antara.vahini-peshi JI ~अ० । प्रेग्नेण्ट (Pregnant)-इं० । ___ सं० श्री. किसी अंग को मध्य रेखा की ओर ले | अन्तरामिषीयः antrāmishiyah-सं. पु. . जाने वाली पेशी (जैसे वाहुको वचकी ओर और | (Endomysium) मांसास्तरीय । प . For Private and Personal Use Only Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अन्तराय ફેર अन्तराय antaráya - हिं० पु० बाधा, विघ्न, g'. रुकावट । ( Obstruction ) अन्तरायामः antaráyámah - सं० आक्षेपक भेद | एक रोग जिसमें वायु कोप से मनुष्य की आँखें, गुड्डी और पसुली स्तब्ध हो जाती है और मुँह से श्रापही आप कफ गिरता | अर्न्स हैं तथा दृष्टिभ्रम से तरह तरह के श्राकार दिखाई पड़ते हैं । लक्षण -- जब बलवान वायु अन्तरायाम को करती है तथा श्रङ्गुली, गुल्फ (पाँव की गाँठ, गट्टा ), पेट, हृदय, वक्षःस्थल और गले में रहने वाली वायु वेगवान होकर स्नायु समूह ( नाड़ीसमुदाय ) को भी कम्पित करती है तो उस समय उस मनुष्य की आँखें पथरा जाती है, कोही जकड़ जाती है, पसलियों में टूटने की सी पीड़ा होती हैं। कफ का मन करता और वह छाती से ( श्रागे की ओर ) कलान के समान मत हो जाता है । भा० । मा० नि० । अन्नगलम् antaralam सं० पु० अन्तराल antarala हिं० संज्ञा पुं० (१) अन्दर अन्तर (Interspace) (२) घेरा, घिरा हुआ स्थान | श्रावृत्त स्थान | ( Inclu ded space)। ( ३ ) श्रीच । श्रन्तरावयव antaravayava - हिं० संज्ञा पुं० स्त्री की वस्ति का श्राभ्यंतरीय भाग जिसमें गर्माशय तथा गर्भाशय के बंधन, श्री श्रण्ड, फलवाहिनी और योनिमार्ग का समावेश होता है। चं० कल्प० । : अन्तरिया antariyá- हि० स्त्री० तिजारी, तीसरे दिन जाड़ा देकर श्राने वाला ज्वर, अन्तरात (A tertian ague.) । देखो - तृतीयकः । अन्तरि (सं)क्षम् antari, ri, ksham--सं० Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अन्तर्विद्रधि की० पृथ्वी और सूर्यादि लोकोंके श्रीचका स्थान । कोई दो ग्रहों वा तारों के बीच का शून्यस्थान । प्रकाश, गगन, शून्य, नभ, व्योम, अधर रोदसी । (The sky or atmosphere). रा० नि० च० १३ । antari - हि० स्त्री० अन्त्र (Intestines.) श्रतरीप antaripa - हिं० संज्ञा पुं० ( 1 ) द्वीप, टापू । ( २ ) A Promontory, cape ) रास । पृथ्वी का वह नोकीला भाग जो समुद्र में दूर तक चला गया हो । अन्तरीय antariya) सं०वि०वि० विश्व अन्तः antah भीतर का अन्दर का, भीतरी, मध्य 1 ( Inward, intornal) जो चीज़ शरीर में मध्य रेखा की और रहती हैं उसके लिए छेदन शास्त्र की परिभाषा में अंतरीय या अंतः शब्द का प्रयोग होता है । इन्सी, अन्दरूनी - अ० । 1 अन्तर्मुखम् antarmukham सं० ली० (१) ऋण विस्रावणास्त्र विशेष । श्रत्रि० । कुशपत्र और श्राटी मुख के समान अन्तर्मुखनामक शस्त्र स्त्राव के लिए उपयोग में लाया जाता हूँ । इसका फल डेढ़ अंगुल होता है । (२) कुशाश के सहरा ही एक श्रद्ध चन्द्रानन शस्त्र होता है, यह भी ara के face काम श्राता है । श्रन्तर्मुखी antarmukhi-सं० स्त्री० स्त्री योनि रोग विशेष | च० चिं० 1 ! अन्तर्लसीका antarlasika - सं० स्त्री० (Edolymph ). अन्तरिन्छ, क्ष antarichchha, ksha - हिο संज्ञा पु ं० श्राकाश ( The sky, atmosphere) | अन्तरित antarita - हिं० वि० भीतरी, श्रान्तरिक | अन्तर्वमिः antarvamih - सं० स्त्री० परिपाक, ( Inward,internal.) । अन्तर्वत्नी antarvatni -सं० स्त्री० गर्भिणी, गर्भवती । ( Pregnant ) | श्रम० ! जीर्ण (Dyspepsia ) त्रिका० । अन्तर्विद्रधिः antarvidradhih - सं० पुं० जठरांतरस्थ विधि रोग । निदान व लक्षण-भारी धन का भोजन करने से, असाम्य ( जो अपने को प्रतिकूल हो), विरुद्ध For Private and Personal Use Only Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अन्तर्वृद्धिः । अन्तुलहे सौदा भोजन, सूखाहुआ शाक और खट्टे पदार्थों को खाने अन्तस्वक autastvak--सं० पु. (१)अन्तरसे, अत्यंत मैथुन करने से, श्रान से, मल मूग्रादि कला (Epithelium)! (२) अधःस्वक वेगों को रोकरे से, अत्यंत उषण पदाश्री' से, (वृक्ष)। दाहजनक पदार्थों से, अलग अलग अथवा अन्तस्नेहफला anta-sneha-phala-सं०स्त्री० सब एकत्र मिलकर कोपको प्राप्त हुए दोप गुदाके श्वेत कंटकारी, सफेद भटकटाई, श्वेत कंटकाभीतर, यंतय संधियों के भीतर, कोख में, बगल रिका (री), श्वेत कंटारिका। में, प्लीहा और यकृत में, हृदय में अथवा तृपा अन्तयुधिर antassius hira--सं० पु. भीतरी लगने के स्थान के भीतर साँप की चाँबी और छिद्र। (Hollow ). ॐचे गुल्म के समान विधि उत्पन्न करते हैं। अन्तामरा antamarar-बं० मरोड़फली, मरोड़ी, इन विद्धयों के ल तण बाहर की विद्रधियों के महता-गों, हिं० । (Helicteres Isora, समान जानना चाहिए । भा0 म. २। विद्रधिः Lirin.) ई० मे० प्ला० । अन्तवृद्धिः anti. iriddhih. सं. प. अंत्रवृद्धि रोग, प्रांत उत्तरनेका रोग । (Lexia). अन्तावसायों (इन) untavasayi सं० पु. अन्तर्वेधः antarredhah--सं० पु. मर्मभेद, (1)नापित, नाई, हजाम । (A Barbar, मन पोड़ा ! (Serious Pain.) a. shavar) मे०। (२) हिंसक । चांडाल । अन्तल autala- कना० रीठा। (Supindusi 'Trifoliatus ) फा० ई०१ मा०1 श्रान्त प्रतिकantika --हिं० पु.. सीप, पास। अन्तलीसautalis--य. एक बूटी है जो वृक्ष तथा मन्तिका antika-सं० मी. (१) सातला, घास के मध्य होती है । इसके पत्ते मसूर के पत्तों सीकाकाई ( Acacia concinna, के समान होते हैं और इसकी शाखाएँ अत्यंत | D..)। (२) चुलि । मे० कनिकं । खुरदरो और एक बालिश्त के बराबर होती हैं । अन्तम antima-हिं० वि० [सं०]( Fips), (A plant.) ultimats ) जो अंत में हो, आखिरी । अन्सशच्या antashayyi-० नो० मरण, ! सबसे पिछला, सबसे पीछे का । (२) चरम | मृत्यु । (Dying, death ). मे०। (२) सबसे बड़के। मृत्युशय्या. मरण खाट, भूभिशय्या । (३) श्मशान, अन्तुलह altulalh-अंदलुसी० एक बूटी है। मसान्न, नरघट । यह दो प्रकार की होती है। (१) अंतुलहे अन्तश्श्रोत्रम् antashshrotram-सं० क्ली । बैजान तथा (२) अंतुलहे सौदाश् । अंतःस्थकरणं । ( Iiiterilal ead.) अन्तुलहे बैजा antulahe-baizaar अंदअन्तश्श्रोत्रमार्गः antashshiotra-nāgahi लुसी० साधारण इन्दुलसी ( Spainish) -TOTO (Internal Acoustic Hea लोग इसको भी फहीक कहते हैं। इसके व्यरो tus) अंतःस्थकर्ण सुरंगा । कर्णान्तरनाली । समाय के पशों के समान होते हैं, गंध सीचरण, अन्तश्श्रोत्रमार्गद्वारम् antashshrotra. ma. सुगंधियुक्त और स्वाद मधुर होता है। इसके पसे rgadwaram-सं० क्ली० (1Porus Aco- उपयोग में पाते हैं। ये समस्त विषों के अगद usticns Interus). कान्तर द्वार । हैं । यह बूटी इंदुलस (Spain), चीन, अन्तस्तल antastala -संहिं० पु. भीतरी तिब्बत और भारतवर्ष के पर्वतों में उत्पन अन्तस्थल autasthala | भाग। भीतरीतल | (Endplates, Internal Sur होती है। face ). अन्तुल सौदा antulahe soudia-अंद लुसा. इसको जदवार, इंदुलसी (Spainisb) For Private and Personal Use Only Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अन्तू कल डुम्बो अन्तर्धर्मा में फहीक और हिन्दी मे निर्थिसी कहते हैं। | अन्तरुहा anta-luhi-सं० स्त्री० श्वेत दूर्वा, इसके मूल शाखा में शास्त्रा युक्र और बड़े होते सफेद दूध | Seershveta-durvvi. हैं । पत्र मकोपत्र सदृश, किंत रक ग्राभायुक्र होते अन्तरोत्पादक antarotpadaka हिं०(Enहैं। किसी किसी के मतानुसार हंसराज के पत्ता ! toderm) के समान होते हैं । स्वाद-तिक । अन्तर्गत antargatis-हिं० पु. ( In the अन्तू-कल-उम्बो antu-kala-duinbo-ता० midst.) भीतरी । शामिल, अन्तर्भूत | दोगातीलता ( Ipomaca biloba, अन्तर्गति antargati-हिनी० ( Inward Forsh.)। फा० इं० २ भा०। Sensations ) मन की तरङ्ग । ( Forअन्तोमूल antomula-पं० अन्त मूल । (Ty- gotten.) विस्मरण । lophora Asthamatica-) अन्तर्जास्थि an tarjanghāsthi-हिं०स्त्री. अन्तरीय उदरच्छदा antariya-udarachi Shin-bone ( Tibia) जकास्थि, टोंग की chhadá-fé al. ( Transversalis दो पास्थयों में से अङ्गुष्ठ ( शरीर की मध्यरेखा के Abdominis) अन्त: उदरच्छदा । निकट) की भोर की अस्थि । क्रसबहे कुमा, अन्तरीय जननेद्रिय antariya-jananedri- मा.मुल क्रस यत्-अ०। ya-हिं० संज्ञा स्त्री० ( Internal org- अन्तर्जठरम् antarjatharam-सं० क्ली० . an of generation ) वह जननेन्द्रिय | कोष्ठ, कोठा । कुक्षिमध्य, कोख । अम०। जो वस्ति गदर के भीतर रहती है और इस | अन्तर्जान महराय antarjanu-maharaba कारण बाहर से दिखाई नहीं देती जैसे शुक्राशय, -हिं० प ( Inner condylar noशुक्रप्रणाली, प्रोस्टेट, शिश्नमूल ग्रंथि । । tch ) घुटनों के अन्तरीय हड्डी की महराब । अन्तरीय नाडी-कोप antariya nari.ko- अन्तर्दधनम् antar-dadhanam-सं० क्ली. sha-हिं० संशा पु. ( Internal cap सुराबीज, किण्वक । येस्ट Yeast -इं। sule ) श०च०। अन्तरीय पटल antariya-patala-हिं० अन्तर्दाहः antardahab-सं० (हिं०)पु. (१) संहा पु० भीतरी परदा । ( Inner coat) शरीराभ्यान्तरदाह । शरीर के भीतर दाह होना, अन्तरीय पटल शोथ antariyapatala छोती की जलन, कोष्ठ संताप, कोठे के भीतर shotha-हिं० संज्ञा पु. (Choroi को जलन । रा०नि० २० २० । (२) सन्निditis) नेत्र के भीतरी परदे की सूजन । पात ज्वर विशेष । अन्तरीय पृष्ठ antariya-pyishtha-हिं. - लक्षण-जिस सन्निपात घर में मनुष्य शरीर पुं० भीतरी पृष्ठ, अन्तम्तल | (Interrial के भीतर दाह हो, ऊपर से शीत लगे, सूजन, surface ). बनी. श्वास और सम्पूर्ण शरीर जला सा हो अन्तरीक्ष antariksha-हिं० पु अाकाश । जाए उसे "अन्तर्दाह" सन्निपात ज्वर से पीड़ित (The sky or atmosphere) जानना चाहिए । भा० म०१ भा० । अन्तरीक्ष जलम् antariksha-jalam ) अन्तर्द्वार antar-dvāra-हिं. पु. भीतरी अन्तरिक्ष जलम् antariksha-jalam । दरवाजा (केवाड़)।(A private door) -सं० क्ली. प्राकाशजल, गगनाम्बु, गगनोदक, | अन्तर्धर्मा antardharmā-सं० स्त्री० (En नीहारजल, वर्षा ( वृष्ठि) जल । ( Rain | doderm or Hypoblast. ) अन्त. water. ) बैलिया। For Private and Personal Use Only Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अन्तधूमः अन्तः कुटिलः अन्तधूमः antardhāmah-सं० त्रि० मुख । देह में पांडु वर्णता और अफरा भी हो तो उसे बँधे हुए हंडिका के भीतर अग्नि जलाने से अन्तलहिता कहते हैं। यह सदा दुश्चिकित्स्य उत्पन्न हुश्रा धूम । च० द० ग्रहणी चि० होती है। वा० उत्तर० अ० २६ । चित्रकक्षार । । अन्तः उदरच्छदा पेशी antah-udarachअन्तर्घट antarpata-हिं० पु. प्रोट, पाड़, cbhada-peshi-सं० श्री. उदरच्छदा टट्टी, पर्दा । ( A curtain, askreen.)| अन्तःस्था । ( Transveralis A blomiअन्तर्वलिष्टा antarbujishta-सं० स्त्री० nis). ( Endoderm or Hypoblast. ) : 3pigiat antah-lipangiya-o alto अन्तधर्मा । ( Internal angular artery ). अन्तर्वैल antarbola-को० अकासवेल ( Cu-. धमनी विशेष । scuta Reflexa.) 1 मन्तः अंस नाड़ी antah-ausa-mari--हिं० अन्तर्भूत antarbhā ta-हिं० वि० [सं०] : स्त्री० कंधे की भीतरी नाही । ( Deep मध्यगत, मध्य में स्थापित । ( In the mird.. nerve cf the shoulder. st.) अन्तर्गत । शामिल । -संज्ञा पु. जीवात्मा । अन्तः कराठगाशिरा antahikanthagashiri जीव। foto (Internaljugular vein ) अन्तमणिक antarmanika-हि. पु. . गले की अन्दर वाली अशुद्ध रक नाली । अन्तः कराठशल्यावलोकिनी antab-kuntha(Styloill process of uliha ) अन्तः : प्रकोष्ठास्थि के शिर के पासका एक छोटा नोकीला! shalyavalokini-सं. स्त्री० नाडी यंत्र विशेष । यह दश अंगुल परिमाण की होती है। उभार जो अंगुली से टटोल कर मालूम किया जा अत्रिः । सकता है। अन्तर्मलः an tarinalah-सं० G. (१) अन्तः करणम् utah-karanam-सं० को मलांत वृक्ष, अन्तमुल। कश्चिदधिः । See (1) अन्तरिन्द्रिय, भीतरी अवयव, हृदय, मन, Antamula 1(२) भीतर का मल । पेट : अन्तरात्मा । (२) भीतरी चार इन्द्रियाँ ( बुद्धि के भीतर का मैला । अहंकार, चित्त और मन) अन्तः करण अर्थात् भीतर के ४ औज़ार कहलाती हैं। ( The अन्तमहानादः antarmaha-halah-सं० understanding, the heart, the पु० शङ्ख । (A Conch.). अन्तर्मुखी antarmukhi-सं० स्त्रो० योनिरोग will, that consciene, the soul.) देखो-अतः करण । विशेष। यदि स्त्री बहुत भोजन करके विषम रीतिसे बैठ कर पुरुषसेवन में प्रवृत्त हो तो वायु भुक्र अन्तः करतली नाड़ी antah-kartali.lari अन्नसे प्रपीडित होकर योनि के स्रोत में अवस्थित : सो -हिं० स्त्री० ( Deeper nerve. of होकर योनि के मुख को टेवा कर देता है। ऐसा hand. ) हथेली की गहरी नस । होने से योनिकी हड्डी और मांसमें घोर वेदना होने अन्तः कतनक autah-karttanaka-हिं० लगती है। इस रोग का नाम अन्तर्मुखी श्रोनि | संज्ञा पु० कत्तभक दतों में से भीतरी दाँत, अंतः व्यापत् है ! वा० उ० अ०३३ । छेदक दन्त । ( First molar.) अन्तलोहिता antarlohita-सं० स्त्री० ऐसा अन्तः कुटिलः antah-kutilah-सं० प्र० रोगी जिसके भीतर रुधिर भर जाने से हाथ पाँव (The conch shell ) शंख | शांक-ब। श्वास और मुख ठंडे हो गए हों, पाखोंमें ललाई, ! See-shankha. For Private and Personal Use Only Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रन्तः कपरिका धमनी अन्तः प्रकोष्ठ (-ष्ठिका) नाड़ी अन्तः कृपरिका धमनो antah-kārparika ! of the thigh.) जांघ के अन्दर की -dhunani-सं. स्त्री. ( Medlial नाड़ो। cubital). तमामक धमनी विशेष। | अन्तः जंघोया शिरा antahi janghiyaअन्तः कपरिका शिरा antah-kārparika- ! shira-हिं० स्त्री. ( Internal saphe 1-सं० स्नातनामक शिरा विशेप: । mous vein)जोंघ के अन्दर धाली अशुद्ध अन्तः कोटर पुप्पो,-पिका antah-kotarai रुधिर की नली। pushpi, shpika-सं० स्त्री० नील वह्या, अन्तःत्रिपाश्विका antah-triparshyikiछगलांत्री-सं० । छागलबेटे-बं० । प० मु.।। हिं० संज्ञा स्त्री०( Internal or first रत्ना०। देखो-छगलांत्री (Chhagalantri). cumeiform) कूञ्चास्थियों में से एक । (प्रथमा) त्रिपार्श्विक अस्थि विशेष । अन्तः जानु पिण्ड antan yantr-pindu -हिं० पु. ( Inner tubrosity ) धु. अन्तः पटल intah-patala-हिं. पु. टनों पर जंघास्थि का मोटा उभार । (Retina ) नेत्र का जालदार परदा । शक्ति य्यह, तबकहे शठिकल्यह-श्र० । अन्तः जंघासा को श्रांतरिक शाखा antah ! अन्तः पदवी antah-padavi-सं० स्त्री० janghásá--ki-ántarika-shakla सुषुम्ना नाड़ी | (Spinal cord ). सं० स्त्रो० ( Deep tibial nerve, बैं० शू०। inner branch) पैरकी नाड़ी की भीतर अन्त पातो antah-pati-हिं वि० (Medial) की शाखा बीच याला, मध्यवर्ती, अन्तर्गत । अन्तः जंघासा को वाह्य शाखा antah-jang. । अन्तः पादतलिकी धमनी antah-padata. hasa-ki-vahya.shakha--हिं० स्त्री० ___liki-dhamani-सं० स्रो० धमनी विशेष । ( Deep tibial nervo outer br anch) पैर की नाड़ी की बाहरी शाखा। अन्तः पूणुकः antah-punukah-सं० प. अन्तः जंघासा नाडी antah-jangbasa lasini (Endoneurium ). nari-हिं० स्त्री० (Deep tibial nerve) अन्तः प्रकोष्ट चालिनी नाड़ियाँ antah-pटखने ( पैर ) की गहरी नस । rakoshta--chalini----nāriyaii--हिं० अन्तः जंघासा पेशी antah-janghāsa-pe स्त्री० (१०व०)(Deep nerves of shi-हिं० स्त्री० ( Inner part of the the lower arm) अग्रवाहु (हाथ) के अन्दर soleus muscle) टखने की अन्दर की ! की नाड़ियाँ। पेशी । अन्तः प्रकोष्ठास्थि antah-prakoshthiअन्तः जंघास्थि antah-janghāsthi-हि. । sthi-सं. स्त्री० दोनों प्रकोष्ठास्थियों में से स्त्री०( Tibias) टखने की अन्दर की हड़ी। कनिष्ठा की ओर की अस्थि । ( Ulna) अन्तः प्रकोष्ठिका धमनी antah-prakosh. अन्तः जंघीया धमनी antah-janghiya thiká-dhamani-ho al. (Ulnar dhamani-हिं० स्त्री०( Inner artery artery ) अग्रवाहु (हाथ ) की अन्दर वाली of the thigh ) जाँघ के अंदर वाली ध रुधिर नाली । अन्तः प्रकोष्ठ (-ष्ठिका) नाड़ी antahprak. अन्तः जंघीया नाड़ी antah-janghiya- osbtha-nári-foo fiat aio. ( Ul nári-sa aio (Deep nerve ! nar nerve ). भीतरी प्रकोष्ठ नाड़ी। मनी। For Private and Personal Use Only Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अन्तः प्रकोष्ठिकाशिरा अन्तःक्षेप अन्तः प्रकोष्ठिकाशिरा antah prakoshth- mi-सं० स्त्रो० ( Internal Auditoika-shira-सं० स्त्री० (Basilic vein). ry artery.) अन्तःस्थकर्ण धमनी । शिरा विशेष | अन्तःश्रोत्रम् antahshrotram-सं0 क्ली. अन्तः प्रगण्ड चालिनो antah-praganda.. अन्तःस्थकर्ण । अंतर्कर्ण । (1nternal et). -chilini-हिं० स्त्री० ( Deep nerves | अन्तःश्रीयायाशिरा antah-sirodhiya.sh. of the upper arm) भुजा को अन्दर ira-सं० स्त्री शिरा विशेष । की नाड़ियाँ। अन्तः श्वसनम् antali-shvasanan-सं० अन्तः प्रगण्डीया शिरा antah-pragand क्लो निःश्वास, श्वास लेना, उच्छ्वास, अंत. iya-shira-सं० स्त्री. शिरा विशेष । मुख श्वास । ( Inspiration )। अन्तः प्रविष्ठ योनि antah-pravishtha. वायु का नासिका में से होकर फुफ्फुसों के भीतर yoni-सं० स्त्रो० वह योनि जो भीतरकी तरफ प्रवेश करना (इससे छाती फैन कर पहिने से चली गई हो। बड़ी हो जाती है)। अन्तःप्राचीर antah-prachira-सं० (हिं. जवान मनुष्य एक मिनट में१६-१. श्वास संक्षा) पु. ( Inner wall ) भीतरी लिया करता है। दीवार। अन्तः श्वेत antahshveta-हिं० पु हाथी, अन्तः फल antah-phala-हि. संहा स्त्री० गज । ( All elephant). श्रण्ड, प्राण्ड-हि० । श्रोवरी ( Ovary)-इं०। अन्तः सत्वा antahisattva-सं० स्त्री०, हिं० यह गर्भाशय के प्रत्येक बाजू (बगल ) में एक संज्ञा पु०(१)(Senecarpus anएक पृथुबन्ध के बीच में स्थित बादाम की प्राकृति acardium) भल्लातक वृक्ष, भिलावे' का के स्त्री अंड को कहते हैं। इनकी लम्बाई प्राधइञ्च | पेड़। -हिं० वि० गर्भिणी, गर्भवती ! (A चौड़ाई ३ इञ्च और मुटाई प्राधा इञ्च होती है। pregnant female) श० च०। बं कल्प० । देखो-डिम्बाशय। शान्तः सुपना शॉथ antal:-sus humnā-sh. अन्तः शरीर antah-sharira- हिंपुश्रामा, othi-हि.संज्ञा पु०(Polio-myelites) चिदात्मा। ('The internal & Spiritu अन्तः स्तनोया atahistaniya-सं० श्री. al part of mall, the conscience, स्तन की पोषण करने वाली। ( Internal the soul). numinary artery ). अन्त:शिरोधीया धमनी antah-shirodhi- अन्तः स्थकर्ष antah-sthakarna-हिं. yadhanmani-सं. स्त्री० ( Interna] (Internal car ) गहन, अंतः कण । carotid artery) तन्नामक धमनी विशेष । अन्तः क्षेप antah-kshepa-हिं० संज्ञा पुं० अन्तःश्रोणिगाधमनी antahshroniga-dha. [सं० अन्तः+लिप फेकना ] ( Injection) mani-सं० स्रो० ( Internal iliac इलेक्शन। इसका शाब्दिक अर्थ 'भीतर फेंकना' artery, Hypogastric) पेडूके प्रांत है । परन्तु अर्वाचीन वैद्यकीय परिभाषा में किसी रिक अंगो को पोषण करने वाली धमनी । तरल द्रव्य का शरीर के किसी भाग के भीतर **a: wifgar farti anta heşhronigá-s. सूचीवेध (इंजेक्शन सिरिञ्ज) द्वारा अथवा hira-संस्रो० बस्ति देश की शिरा । ( Iut. तद्वत् किसी अन्य यंत्र द्वारा प्रविष्ट करना ernal iliac vein, Jlypogastric (सूचिकाभरण) अन्तःक्षेप कहलाता है। सूचि.. vein) वेध । सूचिकाभरण | जर्क-१०। देखोअन्तःश्रोत्र धमनी antahshrotra-dhans- सूचिवेध। For Private and Personal Use Only Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३५६ श्रन्त्रअन्योन्यानुप्रविष्ट अन्य antya-हिं० संक्षा पु० [सं०] शेष का, | (1) छोटी और (२) बड़ी । पुनः इनमें नीच, अधम जाति, जघन्य । A shudra | से प्रत्येक के ३-३ भेद होते हैं। देखो-क्षुद्रांत्र or man of the fourth tribes व वृहदांत्र। वि० अंत का । अंतिम । प्राखिरी । सव | अनन्यान्यानुनविष्ट antra-anyonyantlसे पिछला। Fravishta-हि. संज्ञा पुं० प्रांत का एक अन्त्यकोपटकः antya-koshtakah-सं०५० भाग से दूसरे भाग में उतर जाना। इस विकार ( Terininal Ventirele) Witari में ऊपर के आँत्र का भाग, अधःस्थित यात्र कोष्ट। भाग के पोले स्थान में घुस जाता है। श्रांत्र के अन्त्यगण्डः antya.gandut--सं०५. ('Te- उस भाग को जो प्रवेश करता है प्रवेशक (In rininal Ganglion ) sifaa v3 | tussuceptim) और जिस प्रांत्र के श्रन्त्यतन्तुः antya-tantulh-सं०० पोले स्थान में यह प्रविष्ट होता है उसको ग्राहक अन्त्यपुष्पा antya-pushpi-सं० श्री. धातकी (Intussleepions) कहते हैं। श्रान्त्रावृत्त, घर का पेड़ । ( Anogaissus luti न्त्र प्रवेश । folia) चै० निघ। पाप-शाती में बल पड़ना, प्रांतों में अन्त्यफलकम् antya-phalakam-सं०क्ली० गिरह पड़ जाना। इतिवाउल्लफ़ाइफ, इलति(Motor end-plate) बाउल अमा, एलाऊस, कौलङ्ग इल्तिबाई, अन्त्याङ्गम्।ntyingam-सं०पु. अंतके यंत्र ।। मगम रब्ब इम, इनगिमादुल अम्मा , तग़(End organ). म्मदुल अम्मा-अ० 1 इन्टस् ससेप्शन ( Intiassusception , ईलियस Ileus, अन्त्यः antyah-सं०पु० मुस्ता, माथा । (Cy बालव्युलस Volvulus, इन्वैजिनेशन In. perus rotundus ), Vagination-इ० । अन्त्रम् antram-सं• क्लो० । प्राणियोंके पेट पर्याय-निर्णायक नोट--एलाऊस वस्तुतः अन्त्र antra-हिं० संज्ञा पु. के भीतर की यूनानी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ बलखाना वह लम्बी नली जो गुदा मार्ग तक रहती है । वा प्रावर्तन है । एलोपैथिक परिभाषा में इन्टस्खाया हुआ पदार्थ पेट में कुछ पच कर फिर इस ससपशन तथा वालव्युलस सामान्यतः स्थूल नली में जाता है और मल वा रद्दी पदार्थ बाहर एवं इट्ट दोनों प्रकार की श्रावों के व्यावतन के निकाला जाता है। मनुष्य की आँत उसके डील लिए प्रयोग में प्राते है। परन्तु, ईलियस से पांच व छः गुनी लम्बी होती है। मुख्यतः केवल ऊर्च बुद्रांत के श्रावर्तन के लिए पाय-पुरीतत् (रा. नि०व०१८), प्रयुक्र होता है। प्रांत्र-सं०। अंतड़ी, अंत्र, आँत, रोधा, अंत्री उत अन्त्रान्त्रप्रवेशन की क्रिया लघ्वान्य -हि. | मिझा (ए० व०), अम्मा और स्थूलान्त्र की सन्धि स्थान में हुश्रा करती (ब० व०), मसा (ए. व.), मस्सरीन हैं। लध्वान्त्र का भाग स्थूलत्र के भीतर कभी (ब० ब०)-अ० । इन्टेस्टाइन Intestine कभी इतने वेग से प्रविष्ट हो जाता है या खिंचा (ए. ५०), इन्टेस्टाइज Intestines हुआ चला जाता है कि उसके परत एकदम गुद(ब०व०); बॉवेल Bowel (ए०व०), द्वार के मुख तक पहुँच जाते हैं। कभी कभी बावेल्ज़ Bowels (ब० व०)-इं। लध्यांत्र का एक भाग उसी के अन्य भाग में नोट-पाकार तथा परिमाण के अनुसार | प्रविष्ट हो जाता है, इस प्रकार को लघ्वांत्रिक प्रांतें दो प्रकार की होती है ( Enteric ) कहते हैं। और कभी कभी For Private and Personal Use Only Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रन्त्रअन्योन्यानुप्रविष्ट स्थूलांत्र का एक भाग उसी के अन्य भाग में प्रविष्ट होजाता है, इसे स्थूलांत्रिक(Colica): कहते हैं । ५० प्रतिशत से भी अधिक रोगियों में अधर हात्र और अंजपुट को बृहदांत्र में प्र. विष्ट होते हुए देखा गया है। इस प्रकार की ग्रंत्रप्रवेशन क्रिया को अधःसुद्रांत्रपुटिक (IleoCocalis) कहते हैं। इसीप्रकार अधर शुद्रांत्र, उत्तर तुद्रांत्र तथा द्वादशांगुलांत्र का भी न्याघर्तन होता है। किसी किसी में अधर तुद्रात्र अपने एक अन्य भाग में प्रविष्ट होकर अधरक्षुद्रांपुटिक कपाट से गुज़र कर वृहदांत्र में पहुँच जाती है। इसके अधरनु द्रवृहदांत्रिक ( Ileo. colica) कहते हैं। निदान श्रांत्र प्रदाह, प्रोत्र क्षत तथा प्रांत्रस्थ मांसा. खुद के कारण प्रांत्रावरोध होना, प्रांत्र के ऊर्ध्व भाग का अधःभाग में उतर जाना और अंग्रवद्धि में प्रांबावरोध का हो जाना प्रभृति । लक्षण तीब्र, श्राशुकारी, प्रांत्रांत्रप्रवेशजन्य धात्रावरोध विशेषकर छोटे बच्चों में पाया जाता है। इसके कारण बच्चों को कभी कभी प्राक्षेप होता होता है। रोगों को सस्त मलावरोध होता है. बार बार वमन अाता है, अंततः वमन में मल विसर्जित होने लगता है जो इस रोग का एक नैदानिक लक्षण है। उदरशूल होता है और उदराध्मान द्वारा वह फूलकर ढोलवत् हो जाता है। रत और श्लेष्मा मिश्रित मल निकलता, रोगी अत्यधिक कॉस्खता रहता और बलाय आदि लक्षण होते हैं । बलक्षय से बालक २४ घंटे में गत प्राय हो जाता है। यदि उल अवधि के भीतर गत प्राण न हो तो उदरककलाप्रदाह के लक्षण ( श्वास, हिक्का, तीब ज्वर, हृदय को स्वरित गति इत्यादि होते हैं। विकारी स्थल एक । उभार सा मालूम होता है। रोगी अत्यंत तड़फड़ाता है और बड़े कष्ट से प्राण निकलते हैं। रांगविनिश्चय बाल्यकाल एवं अस्युग्र अंत्रअन्योन्यानुप्रविष्ट । अन्त्रअन्योन्यानप्रविष्ट की दशा में प्रागुन लक्षणों को भली प्रकार देखने से सरलतापूर्वक इसका निदान हो जाता है। परंतु कतिपय शति पुरातन दशाओं में, जो प्रौदावस्था में होता है, इसका निदान करना सर्वथा सरल नहीं। इसका सरूप चिरकारी प्रांत्रावरोध जैसा ही व्यक्त होता है। उदर को चीरकर देखने पर ही इसका वास्तविक रूप समझ में ग्रा सकता है। चिकित्सा इस रोग में कदापि विरेचन न देना चाहिए । बल्कि प्रारम्भ में जब शूल, प्राध्मान और अधिक यल नय हो तर उष्ण जल, तेल वा तैल व पतले मंड की यम्ति देनी चाहिए अथवा धौंकनी द्वारा प्रांतों में वायु प्रविष्ट कराना या रोगी को उलटा करके बलपूर्वक हिलाना उपयोगी होता है। परंतु, जब वेदना व श्राधमान अत्यधिक हों और पल जय गुवं निर्बलता असीम हो उस समय सिवा शल्यक्रिया अर्थात् चीर फाड़की चिकित्साके और कोई उपाय नहीं । अस्तु, जितमाशीघ्र प्रॉपरेशन किया जाए उतना ही अख्छा हो । परंतु इसे कोई दक्ष शल्यशास्त्री ही कर सकता है। नोट-वस्तिदान काल में सेर सवासेर उष्ण जल वस्तियंत्र की नली द्वारा अंत्र में दूर तक पहुँचाना चाहिए। जल बाहर निकल पाने पर उदर को नीचे से ऊपर की ओर धीरे धीरे मलना माहिए। यदि रोगी को उलटा कर हिलाना हो तो पहिले उसको ईथर वा कोरोफॉर्म सुंघाकर विसंज्ञ कर लेना चाहिए। पायुर्वेद के अनुसार उदावर्त रोगाधिकार में वणित चिकित्सा कुछ अंशमें. इसरोग के प्रतीकारार्थ सफलीभूत हो सकती है। श्रस्तु, खूब सोच समझ कर तदनुसार कोई औषध की व्यवस्था करने से रोगी लाभ अनुभव करता है और वह चीर फाइ के बखेड़े से बच जाता है। किंतु दत्रा का प्रबंध यथासम्भव शीघ्र ही करना चाहिए। प्राचीन यूनानी चिकित्सकों ने चूंकि इसके वास्तविक रूप को समझने में धोखा खाया; अतएव उन्होंने इसकी चिकित्सा अवरोध जन्य For Private and Personal Use Only Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रन्त्रकणिका ३५१ अन्त्रविद्रधि उदरशूल के समान लिखी है। उदाहरणार्थ-विरे- का क्या विशेष काम है यह अभी किसी को टीक चन का प्रयोग और वस्तिदान या पेट पर शृङ्गी तौर से मालूम नहीं । सच मनुष्यों में इसकी (सींघिया) लगाना श्रादि । परंतु जैसा कि लम्बाई एक ही जैसी नहीं होती; किसी में यह वर्णन हुआ इस रोग में विरेचन देना अत्यंत । इञ्च से अधिक लम्बी नहीं होती किसी में - हानिकारक है। इसलिए प्राक्कथित डॉक्टरी इन लम्बी भी होती है। इस नली का कभी चिकित्सा की ही शरण लेनी चाहिए। कभी प्रदाह हो जाता है; और फोड़ा भी बन जाता पथ्य-रोगो को थोड़ा, स्निग्ध एवं उष्ण है तब इसको काटकर निकाल देनेकी आवश्यकता और पतला श्राहार दें । दूध में सोडावाटर मिला होती है । देखो-उपांत्र ।। कर या दूध में अंडे फेंटकर या पतला सागू, | अन्नपाचम् antra-pacham-0 क्लो० स्थावर अरारूट, यखनी ( मांसरस ) अथवा शोरबा विषांतर्गत त्वक् (छाल) और सार तथा निर्वास प्रभति थोड़ी थोड़ी मात्रा में तीन-तीन चार-चार (गोंद ) विष विशेष । सु० कल्प. २ अ. घंटे बाद दें। यदि इतने पर भी न पचे तो श्लो०७ पोषक वस्ति द्वारा रोगी का पोपण करें। अन्न पच्छ antra-puchchha-हि. संहा पु. अन्त्रकरिशका antra-kaunika-सं० स्त्री० गेंदा, (Appendix) अन्त्रपरिशिष्ट । पद्मचारिणी । ( Tage tes Erectin). (Tarotes Firectin ). अन्नपुट antra-puta--हिं० संज्ञा पु. सीकम् अन्त्रकजः antrakijali-सं० पु. वायुरोग | ___Cucum- इं०। (मिशा ) अ अवर-१०। विशेष । नाड़ी शब्द । (Rumble) सु० नि. रोदहे चहारम् , रोदहे काज, कानी प्रांत--उ० । १० ११ श्लोक। ___ चतुर्थ प्रात, यह वृहद् अंत्र में की वह बात अन्त्रकूजनम् anta-kuja ham-सं० क्ली. है जो प्रधररुद्रांत्र के बाद थैली की शकल में (Rumble) श्रांसध्वनि, आँतीका शब्द, पेट में स्थित होती है । ग्रांतों के विरुद्ध दो मागों के गुड़ गुड़ (गड़गड़ ) आदि शब्द होना, प्रांतो को स्थान में इसमें केवल एक ही मार्ग होता है। गुड़गुड़ाहट, अंतड़ियों की कुड़कुड़ाहट । इसीलिए अरबी में इसको अनवर अर्थात् एक . 953 FM antrachehhada-kalá चक्ष या कानी अात कहते हैं । अन्त्रवृद्धि में प्रायः -हि० संज्ञा स्त्री० (Omentum)- यही औीत अंडकोषो में उतर पाती है। क्योंकि श्छ. दाकला। अन्य प्रांतों के समान यह बंधक सूत्रों द्वारा बँधी नहीं होती। अन्त्रताम्रा anti-tamri-सं० स्त्रो० गदा, पद्मचारिणी । (Tagetes Ereeta). अन्त्ररुत्सेचनापः antra-lutsechauipath -सं० पु. सँडाधावरोधक, पचननिवारक । अन्त्रधारक कला antra-dhāraka-kala-- ( Antiseptic. ) हिं० संज्ञा स्त्री. उदरछदा कला का वह भाग जो आँत को पृष्ठवंश के साथ बाँधता है। मेसे. अन्त्रवचा antravaachā-सं० हि० स्त्री० चोबएटरी lesentery-ई० । मासारीका-१०। stat ( Sinilax glabra, Rexb.) देखो--मासारीका । अन्त्रवल्लिका antra-vallika-सं० नो. अन्त्र परिशिष्ट antra-prishishta-सं० हिं० महिपवल्ली। रा०नि० य०६। पु. उपांत्र (Appendix), बृहत् अंत्रके प्रारं- श्रन्त्रवल्ली antravalli-सं० स्त्री० सोमवल्ली भिक थैली जैसे भाग ( मंत्रपुट ) में दो तीन इज ___ लता । वै. श. 1 लम्बी एक पतली नली लगी रहती है, उस नली अन्त्रविद्रधि antravidradbi-सं० हिं० को उपांत्र या अंत्रपरिशिष्ट कहते हैं। उपांत्र स्त्री० उपांत्र प्रदाह, (Appendicitis) For Private and Personal Use Only Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir .अन्त्रवृद्धि ३५२ अन्त्रवृद्धिः अन्त्रवृद्धि antra-vriddhi-हिं० संज्ञा स्त्री अन्त्रवृद्धिः antria-vrikThih-सं० स्त्रो० ।। अंत्रांडवृद्धि, प्रांत्रवृद्धि । (Intestinal Her- ! mia, Hernia): फ्रक मिश्राई, फ़क्र मियू वी-अ०। गाँत का फ़क्र-301 प्रांत उतरना । अाँत उतरने का रोग । एक रोग जिसमें आँत का : कोई भाग ढीला होकर नाभि के नीचे उतर कर ! फोते में चला पाता है और फोता फूल जाता है, जिससे अण्डकोष में पीड़ा उत्पन्न होती है। अतएव केवल लक्षण की ओर ध्यान रखकर श्रायुवेद में इसे वृषण विकारांतर्गत मान लिया गया है । परंतु अण्डवृद्धि एक अलग रोग है जिसको डॉक्टरी में प्रॉर्काइटिस (Orchitis) अर्थात् ! अण्डमदाह कहते हैं। देखो--वृद्धि। नोट-चिकित्सा प्रणाली के ग्रंथों के । गवेषणापूर्ण सुलनात्मक अध्ययन से यह स्पष्ट रूप से ज्ञात होता है कि आयुर्वेदीय चिकित्सा ग्रंथों में वृद्धि शब्द का प्रयोग जिन प्रों में होता है प्रायः उन्हीं अर्थो में मैंगरेजी शब्द हनिया ( Hernia ) और अरबी , तत्क का होता है । यद्यपि ये तुल्यार्थक नहीं और न इनका सर्वाश में समान भावों के लिए .. उपयोग ही होता है, तोभीशल्प सामान्य भेदोंके सिवा इनमें समानता काही अधिक भाव सन्निविष्ट है। अस्तु इनका पूर्णत: समान अर्थों में प्रयोग . करना हमें उतर जान पड़ता है। पर्ण विवेचन के लिए देखिए वृद्धि। तीनों चिकित्सा प्रणाली के मत से अंत्रवृद्धि . वृद्धि रोग का केवल एक भेद मात्र है। निदान लक्षण–चानप्रकोपक श्राहार करने, .. शीतल जल में डुबकी लगाकर नहाने, मल मूत्र के वेग रोकने अथवा मल मूत्र का वेग न होते हुए बलपूर्वक उनके प्रवर्तन करने, बलवान के साथ यद्ध करने. अधिक बोझ उठाने. अत्यंत । मार्ग चलने, अङ्गों के टेढ़ा मेढ़ा चलाने इत्यादि । कारणों से तथा अन्य वातप्रकोषक कारणों द्वारा : प्रकुपित बात तुद्रांग्रीय अवयवों को विकृत (संकु. चित)कर उनको जब अपने स्थान से नीचे लेजाता| है तब वे वंक्षण की संधि में स्थित हो वहाँ गॉड के समान सूजन को प्रकट करते हैं । इसे ही अन्त्रवृद्धि कहते हैं । फिर वहाँ ग्रंथि रूप से स्थित हो कुछ काल में यह फलकोपों में प्राप्त होती है । इसकी चिकित्सा न करने से श्राध्मान, पीड़ा तथा स्तम्भयुक मुल्कवृद्धि उत्पन्न होती है। मा० नि• वृद्धिा ___ चूँ कि आंत्रवृद्धि रोग कभी तो जातज होता है और कभी सम्पादित । अस्तु, इसके हेतु भी दो प्रकार के होते हैं । अर्थात एक जातज और दूसरा संपादित | अब इनमें से प्रत्येक का पृथक पृथक् सविस्तार वर्णन किया जाता है :(1)जातज या सहज अर्थात् पैदायशी कारण (क । विटा प्रदेश में अण्वमार्ग का बंद म होना, बालकों में एड का वपण में देर से अथवा कम उतरना । (ख) उदर की दीवार तथा मांस पेशियों का जन्म से कमजोर होना और बंक्षण की नाली प्रभृति के छिद्रों का कोमल होना। (ग) प्रांत्र के बंधन अथवा उस पर की वसामय झिल्ली का अस्वाभाविक रूप से लम्बा होना भी इस रोग का हेतु है। (घ ) सहज रूप से उदर की दीवार के कति. पय मांसपेशियों के सम्मुख छिद्र या दरार का रह जाना जिनके मार्ग से प्रत्र (वा वसा) प्रभूति ऊपर को उभर आती है। उदरीय वृद्धि का प्रायः यही कारण हुश्रा करता है। (क) जन्म काल में नामि का विकृत रह जाना, जिससे नाभ्यं वृद्धि होती है। (२) संपादित हेतु (क) उदर पर चोट का लगना । (ख ) शस्त्रक्रिया करने के पश्चात् क्षत का यथार्थ रूप से परित न होना । (ग) अधिफ भार वहन, अधिक भार उठाना विशेषतः उठाकर सीधे खड़ा हो जाना या चलना, क्योंकि उक अवस्था में उदर पर जोर पड़ता है, विषमांग प्रवर्तन, खाँसने आदि चेष्टाओं से For Private and Personal Use Only Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मन्त्र-वृद्धि ३५३ - - (इन कारणों से वात प्रकुपित होने के कारण) वे छिद्र और भी बड़े हो जाते हैं, तथा उन्हीं के द्वारा काल पाकर बड़ी भैतड़ियों का (अथवा छोटी भैतदियों का भी) कुछ भाग नीचे उतर कर सरस मार्ग से वरुण संधि से होते हुए वृषणों में प्रवेश कर जाता है। ऐसी स्थिति में जब उन छिद्रों में प्राकुमन की क्रिया होती है तब उन अंसदियों में दयाव के पड़ने से अत्यन्त वेदना होती है। चिरकारी कास, अत्यन्त श्रम और चिरकारी । मलावरोध इत्यादि कारणों से भी यह रोग हो जाता है। (१) जमरस्नायु को दुर्बल या शिथिल करने वाले कारण-मेदोवृद्धि, प्रांत्रपतन रोग इत्यादि। (0) अस्पश्मरी प्रभृति के कारण अब मूत्राबरोध हो, जिससे मूत्रोत्सर्ग काल में कॉसना या पा जोर लगाना पड़े, तब भी प्रायः यह शिकायत हो जाती है। (च) गर्भावस्था में उदर की दीवार पर जोर पदकर उसके तनने से भी उदरांत्रवृद्धि की उत्पत्ति होती है। (क) उसी प्रकार वृद्धावस्था में जब सदर शिथिल होकर तोंद निकल पाता है तब उग्र कास प्रभृति से इस रोग के होने का भय होता है। (ज) स्थूल या मेदावी व्यनियों को भी यह रोग अधिक हुआ करता है। क्योंकि उदरस्थ मेदवृद्धि के कारण उदरीय अवयवों पर भार पड़ कर पेट तना रहता है, इत्यादि । वृद्धि के भाग प्रत्येक वृद्धि सम्बन्धी अधुद के तीन भाग होते हैं । यथा-(1) ग्रीवा, (२) गात्र और (३) मुख । अस्तु आँस का हिस्सा जहाँ निकलता है उसको प्रीवा और जहाँ ठहरता है उसे गात्र कहते हैं। कई बार ग्रीवा के तंग होने के कारण या ग्रीवा का मुख बंद हो जाने के कारण मंत्रवृद्धि विन्यस्त नहीं हो सकती। ४५ अंत्रवृद्धि भेद स्थानानुसार एवं विविध लक्षणों से युक्त होने के कारण अंत्रवृद्धि रोग कई प्रकार का होता है। यह। उनमें से प्रत्येक का विस्तृत वर्णम दिया जाता है : (.) वंक्षणांत्रवृद्धि-जब अस्त्रका कस्ता वंक्षण स्थान में विदीर्ण हो जाए, जिससे कोई वस्तु (अंत्र वा वसा प्रमति) उदर में से नीचे श्राकर वंक्षण अर्थात् चट्टे की मली में एक जाए, किंतु अंडकोष में न उतरे, तब उसको उक्त माम से अभिहित करते हैं। भरवी में इसे फ्रत्कुल उर्मिय्यह वा फ्रस्क फज़ी सथा अंगरेजी में म्युबोनोसील ( Bubonocele) कहते हैं। नोट--ज्ञात रहे कि वंक्षण में दो प्राकृतिक नलिया होती है-(.) पण नलिका (Inguinal canal) इस मार्ग से होकर अंर मपनो डोरी (भएरधारक रज्जु) से भण्डकोष में उतरता है । और (२) अन्वं नखिका ( Femoral canal) इसके रास्ते उरु की रगें गुजरती हैं। अस्तु जब उदर में से मन्त्र वा वसा वंसय नलिका में उतर कर उभर पाए तब उसको बंषणांत्रवृद्धि कहते हैं और यदि यह उई नलिका (जो वंक्षण के बाहर की ओर स्थित है) में उतर कर उभर पाए तो उसको ऊचात्रवृद्धि कहते हैं। अब इनमें से प्रत्येक का अलग अलग वर्णन किया जाता है। __वंक्षणांत्रवृद्धि चढेका फतक-30 1 फत्कुल उर्विय्यह-०। इंग्विनल हर्निया ( Inguinal hernia) -५० । इसके मुख्य ४ भेद हैं (1) वंक्षण सरलांवृद्धि, (२) क्षण तिर्यग् (सरल) अन्त्रवृद्धि, (३) सहर्जात्रवृद्धि और ( ४ ) कोषाकार वृद्धि । रोग की उन्नति के विचार से पुनः इनकी ये अवस्थाएँ होती हैं । अस्तु, यदि वृद्धि वंक्षण की नली के भीतर ही रहे, बाहर न निकले तो उसे अपूर्ण मन्त्रवृद्धि, अरबी में तत्क नाकिस तथा भंगरेजी में इन्कम्प्लीट हर्मिया ( Incomplete For Private and Personal Use Only Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मन्त्रद्धि । hernia) watateta (Bubono- समान इस पर भी छः परदे होते हैं। इस सरह cele) कहते हैं.। और जब वह बाहर निकल की पदिध में कौषीय धमनियों और अवधारक पाए तब उसको क्रमशः पूर्ण अन्त्रवृदिध, फ़्तक रज्जुएँ वृद्धि की प्रीया की वास और और अगर कामिल तथा कम्पलीट हर्निया ( Cmpie te पीछे की ओर स्थित मालूम होते है । वृद्धि hernia) कहते हैं। चूं कि पुरुषामें यह अण्ड- अबुदाकार गोल शकल की उपस्थमल के समीप कोष में चली जाती है। अस्तु इसको अण्डकोष स्थित होती है। वृद्धि (मुष्क वृद्धि) तक सिजन वा मोत का (ग) जातज वा पैदायशी (सहज) अंत्रवृद्धि तक और स्कोटल हर्निया ( Sctotal her __ पैदायशी फरक-3.। फरक मौलूदी-१०। nia) कहते हैं। स्त्री के शरीर में यह वंचया या कन्जेनिटल हर्निया ( Congenital her. उरुसंधि के कुछ नीचे प्रकट होती है। स्त्रियों की mia)-ई। अपेक्षा यह पुरुषों को ही हुआ करती है। इसे यह भी एक प्रकार की तिर्यग श्रृंग्रवृद्धि है जो मायुर्वेद में बन कहा गया है। इनमें से यहाँ जन्म काल अथवा जन्मके पश्चात् उपस्थित होती प्रत्येक का पृथक् पृथक् वर्णन किया जाता है है । इस में वसा वा मंत्र का भाग फ्रोतों के साथ (क) तिर्यग् वंक्षण-अंत्रवृद्धि अंडवेष्ट में उतर पाता है और उसके कोठों में घईका तिर्था तक-उ० । प्रत सुख उर्बिय्य. रहता है। इसकी थैली उन वेष्टके परदों से बनती मुन्हरिश-अ.। मॉब्लीक इंग्बीननं हर्निया | है और अंत्र अण्ड के पीछे रहती है। इस प्रकार (Oblione inguinal hernia)-ई०1. की वृद्धि की रसौली (पद) गोल और इस प्रकार की प्रांत्रवृधि वंक्षण प्रणाली उसकी ग्रीवा संकुचित होती है। यद्यपि अण्ड (Inguinal canal) में होती है, उससे वृद्धि से पृथक् होते हैं। परन्तु, उससे श्रावृत्त बाहर नहीं निकलती। लक्षण-इस प्रकार की होते है। इसके साथ अण्डकोष में जल संचित बृद्धिव में रोगी के खड़े होने या खांसने से (कुरण्ड-हाइड्रोसील ) भी होता है। संक्षण की नाली के भीतर उभार प्रतीत होता नोट-गर्भावस्था में अण्ड उदरमें उदरच्छदाहै। यदि नाली के भीतर अगुली प्रविष्ट कर कला ( परिविस्तृत कला) के पीछे और वृक्क के रोगी को खांसने की आज्ञा दे तो वासने से नीचे रहते हैं। पाँचवें मास में वृषण की गोलियाँ भगुली पर उन सृद्धि के प्राधात का बोध होता वृषणों में उतरती है। किसी किसी के मत से ५ है। इस भौति की तियंग वक्षण वृद्धि में वृद्धि या ६ मास हो जाने पर ये गुलियाँ उदर गह्वर से अण्डाकार होती है। उस पर छः परत होते हैं। वस्ति नहर में प्राती हैं, फिर सातवें मास में कौशेयी धमनियों और अण्डधारक रज्जु उक्र कमर के सामने और आठवे मास में अपने वृषण वृद्धि के पीछे तथा अण्डकोष उसके मीचे होते स्थान में उतर पड़ती हैं। जब अर८ उदर में से उतर कर अण्डकोष में आता है, तब उस प! (ख)सरल वक्षरण उदर की दीवार के मांस एवं सौनिक पाँच चढेका सीधा फत्क-उ० । प्रस्कल उर्बिट्यह कोषों के अतिरिक्र एक कोष उदरककला (Pur मुस्तकीम-ऋ० । डायरेक्ट इंम्बीनल हनिया ritoneum) का भी होता है। इसके दो (Direct inguinal heruia)-ई.। भाग होते हैं। प्रथम वह जो अण्डधारक रज्जु लक्षण-इस प्रकार की वृद्धि में आंत्र प्रभृति को अाच्छादित करता है और द्वितीय जो अण्ड दमण नलिका में से न निकल कर उसके बहि- को भावरित करता है। जन्म के बाद भण्डधारक रिषद के पीछे से निकलती हैं। इस दशा में रज्जु को आच्छादित करने वाला उदरक कला का सद्धि अत्यन्त स्थूल होती है। तिर्मम् सद्धि के भाग नष्ट हो जाता है भौर परायाला भाग For Private and Personal Use Only Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अण्डवेष्ट का निर्माण करता है। परन्तु जातज ग्रं वृद्धि में अण्डधारकरजु वाला उदरककला का भाग नष्ट नहीं होता। अतएव उदरक कला तधा अण्डवेष्ट के बीच रास्ता रह जाता है जिससे होकर उदर से वसा वा न उतर पाती ३-वृद्धावस्था में होने वाली (३) अंत्रवृद्धिांत का फस्क-उ० । फरक मिाई, फक मिश्रबी-अ० । इन्टैस्याह. नल हर्निया Intestinal hernia-1०। · यह वही प्रकार है जिसका वर्णन हो रहा है। आयुर्वेद में केवल एक इसी प्रकार की अन्त्रवृद्धि का वर्णन किया गया है । देखो-वृद्धिः । (४) सक्थि वृद्धि (ऊर्वन्त्र वृद्धि) रान का फरक-उ० । फरक फरजी-छ। फेमोरल हर्निया Femoiral hernia-ई० । ' इस प्रकार की वृद्धि में वंक्षण के बाहर ( उरु या जानु के ऊपरी भाग) की ओर उरु को नाली (Femoral Cana1) में वसा वा अंत्र बाहर को उभर पाती है। इस प्रकार का प्रत्क्र प्रायः स्त्रियों को हुआ करता है। जिस स्त्री के कई बच्चे हो गए हो उसको प्रायः यह विकार होता फोपयुक्त वृद्धि-कीसह दार फक-उ० । फरक युकस्स-१० ! इन्सिस्टेड हर्निया ( Incy. sted Hernia)-०। - यह भी एक प्रकार की जातज वृद्धि ही है जिसमें एडधारकरज वाच्छादक उदरककला का भाग एक पर्दे के कारण थैली बन जाता है। यह थैली साधारणतः अण्डवेष्ट के पीछे रहती है इस प्रकार की वृद्धि का जातज वृद्धि से निदान करना कठिन होता है। क्योंकि दोनों के लक्षण समाम होते हैं। स्थानानुसार इसके कतिपय अभ्य भेद होते है। जिनमें से प्रत्येक का यहाँ क्रमशः वर्णन किया जाता है, यथा. उदरीय वृद्धि-पेट का फरक-उ० । ... फरक बरनी,फ़रक मराकुलबार नी-अ०ा ऐल्डोमिनल fur Abdominal heruia-fo , हस प्रकार की वृद्धि में नाभि के गिर्द उदरक कला के फट जाने के कारण वसा वा अन्य . ऊपर को उभर आती है। (२) माभ्यंत्र-वृद्धि-नाफ़ का फरक-उ. फरक सुरी, फरक सुर्रती, नुतूउल्-सुर्रह -१०।। अम्बिलाइकल हर्निया Umbilical hernia, .मॉमफैलोसील Omphalocele-ई। इस प्रकार की वृद्धि में नाभिस्थल पर उद“रक कला के फट जाने के कारण वसा वा अन्न "ऊपर को उभर पाती है । इस लिए नाभि भी उभरी हुई मालूम होती है। ऐसे रोगी को भारत वर्ष में सूण्डा ( पं० में धुल ) कहते है। ... इसके तीन प्रकार है : - जन्मतः बाल्यावस्था में होने वाली, २-प्रौदावस्था में होने वाली और . लक्षण-वंक्षणके बाहरकी भोर उरुके उचं भाग में एक गोल उभार वा सूजम जान पड़ती है और खाँसते समय संक्षोभ हस्यादि लक्षण होते हैं। नोट-पूर्व यूनानी चिकित्सकों ने इस प्रकार की वृद्धि (फत्क) को भी वंक्षणस्थवृद्धि (फत्क उबिय्यह) संज्ञा से ही अभिहित किया है। परन्तु इसको ऊधस्थवृद्धि (फत्क फरजी) कहना अधिक उपयुक्त एवं उचित है। डॉक्टरी में इसको फेमरलसील (Femoralcele) भी कहते हैं। (५) अंडकोष वृद्धि (अंत्रांडवृद्धि - क्रो ते का फ़त्क-उ० । फत्क सफ्नी, क्रोल, उवह , कर्य-अ०। स्क्रोटल हर्निया (Serotal hernia-ई..।। . इस प्रकार की वृद्धि में अंडकोष में मंत्र उतर भाता है। नोट-अंडकोष में पानी उत्तरने को कुरण्ड Hydrocele (मूत्रज वृद्धि) और वायु .. उतरने को वातज वृद्धि Physocele कहते हैं। देखो-वृद्धिः (६ ) गुह्यन्द्रिक वृद्धि-शर्मगाह की For Private and Personal Use Only Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रत्रवृद्धि मन्यवृद्धि तक-उ० 1 फन्नुल इस्तहियाई-अ०। प्युडेराहुल हर्निया Pudendal hernia इस प्रकार की वृद्धि में वसा वा अन्धका कोई भाग गुह्यन्द्रिय की भोर उतर पाता अर्थात् उभर आता है। (.) जठरस्थ वृद्धि-वेण्ट्रल हर्निया . Ventral hernia-इं० । __ यह वृद्धि नाभि के ऊपर होती है। दखने वाली वृद्धि वपने पाला फ्रतक-उ०। प्रतक गिमाजी -अ०। रेज्युसिबल हर्निया Reducible hernia-इं। इस प्रकारकी वृद्धि चित लेटने पर पाप ही या हाथ से उसको (प्रांत्रवृद्धि को) विन्यस्त करने पर दूर हो जाती है, केवल उस समय के जब प्रीवा का मुख बंद हो या तंग ! खाँसने या खदे होनेकी दशा में वह फिर प्रकट होती है। रोगी के खासते • समय यदि शोथस्थल पर हाथ रक्खा जाए तो बह फैलता हुश्रा मालूम होता है। खाँसने से शोथ पर एक तरंग सी मालूम होती है। यह शोथ उदर की दीवार से जुड़ा हुआ प्रसोत होता पाशित वृद्धि में परिणत होकर अशुभ लक्षणों को उत्पन्न कर देती है। लक्षण-उदर में शूल, चूसनवत् पांचा, प्राध्मान, मलबद्धता इत्यादि नानाप्रकार के उपदब खड़े हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में. उस पैंतही को ऊपर स्वस्थान में पहुँचाने का प्रारम्भिक उपाय तो करना ही चाहिए, किन्तु साथ ही साथ उसमें शोथ न आने पाए इसका भी उपाय करते रहे। रोगी को अल्पाहार करना तथा परे रहना चाहिए । इधर उधर घूमना और खा रहना हानिकर है। शोथयुक्त वृद्धि सूजा हुमा प्रत्क, मुत्वम तक-उ० । तक यर्मी-१० । इन्फ्लेमा हनिया Infla. Imed heritna-इं। इस प्रकार की वृद्धि में उतरी हुई वस्तु (प्रांत प्रभृति ) में शोथ हो जाता है। प्रस्तु, विकारी स्थल पर सूजन होती और उसमें पीला, उष्णता तथा रतवर्णता हो जाती है और उदरक कक्षा के प्रदाह के लक्षण भी प्रारम्भ हो जाते हैं। सजन के बाद अवरोध के लक्षण उत्पन होजाते है। तीव्र वेदना होती और प्रायः न्यूनाधिक ज्वर, धमन, अजीर्थ मलबद्धतादि लक्षण हो जाते हैं। इसमें अन्य भाग विन्यस्त नहीं हो सकता है। अवरोधजन्य वृद्धि सुबह वाला (दार) प्रक-१० । फ्रक मुही -सका इन्कासिरेटेड हर्निया Incarcerated hernia-इं०। यह वृद्धि की एक अवस्था है जिसमें उतरी हुई वस्तु (प्रांत प्रभृति) कोष की प्रीवा में किसी प्रकारका अवरोध होने अथवा किसी अन्य कारण से उसका विन्यास नहीं हो सकता । उस में प्रत्यंत वेदना होती है। कभी कभी तीन उदापत्त के लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं। इस प्रकार की वृद्धि वृद्ध व्यक्रियों को हो जाया करती है। पाशित वा अवरुद् । मंत्रवृद्धि फँसा हुमा फ्रतक-उ० । मृतक इनितनाकी -१० । स्टैलेटेर हर्निया Strangulated hernja-ई । अंग्रवृद्धि होने की दशामें शोथ गोल, कोमल, और नमनीय( लचकदार ) होता है । हर्निया को विन्यस्त करने पर यदि भौत होगी तो गरगर शब्द करेगी और मटके के साथ उदर गहर के भीतर प्रविष्ट होगी। मेदवृद्धि होने पर उभार चपटा, ढीला और विषम होता है और विन्यस्त करने पर धीरे धीरे उदर में प्रविष्ट होता है।। न बने वालो वृद्धि न दबने वाला प्रतक-उ० । तत्क पासी - हरक्युसिबल हर्निया Irreducible bernia-९०। इस प्रकार की वृद्धि में उत्तरी हुई वस्तु (मंत्र प्रभृति) दबाने से अपनी जगह पर लौट नहीं जाती, अपितु दिन दिन बढ़कर विविध प्रकार के दुःखों का कारण होती है। इस प्रकार की वृद्धि - .. For Private and Personal Use Only Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अम्बृद्ध ३५७ इस प्रकार की वृद्धि में उतरी हुई वस्तु ( श्रांत्र प्रभृति ) शोधयुक्र होकर छिद्रों में पूर्णतथा फँस जाती है । वह (अन्तड़ी ) ऊपर तो नहीं जाती, प्रत्युत उसका कुछ भाग, वंक्षणा संधि के अभ्यम्तरिक छिद्रों में दृढ़ता के साथ अटक जाता है तथा अत्यन्त वेदना को करता है। कोई इसी को "नया बद" कहते हैं। यह अंत्रवृद्धि की वह एक तीसरी अवस्था है जिसकी उपेक्षा करने से मृत्यु अवश्यम्भावी होती है। लक्षण - मलावरोध तथा उदराध्मानवत् शूल होता और बारबार दस्तकी हाजत होती है। किन्तु दस्त नहीं उतरता या बहुत की कम होता है । पुनः वमन आते हैं । पहिले श्रामाशयस्थित सब आहार मुख द्वारा बाहर निकल पड़ता है । फिर अस्त तथा तिन ऐसा दिस निकलता है, फिर कुछ श्वेत पदार्थ ( कदाचित् यह रस ही निकलता हो ) निकलता है । बाद में मल के समान दुर्गंधित पदार्थ निकलता है-- श्रर्थात् पुरीषावरोध जन्य उदावर्त के प्रायः सब लक्षण इसमें दिखाई पढ़ते हैं । यथा— आटोपशूली परिकर्तिका व संगः पुरीषस्य तथावातः । पुरीष मास्यादथवा निरेति पुरीष वेगेऽभिहते नरस्य || तदन्तर वृषण वा वंक्षण स्थित शोथ पत्थर के समान कठोर हो जाता है; किन्तु धीरे धीरे बढ़ता ही जाता है। रोगी का चेहरा काला पड़ जाता है । वमन बन्द नहीं होते, रोगी को किसी प्रकार चैन नहीं पढ़ता, वह निराश हो जाता है । नादी की गति मंद पर रह रह के चपल होती है । हिका की भी प्रबलता होती 1 कुछ काल पश्चात् वह सूजन या गाँठ कुछ श्याम वर्ण की होती है, वेदना कुछ शमन हुई सी जान पड़ती है, रोगी की जीवनाशा कुछ पद्मवित्त सी होती है कि तुरन्त ही यमराज उसका समूल नाश कर देते हैं । अन्त्रवृद्धि की असाध्यता यह अंत्रवृद्धि ( उपखचणात्मक अंडवृद्धि ) जिसमें अफरा, पीड़ा और जड़ता हो; उसकी Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अम्वृद्धि चिकित्सा न करने पर यदि अंडकोष को दबाने पर उसमें की दाँतों समेत ऊपर को चढ़ जाए और छोड़ने पर नीचे उतर कर घण्डकोप को फुला दे और उसमें उक्त सभी बात के लक्षण मिलते हीं तो वह यंत्रवृद्धि असाध्य है । जैसा कि लिखा है- उपेक्ष्यमाणस्य च मुष्कवृद्धिमाध्मान रुक् स्तम्भवतीं वायुः । प्रपीडितोऽन्तः स्वनबान् प्रयाति प्रध्यापयन्नेति पुनश्च मुक्तः ॥ अन्वृद्धिर साध्योऽयं वातवृद्धिसमाकृति | मा० नि० । पर यह बात ध्यान रखने योग्य है कि श्रायुर्वेदीय मतानुसार यंत्र जवृद्धि और मूत्रजवृद्धि दोनों वात के ही कारण से होती हैं । केवल उत्पति के हेतु पृथक् पृथक् हैं। अर्थात् मुत्र संधारणादि से कुपित हुआ वात मूत्रज वृद्धि करता है, और भार हरण, विषमग प्रव र्शनादि से कुपित वायु अंग्रज वृद्धि ( Intestital Hernia ) को करता है । जैसा कि लिखा है मूत्रोत्रजावप्य निनादुद्धेतुभेदस्तु केवलम् । वृद्धि में वृषणांतर्गत अण्ड या ग्रंथि में किसी प्रकार शोथ या प्रदाह प्रभृति नहीं होता श्रीर जो वेदना होती है, वह सदैव नहीं होती; किंतु जब होती है तब बहुत असह्य होती है । चिकित्सा श्रायुर्वेदीय मतानुसार श्रतें जब तक अंडकोष में न उतरी हो तब तक वात वृद्धि के सरश चिकित्सा करें । यथाश्रहेतुके । फलकोशम सम्प्राप्त चिकित्सा वात वृधिवत् । घा० कि० अ० १३ / यदि रोगी को कब्जियत रहती हो तो उसकी जठराग्नि दीपन करने के लिए वस्तिकर्म के द्वारा नारायण सैल का प्रयोग करें। अंत्रवृद्धिमाग्ने वस्तिभिः समुपाचरेत् । तैलंनारायणायोज्यं पानाभ्यंजन वस्तिभिः ॥ tet में श्रौतों के उतर आने की दशा में निम्नांकित उपचार करें। For Private and Personal Use Only Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अन्धवृद्धि अवधि: सुकुमार नामक रसायन वाग्भट्टोन तथा गंधर्वहस्त तैल इस रोग में उत्तम प्रमाणित होते हैं । अस्तु इनमें से किसी एक का नियमपूर्वक उपयोग करने से लाभ होता है। __ गोमूत्रयोग-गोमूत्र ॥ से २ तो० में | गूगल (१ से ३ मा०) अथवा एररड तेल १ से १॥ तो० मिलाकर नित्य सवेरे पान करने से अंथद्धि का नाश होता है। यह योग वातज घृद्धि पर भी अच्छा काम देता है । रास्नादि क्वाथरास्ना, गिलोय, खिरेटी, मुलहटी, गोखरू, और एरण्ड की जड़, इनको समभाग लेकर, यवफुट चूर्ण करलें । नित्य प्रातः २ से ४ तो० तक चूर्ण लेकर उसमें ३२ से ६४ तो० तक जल डालकर मन्दाग्नि से प्रौटाएँ । जय ४ तो० या ८ तो० जल शेष रहे तव उतार कर छान लें। फिर उस में एरण्ड तैल १ या २ तो० डालकर पान करने से.(. या १४ दिन तक) अवश्य लाभ होता है । यथा शाईधररास्नामृतावलायष्टी गोकराटे रण्डजः शृतः।। पडतैल संयुक्तो वृद्धिमंत्र भवांजयेत् ॥ । ___ लाख कचनार के बीज, सोंठ, देवदारु, गेरू, | कुदरू, इनको काँजी में पीस कर अण्डकोश पर गरम गरम प्रलेप करने से अंग्रवृद्धि दूर होती है. यथालाता कांचनका वीजं शुठी दारु गैरिकम् ।। कुन्दरू कांजिकैलेंप्यमुष्णमत्र विवर्द्धने ।। (योगचिन्तामणिः) पीपल, जीरा, कूर, बेर सुखाया हुअा, गोबर, । इनको काँजी में मिला कर लेप करने से भी उपरोक्न परिणाम होता है। यथापिप्पली औरक कुष्ठं बदरं शुष्क गोमयम्। कांजिकेन प्रलेपैरन्प्रवृद्धि विनाशनः ॥ ( १० नि०र०) यालकों की अंत्रवृद्धि पर केवल पलाश की . चाल व कादा पिलाने से ही लाभ होता है ।। यथाश्रन्त्रवृद्धिशममाय किंशुकत्वकषायमपि । पाययेच्छिशुम् ॥ (वैध मनोरमा) करंज के बीजों को सिलपर पीसकर उसमें थोड़ा श्रण्डी का तेल मिलाएँ । फिर इस मिश्रण को तम्याक के पत्ते पर गाहा गाढ़ा लेप कर वह पत्ता वृषण पर रात्रि के समय बाँध देने से भी अंत्रवृद्धि में लाभ होता है। छोटे बालकों की अंग्रवृद्धि या कुरण्टक रोग पर इन्द्रायन अच्छा काम देता है । यथाइन्द्रवारुणिका मूलं तैलं पुष्करजं तथा । समर्थ च स गोदुग्धं पिवेजंतुः कुरण्ट के ॥ (वृ०नि० रत्नाकर) एलोपैथी मतानुसार-- प्रायः सभी प्रकार के अंग्रवृद्धि रोग दुःसाध्य एवं अत्यंत भयावह होते हैं । अकस्मात् अवरोध उत्पन्न होने से शोथ होकर यह रोगी के प्राण नाश का कारण हो सकता है, अस्तु इसके उचित उपचार में विलम्ब व पालस्य करना यथार्थ नहीं। यद्यपि वृषणों में उतर आई हुई अँतीके भाग को फिर से पूर्ववत् दाबकर ऊपर चढ़ाना अति कठिन कार्य है तथापि उष्ण जल में बैठ कर प्र. थवा वृषणों पर बर्फ़ आदि का उपयोग कर छिद्रों के मार्ग में पाशवत फँसी हुई अंतढ़ी के बंधन को ढीला किया जा सकता है तथा अंतड़ी के उस भाग को कुछ संकुचित कर, युक्रिपूर्वक ऊपर को चढ़ाया भी जा सकता है। परंतु यदि उपर्युस्लि . खित बंधन का दबाव अधिक जोर का हो और चिकित्सा करने में बहुत देर हो गई हो तो शस्त्र क्रिया करना अधिक उपादेय है। यद्यपि इसकी वास्तविक चिकित्सा शल्य ही है, जो केवल बच्चों और युवानों पर ही सफलीभूत होती है; तो भी ऐसा न हो सकने पर इसका याप्योपचार ट्रस (Truss) अर्थात् पट्टी लगाना है। प्रस्तु, विविध प्रकार की अंत्रवृद्धि के लिए माना भाँतिकी पट्टियों डॉक्टरी औषध विक्रेताओंकी दूकानों से मिल सकती हैं। पट्टी ' चाहे किसी प्रकार अथवा किसी भी वस्त से निर्मित हो उसकी विशेषता यह है कि उसके लगाने से न तो स्वचा को किसी प्रकार की हानि पहुँचे न पृद्धि For Private and Personal Use Only Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवृद्धि उतरने ही पाए और न उससे शारीरिक चेष्टा में किसी प्रकारको बाधा उपस्थित हो और न उसके निरतर उपयोगसे छिद्रका प्रसार ही हो। ठीक मापकी पेटी यदि किसी अन्य स्थान से मैंगाना हो तो वृद्धि भेद और यथार्थ माप लिखना चाहिए। ऊमन्त्रवृद्धि में माप लेने का नियम यह है- । पेड़ की अस्थि की ऊर्च धारा से लगभग १ इंच . नीचे वृद्धि के छिद्र तक पेश की परिधि को माप लें । इस नापके अनुसार पेटी मैंगवानी चाहिए। पेटी प्रत्येक पुरुष की मोटाई पर निर्भर है। पेटी से बद्धावस्था में स्थायी प्राराम नहीं होता जब तक ट्रस (पेटी) लगी रहे तब तक भाँत का हिस्सा नहीं उतरता, जब वहाँ ये न लगाई। जाएँ तो फिर आँत का हिस्सा उतर पाता है। परंतु यदि बाल्य एवं युवावस्था में प्रारम्भ से ही निरंतर १-२ वर्ष तक पेटी लगी रहे और उतने कालमें एक बार भी प्राँतका भाग न उतरा होतो वह मार्ग सदैव के लिए बंद होजाता है एवं रोगी स्वार य लाभ करता है। तो भी स्वस्थ होजाने के बाद भी रोगी को वर्ष दो वर्ष तक पेटी लगाते रहना चाहिए, जिसमें रोग के पुनराक्रमण की शंका न रहे। पेटी लगाने से यपि प्रारम्भमें किञ्जित् कष्ट अनुभव होता है। पर दो चार दिवस में ही वह दर हो जाता है । रात्रि में सोते समय पेटी को उतार देना चाहिए शेष सभी काल में उसको लगाए रहना चाहिए । प्रातः काल शय्या से उठने से प्रथम उसे लगा लेना चाहिए जिसमें वृद्धि के बार बार बाहर आने से उसका छिद्र बड़ा न हो जाए। अन्यथा पेटी लगाने का लाभ नष्ट होता रहेगा । पेटी को गद्दी अर्थात् पिचु भाग को स्वच्छ एवं शुष्क रखना चाहिए । उस पर कभी कभी वड़िया मिट्टी वा जिंक श्राक्साइड ( याद भस्म) अघचूर्णित कर दिया करें जिसमें नश तथा भार से वहाँ की स्वचा निर्बल एवं पतयुक्क न हो जाए । टिप्पणी यह उपक उपाय विम्यस्त होने वाली अन्न- मन्त्रवृद्धि वधि के लिए है। अस्तु, यह स्मरण रहे कि पेटी लगाने से पूर्व रोगी को उसान लिटाने और यँग सिकोड़ने से श्राँत वा परिविस्तृत कला का प्राया हुअा भाग स्वयमेव यथा स्थान चली जाता है। इस प्रकार उनको विन्यस्त करके फिर पेटी लगाएँ । यदि इस प्रकार वे यथा स्थान प्रविष्ट न हों तो वृद्धि को वाम हस्त की उँगलियों से पका कर दाहिने हाथ से उनको धीरे धीरे भीतर प्रविष्ट करें। किंतु यह स्मरण रखें कि जो भाग सबसे पीछे उतरा. हो वह सबसे पहिले भीतर जाए यदि इस प्रकार भी सफलता न हो तो शोरोफॉर्म सुंघाकर यह क्रिया करें। इस भाँति पेशियों को शिथिल कर हर्निया भीतर प्रविष्ट की जा सकती है। ___ यदि वृद्धि विन्यस्त न होने योग्य ( न दबने वाली अर्थात् यथास्थान न लौट जाने योग्य) हो तो पेटी का पिचुभाग वा गही ऐसी हो जो उसकी पूर्ण रक्षा कर सके और उस पर किसी प्रकार का भार न पड़े। इस प्रकार की वृद्धि में शोथ हो जाने पर रोगी को सुखपूर्वक लिटाए रखें, किसी प्रकार की गति न करने दे । . उसकी जानु के नीचे एक बड़ा सा तकिया रखें, जिसमें हनिया का छिद्र ढीला होकर वेदना कम हो जाए । वसा वा रबड़ की थैली में बर्फ भरकर शोध युक्र स्थान पर रखें और प्राध श्राध घंटा पश्चात् वृद्धि को धीरे धीरे नीचे और पीछे को श्याएँ । ऐसा करने से प्रायः हर्निया अपने स्थान पर चली जाती है और रोगी के प्राण बच जाते है । वेदना हरणार्थ मॉफी ( अहिफेनीन ) और पेट्रोपीन (धत्तूरीन ) का स्वस्थ अन्तःक्षेप करें, अथवा एक एक ग्रेन अहिफेन प्राध आध घंटा के अन्तर से तीन चार बार दें। परन्तु, स्वाने को कुछ न दें और विरेचन किसी दशा में न दें। २४ घंटे हर्निया के फैंसे रहने पर फिर उसमें शोथ होकर रोगी के प्राणांत हो जाने की आशंका होती है। प्रस्तु, यदि उसमें अवरोध प्रभृति हो - तो तत्काल बस्तिक्रिया करनी चाहिए। तदनन्तर उस पर बर्फ लगाना चाहिए । For Private and Personal Use Only Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अन्भवेल www.kobatirth.org ३६० नोट- अंत्रवृद्धि रोगी को बहुत इहतियात से विरेचन लेना चाहिए। यथासम्भव उसका न लेनाही उतम है । मलावरोध होने की दशा में उष्ण जल द्वारा वस्ति लेनी चाहिए । वृद्धि के लिए डॉक्टरी चिकित्सा में प्रयुक्त होने वाली श्रमिश्रित श्रोषधे टार इमेटिक, झोरोफॉर्म, ईथर, श्रोपियम् ( अहिफेन ), लम्बाई एसीटास, टबेकम् ( तम्बाकू ), उच्य स्नान, रक्रमोक्षण और बर्फ । अत्रवेल antra-vela सं० एक हिन्दी दवा है (An indigenous drug.) अन्यश्छदश कला antrashchhada kalaहिं० संज्ञा स्त्री० श्रच्छदा कला, श्रत्रावरण, जरावरण । श्रमेण्टम् Omentum, एपिजून Epiploon, कॉल Caul इं० स. प्र.० वाशीमहे पियह, चार पिय-फा० । नोट- कॉल उस कल्ली को भी कहते हैं जो जन्ममकाल में शिशु के शिर पर लिपटी हुई निकलती है । वस्तुतः यह वयावरण का भाग है। एक उदर की वसामय मिली जो श्रोतों पर फैली होती है । वास्तव में यह उदरच्छदा कला का ही एक भाग है जो उसके नीचे श्रामाशयिक द्वार से कोलून तक परिस्तृत होता है । इसके दो भाग हैं. (1) बृहद् श्रच्छदा कला ( स. कबीर ) जो श्रामाशय के बृहन्मुख से प्रारंभ होकर कोलून तक जाती है इसको अँगरेजी में ग्रेट श्रमेण्टम् ( Great omentum ) कहते हैं । (२) सुत्र अच्छा कला ( स. सुगीर ) जो आमाशय के प्रमुख से प्रारम्भ होकर यकृत तक जाती है । श्रंगरेज़ी में इसको लेसर श्रमेण्टम् ( Lesser omentum ) कहते हैं । अन्त्रश्छदकला छेदन antrashchhadá-kaláchhedana - हिं० संज्ञा पु ं० [अश्कदा कता serene : का काटना | कृत्स्प. वे श्र० । ग्रॅमेरा टेक्टॉमी Omontectomy-० । मन्त्रश्छदाकला प्रदाह antrashchhadá-kala-pradah - हिं० संज्ञा पुं० अदा कला (श्रतों को आच्छादित करने वाली किसी ) की सूजन । श्रमेण्टाइटिस Omentitis '० । इतिहास. यं वर्म सर्व- ६० । अन्त्रश्छदिक वृद्धि antrashchhadikavridhi - हिं० संज्ञा स्त्री० मंत्रच्छदा कला के किसी भाग का उत्तर श्राना । एपिठोसीन Epi plocele ई० फ़क स ब ० । अन्त्र शोधक antrashodhaka - हिं० वि० पु० आंत्र पचननिवारक । दाफ्रिका तनु ने श्रञ्जा–अ०। Intestinal antiseptics - ई० । श्रत्रस्त दयों में प्रभिषव ( खमीर ) अथवा साँध पैदा न हो या उनमें सबे हुए द्रव्यों को अभिशोषित होने से रोकें इस हेतु कभी कभी पचननिवारक ( Antiseptic ) औषधों का उपयोग होता है । अस्तु समस्त श्रामाशय - पचननिवारक ( Gastie antiseptics) तथा दुग्धाम्ल (Lactiacid) और सैनोल ( Salol) और केलोमेल इस प्रयोजन के लिए व्योहार किए जाते हैं। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नोट- श्रांत्रस्थ द्रव्यों का ( जब कि वे शरीरमें होते हैं) कीट रहित (Disinfectant) करना सम्भव है या नहीं ? यह बात अब तक संदेहपूर्ण है । यदि यह सम्भव हो तो यह लाभ प्रद भी है या नहीं ? क्यों कि श्रत्र के भातर सूक्ष्माणु विद्यमान होते हैं जो सामान्य अवस्था में प्रांत्र की पाचनक्रिया के सहायक होते हैं। पर तो भी ऐसी श्रौषधों के प्रयोग का यत्न किया जा रहा है। और उसमें किसी सीमा तक सफलता भी हुई है। श्रन्त्रशोवान्तकः antrashoshántakah-सं० पुं० नीबू, सहिजन, दुग्धवशरी (चमार दूधी ) चिरायता, गिलोय, शतावरी, श्रर्जुनमूल, त्रिफला, विदारीकंद, बला, असगंध, मुसली, वायविडंग इनके रस द्वारा कांत लोह में पृथक् पृथक् कई For Private and Personal Use Only Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org चन्दा शिरा वार भावना देकर वाराहपुट की चाँच दें। पुनः इस भस्म के समान सीपभस्म, अभ्रक, सुवर्ण, ताम्र तथा लोह भस्म लें और खपरिया कांतलौह से श्राधा भाग मिलाकर उपयुक्र द्रव्यों के काथ तथा विकुवार के रस की भावना देकर रख लें । मात्रा - ३ रत्ती । गुण-यह श्रंत्रशोष, फुफ्फुसदाह, जीर्ण ज्वर, धातुक्षय, राजयच्या, श्वास, गुल्म, अरुचि, प्रति सार, संग्रहणी को नष्ट करता और बल की वृद्धि करता है । र० यो० सा० । अन्त्रश्छदा शिरा antrashchhadā-shirá -सं० स्त्री० अंत्र से अशुद्ध रक को ले जाने वाली शिरा । श्रन्त्रसंकोचक antra-sankochaka - हिं० वि० पु० इन्टेस्टाइनल पेस्ट्रिओट्स (Intestinal astringents ) वे औषधे जो श्रांत्र के कृमिवत् श्राकू चन को शिथिल एवं उनके रसों को कम करती है । संधि antra-sandhi-हिं० स्त्री० दोनों श्रतों का जोड़ | I हानिकर antra-háni-kara-हिं० देखो - मुज़िरात अश्रू । अक्षय antra-kshaya - हिं० संज्ञा पुं० ( Intestinal Tuberculosis ) यह ! रोग एक प्रकार के यक्ष्मा कीट के अन्त्र में ! प्रवेश करने से होता है । देखो - राजयक्ष्मा | श्रन्त्रांडवृद्धि antránda-vriddhi - हिं० संज्ञा स्त्री० [सं० ] (Scrotal hernia) देखोश्रन्वृद्धि । श्राभ्यन्तर कृमि | देखो - कृमिः । अन्त्रादः antrádah - सं० पु० ( Internal worm ) मा० नि० । शार्ङ्ग ७ श्र० । I श्रन्त्राधः धमनी antradhah-dhamaniहिं० संज्ञा स्त्री० ( Inferior mesen. teric artery. ). वह धमनी जो अंधारक कला से नीचे स्थित है । अन्त्राधः शिरा antradhah-shirá-हिं० संज्ञा स्त्री० ( Inferior mesenteric vein). वह शिरा जो श्रन्त्रधारक कला से नीचे स्थित है । ३६१ थेमिक एसिड अन्त्रात्रः पेशी antradhah-poshi-सं० स्त्री० ( Inferior mesenteric muscle ) वह पेशी जो अन्धारक कलासे नीचे स्थित है | श्रन्त्रान्त अन्त्रसंधि antránta-antra-sa -सं० स्त्री० adhi - हिं० स्त्री० ( Curcum ) दोनों श्रतों का जोड़ | देखो - श्रन्त्र पुर । अन्त्रालजी antrálaji ( मा० ) अन्धालजी andhralaji ( सु० ) वात श्लेष्म जन्य क्षुद्ररोग विशेष लक्षण - वह फुन्सी जो कठिन, मुख रहित, ऊँची, गोल, मण्डलाकार तथा श्रपपीच ( राध ) थुक हो । यह कफ और बात के प्रकोप से होती है। मा० नि० क्षुद्ररो० | श्रन्त्री antri-सं० स्त्री० वृद्धदारक लता, वृद्धदारु, विधाय । ( See - Vidhara ) फॉ० ई० २ भा० ॥ श्र० दो० । -हिं० संज्ञा स्त्री० श्रन्त्र, श्रत, अँतड़ी | (Intestine. ) श्रन्त्रो धमनी antrordhva-dhamani - हिं० संज्ञा स्त्री० ( Superior mesenteric artery. ) वह धमनी जो अन्नधारक कला से ऊपर स्थित है। • Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir त्रोर्ध्व शिरा antrordhva shirá - सं० स्त्री० ( Superior mesenteric vein ) वह शिरा जो अवधारक कला से ऊपर स्थित है । अन्थकम् anthakam - स० ली० अङ्गार | (A firebrand embers. ) रत्ना० । अन्थाइलिस anthyilis - यु० रुद्रवन्ती, रुद Fat-f (Cressa cretica, Linn, ) फा० ई० २ भा० | देखो - रुदन्तिका ( न्ती ) । अन्थोनल anthinarlú - ता० गुले अब्बास - फा०, इं० बा० । ( Mirabilis jalapa, Linn) फा० ई० ३ भा० । अन्धेमिक एसिड anthemic Acid - इं० बाबूने का सत, बाबूने का तेजाब | इसके सूचिकाकार वर्णरहित रवे होते हैं । गंध-बाबूना के समान ग्राह्य । स्वाद - अत्यन्त कड़ ुआ। यह जल, मसार, ईथर एवं क्रोरोफार्म में घुल जाता है } इसको वर्नर ( Werner ) महोदय ने सन् For Private and Personal Use Only Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अन्येमिस श्रान्सिस श्रन्द्रनी १८६७ ई० में याब्रूना पुष्प से विशेष प्रक्रिया | (Kino) दम्बुल्ल अखबैन-अ०) हीरादोखी-हि। द्वारा प्रस्तुत किया था | फा० इं० २ भ..।। (३) Red sandal iwood. सन्दल सुर्ख, देखो-बाचूना। रक्तचन्दन 1 ई० हे. गा०। अन्थेमिस श्रान्सिस anthemis Arvens. अन्दरूमाखुस andarumakhus-१० (A1is, Linin.)-ले. बाबूनह, शत्रुतुल-कार ।। droimachus) हकीम बुकरात के बाद उनके फा० इं०२ भा० । देखो-बाबूना । समकालीन एक प्रसिद्ध युनानी हकीम अन्धेमिस किश्रा anthemis chia, Linn. हुए हैं। यह यूनान के महाराजाधिराज के -ले० बाबूनह. भेद । फा. इं०२ भा०।। निजी चिकित्सक ( राजवैद्य ) थे। इन्हीं अन्थेमिस कोबिलिस anthemis mobilis-ले. ने एक अगद निर्मित किया था जो "अन्दबाबूनह , शज्रतुल-काफ़र । फा० इ०२ भा० । रूमानी" नाम से प्रसिद्ध है। या नब्वे अन्थेमांडोन anthemidin-ई० बायूनह के | ६० वर्ष को अवस्था में स्वर्गवासी हुए। तेजाब को मद्यसार में घोलने पर जो पदार्थ | अन्दलीय aa1ndali ba-अ० बुलबुल, एक पक्षी तलस्थायी होजाता है उसमें एक प्रकार का ! विशेष। ( Nightingale.)। स्वाद रहित. रवायत सस्व होता है, जिसे 'अन्थे । अन्दलस andalus-अ०हस्पानिया । स्पेन Spमीडीन' कहते हैं। यह मद्यसार, ईथर और कोरो. ain-इं। अरब के लोग स्पेन (Spain) फॉर्म में अविलेय होता है, किन्तु ऐसीटिक को अन्दलुस कहते हैं। अन्दलसियह वस्तुतः एसिड (सिरकाम्ल ) में विलीन हो जाता है। स्पेन का एक प्रान्त था, जिसका खलीका बलीद फा०ई०२ भा०। के समय में ज़याद के पुत्र तारत ने सन् ७१.ई. में सर्व प्रथम विजय किया था। इसी सम्बन्ध से अन्थेमून anthemon-यु० बाबून भेद । फा० | अरब लोग स्पेन को अन्दलुस कहते हैं। इस ई० २ भा०। देश में बड़े बड़े नामवर हकीम वा चिकित्सक अन्थेरिकम ल्यबरोसम anthericum Tub-i उत्पन्न हुए। इनमें से किसी किसी का परिचय ___erosum, Roxb.-ले० खुन्सा -य०,फा०, इस कोष में दिया जाएगा। चूँकि "स्पेन" यूरोप सु० । (Asphodel) फा० ई० ३ भा० । महाद्वीप में स्थित है; अतः इस मुल्क के हकीमों अ (ऐ)न्थेल्मिएिट क anthelmintic ई० ।। एवं वैद्यों को पश्चिमी हकीम भी कहते हैं। कृमिघ्न, कृमिहर, कृमिनाशक ! (Medicine) , अान्दाय andah-या. व्रण चिह, क्षती के दाग । of use against intestimal wor अन्दाम tam-अ० शरीर; अवयव; रूप । ms. देख, -ऋमिन । (Body, Orga11. ) (६) न्यासिफैलस केडम्बा int: 20phat. अन्दाम दाना sittin-lina-फा. तर्जनी Is indanmhil, Mit.II.K, B". कदम्ब, अंगलो। फोर फिगर For Finge1-ई० । कदम । ई० म०प्लां०1 - अन्दाम पेश andan-nashaa. -फा० श्र(ए)थ्रिस्कस सेरीफोलिश्रम् asthriscus : अन्दाम शर्म and in-sharma | श्री गृह्य cerefoliuny, Iloffm.-ले० । अत्रीलाल भाग, भग। अन्दामनिहानी, शर्मगाहे मई या --ई० बा०1 फा० ई० २ भा०। देखो -- औरत-अ०। ( Pudendum, Vulva). प्रातरोलाल। अन्दिका andiki-सं० स्त्रो० चुल्लि । अ०टी०। अन्धक्स anthrax-ई० देखो--ऐन्ध क्स। See-Chulli. अन्दम andam-अ० (1) पतंग (Chesa- अन्दनी andurani-सम्हाल , निगुण्डी। (Vitex Ipinia sappan, Linn.) अकम । (२): Negundo.)। ई. है० गा०। For Private and Personal Use Only Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रान्धः अन्धसुदर्शक अञ्जनम् अन्य hिah-सं० त्रि. (१) नेत्रहीन, के स्तर को नहीं पीवे) तथा अतिसार, खाँसी, अंधा ( Biind)। -मो० (२) तिमिर, : हिचकी, वमन और ज्वर इनसे पीड़ित हो, वर्ण अंधकार ( Darkness.) । मे० धद्विक । । बिगड़ जाए, सोते समय नीचे को मुख करके (३) (धम् ) अत्र ग० नि० २०२०।। सोए, स्त्रट्टी खट्टी गंध श्राए, ऐसे बालकको अध (४) जल ( Vitth.' ) । भग्नः । (५) पूनना से पीड़ित कहते है। भात, श्रोदन, भन (Boiled rice:)। चिकित्सा--तिक द्रुम अर्थात् निम्बादि तिक वृ०नि० न० कृ०व०। रमयुक वृक्षों के पत्र से सिद्ध किए हुए जल से अन्धक: andhukah-सं०पू० तुम्वुक, धनियाँ। स्नान, सुरादि साधित तैल तथा पिप्पली अादि (मैगली) । (Xanthoxylonala tum)! द्वारा साधित घृत के उपयोग द्वारा उपयुक भा०पू०१आ० ह०व०।। सम्पूर्ण विकार शमन होते हैं। सु० उ० २७ । अन्यकाकः anttha-lakah-स. पु. (A पु० (AI ३३ अ०। bird ) काकाकार पक्षी । पानकौड़ि-बं० । अन्धमूषा andha-musha-सं० स्त्री० औषध भेदाजुया-मत्रिका । पाकार्थ यन्त्र विशेष । इसे वज्रमूषा भी अन्धकारः andha-kārah-सं० पु. अँधेरा, कहते हैं। श्रालोकामात्र ( Darkness)। इसके निम्न विधि-दो भाग तिनकों की भस्म, एक भाग पर्यायवाची शब्द हैं, जैसे-ध्वान्तं, तमिस्र, बाँबी की मिट्टी, एक भाग लोह किट्ट, एक भाग तिमिरं, तमः (अ.), भूच्छायं (रा०),अंधतमासं सफ़ेद पत्थर का चूरा और कुछ मनुष्य के बाल प्रांधतामसं, सन्तमम, अवतमसं । गुण- डालें। सब को एकत्र कर बकरी के दूध में भय, दृष्टि, तेज तथा अवरोधकारक और रोग- श्रौटा दो पहर पर्यन्त अच्छी तरह धोटें, पीछे जनक । राज०। उस मिट्टी का गौ के थन के सदृश गोल और नोट-महाअंधकार को अधतमस, सर्व- लम्बी मूषा बनाएँ । पीछे इसका बकना बनाकर ग्यापी वा चारों ओर के अधिकार को संतमस धूप में सुखा इसमें पारा भर ढकने से ढक दें और थोड़े अंधकार को अवतमस . कहते हैं। और सन्धियों को उसी मिट्टी से बंद करें। यह (२) उदासी । कांतिहीनता | पारा मारने को बज्रमूषा कहा है। इसी को अध. अन्धकृपः and ha-kupth-सं० पु. (१) भूषा कहते हैं । र० सा० सं० । कश्चिदत्रिः। मोह ( Loss of consciousness or | | अन्धमूषिका and ha-inushika-सं० श्री. sense) । (२) अधा कुआँ । (A blind | (१) देवताड़ वृक्ष । (Sce-Devatara)। well) (२) तृण विशेष । (A grass.) श० च०। अम्धतमस andha-tainasa-हिं० पु. प्रत्य अन्धरन्ध्रम् andha-jandhram-सं० की. न्त अन्धकार I (Great darkness). . अन्नपुट छिद्र । ( Foramon ciecunm). अन्धता and hata-सं० स्त्री० (१) पित्तरोग अन्धला andhala-1 -हिं० वि० अचा, बिना ( Bilialy discase)वै० निघः। अन्धा and ha- Jआँख का । ( Blind ) (२) अन्धापन । ( Blindness) अन्धपुष्पी andha-pushpi-हिं० संज्ञा स्त्रोक अन्धस्थानम् andha-sthānam-सं० क्लो. । अन्धस्थान and hasthāna-हिं० संज्ञा पुं० । अन्धाहुली, अर्क-पुष्पी, अर्काहुली। ___ अँधेरा स्थान । ( Blind spot). अन्धपूनना andha-putana-सं०खी० बालक अन्धसुदर्शक अञ्जनम् andha-sudarshaka ग्रहपीड़ा विशेष । इसके लक्षण निम्न हैं, यथा- anjanam-सं० क्ली० कृष्ण सर्प १, काले जो बालक स्तन से द्वेष रक्खे (अर्थात् माता बिच्छ लेकर एक दूधके कलश में २१ दिन पर्यंत For Private and Personal Use Only Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अन्धाहिः अन्धुक क्रेदित कर मथें । उसमें से निकाले हुए मक्खन को मुर्गे को खिलाकर पुष्ट करें। उसका श्रीट ले अञ्जन करने से अन्धता दूर होती है । वं० से. सं० नेत्र रोगचि०। अन्धाहिः andhāhih-सं० पु. कुंबिया मीन । कुँचेमाछ, जल मेटे-बं० । त्रिका०। अन्याहुलो 2ndhāhuli-सं० स्रो० आहुल्य नामक शिम्धी-फल वनस्पति विशेष । भुजित खड़-हिं० । तरबड़-काश०, मह । See-a hulyam. अन्धाहिक and hāhika-अन्धा सौंप । एक प्र प्रकार का साँप । कौटि० अर्थ। अन्धिका and hika-सं० स्त्रो० (१) सर्पपी, स फेद सरसों । (२) स्त्री विशेष । (A woman) मे० कत्रिकं । (३) नेत्र रोग विशेष ( An eye-disease. ). अन्धियार,-रा andhiyara,-a-हि. पु. अंधेरा । ( Dark, darkness). धन्धुक andhuka-हिं० पु. जंगली अंगूर-द। श्रामोलुका-बं० । इण्डियन वाइल्ड वाइन Indian wild vine )-ई० । वाइटिस इण्डिका (Vitis Indica, linn.)-ले। विग्नी डो' इण्डी ( Vigne d' Inde) -फ्रां० । युवास डास व्युगिॉस ( Uvas dos bagios )-पुर्तगा० । शेम्बर-वल्लि --ते. । चेम्पार-वल्लि -मल० । राण-द्राक्ष, कोले जान-मह । साध-सम्बर-को । द्राक्षावर्ग (21.0. Ampelides ) उत्पत्तिस्थान-पश्चिम प्रायदीप, मध्य भारतवर्षीय पठार,बङ्गाल,मालाबार तथा ट्रावनकोर । __ वानस्पतिक-विवरण -- यह एक वृहत् श्रारोही पौधा है जिसमें चिरायु (बहुवर्षीय ) कंदमूल होता है । उक्र पौधे के पत्र पुष्प तथा समग्र भाकृति द्राक्षा का स्मरण दिलाती है । इसका । मूल कन्द के वृहद् गुच्छों का समूह है जो माध्यमिक मूल-तन्तुसे लगा रहता है । कंद एक से दो फीट लम्बे, शकःकार ( दोनो सिरों पर ), ताजे | होने पर अधिकाधिक व्यास ( चौड़ाई) २-३ इंच; बाहरसे वे धूसर वर्णीय ऊर्धचर्म से श्र.छा. दित होते हैं जिन पर वृत्ताकार घेरों में स्थित सूचम मस्सावत् उभार होते हैं: भीतर से वे रक वर्णीय एवं सरस होते हैं । परत (पन्ना) कारने पर एक स्थूल घेरा युक्त त्वक् भाग सरलतापूर्वक पृथक किए जाने योग्य और माध्यमिक मज्जामय भाग चुकन्दरबत् दीख पड़ता है। सूक्ष्मदर्शक से जड़ की परीक्षा करने पर वह पतली दीवार के पैरेन्काइमा ( Parench. yma ) से बने दीख पड़ते हैं जिनके कोषों में बृहदायताकार श्वेतसारीय कण तथा सुच्याकार रबों के असंख्य गट्टे ( Bundles ) होते हैं। मूल तथा मूल वक के बाहरो भाग में असंख्य बड़े बड़े कोड होते हैं। ___ स्वाद-कुछ कुछ मधुर, लुभाबी तथा क. पैला। कंद चूर्ण तथा पांशु ( Potash) लवणे से पूर्ण होते हैं। ताजी अवस्था में प्राग्जेलेट ऑफ लाइम की सूचियों द्वारा उत्पन्न यांत्रिक क्षोभ के कारण वे चरपरे होते हैं। इतिहास तथा उपयोग-रहीडो के मत से इसकी जड़का रस नारियलके मजाके साथ रोधी द्घाटक ( Deparative ) तथा शर्करा के साथ रेचक रूप से व्यवहार किया जाता है । की. कण के दिहाती लोग इसके काथ को 1 से । पाउंस की मात्रा में परिवर्तक रूप से भी प्रयोग __ उनका विचार है कि यह रफ शुद्धिकर्ता, मूग्रल प्रभावकारी और स्राव (की क्रिया)को स्वस्थता प्रदान करता है। गोवील (40) Vitis latifolia का कंद भी उसी हेतु उपयोग में आता है। (फा० ई. १ भा०। ई० मे० मे०) इसके मूलस्वरसको तैलके साथ मिलाकर चक्षु रोगों के लिए एक उत्तम प्रलेप प्रस्तुत करते हैं । और नारिकेल दुग्ध के साथ मिलाकर इसको कारवंकल सथा अन्य प्रकार के दुष्ट व्रणों पर लगाते हैं। ई० मे० मे० । यह परिवर्तक तथा मूग्रल है। इ० डू. इं। For Private and Personal Use Only Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मन्धुलः ग्लानिकारक और तण्डुलान्वित दुर्जर हेाता है । मद० ब० ११ । ६ । अम्लधान्य में पकाया हुया भक लघु, अग्निप्रदीपक और रुचिकारक है। वै० निव०। मथित युक्त भक्त-स्वादु शीतल, रुचिकारक, अग्निदीपक, पाचक एवं पुप्टिकर है तथा ग्रहणी, अशं और शूल नाशक है। रात्रि में खाया हुश्रा अन्न-रुचिकारक, तृप्तिजनक, दीपन और अर्श का नाश करने वाला है। मुद्यूष युक्त अन्न-कफज्वर, और शर्करा मिला हुत्रा पिचवर में हित है। लाज भक्त-लघु, शीतल, अग्निजनक, मधुर वृष्य, निद्राकारक, रुचिजनक और व्रणशो अन्धुल: andhulah-सं० १० अन्धुल dhula-हि० संज्ञा प. शिरोष वृक्ष, सिरिस का पेड़ ( ATbizzia i lebbeck.)। श० च । अन्धेरा,-" andheri,-ri-हिं० पु, स्त्रो० अंधियारा । ( Darkness). अन्नम् ॥umau-संक क्लो० ।। अन्न ama-हि. संज्ञा (1) Grain, Com शस्य, अनाज, नाज, धान्य । दाना, ग़ल्ला । (२) ( Food material) खाद्य पदार्थ, बीहि एवं यव प्रादि खाद्य द्रव्य मात्र । नयं, चोप्य, लेह्य और पेय भेद से यह चार प्रकार का होता है। किसी किसी ने निप्पेय, नि: चर्वण, अचोप्य और अखाद्य इन चार और भेदों को मिलाकर इसको ८ प्रकार का लिखा है।। राजनिघण्टुकार भी चव्यं श्रादि भेद से अन्न को ८ प्रकारका लिखते हैं। रा०नि० व०२० । (३) पकाया हुश्रा ( अन्न ।। भक्त । भात । संस्कृत पर्याय-भक, अन्धः,भिस्मा (अटी), अहूं, कसिपुः, जीवातुः (ज), कर (रा), जीवनकं (हे), कूर, श्रापूष्टि कं, जोवंति, प्रसादनं (शब्द र०)। इसका पाँच गुने जल में पकाना चाहिए। अन्न पंच गुण में सिद्ध करणीय है । च० द0 ज्वरचि.। प०प्र०२ ख । स्विस तण्डुल । पक्कचावल (Boiled rice)। सथासतुष ( भूसीयुक) अनाज को धान्य और तषरहित पक्क को अन्न कहते हैं, खेत में जो हे। उसको शस्य और तुषरहित को कच्चा कहा है। वशिष्ठ । जिस प्रकार जलदान (जल की मात्रा) के अनुसार अन्न के चार भेद होते है। उसी प्रकार भा, वि. लेपी, यवागू और पेया भेद से भक चार प्रकार का होता है। प्रयोग रत्नाकरः। अन्न के गुण - अग्निकारक, पथ्य, तर्पण, मूत्रल, और हलका | बिना धोया हुश्रा और बिना मांड निकाला हुश्रा अन्न-शीतल, भारी, वृष्य और कफजनक है। भली प्रकार धोया हुआ अन्न---उधा, विशद और गुणकारक है । भूजिया चावल का भात-रुचिकारक,सुगंधि, कफम्न और हलका है। अत्यन्त गोला ___ यवान्न (यत्र)-भारी, मधुर, वृष्य तथा स्निग्ध है और गुल्म, ज्वर, कण्ठरोग, कास और प्रमेह नाशक है। खेचरान्न (खिचड़ी)-तर्पण, भारी, वृष्य और धातुवर्धक है। यौगन्धरान (यावनालान अर्थात् ज्वार का भात )-भारी, घन तथा कास और श्वास की प्रवृत्ति करने वाला है। कोद्रवान्न (कोदों का भात )-रुचिकारक, मधुर, प्रमेहनाशक और मूत्र विकार नाशक तथा तपानाशक है और चमन, कफ, बात एव दाह नाशक है। श्यामाकान (सावाँ का भात )-रुचिकर, लघु, रून, दीपन, बल्य एवं वातकारक है और प्रमेह, गलरोग तथा मूत्रकृच्छ, नाशक है। नावारान-रुचिप्रद, लयु, दीपन, गुरु तथा बातकारक है । और यकृत, प्लीहा, श्वास एवं तणनाशक है। कुलत्थान (कुलथी)-मधुर, रुक्ष, उष्ण, लघु, पाक में कटु तथा दीपन है और कफ, वात, कृमि रोग और श्वासनाशक है। माषान (उड़द)-दुर्जर (कठिनतापूर्वक पचने वाला), भारी, मांस वद्धक और वृष्य तथा वातनाशक है। For Private and Personal Use Only Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अन्न अन्नजम् शिम्यन्न मधुर तथा रून है और वात । अन्नअनउल अरूजर Imaanaani-akhzar पिन प्रकोपक है। -अ० पुदीनारूमी, गुदीनासुम्वुली | Spealवेदलान्न--भारी और रुचिकारक है । __milt (Mentlia viriilis) म. श्र० पाटक्यन्न (अरहर)--भारी है तथा कफ पेत्त । डॉ०२ भा। नाशक है। . अन्न.न उल मुजा अद annivanlnuj. न ( मीनाक भक, मछली का । aanda-अ० पुदीना पेचीदा । (Mentha पोलाव) .. कफकारक,त्रिदोषजनक और जन्दाग्नि- crispa). कारक है। अन्न अनाउल फिलकिलो . Aman aaulशाकान-लेखन, रुक्ष तथा उष्ण है और fillili-अ० पुदीना फ़िलफ़िली, पुदीना बोपद्रावक अर्थात् दोषों को पतला करने , पिप्पल्ली | Peppermint (Men tha वाला है। piperata ). मांसोदन ( मांस सिद्धोदन, मांस का ! अन्न अनाउल बर्गे anmaaniaul-barriपोलाव)-धातुबद्धक , स्निा ध और भारी है। अ० पुदीना बर्श, अरण्य पुदीना । Horse. पलान्न ( फलान )-रुचिकारक, भारी और ! nint (fenthi sylvestris). फल के समान गुण वाला है अर्थात जिस फल में: ___annaanaanl-mai-अ० वह तय्यार किया गया है उसी के समान गुण ! पुर्दाना नहरी । (fentha aquatica). करता है। अन्न नाइल मुस्तदोसल श्रीराक ammaana साधारण साठी चावल का भान-दीपन, aul-mustadirul-ouriqu-अ० गोल बल्य, पाचन, त्रिदोषनाशक तथा हय और पत्रीय पुदीना । (Mentha rotundiविष का नाश करनेवाला है। folia ). नवान्न(नवीन अभ)-मधुर, स्निग्ध, गुरु तथा | अन्नअ नाउरूं मी annaanaaurrāmi-म० मलस्तम्भक अर्थात् मलावरोधक है और रक, पित्त पुदीना रूमी, पुदीना सुम्बुली।8pearmint नाशक है। (Mentha viridis ). उपणान (गरम)-दीपन, लघु, मकारक अन्नकालः annakala.h-सं० पु. भोजन का तथा मदाय य, रनपित्त, प्रमेह और वातकारक समय, श्राहार काल | रस,दोष तथा मलोंका परिहै एवं कास, श्वास, कृमि, प्राध्मान, गुल्म, पाक होनेपर जबही सुधा प्रतीत हो चाहे वह काल जड़ता, क्षन और कास का हरण करने वाला है। वा अकाल हो वही अन्नकाल अर्थात् भोजन का शीनान (शीतल )-शीतल तथा लाला समय कहा गया है । भा० । सावक है और मन्दाग्नि, प्रमेह, मुर्छा श्रादि का हरण करने वाला है । वै० निघ। अन्नकोटः annakoshthah-सं०पु० कोटिला, लिनान्न (गीला अन्न)-दुर्जर (कनिता से , खाता, तण्डुल धान्य श्रादि सुरक्षित रखने का पचने वाला) और ग्लानिकारक है। __ अाधार । ( A storehouse ) गोला, बराई (४) वह जो सबको भक्षण वा ग्रहण करे । -चं.। (Omnivorous) हमा खोरका । प्राकिलु- अन्नगंधिः anmagandhih-सं० पु. अतीसोर साइरिल माकूलात- अ० । रोग, मलभेद। हगवण-मह । ( Diarr(५) सूर्य (The sun ). hea) त्रिका (६) पृथ्वी ( The earth). अन्नजम् anya.jam-सं०वी० दिवसिकाममण्ड (७) प्राण (Prana). तीन दिन का भक्त मण्ड (भात का मॉड)। तिन (८) जल ( Water). दिव सांचीं शिलीपेज-मह०। For Private and Personal Use Only Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अन्नजल अन्नप्राशन अन्नजल anmajala 1 --हिं० पु. अन्नपानी, अन्ननाड़ी ana-nati-सं स्त्री. ( (Fsoअन्नपानी amma panij खाना पीना । ( Vict- phagus ) अन्नपाक नाड़ी। यह कला एवं uals & drink.) पेशी द्वारा निर्मित और २० हाथ लम्बी होती भन्नजा annuja-सं० स्त्री० हिका का एक मंद । । है। इसका काम अन्न पचाना है. इसलिए इसको (A kind of hiccup). पाक नादी कहते हैं। इसके ऊपर के भाग का लक्षण- अत्यंत अन्न पानी के सेवन करने से नाम मुख और नीचे का नाम गुदा है। इसमें एक साथ प्राणवायु दबकर ऊध्र्वगति होकर करा से प्रामाराय तक जो भाग है उसको अन्न(हिक हिक) शब्द करती है। उसकी वैद्य नाडा कहते हैं। प्रायः। देखो-अन्न अनजा हिक्का कहते हैं । भा० म० ख०२ : प्रणाला । अन्नदोष annadosha-हिं० सज्ञा पुं० [सं०] : अननालो, डॉ annanali-सं० स्रो० (१) (१) अन्न से उत्पन्न विकार | जैसे, दूषित अन्न : (Alimentary canal wlth its खाने से रोग इत्यादि का होना । (२) निपिद्ध appandages) अन्नपणाली । (२) स्थान वा व्यक्ति का अन्न खाने से उत्पन्न दोष ( Alimentary system ) पाचक वा पाप 1 । संस्थान। अन्नद्रवशून्नः annadiavashila':सं०पु..नो०] अन्नन्नल annannasal-६० अनन्नास । अन्नद्रवरुनamadraria-shula.fहसंज्ञायु । (Ananas sativus ) । मो० श० । परिणाम मून, पैट का वर दर्द जो सदा : अन्नप्रणा (ना) लो annapranay-na, 11-सं० एना रहे, चाहे अन्न पचे या न पचे और जो पथ्य स्त्री० अन्ननाड़ी। (IEsophagus, gullet, करने पर भी शांत न हो। लगातार बनी रहने Digestive tube ) मरी-१०। बाली पेट की पीड़ा ! इसके लक्षण निम्न प्रकार अन्नपणाली uinapranali-हिं० स्त्री० (Eso. हैं, जैसे--भोजन के पचने पर या पचते समय - phagus) गला या कंसे प्रारम्भ होकर प्रामाअथवा अजीर्ण हो अर्थात् सब काल में जो शूल शय या पाकस्थली पर अंत होने वाली एक नली उत्पन्न हो उसको "अन्नद्रवशूल" कहते हैं। विशेप। इसकी लम्बाई १०६च के लग ग यह पथ्यापथ्य से भोजन करने या नहीं भोजन होती है; ग्रीवा और कक्ष में होती हुई यह उदर करने प्रति नियमों के द्वारा शांत नहीं होता। में पहुँचती है और श्रनमार्ग के तीसरे भाग से इससे तब तक चैन नहीं पड़ता जब तक वमन । जा मिलती है। श्रना प्रणाली में किसी प्रकार के द्वारा पित्त नि:सरित नहीं हो जाता | मा० . का पाचक रस नहीं बनता । इस नली का काम नि० । देवा -- पक्ति शूलः। केवल भोजन को कंट से आमाशय तक पहुंचाने अन्नद्रवशुननाशक imullainshulna. : shika-हिं० वि० पु. पंक्रिशूलबार। अन्न रणाली का अधोभाग annapranuli.ki अन्नद्रवाख्यः : matlavakhyak--सं० पु : adhobhaga-हि. पु. ( Lower अन्नद्वशूल । मा०नि० । ent of (Esophagus ) पाहार के अन्नद्वेष a.jiatives hau-हिं० संज्ञा पु० [सं०] मार्ग का मेदे के ऊपर का हिस्सा । [वि. अन्नद्वेपी ] अन्न में रुचि न होना । अन्न अन्नप्रणालोपरिखा annapranali-parikhi में अरुचि, भूख न लगना । ( Disgust) -हि० संज्ञा स्त्रोक (Groove for aasoअनधर कला annadharti kuli-हिं० स्त्री० । phagus ) वह नली जिसमें अन्नप्रणाली पड़ी (१) (Pyloric valve) श्रामाशय रहता है। दक्षिणांश कपाट । (२)(Pylorie sphi- अन्ननाशनम् annaprashanam-सं० की.1 nctor. ) अामा शय दक्षिणांश संकोचक । अन्नप्राशन annaprashana- हि० संज्ञा पु. For Private and Personal Use Only Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अनवेदि छठवें या आठवें महीने बालक का प्रन्न श्राहार करना | भा० | बच्चों को पहिले पहिल श्रन्न चटाने का सस्कार । चटावन । पसनी । पेहनी । (Ceremony of giving Farinaccous food to a baby for the first tine ). ३६८ नोट- स्मृति के अनुसार छठे या आठवें महीने बालक की और पाँचवें वा सातवें महीने बालिका को पहिले पहिल न चटाना चाहिए । अनवेदिannabedi - ता० हीराकसीस | (Ferri sulphas ) स० [फा० ई० । अन्नभेदि anna-bhedi - मल०, ते० कसीस, हीराकसीस | Ferri sulphas (Sulphate of iron or green vitriol )ĦTO फा० ई० । I अन्नमण्डः aunamandah - स० पुं० ( Rice gruel ) मोड़, भक्कमण्ड, मण्ड, भात का माँड़ | मातेर माड़-बं० | देखो - मण्डः ( Mandah)। गुण- बुद्बोधक ( सुधा पैदा करता ), वस्तिविशोधक (मूत्रल), प्राणप्रद तथा शोणितवद्ध क । ज्वरनाशक, कफ पित्त नाशक और वायु नाशक है । ये गुण मण्ड ( माँड़ ) में पाए जाते हैं । च० ३० श्रग्निमां० त्रि० ! श्रन्नमयः annamayah - सं० पु० ( Physi cal body) स्थूल शरीर | देखो - शरीर । श्रश्नमयकोशः anna-maya-koshah-सं० yo ( Physical body) वेदांत के अनुसार पञ्च कोषों में से अन्तिम ( पाँचवाँ ) कोश विशेष ! ( यह पञ्चतत्वमय तथा त्रिगुणात्मक होता है ) न से बना हुआ त्वचा से लेकर वीर्य तक का समुदाय | स्थूल शरीर | देखो - शरीर | अन्नमल annamala - हिं० संत्रा पु० अन्नमलम् annamalam-सं० क्लां० (१) पुरीष मल, विद्या ( Excrement, Faces) | (२) मद्य, सुरा, मत्र आदि अन्नसे बनी शराब | ( Wine ) बै० श० । अन्नमार्ग anna-marga - हिं० सञ्ज्ञा पुं० आहार पथ, अन्नपाक नाही | कनात् ग़िज़ाइय्यह, विकार कनात् हज़ मिथ्य - अ० 1 ग़िज़ा या हजम की नालो - उ० । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एलिमेण्टरी कैनाल ( Alimentary canal ), डाइजेस्टिव ट्रैक्ट ( Digestive tract ) - इं० । शरीर की नलियों में से वह जिसमें पचने तक भुक्र पदार्थ रहता है । यह नली बहुत लम्बी होती है। इसका श्रारम्भ मुख से होता है । और इसका धन्त नीचे जाकर मलद्वार पर होता है । प्रौढ़ावस्था में मुख से मलद्वार तक की लम्बाई २८- २६ फुट ( नौ दस लगभग होती है। मार्ग गज ) के ( . १ ) अनरसः anua-rasah-सं॰ पुं० ( Rice-gruel ) मण्ड, माँड़, भात का माँड़, भक्रमण्ड । बैं० श० । ( २ ) आहाररस । ( Chyle ). अनलिप्सा anna-lipsá-सं० स्त्री० भोजन ( खाने की इच्छा, भूम्ब, सुधा । ( Appetite, Hunger) वै० निघ० । “प्रकृति गामिमनोऽलिप्सा । " ० द० । S न अश्नवहा aunavahá सं० खो० भ्रमनी युगज, नाहि स्त्रोत द्वय ( इनकी जड़ श्रामाशय और श्रमवाहिनी धमनी है ) । इनसे भोजन किया हुन्न उदर में पहुँचाया जाता है । सु० शा० ६ अ० । श्रन्नवाहि स्रोतः anta-vahi-srotal सं० क्ली० गलनाड़ी, अन्नप्रणाली, कंठनलिका । ((Esophagus ) गलार नली - बं० । वै० For Private and Personal Use Only श० । अन्नविकारः auta-vikarah - सं० पु० rafaair anna-vikara - हिं० संज्ञा पुं० (१) विष्ठा, मल ( Excrement, Fces ) ! ( २ ) शुक्र, वीर्य ( Seminal secretion, semen ) | ( ३ ) भङ्गविकृति, Rice gruel) नण्ड, मांड। (४ परिवर्तित रूप | श्रश्न पचनेसे क्रमशः बने हुए रस, रक्र, मांस, मज्जा, चरबी, हड्डी और शुक्र आदि । श्रख का Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अन्नविपाक नाड़ी अन्मस अन्नविपाक नाडी anna-ripakanari-सं. or female. attendant on a स्त्री० (Esophagus) अन्ननाड़ी, पाकनादी, child ). अन्न पगालो। प्रायः ।। अनेटो anmatto-इं० सेन्दूरिया-हिं० । अन्नशेष: anna-sheshah-सं० प. उच्छि- लटकन-बं०। (Bixa orellana)-ले. प्टाग्र, जूस, छोड़ा हुआ भोजन । एटौं भात-बं०। इं० मे. मे० ! फॉ० इं० १ भा०। (Food left or rejected). अन्नेटोवुश annatta-bush-ई. सेन्दूरिया अन्नहीन annahina-हि० वि० अन्न रहित । fiol (Bixa orellana, Linn.) (Destitute of food). ___-ले० । फॉ० इं० १ भा०। अन्ना auna-हिं. संज्ञा स्त्री० [सं० अम्ब] ! अनेस्ली स्पाइनस anneslea, spinous-- (1) धात्रिपति (The husband of a nurse )। (२) धात्री, धाय, दाई, दूध -ई० मखाना । ई० हैं. गा०। पिलाने वाली स्त्री (Amidrife)। स्ली स्पाइनोसा anneslea, spinosa [सं० अग्नि ] एक छोटी अँगीरी वा बोरसी Dr. Vull. Included by Prof. जिसमें सुनार सोमा आदि रखकर भाभी के द्वारा | Lindley in plants "imperfectly तपाते वा गलाते हैं। known"-ले० मखाना । एक अप्रसिद्ध तुप अन्नाजीरणम् aunājirnam-सं० क्ली० (१)| है। ई० हैं. गा०। प्रामाजीण, भुक्र अन्न का अजीर्ण । भा० म०१ | | अन्नोदवहा anmodavahā-सं० स्त्री० अन्न और जल को भीतर ले जाने वाली नली। भा० आमातीसा० । “अन्नाजीर्णात्पद्रुताः क्षोभ- | यन्तः ।" ( २ ) नामक शूलरोग अन्गल anpal-मल० कॅचल, छोटा कमल, कुइअन्नाद annada-हिं० वि० अन्न खानेघाला, । बेरा, कुमुदिनी-हिं० । नीलोफ़र-अ०, फा०॥ अनाहारी। (Nymphea Edulis, D. C.) स० अमाधम् anmādyam-सं०ी०() अन्न फा० ई.। भात । रा०नि० २०२०। (२) धान्य । अन्पाजम anpaziam-मल श्रमड़ा, अम्बाड़ा, अनादि anābhedi-कना० हीराकसीस, आम्रातक,पारेका पेड़-हिं० ! (Spondias कसीस-हि । ( Ferri sulphas)-ले० । mangifera, Pers.) स० फा० इं० । स० फा०६०। अफ anf-अ० ( Nose) नासिका-हिं० । मन्नावृत वायुः amravrita-vayuh-सं० पु.। इसके बहुवचन निम्न हैं, यथा-श्राना, उनूक वायु के अन्नसे श्रावृत्त होनेएर भोजन करनेसे कुक्षि पानित। में शूल होता है और अन्न के पचने पर बेदना की | अन्फकह anfagah-अ० दाढ़ीकी बच्ची, निम्नोष्ठ शांति होती है। "भुकेकुक्षौरुजा जीर्ण शाम्यत्यना और चिबुक के मध्य के केश । वृतेऽनले " वा०नि० अ०१६ ! अन्फल anfalkh-१० प्रदाह युक्त प्राणी, वह अन्नाशयः annashayah-सं० पु. उदा।। मनुष्य जिसके अण्डकोष में प्रदाह हश्रा हो। (Abdomen). अन्फत् anfas-१० भ्रणवाह्यावरण (Choअखास annasa-६० अनन्नास। (An rion ). अन्नासि hasi-सिं० अन्फल्बर्द anfulbarda-[अ० शीताधिक्य, मग्निनस anninas-गु० anas sati- | ठंडकको अधिकता । ( Excessive cold ). ___vus, DAIL.) स० फा० ई० । अन्मस an masa-यु. वस्ति-हिं० । मसानह , अनी anni-हिं० स्त्री० दाई, धात्री । (A nurse - 1 ( Bladder )-इं। For Private and Personal Use Only Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भन्मिल अन्योन्यलङ्घनम् अन्मिल annilal विरुद्ध, विपरीत । (Heter होकर फिर दूसरे से ब्याही जाए। इसके दो भेद अम्मेल anmela ) हैं---पुनभू और स्वैरिणी । ogenous). अन्यभृत् anya-bhrit-सं० पु. (1) कोअन्मिलह anmilah-अ० अंगुल्याग्र, अंगुली । किल, कोयल (Cuckoo )। हला। (२) का अन पोर्वा । इसके पहुवचन-अम्मिलात वा काक ( a crow)। हे० च०। अनामिल हैं। (The top of the finger.) अन्यभृतः anya-bhritah-सं० पु. कोकिल, अन्य anya-हि- वि० भिन्न, पृथक, पर । (An- कोयल (A cuckoo)। रत्ना०। other, different. ) अन्यलोहम् anya-loham-सं० का० (Broअन्यकारुका anya-kāruka-सं० स्त्री० शकृत् 170) कांस्यधातु, काँसा । वै० निघः । कीट, पुरीपज कृमि, पाखाने का कीड़ा । हारा। अन्या 12ya-सं० स्त्री हरीतकी, हरड ( Terअन्यतः anyutah-हिं० क्रि० वि० [सं.] ___minalia Chebula.)। वै० निघः। (1) किसी और से । (२) किसी और स्थान अन्याय anyāb-० (ब० व.), नाब (प.. से, कहीं और से। व०) रदनक (Canine tooth)। अन्यत्र anyatra--हिं० वि० [सं०] और कहीं ! अन्येद्य anyedyu-हिं. क्रि० वि० [सं०] ( जगह ),स्थानान्तर । दूसरी जगह । वि. अन्येद्यक ] दूसरे दिन । अन्यतोपाक anya topāka-हिं० संज्ञा पु० अन्येद्यक anyedyuka-हिं० वि० [सं०] दू.. [सं० प्रन्यतोवात ] दादी, कान, भौं इत्यादि में सरे दिन होने वाला। वायु के प्रवेश होने के कारण आँखो की पीड़ा। 'अन्येाकः anyedyushka h-सं० पु. र अन्यतोवातः anyatovatah-सं० ० अक्षि-अन्येद्यःज्वर anyedyuh.jvara-हि०संशा" गत रोग विशेष (An eye-disease.)। उरस्थ श्लेष्मजन्य ज्वर विशेष | वह ज्वर ओ जो वायु निज स्थित स्थान से अन्यत्र वेदना दिन रात्रि में एक समय प्राता है। मानिक उत्पन्न करे उसे "अन्यतोवात" कहते हैं, जैसे-- यह एक प्रकारका मलेरिया (विपम या शीतपूर्व) घाटी, कान, शिर, हनु और मन्या (गर्दन ) की ज्वर है जिसका दौरा हर रोज़ होता है। उक्त नसों में अथवा अन्य स्थानों में स्थित वायु भौवों ज्वर में एक बारी से दूसरी बारी तक २४ घंटे अथवा नेत्रों में तोद, भेद श्रादि पीड़ा करता है। अर्थात् एक दिन का अन्तर पड़ता है। इसलिए मा०नि० नेत्रसर्चगत रो.।। इसको रोजाना का बुखार (प्राह्निक ) भी अन्यपुष्टः anyapushtah-सं० पू० कहते हैं। वर्षा मनु के बाद होने के कारण इस अन्यपुष्ट anyapushti-हि. संज्ञा पु० । को मौसमी या फसली बुखार भी कहते हैं। [स्त्रो० अन्य पुष्टा ] (1) ग्रह जिसका पोपण । एकाहिक तप, एकतरा, जाड़ा बुखार-हिं । रोअन्य के द्वारा हुश्रा हो । कोइल, काकपाली, जाना नौबती बुखार-उ० । तो हररोज-फा० । # The black or Indian Cuckoo (Cuculus ) 1 नायब, हुम्मा मुवाज़िबह-अ० । काटिडियन नोट-ऐसा कहा जाता है कि कोयल अपने ! फीवर (Quotidian Fever)-इं०। अंडों को सेने के लिए कौयों के घांसलों में रख ! अन्योदर्य anyodaya-हिं० वि० [सं० ] श्राती है। । [स्त्री० अन्योदर्या ] दूसरे के पेट से पैदा । (२) परपालित, दूसरों के द्वारा पालित। 'सहोदर' का उलटा । अन्यपूर्वा anya.purva-सं. रा. दो बार । अन्योन्य anyonya-हिं• सर्व० [सं०]परस्पर, curet gii ( Twice married.)! Buari (Reciprocal, mutual ). वह कन्या जो एक को ब्याही जाकर वा वाग्दत्त । अन्यान्यलचनम् inyonya-janghanam For Private and Personal Use Only Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अन्योन्याश्रय अन्हैलोनियम लोवीनिमाई -० को० ( Decussation) परस्पर एक ! Indica, Roxb. ( Bulb of-Indian दुपरेको पार करना ( काटना )। Squill ) स. फा० इं० । देखो-अरण्य अन्योन्याश्रय anyonyashraya-हिं० प. पलारडुः । सायेत, परस्परका सहारा । एक दूसरेकी अपेक्षा । | अनसराड़ा amsundra- न० खार-नैपा०। वेलअन्वय Vaya-हिं० संज्ञा पुं॰ [सं०] [वि० वैलम्-ता.। (Acacii-Ferruginea, अन्वयी] । (१) परस्पर सम्बन्ध, । तारतम्य । D.C-)। (२) संयोग । मेन । (३) वंश । खानदान । श्रन्सारिशा ansarisha-बं० हुल्हुल्। धादित्य. अन्वह anvish-हि. पु. नित्य, प्रतिदिन ।। FI ( Cleome Pentaphylla ). (Every day ). ई. मे० पला । अन्वाम anvamil-अ. ( वह व.), नौम ! अन् हैलोनियम् arhalonium-ले० मस्केल (ए० व०) । निद्रा । नींद । ( Sleep, | *H ( Vuscale Buttons ). marcosis, stupor). अन्हैलोनियम लीवानिश्राई Anhalonium अन्वाशनम् alivashanan-सं० क्ली० (१) lewinii-ले। कर्मशाला । हला० । (२) स्नेह बस्ति (X. 0. Cactacea) (Oily enemata)। देखो-अनुवासन उत्पत्तिस्थान-वेस्ट इण्डीज़ । वस्तिः1 प्रयोगांश-पुष्प । garna anvásana इंद्रिय व्यापारिक कार्य- इसका प्रारम्भिक अश्वासनम् anvasanam-सं० ली । प्रभाव अवसादक होता है। इससे नाड़ी-स्पन्दन अनुवासन, स्नेहवस्ति । ( Oily sne- निर्यल एवं शिथिल होजाता है। (प्रायः ४० प्रति mata). मिनट से न्यून) और शरीर वाघ तन शीतल पर प्रवाहिकः anvahikah-सं० त्रि. प्रात्यहिक, जाता है। प्रहर्षण (या शिश्नोत्थान ) बिना प्रति दैनिक, रोजाना । ( Daily, quoti- वीर्य स्खलित होता है । dian. ) उपयोग-सिरिअस (Cereus grandअन्वित anvita-हिं० वि० [सं०] युक्र, मिला | iflorus and coreus "cactus" हुश्रा, सहित, शामिल | bouplandii) की अपेक्षा यह कहीं उत्तम हृदोअन्शर anshara-अ० मदार, पाक । (Ca. तेजक तथा उत्तम धन हृदयबलप्रद श्रीपधि है। lotropis giguntea). उग्र हृच्छूल,फुफ्फुसौष,श्वासावरोध में कदाचित् २ अन्स aansa-० अर्जुन । (Terminalia या ३ बुद इसके तरल सत्वको जब तक कि लाभ Toinentosa or Arjuna ) प्रदर्शित न हो, कभी कभी उपयोग में लाना चाहिए। तदनन्तर बढ़ाने के स्थान में थोड़ी अन्सल aansal -० विलायती ! मात्रा उपयोग में ला सकते हैं। इसके उपयोग शन्सलान aunsalana ) काँदा । पिलायती जंगलो काँदा-हिं | पियाजे दश्ती-फा०। से उत्थान बिना वीर्य स्खलित होने लगता है। Seilla (Squill ) स० फा० ई. । श्रस्तु, उन अवस्थाओं में इसके विरामरहित अधिक कालीन उपयोग से बचना चाहिए। देखो-अरण्य पलाण्डुः । अधिक वातल प्रकृति वाले व्यक्रियों में इसका अन्सले-हिंदी aansale hindi-ऋ० काँदा, उपयोग चतुरतापूर्वक करना चाहिए । शिथिल जंगली पियाज़-हिं०। पियाजे दश्तो हिन्दी-फा० (कफ), लसीका या रक प्रकृति वालों में यह Urginoa Indica, Kunth.; Scillat अधिक स्वतन्त्रतापूर्वक उपयोग में लाई जा For Private and Personal Use Only Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अन्यान्त्रयम् ३७२ अपगत सकती है । डिजिटेलिस को यह उत्तम सहायक | अपकता apakkaia-हिं० स्त्री० अपक्वता, कञ्चाश्रोषधि है । ( पी. वी. एम.) पन । (immaturity ). अन्वान्त्रयम् avautrayam-सं० क्लो० अपक्रम pakrama-हिं० संज्ञा० पु. आँतों में उत्पन्न होने वाले विशूचिका के कीड़े । [सं०] भागना, छूटना । व्यतिक्रम. क्र.रभंग, अथव० । सू० ३१ । ५ । का०२! अनियम | अन्वोक्षण anvikshana-हि. संज्ञा पसं अपकोता a pakriti--संत्रि० दूर देश से द्रव्य के (१)ध्यान से देखना । गौर : विचार । बल से प्राप्त की गई । अथर्व । सू०७ । ११ । का००। (२) अनुसंधान । तलाश । अपक्क:apakvah--सं०त्रि. अन्वीक्षा auviksha-हिं० संज्ञा स्त्री० [सं०] | अपक्व apakve-f० वि० (Oupe) (१) ध्यानपूर्वक देखना । (२) खोज, हँढ, बिना पका हुआ, ग्राम, श्रवृत, अपक, कच्चा, तलाश। प्रसिद्ध । ५० प्र०। (२) ( Uuligested ) अप apa -उप० [सं०] उलटा; विरुद ध, बुरा, विना पचा, अनात्मोकृत । अधिक । यह उपसर्ग जिस शब्द के पहिले प्राता | अथक्क कढलो apakva-kaltili-सं० स्त्री० है उसके अर्थ में निम्न लिखित विशेषता उत्पन्न ! (Unrip3.plantain)अपक्क रम्भा, कच्ची करता है। कवली( केला । । जुण केलें-मह० । काँचा कला (1) निषेध । उ०-अपकार । अपमान ! -० । गुण--कच्चा केला मलस्तम्भ करने वाला (२) अपकृष्ट (दूषण)। उ०-अपकर्म । अर्थात् काबिज़, तिक, कषेला, स्वादयुक्र तथा अपकीर्ति। रूस एवं रक्रपित्त और सपानाशक है। प्रमेह, (३) विकृति । उ०-अपकुक्षि । अपांग । नेग्ररोग, रक्रातिसार तथा ज्वर नाशक है। चै० (४) विशेषता । उ..-अपकलंक। अप निघ। अपकमांसम् a.pakva-mansam--सं० की. अपक apaka-हि. संज्ञा पु[सं० अप्=जल ] / ( Raw-flesh) श्रसिद्ध मांस, कथा मांस । पानी, जल | --डिं। गुण--कच्चा मांस रक्तदोपकारक और वातादि दोष अपकर्ष apakarsha -हिं०संज्ञा पुं० जनक है ऐसा मांसविदों का मत है। वै. अपकर्षण apalkarshana jापु० निघ०। (१)नोचेको खींचना, गिराना, टानना । (२) अपक्क वस्तु apakva-vastu--सं० क्ली० बहिर नायन, शरीर की मध्य रेखा से दूर ! (Raw objects) श्रसिद्ध वा प्रभृत लेजाना | Abduction, Drawing वस्तु । र०मा० y from the median line ). Ta apakva-kshiram(३) निराकरण हटाया जाना । ( Repul- (Nonbcilld-milk ) अपक्व दुग्ध, कथा sion ), दूध । गुण-यह अभिष्यन्दी और भारी होता है। अपकर्षणो apakarshani-सं० स्त्री०(Abd- अपग apaga--अ० कली का चूना, प्रशांत चूर्ण । uctor). बहिरनाथमी, शरीर की मध्य रेखा से (Calx, Lime, quick lime ). दूर ले जाने वाली। ई. मे० मे०। अपक apakka !-हि. वि. कच्चा, अपूर्ण । | अपगत apagata--हिं० वि० [सं०] (1)दूर अपक apakar ) गया हुआ, दूरीमूत, हटा हुआ, गत । (२) (Raw, unripe, imperfect, imm- पलायित, भागा हुआ, पलटा हुप्रा । (३) ature.) मृत, नष्ट । For Private and Personal Use Only Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपगमनम् अपची अपगमनम् apagamanan) --सं० पु : कंठ रोग का एक भेद । कंठमाला की वह अपगम pagama अवस्था जय गाँ पुरानी होकर पक जाती (१) वियोग, अलग होना । (२) दूर होना, हैं और जगह जगह पर फोड़े निकलते और बहने भागना । ( Diverging ). लगते हैं। इसका लक्षण-घोड़ी की अस्थि, अपशामितन्तुः apagami-tantuh--सं० [.. काँख, नेत्र के कोये, भुजा की संधि, कनपुटी और चेष्टा बहा नाड़ी ( Efferent Fibity )। गला इन स्थानों में मेद और कफ (दृपित हो) अपश्न: apaghanah--सं०प०ङ्ग, शरीरा- स्थिर, गोल, चौड़ी, फैली, चिकनो, अल्प पीड़ा ययव । (All orgam) श्रम । वाली ग्रंथि उत्पन्न करते हैं। श्रामले की गुठली अपघातः apaghātah--सं० पु अस्वाभाविक जैसी गाँों करके तथा मछली के अण्डों के जाल मरण । हत्या, बध, मारना, हिसा । जैसी स्वचाके वर्ण की अन्य गाँठों करके उपचीयअपघातक apaghatak) मान ( संचित ) होती है इससे चय ( संचय ) अपघाती apaghati ० २० स०] की उत्कर्पता से इसे अपची कहते हैं। घातक, विनाशक, विनाश करने वाला । यह अपची रांग खाज युक्त होता है, और अपगा upagi--सं० वि० अन्यत्र जाने वाला। अल्प पीड़ा होती है । इनमें से कोई तो फूटकर अथर्व। सू० ३० । २ । का०२। बहरे लग जाते हैं और कोई स्वयं नाश हो जाते अपंग apangar-हिं० वि० [सं० अपांग = हीनांग] (१) अंगहीन, न्यूनांग । (२)लँगड़ा, हैं, यह रोग मेद और कक से होता है। यदि यह कई वर्षों का हो जाए तो नहीं जाता । सुनु० नि. लूला। ११ अ०। अथ । सू०३। ३ । का०६॥ अ (ओ) पण 30-paang-० अपामार्ग, farfar I ( Achyranthes Aspera, चिकित्साLinn.) इस रोग में बमन विरेचन के द्वारा ऊपर और अपच apacha- हिं० संज्ञा पु० [सं० ] न नीचे के अंगो का शोधन करके दन्ती, द्रवन्ती, पचनेका रोग । अजीर्ण । बदहजमी । ( Dysp निशोथ, कोसातकी ( कड़वी तरोई ) और देवepsia) दाली इन सब द्रव्यों के साथ सिद्ध किया हुआ अपचय apachayu-हि० संज्ञा पुं० [सं०] घृत पान करना चाहिए । कफ मेद नाशक धूप, टोटा, घाटा, क्षति, हानि : ( Loss, detrim-i गरप और नस्य का प्रयोग हितकारी है। नस ent) (२) व्यय, कमी, नाश । (शिरा) में नस्तर लगाकर रुधिर निकालें और अपचायित: apachayitah-सं० पु. रोग, गोमूत्र में रसौत मिलाकर पान कराएँ । व्याधि ( Disease)। ___ अपची नाशक तैल अपवारः apachars h-सं० पु. ) (१) कलिहारी की जड़ का कल्क १ मा., अपचार apnchāra-हिं० पु. तेल ४ मा०, निगुर डी का स्वरन ४ भाग । इन (१) अजीर्ण ( Dyspepsia. )(२)! सबको विधिवत् पकाएँ। नस्य द्वारा इसका सेवन दोष, भूल ! (३) कुपथ्य । स्वास्थ्यनाशक : करने से अपची रोग छूट जाता है। व्यवहार । (४) कुव्यवहार ( An error). (२) वच, हड़, लाख, कुटकी, चन्दन इनके अपचिताम् apachitām-60 क्लो० अप बुरे कल्क के साथ सिद्ध किया हुआ तेल पान करने माद्दे के संचय से उत्पन्न । अथव० । सू० २५ । | से अपची निमल होती है। १का०६। (३) गौ, मेंदा और घोड़े के खुर जलाकर अपची apachi-स० स्त्री० ( a kind of : ___ राख करलें । इसे कड़वे तेल में मिलाकर अपची Serofula ) गण्डमाला नाम के पर लेप करें। For Private and Personal Use Only Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपच्छी प्रपतानकः (४) काला सर्प वा अपने पाप मरा हुआ। तथा वमन का सेवन न कराएँ। परन्तु कफ तथा कीवा इनकी राख को इंगदी के तेल में मिलाकर वायुसे घिरी हुई उन श्वास को चलाने वाली नोलेप करनेसे विशेष लाभ होता है । वा० उ० दियों को तीक्ष्ण प्रधमन (तीचरण चूर्ण का नस्य) देकर खोल दें। नाड़ियों के खुल जाने से रोगी अपच्छो apachehhi हिं० संज्ञा प० [सं० संज्ञा को प्राप्त होता है। नहीं+पती-पक्ष वाला] विरोधी, विपक्षी, शत्रु | अपतपण apati pana--हिं० १० भूखा रहना, वि० बिना पंख का, पक्ष रहित । लंघन । ( Fasting). अपजात upa.jata.-सं० पु. वह संतान जो अपत apata-हि०वि० [ सं० अ-नहीं+पत्र, पिता के अधम गुण रखती हो । अथव० । सू० प्रा० पत्त, हिं० पत्ता] (1) पत्र हीन | बिना ६ । का००। पत्तों का । (२) पाच्छादनरहित, नग्न । अपञ्चीकृत apanchikiita-हिं० वि० पु. श्रपतिः apatih--सं० स्रो० पतिहीन । अथर्व० । सूचम भूत ! सपणम् patarpan im-सं० क्लो. (१) अपटक apnraka-हिंवि० पु० हस्तपाद पक्षाघात ! अपतर्पण, लचन, तृत्त्यभाव, भूखा रहना, उपग्रस्त (धातग्रस्त)। ( Paralytic) घास करना । (२) कार्य, कृशीकरण, स्थौल्यअपट apatrana-हिं० संज्ञा पु० देखो--उब- हरण, स्थूलता को दूर करना, दुर्बल करना । टन। यह दो प्रकार की चिकित्सानों में से एक अपटुः apatth-सं० त्रि० श्रपटु-हिं० वि० है । इसका उलटा संतर्पण ( बृहण ) (१) रांगी, बीमार ( Diseased) । रा० है। अग्नि, वायु और श्राकाशात्मक पदार्थ अ. नि०व०२०। (२) निर्बुद्धि, अनाड़ी। धात उन महाभूतों से उत्पन्न हुई औषध अपअपडा apada--सं० स्त्री० अश्मन्तक वृक्ष ! See- | तर्पण होती है। इसके दो भेद होते हैं-(१) Asbmantaka,-kah शोधनापतण। वह जो शरीरस्थ वातादिक दोषों अपण्य apanya--हिं० वि० [सं०] न बेचने को बाहर निकाल देता है। ये पाँच प्रकार के योग्य । होते हैं, यथा-१-निरूह (गुदा में पिचकारी अपतन्त्रः apa.tantrah लगाना ), २-बमन, ३-विरेचन, ४-शिरो विरेश्रपतन्त्रक: patantrakah | चन और ५ रक्रति (फस्द खोलना)। स्वनामाख्यात वातव्याधि विशेष । एक रोग (२) शमनापतर्पण-वह औषध जो शरीजिससे शरीर टेढ़ा हो जाता है। लक्षण-अपने : रस्थ धातादिक दोषों को बाहर नहीं निकालती कारणों (रूक्षादि) से प्रकुपित हुई वायु यदि अपने और अपने प्रमाण से स्थित वातादिक दोषों को निज स्थान को छोड़ ऊपर जाकर हृदय को पी- । उत्क्लेपित भी नहीं करती, प्रत्युत विषम दोरों दित करे, फिर मस्तक और कनपुटियों में पीड़ा । को समान भाव में ले पाती है। उसको संशमन करे, शरीर को धनुष के समान टेढ़ा कर दे तथा औषध कहते हैं। यह सात प्रकार की होती है, कम्पित करे और चित्त को मोहयुक्त करदे, रोगी | यथा-पाचन, दीपन, सुधानिग्रह, तृष्णानिग्रह, बड़े कष्ट से श्वास ले, आँखें चढ़ी रहैं अथवा । व्यायाम, प्रातप और धायु । वासु०प्र० उपर को लगी रहें, कबूतर के समान शब्द करे । १४ । हारा० । च. द. रक्रपित्त-चिः । और बेसुध हो जाए. तो उसको अपतन्त्रक रोग । (३) वण के उपशमनार्थ प्रारम्भिक उपक्रम । कहते हैं । मा०नि० वा. व्या। सु.चि.१०। चिकिरला-अपतन्त्रसे पीड़ित मनुष्यकी तृप्ति , अपतानः apatanah सं० पु०, हि. विरुद्ध क्रिया न करें और कभी भी निरूहवस्ति ! अपतानकःapatana kahf संज्ञा पुं० For Private and Personal Use Only Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपत्यम् अपथ्य ज्वरो स्वनामाख्यात वातव्याधि रोग विशेष एक रोग जो अपत्यपथः apatya-pathath-सं० प. स्त्रियों को गर्भपात तथा पुरुषों को विशेष रुधिर : योनि (Vagina.)। हे० च०।। निकलने वा भारी चोट लगने से हो जाता है। | अपत्यशत्रुः apatya-shatrn}h-सं० १०, इसमें बारबार मूछो पाती है और नेत्र फटते । हिं० शा . जिसका शत्रु अपत्य वा संतान हैं तथा कंठ में कफ एकत्रित होकर घरघराहट | हो । कर्कट. केंकड़ा । ( Crab) श० च)। का शब्द करता है। नाट-अंडा देने के बाद केकड़ी का पेट फट जाता है और वह मर जाती है । (२) अपत्य लक्षण-वायु कुपित होकर मनुष्य की दृष्टि- | शनि एवं संज्ञा को नष्ट कर देती, कण में धुरघुर | का शत्रु । वह जो अपने अंडे बच्चे खाजाए। शब्द करती है और जब वायु हृदय को त्याग देती साँप । है तब सुख होता है और जन्य पकड़ लेती है तब अपत्यसिद्धिकृत् apatyasi.ltdhi-krit-स० फिर बेहोशी हो जाती है । इस दारुण रोग को | go (Putrajiva Roxburghii) अपनानक कहते हैं । मा० नि० वा० व्या०। । पुत्र जीव वृक्ष । देखो-पुत्रजीवः । वै० निय। असायना-गर्भ की उत्पत्ति मे एवं रुधिरके बहुत निकलने से उत्पन्न हुआ और | अपy apatra-हिं० वि० पत्र रहित. बिना पत्तों का। अभिघात से उत्पन्न हुअा "अपतानक" नहीं | प्रारोग्य होता। अपत्रवल्लिका apatra-vallika-सं० स्त्री० महिषयल्ली, सोमलता विशेष। लघु सोमवल्ली चिकित्सा-अपनानक रोगसे पीड़ित मनुष्यों -म । रा०नि०व०३ । See--Mahisha. के नेत्रों में से यदि पानी बहता हो, कम्प नहीं valli होता हो और खाटपर न पड़ा हो तो इससे पहले अपना apatra-सं० स्त्री पुष्प वृत्त विशेष । ही तत्काल चिकित्सा करनी चाहिए। दशमूल महाराष्ट्र में यह "नेवी" नाम से प्रसिद्ध है। डालकर पकाया हुश्रा पानी अपतामक रोगी के व०निघ० । लिए हित है। तेल की मालिश, स्वेद और तीक्ष्ण अपतृपया apatrishna-सं० स्त्री. व्यर्थ नस्य द्वारा स्त्रोतोंके शोधन के पश्चात् घी पिलाना लालच। हितकारक है। विशेष दखो-यात व्याधि। अपथम् apatham-सं० ली. अपथ-हि. अपत्यम् apatyain- सं० को० संज्ञा पु० (१) योनि । ( Vagina) अपत्य apatyat--हिं० संत्रा पु. श० र० । (२) कुमार्ग, बुरा रास्ता | (A bad सन्तान,पत्र वा कन्या । (Offinying,male road) or female ). अपथ्यम् apthyu}]]--सं० त्रि० भारत्यकामा apatyakama--हिं० वि० स्त्री० / अपथ्य a.pathya-हि० वि० पुत्र की इच्छा रखने वाली। जो पथ्य न हो । स्वास्थ्य दाशक । ( Indige. अपत्यजीवः apatya-jivah--सं० stible, in wholesome ), ( Putranjiva Roxburghii ) ga ___ सं० की०, हिं० संज्ञा पु (1) व्यवहार जीव वृक्ष । जियापुता गाछ :बं०। रा० नि० जो स्वास्थ्य को हानिकर हो । रोग बढ़ाने वाला व० । देखो--पुत्रजी (ओ) वः। श्राहार विहार। अपत्यदा a.patyada-सं० स्त्री० पुत्रदालता, (२) अहितकर वस्तु । रोग बढ़ाने वाला भोजन । लक्ष्मणा । ( sec-putradi) | ग० नि. कुपथ्य से होने वाला ज्वर । अपथ्य और मच For Private and Personal Use Only Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपद अंपरतन्त्र जन्य हेतु ज्वर के हेतु पित्त को प्रकुपित करते हैं, ! अपनीत apanita--हिं० वि० [सं०] दूर किया जिससे दाह, शैत्य, शिरःशूल और कोष्ठ की हुश्रा। हटाया हुश्रा | निकाला हुश्रा । वृद्धि, तीव्र वेदना, खुजली, मल का अधिक अपवश्य apabashya -हिं० वि० पु. निकलना अथवा उसका अत्यन्त बँध जाना श्रादि अपबस-श apabasa,sha. J स्वाधीन, मलक्षण अपथ्य जन्य ज्वर में होते हैं। वै० । न्मुखी ( Independent)। निघ०२भा० ज्य। अपबाहुक: apabahukah--सं. प० । अपद apali-हिं० वि० ) पादहीन, अपवाहुक apa bāhuka--हिं० संज्ञा पु० ) अपद: a padah-सं० त्रि. पंगु, एक रोग जिसमें बाहुकी नसें मारी कर्मच्युत (Lame)| -पु. बिना पैर के रेंगने जाती हैं और बाहु बेकाम हो जाता है। वाले जंतु । जैसे, (१) सर्प, केचुआ, जोक | अपवाहुक, वात कफ जन्य अंसगत बात व्याधि, श्रादि । ( २ ) सर्प ( Snake )। भुजस्तम्भ रोग विशेष । लक्षण-कंधे अथवा स्ववों में रहने वाली वायु स्खों के बंधन को सुखा अपदरुहा apadarthi -सं-स्त्री. देती है। उस के बंधन के सूखने से अत्यंत अपदरोहिणी apadarohini ) बन्दा । वेदनावाला अपवाहक रोग उत्पन्न होता है। वांदरापं० । वादांगुल-म०। व. निघ०। मा० नि० । बाहु में रहने वाली वायु उस में A parasite plant (Epitlendrum : रहने वाली शिराओं को संकचित करके अपtessellatum. ) याहुक रोग को उत्पन्न करती है । भा० प्र० अपदस्थ upadastha--हिं० वि० कर्मच्युत, | २ख.। पदच्युत । चिकित्सा अपदारथ apadārutha--हिं० पु. अयोग्य इस रोग में नस्य तथा भोजन के पश्चात् स्नेह वस्तु । पान हित है । वां० चि० अ० २० । अपदेवता apadevata-सं० स्त्री०, हिं० सज्ञा अपभ्रश apabhransha-हिं० पु० बिगड़ा पप्रेत, पिशाचादि । दुष्ट देव । दैत्य । राक्षस: हुअा शब्द । (Corruption, Comimon असुर । ___or vulgur talk ). अपदेशः apadeshan-सं० (हिं० संज्ञा ) पु. अपमुचूर्ष apanumuishu-सं० हिं० पु. "अनेन कारणेनेत्यपदेश' अर्थात् इस कारणसे | जल में डब कर मरणोन्मुख हुश्रा रोगी। यह होता है इसे “अपदेश' कहते हैं। जैसे अपर upara-हि. वि० [सं०] [स्त्री० अपरा] कहते हैं कि नी खाने से कफ बढ़ता है अर्थात् (१) जो पर न हो, पहिला, पूर्व का, पिछला, कफ वृद्धि का हेतु मधुर रस है । सु० उ० जिससे कोई पर न हो । (२) अन्य, दूसरा, ६५ अ० १३ श्लोक। भिन्न । मे० रत्रिक०। अपद्रव्य apa.dlyavya-हिं० संज्ञा पु० [सं०] | अपरपिण्डतैल aparapinda-tailan--सं० निकृष्ट वस्तु | बुरी चीज़ । कुद्रव्य । कुचस्तु । पली० बला (खिरेटी) पृष्टपण, गङ्गरन, गिलोय, अपध्वंसक apadhvansaka-हिं० वि० और शतावर । इनके करक तथा क्वाथ से (१)घिनौना । (२) नाश करने वाला, क्षयकारी । सिद्ध किए हुए तेल के अनुबासन ( पिच, अपनयन apanayana-हिं० संश कारी) लेने से प्रबल वातरक्र का नाश होता [वि. अपनीत ] (1) दूर करना । हटाना । है। भा०प्र० मध्य स्खण्ड २ वातरक-चि। (२) स्थानांतरित करना। एक स्थान | अपरतंत्र apa1atantra-हिं० वि० [सं०] जो से दूसरे स्थान पर लेजाना । (३) खंडन। परतंत्र वा परवश न हो, स्वतंत्र, स्वाधीन, आज़ाद । For Private and Personal Use Only Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपमार्जन अपराजिता अपमार्जन apamarjana-हि. संशा० पु. (४) सिन्दूर ६ माशा को भेड़ के घी में घोट [सं.] शुद्धि । सफाई । संस्कार | संशोधन ।। कर रक्खें। इसके उपयोग से अपरस दूर होता अपमुख apamukha-हिं० वि० [सं०] [स्त्री अपमुखी ] जिसका मुंह टेढ़ा हो । विक-अपरा apari-सं० स्त्री०, हिं० संज्ञा स्त्री०(१) तानन, टेदमुहाँ। ( Placenta) खेड़ो, आँवल । भा० म०४ अपमृत्यु apamrityu-हिं० संज्ञा पुं० सं०] | भा० प्रसूतोपद्रव-चि० अमरा-सं०। (२) पदार्थ अकाल मृत्यु कुमत्यु, कुसमय मत्यु, अल्पाय. जैसे ! विद्या । (३) पश्चिम दिशा । (४) पञ्चतन्मान, बिजली के गिरने, विष खाने, साँप श्रादि के | मन, बुद्धि और अहंकार इनको अपरा कहते हैं। काटने से मरना । वि० [सं०] दूसरी । अपयोग apayoga.-हि. संज्ञा दु'. [सं०] अपराजित aparajita-सं० लहसुनिया । (.) कुयोग, बुरायोग। (२) नियमित मात्रा हिं० वि० [स्त्री० अपराजिता ] ( Inco. से अधिक वा न्यून औषध पदार्थों का योग । nqurable)जो जीता न जाए। जो पराजित (३) कुशकुन, असगुन । (४) कुसमय, न हुआ हो। कुबेला । __ संज्ञा पुं० विष्णु। अपरकाय aparakāya-हिं० संज्ञा प. शरीर अपराजित धूपः aparājita-dhupa he-सं० का पिछला भाग। पु. यह धूप सब प्रकार के ज्वरों का नाश करने अपरना apurana-हिं० बी० अपामार्ग। वाला है । गुग्गुल, गंधतृण, बच्च, सर्ज, निम्ब, वि०बिना पत्ते वाली।(Leafless). प्राक, अगर और देवदारु। च० द० ज्य. अपरम् aparam-सं० क्ली. हाथी के पीछे का चि०। अर्दू भाग, गजपश्चादर्ध । हाथी का पिछला अपराजिता aparajita-हिं० संज्ञा स्त्री सं० भाग, जंघा, पैर इत्यादि। स्त्री० ] (१) यह कोयलकी बेल्ल का साधारण अपरस aparasa-हिं. संचा पु०, उ० चम्बल । माम है। सस्क्रिय्यह, सफ़िय्यह, कश्मूल जिल्द-अ०। feffaar zafar ( Clitorea Terp. सोरायसिस (Psoriasis)-ई। चर्मरोग atea, Linn.)-ले० । बटर फ्लाई पी भेद । एक चर्मरोग जो हथेली और तस्ववे में Butterfly pea, विंग्ड-लीड्ड ब्रिटोरिया होता है। इसमें खुजलाहट होती है। और चमड़ा ( Winged -leaveil Clitoria ), सूख सूख कर गिरा करता है । विचर्चिका । इण्डियन मेज़रीन ( Indian Mezerचिकित्सा eon)-इं। बिन्टोरिया डीटनेंटी Clitoria (१) गोधूम (गेहूँ)s४ सेर लेकर पाताल de Termato-फ्रां० । फियुला-क्रिका यन्त्र द्वारा तैल निकालें । इस तेल के लगाने से Feula-criqua-पुत। अपरस नष्ट होता है। संस्कृत पर्याय-श्रास्फोता, गिरिकर्णी, (२.) पाक का दूध । छटाँक, बकुची का तेल विष्णुकांता (अ०), गिरिशालिनी (के.), १ पाव, सेंहुड़ के दूध १ छटाँक को एक पाव दुर्गा (श०), अस्फोटा (अ.टी.), गवाक्षी, तिल तैल मिलाकर सिद्ध करें इसके लगाने से अश्वखुरी, श्वेता, श्वेतभण्टा, गवादनी (र.), अपरस दूर होता है। अद्विकर्णी, कटभी, दधि पुष्पिका, गर्ह भी, सित (३) प्राठिल की जड़ की छाल लेकर स्वरस पुष्पी, श्वेतस्पन्दा, भद्रा, सुपुत्री, विषहन्त्री, निकालें और उसे भेड़ (मेष) के १ छटाँक घी में नगपर्याय कर्णी, अश्वाह्लादखुरी । अपराजिता, पकाएँ, फिर काम में लाएं। कवाठेठी, कोयल, विष्णुक्रांति, कालीज़ीर-हिं०। ४. For Private and Personal Use Only Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपराजिता अपराजिता अपराजिता-बं० । माज़ारियूने हिन्दी-अ०। नबात बीख हयात-फा०। फीकी की जड़ का माड़, घुट्टी की जड़ का झाड़, फीकी-दे०, हिं० | काकण-कोडि, कवड़ी, कुरु बिलइ-ता० । मल्लविष्णुक्रांत, विष्णु क्रांत, दिन्टन, नल्लनेल गुम्मिरि, . तेल, मेल, तेल्लविण्टन, नीलदिरटन-ते० । अरल, शङ्ग-पुष्पम्, कारणम्-कोटि, काकबलि-मल । कत्तरोदु-सिं० । गोकर्ण (-} ) काजलि-मह०, । बम्ब० । काठी पाण्टरी-मह० । गरणी-गु०।। कर्णिके, शंखपुष्प, विष्णु -कारिट-सुप्पु, कीर। गुन, गोकण मूल-कमा० । धन्त्र--पं0। बिलीय गिरि कर्णिक, नील गिरि कर्णिके-क०। प्रारल | -माला। अपराजिताबीज निटोरिया टटिया Clitorea ternatea Linn. (Seeds of.)-ले० । अपराजिता ! के बीज, कवाठी के बीज-हिं० । फीकी की । जड़ के बीज, घुट्टी की जड़ के बीज-द० । अपराजितार बीज-बं० । बज्र ल माजरियूनेहिंदी-अ० तुह्मे बीखेह यात्-फा० । काकण- : कोडि-विरै ता० । दिण्टन-वित्तुलु-ते। शंगविश, काकरणम्-वित्त, काक-वितर-मल० । कारोदु-बीज-लि। नाट-अपराजिता शब्द से निवण्टु में अश्वचरक, बला मोटा, विष्णु क्रांता, शुक्लांगी, शेफालिका । या शंखपुप्पी ली जाती है । अश्वनुरकः । गिरिकर्णिका, कटमी, श्वेता, श्रादि नाम से कही जाती है। शेफालिका–गिरिसिन्युक या श्वेत सुरमा : कहाती है । यह विषघ्न है। शिम्बी या यबूर वर्ग (NO. Leguminosas ) उत्पत्तिस्थान-सम्पूर्ण भारतवर्ष । संशा निर्णय-अरबी सज्ञा माज़रियूने-हिंदी। का अर्थ हिन्दी माज़रियन ( Indian Mezereol) है और यही सज्ञा मदरास में | अपराजिता के लिए व्यवहारमें पाती है, क्योंकि | उन्होंने मान लिया है कि इसकी जड़ में माज. रियून की जड़ के समान प्रभाव है। दक्खिनी संज्ञाएँ काली-ज़िी वा काली ज़िर्की के बीज तथा सुफेद ज़िर्की व सुफ़ेद जिर्की के बीज कभी कभी अपराजिता श्रीज के लिए कतिपय ग्रन्थों में ही नहीं व्यवहार में लाई गई हैं. प्रत्युत किसी किसी बाजार में भी उनका व्यवहार किया जाता है। परंतु वे संदिग्ध रूपसे कालादाना और उसके लाल भेद की यथार्थ संज्ञाएँ हैं, अतः उन्हें उन्हीं तक सीमित रहने देना चाहिए। काकवल्ल मलग्रालिम भाषा का शब्द है जिसका अर्थ काकलता होता है और यह इस. लिए है कि इसके पुष्प का रंग काक वर्णवत् होता है। परंतु हॉर्टस मालाबारिकस ( Hortus malabaricus ) तथा अन्य ग्रंथों में यह नाम म्युकुना जायगैटिया (Mucuna gigantea) के लिए प्रयोग में लाया गया है। . तामिल शब्द काकण वा काकटा प्रायः अपराजिता तथा कालादाना दोनों के लिए समान रूप से व्यवहार में पाते हैं, परन्तु यथार्थतः वे अपराजिता के ही नाम हैं। अतः उनको इसी के लिए प्रयोग करना चाहिए, कालेदाने के बीज उस नाम के अंतर्गत पाए हए नामों से सरलतापूर्वक पहचाने जा सकते हैं। डिमक ( म खंड ४५६ पृ०) महोदय अपराजिता का संस्कृत नाम गोकर्ण लिखते हैं। परन्तु, किसी भी प्रचलित वैद्यक ग्रंथ में इसकी उक संज्ञा का उल्लेख नहीं मिलता। ऐसा प्रतीत होता है कि "गिरिकणिका वा गिरिकी" को भ्रमवश "गांकण" लिख दिया गया है। 'गोकणी' वा 'गोकर्ण' अपराजिता का महाराष्ट्री नाम है। सकल नव्य लेखकों ने एक स्वर से कालेदाने के बीज को अपराजिता बीज के सर्वथा समान होने का उल्लेख किया है । परन्तु, कालादाने का गात्र एवं वर्ण रुक्ष कृष्ण होता है। इसके विपरीत अपराजिता के बीज का गात्र चिकना एवं कृष्ण वर्ण का होता है। For Private and Personal Use Only Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपराजिता ३७६, अपराजिता :: वानस्पतिक-वर्गन ... अपराजिता एक प्रकार | की वृताश्रित बहुयीय लता है । प्रायः शोमार्थ | इसे उद्यानों में लगाते हैं। यह बहुशाखी एवं । शुपमय होती है । मूल किञ्चिद् गूदादार गावदुमी | शाखायुक्त होता है । प्रकाण्ड अनेक दाहिने से । बाएँ को लिपटे हुए छोटे पौधों में मृदुलोमयुक्त । Pubaseent) होते हैं। पत्र छोटे प्रायः गोल वा अंडाकार, विपम पंजाकार.एक सीक की दोनों । पोर जोड़े जो होते हैं। प्रायः कुत्त २-३ किसी किसी में ४ जोड़े होते हैं, किंतु उनके निरंपर अर्थात अग्रभाग पर एक अयुग्म पत्र होता है । पुष्प बड़े, श्वेत वा नीले (या रक), डंठल युक (सन्त) उलटे वैक्टियोलेर होते हैं। पुष्पवृन्त लघु, लगभग चौथाई इञ्च लम्बा, कक्षीय, अकेला एक पुष्पयुक्त होता है। प्रक्टिोलस किञ्चिद् गोल, पुष्प-वाह्य कोष के आधार से संलग्न होते हैं। पुष्प-वाह्य-कोष पुष्पाभ्यन्तर कोष का लम्बा, पंचशिखर युक्र, विषम, स्थाई, बीज कोपाधः होता है। पुष्पाभ्यन्तर-कोष तितलीस्त्ररूप, वृहदोर्ध्व पटल ( Vexillum) बड़ा, सिरा गोलाकार शिखरयुक; वहिः, नीला, (मध्यभाग पोसाभायुक्त स्वेतवर्ण का), पक्ष ( Ale) अंडाकार अत्यन्त पतला और संकुचित डंउलयुक्त, तरणिका (Keel ) कुछ कुछ बूट के प्राकार के दो पतले सूत्रवत् इंठल से युक्र होते हैं। नरतंतु वा 10. पुव पराग केशर या पराग की तीली (Stamens)५ से १०वा इससे भी अधिक, दो स्थानों में स्थित (Diadelphous) होते है जिनमें एक पृथक रहता है और शेष तन्तुओं द्वारा आपस में मिले रहते एवं बीजकोषाधः होते हैं। परागकोष वा पराग की घुण्डी (An- | thers) बहुत सूक्ष्म, गोलाकार और श्वेत होती | है। नारितंतु वा गर्भकेशर (Style ) | साधारण, परागकेशर की अपेक्षा लंबे, किञ्चित् । वक्र, सिरेपर पशिविस्तृत होते हैं। शिम्बी वा धीमी (Legume)२ से ३ इंच लम्बी और चौथाई इंच चौड़ी, चिपटी, सीधी, कुछ कुछ लोमश, .द्विकपाटीय (दो छिलके युक), एक कोष :युक्त (पर कोप की दीवारों से बहुत परे भागों में | विभाजित होनी हैं, जिनमें से प्रत्येक में एक एक बीज होता है) और बहुवीजयुक्त होता है। योज वायताकार इंच लम्बे, चिकने, कृष्ण वा हरिताभायुक्त धूसर वा धूसरवर्ण के होते हैं। यह सदा पुस्पित रहती है। पुप्पभेद से यह दो प्रकार की होती है--(१) वह जिसमें सफेद फूल लगते हैं श्वेतापराजिता श्वेतगिरिकर्णिका । विष्णुकान्ता। सफ़ेद कोयल और (२) वह जिसमें नीले फूल आते हैं नीलापराजिता, नील गिरिकणिका, कृष्णक्रांता, नीली कोयल आदि नामों से संबोधित की जाती है । ___ नीलापराजिता का एक और उपभेद होता है जिसमें दोहरे फूल लगते हैं। नोट-इन विभिन्न प्रकार के अपराजिता के बीजों के प्रभावमें कोई प्रकट भेद नहीं और यदि कुछ होता है तो वह इसकी सफेद जातिके बीजमें हो सकता है। किंतु इनमें वह बीज जो दूसरे की अपेक्षा अधिक गोल एवं मोटे होते हैं, प्रभाव में अधिकबलशाली सिद्ध होंगे पुनः चाहे वे किसी जातिके हों। रासायनिक संगठन-गुलबक्-में रवेत. सार, कपायिन और राल; बीजमें एक स्थिर तैल, एक तिक्र राल ( जो इसका प्रभावात्मक सस्व है। ), कषायाम्ल ( Tannic acid), द्राचौज (एक हलका धूसर वर्ण का राल ) और भस्म (६ प्रतिशत ) प्रभृति होते है। बीज वामस्वक् टूट जाने वाला (भंगुर ) होता है । इसमें एक दौल होता है जो कणदार श्वेतसार से पूर्ण होसा है। प्रयोगांरा-जड़ की छाल, बीज और पन्न। औषध निर्माण-(१) बीज का अमिश्रित niple Powder of Clitorea Seeds ( Pulvis Clitorece Simplex). निर्माण-विधि - साधारण तौर पर चूर्ण कर बारीक चलनी या कपड़े से छानकर बोतल में भरकर सुरक्षित रक्खें । मात्रा-१ से १॥ ड्राम तक (२.४ पाना)। गुण-इतनी मात्रा से ५ या ६ दस्त खुलकर For Private and Personal Use Only Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir घपराजिता अपराजिता पाएँगे और इसकी मात्रा २ ड्राम पर्यन्त करने से | दस्तों की संख्या बढ़ाई जा सकती है। इतने से | साधारणतः या दस्त श्राएँगे। (२) अपराजिताके वोजका मिश्रित न्यूर्सCompound Powder of Clitorea Seeds ( P'alvis Clitoreæe Compositus). निर्माण--विधि-अपराजिता के बीज, सैंधव या क्रीम प्रोफ़ टासर इनको चूर्ण कर इनमें से प्रत्येक ७ प्रौंस लें; सोंड या कुलंजन क्षुद्र का चूर्ण एक पाउंस इनको एक साथ भली प्रकार रगड़कर बारीक चलनी या कपड़े से चालकर बंद बोतल में सुरक्षित रखें। मात्रा-१॥ श्राम से २ डाम तक । (३)शीत कषाय (Infusion)-(८ मात्रा-१ से २ श्राउंस । (४) एलकोहलिक एक्सट्रैक्ट । (१) क्वाथ। (६) पत्र एवं मूल स्वरस । (७) सूखी हुई जड़की छालका चूर्ण । मात्रा१ से ३ ड्राम | प्रतिनिधि-काला दाना व लालदाना, । जलापा तथा कॉन्वॉल्ब्युलस के बीजकी यह उत्तम प्रतिनिधि है। भेद केवल इतना है कि यह अधिक अग्राह्य एवं चरपरी होती है। अपराजिता के प्रभाव तथा प्रयोग आयुर्वेद की मत से दोनों गिरिकर्णी (श्वे. तापराजिता तथा नीलापराजिता) तिक्र. पित्त के उपद्रव को प्रशमन करने वाली, चतुष्य, विषदोषनाशक तथा त्रिदोषशामक होती हैं। गिरि'कर्णी (अपराजिता ) शीतल, ति: पित्तोपद्वनाशक, विप तथा नेत्र के विकारों को शमन करने वाली और कुष्ठरोग को नष्ट करने वाली है।। (धन्वन्तरीय निघंटु)। गिरिकर्णी (अपराजिता) हिम, तिक, पित्तोपद्रव नाशक, चक्षुष्य, विषदोषशामक और | त्रिदोष को शमन करने वाली हैं। नीलाद्रिकर्णी (नीलाराजिता) शीतल,तिक है, रक्तातिसार, ज्वर तथा दाह को नष्ट करने वाली तथा विष, वमन, उन्माद, भ्रमरोग, श्वास और अप्तिकास रोग को हरण करनेवाली है। राज। कटु, तिक, कफ वातनाशक, सूजन को दर करने वाली, खाँसी को नष्ट करने वाली और कराव्य अर्थात् कण्ठ को शुद्ध करने वाली है। राज.। अपराजिता कटु, मेध्य शीतल, कराठ्य, दृष्टि को प्रसन्नताकारक तथा कुष्ट, शूल, त्रिदोष, ग्राम, शोध, प्रण और विष को नष्ट करनेवाली है तथा कसेली, पाकमें कटुक ( चरपरी ) व तिक्र है तथा स्मृति और बुद्धिदायक है । भा० । अपराजिता के प्रयोग यह पृश्नि (चितकबरे, कौड़िया साँप ), वज नामक साँप और बिच्छु के विष की नाशक है। अथर्व। सू०४। १५ । का० १०। चरक दर्वीकर सर्प के काटने पर सिन्धुवार (श्वेत निगु एडी) वृक्ष की जड़ की छाल और श्वेत अपराजिता की जड़ की छाल इनको जल के साथ पीस कर पिलाएँ। (चि २५ श्र०) चक्रदत्त-(१)श्वतापराजिता की जड़की छाल के रस को तरडलोदक के साथ गोघृत के योग से पान कराएँ। इससे भूतोन्माद शमन होगा । (उन्माद चि०) (२) सफेद कोयल की जड़ को पीसकर गो घृत मिला गलगण्ड रोगी को पिलाएँ। (गलगण्ड चि.)। शाधर-परिणाम शूल में चीनी, मधु और गोघृत के साथ विष्णुक्रांता की जड़ का कल्क • दिन तक सेवन करने से परिणामशूल नष्ट होता है। (२ खं०५०)। वंगसेन-शोथरोग में श्वेत वा नील अपरा. जिता की जड़ की छाल को उष्ण जल में पीसकर पान करने से सूजन जाती रहती है। (जी. स० १४०)। - हारीत-वल्मीक श्लोपद रोगमें गिरिकणिका अर्थात् अपराजिता की जड़ की छाल को पीसकर लेप करें। (चि०३३ अ.) For Private and Personal Use Only Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अपराजिता जलोदर एवं प्लीहा व यकृत वृद्धि मेंअपराजिता की जड़, शंखिनी, दन्तीभूल और नीलिनी । इनको समभाग लेकर जल के साथ इमलशनवत् प्रस्तुत करें और गोमूत्र के साथ सेवन करें । ३८१ वक्तव्य सुश्रुत में दर्वीकर सर्प की चिकित्सा में धन्य द्रव्यों के साथ अपराजिता का प्रयोग दिखाई देता है, यथा- 'श्वेत गिरिहवा कणिही सिताच' (०५ अ० ) । सुश्रुतोक्त शोथ एवं उन्माद की चिकित्सामें अपराजिताका उल्लेख नहीं है। सुश्रुत सूत्रस्थान के ३६ वं अध्याय के वासक द्रव्यों ! की तालिका अपराजिता का नाम नहीं थाया है; किंतु शिरोविरेचन वर्ग की श्रोषधियों में अपराजिता का उल्लेख है । यथा के "करवीरादीनामतानां मूलानि ” वाक्य में अपराजिता के मूल को शिरोविरेचक माना गया है। चरको वान्तिकर द्रव्यों में अपराजिता का पाठ नहीं है (वि० अ० ) । नरक में सुतवत् शिरोविरेचन द्रव्यों के वर्ग 拼 इसका पद आया है । ( सू० ४ ० ) । चरको शोथ चिकित्सा में अपराजिता का प्रयोग । नहीं दिखाई देता । किंतु उन्माद चिकित्सा में द्रव्यांतर के साथ इसका प्रयोग श्राया है । दत्त के शोथ और शूल की चिकित्सा में अपराजिता का प्रयोग नहीं है I नव्यमत डिमक महोदय के कथनानुसार विरेचक व मूत्रल गुणों के कारण इसकी मारियूने हिंदी ( Indian mezereon ) नाम से अभिहित किया गया है। किंतु यहाँ पर यह बतला देना आव श्यक प्रतीत होता है कि माज़रियून उदरीय शोध को दूर करने के लिए व्यवहार में लाया जाता है । और यह फार्माकोपियां वर्णित माजरिपून नहीं है। वे और भी लिखते हैं कि कोंकण में इसकी जड़ का रस दो तोला की मात्रा में शीतल दुग्ध के Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपराजिता साथ पुरातन काम में कराड्य (कफ निस्सारक) रूप सेव्यहार में आता है । इससे उकेश (मतली) तथा वमन जनित होता है । विभेदक में ताराजिता की जड़ का रस नकुलों द्वारा फूंका जाता है I एन्सली विवसियाजननी किंवा वामक प्रभाव के लिए घुडिकास वा स्वरवनी कास (Croup) में अपराजिता की जड़ के उपयोग का वर्णन क रते हैं । "गाल डिस्पेंसेटरी" नामक पुस्तक के रचयिता बहुत से प्रयोगों के पश्चात् अपराजिता के वांतिकरन गुण को स्वीकार करते है । वे लिखते हैं कि अपराजिता की जड़ का " एल्कोहलिक् एक्सट्रैक्ट" ५ से १० येन की मात्रा में शीघ्र विरेचक सिद्ध हुआ। किंतु इसके सेवन से रोगी के पेट में दर्द ( ऐन ) एवं बारम्बार मल त्यागने की इच्छा होती है और बहुत वेदना के बाद थोड़ा मल निकलता है । सुतरां वे इसे व्यवहार करने का परामर्श नहीं देते। सर्व प्रथम इसका बीज टमैटी ( Ternate) द्वीप से जो मलक्काद्वीपों में से एक है, इंगलैंड में लाया गया। अस्तु, इस पौधे का यह प्रधान नाम हुआ । हेंस ( Haines ) इसके ( नीलापराजिता पुष्प ) टिंकचर को लिट्मस ( चारचोतक ) की प्रतिनिधि बतलाते हैं । ( फा० इं० १ खंड, ४५६--४६० ) । डॉ० आर० एन० खोरी-अपराजिता की जह, स्निग्ध, मूत्रकारक एवं मृहुरेचक है और पुरातन कास, जलोदर, शोध एवं प्लीहा व यकृत विवृद्धि तथा उवर और स्वरधनी कास ( Croup ) में व्यवहृत होती है । श्रपराजिता की जड़ को शीत कषाय स्निग्ध ( Demulcent) रूप से वस्ति तथा मूत्र प्रणालीस्थ क्षोभ श्रौर कास में व्यवहार किया जाता है। श्रद्धविभेदक अर्थात् धकपाली रोग में इसकी ताजी जड़ के रस का नस्य देते हैं। इसका ऐक्सट्रैक्ट शीघ्र रेचक तथा कालादाना, गुलबास बीज और जलापा की उत्तम प्रतिनिधि हैं । (मेटिरिया मेडिका श्रॉफ इंडिया २ य खंड २०६ १० ) । For Private and Personal Use Only Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रपराजिता मि० मोहीदीन शरीफ स्वानुभव के ग्राधार पर इसकी जड़ की छाल के १-२ डाम को मात्रा के शीत कपय की वस्ति एवं सूत्रप्रणाली अन्य क्षोभों में स्निग्ध प्रभाव करने की बड़ी प्रशंसा करते हैं। साथ ही इसका मूत्रजनक और किसी किसी में महुरेत्रक प्रभाव होता है । इसके बीज रेचक हैं | फा० ई० । इसके पत्र का शीत कपाय विस्फोटक ( Eruptions ) में व्यवहृत होता है । वैद० | इसके पत्ते के रस को आईक के साथ मिला कर तपेदिक ( Iletic fever) में स्वेद थाने की हालत में व्यवहार करते हैं। टेलर । कर्णशूल में विशेषतया उस अवस्था में जब कि कान के आस पास की अंथियाँ सूज गई हों, तब कान के चारों ओर अपराजिता के पशे के रस में सेंधानमक मिलाकर गरमागरम लेप करें। ए० सी० मुकर्जी । डॉ० नरकारिणो- अपराजिता के बीज को भून कर चूर्ण प्रस्तुत करें। इसको जलोदर और नीहा व यकृत त्रिवृद्धि में २० से ६० ग्रेन ( १५ से ३० रत्ती ) की मात्रा में प्रयुक्त करें । साधारणतः इसको इस प्रकार वर्तते है -२ भाग क्रीम ऑफ़ टार्टर, १ भाग सौंठ और १ भाग अपराजिता के बीज, इनका चूर्ण बनाएँ । मात्रासे १ ड्रम | उपयोग- इनको दृष्टिनैर्बल्य, कंक्षत, श्लेष्मविकार, बुदि, स्वग्दोष तथा शोध आदि रोगों मैं बते हैं । ! एक दो वा अधिक बीजों को भूनकर फिर मानुषी दुग्ध में पीसकर वा घीमें भूनकर बालकों के उदरशूल तथा मलावरोध में देते हैं। जड़ का एल्कोहलिक एक्सट्रैक्ट भी एक से दो ड्राम की मात्रा में उपयोगो है | ( इंडियन मेटिरिया मेडिका पृष्ठ २२१-२२२ ) । ३८२ धार० एन० त्रोप्रा - श्रपराजिता की जड़ अलशोधक तथा मूल है और सर्प के त्रिष में यु होती है । ( इं० ० ० पृ० ४७६ ) । अपराजिता की पक्षी का कुल्क प्रस्तुत कर ना श्रपराजिता लेहः.. खन खोर अर्थात् नरकहिया ( Whitlow) फोड़े पर बाँधने और निरन्तर जल से तर रखने से बहुत शीघ्र लाभ होता है | परीक्षित | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २ ) पीत निगुण्डी । ( ६ ) जयन्ती वृत । रा०नि० ० २३, ४ । ( ४ ) शालपर्णी | भा० पू० २ भा० । (१) श्वेत सिंधुबार 1 ( ६ ) ब्रह्मी : ( ७ ) एक प्रकार की शमी | रा०नि० ० ८ ( ८ ) शेफालिका | रा० नि० ० ४ । ( ६ ) शङ्खिनी । (१०) एक प्रकार का पुषा । ( ११ ) एक प्रकारका हषुषा । रा० नि० ० ४ अपराजिता धूपः aparajita-dhūpah - सं० ० बिनौला, मोरपंख, बड़ी कटेरी, शिवनि. मोदय, सगर, तज, वंशलोचन, बिल्ली का बि धान के तुप ( भूसी ), वच, मनुष्य के बाल, काले साँप की केचुली, हाथीदाँत, गौ का सींग, हींग, मिर्च, इन्हें बराबर लेकर धूप बनाएँ । यह धूप पसीना, उन्माद, पिशाच, राक्षस, देवता का आवेश, उवर इन सबका नाश करता है। गृह में इनकी धूप ( धूनी ) दे तो सब बालग्रहों को दूर करता है और पिशाच तथा राक्षसों को निकालकर सब उवरों को नाश करता है । यो० चिन्ता म० । श्रपराजिनायोगः aparajitáyogah सं० पुं० सफेद कोयल की जड़ को पीस प्रातः काल पीएँ तो गलगण्डरोग नष्ट होता है। इसके ऊपर से शुद्ध गोघृत पीएँ और पथ्य से रहें। योग० त० गल० ग० नि० । अपराजितालेह : aparajitälehah-सं० पु० (१) काकड़ासिंगी, कचूर, पीपल, भारंगी, गुड़, नागरमोथा, जवासा, तैल इनका लेह ( चटनी ) बना चाटने से वात की खाँसी नष्ट होती है। चक्र० द० । ( २ ) मजीठ २ तो०, कुड़ा सो०, भांगरा की जड़ २ तो० इन्हें कूट कर ६४ तो० जल में पकाएँ । जब चतुर्थांश शेष रहे तो छानकर रस निकालें और उसमें = तो० मिश्री, बकरी का दूध १६ सो०, बेल फल अतीस इनका पूर्व For Private and Personal Use Only Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपराधीन ३३ अपरिपूर्णविलयन १- तो मिला तथा नागरमोथा, इन्द्रजौ १-१ | अपरिच्छिन्न aparichchhinna-हि० वि० तो० मिलाकर पकाएँ । जब चटनी सी हो जाए [सं०] (1) जिसका विभाग न हो सके। तब उतार रखें । इसके सेवनसे ग्रहणी, अतिसार । अभेद्य । (२) जो अलग न हुअा हो । मिला दूर होते है। हुश्रा । (३) असीम सोमा रहित । (३) मजीठ २ तो०, कुड़े की छाल ८ तो०, ! मपरिणत aparina ta-हिं० वि० [सं०] · भांगरामूल । तो. इन्हें कूट कर १०२४ तो. (१) अपरिपक्व । जो पका न हो । कच्चा । जल में पकाएं जर चौथाई रहे तो इसमें १६ । (२) जिसमें विकार और परिवर्तन न हुश्रा तो. बकरी का दूध मिलाकर पकाएँ। जब गाढ़ा हो । विकार शून्य । ज्यों का त्यों। : चटनी के तुल्य हो जाए तब इसमें सौ , अतीस, | अपरिणामी parinami-हि. वि० [सं० नागरमोथा, इन्द्रजी, एक एक तोला मिला कर अपरिणामिन् ] [ स्त्री. अपरिणामिनी ] रक्खें । इसे खाएँ और ऊपर से कॉजी, खटाई। परिणाम रहित । विकार शून्य । जिसकी दशा इनमें सिद्ध मांस खाएँ और बकरी का दूध पिएँ। में परिवर्तन न हो । तो संग्रहणी, तथा अतिसार दूर हो । वङ्गसे-सं० | अपरिणीत aparinita-हिं० वि० [सं०] संग्रहणी-चि०। [ स्त्री० अपरिणीता ] अविवाहित, क्वारा । अपराधीन aparadhina-हिं० वि० स्वाधीन ।। (Bachelor ). ( An voluntary). अपरिणीता apasinita-हिं० वि० स्त्री० क्वारी, अपरापातन apara patana-सं० पु० आँचल अनूढ़ा । (Maitl, virgin, umnmarried गिराना, खेड़ी गिराना । सु०सं० शा० अ०१०। gir) ). अपगयुः aps dayun सं०० भ्रांतरावरण । | अपरितुष्ट apar tushta-हिं० वि० [सं०] (Amnion). असन्तुष्ट, तृप्तिरहित | ( Dissatisfied.) अपरिपक्क aparipak ka-हिं० वि० [सं०] अपरालः apalāhmah सं० पु. (१) जो परिपक्व न हो। अपक्त्र, कच्चा । अपराह्न aparihina-हिं० पु. (Ulips)। (२) जो भली भाँति पका (Afte]]]0011) दिवस शेप भाग,तीसरा पहर । न हो। सर। अधकच्चा । यो०-अपरिपक्व दिन का पिछला भाग, दोपहर के पीछे का काल कपाय। यह काल प्राट् काल के समान होता है । सु० अपरिपूर्ण योग paripāyana-yoga-हिं० पु. ( Unsaturatod compound ). अपरिक्लिन apaiklinia-f० वि० [सं०] ऐन्द्रियक रसायन के अनुसार यदि कार्बन वा शुष्क । सूखा । किसी अन्य तत्व के परमाणु के साथ अन्य तथ अपरिगृहीता pirigrihitā-सं०(हिं०) स्त्री. के संयोग से उसकी कोई शनि वा स्थान रिक अविवाहिता स्त्री, रखेली स्त्री। हो तो उसे अपरिपूर्ण योग कहते हैं, जैसेअपरिचालक parichalaka-हिं० वि०प्र० एसीटिलीन जो के जलन के एक और उदजन के . रोधक,प्रवाहक । जो विद्युत धाराका वाहक न हो। दो परमाणुओं का एक यौगिक है। (Nonconductors-insulator.) अपरिपूर्णविलयन aparipurna-vilayana अपरिच्छद aparichchhada)-हिं० वि० -हिं० पु. (Unsaturated-solution) अंपरिकछन्न aparichchhannas [सं० ] रसायन शास्त्रानुसार जब किसी द्रव में विलेय प्रच्छन्न aprachchhanman ) आच्छादन पदार्थ का बिल यन करते समय उस पदार्थ का. । रहित, श्रावरण रहित । जो ढका न हो। नंगा । धुलना बन्द न हो अर्थात् वह घुलता ही रहे, खुला। तो वह विलयन अपरिपूर्ण विलयन कहलाता है। For Private and Personal Use Only Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -हि० वि० [सं०] अपरिमाण अपवन अपरिमाण apariināna अपरेशन apareshana-हिं० संज्ञा पु. अपरिमित aparimita [अं ऑपरेशन ] (Operation ) शस्त्र परिमाणहीन, असंख्यात, अनंत । ( Uulini- | चिकित्सा । चीरफाड़। ted ). अपरोक्ष uparoksha-हि० पु. प्रत्यक्ष, समय । अपरिमेय aparimeya-हिं० वि० [सं०] ( Present.) जिसका परिमाण न पाया जाए। जिसकी नाप । अपर्णा uparni-f६० संज्ञा स्त्री० [सं० ] न हो सके। अपरना, पत्रशून्य । ( Leafless). अपरिम्लानः aparimlanah-सं० पु. अपर्याप्त aparyāpta-हिं० वि० [सं०] (The red var. of Barleria prio अयथेष्ट, अपूर्ण, स्वल्प, थोड़ा, कानी नहीं। nites) रक अम्लान पुष्प वृत्त । लाल ( A little, oot enough.) | कटुसरैया -हिंवि० जो न कुम्हलाया हो, ताज़ा | • खिला हुआ । ( Newly opened ). | अपवंदण्डः aparvva-dandah-सं-पु. अपरिवर्तनीय aparivarttaniya-हिं०वि० | ___ रामशर, सरपत । ( Saceliarum sara) रा०नि००। [सं०] (१) जो परिवर्तन के योग्य न हो । जो बदल न सके। अपर्स uparsa-हिं. संज्ञा पु. कुष्ठ, कोछ । (२) जो बदले में न दिया जा सके। (leprosy )। दे० अपरस । अपरिवृत्त aparivritta-हिं० वि० [सं०]! अपर्स apurs-बिलूच०, शर्बत-हिमाल । धूपी । जो ढका था घिरा न हो । अपरिच्छन्न । धूपड़ी, चन्दन-नैपा०1 (Juniperus exअपरिष्कार aparishkāra-हिं. संज्ञा पु० celsa) मे० मो० । [सं०] [वि. अपरिष्कृत ] (1) संस्कार का | अपलक्षण apalakshana-हिं. संज्ञा पु' अभाव असंशोधन । सनाई वा काट छाँट का न | (1) अपशकुन । (२) (A Bad Sign) होना । (२) मैलारन (३) भद्दापन। कुलक्षण । युरा चिन्ह । दोष । (३) दुष्टलपण। अपरिष्कृत aparishkrita-हिं० वि० [सं०] | अपलक्षणा apalakshana-हिं० वि. स्त्री० (१) जिसका परिष्कार न हुआ हो । जो साफ न | [सं०] बुरे लक्षण वाली । दुष्ट लपण | किया गया हो । (२) मैला कुचैला । (३) (of a bad sign, ominous. ] बेडौल, भद्दा । अपलापः apa āpah-सं० पु. ) [वि० अपरिसर aparisara-हिं० वि० संकीर्ण, संकु- अपलाप apalapa-हि. संज्ञा .) अपलाचित । ( Crowded). पित] यह पेट और छाती ( अर्थात् धड़) के मर्मों अपरीक्षित aparikshita-हिं० वि० [सं०] में से एक शिरा मर्म है जो ( अंसकूट कंधों) [स्त्री० अपरीनिता ] जिसकी परीक्षा न हुई हो। से नीचे तथा पाचौँ (सबाड़ों) के ऊपर एक जो परस्त्रा न गया हो । जिसकी जाँच न हुई हो। एक दोनों ओर स्थित है। सु० शा० ६ ०। जिसके रूप, गुण, परिमाण और वर्ण आदि का 'अपलाषिका apalashika-सं० स्त्री. पिपासा, अनुसंधान न किया हो। प्यास ('Thirst)। हे० च०। अपरूप aparāpa-हिं०वि० [सं०] ( Defo- | rmed ) कुरूप बदशकल । भहा । बेडौल । अपवनम् apavanam-सं० क्ली० ) कृत्रिम (२) [ अपूर्व का अपभ्रंश ] अद्भुत । अपूर्व । | अपवन apavana-हिं० संज्ञा पुण बन, अपरेयुः aparedyuh--सं० [अव्यय | (An artificia) garden.) उपवन, पर दिन । बाग | हे० च०। For Private and Personal Use Only Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपवरका ३५५ अपस्तम्भ (म्ब) मर्म अपवरः apavarakah-सं० पु. गर्भगृह । अपसव्यः apasavyab-सं० त्रि.) (1) ( Inner room. ) हला | See-Ga अपसव्य apasavya-हिं० वि० । दक्षिण, ___rbhagriha. दाहिना (Right.)। (२) प्रतिकूल, उखटा, अपवर्ग: apa-vargah-सं० पु. ) विरुद्ध (Opposite)। सव्य का उलटा । अपवर्ग apavarga-हिं• संज्ञा पु. मे। (1) अभिस्याप्य में से अपकर्षण करने को । अपसार apasāra-हिं. संज्ञा पुं० [सं० अप= "अपवर्ग" कहते हैं, जैसे-विष-शास-विदों के जल+सार ] (1) अचुकण । पानी का छींदा । सम्मुख सिवा कीर विष वालों के विषोपसष्ट स्वेद (२) पानी की भाप । योग्म नहीं होते। इसमें से "विषोपसृष्ट प्रस्वेच अपवाहक apavahaka-हिं० वि० [सं०] अर्थात् स्वेदन क्रिया के अयोग्य होते है" यह स्थानांतरित करने वाला । एक स्थान से किसी वह व्यापक है जिसमें से कीट विष वाले पृथक् । पदार्थ को दूसरे स्थान पर ले जाने वाला। कर दिए गए। सु० उ० ६५ अ० श्लो०१६। अपवाहन apavahana-हिं० संज्ञा पुं० [सं०] (२) मोक्ष, मुक्रि--हिं० | Liberation स्थानांतरित करना । एक स्थानसे दूसरे स्थान पर ले जाना। Deliverance. -इं० । (३) त्याग । अपवाहित apavahita-हिं० वि० [स] अपवर्तन apavartan-हिं० संज्ञा पु. परि-! एक स्थान से दूसरे स्थान पर लाया हुआ। धर्तन, उलटफेर, पलटोव । स्थानांतरित । अपर्तित apavartita-हि० वि० [सं०] अपवाहक apavāhuka-हिं. सज्ञा पु. बदला हुआ । पलटाया हुश्रा | लौटाया हुआ। [सं०] देखो-अपवाहुकः। अपयश apavasha-हि. वि० [हिं० अप- | अपशकुन apashakuna-हिं० संज्ञा पुं. अपना+सं० वश ] अपने अधीन। अपने वश [सं०] कुसगुन । असगुन । का । स्वाधीन । (Voluntary) पररश का अपशब्द apashabda-हिं० सभा पु० [सं०] उलटा । पाद । अपान वायु का छूटना । गोज । पईन । अपविद्ध apaviddha-हिं० वि० [सं०11) अपसर्पण apasarpana-हिं० संज्ञा पुं. त्यागा हुआ । स्या, छोड़ा हुा । (२) बेधा | [सं०] [ वि• अपसर्पित ] पीछे सरकना । हुप्रा, बिछ । (३) चूर्णित । पीछे हटना। अपविषा apavisha-सं० स्त्री० निर्विषतृण, । अपसर्पित apasarpita-हिं० वि० [सं०] fafári ( Curcuma zedoariæ. ) पीछे हटा हुश्रा । पीछे सरका हुअा।। रा०नि० । अपसारण apasārana-हिं० पु. (भौ० वि०)( Repulsion.) अपकर्षण । अपशोक: apa-shokah-सं०पू० अशोक वृक्ष। अपस्कम्भः apaskambhah-सं० पु. ( Saraca. Indica. ) रा० नि० (Sympiocos racemosa ) लोध । २०१०। अथर्व०।४।६।४।। अपष्ट apashta-हिं० वि० अस्पष्ट, गुह्य । (Not अपस्करः apaskarah-सं० पू०(१)मलclear, hidden ). द्वार, चूति। एनस ( Anus )-ई. । (२) अपसरण apasarana-हिं० पु. प्रस्थान, विष्ठा, पुरीष । ( Feces) धर०। चला जाना। | अपस्तम्भ (म्ब) मर्म apas tambha,-mbai अपसर्जन apasarjana-हिं संज्ञा पुं॰ [सं०] malmma-सं० क्ली० उदर और वहस्थ मर्मों विसर्जन | स्याग । में से एक शिरा मर्म विशेष । यह उर (हृदय) ४६ For Private and Personal Use Only Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपस्मार अपस्तम्भिनी ३८६ की दोनों ओर वायु को वहाने वाली दो नाड़ियाँ "अपस्तम्भ" नामक दो मर्म हैं। सु० शा० अपस्तम्भिनी apastambhini-सं० स्त्री० शिवलिङ्गिनी लता, शिवलिङ्गो । (Biyonia). वैनिघ०। अपस्मारः,-"स्मृतिः" apasmāra b,-sm ritih-सं० पु. अपस्मार-हिं० संज्ञा पु० [वि. अपस्मारी ] स्त्रनामाख्यात प्रसिद्ध वात व्याधि, परियाय से होने वाला एक रोग विशेष । इसमें हृदय काँपने लगता है और आँखों के सामने अँधेरा छा जाता है । रोगी काँप कर पृथ्वी पर मूच्छित हो गिर पड़ता है। उसके हाथ पाँव में प्राकुचन होता और मुंह से झाग भाता है। पर्याय-अंग विकृति, लालाध, भूत विक्रिया मगी-सं०, हिं०,-बं०। मिरगी-हिं०, उ० । फे. फ्रे-म०। सर-अ० । मर्ज काहनी, म.ज साक्रत । अबर कलसा; अन प्रकलसा-यु०। एपिलेप्सी Epilepsy, एपिलेप्सिया Epile. psia-इं० । मॉईस कॉमिटिएलिस Morbuscomitialis, सासर मेजर Sacer major-ई० । एपिलेप्सी Epilepsic, हॉट मैल Haut mal-फ्रां) | फालसुलूट Fallsucht-जर। पर्याय-निर्णायक नोट-इस रोग में स्मृति नष्ट हो जाती है। इसलिए इसको अपस्मार कहते हैं। सर के शाब्दिक अर्थ गिर पड़ना, गिरना गिराना श्रादि हैं । परन्तु, तिब्ब की परिभाषा में मृगी को कहते हैं । इस रोग में संज्ञा व चेष्टावहा इंद्रियाँ अव्यवस्थित हो जाती है, ऐच्छिक मांस पेशियों में प्राकुञ्चन होता है और रोगी मूञ्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ता है। इसी कारण इसको उक्त नाम से अभिहित करते हैं। फारसी में इसको नैदुलान कहते हैं। नोट-शेष शब्दों की व्याख्या क्रमशः उम उन शब्दों के सामने की जाएगी। निदान व सम्प्राप्ति प्रायः यह रोग पैतृक होता है। परन्तु शिशुओं में दाँत निकलना, उदरीय कृमि, अकस्मात भय का होना, युवा पुरुषों में अति मैथुन, हस्तमैथुन, मस्तिष्क को याघात पहुँचना, मस्तिष्क वा मस्तिष्कावरक प्रदाह, चिंता, शोक, मानसिक ४.म की अधिकता, मद्यपान, उपदंश, वातरक वा सन्धिवात और रविकार इत्यादि नासिका, कंड, प्रांत्र और जननेन्द्रिय में किसो चिरकारी क्षोभक व्याधि की उपस्थिति, स्त्रियों में मासिक दोष मादि इसके कारण हैं। लिखा भी हैचिन्ता शोकादिभिः क्रुद्धा दोषाहस्रोतसिस्थिताः । कृस्त्रा स्मृतेरपध्वंसमपस्मार प्रकुर्वते ॥ अर्थात्-चिंता,शोक और भयके कारण कुपित एवं हृदय में स्थित हुए दोष ( अय ) स्मृति का नाश कर अपस्मार रोग को करते हैं। तथाच वाग्भट्टःस्मत्यपायोपस्मारः संधि सत्याभि संप्रचात् जायतेऽभिहते चित्ते चिंता शोक झ्यादिभिः । उन्मादवप्रकुपितैश्चित्तदेह गतैर्मलैः ॥ हते सत्वे हृदि व्याप्ते संज्ञावाहिषु खेषु च | (वा० उ००७)) अर्थात्-जिस रोग में स्मृति का नाश हो जाता है, उसे अपस्मार कहते हैं। बुद्धि और सत्वगुण में विप्लव होने के कारण चिंता, शोक और भवादि द्वारा श्राक्रमित हुश्रा चित्त तथा उन्माद के सदृश चित्त और देह में रहने वाले प्रकुपित होपों से सत्व गुण नष्ट होकर, हृदय और संज्ञाचाही संपूर्ण स्रोतों में व्याप्त हो जाता है। इसीसे स्मृति का नाश होकर अपस्मार उत्पन्न होता है। अपस्मार के भेद वैद्यक शास्त्रानुसार यह चार प्रकार का होता है, यथा अपस्मार इति श्रेयो गो घारश्चतुर्विधः। (मा० नि०) For Private and Personal Use Only Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपस्मार या "सच दृष्टश्चतुर्विधः" वातपित्त कफैन णांचतुर्थः सन्निपाततः। (सु०) अर्थान्-(१) वातज, (२) पित्तज, (३)कफज और (४) सन्निपातज। (यह रोग नैमित्तिक है) डाक्टरी मत से यह दो प्रकार का होता है(१) प्रैण्डमाल ( Grand Mal) या हॉट माल ( IIaut Mal) अर्थात् उग्र अपस्मार या सरअ शदीद और (२)पेटिट माल ( Petit Mal) अर्थात् साधारण अपस्मार या सरन खतीक । परंतु इस रोगका इससे भी एक साधारण प्रकार वह है जिसको अंगरेज़ी में एपिलेप्टिक वर्टिगो ( Epileptic Vertigo ) अर्थात् : प्रापस्मारिक शिरोघूर्णन या दुवार सरइ कहते । हैं। इससे भिन्न अपस्मार की एक और अवस्था है जिसको गरेजी में स्टेटस एपिलेप्टिकस ( Status Epilepticus ) अर्थात् प्रापस्मारिकावस्था या सरश मुत्वातिर कहते हैं । इसके अतिरिक्र बच्चोंके अपस्मारको बाल अपस्मार: वा शिश्वपस्मार तथा अंगरेजी में इन्फेण्टाइल कन्वल्शन (Infantile convulsion) और अरबी में सड़ल अतफाल या उम्मुरिसिध्यान आदि नामों से पुकारते हैं। - नोट-यूनानी भेदों के लिए देखिए सरऋ । पूर्व रूप जो किसी किसी समय रोगाक्रमण काल के बहुत समीप उपस्थित होता है। यहाँ तक कि रोगी अपने श्रापको सँभाल नहीं सकता और कभी उससे एक वा दो दिवस पूर्व उपस्थित होता है । पूर्वरूप में से यह एक प्रधान लक्षण है कि रोगी को अपने शरीर के किसी मुख्य भाग साधारणतः हस्तपाद की अंगलियों या पेट पर से सुरसुराहट मालूम होती है, जो वहाँ से प्रारंभ होकर ऊपर को जाती हुई शिर तक पहुँचते ही रोगी को मूच्छित कर देती है और रोग का दौरा हो जाता है। उक्र प्रकार की | सुरसुराहट को डॉक्टरी की परिभाषा में पारा एपिलेप्टिका (Aura Epileptica) अर्थात् | नसीम सरन (मृगी की सुरसुराहट) कहते हैं । इसके अतिरिक्त रोगाक्रमण से पूर्व शिरोशूल एवं शिरोघून होता है अथवा नासिका से एक प्रकार की गंध आने लगती है और आँखों के सामने चिनगारियाँ सी उड़ती प्रतीत होती हैं । कभी दौरे से पूर्व भयावह रूप दिखाई देते और कर्णनाद होता है, बुन्द्रि भ्रंश एवं किञ्चिन् निर्बलता होती, कभी ज्वरका वेग होता और कभी श्राक्षेप होकर शिर किचित् एक कंधे की ओर झुक जाता है, जो एक प्रधान लक्षण है | कभी कभी कोई रूप प्रगट नहीं होता | आयुर्वेद में भी प्रायः यही बातें लिखी है, यथाहृत्कम्पः शुन्यता स्वेदो ध्यान मूर्छा प्रमूदता । निद्रानाशश्च तस्मिंश्च भविष्यति भवत्यथ ॥ मा० नि। अर्थात्- हृदय को काँपनी, हृदयकी शून्यता, स्वेदस्राव, विस्मित सा रहजाना, मूर्छा ( मनोमोह ), अत्यन्त प्रचेतता और अनिद्रा आदि लक्षण अपस्मार रोग होने से पूर्व होते हैं। रोगाक्रमणकालीन सामान्य लक्षण जब इस रोग का अाक्रमण होता है सब रोगी . साधारणतः एक चीख़ मारकर और मूञ्छित हो. कर पृथ्वी पर गिर पड़ता और तड़पने लगता है । हस्तपाद प्राकुचित होकर मुखमण्डल भया. वह और नीलवण का हो जाता है, नेत्रपिण्ड · ऊपर को फिर जाते एवं निश्चेष्ट हो जाते हैं। परन्तु, कभी कभी उनमें गति भी होती है, हृदय धड़कता है, श्वास कष्ट से प्राता और मुंह से झाग पाता है । कभी जिहा दाँतोके भीतर भाकर कट जाती है । मूर्छितावस्था में ही मन व मूत्र का प्रवर्तन और शुक्र का स्खलन हो जाता है। फिर एक ओर से हस्तपाद में एक मटका सा लगकर आक्षेप प्रशमित हो जाता है तथा रोगी एक सर्द श्राह भरकर कुछ काल तक मूपिईस पड़ा रहता है। तदनन्तर ज्ञान होने पर उसकी बुद्धि ठिकाने नहीं रहती । अपितु, क्रान्ति, जिरोशूल, शिरोभ्रमण, अजीण स्थानिक प्राप था पक्षाघात तथा बुद्धिभ्रंश आदि विकार शेष व For Private and Personal Use Only Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपस्मार अपस्मार जाते हैं । उन्मत्तके समान कमी कभी रोगीको क्षोभ उत्पन्न हो जाता है। रोगाक्रमण काल ३ मिनट से १०मिनट पर्यन्त और कभी आध घंटा तक होता है। इस रोग के वेगकी न्यूनाधिकता विभिन्न व्यक्रि में एवं एक ही व्यक्रिको भिन्न भिन्न काल में विभिन्न होती है । यथापक्षाद्वाद्वादशाहादा मासाद्वा कुपिता मलाः । अपस्मारायकुर्वति वेगं किञ्चिदथान्तरम् ॥ देवे वर्षस्यपियथा भूमौ बीजानि कानिचित् । शरदि प्रतिरोहन्ति यथा व्याधि समुछ यः॥ मा० नि। अर्थ:-चात प्रादि दोषों के प्रक पित होने से वातज का दौरा बारहवें दिन, पित्तज का पन्द्रहवें दिन और कफज का तीसवें दिन होता है। कभी कभी उपयुक्र अवधि को छोड़कर न्यूनाधिक दिनों में भी होता है। उदाहरणार्थ-जैसे चौमासे में मेघ के बरसने पर भी भूमि में पड़े हुए गेहूं चने मादि बीज शरदऋतु में उगते हैं। उसी प्रकार सम्पूर्ण रोगोंके बीज रूप वात प्रादिक दोष कभी किसी मृगी आदि रोग विशेष के निदान आदि के संयोग होने से उस रोम को प्रकट करते हैं। अतः एक रोगी को १७ वर्ष पर्यंत प्रति दिन 'रात्रि को एक बार इसका वेग होता रहा और एक अन्य ऐसे रोगी को हर रात्रि को १० बार रोग का वेग होता रहा तथा एक तीसरे को ६१ वर्ष की अवस्था में केवल ७ बार वेग हुआ । . पेटिट माल अर्थात् सामान्य प्रकार की मृगी अन्य नौबती रोगों के साश कभी नियत कोल पर सप्ताह में एक बार या मास में एक बार होती है। कभी मृगी का वेग स्वमावस्था में हो जाता है जिससे रोगी अथवा किसी अन्य व्यक्ति को उसकी सूचना तक भी नहीं होती । स्टेटस एपिलेप्टिका मृगी रोग की वह अवस्था है जिसमें पण क्षण में वेग होते हैं । एक वेग का अंत भी नहीं होने पाता कि दूसरे वेग का प्रारम्भ हो जाता है। यह दशा अत्यंत शोचनीय होती है। एपिलेप्टिक वर्टिगो ( प्रापस्मारिक शिरोधून) अर्थात् मृगी के कारण शिरोभ्रमण-इसमें रोगी को क्षण भर के लिए चकर पाकर किनिन् मूरहीं श्रा जाती है। किसी किसी रोगी को इसका वेग इतना अल्प होता है कि समीपस्थ तथा ध्यान देने वाले व्यक्रिया को उसका पता नहीं लगता। और किसी किसी में अल्पसी विसंज्ञता होकर मुखमण्डल एवं ग्रीवा का तशज (प्राशेप) उपस्थित हो जाता है, नेत्रकनीनिका प्रसरित हो जाती है और एक गम्भीर श्वास लेकर रोगी होश में प्राकर काम में लग जाता है। दोषानुसार अपस्मार के लक्षण . वातापस्मार--वात के अपस्मार में रोगी काँपता, दाँत पीसता व चबाता, फेन का बमम करता अर्थात् मुख से माग डालता, खर श्वास लेता और कोर (रूक्ष), धूसर लाल, काले रंग के मनुष्यों को देखता है अर्थात् उसे ऐसा प्रतीत होता है मानो कोई उक वर्ण वाला मनुष्य उसके ऊपर दौड़ा पाता है। मा० नि० । वासज अपस्मार में रोगी का पाँव काँपने लगता है, बार बार गिरता पड़ता है तथा ज्ञान के नष्ट हो जाने से वह विकृत स्वर से रुदन करने लगता, चारों गोल सी हो जाती, श्वास लेता, मुख से भाग डालता, काँपने लगता, शिर को घुमाता, दाँतों को चपाता, कन्धों को ऊंचे करता और अंग को चारों ओर फेंकता है। देह में विषमता हो जाती और सम्पूर्ण अंगुलियाँ टेड़ी पड़ जाती है। मार्स स्वचा, नख और मुख रूक्ष, श्याव, अरुण या काले पड़ जाते हैं। रोगी को चंचल, कर्कश, ' विरूप और विकृतानन सम्पूर्ण वस्तु दिखाई देने लगती है। वा० उ०प्र०७। पित्तापस्मार-पित्तापस्मारी के मुखके माग, देह, मुख और अखें पीली हो जाती हैं। वह समग्र वस्तुओं को पीतलोहित वर्णान्वित देखता है अथवा उसे ऐसा दीखता है मानो कोई पीने रंग का मनुष्य सामनेसे दौड़ा पाता है, यथा"पीतोमामनुधावति"-सुश्रुत, और तृषायुक्त होकर वह सम्पूर्ण जगत को इस भौति देखता है मानो वह उष्णता एवं अग्नि से व्याप्त हो । . For Private and Personal Use Only Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३t अपस्मार मा. नि०। बारबार चेत कर लेना, स्वचा का (१) अपस्मार तथा शिरोभ्रमणपीला पड़ जाना, भूमि को खोदने लगना, प्यास अपस्मार रोगी अकस्मात पृथ्वीपर गिर पड़ता का लनना और भयानक, प्रदीप्त एवं क्रोधित रूप है और उसके हस्तपाद आक्षेपग्रस्त हो जाते हैं देखना श्रादि लक्षण वाग्भट्ट महोदय ने अधिक एवं उसके मुख से कफ जारी होता है। इसके लिखे हैं। विपरीत शिरोघूर्णन में यद्यपि रोगी चकर स्वाकर कफापस्मार-कफ की मृगी वाला रोगी गिर पड़ता है तो भी न उसके हस्तपाद आपेपसफेद रंग के रूप को देखकर ( मानो कोई श्वेत प्रस्त होते हैं और न तो मुख में झाग ही पण का मनुष्य सामनेसे उसके पास दौड़ा प्राता श्राता है। है ऐसा देखकर-सुश्रुत) मूञ्छित हो जाता है। (२) अपस्मार और योपापस्माररोगी का मुख, मुख का भाग, नेत्र और अंग . देखो - योषापस्मार । सफ़ेद हो जाते हैं, शरीर शीतल हो जाता है, (३) अपस्मार और प्राक्षेपकरोमहर्ष होता और देह में भारीपन होजाता है। देखो-आक्षेपक । श्लैष्मिक मृगी का रोगी अन्यान्य मुगी बालों की स्वास्थ्य संरक्षण अपेक्षा देर में चैतन्य होता है। मा. नि। रोगारम्भ से पूर्व जिस स्थान पर सुरसुराहट मुख से लार का अधिक गिरना और नख का का बोध हो उससे ऊपर एक रूमाल या पटका " श्वेत हो जाना वाग्भट्ट ने अधिक लिखे हैं। कसकर बाँधना और वेग से पूर्व उक्र क्रिया का वा० उ०७ अ० । दोहराना या उक्र स्थल पर चुटकी लेना, सर्दी, त्रिदोषज वा सान्निपातिक अपस्मार गर्मी अथवा बिजली लगाना या ब्लिष्टर लगाना और अपस्मार की असाध्यता (फोस्का उत्पन्न करना) या उस स्थल की नाही जिसमें तीनों दोषों के लक्षण मिले उसे त्रिदो. का छेदन करना, प्रायः लाभदायक सिद्ध होता पज अपस्मार कहते हैं। यह तथा क्षीण पुरुष का पुराना अपस्मार भी असाध्य है। जो बहुत कापे, दोनों हाथों को उष्ण जल में रखना मन्था पर पीण हो और जिसकी भौंह चलायमान हो और बर्फ़ लगाना,५१०मिनट तक उछलना कूदना नेत्र टेढ़े हो जाएं ऐसे अपस्मार रोगी असाध्य हैं। या ज़ोर से पढ़ना, वस्तिदान, वमन कराना या मा० नि। विरेचन देना, २० ग्रेन क्रोरल एक पाउंस पानी पैतृक अपस्मार को कम लाभ हुश्रा करता है। में मिलाकर पिलाना या । ग्रेन माफिया (अहि. अन्य प्रकार की वात व्याधियों की अपेक्षा फेन सरब) और -ग्रेन ऐट्रोपीन ( पन्तूरीन ) मस्तिष्कविकार जन्य अपस्मार, चाहे वह प्रौप. : दंशिक हो या न हो, अधिकतर चिकित्स्य होता का स्वगन्तरीय अन्तः क्षेप करना, श्रादि में मूर्धा :. है। दन्तोद्रेजन्य या श्रान्त्रविकारजन्य शैशव म होनेपर अवयवोंको बलपूर्वक खींचना और शिर काल से प्रारम्भ होने वाला अपस्मार और जिसे विपरीत दिशा की ओर घुमाना, श्वासावरोध में बहुत काल हो गए हों, लगभग असाध्य होते ईथर, बोलोफॉर्म या नाइट्रेट अॉफ इमाइल संघाना इत्यादि उपाय रोग प्रतिषेधक रूप से रोग विनिश्चय उपयोगी सिद्ध हुए हैं। अपस्मारके लक्षण निम्न लिखित कतिपय रोगों रोगी के शिर को तीब्र गतिसे सुरक्षित रखें। के लक्षण के बहुत कुछ समान होते हैं। प्रस्तु, कठिन परिश्रम, अधिक अध्ययन, अति मैथुन इसके निदान करने में उनका विचार कर लेना प्रादि से तथा मद्यपान एवं अधिक सर्दी गर्मी से अत्यावश्यक है: परहेज करना चाहिए । गतिशील एवं घूमती हुई For Private and Personal Use Only Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपस्मार to अपस्मार चीज़ को देखना, ऊँचाई पर चढ़कर नीचे देखना, दौड़ना या घोड़े पर सवार होकर उसे दौड़ाना, स्नानागार के भीतर अथवा जिस ओर से गंदा वायु प्राता हो उस ओर बैठना, मधुर, स्निग्ध व गुरु ( दीर्घपाकी) ए. उष्ण श्राहार का सेवन करना, दिन में सेना, मेघ का गरजन सुनना, विधुत की चमक को देखना और वर्षा में भीगना इत्यादि ये सब हानिकारक हैं । रोग के वेग से पूर्व जिस स्थल पर सुरसुराहट अनुभव हो वहाँ पर कपड़ा या रूमाल बाँधे या | उक्त स्थल पर कोई भक्षक ( वा दाहक ) औषध लगाकर हत उत्पन्न करे । भक्षक योग अर्थात् ( कोष्टिक )-रक मिर्च, राई और फायूंन इनको सम भाग लेकर खूब कूटकर भिक्षावें के तेल में मिलाकर उक्र स्थल पर रखकर बाँध दें। वेग के प्रारम्भ में रोगी के श्राक्षेपयुक्त अययव को खींच कर पूर्व अवस्था पर ले पाना प्रायः वेग को कम कर देता और कभी कभी रोक भी सऊत अजीब ( विलक्षण नस्य )बासमती चावल को श्रावश्यकतानुसार लेकर प्राकग्धमे तर करके सुखालें। फिर बारीक पीस कर रखलें। मात्रा व सेवन-विधि-एक रत्ती इस दवा | · को किसी नली (या इन्सफ्लेटर) द्वारा नासिका ... में फूकें। प्रभाव व उपयोग-प्रतिश्याय, कफज शिरोवेदना, समलवायु, ( इसाबह. ), अविभेदक, ! अपस्मार, बालापस्मार और मूर्छा में लाभदायक है। सूचना-नियत मात्रा से अधिक कदापि सेवन न कराएँ । यदि एक बार में लाभ न हो तो दस पंद्रह मिनट बाद पुनः उतना ही। प्रयोग में लाएँ। अपस्मार के वेग ( दौरे) की चिकित्सा जब मुगी का वेग हो, तब रोगीको ऐसे गृह में जिसमें शुद्ध वायु का प्रवेश हो, सुरक्षित रूप से कोमल स्थान पर सुखपूर्वक लिटाएँ । ग्रीवा, वक्ष तथा उदर के बंधनको ढीला कर दें, शिर को ऊँचा रखें, और दाँतों के बीच में बोतल का कार्क (काग ) या कपड़े को गद्दी रखदें। जिसमें जिला दाँतों तले श्राका कट न जाए। फिर किसी पयुक्र नस्य वा अञ्जन का प्रयोग कराएँ । कभी नाइट्रेट श्रॉफ इमाइल को ५ बु'द की मात्रा में सुंघाने से वेग की तीव्रता कम होजाती है। रोगी के शिर पर शीतन जल अथवा बर्फ़ लगाए । मुखमण्डल पर शीतल जल के छींटे मारें और जब रोगी सर्वथा निश्वष्ट होजाए नय उसको उसी दशा में लेटा रहने दें। तत्क्षण मूच्र्छा निवारण का यत्न न करें। ज्ञान होने पर दो तीन घंटे तक उसकी रक्षा करें। क्योंकि कभी कभी वेग के पश्चात् रोगा मुढ़मति होकर उन्मत्त के समान निदित कामों को करने लगता है। बेग की शांति के पश्चात् प्रायः शिरोशूल हुश्रा करता है । तदर्थ फिनेसेटीन को ५ ग्रेन (२॥ रसी) की मात्रामें देरेसे प्रायः लाभ हो जाता है। वेग काल में हकीम लोग प्रायः हींग और जुन्दबेदस्तर को सिकंजबीन असली में घिसकर इसके कुछ बुद क; में टपकाते हैं अथवा कुन्दश, श्वेत कटुकी या इन्द्रायन का गूदा या कानी मरिच या कलौंजी, सोंठ, मुर्मकी, फ्रा'यून अथवा जुन्दबेदस्तर आदि में से जो उपलब्ध हो उसको घिसकर नस्य दें या सुदाब को सुँघाएँ अथवा उदसलोब जलाकर उसका धूम्र नासिका में हुँघाएँ । विराम कालीन चिकित्सा अपस्मार के वेग के प्रशमित होने और उसके स्वरूप एवं कारण का ज्ञान हो जाने पर तदनुकूल चिकित्सा की व्यवस्था करनी चाहिए। अस्तु, दोषों से प्रावृत्त बुद्धि, चित्त, हृदय और सम्पूर्ण स्रोतों के प्रबोध कराने के निमित्त ती वमनादि का दोषानुसार प्रयोग करें। यथा वातिकं वस्ति भूयिकैः पैसे प्रायो विरेचनैः । श्लैष्मिक धमनप्रायैरपस्मारमुपाचरेत् ॥ ( वा० उ०७०) अर्थान-वातिक अपस्मार में वस्ति प्रधान, For Private and Personal Use Only Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपस्मार पैत्तिक अपस्मार में विरेचन और कफज में चमनप्रधान चिकित्सा द्वारा उपचार करें। घमन विरेचनादिद्वारा सब तरह से शुद्ध हुए तथा पेया पानादि द्वारा संसर्गी करके सम्यक प्राश्वासन किए हुए रोगी को अपस्मार की शांति ! के निमित्त उचित संशमन औषधों का उपयोग करना आवश्यक है। बालकों के प्रान्त्रस्थ कृमिविकार या दन्तोवेद होने की दशा में उनका उचित उपचार करें। युवाओं के आमाशय, प्रांत्र तथा यकृन की क्रिया को ठीक करें। किसी रोग के कारण यदि कोई दाँत खराब हो गया हो तो उसका उचित उपाय करें। मलावरोध न होने दें, क्योंकि इससे साधारणतः रोगका वेग हो जाया करता है । नम्बाकू, कहवा, चाय, मद्य एवं अन्य उत्तेजक औषधों से बिलकुल परहेज कराएँ। अधिक अध्ययन एवं कठिन म से बचें । उद्वेग तथा चासनानो विशेषकर काम वासनामों से एवं अन्य दुर्यसनों से सख़्त परहेज करें। चिंता, शोक, भय और क्रोध प्रभति मनोविकारों का अवलम्बन करना, अपवित्रता तथा विरुद्ध, तीक्ष्ण, उष्ण यथा मांस और अंडे प्रभति तथा भारी श्राहार करना अपस्मारी के लिए अहितकर है। स्त्रियों के अनियमित मासिक स्राव को स्वास्थ्यावस्था पर ले पाएँ । पत्र, वच, पटोल, श्वेत कुष्मांड, वास्तुक, दाहिम, शोभाजन ( सहिजन), नारिकेल, द्राक्षा, प्रा. मला, परुषक (फालसा), तैल, गदहे और घोड़े का मूत्र, अाकाश जल और हरीतकी ये अपस्मार रोगी के लिए पथ्य एवं अत्यंत हितकारक हैं । चिंता, शोक, भय, क्रोध आदि मनोविकार,अपवित्रता और समं मत्स्य, विरुद्ध अग्न, तीषण, उष्ण और भारी भोजन ये अपस्मारी के लिग अहित है। देश काल, अवस्था और प्रकृति श्रादि का विचार करके आवश्यकतानुसार निम्न योगों में से किसी एक के उचित मात्रा में उपयोग करने से अपस्मार में लाभ होता है : अपस्मार गजाङ्कश, अपस्मारारि, कल्याण चूर्ण, सूतभस्म प्रयोग, वातकुलान्तक, चण्ड भैरव, इन्द्र ब्रह्मवटी, कुष्माण्ड घृत, स्वल्प पञ्च गव्य घृत, वृहत् पञ्चगव्य घृत, महा चैतस घृत, ब्राह्मीघृत और पलङ्कषाद्य तैल, सिद्धार्थक तैल, कुमारी पासव तथा चतुर्मुख रस इत्यादि। मोट-योग, सेवन-विधि व अनुपान प्रभृति क्रमानुसार दिए जाएंगे। यूनानो वैद्यक की मत से रोग के मूलभूत कारण को दूर करें। भोजन से पूर्व व पश्चात् लधु म विशेषकर अधोशाखाओं का मईन लाभदायक है । म काल में शिर को गति न है। वक्ष व उदर से दोनों पिंडलियों तक किसी मोटे वस्त्र से इतना मईन करें जिसमें अवयव राग युक्र हो जाएँ । श्राद्विक मध्यम अवगाहन करें। चिकित्सा (१) मिश्रित दवाएँ-- नोट-अमिश्रित दवाएँ प्रागे वर्णित हैं। खमीरह, गाबजुबान अम्बरी जद्वार ज.द सलीब वाला ५ मा०, अर्क गजर (गर्हरार्क) वा अर्क गावजुबान प्रत्येक ६ तो० और शर्बत अबरेशम २ तो० के साथ देना अपस्मार में लाभप्रद है। ____ अलीफ़ल उस्तोवुड्स ७ मा० को अर्क मुण्डी ताजी तरकारी और दूध प्रभनि आहार अधिकतर उसकी प्रकृति के अनुकूल होते हैं। साफ स्वच्छ वायु में रहना, देनिक शीतल जल से स्नान करना, प्रात: साय वायु सेवन के लिए जाना, अधिक सोना, रथ्य लघु शीघ्रपाकी श्राहार का सेवन और स्वास्थ्य संरक्षण सम्बंधी नियमों का पालन करना अत्यंत उपयोगी है। अपरञ्च धूपन, अञ्जन, नस्य, शिराध्यधन (कसद खोलना), भय दिलाना, बंधन, भय, तर्जन, ताडन, हर्ष, धुम्रपान, धैर्य देना,स्नान, मईन और | विस्मय आदि भी उसके लिए हित हैं एवं लाल शालिधान्य का चावल, मूंग, गेहूँ, प्रतन, घृत, | कूर्म ( कछुए )का मांस , धन्न रसा, दुग्ध, ब्रह्मी के For Private and Personal Use Only Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपस्मार ३१२ अपस्मार ५ तो० तथा अर्क गावजु बान ७ तो० के साथ देने से लाभ होता है। मन जून ज़बीब ७ मा० को अर्को गावजुबान १२ तो० के साथ देना प्रायः लाभदायक होता ५ मा. उस्तोख ड्रम ५ मा० गदरम्जबूया पत्र (बिल्लीलोटनका पत्ता) ५ मा० बादियान ( सौंफ) ५ मा० ऊदस लीव जुना खुश्क ५ मा० अनीसुं ५ मा. सेवन-विधि--इनको रात में उष्ण जल में भिगोकर प्रातःकाल मल छानकर गुलकंद २ तो० सम्मिलित कर रोजाना प्रातः काल पिलाएँ और मन जून क्रैकरा ७ मा० अर्क बादियान व क्रं गावजुबान प्रत्येक ६ तो० के साथ उपयोगी मुफ्ररिह शेख्नुईस ३ मा० को १ मा० शीरह, गाव बान १२ तो०, अर्क गावज बाम और ४ तो० खमीरा बनासा के साथ देना लाभप्रद होता है। मन जून पार्कही ३ मा० या मन्त्र जून कुनार ५ मा० अथवा मजून सूतिरा ४ मा० को अर्क मुण्डी या अर्क गाज बान प्रभृति के साथ देना लाभदायक है। सरा मिअदी व सरअ मराकी अर्थात् प्रामायिक वा श्रौन्मादिक अपस्मार उसमें प्रामाशय तथा यकृत् का ध्यान रखकर चिकित्सा करें । अस्तु, अयारिज रा, गुलकंद, मस्तगी, पुदीना और असन्तीन प्रभति औषधों द्वारा प्रामाशय को बल प्रदान करें तथा लघु और शीघ्रपाकी पाहार की योजना करें । यदि रोगी के रक्त प्रकृति होने अथवा रोगिणी के ऋतुस्राव के अवरुद्ध हो जाने से शरीर में शोणित का प्रकोप हुआ हो तो साफिन नाम्नी शिरा का वेधन करें (सद खोलें ) या पिंडलियों पर भरी सींगियाँ (शृङ्गी) लगाएँ तथा विरेचन दें। मधुर एवं उष्ण श्राहार व मादक द्रव्यों से परहेज कराएँ और अनारदाना ज़रिश्क या सुमाक अथवा प्रावगोरह, मिलाकर शीतल श्राहार दें। यदि रोगी शीतल और कफ प्रकृति हो जिसके ये | लक्षण हैं, ज्ञान विभ्रम, शिर गौरव एवं धेग काल में मुख में कफ की अधिकता हो, अवयव शिथिल वा पालस्य पूर्ण हों तो निम्न लिखित मुभिजज व विरेचन देकर श्लेष्मा का शोधन करें। सायंकाल उसके साथ यह योग, यथाजदवार मा० ऊद सलीब १ मा. ख़मीरा गावजुबान तो० मिलाकर रजत पत्र एक अदद सम्मिलित करके प्रथम पिलाएँ और ऊपर से शीरा मादियान ७मा, अंजीर ज़र्द ३ अदद, अर्क बादियान, अर्क मको प्रत्येक ६ तो में निकालकर खमीरा बनप्रशा २ तो मिलाकर पिलाएँ और उत योग को कम से कम सात दिवस पर्यन्त पिलाएँ । प्राठवें दिन उक मुब्जिन में सफ़ेद निशोथ, सनाय. मक्की, गुलेसुन प्रत्येक ७ मा०, माज़ फलूस खथार शंबर (अमलतासफलमज्जा)५ तो०, तुरंजबीन (यवास शर्करा), शकर सुन प्रत्येक ४ तो०, मग्ज बादाम ५ अदद या रोग़न बादाम ६ मा. मिलाकर विरेचन दें। दूसरे और तीसरे विरेचन में मुख्यतः मस्तिष्क शुद्धि हेतु उक्क रेचन के अति. रिक्र रात्रि को नियमानुसार हब्ब अथारिज मा० सेवन कराएँ । शुद्धि हेतु निम्नांकित वटिकाओं में से किसी एक को व्यवहार में लाएँ। (१) हज्य मुनाका दिमाग ( मस्तिष्क शोधनी वटी )-सिम ज़र्द (पीत एलुपा), गारीकून, तुखुद सफ़ेद ( श्वेत निशोथ ) प्रत्येक ३॥ मा०, हब्बुनील १॥ मा०, सामनिया मुशम्बी (भुलभुलाया हुआ सक्रमूनिया ) ४ रत्ती, इन्द्रायण मजा २ मा०, सबको कूट छानकर शुद्ध मधु में गूंध कर चने प्रमाण गोलियाँ बनाएँ। आवश्यकतानुसार ७ मा. औषध को धर्क बादियान या उपयुक्र योग के साथ प्रयोग कराएँ। For Private and Personal Use Only Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३६३ , (२) हय सर ( अपस्मार वटी ) - गारीकून, उस्तोख, इस प्रतीमून, बसाइज, सैंधव, दलीय प्रत्येक १ मा०, इन्द्रायन का गुदा, निशोथ, समूनिया मुशब्वी, पीत हरड़ का वह और कतीरा प्रत्येक २ मा०, अपारिज फ्रैकश ५ मा० सबको पीस कर गोलियाँ बनाएँ । सेवन विधि व मात्रा – ७ मा० उक्त औषध को अक्रमको वा अर्क वादियान के साथ सेवन कराएँ । जब अभीष्ट शुद्धि हो जाए तब निम्न लिखित योगों में से किसी एक का सेवन कराऐं। इनमें से प्रत्येक परीक्षित है- (१) मा जून ज़बी - - इसको मुहम्मद जकरिया राजी ने अत्यन्त परीक्षित बतलाया है। अफ़्तीमून, उस्तोख हस, अकरकरा, बसफ़ाइज फ़िस्तकी प्रत्येक ३ तो० को कूट छान कर श्री मुनक्का डेढ़ पाव में या सिकंजबीन सुली डेपाव में मिलाकर माजून बनाएँ । मात्रा -- १ तो० से १॥ तो० तक | (२) हलेलह, गर्द, हलेलह, काबुली, बलेलह (बहेड़ा), आमला, उस्तो इस प्रत्येक तीन तो, उद सलीब १॥ तो०, आकरक़रहा १ || मा० मवेज़ मुनका ॥ सेर सब दवाओं को कूट छानकर और मवेज़ मुनक्का को सिल पर पीस कर मिलालें और किञ्चिद् उष्ण करके रख लें। मात्रा व सेवन विधि -७ मा० इस श्रौषध को जल के साथ सेवन करें। उपयोग - अपस्मार को दूर करता J (३) सफ़्फ़ सूरा मुरक्कब ( यौगिक अपस्मार चूर्ण ) --- काली हड़ का बक्कल, हरड़ की छाल, गुठली निकाला हुआ श्रामला, काली हड़ प्रत्येक ३ तो०, निशोथ, बसफ्राइज क्रिस्तक़ी श्रौर उस्तोखुद्द स प्रत्येक १॥ सो०, पोटासियम ब्रोमाइड, सोडियम् ब्रोमाइड प्रत्येक २ तो०८ मा० सबको बारीक पीस परस्पर मिलाले । मात्रा व सेवन विधि - ६ मा० प्रातः काल ५० A Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपस्मार बादियान १२ तो० के साथ फाँक लिया करें 1 प्रभाव तथा उपयोग - सम्पूर्ण वातज (ौदावी) मस्तिष्क विकारों यथा मालीखोलिया, पस्मार और निद्रा प्रभृति को लाभदायक है । इख़्तिा (कंठावरोध ) को भी लाभ प्रदान करता है । (४) अक्सीर सरा- संखिया, मनुष्य के शिर की खोपड़ी भस्म की हुई, अकरकरहा, हिंगु, ऊद सलीब, जदवार ख़ताई प्रत्येक ७ मा०, शुद्ध श्रामलासार गंधक १ ॥ मा०, सोंठ ३॥ मा०, शकर ४ मा०, सबको भृंगराज स्वरस में ३ दिन लगातार खरल कर एक एक रत्ती की गोलियाँ बनालें । मात्रा व सेवन विधि - एक गोली सुबह, एक शाम को अर्क मुरडी ६ तो० के साथ खिलाएँ । गुण-- अपस्मार के लिए अत्यन्त लाभदायक है । (१) दवाए जुनून - एक प्रसिद्ध औषध है जो उन्माद, मृगी और योषापस्मार के लिए विशेष रूप से लाभदायक है। स्वर्गवासी डॉक्टर जेबुर्रहमान प्रिंसिपल तिब्बिया कॉलेज लाहौर इस औषध को अधिकता के साथ प्रयोग करते थे । For Private and Personal Use Only हिन्दुस्तानी दवाखाना देहली प्राचीन श्रौषध को नवीन रंग रूप में पेश कर देश एवं कला की असीम सेवा कर रहा है। 1 अतः उसने उन औषध की नव्य विधानानुसार खोज पड़ताल की है और उसका प्रभावात्मक सार प्राप्त किया हैं । यह क्रियात्मक सार ब्रोमाइड की तरह श्वेत है; किन्तु उससे अपेक्षाकृत अधिक प्रभावशाली एवं लाभदायक होने के सिवा उसके प्रत्येक हानिकारक गुणों से रहित है। ब्रोमाइड के समान इसके अधिक उपयोग से किसी प्रकार की हानि की सम्भावना नहीं | इससे असीम शांति लाभ होता और तत्क्षण नींद श्राजाती है । 1 श्रवयव व विधि - छोटी चन्दन ( यह एक बूटी ' जो बिहार और बंगाल में मिलती है ) Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परमार अपस्बर: ..को मय पत्र व फल को छाया में शुरुक कर और | - यदि रोगी के वेग में कमी. प्राजाए तो औषध को बारीक पीस कर रखलें। ... मात्रा किशित कम कर दें और यदि वेग बढ़ जाए मात्रा व. सेबन-विधि-प्रावश्यकतानुसार तो औषध की मात्रा बढ़ा.दें. 1. पर यदि..३.-३० २-२ मा० साधारण जल बा अक्र गरबजुबान के ग्रेन दिन में तीन बार देने से रोग का वेगन रुके .साथ.प्रातः सायं सेवन कराएँ।. ... . . तो इस औषध से लाभ की कम आशा होती है। प्रभाव व उपयोग-शामक व निद्राजनक । उक्र औषध का लाभदायक होना अधिकतर उ. सके शुद्ध और उत्तम होनेपर निर्भर है। .. . मुगी, उन्माद और योपापस्मार में अत्यन्त लाभ -- खराब औषधसे साधारणतः लाभ नहीं होता। .. डॉक्टरी मत से--मृगी की चिकित्सा में | इसलिए इस औषध को विश्वस्त कार्यालय द्वारा अब तक जितनी औषधे ज्ञात हुई हैं, उन सब निर्मित एवं विश्वसनीय दूकान से खरीदनी में ब्रोमाइड्स (ब्रोमाइड ऑफ पोटासियम्, चाहिए। प्रोमाइड ग्रॉफ सोडियम और प्रोमाइड फ़ - यदि रोग का वेग किसी विशेष समय होता प्रमोनियम् इत्यादि) अपेक्षाकृत अधिक लाभदायक हो, उदाहरणतः दिन के दो बजे, तो ऐसी सिद्ध हुए हैं। इनके प्रयोग से कभी कभी दशा में औषध की एक बड़ी मात्रा ( दाम) तो रोगी को बिलकुल. लाभ हो जाता है | किन्तु, रोग के वेग से चार घंटे पूर्व देनी चाहिए । जेब .. प्रायः रोगियों को औषध सेवन काल में रोग का वेग रात्रि को स्वम में किसी समय होता हो तब ... वेग रुक जाता है, पर औषध का सेवन बन्द कर उक्त औषध को ५०-६० ग्रेन की मात्रा में रात देने के थोदे काल पश्चात् पुनः रोग का आक्रमण को सोते समय दें और यदि प्रातः काल निद्रा होने लगता है। भंग होने पर वेग होता हो तो ३० या ४० ग्रेन '. सामान्य प्रकार की मृमी की अपेक्षा उग्र श्रोमाड्स रात्रि को सोते समय दें और ऐसी ही प्रकार में और रात्रि की अपेक्षा दिनके वेगमें यह एक मात्रा औषध प्रातः काल रोगी को जागते औषध अधिक लाभदायक होती है। किसी पिलाएं। किसी रोगी में कुछ काल के सेवन के बाद योमा- ___ जय ब्रोमाइड्स को दो तीन बार दैनिक देना इड्स का प्रभाव अधिक काल स्थाई नहीं रहता हो तब भोजन के १ घंटा बाद देना अधिक उसम और अल्प संज्ञक रोगियों में यह कुछ लाभ हो है । आमाशय तथा प्रांत्र पर इसका क्षोभक प्रनहीं प्रदर्शित करता । तिस पर भी यह अन्य भाव न हो तथा मुख मण्डल श्रादि पर मुंहासे औषधों की अपेक्षा अवश्यमेव अधिक गुणप्रद है। न निकलें, इस हेतु इसके साथ थोड़ी मात्रा में इसकी मात्रा रोगी तथा रोगावस्था के अनुकुल संखिया मिलाकर देना चाहिए । परन्तु जब इ. होनी चाहिए। क्योंकि किसी किसी रोगी में , सका तात्कालिक एवं विश्वसनीय प्रभाव अभीष्ट इस औषध के सहन की अधिक क्षमता होती है। हो तब इसे एक ही बड़ी मात्रा में खाली पेट और किसी को अल्प । युवा की अपेक्षा बालक देना अधिक उत्सम होता है जिसमें यह तरकाल को इसकी अधिक क्षमता होती है। परन्तु पुरुष रक में अभिशोषित हो जाए। की अपेक्षा स्त्री को कम। . अपस्मारी में प्रोमाइड्सको इसके प्रयोग द्वारा पूर्ण मोमाइड को थीड़ी मात्रा में प्रारम्भ करना प्रभाव प्राप्त होने से प्रथम ही बन्द कर देना उउत्तम है । अस्तु एक युवा रोगी को १५ से | .. चित नहीं। इसके विरुन्तु इसको अधिक मात्रा ३. ग्रेन (७॥ से १५ रत्ती) की मात्रा में दिन .... में अधिक काल तक सेवन कराते जामा व्यर्थ ही ... में तीन बार देना प्रारम्भ करें। आवश्यकतानुसार नहीं, प्रत्युत हानिकारक भी है। क्योंकि शरीर इस मात्रा में म्यूनाधिकसा कर सकते हैं । अर्थात ... में जब इसका पूर्ण प्रभाव हो लेता है तब यदि For Private and Personal Use Only Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir "अपस्मार अपस्मार इसकी मात्रा कम न की जाए तो प्रोमिज़म (ग्रोमाइड द्वारा विधानता) के अप्रिय लक्षण · उत्पन्न हो जाते है। (इसके लिए देखोप्रोमाइड)। प्रोमाइड्स को उपयोग सम्बन्धी कतिपय आवश्यकीय सूचनाएँ (१) विस्मृति वा बुद्धिधश प्रभृति वस्तुतः । स्वयं अपस्मार के सामूहिक वा सम्मिलित लक्षण होते हैं । अतः उनको ब्रोमाइड्स द्वारा विषाकता | के लक्षण मानना भूल है।। (२) ब्रोमिज़म ( प्रोमाइड्स द्वारा विषाक्ता) के विपले प्रभात्रसे बचने के लिए उनके साथ संखिया बा बेलाडोना वा स्ट्रिकनीन (कारस्करीन) इत्यादि को सम्मिलितकर उपयोग में खाना लाभदायक है। (३) जब तक प्रोमाइड्स का पूरा पूरा प्रभाव म हो जाए अर्थात् औषध के विषैले प्रभाव प्रारम्भ न हो जाएं, तब तक उसके उपयोग को स्थगित कर देना महान भूल है। (४) मुखमण्डल वा पृष्ठ पर केवल मुंहासों अर्थात् रक्तवर्ण के दानों का निकल पाना इस बात का प्रमाण नहीं हो सकता कि शरीर में औषध का पूर्ण प्रभाव हो चुका है अथवा उसका विषैला प्रभाव प्रकट हो गया है। क्योंकि किसी किसी व्यकि में ब्रोमाइड्स को थोड़ी मात्रा में देने से भी मुँहासे निकल पाते हैं। अतएव प्राकथित अन्य लक्षणों का ध्यान रखना भी आवश्यकीय है। ' (२) ब्रोमाइड्स के सेवन काल में यदि रोगी को लक्षण रहित आहार दिया जाए तो औषधका प्रभाव शीघ्र तर एवं श्रेष्ठतर होता है। क्योंकि आहार में लवण के न रहने से यह औषध शारीर एवं वाततन्तुओं में भली प्रकार अभिशोषित होती हैं। ऐसी दशा में इसकी थोड़ी मात्रा भी 'पूर्ण लाभ प्रदर्शित करती है । अस्तु, | कतिपय डॉक्टरों के अनुभव इस बात के समर्थक है कि ऐसी अवस्था में प्रोमाइड्स को या केवल सोडियम् प्रोमाइड को ३० प्रेन की मात्रा में | प्रति दिन सेवन कराने से दिनके भीतर भीतर रोग के वेग रुक गए। (६)श्रोमाइड्स का प्रयोग कितने काल तक जारी रखना चाहिए ? रोग के वेग के रुक जाने के बाद तीन वर्ष तक ब्रोमाइड्स के प्रयोग को जारी रखना चाहिए । परन्तु तीसरे वर्ष में धीरे धीरे उसकी मात्रा घटा देनी चाहिए । अस्तु, एक वर्ष तक तो औषध को अविच्छिन्न प्रयोग में लाना चाहिए और फिर सप्ताह में एक दो दिन नागा करा देना चाहिए। डेढ़ वर्ष पश्चात् प्रति दूसरे दिन श्रौषध देनी चाहिए और दो वर्ष पश्चात् सप्ताह में दो बार औषध देना पर्याप्त है। (.) जब पैतृक ट्युबर कलोसिस (क्षय ) के कारण या अभिघात जन्य वा गिर जाने से मस्तिष्क को भाघात पहुँचने के कारण मृगी होती है अथवा बालकों को दन्तोन्नद् जन्य तथा युवाओं में उपदेश जन्य मृगी होती है तब उक्त अवस्था में रोग के मूल कारण को तदोक उपचार द्वारा दूर करना चाहिए। उन रोगों के उचित उपचार द्वारा अपस्मार को भी लाभ हो जाता है। प्रस्तु, उपदंश जन्य मृगी में पुटासियम् प्रायोडाइड से लाभ होता है और इसी प्रकार औरों को भी। अतएव जब तक असल रोग का उचित उपाय न किया जाए तब तक ब्रोमाइड्स के उपयोग द्वारा कुछ भी लाभ नहीं होता। इसी प्रकार स्त्रियों में जब ऋतु दोष वा मानसिक विकार के कारण यह रोग हो अथवा पुरुषों में अब हस्तमैथुन इसका कारण हो तो जब तक रोग के मूलभूत कारण सर्वथा दूर न हो लें तब तक केवल प्रोमाइरस के उपपोग से इस रोग को बिलकुल भाराम नहीं होता। (B) ग्रोमाइट्स से अभिप्राय है-() प्रोमाइड प्रॉफ पुटासिवम्, (ख) प्रोमाइरॉफ सोडियम्, (ग) ब्रोमाइड अॉफ अमोनियम्, (घ) प्रोमाइट ऑफ स्ट्रॅशियम् और (0) मोमाइड ऑफ़ लीथियम् प्रभृति । कोई डाक्टर तो इनमें किसी एक को अकेले ही देमा अधिक उत्तम For Private and Personal Use Only Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अपस्मार www.kobatirth.org ३६६ ख्याल करते हैं; किन्तु उनमें से अधिकांश प्रथम तीन को मिलाकर देते हैं । ( 8 ) जिन अपस्मार रोगियों को ब्रोमाइड्स से किञ्चिन्मात्र भी लाभ नहीं होता, उनको बरेक्स ( टंकण ) के उचित उपयोग से प्रायः लाभ हो जाता है । इसलिए इस औषध की अवश्य परीक्षा करनी चाहिए। इसके अतिरिक्त कतिपय अन्य औषध यथा श्रोमीपीन, जिंक ऑक्साइड ( यशद भस्म, यशदोमिद ), कस्तूरी, कपूर, भंग, हींग और बालछड़ प्रभृति इस रोग की चिकित्सा में बरती जाती हैं और कभी कभी इनसे लाभ होता है। ( १० ) अपस्मारी को यदि मलेरिया ज्वर ( विषम ज्वर ) हो तो स्वर को रोकने के लिए उसे कीनीन सल्फेट नहीं देना चाहिए। क्योंकि मृगी में प्रायः उससे हानि होती है । अस्तु, उसके स्थान में क्वीनोन वेलेरिएनेट या क्वीनीन श्रर्सिनेट को उचित मात्रा में देना चाहिए । कतिपय अन्य श्रोषध (१) कामवासना तथा मैथुनाधिक्य वा हस्त'मैथुन आदि कारणों से हुए अपस्मार में मीनो ब्रोमेट ऑफ़ कैम्फर ( Monobromate of Camphor ) को ५५ प्रेन की मात्रा में दिन में ३ बार देने से और क्रमशः इसके ५ प्रेन के स्थान में १०-१२ मेन तक बढ़ाकर देने से प्रायः लाभ होता है | इस दवा को २-२ ग्रेनकी पर्लाजु ( मुक्रिकावत् वटिका ) की शकल में देना उत्तम है। ( २ ) रज:रोध जन्य मृगी में यह गोलियाँ लाभदायक हैं १० ग्रेन २ डाम एक्सट्रैक्टाई न्युसिसवामिकी पिल्युली एलीज़ एट मिही दोनों को मिलाकर ३६ गोलियाँ बनाएँ । गोली दिन में दो बार प्रातः सायं भोजन के (((.) यदि अपस्मार रोगी अनीमिक ( रक्कापता का मरीज ) हो तो उसको लौह के हलके योग देने चाहिए । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपस्मार उदाहरणतः - फेराई एट एमोनिया साइट्रास या डायर्नया स्टील वाइन प्रभुति देना लाभदायक होता है। मत्स्य तैल भी ( यदि पच जाए ) साधारण मृगी में लाभदायक है । ( ४ ) वेग के पश्चात् यदि रोगी अधिक काल तक मूच्छित पड़ा रहे तो उसके सिर पर बक्रे और गुड़ी (मन्या) पर ब्लिष्टर लगाना लाभप्रद होता है। (५) स्टेटस एपिलेप्टिक्स ( Status Epilepticus ) अर्थात् श्रविच्छिन्न अपस्मार जिसमें रोगवेग मूर्च्छा में अंत होता है तथा मूच्छा रोगवेग में । यह दशा अत्यन्त भयावह व घातक होती है। इसमें रोगी को सुरक्षित रूप से क्रोरोफॉर्म या ईथर सुधाना या मार्फीन ( अहिफेनीन ) ( ग्रेन और ऐट्रोपीन १ ४ १ १०० प्रेम वा हायोसीन हाइड्रोयोमेट १ ग्रेन का १०० स्वस्थ अन्तःक्षेप करना या कोरल हाइड्रेट ४० ग्रेन को ४ श्राउंस पानी में विलीन करके इसकी वस्ति (एनिमा ) करना लाभदायक है । अपस्मार तथा सर्प-विष अपस्मार में मम दिवस के असर से सर्पविष ( Cobra venom ) के ग्रेज़ की मात्रा का ३-१ स्वगन्तः अन्तःक्षेप करें । फिर १४ - १४ दिवस के अंतर से प्रेमकी मात्रा १. २०० ७५ १ २५० का दो अन्ताक्षेप और करें। बस यह काफी है; अन्यथा १-१ मास के अंतर से इसकी प्रेम की मात्रा का १ था अधिक अन्तःक्षेप और करें । इतने पर भी यदि लक्षण विद्यमान हों तो इसको 2 ग्रेन की मात्रा में या रोगी की अवस्था, प्रकृति २५ वा रोग के वेग के अनुसार इसकी साम कर अन्तःक्षेप द्वारा प्रयुक्त करें। For Private and Personal Use Only यह क्रोटेलस हॉरिस ( Crotalus hor• ridus या रैट्ल स्नेक ( Rattle sna ke ) जाति के साँप के किप से प्रस्तुत किया Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपस्मार ३६७ अपस्मार जाता है। जाविन साँप का विष निकाल कर | उसको बेल-जार में रख कर धूप में शुष्क कर लेते हैं। इसके ऐम्पुल्स बनाए जाते हैं जिनमें ग्लीसरीन और जल का विलयन सम्मिलित होता है। उक्र विलयन में पचननिवारक रूप से ट्रिकसोल ( Pricesol ) भी योजित किया जाता फुफ्फुस विकार, राजयक्ष्मा और श्वास में भी । खगन्तः अन्तःक्षेप द्वारा प्रयुक्तकर इसकी परीक्षा । की गई है। प्राभ्यन्तर रूप से इसका क्वचितही प्रयोग होता है। (Extra Pharmacopra - of Martinlale). नोट-आयुर्वेदीय चिकित्सा में श्राभ्यन्तर और बहिर दोनों प्रकार से इसका प्रयोग होता । है। देखो-सर्प। - कतिपय अन्य परीक्षित योग-- (1) जुन्दवेदस्तर ६ मा० कस्तूरी ६ मा० जटामांसी १ तो० नीसादर तो उष्ट्र नासिका कीट ४ मा० इन सम्पूर्ण औषधों का चूर्ण कर हस्ति विष्टा के रस से संप्ताह पर्यन्त खरल कर ३ रसी प्रमाण की बटिकाएँ प्रस्तुत करें। सेवन-विधि-पान के रस से प्रावश्यकतानुसार १ से ३ गोली तक सेवन कराएँ। (२) वच १ सो० माझी १ तो० लशुन . तो ६ मा ६ मा० धतूर बीज ६ मा० इन्द्रायन का गूदा तो) काली मरिच अजमोद तो० इन सबको कुट छान कर चूर्ण प्रस्तुत करें। फिर हस्तिविछा के रस से सप्ताह पर्यन्त सरल कर ६ रत्ती-प्रमाण की गोलियाँ अनुपान पान का रस मात्रा--१ रत्ती से ४ रनी तक । (३) धवलबा का येन केन प्रकारेण .. उपयोग अत्यंत लाभप्रद सिद्ध होता है। देखो-- धवलबरना। (४) डॉक्टरी योगअमोनिया प्रोमाइड .५ ग्रेन अमोनिया वेलेरिएना १०ग्रेन स्पिरिट कैम्फर सोड़ा बाह कार्य १० ग्रेन एक्वा प्योरा १ श्राउंस यह एक मात्रा है। ऐसी ही तीन मात्रा औषध प्रातः, मध्याहू और सायं को देनी चाहिए। अपस्मार में प्रयुक्त होने वाली मिश्रित और अमिश्रित औषधे । (अमिश्रित औषध) आयुर्वेदीय बच, अडूसा, पलाण्डु, श्वेत कुष्मारड, कपर, ग्रामी, श्वेत सर्षप, शङ्खपुष्पी, धत्तर, वागमूत्र, काकफल (काक नासिका), तेजबल ( उगरू -यं०, सं०), कुसरुण्ट (बुन्दर-यम्ब०), कपास, गंधक और उसके योग, भन्नातक, रीठा, जल ब्राह्मी, खुरासानी अजवाइन, बेगडाली ( Club Moss ), शोभाजन, जटामांसी, केतकी (केवड़ा), अजमोदा, सोडियम और उसके लत्रण । यूनानी (१) टकण भुना हुभा १ से २ माशे तक ६ माशे शुद्ध शहद में मिलाकर कुछ दिवस पर्यंत प्रतिदिन प्रातःकाल खिलाना इस रोग में लाभ १सी० (२) हिंगु १ से २ माशे मधु ६ माशे या सिक अबीन अन्सली (सिकम्जबीन बनपलाए) २ तोला में मिलाकर हर प्रातःकाल को चटाना लाभदायक है। (३) बादरंजबूया (बिल्लीलोटन )३ माशे है माशे मधु में मिलाकर प्रति दिवस प्रात:काल चटाना गुणप्रद है। For Private and Personal Use Only Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपस्मार (४) कलौंजी १ माशे पोसकर सिकंजबीन (२) अश्व अपस्मारअन्सली २ तोला या मधु ६ माशे में मिलाकर घोड़े की मृगी के लक्षण-अपस्मारी अश्व देना भी उपयोगी है। अकस्मात् पृथ्वी पर गिर पड़ता है। नेम्र स्तब्धता, . (५) सोसन को जड़ . माशे का काथ कर विसं ज्ञता प्रादि लक्षण होते हैं और जो शीघ्र २ तोला शर्बत प्रबरेशम के साथ देना गुणकारक स्वस्थ हो जाता है उसको अपस्मार से पीरित जानना चाहिए। - (६) जंगलो तितली ५ माशे, अंगूर का रस चिकित्सा-कुशल वैद्य को इसमें सम्पूर्ण २ तो और अर्क गाव जुबान है तो के साथ देने उन्मा दोक्र क्रिया का अवलम्बन करना चाहिए। से लाभ होता है। ऐसे घोड़े को अत्यन्त पुराना घी पिलाना लाम(७) अकरकरा १ से २ माशे पीसकर । दायक है। जयदत्तः । सिकंजबीन अन्सली २ तो० के साथ देने से लाभ ! अपस्मार गजाशः apasmātra-ga.jankuप्रदर्शित होता है। shah-सं०क्की हींग, काला नमक, त्रिकुटा डॉक्टरी औषध इनको सम भाग लेकर पृथक् पृथक् एक एक दिन आलियम् क्रोटनिस (जयपाल तेल ), अमो- | गोमत्र में घोर्ट । फिर उसमें ४ मा. शुद्ध मूरिछत निया वेलेरियाना, अलियम् महुह, आलियम् । पारा मिलाकर घोटकर रक्खें । मात्रा-१ मा० । टेरेबिन्धोनी, अर्जे एटाई नाइट्रास, आर्टिमिशिया, इसके सेवन से अपस्मार और उन्माद का नाश अमोनिया प्रोमाइड, अमोनिया काबीनास, होता है । र यो० सा०।। अर्जेण्टाइ क्रोराइडम्, अर्जेंटाइ नाइट्रास, प्रासें. अपस्मारारिः apasmārarih-सं० पु. नीलानिक, ऐण्टिपाइरीन, ईथीलीन प्रोमाइड, एपोमः । योधा, पारा, गन्धक, सम भाग लेकर बहु कास आइनि, एमाइल नाइट्रास, एसाफिटिडा ( हिंगु), । पर्यन्त गिलोय के रस में घोटें, फिर सावधानी के एलिटेरियम्, एलोज़ (मुसब्बर ), एलेक्ट्रिसिटि, । साथ शरावों में बन्द करके कपड़मिट्टी कर २-३ (विद्युत् ), कुप्राइ अमोनिया सल्फास, कुप्राइ जंगली कण्डों की प्राग दें । फिर निकाल कर सल्फास, कैम्फर ( कपूर ), कैप्टर ( एरंड), दिन केले के रस से घोटें तो यह सिद्ध होगा। किनाइन, क्रोरोफॉर्म, कोनियम्, कीन पार्से नेट, मात्रा-२ रशी । इसे ब्राह्मी या घृप्त के योग केलोमेल, कालोसिन्धिस, जिन्साई ऑक्साइडम्, से देने से अपस्मार दूर होता है। इसमें ककारादि जिन्साई सल्फास, जिंक लैक्टेट, जिन्साइ । वर्गघा स्त्री सहवास से परहेज करना चाहिए । वेलेरियानम्, जिंक साइट्रेट, ड्राइकपिंग, नक्स । र० यो० सा०। वॉमिका ( कारस्कर ), धारा स्नान, नाइट्रोअपस्मारो apasmāri-हिं० वि० [सं०] जिस ग्लीसिरीन, डिजिटेलिस, पोटाशियम ब्रोमाइडम, ! अपस्मार रोग हो ।(Epileptic.) प्रम्बाइ नाइट्रास, फॉस्कर्स, फेरि को, बिस्मथम् ।। एलबम्, बेलाडोना, बोरक्स, ब्रोमाइडम्, मस्क अपस्वरम् apasvaram-(अव्य०), अपशब्द, (कस्तूरी), ब्रोमीपीन (ब्रोमीनोल), मघई। स्वाभाविक स्वर से नीचा स्वर, हीनस्वर । (राई), ल्युमिनोल, वेलेरियन, विराट्राम एलबम् (Low-voice ) वा० शा० ५ १०४० साम्बल, सोडिअाइ प्रोमाइडम्, स्ट्रॉरिटयम लोमा- श०। इडम, सिरियाह अजालास, स्ट्रमोनियाइ अपह apaha-हिं० वि० [सं०] नाश करने (धुस्तर), स्टानाइ अोराइडम, लीथियम ब्रोमाइडम, ! वाला । बिनाशक । हाइड्रोनोमिक एसिड, हाइड्रोनोरिकम और ! यह श समासांत पद के अन्त में प्रायः जिंक साइट्रेट, जिंक लैक्टेट,ऐण्टिपाइरीन इत्यादि। प्राता है। जैसे, वेशापह । रोगापह । ज्वरापह । For Private and Personal Use Only Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अपहा. C अपहा. apahá-पड़ा ( प्रत्यय ) हन्ता, मार डालने वाला। हत्यारा, हिंसक, वधिक । ( Ki• ller, -cide ). -अपना apaksha - हिं० वि० (१) पक्ष रहित, निःसाहाय्य (helpless) । ( २ ) पंख रहित । अपक्षिप्त apakshipta हिं० वि० [सं०] ( ४ ) ग्रीवा से ऊपर के मर्मों में से उक्र नाम के दो म विशेष | सु०. शा० ६ ० । (२) आँख की कोर ( या कोना ), नेत्र कोण, कटाक्ष | (Corner of an eye) । (६) दोनों नेत्रोंके बाहर की ओर भौत्रों की पुच्छीके नीचे उन नाम के दो मर्म हैं । बा० शा० ४ श्र० १ (७, बैं० लटजीरा, अपामार्ग, चिचिंश || Achyran• thes aspera ). (१) पण की क्रिया द्वारा पलडायात्रा फेका हुआ । (२) फेका हुआ । गिराया हुआ । पतित । अपक्षेपण apakshepana - हिं० संज्ञा पुं० [सं०] [वि० पक्षिप्त ] फेकना । पलटाना | ( २ ) गिराना, ध्युत करना । ( ३ ) पदार्थ विज्ञान के अनुसार प्रकाश ( तेज ) और शब्द की गति में किसी पदार्थ से टक्कर खाने से व्यावर्तन होना, प्रकाशादि का किसी पदार्थ से टकरा कर पलटना । ( ४ ) वैशेषिक शास्त्रानुसार श्राकुञ्चनं, प्रसारण श्रादि पाँच प्रकार के कम्मों में से एक । } पाक: apákah-सं० पुं० I apaka - हिं० संज्ञा पुं० (Indigestion ) अजीर्ण, अपच । ( २ ) पाकाभाव ( कच्चापन ) | Immaturity (३) उदरामय । श्राँव, श्रम | अपाकरण apakarana - हिं० संज्ञा पुं० [सं०] [वि० अपाकृत ] | पृथक्करण | अलग करना । अपाङ्गः apángah सं० त्रि० अपाङ्क apánga-fहि० वि० (2) अपाकशाकम् apákashákam सं० की ० अपाकशाक apákashaka - हिं० संज्ञा पुं० अदरक, आर्द्रक, आदी । श्रादा बं० । श्राले - मह० | ( Green ginger ) रा० नि० ६० ६ । ( १ ) अंग भंग, अङ्गहीन (Crippled ) | मे० । संज्ञा पुं० (२) Canthus ( The outer corner of the eye ) नेन प्रान्त । रा० नि० ब० १८ । (३) तिलक | तिल | ( Sesamum Indicum ) मे० गत्रिकम् । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपाङ्गकः apángakah सं० पु० अपामार्ग सुप, चिचिदा-हिं० श्रापा - बं० । ( Achy ranthes aspera ) ले० । श० ० ॥ अपाङ्गक मूलम् apangaka-mūlam सं०ली० देखो - श्रपाङ्गमूल 1 अपाङ्गमूल apángamūla-o अपामार्ग की जड़ | Achyranthes aspera ( Root of - ). अपाङ्गदर्शन apánga-darshana हि० पु० तिरछी नजर से देखना । ( A side gla nce, a leer, a wink ). अपाङ्गधा apángyá सं० स्त्री० ( Zygoma tico arbital) अपाचीनम् apáchinam-सं० की ० दूर करना नाटकरना । श्रथव । ० अपात्रम् apácavam-सं० ली० अपाट] apátava - हिं० संज्ञा पुं०. (१) अपादव, रोग, बीमारी । ( A disease) (२) जाड्य, जड़ता, शीतलता ( Anasthesia) रा०नि० ० २० । ( ३ ) बाढ़ा, भूख 1 ( Hunger) । ( ४ ) मय, शरात्र । (५) पटुताका अभाव | अकुशलता अनाड़ीपन । (६) अचंचलता | मंदता सुस्ती (७) कुरूपता । बदसूरती । वि० (१) रोगी, बीमार । ( २ ) जड़ । ( ३ ) भूखा । ( ४ ) अपटु, अनादी । ( १ ) चंचल | (६) कुरूप अपात apata-सं० वनराज ( Bauhinia .racemosa; Lmm, Hook eto. ) फॉ ई० १ भा० ५३७ पृ० १-हिं०वि० पत्रशून्य | For Private and Personal Use Only Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपादान ४०० अपामा ज्यादान apādana-हिं० संज्ञा पुं० [सं०] (२) गुदास्थ वायु । पाद । पईन । गोज़ । (1) हटाना । अलगाव । विभाग । (२) ग्रहण। अपां धातुः apāndhātuh-सं० पु. रस, जल, ( The taking from a thing ). | मूत्र, स्वेद, मेद, कफ, पिरा और रफ इत्यादि । नपान: apanah-सं० पु. (१)-क्ली० गुदा, भा० म०१ भा० अतिसा० चि०। "संशम्मा मलद्वार, चूति । एनस । (Anus)-इं०। रा० पांधातुरग्निः प्रवृद्धः ।" नि०व०१८ । वा० सू० ११ अ० । (२) अपान अपांपित्तम् apanpittam -सं० क्ली. चित्रक देशीय पवन, गुदा में रहने वाली अपान वायु । वृक्ष, चीता। (PluinbagoZeylanica). अम०। (३) अपान, अर्थात् मन्या पृष्ठ, पृष्टांत अम०। तथा पाणि ( एणी) में जाने वाली वायु । हे० अपानोन्नमनो apanonmamani-सं० स्त्री० च.। (४) दस वा पाँच प्राणों में से { Lovator ani). गुदोत्थापिका । एक एक। इन्हीं तीन वायुनों में से कोई किसी पेशी विशेष । को और कोई किसी को अपान कहते हैं--(क) का अपा-पित्तम् apa-pittam-संक्लो० चीता वृष, वायु जो नासिका द्वारा बाहर से भीतर की ओर चित्रक । ( Plumbago Zeylanicia). खींची जाती है। (ख) गुदास्थ वायु जो मन ! मूत्र को बाहर निकालती है। (ग) वह वायु अपामार्गः apāmārgah-सं० पुं० । जो तालु से पीठ तक और गुदा से उपस्थ तक अपामार्ग apāmārga-ft. संज्ञा प. व्याप्त है। (५) वायु जो गुदा से निकले। चिचड़ा(-रा ), चिर्चिरा, लटजीरा, चिचड़ी, देखो-यात( वायु )। ऊँगा, ऊँगी, झाझारा-हिं० । अकिरैन्थीस, एस्परा ( Achyranthes नम् apanam-सं० ली० ( Anal Aspera, Linn. ), अकिरन्थीस इंडिका Achyranoritice) गुदा, मलद्वार, चूति । thes Indica. Roxb., arrêtèar Bide. अपान त्वक् संकोचनी apāna-tvak-sanko ntata, अकीरैन्धीस ऑट्युज़िक्रोलिया chani-सं. स्त्री० ( Corrugator Achyranthes Obtusifolia, Lamb, ___ cutis ani) मलद्वार सोचनी। अकीरैन्थीर स्पिकेटा Achyranthes अपामाः apākeshrab-सं० पु० अकेला । Spicata Burn.-ले० । रफ चैन ट्री अथर्व । सू०६। १४ । का०८। । Rough Chaff tree, प्रिक्ली चैफ़ फ्लावर अपान-देशः apāna-deshah-सं०पु गुददेश। Prickly ehaff Flower-इं० 1 श्रथवं. (Anai region). व० निघ०। । सु० १७ । = । का० ४। सु० सू० ३६० मपान नाली apana-nāli-सं०स्रो० (Anal ! शिरी चि.। canal ) गुदा। संस्कृत पर्याय--शैखरिकः, धामार्गवः, अपान वायु apāna-rayu-हि. संज्ञा पु.. मयूरकः, प्रत्यकपर्णी, कीशपर्णी, किनिही, खर[सं०] (१) पांच प्रकार की वायु में एक ।। मुजरी (अ) अपाङ्गकः, किनिः, कीशपर्णः, चमत् अपान वाय के कर्म - रुक्ष और भारी अन्न . कारः, (शब्द र०), शैखरेयः, अधामार्गवः, के खाने से मल मुत्रादि के बेग रोकने से, सवारी केशपर्णी (अ. टो०), स्थलमजरी, प्रत्य पुष्पी पर अधिक बैठने से, अधिक चलने से, अगम्य । क्षारमध्यः, अधोघंटा, शिखरी ( र), दुर्ग्रहा स्थानों में जाने से, अपानवायु कुपित होकर मूत्र. (भा० ), दुर्ग्रहः, अध्वशल्यः, कान्तीरकः, दोष, शुक्र दोष, अर्श और गुदभ्रंश तथा अन्य मर्कटी, दुरभिग्रहः, वासिरः परापुष्पी, कण्टी, कष्टसाध्य पक्काशयगत रोगों को उत्पस करता। कर्कटपिप्पली, कट मञ्जरिका, अघाट:. सरका. है।धा नि० अ०१६॥ पाण्डकण्टकः, नाला कण्टकः, कुब्जा, मालाकण्टः, For Private and Personal Use Only Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपामार्ग अपामार्ग भाघाटः, प्रत्यक पुष्पी, खरमञ्जरी, पंकिकराटकः, | रक्रविन्दुः, अल्पपत्रका, क्षवकः, किणिही, तथा व्रणहन्ता । अपाङ्, चिचिरि, प्रोपङ्, पापा | -बं०। प्रत्कुमह -१० । वारे-वाज़गूनह , खारेवाज-फा० । पु:कण्ड, फुटकण्डा, कुत्री-पं० । चिर्चिरी-विहा० । अगाड़ा, अघाड़ा-द० । नायुरिवि, शिरु-काडलाडी-ता० । उत्त-रेणि, अगिटश, अपामार्गमु, प्रत्युक्-पुष्पि, दुच्चीणिके -ते०, ० । कटलाटि, कडालादि-मल। उत्राणि-गिडा, उत्तराणि, उत्तरणि, उत्तरणे -कना। उपाणिच-झाड, प्राधाड़ा, प्राधेड़ा (पांडर अघाड़ा-श्वेतापामार्ग)-मह० । अधेड़ो, झिजरबट्टो-गु० । गस्करल-हेब्बो-सिं० । किच-ला-मौ, कुन-ला-मौ-बर्मी० । सुफेद आँधीझाडी, प्राधा-भाडा-मा० । अंधाहोली -राज०। उत्तरणे--का० । उत्तरैणि--को । प्रघाड़ा, चिचिया--बम्ब० । तण्डलीय वर्ग (V. O. Amarantacex ) उत्पत्ति-स्थान--सर्वत्र भारतवर्ष तथा एशिया | के वे भाग जो उपण कटिबन्ध पर स्थित हैं। संज्ञा-निर्णय-डिमक महोदय ( २ य खंड १३६ पृ०) "अध्वशल्य" शब्द का अर्थ "Roadside rice" अर्थात् पथिपार्श्वस्थ तण्डुल ( मार्ग के किनारे का चावल ) करते हैं । परन्तु शल्य शब्द का अर्थ तण्डल नहीं, प्रत्युत शरीर में जिससे कुछ भी पीड़ा उत्पन्न हो उसको शल्य कहते हैं । डल्यण मिश्र लिखते हैं :'यत्किञ्चित् अवाधकर शरोरे तत्सर्वमेव प्रवदान्त शल्यम्' (सू० टी०श्मन)। अपामार्ग की मञ्जरी ककंश होती है और उसका वस्त्र वा गात्र से स्पर्श होने से क्रेशप्रद होती है इस कारण उसको मार्ग का शल्य कहा गया है। खोरी महोदय (१म० ख०। ५०४ पृ०) अपामार्ग का यह अर्थ करते हैं,-अप या पाव= जल+मार्ग=रजक, धोबी (Apa or ab wa. ter and marga a Washerman) i यह अर्थ श्रपूर्ण है। मार्ग शब्द का रजक अर्थ कहीं भी देखने में नहीं आता। उपरोल्लिखित कल्पित अर्थ के निर्देश द्वारा खोरी महोदय ने यह बुझाना चाहा है कि अपामार्गक्षार द्वारा रजक (धोबी) वस्त्र को परिष्कृत करता है । अमरकोष के टीकाकार भानुजी दीक्षित कृत "अपमाजत्यनेन" इस अर्थ द्वारा जहाँ खोरी महोदय के उद्देश्य की सिद्धि हो जाती है, वहाँ उन्होंने उक कल्पित अर्थ की रचना करने का क्रेश क्यों स्वीकार किया? वानस्पतिक-वर्णन-अपामार्ग एक प्रकार का फलपाकांत चुप है। यह वर्षा का प्रथम पानी पढ़ते ही अंकुरित होता है, वर्षा में बढ़ता, शीत काल में पुष्प व फल से शोभित होता और ग्रीष्म ऋतु के सूर्य ताप द्वारा फल के परिपक्व होने के साथ ही सूख जाता है। इसका दुप १॥ या २ फुट दीर्घ और कभी कभी इससे भी अधिक उच्च होता है। काण्ड वा साधारण वृन्त सीधा, वड़ा, चिपटा, चौकोना (रक अपामार्ग की शाखाएँ रक वण की होती हैं), धारीदार और लोमश होता है। पाश्विक शाखाएँ ( पार्श्व वृन्त, ) युग्म, परिविस्तृत; पत्र अति सूक्ष्म शुभ्रवण के रोम से श्रावृत्त, अण्डाकार, पत्र प्रान्त सामान्य, अधिक कोणीय, नोकीले अाधार पर पतले ( रजोपामार्ग के पत्र पर रनविन्मुवत् दाग होते हैं ); पत्रवृन्त पत्ते की डंडी) लघुः दोनों प्रकार के अपामार्ग की मारियाँ दीर्घ, कर्कश (इसी कारण इसका 'खरमञ्जरी' नाम पड़ा): पुष्प लघु, हरित वा लाल तथा बैंगनी मिले हए रंग के जो मयूर कंटवत होते हैं। इसीलिए इसको मयूरक नाम से अभिहित किया गया है । अँक्ट्स कठोर तथा कण्टकाकीण होते हैं । फल के भीतर बीज होता है। यह प्रायताकार, धूसर वर्ण का, . से 2 इंच लंबा (बीज) होता है ! तण्डुल वत् होने के कारण इसको अपामार्ग तण्डुल कहते हैं । इसका स्वाद तिक होता है। श्वेत, कृष्ण और रन भेद से अपामार्ग तीन For Private and Personal Use Only Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपामार्ग ૪૦૨ अपामार्ग प्रकार का होता है। ये सब गुण में भी भिन । बबासीर, खुजली, उदररोग, श्राम तथा रक का भिन्न होते है। (रा०नि०) हरण करने वाला है। "रक्रापामार्ग शीतल, रासायनिक संगठन-बीज में अधिक परि- कटुक, कफ वात नाशक, वामक तथा संग्राही है माण में क्षारीय भस्म होती है जिसमें पोटास और वण, खुजली और विष को नष्ट करने वाला वर्तमान होता है । ( मेटिरिया मेडिका ऑफ़ ! है। धन्वन्तरीय निघंटु । रा०नि० २०४। इंडिया-श्रार० एन० खोरी, २. ५०४)। सर अर्थात् बिरेचक और तीपण है। घा० प्रयोगांश-क्षुप (पञ्चांग) अर्थात् शाखा, सू०१५ अ० शिविरेचन । पत्र, मूल, तथा बीज । ___ "पृश्नि पर्णी स्वपामार्गः ।" च० द० सन्निऔषध-निर्माण-(१) पत्ते का स्वरस, पात ज्य०चि०। मात्रा-१ तो० । (२) क्वाथ तथा शीत कषाय, ___ अपामार्ग दस्तावर, तीचण, दीपक, कड़वा, मात्रा-1 छ० से २ छ०। (३) मूल, मात्रा चरपरा, पाचक और रोचक हैं तथा वमन, कफ, ४ मा० से ६ मा० तक । (४) बीज चूर्ण, । मेद के रोग, वायु, हृद्रोग, अफरा, बवासीर, मात्रा-४ श्राने से ६ पाने तक ( वजन में)। (५) क्षार । (६) मूल चूर्ण । (७) मूल खुजली, शूल, उदर रोग और अपची रोग को मष्ट करता है। रक्तापामार्ग वातकारक, विष्टंभी कल्क । (८) औषधीय तैल । इतिहास-शुक्र यजुगेंद के अनुसार वृत्र कफबद्धक, शीतल और रूक्ष है। यह पूर्वोक अपामार्ग की अपेक्षा गुण में न्यून है। अपामार्ग एवं अन्य दैत्यों को मार डालने के बाद नमुचि के फल (चावल ) खाने से जीर्ण नहीं होते द्वारा पराजित हुश्रा और उसे किसी सान्द्र वा अर्थात् पचते नहीं हैं, पाक में चरपरे, मधुर व पदार्थ से तथा न दिन में और न रात में ही ! कमी न मारने का वचन देकर उससे संधि कर विष्टंभी, वातकर्ता, रूग्वे और स्क्रपित्त को दूर करने ली। परन्तु इन्द्र ने कुछ फेन एकत्रित किए जो वाले हैं । भा० पू० १भा० । अपामार्ग अग्नि के समान नीक्षण, अंदन और न द्रव है और न सांद्र और नमुचि को प्रातः सूर्योदय और राधिके मध्यकाल में मार डाला। परम संसन है । राजवल्लमः । उस दैत्य के सिर से अपामार्ग का सुप उत्पम अपामार्ग के पत्र रपित्त नाशक हैं। मद० हुश्रा जिसकी सहायता से इन्द्र सम्पूर्ण दैत्यों के व०१। वध करने में समर्थ हुश्रा । अब यह पौधा अपने श्वेत अपामार्ग स्वादमें तिक, प्राहक, दस्ताप्रथल जादूमय प्रभाव के लिए प्रसिद्ध है और वर, किंचित् कटु, कांतिकारक, पाचक तथा अग्नि ऐसा माना जाता है कि बिच्छू एवं सर्प को वात. प्रदीपक है और वमन में एवं मस्य के लिए श्रेष्ठ है। कफ, कराड । खुजली), उदर रोग और अस्त (स्तब्ध) कर यह उनके विरुद्ध उनसे हमारी रक्षा करता है । नरकचतुर्दशी वा दिवाली अत्यन्त बुरे प्रकार के रन रोगों, मेद रोगों, उदर के त्यौहार के पहिले दिन की सुबह को अत्यन्त रोगों तथा वात, सिध्म, अपची, दद्रु, वमन और तड़के स्नान के समय इसको शरीर के चारों ओर श्राम रोगों को नष्ट करनेवाला है। रक्तापाघुमाते है। अथवेद में भी अपामार्ग का विस्तृत मार्ग किंचित् चरपरा तथा शीतल है और वर्णन पाया हैं । ( देखो-अथर्व० । सू०१७। मन्यावष्टंभ ( मन्यास्तम्भ, गर्दन का जकड़ ८ । का० ४।) जाना ), वमन, वात एवं विष्टंभकारक और अपामार्ग के प्रभाव तथा प्रयोग। रूम है तथा व्रण, विष, वात, कफ और खुजली आयुर्वेद की दृष्टि से का नाश करता है। अपामार्ग स्वाद में तिक्र और कटु, उष्ण | अपामार्ग का बीज (चावल ) पाक दुर्जर है वीर्य, कफ नाशक, ग्राही तथा वामक है और अर्थात् यह पचता नहीं है, रस में मधुर, शीतल, For Private and Personal Use Only Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अपामार्ग मलावरोधक, रूत, वान्तिकारक और रकपित्त को दूर करने वाला है । अपामार्ग जल तिक्र, शोथ और कफनाशक है तथा कास, वात और शोष (सूखा ) का नाश करता । वै० निघ० । ४०३ अपामार्ग के वैद्यकीय उपयोग कारक - शिरोविरेचक वस्तुओं में अपामार्ग तण्डुल ( चिचड़ी का बीज ) श्रेष्ठ है । ( सु० २५ श्र० ) । सुश्रुत - (१) अर्श में अपामार्ग मूल ( चिचड़ी की जड़ ) को चावल के घोवन में पीसकर मधु के साथ प्रति दिन सेवन करें । ( चि० ६ श्र० ) । टीकाकार डावण-लिखते हैं- " अपामार्ग मूल योगः पित्त रक्कार्शसि । गयदास कफानुबंध रक्रजेषु ।” अर्थात् पित्तज रकाश वा कफानुबंध रकाशं रोगी को इस औषध ' का सेवन करना चाहिए। ( २ ) कृमि रोग में स्नेह वस्ति लेने के बाद शिरीष और अपामार्ग का रस मधु के साथ सेवन करें । ( ३० ५४ अ० ) 1. चक्रदत्त - ( १ ) सद्योयण द्वारा रकस्राव होने की दशा में, अर्थात् शरीर के किसी भाग के कट जाने के कारण जब वहाँ रुधिर स्राव होने लगे तब अपामार्ग के पत्र का रस प्रचुर परिमाण में लेकर दात के मुख को सेवन करने से रक्रस्रुति बन्द हो जाती है । (बण शोध चि०) । (२) कर्णनाद तथा वधिरता में अपामार्ग चार - अपामार्ग के श्रन्तधूमदग्ध चार के जल तथा कल्क में तिल के तैल को डालकर यथा विधि तैल प्रस्तुत करें। इस तेल को कान में भरने ( कर्णपूरण ) से कर्णनाद तथा बधिरता रोग नष्ट होते | ( कर्ण रोग चि० ) । (३) नूतन लोचनोरकोप श्रर्थात् श्रभिष्यंद वा आँख आने में अपामार्ग मूल ताँबा के बरतन में किंचित् लवण मिश्रित दही के तोड़ को अपामार्ग को जड़ से बिसकर उस जल को आँख में भरने से श्रमिष्यंद रोग को लाभ होता है । (नेत्र रोग चि० ) । भावप्रकाश-विसूचिका में अपामार्गमूल Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपामार्ग अपामार्ग की जड़ को जल के साथ पीस कर पान करने से विसूचिका रोग दूर होता है । (म० खं० २ भा० ) । शार्ङ्गधर-रकाश में अपामार्ग के बीज को चावल के घोवन के साथ पीसकर पीने से रकार्श ( खूनी बवासीर ) नष्ट होता है, इसमें कोई संशय नहीं । ( द्वि० ० ५ म० अ० ) । वङ्गसेन -- ( १ ) उन्माद रोग में अपामार्ग श्वेत पुष्प की वरियारा की जड़ की छाल १ तो०, अपामार्ग की जड़ २ तो० | इनको एकत्र कूटकर |१| जल एवं ॥| गोदुग्ध के साथ क्वाथ प्रस्तुत करें । शीतल होने पर इसे प्रातःकाल सेवन करें । इससे घोर उन्माद रोग की तत्काल शांति होती है । (उन्माद चि० ) । ( २ ) श्रागन्तुक व्रण रोपणार्थ श्रपामार्ग मूलबरियारा एवं अपामार्ग की जड़ के कल्क द्वारा तैल पार्क करें | इसे नूल तैल कहते हैं । यह श्रागन्तु व्रण का रोपण करने वाला है 1 ( श्रामन्त्रणाधिकार ) | हारीत - (१) निद्रानाश रोग में अपामार्ग और काकजना द्वारा प्रस्तुत क्वाथ के सेवन से शीघ्र नींद आ जाती है । (चि० १६ श्र० ) 1 ( २ ) शोध रोग में अपामार्ग तथा कोकिलाच के क्वाथ द्वारा बाप स्वेद वा वहाँ पर पिंड स्वेद करना शोध रोगी के लिए हितकर है। ( चि० ३६ श्र० ) । वक्तव्य चरक में सूत्रस्थान के चतुर्थ अध्याय के क्रिमिघ्न तथा वमनोपगधर्ग में अपामार्ग का पाठ दिया है । घरको अर्श चिकित्सा में अपामार्ग का नामोल्लेख नहीं हैं। शोध चिकित्सा के "मयूरकं मागधिकां समूल।” पाठमें मयूरक नाम से अपामार्ग का प्रयोग श्राया है। सुश्रुतोक्त शोध सिकित्सा में अपामार्ग का उल्लेख नहीं है । चक्रदत्त के लिङ्गार्श चिकित्सा में तथा भज्ञातक. लौह में अपामार्ग का व्यवहार हुआ है; परन्तु शोधमें इसका उस नहीं है। खरक के विमान स्थान के आठवें अध्याय में वर्णित वान्तिकर हों For Private and Personal Use Only Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपामार्ग ४०४ अपामार्ग के अन्तर्गत अपामार्ग का पार पाया है। विमान के प्रथम प्रध्याय के कृमिहर पथ्योपदेश के वर्णन में अपामार्ग के स्वरस में शालिचावल की पिट्टी तैयार कर उसके सेवन करने की व्यवस्था दी चरकोला-उन्माद चिकित्सा में "पिष्ट्वा नुल्यमपामार्गम” इत्यादि पाट में अञ्जनार्थ अपामार्ग व्यबहृत हुअा है । पर इसके सेवनकी विधि नहीं दिखाई देती । सुश्रुतोक्त उन्माद चिकित्सा में इसका नामोल्लेख नहीं है। सुश्रु न ने शिरोविरेचन वर्ग में अपामार्ग का पाठ दिया है। (सू. ३६ अ.)। सुत सूत्रस्थान के ११ वें अध्याय में जहाँ क्षारजनक समग्र उद्भिद औषधे का नाम पाया है, वहाँ अपामार्ग का उल्लेख है । अपामार्ग प्रण के लिए उपयोगी है । अतएव इसका नाम "किणि ही" (व्रण हन्ता) हुआ। अपामार्ग के सम्बन्ध में यूनानी तथा नव्य मत । प्रकृति-१ कक्षा में शीतल तथा रूक्ष । हानिकर्ता-उष्ण प्रकृति को और चुधा को | मन्द एवं नष्ट करता है । दर्पन-अनार का पानी सिकंजबीन, काँजी और श्राबग़ोरह। प्रतिनिधि-प्रायः गुणों में मेष मांस । मुख्य प्रभाव-कामोद्दीपक, हर्षोत्पादक और शुक्र जनक । मात्रा-शक्यानुसार। गुण, कर्म, प्रयोग–यदि ६ मा० इसके पन्न को काली मिर्च के साथ पिएँ और उसके बाद ! घीप्लुत रोटी खाएँ तो रकार्श को लाभ हो। यह प्रात्तवरुद्धक और प्रायः स्वगोगों, रक दोष, एवं ! नेत्र की धुंधता को लाभप्रद है। अपामार्ग संकोचक, (संग्राही) मूत्रल और परिवर्तक है । रजः साव, अतिसार और प्रवाहिका | में इसका उपयोग किया जाता है । अपामार्ग क्षार अगंभीर शोथ, जलोदर, चर्मरोग और प्रन्थि वृद्धि तथा गलगंड आदि रोगो में प्रयोजनीय है । श्रपिच शुष्क कास में इसके सेवन से यह श्लेष्मा को तरल (द्रवीभूत)। करता है । सर्प, कुकुर किंवा अन्यान्य विष घर-प्राणि दंशन जन्य विप दोष निवारण के लिए प्रपामार्ग यहुत प्रख्यात है। एतदर्थ यह सेवन व लेपन उभय प्रकार से व्यवहार में प्राता है। कभी कभी अपामार्ग का स्वरस दन्तमूल में एवं इसका कल्क फून्ती रांग में अंजन रूप से प्रयुक्र होता है । ( मेटिरिया मेडिका ४ाफ इंडिया २ य० खं०, ४०५ पृष्ठ) __ अपामार्ग के मूत्रल गुण से इस देश के लोग भली प्रकार परिचित हैं। यूरोपीय चिकित्सकगण शीथ रोग में अपामार्ग की उपयोगिता स्वीकार करते हैं । मूल शाखापत्र सहित प्राध छटॉक, अपामार्ग को पाँच छटाँक जल में १५ मिनट तक क्वथित करें । इसमें से प्राध छटाँक से लेकर एक छटाँक की मात्रा तक दिन में तीन बार सेवन करें (फा० ० पृष्ठ १८४) अपामार्ग की जद्द एक तोला रात्रि को सोते समय सेवन करने से नांधता ( रतौंधी) जाती रहती है। फा०ई०३ भा०।। इसका शुष्क पौधा बालकों के उदर शूल में दिया जाता है। पूयमेह (सूज़ाक ) में भी इसका संकोचक रूप से उपयोग होता है। (रट्युवर्ट) मेजर मैडेन ( Madden ) लिखते हैं"अपामार्ग को पुष्पमान मञ्जरियाँ वृश्चिक विष से रक्षा करने वाली झ्याल की जाती हैं। इसकी टहनी पास रहने से वह स्तब्ध हो जाता भस्म में अधिक परिणाम में पोटास होता है। इससे यह कला सम्बन्धी कार्योंके लिए भी उतना ही उपयोगी सिद्ध होता है जितना कि औषध के लिए। हरताल के साथ मिलाकर व्रण तथा शिश्न एवं शरीर के अन्य स्थल पर होने वाले मसक के लिए इसका बाह्य उपयोग (लेप) होता है। उदय चन्द्रदत्त महोदय कर रोगों के लिए अपामार्ग क्षारतैल के उपयोग का वर्णन क For Private and Personal Use Only Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपामार्ग ४०५ अपामार्ग डॉक्टर बोडी ( Bidie) कहते हैं.."कतिपय श्रांग्ल चिकित्सक गण काथ रूप से इसके व्य मूनल गुण को स्वीकार करते हैं." डॉक्टर कॉर्निश (1)!'. Cornish) ने जलोदर में इसका उपयोग किया और इसे उप-!. योगी पाया। सिंध के जंगली दिहानी लोग बवूर-कण्टक जन्य क्षतों में इसका उपयोग करते हैं। मुरे । बिहार में जब किसी व्यक्रि को कुकर काट लेता है तब उसको अपामार्ग की पुष्पमान मञ्ज. रियों में किञ्चित् शर्करा मिलाकर बनाई हुई गोलियों का मुख्य रक्षक औषध रूप से व्यवहार करते हैं । (बैलफोर) यह चरपरा एवं मृदुरेचक है तथा जलोदर, अर्श, विस्फोट और स्वगोगों में उपयोगी ख्याल किया जाता है । इसके बीज और पत्र वामक ख्याल किए जाते हैं तथा जलनास और सर्प. देश में उपयोगी हैं। टी० एन० मुकर्जी। डॉ. नदकारणी--प्रपामार्ग का क्वाथ (अपामार्ग २ अाउंस=१ छ. तथा जल १॥ पाइंट ) उराम मूत्रल है और वृकीय जलोदर में लाभदायक पाया गया है। उदरशूल तथा आंत्र विकारों में इसके पत्ते का रस भी उपयोगी है। अधिक मात्रा में गर्भपात वा प्रसववेदना | उत्पन्न करता है। इसके ताजे पत्तो को पीसकर गुड़ के साथ कल्क प्रस्तुत करें अथवा काली मरिच एवं लहसुन (रसोन) के साथ मिश्रित कर वटिकाएँ बनाएँ । इसके सेवन से विषम ज्वरों विशेष कर चातुर्धक ज्वरों में लाभ होता है ।। इसके पत्तों का ताजा रस सूर्यताप द्वारा शुष्क कर इसका गाढ़ा सत्य प्रस्तुत करके इसमें थोड़ा अफ़ीम मिलाकर सेवन कराएँ । प्रारम्भिक प्रौपदंशीय क्षतों के लिए यह उत्सम अनुलेपन है । बीजों के सहित इसकी मंजरियाँ प्रायः श्लेष्मानिस्सारक रूप से व्यवहार की जाती है । __ इसके बीज और दुग्ध द्वारा प्रस्तुत क्षीर (खीर) मस्तिष्क रोगों के लिए उत्तम औषध है। स्नान करने के बाद रविवार के दिन एवं पुष्य नक्षत्र में लाई हुई और कोने में लटका कर रखा हुई इसकी जड़, उतेजना सहित प्रसव वेदना में तथा शीघ्र प्रसव कराने के लिए उपयोग की जाती है। वेदनाकागानं इसको स्त्री के केशों वा उसकी कटि में बाँधो । प्रसव होजाने के पश्चात् इसे तुरंत निकाल कर धारा प्रवाह जल में फेंक देते है। (ई० मे० मे० पृ० १६..२०) अपामार्ग की पुष्पमान सारियों धा बीज को जल के साथ पीस एवं कल्क प्रस्तुत कर विषधर सर्प एवं सरिसृप दंश में इसका बहिर प्रयोग किया गया है। चूर्ण किए हुए पत्र कः क्वाथ मधु वा मिश्री के साथ सेवन करना अतिसार तथा प्रवाहिका की प्रथमावस्था में उपयोगी है। (इं० डू. ई० पृ० ५६२-भार० एन० चपरा) __अपमार्ग की जड़को पानी से खुब बारीक पीस कर पेड़ के नीचे रान तथा गुहा द्रिय पर प्रलेप कर दें तो शीघ्र बच्चा पैदा हो जाता है । इसको स्त्री के पाँव पर प्रलेप करने से भी यह वातहोती है। चिचहीके पत्र तथा बीज, प्रत्येक १.5 तो. को सुखा कर तमाक की तर हुक्का पर पीने से श्वास व पुरातन कास को बहुत लाभ होता है । चिचड़ी का बीज ३ माशा कूट कर समान भाग शकरा मिलाकर जन के साथ सेवन करने से रजःस्राव का अवरोध होता है। इसकी जड़, बीज एवं पत्र को कूट कर चूर्ण बना और समान भाग शर्करा मिलाकर इसमें से ६ माशा की मात्रा में जल के साथ सेवन कराने से रकाश नष्ट होता है । इसके ताजे पत्ते एवं जड़ को तिल तेल में मिलाकर व्यवहार करना कण्ड रोगी को अत्यंत लाभदायक है । उभग प्रकार की पुरानी से पुरानी खुजली को पाराम हो जाता है। ६ माशा इसकी ताजी जड़ पानी में घोंट कर पिलाने से वृक्काश्मरी को लाभ होता है। वस्ति से पथरी को टुकड़े टुकड़े कर निकाल देता है। वृद्धशूल की यह अव्यर्थ महौषध है। ___ इसकी ताजी जड़ के दैनिक दन्तधावन से दाँत मोती की तरह सफेद हो जाते हैं। मुंह से For Private and Personal Use Only Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपामागे ४०६ श्रपामार्ग शीशी में डालकर उसमें इतना पाक का दूध डालें कि वह डूब जाए । तदनन्तर २१ रोज तक भूमि के भीतर गाद रक्खें। फिर एक बड़ी लोहे की कड़ाही में एक सेर अपामार्ग की भस्म विद्या कर हाथ मे दबा दें। उसके बीच में संखिया को रखकर ऊपर से एक सेर उक्र भस्म और विछाकर चारों ओर से भली प्रकार दबा दें। फिर उसपर ४ सेर रेत (बालू ) डाकर चूल्हा पर रखकर नीचे प्राग जला दें और रेत के ऊपर मकाई के कुछ दाने रख दें। ४ पहर अग्नि देने पर मकाई के दाने खिल जाएगे। बस अग्नि देना बन्द कर दे। दूसरे दिन जब वह अच्छी तरह शीतल हो जाए तब उसको धीरे-धीरे निकाल ले। श्वेत रंग की संखिया की भस्म प्रस्तुत होगी। माता। चावल का चतुर्थ भाग । गुण---श्वास के लिए अपूर्व औषध है। इसके अतिरिक बहुश: अन्य रोगों में भी उपयोगी है। कफ निर्गत होता है । यह दंतशूल की शर्तिया दवा है। दाँतों के हिलने और मसूढ़ों के कमजोर होने को दूर करता है । विशेषकर मुखदुर्गंधि के लिए अत्यंत लाभदायक है। इसकी जड़ पीसकर लगाने से स्तंभन होता है। इसके बीजों की खीर पका कर खाने से कई दिन तक तधा नहीं लगती और शक्ति भी यथावत बनी : रहती है। इसकी जड़ पीस कर स्तन पर प्रलेप करने से दृध बहुत उतरता है हस्तपाद पर मल नेसे क्षय रोग को लाभ होता है। इसकी जद की भम्म लगाने और खाने से । कण्ठमाला को प्राराम होता है। इसके पत्तों का रस मासूर ( नाडीव्रण) को । भरता है। इसके पुरातन वृक्ष की ग्रंथि में एक कीट निकलता है। इसको घिसकर पिलाने से बच्चों का अब्बा रोग दूर होता है। भस्मक रोग में जिसमें तीक्ष्णाग्नि के कारण अत्यधिक सुधा लगती है उसमें अपामार्ग लण्डन । चूर्ण १ तो० फाँक लेने से वह जाती रहती है। चिचड़ी की जद ६ मा०, कुकरौंधा के पत्र ६ मा० इनको सफ़ेद जीरा के साथ पीसकर उसमें मा० काले नमक का चूर्ण मिलाकर सेवन कर ने से उदरशूल, उदर जन्य वायु के लिए अत्यंत लाभप्रद और परीक्षित है। अपामार्ग के विभिन्न अंगों द्वारा कतिपय धातुओं की भस्मों के निर्माण-कम (१) अकीक भस्म-अपामार्ग के एक ! पाव कल्क में एक तोला अक़ीक़ रखकर कपड़मिट्टी कर सूखने पर निर्यात स्थान में ७-८ सेर भरने उपलों की अग्नि दें। शीतल होने पर निकाले । बस अपूर्व भस्म तैयार मिलेगी। मात्रा-२ रत्ती । सेवन-विधि--गाय के मक्खन ( गो नवनीत) के साथ सेवन करें। गुण-हृदय की निर्बलता में उपयोगी है। (२) सोमल भस्म-२ तो० संखिया को (३) संखिया भस्म की सरल विधिएक मिट्टी क बर्तन में१० तोला अपामार्ग की भस्म बिछाकर उसपर एक तोले समूचे संखिया की बली जो २१ दिन तक मदार के दूध में तर करके रक्खी हो, रख दें। ऊपर से १० तोले और उक्त भस्म को डालकर हाथ से भली प्रकार दबा दें और बर्तन का मुंह बन्द करके ऊपर से तीन कपरौटी करके सुखाएँ। सूख जाने पर उस को १० सेर घरेल उपलों में रखकर पाग दें। शीतल होने पर धीरे से खोलकर निकाल लें। गुण-कफज रोगों के लिए अत्यन्त लाभप्रद है। (४) हिंगुल को भस्म-शिंगरफ़ रूमी २ तो० खरल में डालकर २० तो० पाक के दूध के साथ खरल करें । जब सम्पूर्ण दुग्ध समाप्त हो जाए तब टिकिया बनाकर छाया में शुष्क करें। फिर मिट्टी के शराव में. तो० चिरचिटा की राख बिछाकर उसपर हिंगल की टिकिया रखकर ऊपर से १० तो० उक्त राख डाल कर हाथ से दना दें। फिर ढक्कन देकर तीनवार कपढ़ मिट्टी करने के पश्चात् शुष्क करें और १० सेर घरेलू उपलों में रखकर आग दें। शीतल For Private and Personal Use Only Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपामार्गजटा ४०७ अपामार्ग क्षार तैलम् होने पर निकाले । हिंगुल की सर्वोत्तम भस्म अपामार्ग बीज, सोंठ, मिर्च, पीपल, हलदी, हींग, प्राप्त होगी। क्षवक, विडंग इनका करक कर गोमूत्र के साथ गुरग-शरद ऋतु में इसके सेवन करने से | यथाविधि तेल पकाकर नस्य लेने से शिर में सर्वी कम लगती है और कामशक्रि का पुनरावर्तन उत्पन्न कृमियों नष्ट होती है. इसमें सैल ४ श. होता है । कतिपय रोगों क लिए प्रत्युत्तम है। और कल्क १० लेना चाहिए। प्रयागा. । . (५) हड़ताल व अभ्रक की भस्म- च. द०। ब० से० सं० शिरोरो चि.। हड़ताल घरकी ४ तो०, अभ्रक ४ तो. दोनों को __ नोट-हवक-नकछिकनी। खरल में डालकर अपामार्ग जल २० तो० के अपामार्ग बोजादि चूर्णः apāmārga-bijadiसाथ घोटकर सुखा ले। फिर मिट्टी के बर्तन में ! chārna.h-सं० पु० चिचिंटाके बीज, चिग्रक, रखकर कपइमिट्टी करके चूल्हे के भीतर डाल सोंठ, हड़, मोथा, चिरायता, प्रत्येक सम भाग ले दें। दो घंटे के बाद निकाल कर दोबारा खरल चूर्णकर सर्व तुल्य गुड़ मिलाएँ। इसे भोजनांत में में २० तो० उक्र जल के साथ फिर खरल करें। ,कर्ष खाकर जब भोजन जीण होजाए तो ऊपर जब शुष्क होने पर हो तब बर्तन में डालकर बंद से तक्र पाएँ । वृ० नि० र० । करके यथाविधि पहिले दो घरटा तक चूल्हा में दबा दें। शीतल होने पर तीसरी बार पुनः अपामार्गमु a pamargamu--ते० अपामार्ग, ___ लटजीरा-हिं । ( Achyranthes Asp. वैसा ही करें। अत्युत्तम धूसर वर्ण की भस्म ! era, Linn.) स० फा० ई० । प्रस्तुत होगी। मात्रा- रत्ती से २ रत्ती तक । सेवन-विधि-भपामागक्षारः apāinarga-ksharah-सं. शर्बत बजरी अथवा किसी अन्य उचित अनुपानके पु० अपामार्ग द्वारा प्रस्तुत क्षार | प्राउ प्रकार साथ सेवन करें। गुण-यह प्राचीन से प्राचीन के क्षारी में से एका गुण-यह गुल्म तथा एल ज्वर की अमोघ श्रीषध है। श्वास काठिन्य एवं ___ नाशक है । भा० पू०१ भा० ह० ब० । कास के लिये अकसीर का काम देती है । इससे : अपामार्ग क्षार तैलम् apāmārga-kshara श्राहिक, द्वयाहिक, तृतीयक, चातुर्थक प्रादि विषम -tailan-सं० क्ली. (1) एक औषधीय ज्वर नष्ट भ्रष्ट हो जाते हैं। तैल जो करी रोग में प्रयुक्र होता है। तिल के अपामार्गजटा apamarga-jara-सं० स्त्री० तैल में अपामार्ग (चिर्चिटा )क्षार जल और अपामार्ग मूल, चिर्चिटा की जड़ | Achyia अपामार्ग ( की जड़ ) से बनाए हुए कल्क nthes Aspera (Root of. )। सि. को सिद्ध करके कान में डालने से कर्णनाद यो० तृतीयक ज्वर श्रीकण्ठः । “भामार्ग जटा और बहिरापन दूर होता है। कोट्यां ।" च. द० सन्निपातज्य० चिः । नोट--तिल तेल ५ श० | अपामार्गहार अपामार्ग की जड़ का बाँधना दृतीयक खर के | २ श० । जल १६ श० | २१ बार परिस्नावित करके लिए हितकारक है। अपामार्ग मूल को भली | क्षारवारि (चार जल) प्रस्तुन करलें । (मतान्तरप्रकार धोकर बाएँ हाथ में बाँधने से सब प्रकार धार परिमाण २६ प०, जल १८ श० और कल्क के घरों का नाश होता है । वैद्यक। दय ५ श.)। STANI anga: apámárga-tandulah च० द० कर्ण-रो० चि० । भैष० र० कर्ण -सं० पु अपामार्ग बीज, चिचिंटा का बीज । रो० चि०। Achyranthes Aspera ( Seeds (२) १६ श० अपामार्ग क्षार को २४ श. of-) च० सू० ५०। जलमें २१ बार परिस्रावित कर और तैल १६ श० अपामार्गतैल apāmārga-tailam-सं० क्ली० लें। तैल जल न जाए इसलिए अपामार्ग क्षार एक औषधीय तैल जो शिरोरोगमें काम प्राता है। में उसका करक डालें और पिण्डीभूत कल्क से For Private and Personal Use Only Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपामार्गादिकल्कम् ४०१ __ अपीब . पृथग्भूत सैल ही ग्रहण करें। उसे गारे नहीं। अपिङ्मियात्रा a.pin-miyaa-बर० (ब० घ०) प्रयोगाः। वृक्षाः सं०। (Tecs, shubs or Herba. अपामार्गादिकरकम apainargadikalkam I cous plants.) -60 क्ली0 (1) चिरचिटा की लुगदी। (२) अपिड़ो apindi-हिं० वि० [सं०] पिंडरहित । चिरचिटे के श्रीज को चावल के धोवन से बिना शरीर का । अशरीरी। खाएँ तो रजाश दूर हो। वृ नि. र.। अपिधान apidhāna-हिं० संज्ञा प [सं०] अपाय apāya-हिं० संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० । आच्छादन । श्रावरण । ढक्कन । पिहान। अपायी ] (1) विश्लेष। अलगाव । (२) अपिनछ apinaddha-हिं० वि० [सं०] नाश। (३) उपद्रव। -वि० [सं० अ-नहीं ना० अपिनद्धा ] बंधा हुश्रा। जकड़ा हश्रा। । टैंका हुश्रा । +पाद, प्रा० पाय-पैर ] बिना पैर का । लैंगड़ा । | अपिहित apihita-हिं० वि० [सं०] [ श्री० अपाहिज । अपिहिता] श्राच्छोदित । ₹का हुा । प्रावृत्त । अपारदर्शक apara-larshaka-हिं० वि० ( भौ० वि० ) अदर्शक, अस्वच्छ । गैर अपोन apina-हिं० वि० हल्का, क्षीण, कृश शफ़्फ़ाफ़-अ० । प्रोपेक। (Opaque)-६०। (higit, Leal )।-संज्ञा पु. अफीम वे पदार्थ जिनमें से प्रकाश बिलकुल न जा सके (Opium ) अर्थात् जिनमें से प्रकाश की रेखाएँ नहीं गुजर अधीनस apinasa अपोनसः apinasa सकें । जैसे लकड़ी, लोहा, चमड़ा इत्यादि । नासिका रोग विशेष। पीनसरोग भेद । अपालापर्म apālāpa narmna-सं०क्ली. लक्षण-जिस मनुष्य की नाक रुकी हुई सी पृष्ठवंश ( कशेरुक) और वन के मध्य भाग में ! हो, धुवा से घुटी हुई सी, पकी हुई और कदित दोनों ओर कंधों के अधोभाग में "प्रपालाप" गीली सी हो और सुगंध एवं दुर्गन्ध को न नाम के दो मर्म है। इनके विद्ध होने से कोष्ठ मालूम कर सके उसे अपीनस का रोगी जानना रुधिर से भर जाता है और इसी रुधिर को राध चाहिए। यह विकार कफ वायु से होता है और (पूय, पीब ) में परिणत होने पर रोगी मर जाता प्रायः लक्षण प्रतिश्याय के से होते हैं। सु० है, अन्यथा नहीं । चा । शा० ४ अ०। चि.२२० । च.चि. 1 (Dryness of अपावर्तन pavartana-हि. संज्ञा प्र! the 11080, want of the pituitary [सं०] (१ ) पलटाव । वापसी । (२) secretion & Loss of smell ). भागना । पीछे हटना । (३) लौटना। अपीनस में कफ बढ़कर नासिका के सम्पूण अपास नम् ॥pāsa nam-सं० क्ली. मारण । स्रोतों को रोक कर बुधुर श्वास युक्र और पीनस श्रम । से अधिक एक प्रकार का रोग उत्पन्न कर देता अपाह(हि)ज apāhai, hi-ja-हिं० वि० [सं० है, जिसे अपीनस कहते हैं। अपभज, प्रा० अपहज ] (१) ( Lazy, ! लक्षण--इसमें रोगी की मासिका भेड़ की cripple,) अंगभंग। खंज । लूला, लँगड़ा । नासिका की तरह झरा करती है । तथा पिच्छिल (२) पालसी-बेकार । पीला, पका हुश्रा और गाढ़ा गाढ़ा नासिका का अपि api-अव्य० [सं०] (१) निश्चयार्थक । भी। मल निरंतर निकलता रहता है । वा० उ. __ ही। (२) निश्चय दीक । अ० १६ । अपि apin-घर० (ए० व.) वृक्षः-सं०। अपीय apiya-हि. वि०-अपेय, पान निषिद्ध । ( Tree, sbrub, or Herbaceous Unfit to be drunk, forbidden .. plant.) liquor). For Private and Personal Use Only Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपिसम् ४०६ अपूर्वारसः अपित्तम् appittam-सं० क्लो. चिम्रक, | ___ कर गोलाकार बेले और पीछे इसको घी में stari ( Pluinbayo zeylanicumi). पकाएँ । इसे ही 'अपूप' प्रभृति नामों से अभिप्रम। धानित करते हैं। इसे बलकारक, हृय, रुचिकारक अपुन apunga-छो० नाग०, संता० तुलतुली, । भारी, वृष्य, तुष्टि देनेवाला पित्त और वायु को सिदोरी-यम्ब० । ( Holostomma j शमन करने वाला स्था मधुर कहा है। चै० rheedii) ई० मे० मे०। निघ०। अपुच्छ apuchchha-हिं० वि० पुच्छ रहित । (२) गोधूम, गेहूँ। (Wheat)रा० (Tailless ). नि०व० १६। (३) इंद्री । “इन्द्रियम् अपुरुछा apuchchha-सं० स्त्री० शिशपावृक्ष ! अपूपः" । ऐ०२।२४। अथर्व० । सू० । -सं०। शोशव (-म-)-हिं० । A timber ५। का. १०। tree. ( Dal bergia Sisu) अपूप्यः apupyah-सं० पु० (१) गोधूम, अपुत्र aputra-हिं० वि० [सं०] जिसके पुत्र गेहूँ (Wheat)। (२) गोधूम चूर्ण, गेहूँ न हो । निःसन्तान । पुत्रहीन | निपूता | __ का श्राटा, मयदा । ( Wheat flour). अपुरुष apurusha-हिं० वि० प. [सं. अपूरणो apurani-सं० स्त्री० (१)शाल्मली पुरुषत्वहीन, नपुंसक । ( Impotent) | वृक्ष । सेमल (-र)-हिं० । (Bombax Malaअपुष्टः apushrah-सं० त्रि. अपरिपक्व, कच्चा ।। ___baricum ) श० च०। (२) कार्पास वृक्ष, (Immature). कपास । (Gossypiurn Indicum). अपुष्पः apushpah-सं० पु. उदुम्बर वृक्ष, | अपूर्ण apāina-हि. वि. अधुड़ा । (Imper___ गूलर । ( Ficus glomerata). ____fect), अपुष्यफलदः apushpa-phaladah-सं० पु. अपूर्ण-मण्डलम् .purna-mandalam-सं० पनसवृक्ष, कटहल । (Artocurpus inte- | | क्ली० अधुड़ा घेरा, अद्ध वृत्त । (Imperfect grifolia ) फणस-म०। रा० नि० 40 cirsle). ११ । बिना पुष्प के फल लगने वाले वृक्षमात्र ।। अपूर्वारसः a.pur vorasah-सं० पु. कपूर. ( Flowerless tree ) रा०नि०। रसः, उत्तम हींग १० तो० लेकर इसको २ मूषा अपुष्पित apushpita-हिं० वि० [सं०] पुष्प बनाकर उनके भीतर २ तो० शुद्ध पारद डालकर रहित, बिना फूले हुए । Without flowers दूसरी मूपा को ऊपर रखकर कपड़मिट्टी कर . (a tree or plant ), not bearing दें। ऊपर वाली मूपा के तल में पहले से ही flowers, not in flowers. एक बारीक छिद्र कर लें, फिर एक हाड़ी में अपूत a putta-हिं० वि० [ सं०] अपवित्र । नीचे थोड़ा सा यवक्षार और समुद्रलवण रख अशुद्ध । -वि० [सं० अपुत्र, पा० अपुत्त } पुत्र- कर बीच में ऊपर वाला यंत्र धरकर ऊपर वही हीन । निपूता। क्षार और लवण रखकर यंत्र को तिरोहित कर अपूपः a pupuh-सं० पु. दें, उसके ऊपर साफ ठीकरे ढककर दूसरी हाँडी अपूप apipa-हिं. संज्ञा पु. ऊपर रखकर कपड़ मिट्टी कर दें। फिर उसको (१) पिष्टक : पूरी, पूड़ी, पुश्रा--हिं० । पुलि सूखने पर चूल्हे पर रखकर - पहर तक साधारण पिटे-ब० । घारणे-म । कोई कोई इसे पाय रोटी ! आँच देना और ठण्डा हो जाने पर उन खपड़ों में कहते हैं। पूरब में इसे रोट अथवा सुहारी कहते लगी हुई सुवर्ण के सदृश चमकीली वजन में है । हला० । बारीक पिसे हुए गेहूँ के पूरी पारद भस्म मिलेगी। उसको बारीक कपड़े आटे में गुड़ मिलाकर जल से भली भाति मईन में रखकर पोटली बनाकर दोपहर तक दूध में For Private and Personal Use Only Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir घपृक्त अपांग स्वेदित करें। फिर निकाल कर अच्छी तरह सुखा पोय (ई)का साग । प्र०टी०। Basella. लें। मात्रा-आधी रत्ती। गुण-यह सयादि alba & rubra (Malabar nightरोगों को समूल नष्ट करता और जठराग्नि को shade ). प्रदीप्त करता है । रस. यो० सा। अपोनोगेटन मॉनेस्टिकॉन aponoge ton अपृक्त aprikta-हिं० वि० [सं०] (१) बेमेल । monastychon-ले० घेचू -हि. । ई० बिना मिलावट का। असंबद्ध। बिना लगाव हैं. गा० । का । (२) खालिसा केला । अपोनोगेटन मॉनोस्टेकिनम् aponoge ton अपेकः ape kah-सं० पु. दुरालभा, धमासा ।। monostachyum, Linn.- er (Alhagi maurorum). -हिं० । काकाङ्गी-सं० । नमा-ते। इसकी जड़ श्राहार के काम आती है। मेमो० । अपेण्डिक्स appendix-इं० उपांग्र, अन्त्रपरिशिष्ट । अपोनोगेटन, सिम्पलस्टॉक्ड aponoge ton, Simple stalked-इं. घेवू । ई० है। अपेरिड-साइटिस appendicitis-ई० उपान्त्र गा० । प्रदाह, अन्नपुच्छ प्रदाह, अन्धपरिशिष्ट प्रदाह । | अपारोसा वाइलासा aporosa villosa, अपेत राक्षसी ape tas-lakshasi-सं० स्त्री० | Baill. ले० या-मेइन-बर। इसका गल (1) तुलसी पुप । (Ocimum San तथा छाल प्रयोग में आती है । गोंद रंग के काम ctum). रा०नि० २०१०। (२) कृष्ण में प्राता है । मेमो०। तुलसी। काली तुलस-मह० । भा० पू०१ भा० गु० व० वर्वरो। (३) गावुई तुलसी। अपोलाइसीन apolycin-ई. यह एक पीताभा(Ocimum Basilicum ) 1 TO ATO 1 युक्र श्वेत स्फटिकीय चूर्ण है जो जल में विलेय होता है। यह फीनेसोटीनके समान प्रभाव अपेय apeya-हिं० वि० [सं०] न पीने योग्य, करता है। इसे अहारात्रि में १२० ग्रेन (६० पान निषिद्ध । Unfit to be drunk, रत्ती) तक की मात्रा में भी प्रयोग करने से यह forbidden (Liquor), कोई हानिकारक प्रभाव नहीं करता; किन्तु इसका अपेहिवातःape thi-vatah-सं०५० प्रसारणी । वेदनाशामक प्रभाव उसकी (फीमेसीटीन) अपेक्षा गंधाली-हिं० । ( Pederia Fetida, निर्बल होता है । यह शोधक अर्थात् पचननिवाLinn.). फा० इ०। रक भी हैं, पर इसको बहुवा ज्वरनाशक तथा अपोएन् apoen-बर० (प. व.) वेदनाशामक प्रभाव के लिए ही उपयोग में लाते अपोएन्-मियाा apoen-miyaa-बर० (ब.व.)। हैं। कभी कभी काउ यटर (गो-नवनीत) के साथ पुष्प । फूल । (Flowe1's) स. फा०६०।। इसकी वर्तिका बनाकर भी प्रयोग में लाते हैं। अपोगण्डः apogandah-सं० त्रि०। (१) मात्रा-१० से ३० ग्रेन (५ से १५ रत्ती)। अपांगंड apoganda-हिं० वि० । बलिभ, अपोहन apohana-हि. पु. तर्क के द्वारा बुद्धि वृद्ध पुरुष। (२) पंगुकाय । विकलांग । को परिमार्जित करना। -पशिशु । मे० डचतुष्कं । -वि०(१) अपौरुष apourush-हिं० गु० साहस हीन, सोलह वर्ष के ऊपर की अवस्था वाला । (२) नपुसक, असाहस, पुरुपार्थ हीन । ( Impoदालिग़। tent ). अपोदक apodaka-सं० पु. रेगिस्तानी साँप । अपांग apanga-हिं० संज्ञा पु० जहाँ दोनों पलक अथवं। सू० १३ । ६ । का०५। आपस में एक दूसरे से जुड़ते हैं, उस स्थान को अपादिका apodika-सं० स्त्री. पूतिका शाक, कोया या अपांग कहते हैं। For Private and Personal Use Only Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्शनपात् अप्रतिम अपांनपात् apān.napā ta--सं० पु० विद्युत् अम० ! -हि० वि० कांड (तना) रहित (Steसम्बन्धी अग्नि । अथर्व। mless ). अपः (स) apah,s-सं० क्ली० (१) जल, पानी | अप्रकाश aprakasha-हि० संज्ञा पुं० [सं०] (water.)। (२) जल धारा | अथ० । सू० [वि० अप्रकाशित, प्रकाश्य ].प्रकाश का अ. २३1२ का०६। भाव | अंधकार । अप् ap-सं० स्रो० जल,पानी । (War अप् ap-हिं० संज्ञा पु. jter)।(उप०) निम्न, अप्रकृत aprakrita-हिं० वि० [सं०] (.) अस्वाभाविक । (२) बनावटी । कृत्रिम | गढ़ा अधः, नीच,बुरा, विकृत, त्याग, हर्प । इसके वि. रुन्छ अर्थ में "अधि" प्रयुक्त होता है। हुश्रा। अमम् (स्) apnam, as-सं० को जल ।। अप्रकृष्ट: aprakrishrab सं० पु. काक । Water (Aqua). (A erow)। श. २०। -त्रि० अधम अप्पकोवय्,-कलुन appakovay,-kalungi (Inferior, vile)। -ता० कुकुम-दुराड ते. 1 रिहन्कोकार्पा फीटीडा ! अप्रखर apyakhara-हिं० वि० [सं०] मदु । ( Rhynchocarpa Fetida. Sch. कोमल । rad.), ट्रिकोसैन्धीस नलिफोलिया (Tricho. ! अपचकषा aprachankashi-सं० प. santhes nervifolia, Linn.), दि. लँगडा लला और आँखों से लाचार । अथर्व० । रायोइका ( I'. Dioica, Rorb.), बायो- सू०६।१६ । का । faar farat ( Bryonia pilsa, Roxb.) प्रयच्छन्न aprachchhauna-हिं०वि० [सं०] -ले०। (1)जो मछम न हो । खुल्ला हुमा । अनावृत्त । कुष्माण्ड वर्ग (२) स्पष्ट । प्रगट । (N.C.Cuenrbitacee.) अप्रजाता aprajata-हिं०वि० स्त्री० (Nulliउत्पति-स्थान-गुजरात, दकन प्रायद्वीप, para) जिस स्त्री के कभी सन्तान न हुई हो और मालाबार की पहाड़ियाँ । अथवा जिसने गर्भ धारण न किया हो। उपयोग-पेन्सली का वर्णन है कि इसकी अपजास्त्वम् aprajastvam-सं०क्ली. संताम जड़ का माजून में अर्श की दशा में अन्तः प्रयोग न होना । अथर्व०सू०६ । २६ का०६।। होता है और दोषिक श्वास में स्नेहजनक रूप | अप्रतिकार apratikāra-हिं० संज्ञा पु० [सं०] से इसका चूर्ण व्यवहार में आता है। [वि. अप्रतिकारी ] उपाय का अभाव । तदबीर ... इसकी जड़ लगभग मनुष्य की अंगुली न होना । -वि० जिसका उपाय या तवीर . बराबर होती है तथा हलकी धूसर वर्ण की और न हो सके । लाइलाज। . स्वाद में मधुर एवं लुनाबी होती है। | अप्रतीकार apratikāra-हिं० संज्ञा पु. देखोअप्पेल appel-मल. अरणी । ( Premna अप्रतिकार। Integrifolia). ई० मे० मे। अप्रतिकारी apratikari-हिं० वि० [सं०] अप्पो appo-ब-ब अफोम । (Opium ) अप्रतिकारिन् ] [अप्रतिकारिणी ] उपाय या - फॉ०१०१ भा०। तदबीर न करने वाला। अप्यय apyaya-हिं० संज्ञा पु० [सं०](1)| अप्रतिकार्य: apratikāryya.h-सं० लि. अपगमन । (२) लय । नाश । दुश्चिकित्स्य । ( Incurable). अप्रकाण्डः aprakandah-सं०५० (१) कांड- अप्रतिम apratibha-हिं० वि० [सं०](.) रहित वृक्ष,(प्रकांड)धड़ रहित वृक्ष,तनारहित वृक्ष । प्रतिभा शून्य । चेष्टाहीन । उदास । (२) स्फूर्ति(Stemless tree)। (२) झिण्टिका अादि । शून्य । मन्द । सुस्त । For Private and Personal Use Only Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अप्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष apratyaksha - हिं०वि० [सं०] (1) लक्षित, ग्रग्ट, जो देखा न जाए। ( Invis ible, Absent ) । ( २ ) छिपा । गुप्त । प्रति साराख्य श्रञ्जनम् apratisarakhya / anjanam-सं० क्लो० कालीमिर्च १० प्रदद स्वर्णमाक्षिक आधा पिचु, नीलाथोथा श्राधा पल, मुलहठी एक पिचु इन सत्रको दूध में भिगोकर अग्नि में भस्म करलें । गुण - यह तिमिर रोग की परमोसम श्रौषध है। वा० उ० श्र० १३ । अप्रधान apradhána-० वि० [सं०] (1) कनिछ, क्षुद्र, मुख्यनहीं, जघन्य ( Subordinate, secondary )। ( २ ) जो प्रधान वा मुख्य न हो । गौण । साधारण । सामान्य | अभा aprabha - हिं० स्त्री० प्रभाहीन, प्रकाश शून्य । ( Want of splendour ). श्रप्रमेय aprameya - हिं० वि० [सं०] जो नापा न जा सके | अपरिमित । अपार । अनंत | अप्रयुक्त aprayukta - हिं० वि० [सं० ] जिसका प्रयोग न हुआ हो । जो काम में न लाया गया हो । अव्यवहृत । अवरोहता aprarohata-fo अन्न aprasanna-हिं० वि० असंतुष्ट, दुखित, नाराज, श्रनच्छ, मैला । ( Displeased). १ श्र० । 3967: aprahatah-to fo अपहृत aprahata - हिं०वि० ४१२ tear aprasava-dharmmi - सं० त्रि प्रसव धर्मवाला पुरुष, क्योंकि आत्मा में से कुछ उत्पन्न नहीं होता इससे यह प्रसवधर्मी नहीं है। श्रवीजधर्म्मा । मध्यस्थधर्मी । सु० शा० Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अप्रेतराक्षसी अप्राकृतिक संयोग aprakritika.sanyoga ०पु० स्वाभाविक मैथुन, गुद मैथुन, पशु मैथुन श्रादि । श्राजिता aprajita-बं० हिं० श्रपराजिता, विष्णुकान्ता, कवारी ( Clitorea ternate, Liva. ) स० [फा० ई० । अप्राजितार बीज aprájitára-bija-बं० अत्राजिते के बीज aprajite-ke-binja-fर्ह०पु० अपराजिताका बीज | Clitorer ternatea, Linn. ( Seeds of - ) अ० [फा० ई० । अमाजितारनूल aprajitára-mūla-चं० श्रपराजिता की जड़ | The root of Clitorea_ternatea, Linn. अगण aprána-सं० त्रि० बिना प्राण निर्जीव । मृत । अथर्व० । सू० ६ । का ८ । 1 का ६ । aapraptaka-सं० एक प्रकारका सोना । उत्तम जाति के सुवर्णों में से जो सोना कुछ पीला सा अर्थात् भुरभुरा और सफ़ेद रह गया हो वह अनाशक कहलाता ( याने संशोधन चादि के समय यह ठीक ठीक शुद्ध नहीं होता) है। इसके शोधन की विधि भी कौटिल्य ने दी है। विस्तार भय से उसे यहाँ नहीं दिया गया। कौटि● अर्थ | प्रिय apriya - (सं०) हि० वि० [सं०] [स्त्री० प्र ]हित ( Disagreeable, un friondly ) अभ्यारा, घनचाहा । जो प्रिय न हो । प्ररुचिकर 1 जो न रुचे । जो पसंद न हो । श्रनिया apriya-सं० स्त्री० (१) श्री मत्स्य, सिङ्गी मछली ( Singi fish ) । (२) चोदालि मत्स्य । (१) माल क्षेत्र, केदार भूमि । मालभूमि-म० । (२) जो भूमि जोती न गई हो । खिल ( अपहृत ) | श्रनीति apriti-fo संज्ञा स्त्री० [सं०] (1) भूमि | रा० नि० ० २ | अप्राकृत_aprákarita - हिं० वि० [सं० ] जो प्राकृत न हो । अस्वाभाविक । असामान्य । अरुचि ( Indifference; dislike ). (२) अप्रेम । ( ३ ) पैर । विरोध । श्रीतिकर apritikar - हिं० पुं० [अरुचिकर । निपुर, फोर 1 असाधारण । For Private and Personal Use Only अप्राकृतिक aprakritika-हिं० वि० [सं० अस्वाभाविक, प्रकृति विरुद्ध | (Unnatural). ! अप्रेंतराक्षसी apreta-rakshasoi सं. लो Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अप्रोटः अफ़र्गमा तुलसी वृक्ष । ( Ocimuim Sanctuni) अफ़न aafuna -अ० पचन,सडाँध, र०मा०1 उफनत aufuna.ta? सड़ना गलना, दुगंध अनोट: aprotakh-सं० पु. भारद्वाज पती ।। नतानत natānata उत्पन्न करना, तिब वै० नि०। A bird namel Bhāra-I की परिभाषा में किसी तरल द्रव्य का शारीरोष्मा dvaja. के प्रभाव से सहाध में परिणत होने की घोर रुस्व अप्रौढ़ a prourha-हिं० वि० [सं०] (1) करमा (वृत्त होना) है, परन्तु अभी उसके जो पुष्ट न हो । कमज़ोर । (२) कच्ची उम्र का।। स्वरूप एवं प्रकार में कोई अन्तर न पाया हो । नाबालिग़ । क्योंकि स्वरूप प्रादि का परिवर्तित हो जाना भन्सरसः apsarasah-सं०५० (१) उसम । इस्तहाल ह कहलाता है। प्युटिफ़ैक्शन (Put नियाँ । (२) जल धाराएँ । अथर्व । सु० rifaction), प्युटिसेन्स (Putriscence) १११ । ४ । का० ६ । ( ३) जल में फैलने ! -ई । वाले रोगोत्पादक कीट । अथव। सू० ३७। अफफत जेसिक्ट affengesict-जर० चकुल, ३। का०४। मौलसरी । A tree (fimusops eleअप्सरा apsanta-हिं० संज्ञा स्त्री० [सं०] __ngi). ई० मे० मे०। अंबुकण । वाष्पकण । ' अफयून afayāna-हिं० संक्षा स्त्री० देखो - अफई. afaai-अ० यह अरबी संज्ञा "अनउल । - श्रफोम । तफ्रजील" का अपभ्रश है। काला सर्प, कृष्ण अफयूना afayuni-हिं०वि० देखो-अफीमन्त्री। सर्प । यह लाल वा काला होता है और इसके ! अफयूम afium ) - जर० पारसीक अजशरीर पर सफेद एवं भूरे बिन्दु होते हैं। यह । अफफ्यूम affium S चाइन.अजवाइन, खुरालगभग 15 गिरह लम्बा होता और एक हाथ । सानो । ( Hyocyamus ) ई० मे० मे० । ऊँचा खड़ा हो जाता है । जिस मनुष्य को यह अफ़यूस afayusa-यु. जंगली मूली, अरण्यकाट लेता है, उसकी आँखें निकल पड़ती हैं। मूलक । ( IVild Radish.) इसका विप इतना तीव्र होता है कि इसका काटा | अफर aa.fata-अ० मायाफल, माज़ । (Galla.) हुश्रा मनुष्य कभी कभी तो केवल १० ही श्वास | अफ़रजमिश्क afaran ja-mishka - ० रामले पाता है। इसके चार भेद होते हैं : Jaati (Ocimum Gratissimum, (१) कौड़ियाली और (२) परीला। इनके ____Linn.)। देखो-तुलसी। अतिरिक्त इसके दो अन्य भेद हैं जिनमें वहत ! अफ़रगञ्ज afarta-ghan ja-श्रकासवेल, अमरथोड़ा अन्तर होता है। बेल । ( Cuscuta Reflexa.) प्रफल afakka-० निम्न हनु के दोनों भागों के अफरना apharana-हिं० क्रि० अ० [सं० मिलने का स्थान । निम्न हनु संधि । ___ स्फार-प्रचुर ] पेट का फूलना। अफ़जनोश afan janosh -अ. पजमोश से अफरा aphara-हिं० संज्ञा पु० [सं० स्फार= अनाश fanjanos hai अरबी बनाया हुआ | प्रचुर ] (1) फूलना। पेट फूलना । (२) शब्द है, जिसका अर्थ पञ्चपाचक (द्रव्य ) है।। अजीर्ण वा वायुसे पेट फूल नेका रोग, प्राध्मान । एक मजून का नाम है जिसका प्रधान अवयव (Flatulent ). मण्डूर है। See-Fanjanosha. । अफमा afarghama | -अ० वक्षो. अफ़द aafada-अ० पारावत, कबूतर या उसके , दियाफरमा diyafraghma | दरमध्यस्थ समान पक्षी। (A pigeon or a bird of पेशो-हिं० । डायाफ्रम ( Diaphiagm.), the same kind.) मिडिफ़ ( Midriff.) -ई० । For Private and Personal Use Only Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अफष्यून अफिन अफम्यून nfar byāna-यु० फन्यून (प्यू), बन्ध्या "तरुण्याः फलिनी भघेत"। सु० सं० फायून-अ० । सेहुँड़ दुग्ध, थूहर का शुष्क । उ० ० ३८ । See-Bandhya दुग्ध-हिं । यूक्रॉग्रिम (Euphor bium)' अफसंतीन afasantina-हिं० संज्ञा पु. -ले। [यू० ] देखो - अपसन्तीन । अफ़ळ a favi-तु. बेदग्याह ( एक गाँठदार वृक्ष . अफा aafa -अ- (.) गदहे का या घास )। (A knotty grass.) अकाय aafaya ) बच्चा । (२) शुतुमुर्ग अफल iafala-अ० स्त्री गुह्य भागस्थ अन्त्रवृद्धि के पर । रोग, (61) गुह्यन्द्रिक वृद्धि । पुरुषके अण्डकोष : श्रफ़ागियह, afighiyah-० हिना पुष्प, में जिस प्रकार 3ात उतर अाती है उसी प्रकार मेंहदी का फूल । (Myrtle flower. ) स्त्रियों के गुह्य भाग में भी बात उतर पाती है। : अफातीस afatisa-यु० मूली, मूलक । (A प्युडेण्टल हर्निया (Pudendal fernia) radish.) -ई. । देखो-अत्रवृद्धिः । | अफादामून ३afadarmuna-युहब्बुल्कुलकुल । प्रफलः aphalah-सं० पु. (See-ha bbul-qulqul.)। अफल aphala-हिं० पु. अफ़ाफ़ह, aafafah-अ० गुदद्वार, चूति-हिं। अफल, फलहीन वृक्ष, बाझ वृक्ष । ( Fruitless एनस ( Anus.)-ई। tree,burren ) | जिसमें फल नहो । : फ़ायद aafayada-सी० मगास. । Seeदिना फन का । हे. च. ४ का । Maghása. त्रि०, हि०वि० (१) जो नहीं फलता, फल रहित | अफ़ार aafara-अ० कु तलब । कातिल भम्यह। (ओपधि । श० च अथवं सू०७।२७। अफ़ारह aafarah-अ० ( रेंट) कपासका फल । का० । (२) व्यर्थ,वृथा ।-हि.पु. झाबू (-3) Fruit of (Gossypium Indicum.) का वृक्ष । (३) बाँझ, बन्ध्या । अफ़ारहम aafara ham-० बलिष्ट ऊँटनी । अफलता aphalata-हिं. स्त्री. फलहीनता, अफारांकन afariquna-यु० (१) धने के बराबर पाझपर । ( Barrenness, sterility) एकफल है जो हरित वर्णका होता है परन्तु अधिक गोल नहीं होता | इसको अरबीमें "मवेज़ज़ अस्ली" प्रफला aphala-सं. (हिं० संज्ञा) स्त्री०(१) कहते हैं । (२) माज़ रियून या (३) जैतुन भूम्यामलकी, भुई पामला ( Phyllanthus | का फूल। ' niruri)1 (२) काष्ठ धात्री वृत्त । (Emblic . अफारीन afarina-यु० वुल सकी, हशीशतुलना officinalis) भा०रा०नि०३०११। (३) फई. ( बूटी है)। ( A plant.) लधुकारवेल्लक । The small var. of अफवियह afāviyah-१० (Spice)मसाला, ( momordicamuricata )। (४) वे सुगंधित द्रव्य जो खाने की वस्तुओं में प्रयुक्त श्रामलकी वृत्त, श्राम( आँव-)ला । ( Phyli-| होते हैं, जैसे- दानधोनी भादि । anthus Fimblica)भ.० पू०१भा०। अफासून afasuna-य.(.) मूली का तेल । (५) घृत कुमारी, घीकुत्रार (Aloe Bar ba- | (२) बेद का वृक्ष । densis) श०००। अफिज aafij-अ० (९००), अशफ़ान (य. अफलित aphalita-हि वि० [सं०] जो | व.) अन्त्र, प्रान्न, आँत । इन्टेस्टाइन ( Inफला न हो जिसमें फल न लगे। फलहीन । ___testine)-ई० । (Not in fruit, A fruitless tree ), अफ़िन aafina-५० मैला, दुर्गन्ध युक्र, वह प्रफलिनो aphalini-सं० स्त्री० सन्तान रहित, स्नेहमय द्रव्य जो शारीरोष्मा के प्रभाव से दुर्गन्ध For Private and Personal Use Only Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अफिन अफ आल युक हो गए तथा सह गल गए हों; लेकिन अभी कर अच्छ' तरह मर्दन करें। पुनः एक एक टंक उनके स्वरूपादि में कोई अन्तर न पाया हो।। की गोलियाँ बनाएँ । रात्रि को नी सहवास से दो मीफाइटिक (Mephitic)-ई० । घड़ी पूर्व इस गोलो को मुख में रक्खें या भक्षण अफिन aphin-बं० . अफीम (Opium). करें। इसके सेवन से पुष्ट हो मनुष्य ऊँचे अंग अफिम aphim-द०, बं० काम Paum. वाला होता है और स्त्री उसमें प्रसंग की शकि का अफिरञ्जमुश्क afiranja-mushka - १० संचार होता है । यो चिः । जमिश्क, रामतुलसी । (Ocimunn Gra. अफोमोदून afimidina-यु० अप्रसिद्ध बूटी है। tissimum, Linn.) (An unimportant plant ). यह अफिस aafisa-० बिकठा, कषैला । यह पद वृक्ष एवं घास के बीच होती है। इसकी एक स्वाद के लिए विशेषण के तुल्य प्रयोग में प्राता बारीक डाली होती है। है। ऐस्ट्रिमेण्ट ( Astringent)-1०। अफोमु aphimu-कना० अफीम । (Opium). अफ़ो कुस afiquts -यु०एक अप्रसिद्ध अफी ना afimunā-य० दालचीनी | Cinn. अफ़ोनी कुत्स afiniquts | बूटी है। ( Ani amomum zeylanicum Necs. __unimportant plant. ). ( Bark of-Cinnamon ). अफोकन afiguna-यु. अजवाइन खुरासानी। अफ़ालन afilan )-यु० पहाड़ी जौहरी जवा(Hyocyaimus). अफ़ोलन afilāna६ इन, दर्मिनह, कोही। अफोण,-म afin, m-गु० अफीम । (Opium) अफ़ोल्यून afilyina) स. फा० ई०। अफ़ीसूस afisusa-अल-अज्ञात । अफोणतु-डोडवाँ aphinamu-dodavan-गु० अफुल्ल apbulla-हिं० वि० [सं०] अविकसित, पोस्ते का ढोंद । ( Poppy capsules.) बेखिला । अफू aphu! म०, हिं० संज्ञा स्त्री० अफीम। अफोन aphina-मह. नाaphu | (Opium.) अफोनम् aphinam-सं० क्ली. अफीम aphima-सं० (हिं. संज्ञा ) स्त्री० । अफेन aphena-हिं० वि० [सं०] बिना फेन, कफ अफोम afiima-६० रहित । ( Foamless. ) -पु० [सं०] [यु. अोपियन, अ०--अनयून ]. (Opium)|| अफीम | (Opium). अफाम पोस्ते का दूध है, वक्खस हीर । देखो- | अफेनम् aphenam-संक क्ली. प्रफोम, अहिपास्ता। फेन । (Opium.) अफोमची afimachi-हिं० संज्ञा पुं० [अ० | अफेनफलम् aphena-phalam-सं० क्ली. अफ्रयून+मी 'प्रत्य०' ] अफ्रीम खाने वाला । वह अहिफेन फल, पोस्ते की ढौद । ( Poppyपुरुष जिसे अफीम खाने की लत हो। _capsules ) भैष० स्त्री रोग चि०। अफ़ोमो afimi-हिं० वि० [अ० अनयून ] | अफलम् aphalam सं० कली० अाफूक, अफोम अहिफेन । (Opium)। वै० नि । अफ़ोमचो। अफीम पाक: apbima-pakab-सं० पु. प्रकर- अफ़ोत afouta-० (१) जिसका मुख बड़ा हो, करा, केशर, लवङ्ग, जायफल, भंग, सिंगरफ चौड़े मुंह वाला, (२) जिसके दन्त, श्रोष्ट तक इन्हें समभाग लेकर सबको अाधी शुद्ध अफीम हों अर्थात् मुह से बाहर निकले हुए हों। डालें, प्रथम अफीम को दोलायन्त्र द्वारा दुग्ध में | अफ आल afaala-० (व.व.) फ़िल शुद्ध करें, तदनन्तर सब श्रौषधों से छः गुणी | | (ए. व.) क्रिया, कार्य, काम | शनि द्वारा मिश्री की चासनी कर और प्रौपधों को मिला जो कुछ प्रगट हो उसे क्रिया (फ्रिअल ) कहते. For Private and Personal Use Only Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रीफ, आल तबहुथ्यह ४१६ हैं। अस्तु, मनुष्य शरीर में जितनी प्रकार की शक्तियों हैं उतनी ही प्रकार की क्रियाएं हैं। फल ब्य्यह, afalata baiyyaho ( १ ) प्राकृतिक शक्ति सबन्धी क्रियाएँ । ( २ ) शरीर के सम्पूर्ण प्राकृतिक कार्य, जैसे- श्राहार, पान, सोना, जागना, उठना बैठना, चलना, फिरना, देखना, सुनना, सोचना, समझना, इत्यादि । अफझल दिमागियह, afaala-dimághiyah - अ० मास्तिष्क क्रियाएँ, दिमाग़ी काम, जैसेविवेक, विचार इत्यादि । अफझल नफ्लानिथ्यह् afaal-nafsaniyy• ah - अ० मानसिक क्रियाएं, वे क्रियाएँ जो मानसिक शक्तियों द्वारा प्रगट होती है । अस्तु, पञ्च ज्ञानेन्द्रियों की क्रियाएं, यथा— देखना, सुनना, स्वाद लेना, स्वयं करना और सूंघना आदि और अन्तःकरण चतुष्टय की कियाएँ (वास खम्सह् वानी के अक़बाल ), जैसे-सोचना, स्मरण रखना और विचार करना आदि | अतीत aftiāús इसी के आधीन हैं । अफ्ती aftigun अफ़ञ्जाल बसांतह् afāál-basitah अ० | श्रक्तीऊस aqtiaúus श्रञ्जाल मुफ़दिह्, श्रमिश्रित क्रियाएँ, सामान्य क्रियाएँ | अयाल मुरिदह् afaal-mnfridah-o साधारण क्रियाएँ जो केवल एक ही शनि द्वारा प्रगट हों, जैसे-चातुपी, जी दृष्टि शक्ति द्वारा प्रगट होती हैं और श्रावण क्रियाएँ जो श्रवण शक्ति द्वारा उद्भूत होती हैं । अफूञ्जाल मुरकवह् afaál-murakkabah - अ० संयुक क्रियाएँ जो दो अथवा अधिक शक्तियों द्वारा उद्भुत हों, जैसे--प्रास गिलन, जो कंड को गिज़न शक्ति तथा आमाशय को श्राकfe शकि द्वारा सम्पादित होती हैं । अफझल, हैवानिय्यह् afãäl-haivániyyah - अ० प्राणशक्ति सम्बन्धी क्रियाएँ जो प्राणशक द्वारा प्रगट हों, जैसे- हार्दिक एवं धामनिक गति प्रभृति । अफ्ञ्जलुल् श्रद्वियह् afāálul-adviyah अपतीमून - अ० (१) श्रौषध-कार्य-विज्ञान, द्रव्य-गुण-शास्त्र ( २ ) प्रभाव, गुणधर्म | फॉर्माकोलॉजी ( Pha rmacology)-इं० । 1 श्रकुमा afāümá- अ० चतुचत । श्रख का. एक प्रकार का भयानक क्षत । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अङ्क afq-अ० खत्नह् करना ( मुसलमानों के यहाँ यह एक धार्मिक रसम है जिसमें बच्चे की शिश्ना त्वचा काटी जाती है ) । सर्कमसिजन ( Circumcision ) - ई० । अकल afkal अ० झुण्ड, समाज । तिम्र की परिभाषा में 'कम्पन, कैंप कँपी" को कहते हैं । राइगर ( Rigor ) - इं० । अफ़्कानह् afkánah - o पूर्ण शिशु (भूय ) . जो माता की उदर से गिर पड़े। अफ़्तस aftas - श्र० चपटी नासिका वाला । ( Flat nosed. ) अफनह aftah - अ० चौड़ी नासिका वाला । ( Broad nosed.) - यु० नाइवह । तिब की परिभाषा में राजयक्ष्मा (तपेदिक) को कहते हैं । हेक्टिक फीवर (Hectic H'evc1). -ई० । अफ्तीमून aftimúna ० [ यू० एपिथिमून ] हिं० संज्ञा पु ं० श्रकासवेल विलायती, अमरबेल विलायती हिं० । कस्क्युट एपिथिमम् ( Cus cuta Epythymum, Linn.) -ले०। दी लेसर डॉडर 'The Lesser Dodder - ई० शज्रतु..जब श्रू; सचश्श ई. र० । अफ़्तीमूनेविलायती फा० । शियून तु० । ( NO. Cone dontacer ) उत्पत्ति स्थान -- युरोप, पश्चिम एवं मध्य एशिया और फारस | नोट - इसमें तथा भारती प्रकाशवेल में सिवाय स्थान भेद के और कोई अन्तर नहीं है । अतः इसके वानस्पतिक वर्णन आदि के लिए देखो अकाशवेल, रासायनिक संगठन-कर सेटीन (Quercetin ), राल, एक क्षरीय सख तथा कस्क्युटीन For Private and Personal Use Only Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अफ्तीमून ( Cusentine ) ( फा० ई० २ भा पृ० ४५७), ४१७ इतिहास - दोसरीस ( Dioscorides ) ने इस नाम के जिस पौधे का वर्णन किया है वह स्पष्ट हैं। लाइनों का वर्णन उससे बहुत कुछ स्पष्ट है । भारतवर्ष में जो श्रोषधि अत्फ़ोमून नाम से बिकती है उसका श्रायात यहाँ फ़ारस से होता है । यह सम्भवतः कस्क्यूटा यूरोपिया ( Cuscuta Europea, Lima ) की ही एक बड़ी जाति मालूम होती है, जिसकी जन्मभूमि युरोप, पश्चिम तथा मध्य एशिया है । और प्रथम पित्त प्रकृति प्रकृति- तीसरी कक्षा में उष्ण में रुक्ष है। हानिकर्त्ता - उष्ण व वालों की एवं युवा पुरुषों को यह मूर्च्छा और अत्यंत तृषाजनक है। दर्पन - ब ( धन सत्व ) सेव व अनार या शर्बत संदल और केशर | कतीरा एवं रोगन बादाम में मलने से इसके श्रव गुण दूर हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त यह रूक्षता उत्पन्न करता है । उक्त विकार के शमनार्थ इसको किसी आर्द्रताजनक द्रव्य जैसे गुलबन क्रूशहू या गाव जुबान के साथ मिलाकर देना चाहिए। कोई कोई कहते हैं कि फुफ्फुस के लिए भी श्रहितकर है । उसके दूर करने के लिए इसको समग़ अरबी (बूर निर्यास) वा कतीरा के साथ प्रयोग करना चाहिए । प्रतिनिधि - लाजवर्द, निशोथ पित्तपापड़ा, उस्तो खुट्स और बिस्क्राइज । मात्रा - ६मा० से १ वा १ ॥ तो० तक । क्वाथ में साधारणतः यह ६ मा० से १ तो० तक व्यवहार में श्राता है और इसकी पोटली में बाँधकर डाला जाता है एक या दो जोश देकर पोटली को निकाल लेना चाहिए | I t गुण, कर्म, प्रयोग - अप्रतीमून अपनी उच्णता व रूक्षता के कारण आध्मान को दूर करता है। अधेड़ और वृद्ध मनुष्यों के अनुकूल है । क्योंकि उनकी प्रकृति को साम्यावस्था पर लाता है | सौदाची ( वातज ) व्याधियों को दूर करता और सौदा ( वात ) एवं १३ अतीमून बलाम (श्लेष्मा ) के दस्त लाता है । श्रतएव मृगी ओर मालीखोलिया के लिए उपयोगी है तथा अपनी उष्णता व रूक्षता के कारण युवाओं और उष्ण प्रकृति वालों में तृषा उत्पन्न करता है । यह उनमें मुखशोष उत्पन्न करता है। इसलिए इसके साथ मुलहठी, बनशहू और मधुस्वारवाद तैल के समान तरी पहुँचानेवाली वस्तुएँ मिलानी चाहिएँ । ( त० न० ) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यह शोधलयकर्त्ता, रोधोद्घाटक, प्राय: मास्तिष्क रोगों को लाभप्रद, रक्रशोधक और प्राथः स्वग रोगों को लाभप्रद है। प्लीहा वृद्धि में इसका प्रलेप लाभदायक है । इसको साधारणतः माउज्जुब्न के साथ या दूध में कथित कर उस दूधका प्रयोग कराया जाता है। इसे वायुनिःसारक भी बतलाया जाता है तथा श्रम प्रशमन रूप से इसका स्थानिक उपयोग होता है । मजनुल अद्विग्रह् में इसके गुण तथा उपयोग का सविस्तार वर्णन श्राया है। उसका सारांश ऊपर दे दिया गया है । विस्तार भय से उन सब को यहाँ स्थान नहीं दिया गया । नव्य चिकित्साप्रणाली में विभिन्न प्रकार के तीमून में से सम्प्रति किसी का प्रयोग नहीं होता । कुशस. छाऋशुस.. कुशूस कस ( क्र्तीमून बीज ) For Private and Personal Use Only - अ० कसूस, श्रमरलता के बीज - हिं०, उ० । ब. जुल्कुश तुमे कसूस, तुर्श - फा० । अरबी कुश्रू.. से ही मध्यकालीन लेखकों का लेटिन पत्र कस्क्युटा ( Cuscuta ) व्युत्पन्न है । नोट -- यह प्रकाशवेल का पर्यायवाची शब्द हैं, परन्तु भारतीय बाजारों में कसूस अप्रतीमून ( फ़ारसी) के बीज के लिए प्रयोग में आता है । वर्णन - इसके बीज में उस पौधे के क्षुद्र एवं श्रायताकार पत्र तथा कण्टक मिले होते हैं जिस पर कि अफ़्तीमून उत्पन्न हुआ होता है और उस पौधे के कांड के कुछ भाग एवं पुष्प भी मिले Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४१८ अफूदन अफ युन मुहम्मस जुले पाए जाते हैं। बीज चार, हलके, भूरे रङ्ग के, | अफ्रीकन afniqun-यु. एक बूटी है जो गेहूँ एक ओर उसतोदर और दूसरी ओर नतोदर, के तथा अन्य खेतों में उत्पन्न होती है । इसके पत्ते मगभग मूलक बीजाकार ( मूली के बीज इतने तितली (सुदाम) के पत्तों के समान होते हैं। बड़े) के गोलाकार दोढ से प्रावृत्त होते हैं। | अमीन afnin-क० फर्क यन-अ० । सेहुँड, थूहर । इसका स्वाद-तिक होता है। (Euphorbiuin ). नोट-मीरमहम्मद हुसेन इस पोषधि का | अफ्फिऊन affiun-मला. अफीम । भारतीय प्रकाशबेल से समानता दिखलाकर अपफांनी affini-कना०, को० (Opium) लिखते हैं कि यह पीत वर्ण का होता है और अपयन afyun-अक०, अ० ) ई०मे मे। कैंटीले एवं अन्य प्रकार के पौधों पर उगता है। स० फा. ई० । देखो-पास्ता । इसमें बहुत सूक्ष्म, श्वेताभायुक्र पुष्प आते हैं। अफ्यून श्रावकारी afyānaabkari अ० टीका बीज मूलक बीज को अपेक्षा लघु, लगभग गोल को अफीम । इसके वर्गाकार टुकड़े होते हैं और और लालिमायुक पीतवर्ण के होते हैं। इसके भारतवर्ष में इसकी विक्री होती है। गुण अप्रतीमून के सदृश वर्णन किए गए हैं। ! अफ्यून इंगनी afyina-iranj- ० ईरान की रासायनिक संगठन--क्चरसेटीन (Quer-! अफीम । cetin ) के अतिरिक्र ग्ल्युकोसाइडल रेज़िन, अफ़्यून का पलस्तर afyina-ki-plastarएक शारीय सख, एक कषाय पदार्थ, मोम और अफीम का पलस्तर (Opium plaster)। अफीम का बारीक चूर्ण पाउंस ( २॥ तो.) प्रकृति-उष्ण व रूक्ष । रेजिन पास्टर ६ श्राउस ( २२॥ तो०), रेजिन हानिकर्ता-लीहा तथा फुफ्फुस को ।। मास्टर को बाटरबाथ (जलकुएस) के द्वारा पिघलादर्पध्र-सिकंजशन, शहद तथा कासनी के कर इसमें अफीम धीरे धीरे मिलाएँ । शक्रि-१० बीज । भाग में १ भाग अफीम । प्रभाव व प्रयोगप्रतिनिधि---अक्सन्तीन व बादरूज | वेदना शमनार्थ इसको स्थानीय रूप से उपयोग मात्रा-७ मा० (शर्बत)। में लाते हैं। गुण, कर्म, प्रयोग-माहा से शुद्ध करता अफ्यून काहू afyina-kāhi-फा० देखोऔर प्रामाशय व आंत्र को खोलता है। दोपिक लेक्टय के रिश्रम् ( Lacticarium.) ज्वरों को लाभप्रद है । और खूब पेशाब लाता है - अफ़्यून कुस्तुन्तुनियह afyāna-qustuntu. तथा उसम स्वेदक व रजःप्रवर्शक है । दुग्धवर्द्धक : niyah-अ० कुस्तुन्तुनिया की अफीम । तथा प्रकृति को मदुकर्ता और मलों का प्रवर्तक अफ़्यून चीनी afyāna-chini-अ० चीन देशीय है। निर्विषैल। अफीम (Chintu opium. ) । देखो - औषध-निर्माण-इत रीफल, वटिकाएँ. अफीम। चूर्ण, सिकंजबीन, अक्र', म जून, क्वाथ इत्यादि अफ़्यून जखीरह् afyuna-rakhirah-ऋ० की शकल में इसके बहुशः मिश्रण हैं। गोले की अफीम । यह भारतीय अफीम का एक अफ afdaa-अ० जिसका टखना या । भेद है जो चीन देश को भेजा जाता है। देखोभीतर को मुड़ा हुआ हो। श्रफीमा | अफ़्यून तुर्की afyina-turki- अ० अफ्यून अदज़ afdaz-अ. एक अप्रसिद्ध औषध है। स्मा । देखो-अफीम । अन, afna-अ० मास्तिष्क दौर्बल्य, बुद्धिहीनता । | अफ़्यून मुहम्मस afyin muhammas अन.ान afnan-फा० फरासियून | See-Fa. -फा. भुनी हुई अफीम | इसके भूनने की rásiyún. विधि "तह मीस" में देखो। For Private and Personal Use Only Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org फ्यून मुदम्बर फ लालूम अयून मुदंडवर afyún mudabbar - फु० / अफ्रीकी ज़हर पैक afriqi-zahra-paikán अफीम को गुलाब जल में भिगोकर छानें, पुनः यु०, ( Strychnos Bordean ). अदिस afridas- यु० इज़खिर | SeeTzkhir. श्रक्रोस्स afrismús - अ० सतत शिश्न प्रह पण अर्थात् बिना कामेच्छा के भी सदा शिश्न का प्रहृष्ट (दृढ़, उत्त ेजित ) रहना । देखो - फुर्सीमूस । प्रायापिज़्म ( Priapism ) - इं० । फ्रोजनafrúdi jan- यु० मिट्टी भेद । ( A kind of carth. ) । सालीस afrúsálisअफसाल्यूस afrúsályús इतना पकाएँ कि गोली बाँधने के योग्य हो जाए । आयुर्वेदिक विधि के लिए देखो -पोस्ता । अन स्मर्ना afyúna-smarna-फा०] अफ़्यून | तुर्की, एशिया कांचक की क्रीम, Turkey opium, Smyrna ( Levant ) opium. इसके टुकड़े चौथाई घाउ स से लेकर अर्ध पाउण्ड तक भारी होते हैं जिनपर पोस्ते के पते लिपटे हुए और उनपर चूकाबीज छिड़के हुए होते हैं । अन हिन्दी afyúna-hindi- फा० सरकारी अफीम । यह तीन प्रकार की होती है, ( 1 ) भोले की क्रीम, ( २ ) अफ़्यून श्रावकारी और ( ३ ) औषधीय क्रीम । इसकी छोटी छोटी डलियाँ अथवा चूर्ण' होता है । यह पटना में बनता है। इनके अतिरिक्त अफ़्यून मिश्री, युनानी, अंगरेजी, जर्मनी और फ्रांसीसी भी होते हैं । यु० चन्द्रकान्त ( हल कुमर ) एक प्रकार का पत्थर है । ( A kind of stone. ) अपलज aflaj श्र० वह मनुष्य जिसका निम्न प्रोष्ट फटा हुआ हो अर्थात् जिसके श्रधः प्रष्ट में चीरा पड़ी हो । अफ्यूर afyúr - यु० बीज । ( Seed ). अफ़्यूर सफ़ साफ़न afyur-safsáfan-यु० तुख्म खुब्बाज़ी | See-khubbázi. अपयूस afyús - यु० जंगली मूली । wild ra• dish ). ४१६ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अझ ज afraj - अ० जिसके निकले हुए हों । श्रफ ओ afranji - अ० कृ० ( श्रङ्गी से ), मिश्र के लोग उपदंश रोग के लिए बोलते हैं । (Syphilis. ) अक्र.म afram-० गये हों । अक्र. स्थून afrásyun - यु० विषखपरा ( हिन्दक्रूक्री), पुनर्नवा । (Boerhavia Diffusa). अफ्रीक afriq-० १७ से २० श्रौक्रियह, तक का माप या वजन ( = ४७ तो० ६ मा० ) । अफ्रीकन ऐरो पॉइज़न african arrow, poison- ई० स्ट्रोफैन्थस (Strophan - thus.). 1 अफ़्लञ्जह ्म aflanjah फ़्लअह flanjah - अ० फूल, फिरंगी पुष्प । ये रक्त राई के समान बीज हैं अर्थात् एक प्रकार के पीत बीज होते हैं। सर्वोत्तम वे होते हैं जिनको हाथमें मलने से सेब की गंध आए। इनका स्वाद तिक होता है । ये प्रायः इतरोंमें प्रयुक्त होते हैं । मअजून श्रादिमें भी डाले जाते हैं | उद्भवस्थान - भारतवर्षं । श्रग्रदन्त बाहर अफलातुन aflátan श्र०, यु० मुक्कूल, मुकले, अर्ज़ | गूगल - हिं०, द० । गुग्गुलुः-सं० । (Balsamodendron agallocha, W. &. A. (Resin of-Bdellium) स० [फा० ई० । श्रापका जन्म प्लेटो Plato -ई० । यूनानी भाषा में अक्रूलातून का अर्थ प्रकाण्ड विद्वान् है । यह एक प्रख्यात हकीम थे । ईसवी सन् से ४२७ वर्ष पूर्व एज़ ( यूनान की राजधानी ) नगर में हुआ । आपके पिता यूनान के प्रतिष्ठित व्यक्तियों तथा हकीम अस्कलीबियूस ( Ascle pios) की संतानों में से थे । अपने कालके श्राप I पोपला, जिसके दाँत टूट अफलातून aflátúna - यू० फ़्ला तुन flatuna - श्र० For Private and Personal Use Only Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अफ लार्नस ४२० अफसन्तीन प्रसिद्ध दार्शनिक और चिकित्साशास्त्र के प्रमुख अरु शुरह. afshurah-फा० वस्तुतः "प्रपशु. एवं कुशल पंडित थे। प्रापको गणितशास्त्र से पर प्रयोगाधिक्य के कारण "अफ्शुरह" भी बहुत प्रेम था | आप सुकरात के अनुयायी हो गया है । फलों का निचोड़ा हुअा जल । और अरस्तू के गुरु धे । ईसवी सन् से ३४७ वर्ष : juice (Secus ). पूर्व एक्कासी ८१ वर्ष की अवस्था में प्रापका देहांत अफ शुदह afshurdah-फा. रस, स्वरस, हुया ! अापने अनेक ग्रन्थों की रचना की जिनमें निचोड़-हि. 1 juice (Steels). से कई एक प्राज भी उपलब्ध हैं। afshurdahe-banka-फा० अफ्लास a flar tasa-यु० छोटी माई का वृक्ष, : : अजवाइन खुरासानी का रस । (.juice of फरोमवृक्ष । (Tharix Orientalis, ! Tyoscyams). Vuhl. (Gelly of-Tamarix Galls.) . अफ शुर्द हे शौकगन uishudahes.shouka. अपलासून aflashna-यु. मूली का तेल । Tana-फा० कोनाइम अर्थात् शौकरान का रस । ( Radish oil ). (Juice of conium). अपलोकान aflikinn) -० (१) चिबुक । अफ़.स afs-अ० माजूफल, माफल-हिं! मायी, अफीकान afikina की दोनों अस्थियों . मायिका-सं० । Galls ((daln). के किनारे जो मिल गए हैं। (२)का में कम्वे के पास जो मांस के दो लोथड़े हैं। अफ़ सन्तान afsantin-अ०रू..,य.(हिपु.) पार्टिमिसियाऐसिन्धियम Artemisin Abआपलीज afliju-अ० पक्षाघात का रोगी, फ्रालिज का रोगी । ( Puralytic.) sinthium, im., एडिसन्धियम् वल्गेरी Absinthium Vulgare, Coerin., अफ्लुनिया afluniya -अ. एक मजून प्रार्टिमिसिया प्रॉफ्रिशिनल Artemisin offiफनूनिया faluniya का नाम है जो अपने रूमी आविष्कर्ता हकीम अफ्लन के नाम से । cival, Lam., ufafan Artemisia प्रसिद्ध है। यह वेदनाशामक है। (शुष्क हुप) -ले। वर्म वुड Worm अफवात afvati-अ. अंगुलियों के बीच की : Wood, मग-बर्ट Mag.wort, दी एडिसन्थ दूरी । ( Distance between fing. ! (the absin th)-ई० । खतरक-० । Crs ) ऐसिन्थियून ( Apsinthion )-यू. । म्य बन शह , महफा विलायती अफ़. अफवाफ़ Ifvāfu-१० ( ब. व.), फ्रौफ (ए. य०) नखों के किनारों के श्वेत विन्दु। सन्तीन-हिए, द०। (पार्वतीय अफ सम्तीन ; अफ बोलन afvoluna-बरब० बरमेह (एक . खल; (बुरे प्रकार का) वमीह.-मिश्र । अप्रसिद्ध वृक्ष ) । ( An unimportant मिश्र वा सेवती वर्ग troe. ) (N. O. Composite.) अफश की afsharniki-यु० शुकाई (भा० उत्पत्ति स्थान--उत्तरी अफरीका, दक्षिण बाज़ा०)। The herb. (Sce-shukai). अमेरिका, युरुप के कतिपय पार्वतीय प्रदेश, अफशसीको afshasiki-फा० अज्ञात है। । एशिया में साइबेरिया, मंगोलिया, खुरासन और अफ़शुरज afshurat ) -अ. भारतवर्ष के कतिपय पर्वतीय प्रदेश, काशमीर अफ शुरूज afshurija ) अाशुरह तथा नैपाल इत्यादि। या अफ्शुर्दह, का अकृ० पद है। जिसका अर्थ वानस्पतिक-वर्णन--यह शोह का दौना के ताजा फल अथवा वनस्पतियों का निचोड़, अर्थात् प्रकार की एक बूटी है। कांड-तृण कांडबत् निचोड़ा हुअा रस, स्वरस अथवा प्रक्र होता सरल एवं शाखामय होता है। शाखा-श्वेत लोमों से भावन होता है। शाखा पर असंख्य For Private and Personal Use Only Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अफ सन्तीन अफ सन्तीन पत्र लगे होते हैं। पत्र-दोनों ओर रेरामवत् । लामों से युक होने के कारण रजत वण' के और लगभग २ इंच दीर्व होते हैं। पुष्प-सूक्ष्म, : पीताभ श्वेत और गुले बाचूना के समान होता है, जिसके मध्य में एक प्रकार का पीलापन होता है। इसमें छोटे छोटे गोल दाने अर्थात् फल लगते हैं जिन के भीतर बारीक वीज भरे होते हैं। इसके अनेक भेद हैं जिनका वर्णन यथा स्थान होगा। गंध तीव एवं अमाल और स्वाद अत्यन्त तिक होता है। प्रयोगांश-इसके पत्र एवं पुष्पमान शाखाएँ औषध कार्य में पाती है। रासायनिक संगठन- इसमें १॥ प्रतिशत एक उड़नशील तैल जिसका मान्द्र भाग एक्सिन्योल ( Absinthol ) कहलाता है । इसके अतिरिक्त इसमें एक रबादार ( स्फटिकीय ) सत्व जिसको ऐब्सिन्थीन ( Absinthin ) कहते हैं और प्रतिशत एक निक राल और ५ प्रतिशत एक हरित राल प्रादि पदार्थ होते हैं। घुलनशीलता-ऐटिसन्धीन (Absinthin) अत्यन्त कटु, श्वेत वा पीताभ धूसर वर्ण का एक ग्ल्युकोसाइड है जो मद्यसार ( Alcohol) वा सम्मोहनी (Chloroform ) में अत्यन्त विलेय, किंतु ईथर तथा जल में अल्प विलेय होता है। अनसन्तीन के शीत कषाय ( Infusion) को पायीन द्वारा तलस्थायी करने से एसिन्धीन प्राप्त होता है। संयोग-विरुद्ध (Incompatibles)श्रायन सल्फास (हीरा कसौस), जिंक सल्फास ( तूतिया श्वेत ), प्लम्बाई एमीटास और अर्जेएटाई नाइट्रास ! औषध-निर्माण-~-पौधा, ५० से ६० ग्रेन ।। ___ शोतकषाय-(१० में १), मात्रा- से प्राउंम। तरल सत्व-५ से ६० वुद तक । ( पूर्ण वयस्क मात्रा)।टिंक्च र-(८ में 1), मात्रा से १ डाम तक | तैल-मात्रा, से सुगंधित मद्य-(एक फरासीसी मद्य जिसको वाहनम ऐरोमैटिकम् एलिसन्धियम् कहते हैं । इसमें माओरम् अञ्जलिका, निस प्रभृति सम्मिलित होते है)। यह मस्तिष्कोत्तेजक है इसके अधिक सेवन से ऐसिनियम (Alhsin thism) अर्थात् अफसगीन द्वारा विकाक्रता उत्पन्न हो जाया करती है जिसके लक्षण निम्न हैं रोगी को कनिन गरमी मालम होती है हृदय धड़कता है नाड़ी की गति तीव्र हो जाती है और श्वास जल्द पाता है इत्यादि। नोट-यूनानी चिकित्सा में यह तैल, गाय, शर्यत, श्रनुलेपन, अर्क, टिकिया, काथ, तथा मजून प्रभृति मिश्रण रूपों में व्यवहृत होता है। अफ सन्तीन के एलोपैथिक (डॉक्टरी) चिकित्सा में व्यवस्न होने वाले मिश्रण---- (डॉक्टरी में ये मिश्रण नॉट ऑफिशल हैं) (१) पल्विस एकिमन्धियाई, मात्रा-२० ३० ग्रेन । (२) एका " " 1 से 5 श्रोस । (३) एक्सट्रैक्टम् " " ५ से १५ ग्रेन। (४) एक्सट्रैक्टम् एसिन्धियाई लिक्विडम्, मात्रा-१५ से ४५ बुद। (५) इन्फ्युजन एडिसन्थियाई " १ मे २ श्रौंस । (६) श्रॉलियम् " " से ५ बुद। (७) टिक पूरा " "1 से २ डाम । (८) ' कम्पॉलिटा " १ मे ४ ड्राम । नोट-यद्यपि युरोप के कतिपय प्रदेशों में इस ओषधि के उपयुक मिश्रण प्रयोग में लाए जाते हैं, तथापि अधिकतर इसका टिंक्चर ही व्यवहार में प्राता है। यह एक भाग वर्मवुड (असम्तीन) और १० भाग मद्यसार (६००१) से निर्मित किया जाता है। अफ सन्तोन के प्रभाव तथा उपयोग । आयुर्वेद की दृष्टि से यद्यपि असन्तीन और इसको कतिपय जातियाँ भारतवर्ष में उत्पन्न होती हैं और उनका वर्णन भी श्रायुर्वेदीय ग्रंथों में पाया है; तथापि अफ सन्तीन का वर्णन किसी भी श्रायु. बेदीय ग्रंथ में नहीं मिलता। इसकी अन्य For Private and Personal Use Only Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अफसन्तीन " www.kobatirth.org ४२२ जातियाँ निम्न हैं-~~( १ ) दमनक वा दौना (Artemisia Scoparia or Indica), (२) नागदमनो ( Artemisia Vul garis ), ( ३ ) शोह वा किर्माला ( Artemisia Maritima ) और ( ४ ) परदेशी दौना ( Artemisia Persica ) इत्यादि। इनके लिए उन उन नामों के अन्तर्गत वा धार्टिमिसिया देखो । यूनानो मत से - प्रकृति- - यह प्रथम कक्षा में उच्ण और द्वितीय कक्षा में रूत है । हानिकर्त्ता मस्तिष्क 1 व श्रामाशय को निर्बल करता, शिरः शूल ! उत्पन्न करता तथा रूक्षता की वृद्धि करता है । दर्पण - अनीसून, मस्तगी, नीलोफ़र या शर्बत श्रनार । प्रतिनिधि - ग़ाफिस और सारून | मात्रा - ३ मा० से ७ मा० तक चूर्ण रूप में सामान्यतः ४-४॥ मा० धौर काथ रूप में ६-७ मा० तक प्रयोग में ला सकते हैं । । गुण, कर्म, प्रयोग - (१) रोधीघाटक है। क्योंकि इसमें कटुता और चरपराहट ( २ ) संकोचक है | क्योंकि इसमें कषायपन हैं; और कश्यपन ( वा कब्ज़ ) पृथ्वी तत्व के कारण प्राप्त होता है और पृथ्वी तत्व रूक्ष होता है । इसके अतिरिक्त इसमें कटुता भी हैं और कटुता भी तीक्ष्ण एवं तीव्र पार्थिव तत्व ही से हुआ करती है और यह स्पष्ट है कि तीक्ष्ण पार्थिव तत्त्र के भीतर रूक्षता का प्राधान्य होता हैं । इसके अतिरिक इसके स्वाद में चरपराहट भी है और यह श्रग्नि तत्व के कारण हुआ। करता । इस कारण से भी यह रूक्ष है । अतएव इससे यह निष्पक्ष हुआ कि अफ़सन्तीन दो प्रकार के सत्रों के योग द्वारा निर्मित हुआ है(१) उष्ण सत्व - कटु, सारक और चरपरा है और (२) दूसरा सत्व पार्थिव एवं संकोचक है । ( ३ ) मूत्र एवं प्रवर्तक है । क्योंकि इसके भीतर तख्तोफ. ( मलशोधन, द्रवजनन) और तफ़्तीह (अवरोध उद्घाटन ) की शक्रि है । (४) पित्त को दस्तों के द्वारा विसर्जित करता है । क्योंकि इसमें जिला (कांतिकारिणी ) शक्ति Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अफसन्तीन विद्यमान हैं जो इसके भीतर कडुग्राहट के कारण पाई जाती है । स्तम्भिनी ( क़ाबिज़ह ) शक्ति भी इसमें वर्तमान है जो श्रत्रयत्र को श्राकुञ्चित एवं बलिष्ट करती है। इससे क्रुब्बत दाक्रिचह् ( प्रक्षेपक वा उत्सर्जन शक्ति ) को शक्ति मिलती है और (दस्त श्रा जाते हैं ) | ( ५ ) इसका स्वरस श्रामाशय के लिए हानिकर है । क्योंकि यथार्थतः स्वरस असन्तीन के अवयव से अधिक उष्ण एवं तीक्ष्ण होता है। इसलिए कि स्वरस में पार्थिवांश जो कि शीतल होता हैं, नहीं आता । श्रतएव इसका स्वरस अपनी तीच्णता एवं उष्णता के कारण श्रामाशयिक द्वार को शकि प्रदान करता है। बल्कि इसके जिर्म ( फोक ) में शेष रह जाता है और निचोड़े हुए रस में नहीं निकलता। (६) हाँ ! स्वरस में प्रक्रन्तीन की अपेक्षा अधिकतर जयकारिणी ( विलायक ) तथा वरोधाद्धादकीय शक्ति होती है, जिसके कारण यह कामला ( यक़न ) के लिए लाभदायक है । इसका जिर्म और इसका शर्बत श्रामाशय एवं यकृत् को बलप्रद है । जिम के बल्य होने का कारण यह है कि उसके भीतर स्तम्भिनी (काबिज ) श िकाफ़ी होती है । अतएव वह प्रति दो अवयवों को शक्ति प्रदान करता है । शर्बत इसलिए बल्य है कि उसमें स्तंभक ( क़ाबिज़ ) एवं सुगन्धिन श्रोषधियाँ सम्मिलित की जाती हैं । उसमें क्षोभ एवं तीच्णता भी नहीं होती । शर्बत बनाने की कई विधियाँ हैं । कोई इस प्रकार बनाता है। :असन्तीन को अंगूर के शीश में भिगो देते हैं और तीन मास तक छोड़ रखते हैं । और कोई इस तरह बनाता है कि श्रसन्तीन को सुगन्धित दवाओं के साथ दो मास पर्यन्त अंगूर के शीरे में भिगो रखते हैं अतः यह शर्बत अपने स्तम्भक एवं क्षोभ रहित सौरभ के कारण आमाशय और यकृत् को शक्ति प्रदान करता है । ( १ ) अफ़सन्तीन अर्श के लिए उपयोगी है । क्योंकि श्रर्श का रोग स्थल चूँकि मुख तथा आमाशय से दूर स्थित है और वहाँ तक इसकी शक्ति निर्बल होकर पहुँचती है। इस लिए For Private and Personal Use Only Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अफ, सन्तान ४२३ इसकी उष्णता वहाँ ऐसी न होगी कि रूक्षता की वृद्धि कर मस्सो को कठिन बना सके; प्रत्युत उस सूक्ष्म उष्मा के कारण तलय्यिन ( मृदुता ), तहलील (त्रिलेयता ) और तस्खीन (गर्मी) प्राप्त होगी । ( 5 ) और अपनी तल्तीफ़ ( संशोधन वा द्रावण ), तहलील ( विलायन ) श्रीर इद्रा ( प्रवर्तन, रेचन ) के कारण विरों को लाभदायक है । ( 8 ) इसके क्वाथ का बाप स्वेद ( भफारा ) करने से काशूल प्रशमित होता है । क्योंकि यह वायु को लयकर्त्ता और श्लेम्मा को मृदु एवं लय करता है । और वैशिक दोषों को भी निकाल डालता है । (१०) चूँकि प्रसन्तीन के भीतर कडुग्राहट है । अतः यह उदर की कृमियों को मार डालता है । ( त०न० ) संक्षेप में यह बल्य, संकोचक, रोधोन्द्राटक, संकोचक, प्रवर्धक वा रेचक, ज्वरन, उदरकृमिनाशक, मस्तिष्कोत्तेजक और कीटाणुनाशक हैं । श्रामाशयाचसान, श्रध्मानजन्य पाचन विकार, श्रांत्रकृमि, परियाय-ज्वर निवारण हेतु श्लेम स्राव, रज:रोध, रजः स्राव, शिरोरोग यथा शिरः शूल, पक्षाघात, कम्पन, अपस्मार, सिर चकराना, मालीखोलिया इत्यादि तथा क रोगों और यकृत् एवं लोहा आदि रोगों में इसका व्यवहार होता है। एलोपैथिक वा डॉक्टरी मतानुसारप्रभाव - सतीन (पौधा) ति बल्य, सुगन्धित, श्रामाशय बलप्रद अर्थात् श्रग्निप्रदीपक, ज्वरत्न, कृमिघ्न ( श्रत्रस्थ ), मस्तिष्कोरोजक, रजः प्रवर्तक, अवरोधोद्घाटक, स्वेदक, पचननिवारक, और किञ्चिन् निद्राजनक है । (तैल) अधिक काल तक सेवन करने से यह निद्राजनक विष ( Narcotic poison ) है । उपयोग - आमाशय बल्य रूप से इसको आमाशय की निर्बलता के कारण उत्पन्न श्रजीर्ण एवं श्राध्मानजन्य श्रजीर्ण में देते हैं । कृमिघ्न रूप से इसकी केचु ( Round worms ) और सूती कीड़ों ( Thread worms ) के Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अफसन्तीन निःसारण हेतु व्यवहारमें लाते हैं । ज्वरघ्न रूप से इसको विषमज्वरों ( Intermittent ferers) में प्रयुक्र करते हैं। रजः प्रवर्तक रूप से इसको रज:रोध तथा कष्टरज में देते हैं । मस्तिष्कोत्तेजक रूप से इसको अपस्मार और मस्तिष्क नैत्रेय इत्यादि रोगो' में देते हैं । नोट -- श्रामाशय तथा श्रांत्र की प्रदाहावस्था में इसका उपयोग न करना चाहिए । सन्तीन को गरम सिरका में डुबोकर मोच आए हुए अथवा कुचल गए हुए स्थान की चारों ओर बाँधते हैं । श्रारोप निरोध के लिए भी इस पौधे के कुचल कर निकाले हुए रस को सिर में लगाते हैं। शिरोवेदना में शिर को तथा सचिवात और श्रमात में संधियों को पुत्रक विधि द्वारा सेंकते भी हैं। एब्सिन्थियम् तिक आमाशय बलप्रद है । यह चुधा की वृद्धि करता और पाचन शक्ति को बढ़ाता है । श्रजीर्ण रोग में इसका उपयोग करते हैं । यह योषापस्मार (Hysteria). आक्षेप त्रिकार यथा अपस्मार, वात तान्त्रिक लोभ, वात तन्तुओं की निर्मलता ( वात नैर्बल्य ) में तथा मानसिक ांति में भी व्यवहृत होता है । कृमिघ्न प्रभाव के लिए इसके शीत कपाय की वस्ति देते हैं । कृमिनिस्सारक रूप से इस पौधे का तीच क्वाथ प्रयुक्र होता है। बालकों की शीतला में इसका मन्द क्वाथ देते हैं। स्वग् रोगों एवं दुष्ट यणों में टकोर रूप से इसका बहिर प्रयोग होता है | ( इं० मे० मे० पृ० ८१ डी० नदकारणी कृत । पी० वी० एम० ). सिंकोना के दर्या फ्त से पूर्व विषमज्वरो में इसका अत्यधिक उपयोग होता था । वातसंस्थान पर इसका सशक्त प्रभाव होता है। शिरोशूल एवं इसके अन्य वात संबन्धी विकारों को उत्पन्न करने वाली प्रवृत्ति से काश्मीर तथा लेक के यात्री भली प्रकार परिचित हैं। क्योंकि जब देश के उस विस्तृत भाग से जो उन पौधे से श्राच्छादित हैं, यात्रा करते हैं, तब उनको यह महान कष्ट सहन करना पड़ता है । ( वैड्स डिक्शनरी १ ० ३२४ पृ० ) For Private and Personal Use Only Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अफ सन्तीनुल बहर प्रबरककलयां अफसन्तीनुल बहर afsantinul-ba har- अवखरा abakhari-हिं० संज्ञा पुं० [अ०] श्र० (Artemisia liaritima, Linu.)' भाप । बाष्प । (Vapour ). शोह, शरीन-अ० । दमनह-फा० । किर्माला , अबखोरा abakhora-हिं० संज्ञा पु० दे०-- -हिं । i श्रावखोरा । अफ सन्तीने हिन्दी afsantine-hindi-फा० अबज़ abaz 1 -अ० अभ्यन्तर जानु, घुटने का ( Artemisia Indica, Willd.) Arap mábaz } fuar al an iar *i sia ग्रंथिपी -सं०। का भाग या तल । पॉप्लीज़ा (Poples) ई० । अफसीह afsih-अ० बलूत भेद । See- अबटन a.batana-हिं. संज्ञा पुं० दे____Baluta. उबटन। अफ .सुल अज़ aafsul-abaiza-० अबद aabad-अ. एक सुगंधित पौधा है। (An माजूफल । (White galls.) aromatic plant.) अफ.सुल अखज़र aatsul-akhzara-० अब-दातक abadatak-सं० लामजकम् । ___ माजूफल, मायाफल ( Green galls. (Andropogon laniger.) अफ.सुल अज़क aafsulayzal-अ. भील अबद्ध abaddha-हिं० वि० [सं०] जो बैंधा माजूफल । ( Blue galls.) ! न हो। मुक्र। , अवनी abani-हिं० स्त्री० धरती, पृथ्वी । (The अफ .सुल अस्वद aafsul-asvada-अ० श्याम : carth, the world ). माजूफल (मायाफल)। (Black galls.) अफ .सुल बलत aafstul. baluta-अ० ! अबब aabab-श्र० काकनज भेद जिसको हल्यु माजकल, मायाफल -हिं० । Galls लहु कहते हैं । (२) नकम्मा Physic (Galla.). nut (Jatrophel. glauca)। इसके बीज अबका baki-हिं०संज्ञा पु० [सं० अबका-सेवार] . से एक प्रकार का उत्तेजक तैल प्राप्त होता है जी ग्रामवात तथा पनाघात के लिए लाभप्रद एक पौधा जिसके डंठल की छाल रेशेदार होती। है और रस्सी बनाने के काम आती है । खूदड़ का है। ई. हैं. गा०। मैनिला पेपर बनता है। यह पौधा फिलिपाइन 'अयमकाजी abamakāji-तु० खुब्बाजी | Sceदेश का है । अव इसकी खेती अण्डमन टापू और । khubbazi. श्राराकान की पहाड़ियों में भी होती है । इसकी अवयी abasce-मह. महाशिम्बी-सं०। श्वेत खेती इस प्रकार की जाती है। इसकी जड़ से सेम-हिं०। (Canavallia ensiformis) पेड़ के चारों ओर पौधे भूफोड़ निकलते हैं । जन्म : अबरक abarak-हिं. संज्ञा पुं० [सं० वे पौधे तीन तीन फुट के हो जाते हैं तब उन्हें अभ्रकम् ] ( ) Talc (Mica) अभ्रक, उखाड़ कर खेतों में ८६ फुट की दूरी पर लगाते भोडल । (२) एक प्रकार का पत्थर जो हैं। तीन चार साल में इसकी फसल तैयार होती ' खान से निकलता है और बरतन बनाने के काम है, तब इसे एक एक फुट ऊपर से काट लेते हैं। में श्राता है । यह बहुत चिकना होता है । इसकी डंठलों से इसकी छाल निकाल ली जाती है बकनी चीजों के चमकाने के लिए पालिस वा और साफ़ करके रस्सी श्रादि बनाने के काम में रौग़न बनाने के काम में प्राती है। प्राती है । हिं० श० सा० । अबरक भस्म a bara.k-bhasma-हिं० स्त्री० भयकशा aba-keshi- हिव० अफल, फलराहत, अभ्रक की भस्म । (Calcinated talc.) बाँझ Without fruit, barren अबरकलया abal-qalaya-यु० पालक । ( A tree). (Spinace aoleracca). For Private and Personal Use Only Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अबरख अबरख abarakha-हिं० संज्ञा पुं० अभ्रक, भोडल | Tale ( Mica ). श्रयरञ्जमिश्क abaranjamishka-ऋ० कृ० करजमिएक-अ० । रामतुलसी - हिं० 1 Ocim um (gratissimumn). अबरन abaran-हिं० वि० [सं० अत्र ] | बिना रूप रंग का | वर्णशून्य | अवरम् abaran11- सं० क्ली० अन्तर्वस्त्र | मे० रकिं । ४२५ अबरस abarasa - हि संज्ञा पुं० [फा० ] ( 3 ) घोड़े का एक रोग जो सच्ज़े से कुछ खुलता हुआ सफेद होता है । (२) घोड़ा जिसका सब्जे से कुछ खुलता हुआ सफेद रंग हो । वि० सब्ज़े से कुछ खुलता हुआ सफेद रंग का । अबरावृत्तिः abaravrittih सं० स्त्री० एक अम्ल फल है । (An aciduous fruit). अबरी abari - हिं० संज्ञा स्त्री० [फा० ] पीले रंग का एक पत्थर | जैसलमेरी । अब abargo अबरक या शनीन दरियाई ( एक जानवर हैं ) या कोई फारसी दवा अबला [abarqalsá यु० है 1 Fabra-aqalasa-go भयानक मुगी । युक्रु'लस यूनानका एक धन्यायी तथा हिंसक राजा था। इस रोग का नाम श्रवरकस्सा उसी के नाम पर रक्खा गया है। क्योंकि यह भी एक भयंकर रोग । एपिलेप्सिया विअर ( Epilepsia, Gravior ). यक, अभ्रक | lale अब abarkha ( Mica ). श्रवदन abardána o सुबह और शाम का समय । प्रातः सायंकाल | ( Morning & the evening ). अवनीं abarni - रू० लोफ ( जिसे हिंदी में मुश्तकन्द्र कहते हैं, यह एक वनस्पति है ) । श्रबथीज़ पिल्ज़ abernethy's pills-० मर्करी पिल ३ प्रेन, कम्पाउण्ड एक्सट्रैक्टश्रॉफ. कॉलोसिन्थ २ मेन, दोनों की एक गोली बनालें 8 बाजीर और ऐसी एक गोली रात को सोते समय दें | यह उस वक्त रोग में जिसमें यकृद विकार भी हो अत्यन्त लाभदायक है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अवयुन abarbyúna यु० फफ़्यून- अ० 1 सेहुँड़, थूहर । ( Euphorbium. ). श्रबर्स abarsa यु० गुले सोसन | See-Sou sana. अक्लख abalakha - हिं० वि० [सं० श्रवल = श्वेत ] कबरा | दो रंगा। सफेद और काला अथवा सफेद और लाल रंग का । अबलखा abalakha - हिं० संज्ञा स्त्री० [सं० अचलक्ष ] एक पड़ी जिसका शरीरं काला होता है, केवल पेट सफेद होता है। इसके पैर सफेदी लिए हुए होते हैं। चोंच का रंग नारंगी होता है यह संयुक्र-प्रांत, बिहार और बंगाल में होता है और पत्तियों और परों का घोंसला बनाता है। एक बार में चार पाँच अंडे देता है इसकी लंबाई ६ इंच होती है । 1 अबल: abalah--सं० पु० वरुण वृत्त, बरना । A tree ( Capparis Trifoliata ). अत्रलहह abalahh शिनुस्, सौत khashin ussota - अ० भर्राए हुए शब्द वाला, बैठे हुए शब्द वाला । स्ट्रिड्यूलस (Stridulous ) - ० 1 अबलासः abalásah - सं० पु० ( १ ) कफकारी ( २ ) बलनाशक | अथर्व० | सू० २ । १८ | का० ८ | संज्ञा पुं० अबलासेन कामदेव । (Cupid). बाखिल abákhis- अ० पोर्वे, पर्व्व-सं० । fefaza (Digits )-go | For Private and Personal Use Only abilásena-हिंο श्रवाज़ोर abázira तत्राबिल tavabil -अ० अब्ज़ार का ( ब० व० ) और अब्ज़ार है बहुवचन बज्र का जिसका अर्थ बीज हैं। लेकिन तिब्ब की परिभाषा में अब्ज़ार या अबाज़ीर उन बीजों या तर वा शुष्क बीजों को कहते हैं जो आहार में मसाला Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रचाती ४२६ रूप से उसको स्वादिष्ट एवं सुगन्धयुक्त करने के लिए डाले जाते हैं । उदाहरणतः --- जीरा, कालीमिर्च, लौंग, दालदीमी, श्रीर धनियाँ प्रभृति 1 स्पाइसेज़ (Spices), सीज़निङ्गज़ ( Seasonings ) – ई० । =नहीं + बात २ ) जिसे वायु अश्रातां abati - हिं० वि० [सं० वायु ] ( १ ) बिना वायु का । ( न हिलाती हो । अबानस abánasa - यु० श्रावनूस | Seeábanús. i अबाबील abábila - हिं० मंज्ञा खो० [ ऋ० ] स्वालो ( Swallow ) ई० काले रंग की एक चिड़िया । इसकी छाती का रंग कुछ खुलता होता है । पैर इसके बहुत छोटे छोटे होते हैं जिस कारण यह बैठ नहीं सकती [ और दिन भर आकाश में बहुत ऊपर भुड के साथ उड़ती रहती हैं । यह पृथ्वी के सब देशों में होती है। इनके घोसले पुरानी दीवारों पर मिलते हैं । पर्याय - कृष्णा | कन्हैया | देव दिलाई। सयानी, सियाली, पित्त देवरी-हिं० । कफ़ वा बील, खुत्ताफ़ ( तातीफ़ - बहु० ), अस्फरुजनह, जनीवा ०। परसत्वक, फरसंग्रह, बाबुवानह - फा० | शालीतून, खालीदुस - यु० । करला नफ़व तु० | खजला - वेरमी० । I प्रकृति - इसका मांस तीसरी कक्षा के अव्वल तंत्र में उष्ण व रूक्ष है । भस्म शीतल व रूक्ष होती हैं । विट् श्रत्यन्त उष्ण व रूक्ष होता है रंग-- स्वयं श्यामाभायुक्र धूसर और इसका मांस श्यामाभायुक होता है । स्वाद - अन्य पक्षियों के मांस के समान किंतु कुछ नमकीन । हानिकर्त्ता - गर्भवती तथा उप्ण श्रर्थात् पित्त प्रकृति की | दर्पन – घृत व दुग्ध सईतर वस्तुए । प्रतिनिधि - ग्रन्थों में इसकी प्रतिनिधि का वन नहीं । किंतु, चतु रोगों में जतुका का महज़ | मुख्य कार्य - चतु रोगों के लिए अत्यन्त लाभदायक है और स्काल्पतानाशक हैं । गुण, कर्म, प्रयोग - इसके मांस का कबाब Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रचाबील अवरोधोद्घाटक और स्काल्पता एवं प्लीहा संबन्धी रोगों और वस्त्यश्मरी के लिए लाभदायक है । एक मि.स. काल ( | मा० ) को मात्रा में इसके शुष्क पिसे हुए चूर्ण को फाँकना शिद्धिक हैं । और हिरम नमक सूए खुनाक के लिए लाभदायक है। इसकी भस्म का गंडूष वा शहद के साथ प्रलेप करना उपजिह्वा ( कौवा ) और कंठगत सम्पूर्ण व्याधियों को नष्ट करता हैं । इसके बच्चे की भरम को रुधिर में मिलाकर अथवा इसका मस्तिष्क मधु में मिलाकर नेत्र में लगाना चक्षुष्य है और मोतियाविन्दु की आरम्भिक अवस्था में लाभप्रद है । नाम्ना, फूली और सबल के लिए लाभदायक है । इसका ताज़ा रक अत्यन्त कांतिदायक एवं स्वचागत चिह्नोंका नाश करने वाला है । गो पित्त के साथ बालों को सफेद करता है । इसके झींझ को जलाकर उसमें से एक मिसाल (३ ॥ मा० ) की मात्रा में पिलाने से बन्ध्यत्व का नाश होता है और इसके पित्त का नस्य बालों को काला बनाता है; परंतु मुँह में दुग्ध रक्खें जिससे कि दाँत काले न हों। इसके नेत्र की चमेली के तेल में रगड़ कर पेडू पर लगाना बन्ध्यत्व के लिए परीक्षित है । म० श्र० । इसके शिर को जलाकर भस्म प्रस्तुत कर मद्य में डाल दें | इससे नशा न होगी। इसकी विष्टा को श्वेत बालों पर लगाने से बाल काले हो जाते हैं। यदि किसी के बाल श्रसमय श्वेत हो गए हों तो इसके पित्त का नस्य देने से वे काले हो जाते हैं । अबाबीलों में मिश्री अबाबील उत्तम होता है । इनके अंडे वल्य तथा कामोद्दीपक होते हैं । घोंसलों से कके अबाबील प्राप्त होता है। इसको ख़ान हे अबाबील और अबाबील मिश्री, मृए बा बील और अबाबील की मस्ती कहते हैं । इसकी प्रकृति उत रूत हैं । यह अत्यंत कामोद्दीपक, शुक्रमेहन, हृद्य और नाडियों को बल प्रदान करने वाला है । यह मुर्गे के खुले हुए चोंच के समान होता है । कोई सफ़ेद रंग का और कोई For Private and Personal Use Only Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रबाबूस ४२७ अविंधन रक वर्ण का होता है | सफ़ेद रंग वाला शुद्ध मुचकुन्द-बं०, हिं० । (Pterospermum पंजाबी सालब मिशी जैसा कोर होता है। किंतु | Aconitoliun.)। ई. मे० मे० । शुष्क होने पर सरलता से टूट जाता है। अबॉर्शन abortion-इं० गर्भपात, गर्भस्राव । योग (Miscarriage. ). (१) अबाबील के मांस को शुष्क करके चूर्ण अवाल abāla-हिं० वि० [सं०] (1) जो करें और ४॥ मा० जल के साथ सेवन करें। बालक न हो । जवान। (२) पूर्ण, पूरा । मुण-दृष्टि शनि को अत्यन्त लाभ प्रद है । प्लीहा अबाली abali-हिं. संज्ञा स्त्रो० [देश॰] एक वृद्धि को लाभदायक और अश्मरी द्रावक है। पक्षी जो उत्तरीय भारत और बम्बई प्रान्त तथा यदि इसकी ऋतुस्नाता स्त्री को खिलाया जाए प्रासाम, चीन और स्याम में मिलता है। यह तो सम्पूर्ण प्रायु भर रजः साव न होगा और न अपना घोंसला घास रा पर का बनाता है । गर्भाधान होगा। बेंगनकुटी । (२) अबाबील की विष्टा को शुष्क कर चूर्ण . अबालुकः apālakah-सं० पु. पानीयालुक । कर और जैतून के तेल में मिलाकर भाई तथा : रा०नि० ३.७ | Sce-Paniyaluh. मुहाँसी पर लेप करने से लाभ होता है । गालों । अबास aabas-अ० शेर, सिंह । (Lion.) पर मलने से यह उसको सुख करता है। अबासी aabasi-अ० जाती, गुलेअब्बासी। (३) अवाबोल के शिर को शुद्ध मधु में (Mirabilis jalapa.) मिलाकर नेत्र में लगाने से प्रारंभिक मोतियाबिंद अबित bikti-हिं० वि० गुप्त, प्रबोधनीय, अयोध. में लाभ होता है। गम्य | ( Hidden, unintelligible.) (४) अन्नाबोल के हृदय को शुष्क करके चूर्ण अबिङ abin-सिं० अफोम । ( Opium.) करें। इसमें सम भाग शर्करा योजित कर दुग्ध | स० फा...। के साथ सेवन करने से कामोत्तेजक प्रभाव अविचल a bichal-हिं० प्रचल, गतिशून्य अविहोता है। ___ वल । (fotionless, Immovable.) (५) अबाबील के रुधिर को बिना सूचित अबिरल abiranj-अ.कृ० बिरङ्ग काबुली । किए स्त्री को खिलाने से कामावसान होता है। अधिरजबीन a biranja-bini-यु० शौकतुल्थहूद अबाबूस abi bus -यु० मूली, मूलक । ( Ra | १० । एक काँटादार वृक्ष है । (A spinousdish). tree.) अवामरून abanarin-यु० चकोर ( एक पक्षी | अविरञ्जमुश्क abiranjamushka-अ.कृ. है)।se-chakora. फरजमिश्क, रामतुलसी ! ( Ocimum graश्रबार aabar-अ० ऊँट, उष्ट । (A camel.) tissimum. अवॉर्टिफशेण्ट bortifacient-. । | अ(इ)बगत aa(ai)brata-० अशु, आँसू उबgalita abortive-to डवाना, आँसू बहना, रोने की हिचकी। टीयरिंग गर्भपातक, गर्भशातक । See-गर्भपातक। (Pearing.)-101 अबार्टिव पेपर कॉर्स abortive pepper | | अबिला abili-सं० श्री. मेषी । भेडी-हिं० । corns-ई० पोकल मिरी-हि., मह० । (A she-sheep. ) पाइपर ट्रायोइकम् ( Pipar Trioicum.) अबिशून abishan-यु० रातीनज, सल, धूप । -ले० । इ० मे० मे०। (Resin ). अयॉन ब्लैटटराइजर पजेल सेमेन aborn अबिंधन abindhana-हिं० संज्ञा पुं० [सं०] blattriger' ilagel samen-जर० समुद्र । (Sea) For Private and Personal Use Only Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ঋষি अबोलीमिया अबिद्ध abiddha-हिं० वि० [सं० अविद्ध1 (Pure fresh blood )।-रसायनी. अनबेधा । बिना छिदा हुा । देखो-प्रविद्ध । ' 9177 (IIyarargyrum. ) अबिद्धकर्णी abiddhakarni-हि. संज्ञा स्त्री० ! अबीर aabira-अ०, हिं० (1) अभ्रक (Tale)। देखो-अविद्धकर्णी । (२) यौगिक सुगंधित चूर्ण ( An aroin. अबिरल abirala-हिं० वि० देखो--अविरल । atic compound powder ) TBF अबोकमा abiquina -अ०कनी भ्रमवश केशर को कहते हैं । स० फॉ० ० । सूफो sifi निका के अयोर nbira-हिं०संज्ञा पु० [अ० वि०बीरी] बाह्य पटल का वण जो ऐसा प्रतीत होता है कि । (१) रंगोन बुकनी जिसे लोग होलीके दिनों नेत्र के ऊपर एक छोटा सा सफ़ेद ऊन ( पश्मे में अपने इष्ट मित्रो पर डालते हैं। यह प्रायः स.फ़ ) का टुकड़ा रक्खा है । इसी कारण इसको लाल रंगकी होती हैं और सिंघाड़े के आटेमें हल्दी सूफी भी कहते हैं । अल्सर श्रॉफ कॉर्निया और चना मिलाकर बनती है। अब अरारोट और (Ulcer cf cornea )-ko विलायती बुकनियो' से तैयार की जाती है । अबीज़ एक्सेल्सा abies excelsa-ले० गुलाल । लालसिरस हिन्दी, लाहली, लाली (मारदारी) (२) कहीं कहीं अभ्रक के चूर्ण को भी जिसे -हिं० । मेमो० । इसका गोंद औषध तुल्य काम होली में लोग अपने इष्ट मित्रों के मुख पर में श्राता है। मलते हैं अबीर कहते हैं। बुखा। अबोज़ केनाडेन्सिस abies cannadensis (३) श्वेत रंग की सगंध मिली बुकनी जो -ले० शूकरान । हेमलॉक (Hemlock ), बल्लम कुल के मंदिरों में होली में उड़ाई जाती FILE ( Spruce)- See- Shúkrá. ! ma. अमीरी abiii-हिं० वि० [अ०] अबीर के अंग प्रयोज़डयमोसा abies dumosa. loudon. का। कुछ कुछ स्याही लिए लाल रंग का । -ले० चङ्गथासी धूप-नेपा० । तंगसिंग-भूटा। संज्ञा पु० अधीरी रंग । सेमडंग-लेप० । प्रयागांश-राल और गोद । ! . अबोरमायह aabira-mayah-० एक सुगंधित मेमो० । यौगिक औषध है जो चन्दन, गुलाब और अन्यीज़ रखटगे abios khatro-ले. रातियानज कस्तूरी से बनाई जाती है। राल, धूप । ( Resin... ! प्रचोरी abiri-अ० हल्बुल प्रास, विलायती मेहदी, अयोज द्राक्षा abija-drakshā-सं० स्त्री ! वर्ग मोरद । (Myrtns Communis ). किशमिश । (Raisin). मेमो०। प्रयोजबालसेमी abies balsame-ले० अबोलस abilasa -अ० बालसम। o sarb J उदरच्चदा अबोज़ वेब्यित्राना abies webbiana,Lindi. | कला। प्रोमेण्टम (Omentum ), एपिप्लून -ले० तालीसपत्र-हिं० । (Himalayan | (Epiploon)-१०। Silver Fir ) फा० ई० ३ भा०, अबोलीमिया abilimiya-अ० बुरे प्रकार की मेमो०; ई० मे० मे० । मृगी जिसमें प्रारम्भ हो से सम्पूर्ण शरीर में अबीज़ स्मिथिभाना abies smithiana,Fore तनाव उपस्थित होता है। विपरीत इसके अन्य bes.- ले. राव, सिरस-हिं० । रेवड़ी, बनलूदर प्रकार की मृगी रोग में तनाव मृगी के अधीन -५०, हि । See - shirisha होता है। स्टेटस एपिलेप्टिकम ( Status अवी.त् aabit-अ0 (1) शुद्ध ताजा रक।। epilepticus )-२० । For Private and Personal Use Only Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अधीसह ४२६ अबुन.सुल फारावी अधांसह anbisah अ० सत्तू या क़त शुष्क। अकसर abu.kasita-अ० एक पक्षी है । अत्रुअमारत् ॥buaamārah-१० एक शिकारी ! (A biral.) पक्षी है जो बाज से छोटा होता है, (चर्स)। अबुक हला abu-kahia अ० रतनजोत । (A!kaअवुअरक abu-aluka -यु० पोल। net.) अवुराक abnaraika j Salvatlयुकानस abu-Manasil-यु० एक बूटी की जड़ ora oleoides, Dine.-ले० । फा० इ० है जिससे बस्त्र प्रक्षालन किया आता है । २भा.। अबुक स्तुस abl-qustus-यु. एक वनस्पति श्रवुश्रलस abu-aalasa-सु. गुलेरी, गुले है, जो मिश्र तथा शाम में फासूल रूमी के नाम बैरू, गुलेखि मो। एक पुष्प है जो रात्रि में से प्रसिद्ध है। यह अतनीस की जड़ के समान पुपित होता है। (Althapa officinalis, होता है । इससे वस्त्र धोते हैं। Linn.) अबुखतार abu-khil tāta- 0 तीतर | A नवुअवारस abu-aavarasa-श्र० जंगली partridge (Perdix Francolims). गाजर, वन्यगर्जर । (wild carrot ). ! अखलस abu.khulasa -छा० रतन, अबुजअ aburashjaa ) - ऊँट । अयुखलसा abi-khalasa जोत (A1अवुहरून abu-har in उष्ट। केमल - kanet.)। अबुसफ़र abu-safar (Camel)! श्रबुज़न्दोक abu-mandiqa--१० गिगिट, गिर. अबुकब abu.kaab गिट । ( A cnameleon.)। प्रवुउमर abu-aumara-१० पलंग-फां० । अबुजबाद abu-zabada--१० गर्दग, गदहा --हिं० । वर--फ़ा | (An uss.) चीता, तेंदुप्रा । (''iger.) अबुजरादह bu-jaradah-१० एक पती है अयुङमरा abu-anmara-अ० चर्ग पही। (A जो अराक और शाम में होता है। bird). श्रवुजसान abi-jusān-१० अज़दहा, अजगर । अउमगन abuaumarana-१० दर्शन (एक (The boa constrictor.) पती है)। (A bird.) अवुजल abu-jahla. - १० चीता । (Tiger.) अबउमगन मूसा बिन मैमून abuatumara | अबुत्तिय abutt.ib-अ० प्रसिद्ध युनानी हकीम na-músá-bin-maimun-70 (Abu बुतरात का उपनाम है। फादर ऑफ़ मेडिसन Uran Musa Ben Maimon or ( Father of medicine.)-ई'। Maimunecos Rabbi Moses Bin नोट-बुकरात शब्द वस्तुतः हिव्बुकात Maiinun) सन् पैदाइश ११३५ ई० और (Hippieyate. ) था; किन्तु "ह" के गिर सन् मृत्यु १२०४ ई० । इन्होंने कई पुस्तकें, जैसे जाने से बुकरात रह गया, पर प्रांरस्त भाषा में किताबुस्मम्मियात व तिर्याक्रात (अगदतन्त्र) आदि अभी तक यही नाम हैं। देखो - बुकरात । लिखी थी जिसके अनुवाद हैटिन तथा अंग्रेजी में अबुदायत abu-dayat 1 -१० गीदड, शृगाल | किए गए हैं। अबुदाल abudal A jackal अबउमारह, abu-aumarith-अ. एक शिकारी (Cumis aureus.) पक्षी है। बनमामह abu-namamah-अ० हुहुद् अबुक अब abu.kaab-अ०ऊँट : (A camel) ( कठबढ़ई ) । (A bird.) अथकलमून abu-qalmun-१० गिर्गिट । ( A | भबुन मुल् फ़ारी abu-mastall-faribi- अ. chameleon.)। अबुना कनीत मुहम्मद बिन मुहम्मद बिन उदर नम For Private and Personal Use Only Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अयुनामुन ४३० अरस्मा निन, बिन तान नाम था | यह खुरासान के | अबुमालिक abunalilk--अ० गृद्ध, गिद्ध । फाराब प्रदेश के रहने वाले थे। प्रारम्भ में यह Eagle, i vulture. ) दमिश्क के एक बगीचे में माली का काम | अवमिस्तार bu-mistār-- मन, सुरा । करने थे । पर स्वभावत: इनके हृदय में विद्या (Wine ). से प्रम था। श्रतएव रात्रि में चौकीदारों के अवमकाविल abu-muqabil-अ० गाजर । लालटेन की प्रकाश में ये पुस्तकों का अध्ययन (A carrot.) किया करते थे। ये अपने समय के अखंड दार्शनिक और संगीत के प्रमुख विद्वान थे। पापने nayet a biz-yuḥ-- ( , ) forza (A Viiltime.)। (२ ) अज दहा, अजगर | १३ पुस्तकें लिखी हैं। ( Boa Constrictor) अधुनापून abu-nāmān-यु० क फल यहाद | अचूरस्मा aburasma--अ० एन्युरिस्मा Anel(A kind of stone.) See-qa risma-इं । इनोरस्मा. इनोरज्मा. उमदम । frul yahuda. शाब्दिक अर्थ रक्क त्रुति अर्थात् रक्त का बढ़ना है। अवुनास abu-las-अ० पोस्ता । ( Papaves | परन्तु, प्राचीन तिब्धी परिभाषा के अनुसार एक Somniferum, lori.) प्रकार का रोग जिसमें प्राघात वा क्षत प्रभति के अबुबकर इब्नवाजह abu-bakar-ibna-bijah | कारण त्वचा के नीचे किसी स्थल की धमनी फट -१० इब्नबाजह, I See-Ibns-bajah. जाती है जिससे धमनीसे रक्त एवं वायु निकल कर अबकर जकरिया गज़ो abt-ba kar-zak- स्वचा के नीचे एकत्रित हो जाते हैं और वहाँ एक riya-Tazi-० ज़क्रिया राजी । See- उभार बन जाता है। Zakriyá rází. उक्र उभार का यह विशेष गुण है कि यह अबुबरा abu-bari-4. समूल (र)। एक , दबाने से दबा रहता है अर्थात् जब उसको दबाया पक्षी है। (A bird called samula.)! जाता है तब स्वगधरीय एकत्रित वायु और रक अबुधस्किया abu-iyalgiyi-यु. सा_गिक या | पुनः धमनियों में लौट जाते हैं। तथा दबाव हटाने व्यापक पक्षाघात । वह पक्षाघात जो मुखमंडल से वे पुनः उक्र स्थान में एकत्रित हो जाते हैं । के सिवाय सम्पूर्ण शरीर में हो । पक्षाघात, । अन्ताको के वचनानुसार उक्र उभार का घातग्रस्तता । जेनरल पैरेलिसिस (General प्रादुर्भाव कभी तो शिरा के फटने से और कभी Paralysis. )-OT धमनीके फटनेसे होता है। अतः शिराजन्य उभार अबमन्सूर abu-mansur अ० अबुमन्सूर मुब। में उसका रंग श्यामाभायु (स्याही मायल) और कि बिन अली हरवी (abu mansur धामनिक में रकाभायुक्र होता है। और इसके muwaffik bin Haravi.)। इनकी साथ ही उक स्थल पर शिरास्थित स्पंदन का बोध पुस्तक इल्मुल अद्वियह अपने समय की अत्यंत होता है। प्रस्तु, शिरा प्रसार काल में यह उभार विश्वसनीय एवं लाभदायर्या कृति हैं जिसमें बहुत बढ़ जाता है और शिरा संकोच काल में यह घट सी भारतीय प्रौषधों का भी वर्णन मौजूद जाता है। है। इसमें लगभग ५०० औषधों का वर्णन ___ डॉक्टरी नोट-एन्युरिस्मा जिसको इनोविद्यमान है रज़्मा भी कहते हैं, वस्तुतः युनानी भाषा का अबमर्दान abu-mardan--ऋ० इब्न जुह र । शब्द है जिसका अर्थ धामनिक अर्बुद (रसौली) Sov--Ibn zuhr. है। जिन लोगों ने इसको अबूरस्मा लिखा है अबुमल्यून abumalyān--य० सफ़ेदा, सुपेदह ।। वास्तव में उनको उक शब्द में सन्देह उपस्थित White Lead (Plumbi carbonus)| हुआ है। प्राधुनिक चिकित्सक (डॉक्टर ) इस For Private and Personal Use Only Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अबुरुमाज को धामनीयान्बुद मानते हैं जो धमनी की दीवाल के प्रसार के कारण उत्पन्न होता है । इस रोग में जहाँ धामनीयाद का उभार होता है वहाँ हाथ लगाने से धामनिक स्पन्दन का बोध होता है । उरोबीक्षणयन्त्र ( Atethoscope ) | अथवा कान लगाने से वहाँ एक प्रकार का शब्द सुनाई दिया करता है । अब ! नोट - रस्मा के प्राचीन चिकित्सकों द्वारा कथित अर्थ अर्थात् त्वगधः रकखुति का समानार्धक अंगरेजी शब्द एक्स्ट्रा बज़ेशन ऑफ ब्लड ( Extravasation of Blood. ) हैं । बुरुमाज abu-rumaj- श्र० बाकला | Garden bean ( Vicia Faba. ) अत्रुरंबोअaburrabia - ० हुदहुद (कउबदई) । (A bird.) अबुलअब abulaāba-o अलस abulisa श्र www.kobatirth.org अबुल् श्ररूज़ abul-akhz-o ( जर्रह ) । गीदड शृगाल । }(a jackal) बाराह ४३१ अतुल अरूज़र abul-akhar- श्रुo दर्शान ( एक पक्षी है ) | ( A bird.) अबुल् अख़बार abulakhbaro हुदहुद ( बढ़ई ) | ( A bird.) अबुल असाद abul-ajsad श्रु० ( रसा० परि०) गंधक ( sulphur ) बुल् अन्न abul-amrao पलंग फा० । चीता, तें | (A Tiger ), अबुल् श्रर्वाह abul-arvah - श्र० ( रसा० ) पारद । ( Hydrargyruni) अबुल श्रस्कर abul-afar - श्र० जायफल | जातीफल (Nutmeg.) अबुल कासिम जरावी abul-gasimh ravi-o ज़हरावी । Fee-- Zahrávi. अबुल अस्वद abul-asvad- श्र० नवीज़, एक प्रकार का हलका मद्य । बुल कादिम abul-qadino गिटि । (A chameleon.) i Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रबुल. हुक्म अबुल कुत्ताफ abul-guttáf· श्रु० चील ( प्रसिद्ध पक्षी ) | ( A kite.) अबुल् खजोब abul-khazib श्र० मांस, गोश्त । (Flesh, meat. ) ग़ज़ब abul-ghazab अॅ० चीता, तेंदुआ । (A tiger.) अबुल जहीम abul-jahim- ० रीछ, भालू भलुक | ( A beaur. ) श्रबुल् जेब abul-jebo नमक वा नमकीन मछली । अन उज़ारह abul nazzarah-श्रु० ऐनक लगाने वाला | अबुल फ़ज़ील abul fazila श्र० भमोलह (एक पती है) । ( A bird.) gai faga abul-fsrja-binuttaiyyaba-श्रु० इमाम जमानहे लैस सूफ अस्त्र, 'उल्लामहे शहद, अबुलुफ़र्ज दुलाह बिनुत्तैयब | ये इनके नाम थे । यह धार्मिक दृष्टि से ईसाई, और अपने काल के प्रसिद्ध एवं कुशल चिकित्सक थे । यह खुरईस तू अली सीना के समकालीन थे । शेख स्वयं भी इनके वैद्यक सम्बन्धी लेखों की प्रशंसा एवं प्रतिष्टा करते थे । विभिन्न विषयों पर इन्होंने लगभग १० ग्रंथ लिखे हैं | अबुल फवारून abul favakhta- श्र० दर्शान ( एक पक्षी है ) | ( A bird.) अबु बहर abul-bahrasto कर्कट, केकड़ा - हिं० । सर्वान--अ० । ( Crab ) अबुलमलोह abul-malih अ० चिड़ियों ( गौरैयों) में से एकपक्षी है । परन्तु यह उनसे बड़ा और सुन्दर एवं ताजदार होता है । मसोलह, पातर खञ्जन | अबुलमसीह abul-masih श्र० ताजी मछली | ( Fresh fish ) अबुल मुसाफ़िर abul musafira- o पनीर, चीज़ | ( Cheese ) इं० । बुल्सास abul-vasása-o अबुल हुक्म abul-hukma o oose ( Vivera mango ) For Private and Personal Use Only नेवला | Mong Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir অন্যা ४३२ अवैदी अबुव्वा abuvvā-अ. अज्ञात । अबूनस ubunasa-१० एक माप विशेष (= अबुशफीक abu-sha.fiqa-१० गिर्गिट । (A रत्ती)। chainelcon.). | अबूस abusa-अ० नीलाश्रोथा, तूतिया । (1Blue अवशिशफा abushshifi अ० शकर, शर्करा ।। vitriol. ) ___Sugai ( sacchalum ). अबुस aabusa-१० शेर, सिंह । ( ! lion.) अबुलबअ a.basubani-अ० मकड़ी जैसा एक जान- ' श्रयेद्यः abodyah-सं० ० मत्स्य, मछली । वर है, जिसके अधिक पैर होते हैं। जंगली तथा Fish (pisces.) दरियाई भेद से यह दो प्रकार का होता है । अवेध abodha-हिं. वि. [ सं• अविद्ध ] सकलाकन्दरिया। जो छिदा न हो । बिना बेधा । अनविधा । अबस मरून abu-su marna--रु. नाज़ नाम : अबेर मरदेय abermuradeya-फा० अबका एक पक्षी है। देखो-नरज । ___ मुर्दह, (फा० ) का अपभ्रंश है। मुत्राबादल, अबसह ल मसीहा abu-sahla-masihi-० अस्फी . अपना Spongia officinalis अबुसह ल ईसा बिन युहा मसीही । यह जर्जान -ले० । दी स्पाञ्ज (The sponge )-इं। (गोरगान) के निवासी तथा चिकित्सा कला में : प्रवीण थे । अापके ग्रन्ध उच्चकोटि के हैं । कहते । अबेलिश्रा ट्रिफ्लोरा abelia triflora, Dr. हैं कि मसीही चिकित्सा कला में शेख ईस अली | Wall. ले. कमकी । (A belia three. बिन सीना के गुरु थे और खुरासान में वहाँ के ___flowered) राजा के मुख्य चिकित्सक रहे हैं। चालीस वर्ष अवलिया श्रीफ्लावडं n bolia, three flow. की अवस्था में इनकी मृत्यु हुई। अापकी रच ered-इं० कमकी (A belia triflora, नाओं में "किताबुलू माइनह " उत्तर रचना ___Dr. Wall.) अवैज़ .baiza-१० श्वेत, सफेद, उजला । अबुसि सलत abussilata--श्र० चील-हिं०। इसके २ भेद हैं, (.) अबैज़ हकीकी और काइट (hite)-इं०। (२) श्रबैज़ मुशफ्फफ । ह्वाइट White. श्रबुहजाज़ब a buha.jaz.aba--१० गिर्गिट । | || श्रबैज मुशपफफ. abaiza-nushaffafa ) ( A chameleon.) | अबेज़ मजाज़ो abaizza..najari अधुहरून abu-harina-० ऊँट । केमल ... स्वच्छ श्वेत, जिसमें पारपार दिखाई दे, ( Camel. ) इं०। जैसे जल या शोशा । ट्रैन्सपेरेण्ट (Transpaअब हुमरा abu-humara.-१० रतनजोत ।। rent ;-ई.। ( Alkanot.) | अवैज़ हकीको abaiza-haqigi--अ० इसका अवूक abuka-अ० पारद--सं०, हिं० । ( Hy- अर्थ शुद्ध श्वेत, अस्वच्छ श्वेत, दुग्ध के समान _drargyrum) ई० मे. मे०। श्वेत है । पर तिब की परिभाषा में दुग्धके समान अबूतमरून a birtanmalāna-रू० नराज पक्षी श्वेत वर्ण के कारोरह (मूत्र) को कहते हैं। ( A bird. ) देखो-बोल लन्नी। (१) प्रोपेक Opaque अबूती abuti-सं० स्त्री० भैस के गोबर की। (२) काइलस युरिन ( Chylous urine) राख । अबूतील न abutilāna-१० कद्द के समान एक अबेदी a baidi-रू० नासपाती । A pear (Iy. बूटी है। rus communis) For Private and Personal Use Only Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - अब शून अज़ारुफ़ितर अशून abaishana--यु० रातीनज, राल, धूप । अब्ज abju-हिं० संज्ञा पुं. (Resin. ) | अब्जः abjah-सं० पु. अबोलो aboli--म० झिएटी, कोरण्टा, पियाबाँसा । । (१) ( Barringtonia. Acutangula, ( Barlaria prionitis. ) Rob.-ले०। ई० हैं. गा० । (निचुल वृक्ष, अबोला boulo-१० एक माप विशेष (=६ जौ हिज्जल वृक्ष, समुद्रफल, इजल, ईजड़ । (२) =३ रत्ती)। शङ्ख । Conch-ई. । (३) धन्वन्तरि । (The physicians of the gods.) अव् ab-गलछड़ (सुम्बुलुत्तीब ) । ( Nardo ____stachys jataimansi, D.C.) . सर्वत्र मे० जद्विकं । (४) चन्द्रमा | मून ( The moon )-इ० । (१) कपूर । अबअब aabaab-१० नर हिरन ( हरिण)। (Camphor)। (६) एक संख्या । सौ अश्रबह, aabaabah-अ० रन उर्ण । लाल करोड़ ; अरब । (७) अरब के स्थान पर आने उन । ( Red wool.) वाली संख्या । अादे स.लास.ह. abāde-salasah अब्जम abjam-सं० क्ली० अकतारे स लासह agtare-salasahSI -अ० परिमाण त्रय अर्थात् लम्बाई, चौड़ाई | अब्ज abja-हि० संज्ञा पु. गहराई,( उँचाई)। डाइमेन्शा ( Dimen. (१) जल से उत्पन्न वस्तु । (२) पन, कमल tions,-sions)-इं० ! ( The nymphea or lotus ) प. अबक abqa-० गुले निलोफर या भंग। मु.। रा.नि. व..। अबकम abkam -० गुङ्गा, गूंग । अब्जकर्णिका abja-karnika-सं० स्त्रो० कमतअखरस akhrhsa | डम्ब (Dumb)-10।। बीज कोश । कमल का छाता ( Lotus अबकर aabqara-अ० (१) सौसन श्वेत । capsule ) वै० निघ० । (२) मज जोश । अजकेशरः abja-kesharah-सं० पु. पन केशर । कमल की तुरी । च. द०। अबकस aabqasa -यु. एक छोटा जानवर अबक़स aitbgasa Jहै। ( A small | अब्जबाँधव abja-bāndhava-हिं० संज्ञा animal ). पु० [सं०] सूर्य । ( The sun ) अबकह abkah-अ. इज़खिर भेद | See-! अब्जभोगः abja-bhogah-सं० पु. कमल Izkhir ___ कन्द | श० च०। अबकार aabqara-० लम्बा उसाब । | अब्जवोजभृत् abja-vija-bhrit-सं० पु. श्वेत करवीर वृत, सफ़ेद कनेर । वै० निघ० । अबकस aabqusa-यु. एक छोटा जानघर है। (A little animal.) Nerium odorum ( The white var. of-) अबखर abkhara अ० मुख दुर्गन्धि । मुखदौगंध्य अजहस्त abja-hasta-हिं० संत्रा पु. सूर्य । रोगी। ( The sun ). अबखरह abkharah-० (ए०व०), बुखार ! अब्जार abzāra-० यह "बज्र" का बहुवचन (ब०व०)। वाष्प । भाफ । वेपर ( Vap-: है और इसका बहुवचन अबाज़ीर है। (1) our)-इं० । __"ब ब्र" का अर्थ बीज है। (२) एक पौधा है अबखरह, फ़ासिदह, abkharah-fasidah, और (३) मसाला को भी कहते हैं। -अ० दुर्गन्ध धाप । मिश्रास्म (Miasm ) जारुल्फ़ितर abzarul-fitara-०(१) सदाबहार या (२) सदाबहार के बीज । या For Private and Personal Use Only Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सजाहम् अब्ब (३) कोई स्याह, तर और बारीक रेशेदार : अधिः abd hih-सं० पु. । अब्धि, सागर बेल (लता) है। अब्धि a bdhi-हिं० संज्ञा पु.) सिन्धु, समुद्र, अब्जाम् abjihvam-सं० क्ली० बालक,हीवेर, अर्णव । दी श्रोशन ( The Ocean)-इं० । सुगन्धबाला ( Paromia odorata) रत्ना० । (२) सरोवर । ताल । बाला-बं०, मे० । वै० निघ। अब्धि कफः ubdhi.kaphah-सं० ए० । अब्जिनी abjini-सं० स्त्री०, हिं० संज्ञा स्त्री० । अब्धि कफ abdhi-ka phu-हिं0 संज्ञा प.) (१) पद्मिनी, नीलोफर-हिं० । पद्मर झाड़ ! समुद्रफेन । कट्ल निरा श्रोन ( Cuttleब। Nymphea lotus । (२) पद्म- fish bone)-ई । भा० पू०१ भा. ह. समूह । कमल-वन ! (३) पमलता। • व० । (२) समुद्रशोप ( Argyreia ocar abtalá-foto (Artimisia Elo- Speciosa, Steert. ) ___gans, Roxb.) अधिजः abdhijah-सं० पु. अब्द: abda-सं०प० । (१) मुस्तक, अधिज abdhija-हिं० संज्ञा पु. अब्द adda-हिं० संज्ञा पु. ) मुस्ता, मोथा । (१) समुद्र से पैदा हुई वस्तु । (२) समुद्र -हिOI Cyperus rotundus ले० सि. फेन ( Cuttle fish bone)। रत्ना० । यो• ज्वर० किरातादि । च० द. वात ज्व.: (३) (-जौ ), अश्विनीकुमार ( Ashviniचि० । (२) नागरमुस्ता (-स्तक), भद्रमुस्तक | kumaia)। ( ४ ) शंख । (५) चन्द्रमा । (-स्ता)-सं० 1 नागरमाथा-हिO | Cype- ! अधिजा abdhija-सं० स्त्री० सुरा । (Spirirus Pertenuis-ले० । मद० व०। tuous liquor.) हे. च। (३) मेघ आदल । Cloud-ई० । मेदद्विकं । अधिडिण्डीग: abbhi-dindirah- सं० पु. की (४) अभ्रक-हिं०,सं0 Tale-ई। समुद्र केन । ( Cuttle-fish bone.) वै० र०मा०। (५) वर्ष, साल, सम्बत्सर (A निघ। year)। (६) कपूर (Camphor) | अधिफलम् abdhi-phalam-सं० क्ली० (७) आकाश । समुद्रफल, समुद्रजात फल । ( Warring. अब्द.abdaa-रू. दरमुल अवैन । किसी किसी toria acutangula ). के मत से केशर । अब्धिफेनः abdhi-phenah--सं० पु० समुद्रअन्दनादः abda-ladah-सं० पु. (१) फेन । ( Cuttle-fish bone. ) रा० मेघनाद सुप । काँटा नटे-ब01 (See-Megha नि०। nada):-स्त्री०(२) शङ्खिनी । (३) भेकी । तान्दुजल-मह० | See-shankhint. | वै० अब्धमंडुकी alhi-Mandaki-सं० स्त्री० निघ०। 'अधिमंडकी audhi-manduki-हिं संज्ञा स्त्री, अब्दसारः abda-sārah-सं०५० कपूर भेद। मोती को सीपी-हिं० । झिनुक-ब. । मुक्का (A kind of Camphor ). रा०नि०।। स्फोट,शुक्रिका-सं०। मोती सीप मह०। (Pearl अन्ददुल्लु abdahullu-कना० मोथा, मुस्तक oyster) हे.च. ४ का। fool Cyperus Rotundus-o i श्रब्धिवृक्षः abdhi vrikshah-सं० पु. शाखिमूल वृक्ष । काका तोदाली। प्रदान abdāna-१० ( बहु०व० ) बदन (ए. व. )। शरीर-हिं०, सं०। ऑडीज । अब्धिसारः abdhi.sairah-सं० पु. रत्न | (Bodies)-। (A jewel. ) वै० निघः । अब्दुल जिन्न āabdul-jinna-अ. काबूस | अब aabba-१० जल पीना, यूँट जल पीना। रोग। See-kabusa. क्षण क्षण में जल पीना, या एकदम से पानी For Private and Personal Use Only Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir নল पीना, पशयोंके समान मुंह लगाकर जल पीना iolens, H. & A.-ले. बड़ी कंघी मिपिंग ( dipping)-इं। -हिं०, बं०। अम्बल ahbal -३० हाऊर, अभल । (Jumi• भव्युटिलन पॉलिऐण्डम् abutilon poly. porns communis.) ई. मेल्मे । andrum, Schlect.-ले. वेलाई थूथी -ता। मेमो०। अब्बास abhāsa-हि. संज्ञा पु. [१० अब्बास] [वि० श्रव्यापी ] (Mirabilis | अव्युटिलन म्युटिकम् abutilon muticnim, jalapa. ) एक पौधा जो तीन फुट तक ऊँचा _G. Don.-ले. बला भेद । इसका रेशा काम होता है । इसकी पत्तियाँ कुत्ते के कान के तरह आता है । फा० ई०१ भा० । मेमो० । लम्बी और नुकोली होती है। कुछ लोग भुल | श्रब्यून byān-यु० अफ़्यून, अफोम । (Opiसे इसकी मोटी जड़ को चौबचीनी कहते हैं । im.) इसके फूल प्रायः लाल होते हैं पर पीले और To होने पर पीले और अब abra-हिं० संडा पु० [फा० । सं० अभ्र ] सफेद भी मिलते हैं। फूलों के झड़ जाने पर मेघ, बादल | ( Cloud.). उनके स्थान पर काले काले मिर्च के ऐसे बीज | अबक abtak-फा०अभ्रक। ''a.le (fica). पड़ते हैं। देखो-गुल अब्बास । अब्रक abran-१०(१) अभ्रक (Mica) अब्यास āabbas-१० शेर, सिंह । लायन | (२) शनीन दरियाई (एक जानवर है)। ( Lion )-इं० । (२) गले अब्बास (३) कोई फारसी दवा है। (Mirabilis jalapa, lin.) | अवकल्या abra-qalya-यु० पालक । ( Spi nacea oleracea.) अब्बासी abbasi-हिं. संशा स्त्री० [अ० अप्रकाकिया abru-kākiya-यु. मकड़ी का .. अध्यासी ] ( 2 ) जाती, गुले-अब्बासी ( Milabilis jalapa, bin.)। (२) | __ जाला | (A web, spider's web.) अबकुहन bra-kuhna-फा० असा, मुत्रा. मिश्र देश की एक प्रकार की कपास । अब्बे abhe-सिं० राई, राजसषेप । ( Sinapis । बादल । (sponge.) अनगो abrugi ) -सिरोपिमन० कानjuncea.) ई० मे० में। अमाँ abrong , फात-हिं । Curdioअम्मत abbhaksha-हिं० संज्ञा पु० [सं०] sperinum Halicacabum, Linn. पानी का साँप। डेडहा साँप । -लेफा०६०१भा०। अभम bbhram-सं० क्ला० (१)श्रभ्रधातु, अनद abrad-50 अत्यन्त शीतल । (ए०व०) अभ्रक । "Tale (Mica.)। (२) मुस्ता अबारिद (ब० व.)। (-स्तक), मोथा।(Cyperus rotundus.) IS.) | अननो abrani-रू० (१) लोफ. । (२) रा०नि०1 मुश्तकन्द-हि. । (एक वनस्पति है)। अब्युटिलन अविसीनी abutilon avice | अबब āabralh-१० सुमाक ( sumac.)। nng, Garln.-ले० प्रबृतीलन, कह । अनबियह āabra-biyah-अ. सुमाक्रियह । फा० ई०१ मा० । इसके तन्तु काम में आते हैं अनब्यून abrabyān-यु० फायून-१० । अच्युटिलन इण्डिकभू abutilon Indicum, सेहुँइ, थूहर । ( Euphorbium.) G. Don.-ले. कंघी, अतिबला । फा... | अनमुर्दह abra-murdah-फा० अहम्ज, १ भा०1 ई० मे० मे०।। मुत्राबादल I (sponge.) अच्युटिलन एशियाटिकम् abutilon Asia. | अब्रश abrash-अ० वह मनुष्य जिसकी त्वचा पर ___ticum-ले०कंघी, अतिबला । ई. मेलमे। श्वेत चित्तियाँ पड़ी हो । स्पॉटेड (Spotted.) अब्युटिलन ग्रेविप्रोलेन्स abutilon Gra For Private and Personal Use Only Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मनस अनशम अनस a bras-१० श्वित्र रोगी, श्वेत कुष्ठ का | अवता abhi ta-सिं० दर्मनह, (जौहरी जवाइन), रोगी, चितक-एरा । ल्युकोढर्मिक ( Leucori शीह, अफसन्तीनुल बहर । (Artoonisia. dermie.)-इं०। maritima, Linn. ) अबस abyas-यु० गुले सौसन। Sec-sou- ' अन द ahruda फा० सुम्बुल । (Hyacin. san. thus Orientalis. ) अ(प)बस प्रीकेटोरिस a brus precato- अन न ayran-यु० सदाबहार (हयुल पालम)। rius-ले० गुञ्जा-सं०। धुंघची, रत्ती, गुना अन्न नास ३abrānāsa--य. अस, यरवाको । -हिं० | Indian liquorico-६० ! (An unimportant plant ). ई. मे० मे० । फा० ० १ भा०। 1 92 at kabrúní-eter II ( Asphodelus अब्रह्मचर्यकम् abrahma-charyyakam fistulosus, Linu.) -सं० क्ली० मैथुन । क्वाइशन ( Coition), अन युन abriyāma--यु० छड़ीला (उश्नह)। कप्युलेशन (copulation). ई० । त्रिक } ! (Vardostachys jatamansi), अनाज़ abraza-शामी.) सूरिजान को घास | , अन स aabrisa--यु० बरवाको । ( An पश्चिमी भाषा में सदाबहार को कहते हैं। inimportant plant.) अब्रिक एसिड abric-acid-ई० गुञ्जाल । | अन घर abre-ambara-ह. संज्ञा पु. डाक्टर वार्डेन ( Dr. warden) महोदय : दे० अम्बर । ने गुलाबीज द्वारा इसे पृथक् किया था । | अमेज़ abreza--१० शुद्ध स्वर्ण, खालिस सोना । उनके मतानुसार इस तेजाब का फ्रॉम्युला (Pure gold.) ( रासायनिक सूत्र ) इस प्रकार है, प्रदेशम abresham-फा०, अ. श्राबरेशम, यथा-( क२१ उद २४नत्र ४)। इसमें ! ___ क्रम, प्रवरेसम । कोषकारजम्, क.पा (रेशम); कोई प्रभाव नहीं ( inert ) होता है। फॉ० कोपकार, कोशकृत् (रेशमकीट); कौशे ()य ई०१ भा०। ( रेशमी अर्थात् कोषोत्थवस्त्र )-सं० । अग्निन abrin. ई. एक प्रोटीड अवयव जो गुजा रेशम-हिं० । पट -बं० । बाम्बिस मोराइ श्रीज में वर्तमान रहता है । और गुजा के समस्त ( Bombys Mori )--ले । सिल्क पॉड इन्द्रिय व्यापारिक गुणधर्म रखता है। फॉ० (Silk-pol ), रॉ सिल्क कोकून ( Raw इं० १ भा० । यह गुजा का मुख्य प्रभावात्मक silk cocoon ), fa# ##** Silkअंश है। wornm moth, सिल्क Silk-इं.। सेरकोस अभिय्यह. abriyyah-१० इद्रिस्यह, श्रुशंस, serikos-जर० । रेशम की कीडी-द० । रेशम हजाज़ । सबूसहे सर-फा० | सर की वफा , ना-पोटन-बम्ब०, गु० । पटलू-पुची-ता०मह । सर की भूसी-3.। पुडुपुरुग, नर-पुट्टियो-ते। रेशमी-हुल-कना। सीबोरिश्रा (Se borrhea, ', स्कर्फ रेशी-चि कीड-मह०, को० । (Searf), डैण्ड फ ( Dandruff ), अमरेशम वस्तुतः एक कीड़े का घर है, जिसको फ्रफर ( Furfur )-201 वह अपने मुख के लार द्वारा अपने ऊपर बनाता अत्री aabri- १० ओर का वृक्ष जो नहरों के किनारे है। यह कीट शहतूत के वृक्षों पर उनके पत्रों को उगता है। खाकर अपना जीवन निर्वाह करता है। वह कीटजो अनीमून abriimuna--50 ईरसा, पुष्करमूल । बदरी (बर)वृक्ष पर लगाया जाता है उसको लेटिन (Orris root.) में बॉम्बिस माईलेटा (Bombys myle. प्रमज abruja-अ० राग । tta) कहते हैं। रेशम का कोना (रेशम For Private and Personal Use Only Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अब रेशम স্বয়ম कीट गृह) वा अण्डाकार कोप एक प्रकार का श्रावरण है जिसका निर्माण कीट नाकार परिव- । तन काल में करते हैं। लक्षण...यह कोत्रा की शकल में एवं श्वेता- । भायुक पीतवर्ण का और स्वाद रहित होता है। इसके भीतर रेशम का मत कीट होता है । इमलिए इसको कैची ( कर्तरी ) से काट कर और इसके भीतर से मरे हुए कीड़े को निकाल कर ! औषध कार्य में वर्तते हैं। प्रकृति-- प्रथम कक्षा में उष्ण एवं रूक्ष होता है। किसी किसी ने इसको शीतोष्ण (सम प्रक्रति ) लिखा है। हानिकर्ता-इसके बरे वस्त्र का प्रयोग करने से त्वचा पतली हो जाती है। दपन-इसके वस्त्र में रुई के सूत का मिश्रण ! | प्रतिनिधि-जला कर श्रोई हुई मुक्रिका (मोती)। मात्रा-३॥ मा० से १०॥ मा० तक । क्वाथ एवं शीतकाय साधारणतः ७ मा० ज्यवहार किया' जाता है। गुण, कर्म,प्रयोग-अपनी खासियत (सहकारिणी शनि) से यह श्राला दजनक है । इसकी तारल्यकारिता अपनी उप्मा के द्वारा प्रसन्नता , उत्पन्न करने में खासियत की सहायता करती है। फलतः रूह में प्रसार का उदय होता है। और यह अपनी उष्णता एवं रूक्षता के कारण उसकी : रतूबत (संवेद)को अभिशोपित कर लेता है जिससे रूहमें कठोरता एवं शक्रि श्रा जाता है । इससे रूह : में स्वच्छता एवं प्रकाश का उदय होना अावश्यक है। यह बात विशेषकर अबरेशम ख़ाम ( कच्चे : रेशम ) में होती है। क्योंकि पकाते समय इसकी ! मनोल्लासकारिणी शक्ति बहुधा जल भे स्थानां । तरित हो जाती है। इसलिये स्वरल की हुई किसी किसी औषध को उक्र जल में भिगोकर तीषण धूप में रक्खा जाता है जिससे उक्र औषध सम्पूर्ण जल को अभिशोपित करके उससे मनोल्लासकारिणी शक्ति ग्रहण कर लेती है । तदनंतर शुष्क कर प्रयोग में लाई जाती है। इसका वस्त्र धारण करने से परंपरागत जूओं की उत्पत्ति रुक जाती है । क्योंकि अबरेशम अंडा को खराब कर देता है जिससे जू नहीं पैदा होने पातीं। चूंकि यह सरकी तथा गरमी में मतदिल (समप्रकृति ) है इसलिए इसको धारण करने से शरीर उष्ण नहीं होता और इसी कारण अंडे सेए नहीं जा सकते | इसके विपरीत रूई के वस्त्र से शरीर गरम हो जाता है ( और अंडे उस गरमी में भली प्रकार सेए जाते हैं)। (त. नफा) जलाया हुअा अमरेशम प्रायः चक्षु रांगों यथा शानाब एवं ने कंडू में उपयोगी है। अबरेशम मानस, प्राकृतिक एवं प्राणात्मा (रूह नफ सानी, नबीई व है वानी)को प्रसन्नकर्ता, स्मरणशक्रि तथा मेधा को बलवानकर्ता है। चतु रोगों, मूच्र्छा, काटिन्य अर्थात् मेदा की सख्ती और फुफ्फुस को बल प्रदान करता है, चेहरे के वर्ण को निखारता और रोधे का उद्घाटन करता है। प्रकृति को मृदु करता, रतूबता अर्थात् द्रवं. को अभिशोषण करता तथा (दाभिशोषक ) उनमांगें। को बल प्रदान करता है । यह तारल्यताजनक वा द्रावक ( मुलतिफ ) एवं अभिशोषणकर्ता ( मुनरिश ) है । इसका वस्त्र धारण करने से शरीर स्थूल होता और जूएँ नहीं पड़ती। किन्तु, यह त्वचाको कोमल करता है। म० भ०। यह हृदय को बल प्रदान करताएवं भ्रम तथा मूर्छा रोग में विशेषकर लाभप्रद है। . शव रेशम जलाने की विधि-रेशम को बा. रीक कतर कर मिट्टी के बरतन में प्राग पर रक्खे और हिलाते रहें । जब भुनकर पिसने योग्य हो जाए तब उतार लें। देखो तह मीस श्रय रेशम । यह शोणितस्थापक, बल्य तथा संकोचक रूप से अतिरज (रक्रप्रदर), श्वेत प्रदर एवं पुरातन अतिसार में साव को रोकने के लिए व्यवहार किया जाता है। ई० मे० मे० । ६० इ० । यह अन्य संकोचक औषधों के साथ सामान्यतः प्रयोग किया जाता है। और साधारणतः सरदी एवं चक्षु रोग में प्रयुक्त होने वाले मोदकों में पड़ता है। ई० मे० मे। ___ नोट-एलोपैथिक चिकित्सा में इसका औषधीय उपयोग नहीं होता है । For Private and Personal Use Only Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अव रेशम अब्शउलश्रम्राज़ औषध-निर्माण-ख़मीरा, चर्ण, शर्यत, मद्य एवं हृदय को बलप्रद है नथा मूर्छा और भ्रम तथा हृद्य ( मुफ़रिहात ) अर्थात् मनोल्लासकारी को दूर करता है। प्रोषध प्रभुति । परन्तु अधिकतर निम्नलिखित अन स्टोल brastol. ई. (Asaprol ) यह ख मारे और शर्बत श्रादि में प्रयुक्र होता है। धूसर वर्ण का एक चूर्ण है जो जल तथा मद्यसार (१) खमीरा अव रेशम सादा-योग एव: (alcohol) में सरलतापूर्वक विलीन हो जाता निर्माण-विधि-कतरा हुआ अबरेशम २ तो०, । है । विस्तार के लिए देखो - मैफील ( Naऊद ग़र्की ४ मा०, बालछड, पोस्त तुरंज, मस्तगी : phthol.) 1 लौंग, एला, तेजपत्र प्रत्येक ५ मा०, श्वेतचन्दन । अब्रोङ्ग abrong-यु श्रनगी । किसी किसो के ६ मा०, अरेशम सहित सम्पूर्ण औषध को कपड़ा। मतानुसार कर्णस्फोटा (सं०), कनफोड़ी (हिं.) में बाँध कर अळ गाव जुबान, गुलाब, पाय सेब और डाइमोंक महोदय लेखक “फार्माको प्रैफिया शीरी, प्राब बिहीं शिरी, श्राब अनार शीलं प्रत्येक इण्डिका" के मतानुसार "चित्र-तर डुल"--सं० १४ तो० तथा वर्षा जल २ सेर में काथ करें। (spotted grlin) अथवा लेटिन एम्बे. जब पानी जल जाए तब एक पाव मधु और ३ । लिग्रा रीबीस ( Embolia Ribes) का पाव श्वेत शर्करा मिलाकर खमीरा की दाश्नी ! बीज है । फा० ० १ भा० । प्रस्तुत कर लें। अम्रोमा ऑगस्टा abroma augusta-ले० मात्रा व सेवन-विधि-इसमें से ५ मा०, . __ोलक तम्बोल-बम्ब० । उलट्कम्बल, पोलट अळगाव जुबान १२ तो० वा अन्य उचित अनु. कम्बेल-ब० । पीवरी, द्रमोत्पल-सं० । पान के साथ सेवन करें । गुण-हृदय तथा डेविल्स काटन Devil's cotton-ई० । मस्तिष्क को बलवान बनाता और दृष्टि शक्ति के फा० इ०१ भा० । इ० मे० मे० । लिए उपयोगी है। इसके प्रयोग से मूर्छा, दिल | अब्रोमा फैटयुभोज़म् abroma Fastin . की धड़कन और भ्रम श्रादि दूर होते हैं। Osum-ले. उलटकम्बल-ब। Devil's (२) खमीरा अबरेशम हकीम इशंदवाला। cotton. । ई० मे० मे०।। (३) खमीरा अबरेशम शीरा उन्नाबवाला । | अल abla-फा० कापाल अगा, इलायची । (४) खमीरा अबरेशम ऊद म स्तगीवाला। (Cardamuim.) है० गा० । इनके तथा अन्य खमीराओं के लिए देखो- अब्ल āabl-अ० (१) मांसल भुज, स्थूल भुजा। खमोरा । (२) वह मनुष्य जिसके डण्ड पुष्ट हो। (५) शबत अब रेशम सादा-योग एवं प्रब्लम् ablam हिं० सं० की. मक्खन सेम | निर्माण-विधि-कतरा हुआ अब्रेशम प्राध ( Dolichos Gladiatus.)-ले। सेर, श्वेतचन्दन, बालछड़ प्रत्येक मा०, मस्तगी है. गा० । लौंग, छोटी इलायची, तेजपत्र, ऊ द हिन्दी प्रत्येक | अब्लह aalah-अ० मुर्ख, सीधा प्रादमी, भोला. ६॥ मा०, अर्क गाव जुबान, अर्क वेदमुश्क, अर्क भाला मनुष्य । ईडियट ( Idiot)-ई। गुलाब प्रत्येक १-१ सेर, प्राब सेब, प्राब बिही, अग्ला aabla-पथरी, श्वेत अश्मकण, सुफ़ेद भाव अनार, श्राब अमरूद, सफेद बरा, मधु १.१ संगरेज़े। सेर । यथाविधि शर्बत प्रस्तुत करें। | अशउलझम्राज़ abshaaul-amraz-अ. मात्रा व सेवन-विधि-इसमें से २ तो० अत्यन्त बुरा एवं कठिन रोग । मैलिग्नैण्ट शर्बत अर्क गाव जुबान ७ तो० और अर्क बेदमुश्क डिजीज़ ( Malignant Disease. ) १ तो० के साथ सेवन करें। गुण-मस्तिष्क -इं०। For Private and Personal Use Only Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अब्स अभयविरका अम्स iabs-० (१) कुचरित्र, दुराचरण, है। योग-(१)हिंगुल, त्रिकटु विष, जीरा, सुहागा, कुव्यवहार । (२) शाबानक । पारद, गन्धक, अभ्रक भस्म, शंख भस्म समभाग अब्सक्युन absalyān-6० असन्तन । और अहि फेन सर्वतुल्य मिलाकर नीबू के रस से (Absinthiun. ) मईन करें। मात्रा-१ रत्ती । अनुपानअन्सार absa1-अ. ( 40 व. ), बसर | जोरा का चूर्ण और शहद । र. यो. सा० । (२) (ए०व०)। दृष्टि, निगाह, नज़र । साइट ! गंधक और अभ्रक इनको समभाग लेकर इन सब (Sight), विज़न ( Vision)-ई । के बराबर अफीम शुद्ध लेवें। और इन सबको श्रन्सेसरूट abscess-100t-इ० पॉलिमोनियम ! कागजी नीयू के रस में घोट कर गुजा प्रमाण रेप टेंस ( Polemonium Rep tans.) गोलो बनाएँ । मात्रा-१ गोली । अनुपान जीरा का चूर्ण और मधु । -ले०। अव्हर abhal-अ० अवरती । महाधमनी । (३) शिशरफ, मीठातेलिया, सोंठ, मिर्च, एवार्टा (Aorta)-ई। पीपर, जोरा, भूना सोहागा, अभ्रक भस्म इन्हें अम्हाम abhārn-१० अंगुष्ट, अँगूगा । इसका समान भाग ले, शुद्ध पारा भाग, सर्व तुल्य बहुवचन "प्रवाहम" है । थम (Thumb.) ब्राह्मी (मण्ड कपर्णी) ले, पुनः चूर्ण कर नीबू के रस में खरल कर १ या २ दो रसी प्रमाण अमत abhakta-हिंवि० [सं०] (१) भकि गोलियाँ बनाएँ, जीरा शहद के साथ देने से रहित । शर। (२) अरुचि (Want of सन्निपातातिसार, ज्वरातिसार, बिना ज्वर का desris.) - अतिसार तथा सर्व प्रकार के प्रतिसार, संग्रहणी, श्रमकच्छन्द:abhakta-chclihandah-सं० का नाश होता हैं । भैष० २० अतिसार. चि. पु. अरोचक भेद । जिसमें अम्न में रुचि न अभया abhaya-सं० (हि. संज्ञा) स्त्री० (१) हो। See--ATochaka. (Terminalia chebula, Rets)हरीअभग्न ubhagna-हिं० वि० [सं०] अखंड । । तकीविशेप । एक प्रकारकी हरीतकी वा हड़ जिसमें जो खंडित न हो । समूचा । पाँच रेखाएँ होती है। हरड़ । प० मु०, रा०नि० अभञ्जन abhanjana-हिं० वि० [सं०] व०११; भा०पू०१भा०: वा. सु०३५० जिसका भंजन न हो सके । अटूट । श्रखंड | वचादि वाच० द. कफ ज्व.चि. प्रामल. संज्ञा पु. द्रव वा तरल पदार्थ जिनके टुकड़े | क्यादि । (२) श्वेत निमुण्डी । (३) मञ्जिष्ठा । नहीं हो सकते, जैसे जल, तैल आदि । (४) जयन्ती । (५) जया, भंग । (६) मणाल । अभयम् abhayam-सं० क्ली० । उशीर, (७) काजिक | (B) काञ्चन वृक्ष द्वय 1 रा० अभय abhaya-हिं० संज्ञा पु. खस, बी नि० २०१७ । रणमूल (Andropogon muricatus.) अभयावटकः abhayāvatakah--सं० पु. रा०नि० २० १२, मद०व०३, अम, भैष. हड़ ४ तो०, हड़ की छाल ४ तोला कुष्ठचि० कन्दर्पसार तैल । श्रामला ४ तोला, बहेदा ४ तो०, त्रिकुटा ४ तो०, अभयदा abhayadi-सं० स्त्री. (Phyllan- अजमोद, चव्य, चित्रक, वायबिडंग, अम्लघेतस, thus Niruri, Linn) भूम्यामजकी बच, सेंधालवण प्रत्येक दो दो तो०, तेजपात अँई प्रामला । भूम प्रांवली-मं० । वै० इलायची १-१ तो०, दालचीनी । तो० ले महीन निघः । चूर्ण बना इसमें , तो पुराना गुड़ मिला अभयनृसिंह रसः abhayanrisinh-rasah एक तो० की गोलियाँ बनाएँ, गुण-इसके सेवन -सं० पु यह रस अतिसार तथा ग्रहणीमें हित | से प्लीहोदर, अर्श, गुल्म, उदररोग, पाण्डु, कामला, For Private and Personal Use Only Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रभयादि गुग्गुलः मन्दाग्नि इन सबका नाश होता है । बङ्ग० से० सं० प्रीहोदर चि० । श्रमयादि गुग्गुलः abhayádigngguluh -सं० पु० हड़, श्रामला, मुनक्का, शतावर, ब्रह्मदण्डी, अनन्तमूल दोनों, मजी, हल्दी, दारु हल्दी, बच इन्हें समान भाग ले, श्रा मुट्टी गुगुल लेकर एक वस्त्र में बांध २४ शेर पानी में पकाएँ, जब चौथाई शेष रहे उतारें, पुनः उस गुगुल का काढ़ा के जल में पकाएँ, जत्र सिद्ध हो । ले तब उसमें मुरली, मुलहड़ी, मुरामांसी, दालचीनी, इलायची, पत्रज, केशर, वायबिटङ्ग, लवंग, जवासा, निसोथ, त्रायमाण, सांठ, मिर्च, पीपर, इन सत्र का बारीक चूर्ण चार २ तोले उक्त गुगुल में छोड़कर अच्छी तरह मेलन कर रक्खें । इसे शहद के साथ सेवन करने से स्नायविक तथा मस्तिष्क सम्बन्धी प्रत्येक बीमारियाँ होती हैं । दूर भैय० र० परिशिष्टम् श्रभयादिगुटी abhayádigutá [सं० स्त्री० आमवात में प्रयुक्त होने वाला योग । वृ० नि० | र० भा० ५ श्रमवा० चि०। श्रभयादि चतुस्सम वढी abhayādi-chatussama-vati--सं० स्त्री० हड़, सोंठ, मोथा, गुड़, प्रत्येक समान भाग ले गुटिका बनाएँ । यह त्रिदोष, श्राभातिसार, अफरा, विबन्ध, हैजा, कामला, ओर रुचि को नष्ट करती तथा श्रग्नि को शीघ्र दीप्त करती है । वृ० यो० त० ॥ श्रभयादिचूर्ण abhayadichurna सं० पु० हड़, अतीस, हींग, सोंचल, त्रिकुटा, इनको समान भाग ले चूर्ण बनाएँ । गुण-कफज श्रतिसार नाशक है । वृ० नि०र० । श्रभयादि क्वाथः abhaya di kvathal - सं० पुं० हड़, अमला, चित्रक और पीपल इनका क्वाथ पाचक भेदक और कफ ज्वर नाशक हैं । वृ० नि० र० । श्रभयादिमोद ४४० abhayádi-modakah - सं० पु० हड़, पीपल, पीपलामूल, मिर्च, सोंठ, तज, पन्नज, मोथा, विडंग, श्रामला, प्रत्येक १- १ कप लें; दन्ती ३ कर्प, मिश्री ६ कर्ष, निशोथ २ पल, इनका चूर्ण करके शहद से Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रभयारिष्टः मोदक प्रस्तुत करें। मात्रा - १० मा० । गुणशीतल जल से खाने से उत्तम विरेचन होता है और इसके प्रभाव से पांडु, विष, दुर्बलता, जंघा के रोग, शिरोरोग, मुत्रकृच्छ, अर्श, भगंदर, पथरी प्रमेह, कुछ दाह, शांध औरउदर रोग नष्ट होते हैं । यां० त्रि० । यो. • त० विरेचन० अ० । सु० सं० वि० प्र० । वङ्गसेन सं० । शा० प्र० सं० उ० खं० श्र० ४ श्रमयादियोग abhayali-yogah सं० पु० गुल्म रोग में प्रयुक्र योग । वृ० नि० र० । भा० गु० चि० । श्रभयारिष्टः abhayárishtah-सं० पुं० (१) हड़ १ तुला ( ५ सेर ) मुनक्का ( दाख) श्राधा तुला ( २॥ सेर ), वायविडंग, महुआ पुष्प, चालीस चालीस तोले ले, ४ द्रोण ( ६४ सेर ) जल में पकाएँ । जब एक द्रोण शेष रहे तो पवित्र रस को ठंडा कर इसमें गुड़ १ तुला ( ५ सेर ) छोड़ । पुनः गोखरू, निशोथ, धनियाँ, धव पुष्प, इन्द्रायण, चन्य, सौंफ, सोंठ, जमालगोटा ( दन्ती ), मोचरस, प्रत्येक ग्राम भाउ तोला ले एक बड़े मिट्टी के पात्र में चूर्ण कर छोड़ मुख बंद कर एक मास पर्यन्त रख छोड़े' जब रस शुद्ध हो छान कर रक्खें। इसे बल तथा श्रग्नि का विचार करके सेवन करे तो बवासीर, आठ प्रकार के उदर रोग, मूत्र तथा मल की रुकावट, इन्हें दूर कर श्रग्नि की वृद्धि करे । (मैत्र० २० श्रशं० चि०) (२) हड़ ३२ तो०, आमला ६४ तो०, कैथ की छाल ४० तो० गंडूभाकी नड़ (इंद्रायण मूल) २० तो०, वायविडंग, पीपल, लोध, मिर्च, एलुवा इन्हें आठ आठ तो० लेकर ४०३६ तो० जल में पकाएँ, जब १०२४ तो० जल शेष रहे तो उसे वस्त्र से छान लें और उसमें २०० तो० गुड़ डाल कर १५ दिन तक घृत के पात्र में रखें । मात्रा - ४ तो० । प्रयोग - इसे उचित मात्रा में सेवन करने से गुदा के मस्से नष्ट हो जाते हैं । और यह संग्रहणी, पांडु, तिल्ली, गुल्म, उदर रोग, कुष्ठ, सूजन, श्ररुचि को दूर करता है तथा बल वण' For Private and Personal Use Only Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभया-लवण अभि और अग्निकी वृद्धि करता है । इसे कामला,,सुफेद ___का फल लें, और सेहुँड के दूध के साथ खरल कर कुष्ठ, कृमी, ग्रंथि, अर्बुद,क्षुद्ररोग, ज्वर, राजयक्ष्मा पकी हुई मटर प्रमाण गोलियां बनाएँ, पश्चात् में भी दें। यंगसेन सं० प्रशंचि०। वा० । २ गोली और एक हड़ मिलाके चावलों के पानी भर्शचि०। से महीन पीस कल्क बना खाएँ, तो उत्तम नोट-वाग्भट्ट जी ने इसमें १ प्रस्थ प्रामले जुलाब हो, इसके ऊपर गर्म जल पीने से तब तक दस्त प्राते रहेंगे जब तक कि शीतल जल न पिया का रस गुड़ डालने के समय छोड़ने को कहा है। जाए । इससे जीण ज्यर, तिल्ली, पाठ प्रकार के उदररोग, बातोदर और हर प्रकार के अजीण, अभयालवणम् abhaya-lavanam-सं० क्ली कामला, पाण्डुरोग, कुम्भ कामला इन रोगों को पारिभद्र ( नीम), पलास, सफेद मदार, नष्ट करती है। भैष० र० उदर रो. चि० । सेहुक, चिचिटा, चित्रक दोनों, वरना (वरुण), अरनी, लाल मदार, गोखरू, छोटी कटेली, अभयाविरेचन abhaya-virechana--सं० बड़ी कटेली, करज, श्वेत अनन्तमूल, कई पु० हड़, पीपल, समान भाग ले चूर्ण कर गरम तरोई, पुनर्नवा, इनका जड़, पत्ते, डालियाँ, पानी के साथ खाने से अल्प २ वार २ होने समेत लेकर ऊखल में कूट के पुनः तिल की नाल वाला प्रवल और शूल युक अतिसार नष्ट लेकर अग्नि में भस्म करें, पुनः नये पात्र में होता है । सु० सं० उ० प्र०५०। १०२४ तोले पानी डाल उसमें भस्म डालकर | अभयाष्टकम् abhayāshtakam-सं० क्ली० पकाएँ जब चौथाई शेष रहे तब खार के विधि अष्ट हरीतकी भक्षण । पहिले दो खाएँ फिर दो से खार तैयार करें। यही हार ६४ तो० नमक और खाएँ । इसी प्रकार दो दो हरड़ करके ६४ तोह ३२ तो इनके बराबर पानी और हर खाकर सो रहें। इसी प्रकार ३ सप्ताह रात्रि गोमत्र मिला के मंद मंद अग्निसे पकाएँ, में अभयाष्टक का प्रयोग करनेसे पुनः यौवन को गादा हो ले तब जीरा, सोंठ, मिर्च, पीपल, हींग, प्राप्ति होती है। अजवाइन, पुष्कर मूल, कचूर, इन्हें दो दो तोले अभरख abharatkha-म०, गु०अभ्रक, अबरख । ले चूण कर उक्र घनीभूत औषध में मिलाएँ, तो (fica.)। यह अभया लवण तैयार हो अग्नि बल को , अभल abhal-अ० हुवेर, हाऊबेर । हपुशा-सं० बिचार सेवन करने से अनेक प्रकार के उदर , (Juniperus.)। ( कोष्टरोग), यकृत, प्लीहा, उदर रोग, अफरा, अक्षत abhaksha-हि.वि. देखो-अभक्ष्य । गुल्म, अप्लीला, मन्दाग्नि, शिरोरोग, हृदरोग, अभयbhakshvaft वि० [सं०1 शर्करा, पथरी रोग, इन्हें उचित अनुपान से दूर . अखाद्य । अभोज्य । जो खाने के योग्य न हो। करता है । भैष २० प्लीह. यकृत. चिकि० . °, अभायः abhavah-सं० (हिं०) पु. १३) असत्व व' से० सं०। अनस्तित्व, श्रसत्ता, अविद्यमानता ( Nonअभयादिलेहः abhayādile hah सं००, हड़, existence, non-entity. )। (२) पोपल, दाख, मिश्री, धमासा, इनका मधु के | मरण, नाश, चंस ( Annihilation, साथ अवलेह बना चाटने से मूर्छा, कफ, अम्ल- . death)। मे० वत्रिकं । एक उपसर्ग जो पित्त, तथा कण्ठ और हृदय की दाह नष्ट होती है। शब्दों में लगकर उनमें इन अर्थों की विशेषता यो० र. श्राग्लपि०चि.।। करता है। अभयावटी abhaya-vati--सं० स्त्री० हड़, ! अभि abhi-हिं० [सं०] ( उपसर्ग) चौफेरा, आगे, मिर्च, पीपल, भूना सुहागा इन्हें समान , चिह्न, घर्षण, अभिलाष "अनु" के विपरीतभाग लें, इन सब के चूर्ण के बराबर धतूरे | इसका उपयोग होता है । Before, For Private and Personal Use Only Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिक अभितापः against, with respect to. | अभिघार abhi-gharti-हिं० संज्ञा पु. (१) सामने, उ०-अभ्युत्थान | अभ्यागत । | अभिघार: abhi-ghārah-सं० पु. (२) बुरा, उ०-अभियुक्र । (१)(Ghee, clarified botter.) (३) इन्छा उ०-अभिलाषा । धत, घी । तूप-म० । रा०नि०व० १५ । (२) (४) समीप, उ०-अभिसारिका । गी से छौंकना व बघारना । (५) बारंबार, अच्छी तरह, उ०-अभ्यास । (३) सींचना, छिड़कना । (६) दूर, उ०-अभिहरण । अभिचारः abhi-charah-सं० (७) ऊपर, उ०-अभ्युदय । अभिचार abhi-chara-हिं. संज्ञा पु' । अभिक abhika-हिं० वि० [सं०] कामुक । | (An incantation to destroy.) कामी। विषयी। हिंसाकर्म, मारणमन्त्र-विशेष । मन्त्र श्रादि द्वास अभिगमन abhi-gamuna-हिं. संज्ञा पुं० | मारण प्रादि प्रयोग करना । किसी शत्रु की की [सं०] सहवास, संभोगं । हुई कृत्य आदि का उत्पन्न करना, किसी प्रकार अभिगामी abhi-gami-हिं० वि० [सं०] का अपघात, जादू से D चलाने का नाम अभि. [स्त्री० अभिगामिनी ] सहवास वा संभोग करने | चार है। भा० म० २ श्रागन्तुक ज्वर लक्षण बाला उ०-ऋतुकालाभिगामी । मा०नि० ज्व० । मंत्र आदि द्वारा उत्पन्न पीड़ा अभिघातः abhi-ghatah-सं० पुं० ।। र०मा०। यन्त्र मन्ध आदि श्रवपीड़न, “अभिअभिघात abhi-ghata-हिं० संज्ञा पु० भाराभिशापोत्थैः ।" रत्ना०। (१)(Woundl or blow) अभियात ! अभिचार abhichāra-सं० पू० तंत्र के प्रयोग हि. पु। श्राघात, चोट पहुँचना, ताड़न, दाँत । ___ जो छः प्रकार के होते हैं-मारण, मोहन, स्तंभन जो छः प्रकार के होते से काटना । प्रहार, मार। शत्र, मुक्का, ( चूँ सा) विद्वेषण, उच्चाटन और घशीकरण ।। और लाठी प्रादि की चोट का नाम अभिघात है। अभिचारक abhcharaka-हि संज्ञा पु. भा०म० २ श्रागन्तुक ज्वर लक्षण । "अभिघाता [सं०] अंत्र मंत्र द्वारा मारण, उच्च.चन प्रादि भिषणाभ्याम ।" (२) पुरुष की बाई और कर्म वि० यंत्र मंत्र द्वारा मारण उच्चाटन आदि और स्त्री की दाहिनी श्रोर का मसा । करने वाला। अभिघात ज्वरः abhi-ghata-jvarah-सं० अभिचार ज्यरः abhi.chāra jvarah-सं० go ( Acquired or Accidental To (Fever producerly incanta fever.) आघात जन्य प्रागन्तुक जबर अर्थात् tions) विपरीत मंत्र जपने से, लोहे के वा तलवार, छुरा, मुक्का, लाटी श्री शम्न आदि के से मारणार्थ सर्पपादिक होस वा कृत्य के प्रयोग लगने से उत्पन्न ज्वर । "अभिघाताभिचाराभ्यां करने से जो स्वर प्रकट होता है, उसे "अभिचार श्रागन्तुर्जायते ।" मा० नि. ( भाग० )। ज्वर" कहते हैं। ज्वर । श्राधात से प्रकुपित हुई वायु रत को दृवित | अभिचारी abhi-chari-हिं० वि० [सं० अभिकर व्यथा, शोफ वैवर्य और वेदना सहित ज्वर चारिन ] [ स्त्री. अभिचारिणी ] यंत्र मंत्र प्रादि को करती है। च०। का प्रमोग करने वाला। उक्र ज्वरों में दोष ज्वर के उत्पादक नहीं होते, लक्षण-इससे तथा अभिशाप से उत्पन्न ज्वर अपितु वे पश्च त् को उनके परिणाम स्वरूप होते में मोह और प्यास होती है । मा० नि0 ज्व०। हैं । सारांरा यह कि सर्व प्रथम प्राघात के कारण अभिताप: abhi-tāpah-सं० पु. (१) सज्वर उत्पन्न हो जाता है। फिर उस से दोपों का र्वाङ्ग ताप ( General heat ) । (२) प्रकोप होता है। अश्वज्वर ( forse fever)। गज० वै० । For Private and Personal Use Only Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिद्रव जन अभिन्यास हरो रसः अभिनव जन abhi-drava-jana-हि. ए. अभिन्यासः, कः abhinyasah,-kah-सं. उदजन । हाइड्रोजन ( Hyrodgan) ई० । . सन्निपात ज्वर का एक भेद जिसमें वातादि अभिव हरिक abhi-drava-hatika-ह. तीनों दोष कुपित होकर छाती में रस के बहने पुहाइड्रो-कोरिका अम्ल,लवणारल, उदहरिकाम्ल, वाली नाड़ियों के छिद्रों में गमन करते हुए तथा नमक का तेज़ाद । Hyorochloric Acil. अपक्व रस से मिले हुए और अत्यन्त बढ़े हुए अभिवानbhilhāna-हिं० संज्ञा पु० : [सं०] [वि० अभिधायक, अभिधर्य] (1) आपस में विशेष गुथे हुए चतु, कण, नासा, नाम, संज्ञा । ( २ ) शब्द कोष शब्दार्थ ग्रन्थ ।। जिह्वा, त्वचा तथा मन में जाकर अति भयकर (A name, i vocabulary, a. तथा कटिन अभिन्यास उबर को उत्पन्न करते हैं। dictionary.)। उक स्वर में रोगी के कानों से सुनना, नेत्रों से अभिनय abhi-nava-हि. वि० [सं०] नबीन : दीखना बन्द हो जाता है और किसी प्रकार की नया, टटका, नव्य, नूतन : रीसेण्ट( recent) चेष्टा (कर चरण प्रभृति चालन), रूप का न्यु (101) (२) ताज़ा । ( Fresh)। । दीखना, दृष्टि ज्ञान, गंध ज्ञान, शब्द शान मालूम अभिनव कामदेवो रसः abhinva-kāma-1 नहीं होता तथा रोगी बार बार शिर को इधर उधर पटकता है और अन्न की इच्छा नहीं करता। devo.rasah-सं० पुपारा, गन्धक १ तो०, . समानभागमें लेकर रक कमल पुष्प रसमें तीन दिन । अप्रगट शब्द का बोलना, देह में मूई बिधने की तक भावित करें। फिर ४ मा० गन्धक मिलाकर सी पीड़ा होना और बार बार करवट लेना, बहुत कम बोलना,ये लसूण होते हैं। यह अभिन्यास पूर्ववत् उक कमल और शंखिनी के रस से ज्वर विशेष कर असाध्य होता है और कोई एक पृथक् दृथक् भावना देवें, फिर शुरुक कर पातशी । अाध गेगी यथावत चिकित्सा होने पर बच भी शीशी में भरकर बालुका यंत्र द्वारा ३ प्रहर पकावें जाता है उसको अभिन्यास सन्निपात ज्वर कहते मात्रा-५ रत्ती । यह पित्त जनक प्रत्येक रोगों को । हैं। मा०नि० ज्व०। दूर करता है । र० यो० सा०। जिस सन्निपात ज्वर में सब दोष अत्यन्त अभिनवकामेश्वरः abhi-nava-ka mehva बलवान और तीव्र हों, अत्यन्त बेहोशी हो, rah--सं० ए० वाजीकरण औषध विशेष ।। निश्चेष्टता हो, अत्यन्त विकलता तथा श्वास हो, देखो-अभिनव कामदेवो रसः । अधिकतर मूकता (गूं गापन ) हो, दाह हो, अभिनि abhini-ते. अफीम (Opium.)। मुख चिकना हो, अग्नि मन्द और बल की हानि स० फा०ई० । ई० मे० मे। हो उसे वैद्यों ने “अभिन्यास" कहा है। अभिनिवेश abhinivesh-हिं० संज्ञा पु. भा० म० ख० २ सन्निपा ज्वर० । देखो[सं०] [वि० अभिनिवेशित, अभिनिविष्ट ] । सन्निपात। (१) प्रवेश । (२) मनोयोग । लीनता । अभिन्नपट abhinna-puar-हिं. संशा पु. (३) प्रणिधान । मृत्यु शंका । गति : पैठ। नया पत्ता। अभिनी abhini-द. अफोम (Opium.) अभिन्यास हरो रसः abhinyāsa-haro. अभिन्नाशयः abhinnashayah--सं० पु rasah-हिं• संज्ञा पु. शुद्ध पारा, शुद्ध शरीर के भीतरी कोठों का शुद्ध रूप अर्थात् जो | गंधक, लौह भस्म, चांदी भस्म इन्हें सम भाग विदीर्ण न हुए हाँ । वा० उत्तर० अ० २६ । । लेकर, हुरहुर, सम्हालू, तुलसी, विष्णुकान्ता, For Private and Personal Use Only Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 98 श्रभिपीड़नम् श्रग्निपर्णी, अदरख, चित्रक, भांग, धरनी, मकोय इनके रसों में तीन दिन पर्यंत खरल करें, पुन: पञ्चपित्त (नॉर, भैंस, बकरी, सुर और राहू | अमिरोग abhiroga-० संज्ञा पुं० [सं०] मछली ) की भावना देवें, तदनन्तर बालुकायंत्र चौपायों का एक रोग जिसमें जीभ में कीड़े पड़ में अन् पा में बन्द कर एक दिन तक रचाएँ, जाते हैं । जब स्वांग शीतल हो बारीक चूर्ण कर रखें । मात्रा-१ से ८ रत्ती । गुण- अदरख के रसके साथ दें और निगु एडी, दशमूल और त्रिकुटा का क्वाथ काली मिर्च मिलाकर पिलाएँ तो ग्रिदोषज ज्वरों को दूर करे | पथ्य - बकरी का दूध और रंगका यूप दें । वृ० रस० रा० सु० । श्रभिपीड़नम् abhipidanam-सं० लो० श्रभिचार ( An incantation to destroy. ) श्रभिमन्थः, -मन्युः abhimanthah, manyuh - सं० पु० नेत्ररोग | आई डिज़ीज़ ( Eye disease )। त्रिकः० | देखो - अधिमन्थ । अभिमर्दः abhimardah - सं० पुं० श्रवमई, पीड़न, पीड़ा ( Pain ) । अभिमर्दन abhimardana हिं० संघ. पुं० [सं०] ( १ ) पीसना | चूरचूर करना । (२) घस्सा | रगड़ | युद्ध | अभिमर्षणम् abhi marshanam - सं० क्ली० (१) यस पिशाच श्रादि भूतकृत पीड़ा । ० मा० । ( २ ) मनन, चिन्तन ( ३ ) परस्त्री गमन, परदारगामी । अभिमानितम् abhimánitam-खं० मैथुन, स्त्री संग | काइशन ( Coition ), | कप्युलेशन ( Copulation ) । त्रिका० । अभिमुख abhimukha - हिं० क्रि० वि० [सं०] सम्मुख, धागे, सामने, समक्ष ( Present, facing.) क्र. ० श्रभित्रि abhimukha - हिं० संज्ञा श्री० [ सं० ] श्रत्यन्त रुचि । पसन्द । प्रवृत्ति । तुष्टि, भलाई, स्वाद, चाह, रसज्ञान ( 'Taste. ) श्रभिरूपः abhirópah-सं० पुं० ] ( १ श्रभिरूप abhirupa दि० वि० । बुध, पंडित, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रभिशोचनम् विद्वान | ( २ ) रम्य, रमणीय, मनोहर, सुन्दर (३) कामदेव | मे० पचतुष्कं । मिल कपित्थः abhila kapitthah-सं० पु० ग्राम्रातक वृत्त, श्रमबाड़ा, श्रमहा (Spon dias mangifora.) श्रभितविक रोग abhilashika roga-हि० संज्ञा पुं० [सं०] वातव्याधि के चौरासी भेदों में से एक । श्रभिलात्रः abhiilávah - सं० पु० छेद, लो ( Hole, pore. ) । श्रम० । अभिलाषः abhiláshah-सं० पु० अभिलाष abhilasha - हिं० संज्ञा पुं० [वि० अभिलाषिक, अभिलाषी, अभिलाषुक, अभिलाषित ] । ( १ ) रमणेच्छा, प्रियसे मिलने की इच्छा । वियोग | रन० २० । ( २ ) आकाँक्षा, कामना, इच्छा, स्पृहा ( Desire. ) मनोरथ, चाह । अभिव्यापक abhivyapaka-हिं०वि० [सं०] [स्त्री० अभिव्यापिका ] पूर्ण रूप से फैलनेवाला ( Diffusible. ) श्रभिशप्त abhishapt - हिं० वि० [सं० ] शापित | जिसे शाप दिया गया हो । अभिशापित abhishapita - हिं० वि० [सं० ] देखो - श्रभिशप्त | अभिशस्तिपाः abhishastipáh सं० निंदनीय पाप मय रोगों से रक्षा करने वाला । श्रथवं० । सू० ७ । १४ । का०| अभिशाप: abhishápah - सं० पु० अभिशाप abhishapa - हिं० संज्ञा पुं० [वि० अभिशापित, श्रभिशप्त ] शाप, श्रनिष्ट प्रार्थना, बद दुश्रा, ब्राह्मण, गुरु, वृद्ध और सिद्ध यादि के शाप का नाम " श्रभिशाप" है । भा० म० २ | मा० नि० ज्व० । अभिशोचनम् abhisho-chanam- देखो For Private and Personal Use Only Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिषङ्गः अभिसारना । अभिपङ्गः ॥bhi-shanaayसं० ० स्नान। जल से सिज्जन । छिड़काव (Bathing, अभिपंग abhis hanya-हि. संज्ञा पु' sprinkling.) (1) काम, शोक, भथ, ग्रोध, और भूतादिका अभियन्द abhishyanda-हिं. पु. । के प्रावेरा होने का नाम अभिपंग है । भा० म. अभिष्यन्दः abhi-shyundah-सं० पु. २ श्रागन्तुज्य लक्षण । (२) भूत, विष, श्रादि सम्बन्ध । यक्ष पिशाच ग्रादि द्वारा उत्पन्न नेत्र रोग भेद । (१) नेत्रशूल शेग । आँख बानी । पीड़ा । २० मा ! (३) दृढ़ मिलाप प्रालिगन चतु पीड़ा । Ophthalmia, conjine(४) पाकिाश, निन्दा, कोशना । (५) पराजय । tivitis ) आँख का एक रोग जिसमें सूई छेदने आभिप ज्वरः abhishang-jvarah-सं० के समान पीड़ा और किरकिराहट होती है। ऑरखें लाल होती हैं। और उनसे पानी और पु० ज्वर विशेष जो भृत श्रादि के श्रावेरा से होता है। यह काम श्रादि जन्य भेद से ६ प्रकार कीचड़ बहता है । यात प्रादि भेद से यह चार का होता है । शाङ्ग । भा०म०२ श्रागन्तुक प्रकार का होता है। देखो-नेत्राभिंष्यन्दः । (२) अतिवृद्ध । (३) असाव; स्त्राव, बहाव ज्यर०मा०नि० बर। ज्व० च० स्व०नि० 7. मे० दचतुःकं। अभिषवम् abhis havam-सं० क्लो. अभिष्यन्दी abhi-shyandi-सं० त्रि. () अभिषव abhishava-fk. संज्ञा प दोष, धातु तथा मल आदि स्रोतों को केदयुक्र (१) कालिक, कॉजी ( See-Kanji ) | रा०नि० ५० १५ । (२) ताड़ी ( सुराभेद)! करने वाला, छिद्रों को प्राई ( नम, तर ) करने वाला। सेधी-हि० । तादाची दारू-मह. । ताँडी । कुसुमा० टी० ज्वर । (३) स्रोतः स्रावि (Toddy )-30 । पु. (३) यज्ञ में स्नान द्रव्य । वा० टी. हेमाद्रि०। (३) कफकारक (५) मय सन्धान | मे० बचतुष्क । (५) पदार्थ । लक्षण-जो द्रश्य अपने पिच्छल और सोमरस पान । मद्य खींचना । शराय चुाना । भारीपन से रस वाहिनी शिरात्रों को रोक कर (६) सोमलता को कुचल कर गारना। शरीर में भारीपन करता है। उस पदार्थ को अभिषिक्त abhi-shikt-हिं० वि० [सं०] [स्त्री० "अभियन्दी" कहते हैं, जैसे-दही । भा० मि० अभिपिका ] कर्म में नियुक्रि, कृताभिषेक (An. प्र० खं० । ointed to office, enthroned.) अभिसरः abhisarah-सं० पु. (१) परिअभिषुकम् abhi.shukam-सं० की. (१)| चारक । (२) (An attendant) सहकावेल आदि प्रसिद्ध फल विशेष | पेस्ता-4 । चर; अनुचर । (३) मददगार । संगी, साथ च० चि. च्यवनप्राश । पु०, (२) कावेल | रहने वाला, साथी । रत्ना० । प्राणाभिसर । च० वृक्ष। सु० । अभिषतम् adhishintam-सं० की. पण्डाकी । शाहाकी, काञ्जिक विशेष प्रम देखो-कॉजी | अभिसरण,न abhisarana,-11-हिं० संज्ञा प.. (Kanji ) 1 [सं० अभिशरण ] आगे जाना । (२) समीप गमन। अभिरविक्रान्तम् abhishuvi-krantam | अभिसरना abhisarana-हिं० क्री. १० -सं० पु. माधवी सुरा, माध्वी सुरा । (A आभस kind of wine) देखो-माधवी वैनिघ [सं० श्रभिसरण ] संचरण करना । जाना। अभिषेक: abhishekah-सं.पु. ) (२) किसी वांछित स्थान को जाना। अभिलारना abhisarana-हि. क्रि० प्र० अभिषेचनम् abhishechanam-सं० क्ली। ० [सं० अभिसारणम् ] (1) गमन करना । (१) ऊपर से जल डाल कर स्नान करना । शान्ति । जाना ! घमना । For Private and Personal Use Only Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिसारः प्रभोज अभिसारः abhisarah-सं० पु० अभिसार हि० (.)तिलक चुप । तिल हि । (Sesam संज्ञा पु० () शकुली मत्स्य [शाल माछ um Indicum ) रा०नि०व०१० (२) बं. मद० व० १२ । (२) बल (Stren. वि० इच्छित, वाँछित । मनोरथ, मन चाही वात gth ) धर० मत्स्य, मछली ( Fish ) (Wished for, IDesired ) [वि. अभिपारिका अभिसारी] | | अभीष्टगन्धकः abhishra-gandhakan-सं० अभिसाचनम् abhisoelhaman-सं० क्ली। पु. माधवी लता | मद० व०३। Seeकोसना । अथर्व० सू०६ । ७ । का०४ Madhavílatá अभिहिता abhithita-सं० स्त्री. जल पिप्पली अभीष्टा abhishra--सं० स्त्री० रेणुक, गन्ध, जल पीपर । वै० नि०। द्रव्य, रेणुका | श०च. | See-renuka अभिशः abhijnyah- सं० त्रि० अभुतः abhuktah-सं०वि० अभिज्ञ abhijnya-हिं० वि० अभुत bhukta--हिं० वि० (१) जानकार । विज्ञ । (३) निपुण। कुशल | न खाया हुश्रा | उपवास किया हुआ । (Starअभिशान abhijynāna-हिं० संज्ञा पु० [सं०] vell, fasted ) अजीर्णस्य दिवा निद्रा [वि. अभिज्ञात ] (१) स्मृति । ख्याल । पाषाणामपि जीयंति वै० निघः । (२) (२) वह चिन्ह जिससे कोई चीज़ पहिचानी न मोग किपा हुश्रा। जाय । लक्षण । पहिचान । (३) निशानी । अभुग्णः a bugnab--सं० त्रि. नीरोग, स्वस्थ परिचायक । चिन्ह । ( Healthy ) प्रभाक: abhikah-सं० प. प्रभुलास abhulas--सिंध० हब्बुलाबास, विला. अभीक abhika-हिं० वि० __यती मेंहदी है। कामुक ( Cupidinous, lustful मे। pidin oua lustful abheda--ITO HET, #1$ (Spo. कत्रिकं । (२) निर्भय, निडर, लंपट । ndins ma gifera ) अभीरणी abhirani-सं. स्त्री० दुन्दुभ सर्प अभेद adheda-हि संज्ञा पुं० [सं०] [वि० (A serpent named dundubha) अभेदनीय, अभेध ] (1) भेद का प्रभाव | वैनिघ० । अभिसन्नता । एकत्व । (२) एक रूपता । अभीरु abhiru-सं० स्त्री० (१) शत मूली । समानता । वि० (५) शून्यभेद । एक रूप । सतावर-हि. समान । वि० [सं० अभेद्य । ( Asparagus rac. emosus) वा० सू० १५ १० दू दिव. अमेदनीय abhedaniya-हि. वि० [सं०] सि. यो० यम चि० अयोदशांगे। (२) दे० अभेद्य । महाशतावरी । रसे० चि. ८ श्र० । अभेद्यम् abhedyam--सं० क्ली अमीरूपत्री-त्रिका abhirupatri,-trika-सं. अभेद्य abhedya-ह. संज्ञा पु. । स्त्री. शतावरी, सतावर, (Asparagus (१) होरक, हीरा । Diamond डाइमण्ड इं०रा०नि०व० १३ । देखो-वचम् । हि. racemosus) अम। भभीशुः,- षुः abhishuh, shuh-सं० पु. वि० (१) अभेदनीय । जिसका भेदन वा छेदन न हो सके । जिसके भीतर कोई चीज़ घुस प्रग्रह, लगाम, डोर, मे० । न सके जिसका विभाग न हो सके। Indivisअभीषणः abhisangah-सं० पु. श्राक्रोश, ible, Inseparable (२) जो टूट न अभिषक, शाप ! (Curse)| सके । अखंडनीय । अभीष्ट abhishta-सं० पु. अभेषजम् abheshajam-सं० क्लीक विपरीत अभीष्टः bhishrah-हि० संज्ञा घु औषध, उलटी दवा । बाधन तथा अनुबाधन For Private and Personal Use Only Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रभोज अभ्यङ्ग भेद से यह दो प्रकार का होता है। च० चि० । १०। अभोज abhoja-हिं० वि० [सं० अभोज्य ] | न खाने योग्य । प्रभाजनम् abho janam-सं० क्ली० ( Fai sting ) श्रभोजन-हिं० पु. । उपवास, अभोजन, भांजनाभाव, अनाहार । संग्रहः । । अभीज्य abhojya-हिं. भोजन के अयोग्य । ( Unfit to be eaten) fit to be enten ! अभौतिक abhoutika--हिं० वि० [सं०] (१) जो पंचभूत का न बना हो । जो पृथ्वी। जल, अग्नि आदि से उत्पन्न न हो। अभ्यक्त abhyakta--हिं० वि० [सं०] (1)' पोते हुए । लगाये हुए । (२) तैल वा उबटन लगाए हुए। अभ्यङ्क abiiyankah-सं० पु. तिल करक। अभ्यङ्गः abhyungah-स अभ्यङ्ग a bhyangu-हिं० संज्ञा पु. [वि. अभ्यत, अभ्यंजनीय ] ( 1 ) लेपन चारों पोर पोतना | मल मल कर लगाना । उद्वर्तन। . (२) तैल ( आदि) मर्दन । तेल लगाना । तैल लेपन | स्नेहनः (१) कमल पत्र, तगर, चिरौंजी दारुहल्दी, कदम्ब, बेर को भिंगी, इनकी मालिश करने से मुख कमलवत हो जाता है। (२) जौ राल, लोध, खस, रक चन्दन, शहद, घी, गुड़ . इनको गोमूत्र में पकाएँ । जब कलछी से लगने लगे तब उतार लें। इसका मदन करनेसे नीलका : व्यंग और मुख दूषिकादि रोग दूर होकर मुख मण्डल कमल सदृश हो जाता है और पांच कमल दल के तुल्य हो जाते हैं । वा० उ० प्र० ३२ । अभ्यङ्गादिः-चौगुने बकरा के मूत्र में गौ के गोबर का रस मिलाय उसमें सिद्ध किया हुश्रा तेल ( सरसों का तेल ) मालिश, पान, तथा उरसादन में श्रेष्ठ है। चक्र० द. अपस्मार० चि०1, अभ्यङ्गादि समान्यांपायः-अभ्यङ्ग, स्नेह, निरुहवस्ति, स्वेदकर्म, उपनाह, उत्तस्वस्ति, सेके, इन्हों को तथा वातनाशक स्थिरादिगण से सिद्ध किार रसों को वात के मूत्रकृच्छ, में दें। गिलोय, सोंड, अामला, असगन्ध, गोखरू, इन्हें बात रोगी तथा शूलयुक मूत्रकृच्छ वाले मनुष्य को पिलाएँ। सेंक.गोता लगाना, शीतल लेप, ग्रीष्म ऋतु के योग्य विधान, वस्ति कर्म, दूध के पदार्थ, दाख. विदारीकन्द, गन्ने का रस तथा घृत इन्हें पित्त के रोगों में बरतें। कुश, काश, सर, डाभ, ईख ये तृण पञ्चमूल पित्त के मूत्रकृच्छ, को हरता तथा वस्ति का शोधन करता है। इनमें सिद्ध दूध पान करने से लिङ्ग में उपजे हुए रक को दूर करता है। चक्र० द. मुत्रकृच्छ • चि० | ___ गुण-जल सींचने से जिस प्रकार वृक्षमूल में 8 खुए बढ़ते हैं उसी प्रकार स्नेहसिंचन (तैलाअपंग , से धातुओं की वृद्धि होती है। शिरा, मुख, रोमकूप तथा धमनी द्वारा तर्पण होता है । सुश्र.। मनुष्य की उचित है कि प्रति दिन अभ्यंग अर्थात् तैल मर्दन करता रहे। क्योंकि इससे बुढ़ापा, थकावट तथा वातरोग नष्ट हो जाते हैं, दृष्टि निर्मल बनी रहती है, शरीर पुष्ट रहता है, निद्रा सुखपूर्वक अाती है, त्वचा सुन्दर और दृढ़ हो जाती है। वा. सु. १०। परन्तु इस तैल का प्रयोग सिर, कान और पैर में विशेषता से करता रहे । २० मा० । अभ्यंग वातरोगनाशक है तथा धातुओं की समता, बल, सुख, नींद, वर्ण मृदुता करता और दृष्टि को पुष्ट करता है । शिरोऽभ्यङ्ग अर्थात् शिर में तैल लगाने से शिर को तृप्त, केशो को दृढ़ और नेत्र को पुष्ट करता है तथा केशों को साफ करता, केशो के लिए उत्सम और धूलि प्रभृति द्वारा हुइ केश की मलिनता को दूर करता है । मद० व० ३1 अभ्यङ्ग का निषेध-जो मनुष्य कफ से ग्रस्त है, अथवा वमन विरेचन देकर शुद्ध किया गया है या जो अजीण से पीड़ित है उसको तेल मर्दन न करे । वा० सू०१०। (३) शिरमें For Private and Personal Use Only Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभ्यंजनीय अभ्युदय तेल लगाना | भा०। (४) दोषयुक्त व्रण के | अभ्य वकर्षणम् abhyaya-karshanam दोषशमनार्थ तथा उनको कोमल करने के लिए -सं० क्ली० शल्य आदि उत्पाटन | शल्य उपाय विशेष । सु० चि०१०। प्रादि का उखारना ( निकालना )। अम०। अभ्यंजनीय abhyanjaniya-हिं० वि० अभ्यबहरणम् abhyaya-haranam सं. [सं०](१) पोतने योग्य, लगाने योग्य क्ली० भोजन ( Pating, Food.) (२) तेल या उबटन लगाने योग्य । अभ्यवहारः abhyavahārth-सं पु० श्राहार अभ्यञ्जनम् abhyanjanam--सं० क्ली०, तेल ( Food.) रत्ना० । (Oil)। हे० च । तैल मर्दन, तैल लेपन, अभ्यक्ष abhyaksha सं० तिल को खली। उबटन, रा०नि० ब०१५। ' अभ्यान्तः abhyāntah-सं० त्रि० रोगी, प्रातुर अभ्यन्तः abhyan tah -सं० त्रि. अातुर रोगी (Diseased.)। श्रम । ( Diseased affected, with sick- | अभ्याहारः abhyāhārah-सं० पु. भक्षण, Dess) अमः। भोजन, प्राहार । ईटिंग ( Lating.)। यह अभ्यन्तर abhyantara-हिं० संज्ञा पु० [सं०] धव्यं ( चर्वण योग्य), चोप्य (चूसने या चोपण (१) मध्यम बीच । (Inner, Internal) योग्य ), पेय (पान योग्य ) और लेख (चाटने (२)हृदय ( Heart)। कि० वि० भीतर। योग्य ) भेद से चार प्रकार का होता है । (१) अन्दर । च्युएबल (Chevable,) मैस्टिकेटिस अभ्यन्तरवर्ती bhyantar vaut'tti--सं-स्त्री. (Masticatible )i(z) Capable मध्यवासी। of being suckel. (३) To be अभ्यन्तरायामः abhyantarayamah--सं० licked. (४) Drinka ble. | सु०। पुं० उक्र नाम का धनुस्तम्भ रोग विशेष, अन्त. अभ्यु abhyu-सं० पु० मुनका बीज (Seeds रायाम । यह एक प्रकार की वात व्याधि है of alled grapes. ) जिसमें बलवान वायु कुपित होकर अँगुली, वक्ष, अभ्युदय abhyudaya-हिं० संज्ञा पुं॰ [अं॰] हृदय और गलदेश आदि में प्राप्त होकर वाय। [वि. अभ्युदित, प्राभ्युदायिक ] (1) प्रादुसमूह को खींचकर मनुष्य को क्रोडवत (वड ) र्भाव, उत्पत्ति । झुका हुअा कर देता है, जिससे नेत्र स्तब्ध हो अभ्युदित abhyuttita-हिं० वि० [सं० ] जाते हैं और डा बैल जाती हैं । लक्षण- (१) उगा हुआ । निकला हुआ। उत्पन्न । अंगुली, गुल्फ (पांच की गांड), पेट, हृदय, प्रादुभूत । (२) दिन चढ़े तक सोने वाला। वनः स्थल और गल में रहने वाली वायु धेगवान : अभ्युषः aabhyush-सं० पु० रोटी (Bread.) होकर नसों के समूह को सुखाकर बाहर निकाल ! श्रा० सं० इ० डि० । .दे और जब उस मनुष्य के नेत्र स्थिर हो जावें, । अभ्युक्षण abhyukshan . हि. संज्ञा पु. ठोड़ी जकड़ जाय, पसलियों में पीड़ा हो मुख से सं०] [वि० अभ्युक्षित, अभ्युक्षय ] सेचन । कक गिरने लगे और मनुष्य प्रागे की और को , छिड़काव । सिंचन । भुक जाय तो वह बलवान वायु अन्तरायाम को : अभ्युक्षित a bhukshita-हिं० वि० [सं०] उत्पन्न करता है अर्थात् तब उसे "अन्तरायाम (१) छिड़का हुअा। अभिसिंचित । (२ घात व्याधि" के नाम से पुकारते हैं। मा०नि० जिस पर छिड़का गया हो। जिसका अभिसिंचन वा०व्यां। देखो हुश्रा हो। अभ्यमितः abhyamitab-सं० त्रि० श्रातुर, । अभ्युदय abhyukshya-हिं० वि० [सं०] रोगी ( Diseased.)। अम० । छिड़कने योग्य । For Private and Personal Use Only Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अभ्यूषः अभ्युषः abhyüshah - सं० पुं० श्रभ्योष । ईषत्यक्व कलाय श्रादि । (श्रटो० भ० ) अम० । रोटी । श्रा० सं० इं० डि० । ४४६ } अभ्रम् abhram-सं०ली० (1) year, अभ्र abhra-हिं० संज्ञा पुं० नागरमोथा ( Cyperus Rotundus ) । ( २ ) मेघ, बादल । काउड ( Cloud ) - ई० । रा० नि० ० ६ । ( ३ ) श्रभ्रक धातु टैल्क ( Talc. ) - इं० रा० नि० ० १३ । ( ४ ) प्रकाश । स्काइ ( Sky., ) ऐट्मॉस्क्रियर ( Atmosphere.) - इं० । ( ५ ) स्वर्ण सोना | Gold ऑरम ( Aurm ) - ले० । अभ्रकम् abhrakam-सं० स्त्री० अभ्रक abhraka - हिं० संज्ञा पुं० (3) भद्रमुस्ता नागरमोघा ( Gyperus pertenuis. ) (२) कर्पूर । कैम्फर ( Camphor ) - इं० ( ३ ) सुवर्ण । श्ररम ( Aurum )। ( ४ ) वेत्र, वेतसवृत ( Calamus rotong.)। देखो - वेत्रसः । (२) अवरक धातु विशेष | भोइर | भोडल | भुखेल | गिरिजं, श्रमलं ( अ ), गिरिजामलं, गौर्य्यामलं, ( स्वामी ) गिरिजा बीजं, गरजध्वजं, ( के ), निर्मल, (मे), शुभ्रं ( ज ), घनं, व्योम, अब्द्धं, (र), अभ्रं भृङ्ग, अम्बर, अन्तरीक्ष', श्राकाशं, वहुपत्रं, खं, अनन्तं, गौरीज, गौरीजेयं, ( रा ) - ॐ० । अभ्भर बं० । श्रवक, तल्क, अरीदून, इख़्तराल, क्रतून, कोकबुल अज़, मुनक्का, मुकलिस, अल्झिरूस, समझ, गगन, जना, हुल् स उत • श्व० । तह-३० सितारहे ज़मीन फ्रा० । उ० । अबरक- उ० माइका Mica - ले. टैल्क Talc, मस्कोवी ग्लास Muscovy glass, ग्लीमर Glimmser ई० । भिंगा-त्र ना० । कों० । किन-सिं० । हिंगूल- गु०, मह० । यह एक प्रकार का स्फटिकवत खनिज है । जिसकी रचना पत्राकार होती है और जिसके श्रत्यन्त पतले पतले परत या पत्र किए जासकते हैं । यह बड़े बड़े ढॉकों में तह पर तह जमा हुआ पहाड़ों पर मिलता है। साफ़ करके निकालने पर હ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभ्रकम् इसकी तह काँचकी तरह निकलती है । यह आग से नहीं जलता एवं लचीला होता तथा धातुत्रत् आभा प्रभा रखता है । इसके पत्र पारदर्शक एवं मृदु होते श्रीर सरलता पूर्वक पृथक् किए जा सकते हैं। एक ओर से दूसरी ओर तक फाड़ने पर टूटने की अपेक्षा फटते हुए प्रतीत होते हैं । वैद्यक ग्रंथों में इसको महारस या उपरस लिखा | परन्तु आधुनिक रसायन बाद के अनुसार यह न धातु है न उपधातु क्योंकि न इसमें धातु के लक्षण हैं और न उहधातु के, और न बह मौलिक तत्रों में से है । उद्भव स्थान- बहुधा यह पर्वतों पर पाया जाता है। हमारे देश में अभ्रक प्रायः श्वेत भूरा तथा काला निकलता है। सीरिया और भारतवर्ष में, बंगाल, राजपूताना, 'जैपुर' मद्रास नेलौर और मध्य प्रदेश आदि की पहाड़ियों में इसकी बड़ी बड़ी खाने हैं । श्रवरक के पत्तर कंदील इत्यादि में लगते हैं । तथा बिलायत आदि में भी भेजे जाते हैं । वहाँ थे काँच की टट्टी की जगह किवाड़ के पल्लों में लगाने के काम में श्राते हैं । अभ्रक भेद रस शास्त्रों में अभ्रक की चार जाति एवं वर्णानुसार इसके चार भेदों का उल्लेख पाया जाता है, जैसे ब्रह्मक्षत्रिय विट् सूद्र भेदात्तस्या चतुर्विधम् क्रमेणैव सितं रकं पीतं कृष्णां च वर्णतः ॥ अर्थ- - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र भेद से अभ्रक चार प्रकार का है उन चारों के क्रमशः सफेद, लाल, पीत और काले वर्ण हैं । - चारो वर्णों के भेदप्रशस्यते सितं तारे रकं तत्र रसायने । पीतं हेम निकृष्ण तु गदे शुद्ध तथापि च ॥ अर्थ- चाँदी के काम में सफ़ेद अभ्रक, रखायन कर्म में लाल, सुवर्ण कर्म में पीला और औषध कार्य में शुद्ध काला अक काम में लाना चाहिए । कृष्णाभ्रक के भेद -- पिनाकं दहुरे नागं वज्रं चेति चतुर्विधम् । कृष्णावकं कथितं प्राज्ञस्तेषां लक्षण मुच्यते ॥ For Private and Personal Use Only Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अभ्रकम् www.kobatirth.org ४५० अर्थ-पिनाक, दर, नाग और वज्र ये चार भेद काले अस्रक के पंडितों ने कहा है । श्रब इनफे लक्षण का वह किया जाता है । पिनाक के लक्षण arita पिनाकं दलसंचयम् । श्रज्ञानाद्भवण तस्य महाकुष्टप्रदायकम् ॥ अर्थ – पिनाक अभ्रक अग्नि में डालने से श्रर्थात् श्रमन करने से दलसंचय अर्थात् पत्रों को छोड़ता है । श्रज्ञानवरा खाने से यह महाकुष्ट करता 1 दर्दुर के लक्षण--- दुत्वग्नि निक्षिप्तं कुरुते ददुरध्वनिम् | गोलकान् वहुशः कृत्वात त्स्यान्मृत्युप्रदायकम् ॥ अर्थक अग्नि में डालने से मण्डूक की तरह शब्द करता हैं और भक्षण करने से पेट में गोले का रोग प्रगट करता एवं मृत्युकारक होता है | नाग के लक्षण नागं तु नागवद्वन्ही फूत्कारं परिमुचति । तद्भक्षितमवश्यन्तु विदधाति भगंदरम् ॥ अर्थ - नाग क अग्नि में डालने से साँप के समान फुफकार मारता है । इसके खाने से अवश्य भर्गदर रोग होता है । बच्चाभ्रक के लक्षण वज्रं तु वज्रवत्तिष्ठे न चाग्नोविकृतिं व्रजेत् । सर्वावरं वज्रं व्याधिर्वार्धक्य मृत्यु जित् ॥ अर्थ-बजाक अग्नि में डालने से वज्र के समान जैसा का तैसा रह जाता है और विकार को नहीं प्राप्त होता । यह सब में ष्ट हैं और व्याधि, बुढ़ापा एवं मृत्यु को दूर करता है । यह जननिर्भ क्षिप्तं न वह्नौ विकृतिं व्रजेत् । वज्र संहितद् योज्यमत्रं सर्वत्रनेतरत् ॥ अर्थ - जो अक काला होता है तथा श्रग्नि में तपाने से विकार को नहीं प्राप्त होता, वह वज्राभ्रक हैं । यह सर्वत्र हितकारक और योग्य है । इससे भिन्न अन्य प्रकार उसम नहीं | इस शास्त्रोक वर्णन के विपरीत प्राज हमें पाँच प्रकार का अभ्रक प्राप्त होता है-- श्वेत, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभ्रकम् अरुण, पीत, भूरा और काला । ये सब वर्ण के कारण ही भिन्न नहीं, प्रत्युत प्रकृति में इनकी रचना ही एक दूसरे से सर्वथा भिन्न है। I अक कोई मौलिक पदार्थ नहीं, प्रत्युत अनेक मौलिकों का एक यौगिक है । इसीलिए रसायन शास्त्रियों ने इस यौगिक से कोई श्रोर यौगिक बनाने का प्रयत्न नहीं किया, न डाक्टरों ने इसे रोगों में व्यवहार किया है। एलोपैथी में क को किसी रूप में भी खाने में नहीं वर्ता जाता । हाँ इसके पत्रों का उपयोग अवश्य रसायन विज्ञानी यन्त्रों में करते हैं । परन्तु श्रायुर्वेदजों ने इसको खाने के लिए उपयोगी बताया और इन्हें ने ही इसको अग्नि में डाल कर इसके उक यौगिक तोड़कर नए यौगिक ऐसे बनाए कि जिसे प्राणियों को रोग के समय में देने पर वह बड़े लाभदायक सिद्ध हुए, तब से इसका उपयोग चल पड़ा | (१) श्वेताभ्रक - ( Muscovite. ) यह पत्राकार चॉदीवत् शुभ्र वर्ण का होता है । सुहागे के साथ मिलाकर तीव्र अग्नि देने से इसका आधे के लगभग भाग शैलकेत ( Silicatc.) नाम का नया यौगिक बनता है । यह कांच सा होता है, इसको हमारे यहां श्रभ्रक सत्य कहते हैं । ( २ ) अरुणाभ्रक या रक्ताभ्रक ( Lepidolite ) यह अभ्रक श्वेत अभ्रक की अपेक्षा कम पत्राकार होना है। इसके छोटे छोटे पत्र होते हैं और इसके साथ और यौगिक के कण मिश्रित होते हैं । बहुवा यह अक एक प्रकार की अरु खड़िया मिट्टी के साथ मिला पाया जाता है | यह समग्र श्रभ्रकों से मूल्यवान होता है; क्योंकि इसमें रूपम् नामक धातुका संयोग हुश्रा होता है। इसका संकेत सूत्र--- पां रक [ स्क ( ऊ उ प्ल ) २ ] एफ ( शैऊ, ३ ) ३ । (३) पीताम्रक - ( Cookeite. ) इस अभ्रक में पांशुजम धातु नहीं होती न तीसरा स्फट शैलोप्मिद का यौगिक होता है, बल्कि इस के स्थान पर शैलोम्मित होता है। इसका संकेत For Private and Personal Use Only Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभ्रकम् अनकम् सूत्र रक [फ (जउ)२] ३ (शै ऊ३)२ श्याम दो ही का उपयोग करते हैं। तनों - है। यह पत्राकर कहरवी वण का होता है। म्रकों में से श्वेन और भूरे ये दोनों शास्त्र परीक्षा (४) भूगभ्रक-(Lopitlomala.me.) में वज्र नहीं उतरते । काले अभ्रक में से कोई यह अत्रक भारतवर्ष में बहुत पाया जाता है । कोई ही इस परीक्षा में ठीक उतरता है। यह वर्ग में श्यामा लिए, भूरा होता है । प्रायः __ज्ञात रहे कि दर्दुर, नाग और पिनाक नामबाजार में यही अभ्रक मिलता है। इसके पांच | धारी अभ्रकों में प्रयोग करने पर उपयुक कोई पांच सात सात इंच तक बड़े पत्र देखे जाते हैं । शास्त्रीय दुगुण दिखाई नहीं देता । रही गुण की इसका संकेत सूत्र--(उ पा) २ लो ३ ( लो। बात, प्रत्येक प्रकार के अभ्रक एक सा गुण नहीं कर सकते, क्योंकि आप ऊपर देख चुके हैं कि (५) श्याम अभ्रक-( Biotite. ) सबके यौगिक भिन्न भिन्न हैं। जब सबों की रसा. इसके दो भेद हैं। एक बृहद् पत्र युक्र, दूसरा ! यनिक रचना में अन्तर है तो जब उनकी भस्में सूक्ष्म पत्र युक्त । सूक्ष्म पत्र युज श्याम अभ्रकको बनेगी, उनकी रसायनिक रचना भी एक दूसरे हमारे यहां वन कहते हैं। से भिन्न होगी। ऐसी दशा में गुणों में अन्तर इस वृहद् पत्र या अभ्रक का संकेत सूत्र-- श्राना स्यभाविक बात हैं । पर इस कथन में कोई (उ पां) (कालो ) २ स्फ २ (शै ऊ ४) ३ | महत्व नहीं कि पिनाक, ददर, नाग नामक प्र दृश्रा श्याम अभ्रकः--जो छोटे पत्र का । भ्रक अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न करते हैं। होता है और जिसकी रचना प्रायः डलीके आकार अभ्रक शोधन विधि की होती है । इसकी और प्रथम की रासायनिक छोटेकण का श्याम श्रभ्रक प्रायः बालू रेत आदिसे बनावट में भी अन्तर है । संकेत सूत्र - ( उपा) । मिश्रित होता है। अतएव भस्म बनाने से पूर्व २ ( का लो) २ का ३ स्फ (शै ऊ ३) इसकी शुद्धि श्रावश्यकीय है। अन्यथा इससे इममें उमजन की मात्रा कम है, किसी में दो ! नाना प्रकार के रोगों के होने की अत्यधिक सम्भाकम होती है । जिसमें ऊपमजन कम होता है वह वना रहती है । यथाअभ्रक अग्नि पर रखने से नहीं फलसा । जिसमें सत्वार्थ सेवनाथं च योजयेच्छोधिताभ्रकम् । अधिक होता है वह फूलता है। जो अभ्रक नहीं अन्यथास्त्र गणं कृत्वाविकरोत्येव निश्चितम् ॥ फूलता उसको बज्र संज्ञक कहते हैं और रस अर्थ-सस्त्र के वास्ते या सेवन के वास्ते शोशास्त्रों में इसी को श्रेष्ठ माना है । भस्म के लिए धित अभ्रक लेना चाहिए । अन्यथा अवगुण कर इमी को व्यवहार में लाना चाहिए । निश्चय विकारों को उत्पन्न करता है। ___ कहा भी है-- अशोधित अभ्रक की भस्म निम्न दोर्षों को तथानं कृष्ण वर्णाभं कोटि कोदि गुणाधिकम् । करती है। स्निग्धं पृथु दलं वर्ण संयुकं भारतोधिकम् ॥ पीडां विधत्ते विविधांनराणां कुरक्षयं पांडु गर्द सुख निमोच पत्रंच तदभ्रं शस्तमीरितम् । चशीफम् । हृत्पार्श्व पीडाँच करोत्यशुद्धमनहि । अर्थात्-कृष्णाभ्रक अर्थात् वज्र करोड़ों गुण तद्वद गुरुबाह्नि हुनस्यात् ॥ युक्त है। (इसके लक्षण ) जो चिकना. मोटे दल ।। अर्थ-यह (अशुद्ध अभ्रक ) मनुष्यों को का, सुन्दर वर्ण युक और बहुत भारी हो और । __ अनेक प्रकार की होड़ा, कोद, क्षय, पांडु सूजन जिसके पत्र सहज में अलग हो जाएँ, वह अभ्रक | और हृदय एवं पार्श्वशूल आदि रोगों को करता श्रेष्ठ है। तथा मारी है और जठराधिन को मन्द करने टिप्पणी – इस समय वैद्य तीन प्रकार के | वाला है। अभ्रक भस्म के लिए काममें लाते हैं । श्वेत, भूरा अतः अभूक शोधन की कतिपय सरल एवं और काला ( यूनानी हमीम इनमें से श्वेत और उत्तम विधियों का यहां उल्लेख किया जाता है For Private and Personal Use Only Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अनकम् www.kobatirth.org ४५२ (१) अभूक को तपा तपा कर काँजी या गोमूत्र या त्रिफला के काथ में विशेष कर गोदुग्ध में सात सात बार अथवा तीन तीन चार बुझानेसे भुक शुद्ध होता है । प्रभुक पत्रों को लेकर गाय के धारोष्ण दुग्ध में मलें और सुखाकर फिर मलकर सुखाएँ । तीन बार ऐसा करने से प्रभुक नवनीत के समान कोमल हो जाएगा। (२) प्रभुक को तपातपा कर २१ कार काँजी में डुबाने से प्रभु शुद्ध होता है । १५-२० (३) अभुक के पृथक् पृथक् पत्र कर और तपातपा कर काँजी में बुम्काएँ । बाद उन पत्रो सहित कौंजी को तेज धूप में घर दें । दिन या एक मांस बाद, काँजी को फेंक दूसरे शुद्ध जज से धो लें । अभूक शुद्ध हो जायगा । ( ४ ) श्रभुक को तपा तपा कर सात बार सम्भालू के रस में बुझाएँ तो अभूक के गिरि दोष की शांति हो । ( ५ ) अभक को तपा तपा कर वारंवार बेर के काढ़े में बुझाएँ । पीछे सुखाकर हाथों से मर्दन करें तो धान्याभुक से भी उत्तम हो । चूर्णा शाति संयुक्रं वस्त्र बद्धं हि कोजिके । निर्यात मईनाथतान्याभूमिति कथ्यते ॥ इस प्रकार शुद्धि क्रिया के पश्चात् इसके सुक्ष्म चूर्ण बनाने के लिए धान्याभूक क्रिया करें धान्याभ्रक की निरुक्ति 1 अर्थ-चूर्ण किए हुए अभूक के साथ धानो को कपड़े में बांधकर कांजी में रख दें और उसे मन करें। इससे जो रेत सा श्रभूक चूरा निकले उसे धान्योभूक कहते हैं । धान्याभुक करण विधि भूक को चूर्णकर धान ( चौथाई भाग ) मिला और कम्बल में ढीला बांध कर तीन रात तक काँजी में रखें। फिर इसे जोर से मलें । इस प्रकार मलकर पानी में डुबाकर फिर मलें, फिर । इस प्रकार रगड़ने से अभक मुलायम होकर शीघ्र टूटता रहता हैं और उसके छोटे छोटे Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभ्रकम् का होकर कम्बल से निकल कर उस पानी में. नीचे बैते रहते हैं । इस तरह अभूक को पानी में बारीक रूप से निकाल लें । जल के स्थिर हो जाने पर नितार दें और नीचे बैठे रेत सम कोमल धान्याभूक को मारण के काम में लाएँ । अभुक को कोमल करने की विधिप्रभु के पत्रों को अलग अलग करके एक पात्र में रखें' । इसके ऊपर से कुकरोंधे का इतना रस भरें कि वह डूब जाय और ४-५ दिन तक धरा रहने दें । तदन्तर उसके एक मोटी थैली में भर कर उसमें कौड़ियां डालें और थैली का मुँह बाँध खूब रगड़ कर धोएँ । अभूक रेशमवत् स्वच्छ एवं मुलायम हो जायगा । उपर्युक्त समझ क्रियाश्र के हो जाने के बाद इसकी भस्म प्रस्तुत करें 1 श्याम अभ्रक भस्म विधि १ - धान्यानक किए हुए श्यामात्रक को कुकरोंधे के रस में थोड़ी सजी अथवा सुहागा मिलाकर साने, फिर टिकिया बनाकर शराब में धरें और कपटी कर गजपुट की अग्नि दें । एक बार में ही अभ्रक भस्म होगा । इसी प्रकार १० या १६ वार करने से निश्चद्र गेरुए रंगका अभ्रक भस्म प्रस्तुत होगा । ३० पुट या १०० पुट देने पर उत्तम प्रकार की भस्म निर्मित होगी । गुण वृद्धि के लिए १६ पुट आक के दूध की, घर के पत्तों के रस की, थूहर के दूध की, भाँग के काढे की, पीपल नत्र के अंतर छाल के कादे की, त्रिफले के कादे की, पीपल या बड़ के अंतर छाल के काटेको, बकरे के खून की, गोखरू आदि की दें। और क्रमशः १६-१६ चार पुटित करके टिकिवा बना शराब में कपरौटी युक्र कर गज पुट में फूंकते जाएँ १००० पुट देकर सहस्र पुटी कर लें या ५०० पुटी बनाएँ। यह प्रत्येक रोग में अचूक सिद्ध होगी । 9/ २--शुद्ध अभ्रक को कसौंदी के रस में खरल करके संपुट में रखकर गज पुट की अग्नि है । शीतल होने पर निकाल कर पुनः कसौंदी के रस में खरल कर टिकिया बनाकर उन विधि से दस श्रग्नि है तो उत्तम भस्म बन जाती है । For Private and Personal Use Only Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अम्रकम् ४५३ अम्रम् घोट टिकिया बनाएं और गजपुट विधि से फू के तो एक बार में ही भस्म निश्चन्द्र होगी। -धान्याभ्रक में हरिताल, आँवले का रस और सुहागा मिलाकर घोटे पीछे टिकिया बना कर अग्नि दें। इस प्रकार ६० अग्नि देने से सिंदूर के समान लाल भस्म हो प्रस्तुत होगी । यह भस्म चयादि सकल रोगों का नाश करती ३--इसी तरह नागरमोथे के कथ में छोटेछोटे टुकड़े कर अग्नि देते रहने से दस पुट में अभ्रक । की भस्म बन जाती है। ४-इसी तरह अभ्रक को चौलाई पंचांग के रस में घोट घोट कर दस बार अग्नि देने से उत्तम भस्म बन जाती है । प्रतिवार वनस्पति रस छोड़ कर अभ्रक खूब घोटना चाहिए . जितना अधिक घुटेगा उतना ही शीघ्र चन्द्रिका रहित अभ्रक हो जायगा। ५---मिट्टी रेता रहित अभक के सूक्ष्म सूक्ष्म | कण लेकर उनको अर्क दुग्ध में घोटकर रुपये रुपये बराबर टिकियाँ बनाएँ और धूप में सुखाकर अर्क पत्र में लपेट, सम्पुट में रखकर खूब । अच्छी गजपुट की अग्नि दे' । स्वांग शीतल होने ! पर निकाल पुनः उक अर्क दुग्ध में अच्छी तरह । घोटकर अग्नि दें। सात पुट इसी प्रकार अर्क दुग्ध की और तीन पुट बट-ॐटा क्याथ की दें। प्रत्येक बार में अग्नि की मात्रा कानी होनी चाहिए । इस पुट में चंद्रिका रहित उत्तम लाल बयां की भस्म बन जाती है। यह भस्म अच्छी बनती है और काफ़ी गुण करती है। ६.-अभक को पानके रस में घोटकर टिकिया बनाकर तीन भावना अग्नि :सहित दें। फिर तीन भावना हुन हुल के रस की दें, फिर तीन वट-जटा क्वाथ की, फिर तीन मूसली । के काढ़े की, फिर तीन गोखरू के काढ़े की, फिर तीन कौंच के काढ़े की, फिर तीन सेमल की मूसली की, फिर तीन तालमखाने के काढ़े की, फिर तीन लोध पठानी की, इसके पश्चात एक भावना गोदुग्ध की, एक दधि की और एक घृत की, एक शहद की, एक खांड की देकर पीसकर रखें। यह ऊपर का उत्तम पौष्टिक अभूक तैयार होता है। ___-वट दुग्ध, स्नुही दुग्ध, अर्क दुग्ध, नागर मोथा, मनुष्य मूत्र, वटांकुर, बकरे का रन, इन सब वस्तुओं की भस्म से १५-१५ भाबना दें तो उसम अरुण वर्ण की भस्म बनती है। ८-धान्याभूक में प्राधा भाग गंधक एवं श्राधा भाग सजी का देकर कुकरौंधे के रस में १० - सहस्र पुटी अभ्रक क्रिया सर्व प्रथम वज्राभ्रक खरल में डालकर कूटें । पीछे उसको अग्नि में तगाकर गोदुग्ध में बुझाएँ लोह पात्रमें घृत डाल उसमें इस अभक को डाल मन्दाग्नि से पचाएँ, तदनन्तर धान से श्राधा अभक ले दोनों को कम्बल या ग.हा या गजी की थैली में रख भिगोदें। फिर एक बड़े पात्र (कठौती, परात अादि ) में उस अभूक को डाल थैली को खूब मसले, दो पहर बाद जव सम्पूर्ण अभूक निकल कर पानी में प्र.जाय तब पानी को नितार अभूक को निकाल लें। इस प्रकार करने से अभूक की शुद्धि एवं धान्याभूक होता सहस्र पुट देने के लिए ६० वनस्पतियों का उल्लेख है जिनमें से प्रत्येक की १७-१७ भावना देने पर सहस्र पुटी भस्म तैयार होती है। प्रोष. धियाँ निम्न हैं प्राक दुग्ध; वट दुग्ध, थूहर का दूध, घीकुवार का रस, अण्डी की जड़ का रस, कुटकी, मोथा, जिलोय, भाँग, गोखरू, कटेरी: शालपर्णी. पृश्निपणी, सफेद सरसॉ. खरमंजरी. वडकी जटा. बकरेका रुधिर, बेल, अरणी, चित्रक, तेंदू, हरड़, पाढल की जड़,, गोमूत्र, प्रामला, बहेडा, जलकुम्भी, तालीसपत्र, मुसली. अडसा. असगन्ध. अगस्तिया का रस, भांगरा, केले का रस, सप्तपर्ण, धतूरा, लोध, देवदारु, तुलसी, दोनों दूब, ( श्वेत बा हरित दूर्वा ) कसौदी, मरिच, अनार, दाना का रस, काकमाची (मकोय), शंखपुष्पी, बालछड, पान का रस, सोठ, मण्डकपणी, ( ब्राह्मी), इन्द्रायण, भारंगी, देवदाली, कैथ, शिवलिंगी, कटुवनी, ढाक का रस, For Private and Personal Use Only Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभ्रकम् ४५४ अभ्रकम् तोरई, मूपकार्णी, जयासा. मछे छी, कलोंजी, और । तेलगी। कोई कोई ये योपधि विशेष कहते है-पंचांगुल का रस, टुटक, गुड़, सुहागा, मालती, सप्तपर्णी (सतवन ), नागवला, अति. चला, महाबला, मतावर, कौंच की जड़ का रस, गाजर (गर्जर), प्याज, लहसुन, उटंगण, अजर बेल, हिल मोचिका, दुद्धी, पाताल गरुड़ी, जटा. मांसी, दूध, दही, घृत, शहन, खाड़, धाय और पालंकिका। अभक को खरल में डालकर उपयुक्र श्राप धियो के रस में घोटें | जर सुख जाय तव भरने उपलों की प्राग में फ क दें। फिर भाग में से निकाल कर घाटे और अग्नि दें। इस प्रकार । प्रत्येक गोषधि के १६-१६ पुट देनी चाहिए। : जो योपधि रम योग्य हो उसका रस डाले और , क्याथ योग्य के क्वाथ की पुट दे। यह अभूक | भस्म निश्चन्द्र ( चमक रहित ) लाल होगा। । गुण--यह अमत के समान दिव्य रसायन । है और अनेक अनुपानों के संयोग से देह को । अजर अमर करता है। अतएव मनुष्य को इस । श्रेष्ट भस्म का सेवन करना चाहिए । सेवन करने । वाले को हजारों गुण करे यह समस्त रोगों का ! शत्रु प्रसिद्ध है। नोट-(१) अभूक भस्म के रंग के लाल | करने की विधि-नागवला, नागरमोथा, वट दुग्ध, हल्दी का पानी, मजीठका पानी इन समस्त का या एक एक का या केवल घटजटा भरोह के काढ़े की भावना दे तो गजपुट देनेसे रक्षण की भस्म होगी। अभ्रक में पुट देने के गुण---- श्रठारह पुट का अभक वातनाशक, छत्तीस का ! पित्तनाशक और ५४ का कफ, प्रमेह और सूजन का नाश करता है तथा अम्ल पिल और प्रामवातादि हस्ति रूप रोगों को मारने के लिए सिंह रूप है। सौ पुट के उपरांत अभूक बीज संज्ञा को प्राप्त होता है। सबीज अभूक वीर्य, पराक्रम तथा कांति का कारण है और देह को धारण । करता है । यह चीर स्वामी फा मत है। उक्त भस्मो के रसायनिक रूपसभी श्याम अभक अग्नि संयोग में आने पर ऊप्मिद होते रहते हैं । अग्नि देने पर कांति, लोह श्रीर स्फटिकम् धातुएँ अमिद होती हैं। उदपांशबत का यौगिक भी टूटकर ऊपमेत हो जाता है और जैसे जैसे उम्मेत बनता जाता है वैसे वैसे श्रभूक का वर्ण लाल होता चला जाता है। यदि इसके उक यौगिक में अंतर न आए तो अभुक का व लाल नहीं होता कई बार शैलिका का योगिक टूट जाता है और इसका ऊष्मजन कम हो जाता है और ऊ'म जन का स्थान कन्ज ले लेता है और आमजन का स्थान कजरत ले लेता है। उस अवस्था में अभक का वर्ण श्यामतायुक अरुण हो जाता है । जव शैल कालेत बन जाय तो इस योगिक का बिच्छेद नहीं होता । अन्त तक अभूक उसी ब्रण में बना रहता है। कभी कभी उदपारा वेन आम जन का संयोग पाकर पांशुजम का यौगिक तीचण द्वार में भी परिणत हो जाता है । यह रूप कासमई रस में भस्म बनाने पर ही देखा जाता है और अर्क दुग्धादि में बनाने पर पांशुज तीक्ष्ण क्षार नहीं बनता अभक के उक्र लोहकोन स्फटिकादि के ऊरिमद कइ रोगों में अत्यन्त लाभ करते हैं। और जब ज्वर किसी शारीरिक अंग की विकृति शोथ के कारण स्थिर रूप से बढ़ा रहता हो उस अवस्था में यह अभक अान्तरिक विकृन को दूर करने में शरीर की बड़ी सहायता करता है । (प्रा.वि. भा०१ सं० ७। श्वेत अभक का सलायह १-हिना सुख प्रारह तो० को रात्रि को पानी में तर करें । प्रातः उसका जुलाल लेकर ६ तो. धान्यकाभक को उस पानी के साथ यहां तक खरल करें कि उसकी चमक जाती रहे। फिर छोटी इलायचीका दाना, वशलोचन, मूमलीश्वेत प्रत्येक ३ तो० एक एक कर सम्मिलित करके खरल करते जाएँ । पुनः सम्पूर्ण श्रीषधि को चार पहर तक खूब घोटकर रल दें। मात्रा-१ मा० । गुण-उष्ण यकृद, निर्ब. For Private and Personal Use Only Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभ्रकम् लता, प्रमेह (शुक्र), और पूयमेह (युजाक) के लिए असीत गुणकारी और परीक्षित है।। (सदारियह ।। २-नौसादर १ तो०, फिटकरी ॥ ती०, अभ्रक २॥ तो०, नौसादर और फिटकरी को १ छ० पानी में घोलकर इसमें अभक के बारीक पत्र को तर करें और रख दें। १ घंटा बाद उसे डंडे से फ़ूड़े में यहाँ तक रगड़ें कि दृधकी तरह सफेद हो जाए फिर उस में बहुत सा पानी डाल दें। जब अभक तल स्थायी हो जाए तब पानी को निकाल दें। और ताजा पानी डालें, इसी तरह बारंबार करें जिससे जल में नीसादर श्रादि का स्वाद न रहे । फिर सुखाकर रख दें। गुण--उप प्रधान ज्वर यथा पैत्तिक व प्रां. निक में मा० शर्बत अनार के साथ दिन में तीन बार खिलाएँ। बालक को २ रत्ती से ४ रत्ती तक दें। अनेकों बार का परीक्षित और सदा से प्रयोग में पा रहा है । ( रफोक)। ६--अभक को कत्तरी से कतर कर रात्रि में अम्ल दधि में तर करें । प्रातः काल जल में घोकर काकजंघा बूटी के स्वरस में एक प्रहर खरल करें। धूल की तर हो जायगा । गुण-मूत्र प्रणाली के रोग, सूजाक, रक प्रमेह, रक्त निलीवन, नासारक स्त्राव, पुरातन कास, श्वास कष्ठ, कुकुर खांसी, विविध उष्ण प्रधान ज्वर, शोथ, जलोदर, यकृत्पदाह, प्लीह शोथ, शुक्र प्रमेह और सैलान के लिए अनेकों बार का परीक्षित है। मात्रा घ सेवन विधि- रत्ती से २ रत्ती तक मक्खनमलाई या पान के पत्र वा कोई अन्य उपयुक औषध के साथ सेवन करें' (म.रुजन श्वत अभ्रक भस्म विधि १--श्वेताभू का चूर्ण करके अभकके बराबर शारा और गुड़ मिलाकर खूब करें और कूट कूट कर टिकिया बना सम्पुट में रख कर गजपुट की अग्निदे। एक पुट में अभक की श्वेत भर बन जाती है । यदि एक बार में कुछ कसर रह जाय तो इसी तरह दूसरी बार करने पर अच्छी भस्म बन जाती है। अभ्रकम् नोट-श्वेत अभ्रक में न तो लोह होता है न कांत । पशुजम् स्फटिकम् और शैलिका के योगिक होते हैं इसकी जब शोरे के साथ म का जाता है तब पांशुजम् धात कजलीष्मेत् भामक यौगिक में और स्फटिकम् ऊम्मेत् में भिन्न तथा शैलिका कजलोप्मेत् से मिल जाते हैं । यह भस्म इतनी उपयोगी नहीं। यह बहुत कम लाम करती है। मृत भस्म को परीक्षा श्रभ्रक की भस्म जब चमक रहित अर्थात् निश्चन्द्र तथा काजल के समान अत्यन्त बारीक हो तब उसकी ठीक भस्म हुई जाननी चाहिए अन्यथा नहीं। निश्चन्द्र भस्म को ही काम में लाना चाहिए क्यों कि यदि चमकदार हो तो यह विष के समान प्राण का हरण करने वाला और अनेक रोगों को कर्ता है। कहा भी है मृतं निश्चन्द्रता यातं मरणं चामृतोपमम् । सछीद्रं विश्वद शेयं मृत्युकृद्धहु रोगकृत् ॥ श्रमतीकरण त्रिफला का काढ़ा १६ पल, गोघृत ८ पल, मृत अभ्रक १० पल इनको एकत्र कर लोहे की कढ़ाई में मन्दाग्नि से पचाएँ । जब जल और घी जल जाएँ केवल अभ्रक मात्र शेष रह जाए तब उतार शीतल कर रख छोड़े और योगों में बरते। कोई कोई प्राचार्य केवल घृत में ही श्रमृतीकरण करना लिखते हैं। यथा तुल्यवृतं मृताभ्रेण लोहपात्रे विपाचयेत । घृतं जीणं ततश्चूर्ण सर्व कार्येषु योजयेत् ॥ अर्थ-अभ्रक की भस्म समान गोधून लेकर लोह को कढ़ाई में चढ़ा उसमें अभ्रकको पचाएँ। जब घृत जलकर अभ्रक मात्र रह जाए तब उतार कर सब कार्यों में योजित करें। अभ्रक के गुणधर्म तथा प्रयोग अभ्रक की भस्म विभिन्न विधियों द्वारा प्रस्तुत कर अथवा उचित अनुपान भेदसे प्रायः सभी प्रकार की सईब गर्म बीमारियों में व्यवहृत होती है। उक्र अवसर पर यह प्रश्न उदाना व्यर्थ हो नहीं, प्रत्युत अपनी अज्ञानता का सूचक है. कि विभिन्न For Private and Personal Use Only Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भभ्रकम अम्रकम् अनुपान जिनके साथ ऐसी भस्में प्रयोग में लाई जाती हैं, यदि उनसे कोई लाभ होता हो । तो वह उसी अनुपान का प्रभाव होता है नाममात्र को प्रभावकारी मानी जाती है । परन्तु ! अनुभव इस बात का विश्वास दिलाता है कि उस अवस्था में जब भस्म संग में न हो तब अनुपान की इतनी अल्प मात्रा का शरीर पर किसी प्रकार का प्रगट प्रभाव नहीं होता। अस्तु यह भस्म का ही गुण है कि इतनी अल्प औषध का प्रभाव सम्पूर्ण शरीर में पहुँचा देता है। गोया किसी वस्तु की शुद्ध भस्म एक ऐसी रसायन है जो मुख में डालते ही सम्पूर्ण शरीर के नस व नादियों में व्याप्त हो जाता है और अपने स्वाभाविक एवं मौलिक गुणधर्म के प्रतिरिक जो उसमें अन्तर्निहित हैं प्रत्येक उस औषध के प्रभाव को जिसमें वह भस्म किया गया है या जो अनुपान रूपसे प्रयोग की जा रही है, सम्पूर्ण शरीरमे विशेष कर रोगस्थलपर अत्यन्त शीघ्रतापूर्वक एवं स्थायी रूपसे पहुँचा देता है। जो दवा सेरों खाने से तब कहीं जाकर शरीर में अपना प्रभाव प्रगट करती है वह एक दो मा० की मात्रा में भस्म के संग योजित करने से तरक्षण सेरभर औषध के प्रभाव से भी अधिक प्रभाव प्रगट करती है। पुनः चाहे वह प्रभाव उक्र औषध का ही क्यों न हो, पर औषध की इतनी अल्प माना और प्रभाव की उस तात्कालिक शक्रि को देखकर प्रत्येक न्यायग्राही व्यक्रि यह निर्णय कर सकता है कि यह प्रभाव भस्म का ही है। क्योंकि यदि उक्त प्रभाव उस औषध का होता तो भस्म की अनुपस्थिति में भी इतनी अल्प मात्रा में प्रगट होता । परन्तु वास्तव में ऐसा है नहीं । श्रतः यह सिद्ध हो गया कि उपर्युक्र सम्पूर्ण चमत्कार उक्र मस्म के ही हैं जो उक्त औषध के साथ सम्मिलित होकर उसके प्रभाव को सौगुना कर दिया। फलतः अभूक की भस्म को उपयुक्र अनुपान ) द्वारा प्रत्येक सर्द व गर्म वा परस्पर विरुद्ध (द्वंद ग्वाधियों) तद्वत् सफलता पूर्वक वरता जासकता है। केवल योग्य एवं व्यवहार कुशल होने की अावश्यकता है। इसके विपरीत बहुत सी अन्य भस्मों की तरह इसके द्वारा किसी प्रकार विषैले प्रभाव प्रगट होने की आशंका नहीं अतएव हर एक व्यक्रि में प्रत्येक ऋत, अवस्था एवं रोग के लिए इसका निर्भय एवं निरापद उपयोग किया। जा सकता है आयुर्वेद के मत सेअभूक भारी, शीतल, बल्य है तथा कुष्ठ, प्रमेह और निदोष नाशक है । मद०व०४। __रसायन, स्निग्ध है। और बल वर्ण एवं अग्नि वर्धक है। राज। कपेला, मधुर, शीतल, श्रायुकर्ता और प्रायु बर्धक है । प्रयोग- यह त्रिदोष, ण, प्रमेह, कोद, प्लीहोदर, गाँउ, विषविकार और कृमि रोग को दूर करता है। मृत अभ्रक के गुण अभूक की भस्म रोगों को नष्ट करती, देह को हद करती, वीर्य बढ़ाती, तरुणावस्था प्राप्त कराती और शत स्त्री संभाग की शनि प्रदान करती है। दीर्घायु और सिंह के समान पराक्रमी पुत्रों को पैदा करती है । निरन्तर मृताभूक का सेवन मृत्यु के भय को भी दूर करता है। श्री पार्वती जी का तेज अर्थात् अभूक अत्यंत अमृत है, वात, पित्त और क्षय का नाश करता है। बुद्धि को बढ़ाता, बुढ़ापे को दूर करता, वृष्य ( वीर्य कर्ता ) है । श्रायु को बड़ाता बल कर्ता एवं चिकना है। रुचिकर्ता, कफनाशक, दीपन और शीत वीर्य है । पृथक् पृथक् योगों के साथ सकल रोगों को दूर करता और पारद को बाँधता है। श्रायुष्य का स्तम्भन करता, मृत्यु तथा बुढ़ापे को दूर करता, वल तथा प्रारोग्य प्रदान करता और महाकुष्ठ को दूर करता है। मृत अभ्रक को सब रोगों में बर्तना चाहिए, क्योंकि इसमें सदैव पारे के समान गुण हैं। देह की दृढ़ता के लिए . इसको ३ रत्ती की मात्रा में खाना चाहिए । इसके सिवाय बुढ़ापे और मृत्यु का हर्ता दूसरी दवा For Private and Personal Use Only Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभ्रकम् अभ्रकम् मृताभूक कामदेव और बल को बढ़ाता है, विष, वादी, श्वास, भगंदर, प्रमेह, भूम, पित्त, कफ, खाँसी और क्षय आदि रोगों में अनुपान के । साथ इसका सेवन करें। औषष-निर्माण---अभक, कल्क, अभवटिका, । ज्वराशनि रसः, ज्वरारि ( अभूम ), अग्नि कुमार रस, कन्दर्पकुमाराम, लक्ष्मीविलास रस, महालक्ष्मी विलास रस, हरिशंकर रस, अनुनाभ, शृङ्गाराम, वृहत् चन्द्रामृत रस, ज्वराशनिलौह, महा श्वासारिलौह, बृहत्कञ्चनाम, मन्मथाभू रस, और गलित गुष्ठारि रस इत्यादि। प्रकृति-२ कक्षा में शीतल और ३ कक्षा में | रूक्ष । हानिकर्ता--प्लीहा व वृक को । दर्पनाशक कतीरा, शुद्ध मधु, रोग़न और करफ़्स के बीज, प्रतिनिधि-तीन कीमूलिया समान भाग या कुछ कम । मुख्य गुण-सार्वागिक रकस्थापक जिससे सिलिसिक एसिड और एल्युमिनियम कोराइड बनजाता है, और जिसमें से अन्तिम अर्थात् एल्यमिनियम क्रोराइड का श्रामाशयिक श्लेमिक कला पर ठीक विस्मथ की तरह श्राबरक व रक्षक प्रभाव होता है। इस बात की परीक्षा करना भी अत्यंत उचित होगी कि पाया औषध योजित अभ का प्रभाव भी जो कि एक सिलिकेट ही है अमाशय पर उसी प्रकार होता है। क्यों कि यह सदैव अम्लाजीर्ण और ग्रामाशयिक क्षत में लाभ पद पाया गया है । उदाहरणतः विद्याधराभू (Jour'; Ayur; july 1024.) मांसपेशी यकृत, प्लीहा, लसीका, और सेल प्राभ्यन्तरिक रसों में तथा विभिन्न शारीरिक मलों यथा मूत्र विष्टा और श्वेद में भी सिलिसिलिक एसिड विभिन्न प्रतिशतों ( ८१ प्रतिशत से कुछ चिन्ह तक ) में पाया जाता है। आयुर्वेद में मृताभू परिवर्ततक और साबौगिक बल्य कहा गया है। साधारणतः यह धातु सेलों की संवर्तक क्रियायों का उत्तेजक भी कहा गया है यह कामोद्दीपक रूप से भो प्रयोग किया जाता है। यह त्रिदोषघ्न और उनकी साम्यस्तिथि का स्थापक ख़याल किया जाता है । धान्यामू बल्य और कामोद्दीपक माना जाता है । अभूक के योग सामान्यतः स्तंमक वल्य, कामोद्दीपक और परिवर्तक होते हैं। अमुकल्क, परिवर्तक, और स्वास्थ्य पुनरावर्तक यूनानी ग्रंथकार-इसको भस्म को सम्पूर्ण शीत जन्य मस्तिष्क रोगों. वात नैवल्य. उत्तमांगों को निर्बलता, कामावसान, श्वास कष्ट, कास, रक निष्ठीवन, रक्रपित्त, अधिक रज (प्रदर) व तजन्य निर्बलता, शुक्रमेह तथा पूयमेह भेद, मुत्र प्रणालीय विकार, समग्र प्रकार के ज्वरों एवं राजयमा च उरःक्षत में लाभदायक मानते हैं । प्रत्येक अन्तः वृण का रोपणकनो; कामशक्रि बद्धक, शुक्र को सांद्रकर्ता है। इसकी भस्म उपयुक्र अनुपान के साथ हर एक रोग के लिए लाभदायक है। इसका प्रयोग शारीरिक निर्बलता और याप्य रोगी में विशेष रूप से होता है । मि० ख०। नव्यमतानुसार अभकके प्रभाव-यह किसी | तरह कीटघ्न ( संक्रमण हर माना जाता है। रोजेनहेम ( Rosenheim) और एरमन Ehrmann (Deut. Med. woch, 20. Jan. 1910) के मतानुसार, एलुमिनम् सिलिकेट जब इसका मुख द्वारा प्रयोग होता है, तब प्रामाशयिक रसमें लवणाग्ल की प्राधिक्यता के सहयोग से उसमें प्रतिक्रिया उत्पन्न होती है, उपयोग- अमूक की मस्म रकाल्पता, कामला पुरातन अतिसार, प्रवाहिका,स्नायविक,दुर्बलता, जीर्णज्वर, प्लीह विवद्धन,नपुसकता, रक्तपित्त और मूत्र सम्बंधी रोगों में लाभप्रद है। इसके अति. रिक इसे शहद और पिप्पली के साथ देने से श्वास, अजीर्ण, (Hecticfe fever) यमा, व्रण, ( Cachexia) आदि को नष्ट करता है संकोचक रूप से इसे वातातिसार में अधिक तर दिया जाता है। परिवर्तक रूप से इसे ग्रंथि विवर्धन में उपयोग किया जाता है । साधारणतः इसे २-६ ग्रेन की मात्रा में शहद के साथ दिन में दो बार वर्ता जाता है । थाइसिस ( यक्ष्मा) ५८ For Private and Personal Use Only Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अम्रकल्प ४५८ अभ्रकहरीतकी में प्रतिदिन दो बार २-३ ग्रेन तक शहद या पाँचो खाँसी, हृदय शूल, संग्रहणी, अर्श, प्रामताजे वासक स्वरस के साथ देने से लाभ होता है वात, सूजन, भयंकर पांडु, वात, पित्त कफ से ई० मे० मे - पैदा हुए मृत्यु तुल्य महा वात व्याधि, अठारह अभ्र-कल्प: abhra-kalpah--सं. क्ली. अभ्र कुष्ट इन्हें उचित पत्थ्य से यह श्रमक कल्प नष्ट की निश्चन्द्र भस्म, श्रामला, त्रिकुटा, विडंग करता है ।बङ्ग सेन० स०रसायनाधिकारे । प्रत्येक समान भाग लेकर भागरे के रस अथवा अभ्रक गटका abhinka-guriki-सं० स्त्री. जल से दोपहर तक खरल में बारीक घोर्ट, शुद्ध पारद, शु० गंधक, शु० बिप, त्रिकुटा, भूना गोलियां बना फिर साया में सुखा लेवें। मात्रा- सुहागा, कान्तिसार भस्म, अजमोद, अहि फेन, १ मा० । गुण--इसकी १ गोली १ वर्ष तक तुल्य भाग, अभ्रक भस्म सर्व तुल्य लेने और रोजाना खावें, दूसरे वर्ष २ गोलियां रोजाना, चित्रक के साथ में एक दिन बरल कर मिर्च इसी तरह तीसरे वर्ष ३ गोलियां रोजाना लेवे, प्रमाणा गोलियां बनावें, इसके एक मास पर्यन्त इस प्रकार तीन वर्ष पूरे होने पर यह अभ्रक का सेवन करने से संग्रहणी दर होती है। अमृ० प्रयोग पूरा हो जाता है। इस योग से ३ वर्ष में सा० । संग्र० चि०।। जो मनुष्य ४०० तो० अभ्रक खा जाता है वह | अम्रक सम्धानम् abhraka-sandhanam वनवत दृढ़ शरीर वाला होजाता है । इसके तीन -सं० क्ली० उत्तम शुद्ध अभ्रक लेकर मेढकपर्णी, ही महीने के प्रयोग से रक्तविकार, जय, असाध्य वरुण स्वक, अदरख, दर डोत्पल (डानिकुनिशाक दमा, ५ प्रकार की खांसी, हृदयशूल, संग्रहणी, -बं०) मिी , अपामार्ग, बच,भांगरा, अजवाइन, बवासीर, प्रामवात, शोध, भयानक पांडु, वात, चौलाई, गिलोय, सुरण, पुनर्नवा, इनके रस से पित्त, कफ के रोग, और १८ प्रकार के कुष्ट दूर पृथक पृथक भावना दें। पुनः तीषण धूप में हो जाते हैं । रस० यो० सा! शुष्क करें', पुनः इसमें गिलोय सत्व ४ तो०, अभ्रक कल्प abhraka-kalpa सं० पु पीपल ४ ता०, और शुद्ध पारद, त्रिफला, जो अत्यन्त काला तथा अत्यन्त चिकना, सोंठ, मिर्च, बीपल, अभ्रक तुल्य लेकर पारद काले सुरमे के तुल्य, वज्राम्र पत्थल 'प्रादि की मूळ शहद, घृत से कर पुन: त्रिफला, दोषों से रहित शुद्ध हो ऐसे अभ्रक को त्रिकुटा के चूर्ण से मर्दन कर उत्तम चिकने पात्र लेकर बुद्धिमान वैद्य एक १८ मिट्टी के पात्र में रख में मुंह बन्द कर रक्खें। मात्रा--१ रत्ती । चार या पांच दिन तक कड़ा पुट देवे, इसी तरह गुण--इसे एक रत्ती वृद्धि क्रम से भेजन के चौलाई के रस से पीस पीस कर पांच पुट पुनः श्रादि, मध्य, और अन्त में जल तथा खट्टे रस देवे। इसी तरह पूर्वोक क्रम से श्रामला, साँऊ. से ले, और शुद्ध घृत, दधि, दृध, मांस, मद्य, मिर्च, पीपल, और वायविडंग के योग से पीस शाक और प्राचीन अन्न का सेवन करें तो अम्ल पीस चन्द्रिका रहित करें। पुनः जब चन्द्रिका पित्त, संग्रहणी, अर्श,कामलाको दरकर्त्ताऔर अग्नि रहित हो जावे तो अंगूठा के अग्र भाग से पीड़ित की वृद्धि करता है। भैप०र० संत्र.चि.। कर गोलियाँ बनाय साया में शुष्क कर रक्खें। | अम्रक हरीतकी abhsaka-hritaki-सं-स्त्री. इसमें से एक एक गोली निरन्तर वर्ष पर्यन्त अम्रक भस्म ८० सो०, शुद्ध गंधक २० तो०, खावें । दुसरे वर्ष में दो गोली निरन्तर खावे, स्वर्णमाक्षिक मस्भ २४० तो०, हरीतकी ४०० इसी तरह एक एक गोली बढ़ाकर ४०० तोले तो०, प्रामला .. तो इन सबों का चूर्ण कर अभ्रक सेवन करें तो शरीर बलवान हो और एक दिन जमीरी नीबू के रस की भावना देवें, वज्रतुल्य दृढ़ हो इसमें संशय नहीं है। इसके पश्चात् मांगरा, सोंठ, छिरहटा, सिलावाँ, चित्रक तीन महीने के सेवन से रन रोग, क्षय, भयङ्कर कुरण्टक, हाथी शुण्डी, कलिहारी, दुद्धी, जल For Private and Personal Use Only Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शुभकादि-घटी ४५६ অমুসল্কিা कुम्भी, इन प्रत्येक के रस मे' १-१ दिन खरल गुण-आमवात, अडीला और ग़ल्म को नष्ट ककरें । तदनन्तर चीनी प्रादि के उत्तम पाय में रता है । रस. यो० सा०।। रक्ने । गुगा--उचित मात्रा में प्रयोग करने से : अभपुष्पः abhra-pushpah-सं० पु., (१) त्रिदोष जन्य अर्श दूर होता है । वृ० रस. रा. वेतसलत', वैत, वेतस । केन Cane-२० । सु० श्रश चि०। केलेमस् Calamus-ले० । भा० पू० १ भ० अम्रकादि वटो abhakadi-vati-सं० पोक गु०व०। (२) वारिवेतस, जलवंत । अमः । पारा, गंधक, विष, त्रिकुटा, सुहागा, लोहमस्म, क्ला०, (३) जल (Wa. ber ) अजमोद, अफीम प्रत्येक समान माग, अभ्रक अममांसी abhra-mansi-सं० स्त्रो०, श्राकाश भस्म सर्वतुल्य । इन्हें चित्रक के हाथ में एक मांसीलता । सूक्ष्म जटामांसी-बं० । रा०नि० पहर तक खरल करके मिर्च प्रमाण गोलियां See-Akashamausi. बनाएँ । प्रति दिन १ गोली खाने से ४ अरोहः abhr-rohah-सं० क्लो०, वैदूर्यमणि प्रकार को संग्रहणी का नाश होता है । वृ० ! See-Vailuryya-manih. रा. नि० नि०र०, भा०४सं० चि०। व० १३ । अनगुग्गुलुः abhra-gugguluh-सं० न० अभ घटिका abhynovatika-सं. स्त्री० शुद श्रम्रक भस्म ४ तो०, त्रिफला ४ तो०, गुग्गुल पारद १०मा०, शु० गन्धक १० मा० को कजली, शुद्ध ४ तो०, गुड़ ४२ तो सब को मिलाकर अभ्रक भस्म १० मा०, मिर्च चर्ण १० मा०, सु. भोजन के प्रथम खाने से परिणाम शूल तथा हर हागा भस्म मा० लेकर काला भांगरा, सफेद प्रकार के शूल दूर होते हैं। भांगरा, निगुण्डी, चित्रक गृष्मवती, अरणी, मण्डूक पर्णी, कुड़ा, विष्णुक्रान्ता प्रत्येक का रस अभङ्कुशः ubhrunkushah-सं० पु (1) १०-१० मासे लेकर पृथक् पृथक् मदन कर च. वायु ( Air )। ( २ ) पाणि, हाथ | एक प्रमाण गोलियां बनाएँ। ( hand.)। __ गुणा-इसे उचित अनुपान उचित अवस्था के THATAF.: abhra-náinakala ga, अनुसार सेवन करने से काँस, श्वास, इय, वात, मुस्ता, नागरमोथा ( Cyperus rotun. कफः शूल, ज्वर अतिसार को दूर करती है तथा . dus.) श० र०। वशीकरण होते हुए बल, वर्ण और अग्नि की अभूपटलः ॥bhiilpatala h-सं० क्ली. पु, बृद्धि करती है । भैष० र० ग्रहणी चि०। अभक (Pale ) वै०निघ०। अभ वटिका abhra-vatika-सं० स्रो० शु० अभपर्पटी abhia par pati-सं० स्त्री० अभ्रक | पारद, गन्धक, और अभ्रक भस्म १-१बोले भस्म, ताम्रभस्म, गन्धक प्रत्येक समभाग लेकर कर कजली बनावे, त्रिकुटा चूर्ण, काला भांगरा, पर्पटी बनावें । माया-२ रत्ती । गुण-इसे मुली भांगरा सम्भालू, चित्रक ग्रीष्मसुन्दर, जैत, अथवा पञ्चकोल के काध के साथ उपयोग करने ब्राह्मी, भङ्ग, और श्वेत अपराजिता, पान के से जिह्वागत प्रत्येक व्याधियां दूर होती हैं। परो इनके रस प्रत्येक कजली के बराबर और पारे अभभानुः abbra bhānuh-सं० पु. कमीला के बराबर काली मिर्च का चण' और पार से हरद, विह लवण, सहिजन के बीज, अमलबेत, प्राधा सुहागा डालकर खरल में घोटें, फिर मटर जवाखार, प्रियंगु, अथवा निसोथ, बच, सलई, प्रमाण की गोलियां बनाएँ। विडंग और अजवायन इन्हें समान भाग लेकर गुण-रोगानुसार उचित अनुपान के योग से चूर्ण बनावें । उसमें २ तो० अभ्रक, ताम्बा, और | देने से खाँसी, श्वास, पप और वात कफ के रोष स्वर्ण की भस्म मिलावे । मात्रा-१-२ रत्ती। दूर होते हैं । म यो सा। For Private and Personal Use Only Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अभूवढी अभूषटी abhra-vati-सं० स्त्री०, अभुक भस्म को २१ बार भांगरे के रस से भावित करें, फिर गन्धक, पारद और लौहभस्म पृथक् पृथक् श्रभूक के बराबर और सोना अभ्रक से श्रधा मिलाकर त्रिफला के काथ में डालकर अच्छी तरह घोटें पुनः । १ रत्ती प्रमाण की गोलियाँ बनाएँ। इसके सेवन करने से औपसर्गिक मेह (सूजाक ) दूर होता है । अभूद्ध गुटिका abhrabaddha-gutikà A -सं० स्त्री० नीलकण्ठ पक्षी ( चामास गृद्ध विशेष ), बैल, उल्लू, खंजन और चमगीदड़ के हृदय और दोनों आँखों को निकाल कर और शु० पारी तथा अग्रक सत्त्र प्रत्येक १-१ तोला मिला. कर बारीक घोटकर २ तो० को गोली बनाकर त्रिलोह में लपेट कर ( सोना, चांदी, और तांत्रा इनके लपेटने की विधि यह हैं कि पहिले सांना भाग फिर चांदी १२ भाग और सबके ऊपर १६ भाग तांबे के पक्ष को लपेट दें अथवा सबके ऊपर कहे प्रमाण में लेकर गलाकर पत्र बनाएँ और ऊपर से लपेटें ) गले में बांधने से श्रदृश्य हो कर मनुष्य १ दिन में ४०० कोस जा सकता है । रस० यो० सा० ४६० अभूबद्ध रसु abhra-baddharasah सं० पुं० - योगसागर | अभूवाटक: abhra-vatakah-सं० पुं० श्राम्रातक वृक्ष- चमड़ा, श्रम्वादा श्रामड़ा गाछ - बं० । Spondias mangifera | रा० नि० य० ११ । अभूवारिक: abhavatikah सं॰ पुं० श्राम्रातक, अम्बाड़ा, श्रमड़ा ( Spondias mangifora ) - जठा० अभुसार: abhra-sarah सं० पु० भीमसेनी कपूर | बै० निघ. See - Bhimaseni ka - rpura. श्रभूसिन्दूरम् abhrasinduram-सं० क्ली० अभ्रक का चूर्ण कर चोरक, हुरहुर, असगन्ध, संभालू, रुद्रवन्ती, भांग, शतावरी, घसा, चला, अतिवला, सेमल, कुष्माण्ड, नागरमोथा, विदारीकन्द, तुलसी, मैनफल, मिलाबा, वनभाटा, कैथ, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभाइम् दाख, गूलर, आक, खस, सुगन्धवाला, कूठ, लाल रुहेड़ा, चम्पा, मकोय, गोम्बुरू, गुलाब, अनार, केवाँच, श्रामला, पुनर्नवा, ब्राह्मी, चित्रक, गोरखमुण्डी, सिरस और गिलोय इनके रसों से पृथक् पृथक् भावना देकर पुट दें तो यह अवसिन्दूर सभी रोगों को नष्ट करता है जैसे सूर्योदय अन्धकार को । रस० यो० सा० । अभ्रसुन्दरौरसः abhrasundrorasah - सं० पुं० यवक्षार, सोहागा, सज्जी, काला चक्र, गन्धक, ताम्बा, और पारा समान भाग लेकर मिलायें, फिर हस्तिशुण्डी और अम्लोनिया के रस से एक एक दिन उसमें भावना दें। फिर गोला बनाकर लघु पुट से पकावें, फिर उसमें नेपाली ताम्र भस्म मिलावे यदि किसी दूसरे प्रकार का तात्रा मिलाया जायगा तो कुछ भी गुण न होगा | उचित अनुपान के साथ सभी रोगों कोदूर करता है | संग्रहणी, खांसी और मन्दाग्नि में कांजी के साथ देना चाहिए। वातरोग, शूल, पार्श्वशूल और परिणाम शूल अदरख के रस से देना चाहिए । अम्लपित्त तथा सभी प्रकार के पित्त रोगों को यह धारोष्ण दूध के साथ देने से नष्ट करता है । में अभ्रातरः abhrātarah सं० वि० जिसके कोई भाई न हो । श्रमामलक रसायनम् abhramalakaras. ayamam - सं० ला०, अभ्रक भस्म, गन्धक और मूर्छित पारा जो कि मक्खन के माफ्रिक साफ हो इनको बराबर बराबर लें । त्रिफला, त्रिकुटा, बच, विडङ्ग, दोनो जीरे, ढाक के बीज, एलुवा, विधारा, तज, कमल मूल, विडङ्ग, चिनक, सामा, सहिजन, दन्ती, निशोथ और मेंहदी ( वर्ण दूषिका ) इन सब को १-१ तोला लें और सबका चूर्ण कर कड़ी चाशनी में डाल रक्खें । उचित मात्रा से सेवन करने से यह रस कष्ट साध्य से साध्य वात रक्र को नष्ट करता है वं० से० । For Private and Personal Use Only प्रभाहम् abhrahvam सं० की ० कु कुम, केशर, जाफरान् | Saffron ( Crocus sativus ) | मद० ० ३ । Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अभ्रवः www.kobatirth.org બ્રા श्रत्रः abhrúshah- सं० पुं० तालु रोग वि| शेष | जिसने तालु में शोणित जन्य स्तब्ध लोहिन । वर्ण की सूजन हो और साथ ही ज्वर और तीव्र वेदना हो तो उसे 'श्रभ्रूप' कहते हैं । भा० म० ४ भ० मुखरोग चि० । श्रमकीरे गड्ढे amakire-gadde-कना०, अश्त्रगंध-सं०मह०, कौ०, बं० । पुनीर, धकरी - हिं० 1 काकनज बस्य० । हब्बुल काकनज- श्र० Withania Coagulans. ) - ले० । श्रमग़ोस. anaghosऋ० टिड्डी, मलख अमदरियाम ' श्रमणकम् चेडी amanakkam chodi-aro एरण्ड, अरंड Castor oil plant ई० । fifaa anga (Ricinn commun) फ्रां० [फा० ० ३ भा० । श्रमः amah सं० पुं० श्रम - हिं० संज्ञा पुं० (1) रोग (Disease ) बीमारी । ( २ ) श्राँव का कारण । (Mucus.)। ( ३ ) पत्र फल आदि ( Bipe | अमराडोर कम्प्यून amandier communa fruits etc. ) । श० र० । ( ४ ) बीमारी -फ्रां० (१) बादाम, वाताद, श्रामगड | ( Almond ) ( २ ) कबुवा श्रादाम सिक बादाम - हिं० । विटर ग्रामण्डस ( Bitter almonds ) - इं० । Amygdalus communis, Linn.) फॅ० ३०१ मा० श्रमण्डोस-ड्रेस- डैमस amandes desdaines - फ्रा० देखी-- श्रमएडीस सल्टेनीस | अमण्डीस सल्टेनीस amandes sultanes - फा०] मीठा बादाम । ( Sweet almonds) यह दो प्रकार का होता है एक मोटे छिलके का और दूसरा पतले छिलके का अर्थात् काग़जी फ़ा० ई० १ भा० । (Alocust.) अमङ्गल: amangalah - सं० पु० श्रमङ्गल amargala - हिं० संज्ञा पुं० एरण्ड वृक्ष, अरण्ड Castor oil plant ) ड़ का पेड़ श० च० । अमचूर amachúra - हिं० संज्ञा पुं० [हिं० श्राम+चूर ] सुखाऐ हुए कच्चे ग्राम का चूर्णं । श्राम चूर्ण । श्रम की फकिया । खटाई । पिसी हुई श्रमहर Parings of the mango dried in the sun ई० मे० मे० । श्रमज् amaj - श्र० श्रति उच्य, अधिक तृषा, अत्यंत प्यासा होना ( Very hot, excessive thirst) श्रमड़ा auará हि० पुं० [सं० श्राभ्रात, या अंत्रा ] श्रमारी, श्राम्रातक, थम्बाड़ा, ( Spondias mangifera ) एक पेड़ जिसकी पत्तियाँ शरं। फे की पक्षियों से छोटी और सीकों में लगती हैं । इसमें भी ग्राम की तरह बौर श्राता है । और छोटे छोटे खट्टे फल लगते हैं जो चटनी और प्रचार के काम में आते हैं । श्रमडाई amadai-पं० कालीग्वार, पवना, मोरेड़ -for Aloes Indica ( The black yar of-) I T Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रमण्ड: amandah - सं०० एरण्ड वृक्ष । अरंड ( Castor oil plant ) प० मु० हारा० । । श्रमत amata - हिं० संज्ञा पुं० [सं०] ( १ ) मत का अभाव | श्रसम्मति । ( २ ) रोग । (३) मृत्यु | अमती amati-बम्ब० बायविडंग । रोहिण गढ़वा० । (Embelia ribes. ) अमतीपण्डु amati-pandu-aro केला, कदली ( A plantain ) ( Musa sapientum) For Private and Personal Use Only श्रमत्त amatta - हिं० वि० [सं०] ( 1 ) मद रहित । ( २ ) शांत । अमदरियान amdariyana-यु० बकरे के सर एक वृक्ष है, किन्तु इससे छोटा होता है । इसकी लकड़ी से तस्बीह (सुमिरनी, मनियाँ) बनाई जाती है इस कारण इसको राजतुतस्वीह तथा अयूब भी कहते हैं। साधारणतः यह मिश्र और शाम देश में उत्पन्न होता है । द Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ... अमदेस मोटापना अमरकालिका अमदेस मोटापना amdas amotāsana- [स्त्री० श्रमरा, अमरी] (१) लिंगानुशा मो० जंगली भदनमस्त का फूल-हिं० । (Cye- सन नामक प्रसिद्ध कोश के कर्ता अमरसिंह as circinalis or C. 1norines ) ( कोषकार ), (२) अमरकोश । (३) -ले। इं. मे० मे। Amoora Cucullata, Lind AndeATF amdhibka-ajo nat sint, l'souin cucullati, Rox. Ainoora, पक्षीरी-हिं०, दVitis indica-ले। . Hooded. इं० है० गा० । (४) मरुद्रणो में से ई० मे० मे। एक । उनचास पवनों में से एक। (५) पारद, अमधुर amadhura-हि वि० [सं०] कटु । पारा । (६) हइजोड़ का पेड़ । अस्थि संहार । अरुचिकर । (७) देवता । (-) बज्री वृक्ष । सिजू-बं०। अपयश Mamadhvasthadhari ) स्वण, साना । mmini-सं० वि० मध्यस्थ धर्मवाली नहीं, अमर ainmar अ० मसूढे, दांतों के मध्य का वरन् अमध्यस्थ धर्मवाली अर्थात् अनुदासीन मास । अमूर ( व. २०)। गम्ज (Cums.) (सुखादिक भोग भोगने वाली ) । अात्मा (पुरुष) में इसके विपरीत गुण हैं अर्थात् वह अमरकणा anala-hana-सं० स्त्री-गजपिप्पली मध्यस्थ धर्मवाला है यानी वह सुख दुःखादि में | (Scindapsus officinalis.)। वै. उदासीन रूप मध्यस्थ की भांति है । सु. शा० निघ० २ मा० पांडुचि० भूनिम्यादि गुटी । १०! अमर कण्टिका amara-kantika-सं० स्त्री० अमना ama-nifna-० मुर्गी (A her) Tarat (Asparagus racemosa. ) मेमो०। रा०नि०व०४। अमन् amuly-ता० अजवाइन ( Carum | | अमरकन्दः amal-kanda'1-सं० पु. कन्द Copticum.) अमन्तमूल amant-mul-हिं० पु. तरलो, वन | विशेद (A sort of tuber.) वै० निघः । ककड़ा-प। अमरकलानिधि रसः amala.kala-nidhiअमन्दः amandah-सं० पु. वृत्त, rasah सं. पु. मोती, मूंगा, पारा, गंधक अमन्द amanda-हिं. संज्ञा पुं० ) पेड़ समान भाग लेकर रिजौरे के रस में घोटकर (Tree.)|श० । वि० ! . . गोला बनावे फिर उस गोले को बारीक कपड़ असम amam-ता अजवाइन ( Curum मिट्टी करके सुखा लेवें, फिर दो शराबों के बीच (Ptychotis ) Ajowáu. में रखकर अग्नि में पका लेवेण्डा होने पर अमयूलो फरास amyulo-fras-50 रामतुलसी बारीक चूर्ण कर रख लेवे । मात्रा--३ रत्ती । (Ocimum gratissimun.) उचित अनुपान में सेवन करने से राजयक्ष्मा को नष्ट करता है । र० प्र० सु० रायमणि ।। अमयूस amyus-यु०. नानखाह, अजवाइन (Carum (Ptychotis) Ajowan.' अमरकली amarkali-हिं. स्त्री० पार्डिसिया . अमम्रिः a mamrih-अविनाशी, न मरने वाला । कोलोरेटा Ardisia Colorata-ले.A., अथर्व० सू० २७ । २६॥ का० । red flowered-ई। इं० है. गा०।। समर. amara-हिं० वि० [सं० ] मरण अमरकालिकः amakalikah-सं. पु. रहित, नित्य चिरस्थायी । जो मरे नहीं । चिर वृश्चिकालो ( Tyagia involucrata.) जीवी ! हि० संज्ञा पुं॰ [सं०]. । भैष. वा० च्या० सिंहना० गुग्गुल । For Private and Personal Use Only Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमर-काष्टम् अमर-बल्ली अमरकाष्ठम् amalakashtham-सं. क्ली० (२) काश तृण, कास (-सा) (Sacch देवकाष्ट, देवदारु । ( Pinus Deodara.) arum spontaneum ) (2) 1919, अमरकुलुमम amaya kusumam-सं० क्ली० श्राम (Jaugifera. indica)। (४) लवंग, लौंग | Cloves ( calyophyllus केतक, केवड़ा (Padamus odoratiaromaticas.)। वं० निघ० क्षय! ssinus) मे पपञ्चक । त्रैलोक्य-चि. रस। श्रमरपुष्पक: Hinaru-pushpukalh-सं०पु. अमरख malak ha-हिं० पु. कमरख । A | देखो-अमरपुष्पक । fruit ( Averrhot coyimbola.) श्रमरगटा maratgata-प्रामला (Phyllari अमरपुष्पक amara-pushpaka-हिं० संज्ञा thus Emblica ) पु. काश तृण, कॉस का पौधा । कोसा (Fac charum spou titlleim ) I TO JO अमरगयका amalagandhaka-सं० स्त्री० (२) कास भेद । २० मा०। (३) तालअज्ञात । अमरग्रोस amergris-ई० अंम्बर- अ०, हिं० मखाना । (४) गोखरू । (५) कल्पवृक्ष । ब०, मह०, को. अस्त्र ग्रसीया ambra gr' अमरपपिका amara-pushpiki sea-ले०ई० मेमे अमर पुष्पी amara-pushpi अमरजः a aja.h-सं० पु. (२) दुर्गन्ध -सं० स्त्री० चोर पप्पो, शंखिनी। काचकी, चोर खड़िका-बं. | Set-shankbini | खैर, गूह बबूल । Acacia Funesiama, Find. रा०नि० । (२) देवदारु ( Pinus रमा० । (२) काशतृण, कासा ( Sacchdeodara ( ३ ) नदीवट । बै० नि. २म. aluin spontaneum ) । देखोग्रंथ्यादि स्त्र। श्रमरप एक । अमरजेल amarjel-श० अज्ञात अमरफलम् amara-phalam-सं० क्ली अमरतरुः amara-taruh-सं० . देवदारु | अमृतफल, नाशपाती The pear (tree ( Pinus deodara) अर्कादिः "किराता- Pyriis communis. ) मरतरूरसनाः।" चै० निघ० सा ज्व०। अमरबेल amale-beq-हिं. संज्ञा पु० । अमरद aamanrl-करनस, अजमोदा (calllm अमरबल्ली amala balli " " स्नान ! roxburghianam). अमरवेली amara-beli-" " " अमरदारु nmaldaru-सं० पु. क्ली, हि० अमरबेत्य amara-belva-ro. संज्ञा पु. वृक्ष विशेष । देवदारु का पेड़ । तैल ! अकासबेल, अाकाश वौर, श्राकाशवली (cassyदेवदारु रा०नि०व० १२१ चि. क्र. क. tha Filifornis, inn) | फो० ई बल्ली स्त्री रोग चितैल तेवदारु वृत्त । मलंगा ३ भा०। देवदारु-बं० । (Cedrus deodara). । अमर(ल) रत्नम् . amarn(Ta) yatnam अमरद्रः A maradsuh-सं० पु. विट् खदिर । सं० क्ली। विल्लौर । रा.नि. वृक्ष, दुर्गन्ध खदिर । मूह बबूल । गुजे बाजूला । अमरत्न amara tna-हिं० संझा पु० । स्फटिक (Acaciafarnesiana, IVilla.) (मणी) फिटकिरी (Alumen) । रा० अमरन्थ amaranth-ई० चौलाई । देखो-। नि०। काच । देखो-काचः (Kachan) अमारेन्थस । | अमरवल्ली amara-valli-हिं० संज्ञा स्त्री. अमरप पम् amaya-pitsa pa.m-सं०.. [सं० अंवरबल्ली] अकालबेल । आकाशवर । चली. पूगफल, सुपारी (A rece se miinaa अमरबौरिया । ( cassythaiei fornnis, For Private and Personal Use Only Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अमरतान अमरतानāamairtan उमैर्तान āumairtán छोटी छोटी अस्थियां हैं जिन्होंने भीतर की ओर से घेरा हैं । www.kobatirth.org ४६४ -श्र० जिह्वा मूल में दो ऊर्ध्व कंठ को नोट -- चूँकि चुल्लिकास्थि (Os Hyoid ) के अतिरिति कोई और अस्थि नहीं इसीलिए ये उपो अस्थि के दूसरे प्रवर्द्धन ( निकाल ) हैं जिनकी लघुटक व वृहत् श्रृंग कहते हैं । अमरलगड्डु ainarata-dd-० श्रज्ञात ! अमरलता amara-lata - हिं० स्त्रो० गुरुच, सोमलता ( Tinospora cordifolia . ) श्रमरलता का बीज amara-lata ká-bíj - हिं० ० गुरुच बीज | Tinospora coldifolia ( Seeds of - ) श्रमरवल्लरी amara-vallari -सं०स्त्री० अमर बह्निका amara-vallika ( अकालबेल श्रमरवली amara-valli आकाशवली ( Cuscuta Reflexa. ) भा० पू० १४० गु० ब० मद० ० १ । श्रमरस & marasa - हिं० संज्ञा पुं० [हिं० आम+रस ] निचोड़ कर सुखाया हुश्रा श्राम का रस जिसकी मोटी पर्त बन जाती है। श्रमावट ! अमर सर्वयः amara sarshapah सं॰ पुं० देवसप राई | Sinapis juncea. । वै० नित्र० । See Deva sarshapa. अमरसालह, amra-salah अ० धेनुक श्रमुज नह amujjanah पक्षी, हरकीलड् ( गृध सह एक मांसाहारी पक्षी है)। अमरसी amrasi - यु०, आस वृत ( Myr. tus comunis ) । हिं० वि० [हिं० अमरस ] श्राम के रसकी तरह पीला | सुनहला - यह रंग एक छटांक हलदी और ८ मा० चूना मिलाकर बनता है | अमरसुन्दरः amarasundarah सं० पु० पारद की भस्म, शिंगरफ, शुद्ध हरताल की भस्म और गन्धक इन सबको बराबर लेकर भांगरे के रस से और काकमाची के रससे भावना देकर Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रमरा कुक्कुट पुट में पकाऐं, इसी प्रकार ५ वार करने से यह सिद्ध होता हैं । उचित मात्रा से उचित अनुपान द्वारा सभी रोगों को नष्ट करता है । र० प्र० स०, २० म० मा० अतिसार ज्वरादौ श्रमरसुन्दरी amara sundari-सं० स्त्री० ज्वराधिकार में वति रस, यथा- त्रिकटु, त्रिफला पीपलामूल, अकरकरा, रेणुका, चित्रक, विडंग, चातुर्जात, मोथा, लौहभस्म, पारद, विष तथा गंधक इनको समान भाग लेकर चूर्ण करें । पुनः इससे द्विगुण गुड़ मिलाकर कोल लर्धात् बेरी सदृश गुटिका निर्मित कर सवेरे सेवन करें । प्रयोग० । श्वास, खासी अपस्मार, सन्निपात, गुदरोग, वातव्याधि और उन्माद को नष्ट करती है । वृ० नि० ० भा० वा० । श्रमरा amara=हि० संज्ञा स्त्री० [सं० ] (१) अभ्वाड़ा, श्राम्रातक | The hog plum ( Spondias man-gifera ) .. सं० स्त्री० (२) दुर्व्वा, दूब (Cynodon dactylon, Pers. ) | मे० रत्रिकं । (३) गुड़ची, गुरुत्र, गिलोय ( Tinospora cordifolia ) र० मा० । ( ४ ) इग्द्रवारुणीलता, इन्द्रायन - हिं० । राखालशशा -च ं० ! ( Citrullus Colocynthis ) रा० नि० ० ३ । ( २ ) नील दूर्वा, नीली ( या हरी ) दूब (Cynodon Linearis ) (६) गृहकन्या, घांकुधार ( Aloe Barbebedeis )। रा० नि० ० ५ । (७) नीली वृक्ष, नील (Indigofera indica ) (८) मेषशृंगी। मेढ़ालिंगी ( Gymnema sylvestres ( ६ ) वृश्चिकाली, बिछाती ( Fragia involnerata )। रा०नि० ० ८ । (१०) नदीजट, वटवृक्ष ( Ficus bengal ensis ) रा० नि० ० ११ । ( ११ ) चमड़े की झिल्ली जिसमें गर्भ का बच्चा लिपटा रहता है। श्राँबल, जरायु । ( Uterus ) । मे० रत्रिकं । ( १२ ) जेर, जेरी, खेड़ी, ( Placenta ) (१३) गर्भ For Private and Personal Use Only Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अमराई नाड़ी, फूल । भैष००० (१४) नाभिनाल । नाभि का नाल जो नवजात बच्चे से लगा रहता है । ( १२ ) सेहुँ, थूहर । (१६) नौली कोयल । बड़ा नील का पेड़ ( १७ ) बरियारा । (१८) बरगद की एक छोटी जंगली जाति । ! श्रमराई amarai - हिं० संक्षा स्त्रो०, [सं० श्रवराजि श्रम का बाग़, बगीचा, श्रम की । बारी ( A garden of mango trees.) -पं० पवना, मोरेड़ | अमरापातन amará patana - हिं० खेड़ा गि राना । श्रमरापातन-विधिः- (१) कडुई तुम्बी, साँपकी काचली, सफेद सरसों, कडुधा तेल, योनि में इनकी धूनी देने से श्रमश (खेड़ी) गिर जाती है । ( २ ) कलिहारी की जड़ पीसकर हाथ, पाँव में लेप करने से खेड़ी गिरती है। (३) पीपर श्रादि का चूर्ण मद्य के साथ पीने से खेड़ी गिर जाती है । भैष० २० स्त्री० रोग० चि० । श्रमरालकः amarālakah सं० पु० अम्बाड़ा, श्रनातक (Spondias mangifera ) अमराव amaráva - [ सं० श्राम्रराजि, हिं० अमराई ] श्रम की बारी । श्राम का बग़ीचा | मई | अमराह्नम् amaráhvam सं० क्लो० देवदारु काष्ठ Cedrus Deodara ( Wood of - ) वा० सू० १५ बलादि० अरुणः । "शुक्रिर्याघनखोऽमरामगुरुः | " श्रमरी amari-सं० स्त्री० नील दूर्ष्या, हरी दूब ( Cynodon Linearis ) | ( २ ) कृष्ण निर्गुडी, नीला सँभालू ( Vitex Negu ndo, Black var. of - ) | ( 2 ) मूर्धा ( Sanseviera Roxbur ghiana ) । बै० निघ० । - मल०, । ( ४ ) मील वृक्ष ( Indigofera Indica.) । - आसा० हिं० संज्ञा स्त्री० [सं०] (2) ४६५ ५६ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमरुतं श्रासन का पेड़ ( Terminalia Tomentosa ) | सज | सग पियासाल एक पेड़ जिससे एक प्रकार की चर्मकीली गोंद निकलती है। इस गोंद को सुगंध के लिए जलाते और संथाल लोग इसे खाते भी है। इसकी छाल से रंग बनता है । और चमड़ा सिकाया जाता हैं और जलाने में वर्षा जाता है । इसमें से लाही निकलती है और इसके पत्तियों पर रेशम का कीड़ा पाला जाता है । अमरीके का सुमाक़ amarike-ka-sumága • ६०, सुमाके अमरीकद्दू ( Caesalpinia Coriaria, Willd. ) स० [फा० इं० श्रमरुत amarúta - हिं० संज्ञा पुं० [सं० अमृत ( फल ) ] अमरूद ( Psidium Guyava, Linn. ) दो ग्वावा 'The Guava. ई० 1 जामवही ( मध्यभारत और मध्य प्रदेश में ) पेरुक, पेरूफल ( दक्षिण में ) । रुनी ( नेपाल तराई में ) | सफरी, अमरूद ( अवध में ) । लता (तिहुत में ) । दबीजं, पेरुक, मोसलं अष्टथक, त्वचं, श्रमरूद्रं, जांबफलं वतु लं मृदुपीतक', अम्रुत फलम् मधुराम्लक, तुवर, अमृत फल-सं० । प्यारा -बं० । रक्र और श्वेत भेद से श्रमरूत दो प्रकार का होता है । ( ये एक ही जाति के दो भेद हैं ) मधुरियम् श्रसा० । श्रमुक नेपा० । श्रमरून पं० | पेराला बम्ब० । जाम्ब मह० । सेगापु, कोश्रया - ना० । जाम - ते० । सीवी - कना० | मालकाटवेंग बर० । अनूद - श्र० -फ़ा० । श्रमरूत । ( १ ) रक्तः श्रमरूद, ल | ल सीडियम पॉमिकम् Psidium Pomiferum, Linn. ( Fruit of - Red Gurava ) । रक भ्रमरूद फलम्, रक्र बहुबीज फलम् - सं० । लाल सफरी ग्राम, लाल सफरी, लाल जाम- ६० । लाल प्यारा, खाल गो पछि फल- बं० 1 अनूदे ग्रह भर, कुम. स्स रा ० । सुर्ख फां० । ( वेल्लई ) शिवपु -गोय्याप्-पजुम, सेमापु, कोय्यापनम् - ता० । For Private and Personal Use Only Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमरुत एरंजाम पराजु, ए गोरया-पण्डु, जाम् कोइा -ते। चेम्-पेर-चेम्-पेरक्क, चोवन-मलाक-केपर, पालम-पर-मल० । केम्पु-शिव-इराण-कना० । ताम्मड-जाम्ब, ताम्बड-तूप-केल-मह. | लाल पियार, लालपेरु, लाल जाम्रूद गु० । रत पेर, रत पेरगाडि-सिं० । मालकी-नी, मलका बेन -बर० । मोधरियान-श्रासा० । ताम्बड-पेरु -बम्ब०। ( २ ) श्वेत अमरूद, सफेद अमरूत, सीडियम् पायरिफेरम् Psidium Pyriterum, Linn. ( Frnit of- White Guava)-ले। सुफ़ेद सफरी अाम सुफ़ेद जाम्-द० । धोप- गोऋ श्राछि फल, सादा पियारा -बं० । अम्रूदे अबैज-अ० । अमरूदे सुपेद -फा० । वे एलइ गोय्या-पजम-ता० । तेल्ल जाम--पण्डु, तेल-गोय्या-पण्डु-ते। वेड्-पेरा धेड-पेरक्क, वेल्ल मलाक्-कप्पेर -मल० । विलि-शिबे-हराणु-कना० । पाढर-जाम्ब. पांढर तूप-केल-मह. । उजलापियार, उज्लो पेरु, सफेद जमरूद-गु. सुदुपेर, सुदुपेर-गदि-सिं० । मालका-फिऊ-बर० । पाएर-को० । श्रामुक पा० । पाण्ढर-पेरु-बम्ब० । ___ जम्बू वर्ग (..O. Myntatebe. ) उत्पसि स्थान-अमेरिका, यह लगभग सम्पूर्ण भारतवर्ष साधारणतः वंग प्रदेश में खगाया जाता है। वानस्पतिक वर्णन-एक पेड़ जिसका धड़ कमज़ोर, टहनियाँ पतली और पत्तिया पाँच या ; छः अंगुल लम्बी होती हैं। इसका फल कच्चे पर कषैला और पकने पर मीठा होता है और उसके भीतर छोटे छोटे बीज होते हैं। इसके ताजे घड़ की छाल का बाह्य पृष्ट चि. ! कना और भूरे रंगका होता है, और उसपर पर के , समान सूखी हुई छाल के चिह्न होते हैं। कभी । कभी वे कुछ कुछ लगे होते हैं । धूसर उपचर्म के नीचे ताजी छाल हरित वर्ण की होती है, इसके भीती पृष्ठ पर लम्बाई की रुख उभरी हुई रेखाएँ। पड़ी होती हैं तथा यह हलके धूसर वर्ण का होता है । स्वाद-कसैला और ग्राह्य अम्ल होता है। पत्र-सुगंधि युक्र अण्डाकार या प्रायताकार, लघु उंडलयुक्त नीचे की ओर कोमल रोमों से श्रावृत और मुख्य पत्र शिराएं अस्पन्त स्पष्ट होती है। रासायनिक संगठन--छाल में कपायीन (टैनीन) २८४ प्रतिशत राल और कैल्सियम ऑरजेलेट के रखे होते हैं। अधिक परिमाण में कार्बोहाइड्रेट्स ( काबोंज ) और लवण होते है । पत्र-में राल, वसा काष्टोज (cellulose) कपायीन ( टैनीन ) उदनशील नैल, हरिन्मूरि (Chlorophyll) और खनिज लवण श्रादि होते हैं । बसा लोरोफार्म में पूर्णरूप गे और ईथर या ऐलकोहल में अंशतः विलेय होता है। किंचित् हरित उड़नशील तैल में युजिनोल (Eugenol) नामक पदार्थ होता है। यह तैल क्लोरोफार्म ईथर या ऐलकोहल में धिलेय होता है। इस पेड़ में स्फुरिक (Phospuoric) चुक (Oxalic) और सेब (Malic) अम्लों (Aciils ) के साथ मिले हुए कैल्सियम तथा मैंगानीज वर्तमान होते हैं। मूल, कांड त्वक तथा पत्र में अधिक परिणाम में टैनिक एसिड (कपायिनाम्ल होता है। प्रयोगांश-स्वक् (मूल तथा कांड ) फल और पत्र व भस्म । इतिहास---वि0 डिमक महोदय के मतानुसार दोनों प्रकार के अमरूत अमेरिका से लाए गए । सम्भवतः पुर्तगाल निवासी इसको यहाँ लाए । पर भारतवर्ष में कई स्थानों पर यह जं. गली होता है। प्रभाव-कांड, त्वचा और मूलत्वक संकोचक हैं। अपक्क फल न पचने योग्य होते और वमन तथा ज्वरोत्पादक होते हैं। गुणधर्म तथा उपयोग गुण-कपैता, मधुर, खट्टा है और पका श्रमस्व स्वादिष्ट होता है । यह वीर्यदायक, बात, पि. तन्न, शीतल कफ का स्थान है तथा भ्रम दाह, For Private and Personal Use Only Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रमरुत और मूळ को नष्ट करता तथा भारी है। अभि. नि० १ भा० । - यूनानी मत सेप्रकृति-प्रथम कदा में शीतल और दूसरी ।। कना में रूह है। किसी किसी के मत से १ कक्षा में सव तर तथा मधुर उष्ण प्रकृति युक्र । हानिकर्ता-पाध्मान कारक, शीत प्रकृति ! तथा प्रामाशय नैर्बल्य को ।। दर्पघ्न-सांठ का मुरब्बा और सौंफ (- मिर्च स्याह तथा लवण)। प्रतिनिधि–सेब, बिही या नाशपाती पावश्यकतानुसार। मुख्य कार्य-हृय, हृदयबलदायक तथा | प्रामाशय व पाचन शनि को बल देने वाला है । । मात्रा-मध्यम परिमाण में शक्त्यानुसार २.३।। शवत की मात्रा-२ से ४ तो० तक व न्यूनाधिक। गुण, कर्म, प्रयोग-अपने कपायपन तथा कब्ज (संकोच ) के कारण संग्राही है। मवादका अवरोधक और अपनी शीतलता तथा अम्लता के कारण तृषा तथा पित्त को प्रशांत करता है । श्र- पने संग्रहण वा संकोच (क ) तथा कषायपन अम्लत्व और सुगंध के कारण प्रामाशय को बल प्रदान करता तथा उसके परदों को स्थूल एवं सशक बना देता है । ( नफो०)। यह बालादकर्ता और शक्रि प्रदान करता है। संग्राही तथा कोष्टमृदुकर होने पर भी जिला | करता है। हृदय आमाशय और पाचन शक्ति को | बलवान करता, प्रकृति को मृदु कर्ता और मूर्छ । को दूर करता है। बुधा को बढ़ाता और मस्तिष्क | को शोनल रखता है। इसका गगडप हृद्य तथा वल्य और रक्रपित्तघ्न है । इसके पत्र अतिसार तथा व्रण के लिए अत्यन्त लाभप्रद है। फिट. किरी के साथ इसका क्वाथ दाँतों को लाभप्रद प्रौट इसके जले हुए पत्र तूतियाकी प्रतिनिधि है। (निर्विषैल)। म. मु.।। इसके पुष्प हृद्य, हृदय बलदायक, रक्रनिष्ठी- . वन तथा अतिसार को नष्ट करने वाले है। इसका लेप चन शोथ लयकता है। इसके बीज ग्रामाशयस्थ कृमिघ्न हैं। इसके पत्र असिसार के बद्धक और शुष्क पत्र को बारीक पीसकर छिड़कने से व्रण शोधक एवं पूरक हैं । इसका निर्यास दोष लयकर्ता और बलवान मुजिज ( मल पककर्ता) है। इसकी लकड़ी और जले हए पत्र तूतिया की प्रतिनिधि हैं। प्रवचूर्णन करने से ये सतों को शुष्क करते हैं। लेखक के अनुभव में मधुर श्रम. रूद पेचिश (प्रवाहिका ) को नष्ट करता है । बु० मु०। नव्यमत इसके फल अर्थात् अमरूद देशी लोगों को बहुत प्रिय है ! वे इसकी सुगंधि को बहुत पसंद करते हैं। यह संग्राही है और मलावरोध जनन की प्रवृत्ति रखता है। युरोप निवासी इसको जेसी रूप में अथवा पकाकर खाना अधिक उसम ख्याल करते हैं। गोश्रा के पुर्तगाली इससे एक प्रकार की पनीर प्रस्तुत करते हैं। इसकी छाल संग्राही है और बालकों के परातन असिसार की औषध रूप से यह फार्माकोपिया ऑफ इरिया में प्रशं. सित है । डॉक्टर वट्ज़ (Dr. Waitz) अर्दू अाउंस मूलत्वक् को छः अाउंस जल में ३ पाउंस रहने तक कथित कर उपयोग में लाने का श्रादेश करते हैं। इसकी मात्रा-१ वा अधिक चाय की चम्मच भर दिन में ३.या चार बार दें। वे इसको बच्चों के गदश रोग में चार संकोचक रूप से उपयोग करने की शिफारिश करते हैं। अतिसार में इसके पत्रका भी सफलतापूर्वक उपयोग किया जा चुका है। सिकार्टिल्ज ( Discourtilz.)अगंध्यक्षेपहारक श्रीषों में इस पौधे का वणन करते हैं। इसके कोमल पत्र एवं पदव का काथा इन्डीज़ में वरन तथा प्राक्षेपहर स्नानों में प्रयुक्र होता है तथा पत्र का फांट मस्तिष्क विकारों. वक प्रदाह और प्रकृति दोप( cachexia)में। अामयात में इसके पीसे हुए पत्रका स्थापिका उपयोग होता है। इसका सस्व अपस्मार तथा कम्पवात में प्रयुक्र होता है। बालको' के पाप For Private and Personal Use Only Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमरूप भामरेर - - - ( convulsion ) में इसके टिंक्चरको उसकी अमरुफलम् amaruphalam संक्ली० उत्सर रीढ़ पर मालिश करते हैं। फल तथा फन्न का देश में प्रसिद्ध फल विशेष । गुण--अमरुफल मुरब्बा ये दोनों संग्राही है, और उन रोगियों के शीतल मल को पतला करने वाला, दस्तावर, लिए जो अतिसार और प्रवाहिका से पीड़ित हैं, दाहकारक, तथा रक्रपित्त, कामला, मूत्रकृच्छ, अत्यन्त उपयोगी हैं। फा० ई.२भा०। तथा मूत्राश्मरी को नाश करने वाला है। वे कांड स्वक तथा मूलत्वक संग्राही हैं। अपक्व निघ। फल पचने के अयोग्य है और बमन तथा ज्वरांश अमरूल amarila R० चूका, खटकल । चांगेरी उत्पन्न करता है। -सं०1( Runnex Scintatus.) मनोहर फल के कारण इसके वृत की बड़ी : अमरेन्सनमः amarendra-taruh-सं०५० प्रतिष्ठा है, परन्तु इसके बीज हानिकारक होते हैं। देवदास वृक्ष (Cadras Daodara.)। इसकी जेली हृदय बलदायक और मलावरोध के | वैनिघः भा. ज्य.निगुण्डीधूपः । लिए उत्तम है। फलत्वक् युक्र इसको खाना , 'अमरेन्द्ररसः amarendra-lasa h-सं० पु. चाहिए । फलत्वक् रहित म्वाने पर यह मलावरोध शुद्ध गन्धक और सोहागा प्रत्येक मा. गोदंती करता है। अपक्व फल्न अतिसार में प्रयुक है। । २ मा० इनको मिलाकर चार पहर तक भौगरे के गैरइ ( Garod) ने रनया में इसके फल रस में मह न करें, फिर ६ दिन तक पान के रस की बड़ी प्रशंसा की है। वह जल जिसमें इसके में घो।मात्रा-मुद्न प्रमाण | गुण-भयानक फल तर किए गए हो बहुतमूत्र जनित तृषा के . ज्वर, पित्त जनित दाह, अनेक प्रकार के थूल, लिए उत्तम है। विशूचिका जन्य छर्दि तथा । अतिसार के निग्रहण के लिए इसका ( मूलस्त्रक) और गुल्म को नष्ट करता है | पथ्य-दही, काय प्रयोग में प्राता है । इसके क्वाथ का स्कर्वी .. भात । र० क.० यो। तथा दूषित व्रण में, मुख धावन रूप से सूजे हुए अमरेश्वरोरस: amareshvaro-rasah-सं० मसूड़ों में लाभदायक प्रयोग होता है। इसके पु. पारा और उससे द्विगुण गन्धक लेकर पीसे हुए पत्र की अन्युत्तम पुल्टिस तैयार होती। कजली बनाएँ, और जमीकन्द के रस से सात है। ई० मे० मे। भावना दें, फिर शव, हर, धतूरा, कौड़ी. इसकी छाल संग्राही, ज्वरन और प्राक्षेपहर ! छोटे शंख, चित्रक, भिलावा, हरिण का सींग, फल कोष्टमकर और पत्र संग्राही है । ई०३० अंगुलिया थूहर और सेंधा नमक इनके क्षारों को प्रत्येक गन्धक के समान मिलाकर घोटें फिर थूहर का क्षार, त्रिकुटा, जमीकन्द, वंशलोचन, अमरुद amaruda-हिं०,अ० श्रमरून, अमृनफल । भिलावा और वियक प्रत्येक को गन्धक के समान (Psydium Pyriferum.). डालें और सूरण के रस की २७ भावना देखें। अमरूदे-अबैज़ amaride-abaza-अ०, सि. मात्रा-२ रत्ती । मनुपान ..घी । गुण-अर्श अमरूद । See-Amarut. को २१ दिन में नष्ट करता सिद्ध योग है। र० अमरूदे-अह मर amaride-ahmar-अ० । को प्रशोधिकारे। अमरूदे-सुर्य amarile-surkh- फा मरेर amarer-पं० चेन्जुल, थान, सियारू, a mararetio शेज लान अमरूत, सुर्ख अमरूद । ('The Red पिञ्चो, शकेई । -मेल० सुस्स, संसरू-चनाव । ____guava.) | See-Amarita. मेमो० । Beehmeria salicifolia, अमरूदे- द.marude-sufeda-फ.हि.. D. Don. एक पौधा है जिसका फल खाया रखेत ममरूत ( The white guava.)! जाता है । De bregeasia Bicolor, See-Amaruta Wedd. For Private and Personal Use Only Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भमरैया अमलक्यादि पाक: अमराई। प्रमरैया amaraiya-हिं० संत्रा स्रो० देखो- व पशु से इच्छापूर्वक सम्पादित हो । विरुद्ध इसके क्रिअल में इसका बंधन नहीं। यह प्राणि एवं अमरोला amaroli-हिं० चूका, गिरी । (Ru• खनिजों में से हर एक के कार्य तथा प्रभाव के mex Seutatus. ). लिए बोला जाता है। अमर्त्य amartya-सं० त्रि० जिसकी मृत्यु न हो । श्रमलको amalaki सं० स्त्री० मुँह मामला अथर्व० । सू० ३७ । १२ । का० ४। (Phyllanthus inerturi. ) श्रमर्दिन anardita. हि० वि० [सं०] जिस अमलक्यादिखगड amalakyādi-khanda का मर्दन न हुआ हो । जो मला न गया हो। । -सं० श्रामला १ कुडव (१६ तो.) लेकर अमर्ष anarsh- हिं० संज्ञा पुं० [वि० ग्रम- पकाएँ, पुनः टुकड़े टुकड़े करके ६४ तो. गोदुग्ध पित, अमर्षी ] क्रोध, कोप, रिस । । में पीस ६४ तो. गोघृत में पकाएँ, पुनः उसमें अमर्षण amarshana-हिं० संज्ञा पु० [सं०] , ६४ तो० मिश्री अड्मा मूल १६ तो०, जीरा, क्रोध, रिस | (Anger.) । असहिष्याता। भिचं, पीपल, दालचीनी इलायची, तेजपत्र, नागअक्षमा । केशर प्रत्येक १-१ तोळ बारीक चूर्ण कर उक्र अमर्थी amarshi-हिं० वि० [सं० श्रमर्षिन् ] | अवलेह में मिश्रण कर उत्तम पात्र में स्थापित क्रोधी, रागी, कोपान्वित असहनशील । ( Pas- करें। उचित मात्रा में सेवन करने से भयानक sionate, choleric. ). दाह, मूर्छा, पुरानी छर्दि दूर होती है । वंगसे. अमलम् amalam-सं० को सं० दाद चि.। अमल amala-हिं० संज्ञा पु. अभ्रक, अमलक्यादि गणः amalakyādi-gunah अबरक Tale (fica.)। मे० लत्रिक । श्रामला, हड्. पीपल, चित्रक । (२) समुद्रफेन, समुद्रमाग । ( Outtle- गुगा–प्रत्येक ज्वरनाशक, कफन, भेदी, fish bone.)र०मा० । (३) कपूर, कपूर दीपन और पाचन है । वगसे० सं० गण (Camphor.) । वै० निघ० २ भा० पाठाधिकारः । अपस्मा० चि० । (४) रौप्यमाक्षिक, अमलक्यादि पाक: amalakyādi-pakah रूपामक्खी । See-Roupyamakshika. -सं० दु. काकड़ासिंगो, तालीशपत्र, (१) पित्त (Bile.)। See-.Pitta. I त्रिफला, खिरेटी, गिलोय, विदारीकन्द, कचूर, ( ६ ) कतक वृक्ष, निर्मली। (Strychnos जीवन्ती, दशमूल, चन्दन, नागरमोथा, कमलPotatoytum.) । (७) गंधद्रव्य विशेष । गट्टा, इलायची, असा, दाल, अष्ट वर्ग; पुष्कर(An Aromatic Substance. ) मूल, पृथक पृथक ११-१॥ पल ले। और अमल amala-हिं० संज्ञा पुं० [अ०] (1) १६ सेर पानी में ५०० प्रामला प्रौटाएँ फिर मादक वस्तु, नशा । ( Intoxication प्रौट जाने पर निकाल तैल घृत ६-६ पल लेकर (२) अफीम ( Opium)। (३) काम अामलों को भूने तदनन्तर प्राधा तुला मिश्री की ( Cupid ) । ( ४ ) प्रभाव, असर । (५) चाशनी करके मामलों का पाक करें । जब शीतल प्रयोग ( Use)। होजाए तो ६ पल शहद डाल दें। फिर बंश-वि० [सं०] निर्मल । स्वच्छ । लोचन, चातुर्जात और पिप्पली इनमें से प्रत्येक अमल aamala-० ( ए० व० ) अश्माल २-२ पल डाले और उन गवादि का चूर्ण कार्य, कार्य करना। भी डाले। अमल. क्रिअल और सिना का भेद । अमल । गुण-इसके सेवन से रक्रपित्त, भय, कास, प्रधान है तथा क्रिब्ल सामान्य अर्थात् अमल कुष्ठ, भ्रम, प्यास, तथा बुढ़ापा दूर होता है। उस क्रिशूल का नाम है जो प्राणियों जैसे मनुष्य यो चि० क्षय०चि०। For Private and Personal Use Only Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमलगुष । अमलतास अमलगुच amalagucha-पं० पद्मका पदुमका। ( Prunus Sylvatica) अमलच्छदा anmalachchbada-सं० स्त्रो० : भोजपत्र । ( Be tula Bhojpatra). . • अमलज aamalaj-अ० खब भेद । See-- : kharnúba. अमलतास amalatasa--हिं० (द०) सज्ञा । पु० [सं० अम्ल | अमलतास, किरवरा, धन बहेड़ा, किरवालो, किरवारों, सियार (-इ) लाठी (लठिया) बादर तोरई, बाँदर ककड़ी, गिर. माला, शोबहाली, श्रामलटाम् । ! केशिया फिस्च्युला (Cassia fistula, Lin.) केयाटोकार्पस फिस्च्युला ( Cath. artocarpuis fistulit, Linn.)-001 इण्डियन लेबर्नम् (ludianburyin), पुडिंग पाइप ट्री ( Pulding pips tree), पजिंग केशिया Pluging cassia (Pol Or legume of)-इं० । केशी केनीफिशिधर (Casse Caneficier)-sol - संस्कृत पर्याय - चक्रपरिव्याधः ( वै०), ऊठरनुन (शे०), राजवृता, सम्पाकः, चतुरंगुल:, शम्पाक, धारेवतः, व्याधिधातः, कृतमालः, सुथ. र्णकः, (ख०), मन्थानः, रोचनः, दीर्घफलः, नृपद्रुमः, प्रग्रहः, हिमपुष्पः, राजतरुः, कृतघ्नः, महाकर्णिकारः, ज्वरान्तकः, अरुजः, स्वर्णालुफलः, स्वर्णपुषः, स्वर्णद्रुः, कुष्ठसूदनः, कर्णाभरणकः, महाराजद्रुमः, कर्णिकारः, स्वर्णाङ्गः, पारग्वधः, अरग्वधः, पारग्वधम्, सम्पाकः कंदनः, रेचनः, स्वर्णभूषण । सोनालु, सौ (शां) दाल, होनालु, लड़िया शोणाल, बड़ सोन्दालि ! बानोर-लाठी, बाँदर-लाडी, सोनाली; श्रामलतास, राखालबामड़ी -बं० । खियार शंबर, खनू बे-हिन्दी, फलूस-अ०। खियार-चंबर-फा० । सक्के; कायिसारा-तु० । कोन्क -काय, शरक् कौन्हैक्-काय, इरज्विरुटम, कोमरे, कोने, मम्बल कोण्णइ-तारैल-कायलु, सुवर्ण , कोण्ड्। -कायि, रैल-बेटु, रैला-क य, पारग्वधमु, रेल- राला, कोयल-पन्ना, रेयलु-ने, ते। कोमक-काय, कोन (-1)-मल | कके कायि, हेमाके, कक्के, कक्के-मर-कना० । भावाची-मैङ्ग, पाहवा, वान्याच्या, संगातिलगर, पार-बाहवा, बाय, घावा-वडिलु बाह व्याचे झाड़ मह' । गड़-माल, गरमालों, मोटोगरमालो, गरमात, सरमाल-गु० । श्राहल्ल, पाहिल्ल-सि० । नुसी, ग्नूग्यी, ग्नूशवाय-वर० । कक्क यि, कानास्वइलड़ि, बानरलाडि-को । कटु. कोना-माला० । अलोश, अली, करङ्कल, कियार, कनियार, अत्तश-पं० । राजवृक्ष, किटोल-कुमा। रामवृक्ष नैपा० । चिम्कनी-लि० नर्निक-संता० हरी-(कोल.) सोनालु-( गारो । सनारु-आसा० । बन्दीलाट-कछा० । सन्दारी, सुनारी-उडि० । कितवाली, सितोली, इतोला, कितोलो, भिमर, सीम-उ०प० प्रा०। वर्गा-श्रा० । जग्गर वह, रैला, पिरोजह . करकच-म०प्र०। जग्गर, जगरुपा, कंबार, रेरा ( डा)-गों। गरमाल, यावा -वम्ब०। वडिल बाहवा हेगके-क० । कानाइ. लड़ी-श्रा०। सुनारि, संदरी-सोनरी-३० एसन (सिंहली )। परिचय ज्ञापिका संज्ञाएँ-स्वर्ण पुष्प दीर्घ फल । गुण .काशिका संज्ञाएं - कण्डुघ्न, ज्वरान्तक, कुठसूदन, रेचन । शिम्बो या यर वर्ग। (1.C. Leguminose) उत्पत्ति-स्थान-प्रायः समस्त भारतवर्ष पश्चिम भारतीय द्वीप समूह और बर्मा तथा ब्राज़ील अफरीका के उष्ण प्रदेश । __ वानस्पतिक-वर्णन-अमलतास के वृक्ष बिमा यस्म के जहाँ तहाँ उत्पन्न होते हैं। पत्र प्रायः ३-६ जोड़ेमें होते हैं, अग्र भाग में अयुग्म पत्र नहीं होता, पत्र का पृध तथा उदर मसृण और बृन्त हस्त्र होता है। पुष्प पोतषण का एवं सुदीर्घ, अवनत और अशाख पुष्प दंड पर स्थित होता है । पुष्प-योज-कोष-एक कोष युक्र होता है जिसमें असंख्य बीजकण होते हैं। वे जितने ही परिपक्व होते जाते हैं, उतने ही अन्तर में पड़े हुए परदों की वृद्धि के साथ परस्पर पृथक् भूत होते जाते हैं। परिपक्व फल-नलाकृति, हस्ताधिक दीर्घ हुस्व, मजबूत, काष्टीय डंठल युक्र एवं नोकदार और लगभग हं. व्यास वृक्ष से For Private and Personal Use Only Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमलेतांस अमलतास लटका रहता है । फल का ऊपरी भाग मसूण, | पकने पर गंभीर धूसर वर्ण का हो जाता है । डंठल । का फाइब्रो वैस्कुलर ( Fibro Fasculal ) सभ दो चौड़े समांतर सीवनियों में विभक । होता है, जैसे पृष्ठीय और डदरीय सीमंत जो शिम्बिके समग्र लम्बाई भर होते हैं । ये (सीमंत) 'सचिक्कण अथवा लम्बाई की रुख किंचित् धारीदार होते हैं । इनमें से हर एक दो काष्टीय गहों द्वारा निर्मित और एक संकुचित रेखा द्वारा संयुक्र होता है । एक फली में पाए जाने वाले २५ से १०० बीजों में से प्रत्येक अत्यन्त पतला कापट्रीय पर्दा से निर्मित एक कांष में स्थित होता है। बीज चक्राकार रक्ताभ धूसरवर्ण का होता है, जो चारों ओर से अहि फेनवन कृष्णवण के पदार्थ से श्रावृत्त होता है। यह चिपचिपा मधुर ! एवं दुर्गन्धियुक्र होता है। नोट- इसका केवल यह शुद्ध गूदा हो फामांकोपिया में प्रविष्ट हैं । पुष्पकाल :--- वैषाख और मेष्ठ। रासायनिक संगठन - फल के बारीक चूर्ण । के बाप्प स्रवण विधि द्वारा अर्क खींचने से मधु गंधि युक्र एक श्याम पीत वर्ण का अस्थिर तैल प्राप्त होता । तैलीय अर्क में साधारण ब्युटिरिक एसिड होता है फल मज्जा में शर्करा ६० प्रतिशत लाच, संग्राही पदार्थ, ग्लूटीन ( सरेश ), रक्षक पदार्थ, पेक्टीन, कैल्सियम् अॉकलेट, भस्म, निर्यास और जल सम्मिलित होता है। प्रयोगांश-मूल, मूल स्वक् , ( वृक्ष स्व), पत्र, पुष्प, फल, मजा, बी की गिरी। अंतः परिमार्जन हेतु फल और वहिः परिमार्जन हेतु ! यथा कुष्ठ प्रादि में पत्र लेना चाहिए । सि० । यो पित्तः) ज्व० राक्षादौ । इतिहास-अमलतास वृक्ष की प्रादि जन्मभूमि भारतवर्ष है । अतएव प्राचीन भारतियों को उक्र प्रोषधि का ज्ञान था । किंतु प्राचीन यूनानियों को इसका ज्ञान न था। कदाचित् पश्चातकालीन यूनानियों को अरब निवासियों द्वारा इसका ज्ञान हुआ। . औषध-निर्माण-(१) मूल स्वक् क्याथ, मात्रा ५-10 तो० । (२) फ ल मजा, मात्रा २-४ पाने भर । विरेचनार्थ प्राधा से १ तो० । (३) प्रारम्बध पञ्चक । हा० अत्रि०। (४) भारग्वधादि चा० सु० । (५) पारग्वधाद्य तेल । च० द. (६) गुलकंद । (७) बटिका । (८) मद्य । (6) वर्तिका । (१०) अवलेह । (११) म अ जून और (१२) फट । अमलतास के गुण धर्म तथा प्रयोग श्रायुर्वेदीय मतानुसार-अमलतास कंडघ्न (चरक ) और कफत्रात प्रशमन (सुश्रुत) है। अमलतास ( पारग्बध ) रस में तिक भारी उष्ण है तथा कृमि ओर शूल का नाश करता है और कफ, उदर रोग, प्रमेह, मूत्रकृच्छ. गुल्म और त्रिदोषनाशक है। धन्वन्तरीय निघण्टु । ___ पारग्बध अति मधुर, शीतल. शूलधन है तथा ज्वर, करडू ( खुजली), कुष्ठ, प्रमेह, कफ और विष्टम्भनाशक है । रा०नि० व०६ । पारग्वध गुरु, मधुर, शीतल और उपम ख्रसन, कोष्ठस्थ मलादि को ढीला करने वाला है। तथा ज्वर, हृद्रोग, रक्रपित, वातोदावर्त ( अन्द गत वायु) और शूलनाशक है। इसकी फली स्रंसन ( कोठे के मलादिक को शिथिज करने बाली ) रुचिकारी है। तथा कुष्ठ, पिश और कफ नाशक है। अमलतास ज्वर में सर्वदा पत्थ्य और परम कोठशोधक है। भा० पू० १ भा०। राजवृक्ष ( अमलतास) अधिक पथ्य मदु, मधुर और शोतल है। इसका फल मधुर, वृष्य, वात पिच नाशक और सर ( दस्तावर) है। राजवल्लभः । अमलतास १५ रेचक और कफ तथा मेव नाशक है । पुष्प मधुर, शीतल, तिक और माइक है । तथा कषेला... । फल मजा णक में मधुर, स्निग्ध, अग्निबर्द्धक, रेचक और बात एवं पिच का नाश करने वाली है। ध्य. गु० वै० निघः। अमलतास के द्यकीय व्यवहार चरफ-ज्वर में भारग्वध फल-(१) ज्वर रोगो की काष्ठ शुद्धि हेतु ऊष्ण गाय के For Private and Personal Use Only Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अमलतास दूध वा किसमिस के रस ( क्वाथ के साथ ग्रारग् वध फल मजा सेवन करनेको दें। त्रि० ६ ० । ( २ ) रक्तपित्त में श्रारग्वध फल - श्रमल तास की फली की मज्जा को प्रचुर परिमाण में मधु और शर्करा के साथ उर्ध्वगत र पित्त रोगी को विरेचन के लिए सेमन कराएँ । ( चि०४ श्र० ) । ( ३ ) पित्तदर में । आरग्वध का फल - काथ विधि से श्रमलसास के फल के गूदा का काढ़ा तैयार कर पित्तीदर रोगी को सेवन कराना चाहिए। (चि०१८ श्र० 1 ( ४ ) कामला में श्रारग्वध फलश्रारग्वध फल मज्जा को इबु, भूमिकुष्माण्ड वा को श्रमले के रस के साथ कामला रोगी को सेवन कराना चाहिए। इससे कामला का नाश होता है । (चि०२० ० ) । ४७३ (*) कुष्ठ श्रारम्यव पत्र -- श्रमलतास के पत्र को पीस कर कुष्ट में प्रलेप करें। ( चि० ७ श्र० ) । ६) विसर्प में श्रारग्वध पत्र – श्रमलतास के पत्र को बाटकर घृत मिला कफज विसर्प में प्रलेप करें। (त्रि० ११ ० ) । (७) उरुस्तम्भ रोग में अमलतास के पत्र का शाक-तिल तैल द्वारा अमलतास के पत्र का जल में लवण रहित शाक सिद्ध कर ऊरुस्तम्भ रोगी को सेवन कराएँ । ( चि०२७ श्र० "वेारग्वध पल्लवैः " सुश्रुत -- (१) उपदंश में क्षत प्रचालनार्थ प्रारग्वध पत्र -जाति ( चमेली ) तथा आरवध इन दोनों के पत्र का काढ़ा कर उससे श्रीपदंशीय चत का प्रचालन कराएँ । ( चि० १६ श्र० ) ( २ ) हारिद्रयमेह में आरग्वध-प्रमलतास के पत्र वा मूलस्वक् का काथ हरिद्रा मेही को सेवन कराएँ । ( चि० ११ अ० ) वाग्भट - ( १ ) कफ विधि में श्रारग्वध पत्र - आरग्वध पत्र के क्वाथ से कफज विद्रधि के क्षत को धोएँ । ( चि० १३ श्र० ) । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमलतास (२) कफज अरोचक में श्रारग्वधश्रारग्वध फल मज्जा तथा अजवाइन इन दोनों के द्वारा निर्मित काथ को कफज अरोचक में पान कराएँ । (त्रि० ५ ० ) । ( ३ ) राजयक्षमा में श्रारग्वध - बहुदोष, बलवान यदमा रोगी को विरेचनार्थं मधु, शर्करा तथा घृत के साथ अथवा दुग्ध वा श्रन्य तर्पक वस्तु के साथ श्रारग्वध फल मजा का सेवन कराएँ । (त्रि ५ श्र० ) । ( ४ ) कुष्ठ में आरग्वध मूल-अमलतास की जड़ के काढ़े से १०० बार घृत का पाक करें । इस घृत को कुष्ठ रोगी को पान कराएं। श्रौषध सेवन काल में स्नान वा पानार्थ खदिरयुक्र जल का व्यवहार कराते रहें। (त्रि० १६ श्र० ) । भावप्रकाश -- आमत्रात में श्रारग्वध पत्र -- सरसों के तेल में अमलतास के पत्र को भूनकर सायंकाल भोजन के साथ इसका सेवन करें । यह श्रामदोषनाशक है । चक्रदत्त - ( 1 ) पित्तज्वर में श्रारग्ववपित्तज्वरी को अमलतास के गूदा तथा किसमिस द्वारा प्रस्तुत क्वाथ का पान कराएँ । ज्वर० चि० । (२) गण्डमाला में आरवध मूलताजे अमलतास की जड़ की ताजी छाल को चावल के धोत्रन से पोसकर नस्य देने तथा गण्डमाला पर प्रलेप व अभ्यंग करने से इसका नाश होता है । गण्डमाला चि० । बङ्गसेन - इव किटिभ कुष्ट में धारग्बध पत्र -- अमलतास के पत्र को पीस कर लेप करने से उम्र कुछ और सिध्म आदि कुष्टों का भी नाश होता है । For Private and Personal Use Only वक्तव्य राजनिघण्टुकार के मत से शुद्र अमलतास का नाम कर्णिकार है । यह मालूम नहीं होता कि यह किस अंश में छोटा है। धन्वन्तरि rough affare का एक नाम "आरोग्य शिम्बी" और राक्षनिबंदूक दूसरा नाम “पंक्रि बीजक " हैं । Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमलतास अमलतास कालिदास लिखते हैं"प्राकृष्ट हेमद्युति कणिकारम्"। यूनानी वैद्यकीय मत से प्रकृति-गरमी और सरदी में मतदिल है। जिसका प्रमाण यह है कि इसमें कोई ऐसा स्वाद नहीं पाया जाता है ( इसका स्वाद मधुर ; और हीक अत्यन्त तीव्र होता है। अतएव इसको कक्षा प्रथम वा द्वितीय का उष्ण होना चाहिये) जिस हेतु से इसको किसी बलवान कैफियत से संबद्ध किया जाए, और तर है नफां०३। किसी किसी ने । कक्षा गरम तर और किसी किसी ने मतदिल (शीतोष्ण) लिखा है। हानिकर्ताभामाशय के लिए तथा हृलास, मरोड़ और पेचिश उत्पन्न करता है। दर्पघ्र-मस्तगी और अनीतूं से इसके भामाशय पर हानिकर तथा हलासकारक प्रभावकी निवृत्ति होती है। मरोड़ और पेचिश के लिए इसमें रोगन बादाम मिलाकर देना चाहिए । मज तुह्म कह और जुलाल इमली प्रतिनिधि-इससे तिगुनी द्राता, तुर्बुद (निशोथ) और तुर अबीन । मात्रा-१ तो० से ५ या तो० तक । साधारणतः २॥ तो० से ४ तो० तक प्रयुक्र है। __ गुण कम, प्रयोग- अमलतास उदरीय वा वाक्षीय अन्तर अवयवों के उष्ण शोथों को लाभ पहुँचाता है । क्यों कि यह मृदु कर्ता, विलायक व द्रावक है। इन्हीं प्रभावों के कारण कण्ठस्थ शोथों के लिए मको के पानी के साथ इसका गण्डूष किया जाता है, और इन्हीं कारणों से संधिवात तथा वातरक्र पर इसका प्रलेप किया जाता है। यह यकीन ( कामला) और यकृवेदना को लाभ पहुँचाता और उदर ( कोड) को मृदु करता और बिना कष्ट के दग्ध पित्त और कफ के विरेक लाता है। गर्भवती स्त्री को भी इसका विरेचन दिया जा सकता है क्यों कि इसमें क्षोभ (ल.अ.), सीमणता, कब्ज़ (धारकत्व ) और कपापन जैसी कोई दुरी कैफियत नहीं है जो अन्तरवयचों को हानि पहुँचाए । नफ़ो। मीर मुहम्मदहुसेन लिखते हैं कि उत्तम जुलाब होने के लिए अमलतास की फलियों को थोड़ा गरम कर उसका गूदा निकाल थोड़े रोगन बादाम के साथ मिलाकर प्रयोग करें। यह मुल. सिफ (द्रावक ) वक्ष के अवरोधों तथा रक्कोमा को लाभप्रद है और बालक तथा स्त्री यहां तक कि गर्मिणी के लिए भी निरापद रेचक है; किंतु इसका अत्यन्त हलका प्रभाव होता है। उपर्युक्र श्रौषध के साथ यह सम्पूर्ण दोपों का शोधक है। उदाहरण स्वरूप एकत्र हुये पित्त को दूर करने के लिये इसको इमली के साथ पिलाना चाहिए। बलगम तथा सौदा के लिये क्रमशः निशोथ तथा बसक्राइज ( कासनी, पर्ग बेद, भाब शाहतरा) के साथ और प्रान्त्रीयावरोधों को दूर करने के लिए इसको खुत्राबदार वस्तु यथा अतसी वा रोग़न बादाम (रीशा खिल्मी, बिहीदाना या ईषद गाल के लु श्राब) के साथ अथवा कोई उपयुक्र औषध यथा कासनी के साथ सम्मिलित कर प्रयोग करने की सिफारिश की जाती है। संधिबात एवं वात रक आदि के लिए बाह्म रूप से इसका प्रलेप उत्तम होता है । पुष्प एवं पत्र में मुलत्तिफ़ (द्रावक ) गुण का होना बतलाया जाता है । (किसी किसी ने रेचन गुण का होना भी लिखा है)। पुष्प के गुलकन्द बनाने का भी वर्णन आया हैं। ५ से ७ की मात्रा में इसके बीजों के चूर्ण के प्रयोग करने से धमन पाते हैं । और यदि फली के ऊपर की छाल, केशर, मिश्री और गुलाबजल के साथ पीसकर दें तो स्त्री को तुरन्त प्रसव हो । छाल और पत्तों को तेल में पीसकर फोड़ा के ऊपर लगाने से लाभ होता है। (म० अ०) धनिए के जल के साथ इसका गण्डुष व नाक को लाभप्रद है । इसके पत्र सम्पूर्ण शोथों को लय करते हैं । क्वथित करने से अमलतास के गूदे का प्रभाव नष्ट हो जाता है । म. मु.।। यह पेचिश को नष्ट करता, यकृत के रोध का उद्घाटक और यौन ( कामला) और उष्ण प्रकृति को लाभप्रद है। जिसे एक वर्ष न हुए हो For Private and Personal Use Only Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रमलतास अमलतास वह रक प्रमेह उत्पन्न करता है । पुष्प मृदुःकर्ता, श्याम त्वचा का प्रलेप दद्रुघ्न है । बु० मु०।। ___ कासमी पत्र स्वरस, मको और कसूस तथा अन्य उपयुक्त औषधों के साथ इसका उपयोग करने से यह यकृद्वेदना व यकृत् के अवरोध, यान ( कामला) और उध्ण ज्वरों को लाभ दायक है। बकरी के दूध वा प्राब 'जीर के साथ इसका गण्डूप करनेसे ख नाकको लाम होता. अन्यमत एन्सली ने भारतीय लोगों को इसके गूदे और पुष्प का उपयोग करते हुए पाया । डॉक्टर इर्विन लिखते हैं-"मैंने इसकी जड़ को सबल रेचक पाया ।" गुजरात से घिरेचक रूप से इसके उपयोग करने की भी सूचना मिलती कोकण में इसके कोमल पत्तोंका स्वरस दद्रुन रूप से तथा भिलावे के रस के प्रयोग द्वारा हुए खराश के शमनार्थ इसका उपयोग करते हैं। नोट-चूँ कि यह प्रांत्र के भीतर चिपट जाने के कारण क्षोम व घर्षण उत्पन्न करने का हेतु बनता है। अत एव इसको रोग़न बादाम के साथ मलकर काम में लाना चाहिए। . . डॉक्टरी मत से एलोपैथी चिकित्सा में केवल इसका गूदा | अर्थात् प्रारग्वध फल मजा ही औषधार्थ व्यवहार ! होती है। पारग्वध फल मजा, प्रारम्बध गूदिका, अमलतास का गूदा-हिं०। केशीई पल्पा Cassian Pulpa-ले० । केशिया पल्प Cassia Pu]p.-ई। इरले हयार शंबर-१०। (ऑफ़िशल Official. ) निर्माण-विधि- यह कोमल, मधुर, लगभग श्यामवर्ण का गूदा है जो अमलतास की फली से प्राप्त होता है । उक्र फली को जल में मल छान कर यहाँ तक पकाएँ कि वह मृदु रसक्रियावत् रह जाए। प्रभाव-मटुरेचक । मात्रा-मरेचक रूप से ६० से १२० ग्रेन तक और १ से २ पाउस -तक बिरेचक रूप से। यह कन्फेक्शियो सेना में पड़ता है। प्रभाव तथा प्रयोग–यद्यपि ग्रह माकर्ता व विरेचक है । परन्तु, क्योंकि इसके प्रयोग से जी मचलाता है और उदर में मरोड़ होने लगती है।। इसलिए इसको अकेला उपयोग में नहीं लाते, प्रत्युत सनाय के साथ सम्मिलित कर मजून की शकल में दिया करते हैं । (ए० मे० मे०) रम्फियस कहते हैं कि पुर्तगाल निवासी नव्य फलियों एवं पुष्प का मजून बनाते हैं। इसके वृक्ष में छेवा देने से एक विशेष प्रकार का निर्यास निर्गत होता हैं जो कतीरा के समान पानी में फूल जाता है। (डीमक) कैशिया ब्रेजिलिएना (Cassia Braziliana.) तथा कैशिया मॉस्केटा ( Ciussian Moschata.) भी भारतवर्ष में लगाए गए हैं। ये गुण में बिलकुल अमलतास के समान होते हैं। अधिक काल तक इसका प्रयोग करने से गम्भीर धूसर वरण का मूत्र पाने लगता है। कॉफी के एसेंस में मिश्रण करने के लिए इसका गूया काम में पाता है। अजीर्ण स्वभाव के व्यक्तियों के लिए इसके गृदा की प्रशंसा की जानी है। बीज वामक है। मूल तीविरेचक है । फल मजा संग्रह ग्रहणी प्रवण व्यत्रियों के पक्ष में हितकर है। मदुरेचक रूप से इसकी मात्रा ३० से ५० ग्रेन है। ( मेटिरिया मेडिका ऑफ़ इंडिया-श्रार० एन्० खारि, भा० २, पृ० २००) , मज्जा, मूलत्वक् ,बीज और पत्र में रेचक गुण है। मूल रेचक, चल्य और ज्वरघ्न प्रभाव करता है। कि अकेला प्रयोग करने पर पूर्ण प्रभाव हेतु इसको एक या दो बाउंस अथवा इससे भी कहीं अधिक मात्रा में देना पड़ता है । इस लिए इसको अन्य रेचक श्रीपधों के साथ ( सहायक रूप से) पाक वा अवलेह रूप में वर्तते हैं। (इसको अकेल। न वर्तने का यह भी कारण है कि इससे शूलवत् वेदना परिकर्तिका और उदराध्मान For Private and Personal Use Only Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमलतास ४७५ श्रमलतास जनित होता है)। प्रारम्बध गुदिका कॉफी के ! एसेंस में भी प्रयुक्र होती है। इसके गूदे का म जून (पाक ) २ से ४ ड्राम की मात्रा में मृदु । रेचक है। इससे १ वा २ दस्त ग्राजाते हैं। इसके गूदे का पाक बहुमूत्र में प्रयुक्त है । वह गुलकन्द जिसमें कि यह पड़ता है विशेषतः कोमल प्रकृति की स्त्रियों के लिए एक शीतल कोष्ट मकर श्रीषध है । इसकी मात्रा प्राधा श्राउंस है ।। इसको सोते समय उण दुग्ध से सेवन कराएँ । इसकी पकी फली के गूदे में इमली का गूदा मिलाकर सोते समय सेबन करने से प्रांत्र पर इसका मदु प्रभाव होकर दूसरी सुवह को १ वा २ नर्म विरेक हो जाते हैं । बालकों के प्राध्मान युक्र उदर शूल में विरेक हेतु साधारणतः इसको नाभि के चारों तरफ लगाते हैं। प्रामाशयिक विकारों में इसके फूल का काढ़ा दिया जाता है। इसके पत्र को पीस कर दाद पर लगाते हैं। इसके पत्र एवं छाल को पीस कर उसमें तेल सम्मिलित कर उसका, फुसी, दद्रु, शोत के कारण हस्तपाद की अंगुलियों का करायुक्त शोथ (Chilbhains ) कीटदंष्ट्र, अद्धांगवात (Far cial paralysis) और श्रामवात पर प्रलेप करते हैं। मूल, उधर, हृद्रोग, अवरुद्ध स्राव और पित्त विकार प्रभृति में लाभदायक है। (१० मे० मे०) भारग्वध के कतिपय चुने हुए उत्तम मिश्रित योग (१) पाचकावलेह-नीत्र के एक ओर रस में प्राधसेर अमलतासको फलियों को कूटकर डाल दें। दो दिन भींगने के बाद धुले हुए स्वच्छ वस्त्र में डालकर हाथ से हिला हिलाकर छानलें । पुनः उसमें निम्नांकित १० वस्तुओं के चूर्ण को कपड़ बान करके डाल दे। वे यह हैं-दालचीनी, सोड, काली मरिच, छोटी पीपल, हींग (भुनी हुई), छोटी अथवा बड़ी इलायची के दाने इन छः चीजों को २-२ तो० ले और सेंधा नमक, कालानमक, कालादाना ( अग्नि पर मुना हुआ) और नवीन सफेद जीरा (भुनाहुश्रा ) निर्माण विधि-इनमें से अन्तिम की तीन चीजों को शिल पर खूब पीस डाले। बाकी ऊपर लिखो हुई सात चीजों को लोहे की स्वरल में कूटकर कपड़ छानकर लें । सब चूर्ण को ऊपर कही हुई खटाई में मिलाने से बहुत स्वाद पाचकावलेह ( पाचक चटपटी चटनी) बन जाता है। मात्रा-३ मा० से १ तो0 तक। सेवन विधि तथा गुण व प्रयोग-इसके चाटने से मन्दाग्नि व पालस्य दूर हो जाते हैं। रात्रि को चाटकर सोने से प्रातःकाल दस्त साफ हो जाता है। चित्त खूब प्रसन्न रहता है। मोजन में अरुचि होने पर दो घंटे पहिले चाट लेने से भोजन में रुचि हो जाती है। प्रायः ज्वर में मुख का स्वाद बिगड़ा रहता है, इसके चाटने से बह दोष दूर हो जाता है। यह अवलेह कुछ गरम होता है। इसलिए पांच तोले दाख को नीबू के रस के साथ शिल पर पीस छानकर अवलेह में डाल दें और पके हुए अनार के दानों का रस डाल दें तो ये सब गरमी को शान्त कर स्वाद को बढ़ा देंगे । इसको धातु के पात्र में न बनाएँ। स्वादानुसार लवण को न्यूनाधिक कर सकते हैं। (रसायनसार १ भा०)। (२) गुलकंद ख़यार शंबर ( पारग्वध का गुलकन्द )-अमलतास के उत्तम फूल आधसेर लेकर एक चीनी के हावनदस्ता में डालकर थोड़ी थोड़ी सफेद चीनी फूलों में डाले और कूटते जाएँ । जब १ सेर चीनी मिल जाए और मिश्रण गुलकन्द के समान हो जाए तब तैयार जानना चाहिए। इसका रंग पीत होगा। (अथवा गलकन्द की विधि से इसको तैयार करें)। मात्रा-४ से ६ मा० तक | बालकों तथा स्त्रियों के लिए अत्युत्तम है। (३) नऊक खयार शंघर-यह युह या (यूहना) विन मासूयह का योग है। उझाव ५ दाना, सपिस्ताँ (श्मेष्मान्तक) १०० दाना तुरूम खित्मी ३ तो०, मवेज़ मुनका ७॥ तो०; वनफ्सह, अधकुट किया और बोली हुई मुलेठी प्रत्येक ४ तो०, कतीरा ४॥ तो०, अस्पगोल For Private and Personal Use Only Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रमलतास ( ई पद्गोल ) ३ तो०, इन सम्पूर्ण श्रोषधों को ३ सेर पानी में क्वधित करें। जब तीसरा भाग ! रह जाय तब उतार कर साफ करलें । फिर ३ तो० श्रमलतास घोलकर दुबारा साफ करें। पुनः ३॥ मा० सकबीनज और तो० मिश्री मिलाकर काथ करें । गाढ़ा होनेपर रोगन ब्राहाम या रोगन बनसह के साथ मर्दन कर आवश्यकतानुसार थोड़ी थोड़ी दिन में २-३ बार चायें । उपयोग की शोध ज्वर, कृपा, जिह्वा की कर्कराता और बदस्थ व्याधियों यथा- कास, प्रतिश्याय पार्श्वशूल तथा उग्रफुप्फुसौप प्रभुतिमें लाभदायक है। ४७६ ( ४ ) मुख्य फल्स खयार चंदर-कच्चा अमलतास जिसमें गंध का प्रादुर्भाव न हुआ हो लेकर उसका छिलका दूर करके फ़लूस ( ) निकालें थोर पान में खाने वाले चुने के पानी में एक दो घंटे भिगो रखें । जब लाल हो जाए तब उन पानी से निकाल कर दो तीन बार निर्मल जल से धोएँ । फिर मिश्री को गुलाब जल में विलीन करके श्रग्नि पर रखें । जब चाशनी तैयार होने के निकट श्राए उस स मय उक्त फलूस ख़यार शंबर को उसमें डालकर दो तीन उबाल और है और उतार लें | यदि सुवासित करना चाहें तो किञ्चित् कस्तूरी तथा अम्बर भी उसमें सम्मिलित कर } गुण- कोष्टकर है और श्रविच्छिन - कोष्ट तथा बिद् संज्ञक उदरशूल के लिए विशेष कर लाभदायक T (५) मअजून खार शंबर गुलाबपुष्प ७ तो०, सनाय मक्की ७ तो०, सूखी धनियां, रुस्सूस (सत मुले ) १ तो०, सैंधव १ तो० इनको बारीक करके पृथक् रखलें । निम्न औषध को २ सेर वृष्टेि जल में अहोरात्रि भिगो रखें । और १२ तो० श्रननी है तो० श्रालूबुखारा ५ तो०, माज़ फ़लूस ख़यार शंभर २० तो ०, अमलतास के अतिरिक्क शेक औषधों को पादशेष रहने तक कथित कर चलनी से चाल लें तदनन्तर उम्र जल में २० तो० अमलतास भिगोकर Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमलतास कुछ मिनट तक मन्दाग्नि की उत्ताप देकर उतार ले, और पुनः चलनी से छानकर उपर्युक्त बीज प्रभूति डाल दें । उस पानी में १ सेर सफेद चीनी मिलाकर गाढ़ा होने तक पकाएँ । फिर उतार कर बारीक की हुई दवाओं को मिलाकर ४] तो० रोगन बादाम मिला दें। ध्यान रखें कि वह अग्नि पर जल न जाए । गुग्गु -- कौल जहार तथा श्रान्त्र की रूतता के लिए अत्युत्तम को कर है । यह मअजून प्रत्येक प्रकृति के लिए विशेषकर अर्श रोगी के लिए अत्यन्त लाभप्रद है । मात्रा -४ मा० से मा० तक सोते समय पानी या दूध के साथ सेवन करें । ( ६ ) आरग्वध काथ -- पीली हर का ग्रकला ३ तो० ६ मा०, बालूबुखारा, उच्चाव विलायती प्रत्येक २०-२० दाने, मवेज़ मुनक्का, इमली प्रत्येक ५ तो ० ७॥ भा०, गुलाब, गुले नीलोफर प्रत्येक १ तो० १॥ मा०, बनसा १ ॥ तो० सबको १ सेर ६ छ० पानी में काथ करें जब १॥ पाव पानी शेष रहे उस समय उतार कर साफ़ करें। इसमें मरजफ़लस ख़यार शंवर ४ तो० से ७ तो० तक विलीन करके साफ़ करें और मा० मधुर बाताद तेल सम्मिलित कर पिलाएँ। गुण - रेचक है और पैत्तिक ( उ ) दोषों को निःसृत करता है । (७) श्ररग्बध फांट - माज़ फ़लूस खयार शंबर, इमली प्रत्येक ४॥ तो० श्रालूबोखारा १५ दाना, उन्नाव १० दाना, सपिस्ताँ ( लिसोड़ा ) २० दाना सब को गरम किए हुए अर्क कासनी आवश्यकतानुसार में भिगो दें। प्रातःकाल निधार कर सुरंजबीन, शीर ख़िश्त प्रत्येक ३ तो० ३ मा० सम्मिलित कर विलीन करें और स्वच्छ करके रोशन बादाम १ तो० मिलाकर पिलाएँ । गुण-- समग्र उष्ण एवं उम्र पैत्तिक तथा रकजन्य रोगों में लाभदायक है और कोल को मृदु कर्त्ता है । यदि पित्तज कामला ( यन ) हो और पित्त की उब्वयाता हो तो कासनी-पत्र स्वरस ताजा ६ तोले से १२ तो० तक इसी योग में अधिक सम्मिलित करें । For Private and Personal Use Only Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमलतास ४७७ अमलतास मोफ, १ को जाकु- पकाएं सूचना-कास रोगी को इस योग का सेवन (११) शियात खयार शंवर-(प्रारग्वध न कराएँ । फल वर्ति)-पारग्वध फन्ल मजा, लाल शकर ()प्रारग्वध वटिका-मरज फलस प्रत्येक ३ ती०, सनाय मक्की १॥ तो०, खिल्मी खयार शंबर ७॥ तो०, समनिय। मुशवी । ११ मा०, लवण ३॥ मा०। निर्माण-विधि(भुलभुलाया हुश्रा) ॥ मा०. कतीरा इ मा०, । श्रीपों को कूट पीस कर प्रथम दो श्रौषधों के पीली हड़ का यकला, काबुली हड़, काचुली द्वारा बर्सि प्रस्तुत करें और यथाविधि उपयोग हर का बकला, समाय मक्की, ज़रिश्क में लाएँ। ( साफ किया हुया), गुल बनाया प्रत्पेक गुग्ग---उदरशूल को लाभप्रद है और कोड १॥ तो० । निर्माण विधि-माज़ फलस को मृदु करता है। खबार शंचर के सिधा शेप सब श्रौषधों को कूट , छानकर तो० १०॥ मा० मधुर वाताद तैल में (१२) पारग्यध त्वक् क्वाथ-पारग्वध मदन करकं चने प्रमाण वटिका प्रस्तुत करें की छाल, सौंफ, कुसुम्भ बीज प्रत्येक ५ तो०, और वर्क चाँदी में लपेट कर रखें। मात्रा- मजी ३ मा ! सब को जौकुट कर के १। सेस श्रावश्यकतानुसार इसमें से ७ मा० से १ मा० पानी में १॥ पाव जल शेष रहने तक पकाएँ। तक सेवन करें। फिर शर्बत बरी मिलाकर पिलाएँ। गुण--यह सर्वोत्कृष्ट विरेसन है और मस्तिष्क गुण-रजः रोध एवं कष्ट रज में लाभदायक रोगों में हित है। (६) मुलरियन मुबारक -गुलाब १ तो अमलतासकल्प amajatasa-kalpa-हि.प. गुल नीलोफर १ तो०, गुलबनशा ! तो०, अमलतास को दाह और उदार्वत से पीड़ित रोगी पालबोखारा १ तो० तुरंजबीन २ तो०। को दाख के रस के साथ दें (१)-४ वर्षकी अवस्था निर्माण-विधि-समग्र औषधों को रात्रि भर | से लेकर १२ वर्ष तक की उम्र वाले के लिए श्राधसेर अर्क गुलाब में तर करके प्रातः काल इसके गूदे की मात्रा १ प्रसृत से १ अंजली तक इतना पकाएँ जिससे श्राधा शेष रह जाए। है। इसे सुरामण्ड, कोल शीधु,दधिमण्ड, मामले तदनन्तर फल्स खयार शंबर १० तो० को उक्त के रस या शीत कपाय बनाकर उसे सौवीरक के तरल में डालकर थोड़ी देर तक मृदु अग्नि देकर साथ दें। (२)-अमलतास की मजा (गूदे) उतार लें। इसमें १० तो. हड़ के मुरब्बे का के साथ दूध को सिद्ध करके उससे घी निकालें, शीरा मिलाकर १ तो० रोग़न बादाम सम्मिलित फिर उस घी को प्रामले के रस और उसके गूदे कर लें। मात्रा-अवस्थानुसार वैद्य की राय के कल्क से सिद्ध कर सेवन करें। (३)-अथवा से। उसी घी को दशमूल, कुल्थी, और जौ के कपाय गुण-यह प्रत्युत्तम कोष्टमृदुकर है। यह तथा निसाथ श्रादि के कल्क से सिद्ध करके सेवन अत्यन्त सुस्वाद और प्रत्येक प्रकृति के अनुकूल करें। (४)-अथवा दन्ती क्याथ लेकर उसमें अमलतास को मज्जा (गूदा)१ अंजली और (१०) प्रारम्बध गण्डूप-रूलब ख़यार | गुर। अंजली मिलाकर यथा विधि सन्धान कर शंबर ६ तो०, पृष्टि जल २० सो०, शिब्ब यमानी ४५ दिन तक रक्खा रहने दें. जब अरिष्ट सिद्ध हो ( यमनी फिटकरी) मा० सबको विलीन करके जाए तो उसे सेवन करें। जिस मनुष्य को मधुर गण्डूष कराएँ। कटु या लव जिस प्रकार का खान पान प्रिय गुण-टॉन्सिल के शोथ तथा खुनाक के हो उसे उसी के साथ अमलतास से विरेचन देना लिए रामवाण है। उचित है। च० सं० च० अ०। For Private and Personal Use Only Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अमलतासादि क्वाथ अमलतासादि क्वाथ amalatasadi-kvatha - हिं० पु० अमलतास गुदा, पीपलान, मोथा कुटकी, बड़ी हड़, हुनका काय पोने से बात, कफ उबरका शीघ्र ही नाश होता है तथा गोटा गिराता, और श्रमज दूर करते हुए श्रग्नि दीपन च पाचन करता है। शार्ङ्ग ० सं० । श्रमल दीतिः amala-diptih - सं० पु०, कर्पूर कपूर ( Camphor ) । च० ३० । श्रमलपट्टी amala-patti - हिं० ० ( A kind of stithing)। अमल पतत्री amala-patatri - ( इन् ), सं० पुं०, हंस ( A gocse, a gander, a_swan,)। अमल् विल्यद् āamal-bilyad-o श्रम्लिय्यह् āamliyyah हस्त क्रिया, शस्त्र चिकित्सा, जर्राही, दस्तकारी, चीरफाड़ । श्रपरेशन ( Operation ) - इं० । श्रमलवेन amala beta - हिं० सं० पुं० [सं० अम्लवेतस् ] ( १ ) एक प्रकार की लता जो पश्चिम के पहाड़ों में होती है और जिसकी सूखी हुई टहनियाँ बाज़ार में बिकती हैं। ये खट्टी होती हैं और पाचक चरण में पड़ती हैं । ( २ ) एक मध्यम आकार का पेड़ जो बागों में लगाया जाता है । इसके फूल सफेद और फल गोल खरबूजे के समान पकने पर पीले और चिकने होते हैं । इस फल की खटाई बड़ी तीक्ष्ण होती है। इसमें सूई गल जाती है यह अग्नि संदीपक है। यह एक प्रकार का नीबू है | GE अमलवेद् amalabed - हिं० संज्ञा पुं० उ० श्रमलबेत, अम्लवेतस ( Rumex vesicarius) । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रमल रत्नम् वाइन ( Fleshy wild wine- इं० ). मेक मेकतवी-चे. - ना० ( का इं० ) ! कनपतिगे ( फा० इ० मे० प्रा० ), मण्डल - मरीतीगे, मेक-ती-चे, कडु - ढिन्ने, कडेप-तीगे ( ई० मे० प्लां० ) - ते० | जरीला लरा ( ई० मे० प्लां ) - पहा० । खर तुम्बों, खट-तुम्बो ( फा० हं०, इं० मे० प्लां०, मे० मो० ) - गु० तमन्या खटुम्बी (इ० मे० प्रा० ) बलरत दुग्बू सिं० ( इं० मे० मे० ) मै मती ( ई० मे० स० ) - श्रासा० कारिक, अमटवेल, गिदइद्वाक, द्विकरी, बल्लुर, बुकी ( ई० मे० सां) - पं० 1 बोडी, श्रम्बट बेल ( इं० मे० cato, Flo इं० ) - कडमोडी - मह० 1 इक्ब्लीरिक-लेप० । द्राक्षा वर्ग ( X. O. Ampolideue. ) उत्पत्ति स्थान — भारतवर्ष के सम्पूर्ण उष्ण प्रधान देश तथा हिमालय ( के उण स्थान ) 1 प्रयोगांश -- बीज तथा मूल । प्रभाव तथा उपयोग — इसके पत्रकी पुल्टिस ( उत्कारिका ) बैलों की ग्रीवा पर जुआ के कारण हुए चनो के लिए प्रलुक होती है । ( इलियट ) इर्विन ( Irvine ) के मतानुसार इसके बीज एवं पत्र दोनों अभ्यक्ष रूप से प्रयोग में आते हैं । रुट्युबर्ट के कथनानुसार इसकी जड़ को काली मरिचके साथ पीसकर विस्फोटक ( फोड़ा फुसी ) पर लगाते हैं | जड़ संग्राही रूप से प्रयोग में लाई जाती हैं । इं० मे० मे० । } श्रमलमणि: amala-manih-० पु० अमलवेद नींबू amalabeda-nibu- हिं० तुरक्ष! अमलमणि amalamani-हिंοपु० लीहूँ । अमलवेल amala bela - हिं० गिहड़ द्वाक, कस्सर । पं०, हिं० । अम्लपर्णी - सं० । बण्डल, अम्ललता, सोनेकेर - बं० | बाइट्रिमा ( Vitis Carnosa, Wall, Wight )। सीसस कानोसा ( Cissus carnosa ) - ले० | फ्लेशी वाइल्ड ( १ ) स्फटिक, फिटकरी, (Alumen ) । रा० नि० ब० १३ । । ( २ ) कर्पूरमणि, कर्पूरगंधमणि विशेष | (३) बिल्लौर, स्फटिक | अमल रत्नम् amala-ratnam - सं० ली० स्फटिक, फिटकिरी । ( Alumen ) रा० नि० व० १३ । For Private and Personal Use Only Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मल लता ૪૭૮ श्रमसूले अमल लता mala-lata-बं० अमल aamalila-अ० जनाबरी । अमल वेल amala-vela. अमलेलस amalailasa-बरब० अफरीका के देखो-श्रमलबेल। किसी किमी भाग में एक प्रसिद्ध वनस्पति का अमलसी amalasi-फ़ा. अनार भेद अर्थात् , अनार बेदाना । इसे अनार सीतानी भी कहते है। अमलोनी amaloni-हि. संज्ञा स्त्री० [सं० अमला mala-सं० स्त्री० -हिं० संज्ञा स्त्री० अम्ललाणो ] नोनियाँ घास । नोनी। इसकी पत्तियाँ बहुत छोटी छोटो और मोटे दल की तथा (१) महानीली, बड़ा नील । रा० नि० ० ४। (२) सेहुन्छ भेद। ग०नि०। (३) ख.ने में खट्टो होती हैं । लोग इसका साग बना कर खाते हैं जो अग्नि वर्तक हैं। कहते हैं कि भूम्यामलकी । पताल आँवला, भुं ई श्रामला इसके रस से धतूरे का विष उतर जाता है । यह (Phyllanthus noruri ) (8) बड़ी पत्तियों का भी होता है जिसे कुलफ़ा कहते । (५) सातला वृक्ष-हि. संश पुं० [सं० श्रामलक ( ६ ) नापिनाला, श्रामला wizer Phyllanthus Emblica ) अमलोरा amalor-पं० आमला, श्रामी, खेमिल, प्रयोग. जुद्ररोग० चि० । खेतिमल । मेमो०। अमलाल analola-अ० रेत में रहने वाला एक अमलाउझटा amalijjhati सं० स्त्री० भूधात्री जानवर है। भुई आमला (Phyllanthus rneri) अ० टी० भ० । प्रमलालवा amalolava-हिं० त्रिपत्री, अम्लश्रमलो amali-हिं० वि० पत्री, गोधापदी-सं०। Vitis Trifolia, Ci अमली amali-अ. SSUS Carlosa ! देखो-गोधापदिका (१) अमल में आने वाला ! व्यवहारिक । (२) (दी-) करने वाला । (३) चिकित्सा शासका यह अंग अमवती,-टी amavati,ti-हि. खटकल, जो क्रिया से संबन्ध रखता है । ( ४ ) नशे चाङ्गेरी, चूका। Rimex Scutatus बाज़ । (५) अम्ली , इमली। अमश āamash-अ०(१) दृष्टिमांद्य, दृष्टि की . अमली mali-हिं० संज्ञा स्त्री०, द० निर्बलना-हिं । जोफ़ बसर, नज़र की कमज़ोरी, अमली का बोट amali.ka.bot (२) चच द्वारा जलस्त्राव, आँख से पानी [सं० अम्लिका ] (1) इमली, तितडीक बहना । ( Tamarindus Indicus) । (२) अमसः amasah-सं० पु.. एक झाड़ीदार पेड़ जो हिमालय के दक्षिण ! अमस amasu-हि. संज्ञा पु. गढ़वाल से प्रासाम तक होना है । करमई रोग ( Disea3e )। उ०। गौरूबटी 1 । श्रमसानिया amasaniya-पं. बुतशुर | चीवा अमलक analika-हिं० संज्ञा पु० [सं० मेमो) । अम्ल ] एक पेड़ जो अफगानिस्तान, विलचिस्तान | श्रमसुल anyasult-दम्पिल० श्रोठ, श्रोष्ट । हजारा, काश्मीर, और पंजाब के उत्तर हिमालय Garcinia xantho cbyiniis FITO की पहाड़ियों पर होता है । इसमें से बहुत सा इं० १ भ0 । ई० मे० मे०। रस बहता है जो जम कर गोंद की तरह हो अमसूल Amasula-हिं० संज्ञा पुं॰ [देश॰] जाता है। इसका फल साजा और सूखा दोनों एक पतला पेड़ जिसकी डालियाँ नीचे की ओर खाया जाता है । सूखा फल कावुली लोग लाते ! झुकी होती है और जो दक्षिण में कोकण, कनारा हैं। इसे मलूक भी कहते हैं । और कुर्ग के जंगलों में होता है। इसका फल For Private and Personal Use Only Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ४८० श्रम सूख खाया जाता है और गोश्रा में बिंद्राव के नाम से बिकता है । पर यह वृक्ष उस तेलके कारण अधिक प्रसिद्ध हैं जो उसके बीज से निकाला जाता है । बाज़ारों में यह तेल जमी हुई सफ़ेद लम्बी पत्तियों वा टिकियों के रूप में मिलता है जो साधारण गर्मी से पिघल जाती हैं । यह बद्धक | और संकोचक समझा जाता हैं तथा सूजन श्रादि में इसकी मालिश होती है। अमागोरून amághirún यु०, खनूब नब्ती, प्रसिद्ध है। See - kharnúba-nabti. बनाते हैं । रवासन । मरहम भी इससे | श्रमाघौत amághouta-हिं० संज्ञा पुं० (१) एक प्रकारका धान जो अगहन में तैयार होता है । श्रमसूख anasúkh - बरब०, यू० एक अप्रसिद्ध | श्रमातशो amatashi - सं० स्त्री०, सुख बूटी है । श्रमसोल amasola-बं० कोकम, डासरा आमसोल f - हिं० । वृताम्ल, अम्बवृत्तक । अमहर amahara - हिं० संज्ञा स्त्री० [ [हिं० श्रम ] श्रमकी सूखी कली । छिले हुए कच्चे भाम की सुखाई हुई फ़क यह दाल और तरकारी में पड़ती है इसे कूट कर धमचूर भी बनाते हैं। अमा āamá-अ० अंधता, अंधापन हिं० । कारी, नबनाई, अंधा होना | Blindness. श्रमातीतस amātitas-यू०, शादनज या का जो गर्म ताम्र और लौह के कूटने के पश्चात् गिरते हैं । नोट - अ मा अर्थात् अंधा । इसका स्त्री लिंग झम्या है | श्रमाराइलिस जीलेनिका amylopsin-i० श्वेतसार विश्लेषक | देखो -- लोमरम्म | अमाइलोडेक्स्ट्रीन् amylodextrin-ले० श्वेत सार भेद | देखो जायफल । फा० इं० ३ भा० । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रमाइलोप्सिन श्रमाक amaq-० ( ब० ० ), मौन ( ए० व० ) आँख का भीतरी कोया । श्रमात्र amatra - हिं० वि [सं० ] मात्रा रहित वेहद | श्रपरिमित । अमाद āamád ऋ० श्रास की जड़ | See-Asa. श्रमान amana - ता०, अजवाइन | Carum ( Ptychotis ) Ajowan हिं० वि० [ सं० ] जिसका मान वा अंदाज न हो । अपरिभित । परिमाण रहित | इयत्ताशून्य । अमानस्यम् amanasyam-सं० क्ली०, पीड़ा, दुःख ( Pain ) । श्रमाश्रदा amáada - बं० कर्पूर हरिद्रा, श्रम्बा हलदी । ( Curcuma amada ) इं० मे० से० | श्रम केम्फोरिक amyris campho श्रमानून amámún ric-ले० श्रज्ञात | अमूमन amúinan बूटी है । श्रमइरिस कामफोरा anyris commiphora, Road. कॉम्मिफोरा मेडागास्करेन्सिस (Commiphora madagascarensis, Lindl. गूगुल । इं० हैं० गा० । अमाइरिस गाइलोडेन्सिसamyris gylodensis, Road. -ले० श्रज्ञात । श्रमाइली ब्रोमाइडम् annyli-broidum देखो - एमाइल | श्रमायरीन amayrii) --इं० गोंद । श्रमार amara-हिं० संक्षा पु० श्रमड़ा | श्रमारस amáras- यु०, झालर, तुर्मुस । श्रमाराइलीडोई amarylledaceeश्रमाराइलिडेसीई amaryllidacev For Private and Personal Use Only ०, हमामा, पर प्रसिद्ध } ले०, सुखदर्शन वर्ग । श्रमाराइलिस ज़ोलेनिका amaryllis zeyla nica, Ror. ले० । सुखसुदर्शन-हिं० । Crinum zeylanica. - ६ ० हैं० गा० । Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमाराइलिस लिनिऐटा अमारेण्ट(न्य )स हाइपोकण्डिएकस अमाराइलिस लिनिरेटा amaryllis Linea- | -सं० । सिरु-किरई -ता० । सिरु कुर-ते। ta, Lam.-ले० सुखदर्शन । ० है. चौलाई -हिं० । गा । अमारेण्ट(न्थ)स कपरटस amarant (h)FATIMAE fAxtariş amaryllis Cinga us cruentus, dig. ले. ताजे खरूस, lese-ले. सुदर्शन । ० हैं. गा०। खुस्तान अफरोज । गुल्लकेश | Amaranth, भमारी amiri-हिं० स्त्री० अम्ली, सरसोटी-हिं ।। various leaved | मेमो०। ई० हैंमुत्ता-40 । पाती मिल-नेपा० । कण्टजीर-लेप० । गा। पेल गुमडु, मसुर, बउरी-गों० । किम्प-लीन-धरः । अमारेण्ट(न्थ)स गैजेटिकस amarant Antidesma Diandrum, Tulhan. | (h) us gange ticus, Linn.-ले. मेमो०। पत्र व फल स्नाय कार्य में आते हैं। बानसपाता--नटिया-बं० । मेमो.। अमारोतन amaritan-एक बूटी जो किसी किसी अमारेण्ट (न्थ) स ट्रिस्टिस amarant(h)us के मत से बाबूनह गाव तथा किसी के मत से | tristis-ले० माट की भाजी | Amaran. कैसूम की भेद से हैं। th, round headed | ई० है. गा० । अाफैफैलस कैम्पेन्युलेटस Amorphopha- अमारेण्ट (थ) स पैनिक्युलेटा amarant }lus Campanulatus, Blume.-ले० (h) us paniculata-ले. ताजे व रूस, जिमीकन्द, सूरण | फा० ई०३ भा०। बुस्तान अफरोज । मेमोक। अमार्कोफैलस सिल्वैटेकस amorphopha. llus sylvatacus-ले० सूरन, ज़मीकन्द अमारेण्ट (न्थ) स पॉलिगेमस amaranth) -हि । श्रोल-बं० । ई० मे० मे० । us polygamous-ले० Prince's feather (Cock's comb.)-ई। मखास, अमालीन amalina-रु. अंगूर का पानी। देवकटी, चौलाई, कलगा। इं०मेल्मे० खेतमुर्ता अमारेण्ट(न्थ)स amarant(h)us, Sp.-ले० -बं० । अमारेएट(न्थ)स अङ्गस्टिफोलिया amaran अमारेण्ट (न्थ)स फेरिनेशिअस amarant(h)us angustifolia-ले. बनसपाता (h)us farinaceus, Roxb. ले० चौलाई __ नटिया-बं.। मेमो। वर्ग की एक श्रोषधि है। अमारेण्ट(थ)ल अन.ना Amaranth). मारेण्ट(थ)स झुमेण्टेसिस amarant(h) us anardana, Ilamilt.-ले० चुत्रा {19 frumentaceus, Buch.-mor -हिं० । चौलाई, गनहर, तवल, सिल (बीज) किग्रेरी-द. भा० । मेमो०। -पं० । साग बं० । मेमो अमारेण्ट(न्थ )स मैङ्गोस्टेनस amarant(b) अमारेण्ट (न्थ)स पट्रोगप्युरिअस amar | us mangostalus-ले. चौलाई, गनहरlant (h) us atropurpureus-ले० । उत्तरी भा० । साग-बं० मेमो०। वानस्पता। ( Black amaranth)ई० | अमारेण्ट(न्थ )स स्पाइनोसस amarantहै. गा० । (h) us spinosus, Willd.-ले० काण्टा अमारेण्ट (न्थ) स ऑलिरेशिअस amarant | नटिया । कण्टा नटे 40 । कांटेमाठ-द०, बं०। (b) us oleraceus-ले० मरसा, माटकी । मुलुक किरई-ता० । चौलाई, तण्डुलीय--सं०। भाजी, चन्दी साग । ई० हैं. गा०॥ काण्टालो उम्भो--गु० । फा० ई०३ मा०। अमारेण्ट (न्थ) स कैम्पेस्ट्रिस amaranth) अमारेण्ट(न्थ )स हाइपो करिडएकस amar us campestris, Wind.- ले. मेघनाद | ant(h)us hypochandriacus-ले० । For Private and Personal Use Only Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमारेण्टे (न्थे ) शाई अमिय मूरि श्वेतमुरगा-बं० । कलगा,सरवारी,देवकटी-हि०। अमाह amaha-हिं० संज्ञा पुं० [सं० अमांस] सफेद मुरगा -गु० । मे० मे० । । [वि० अमाही ] नेत्र रोग विशेष । आँख के अमारेण्टे (न्थे) शोई amarant(h)aces | ढले से निकला हुआ लाल मांस । नाख ना । --ले० चौलाई वा ताण्डलीय (अपामाग) वर्ग। श्रमाही timāhi-हि० वि० [ हिं. अमाह ] देखो-अमारेन्थेशोई। अमाह रोग संबन्धी। अमारेन्थ amaranth-६० चौलाई, तण्डलीय । | अमिए amie-बर० (ए०३०), अमिए मियात्रा अमारेन्थ ईटेब्ल amaranth eatable-- ! (ब० व०) जड़, मूल-हिं० । Root or मरसा, माट । ई० है ० मा० । Rbizome | स० फा ई०। प्रमारेन्थ गोटिक amaranth rang. | अमिका-नॉकरर्ना श्रॉफ रम्फियस Amica _etic--ई. लाल साग । ई० हैं. गा० । Hocturna of Rumphius- ले. गुलेअमारेन्थ ब्लैक amaranth black--. शब्बी, गुलचेरी हिं०, बम्ब० । रजनी गंधा बामस्पता । इहै. गा! -सं०,०। (Polianthus Tuberosa. अमारेन्थ राउण्डहेडेड amaranth round Linn.) फा० ई०३ भा०। headed--ई. माट की भाजी। ई० हैंअ (पे) मिग्डला amigdala-ले. कडुअा या दाम गा० । ( Bitter almond ). अमारेन्थ वेरिअस लीड amaranth var-अ (ऐ) मिग्डला अमारा amygdala. anious leaved--ई. गुलकेश । ० हैं. ara-ले० कटु वाताद, का बादाम । ( Bitगा० । ter almond ). अमारेन्थ हमैफ्रोडाइट amaranth her-अमिग्डला डल्सिस amygdals dulcis-ले. maphrodite... चौलाई, कलगा--हिं० | मधुर वाताद, मीठा बादाम । (Sweet Alm१० हैं. गा० । ondi ) अमालह amālah--अ. इन्तिकाल मर्ज । इसका श्र (पे) मिग्डेलस कम्यूनिस anygdalus शान्दिक अर्थ प्रवृत कर देना,परिवर्तन, करना फेर cominumis, Lin.ले. बदाम, कासरी देना है; किन्तु वैयक को परिभाषा में किसी दोष बादाम । ( The Almond ). फा० ई. १ भा०! को विकारी अवयव से दूसरे अवयव की ओर | अ (ऐ) मिग्डेलस उलिसस Amygdalus प्रवृत्त कर देना श्रमालह कहलाता है। मेटास्टेसिस । dulcis-ले० मधुर वाताद, मीठा बादाम | Metastasis--01 (Sweet almond ). अमालीन amalina-50 अंगूर का पनी । | (ऐ) मिग्डेलीन amygdalitn-इं० बाताद अमावट amavata-हिं० संज्ञा स्त्री० [सं० । सत्व । (A glucoside contained in आम्र, हिं० श्राम+सं० श्रावर्त प्रा० श्रावह ] bitter Almonds ) (1) रोटिका रूपमें सुखाया हुअा अामका रस । | अाम्रावर्त्त-सं० । श्राम के सुखाए हुए रस के अमिताशन amitashana-हिं० वि० [सं०] पर्त वा तह । इसे बनाने के लिए पके ग्राम को जो सब कुछ खाए। जिसके खाने का ठिकाना निचोच कर उसका रस कपड़े पर फैला कर सुखाते न हो। हैं । जब रस की तह सूख जाती है । तब संज्ञा पुं० (Fire) अग्नि । श्राग । उसे लपेट कर रख लेते हैं । 'The inspissa- | अमिय मृरिamiya-muri-हिं० संशा स्त्री० ted juice of the mango. [सं० अमृत मूरी ] अमरमर । 'अमृतबूटी । (२) पहिना जाति की एक मछली । संजीवनी जड़ी, जिलाने वाली बूटी। For Private and Personal Use Only Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४०० प्रमिया प्रमुबीर अमिया amiya-हिं० श्राम का कच्चा फल । अमीवा का शरीर एक स्वच्छ गाढ़े भली प्रकार अमिरती amirati-हिं. संज्ञा स्त्री० दे० न बहने वाले शहद जैसी वस्तु से बना है। इसका इमरती। मिठाई भेद। वास्तविक परिमाण से - इंच तक (ग्यास अमिल amila-हिं० वि० [सं० श्र=नहीं+हिं० मिलना ] (१) न मिलने योग्य । (२) बेमेल | में ) होता है। इसमें चैतन्यता के प्रायः सभी अनमिल । लक्षण पाए जाते हैं अर्थात् यह एक ही घटक से अमिलतास amil atāsa -हिं० संचा पु० दे० उन सम्पूर्ण कार्यों को सम्पादित करता है जो अमलतास। किसी एक जीवधारी को जीवन व्यापार चलाने के अमिलातकम् amilatakami-सं० क्ली० बेला लिए करना आवश्यकीय होता है। देखो-सेल। -हिं० । हला | See-Bela अमीर ज़म्बूरान amira-zamburana-फा० अमिलातका amilataka-सं० स्त्री० महाराज शहद की मक्खियों का सरदार । तरुणी पुष्प वृक्ष । बेला-हिं०, बं० । रा०नि० अमीरह. anitah-ले० लिसानुल कल्ब । व०१०। Sec-Lisanul kalb. ममिलियापाट amiliya-pita-हिं० संशा पु. | अमीरुशिया amirushiya-यू० शवासर (बरि[हिं. अमिलो इमिली+पाट रेशम ] एक प्रकार आसिक या कैसूम भेद)। का पट वा पटसन । अमीरही iami-rehi-० असलूकमा । वस्तुतः अमिली amili-हि. संज्ञा स्त्री० दे० अम्लिका ।। यह श्याम अथवा हरित वर्ण का मोतियाबिन्नु अमिश्रण amishruns-f. संत्रा पु० [सं०] ! है, जिसमें नेत्रपिण्ड प्रगट रूप से ठीक मालुम [वि. अमिश्रित ] मिलावट का प्रभाव । होता है, परन्तु वस्तुतः उसमें दृष्टि शक्रि नहीं अमिश्रित amishrita-हिं० वि० [सं०] | होती। ग्लॉकूमा ( (ilaucoma)-ई.। (1) न मिला हश्रा । जो मिलाया न गया हो। अमीरोसिया amirosiya-यु० यकृत तथा (२) जिसमें कोई वस्तु न मिनाई गई हो।। एक माजून विशेष । बे मिलावट । खालिस । शुन्छ । पृथक् भूत ।। अमीलेली aami-laili | -अ. नकान्ध्य, अमिष amisha-हिं० संज्ञा पुं॰ [सं०] दे | अशा aasha रतौंधी । हेमीरेलोपिया. | (Hemeralopia.)-१०। आमिष । मोami-संत्री | अमीव aniva-हिं० संज्ञा पुं० [सं०] रोग। श्रमत-हि । ( The | मोव चातनी: amiva-chatanih-सं० ___water of life, nectar.). रोग नाशक, रोग उत्पन्न करने वाले जन्तुओं का श्रमी aami-अ० दृष्टि शक्ति का नष्ट हो जाना, नाश करने वाला । अथवं सू०७।५। देखने की शक्रि का हास। | अमु इङ्गुरु amu-inguru-सिं० माईक, मादी, अमीनोअम्ल aminoramla-हिं०पु. (Am- अदरख । (Zingiber officinalis, Roacb.) ino acid ) प्रोटीन की अन्तिम अवस्था को । स० फा०६०। कहते हैं जो शरीर द्वारा ग्रहण की जाती है। ()मुक (a)muk-नेपा०, अमरूद । (Gu. अमीनोफॉर्म aminoform-६० युरोट्रॉपीन। . ava). See-Amarita. अमीबा amoeba-ई० प्राधुनिक प्राणिशास्त्र के अमुकी amuki-नेपा० मैनफल । ( Randia अनुसार एक अणवीक्ष्य एकसेल युक्त जीवधारी। Dume torum, Lam.) नोट-वेद (अथर्व) में श्रमीच शब्द रोगोत्पादक भमुकिरम amukiram-मल० । कीटाणु अथवा रोग के लिए प्रयुक्त हुआ है। अमुकीर amukkir-ता०. . . j. " । पुनीर । For Private and Personal Use Only Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रमुखडा विरई ४४ प्रमूर्तिमान Withania (Punceria) coagulans, 157era kamúdul-faqarát Dunal. ई० मे० मे। 1997 et āamúda-faqarí अमुक्कुडा विरई amuk kuda virai-ता -अ० उ.म्दतुल करात, सिलसिलतुज जहर । असगंध के बीज, पुनीर-हि । Withania मेरुदण्ड, सुषुम्नाकांड । (Vertebral colu. Coagulans, Dunal. Fo FTO DO! mn, Rachis, Back bone.) अमुजमह amujja nah-अ० धेनुक पक्षी। अचूदुल ब.त्न aamidul-batn- अ. सुषुम्ना काराष्ट्र का वह भाग जो उदर के सम्मुख स्थित अमुत amuta-पं० बण्डा-मां । ( Lora है, पृष्ट, पीठ। ___nthus Longiflorns.) aamudul-mihbali-० प्रमुत्तश्राम amuttaaam अ० गेहूँ, किसी किसी योनि के भीतर श्लैष्मिक कला सम्बन्धी एक के विचार से प्रामाशय का नाम है । सीवन है । कॉलम अाफ़ दी वेजाइना (Colu. अमुदपु चेटु andpu-chestu-ते. एरण्ड, _mn of the vagina.)। अरण्ड वृत्त । ( Ricinus Communis.). | अघूमन amuman-१० हमामा, मामून, फा० ई०३मा०। हामामा,हमाम । महिलू-फा० । (Dionysia अमुम amum-ता० दुद्धी, रविन्धुच्छदा! Diapensite folia, Buixs.) फा०ई० ( Eupbor bia Pilulifera.)। ई० २ भा०। मे० मे। अमूरा amoora-ले. तिराज, हारिनहारा । अमुलटी amulati-यं० श्रामला । ( Phylla. ... nthus l mblica.) अभूरा कल्क्यु लेटा amoora-culculata । अमुलका amulka-बं० जंगली अंगूर, पनीरी पूरा कुक्युलटा amoora-cuculata, I -द०, हिं०। ( Vitis indica. ) ई० ! ____Lin.-ले० उमर । (Andersomia Cu'मे० मे०। culla ta, Roxi.)। ई० हैं. गा० । अमुसा amusa-. अजवाइन । ( Carum अमूरा रोहिटका amoora rohituka, W. "Ptychotis" A jowan.) ई० मे० ___&. सं.-ले० रोहितका रोहिना, रूहेड़ा हिं। , मे। ( Andersonia Rohituka, Roxb.) अमूक amuka-पा० अमरूत (Guava.)। फा. इं० १ भा० । मेमो० । - वि० [सं०] (1)जो गूंगा न हो । | अमूरा रोटक amoora rotuk- ई० तिराज(२) बोलने वाला । वक्ता | हारीन हारा । Amoora or Andersoअंमूद aamuda-ऋ० इमाद, उम्दह । स्तम्भ, nia Rohituka, Boxh. । ई० है० गा । स्खम्भा । इसका बहुवचन "उमूद" है । कालम अमृग हुडेड amoora hooded-उमर | (Column.)-इं०। .. ई० है. गा. अमूद कासातीर aamuda qasatir-० अमूर्त amurta-हिं० वि० [सं०] निराकार, मूम्र प्रवर्तक सलाईके भीतर का सार । स्टिलेट मूर्ति रहित, अवयव शून्य, निरवयव । (Stillet.)-ई। Formless, Shapeless; Un. अमूदन्दाँ amu-dandan-पं० रसवत भेद । (Berberis Nepalensis, Spreng.) { ____embodied.। -संज्ञा पु०(१) श्राकाश | मेमो०। (२) वायु । (३) जीव । अमूदुल कल्ब aamudul-qalb-अ. मध्य | अमूर्ति amārti -हिं० वि० | अमूर्तिमान amurtimāna हृदय, हृदय का बीचो बीच । [सं० ] For Private and Personal Use Only Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आमूल ४०५ अमृतकल्प-वटी (१) मूर्तिहीन, प्राकृति रहित (Formless.)/ (Simple poison )। (६) दुग्ध निराकार । (२) अप्रत्यद । श्रगोचर । (Milk)। रा०नि० व० १५ । (१०) अनूल amāla -हिं० वि० [सं०] प्रश्न । ( Corn) हे. च०। (११) औषध प्रमूलक mulaka मूल रहित, निमूल, ! (Aledicine ) 1 रा०नि० २०२०। जड़शून्य । ( Destitute of a root or (१२) शृगी विष, सींगिया, बच्छनाग (Ac. origin.) onite)। (१३) स्वण,सोना । ( Gold ) अमूलक amulak-हिं०वि० मूलशून्य, निमूल, (१४) भक्ष्य द्रव्य ( Edible thing)। अप्रामाणिक। हे च० । (१५) यज्ञ के पीछे की बची हुई अमूला amuli-सं० स्त्री. (१) अग्निशिखा सामग्री । (१६) धन | (१७) हृद्य पदार्थ । वृक्ष, लागली। ईपलांगुलिया-40 ! वै०निघ० । () सुस्वादु द्रव्य । मीठी वा मधुर (२) अर्कपत्रा । के। वस्तु। अनूस amusa-अजवाइन, नामबाह । (Ligu- ! अमृत कन्दा amrita-kanda-सं० स्त्री० कन्द sticum A jowan). . हैं गा०। । गुडची-हिं० । कन्दगुलवेल-मह । वै० निघ। See-kanda-guduchi. अमृणालम् amrinal am-सं० क्लो० (१) अमृतकर amritas-kar-हिं० संज्ञा पुसिं०] श्रमणाल, लामजक, श्वेत उशीर । ( Andro चन्द्रमा, शशि, जिसकी किरणों में अमृत रहता है। pogon laniger) रा. नि. ३० १२; निशाकर । ( The moon) भा०पू०१ भा० क०व०; मद० व०३ । अमृत कला निधि amritakalanidhi-सं. (२) उशीर, खस-हिं! वेणार मूल-बं० । ( Andropogon muricatus ) rat, पु० वच्छनाग २ मा०, कौड़ी भस्म ५ मा०, रा०नि० २० १२ । च. ६० अर्श चि. कालीमिर्च १ मा०, बारीक चूर्णकर जल से मूंग प्राणदागुड़िका। प्रमाण गोलियाँ बनाएँ। गुण-ज्वर, पित्त और कफज अग्निमांग को नष्ट करता है। वृ• नि० अमृत: amritah स र. ज्वरे। अमृत umrita-हि. संक्षा पु. (१) पारद, पारा ( Mercury)। ग०नि०५० १३|| अमृतकल्प भल्लातकः amrita-kalpa-bha(२) वन मुद्ग, बन मूंग ( Phaseolus latakah-सं० पु. पका हुश्रा भिलावाँ trilobus)। रा०नि० व० १६ । देखो-मकु तीक्ष्ण वीर्य तथा अग्निके तुल्य होता है, इसका ष्टकः। अनि २ स्थान २०। (३) धन्वन्तरि विधि पूर्वक सेवन करना अमृत कल्प होता है। "ना धन्धन्तरिदेवयोः" । मे तत्रिकं । (४), वा० उ० अ०३६। बाराहीकंद (Tacca aspera)| रा. अमृत-कल्प रसः umrita-kalpa-rasah नि. व. ७ ! -श्री० (५) वह वस्तु जिसके -सं० पु. अजीणोधिकारोश रस । शुद्ध पारद पीने से मनुष्य अमर हो जाता है। पीयूष, सुधा, तथा गंधक के समान भाग को कजली करें पुनः निर्जर, समुद्रोरपत्र १४ द्रष्यों में से एक द्रव्य उक्र कजली का अधं शुद्ध विष (वसनाम) विशेष । ( Ambrosia, nectar)। (६)| तथा !तना ही सुहागा (लावा किया हुआ) सलिल, जल, ( Water )। रा०नि० लेकर इसे यत्नपूर्वक तीन दिन तक भृगराज स्वव०१४।(७) पूत, बी (Ghee)। मे रस की भावना दें। मात्रा-मुद्र प्रमाण । रा०नि० २०१५, वै० निघ० वा० न्या० अमृत कल्प वटो amrita-kalpa-vati-सं० भुजङ्गी गुटी। "अमृत यज्ञशेष स्यात पीयूषे । स्त्री० पारा, गन्धक समान भाग लेकर कजली सलिल घृते"। मे। (८) सामान्य विप करें, फिर विष और सोहागा प्रत्येक पारे के बरा. For Private and Personal Use Only Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमृत काश: ४ अमृत-पालो-रसा पर डालकर भाँगरे के रस में ३ दिन घोटे, और अमृत नामसे विख्यात घृत मरे हुए को भी जीवित मंगके समान गोलियाँ बनाएँ। मात्रा-२ गोली । करता है। यङ्ग से० सं०विष चि०। गण-शुल, मन्दाग्नि, जीण' यादि का नाश । श्रमतजटा amrita-jata-सं०त्री० जटाकरती तथा धातु पुष्टि करती और अनुपान भेदसे अमृतजरा amita.jara-हि-स्त्री. मांसी, अनेक रोगों को नारा करती है। र० सा० सं० बालछड़ | Nardostachys jatamaअ. चि०। nsi. De |रा०। अमृतकाशः amrita-kāshah-सं०५० (Ox.| अमृतजा amrita.ja-सं० स्त्री. (१) हरीतकी, ___ygen) श्रोषजन, उन्मजन । हरड़ । ( Che bulic Myrobalan. ) अमृत गर्भः amrita.garbhah-सं०५० प्रात्मा वै० निघ०। (२) श्रामला ( Phyllant____ के भीतर । अथर्व । सू०१६ । १। का० ३१ hus Emblica.)। (३) गुडूची ('I'jअमृत गर्भ रस: amritaigarbhu-rasali nosporn Cordifolia.)। (४) लह-सं० ए० शु० गन्धक, शु. पारद, १०-१० सुन, रसोन (Garlic.)। गद्याणक लेकर दोनोंको तीन दिनतक २० गद्याणक अमृतदान amrita-dana-हिं० संज्ञा पु. श्राक के दूध में घोटकर फिर ३ दिन सेंहुद्द के [सं० मृद्वान् ] भोजन की अधवा अन्य चीजें दूध में घोटकर सराव संपुट में रखकर भूधरयन्त्र रखने का ढकनेदार बर्तन। मिट्टी का लुकदार में पुट दें। इसी तरह ८ पुट देने के पश्चात् बर्तन । पीसकर बारीक चूर्ण करके चंदन, हड़ और मिरचों । अमृतधारा amrita-dhara-हिं० संज्ञा स्त्री० के क्वाथ और अम्बरवेल के रसकी ७-७ भावना एक पेटेन्ट औपध विशेष । दें।मात्रा-२ रत्ती ।। गद्याणक मिली के सहित नाभि mita-habhi-सं० स्त्रो० पारद, ॐडे पानी से सर्व रोगों में दें। विशेषकर बात. श्रथव०।६।४४।३।। शूल, पसली का दर्द, परिणाम शूल, बात ज्वर, अमृतनाम गुटिका amita-nāma-gutiki मन्दाग्नि, अजीर्ण, कफ, पीनस, श्रामवात और __ -सं० स्त्री० देखो-अमृत गुड़िका। कफ के रोगों का नाशक है। र० चि०७ अमृत पञ्चकम् amriti-panchakan-सं० स्तवक। नोट- गद्याणक%६४ वा ४८ रत्ती । क्ली० सोंट, गिलोय, सफेद मूसली, शतावर, गोखरू इन पांच चीज़ों को अमृत पञ्चक कहते अमृत गड़िका amrita gudika-सं• स्त्री. हैं। इन पाँच चीजों के क्वाथ की ताम्रादि धातुओं यह औषध अजीर्णके लिए हितकारी है । योग की भस्म में तीन या सात भावना देकर गजपुट पारद, गंधक, विष (सीगिया), त्रिकटु और निफ.ला। सर्व प्रथम पारद गंधक समान भाग की में फूंकने से धातुओं का अनृतीकरण संस्कार होता है जिससे धातुओं की भस्म अमृत के कजली करें । पुनः शेष औषध के समान भाग चर्ग को उसमें योजित कर भगराज स्वरस समान गुणकारी होती है । की भावना देकर मुद्न प्रमाण मात्रा की वटिकाएँ अमृतपाणि: amrita-pānih-सं० पु. पियूष प्रस्तुत करें। यही अमृतवटी अर्थात् अमृत गुटिका पाणि, बह वैद्य जिसके हाथमें अमृत का सा असर है। रसे० चि०। हो ! अथव० । अमृतघृतम् amrita-ghritam--सं० क्ली० | अमृतपालो रस: amrita-pālo rasah-सं. अपामार्ग बीज, सिरस श्रीज, भेदा, महामेदा, पुं० पारा, गन्धक, बच्छनाग प्रत्येक समान भाग काकमाची, इन्हें गोमूत्र में पीस गोघृत में मिला लेकर पानी में घोटकर गोला बनाएँ, फिर हाड़ी घृत सिद्ध कर पीने से विष शांत होता है। के मध्य में रखकर ऊपर से तांबे की लोदी रखकर For Private and Personal Use Only Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमृतप्रभा गुटिका अमृतप्राशावलेहः सन्धि बन्द कर के हांडी के मुंह पर ढक्कन देकर तोले ) और बकरी का दुग्ध ४ प्रस्थ डाल विधिकपड़ मिट्टी कर सुखा ले। फिर एक दिन बत पकाएँ, पुनः २ कर्ष (२० मा०) केशर दीपाग्नि से पकावे, ठण्डा होने पर तांबे के पत्र डाल मूर्छित कर पश्चात् निम्न औषधियों का और उसके भीतर के रस को बारीक पीसकर रख कल्क तैयार कर पुनः घृत में डाल पाक करें। ले। सेंधानमक और अदरक का रस मिलाकर यथा-खिरेटी को जड़, गेहूं (गोधूम), असगन्ध प्रथम जिह्वा और मुख को अच्छी तरह चुपड़ गुरुच, गोखरू, कशेरू, सौर, मिर्च, पीपल, ले। फिर इस रस की ३ रत्ती की मात्रा रोगी धनिया तालांकुर, प्रामला, हड़, बहेड़ा, कस्तूरी, को देकर गरम कपड़े श्रोढ़ा दें। एक पहर के कौंच बीज, मेदा, महामेदा, कूट, जीवक, ऋपमक, बाद खूब पसीना पाएगा। इसी तरह तीन दिन कचूर, दारुहल्दी,प्रियंगु, मजीठ, तेजपत्र, तालीशतक करने से ज्वर बिलकुन्त नष्ट हो जाता है। पन, बड़ी इलाइची, पत्रग, दाल चीनी, नागकेसर, पथ्य-छाँछ, चावल का भात | पुष्प चमेली, रेणुक, सरल, जायफल, छोटी रस० यो० सा०। इलायची, अनन्तमूल, कन्दूरी की जड़, जीवन्ती, अमृतप्रभा गुटिका amrita-prabha ऋद्धि, वृद्धि, गूलर प्रत्येक १-१ कर्ष (१०-१० gnţiká मा०)।जब घृत तैयारहो पुनःस्वच्छ वस्त्रसे छानकर अमनप्रभा वटी amrita- prabha-vati ) उसमें शरावक भर (१ सेर) उत्तम मिश्री छोड़ -सं० स्त्री. (१) मिर्च, पीपलामूल, लवंग, विधिवत रखें। मात्रा-१० मा० । हह, अजवाइन, अग्ली, अनारदाना, सेंधालवण, गुण-इसके सेवन से शिरोव्याधि, बासी, सोंचर लवण, विड़ लवण, १-१ पल पीपल, अर्श, श्रामशूल, बद्धकोष्ठ दूर होता है। तथा जवाखार, चित्रक, सुफ़ेद जीरा, स्याह जीरा, सोंठ, उष्ण दुग्ध के साथ सेवन करने से ध्वज भंग, धनियाँ, इलायची, अामला प्रत्येक २-२ पल, प्रमेह नष्ट होता है और बल वीर्य की वृद्धि होती इन्हें चूर्ण कर ब्रिजौरे नींबू के रस में घोटकर । है। भैष० र० घजभङ्गाधिकार । हा०अत्रि तीन पुट देकर एक मा० की गोलिय। बनाएँ। ३ स्था०६०। वृ०नि०र० । भा० अरु । nga ay i amrita-práşha-chúrņa (२) अकरकरा, सेंधा लवण, चित्रक, सोंठ --सं० पु. एलुवा, मुद्गपमूल, शतावरी, अामला, मिर्च, लवंग, हड़, तुल्य भाग लें, विदारीकन्द, वाराहीकन्द, मुलहठी, वंशलोचन, विजौरा नीबू के रस की भावना दे १-१ मा० की दाख प्रत्येक २ पल । सरलधूप, चन्दन, तेजपात, गोलियाँ बनाएँ । गुण-इसके सेवन से खाँसी, निले।फर, कुमुद, दोनों काकोली, मेदा, महामेदा, गलरोग, श्वास, पीनस, अपस्मार, उन्माद तथा जीवक, ऋषभक, चीनी प्रत्येक श्रद्ध पल । इनका सग्निपात का नाश होता है। चूर्ण कर फिर एलुवा, विदारीकन्द, बाराहीकंद अमृत प्राशः amrita-prashah-सं. पु. और मुग्दपर्णी तथा शतावरी के रस की भावना उत्तम सुवर्ण का चूर्ण, ब्राह्मी, वच, कूट, हरीतकी दें। फिर ईख, श्रामला और शहद की सातसात इनका चूर्ण घी और शहत के साथ चाटने से भावना दें । यह दूध के साथ पीने से दाह, बालकों की श्रायु, प्रसन्नता, बल की वृद्धि और शिरोदाह, प्रवल रक्रपिस, शिर और अषि कम्प अङ्ग की पुष्टि होती है। र० यो० सा०। तथा भ्रम आदि रोगों का नाश होता है। र०२० अमृतप्राशघृतम् amitaprashaghritam स० अ० २१ । -सं० क्ली० बकरे का मांस और असगन्ध १-१ | अमृतप्राशावलेहः amrita-prashavaleh. तुला (५-५ सेर), एक द्रोण (१६ सेर) जल में | ah-सं० पु. (१) प्रामला, मजीठ, विदारीकन्द पकाएँ, जब चौथाई रहे, तब गोघृत १ प्रस्थ (६४ | ( काकोली, क्षीरकाकोली ) ले इनका सर For Private and Personal Use Only Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमृतप्राश्यावलेहः ४ अमृतमलातकम् समभाग निचोड़ कर गोघृत में मिलाएँ, पुनः खासी, वमन, हिचकी, मूत्रकृच्छ, तथा ज्वर का जीवनीय गणकी समस्त औषधियाँ एक एक तो०, नाश होता है। दाख, चन्दन, लाल चन्दन, खस, मिश्री, कमल, अमृतफल amritaphal-कुमा० शर्बती नीबू पन्न काष्ठ, महुए के फूल, सारिवॉ, कुम्भेरके फल, (sweet lime ) 1 सुगंधरोहिष तृण -१ तो० ले, इनका कल्क बनाकर । अमृतफन्नम् amrita phalam-सं• क्ली। घी में पकाएँ । जब पक कर शीतल हो। ममतफल amrita phala-हिं० संज्ञा पु.॥ जाए, तो इसमें शहद ३२ तो०, मिश्री २०० तो० । (१) नासपाती-हिं० । नाक-40 Pyrus दालचीनी का चूर्ण २ सो० इलायची चूण २ cominunis ( The pear tree ) 1 सो०, कमल केशर चूर्ण २ तो० ले मिला, मद० व०६ भा०1 (२) अमरूद (Guava) । इस तरह यह अवलेह सिद्ध होता है। -पु. (३) पारद (Mercury)। (४) जितेन्द्रिय होकर इसे नित्य सेवन करें। और पटोल, परवल ( Sespadula Tricho. इस पर दूध या मांस रस के साथ भोजन करें तो san thes cucumerina)। (५) उरः शत, रक्रपित्त, तृषा, अरुचि, श्वास, खांसी, वृद्धि नामक औषध ( See viddhi) घमन, मूर्छा, मूत्रकृच्छ,, और ज्वर का नाश रा०नि०व०३१(६) धात्री वृक्ष, प्रामला होता है। स्त्रियों में प्रीति उत्पन्न होती तथा | ( Phyllanthus emblica) मद० । बल की वृद्धि होती है। अमृतफला amrita-phalā-सं. खी०, हि. भा० प्र० क्षय रो० चि.! संज्ञा स्त्री० (१)अंगूर, द्राक्षा, दाख । किस मिस-हिं| RaisinI (२) श्रामल की। (२)दूध में अथवा प्रामला, विदारीकन्द, प्रामला । ( Phyllan thus emblica.) ईख, तथा दूध वाले वृक्षों के समान भाग रस रा.नि.व. ११। (३) लघु खजूरी वृक्ष, में ६४ तो० गोघृत को पकाएँ, पुनः इसमें छोटा खजूर वृक्ष ( Small date palm मुलहटी, ईख, दास्थ, सुफेदचन्दन, लाल चन्दन, । tree)। (४) श्वेत द्राक्षा-हिं० । उत्तरा, खस, मिश्री, कमल, पद्मकाष्ट, महुए का फूल, उत्तरी-को। (५) मुनका। गुरुच, कम्भारी, रोहिष तृण, इनका कल्क अमृतबन्धुः amrita-bandhuh-सं० पु. मिला सिद्ध करें, पुनः शीतल होने पर इसमें (1) अश्व, घोड़ा (A horse) वैनिघ। ३२ तो. शहद, २०० तो० मिश्री, दालचीनी, । । (२) चन्द्रमा । और इलायची डाल सेवन करें। अमृतवान amrita-bāna-हिं० संत्रा पु. अमृत प्राश्यावलेहः amrita-prashyavalehi [सं० अमृद्वान् ] अमृतदान । रोग़नी हाँदी -सं० पु. दूध, अामले का रस, बिदारीकन्द ! मिट्टी का रोग़नी पाय । लाह रोशन किया हुश्रा का रस, गन्ने का रस, पञ्च क्षीरी वृक्षों का रस, ! मिट्टी का बरतन जिसमें प्रचार, मुरब्बा, धी श्रादि और घी प्रत्येक १ प्रस्थ मिलाकर पकाएँ, फिर रखते हैं। इसमें मधुरादि गण, दाख, दोनों' चन्दन, खस, अमृत भल्लातकम् amrita-bhallatakam चीनी, निलोफर, पद्माव, महुए का फूल, अनन्त -सं०क्ली० पवन से टूटे तथा नकुओं से रहित पके मूल, खम्भारी, कतृण का कल्क १-१ कर्ष डाल हुए भिलावें २५६ तो० इंट के चूर्ण' से घिसकर कर अवलेह बनाएँ, शीतल होने पर अर्ध प्रस्थ पानी से प्रक्षालन कर हवा में रख शुष्क कर दो दो मधु, १ तुला चीनी और दारचीनी, इलायची, दल करके १०२४ तो० जल में उबालें जब पाकेशर प्रत्येक प्राधा प्राधा पल डाल कर चौथाई शेष रहे तो वस्त्र से छानकर ठण्डाकर ले। भली प्रकार मिला। यथोचित सेवन करने से पुनः २५६ तो० दुग्ध में पकाएँ जब चौधाई शेष रक्त पित्त, क्षत, क्षय, तृष्णा, अरुचि, श्वास, रह जाए तब बराबर भाग गोघृत मिलाकर पुनः For Private and Personal Use Only Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमृतमलातकावलेहः अमृतमण्डुरः पकाएँ, पश्चात् अर्ध भाग मिश्री मिलाकर रई से अमृत भरम सूतः anmrita-bhasinarsutalh अरछी तरह मथें । ७ दिन तक रखने के -₹.पु. पारा और गाधक समान लेकर पश्चात् यह मृत तुल्य हो जाता है। प्रातः पिता के साथ ३ दिन .क लोह के खल शोचादि से शुद्ध हो मात्रा पूर्वक सेवन करने से में घोट कर ताम्बे की डिस्त्री में रखकर कुष्ठ, कृमि, कान, नाक, उँगली का गलकर बाहर से कपड़मिट्टी करके उसमें पृटदें। फिर गिरना तथा केशों का श्वेत होना, दाँतो का ग्रिफला, भोंगरा, चित्रक,सोंठ,बच, बकुची, शतागिरना इत्यादि दूर हो स्मृत्ति की वृद्धि होती बरी, भिलावाँ, गन्धक, नीलाथोथा, और वच्छहै । भैष २० वु.उ.चि.। नाग सबको समान भाग लेकर पीसकर चूण करें अमृतमलातकावलेहः aumita-bhalataka और उपयुक्र पुट दिया हुश्रा पारा भाग मिला valebal-0 1२८ ता०, शुद्ध मिला कर इसको कान्तलोह के बर्तन में त्रिफला का को १.२४ तो. उल में पकाएं। न१२८ काथ करके उसके साथ खाने से ६ महीने में कुष्ट तो गुरुच का करक डाल पकार । जयपक कर नष्ट होता है। नीम का पांग, शहद, घी और चौथाई शेष रह जाए तब वस्त्र से छान कर उसमें शक्कर के साथ ६ महीने तक इसका प्रयोग करने ३२ तो० गो घृत, २५६ तो• गा दुग्ध, ६४ तो. से कोदी की नालिका इत्यादि का गिरना बन्द मिश्री, ३२ तो. शहद दाल मन्द मन्द अग्नि से हो जाता है। भिलावाँ का तेल और हरताल पकाएँ । जन पककर गादा होजाए अग्नि से पृथक भस्मके साथ इसका प्रयोग करने से श्वित्र कुष्ठ र कर निम्न औषधों का उत्तम चूर्गा डाले यथा होता है। बेलगिरी,प्रतीस,गुरुच,सोमराजी, पमाड़,नीमछाल, इ. बोडा. प्रामला. मजीठ. सोठ मिर्च. पीपल. अमृतमञ्जरी amita-manjari-सं. स्त्री. अजवाइन, सेंधा लवण, मोथा, दालचीनी, छो. (1) गोरस दुग्धी हुप । रा० नि० व.५। इलायची, नागकेशर, पित्तपापड़ा, तेजपत्र, (२) सामान्य ज्वर में प्रयुक्त रस विशेष, यथासुगन्धवाला, रूस, चन्दन, गोखरु, कचूर और रक्क हिंगुल, मरिच, सुहागा, पीपल विष, जायफल चंदन प्रत्येक २.६ तो० । मात्रा-3-४ तो० । इसके इनको सम भाग ले जम्भीरीके रसकी भावना दें। सेवन से कुछ, वातरक, तथा अशं दूर होता है। मात्रा-२ वा ३ गुना। किसी किर्सा ग्रंथमें यह अपथ्य-मांस, अम्ल, धूप, अग्निताप, मैथुन, रस कासाधिकार में वर्णित है। र० सा० सं०। दही, तैल तथा अधिक मार्ग चलना निषेध हैं। अमृतमअरीररू: amrita-manja.ri-rasah भा. प्र० मध्य० ख०२कुष्ठ० चि.1 -सं० पु. सिंगरफ, मोठातेलिया, पीपल, अमृत भल्लातकी amita-bbajlataki-सं० कालीमिर्च, सुहागा, जावित्री, प्रत्येक समान भाग बी० उतम सुन्दर पके हुए मिला। २५६ तो० लेकर जम्भीरी के रसमें खरल करके रसी प्रमाण को दो दो फाँक कर चौगुने जल में पकाएँ, जन । की गोलियाँ बना सेवन करने से दारुण सनिचौथाई जल शेष रहे तब उन्हें पुनः चौगुने गोदुग्ध पात, मन्दाग्नि, अजीणं और ग्रामवात रोग नष्ट में पकाएँ । जब अच्छी तरह गाढ़ा होजाए तब ६४ होते हैं। गर्म जल के साथ सेवन करने से हर तो मिश्री मिला कर सात दिन तक रख छोड़े। । प्रकार के रांग शमन होते हैं। इससे पाँच प्रकार पश्चात् अग्नि और बल का पूर्ण अनुमान कर की खाँसी, श्वास, सर्वाङ्ग पीड़ा जीर्ण ज्वर और उचित मात्रासे सेवन करनेसे गुदा के सम्पूर्ण विकार रुयज खाँसी दूर होती है । र० सा०सं० दूर होते और इन भाग के वेश हुदर कृपण बणे कासे। के हो जाते हैं। इसके लिए पथ्यापथ्य का कोई अमृत मण्डुरः amrita-mandurab-सं० मियम नहीं। पु० देखी-- अमृत माङ्करम् । For Private and Personal Use Only Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमृत मण्डूरम् ४६० श्रमतवर्तिका भैंस।. अमृत मरडूरम् amrita-mandiram-सं० भाग घी मिलाकर और घी के बराबर शतावरी का क्ली. शुद्ध मरडूर ८ पल,शतावरीका रस = पल, रस और उससे द्विगण दृध मिलाकर लोह के दूध, घी और दही प्रत्येक ४-४ पल लेकर एकत्र अथवा मिट्टी के बर्तन में उसे होशियारीसे पकाएँ। पीस पकाकर गाढ़ा करें। इसको प्रातःकाल और फिर उपरोक्र मचा हुअा अाधा लोह चूर्ण जोकि सम्ध्या समय १-१ निष्क खाने से वातज, पित्तज । दिग्य श्रोपधियों से और मंपुट श्रादि से मारा और सन्निपातज परिणाम शूल का नाश होता है ।। हुआ है और उराक ही भताम्रक, पारद भस्म २०र० शूले। और त्रिफला, दन्ती, विडंग, दोनों जीरे ( अलग अमृत मन्थः amita.nman thab सं० पु ! अलग ), ढाक के बीज, भाऊ, चित्रक, दुग्धादिपरिगोलित मन्थ । प. मु. २०१०। विधारा, हस्तिकर्ण पलाश की जड़ (अभाव में अमृत महल umrita-mahala-हिं० संझा भूमिकुष्माण्ड),कसाल, तज, त्रिकुटा, पीपलामूल, स्त्री० [सं०] मैसूर प्रदेश की एक प्रकार की : गिलोय, तालमूली, सहिजन के बीज अरनी, जवासा, नागदौन, सोनापाटा की गिरी, अमृतमूरि amrita imāri-हिं० संज्ञा स्त्री इन्द्रजी, प्रियङ्गु, नीम और अजवाइन इन सब [सं०] संजीवनी बूटी । श्रमरमूर । का पृथक् पृथक् चूर्ण करके अभ्रक और लोह के अमृत योग: amita-yogah-सं.पु फलित । बराबर मिलाएँ। ज्योतिष में एक नक्षत्र योग विशेष । शुभ फल ! गुगण-बात कफ प्रधान मैं सोंठ और त्रिफला दायक योग । अत्रि० २ स्था० ७०। के साथ दें। उचित मात्रा में सेवन करने से यह अमृत रसः amritarasah-सं. पु. तत्काल ही जठराग्नि, बल और पुष्टि को बढ़ाता शु० गन्धक २ कर्ष, शु. पारद १ कर्ष, त्रिफला, ! है। र० यो० सा० । त्रिकुटा, नागरमोथा, घिडंग, चित्रक, प्रत्येक का! अमृतलता amritasata-सं० स्त्री०, हिं० संज्ञा चूर्ण १-१ पल सबको मिश्रित कर रक्खे। स्त्री. गुरुच, गिलोय । ग. नि. व. ३। १ कर्ष शहद और घी के योग से चाटें और ऊपर ! (Tinospor'. 'Cordifolia) शीतल जल तथा गोदुध । म पान करें तो असतलतादि घतमauritiu-latadi-ghriअम्लपित्त, मन्दाग्नि, परिणामशल, कामला, और tam-सं. क्ली० गिलोयरस और उसका कल्क पाण्डु रोग का नाश होता है। र० चि० ११ तथा भैंस का चुत डालकर पकाएँ । पुनः उसमें स्तवक। चौगुना दुग्ध डालकर पकाएँ। इसके सेवन से अमृत रसतुत्यपाक: amrita-yasantulyan ! हलीमक रोग समूल नष्ट होता है। भा० प्र० pākah-सं० स्त्री० देखो- अमृतमल्लातकम् । मध्य० ख० २ श्लोक ४६ । तथा वाग्भ० उत्तर स्थान० अ०३६ लो० | अमृतवटका amriti.viatukah-लं. पु. ७५। सानिपातिक अतिसार में हितकारक यांग विशेष । अमृतरसा amita-lasā-सं० स्त्री० कपिल देखा-हा० अत्रि० स्था० ३। अ० पार डु. द्राक्षा, अंगूर । काले दाख-म० ! (Vitis चि०। Vinifera.) रा. नि० व० ११ । अमृतवटी amrita-Vati-सं० स्त्री० अग्निमांध में अमृत रसायनम् amrita-tasāyainm- सं० प्रयुक्र रस विशेष । चिप २ भाग, कौड़ी ५ भाग, क्ली लोह चूर्ण ३ भा०, निफला ३ भा०, अभ्रक मिर्च : भाग, इनको जल में घोटकर मुद्ग प्रमाण १ भा०, पारद मस्म १ भा०, इनको सोलह गोलियाँ बनाएँ । भैप०र० । रस० राज० सु० । पानी में उपयुक चीजों में से आधी डालकर अमृतवर्तिका amita.vartika-सं. स्त्री० उबालें । जम्ब चतुर्थांश शेष रहे तो उसमें समान | मत्युजयतन्त्रीक रसायनवर्ती । साधन विधि For Private and Personal Use Only Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अमृतवल्लरी. यथा-त्रिफला, त्रिकुटा, ब्राह्मी, गिलोय, चित्रक, नागकेशर, सोंठ, भोगरा, सम्हाल, हल्दी, दारु- । हल्दी, शक्राशन (भाँग, सिद्धि ), तज, इलायची, गमारी की छाल, चच, वायविडंग प्रत्येक का चूर्ण २ पल, कामरूपदेशीय गुड़ ५० पल एकत्र मर्दन कर ३६० वर्त्तिका प्रस्तुत करें। भोजन के पूर्व प्रति दिवस शीतल जलसे १-१ सेवन करे । मैंप | ४६१ ० अमृतली amritavallari-सं० स्त्री० (१) -गुड़ची, गिलोय। (Tinospora Cordifolia) भा० पू० १ भा० गु० ० । (२) उपोदकी, बड़ी । पोई | gafa amrita-valliká अमृतवली amrita-valli 1 - सं० [स्त्री० चित्रकूट प्रसिद्ध गुड़ ची । र० मा० । रा० नि० ० ३ । श्रत्रि० २ स्था० २ श्र० । इसे विषनाशक, किञ्चित् तित्र, जरा, व्याधि, कुष्ट, कामला, शोध, वणनाशक ऋषियों ने कहा है। वै० निघ० जोजव हरीतकी पाक | अमृत फल घृतम् amrita-shaphalaghritam नं० ली० सोंठ, चव्य, चित्रक, जवाखार, पीपल, पीपलामूल प्रत्येक ४-४ तो०, गोवून ६४ तो, अदरख का स्वरस ६४ तो०, दही का पानी ६५ तो० उक्त ओषधियों का कल्क प्रस्तु कर यथाविधि घृत सिद्ध कर सेवन करने से ऐकाहिक, याहिक, व्याहिक और चातुर्थिक ज्वर दूर होते हैं । यह खांसी, श्वास तथा अर्श में भी हितकारी है । बंग० सं० ज्वर० चि० । अमृष्टकः amritushtakah सं० पु० गुरुच, चिरायता, कुटकी, नागरमोथा, सोंठ, खस, पाठा, नेत्रवाला इन्हें अमृताष्टक कहते हैं। इसके सेवन करने से दूर होता है। चक्र० द० यां० त० चं० से० सं० । अमृतवा 1 चुप विशेष । रा० नि० ०५ । Sae-Gorakshaduddhi. (२) मृनलखावतो । श्रमृतसम्भवा amrita-sambhavá सं० स्त्री० गुड़ ची, गिलोय, गुलवेल, गुलब (Tinospora Cordifolia.) । रा० नि० ० ५ । अमृत सहोदरः amrita-sahodarah सं० पु० ( A Horse.) घोटक, घोड़ा, अश्व । जयद९ । अद्भुतसार amritasara - हि。संज्ञा पुं० [सं०] ( १ ) नवनीत | मक्खन । ( २ ) घी । अमृनसार गुटिका amrita-sava-gutiká-सं० स्त्री० त्रिफला, गिलोय, मोथा, विधारा, वायबिडंग, वच २-२ पल, त्रिकुटा, पीपलामूल, बाला, चीता, दालचीनी, इलायची, नागकेशर, इनका चूर्ण १-१ पल । यह चूर्ण २५ पल लेकर ५० पल गुड़ के द्वारा ३६० मोदक बनाएँ । गुण- अग्निवर्धक है । ० ० रसायने० । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमृतसारज: amrita sárajah सं० पु० गुड़ (Jaggery.)। काकली - म० । रा० नि० व० १४ । ( २ ) तवराजखण्ड । नवात - ० । रा० नि० ० १४ । गुण-यह प्यास, उजर, दाह और रक्त पित्त को दूर करता है। अमृत- सारजा amrita-sárajá सं० स्त्री० चीनी, शर्करा । म०-खड़े साकर । ( Sugar. ) NE JAIT ASQ amrita-sárat-ámram -सं० क्ली० रसायन अधिकारोक | अमृत सुन्दरो रस: amrita-sundaro-rasah - सं० पु० मैनसिल, खोनामाखी, हरताल, गन्धक, पारा, खपरिया प्रत्येक समान भाग लेकर दरख, वासा और तुलसी के रस में खरल करके तांबे के पात्र में भर कर सम्पुट करके ३ दिन पकाएँ, फिर ठण्डा होने पर निकाल कर रक्खें । मात्रा - ३ रती । यह वातज और कफज रोगों का नाशक है। अमृतसोदरः amrita sodarahto पुं० घोड़ा, अश्व, घोटक ( A horse. ) । रा० नि० ० ६ । 1 अमृतसङ्गमः amrita-sangamah संo go खरिया, संगनसरी - हिं० । खापर चं० । कलखापरी' -मन बै० निघ० । See khapariyá. अमृतसञ्जीवनी amrita-sanjivani-सं० अमृतस्रवा amrita-sravá सं० स्त्री० (1) चित्रस्त्री०, ६० वि० स्त्री० ( 1 ) गोरखबुद्धी नामक ! कूट में प्रसिद्ध लता । श्रमृतवल्ली । रुद्रवन्ती बं० । For Private and Personal Use Only Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमृत हरीतकी ५६२ अमृतास्य नेल तत्पर्याय-वृक्षरहा, उपवालिका, घनवल्ली, सित दृl,दूब । (१३) पिलो ।मे01 (1) लिंगिनी । लता । गुण-किजित तिक, रसायन, विषघ्न, व्रण, ग०नि०व०३।(१५) नीलदुर्वा, हरीदून। कुछ, प्राम, कामला, और शोधनाशक है। रा०। रा०नि०व० । (१६) श्वेत दूर्वा, सुफ़ेद नि० य०३। दुब । (१७) नागवल्ली, पान । (१८) रास्ना (२) प्रायमाणा । रा०नि० ब०५ । मात्रा- (१६) गरुडवली । धै० निघ० सय चि० । ३ मा० । (२०) सूर्यप्रभा। (२१) स्व● जालता । अमत हरीतको amriti-haritaki-सं० (२२) कन्दगुड्ची, कन्द गिलोय । (२३) स्त्री० धनियाँ, जीरा, मोथा, पञ्चलवण, अजवायन, ! स्फटिकारिका । (Alumon ) मद० हिंगु, तेजपत्र, लवंग, त्रिकुरा प्रत्येक समभाग १०४ । प्रयोगा । गिलोय । (चित्रक गुहे) ले उत्तम चूर्ण करें। इस चूर्ण के बराबर शुद्ध ! वा. सू. १५ श्रारग्वधादिः । “निम्बामृता हड़का चूर्ण मिलाएँ । हड़ शोधन विधि-१०० मधुरसा श्रुव वृक्षपाटा:" पद्म कादौ अरुण ग्य. हडॉको लेकर तक भिगाएँ । जब हड़ मुलायम हो मृता दश जीवन संसाः। चि०१० किरातादिः। जाएँ तर उनके बीज अलग अलग कर छिलको किराततिक्रममृता । च.द. वात ज्वर चिक। को लेकर चूर्ण करले । यही चूण उक्र योग में किराताब्दामृतोदीच्य-| च. द० दिस ज्वर. मिलाया जाता है। पुनः इसमें पडषणा.पंचलवण, चिलोधादिः। च० सू०४०। भूनी हींग, जवाखार, जीरा, अजमोद ले चण (२४ ) मालकांगनी । (२५) अतीस । कर चुक्र की भावना दें और उक्र समस्त चूर्ण में अमृताख्यगुग्गुलु: amritakhya-gugguluh मिला रक्खें । उचिप्त मात्रा में सेवन करने से तरक्ररोग में प्रयुक्त योग यथा-गरुन घोर अजीण का नाश होता है। २ श०, गुग्गुलु १ श०, त्रिफला प्रत्येक १ श० जन ६४ श० में कूट कर पकाएँ, जब चौथाई शेष रहे अमूननारः amrita-kshāraha-सं० पु. छानकर पुनः इतना पकाएँ कि गादा होजाए । इसमें नवसादर,नू(नर)सार ।(Ammonium chlor दन्तीमूल ४ तो०, निशोथ २ तो. चूर्णकर ridum.) वै० निध। मिलाएँ। इसका बलाबल विचार कर माना। अमृता amriti -सं० स्त्री०, हिं० संज्ञा स्त्री० चक्र० द. घाटगे०चि०। (१) गुड़चो, गिलोय । ( Tinospora अमृताख्य घृतम् Amritākhya-ghritam corditolit ) रा. नि. व० ३ १ २ मा०।। --सं० को अपामार्ग बीज और शिरस के बीज (*) (Phyllanthus cmblicat. ) दोनों प्रकार की श्वेता (कटमी और महाकर श्रामला ।गचि० ११ । (३) हड़ हरीतकी ।। भी) और काकमाची ( मकोय ) इन्हें गोमूत्र (Terminalia chebula ) Togo में की। इनसे सिद्ध किया हुआ धृत विष का "स्थूलमांसामृता स्मृता।" इयं चम्पा जाता । 70 परम शमन करता कहा गया है। यह अमृत नामक नि.व. २।(४) तुलसी (Ocimum विख्यात घृत है। सुश्रुत० सं० कल्प० अ०७ Sanction.)। (५) काऽधात्री स । भा०। लो०११ (६) मदिरा, मथ (Wine)। रा०नि० व. अमृताख्य तेलम् amritakhyat-tailan-सं० १४। () इन्द्रायण (Citrul]us colocyn. की०गिलोय, मुलहठी, लघुपञ्चमूख, पुनर्नवा, thes ) रा. नि० व० ३। (८) राम्ना, पुरएटमूल, जीवनीयगण, प्रत्येक १.० पारावतपदी, लताफरकी । रा०नि० व०३ पन्न । वजा ५०० पल, बेर, बेल, जौ, कुल्थी, (१) गोरखदुग्धा। (१०) काली अनीस, प्रत्येक एक एक प्रादक, शुष्क गाम्भारी फल कृष्ग्य अतिविषा । (११)रक निशोथ,खुद स १द्रोण, इनको कूट धोकर १००द्रोण जन में रक्त त्रिवृत्ता । रा०नि० २०६। (१२) दूर्वा, पकाएँ । जब द्रोण जल शेष रहे सब छान लें For Private and Personal Use Only Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमृतास्य लोह रसायनम् নাম और इसमें ५ गुना दूध डालकर तथा चन्दन, । हणी, प्रामवात, घातरक, मूत्रकृच्छ,, प्रमेह, खस, नागकेशर, तेजपात, इलायची, अगर, । शर्करा रोग तर होता है। कूड, तगर, मुलहठी, प्रत्येक ३-३ पल और मात्रा-रती से ८ मा० । मजी ८ पल का कल्क बनाकर उसके साथ अनुपान-शहद, घृत । द्रोण तेल का पाक सिद्ध करें। यह वातरक्र, श्रपथ्य--अनूपदेशज मांस और जिनके श्रादि चत वीण, वीर्य की प्रस्ता , थकान, योनिदोष, का अक्षर 'क' हो उसे न खाना चाहिऐ। वंग अपस्मार और उन्माद को दूर करता है ।। सं० रक्त पित्त चि.।। च० सं०। अमृताख्य हरोतको amritākhya-haritaअमृताख्य लोह रसायनम् amritakhyn loha-! ki-सं० स्त्रो० पारडु रोग में प्रयुक्र योग -- rasāyanain-सं० क्लो० देखो-अमृत ख्य सतावर, भांगरा, पुनर्नवा, पियानासा, प्रत्येक लोहः। को कूटकर चौगुने जल में काढ़ा करें । जब चौथाई अमृताख्य लौहः amritakhya-louhah-सं० । शेष रहे, कपड़े से छान उसमें ३६० बड़ी और पुं०, क्ली० र पिस में प्रयुक्र रसायन यथा- स्थूल हड़ डालकर पकाएँ । पुनः सुखाकर ३० गुरुन, निमोथ, दन्तीमूल, मुण्डी, खदिर, अडूसा, ! पल दुग्ध में श्रौटाएँ । पश्चात् गुट ती निकालकर चित्रक, माँगरा, तालमखाना, पुष्करमूल, पुन ये औषध डाले--पारद, गन्धक प्रत्येक ६ पल वा, खिरेटी, कास, सहिजन, देवदारु, दुद्धि, दोनों को किसी पात्र में रख थोड़ी देर तक अग्नि पाक रस, दाभ (कुशा) का रस, शतावरी, से पचाएँ, पुनः उतार कर जब तक गाढ़ा न हो इन्द्रायण, बरना, जमीकन्द, चण्य, तालमूली, चलाते रहें, फिर इसमें गिलोय का सत्व मिला गंगेरन, पीपलामूल, कूट, भारंगी प्रत्येक ४-४ कर शहद से ३६. गोलियाँ बनाएँ और १-१ तोला, जल १०२४ तो० में पकाएँ । जब पाठवाँ ! गोली पूर्वोत्र हड़ी में भर दें और ऊपर सूत माग शेष रहे काथ छानकर रक्खें पुनः त्रिफला लपेटें । पुनः एक पात्र में शहद भरकर उसमें हड़ों १ प्रस्थ (६१ तो०), प्रस्थ जल में पकाएँ। को डाल दें। इनमें से प्रति दिन एक हड़ भक्षण जब जल प्राध्वाँ भाग शेष रहे काथ छानकर | करें। इसके सेवन से शुष्क पांडु रोगका नाश होता रको पुनः शहद से पुट देकर मृत लौह चूर्ण ६४ है। वृ० रस० रा० सु० । पांडु० रो०अधिः । तो०, अभ्रक १६ तो०, गन्धक १६ तो विधिवत् | अमृतागुग्गुलुः amritaigugguluh-सं० पु. शु० पारद ८ तो, गुड़ ३२ तो०, .मिश्री गिलोय, परवल की जड़, त्रिफला, त्रिकुटा, वाय३२ तो०, गुग्गुल शु० ८ तो०, वृत ३२ विडंग सर्व तुल्य भाग ले चूर्ण कर समान भाग तो०, उन काथ में विधिवत इस लोह को शुद्ध गुग्गुल चूर्ण के साथ मईन कर १-१ तो. पकाएँ । शीतल होनेपर शहद ३२ तो० मिलाएँ। की गोलियाँ बनाएँ। पुनः शुद्ध सोनामक्खी का चूर्ण - तो शिलाजीत इसके सेवन से व्रण, वातरक, गुल्म, उदर. शु० २ तो०, सोंठ, मिर्च, पीपल, त्रिफला, व्याधि, शोथ इत्यादि दूर होते हैं। बङ्ग० सं० जमालगोटे की जद शुद्ध, निशोथ, दोनों जीरा, व्रण चि० श्लो०५० । अन्य योग के लिए खदिरसार, तालीसपत्र, धनियाँ, मुलहठी, वंश देखो-भाव० प्र० मध्य० ख० २७ श्लो० । लोचन, रसवत, काकड़ाभंगी, चित्रक, चव्य, प्रारम्भ १७०, लॉ०१७: वातरक्तचि०॥ नागरमोथा, दालचीनी, इलायची, तेजपात, नाग- भेष० ० वातरक्त. चि० । चक्र० द. केशर, कोल, लवंग, जायफल, मुनक्का, छोहारा वात० र० नि। प्रत्येक का चूर्ण २-२ तो. उक्र अवलेह में अमृतावृतम् amritaghritam-सं० को वातमिनाएँ । इसके सेवन से स्क्रपित्त, अम्लपित्त, रक्राधिकारोक योग विशेष । चक्र० द. वा. य, कुष्ठ, ज्वर, अरुचि, अर्श, उदरशूल, संप्र. र०नि०। For Private and Personal Use Only Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चि)। अमृताङ्करसः अमृतादिचूर्णः अमृताङ्क रस: amritiukulasah-सं० पु. पत्ते, हल्दी, दारुहल्दी, इनका क्याथ कुष्ट, विष, पारा, गन्धक, त्रिकुटा, पीपलामूल, चव्य, चित्रक, | विसर्प, विस्फोटक, करडु, मसूरिका, शीतपित्त बच्छनाग, सैंधव प्रत्येक समान भाग लेकर भांगरे ! और स्वर को दूर करना है। भैष. र० विसर्प के रससे भाधना दें। मात्रा-२ रत्ती । गरग--- यह पांचो प्रकार की खासी को नष्ट करता है। गिलोय, सोंड, पीयावाँसा, इलाची, बड़ी रस. यो० सा । कटेनी, छोटी कटेली, श लपी, पृश्निपर्णी,गोखरू, अमृताङ्करलीः mritānkura-louhah-सं० । न.गरमाथा, नेत्रवाला इन्हें पीस मधुयुक्त सेवन पु०,क्लो. चित्रक मूल प्रभृति शुद्ध पारा, लौह करने से गर्म शूल नष्ट होता है। चूर्ण', ताम्र भस्म, भिलावा, गन्धक, गूगल और भैष २० गामणो चि०। अभ्रक भस्म रोक ४-४ तं:0, हड, बहेड़ा १-१ , अमृतादि क्वाथः aijitalikvathin-सं-पु. तो०, मामला ६ तो और मा०, लोहसे शट- मिलाय मोड, करमरैया, न.गरमोथा, लघुपञ्चमूल, गुण घी, त्रिफला का क्वाथ २८ ता० इन सब माथा, सुगन्धबाला इनके क्वाथ में शहद डाल को लेाहे की कढ़ाही में पकाएँ और लोहे की ! पीने से प्रसूत की वीड़ा दर होती है। यो कड़छी से चलाते रहें। मात्रा-अावश्यकत नुसार। तर० गर्भ० त्रि० । इस नाम के भिन्न भिन्न गुण-प्रत्येक कुट, पांडु, प्रमेह, प्रामवात, . बीस योग अनेक ग्रंथों में श्राप हैं। वातरक्र, कृमि, शोथ, गयरी, शूल, वातरोग, ! अमृतादिगुगनुः ahmitaliguggultulh-सं० क्षय, दमा और बलि व पलित को भी करता । पु० देखी--अमृताद्यगुग्गुलः। हैं । रस० यो० सा०। | अमृतादिगुगलवृतः mmitādigiggulugh. नोट-इसी नाम के दूसरे योग में बहेड़ा | jitab-सं० पु. गिलोय, वामा, पटोल, चंदन, ६ पल, श्रामला २८ तोले, गोघृत तोले और मोथा, कुटकी, कुड़ा की छाल, इंद्रयत्र, हड़, १ प्रस्थ त्रिफला के क्वाथ के साथ उन विधि से चिरायता, कलिहारी, अनन्तमूल, जौ, बहेड़ा, पकाने को कहा है। उ० द. चि०र० स० श्रामला, खम्भारी, सीट, प्रत्येक १-१ मा०, सं० रसः। 70 र० स० सं०टी०। इनके क्वाथ तथा ८ पल शु० गृगल के कल्क से अमृतादुर वटीamritankra-vilti-सं०स्त्री० १ प्रस्थ घी का विधिवत पाक करें। यह हर प्रकार पारद, गन्धक, लौह, अभ्रक,शुद्ध शिलाजीत, इन्हें के नेत्र व्याधि प्रबुद, मोतियाबिंद, तिमिर, गिलोय के स्वरससे मर्दन कर गुआ प्रमाण गोली | पिल्ल, करडु, अाँसुवों का अधिकमाउ, गठिया बनाए। इसके सेवन से क्षुद्ररोग, रकपित्त, जीगर्ग प्रादि को दूर करता है । र० २० । ज्वर, प्रमेह, कृशता, अग्नि क्ष्य प्रादि अामला के ! अमृतादिघृतम् ॥mritatlighritam-सं०क्ली० स्वरस के साथ सेवन करने से दूर होते हैं तथा । वात रक्त में प्रयुक्त मृत योग---- गिलोय के क्वाथ यह पुष्टि, कान्ति, मेधा और शुभ मति को उत्पन्न । प्रथना कल्क द्वारा सा युक्त सिद्ध घृत बात. करती है । भैष० २० तुइरोग चि.। रक्र, श्रामवात, कुष्ट, व्रण, अर्श, और कृमि रोग अमृताञ्जन amitan jana-सं० पु. पारा, को दूर करता है। चं० सं० वात रका सीसा समान भाग इनसे द्विगुण शु० सुर्मा और चि०। थोड़े से कपूर मिलाकर बनाया हुआ सुर्मा निमिर अमृतादि चूर्ण Tritadichurnali-सं० पु. को नष्ट करता है। (१) गिलाय, गोखरू, साठ, मुण्डी, वरुणछाल असतानि amritadih-सं० ' विसर्प रोग : इनका चर्ण मस्तु श्रारनाल के साथ स्वाने से में प्रयुक्त क्वाथ । यथा--गिलोय, अडूसा, परवल ग्रामघात नष्ट होता है। भा०० म. खं. नागरमोथा, सप्तपर्णी, खैर, कालात, नीम के प्रा० वा० For Private and Personal Use Only Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमृतादि तैलम् अमृताधवलेहिका (२) गिलाय, कुटकी, साट, मुलेठी, इनका ! गन्धमूल, पृष्टपर्णी, कुटकी, ऋद्धि, वृद्धि, मेदा, चूर्ण शहद के साथ चाटकर ऊपर गोमूत्र पीने से । महामेदा, गोखरू, कटेरी, बड़ी कटेरी, गिलोय, श्राग बात नष्ट होता है । वृ० भि० र)। पीपल, रास्ता और असा सर्व तुल्य भाग वे अमृनादि तैलम ajitattitailam--सं० पु. कल्क बनाकर उसमें डाल मन्द मन्द अग्नि से देखो-अमृताद्यतेलम् । उक्र योग में देवदारु ' पकाएँ तो यह वृत सिद्ध हो । धन्वन्तरि जी के स्थान में तून पा रखा है। अमृत सा. का कथन है कि इसके सेवन से ( पान, अभ्यंग, गलगण्ड चि०। नस्य ) शोप, दाह, वात रक, क्रोष्टु शीर्ष, खजअमृतादि तैलम् amritadi-tutilis.- संक्ली० वात, उरुस्तम्भ, दारुण वातरक्र, वातकष्ट, गृध्रसी गिलोय का रस, नीमकी छाल, हींग, हड़, कुड़े की और सातकंटक दूर होता है। उक्र नाम के छ: छाल, बला, अतिवला, देवदारु भोर पीपल के . . प्रकार के योग भावमिधा जी ने अपने ग्रन्थ में कल्क से सिद्ध किया हुआ तेल गलगण्ड में हित वर्णन किए हैं। है । वृ० नि० र०। गिलोय, शारिवाँ, लधुपंचमूल, अड.सा, विरेटी अमृतादि बटो almitadi.viati-सं० नो० इनका पञ्चांग पृथक पृथक।१० चालीस तो०, को विष २ भा०, कपई भस्म ५ भा०, मिर्च १ भा० . १०२४ तो० जल में पकाएँ । जय चौथाई शेष जल से मईन कर मुद्ग प्रमाण गोलियाँ बनाएँ। रहे सब उसमें पीपल, चंदन, हाऊबेर, खस, पित्तयह अग्निमान्द्य, त्रिदोष, और कफ के रोगों में पापड़ा, सोनापाटा, मुलहठी, चिरायता, नीलहित है। मा०प्र० १ भा. ज्वर चि०। कमल, इन्द्रजी, नागरमोथा,सौंठ, कुटकी, धमासा, अमृतादिस्वरसः jitadis sitaSab-सं. दालचीनी, तेजपात, यह सामूल, वायमाण, पु० गिलाय हरी ले कुचल कर रस निकाल कर ( अभाव में बनफ्सा प्रत्येक २-२ तो० । इनका स्वच्छ वस्त्र से छाने। यह रस २ ती० और शहद कल्क और इस कल्क के समान भाग बकरी का ६ मा० डालकर पीने सेममेह दूर होता है। दुग्ध, ६४ तो० गोतृत मिलाकर सिद्ध करें। यांतर. स्वरसादि सा० । इसके सेवन से भयानक राजयचमा, सन्निपात, अमृतादिहिमmritadihinma-संक्लीगिलोय रपित्त, श्वास, कास, उरावत, दाह और शोथ . का हिम बनाकर प्रातः काल पीने से पित्त ज्वर दूर होता है । वंग० से० सं० २ श्लो० ६५, : नष्ट होता है। वृ० नि० २० ६६ प्र० । राज यदमा० चि०। अमृताद्यगुग्गुलुः amritady-guggulull -सं० पु० गिलेाय भा०, इलायची २ भा०, अमृताद्यचूर्णम् amritadya-churnam-सं० वायविडंग ३ भा०, इंद्रजी ४ भा०, बहेड़ा ५ क्ली० श्रामवात में प्रयुक्त योग-गिलोय, सोंठ, भा०, हड़ ६ भा०, श्रामला ७ भा० और शुरु गोखरू, मुण्डी, घरुणछाल, प्रत्येक तुल्य भाग ले गुग्गुल ८ भा० । इनको शहद में मिलाकर खाने चूर्ण प्रस्तुत कर सेवन करने से श्रामवात दूर से स्थूलता भगन्दर और पिडकाएँ दूर होती हैं। होता है। भा० म०२ भा०। भा०प्र० मध्य. खं०२।। श्रमृनाद्य तेलम् amitadya-tailam-सं. अमृताद्यघृतम् anitadyaghritain-सं० क्लीक गलगण्ड रोग में प्रयुक्त योग -गिलोय, की० (१) आमवात में प्रयुक्रयाग-गिलोय ४०० नीम की छाल, अम्ल वेतस, पीपल, देवदारु, तो०, को १०२४ ता० जल में पकाएँ, जब चौथाई दोनों बला इनसे सिद्ध तैल गलगण्ड रोग को शेष रहे तब उस कायमै ६४ ता० धृत तथा चौगुना दूर करता है। पं० सं० गलगण्ड त्रि०। गोदुग्ध, काकाली, क्षीरकाकोली, जीवक, ऋषभक अमतावलेहिका anmritadyavalehika सतायर, विदारीकन्द, मुलही, नीलकमल, अस. __-सं० स्त्रो० हड़, कुटकी, सोंठ, मुलहठी शहद में For Private and Personal Use Only Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमृताद्योगुग्गुलुः अमृतावटिका मिलाकर ऊपर से गोमूत्र पान करने से वातरक सोहागा, कपूर, धनियाँ, नेत्रवाला, नागरमोथा, नष्ट होता है । यो०र० वा०र० । पाढ, जीरा और प्रतीस प्रत्येक १-१ तो सबका waragisa: amritádyougugguluh चूर्ण कर बकरी के दूध से पीस कर १-१ मा० -सं० पु. देखो-अमृताद्य गुग्गुलुः। की गोलियाँ बनाएँ। अमृता नाम गुटिका a lita-nāra.gutis a अनुपान-धनिया, जीरा, भंग, शालबीज, -सं-स्त्री. चित्रक, हइ १-१ पल, पारद, त्रि. मधु, बकरी का दूध, मरड, शीतल जल, केला कुटा, पीपलामूल, मोथा, जायफल, विधारा, की जड़ का रस, मोचरस अथवा कटेरी का रस, प्रत्येक १-१ पल, इलायची, वंशलोचन, कूर, उनमें से किसी एक के साथ खाने से घोर अतिगन्धक, हिंगुल, मैंनफल, मालकांगनी, दालचीनी सार दूर होता है । संग्रहणी, अर्श, अम्लपिश, अभ्रक, लोह प्रत्येक प्राधा पल, हलाहल विष खाँसी, गुल्म और एक दोषज, द्वितोषज,त्रिदोषज, २-३ रत्ती, गुड़ - पल, भांगरे के रस में मर्दन तथा उपद्रव युक्र प्रत्येक अतिसारों को यह रस कर छोटी बेर बराबर गोलियाँ बनाएँ। गुण नष्ट करता है । वृ० रस. रा. सु० अतिसार सम्पूर्ण बात व्याधियोंको दूर करता है । २०२० त्रि। सु.। amritárnava-louhain अमृताफल: amitaphalah--सं० पु.ली (१) पटोल, परवर ( Trichosa-1 -स. क्लो० कुष्ठ रोग में प्रयुक योग-त्रिकुटा nthes dioica. )। (२) नाशपाती।। त्रिफला, लौह भस्म तुल्य भाग ले चूर्ण करें । ( Pyrus Communis ) सर्व तुल्य शुद्ध शिलाजीत मिला गिलाय के अमृतारिष्टम् amritarishgar--सं० क्ली० रस से भावना दें और सूर्य के ताप से शुष्क करें विषम ज्वर में प्रयुक अरिष्ट । योग - गिलोय इसी तरह तीन भावना दें और सुखाएँ और पुनः १०० पल, दशमूल १०० पल, ४ द्रोण (१६ घृत से मईन कर रखें। मात्रा-१ मा० मधु के सेर=१ द्रोण ) जल में क्वाथ करें । जब चौथाई। साथ सेवन करें। रस० २० । इसे प्रमेह में भी शेष रहे तब उसमें शीतल होजाने पर ३ तुला दिया जाता है। पुराना गुड़ मिलाएँ । पुनः इसमें जीरा १६ पल, अमृतार्णव लोहः umritarnava-louhah पित्तपापना २ पल, सप्तपर्ण, सोंठ, मिर्च, । --सं० प. त्रिकुटा, त्रिफला, लौह भस्म प्रत्येक समान भाग ले चूर्ण करें, सर्व तुल्य शिलाजीत पीपल, नागरमोथा, नागकेशर, कुटकी प्रतीस, : इन्द्रजी इन्हें एक एक पल मिला मिट्टी के पात्र , मिलाकर धूप में गिलोय के रस से ३ बार भावना में रख एक मास पर्यन्त रख अरिष्ट प्रस्तुत करें। दें। फिर घी में घाटें । मात्रा-१ मा० । इसके सेवन से समस्त बरकर होते हैं। भै० गुण-शहद के साथ खाने से १८ कुष्ठ, कठिन र. ज्व०चि.। वातरक, बवासीर, प्रत्येक प्रमेह और उदर रोग · अमृतार्णवः amritarnarah--सं० ए० मीठा नष्ट होते हैं। रस. यो. सा० । विष, पारद, गंधक लौह भस्म, और अभ्रकभस्म, अमृता वटिका (गुग्गुलः) amrita-vatika तल्य भाग ले चित्रक के रस से सात भावना दें। ( gugguluh )-सं० स्त्री० (१) सद्यः मात्रा - १-२ रत्ती इसे दोषानुसार अनुपान वय नाशक योग। गिलोय. पटोलमल. त्रिफला. के साथ खाने से आमाशय के सम्पूर्ण रोग त्रिकुटा, और वायविडङ्ग इन्हें तुल्य भाग ले चूर्ण और विषमज्वर का नाश होता है। कर सर्व तुल्य शुद्ध गुग्गुन मिश्रित कर एक एक भैष र० आमाशय रोक चि०1 . मासेकी गोलियाँ प्रस्तुत करें । एक एक वटी प्रति. अमृतार्णवरसः antitarnavarasah-सं० दिन सेवन करने से ग्रण विकार दूर होता है । . पु. हिंगुलोत्थ पारद, लौहभस्म, गन्धक, रस०र० For Private and Personal Use Only Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भलाष्टका ४१७ अमृतेश्वररमा (२) घृत पिष्टित गुग्गुल १६ प०, काथार्थ द्रोण गो दुग्ध मिलाएँ । पुनः त्रिफला, चंदन, गुरी १०० ५०, दशमूल १०० ५०, पाठा, मूर्चा, के शर, खस, तेजपात, इलायचे. कुष्ठ, अगर, बदियाला, श्वेत बड़ियाला-मूल, एरण्डमूल,प्रत्येक तगर, मुलेही, मजी इन्हें प्राधा आधा पल १०प०, सास्थि (गुठली युक्र) हरीतकी १००, लेकर कल्क बना सविधि तेल पकाले । भा० म. बहेड़ा १००, श्रामला ४००, पाकार्थ जल ३ द्रोण २ भा० वातरो० चिo। ( ४८ सेर) इसमें गुग्गल को एक पोटली में अमृतिः amritih-सं० स्त्री० जलपात्र विशेष । बाँध दोलायंत्र की विधि से पकाएँ । जब ४८ शराब करणम् amriti-karanam -सं. शेष रहे तब इसी क्वाथ में त्रिफला, निसोथमल, की विधि -अभ्रक के बराबर घी लेकर दोनों त्रिकुटा, दंतीमूल, गिलोय, असगन्ध, वायविडा, को लोहे के पात्र में पकाएँ। जब घी सूख जाए तेजपत्र, दारचीनी, छोटी इलायची, नागकेशर, तब उतार कर अभ्रक को सब काम में बतें'। गुण्डनृण प्रत्येक १.१ प० का चूर्ण मिला स्निग्ध योचि०। पात्र में रक्खें । मात्रा-८ मा०। इसे उज्या जल अमृतेन्द्ररस: amritendra-rasah.सं. पुं. से सेवन करना चाहिए। रस.र० व्रण शोथ सिद्ध पारव १ पल, त्रिफला १ पल, शुद्ध गंधक चि०। १२ तो०, ताम्रभस्म ४ तो०, लोह भस्म ४ तो०, अमृताष्टकः amritashralah सं० पु., बच्छनाग तो सबको मिलाकर गुडची, काला को पित्तज्वर में प्रयुक्र कषाय । गिलोय, धतूरा, भाँग, त्रिकटा, महाराष्ट्री (मरेठी), इन्द्रजौ, नीम की छाल, पटोलपत्र, कुटकी, सोंठ, भांगरा, अदरख, ब्राझी, हुलहुल, जैत, काली चन्दन और मोथा इनके द्वारा निर्मित कपाय को तुलसी, धतूरा, (दूसरीबार), भांगर, (३ पिप्पली चूर्ण युक्र सेवन करने से पित्त तथा कफ बार ) और बच्छनाग इनके रस से क्रम से ज्वर का नाश होता है। चक्र० द. चि०।। पृथक् पृथक् एक एक दिन भावना दें। पुनः भूग अमृतासङ्गम् amritasangam-सं० ली. प्रमाण गोलियाँ बना कर रक्खें। खर्परिका तुस्थ, खपरिया, खर्पर । तत्पर्याय-कर्प गुण ... सन्निपात, भयानक ज्वर और मन्दाग्नि रिका तुत्थं, अञ्जन (हे)। मद। में चित्रक और अदरख के साथ दें। यह उचित ममतासङ्गमः amritasanga mah-सं०प० । अनुपानों के साथ देने से रोग मात्र को एवं खर्परी तुस्थ । तूंते-घं० । तूतिया-हिं० | मोर चत वलि और पलित को नष्ट करता है। र० यो -म० । वै० निवः। सा०। अमृताम् amritāhvam--संक्ली० (१) अमृत- | अमतेशरसः amritesha-rasah-सं० पु. फल, नासपाती । (Pyrus communis) पारद भस्म, अभ्रक भस्म, कान्तलौह भस्म, मद व.६। (२) खबूजा । मद० व० ६ ।। बच्छनाग, सोनामाखी और शिलाजीत प्रत्येक अमृताहयतैलम् amritāhvaya-tailan-सं० समान भाग लेकर बारीक चूर्ण करें। मात्रा क्रो० वातरक में प्रयुक तैल । जैसे-गिलोय, . १ रत्ती । गुण-इसके सेवन्से वृद्धता दूर होकर मधुक, लघु पञ्चमूल, पुनर्नवा, रास्ना, एरण्डमूल, । श्रायु की वृद्धि होती और शरीर की पुष्टि होती जीवनीयगण की औषधे, इन्हें १-१ सौ पल लें, है। इसके उपर असगंध-मूल-चूर्ण , भा०, धी बला ५०० पत्न, कोल (बदरी), खेल, उड़द, ७ भा०, गुड़ ८ भा० और पोपल ! भा० इन जो, कुलथी १-१ मादक (४-४ सेर ), छोटा | सबको मिलाकर मन्द मन्द अग्नि से पकाकर गम्भारीमूल-छाल शुष्क , द्रोण (१६ सेर ), लड्डू बनाकर खाना उचित है । रस. यो० सा०।. १०० द्रोण जल में विधिवत पचाएँ । जब ४ द्रोण अमतेश्वररस: amriteshvara-rasah-सं० जख शेष रहे तब इसमें , द्रोण तिल तेल और सोहागा १६ भा०,कालीमिर्च १२ मा०, ६३ For Private and Personal Use Only Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमृतोत्या अमेरिकन सेण्ट्रारी सोनामाडी, बच्छनाग, अकरकरा, प्रत्येक २ भा० अपवित्र वस्तु । विष्ठा, मल, मूत्र आदि । -वि. मिलाकर चूर्ण करें । मात्रा-१-२ रत्ती । अपवित्रा गुण-कफ, अजीण', सनिपात, शूल और अनेक । अमेनिया बैक्सिफरा amimaunia bacciरोगों को नष्ट करता है । रस. यो० सा०। । fera, iinn -ले० दादमारी, दटुटम वृक्ष । (२ ) रससिन्दूर, सतगिलोय, 'लौहभस्म ! फा० इ०२ भा० ।। समान भाग लेकर शहद और घृत में मिलाकर अमेनिया वेसिकेटरी ammamia, resica.. रक्खें । मात्रा-६ रत्ती । गुण-यह राजयस्मा ! tory -ले० देखो-अमेनिया सिकेटोको नष्ट करता है। रसे.चि०अ०६। भा० ! ! रिया। म०२ भा० । प्रयोगा अमेनिया वेसिकेटोरिया ammania. vesiअमृतोत्था amritotthā-सं० स्त्री. ( Oi catoria, Rort.-ले. दादमारी । ई हैं। _chis luxiflora Lin. ) सुधामूली, गा। ...' सालब मिश्री, सालम् (ब) मिसरी । अत्रि ।। अग्निगर्भ-सं० । जंगली मेंहदी, दावमारी अमृतोस्पन्नम् amritotpannam-सं० क्ली० -हिं०, बं० । दादरबृटी-र । बन मिरिच अग्नि. (1) सुरथ ( Vitriol.)। (२) खपरी नुन्थ, बूटी, भूर जम्बोल-बम्ब०, द०। । सुत्थाजन, खापर । कालखापरी-मह० । रा०नि० : अमेरिकन वेलेरियन् american valerian व०१३ । -ई० बालछड़ अमरीका, सुम्बुल अमरीकी । अमृतोत्पन्ना amritotpanna-सं० स्त्री० (Cypripedium.) गृहमक्षिका । रा०नि०व० । अमेरिकन वर्मलीड american worm sced-go ( Chenopodium Antheअमृतोद्भवः amritodbhavu h-सं० पु०(१) - lminticum.) धन्वन्तरि । रता -क्ला० (२) तुस्थ, तूतिया | अमेरिकन आइवो american ivy+है. ( Blue Vitrio} )।रा नि० व. १३।। (Vitis Quinquefolia. ) (३) सर्परी तुस्थ, तुल्याञ्जन, खापर । रा०नि०। । अमेरिकन कुटकी american kutki-ई. (४) आमलकी, प्रामला । (Phyllanthus ! हचीड (Itch feed.)-इं०। .. Emblica ). अमेरिकन कोलम्बो american colunibo अमृतोपमम् amitopa.mam-सं० पली : - (Frasera carolinensis.) (१) खपरी तुस्थ । हूँ ते-बं० । मोरचूत-मह... 'अमेरिकन में पपल american, may apple: वै. निघः । (२) द्रव्य । वै० निघ। .. -इं० पोडोफिल्लाइ हाइजामा (Podoअमृतापहिता anyitopa hita-सं० स्त्री phylli Rhizomma. )-ले. हशीशतुस्सतो (चो)प(ब) चीनी । फरा अमरीकी-अ० । म० अ० डॉक। ... मधमamridhram-सं० ली. शिश्न, मेद, अमेरिकन मेन्ना american manna-ई. उपस्थ । इसके तीन भेद हैं । यथा-(१); -फा० । अाकाश मधु-सं०। यह वर्षिष्ठम्.(२) श्रधान्यम् और (३) अमघम् ।। पाइनस नम्बरशियानी वृत्त से प्राप्त होता है। अमेडी amedi-विहा. कच्चा पाम । (Green देखो-शीरखिश्त । म० अ० डॉ०। . mango. ) अमेरिकन रोग़न तारपीन american Joshan अमेध्यम amedhyam-सं० क्ली। (१) पुरीष tārpin-फा० देखो-रोगन तारपीन | अमेध्य amedaya-हिं०संशापु० ( Foe. अमेरिकन सेएटॉरी american centary ... ces, exerenment. )। श० र०। (२) . -इं० (Sabbatia Angularis.) For Private and Personal Use Only Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमेरिकन सारसारिल्ला . अमोनिष्टेड टिंक्चर ऑफ अर्गट अमेरिकन सारसा परिल्ला american sarsa- कस्तूरी ले। फिर सब को सम्भालू और तुलसी parilla-o taraftarfen (Ara. i के रस में बारीक घोटकर तिलों के बराबर गोलियाँ lia Nudicaulis. ) बना छाया में सुखाएँ । गुण-यह १३ सन्निपात, अमेरिकन सैफ्रन american saffron-ई. न प्रकार के जरों को और विषम, शीत दोष, ___ कुसुम्भ, कह । ( Safflower.) तथा साधारणतया सभी रोगों को नष्ट करता है। अमेरिकन हेलोबार american helibore | रस० यो० सा०। -इं० अमरीकी कुटकी । इच वीद्ध (Itch अमोघोषध amoghoushadha-हिं. स्त्री० weed.)-ई । (Specific Medicine.) ऐसी औषध अमेरिका का जङ्गली तम्बाकृ america-ka- जो कभी निःसफल न हो अर्थात अवश्यमेव फल jangali tambaku-हिं. पु. ताम्रकूट देने वाली दवा,अव्यर्थ, सत्य औषध । वे औषध विशेष । जो रक्र में पहुँच कर रोगाणुओं को मार अमेरिका का लोबान america-ka-lobana डालती हैं। यदि औषध का यथा विधि प्रयोग -हि० पु. लोबान विशेष । किया जाए तो जन्तु मर जाते हैं और रोग घट श्रमेसा amesā-बर० शफ़ा, सीताफल ।। जाता है या जाता रहता हैं और रोगी फिर धीरे . (Anoma Squamosa.) धीरे अपने पहले स्वास्थ्य को प्राप्त करता है। अमैथुनो विधि amaithuni-vidhi-हिं०स्त्री० श्रमोड़ो amodi-विहा० अमिया-हिं० । वह शृष्टि जो बिना मैथुन के उत्पन्न होती है । प्रमोद amoda-हिं० संज्ञा पुं० देखो श्रामोद। (Asexual reproduction.) अमोनम कक्यूमा amonum curcuma अमोखा amokhi-सं० स्रो० हह, हरीतकी। लेली इरिटा. पीतरस। (Turmeric) : ( Terminalia Chebula.) . . . इं० हैं. गा० ।। अमोघ amogha-हिं० वि० [सं०] निष्फल न (प)मोनिरक ammoniac-इं० । होना , वृथा वा अन्यथा न होने वाला। अव्यर्थ । व्यथ। (प)मानिएकम् ammoniacum-ले० - सफल । सस्य । साचा । फलदाता। अचूक | उशाक, कान्दर । लक्ष्य पर पहुँचने वाला | खाली न जाने वाला।। (ए)मानिएकम् ऐण्ड मर्करी प्लाप्टर (Productive,Fruitful, Infallible, I . ammoniacum and mercury plaEffectual.) . ster-ई. उशक व. पारद प्रस्तर वा प्रखेप। अमोघा amoghā-सं० स्त्री०, हिं० संज्ञा स्त्री० . देखो-उशक। (1) पाटला वृक्ष, पाढ़ल (-२) का पेड़ और ! .. फूल । (Stereospermum Sunveo.iअ(प)मोनिएकम् मिक्श्च र ammonia"" lens, De.) भा०। (२) श्वेत पाटला। cum mixture-ई० उशक मिश्रण । देखो(३) हरीतकी, हड़ (Terminalia उशक। - Chebula.)। ( ४ ) विडंग, पायविहंग। | अमोनिएटेड प्रार्सिनियो साइट्रेट ऑफ प्रायन .. (Embelia Ribes.) मे०। श्वेत पाटला | ammoniated arsenio-citrate of (५) पद्मभेद, कमलभेद । (Lotus Var.) iron-इं० यह एक प्रकार का यौगिक लवण रा०नि० २०२३ । ' है। देखो-लौह । अमोधास्त्रं रसः amoghastra rasa b-सं० अमोनिएटेड टिंक्चर ऑफ अर्गट ammoni पु० तांबा, गंधक, बच्छनाग, संखिया प्रत्येक | ated tincture of ergot-t० अमित समान भाग ले। तांबे से तीन गुना पारा और अर्गट पालव । देखो-अगंट। For Private and Personal Use Only Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ममानिएटेड टिक्चर ऑफ इण्डियनवेलेरियन ५०० अमोनिया अमोनिष्टेड टिंक्चर ऑफ इण्डियन वेलेरियन ! maticum-ले० सुवासित अमोनिया । देखोammoniated tincture of indian: पला, इलायची । ( Cardantum) valerian- देखो जटामांसी। अमोनियम पलम anmonium alum-ले० अमोनिषटेड टिंक्चर ऑफ ओपियम् ammoni. फिटकिरी भेद। एक प्रकार की फिटकिरी । ated tincture of opium-ई० अमूनित : अमोनियम कार्बनित ammonium karbaअहिफेन पासव | देखो-पोस्ता । __mit-हि.पु. देखो-प्रमानियाई कार्बोनास। अमोनिपटेड टिंक्चर श्राफ कोनीन ammoni- अमोनियम कार्बोनेट ammonium carbo ated tincture of quinine-ई. अमो- nate-ले. देखो-प्रमोनियाई कार्यानाप्त । नित क्वीनीन पासव । देखो -सिन्कोना। अमोनियम क्लोराइड ammonium chlo. अमानिएटेड टिंक्चर ऑफ वेलेरियन ammo. iitle-ले. नृ(नर)सार, नौसादर । ( Sal vinted tincture of valerian-o incture of valerian- a mmoniac. ) प्रमूनित हीवेर अासव । देखो-सुगन्धवाला। अमोनियम.फोस्फेट amo •ium phospअमोनिएटेड क्लोरोफॉर्म aminoniated ch. ___hato-इं० नृसार स्फुरेत । देखो-अमोनियाई फॉस्फोस। _loroform-६० क्लारो में अनानिएटा। अमोनिपटेड फेनार एसेटमाइT ammo. अमोनियम बेजाएट ammonium benzo. niated phenyl acetamide-ई... ate ई० लोबान अम्ल । देखो-एसिडम अमोनोल । देखो-एसेट एनिलाइडम् । बेनोइकम | अमोनियम बोरेट ammonium borate-ई० प्रमानिएटेड मर्करी Ammoniated mercury-t० अमूनित पारद । देखो-पारद। । देखो-अमानियाई बोरास । 'अमोनियम नामाइडम् animonium bromiश्रमोनिएटेड मर्करी इण्टमेण्ट ainmoni. duin-ले० अमोनियम ब्रह्मणिकम् । देखोated mercury ointment-इं० अमू ब्रोमीन। नित पारदानुलेपन । देखो-पारद। अमोनियम सक्कीकार्बोनेट ammonium अमानिएटेड लिनिमेंट ऑफ केम्फर ammoni succi carbonate-ले. देखो-अमोमि. ated liniment of camphor-९० याई काबानास। अमोनित कपूर अभ्यञ्जन ! देखो-प्रमोनियम् । अमोनियम सक्कीनेट ammonium succi. अमोनियम ammonium-ले. नरसार वायव्य । _nate-ले० अमोनियम अम्बर । देखोदेखो-अमोनिया। अम्बर। अमोनियम प्रायन एलम ammoninm iron अमोनियम सल्फो इक्थियालेट ammonium - alum-ले० एल्युमीन अमोनियो । _sulphoichthyolate-ले० देखो-प्रमो. अमोनियम श्रायोडाइड ammonium iodi-! निया। ___de. ले० अमोनियम नैलिद । देखो-प्रायोडम। अमोनियम सस्की कार्बोनेट ammoniuni अमोनियम इक्थियोल ammonium ich- | ___sesqui car bonte-इं० देखो-प्रमोनियाई thyol-ले० देखो-सरेशममाही। कार्यानास । अमोनियम इक्थियोल सल्फोनेट ammoni. [ अमोनियम हरिद am monium harid um ichthyol sulphonate-ma | -हि०० नौसादर, नृसार । देखो-अमोनियम इक्यो सल्फोल ! देखो-सरेशममाही। क्रोराइड । अमानियम एरोमेदिकम ammonium aro- | अमोनिया ammonia-{ नरसार वायर For Private and Personal Use Only Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रमोनिया (ग) खरल, जिसमें नवसादर और चूर्ण' को मिलाया गया हो, उसके समीप यदि पाद रक्र लिटमस पत्र लाएँ, तो वह नीला हो जाता है । अतः यह गैस क्षारीय है। (घ) उसी खरल के पास यदि उदहरिकाम्ल में दुबोकर एक काचदण्डी लाएँ, तो श्वेत धूम्र निकलते हैं। (ङ) इस गैस का जल विलयन हारों के समान गुण रखता है। रक्त लिटमस को नीला और अम्लों को उदासीन कर देता है। यह हार ऐसा तीन और दाहक नहीं है, जैसा कि दाहक सोडा या पोटास । अतः इसको संज्ञा मृदुतार अमोनिया अमोनियम Ammanjilm-ले० । माज़ नौ- : शादर, गैस नौशादर-ति । रासायनिक संकेत सूत्र (न उ ३) N. H... लक्षण-यह एक उग्रगन्धि अदृश्य वायव्य (गैस) है, जो नवसादर (अमोनियम हरिद) और चूर्ण के मिश्रण से उत्पन्न होता है।। प्रयोग-नवसादर : भाग और चूर्ण २ भाग लेकर स्वरल में डालकर चूर्ण करें। दोनों के परस्पर चूर्ण होने पर एक उग्रगंधि गैस निकलने लगता है। यही अमोनिया है। यदि शृंग, खुर, केश, त्वचा और मांस आदि अथवा खेचरों के प, दग्ध किए जाएँ तो जो . विशेष दुर्गध प्राप्त होती है, वह अमोनिया गैस के कारण ही है, क्योंकि यह उनका एक प्रधान . अंग है। इस विधि से बहुलता से अमोनिया प्राप्त होता है । प्राचीन काल में मगग प्रभृति अमोनिया बनाने के काम पाते थे । यह गैस कई . एक वानस्पतिक रसों यथा इक्षु रस आदि में और किसी भाँति वायु में मी विद्यमान होता है। ___ यद्यपि प्रमोनियम कोई धातु विशेष नहीं है, । केवल नत्रजन और उदजन के परमाणुओं का समूह है, तथापि इसका अशु ( न उ३) धातुवत् काम करता है, और अम्लोंसे मिलकर लवण बनाता है। उसका सुप्रसिद्ध लवण नवसादर | (अमोनियम हरिद) है। यह अमोनियम और लवणाम्ल के संयोग से बनता है। अमोनियम के कर्बनित श्रादि लवण भी होते हैं, जो बहुत उपयोगी हैं। __ ग्रा--(क) अमोनिया एक अदृश्य, उम्र, परन्तु रोखक गंधयुक गैस है जो वणरहित. स्वच्छ तथा नमनीय होता है। स्वाद तीय दाहक है। (ख) यह अत्यन्त जल विलेय है ( मद्य- ! सार में भी विलीन हो जाता है।); परन्तु जलविलीन होकर यह स्थिर नहीं रहता । प्रस्तु, जल.. विलीम अमोनिया उबालने पर वा बोतल खुली। . उखने पर जल से निकल जाता है। (च) इसका प्रापेक्षिक गुरुत्त्र '५८६ है। यदि इस गैस को बहुन सी हवा के साथ मिलाकर सुघाया जाए तो भी यह बहुत क्षोमक प्रमाय करता है और यदि इसको शुद्ध रूप में सघा जाए तब तो तत्काल दम घुटने लगता है। संज्ञा-निणय--प्राचीन मिश्र, यूनान तथा रोम देशनिवासियों के एमन नामक देवता का मन्दिर, जिनका वर्णन एमोनाइकम ( उशक ) के संज्ञा-निर्णायक-नोट शीर्षक के अन्तर्गत होगा, लेबिया ( शाम) के जिस जिला में था, उस जिला का नाम उक्र देवता के नाम पर रखा गया था | उस जिलाका नाम श्र(ए)मोनिया था। कि कृत्रिम नवसादर सर्व प्रथम उसी जगह बनाया गया था । अतएव नवसादर का नाम सल एमो. निएक (Sal aimanoniac.) अमोनीयिक लवण या एमोनिया (स्थान) का नमक है, और चूँकि यह गैस सल एमोनिएक अर्थात् नवसादर से बनता है । अस्तु, इसी सम्बन्ध से उसका नाम भी श्र(ए)मोनिया रखा गया। औषध-निर्माण-(१) लाहकर श्रमोनी फोर्टिस Liquor A mr.onice Fortis -ले । स्टोङ्ग सोल्युशन ऑफ अमोनिया Stro. ng Solution of Aminonia-a! सबल अमोनिया द्रब, ती अमोनिया विलयम --हिं० । कत्री साइल अमोनिया -३१।.. For Private and Personal Use Only Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - अमोनिया ५०२ अमोनिया (ऑफिशल Official) यह काम आता है-लिनिमेण्टम अमोनी, सङ्केत सूत्र ( न उ.) N. HT लिनिमेरटम हाइड्रानिराई, टिंकचर किनीनी निर्माण-विधि-अमोनियम क्लोराइड (प्रमो. एमोनिएटा, टिंकचर अगोंटी श्रमानिएटा, टिंकचर वेलेरिपनी अमोनिएटा और टिंकवर श्रोपियाई नियम हरिद, नवसादर ) को शांत चूर्ण में मिला । अमोनिएटा तथा निम्नांकित योग के बनाने में:कर उत्ताप देने से जो अमोनिया गैस प्रादुर्भूत हो उसको परिबुत जल में विलीन करले। (३) लिनिमेण्टम श्रमोनी Linimeगुण-यह एक अत्यन्त उग्रगंधि, वण. tum Ammoniin-ले० । लिनिमेण्ट रहित एवं अति क्षारीय द्रव होता है जिसका । ऑफ़ अमोनिया Lisiment of Ammoआपेक्षिक गुरुत्व '८६१ होता है । इसमें ३२.५% mia, हार्टशान लिनिमेण्ट Hartshorn (भार में ) अमोनिया वायव्य पाया जाता है। Lininent -इं. । अमोनिया अम्यंग, प्रभाव-बेसिकण्ट (फोस्काजनक)। इसका अमोनिया उत्तन-हिं। तम्रीख अमोनियाई, प्राभ्यन्तर प्रयोग न करना चाहिए। तमील कर्नुलईल-ति । यह पड़ता है-लिनिमेण्टम कैम्फोरी अमो- नोट-प्राचीन काल में हार्टशान (मृगभंग, निएटम, लाइकर एमोनो, स्पिरिटस एमोनी बारहसिंगा) अमोनिया बनामे के काम आता था। ऐरोमेटिकस, सिरिटस एमोनी फेटेडस और श्रस्तु, लिनिमेण्ट अंत अमोनिया की दूसरी टिकचर ग्वाऐसाई एमोनिएटा में तथा अमेनियाई अंगरेजी संज्ञा हार्टशाने लिनिमेण्ट अर्थात् वेतोबास, एमोनियाई ब्रोमाइडम, एमोनियाई मृगभंगाभ्यंग भी है। कास्कॉस पोर निम्नांकित अफिसल योगों के निर्माण-विधि-लाइकर ( सोल्युशन ) निर्माण में काम आता है। श्राफ अमोनिया १ श्राउंस, भामंडपाइल ऑफिशल मिपेयरंशज ( वाताद तैल) १ श्राउंस और प्रालिद ग्राहल ( Officiul Preprutions. ) (जैतून तेल ) २ भाग इनको भलो प्रकार मिला (२) लाइकर एमोनो Liquor Ammo- । ले। प्रभाव-रूबीफेशेण्ट ( यण्यं वा प्रारुण्यniin-ले० सोल्युशन श्राफ अमोनिया Sol- ' कारक)। ution of Ammonia-इं० । अमोनिया लिनिमेण्टम कैम्फारी एमोनिएटम Linघोल-हि । सय्याल एमोनिया-उ० । i'mentum carpliorie armuoniaसङ्केत सूत्र : न उ, ) N. H . tun-ले० । एमोनिएटेड लिनिमेण्ट प्राक निर्माण-विधि- स्ट्रॉग सोल्युशन श्राफ अमो. : कैम्फर A .moninted limiment of निया १ माग, परिनुत जल २ भाग, दोनों को Camphor-इं० । अमोनिया कराभ्यंग-हिं० । मिला लें। तमीन काफ़री अमोनियाई, रोरान मालिश गुण--स्ट्रांग सोल्युशन अाफ़ अमोनिया के ! कातरी एमोनियाई-ति०। सदृश, परन्तु तीच्यता में यह उससे हीन होता निर्माण-विधि--स्ट्राँग सोल्युशन अंकि अमोहै। इसका प्रापेक्षिक गुरुरव ६१६ होता है और निया ५फ इड पाउंस, कैम्फर २॥ पाउस, इसमें 100 ( भार में ) एमोनिया गैस पाया . श्राइन अाफ़ लेवेण्डर फ्लइड डाम, ऐलकुहॉल जाता है । मात्रा-१० से २० बूंद । (१०% ) आवश्यकतानुसार । कैम्फर और नोट-इसको खूब डायल्यूट करके अर्थात् : श्रोहल मान लेवेण्डर को १२ कुइड पाउस जल मिश्रित कर देना चाहिए। एलकुहॉल (मद्यसार ) में विलीन करले। फिर प्रभाष-स्टिम्युलेएट ( उसेजक ) और रूसी- उसमें थोड़ा थोड़ा स्ट्राँग सोल्युशन अमोनिया फेशेण्ट (वर्ण्य वा प्रारुण्यकर )। मिलाते और हिलाते जाएँ । पुनः इतना एलकुहाल - - - - - - - - - - --- For Private and Personal Use Only Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमोनियां अमोनिया alis-लेन । लोमजनक विलयन-हिं० । अर्क मू अनज़ा-ति । याग-प्रॉलियम एमिग्डली ( वाताद तैल ) १ भाग, लाइकर अमोनी फॉ. टिस १ भाग, स्पिरिटस रोज़ मेराइनी ४ भाग, एक्कामैलिस २ भाग 1 सब प्रौपधों को मिला लें । बालों को बढ़ाने के लिए इस अर्क का प्रयोग करते हैं। - ( २ ) टिंकचूरा अमीनी कम्पोज़िटा Tinctura ainmoniæ composita, प्रोडीलम Eau-de-Luce--डॉ० । यौगिक अमोनियासव, सर्पागधार्क-हि. । तअफ़ीन अमोनिया मुरकब, अर्क दाफ़ि जहर मार-ति०। योग-मस्टिक (मस्तगी) २ ड्राम, एलकुहॉल (६०%)डाम, आलियम लेषण्डयुली १४ बूद, लाइकर अमीनी फॉर्टिस २० फ्लुइड श्राउंस । समग्र औषध को परस्पर मिलाकर साँप के काटे पर लगाया करते है। (मद्यसार ) मिलादे जिसमें कुल द्रव्य पूरा २० क्लइड पाउस होजाए। (५) लिनिमेण्टम हाइडार्जिराई Lini. i mentum Hydragyri-ले0 लिनिमेण्ट . ग्राफ मर्करी Liniment of mercury : -इं० । पारदाभ्यंग-हिं० । तम्रीरख वा मालिश सीमाब-ति । देखो--पारद। (६) स्पिरिटस अमोनो ऐरोमैटिकस : Spiritus ammoni aroa aticus -ले० । एरोमैटिक स्पिरिट श्रीफ अमोनिया Aromatic spirit of ammonia -६०। सुवासित अमोनिया सरा। देखी-श्रमो. निया कानास के योग ।। (७) स्पिरिटस श्रमोनी फेटिडस pi- .. ritus a milionix fe tillus-ले। फेटिड . स्पिरिट श्री अमोनिया Fetid spirit of i ammonia-ई० । पूतिगंध अमोनिया सुरा -हिं० । रूह नवशादर मुन्तिन, रूह नवशादर बदबू-तिः। निर्माण-विधि-स्ट्राँग सोल्युशन प्राफ श्रमो- । निया २ फ्लुइड बाउंस, ऐसाफेरिडा (हिंगु) १॥ श्राउंस और ऐलकुहॉल (६०%) अावश्यकतानुसार । ऐसाफेटिडा ( हिंगु ) के टुकड़े करके १५ ल इड पाउस ऐलकुहाल में . २४ घंटे तक भिगोकर इसका स्रवण करें। पुनः : इसमें स्ट्राँग सोल्युशन आफ अमोनिया और | इतना ऐल कुहाल और योजित करें', जिसमें सम्पूर्ण प्रौषध एक पाइंट हो जाए। । मात्रा--२० से ४० बुद (-१.२ से १-- क्युबिक सेटोमीटर ) जब एक बार देना हो और ६० से १० बुद (३.६ से ४.८६ घन शतांश ! मीटर ) जब एक ही बार देना हो। इसको अच्छी तरह जल मिश्रित कर सेवन कराएँ। प्रभाव---उत्तेजक (Stimulant) और उद्वेष्टनहर (Antispasmodic ). नॉट ऑफिशल योग ( Not official preparations). शियां क्रिनेलिस Lotio criu- | प्रमानिया को फार्माकोलाजी । अर्थात् प्रभाव (वाह प्रभाव) सोल्यूशन ऑफ़ अमोनिया (अमोनिया विलयन) को जब स्वचा पर लगाया जाता है तब यह उसमें अंत होने बाले तन्तुओं एवं रक वाहिनियों को उत्तेजना प्रदान करता है, जिससे उक्र स्थल पर ऊष्मा एवं राग का अनुभव होता है। यदि अमोनिया के तीक्ष्ण विलयन को स्वचा के किसी भाग पर लगाकर उसको बाप्पीभूत न होने दें तो वहाँ पर फोस्का उत्पन्न हो जाता है। अतएव अमोनिया रूबीफेशेण्ट (प्रारुण्यकारक) और वेसि केएट (फोस्काजनक) है। नासिका और वायुमणाली-नासिका तथा वायु प्रणाली की श्लैष्मिक कला पर अमोनिया वाष्प का सबल क्षोभक एवं उत्तेजक प्रभाव होता है, जिससे छींकें आने लगती हैं । कन्जङ्कटाइ हा (चचु के ऊपरी परत) पर भी इसका क्षोभक प्रभाव होता है, जिससे नेत्र द्वारा अस्राब होने लगता है। नासिका की संज्ञावहा नाड़ियों को For Private and Personal Use Only Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमोनिया ५०४ अमानिया उत्तेजित करने के कारण अमोनिया परावर्तित रूप से रुधिराभिसरण को उरोजना प्रदान करता और नाड़ी की गति को तीत्र करता है। यदि . अमोनिया को देर तक सूघा जाए अथवा वाप्प अधिक तीव्र हों तो नासिका एवं वायु प्रणालियों में क्षोभ उत्पन्न हो जाता है। परावर्तित क्रिया द्वारा यह साांगिक रतभार की वृद्धि करता और आघात जन्य मूर्छा के लिए हितकारक है। आन्तरिक प्रभाव आमाशय-श्रामाशयमें पहुँच कर अमोनिया तस्क्षण परावर्तित रूप से रक्राभिसरण तथा हृदय को उत्तेजित करता है अर्थात् शोणित-सञ्चालन और हृदय की गति को चपल करता है । क्योंकि उनको तीव्र करने वाले सौषुम्न वातकेन्द्रों। पर इसका प्रभाव पड़ता है। रक्त में अभिशोषित ! होने के पश्चात् इसका यह प्रभाद जारी रहता है, और श्वासोच्छ बास भी तीव्र हो जाता है। अन्य सारीय औषधों के समान यदि पाहार से पूर्व अमोनिया का प्रयोग किया जाए तो यह प्रामायिक रस के स्राव की वृद्धि करता है। और यदि पाहार पश्चात् दिया जाए तो यह । प्रामाशयिक रस की अम्लता को उदासीन कर देता है। अर्थात् उसके प्रभाव को नष्ट कर देता है। यह प्रांत्रस्थ कृमिवत् प्राकुञ्चन को भी तीव करता है और इससे श्रामाशय में उमा का बोध होता है। श्रतएव अमोनिया पित्तघ्न (ऐरटेसिड), आमाशयोजक और वायु निस्सारक (प्राध्मानहर) है। अधिक मात्रा में देने से यह प्रामाशयांत्र क्षोभक है। शोणित-अमोनिया रकवारि (प्लाज़्मा ) के क्षारत्व को किसी प्रकार अधिक करता है। अनुमान किया जाता है कि थॉम्बोसिस (रक्रवाहि. नियों में रक्त का था बन जाना ) रोग में यह रक्त के थका बनाने की शक्रि को हीन करता है और जो क्रॉट (खून का थक्का) पूर्व से यन चुका है उसको विलीन कर देता है। हृदय-अमोनिया के प्रभाव से हृदय एवं | नादी की गति तीव्र हो जाती है और रक्तभार बढ़ जाता है। कदाचित् यह प्रभाव हृदय पर कुछ तो परावर्तित रूप से होता है। परन्तु अधिकतर इस हेतु कि अमोनिया रक्र में अभिशोषित होने के पश्चात् हृदय की गति को तीय करने वाले सौषुम्न-बात केन्द्रों को उत्तेजना प्रदान करता है। फुप्फुस-रक्त में अभिशोषित होने के पश्चात् श्वासोच्छ वासकेन्द्र पर अमोनिया का सरलोत्तेजक प्रभाव पड़ने से श्वासोच्छवास की गति तीव्र हो जाती है। अमोनिया किसी प्रकार वायु प्रणालीस्थ अंधियों के मार्ग शरीर से विसर्जित होता है। प्रस्तु, इसके उपयोग से उन ग्रन्थियों का स्वाव अधिक हो जाता है। अतः रॉसबैक ( Ross bach) ने कतिपय सजीव प्राणियों की वायुप्राणालीय श्लैष्मिक कलापर अमोनिया का मन्द विलयन लगाकर इस बात की परीक्षा की है कि इसके लगाने से वहाँ पर रक्त घनीभूत होकर रक्तस्राव बढ़ जाता है। वात-मंडल-अमोनिया साांगोत्तेजक है । क्योंकि यह श्वासोच्छवासकेन्द्र और हृदयाशुकारी सौषुम्न-वातकेन्द्रों को उत्तेजित करता है। परन्तु, मस्तिष्क पर इसका कुछ प्रभाव नहीं होता और न बात तन्तुओं पर कोई असर पड़ता है। जब इसको स्थानिक रूप से लगाते हैं, तब उस स्थल पर झुनझुनाहट और दाह प्रतीत होता है। जीवधारियों को जब विषैली अर्थात् अधिक मात्रा में अमोनिया दिया जाता है, तब प्रायः श्राक्षेप ( Convulsion ) होने लगता है। इसका कारण यह है कि अमोनिया सुपुम्मा की गत्युत्पादक सेलों पर उत्तेजक प्रभाव करता है। वृक-अमोनिया और इसके लवण शोणित तथा शारीरिक धातुओं ( तन्तुओं ) में प्रविष्ट होकर वियुक्र व पाचित होजाते ( सड़ जाते ) हैं। कदाचित् यकृत् में इससे भी अधिकतर परिवर्तन उपस्थित होते हैं, जिनका श्रवश्यमभावी परिणाम यह होता है कि मूत्र (कारोरा ) में यूरिया, युरिकाम्ल और शोरकाम्ल की मात्रा बढ़ जाती है। अस्तु, इस बात को भली भाँति स्मरण For Private and Personal Use Only Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अमोनिया २०५ रखनी चाहिए कि अमोनिया सूत्र की अम्लता को बढ़ाता है । उत्सर्ग- शरीर से श्वासोच्छ्वास, वायुप्रणालीस्थ स्राव, मूत्र व स्वेद द्वारा अमोनिया उत्सर्जित होता है । अमोनिया द्वारा विषाक्तता यदि अमोनिया के तीव्र विलयन की एक बड़ी मात्रा पान कर ली जाए तो स्वरयंत्र (Glottig) के आक्षेपग्रस्त होने से श्वासावरोध होकर किंचित् काल में ही मृत्यु उपस्थित होसकती है । श्रन्यथा भक्षक वा दाहक क्षारीय विषों यथा दाहक सोडा ( Caustic soda ) या पोटास प्रभृति के समान लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं । श्रगद -जो श्रन्य ऐलकेलीज़ अर्थात् वारीय विषों के अगद हैं, वे ही इसके भी हैं। देखो -- पोटासा कॉस्टिका | अमोनिया के थेराप्युटिक्स अर्थात् औषधीय उपयोग ( वहि:प्रयोग ) स्थानिक वाततन्तु एवं रक्रवाहिन्योत्तेजक रूप से स्टिफ जॉइण्ट्स ( विकृत कठोर संधियों ) पर और क्रॉनिक ग्युमैटिज़्म ( पुरातन संधिवात ) की विभिन्न दशाओं में लिनिमेट ऑफ़ श्रमां निया का अभ्यंग करते हैं। ब्रॉङ्काइटिस (कास), न्युमोनिया ( फुफ्फुसौप ) और एल्युरिसी ( पाश्र्व' - शूल ) में स्थानिक उग्रतासाधक ( Counter irritant ) रूप से भी इसका उद्वर्तन करें। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमोनिया अमोनिया प्रायः विषैले कीटों के विष को प्रभावशून्य कर देता है | श्रस्तु, वृश्चिक, भिड़, ततैया और मुहाज इत्यादि के दंश-स्थल पर ( ( दंश अर्थात् डको निकाल कर ), कनखजूरे ( गोजर ) प्रभृति के काटे हुए स्थान पर और रतेल ( मकड़, श्रारण्य मकड़ ) या मकड़ी मले हुए स्थान पर अमोनिया का निर्बल सोल्यूशन लगाने से वेदना एवं शोध कम हो जाता है। अपवित्र सर्प के देशित स्थानपर कम्पाउंड टिंकचर ऑफ अमोनिया ( श्रो-डी-लूस ) का स्वस्थ श्रन्तःक्षेप करना लाभदायक सिद्ध होता है । लोभवद्धन हेतु लोशियो क्रिनेलिस ( सेमवद्ध नार्क ) एक अत्युत्तम औषध है। मूर्च्छित व्यक्ति को अमोनिया सुंघाने से तत्क्षण होश आ जाता है । क्योंकि इसके प्राण करने से परावर्तित रूप से श्वासोच्छवास तथा हृदय की गति तीव्र हो जाती है । श्रस्तु मूर्च्छा, श्राघात वा क्षोभ, निद्रा (जन्य विसंज्ञता) श्रीर निद्राजनक (वा अवसन्नताजनक ) विषों यथा अहिफेन प्रभृति में रोगी की मूर्च्छा निवारणार्थ अमोनिया सुधाया करते हैं । नोट - विभिन्न प्रकार के सूँघने के चूर्ण वा लखलखे ( Smelling salts ) जिनका प्रधान श्रवयव अमोनिया होता है, बने बनाए खुले मुख के हरितवर्ण आदि की बंद शीशियों में अँगरेजी औषध विक्रेताओं की दूकानों में बिका करते हैं । श्रन्तरिक प्रयोग जिन रोगों में फोस्काजनन के लिए कैन्थेरिडीज़ ( तेलिनी मक्खी ) का उपयोग वर्जित एवं धनुचित है, उनमें उन अभिप्राय के लिए अमोनिया का प्रयोग करते हैं । अस्तु, जितना बड़ा फोला डालना हो उससे किंचित् बड़ा लिंट का एक टुकड़ा काट कर और उसको स्टॉङ्ग सोल्युशन ऑफ़ अमोनिया में क्रेदित कर जिस स्थल पर फोका उठाना हो उसे वहाँ पर रख कर ऊपर से वाँच ग्लास ( जेवघड़ी के शीशे ) से श्रावरित कर दें। किञ्चित् काल में वहाँ पर फोला पड़ जाएगा । अन्य क्षारीय औषधों के समान श्रमोनिया को भी प्रम्लाजी ( एसिड डिस्पेप्सिया ) में दे सकते हैं । गैस्ट्रिक इन्टेस्टाइनल क्रैम्प्स ( आमाशयांत्र के प्रवाहकीय श्रक्षेपक वेदनाओं ) में स्पिरिट ए (अ)मोनिया ऐरोमैटिक एक प्रत्युत्तम औषध है । बालकके उदराध्मान में सोढा और डिल वाटर (सोश्रा के अर्क ) के साथ इसके कुछ बुद देने से सामान्यतः लाभ हो जाता है । जेनरल डिफ्युज़िल स्टिम्युलेएट ( सर्वांग व्याप्तोत्तेजक ) रूप से सिकोरी (मुर्च्छा ), शॉक ( शोभ ), ૩ For Private and Personal Use Only Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमोनिया अंसारुनी ५०६ फेण्टिा (विसंज्ञता) में तथा फ़ेबाइल डिज़ीज़ेज़ (ज्वरयुक्र व्याधियाँ), न्युमोनिया (फुप्फुसोप) और थाइसिस ( उरःक्षत) इत्यादि में जब रोगी की शक्रियाँ निर्बल हो जाती हैं, उस समय अमोनिया के उपयोग से बहुत लाभ होता है। कास तथा प्रातिश्यायिक फुप्फुसौष (कैटारल न्युमानिया ) में अमोनिया सान्द्र एवं पिच्छिल श्लेष्मा को द्रवीभूत एवं मृदु करता है ! पर इस हेतु अमोनियम कार्बोनेट का उपयोग श्रेष्ठतर होता है। नैलिका द्वारा विपात्रता अर्थात् प्रायोडिज्म (नैलिका या उसके यौगिकों से पुरातन विषाऋता के हो जाने ) को अमोनिया रोकता है। श्रस्तु, जब आयोडाइड्ज को अधिक मात्रामें देना होता है तब इसको उनके साथ मिलाकर देते हैं। अमोनिया असारुनी animonian asarami -हिं० पु. देखो-जटामांसी। अमोनियाई प्रायोडाइडम् ammonii jodidium-ले० नैलिद अमोनिया । देखा-- आयोडम् । अमोनियाई एम्बेलास animunii embelas -ले० देखो वायविडङ्ग । अमोनियाई काबें जाटास mmmonii car bor jotas-ले देखा-अमोनियाई विकास । अमोनियाई कार्वानास ammmonii carbonas -ले० अमोनियम कार्बनित, कजलित नरसार -हिं०। अमोनियम कार्बोनेट Ammonium carborate., अमोनियम सम्की कार्बोनेट Ammoniun Sesqi Carbonate. -इं० । कनातुन्नौसादर, अमोनिया मुरकब ब ( सेहचन्द) कार्बन । श्राफिशल (Officul.) निर्माण-विधि--मोराइड ऑफ अमोनियम ( नवसादर ) या सल्फेट ऑफ अमोनियम और कार्बोनेट ऑफ कैल्सियम ( चूर्ण कज्जलेत अर्थात शुद्ध खटिका ) को परस्पर संयोजित कर बारबार ऊर्ध्वपातित करने से काबोनेट अफ श्रमोनियम प्राप्त होता है। इसमें अमोनियम हाइड्रोजन कार्बोनेट ( NH N COR) और अमो अमानियाई कार्बोनास नियम कायमेट ( N HN H., CO) सम्मिलित पाए जाते हैं। संकेत सूत्र N, H11 C., (); (NII II CP (Os+N HA N II) C ) ). नोट- उम्दनुलमुह नाज के लेखक के मत से हार्टशान अर्थात् मृगभंग का उड़नशील लवण भी कजलित नरसार ( कबू'नातुन्नौशादर) ही होता है। किन्तु, उसमें गन्धमय तैल प्रभृति मिलित होते हैं। लक्षण-अमोनियम कार्बनित एक श्वेत पार्थिव द्रव्य है, जो वायु में खुला रखने से वा मूंघने से अमोनिया और कार्बन द्वयाम्लजिद ( कर्बन द्विआषित ) गैस देता हुआ स्वयं नष्ट हो जाता है । इसके अद्ध स्वच्छ स्फटिकीय उड़नशील उग्रगंधि बड़े बड़े टुकड़े होते हैं। बायु में बुला रखने पर उनपर श्वेत चूर्ण जम जाता है। इस की प्रतिक्रिया क्षारीय होती है। परीक्षा-अमोनियम की परीक्षा के लिए संदिग्ध लघण को चूम (Limc.) के साथ मिलाकर उष्ण करें और सूधैं । यदि अमोनिया की उग्रगंध निकले, तो समझे, कि यह लबण श्रमोनिया का कोई योग है। विलेयता- यह १ भाग ४ भाग शीतल जल में विलीन हो जाता है। मिश्रण- इसमें सल्फेटम (गंधित ) और मोराइड्स (हरिद) का मिश्रण हुआ करता है । , उदासीनजनक मात्रा---२० ग्रेन अमोनियम काबनेट, २६॥। प्रेन साइट्रिक एसिड को और २८॥। ग्रेन टायरिक एसिड तथा १३ ग्रेन अई श्राउंस निम्बुस्वरस को न्युट्रल अर्थात् उदासीन कर देना है। संयोग-विरुद्ध- अम्ल, अम्लीय लवण (एसिड साल्ट्स ), चूणीदक ( लाइम वाटर), लौह के लवण ( श्रायन साल्ट्स ), क्षारीय मृत्तिकाएँ ( अलकलाइन अर्थ स ) और क्षारोद (अलकलाइड्स ) को अमोनियम कार्बोनेट के साध नहीं मिलाना चाहिए। श्रीपध-निर्माण-संव.त- औषध में योजित For Private and Personal Use Only Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमोनियाई कानास ५०७ अमोनियाई कानास करने से पूर्व अमोनिया कार्व के टुकड़े पर जो श्वेत चूर्ण लगा होता है उसको खुरच डालना : चाहिए। प्रभाव-व्यातांतेजक, श्लेष्मानिस्सारक, । वामक और अम्लहर (ऐरटेसिड)। मात्रा -३ से १० ग्रेन (“२० से ६५ ग्राम) उत्तेजक व कफनिस्मारक रूप से और ३० ग्रेन ( २ ग्राम) वामक रूप से। यह लाइकर श्रमानियाई एसिटेटिस, लाइकर अमोनियाई साइटे,टिस, स्पिरिटस अमोनी ऐरो.. मैटिकस और विजनध कार्य तथा निम्नांकित योगों । के निर्माण में काम आता है :--- श्राफिशल विपयरेशन (योग) (fficial preparations. ) (१) लाइकर अमोनियाई एसिटेटिस । Liquor annonii acotatis-oli सोल्युशन ऑफ मोनियम एसिटेट Solution! of ammohiilm acutate, स्पिरिट घाँफ मिण्डीरर Spirit of Minderer--इं. शुक्रित अमोनियम द्रव-हिं० । सय्याल खुल्लातुनौशादर, अर्क अमोनिया सिर्कादार, शराब मिंदरीर । रासायनिक सूत्र ( न उ. क, उ ऊ.) N HAO., L:02 नोट-सन् १६२२ ई० में सर्व प्रथम मिण्डीरर महोदय ने, जो ड्यूक श्राफ बेबारिया के सर्वोत्कृष्ट चिकित्सक श्रे, इस श्रीरध का निर्माण किया था । श्रस्तु, इसे उन्हीं के नाम मे अभिहित किया गया। निर्माण-विधि-प्रमोनियम कार्बोनेट ५ श्राउंस, एसिटिक एसिड (शुक्राम्ल) और परिचुत वारि प्रत्येक आवश्यकतानुसार । श्रमोनियम कार्बोनेट को दसगुने परिखत जल में विलीन कर ! के फिर उसमें एसिटिक एसिड (शुक्राम्ल) सम्मिलित कर उसे न्युट्रल (उदासीन) कर ले। बाद को उसमें इतना परिघुत जल और मिलाएँ | जिसमें सम्पूर्ण द्रवका द्रव्यमान पूरा एक पाइंट हो जाए । इसमें लगभग 1% अमोनिया होता है। मात्रा-२ से ६ फ्लुइड डाम-(७.१ से २१.३ घन शतांश मीटर)। प्रभाव-मूत्रल और स्वेदक । (२) लाइकर अमोनिया साइट्रटिस Liquor ammonian citratis.-ले०। सोल्युशन ग्राफ अमोनिम साइट्रेट Solution of anmonium eitrate.-इं| निम्बु. कित अमोनिया द्रव-हिं० : सल्यास सत्रातुम्नौशादर, अर्क अमोनिया लेमनी-ति०। निर्माण-विधि- अमोनियम कार्कनेट २॥1 प्रास वा आवश्यकतानुसार, साइट्रिक एसिड (निम्बुकारल) २॥ माउस, परिनुत जल अावश्यकतानुसार । साइट्रिक एसिड (निम्यु. काम्ल) को पाँच गुने परिसुत जल में विलीन करके फिर उसमें श्रमोनियम कार्बोनेट मिलाकर उसको उदासीन (न्युट्रल ) करले और फिर उसमें इतना और परिघुन जल मिलादे जिसमें कुल द्रव एक पाइंट होजाए। इसमें लगभग १६/७ अमोनिया होता है। रासायनिक सूत्र ( NHỊ ) 3 C6 H 5 01 प्रभाव-मूत्रल 1 मात्रा-२ से ६ फइड ड्राम (७१ से २१.३ घन शतांशमीटर )। नोट-हसको सदा हरित वर्ण के बोतलों में रखना चाहिए। (३) स्पिरिटस अमोनी ऐरोमैटिकस Spiri. tus ammonia aromaticus-ले०। ऐरामेटिक स्पिरिट श्राफ़ अमोनिया Aromatic spirit of ammonia, स्पिरिट श्राफ सैल वालेटाइल spirit of Sa! Volatile-इं। सुधासित अमोनिया सुरा--हि० । रूहु नौशादर तय्यब, रूह नौशादर मुअत्तर, रूह मिल हु,त्तय्यार -ति। For Private and Personal Use Only Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अमोनियाई कार्य नास www.kobatirth.org ५०८ रासायनिक सूत्र (न) NH3 ४ निर्माण-विधि - श्रमोनियम कार्बोनेट श्राउस, स्ट्रॉंग सोल्युशन श्रीफ़ अमोनिया = उस, ऑइल ऑफ़ नटमेग ( जातीफल तैल ) ४ ॥ ल ुइड ड्राम, श्रीइल श्रीफ़ लेमन ( निम्बुक तैल ) ६ ॥ ल ुइड ड्रम, ऐलकुहॉल वा मद्यमार (१०% ) ६ पाइंट, परिश्रुत जल ३ पाइंट | प्रथम श्रइल श्री नटमेग और श्रीइल फ़ लेमन को ऐलकुहॉल और परिश्रुत जल के साथ योजित कर सात पाइंट द्रव सात्रित करके पृथक करलें । फिर ग्राउस इव और साबित करें । तथा इसमें स्ट्रॉंग सोल्युशन श्री प्रमोनिया और मोनियम कार्बोनेट को योजित कर इतना उत्ताप दें जिसमें वे बिल्लीन हो जाएँ । अब इसमें पूर्व स्रावित सात पाइंट के मिला लें | इसका आपेक्षिक भार होना चाहिए। यह लगभग व रहित होता है । मात्रा- जब बारवार देना हो तब २० से ४० बूंद और जब एक ही बार देना हो तब ६० से ६० बुंद तक | नोट- योग में स्पिरिट अमोनी ऐरोमेटिक के साथ सिरूपस सिल्ली (वनपलाडु प्रपानक श्रर्थात् शर्बत ) कदापि नहीं लिखना चाहिए । यह मिस्चूरा ( मिश्रण ) सेन्ना को० में पड़ता है । नीट ऑफिशल योग ( Not official preparations ). (१) लिङ्कटस श्रमोनी कम्पोजिटस Li nctus &mmonia compositus-ले० । यौगिक अमोनियावलेह - हिं० । लड़क़ प्रमोनिया मुरक्कन-ति० । योग--प्रमोनियम कार्बोनेट ग्रेन, इपिकेक्वाइना वाइन २ बुद, टिंकचर श्रॉफ़ स्कील ५ बुद, एसेंस ऑफ़ एनिसाई १ बुद, म्युसिलेज ( लुनाब ) केशिया २० बुंद, जल एक श्राउंस पर्यन्त । यह एक मात्रा है । ( रॉयल चेष्ट ) (२) अमोनियाई बाइकार्य नास ammo Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमोनियाई कार्य नास nil bicarbonas-ले० । अमोनियम् कार्योंनेट की अपेक्षा इसका स्वाद उत्तम होता है और यह कम दाहक (कॉस्टिक ) होता है। एफ़र्केसिंग ड्राफ्ट (उफाणयुक्क घूँट ) हेतु यह अधिक उपयोगी हैं । (३) अमोनियाई फ्लोराइडम् ammomii fluoridu-ले० | इसके ४ ग्रेन प्रति आउंस वाले विलयन को १ से ३० बूंद की मात्रा में विवर्द्धित लोह एवं गलगण्ड प्रभृति में दिया करते हैं I ( ४ ) अमोनियाई पिकास ammonii picras - ले | इसके पीतवर्ण के छोटे छोटे पत्र होते हैं जो जल में विज़ीन हो जाते है। इसको start और मलेरिया ज्वरों में देते हैं । मात्रा १ ८ से १ प्रेन तक दिन रात में ४-५ बार । ( * ) अमोनियाई टास ammonii tartras-ले० | कफनिस्सारक रूप से इसको ५ से ३० ग्रेन तक की मात्रा में देते हैं । (६) स्मेलिंग साल्ट Smelling-salt - ले० । श्रघ्राण लवण, सूँघने का चूर्ण - हिं० । मिल्छु, श्शम, लखूलखा- अ० । ये कई प्रकार के होते हैं । इसका एक प्रेष्टतर योग निम्न हैं । योग - श्रमनियम क्रोराइड ( नवसादर ) १॥ आउंस, पोटासियम कार्बोनेट १ श्राउंस ६ ड्राम, कैम्फर ( कपूर ) 1 ड्राम, अमोनियम कार्बोनेट ३ ड्राम, श्रइल ऑफ क्रब्ज़ ( लवंग तैल ) १० बूंद, श्रीइल श्रीफ बर्गेमोट १० बूंद, श्रीइल श्री स्पियरमिंट ४ बूंद | शुष्क औषधों का बारीक चूर्ण कर उसमें तैल मिला दें । (७) पिक-मी-अप Pick me up इं० । योग — स्पिरिटस प्रभोनी ऐरोमैटिकस श्राधा ड्राम, स्पिरिट्स क्लोरोफॉर्माई आधा ड्राम, टिंकचूरा जन्शियाई कम्पोज़िटस १ ड्राम, टिंकचूरा कार्डिमोमाई कम्पोज़िटस २ ड्राम, सीरूपस २ ड्राम, जल २ आउंस पर्यन्त ! सत्र श्रौषधों को मिला लें | यह एक मात्रा औषध है । प्रभाव तथा उपयोग ( वाह्य ) यद्यपि लाइकर अमोनिया के For Private and Personal Use Only Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अमोनियाई कार्य नास समान ही इसके प्रभाव होते हैं, तथापि प्रमोनिया कार्बोनेट का बाहेर प्रयोग नहीं होता । परावर्तित क्रिया के लिए स्पिरिटस अमोनिया ऐरोमैटिक घाई जाती हैं 1 ५०६ ( श्रान्तरिक ) श्रमोनियम कार्बोनेट में वे सभी प्रभाव वर्तमान होते हैं जो लाइकर प्रमो निया में हैं। इसके अतिरिक्त यह सराक सोतेज्य कफनिस्सारक ( लगभग ग्रेन की मात्रा में भली प्रकार जल मिश्रित कर देने से ) है । । श्रतएव कास, प्रातिश्यायिक फुफुसौप में यह एक अत्युत्तम औषध हैं । अमोनियम कार्बोनेट ३० ग्रेन की मात्रा में वामक है, किन्तु इस प्रयोजन हेतु कचित ही उपयोगमें भ्राता हूँ । अधिक मात्रा, उदाहरणतः २० से ३० प्रेन में देने से यह रेचक प्रभाव करता | है अर्थात् इससे त्रिरेक धाने लग जाते हैं कभी कभी छोटी मात्रा में अधिक समय तक निरार देते रहने से भी यह यन्त्र में तोभ उत्पन्न करता है । श्रस्तु, ऐसे कास रोगीको जिसको विरेक भी आते हैं, अमोनियम कार्बोनेट नहीं । देना चाहिए | कार्बोनेट श्रॉफ अमोनिया स्वतंत्र गैसों ( वायव्य) की तरह प्रभाव करता । लगभग म प्रेन की मात्रा में भली प्रकार जल मिश्रित कर देने से यह सागिक व्यासांतेजक हैं और समग्र ज्वरजन्य कायशैथिल्य की दशाओं में इसका प्रत्युत्तम प्रभाव होता है । मसूरिका ( मीजिल्स) और रक्रज्वर ( स्कारलेटिना ) में इसका प्रयोग करने से कभी कभी अत्यन्त संतोषदायक परिणाम निष्पन्न हुए हैं। इससे तापक्रम भी कम हो जाता है । स्थानिक उपयोग से जिस प्रकार ततैया के दंश और कीट इष्ट में यह विषघ्न प्रभाव करता है । सम्भवतः उक्र दशा श्रों में यह दूषित विषों को नष्ट कर अपना प्रभाव करता है। अमोनिएकल ब्रेथ सहित टाइफॉइड ( श्रांग्रसन्निपात ज्वर ) की दशा में यह निष्प्रयोजनीय है । सर्प इष्ट में इसके अन्तःक्षेप की उपयोगिता सन्दिग्ध है । ( हि० मे० मे० ) । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमोनियाई कार्य नास लाइकर अमोनियाई एसिटेटस और लाइकर प्रमोनियाई साइट्रेटिस दोनों स्वेदक हैं (बालकों ज्वर की सम्पूर्ण दशाओं में यह विशेष कर लाभप्रद है ) । सम्भवतः स्वेदोत्पादक अंथियों की सेलों पर अथवा उन मंथियों में अंत होने वाले वाततन्तुओं पर उनका प्रभाव पड़ने से स्वेद श्राता है । परन्तु ज्ञात होता है कि लाइकर अमोनिया एसिटेटस का अधिक शक्तिशाली प्रभाव होता है । यदि रागी को शांतल स्थान में रखा जाए अर्थात् उसके शरीर को शीतल रखा जाए तो फिर वृक्क पर एकत्र हो कर ( संगठित रूप से ) उनका प्रभाव होता है, जिससे अधिक सूत्र ने लगता है । अस्तु, प्रागुक प्रभावों के अनुसार उनको उरों में ऐसे अल्पस्वेदक रूप से, जिनसे निर्बलता न हो, प्रयोग करते हैं। अधिक मद्यपान जनित प्रभावों की व्यर्थ करने के लिए भी उनको बर्तते हैं। अस्तु, सुरा की शीशी ( wine glassful ) की मात्रा में सेवन करने से मदात्यय के प्रभाव को नष्ट करने में यह ( एसिटेट ऑफ़ अमोनिया सोल्युशन ) विलक्षण प्रभाव करता हैं अथवा आरम्भ में काबोनेट की एक चाय की चम्मच भर एक शीशी सिरके में मिलाकर देने से भो वैसा ही प्रभाव होता है । यह यूरिया की शकल में मूत्र द्वारा, बिना उसके सारत्व को बढ़ाए, उत्सर्जित होता है । अमोनिया के प्रयोग की सर्वोत्तम विधि, उसको ऐरोमैटिक स्पिरिट ऑफ अमोनिया और लाइकर अमोनी की शकल विशेषतः प्रथम रूप में देना है । उनमें सदा स्वतंत्रतापूर्वक जलमिश्रित करलें । कुश्ना के विचारानुसार इन योगों का आमाशय के धरातल पर उत्तेजक प्रभाव होकर परावर्तित रूप से हृदय पर प्रभाव होता है । नोट - कार्बोनेट श्रॉफ़ अमोनिया को दुग्ध, शर्बत (प्रपानक) या पानी में भली प्रकार विलीन करके बर्तना चाहिए । For Private and Personal Use Only Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमोनियाई कार्योनास अमोनियाई फॉस्फॉस युरोप तथा अमेरिका के डॉक्टरों रहें । परन्तु जव रक्कभार कम और नाड़ी मदु के परीक्षित प्रयोग हो जाए तब इसको बन्द करके सोते ज्य कफ(१) डायफोरेटिक मिक्सचर, निम्सारक औषध का उपयोग करें। इस हेतु (स्वेदक मिश्रण ) : - निम्न लिखित योग लाभदायक है :एसिटेट अॉफ अमोनिया सोल्युशन २ श्राउंस (४) योगएसिटेट ग्रॉफ पोटासियम २ ड्राम अमोनियाई कावा नास ३ ग्रेन स्पिरिट अॉफ नाइटर ४ ड्राम स्पिरिटस अमोनियाई ऐरोमैटिकस २० बुद कैम्फर वाटर ८ प्राउंस पर्यन्त स्पिरिटस कैंजे युटाई सिरप १ आउंस टिंकर मिलती इसमें से १ आउस की मात्रा में प्रति ३-३ इन्फ्युजम सिनेनी १ श्राउंस पर्यन्त घंटे पश्चात् दें। यह एक निरापद अत्यन्त ऐमी १-१ मात्रा औषध प्रति ४-४ या ६-६ संतोपदायक स्वेदक मिश्रण है, जिसका उपयोग घंटे पश्चात् दें । परन्तु, दिन रात में ४ मात्रा से प्रलोक प्रकार के घर में किया जा सकता है। अधिक न दें। साइट्रेट सोल्युशन का भी ऐसा ही प्रभाव अमानियाई कोराइडम् ॥mmonii chloriहोता है । (See-B. on p.318) danm-ले० नयसादर, नरसार, नौसादर । (२) न्युमोनिया मिक्सचर. (Salam noniac. ). ( फुफ्फुसप्रदाहहर मिण):-- अमोनियाई ग्लासिाहाइज़ास aminoniiglycy. लाइकर अमोनिया एसिटेटिस २ श्राउंस rrhizas.-ले० अमोनियाई म्लीसिरहाइ जेट । अमोनियाई कायो नास ४० ग्रेन प्रमानियाई नासिरहाइज़ेट ammoniigly. पोटासियम प्रायोडाइड १६ ग्रेन . cyrrhizate-ले० अमोनिया संयुक्त मुलेठी घाइ नम ऐरिटमानियाई ४. बूद : का सुस्वादु सत्व। यह कीमीन की तिता और सिरूपस 1 श्राउंस श्रान्य हृल्लासजनक औषधों के दोपशमनार्थ प्रयुक्त एका ८ श्राउंस पर्यन्त होता है। मात्रा--चौथाई ग्रेन से प्रेन तक। इसमें से १-१ ग्राउंस की मात्रा में दिन रात पी० वी० एम०। में तीन-चार बार दें। अमोनियाई टार्दास ammonii tastras-ले० प्रयोग--यह मिश्रण प्रातिश्या यक फुफ्फुसौष । देखो-अमोनियाई कार्य नास। ( कैटारल न्युमोनिया) में सामान्य रूप से अमोनियाई पिकास ammonii picra.s-ले० प्रयुक्त होता है । देखो-अमेनियाई कायनास । (३) योग: अमोनियाई फोस्फोस Ammonii phosphos सिरुपस अमोनी ऐरोमैटिकस -ले०। ग्रामोनियम फॉस्फेट ( amimonium वाइनम ऐसेटमोनिएलिसं phosphate)-ई० अमोनियम स्फुरित । टिकचूरा एकोनाइटाई ऑफिशल (Official ). इन्फ्यु ज़म डिजिटेलिस १ ड्राम रासायनिक सूत्र (NHA ). [P0; एक्का एनिसाई प्राउंस पर्यन्त ऐसी एक-एक मात्रा औषध प्रति ३-३ घंटे निर्माण विधि--स्ट्राँग सोल्य रान अं. अमोपश्चात् दें। निया ( तीक्ष्ण अमोनिया घोल) में डायल्यूट नोट-रक्रप्रकृति के न्युमोनिया-रोगी में फॉस्फोरिक एसिड ( जलमिश्रित स्फुराम्ल ) रोग के प्रारम्भमें जब तक नाड़ी कुल (पूर्ण, भरी। मिलानेसे अमोनियम फॉस्फेट (अमोनियम स्फुरित) हुई ) चलती हों तब तक इम औषध को देते - प्रस्तुत होता है। . . . For Private and Personal Use Only Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रमोनियाई फ्लोराइडम् ५११ लक्षण -- इसके स्वच्छ वर्णरहित रवे होते हैं । विलेयता - यह १ भाग चार भाग जल में बिलॉन हो जाता हैं, परन्तु ऐलकुडॉल (६०%) | में विलीन नहीं होता । प्रभाव - डायरेक्ट कोलंगांग ( सरल पित्तरेवक ) और डायरेटिक ( सूचल ) हैं । मात्रा - से २० ग्रेन ( ३२ से १.३० ग्राम ) । प्रभाव तथा उपयोग | चूँकि अमोनियम फॉस्फेट सीधा यकृत को उतेजना प्रदान करता है एवं मूत्रल हैं, और चूँकि यह अविलेय युरेट ऑफ़ सोडियम को युरेट श्री नोनियम और फॉस्फेट ऑफ से डियम में परिणत कर देता है, अतएव इसको वातरक्क ( गाउट ) तथा युरिक एसिड डायथेसिस ( अर्थात् उन सभी दशाओं में जब युरिकाम्ल की कंकड़ी बनने की आशंका हो ) में देने से लाभ होता है। श्रमोनियाई फ्लोराइडम् ammoni fluoridum ले० देखो - अमोनियाई कार्य नास | अमोनियाई बाई का नास monii bicar. boas-ले० नुसारद्दिकज्जलेत | देखो - श्रमो नियाई कार्बोनास । अमोनियाई वेजोनास ammonii-benzoas -ले॰ लोबान ग्रम्ल | देखा-पसिम वे जो इकम् । अमोनियाई बोरा ammonii boras - ले० टङ्कण अमोनिया । अमोनिया तिनकारी । नाट ऑफिशल ( Not official.) लक्षए यह एक स्फटिकीय लक्स हैं, जिसको प्रतिक्रिया क्षारीय होती है । विलेयतायह १ भाग १५ भाग जल में विलीन हो जाता है । प्रभाव तथा उपयोग-रेनल और बेसिकल केलक्युलाई (वृक्क स्यश्मरी ) में इसका उपयोग अत्यन्त लाभदायक प्रमाणित हुआ है । अस्तु, रेनल कॉलिक ( वृक्कशूल ) में २० ग्रेन ( १० रशी ) की मात्रा में इसको २-२ घंटे पश्चात् उस समय तक देते हैं, जब तक कि खूब Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रमोनी-लाइकार फ़ॉर्टिस खुलकर पेशात्र नहीं श्रा जाता । पुनः १५ ग्रेन की मात्रा में दिन में तीन बार देते हैं । अमोनियाई ब्रोमाइडम् ammonii bromid।।। - ले० देखो - मामीन ( ब्रह्मसिका ) | अमोनियाई वैलेरियनास ammonii valeriawas-- ले० देखो - वैलेरियन, सुगन्ध चाला । श्रमोनियाई सैलिसीलास ammonii salicy13-ले वेतस श्रमोनिया । देखो - पसिडम् सैलिसीलिकम ( चेतसाम्ल ) । श्रमानियाकून aumoniakou-यु० (Amuoniacan) देखो - उशक | अमोनिया तुज्जैबक motiyátwz.zaibag - ० नृसारेत पारद । ( Hydrargyrum ammoniatum ) देखो - पारद । अमोनियाते जोवह amoniyáte-jivah o नृसारेत पारद । ( Ammoniated mereury ) देखो - पारद । अमोनिया वैक्सिफेरा ammonia baccife18--ले० दादमारी । ई० मे० मे० । अमोनिया मक्युरिक क्लोराइड ammonia mercurie chloride इं० श्रमोनिया पारद हरिद्र । देखो - पारद । अमोनिया लांबानी amoniyà lobáni-अ० देखो - एसिडम् बेजोडकम् ( लोबानाम्ल ) । अमोनिया बेसिकेटोरिया ammonia vesicatoria-ले० वादनारी । इ० मे० मे० | अमोनिया वैलेरियाना ammonia valeriana - ई० हूरि श्रनांनिया | देखो - वैलेरियन । अमोनिया सैलिसीलास ammonia saliey las—३० वेतस श्रमं निया | देखो - एसिडम् सैलिसालिकम् (वेतसाम्ल ) । अमोनिया क्लोराइड ऑफ मर्करी ammonio chloride of mercury - इं० श्रमोनियात सीमात्र | देखो - पारद । श्रमांना-लाकार फोर्टिस ammonie liquor fortis - ले० सशक ए ( अ ) मोनिया द्रव | देखो(ए) मोनिया । For Private and Personal Use Only Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्र(प)मोनोल अमी प्र(र)मानोल armonol-5. यह एक श्वेत मोरई amorai-रू. जैतून तेलकिट । वयं का वू' है । देखा-एसेटअनालाइडम्। । श्रमोग अमारी amora-amāri-आसा० प्रमोमम् ano lun, Sp. of. 'capsules रोहितक, रोहिनी, रोहेड़ा-सं0 1 (Amoora of-ले. (.) हमामा । फा० इ०२ भा०।। ____rohitika, TV.&A.) फा००१ भा०। (२)बड़ी इलायची। सफाई अमारो । ori--हिं० संज्ञा स्त्री० . श्राम+ अमोमम् ऐरोमैटिकम् amo num aronati | औरी (प्रत्य॰)] (1) प्रामकी कच्ची फली। cuin, Roy".-ले. बड़ी इलायची, वृहदेला । अँधिया । (२) प्रामा, अम्मारी | पानातक । इलायची, मेरंग-बं०।ईमेमे मेमो। देखो एला । अमोला uinola-हिं० संज्ञा पुं॰ [सं० अाम्र] श्राम का नया निकलता हुश्रा पौधा । अमोमम् ग्रेना aro.ungrana-ले. अशात। अमोमम् जिञ्जिबेरेना a monum zingi. | | अमोलोकन aloliqon--1. सीपभस्म, सीसाकी berint-ले० बड़ा कुलिनन । फा० इ०३ ! । भस्म । (Leal oxide) देखो-सीस(क)म् । अ)मालुका amoluka-० अन्धुक, श्रामधुक अममम जैन्धिनाइडिस Mon:n zanthi! -हिं० । (Vitis indica, linn.) { फा० oilis-ले० छोटी इलायची, द्वैला | फा० इ.१ भा०। इ.३ भा०। देखो-एला। अमोलूनस amolunas-यगोधूम सत्व,श्वेतसार, श्रमोमम् डोऐलवेटम् anon deal bari निशास्ता । स्टार्च ( Starch.).ई। tum, Roxb.-ले• यह खाद्य कार्य में प्राता अमौश्रा amona-हिं० संज्ञा पुं० [हिं० प्राम+ है। मेमो०। श्रौपा (प्रत्य॰)] | आम के रस का सा रंग । बेटा aimonum melegueta, यह कई प्रकार का होता है। जैसे पीजा, सुनहरा, Roseci -ले० इसका फल औषध कार्यमें आता माशी, किशमिशी, म गिया इत्यादि । है । मेमो०। (२) अमौना रंग का कपड़ा। श्रमोमम् मेक्ज़िमम् amomum maximum.| वि. ग्राम के रस के रंग का। Rom.-ले० यह एक खाद्य है । मेमो०। अमौलिक amoulika-हिं० वि० [सं०] अमोमम् रिपेन्स amonium epens, (1) बिना जड़ का | निमूल । (२) बिना Rord.-ले० छोटी इलायची, सुट्टैला । देखो -- ___आधार का । (३) अयथार्थ, मिथ्या । एला। अमांसम् amansan-सं० क्ली. मांस रहित । प्रमोमम् वाइल्ड amomun wild इं० (अम्प्रदालिया ama-daliya--यु० बादाम, हमामा । घाताद । (Amygdala.) अमोमम् रूब्युलेटम् not subula. अम्बर त.maar-० कम बालों वाला। जिसके tum, Roxb.-ले० बड़ी इलायची, वृहदेला बाल गिरते हो। -बं०, हिं० । काकिलहे कबीर-१०। मेमो० । फा इं०३भा०। देखो-एला। श्रमाsamaaa-अ०(ब० घ०) मिश्रा या अममम् सिलवेस्ट्रिस amomum sylve. मिश्रा (ए.व.)। मस् मारीन-अ० रोदहा, stris-ले० हमामा । (Anomun wild) आँतें-फा०, उ० | आंत्र, अंतड़ी-सं०, हिं. । इं० हैं. गा। ( lntestines, Bowels. ) अमोमिस amomis-यु. हमामा । (Ahion: नोट-ौते सूक्ष्म व बृहत् भेद से दो प्रकार um.) फा०६०२ भा०। की होती है, जिनमें से प्रत्येक के पुनः तीन तीन For Private and Personal Use Only Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रमाउलबर्ज प्रम्बका भेद होते हैं। प्रस्तु, ये संख्या में कुल छः हुई। अम्न amna--अ० चैन, श्राराम, शांति, सुरदेखो-अम्बाऽदिकाक व गिलाज । क्षितता, निडर होना ( Peace)। अम्बाउलअजं anaaul-arza-अ० खरातीन, अनाsumnail-अ० (ब० व०) मनाऽ (ए. केचुए। (Earthworm.) घ०) माप विशेष। लगभग पका १ सेर का श्रम् श्राऽउलया amaaa.aulya-अ० अम्मा वज़न । दिकाक। अमान amnau-१० (ब०व०), मन्न (२० अम्माऽगिलाज़ anaaa.ghilariu-अ० अमाs : व०)एक माप विशेष । लगभग २ पौंड अर्थात सुक्ला । मोटी वा बड़ी आँते, जेरी आँते-उ०। एक सेर का वजन। बृहदांत्र, स्थूलांत्र-हिं० । ( Large intes- अनियत् amniyyat-अ० tines.) इअफ़ाs iafaa- " अर्थ स्वास्थ्य अम्श्राऽदिकाक amaia-dicina-. छोटी एवं सुरक्षितता प्राप्त करना, रोगनाशकता, रोग आँते ,ऊपर की आँते-उ० । लघु प्रांत्र, सूक्ष्मांत्र, क्षमता (Immunity.)। उदात्र-हि० | (Small intestines.) श्रम्पफर ampfer-जर० चाङ्गेरी, चुका । अम्श्राऽसीन amaan-sina-० गोरहे (अपक) (Rumex Seutatus ) इं. मे० मे । अंगूर का पानी। अम्पार ampar-बाकला, बेलहर । अम्को amki-नेपा० सफ्यी-लेपचा । (Pyru. अम्पिलोप्सिस किन कि फोलिया ampelolaria edulis ). psis quin-quefolia-ले० अमेरिकन श्रम कुल ऐन amqul aain-अ० माक्र अक्सर ।। प्राइवी- इंवाइटिस किनक्कि फोलिया (Vitis आँख का बड़ा कोया जो नासिका की ओर स्थित quinquefolia.)-ले। है। इनर कैन्थस ( Inner can thus)-ई। अम्पुट्टई amputrai-ता० अम्बाड़ा, श्रमदा, अम्खत amkhat-अ० वह व्यकि जिसकी नासिका : अाम्रातक । (Spondias Mangifera) सदा बहती रहे। नासा(परि)स्राव रोगी । ई० मे० मे। अम्गर amghar-श्व० रक रोमों वाला। अम्पेलोसिक्योस स्कैण्डेन्स ampelosicyos अम्ज़र amzur-अ० नर, पुरुष, मनुष्य, प्रादमी, scandens, (Thou. Bot. Mag. 268-1, मर्द । मैन (Man)-ई.।। 275-1,-2.)-ले- इसका बीज कृमिहर है। बीज अम्जह amzah- अ० (१) चलते समय जिस । चिपटा, करीब करीम गोलाकार लगभग १॥ इंच के दोनों पैर परस्पर मिलें । (२) गन्दह, दुहन, मोटा, बाझाच्छादन कोमल टोकरी की रचना से मुख दुर्गन्धि | जिसके मुख से दुर्गन्धि अाती हो ।। समानता रखता है और बहुत कठोर एवं मजबूत अम्ज़िजह. am zijah-० मिज़ाज (प्रकृति) होता है। गिरी में मृदुतैल की कुछ मात्रा पाई का बहुवचन है। जाती है । समन फल २-३ इंच लम्बा और अम्तश am tash-अ० निर्बलदृष्टि वाला मनुष्य, । ८-१० इंच मोटा होता है। इसपर लम्बाई की कमजोर नज़र का श्रादमी। रूख गहरी धारियों पड़ी रहती हैं । इसका भीतरी अम्तीपराड़ anti-pandu-ले० कॅला, कदली। (Musa paradisiaca, Linn.) भाग ३ से ६ कोपों में विभाजित होता है। इसमें अम्दश amdash-अ. निर्बल तथा अल्प बुद्धि । प्रायः २५० बीज होते हैं। वाला मनुष्य । दुर्बल तथा कम अनल चाला मर्द ! अम्फी amphi-नेपा० सफ्यी-लेपचा । अम्देस जामाटाफाना amdes samotapana : अम्य am ba-हिं० पु.॥ श्राम,अाभ्र ।(A ma. -गोश्रा० बजर अछु, जंगली मदनमस्त-हिं०। अम्बह, ambah-फ़ा० ) (Cycas circinalis) ई० मे० मे. go, a mango tree). अम्धुका amdhuka-t० देखो-अन्धुक।। अम्बक: ainbakah-सं० पु० (१) य(व)कुल For Private and Personal Use Only Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अम्बकरों ५१४ अम्बर वृत्त, मौलसरी । ( Minusops Flengi) | अम्बत ambata-हिं० वि० अम्ल, खट्टा, खटाई, जटा० । -की० (२ ) नेत्र, चतु, प्रॉख ।। चूक । ( Sour.) (Eye) हे० च० । ( ३) ताम्र, ताम्बा । | अम्बताना ainbatāna-हिं० क्रि०, संज्ञा खट्टा (Copper ) रा० नि० ब०१३ । (४) होना। (To grow sour.) पिता । अम्ब-पाली ambapoli-मह० अमावट Iceअम्यकरज amba-karanja-बं० करज भेट,! Amavatih. डहर करन । ( Pongamil glabra.) अम्बरम् ambaram-सं० क्ला० । (१) कपास, इं. मे० मे। अम्बर ambar-हिं० सज्ञा पु० ) कार्पास । प्रम्बकुड़ा amba-kuda-हिं० संज्ञा पुं० ।। (Gossypitam Indicum. ) र० मा० । अम्बकोड़ा amba-koda (२) अभ्रक। Pale. ( Mica.)। रा० प्रम्बकोल amba-kola. नि० व०१३: भष०। वसन्त कुसुमा करे । अकोल ढेरो। (Alangilm decape. ! (३) तन्नामक गन्धद्रव्य, एक सुगन्धित द्रव्य, talum.) अम्बर । विश्वः । ( ४ ) वन विशेष ( Cloअम्बगोल ain baghoul-अ० महाकाल, लाल thes, Apparel.)। (५) वस्त्र । कपड़ा। इन्द्रायन । ( Trichosanthus palm- पट । (६) अाकाश । असमान । (७) एक ata.) स० फा० इं०। इन । (८) अमृत । अने० । (६) बादल । अम्बज ambaja-अ० श्राम । (Mango मेघ । ( क्व० ) tree.) अम्बर ambar-फा० संदंश, चिमटा, चिमटी, अम्बजात ambajatta-ऋ० मुरब्बा । ( Pro. . दस्तपनाह । फॉसेंस (Forceps.)-इं० । serve.) अम्बर aamhill-अ० अम्बर-हिं०, ०, मह०, अम्बट ambata-बम्ब० बाय बिड़ग, विडंग। बम्ब०,मद०,को, गुज.1 अग्निजारः, चहि(Embelli ribes.) जारः, अम्बरसुगंधः, अम्बरम्-सं० । शाहेवू अम्बट बेल ambata-bel -हिं०, म. -फा० । अम्बाग्रसया Ambra Cirsen अम्बट वेल ambata-Ve! अम्ल वेल, । -ले। अंबरग्रीस Aabelgris-ले, इ.। गिदइद्राक-पं० । अम्ललता-बं० । अम्लपर्णी अमर ग्रीस Amergris-इं० । मिनम्बर -सं.। ( Vitis trifolia.)। मेमो०।। -ता। मुसम्बर-सिं० । पन-अम्भट बर।। इं० मे० मे। अम्बर एक प्रसिद्ध सुगंधिपूर्ण मूल्यवान अम्बटा ambatā-बम्ब० बायविड्ग, विडंग ! ! श्रौषध है। इसके विषय में विभिन्न व परस्पर ( Embelia ribes. ) विरोधी वचन प्राचीन तिब्बी ग्रंथों में विद्यमान अम्बटो मद्द ambati-muddu-० अज्ञात । हैं, यथाअम्बटे ambate-कना० अमड़ा, अम्बर को किसी किसी ने एक समुद्री चतुष्पद अम्बटेमरा ambae-mara कमा० jाम्रातक प्राणी का गांबर (लीद) वर्णन किया है। और अम्बाड़ा । (Spondias mangifera.) किसी किसी ने लिखा है, कि यह एक बूटी है जो अम्बटे हुल्लु ambatio-hullu कना. सफ़ेद समुद्रतल में उत्पन्न होती है । इसको कोई कोई दूब, श्वेत दूर्वा ! ( Cymotion dacty. समुद्री जीव खाते हैं । जब उनका पेट भर जाता lon.) है तब वे इसको उगल देते हैं और यह उगाल अम्बड़े ambade-गागे. प्रारी, रीस-पं० ।। ही अम्बर कहलाता है। मेमो०। शेख का अनुमान है कि अंबर समुद्र तल के For Private and Personal Use Only Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अम्बर स्रोत का जोश ( या रत बन ) है। उनके विचार । से जिन लोगों ने इसको समद्रफेण वा किसी सामुद्री चातुष्पद जन्नु का गोवर लिखा है, वह मिथ्या है। शेन के सिवा कतिपय अन्य इतिश्बा भी इसी विचार के समर्थक हैं और इसे ही सत्य एवं | अधिक प्रामाणिक मानने हैं । अस्तु, उनका वर्णन है | कि अम्बर एक रत्तूयत है जो समुद्रतल स्थ स्रोतों | एवं समुद्र के ग्राम्यन्तरीय कान याद्वीप से कफर, मोमियाई तथा कीर के समान निकलता है और अम्बर कहलाता है। यह सामुद्र तरंग के थपेड़ों के कारमा उत्ताप पहुँचने से समुद्र के पानी पर नह बतह एकत्रित होकर स्सन्द्र(प्रगाढ़) होजाना है ।..और शमामह के समान गोल या अन्य स्वरूप ग्रहण कर समुद्र तट पर श्रा पड़ता है। कहते है कि समुद्री जीवों को अम्वर अत्यन्त प्रिय है। जब यह उनको मिलता है तब ये इसको तुरंत निगल जाने हैं। किन्तु न पचने के कारण यह उनकी नार डालता है अथवा उनके उदर में प्राध्मान उत्पन्न कर देता है और वे जन्तु पानी के ऊरर श्रा जाने हैं। जो लोग इस बात का ज्ञान रखते हैं वे तत्काल उक्र जीव के उदर को विदीर्ण करके अम्बर निकाल लेते हैं। इस प्रकार का अम्बर श्याम वर्ण का और बसाँध युक्त (पूति गंधमय होता है । इसको अम्बर बलाई, कहते हैं। यह अंबर जंजी (जंगी) नामसे भी प्रसिद्ध है। यही कारण है कि किसी किसी ने इसको समुद्री गाय का गोबर माना है। अम्बर के सम्बन्ध में मुल्ला नफीस के ये वचन हैं "किसी किसीके कथनानुसार यह बात सत्य है कि भारतवर्ष में यह मधु से प्राप्त होता है। इसको इस प्रकार प्राप्त किया जाता है । मधु मक्षिकाएँ सुगंधित पुष्प और पत्र से रस चूस चूस कर मारतवर्ष के पर्वतों पर मधु का निमोण करती हैं । इसी कारण यह मधु अत्यन्त सुगंधयुक्त होता है। फिर जब वर्षाधिक्य के कारण उन मक्षिकाओं के छत्तों पर जल का सैलाब श्राता है तब मधु तो पानी में घुल जाता है और केवल मोम का भाग अवशिष्ट रह जाता है। यह अत्यंत सुगंधित होते और नदियों में बहते हुए समुद्र तक जा पहुँचते हैं । फिर यह समुद्र के पानी में सूर्यताप द्वारा द्रवीभूत होते हैं एवं स्वच्छ हो जाते हैं। समुद्र तरंग इनको तट पर ला डालता है । यही अम्बर होता है।" इसके ज्ञाता इसे उठा कर ले जाने और बहुमूल्य लेकर बेचते हैं। __ मुल्ला सदाद गाज़रानो ने मुफदान कानून की टीका में उपयुक कथन का समर्थन किया है और उसी वचन को सत्य माना है। क्योंकि अम्बर में मोम के लक्षण व्या हैं । कारण यह है कि उष्ण जन में घोलने से वह घुल जाता है एवं शीतल होने पर माम के समान जम जाता है। कतिपय इतिचा ने लिखा है कि प्रतिष्ठित व्य क्रियों की ज़बानी सुना गया है कि कभी सौभाग्यवश ताजा अम्बर हस्तगत होजाता है। वह मधुर खमीरवत्, सुस्वादु, मृदु और अत्यन्त सुगंधित होता है और यमन सागर, मालदीप तथा प्रशांत महासागर और समुद्र तरंग द्वारा उनके समीपके तटों पर प्रा लगता है तथा वहाँ के निवासी उसको उहा लाते हैं। हकीम उलवीखाँ लिखते हैं कि मैंने अम्बर शमामह, (सवोत्कृष्ट प्रकारका अम्बर जिसके टुकड़े गोल होते है ) देखा है। उसमें मधु मक्षिका के समान बहुत से जन्तु लगभग शत की संख्या में थे। मीर मुहम्मद हुसेन लेखक मजनुलअद्वियह लिखते हैं कि मैंने भी अम्बर का एक टुकड़ा देखा है जिसमें किसी रन जौज़ी वर्णके सदफ्री (शौक्रिक) जन्तुके सिर व ग्रीवा और चंचुवत् कोई वस्तु दृष्टिगोचर होती थी । परन्तु तो भी हमारे समीप वे ही वचन अधिक यथार्थ एवं विश्वस्त ज्ञात होते हैं जिन्हें शेन तथा प्रायः इतिब्बा ने वर्णन किए हैं। ( अर्थात् अम्बर एक रत्बत है जो समुद्र तल के कतिपय सहायक तथा दीप से मोमियाई और कीर प्रभृति के समान निकलती For Private and Personal Use Only Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परन्तु अर्वाचीन गवेषणात्मक शोधों से यह ज्ञात हुआ है कि 'अम्बर हेल मछली की एक | विशेष जाति स्पर्म ह्वेल (Sperm whale.) के उदर से निकलता है। यह एक प्रकार का दूषित मल है जो उसके प्रांत्र वा अंत्रपुट में रहता ! है। स्पर्म ह्वेल ८० फुट तक लम्बी होती है। ! इसका सिर इतना बड़ा होता है कि समग्र शरीर का तिहाई भाग सिर में सम्मिलित होता है। इसके सिर में एक विशेष प्रकार का तैल भरा । होता है जो हवा खाकर जम जाता है। इसके । उदर से अम्बर निकलता है। इसकी वास्त. विकता से अनभिज्ञ होने के कारण यह जान पड़ता है कि अम्बर समुद्र में बहता हुधा तरंगों के कारण समुद्र तट से श्रा लगता था। वहाँ से लोग इसे उठा लाते थे या नाविकों को समुद्र में ही प्राप्त हो जाता था। और इसके सम्बन्ध में विभिन्न विचार व अनुमान स्थिर कर लिए गए थे। इसमें दूसरी चीजों यथा विविध प्रकारके मत जन्तु सम्मिलित हो जाते होंगे जिनको कतिपय ! इतिच्या ने अवलोकन किया होगा जैसा कि स्वर्गः । वासी हकीम उल्ची खाँ के वचन में इसका । उल्लेख है। अधुना भी अम्बर समुद्र में बहता हुप्रा या समुद्र तटपर पड़ा हुश्रा मिल जाता है। परन्तु स्पर्म हेल के उदर से प्राप्त होने पर इसकी सत्यता स्पष्ट रूप से स्थापित हो गई है। स्पर्म ह्वेल का शिकार अधिकतर उसके शिरके ! तैल और अम्बर के लिए ही किया जाता है। इसका शिकार बड़ी जाननोखू का काम होता है। क्योंकि इसका यह एक विशेष स्वभाव वर्णन किया जाता है कि यह दौड़ दौड़ कर जहाजों को टकरें मारती है जिससे कभी कमी वे छिन्न-भिन्न हो जाते हैं। अम्बर के सम्बन्ध में आयुर्वेदीय मतबहुत से अाधुनिक लेखक अग्निजार को अम्बर ! मानकर लिखते हैं। परन्तु वास्तविक बात तो यहहै कि अष्टवर्ग की प्रोषधियोंके समान यह भी एक संदिग्ध एवं अन्वेषणीय औषध है । अष्ट्रवर्ग की दवानों के सम्बन्ध में कम से कम इतना तो निश्चिततया ज्ञात है कि वे वानस्पतिक द्रव्य हैं। परन्तु अग्निजार के सम्बन्ध में यह बात भी सन्देहपूर्ण है। श्रस्तु, कोई तो इसको समुद्रफल लिखते हैं और कोई इसको एक समुद्री पौधा वा अधि. क्षार बतलाते हैं। कई कोषों में भी अग्निजार के जितने भी पर्याय अाए हैं इनकं सामने वृक्ष ही लिखा है। अतः उनके मत से अग्निजार एक वानस्पतिक द्रव्य है। ___ इसके विपरीत रसरत्नसमुच्चयकार के मतानुसार यह एक प्राणिज द्रव्य सिद्ध होता है, यथा वे लिखते हैं समुद्रेणाग्निनक्रस्य जरायुर्व हिरुज्झितः । संशुष्को भानुतापेन सोऽग्निजार इतिस्मृतः॥ अर्थ-अग्निन नामक जीव का जरायु (झर) बाहर आकर समुद्र के किनारे सूर्यताप द्वारा सूख जाता है उसी को अग्निजार कहते हैं। अम्बर मो एक सामुद्री प्राणिज दृष्य है, इसी आधार पर किसी किसी ने अग्निजार को अम्बर का पर्याय मान लिया है. ऐसा प्रतीत होता है। अाज अब यह बात भली प्रकार सिद्ध होचुकी है कि अम्बर स्पर्म हेल नामक मत्स्य द्वारा प्राप्त होने वाला एक प्राणिजद्रव्य है। फिर भी इस बात का पता लगाना अत्यन्त कठिन है कि प्राया हमारे पूर्वाचार्य उक्र मत्स्य को अग्निनक नाम से अभिहित करते थे या नहीं। चाहे कुछ भी हो, पर इतना तो निश्चय रूप से ज्ञात होता है कि अग्निजार के जो गणधर्म हमारे प्राचीन शास्त्रों में वर्णित हैं, प्रायः उनसे मिलता जुलता ही वर्णन यूनानी ग्रन्थकारों का है जैसा कि आगे के वर्णन से ज्ञात होगा। अग्निजार नाम से आज उन औषध का प्राप्त करना उतना ही दुरूह है जितना कि बालू से तेल निकालना । अस्तु, यह उचित जान पाता है कि जहाँ जहाँ अग्निजार का प्रयोग पाया हो वहाँ पर अम्बर का ही उपयोग किया जाए। प्राप्ति-स्थान तथा इतिहास-पर्म ह्वेल For Private and Personal Use Only Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमरीका के दक्षिण में प्रायः मिलती है ।हिन्दमहासागर यहाँ तक कि बंगाल की खाड़ी में भी यह मिलती है किन्तु अत्यन्त छोटी होती है। श्राम्बर लालसागर, ब्रजिल और अफरीका के समुद्र तट पर तैरता हुश्रा पाया जाता है, केबल . एक मछली के उदर से ७५० पौं० तक अम्बर पाया जा चुका है। ह्वल का शिकार भी इसके लिए होता है। इसका व्यवहार औषधियों में होने के कारण यह नीकोबार ( कालेपानी का एक : द्वीप) तथा भारत समुद्र के और और टापुत्रों से श्राता है। प्राचीन काल में अरब, यूनानी लोग इसे भारतवर्ष से ले जाते थे। जहागीर ने इससे राजसिंहासन का सुगंधित किया जाना लिखा है! लक्षण--यह अपारदर्शक कभी कभी श्वेत प्रायः श्यामाभायुक धूसर था गुलाबी या श्याम । वर्ण का होता है। नोट : (१) साफ पीताभ अम्बर को अंबर अरहब कहते हैं । यह सर्वोत्कृष्ट श्रेष्ठतर अम्बर होता है। इससे निम्न कोटि का अम्बर अगरक (मिस्तकी ) और इसके बाद श्याम है | जो अम्बर श्वेताभ होता है उसपर छोटे छोटे श्वेत बिन्दु होते है। यह अम्बर खश्वाशी कहलाता है और जो अम्बर गोल टुकड़ों की शकल में होता है उसका नाम अम्बर. शमामह । रखते हैं। (२) जो अम्बर समुद्र के तरंगों द्वारा समुद्र । तट पर आ पड़ता है और उसमें धूल आदि के कण मिल जाते हैं उसको तिब्र में अम्बर रमली कहते हैं । उसको बिना शोधन किए व्यवहार न करना चाहिए । मोमबत् उसकी शुद्धि करनी चाहिए । अथवा उसमें समान भाग मिश्री मिलाकर खरल कर लेने से उसकी शुद्धि होती है। परन्तु रसरतसमुश्चयकार अग्निजार की शुद्धि न करने में निम्न कारण बतलाते हैं"तदब्धिसार संशुद्ध तस्माच्छुद्धिं न हीप्यते।" (र०र० स०३ अ०) अर्थात-समुद्र के द्वारमय जलसे शुद्ध ही रहता | है। अतः इसके शोधन की आवश्यकता नहीं। । गंध-कस्तूरीवत् विशेष सुगंधि । इसमें से मीठी मिट्टी जैसी गंध पाती है जो अत्यन्त मनमोहक होती है। सर्व प्रथम जब स्पर्महल से यह बाहर आता है, तब भूरे रंग का नर्म और दुर्गन्धयुक्र होता है, पर शीघ्र ही वायु लगने पर यह कठिन और नील वर्ण का हो जाता है। ज्यों ज्यों सूखता जाता है त्यो त्यों उत्तम गंध उत्पन्न होती जाती है। और धीरे धीरे यह गंध इतनी बढ़ जाती है, कि दूर से ही अम्बर का बोध करा देती है। स्वाद --यह लगभग स्वादरहित होता है। परीक्षा--(१) इसको एक शीशी में डालकर कोयले की पाग पर रखें। यदि यह सब पिघल जाए और शीशी में तैल की भाँति बहने लगे तो शुद्ध अन्यथा अशुद्ध, जानना चाहिए । (२) अम्बर को लेकर जरा सा भाग में डालें यदि धूम्र सुगन्धियुक्त हो तो उत्तम अन्यथा नकली समझना चाहिए । (३) जरा सा अम्बर लेकर चबाएँ यदि मुख सुगंध से पूर्ण हो जाए और चबाते समय वह दांतों में मोम सा लगे तो उत्तम अन्यथा नकली हैं। (४) तोड़ने से यदि अम्बर ठोस हो तो उत्तम और पोला हो तो नकली है। (५) यह लघु और कम चिकना होता है और इसकी गंध कस्तूरी की गंध पर ग़ालिब नहीं होती। यह बहुत शीघ्र जलने वाला होता है तथा याच दिखाते रहने से बिलकुल भाप होकर उड़ जाता है। ___ यह उष्ण जल में द्रवीभूत हो जाता है, परन्तु शीतल जल में नहीं होता । यह ईथर, वसा, उड़नशील ( अस्थिर ) तेल और उष्ण मद्यसार में विलेय होता है। इसपर अम्लों का कुछ भी प्रभाव नहीं होता । सूखने पर अम्बर का विशिष्ट गुरुत्व .७८० से १६२६ तक होता है। १४५° फारनहाइट की उत्ताप पर यह पिघल कर पीले रंग के वसामय तरल में परिणत हो जाता है। २१२° फारनहाइट पर श्वेत बाष्प बनकर यह जल जात For Private and Personal Use Only Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अम्बर आयुर्वेदीय मन से स्वर के गुणधर्म तथा उपयोग- www.kobatirth.org रासायनिक संगठनइसमें स्क्रीन ( anbrein ) =1/0 प्रतिशत और किञ्चित् भस्म प्रभृति पदार्थ होते I औषध निर्माण - अर्क अभ्वर, अर्क गज़र, अर्क बहार, चर्क हराभरा, चक्रपाजिस, खमीरह गावृजुबाँ अम्बरी ( जवाहर वाला वा जदीद), जवारिश ज़रऊनी अम्बरी बनुस्खा कला, जवाहर मुहरा अम्बरी, अजून कलाँ, मनजून नुक्करा, मअजून फ़लकसेर, मअजून हम्ल अम्बरी उत्त्रखा, मुफ़र्रिह अम्मरी, रोशन अम्बर हुन् अम्बर, हबे की मियाये इधत हध्ये ताऊन अम्बरी । ५१८ प्रमिजार त्रिदोषघ्न, धनुर्वात.दि वातरोगनाशक और पारद का बल उठाने वाला, दीपन एवं जारणकर्म कारक हैं । यथा-श्रग्निजारस्त्रिदीपनो धनुर्वातादि वातनुत् ! वर्धनां रसवीर्यम्य दीपनो जारणस्तथा ॥ ( ० र०स० ३ श्र० । ) नोट शेष गुणधर्म के लिए देखो - अग्नि जार । यह पक्षाघात, कम्पवात श्रादि वातरोगनाशक, हृदय रोग, नपुन्सकता, फुप्फुस रोग, शिरोरोग, यकृतरोग, उदररोग, प्लीहरोग, वृक्कीय आदि अनेक रोगनाशक माना गया है। कामाग्निबद्धक जितना इसे बताया गया है उतना अन्य किसी औषध को नहीं । प्रायः ऐसी कोई व्याधि नहीं, जिसके लिए आयुर्वेद शास्त्र में यह न कहा गया हो कि अम्बर से उत्तम अन्य औषध नहीं है । - यूनानी एवं नव्यमतानुसार - प्रकृति - प्रथम कक्षा में उष्ण व रूत है। किसी किसी के मत से २ कक्षा में उप्ण व १ कक्षा में रूक्ष अथवा १ कक्षा में उष्ण और २कक्षा में रूक्ष है । स्वाद - किंचित् कटु | गंधअत्यंत सुगंधिमय | हानिकर्त्ता श्रतों को और उदद्दजनक (पित्ती उछाल देता है ) । दर्पन - अम्बर धनिया, समग्र ग्ररबी, तबाशीर और सूँघने में कर्पूर! कपूर की तेजी को कम करता है । इसलिए उसे इसके साथ न रखना चाहिए । प्रतिनिधि - कस्तूरी तथा केशर समभाग । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मात्रा - २ रत्ती से ४ रती तक ( ५ से १५ ग्रेन) इं० मं० मे० । आयुर्वेद में इसकी मात्रा १ रती से ३ रत्ती तक बताई गई है | नोट- याज कल के मनुष्यों की प्रकृति का विचार करते हुए उपर्युके ये सभी मात्राएँ बहुत अधिक प्रतीत होती हैं · प्रधान गुण-रूह शक्ति तथा वाह्य व अंत:करण को बलप्रदायक, उत्तेजक तथा आक्षेपहर है। गुण, कर्म, प्रयोग--- यह हृदय को शक्ति प्रदान करता है तथा ज्ञानेन्द्रिय (पञ्च ज्ञानेन्द्रिय) तथा पञ्चकर्मेन्द्रिय व मस्तिष्क को लाभ पहुँचाता है। क्योंकि इसमें हृदय हृदय को बल प्रदान करने का असीम गुण है । इस बात में इसकी सहायक होती हैं । इसके सिवा इसमें द्रवीकरण पिछल ता ( ल्हेम ) और मतानत पाई जाती हैं । प्रस्तु अंबर अपने इन गुणों के समवाय के कारण सम्पूर्ण पर्वाह के जौहर को शक्ति देना और उनको बढ़ाता । ( नफो० ) अम्बर रूहों का रक्षक और हैवानी (प्राणि ), नमानी (मानसिक) और शारीरिक ( तब्ई . ) तीनों शक्तियों को बल प्रदान करता है । चित्तको प्रसन्न करता, शीतल प्रकृतियों के लिए अत्यंत हृद्य और वास्तविक उष्मा तथा वाह्य व अन्तरेद्वियां को शक्ति देता है । वृद्ध पुरुष के लिए श्रत्युपयोगी, मास्तिष्क, हार्दिक और यकृत् रोग कोयन्त लाभदायक है। मूर्च्छा व वरा (महा मारी) को दूर करता है | रोधोद्घाटक और कोमोहीक है । शिश्न पर इसका प्रलेप करने से कामोड़ीपन करता और श्रानन्द प्रदान करता है । For Private and Personal Use Only प्रायः विषोंका प्रगद और शीत रोगोंको लाभदायक है। पक्षाघात, श्रद्धांगवात, कम्पवात, धनु Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अम्बर अम्बरबेद स्तम्भ, अबसन्नता, शिरःशूल तथा अविभेदक | अम्बरतुश्शिता aambaratushshita-to श्रादि वात रोगों को लाभप्रद, वेदना तथा वायु । शीताधिक्य, कठिन शीत, सरूत जाड़ा । का परिहारक और कास, फुप्फुसस्थ क्षत, हृदय | अम्बरदः ambaradah-सं० पु. कपास, की निबलता, मूर्छा, प्रामाशय तथा यकृत् की । कार्पास | (Gossypilun Indicum) वै० निर्वलता तवं कामला, जलोदर, आमाशय शूल, निघ। जीह वेदना और संधि शूल को लाभ पहुँचाता ! अम्बरबारी ambara-bari-हिं० संज्ञा पुं. है । म. मु. । बु० मु.। [सं०] एक क्षुप है। दारुहरिद्रा, दारूहल्द, सार्वागिक निर्बलता, अपस्मार, प्राक्षेप : चित्रा । ( Ber beris Asiatica.) और वातनैर्बल्य ( Nervous debilitr.) अम्बर बारीस ambal-barrisa-यु, अ. में इसका प्रयोग किया जाता है। विसंज्ञता एवं जरिएक,दारुहल्दी दारुहरिद्रा । (Berberis.) उन्माद युक्र तीव्र घर, विसूचिका के कोलेप्स की अम्बर बारीसियह. ambar barisiyah-अ. अवस्था, प्लेग तथा अन्य संक्रामक च्याधियों में । : एक प्रकार का आहार जिसे ज़रिश्कियह भी भी इसका उपयोग किया जाता है। यह पाक ब ने । मअजून रूप में व्यवहृत होता है । इं०मे०मे०।। 'अम्बरवेद aambar-bed.nा० गुले अर्थ, जुपलापैथी चिकित्सा में अम्बर का विशेष व्यव दह ( जादह )-अ० 1 फुलियुन ( Fuliyun) हार रोग निवारणार्थ नहीं होता ( यहाँ यह केवल -यु० । पोली जर्मेण्डर (व्यु क्रियम् पालियम) सुगन्धियों में प्रयुक्त होता है)। हाँ ! होमियो Poloy Germander ( Teucrium पैथी में उन हेतु इसका प्रचुर उपयोग होता है। अस्तु, वे स्त्री रोगों यथा योषापस्मार ( Hy. Polium, Lin.)-ले० । ( फा० ई०३ भा०) sterin.) या उससे मिलते जुलते रोगों में तुलसी वर्ग अम्बर का विशेष उपयोग करते हैं। उनका कहना है कि उन अवस्थात्रों में श्रम्बर शीघ्र ही प्रभाव । (1.0. Lulint ae.) प्रगट करता है। खिन्नता, बुरे विचार, अनिद्रा, उत्पत्ति-स्थान- अरब (जद्दा)। मानसिक अवस्था के कारण दर्शन तथा वण- वानस्पतिक-वर्णन--(भंगरा या कोई और शक्ति का ह्रास आदि योपापस्मार या तत्सम बटी है )। जुनदह वस्तुतः शेह ( दरमनह. उत्पन्न होने वाली व्याधियों में दृष्टिगत होने वाले जौहरी जवायन ) की एक जाति है जिसमें शा. कुलक्षणों में श्रम्बर का बड़ा ही उत्तम प्रभाव खाएँ होती है। इसके पुष्प पीताभ श्वेत और प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। पत्ते श्वेत पतले तथा लोमश होते हैं । यह लगविशेष वर्णन के लिए देखिए होमियोपैथिक भग एक बित्ता ऊँचा होता है । इसके शिरों पर निघण्टु प्रभृति । बालों का गुच्छा होता है जिनमें बीज भरे होते हैं अम्बर. amber-इं० एक प्रकारका निर्यास, कहरुबा यह दो प्रकार का होता है--(१) छोटा और -फा०, हिं० । देखो-ससीनम ( Suc. (२)बड़ा । cimum. ) नोट- यद्यपि जुह का वर्णन मूजिज़ल अस्यर अशव aambal-ushhab-अ० (A कानून एवं अक्स राई में विद्यमान है, तो भी kind of anber) एक प्रकार का धूसराम वर्तमान नतीसी में इसका वर्णन न था। श्वेत अम्बर । देखा-अम्बर । कदाचित् प्रकाशकीय भूल से रह गया हो। अम्बर ग्रीस amber-gris-ई. __ प्रकृति-छोटा ३ कक्षा में उपण और २ कक्षा अम्बरमसिया ambragrsea-ले० में रूक्ष है; बड़ा २ कक्षा में उप्ण व रूक्ष है। अस्वर। परन्तु दोनों मूत्र और प्रात्तवप्रवत्तक हैं एवं For Private and Personal Use Only Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अम्बरबेद ५२० अम्बल रोधोद्घाटक तथा उदरीय कृमिघ्न व कृमिनिः यह रक शोधक और बिच्छू के विष को दूर सारक है । यौन स्याह ( Blacle jaun. ___ करने वाला है। म. मु०। dice ) तथा जलोदर के लिए गुणदायक हैं; अम्बरबेल ambarbel-६० अर्कपुप्पी, बनबेरी परन्तु प्रामाशय तथा शिर के लिए हानिकर हैं। - सिंगरोटा-६०, बम्ब०। ( Penta. (नफो०) tropis spiralis.) मेमो०। रोध उद्घाटक, मूल, कृमिघ्न और बल्य अम्बर मारaambar-maia-फा० है।( Diosc. iii.. 115; Pliny., 21, अम्बर साइल aam balsail- अ० 60,84) शिलारसः, सिलकः-सं० । मिहे साइलह अरब निवासी इसको ज्वर-विकारों में प्रयुक्त -फा० । Liquidam ber (Stylax करते हैं। २॥ तो उन ओषधि को रात्रिभर ठंडे preparatus.) जल में भिगोकर प्रातः काल उसको छानकर अम्बर सुगन्धः ambar-sugandhah-सं. सेवन करते हैं। बाल घर में उक्र ओषधि की पु० मश्क अम्बर, अम्बर । (Amber शरीर में धूनी देते हैं। फा० इं०३ भा०।। Grsea.) स्वाद ... तिक। गंघ--तीघ्र । | अम्बरहा ambatha-मास्नु बन्ती । लु० २० । अम्बरा aimbala-सं० स्त्री० कपास, कार्पास । हानिकर्ता-शरः शूलोत्पादक तथा प्रामा- | शय हानिकर है। दर्पघ्न-हमामा आवश्यकता (Gossypium indicum.) नुसार और सदं तर वस्तु | किसी किसी के मतसे | अम्बग ambara-सं० स्त्री० श्राम | (Ma. कश्नीज़ (धान्यक )। प्रतिनिध--पार्वती । ngo.) पुदीना, शेह, अनार मूलत्वक् और तज । शर्बत ! अम्बराक्षी-चो ambarakshi,-chi-सं०ी . की मात्रा-४ मा० से १०॥ मा0 तक। अज्ञात। प्रधानगुरण---बुद्धि वर्द्धक, रोधोदघाटक और अम्बरातकः, राय: ambalatakah,-livah मुत्र एवं प्रार्त्तवप्रवर्तक । -सं०पु० अमड़ा, पानातक । (Spondias Mangifera.) जटा०1 गुण, कर्म, योग-समें रेचन तथा |... तिर्याक की शक्रि है। यह सम्पूर्ण अवयव के । अम्बरि,रीषः ambri,rishah-सं०पु,को०) रोध का उदघारक, अखलात ( दोषों को दावी ! अम्बरीष ambarisha-हिं० संशा पुं , भूत-कर्ता और मूत्र तथा पार्तव का प्रवर्तक है। (१) अमड़ा, आम्रातक । (Spondias इसका क्वाथ बुद्धिको तीब्र करता है और विस्मृति ; Mangifera.) (२) भर्जन पात्र । वह मिट्टी का वर्तन जिसमें भड़भूजा गरम बालू को दूर करता है तथा इस्तिस्का बारिद ढालकर दाना भूनते हैं। अम०। (३) भाड़। (शीत जलोदर), यौन स्याह ( Black (४) सूर्यका नाम । (५) किशोर अर्थात् Jaundice.) एवं श्लेष्मा व वातजन्य ज्वरों को लाभप्रद है। उदरस्थ कृमि निःसारक वायु- ! ग्यारह वर्ष से छोटा बालक । (६) अनुताप । पश्चात्ताप । लयकर्ता, मूत्ररोध तथा संधिशूल को लाभप्रद । एवं गर्भाशयशोधक और प्लीहा के शोथ का लय अम्बरी ambari-गारो० श्रामला । (Phylla. कर्ता है । इसका अवचूर्ण न व्रणपूरक है। नवीन nthus Emblica.) पत्तों का प्रलेपत्रण को स्वच्छकर्ता एवं पूरणकर्ता | अम्बरीसक ambarisak-हि.संज्ञा सं० है। इसकी धूनी विषैले जानवरों को भगाती है। अम्बरीष ] भाइ । भरसायँ । -डे । मधु के साथ इसका अंजन करने से दृष्टि तीव्र : अम्बल ambai-हिं. स्त्रो० (१) मादक वस्तु होती है। म.अ.1 तुह फ़ा। (Intoxication.)। (२) खट्टा रस । For Private and Personal Use Only Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भ्रम्बल अम्बहे हिन्दी मो० । अम्बल ambal-हिं० पु रामतुलसी । (Oci- | ndroin siphonanthus) र० मा०। imum gratissimim.) देखो-तुलसी। (३) लक्ष(क्ष्मणा मूल, श्वेत कएकारो। भैष० अम्बल aim bal-ता०कमल (Nelumbilm स्त्रीरोग-चि० पुष्यानुग चूर्ण । (४) अम्ल peciostum, right.) फा० ई० । लोणी,प्रामरूल,चांगेरी। ( Rumex scutअम्बलह, ambaltth-का. अम्लिका, अमली, . utus) रा० नि० ब० ५। भा० पू०१ इमली 1(Tamarindus Indicus.)। भा० । (५) यूथिका, जूही । (Jasminumm अम्बलपिष्ट ambal-pishta-सं. चारी, auriculatum ) प. मु०। (६)मयर, faTI (Actinopteris dichotoma.) चूका, खटकल । ( Rumex sentatus.) चाम्सू. प्रियंग्वादि । "अम्बष्ठामधुकं नमस्कारी"। अम्बली stbali-हि. स्त्री अम्लिका, इमली, ! (७) अाम्रातक, अमड़ा । (Spondias अमली । ('Tamarindus Indicus.) । inangifera.) शुद्र पुप विशेष । मोइश्रा, अम्बली ambali-पं० ) प्रामला ।! मोहुया-हिंग। माचिका और साकुरुएड-पश्चिम०। अस्बलीय ambaliya-अ० (Phyll-. अम्बाड़ा, अम्बरी-द०। पुदिना-ब०।। anthus emblica. ) पर्याय-वालिका, बाला, शाम्बा, अम्बाअम्बलु ambalu-t० मोबा, बकलवा। मे० ! लिका, अम्बिका, अम्बा, माचिका, दृढ़वल्का, मयूरिका, गंधपत्री, चित्रपुष्पी, श्रेयसी, सुखवाअम्बलोना ambalona-हिं० स्रो० खटकल, चिका, छिन्नपनी, भूरिमल्ली-सं० । सु० सू० चाङ्गरी। ( Ruinex scutatus.) ३८ अ० । रस. र० पुष्यानुग चूर्ण । सम्बलोनान aubalonava-हिं० पु० एक गुण-कसेली, अम्ल, कफघ्न, रुचिकारी भारतीय वृक्ष का फल है जिसका स्वाद खट्टा । तथा दीपन है और कंठ रोग एवं वात रोगनाशक होता है। है । रा०नि०व० ४। अम्बलोलवा ambalolava-हिं० पु. गिदड़- | अम्बष्ठादिः ambashthadih-सं० ० द्राक-पं०। ( Vitis trifolia.) पाठादि गण विशेष यथा-अम्बष्ठा, धातकी पुष्प, अम्बलीवान ambalovana-हि० अज्ञात । __समंगा, कट्वंग,मधुक,विल्यपेशी, रोध, साबररोध, अम्बवटी ambavati-हिं० स्त्री० खटकल, पलाश,नन्दी वृक्ष और पद्मकेशर । गुण-संधानीय, चूका, चाङ्गेरी । (Rumex sentatus.) | पित्त में हितकारक, व्रण (रोपण) पूरक और अम्बष्टः,-ठः ambashtah,thali-सं० पु. पछातिसार नाशक है। सु० सू० ३८ श्र० । (१) देश विशेष । पंजाब के मध्य भाग का पुराना अम्बष्ठा ambashthi-सं० स्त्री० (१)कुटकी नाम । (२) वैश्य स्त्री व ब्राह्मण पुरुषसे उत्पन्न एक भेद, कटुकी। A kind of (Pierorrhiza जाति । इस जाति के लोग चिकित्सक होते थे।। kroa)। यथा-"रक्रकाण्डेरुहाम्बष्ठी कटुका (३) अंबष्ठ देशमें बसने बान्ता मनुष्य । (५)। चापरा स्मृता।" द्रव्याभि० । (२) इन्द्रायण । महावत । हाथीवान : क्रीलवान ! (Citrullus colocynthis.) अम्बष्ट(ट)का,-की ambashtaka,-ki अम्बह, ambah-फा० श्राम । (Mangifera अम्बष्टा (टा),-ष्टि(प्ठि)का aubashti-sh Indica.) tika ) अबह हल्दी ambah-haldi-हि. खी० -सं० स्त्री० (१) एक लता का नाम । पादा। अम्बाहल्दी । आम्रहरिदा। (Curcuma. ब्राह्मणी लता। पाठा । (Cissanmpelasiamada.) pareira, kinn.) रा०नि०३०६ । पटाराड अम्बहे हिन्दी ambahe hindi-फा०, १० -हिमा०। (२) भाजी, भार्गी । (Clerode.] अण्डखबूजा, पपैया । (Carica papaya.) For Private and Personal Use Only Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अम्बा अम्बिल अम्बा amba-हि० संज्ञा पुं० श्राम । (Mangi-] अम्बालम ambalam-मल. ) अाम्रातक, fera indica. ) अम्बालमु ambalahu-ते. अमड़ा, अम्बा (लिका ) ambi,-lika-सं० स्त्री० | अम्बाड़ा (Sposdias mangiferin.) (१) अम्बष्ठा, पाठा, निर्विषी । (Stephania ई० मे० मे.। hernandifolia)रा०नि० व०४। (२)! अम्बालस ambalasa-यू. अंगूरलता। मोइया, माचिका (Solanummisrum) अम्बालस अग्रिया ambalasit-aghriya-या (३)पानातक, अम्बाडा । (Spondias ! जंगली शलगम या जंगली अंगूर का वृक्ष । mangifera). अम्बालस मालिया ain balasa-mali अम्बाइम् ambadau-सं० लो० अमड़ा, फ्राशरस्तीन ISee-Fasharastina. अम्बाड़ा, आम्रातक । (Spondias mang. अम्बालसा का ambalasa-luna-यू. फ्राifera.) शरा । (Bryoni scabrella.) अम्बालिका anbalika-सं० नो० (१) अम्बाड़ा ambadi ) -हिं० पु०, स्त्री० (१) देखो-अम्बा । -हि० स्त्री० (२) मा, माता, अम्बाड़ी ambadi jअमड़ा, श्राम्रातक । (२): जननी। (३) पाण्डुराज की माता। -यम्ब० पटसन -३०, म०। ( Hibiscusi cannabinus, l.inm. ) फॉ० ई० । -हिं. अम्बासीस ambasisi-यू. अनाग़ लुसके समान चुक्र, शतबेधी। प्रभावशाली एक श्रोषधि है। अम्बाड़ी की भाजी ambadi-ki-bhiji ! अम्बाहलद ambābalatla-को मेष्टा-बं०। (Hibiscus sabdariffai) अभ्या (बे)हल्दी amba(bey balli-हिं०,मह पालो साग-हिं० । ई० है. गा० । कपूरहरिद्रा, चनहरिद्रा । (Cureuma. अम्बानुभाड़ ambanu-jhada-गु० श्राम का aromatica, Stlist.) पेड् । (Alange tree) अम्बा हिन्दी amba-hindi-०, फा. भराडअम्बापुरी ambi-puri-बम्ब० श्राम का पेड़।।। जा, पपीता, विलायती रेंड। (Carica (Mangifera Indica.) मे० मो०। papaya.) ई० मे० में। अम्बापोली ambipoli-मह०, हिं० संज्ञा स्त्री अम्बिका in bika-सं० स्त्री० (१) [सं० श्राम्र प्राम, प्रा. श्रब+सं. पौलि= | अंबिका tumbika-हिं० संज्ञा स्त्री० । अम्बष्टा, पोतला, रोटी पाम्रावर्ग-सं। अमरस अमा. पाठा । ( Cissa.mplas hexandra.) वद-हिं० । फा० इं0 See-Amavata. ! भा०पू०१ भा०। (२) मायाफल वृक्ष-सं०। अम्बारी ambari-हि. स्त्री० अमड़ा, अाम्रातक। मयानफल-हि०। ( Randia. dumeto( Spondias Mangifera. ) rium, Lan.) मद० व०४। (३) कटुकी, अम्बारी ambari-६० (Hibiscus com. ! कुटकी । ( Picrorrhiza kirroa.} abinus.) पदसन, मेष्टपात-बं० । सन-हिं०। । श० च० ।-हि. स्त्री०(४)माता, माँ। (५) दुर्गा, गोगु कुरु-ते । पलङ्ग-ता० । डोड़े कुद्रम-सन्ता। भगवती, भवानी, देवी । (Amane of कनरिया-उड़ीसा। कुदम-बिहार । पिरिडक गिडा ____Bhavani wife of sbiva.) -कना० । नील-सं० । ई० मे० प्लां०।। " अम्बिया ambiya-हिक स्त्री० अँबिया, अमिया, अम्बारीकन ambariqan- खुन्सा । लु० क०। __ टिकोरा, छोटा श्राम । (A small unvipe See-Khunsa. __mango.) अम्बाल anbāla-गु० (५) श्रामला। -फा० : अम्बिल ambilu-हिं० पु. एक श्राहार है । यह (२) इमली । अग्लिका। धोए हुए चावल या छिलका उतारे हए ज्वार को For Private and Personal Use Only Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अम्बीतून अम्बुजम्म पीसकर उसमें खट्टा छाछ मिलाकर धूप में रखते -हि०। पान कउड़ी-बं०। पान कोंबड़ी-म० । हैं कि खट्टा हो जाए। फिर लवण योजित कर (Awater-hen, diver)। देखोऔर छाछ डालकर तैयार करते हैं । यह शीतल ! लवः । श्राहार हैं। अम्बुकर्मः ambu-kārmmah-सं० . अम्बीनून ambituna-य. शतपुष्पा, सोया, गोधा । (A guana.) वै० निघ.1 (Poucedamuin graveolens.. श्रावक्रष्णा ambu-krishna- सं त्री जलBenth.) पिप्पली, जल पीपल-हिं० । काँचड़ा दाम्-०। अम्बोबूटी ambi-buti-हिं, स्त्री० तिनपतिया, do fago | See-Jala-pippalí. चाङ्गरो । ( Runnex scutatus.) अम्बुकेशरः ambu-kesharah-सं० पु. अम्बु ambil-सं० लो० ) (१) जल | बीजपूर, छोलंगवृक्ष, विजौरा नीबू-हिं०, सं०। अंधु anbu-हि. संज्ञा पु० ) (Water.) लेबू-०। ( Citrus limonum. )र० ग. नि० व. १४ । २) बालक, सुगन्ध- सा० सं० वाला। (Pa.vonia olorata.) च. अम्बुचर: ambucharith-सं० पु. (.) द० वरातिसार-चि०। 'किराताम्बु यवास जलचर (Aquatic.) । (२) कञ्चट, गजकम् ।" अप० शोथ-चि० पुनर्गवा तैल । : पीपल, गजपिप्पली । (Scindapsus officiअम्युक ambuka-40 मलक. बिस्पाढ़ी। (Dio walis.) बै० निघ। ___spyros Ictils, Linn.) मे० मो०। । अम्बुचामरम् ambu-chamaram-सं. क्ली० अम्बुक: Imbukah-सं० . (.) श्वेतार्क शैवाल-सं० । सेवार-हिं० 1 (Sea-weed.) मन्दार । (२) रकैरण्ड । जटा । अम्बुकण ambukana-हिं० पु. श्रीस, तुपार, शीत । (Dow.) ' । अम्बुचारिणी ॥mbu-charini-स०स्त्री० स्थल अम्बुकणा ainbu.kani सं० स्त्री. जल पन्मिनी, थल पम । (Sce-Sthala paपिप्पली । (Lippia nodiflora). dimini.) वै० निघ० । अम्बुकराटकः ambu-kuntaknh-सं. 4. अम्बुजः ambujah सं. पु. जल जन्तु विशेष, मक, ग्राह, मगर । ( Anअम्बुज ambuja-हिं संज्ञा पु.. alligator.) त्रिका। () पानी के किनारे होने वाला एक पेड़ । हिज्जल, समुद्रफल, ईजड़, पनिहा । (Eugenia अम्वुकन्दः ॥mbu-kantli h.सं.पु शृङ्गाटक, acutangula.) श्रम 1 (२) मत्स्य श्रादि । सिंघाड़ा । ( Trapa bispinosa.) वै. (Piscis.) भा०1 (३) जलवेतस, जल. निघ०। बैत । (४) कञ्चर, बजपीपल, गजपिप्पलो। अम्बुकिरातः,-ट: ambu-kiratah,-tah-सं० . ( Scindapsus officinalis ) वै. पु. नक्र, ग्राह । ( An alligator.)! निघः। -त्रि० (५ ) जलजातमात्र, सम्पूर्ण त्रिका जलोद्भुत पदार्थ, जल से उत्पन्न वस्तु ( Aquअम्बुकोशः ambu.kishah-सं० पु. (.) atic.)। -क्ली०, हिं०० (६) कमल, पद्म, गांधा । गोह (-ही)। (A lizard, agu- अम्भोज । 'The lotus (Nymphea ana.)। (२) शिशुमार, सेकची । त्रिका melumbo) मे० जत्रिकं । (७) बेंत । (८) Sec-shishumāra. वज्र । (६) शंख । (१०) ब्रह्मा । बाबुकुक्कुटी, टिका ambu-kukkuti,tika अम्बुजन्म ambujanma-हिं० पु. पन, कमज, -सं० स्त्री० जल कुक्कुटी, जल मुर्गी, मुर्मात्री | पंकज । ( The lotus.). For Private and Personal Use Only Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अम्धु बैया अम्बुजा am buja-सं० स्त्री० श्राम्रगंधक | अम्बपः ambupah-सं० पु. । चक्रमर्द, कुत्त-हि. । अम्बुली-म० । कपूर ६० । माङ्ग. अम्बुप ambupia-हिं० संज्ञा पु.) वकवड़, नारी-मल । ( Litnmophila gratio-i चकौड़ का पौधा । (Cussia torts) चाकुन्द loides. B.) फा० ई० ३ मा०। ! (वॉ) श. । ( २ ) कञ्चट, गजपिप्पलो । अम्बुजामलकी ambuja-maluki-सं० स्त्री. (Scindapsis officinalis) क.। पानीयामल क । (Flucourtia cataph. ! स्वपटलमmbupatidam-सं० क्ली० racta.) (Aheoins humour.) जलीय पटल । अम्बुटः ambutah-सं० पु. अश्मन्तक वृक्ष । । अम्बुपत्रा (पत्रिका), पत्रो ambupatri,प्राबुटा । अ(-)पटा-मह० । रा०नि० २०६।। patrika,-patri सं०जी० उच्चटा, गुञ्जा, S33-Ashmantaka h. धु घची । (Abus precutorius.) अम्बुटी ambuti-वस्थ. चाङ्गेरी, चूका । र० मा ( Oxiulis coniculata, Linn.) graforca imbut-pippali-0 10 फ:०३०१ मा०। जलपिप्पली । काँचढ़ा घास-बं० । चुकन-हिं०। अम्वुताल: limbutalah-सं० (Lippia nodiflora. ) सेवार-f. I (Set Wesd.) त्रिका। अम्बुदः aubi.la.h-सं० ० मुस्ता, मुस्तक, | | अबुप्रसादः ambuprasālth Arer (Cyperus rotundlus, Linn.) अम्बु प्रसादका inbuprasadakah सि. यो. कामला-चि. मूर्वाग्रतं वृन्द । *7467a: ambu-prasádanah "पटोलाम्बुददारुभिः ।" सं० पु. निर्मली-फल वृक्ष, निर्मली का पौधा । (Stryclinos potatorum, Linn.) Sto. अम्बुधरः ambudharah-सं० पु. नागर रा०नि० २०११ । देखो-कनकः। मस्ता, भद्रमुस्ता, नागरमोथा। (Cyperus अम्ब सादन फलम amba-prasadana. partenuis.) ३० निघः। phalan-सं० क्लो० कतक, निर्मलीफल । अम्बधिः ambudhih-सं० पु. सागर, समुद्र, । Strychuos potatorum (fruit of-) सिन्धु, जलधि (A sea.) वै. निघः । अम्बधिनः a.mbudhi-phenah-सं० पु. अम्बफलम ambu-phalam-सं० क्ली. समुद्रफेन । Os sepie ( Cuttle fish शृङ्गाटक, सिंघाड़ा । ( Trapa Bispibone.) भा०। Dosa.) अम्बुधिश्रवाः ambudhi.shravah सं० स्त्री० अम्बवाह amba-baha-हिं० पु. मेघ, बारिद, ग्वारपास, घीकुं पार, घृतकुमारो। ( Ale i बादल । (Cloud.) barbadensis. )। कोइफल-म० । रा. अम्बबैया ambubai-सिरि० (1) कासनी। नि०व०५॥ Endive seouls (Cichorium inty. बाबुनाम ambunāma-सं० क्ली. हीवेर, bus, Lin.) लाइ" । सुगंधवाला। ( Pavonia odorata, नोट-अम्ब्रुवया सिरिया भाषा का शब्द है। Willd.)भा०। बालक । किन्तु फारसी अन्यों में इसके निम्न रूदार्थ पाए aparat ambunálí-go alto (Cereb जाते हैं, यथा--अम्बुई (Anm bui) अर्थात् ral aqueduct. ) गंध व बया अर्थात् पूर्ण यानी गंधपूर्ण (Allu. अम्बुनियामिका ambu-niyamiki सं० स्त्री० rements.)। देखो-कासनी । फा०ई०२ (Amnion.) गर्भकला, भ्रणमध्यावरण । . भाव। For Private and Personal Use Only Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अम्बुधोइया अम्बूका अम्बुवोइया amburhoiyi-फ० कासनी । अध्यबारिणी ambl-arrini-सं० स्त्री० ( Eidivo seeds.) ई० मे मे०। स्थल कामलिनी, स्थल्ल पशिनी । 2. निघः । अरबभन् ambu-bhrit-सं. पु. (1) मेब, अरवामिनी ambl-Visini बादन्न ( Cloud.)। (२) सुस्तक, मोथा। शाम्यवादी ambit-visi (Cypertis rotuntus) अ० । (३)। - स्त्री र पाटला, पोइल । सागर, समुद्र । (Neu.) ० । नावार: :mhilihath-सं० पु. मुस्तक, अम्बमयरकाmbin-mariyakah-सं० ५० मोथा. नागरमोथा। ( Cvp.rus rottlndजलापान, ज चिर्बिट । ३० निव० .) चि०० कबल्ली प्रदर-चि० | अम्बमात्रः amhi-lathali -सं० (२) बादल | मेव । अम्बमात्र त mb1-1matrajah चूक, " : अबुसः hi.tushlh-सं० पु. घोंघा IASunil (Cochlithelix ). अलोनस । एक प्रकार को बेंत जो पानी में होती अम्बुमुक-त्र .mbu-muk,--14th- 60/ है। बड़ी बैत । बहला-मद्द० । पर्यायपु० (१) मुस्तक, मोथा (Cyprus परिध्यायः, विदुजः, नाथी (१०) । rotundis.)। (२) मेव, बादल ! (clo.i अावुशिशीपिका ॥blishirishika 1td.) के । अरशीपो amlhi-shirishi अम्बुर्याष्टका mbuyashtiki-सं. स्त्री० : - यो जल सिरोप, हाडोन, टिटिनी । भार्गी, भारंगी । (CLIO::3HTo sipho. ' ० नि __maithils. ) र० सा । वामन दाटी-०। अस्वुशुतिः .111011-shaktih-रा० स्त्री० अम्बुरः ambitra}1-सं० पु. द्वाराधः काष्ट । जलशुति, मल सीपी । जलशिंपी -महा। गोवराट् ( का)। झिनुक-०। (A smail.) वै० निघः । अम्बुरु (ग) हः ..bull,--]'0-hah-सं० अस्वसर्पिण - spini-सं० स्त्रो० पुं०, क्ली० पद्म, कमल । ( Nymphea जलायुका, जलौकस 1 जोक -हिं०, बं० । melumbo.) ग०। Leech ( Hirudo ). अम्बुरुहा amburuhi-सं० खी० पद्मिनी, स्थल । अस्वसादनम् ambil-sadhnam-सं० क्लो. पद्मिनी । वै० निघ । (500-sthala. निर्मली बीज, कनक । ( Strychnos padmini.) potatoytum.) वै० निघ । अम्बुल an.bula-पं० श्रामला। (Phyll अम्बरलारा albu-sālā-सं०स्त्री०कदली वृक्ष । anthus emblica-) मेमां० । (Jalsa sapientium) भा० पू०१ भा. अम्बुली ambuli-मह० अम्बुजा, आम्रगंधक ।। फ०० । ( Liinnophila gratioloities,Bi'. ) अम्बलाहा ambl-salivah-सं० पु. कुन्द फा० इं०३ भा०। पुष्प चुप । (.Jasinintim multiflorunm.) अम्बुल्लिका ambl-callika-सं० प्रा० कार- ! वे. निय० । वेल्ली, करेली। (Momordica chala अम्बसीमा blr sima-० अञ्चनहारी, _ntia-) वै० निघ०।। घेरी, शई रह । स्टाइ (Stye), लीफेराइटिस अम्बुवल्ली aubn-valli-सं० स्त्री. (१) (Bhopharitis)-इं० । शुद्र कारवेल्ली, छोटी करेला ( Atomord. 'अम्बत् ambu-krit-सं० त्रि. ऐसा वचन ica charantiit.) । (२) जल पिप्पला। जिसमें थूक निकले | निष्ठीवन युक्त वचन । (Lippiin norliflora-) 4. निघः । | अम्वृक: Ambikah-सं०५ लकच वृत्त | For Private and Personal Use Only Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अम्बू मक्की बड़हर-हिं० 1 ( Artocarpus lakoo cha. ) - के० । हल्बालम | अम्बुल मलिक अम्बून मक्की ambūba-makki-ऋ० बुस्तान अफ़रोज़ अम्बूबुराई Ambuburraai - अ० सदाबहार, ५२६ ambà bul-malik-o इसके लक्षण में मतभेद हैं । कोई कोई हल्आलम को तथा कोई कलाह वा महूरा को कहते हैं । अम्बूरस्मा ambúrasmá यू० सफेद कुटकी। Picrorrhiza kurroa ( The white var.) अम्बूल ambús - यू० नान्वाह, अजवाइन | ( Ptychotis ajowan ) श्रम्बूस मारीस ambúsa-márisa - यू० काली कुटकी | Ficrorrhiza kurroa ( The black variety of - ). अम्बेलिफ़री umbellifera - ले० छत्र या छत्री ( - त्रिका ) वर्ग अस्बेला उग्रिया an belo-ughriyá -अ० ग्रज्ञात 1 श्रम्बे हल्दी ambe haldi - इ० श्रम्बा हलदी, aaeftar (Curcuma aromatica, Salisb. ) स० [फा० ई० । अम्भोजम् -बस्व० (३) श्राम | (Mangifera Indica. ) मेमो० | फा० ई० १ भा० । ई० मे० मे० । श्रस्त्रौटां ambouti-हिं० स्त्री० चांगेरी, चूका । | श्रमरूल-बं० । ( Rumex scutatus ) श्री ambri-मह० नकछिकनी, छिकिका | (Dragea volubilis, Benth ) फा० इं० २ भा० । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अम्ब्लोगिना पॉलिगोनॉइडीस aniblogina polygonoides, Rafin ) - ले० वनतण्डुलीय, जंगली चौलाई । मेमो० । अम्ब्लोगिना सीनीगेले सम्म amblogina senegalonsis, Lamnk ) - ले० जंगली | मेंहदी | दादमारी | मेमो० । अस्त्रोसी ambosi-बम्ब० ( 1 ) आम्रपेशी, आम at gaat (Phyllanthus embliká) फा० ई० १ भा० । - बं० (२) श्र ( अ ) मचूर | जल, श्रम्भः ambhah-सं०, हिं० पु० (१) अम्बु, पानी । ( Water ) रा०नि० व० १४ । (२) बाल, सुगंधबाला | (Pavonia odorata. ) श्रम० । श्रम्भः पा ambhah-pa-सं० पुं० चातक पक्षी । A kind of cuckoo ( cuculus melano-leucus. ) श्रम्भः सारः ambhah Sarah सं० पु० मुक्रा, मांती | (Pearl) बै० निय० । श्रम्भः सूः ambhah, suh सं० स्त्री० ( १ ) शम्बूक, घोंघा ( A shail ) ( २ ) धूम, ॐ श्रा | धुके - मह० । ( smoke. ) हे० । (३) भाप, बाप (Vapour.) श्रम्भसोज_ambha-soja - हिं० ० ( 1 ) कमल, पद्म, श्रम्बुज ( A lotus ) | ( २ ) चन्द्र ( Moon) । ( ३ ) सारस पक्षी ( A stork.) अम्बो ambo-गु० श्राम, श्रात्र | ( Mangifera Indica.) फा० ई० १ भा० । श्रम्बोलटी ambolati - वं० श्रामला । ( Phyl - श्रम्भसोधर ambhaso (dhara हि० पु० श्रम्मसोद ambhasoda हि०पु० जलद, अभ्र, मेघ । (Cloud ) lanthus emblica.) ( १ ) जलधर, मेघ ( Cloud.) । ( २ ) समुद्र । ( A sca.) - हिं०पु० श्रस्मसोधि ambhasodhi श्रम्भसानिधि ambhasonidhi समुद्र, सागर, जलधि | ( A sea. ) अम्भेडो & bhedo - गु० अम्बाड़ा | श्रानातकः । ( Spondias mangifera ) श्रभोजम् ambhojam-सं० क्ली० श्रंभांज anbhoja-हिं० संज्ञा पुं० कमल । ( Nymphoea nelumbo . ) (1) पद्म, For Private and Personal Use Only Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सम्भोजनालः अम्युल अल्वान (२) बारिवेतस, जल वेतस । (See-Jalave. | अम्भोरुहम् ani bho-luhar-सं० क्ली० (१) tas) -पु० (३) पुष्कराह्वय, पुष्करमूल पद्म, कमल (Nymphoea welumbo.) (The root of potasis auricu- च० द० २० पि. चि० । -पु० (२) सारस Tata.)। (४) सारस पड़ी । (A stork.) | पक्षी । ( The Crane.) अ० । क०। (१) कपूर । (६) शंख । (७) | अम्भोरुहकेशरम् ambhoruha-keshuram चन्द्रमा -सं० क्ली० पद्मकेश । (Se-Padma.ke. वि० जल से उत्पन्न । sha1:.)च०६. र० पि. चि०। अम्भोजनालः ambhoja-nālah-सं० ५ अम्म अह् ainmaaah । -अ० शिथिल | विचार. निपद्मनाल, कमलनाल, कमलकी डण्डी। (Root | अम्मamuaa stock of nymphe lotus. )! बुद्धि, जो प्रत्येक के श्राधीन हो जाए। वै० निघ०। अम्मरस animarasa-हिं० संज्ञा पुं० [सं० अम्भोजनी ambhojani ) -सं० स्त्री० अमरसर ] अमृतसर का कबूतर । एक कबूतर अम्भोजिनी ambhojini () पद्म- जिसका सारा शरीर सफेद और कण्ठ काला लता, कमल का पौधा । कमलिनी। पद्मिनी । होता है। (२) कमलों का समूह । (३) वह स्थान श्रममा amma-हिं० स्त्री० माता, मा । (Moजहाँ पर बहुत से कमल हों। ther. ) अम्भोजा ambhoja-सं. स्त्री० यष्टिमधु वल्ली, अम्मी ani-यू., इं. मुलेश। ( Glycyrrhiza Glabra.)! अम्मी कॉप्टिकम् ॥mi copticum-ले. वै० निधः। अम्मी डी' इण्डो amid inde-sio अम्भोदः 5mbhodah-सं० पु. (१) अम्मी पप्यु सीलम ammi perpusillum, ! अंभोद anbhoda हिं०संशा पु. भद्र obtd.-ले.) मुस्ता, नागरमोथा। (Cypertus Roti. ! अजवाइन । (Carum copticuun, Beinndus.) रा०नि० २०६। च०६० यचम th.) फा० ई०२ भा०। -चि० एलादिमन्य । (२) प्रपौण्डरीक । अम्मुगीला ammughilaint-अ० कीकर, (Root stock of nymphea lot- मुगाला mughilan बबूल, बबूर । us.) १० मु०। (३) बादल | -क्ली० | Acacia Arabica, TV illd. (Babool (५) कांस्य, कासा । ( Bronze.) | trec ) स० फा० ई। मु. श्रा० । म. वि० जो पानी दे। अम्भोधरः ambhordhurah-सं० पु. (१) | अम्मेनिया सिनेगेलेंसिस ammania. senमुस्तक, मोथा । (Cyperlis Rotundus.) 1(Gyporus rotundus.) egelensis, hamb.-ले. दादमारी वर्ग । (२) मेघ (Cloud.) । (३) समुद्र । उत्पत्ति स्थान-पजाज के मैदान तथा (A sea.) शब्द० २०।। उत्तर--पश्चिम हिन्दुस्तान । अम्भोधिपल्लवः ambhodhi.pallavan ! उपयांग--फोस्काजनक प्रभाव हेतु । ६० अम्भोधिवल्लभः ambhodhi-vallabhah j! मे० प्लt० । -सं० पु. प्रवाल, मूंगा । ( Coral.) रा० अम्या aamya-अ. अंधो स्त्री। यह अमा नि० व०१३ ____ का स्त्री लिंग हैं। अम्भोमुक ambhomuk-सं०० प्रवाल,{ गा। अम्युल अलवान amyu)alvan-अ० रंगों (Coral.) का अंधापन । यह एक प्रकारका विकार है जिसमें For Private and Personal Use Only Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अम्यूल फारास अनाज रोगी 'गों का, विशेष कर जब कि उनको दूरी से अम्रा am-हि0पु0 श्राम्रानक, अम्बाड़ा । देखे तो, एक दूसरे में भेद नहीं कर सकता । । (llog phum). क्रोमैटाप्सिया ( Chtomatopsin ), ' अम्राक anart-यू० मांस रस, शोरबा । (So. कलर टलाइण्डनेस : Colour Blintlness.) : 11p.)। अम्यूल फारास amyal u-iilas-n० रामनुलसी । अम्राज़ा amaz-अ० (ब. व०) मर्ज (ए. ((Ocimum gratissifilm. ) व०) भारदशी, दु:ख, दर्द, बीमारियों । रोग, अम्यूस myusa-J० अजवाइन, नान्वाह । | व्याधि, विकार-हि । डिज़ीज़ (Disease) ( Cartim coptictil}. ) ___ -इं० । देखो-मज । अनः umrah-सं. (1) श्राभल, श्राम । | अम्राज़ शानिय्यह Tarasriyyah-अ० (Alangitera indica) रा० नि०। ये रोग जिनमें शीत के कारण मवाद बन्द होकर (२) माचिका, मोइ (हु)या । पुदिना-०।। ठिठर जाए। (३) अम्ल वेतस। (Run x vesicitrins)| अनाज अमि.ल यह Miz-asliyah- ) रा०नि० । अम्राज़ जातियह mar-zatiyah अनम् amram-सं० की० ग्राम का फन्न । ० असली बीमारियाँ. जाती बीमारिया, वे Mangifera indica (The fruit of-) रोग जो म्वतः उत्पन्न हो अर्थात् अन्य रोगों के नगंध हरिद्रा amragandha haritri श्राधीन न हो या उनकी उपस्थिति के कारण -सं॰ स्त्री० श्रामहरिद्रा, अम्बा हल्दी, श्राम न उत्पन्न हों। ईडिभोपैथिक डिज़ीज़ेज़ ( Idioहल्दी । अामहलुद-० । ( Currena pathic diseases )-ई. । reclinata ). अम्राज आरमह. mazaammah-० अम्रत amrata-अ० वह मनुप्य जिसके भव ध्यापक रोग, सार्यागिक रोग, वे रोग जो सम्पूर्ण (5) के रोम गिर गए हों। जिसकी डाढ़ी धनी ! शरीर में एक समान उत्पन्न हों, जैसे-ज्वर या न हो अर्थात छतरी डाढ़ी बाला । रक्ताल्पता अादि । जेनरल डिज़ीज़ेज़ ( (ieneअम्रत 3.1111 at-मल० गुडची, गुरुच, गिलोय ।। Diseases)-इं। (Tinospora cordifolia) 'अम्राज़ इन्दिलाल फर्द amaz-inhilāl-feard अम्रत anirat-हिं०पु. लाल सारी ग्राम, लाल -० देखो-अम्राज़ नफर्क ल इत्तलाल । अमरूद। (Psittin (imurt, vay. अम्राज़ श्रीइ यह, amaz-onlaiyah-श्र० P.) ई० मे मे। अम्रा ज तजावोफ़, वे रोग जिनमें शारीरिक स्रोत श्रमतवली amrata-Valli-ना गइन्चा, संकुचित अथवा विस्तृत हो जाते हैं। वैस्क्युलर गुरुच, गिलोय, अमृतवल्ली । ( Tinosp010 FiFi ST ( Vascular Diseases. ) cordifolia), अन्नद amrad-० श्मश्रहीन, डाढ़ी रहित, अनाज कल्व antar.ka--अ. हार्दिक रोग, जिसके अभी डाढ़ी मूंछ न निकले हो । वियर्डलेस हृद्रोग । हार्ट डिज़ीज़ ज़ ( Heart Dise. ( Boardless.)-इं० ass)-ई. अम्रदपरस्त amrail-parast-० लूती, | अम्राज कुलिथ्यह, amizkuiliyyah-अ बच्चा बाज़ । पेडीरेस्ट ( tackerest.) ई.।। कष्टसाध्य,दुःसाध्य । (Difficult to cure) अम्रवेतसः amil-ve tasah-सं० पु० अम्ल- अम्राज खनाज़ीरिय्यह. amriz-khanāziवेतस । (Rimex vesicuritus.) riyyah-अ. कण्ठमाला, गल गएड, गण्डअनसारः amra-saran सं०प०अम्लवेतस। माला । स्काफ्युलस डिज़ीज़ज़ (Serofulous (Runos vesicarius. ) to feel I Discases )-01 For Private and Personal Use Only Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रब्राज खार. लद्द www.kobatirth.org ५२६ अम्म्राज़ खास सह amraz khássab-०खास स्वास रोग, स्थानिक रोग, वे रोग जो खास खास अवयवों में ही उत्पन्न हुआ करते हैं, जैसे-वधिरता कान तथा अंधता आँख में ही उत्पन्न होती हैं । लोकल डिज़ीज़ेज़ ( Local Diseases. ) - इं० । अाज खिल्त amráz-khilqat - अ० वे रोग जिनमें विकृतावयव की रूपाकृति परिवर्तित हो जाए । नाज़ गैर मुसलमह, amráz-ghair-musallamah-अ० वे रोग जिनके उचित तथा उपयुक्त उपाय में कोई बात रोधक हो । नोट- यह शब्द अम्रा ज मुसलमहू का विषनार्थक है । अम्राज़ जुज्इव्यह amráz-juziyyah - श्र० सुखसाध्य, वे रोग जिनकी चिकित्सा श्रासान हो । (Easy to cure.) अम्राज़ ज़ुह रिय्यह amrázuhriyyah - अ० अम्राज्ञ जुह रह, जुह रह की बीमारियाँ | इसका संकेत उपदेश व सूज्ञाक की ओर है । काम व्याधि, जननेन्द्रिय सम्बन्धी रोग, गुप्तरोग | वेनरियल डिज़ीज़ेज़ ( Venerial Dise - ases )-z. 1 नोट- चूँकि प्राचीन यूनानियों का यह विश्वास था, कि जब सीतानी लोगों ने उनके ऊपर चढ़ाई की, तो उनकी मुहब्बत की देवी वीनस ( शुक्र ) यानी जुह रह ने उन श्राक्रमणकारियों में दण्ड स्वरूप उपदंश व सूज़ाक की व्याधि उत्पन्न करदी | इस कारण उक्त दोनों व्याधियाँ जुह रह के नाम से अभिहित हो गई । सूचना-विशेष विवरण हेतु देखो - उपदंश व सूज़ाक । अम्राज्ञ तजावीफ़ amráz tajávif-ऋ० वे रोग जिनमें तजावीक अर्थात् शारीरिक स्रोत अपनी प्राकृतिक अवस्था से छोटे, बड़े या अवरुद्ध हो जाएँ, जैसे-- श्रामाशय का सिकुड़ना या फैल जाना । अम्राज मजारी. साधारण बीमारियाँ जो प्रत्येक अवयव ( मिश्रित व श्रमिश्रित ) में उत्पन्न हो सकें, जैसे किसी अवयव में विच्छेद अर्थात् विश्लेष या पार्थक्य की उपस्थित हो जाना । विस्तार के लिए देखोतफ़र्रुक इतिसाल वा मर्ज तफ़र्रुक इतिसाल । अम्राज़ तर्कोंब amráz-tarkib - अ० देखोम त । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अम्राज़ तारिथ्य्यह amráz-táriyyah-o ये वस्तुतः छूतदार ( संक्रामक ) बीमारियाँ हैं, जो दो प्रकार की होती हैं - ( १ ) वह जो किसी एक कुटुम्ब या स्थान में सीमित हों, उनको अम्राज after और अंग्रेजी में एन्डेमिक डिज़ीज़ ( Endemic-diseases ) कहते हैं और ( २ ) वह जो किसी जाति अथवा स्थान में न हों, वरन् सामान्य तौर पर व्याप्त हो जाएँ, उनको अाज तब यह तथा अंग्रेज़ी में एषिडेमिक डिज़ीज़ेज़ ( Epidemic diseases) कहते हैं | अाज फलिय्य amráz-fasliyyaho वे व्याधियाँ जो किसी विशेष ऋतु या फ़सल में होती हैं, जैसे-मौसमी ज्वर । अम्राज बलदिय्यह amráz-baladiyyah -- अ० वह बीमारियाँ जिनका सम्बन्ध किसी विशेष स्थान या देश से हो । एन्डेमिक डिज़ीज़ेज़ ( Endemic Diseases ) - इं० । अम्राज़ बसतह amráz-basitah-अ देखो - अम्राज़ मुक्रिदह, । अाज तफ़र्रुक इत्तिसाल amráz-tafarruq-ittisál-अ० श्रश्रा इम्हिलालुल फ्रर्द । वह ६७ अम्रा बुह निय्यह् amráz-buhrani yyah - o वह बीमारियाँ जो बुहरान में इतिकाल म के तौर पर पैदा हों, जैसे-प्रांत्रिक ज्वर के पश्चात् फुप्फुस प्रदाह या वृकप्रदाह अथवा उन्माद प्रभृति का हो जाना । क्रिटिकल डिज़ीज़ेज़ ( Critical Diseases ) - इं० । अम्राज मजारी amráz-majári- अ० शारी रिक अर्थात् शरीर की रग एवं नालियों की बीमारियाँ, वह बीमारियाँ जिनमें शारीरिक प्रणालियाँ संकुचित अथवा प्रसारित या अवरुद्ध हो जाएँ । For Private and Personal Use Only Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अम्राज मादिग्र्यह, अनाज मुफरिदह श्रमांज मादिय्यह.amaz.imadiyyah-अ० द्वारा लगभग ६० रोग मुतऋष्टी (छूतदार ) वै रोग जो दोषाधिक्य अथवा उनके विकृत होने सिन्द हुए हैं । इन सबके लिए देखो-संक्रामक । के कारण उत्पन्न हो । अम्राज मुतगय्यरह amriz-imutaghayyaअनाज माविय्यहurav-mabiyyah-० rah- अ० वे रोग जो क्रमानुसार उत्पन्न हो वाई मज, महामारी | तथा धीरे धीरे बदलें। सम्राज़ मिकदार amriz-mighā1-० वह अनाज मुतवस्रुितह,imar-mutavas. रोग जिसमें विकारी अवयव के श्रायतनमें अन्तर sitah-० वे रोग जो हादह तथा मुजिमनह, श्रा जाए अर्थात् वह स्थूल या क्षीण हो जाए। । के मध्य हों और जिनकी अवधि २० से ४० रोज अनाज़ मिज़ाजिय्यह amaz-miz.ijiyyah | के भीतर हो। -अ० प्रकृति विकार जन्य रोग। अनाज मुसासह amrar-mukhtasan अनाज मुतवारिस.ह. amraz•mutivari. -म. वे रोग जो विशेष अवयवों से सम्बन्ध Sah- अ. पैतृक ग्याधियाँ, वे रोग जो पिता रखते हों। माता से सन्तति में हो, मौरूसी बीमारियाँ । समाज मुजिमनह amriz-muzaninah-० इन्हेरिटेड डिजीज़ेज़ (Inherited Dise ases )--इं०। जीर्ण या पुरासन (खिरकारी) रोग। पुरानी बीमारियों, मुभिमन बीमारियाँ । ऐसी व्याधियाँ जो ४० दिन नोट-कोई कोई इतिब्या (यूनानी चिकिअथवा इससे अधिक कालकी होगईहो । समय की स्सक ) इनकी संख्या ८ लिखते हैं । वे निम्न हैं, कोई सीमा नहीं, चाहे रोग सम्पूर्ण श्रायु भर रहे। यथा-(१) जज मि (कुष्ठ, कोद ), (२) क्रॉनिक डिज़ीज़ेज़ ( Chronic Diseases) बरस ( श्वित्र, श्वेत दाग़ ), (३)दिक ( जीर्ण ज्जर ), (४) सिल ( यक्ष्मा ), (५) माली अनाज़ मुतअद्दियह amtiz-mutaand. वीलिया (lelancholin), (६) diyah oअम्राज मुस्त्रिययह अनाज सारिय्यह। सुलह (गज, इन्द्रलुप्त), (.) निरिस छुतदार रोग, संक्रामक व्याधि, मुतअट्टी बीमारियाँ, (छोटी संधियों की वेदना), योर (5) मानिया वे रोग जी रोगीसे स्वस्थ व्यक्रिको लग जाएँ। इन्फे. (उन्माद भेद) | किन्तु किसी किसी हकीम ने इनकी क्शस डिजीजेज (Infectious Diseases), संख्या १७ पर्यन्त लिखी है अर्थात् पाठ उपरोक कारटेजिअस डिजीज़ज़ ( Contagions एवं ( ६ ) सर (अपस्मार), (१०) उन्नह , diseases)-इ०। (११) अरब (तर खुजली), (१२) जुदरी (शीतला, नोट- प्राचीन इतिब्बा ( यनानी चिकित्सक) चेचक), (१३) बस ( मुख दुर्गन्धि ), (१४) छः से लेकर दस रोग तक को मुल अही अर्थात् रमद ( नेत्र पाना या दुखना, नेवामिष्यन्द) छतदार ( संक्रामक ) जानते रहेहैं। उनका उल्लंग्य (१५) कुरूह, मुतअफ्रिकनह. (जिन्नता युक निम्न पक्रियों में किया गया है, यथा व्रण ), (१६ ) हस्त्रह, ( खसरा ) (१)जजाम ( कुष्ठ, कोढ़), (२) जर्व : और (१७) बा ( महामारी)। इनकं अति(तर कगडु या खुजली), (३) जुद्री (चेचक, रिक शेख ने वृक एवं वस्तिस्थ अश्मरियों को शीसला ), (४) ह.स्त्रह, (खसरा ), (५) भी पैतिक रोगों में समावेशित की है। अाधुनिक सिल व कुरूह अफिनह ( यक्ष्मा व सडौंधयुक्र चिकित्सक उपदंश व सूजाक को भी पैतृक रोगों अणे ) और (६) हुम्मा वबाइयह ( वयाई । की सूची में अंकित करते हैं। बुखार, महामारी का ज्वर ) जो सामान्य रूप से अम्राज़फरिदह, amraz-mufridah-अ. प्रसार पाते हैं एवं जिनमें प्लेग (ताऊन ) भी माधारण रोग, मिश्रित व्याधियाँ । ये रोग सम्मिलित है । किन्तु अर्वाचीन शोधों, गवेषणों जो कतिपय रोगों के योग द्वारा न उत्पन हो, For Private and Personal Use Only Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अम्राज मुग्कावर. नम्राज वाफिज़ा प्रत्युत स्वयं अकेले हो । सिम्पल डिजीजा अनाज व अअ राज मुन्जिरह, amraz•va (Simple Diseases )-10! aarar-muz.iran-अ० वे रोग व लसण प्रम्राज मुरकवह amaz-muratka bah जो किसी अन्य रोगका भय दिलाएं, उदाहरणतः -१० मुरकर बीमारियाँ। यौगिक वा मिश्रित स्थाई मूच्छों ताकालिक मत्यु का मुन्जिरह व्याधियाँ, इस प्रकार की न्याधियाँ कतिपय रोगों (पूर्वरूप ) होती है या काबेस जो अपस्मार व के योग द्वारा उत्पन्न होती हैं और इनका नाम | श्रद्धांग प्रभृति के उत्पन्न होने का भय दिलाता व चिकित्सा विशेष होती है। उदाहरणतः-शोथ प्रकृति विकार, संधि अम्राज़ वज़अ amaz-vazaa-० वे रोग जिन च्युति और म जत्तीव के पारस्परिक योग द्वारा ! में विकृतावनवकी स्थितिमें अन्तर उपस्थित होजाए. उत्पन्न होता और एक ही नाम (शोध ) से इसके २ भेद हैं-(१) मौजाई. ( स्थिति संबन्धी) पुकारा जाता है । विपरीत इसके यदि समन देह और (२) मुशारिकी (सहचारी, संबंधीय.)। . या किसी विशेष अवयव में कतिपय बीमारियों __पुनः मौ ज़ई. के चार रूप हैं-(१) किसी एकत्रित हो जाएँ, पर उनके समकाय का नाम व अवयव का निज स्थान से उखड़ जाना, (२) चिकित्सा विशेष न हो तो उन्हें मर्कामुरक्य अवयव का अपनी संधि में गति करना, (३) (मिश्रित रोग) नहीं कहते, प्रत्युत अम्राज स्थिर अवयव का गतिशील होना, जैसे-कम्पन मुजतमाह ( सामूहिक) नाम से अभिहित करते वायु ( रैशा ) में सिर हिलना, (४) गतिशील : हैं। जैसे-ज्वर, कास और जलोदर । अवयव का स्थिर होजाना, जैसे-ताज्जर कम्लिकेटेड डिजीज़न ( Complicated मुफ़ासिल ( संधि काठिन्य ) में संधियों का गति Diseases) इं। न कर सकना । मम्राज मुशारिकह. amraz-musharikah मुशारकी के दो रूप है-(.) एक मधपय -० वह रोग जो किसी अवयवके समीप अधया का अपने निकटस्थ अवयव से दूर हो जाना । दूर होने के लिहाज़ से उत्पन्न हो। उदाहरण स्वरूप-एक अंगुली का टेढ़ा होकर उदाहरणत:---एक अंगुली का अपनी दूसरी अंगुली से न मिल सकना या कठिनतानिकटस्थ दूसरी अंगुली से कठिनतापूर्वक मिलना पूर्वक मिलना और ( २) एक अवयव का या न मिल सकना । देखो-अम्राज़ व जथ। दूसरे अवयव से जुड़ जाना या मिलजाना । अम्राज़ मुश्तर्कह amar-mushtarkah उदाहरणतः-दो अंगुलियों का जुर जाना या -० अम्रा ज़ आम्मह, वह रोग जो साधारण म.ज़ शिनांक में नेत्र का कठिनाई से खुलना । एवं मिश्रित प्रत्येक अवयव में उत्पन्न हो। भम्राज़ वबाइय्यह, amaz-vabaiyyah अम्राज मुसल्लमह. Amriz-musallamah -अ० महामारी, वनाई बीमारियों, वे रोग -प्र० अम्राज सलीमह, वे रोग जिनके उचित जिनमें एक ही काल में बहुत से मनुष्य तथा उपयुक्त उपाय में कोई बात अवरोधक न रोगाक्रान्त हो जाएँ, जैसे-प्लेग, विसूचिका प्रभृति । एपिडेमिक डिज़ीज़ीज़ ( Epidemic अम्राज़ मुस्तअसियह. amraz-mustaasi. diseases) vah-श्र० असाध्य रोग। इन्श्योरेबल डिजी- अम्राज वाफिजह. amaz-vafizah-अ. जेज़ ( Incurable Diseases ) ई०।। वे छूतदार ( संक्रामक ) रोग जो किसी विशेष अनाज़ मुस्मिथ्यह amriz-musriyyah | स्थान या जाति से संबंध न रखते हों । देखो___ -अ० देखो अम्राज़ मुतअहियह । अम्राज तारियह । अनाज़ मूमनह. amraz-mumanah-१०। एन्डेमिक डिज़ीज़ेज़ ( Endemic Disके रोग जो अन्य रोगों से देलाएँ। eases) इं। For Private and Personal Use Only Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अम्राज शक्लिय्यह ५३२ अन्नातकः अम्राज शक्किय्यह amraz-shakliyyah-अ. के रूप में परिणत हो जाता है। ये रोग चार प्रकार वे व्याधियाँ जिनमें विकृतावयव का प्राकृतिक के होते हैं, यथा--(१) हाद कामिल या हाह स्वरूप परिवर्तित हो जाए, जैसे - इस्तिस्काउर्रास फ़िलगायत अर्थात् अत्यन्त उग्र व्याधि जिसकी (मास्तिष्कीय जलन्धर अर्थात् जल संचय वा | अवधि अधिकसे अधिक चौथे दिन तक होती है। शोथ) में सिरका चिपटा हो जाना या पृष्ठ श्रादि (२) हा मुस्वस्सित या हाद दुनुलगायत, वह में कूबड़ निकल पाना । उग्र व्याधि जिसकी अवधि सातवें दिन तक होती अाम्राज शिय्यिह aansaz.shirkiyyah है। (३) हा मुतलक वह तीब व्याधि जिसकी -अ० वे व्याधियाँ जो अन्य रोगो के सहयोग अवधि चौदहवें से बीसवें दिन तक होती है। द्वारा उत्पन्न हो । सहचारी रोग। (४) हा मुन्तकिल या हा मुजमिन, वह अम्राज सफायह था जाsamiaz-safayah. उग्र व्याधि जिसकी अवधि इक्कीसवें दिवस से , aazaa-० वे रोग जिनमें अवयवों के धरा. उन्तालीसवें दिवस पर्यन्त होती है | अम्रा जहाई तल की प्राकृतिक दशा बदल जाए। उदाहः ( उग्र व्याधियों ) के मुकाबिले में अम्रा ज़ रणत:---जो धरातल प्राकृतिक एवं स्वाभाविक मुमिनह (पुरातन व्याधियाँ) हैं, जिनकी रूप से चिकना था वह खुरदरी हो जाए और जो अवधि चालीस दिवस अथवा इससे अधिक होती प्राकृतिक तौर पर खुरदरा था वह चिकना हो है। एक्यूट डिज़ीज़ेज़ (Acute disea. "आप, जैसे-आमाशय के भीतरी धरातल का ses.)-ई०। चिकना हो जाना या फुप्फुस के चिकने धरातल नोट-(1)मज हाद कामिल व हाद मुत्वस्सित · का खुरदरा हो जाना। व हाद मुन्लक को डॉक्टरी में एक्यूट डिज़ीज़ अम्राज सलीमह amrar-salimah-अ० सुख- (Acute diseases.) और हाद्द मुमिन साध्य रोग जिनमें कोई बात उचित उपचार की को सब एक्यूट (Sub acute.) और मर्ज विरोधी न हो। मुष्मिन को क्रॉनिक डिजीज़ेज़ (Chronic अम्राज साज़िजह, amrav.saxijah-अ० diseases.) कहते हैं। साधारण रोग जो किसी दोपके कुपित होने से न (२) डॉक्टरी में हाइ मुजिमन रोगों के लिए हो। अवधि की कोई सीमा नहीं, प्रन्युत रोगके लक्षणों अनाज सारियह amaz-siriyyuh-० की उग्रता व सूक्ष्मता से ही उनको हाह व देखो-अम्राज़ मुतअद्दियह । (Infectious मुस्मिन कहा जाता है। देखो-मज हाहब Diseases. ) मज़ मुजिमन । अम्राज़ सूउत्तीव amraz-suuttarkib-अ० वे साधारण रोग जो प्रथम मिश्रितावों में | अम्राज हाहह. जद्दन umriz-haddahउत्पन्न हों, जैसे - संधिभ्रंश । jaddan-अ० अत्यन्त उग्र व्याधि । देखो-- अम्राज सूय मिज़ाज amraz-sāya-mizaj अम्राज हाहह । -अ० वह साधारण रोग जो प्रथम साधारण | अम्राज़ हादतुल् मुजिमनातamaz-haddaअवयों में उत्पन्न हों, जैसे-वाततन्तु का उष्ण tul-muzmminat-अ० वे उग्र व्याधियाँ या शीतल होजामा । देखो-मज सूपमिज़ाज। जिनकी अवधि २१ दिन से ३६ दिन तक हुआ अम्राज़ हाहह, amraz-haddah-१० (उप्र) करती है। देखो-अम्र ज हादह, म्याधियों, कठिन रोग, वे तीक्ष्ण व्याधियाँ जिन- अम्रातः,-क:amrata h,kab-सं०० अम्बाड़ा। की अवधि थोड़ी होती है अर्थात् ४.दिवसके भीतर Hogplum (Spondias mangiभीतर था तो रोग दूर हो जाता है अथवा रोगी fera.) श. मा० । त्रिका० । देखोको मृत्यु हो जाती है या रोग चिरकारी (पुरातन) प्रान्नातकः । For Private and Personal Use Only Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रन्त्रालकः ५३३ अम्लका अम्रालकः ammilaka.h-सं० प. अम्बाड़ा, इसकं अधिक सेवन से भ्रान्ति, कुष्ठ, कफ, पाण्डु, अमड़ा, शाम्रातक। (pondits maingi- कृशता और कार उत्पन्न होता है। रा०नि० fem.) व० १२। पाचन, रुचिकारक, पित्तजनक, कफ अम्रवत्तः 1mrivuttith-सं०० अमावट, उनका कर्ता, रकवक, लघु, लेखन, उपशवीर्य, in ('i'be inspisatud juicu सश में शीतल, संकायक, बदकास्क, बातof the mango.) फ.०६०। नाशक, स्निग्ध, तीक्ष्ण, सारक तथा शुक्र, विवंधअम्रिय्यान mriyyāt - अ. शानाह तथा स्टिगाशक और हर्षकारक है । इह शाउल बत्न (insthitil.iyat.n-० छातिसेवन-पं भ, नणा, दाह, तिमिर, शोथ, उदरीयावयव, जैसे-प्रकृत, प्रामाशय तथा प्रांत्र विस्फोटक, कर, पार उत्पन्नकर्ता खच्य धीर S I ( Allomiral Viscerat. ) ज्वरनाशक है। भा० पू० १ ० । लघु, पाचक, अम्रवह amthe hah-फा० अनुकक, अश्वाञ्चक पित्त, कफ, छर्दि, कैद, उ तथा वातनाशक ( l’yrus Commis, Lim. ) 1 77 है। राज. । अबुद्र का अल्पार्थक प्रयोग है । देखो-अञ्जकका : वि० इसका शाब्दिक अर्थ खट्टा है । फा० ० १ भा० । हामिज़, हरज, हिम्ज... | तुर्श--फा० । अम्रन amruth-ह०प०अमरूद । A guavali अम्बन-बं। साधर (Sm), एसिड (Acid) (Psydium Pyrifem.) -इं०। किन्तु अर्वाचीन परिभाषा में तेजाब अनेर amrer-झलम, पं० ( Dobrogeasit | अर्थात एसिड (Acid) द्रव या श्रद्ध _Bicolor.) मेमो० । के लिए व्यवहार में शाता है । देखी--एसिड। अनोद amroda-हि. प. पथरचूर । पापाण भेदी-सं० | पथरकुची-पं० । पान-गोवा-म० । श्रलम् amlunn-सं० क्लो० (१) अम्लवेतस फल । (२) कांजी। (३) घोल । रा०नि०। (Colcus Aromaticus.) (४) बदरफन्न | सिक० अरोचक चि। अनाला amroJi-हि० चूका बा चांगेरी, श्राम- | (५) वर्वर चन्दन । रा०नि० २० १२ । ali ( Runex Acutosa. ) अम्लकः amlakah-सं० पु०, हिं० संज्ञा पु. Asia F1 97 amrolá-ká-satta , बड़हर ! लकुच वृत्त । (Artocial plus Litअम्रोला सत्य amroli satva । koocha ) -हिं० पु काष्टाम्ल, चूका का सत, चुक्र सत्त्व, चुक्राम्ल 1 Oxalic Acid ( Acidum अम्ल-कन्द: amla-kandan-सं० पु. एक Oxalieum.) देखो-चुक। जंगली बूटी की जड़ है, जिसके पत्ते पान के समान और पुप्प सफेद तथा फल लाल मिर्च के अम्लः amah-सं० पु., हिं० संज्ञा पु तुल्य लम्चे और बीज नीबू के बीज के सरश जिला से अनुभूत होने वाले छः रसों में से | होते है। एक । खटाई । जैसे-जम्बीर मातुलुङ्ग नथा | निम्बुक प्रभति । अम्ल-करवः amla-karan jah-सं० प. गुण-लघु, उष्ण, रुचिकर, दीपन, हृदय करजभेद । टक् करना-पं०इसका फलको नर्पण करता, वातानुलोमक, रलकारी, कण्ठ तृष्णानाशक, गुरु, रुचिकारक और पित्तकारक है। में दाह उत्पन्न करता है। रा.नि.व.२० राज.। ( A kind of karanja) इसका विपाक अम्ल तथा गुण में पित्तकारक अम्लका amlaka-सं० स्त्री०(१)पालंकशाक और वात कफ के रोग को दूर करने वाला है। प० मु० । (२) पलाशीलता। रा० निक सु० सू०। प्रीतिकारक, पाचन, प्रार्द्रताकारक, । व०४। For Private and Personal Use Only Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अम्लका www.kobatirth.org अलका amlka-io ( Vitis Indica.) अम्बुका अचुक । अम्ल-काञ्जिकम् amla kanjikam-सं०ली० (Sour gruel) काजिक, कांजी । च० द० ग्रहणी-चि० महावटूपल घृत | See-Kanji अम्ल-काण्डः amla-kándah - सं० पु० सफेद लहसुन, शुक्र रसोन । ( White garlic. ) वै० निघ० । क्लो० ( २ ) लोगी, लवण तृण । लोणा घास- बं० | रा०नि० ० ८ । अम्लकादि च amlakali chürn:--सं० ! की० चतुराल १ प्रस्थ, त्रिकुटा ३ पल, लवण ४ पल, चीनी पल इनका चूर्ण दाल और अनादि में डालकर सेवन करने से खाँसी, अजीर्ण अरुचि, श्वास, हृदरोग, पांडु और गुल्म का नाश होता है । च० सं० । अम्ल-कुचाई amla-kuchai - बं०, हिं० स्त्री० ( १ ) एक भारतीय जंगली कण्टकयुक्र वृक्ष जिसके पत्ते श्रमली के पत्तों के समान, किन्तु उससे छोटे होते हैं । ( २ ) चुक | अम्ल-कुचि amla-kuchi-o पथरचूर, पाषाणभेदी, श्रश्मन्तक, हिमसागर । (Coleus Aromaticus. ) ई० मे० मे० । काम्ल कृत्रिः amla-kuchih - सं० पु० वृक्ष विशेष | ( A tree. ) अम्ल- केशरः amla- kesharah सं० पु ं० ( १ ) बिजौरा नीबू, मातुलुङ्ग । ( Citrus medica. ) पर मु० । ( २ ) दाड़िम्त्र वृत्त, अनार । ५३४ अम्ल केशरी amla-keshari - सं० पु० अम्लरस निम्बुक वृक्ष | गोंड़ा नीबू, गोड़ा लेवू बं० । वै० नि० । अम्लकेाशः ( शाक: ) amla-koshah, sha kah - सं० पु० तिन्तिड़ी वृक्ष । अस्तिका, (इ) मली (Tamarindus Indicus.) मद० ० ६ | अम्ल गोरस: amla gorasah -सं० पु० माठा, तक्र, धोल | अम्ल तक्र, खट्टी छाछ । टक् घोल - बं० । बटरमिल्क ( Bnttermilk. ) - ई० । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अम्लटकः अम्ल चाङ्गेरी amla-changeri-सं० स्त्री" ( १ ) चांगेरी भेद । टक् श्रामरुन बं० । च० त्रि० ३ ० गु० तैल । (२) - हिं० स्त्री० नमें इसे चौंगर कहते हैं । एक भारतीय वृष काफल है, जो ग्रम्ल स्वादयुक तथा मकोयके दाने के बराबर होता है। लु० क० । अल चुक्रिका amla-chukrika-सं० श्री० चिञ्चाम्ल, विश्चासार, प्रजोसार । तेंतुलेर अम्बल - बं० रा० नि० ० ११ | See-chinchásárah. अम्ल न्यूडः amla chunah - सं० पुं० ( १ ) शांकाम्ल, वृज्ञास्त्र । (२) त्रिञ्चासार । तेंतुलेर अम्बल बं० । श्रग्ली के रस से प्रस्तुत किया हुआ एक प्रसिद्ध गाढ़ा पदार्थ है । रा० नि० ० ११ । (३) अम्लशाक | चुक पालक । रा० नि० । अम्लच्छा amlachchhdá-सं०पु० भोजपत्र वृक्ष । See - Bhojapatra. श्रम्लज amlaj-० ( १ ) झामला । ( Phyllanthus emblica ) अभ्लज ãamlaj - श्र० खन्बभेद | Seekharnub. अम्लजन aalajana - हिं० पुं० श्रोषजन, अमजन | ( Oxygen. ) For Private and Personal Use Only amlajani-karana - हिंο अम्लजन मिश्रण amlajana mishrana - हि० ० श्रीषजन मिश्रण | (Oxygen mixture. ) अम्लजनीकरण ० श्रोषजनीकरण । पु ं० ( Oxidation. ) अम्लजम्बीरः amla-jambirah सं० पुं० ( Citrus medica ) खट्टा नीबू, अम्लरस निम्बुक वृक्ष । टक्लेवू गाछ - बं० । इनिम्बू - मह० । रा०नि०व० ११ । देखो - निम्बुकः । अम्लजिद amlajida - हिं० पुं० श्रषिद, ऊष्मद। ( Oxide . ) अम्लटकः amla-takah - सं० पु० अश्मन्तक वृक्ष । अम्ल कुचाई - बं० हिं० | See-ashm. antakah, Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अम्लत ५३५ अम्लपत्री अम्लत amlat-१० वह मनुष्य जिसके शिर चूका, विषाबिल, और अम्लवेत इन्हें अम्ल तथा दादी के अतिरिक्र और कहीं बाल न हों। । पञ्चक कहते हैं । गुण-गे खट्टे रुचिकारी कफ अम्लता anilata-हिं० स्त्री० अम्लस्त्र, खट्टापन । और खासी को उत्पन्न करने वाले, कड़वे और हुम् अत-अ०। तुर्शी-फा० । ( Acidity, जड़ताकारक हैं, तथा विष्टम्भ, शून्न, वात, शुक्र, Sourness). गुल्म और बवासीर को दूर करते हैं। अम्लजनक amla-jallab है. पुं०(Antacid) (२) पलाम्लपञ्चकम्, विजौरा नी, जम्भीरी श्लेष्मजनक । नीबू, नारङ्गी, अम्लवेत और इमली ये दूसरे पलाअम्लतूत amla-truta-सं० पु. खट्टानून । ' म्ल पञ्चक है । गुण-गाफकारक मदजनक तथा Soc-túta विष्टंभ, शूल, गुल्म, बवासीर, शुक्र और वात. अम्लतृणः anla-trinah-सं० पु. लवण तृण । नाशक है । रा० नि. ध० २१ । देखोलोणी। पञ्चाम्ल (फन)म् । अम्लत्वक् amla-tvalk-सं० पु. चार वृक्ष । अम्ल पञ्च फलम् enla-panchi-phalam नियाल । पियाल या चिरौंजी का पेड़ । चारोली --सं० क्लो० देखो--प्रम्लपञ्चकम् । -HEO( Buchananiit latifolia, chironjia sa pida. ) । अम्लपत्रः amlapatrah--सं० पु. (१) अम्लदोलकः amardolakah-सं०० चुक। । दराडालु (क)। वाम पालु-बं० । वै० निघ० । चुकापालङ्-बं० । अम्बोटी(ती)-म० । वे० . See-Dandaluh. (२) अश्मन्तक वृक्ष । नि01 See--chukra (30-Ashimantak) रा०नि० ब० अम्लद्रवः amladiravah..सं० पु. बीजपूर ६। (३) क्षुद्रपत्र तुलसी वृक्ष । र० मा । रस । भा० म०१ मा जिह्मक ज्वत्रिक अम्ल पत्रmla-patra.m--सं० ली चुक "अम्लद्रवः संशमयेद्रसज्ञां।" शाक, चूका 1(Rimex Selltatus) रा. अम्लदधिः amatladijilh-सं०० खट्टा दही। नि०प०७1 लक्षण--जिस दही में से मित्रस जाता रहा हो ' अम्लत्रका amla-patrakah--सं०५०(१) और खट्टा तथा अव्या रसयुक्त हा गया हो उसे भेण्डा, मिरडी ( Hibiscus Esculentअम्ल दधि कहते हैं । गुग्ग---यह अग्नि प्रदीपक ।।s)। (२) अश्मन्तक वृत-सं० । आम्ल कुचाई, पित्तवर्द्धक, रकबद्धक तथा कफबद्धक है बाबुटा-बं । (Colens ATomaticus ) नि००। रा०नि० व०६। मद० च०१। अम्लअम्ल-द्रव्यम् aimladityan -सं० लोणिका चका। ग्रामरूल-बं०। (Runex अम्ल-नायकम् amla-nayakalजी० Sentatus.) आ० पू०१ च० । अम्ल वेतन । थैकल-बं० । रा०नि०व०६। श्राम्लपत्राamlapatri--सं० प्राम्ल वेतप-महSeritmlavetasah- . ० शुक्राला । श्रोकड़ा--पं० । See-shukuli | प० अम्लनिम्बुक: mla-nimbukah-सं० प. महाम्ल निम्बुक ! गोड़ा लेब-चं. मी इरनिम्ब -मह । वै० निघ०। अम्ल पत्रिका amla-patrika-सं० स्त्री० आम्लनिशा amla-mishi सं० स्त्री० शटी, : चांगेरी, चूका । णुनी, प्राबेता-हिं० । क्षुदे शुनी. कचूर । शटी-बं०। ( Curculazedo. बं०] (Rumex Setutatis.) रा.निक aria) रा० नि। मम्लपञ्चकम् amla-panchaam-सं० क्ली| अम्जपत्री amla-patri--सं० स्त्री० (१) (.) मुख्य पाँच प्रकार के खट्टे फल बेर, श्रनार पलाशी लता | See-Palashi । रा०नि० For Private and Personal Use Only Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अस्लपनसः अम्लपित्त (अम्लपाक) हुआ और पहिले बर्षाऋतुमें जल तथा औषधों में स्थित विदाह श्रादि कारणों से जो पित्त सञ्चित हुश्रा है, उसके दूषित होने को अम्लपित्त कहते हैं। य. ४। (२) चांगेरी, चूका । ( Rumexi Seutatus ) रा. नि० ५० ५। (३) चूदारिलका-सं। खुदे गुनी-बं० । अम्लपनसः ana-p:11hasah--सं० पु . लि कुन वृन, बड़हर । डेलो, मान्दार गाछ-६०। श्रोटीचे माइ-म० । वै. निय० । (Artocay : pus Lakoocha.) अम्ल पणिका amla-pa.nika अम्लपण amlapuuni स्त्री० वृक्ष विशेष । सुरपर्णी | भा० । गुणअम्लपर्णी वात, कफ तथा शूल विनाशिनी है । ० निघ० 18.U-Slaparni. अम्ल पादपः amla-pala.pah-सं० पु. : वृताम्ल, अमली । तेतुल गाछ-बं०। कोयंबी. -म० । वै० निघ० । अम्लपित्तम् amla-pittan-सं० क्ली० अम्लपित्त min-pittin--हिं० संज्ञा पु. . (Ilypor-accility), सावर बाइल (Sou]. . bile)-- इ. । हुम्त - अ० रोग विशेष। इसमें जो कुछ भोजन किया जाता है, जब पित्त के दोष से खट्टा हो जाता है। निदान पूर्व सञ्चित पित्त, पित्तकर याहार बिहार से जलकर अम्लपित्त रोग पैदाकरता है। पिन विव. ग्ध होने पर भीजन अच्छी तरह पचना नहीं हैं, जो : पचता है वह भी अम्ल रस में परिगान हो जाता है, इसी से अम्ल श्रास्ताद होता है और खट्टी डकार श्रादि उपद्र उपस्थित होते हैं। अजीर्ण होने पर भोजन, गुरु पदार्थ और दरसे पचने वाली वस्तुयी । का भोजन, प्राधिक खट्टे और भुने व्यों का खाना इत्यादि कारणों से अम्लपित्त रोग उत्पन्न होता है । कहा भी है-- विरुद्ध दुष्टाम्ल विदाहि पित्तप्रकोपि पानान्नभुजो । विदग्धम् । पित्तं स्वहेतूपचतं पुरा यत्तदम्लपित्तं ! प्रवदन्ति सन्तः ॥ (मा० नि०) अर्थ-विरुद्ध (तीर, मत्स्यादि), दुष्ट(बासीअन्न), खट्टा विदाहि तथा पित्त को प्रकुपित करने वाले अन्नपान ( तकसुरादि ) के सेवन से विदग्ध लक्षण श्राहार का न पचना, क्रांति (थकावट वा अमित होना), वमन ग्राना या जी मिचलाना, निक्र तथा खट्टी डकार श्राना, देह भारी रहना, हदय और कंठ में दाह होना और अरुचि धादि लक्षण अम्लपित्त के वैद्यों ने कहे हैं । ऊ तथा अधः भेद से यह दो प्रकार का कहा गया है। ऊर्द्धगत अम्लपित्त के लक्षण उद्धगत अम्लपित्त में हरे, पीले, नीले काले. किंचित लाल, अतिपिच्छिल, निर्मल, अत्यंतखट्टे, मांग के धोवन के जल के समान कफयुक्र लवण, कटु, तिक इत्यादि अनेक रसयुक्र विच वमन के द्वारा गिरते हैं। कभी भोजन के विदग्ध होनेपर अथवा भोजन के न करने पर निम्ब के समान का वमन होता है और ऐसी ही उकार पाती ह, गला हदय तथा कोख में दाह और मस्तक में पीड़ा होती है। कफ पित्त से उत्पन्न अम्लपित्त में हाथ पैरों में दाह होता है शरीर में उप्णता अन्न में अरुचि, ज्वर, खुजली और देह में चकत्तों तथा सैकड़ों फुन्सियों और अन्न न पचने आदि अनेक रोगों के समूह से युक्र होता है। अधोगन अम्लपित्त के लक्षण प्यास, दाह मुर्छा भ्रम, मोह (विपरीत ज्ञान) इन्द्रियों कामोह)इनको करनेवाला पित्त कभी नाना प्रकार का होके गुदा के द्वारा निकलता है और हल्लास (जी का मचलाना), कोठ होना, अग्नि का मन्द होना, हर्ष,स्वेद अंग का पीत वर्ण होना श्रादि लक्षणों से जो युक्र होता है उसको अधो. गत अम्लपित्त कहते हैं। दोष संसर्ग से अम्लपित्त के लक्षण वात युक, वात कफ युक्र और कफ युक्त ये दोपानुसार, अम्लपित्त के लक्षण बुद्धिमान वैद्यों ने कहे हैं। कारण यह है कि उद्घ गत में वमन For Private and Personal Use Only Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अम्लपित्त और अधोगत में अतिसार के लक्षण से इसके भेदों का निर्णय करना कठिन है । अस्तु, वैद्य को विचारपूर्वक इस रोग की परीक्षा करनी चाहिए । नीचे इनमें से प्रत्येक का पृथक् पृथक् वर्णन किया जाता है- ५३७ वात प्रकोप जनित अम्लपित्त में कम्प, प्रलाप मूर्च्छा, चिउँटी काटने की सी चिमचिमाहट ( निमिनाहट ), शरीरकी शिथिलता और शूल, श्रम्बों के आगे अँधेरा, भ्रान्ति, इन्द्रिय तथा मन का मोह और हर्ष (रोमा ) ये लचया होते हैं। t कफ युक्र अम्लपित्त में कफ का थूकना, शरीर का भारी रहना और जड़ता, अरुचि, शीतलता, साद ( अंग की ग्लानि, अवसान', वमन, मुख का कफ से लिप्त रहना, मन्दाग्नि, बल्ल का नाश, खुजली और निद्रा ये लक्षण होते हैं बात कफ युक्र अम्लपित्त में ऊपर कहे हुए दोनों के चिह्न होते हैं । कफ पित्त के अम्लपित्त में ये लक्षण होते (---भ्रम ( तम ), मूर्च्छा, श्ररुचि, वमन, श्राल स्य, शिर में पीड़ा, मुख से पानी का गिरना ( प्रसेक ) और मुख का मीठा रहना । अम्लपित्त की साध्यासाध्यता अम्लपित्त रोग नया होने पर तो साध्य होता है, पर बहुत दिन का अर्थात् पुरातन याप्य ( चिकित्सा करने पर अच्छा हो जाता है, परन्तु जब चिकित्सा करना बन्द कर दिया जाता हैं तब उसका पुनरावर्तन होता हैं। ) और श्रहित श्राहार तथा हित प्रचार वाले पुरुष का अम्लपित्त कष्टसाध्य होता है | इस रोग के एक बार उत्पन्न होने पर फिर इसका दूर होना बहुत कठिन है । अतएव रोग के उत्पन्न होते ही चिकित्सा करना उचित है । श्रन्यथा रोग पुराना होकर पुनः प्रायः छूटता नहीं | चिकित्सा अम्लपित्त में पटोल, अरिष्ट ( रीठा ), अडूसा, मैनफल, मधु तथा लवण ( सैंधव ) प्रभृति द्वारा ६८ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अम्लपित्त मन कराएँ और निशोथ के चूर्ण को श्रमले के रस और शहद में मिलाकर विरेचन दें । ऊर्ध्वअम्लपित को वमन द्वारा और अधोगत को रेचन द्वारा शमन करें । यथा अम्लपितु वमनं पटोलारिष्ट वासकैः । कारयेत् भवनैः क्षोत्रैः सैन्धवैश्व तथा भिषक् ॥ विरेचनं त्रिवृचर्णं मधुधात्री फलद्रवैः । ऊर्ध्वगं वमनैर्विद्वानधोगं रेवनैईरेत् ॥ भा० म० खं० । सा अस्तु, वमन हेतु जल में सेंधानमक ( जरा डालकर एक पाव या आधलेर की मात्रा में गरम करके पीने के बाद गले में उंगली डालने से वमन होगा। इससे ऊर्ध्वगामी अम्लपित्त बहुत कुछ अच्छा होजाता है । अधोगामी अम्ल पित्त में सप्ताह में एक दिन वा दो दिन चौकी भर " श्रविपत्तिकर चूर्ण" चौअनी भर चीनी के साथ विरेचन के लिए सेवन करना चाहिए । अविपत्तिकर चूर्ण इस रोग की एक उत्तम औषध है । जिस दिन इसका सेवन करे उस दिन अन्य श्रीषध सेवन नहीं करनी चाहिए, स्नानआहार भी निषिद्ध हैं । शाम को साबूदाना वा बारली का सेवन करें । तीक्ष्ण संस्कार वर्जित जौ या गेहूं की बनी चीजें, लाजयुक ( लावा या धान की खील का सत्तू ) शर्करा वा मधु में मिलाकर पिलाने वा भूसी से साफ किए हुए जौ, गेहूँ तथा श्रामला द्वारा पकाया हुआ जल, दालचीनी, इलायची और तेजपत्र के चूर्ण मिलाकर पिलाने से अम्लपिस जन्य वमन तत्काल दूर होता है। अम्लपित्तहर श्रौषधें ( श्रमिश्रित श्र 1 अडूसा, पर्पटक ( पिचपापड़ा ), कुलत्थी, पाठा, थव, चन्दन, धान्य धमला ( रस ), नागकेशर, जीरा, करञ्ज, जम्बीर, पाटला, कदली ( फल ), ( Pyrosis ) पीतशाल, सोडियम के लवण और योग, गंधक और उसके योग, प्रातः काल त्रिफला या हरीतकी के शीत कपायों का रेचन तथा अन्य तिनं पिशहर द्रव्य जैसे गुडूची, For Private and Personal Use Only Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir · अम्लपिसहर ५३० अम्लपित्तान्तक लौहः पटोलपत्र, किराततिका (चिरायता), कटुकी, तथा हृदय, पार्श्व, एवं धस्तिथूलको नष्ट करता और धान्यक, द्राक्षा, मधुयष्टी के कषाय या योग, विशेष कर अम्लपित्त, मूत्रकृच्छ, ज्वर और भ्रम कूष्माण्ड, आमलकी, मण्डुर, लोह भस्म और का नाशक है । वै० क००। अभ्रक आदि के योग एवं भोजन के दो तीन घंटे | अम्लपित्तान्तक मादक: amlapittāntak. बाद चार शीतल जल से दिए जाते हैं। modakah-सं० पु. सोंठ, पीपरौर सुपारी मिश्रित औषधे बत्तीस बत्तीस तोले लें । इन्हें चूर्ण कर एक में अविपत्तिकर चूर्ण, पञ्च निम्बादिचूर्ण, पिप्पली. मिलाकर इसमें धृत ६४ तो०, गोदुग्ध ६४ तो०, खंड, वृहत् पिप्पली खंड, शुण्ठि खंड, सौभाग्य मिलाकर पकाएँ । पुनः लवंग, नागकेशर, कूट, शुण्ठि मोदक, खंड कुम्मांड अवलेह, अभयादि अजवारन, मेथी, वच, चन्दन, मुलहठी, रास्ना, अवलेह, अम्ल पित्तान्तक मोदक वा सुधा, देवदारु, हड़, बहेड़ा, प्रामला, तेजपात, इलायची त्रिफला मण्डूर, सित मण्ड्र, पानीय भन वटी, दाल चीनी, सेंधा नमक, हाऊबेर, कचूर, मयनचुधावती गुड़िका, वृहत् शुधावती गुड़िका, पश्चा. फल, कायफल, जटामांसी तथा अभ्रक, वंग, और नन गुड़िका, भास्करामृताभ्र, अम्ल पित्तान्तकलौह, चाँदी की भस्म तालीसपत्र, पाकाष्ठ, मूर्वा, सर्वतोभद्र लोह, लीलाविलास रस, दसांग, मजीठ, वंसलोचन, पीपलामूल, सौंफ, पिप्पली घृत, पटोल शुण्ठि घृत, शतावरि घृत, शतावर, कुरण्टा, जायफल, जावित्री, शीतलचीनी, नारायण घृत, दापर्याय घृत, जीरका घृत, श्री पीपर, नागरमोथा, कपूर, वायविडंग, प्रजमोद, विश्व तैल, नारिकेल खंड, वृहमारिकेल खंड, खिरेटी, गुरुच, केवाछ के बीज, सालमखामा, वृहत् अग्निकुमार रस, भास्कर लवमा, शुरठी चन्दन, देवताड़, चतुर्धातु विधि से मारे हुए, खंड, और अम्ल पित्तारि चूर्ण। लोहा और कॉसा की भस्में प्रत्येक एक एक तो० स्वर्या की मस्म ६ मासे, इन सबको एकत्र पथ्यादि-अम्लपित्त और शूल रोग से पीड़ित व्यक्रि को जीवन भर अाहार सुख से मिलाकर तैयार करें। वञ्चित रहना पड़ता है । उनको कडुए पदार्थों को __ गुण--यह छर्दि, मूर्छा, दाह, खाँसी, श्वास छोड़ अन्य कोई द्रव्य हितकर नहीं । दूध, अधिक भ्रम, वातज, पित्तज, कफज, और सन्निपातज भ्रम, नमक, स्वष्टा, भूना और पीसा हुश्रा द्रव्य और २० प्रमेह, सूतिका रोग, शूल, मन्दाग्नि, मूत्रमद्य सर्वदा निषिद्ध है। कृच्छ, गलग्रह और प्रत्येक रोगों को दूर करता WATT ET amula pitti-hara-fogo है । भैष० अम्लपित्त० चि० । __ अम्लपित्तनाशक | देखो-अम्लपित्त । अम्लपित्तान्तक रसः lapittāntakaअम्लपित्तहारक पाक: amlapittaharaka- Hassah-सं०० पारद भम्म, लोह भस्म, pākah-सं० पु. निकुटा, त्रिफला, भांगरा, अभ्रक भस्म प्रत्येक समान भाग ले चूर्ण कर दोनों जीरा, धनियाँ, कूट, अजमोद, लोह भस्म, इसमें से १ मा० शहद के साथ खाने से अम्ल अभ्रक मम्म, काकड़ासिंगी, कायफल, मोथा, पित्तं नष्ट होता है रस. यो० सा० । इलायची, जायफल, जटामांसी, पत्रज, तालीशपत्र, अम्लपित्तान्तक लोहः amla pittāntaka. केशर, बन कचूर, कचूर, मुलहठी, लवंग, लाल । Jouhah-सं० पु. (1) पारा, ताम्बा, चन्दन, प्रत्येक समान भाग ले। सर्व तुल्य सौर : लोहे की भस्म और इन सब भस्मों के बराबर का चूर्ण, सब से द्विगुण मिश्री, गाय का दूध हड़ को पीस शहद मिलाकर एक मासा निस्य चार गुना मिलाकर विधिवत पाक बनाएँ। चाटने से अम्लपित्त शान्त होता है। मात्रा-१ तो०, पानी या दूध के साथ | भैष० माल पित्त० चिः । गुण-अम्लपित्त, अरुचि, शूल, हृद्रोग,बमन, I (२) यह रस अम्लपित्त नाशक है । रसे० कण्ठदाह, हृदय की जलन, शिरोशूल, मन्दाग्नि । चि०। र० सा० सं०। For Private and Personal Use Only Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अम्लपितको रसः अम्लपित्तान्तको रसः amlapittántako rasah - सं० पुं० रससिन्दूर, अभ्रभस्म, लोह भस्म समान भाग लेकर सब के समान हड़ मिलाकर चूर्ण करें । मात्रा - १ मा० । शहदके साथ उपयोग करने से अम्लपित्त का नाश होता है । रस० रा० सु० अम्ल पि० बि० । अम्लपिष्टr amla-pishtá-सं० पु० चांगेरी | ( Bumex Seutatus. ) । अम्लपूरम् amlapuram-लं० क्ली० ( १ ) अग्लिका | कोकमफल । तिन्तिडी । तैतुल- बं० । कोकम्बी-मं० । (२) वृताम्ल रा० नि० व० ६ ॥ अम्लपुष्पिका amla-pushpiká सं० स्त्री० धारण्यशण वृक्ष । जंगली सन का पेड़-हिं० । वध्य शण-ग्रं० । राणताग-म० | A wild Indian Hemp ( Crotalaria jun• cea. . ) वै० मिघ० । अक्लफल: amla-phalah सं० पुं० श्राम्रवृक्ष, श्रम | The mango tree ( Mangifera Indica ) रा० नि० ब० ११ । तिन्तिडीक । नीबू भेद । अम्लफलम् amla-phalam सं० की ० वृक्षाम्ल । त्रिषांविल-हिं० तेतुल बं० रा० नि० च० ६ । अम्लफला amla-phala-सं० बी० करथारिका | लघु कन्यारी - मह० । वै० निघ० । अम्ल बन्दरः ainla-badarah-सं० पुं० अम्लकोलिका, खट्टा बेर । टक कुल बं० । च० सू० ४ श्र० । अम्लवेल amla-bela - हिं० पु० अम्ललता । गिदड़द्राक पं० । श्रमलोलवा-सं० प्र० । ( Vitis trifolia. ) अम्लभेदनः amla-bhedanah - सं० पु० (१) अम्लवेतस । ( See -Amlavetasa. ) रा०नि० । (२) चुक ( Rumex Acetosella. ) अम्लमारोष: amla-márishah - सं० पुं० अम्लशाक विशेष । अम्बल नदिया-बं०) सारा - हिं० | गुण - श्रम्लमारीष दोष कोपकारक, मधुर तथा पटु है । ० निघ० । २३६ : अम्ललोही अस्लमूलकम् amla-mūlakam-सं० की० व्युपित अर्थात् बासी (घरी हुई ) काँजी में पकाई हुई मूली । प० प्र० ३ ख० च० ६० संग्रहणी बृहचुक्र | "व्युषितं काजिकं पक्कं मूलर्क स्वम्लमूलकम् ।" Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir I अम्लमेह: amla-mahah- सं० पु० पित्तजन्य मेहरोग भेद | पित्रा प्रमेह । इसमें रोगी अम्लरसगंधयुक्त पेशाब करता है । सु० नि० ६ श्र० । "अम्लरस गन्धमम्ल मेही ।" श्रम्बरङ्गेच्छु श्वेता amla-rangechchhushvetanu हिं० संज्ञा पुं० श्रोसिनोफाइल ल्युकोकाइट (Eosinophile leucocyte ) - ई० । रक में पाए जाने वाला एक प्रकार का श्वेताणु | ये कण बहुरूपी मींगी वालों से कुछ बड़े होते हैं। इन कणों की मांगी या तो गोख होती है या नाल की भाँति मुड़ी हुई | कभी कभी इसके कई टुकड़े होते हैं जो एक दूसरे से. तारों द्वारा जुड़े रहते हैं । इनके प्रोटोप्लाज्म ( जीवोज ) में बहुत मोटे मोटे दाने होते हैं जिनमें यह गुण है कि जब कण इश्रोसीन ( एक प्रकार का रंग है । इसको प्रतिक्रिया अम्ल होती है ) आदि अम्ल रंगों में रेंगे जाते हैं तो ये खूब गहरा रंग पकड़ते हैं । इन कणों के लिए अम्लरंगे शब्द का प्रयोग इसी कारण होता है । इन कणों की संख्या प्रति सैकड़ा २ से ४ तक होती है । ह० श० र० । अम्लरुहा amla- ruha-सं० श्री० मालव देश प्रसिद्ध नागवल्ली भेद, ताम्बूल भेद । गुण-यह रुचिकारी, दाहघ्नी, गुल्महरी, मदकरी, अग्निबलबर्द्धिनी और श्राध्मान नाशिनी है। रा० नि० । अम्ललता amla-latà अमललता amala-latà --सं०खी० अम्लबेल, श्रमलालवा-४ि० | गिद्वाक-पं० 1 ( Vitis Carnosa. Wall.) फा० ई० १ भा० । अम्ललेखिका amla-loniká } अम्ललोणी amla-loni For Private and Personal Use Only सं० स्त्री० (१) लोणी विशेष । पर्याय - चाङ्गेरी, चुक्रिका, दन्तशठा, Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra कलराज www.kobatirth.org ५४० अठा (श्र) । चांगेरी । ग्रमरूल शाक बं० । चुका मं० । ( Oxalis Corniculata. J गुण- दीपन, रुचिकारी, कफवात नाशक, पित्त are और खट्टी हैं तथा ग्रहणी, अर्श, कुछ और अतिसार का नाश करने वाली है । भ० पू० १ भा० । मात्रा - २-३ मा० | देखो चाङ्गेरी | ( २ ) चुक, पालङ्क विशेष | चुका पालङ्-वं० । ( Rumex nonadelpha ) २० मा० । (३) श्रगलानी - हिं० । खुर्का, कुल्फा छा० । (Portulaca oleracea, Linn.) देखो - लोणी । अम्लराज amla-rája - हिं० पु० ( Aqua rigia.) लचणाम्ल और नविकाम्लका मिश्रण, जो अत्यन्त बलवान् धातुद्रावक है, अम्लराज कहलाता है । अम्लवती amla-vati-सं० खो० (१) चाङ्गेरी ! अ/मरुल-बं० | (Oxalis corniculata) रा० नि० ० ५ । (२) क्षुद्रालिका | खुदे णुनी - बं० । अम्लवर्गः amla-vargah - सं० पुं० श्रम्लवर्ग | की श्रोषधियाँ निम्न हैं, यथा (१) चांगेरी, (२) लकुचा, (३) अम्लवेतस ( ४ ) जम्बीरक, ( ५ ) बीजपूरक ( बिजौरा नीबू ), ( ६ ) नागरंग (नारंगी), (७) दाड़िम ( श्रनार ), ( ८ ) कपित्थ ( कैथ ), ( 8 ) श्रम्लवीज (१०) अम्लका, ( ११ ) अम्बला, ( १२ ) करमर्दक, ( १३ ) तिन्दुक, (१४) कोल ( बेर ) और ( १२ ) तिन्तिड़ी | देखो - रा० नि० ० २२ | "ग्रम्ण्डा सहितं द्विरेतङ्कुरितं पचामलकं तद्द्वयं विज्ञेयं करमर्दनिम्बुकयुतं स्यादम्लवर्गीयम् । " रसेन्द्रसारसंग्रह के लेखक के मतानुसार अम्लवर्ग की श्रोषधियाँ निम्न हैं, यथा - ( १ ) श्रम्लवेत, ( २ ) जम्बीर, (३) लुगाम्ल (मातुलुग ), ( ४ ) चणक, ( ५ ) अम्लका, (६) नारंगी, (७) श्रमली, (5) चिचाफल, (६) निम्बुक, (१०) चांगेरी, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अम्लवृक्ष, कम् ( ११ ) दाड़िम और (१२) करमई | र० सा० सं० । अम्लबल्ली, ल्लिका amla-valli, -lliká-सं० स्त्री० त्रिपर्णीकन्द | See - Triparni-kanda. अस्लवादकःamla-vatakah-सं०पु० श्राम्रातक, स्वाड़ा | श्रांचा मह० | (Spondias. mangifera) बँ० निय० । अम्लवाटा amla-vata अम्लवाटिका amla-vátiká -सं० श्रम्वारी amla-váti s} -xt स्त्री० अम्लरस युक नागवल्ली भेद, खड्डा रस युक्र पान | अंबोडे पर्ण-मह० । अम्लरस विशिष्ठ प्रान विशेष - बं० रा० ति० ० ६१ । गुण-श्रम्ल, तिल, कटुरस युक्र, रूत व उष्ण वीर्य, मुख पाक करने वाली, विवाहिनी, रक पित्त कुपित करने वाली, विष्टम्भ करने वाली और वायु नाशिनीहै । रा० । देखो - नागबली | अम्लवातकः - वाइक: amla-vatakah-vá dakh सं० पु० आम्रातक, श्रस्वाड़ा | ( Spondias mangifera ) अम्लवाष्पः amla-váshpah-o g'o चांगेरी, चुका | Oxalis corniculata) ० निघ० । अम्लवास्तु (स्तू) कम् amla-vastu, stu-kam-सं० क्ली० चुक नामक पत्रशाक । श्रस्लबेतुया, टांगा तो बं० रा० नि० ब०७ । अम्लविदुल: amla-vidulah - सं० पु० अम्लवेतस । ( Rumex vesicarius ) वै० निघ० । अम्लविवेक amla-viveka - हिं० पु० ( Tes ts cf acids. ) अम्लपरीक्षा | देखो— एसिड । अम्लवीजम् amla-vija 11-सं० क्लो० वृक्षाम्ल, तितिड़ी । रा० नि० च० ६ ॥ अम्लवृक्षं, -कम् amla-vriksham-kam -सं०ली०, पु० वृताम्ल, तिन्तिड़ी । भा० पू० C १ भा० । For Private and Personal Use Only Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अम्लवेतसः (क:) अम्लवेतसः अम्लवेतसः(कः) amave tlga h,-kah सं००, क्ला नप्लव anlaveta-हस अमलवेत, श्रमलबेत। यह एक प्रकार की लता है जो पश्चिम के पहाड़ों में होती है और जिनकी सूखी हुई टहनिया बाजार में बिकती हैं। ये खट्टी होती है और चरण में पड़ती हैं। (२)चुक । चुके का शाक, चुक पान्तक । चुकापाल बं० । (Rimex neetosela) ए०मु०। (३) अललाणा। (Oxalis corlhiculata.) च० द. काढाय० गु०। (४) स्त्रनामाख्यास तुप विशेष। एक मध्यन प्राकारका पेड़ जो अागों में लगाया जाना है। च०६०।०५० ज्व. चि०। "सिन्धुयूपणैः साम्ल वेतयैः” । च० सू०२०। संतापर्याय---अलः, बोधिः, राम्लिः, । प्रारन वेतसः, वेतमाला, अम्हा सारः, मानवेधी, वेधकः,भीमः, भेदनः, अल्लांकुशः, भेदी, राजालः, ! अम्लभेदनः, रक्तसार, फलारलः, अम्लनायकः, सहस्त्रबेयो, बोराम्जः, गुल्लकेतुः, घरात्रियः, शंख । दावी(वि), मांसद्रावो (ग), बरगी (र), चुक्रः (अ), गुल्महा, रकमावि, सहस्त्रनुत् । अमल भेद, अमलवे (थे ) त (स), थैकल -हि। थैकल (ड)-० । चुका-मह० । अम्लवेत-गु० । तुर्षक-फा० । रयुमेक्स वेसिके. fizu (Rumex vesicarius, Linn.), रयुमेक्स क्रिस्पस ( Rimex crispus) -ले० । कल्टी या कॉमन सारेल (Country or Common sortel)-इं। अम्लवेतसवर्ग (N. 0. Polygonacee ). उत्पत्ति स्थान-भारतवर्ष ( कोच विहार)। वानस्पतिक-वर्णन--एक मध्यम प्राकार का पेह जो फल के लिए बागों में लगाया जाता है। पत्र वड़ा, चौड़ा और कर्कश होता है। अषाढ़ में इसमें पुष्प लगते हैं । पुष्प स फेद । होता है। शरत् काल में फल पकते हैं । फल गोल नाशपाती के प्राकार के, किन्तु उसकी अपेक्षा दुगुने धा तिगुने बड़े कच्चे पर हरिद्वर्ण के और पकने पर पीले और सिकने होते हैं। इसको थे कल कहते हैं। इस फल की खटाई बड़ी नीषण होती है । इसमें सूई गच जाती है। यह अग्निसंदीपक और पाचक हैं, इस कारण यह चूरण में पड़ता है। यह एक प्रकार का नीबू है। कोचबिहार राज्य में सर्वत्र पालवेतस के वृक्ष प्रचुर मात्रा में उत्पन्न होते हैं । राजनिघण्टुकार ने यथार्थ ही लिखा है, "भोट देशे प्रसिद्धम्"। हमारे देश में जिस प्रकार प्राल को काट सुनाकर रखा है उसी प्रकार को बिहार में यहाँ के निवासी श्रमलबेन के पके फल (जैकल्द ) को काट सुखा .. :: कर. रखते हैं। कोई कोई इस प्रकार सुखाए हुए थैकला को दीकाल तक सर्पप तेल में निगो कर रखते हैं। और इस नैन को बायु प्रशमनार्थ प्रयोगमें लाते हैं। शुष्क थैकल बहुत विमा होता है और सहज में पूर्ण नहीं होता। प्रयोगांश-फल । प्रभाव तथा उपयोग श्रायुर्वेदीय मतानुसार ... अमत्येव फसेला, कट, रूक्ष, उप्ण है तथा प्यास, कफ, वात, जन्तु, अर्श, हृद्रोग, अश्मरी और गुल्म को जीतता है । (धन्वन्तरोय निघ श्रम्तवेत अत्यम्ल, कषेला एवं उष्ण है और वात, कफ, अश, म, गुल्म तथा अरोचक का हरण करने वाला है तथा भोट देश में प्रसिद्ध है। (रा०नि० व०६) अत्यन्त खट्टा, भेदक, हलका, अग्निबर्द्धक, पित्तजनक, रोमांचकारक और रूक्ष है । इसके सेवन करने से हृद्रोग, शूल, गुल्म रोग, मूत्रदोष, मलदोप, प्लीहा, उदावत', हिचकी, अफरा, श्ररुचि, श्वास, खाँसी अजीर्ण, वमन, कफजन्य रोग और वातव्याधि दूर होती है। इससे बकरे का माँस पानी हो जाता है (अर्थात् यह छागमांस द्रावक है ), और जिस प्रकार चणकाम्स ( चने के तेजाब वा क्षार ) में लोहे की सूई गल For Private and Personal Use Only Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मम्लधेतसः - अम्मवेत जाती है उसी प्रकार इसमें भी सूई डालने से सूई गल जाती है । ( भा० पू० १ भा० ) ___ अत्यन्त खट्टा, अफरा और कफ तथा वात नाशक है। यही पका हुश्रा (पक्कफल) दोषघ्न, श्रमन्न, अ.ही और भारी है । (राज.) अम्लवेतस के वैद्यकीय व्यवहार चरक · भेदनीय, दीपनीय, अनुलोमक एवं वातश्ले मप्ररामक द्रव्यों में अम्लवेत जेष्ठ है। (सू० २५ अ०)। वङ्गसेन-पीहा में अम्लवेतस-सर्हिजन की जड़ की छाल का सैंधवयुक्त क्वाथ प्रस्तुत कर उसमें बहु थैकल चणं एवं अल्प पीपल व मरिच का चूर्ण मिटित कर लीहोदरी को सेवन कराए । ( उदर चि.) वक्तव्य चरकमें अम्लवेतस का पाठ हृधयर्ग के अन्तर्गत पाया है (सू०४०)। चरक के , गुल्म चिकित्साधिकार में द्रव्यान्तर से अम्लवेतस का बहुशः प्रयोग पाया है। यथा-(१) "पुष्कर व्योष धान्याम्ल बेतस"- (२) "तिन्तिहीकालवेतसः" । (३) "शटी पुष्कर हिंग्वम्ल देतस"-(चि. ५ अ०)। सुश्रुतोक्त गुल्म चिकित्साधिकार में अम्जवेतस का आरम्बार रल्लेख दिखाई देता है । यथा-(1) "हिंगु सौवर्चल * * अम्लवेतसैः। (२) "हिंग्वम्लवेतसाजाजी"-( उ० ३२ अ.)। अग्निमान्याधिकार के प्रसिद्ध "भास्करलवण" में अम्मवेतसका पाठ पाया है।चक्रदत्तोक्त गुल्माधिकार में "हिंग्वाद्य चूर्ण", "काङ्कायन गुरिका" तथा "रसोनाद्य घृत' प्रादि योगों में अम्लवेतस व्यवहार में पाया है। • नोट-जिन प्रयोगों में अम्लवेतस व्यवहृत हश्रा है उनमें आजकल प्रायः वैद्य उपयुक नं.१ में वर्णित लकड़ीका ही व्यवहार करते हैं। क्योंकि बाजारों में अमलबेत के नाम से प्रायः यही प्रोषधि उपलब्ध होता है। यह शास्त्रोक्र अम्लवेतस नहीं, अपितु कोई और ही पदार्थ है। प्रस्तु, उपयुक्र नं. ४ में वर्णित अम्लवेतस (अर्थात् उसका गुष्क फल ) ही औषध कार्य में बाना उचित है। नव्यमत समालोचना अम्लतस, चांगेगे, अम्ललोणी, लाणो और चुक ये पाँचों अम्ल य हैं। प्रस्तु, प्राचीन अर्वाचीन दोनों प्रकार के लेखकों ने इनका परस्सर एक दूसरे के स्थान में उपयोग कर इन्हें भ्रमकारक बना दिए हैं। प्रायः सभी जगह ऐसा किया गया है। जहाँ श्रमजलोणी का वर्णन पाया है वहीं उसके परियाय स्वरूप “चांगेरी" और "चुक्र" श्रादि संज्ञाएँ भी व्यवार में लाई गई हैं। उसी प्रकार जहाँ अम्लवेतस का वर्णन दिया है वहीं पर शेष तीन संज्ञाएँ भी व्यवहत हुई हैं। इसी प्रकार शेष भी जानना चाहिए। ऐसे अवसर पर उक संज्ञाओंको अपने अपने स्थानों पर मुख्य और शेष को गौण समझना चाहिए। डॉक्टर उदयचाँद पर्व रॉक्सबर्ग दोनों ही ने अम्ल वेतस का बंगला नाम "चुकापाल" लिखा है। परन्तु ध्यानपूर्वक विचारकरनेसे यह ज्ञात होता है कि उदयचाँद ने अम्लधेतस का उल्लेख ही नहीं किया है। अम्लवेतस के अर्थ में उनका किया हुश्रा चुक्र का प्रयोग गौण है। चुक का मुख्य अर्थ चुकापालङ्क है। यदि उदयौदोक्र संस्कृत नाम चुक्र एवं बंगला नाम चुकापालङ् को ठीक मान लिया जाए तो उसका लेटिन नाम अशुद्ध रह जाता है और यदि लेटिन नाम को शीक रक्खा जाए तो संस्कृत श्रादि नाम अशुद्ध रह जाते हैं। अत: उसको अम्लवेतसही कहना उचित है; किन्तु बंगला नाम थैकख अवश्य लिखना चाहिए। यूनानी मत से-प्रकृति-सर्द व तर । हानिकर्ता-वायुवक तथा कफकारक । दर्पघ्नकाली मरिच, लवण और अदरक । प्रतिनिधिखट्टा तुरा अावश्यकतानुसार । मात्रा-एक अदद । मुख्य प्रभाव-रक व पैत्तिक ग्याधियों को लाभदायक है। गुण, कर्म, प्रयोग-(१) प्राय: हगोगों को लाभप्रद है, (२) पित्त का छेदन करता, (३) पाचनकर्ता, (४) भामाशय को मृदु. करता, (५) शुद्धोधकर्ता, (६)रकोष्मा को For Private and Personal Use Only Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमलवेद ५४३ प्रशमन करता, (७) यावगाला की वायु को अम्लस amlas-गन्द्रोक-बं० । गंधक श्रामलालाभकरता और (८) उदरशूल को लाभप्रदान सार । See..gandhaka. करता है, (१) यदि अजवायन खुरासानी को | अम्लसरा amla-sara-सं० स्त्री० नागवल्ली सेंधानमक के साथ सात बार इसके अर्क में तर भेद, पान । (A sort of betel-leaf) करके सुखा ले तो प्रायः वातज तथा उदरीय रा०नि०व०६। व्याधियों को लामप्रद है और इसका चरन अम्लसारः amla-sarah-सं. पु. सम्मिलित करना और भी गुण दायक है, (१०) अम्लसार ama-sara-हिं० संत्रा पु. ) लवंग, काली मरिच, लवण, अजवायन और अम्ल वेतस, अमल बेत । ( Rimex vesiअदरक को कूटकर इसमें छिद्रकर भर दें और carius) रा०नि० व०६ । (२) निम्बुक, सूर्यतापमें रखें । दो चार दिन तक उसे लकड़ी से नीबू । ( Citrus medicil) रा०नि०व० चलाते रहें। सूख जाने पर इसको चण कर रखें। "। (३ ) हिन्ताल (Hintāla) रा. इसके सेवन से यह नुधा की वृद्धिकर्ता, श्राहार नि०व० । (४) चूक, चुक्र । (५) श्रामलासार का पाचनकर्ता और नीहा को लाभ करता है।। गंधक। म. मु० । बु० मु.। | अम्लसारं,-कन्amla-saram,-kam-लं... अम्लवेद amlaveda-हिं० पु. अम्लचेत। अम्लसार amla-sāra-हिं. संचा पुं० ) See-amlaveta काँजी । काजिक । चुक नामक काजिक भेछ । अम्लवेदसः aanla-vedasah-सं० पु. घुक्र। रा०नि० १०५ | See-kanjika. चुक-हिं०,०, २०। Secr-chukra अम्लस्कंधः amla-skandhah-सं० . अम्लशाकम् amla-shakani-सं० क्ली० (१) अम्लरसाबित द्रव्य समूह अर्थात् अम्बवर्ग की वृक्षाम्ल, तिन्तिी -हिं० । तेतुल-बं०। रा० श्रोपधियाँ । वे निम्न हैं-(1) आमला, (२) नि० व. ६ 1 -4. (२) चुक्र नामक पत्र इमली, (३) बिजौरा, (४) अम्लवेत, (१) शाक, चका -हिं । अम्ल कुचाइ, कट पालङ्, श्रनार, (६) चाँदी, (७) तक्र, (८) चूका, चुका पाल-बं० । (६) पारेवत, (१०) दही, (११) प्राम, संस्कृत पाय-शाकारलं, शुक्राम्लः, (१२) अम्बाड़ा, (१३) भव्य, (१४) अम्लचूक्रिका, चिञ्चाम्लं, अग्ल चूदः, चिञ्चासारः । कैथ और (१५) करौंदा । इनके सिवा कोशाम्र, गुण-अत्यंत खट्टा, वातनाशक, दाह तथा लकुच, कुबल, झाड़ी बेर, बड़ा बेर, दही का तोड़ कफनाशक है । शर्करा के साथ मिलाकर सेवन श्रादि द्रव्य अन्य ग्रन्थकारों के मतानुसार अम्लकरने से यह दाह, पित्त, तथा कफनाशक है। वर्ग की ओषधियों के साथ वर्णित हैं । वा० सू० रा०नि० २०७।। १० अ० श्लो०२६ । अम्लशाकाख्यम् amla-shākākhyam-सं• अम्ल स्तम्भनिका amla-stambbanika-सं. क्ली चुक नामक पत्र शाक, चका | थोर चुका स्त्रो० तिन्तिड़ी, अमली, अम्लिका (Tamari -मह. 1 ( Rumex Acetisella). रा० n dus Indica.) वै० निघः । . नि० २०७। अम्लहरिद्रा ainla-haridra सं० स्त्री० (१) अम्लष्टर amlashca-सं०स्त्री० चांगेरी | धोती शठी, कचर। (Cureuma zedoaria) -मह। (Oxalis corniculata). रा०नि० व०६। (२) अम्माहलदी, भाँयाअम्लस amlas-अ० समधरातल, सादा, हमवार, हलदा, पानहरिद्रा। (Curcumaamada). चिकना, वह वस्तु जिसका धरातल सम तथा अस्ला amā-सं० स्त्री०(१)चांगेरी। आम. चिकण हो । सॉफ़ (Soft)-ई० रूल-बं०। (Oxalis Corniculata.) For Private and Personal Use Only Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अस्लाङ्कुशः अम्लारना रा० नि० व. ५ । ( २ ) बनमातुलुङ्ग | अम्लाध्युपितः amla.dhyushitah-सं.) (Citrus medica ) (३) अम्लवेतस।। पु०, क्ली... (Rumex vesicarius.) रा०नि०। अम्लाध्युषित (रोग) amladhyushitan हिं० संज्ञा पु.. व०६ । (४) श्रीवल्लो वृत्त । वर्षा मल्लिका (१) सर्वगत्तानि रोग। -बं० । रा०नि००। () तिन्तिड़ी, लक्षा-इस रोग में आँखों के बीच का अमली, श्रग्लिका । ( Tamarindus भाग नीला और किनारे लाल हो जाते हैं। कभी Indica.) रा०नि० २० ११ । भा० पू०१ कमी पाखें पक भी आती हैं, उनमें सूजन, दाह भा० फल व. । और पीड़ा होती है और पानी बहा करता है। अग्लाइशः amankishah-सं०० अम्ल अाल अर्थात् खटाई आदि के अधिक सेवन द्वारा azel ( Ramos vosicarios. ) tro! होने के कारण इसको अम्लाध्युषित कहते हैं। नि०व०६। मा०नि०। अस्लाटनः amlata.113.11-सं० ० महासहा (२) का निम्बुक, मीठा शस्थती नीबू । वृत्त । कटसरय्या, लाल गुलमरवन-हिं । झाँटी ! Citrus decimana. (Sweat बिशेष-) । प्रायनाट-द० । वाया पुरप ___tit.) भाषा में पायना कहते हैं । (Baleria Pri- : अम्लानः amānah-सं० पु (1) बन्धुजीवक "onitis, Hinm.)... वृक्ष । बान्धुली वृद-बं०। (Gomphrena गुण---कोला, मधुर, निक, उप्णधीयं तथा । __globosa.) त्रिका । (२) झिण्टिका भेद, स्निग्ध है। भा० पू० १ भा० प० ब०।। कटसरयया। (Barleria prionitis, ४ ख० म० भा० योनिक नि। चि० ० Linn.) विश्व० । (३) अम्लादन वृक्ष । क. वल्ली गर्भवेदनाहर योगान्तर्गत । प्रायना-बं0 See-amlatana भा० म० भा. योनिरो० चि०। (४) महासहा । अम्लाढयः amladhyar h-सं० पु. करुण | मे० नत्रिक । (५)महाराज तरणी वृत्त । रा० निम्बुक, नारंगी। नारांगा लेब्रुर-गाछ-०। नि० ध०१०। प० मुः। । अम्तनम् amlanan-सं०क्ली० पद्म, कमल । अम्लातः,-कः amlata h;--kan-सं० पु । Nymphaea elumbo.) श०र० । अम्लाटन वृक्ष । See-anilatanath. I भा. अम्लानकamlanakit पू०१ भा० पु. १०। । छाम्लान्तक amlantakaiसएकटसरल्या, -सं० ०कटसरय्या, अम्लातकी amlataki-सं०स्त्री० पलाशीलता। बाख पुष्प । ( Barleria. prionitis, रा०नि०। 3.Palashi. | Lin.) अमलादानः amlidinath-सं० प्र० करण्टक अम्लाना anlana-सं० रखी० महासेवती पुष्प. वृत्त । क उसरय्या, पीयावासा । चाणपुष्प-गौड़।। वृक्ष । बड़ बन से उती-बं०। थोर राणसेवंती ( Barleria prionitis, Linn.) -मह० । वै० निघ० ।। अम्लादि: umladih-सं०प०(१)तिन्तिडी. अम्लानिनी amlanini-संखो पद्म समा। अमली, श्रमिलका । ( Tamarindus पमिनी ।( Nymphiva lotus. ) Indica.) रा०नि०व० ६। (२) चुक - त्रिका। नामक पत्र शाक। (Country sorrel.) अम्लाम्ना mlamna-सं० स्त्रीचांगरी। रा०नि०व०७। (Oxalis monadelpha.) For Private and Personal Use Only Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अम्लायनी अम्लिका अम्लायनी anlayani-सं० स्त्री० मल्लिका ! rindi)-जर० | पुलि, पुलियम-पज़म-ता। भेद । नेवारी हिं०। नेवाली-मह। वै. चिण्ट-पण्डु, चिण्ट-चेट्ट-ते। पुलियम-पज़म निध। (स० फा० ई०), पुलि, पलम ( ई० मे० श्रम्लावल amlavala-सं० अमली, चिञ्चा, सां०)-मल० । हुणिसे, हुणिसिनयले, हुणशे अम्लिका । (Tamarindus indica). हएणु-कना० । चिंच, चिंचोक, चिञ्चा, चिण्ट्ज, अम्लि का amika-सं० स्त्री०, हि. संज्ञा स्त्री० इम्लो-मह । श्राम्बली, आम्बलीनु, चिंचोर (१)अाम्र, श्राम । (Mangifera Ind- -गु० सियम्बुल-सिं०। मगि-बर्मा । ica) रा० नि० व०३। (२) पलाशी श्रासामजव ( बीज )-मल०। कैाँ-उत्०, सता ( Palashi )। (३) माचिका, उड़ि | करङ्गी-मैसू० । इम्ली-40। टिएटज मोहया । रा०नि० व० २३ । (४) अम्लो- चमः । ततूलि-उड़ि। द्गार, खट्टा डकार । मे० । (५) अमला शिम्बा वर्ग . (Phyilanthus erablica ) (9) - (.). O. Leguminose ) रघेताम्लिका । (८)चाङ्गरी । ( Rumex उद्भव-स्थान-एशिया के बहुत से भाग, Corriculata ) रा० नि० व० २३ । भारतवर्ष, बमो तथा अफरीका (मित्र), अमेरिका (8) अर्श शेग में तिन्तिड़ी अर्थ में और सर्वत्र और पूर्वीय भारतीय द्वीप। दीपन और पुरीषसंग्रहणादि योगों में अम्लिका __ संज्ञा-निर्णय- इसकी अंगरेजी वा लेटिन श्यामछद एवं वृद्धदारक के अयों में प्रयुक्त । संज्ञा टैमरिण्डस इसकी झरबी संज्ञा तमहहिंदी हुई है। सि. यो० अग्निमुख चूर्ण वृन्द । से, जिसका अर्थ हिन्दी खजूर है, ब्युस्पा है। सि. यो० अरोच. चि०।(१०) अमली, वानस्पतिक-वर्णन-इसके वृक्ष से प्रायः श्रमबली, इमली, कटारे-हिं० । अम्ली, अम्ली सभी लोग परिचित हैं। इसके वृक्ष बहुवर्षीय, का बोट, अस्वली-द० । चिञ्चा, अफ्लिका विशाल एवं सशाख होते हैं ।देखो-इमली । (.), तिम्तिडीकः, तिन्तिडीका, तिम्तिविक, नोट-वृताम्ल और तिन्तिड़ी पृथक् पृथक अम्लीका, आमिलका, आम्लीका, तिन्ति- वृक्ष हैं। वैद्यक में इनके गुण-पर्याय पृथक् लिखे स्वीका ( १० टी०), वृक्षाम्लं, तिन्तिड़िः हैं। वृक्षाम्ल का पर्याय तिन्तिड़ी लिखा है, और (दै०), तिन्तिली, तिम्सिड़िका, प्राब्दिका, तिन्तिड़ी के पर्यायों में वृक्षारल शब्द का उल्लेख चुक, चुका, चुक्र, श्रम्ला, अत्यम्ला, है। वृक्षाम्ल के वृक्ष उसर पश्चिमाञ्चल में भुक्रा, भुक्रिका, चारित्रा, गुरुपत्रा, पिच्छिला, विषास्किल (वृक्ष) नामसे प्रसिद्ध हैं। ये देखने में यमदूतिका, चरित्रा ( शब्दर०), शाक चुक्रिका, अत्यन्त शोभायमान होते हैं। पत्र दीर्घ एवं सुचुक्रिका, सुतिन्तिड़ी, चुक्रिका, अम्ली, दंतशठा, चिकण होते हैं। ये वसन्त ऋतु में फलते हैं। चिपिका-सं० । तेतुल, तेतुल गाछ (वै० श०), फल निम्बुक फलवत् होता है। वृक्षाम्ल नाम तितूरी, माम्ली, तेतै ( स० फा० इ० )-4० । इसकी सर्वथा अन्वर्थ संज्ञा है। इस हेतु इसको तम(म्)रे हिंदी, हुमर, ह.मर, सधारा (स. "शाकाम्ज", "चूड़ाम्लं", "फलाम्लं" और फा० इं.), बारा, जोश-अ.। श्रम्बलह, "अम्लबोज" कहते हैं। यह चतुरामन तथा समरहिंदी ख माये हिन्दी-फा० । टैरिण्डस पञ्चाम्ल का एक अवयव है। इसका वानस्पतिक Tamarindus, टैरियडस इण्डिका (Ta. वर्ग भी यही अर्थात् वृक्षाम्ल वर्ग ( Guttimarindus Indica. Linn. )-ले। fere) है। महिण्ड Tamarind-ई० । टैप्रिनिएर । इसके पर्याय निम्न है... डी' हण्डी ( Tamarinier de I' वृक्षाम्ल-सं० । विपाषां)विलहि । Inde.)-फ्रा० । मरिण्डी ( Tama. भमसुल, कोकम-बम्ब० । (Garcinia For Private and Personal Use Only Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अम्लिका अम्लिका purpure:1, Roxb. or Garcinia in. पक्क चिश्चाफल रस (पक्व अमली का dica, Chois.)। विस्तार हेतु देखो-वृक्षाम्ल रस)-मधुराम्ल (खमिट्टा), रुचिकारक, (अमसूल)। पाककर ( सूजन को पकाने वाला) और रासायनिक संगठन-तिन्तिड़ी-फल-मज्जा । इसका प्रलेप ब्रदोष विनाशक है। अमली मैं तिन्तिडिकाम्ल ( टार्शरिक एसिड ) ५%, के पत्र शोफघ्न, रक्रदोष तथा वेदनानाशक हैं । निम्बुकाम्ल ( साइट्रिक एसिड), सेवाम्ल इसके शुष्क रखकका क्षार शूल तथा मन्दाग्नि (मैलिक एसिड), तथा शुक्राम्ल (एसेटिक नाशक है । रा०नि० २०११। एसिड ), पांशु तिन्तिड़ित ( टाटूट ऑफ पोटा- अपक्व अमली गुरु, वातहर, पित्त, कफ और रक, सियम) ८°/o शर्करा २५०/० से ४०००, निर्यास नाशक है । पक्क रेचक, रुचिकारक, अग्निप्रदीपक और पेक्टिन प्रभृति होते हैं। बीजरवक, ( Te- और वस्तिशोधक है। शुरुक हृद्य, लघु, श्रम, sta) में कषायीन (टैनिकाम्ल ), एक स्थिर भ्रान्ति, और पिपासाहर है। मद० व०६। तेल तथा अविलेय पदार्थ होते हैं। बीज में . श्राम खट्टी, गुरु, वातनाशक, पित्तका, कफऐल्ब्युमिनॉइड्स, वसा, कयोंज ६३२२ oor बडूक और रक्रदोषनिवारक है। पकी इमली तन्तु और भस्म जिसमें स्फुर एवं नत्रजन अग्निप्रदीप्त कर्मा, रूस, सर ( दस्तावर ) गरम और वातश्लेष्मनाशक है । भा० पू० १ भा० । प्रयोगांश--फल (पक व अपक), मज्जा, श्राम ( कच्चीइमली) वातनाशक, उष्ण और बीज, पत्र, पुष्प, त्वक, स्वभस्म क्षार। अत्यन्त भारी है। पक्क लघु, संमाही है तथा ग्रहणी और कफवातनाशक है। मद०व०६ । औषध-निर्माण-अमिलकापान, अम्लिका अमली के पक्व फल के गुण में वृक्षाम्ल फल वटक (भा०), पत्रकाथ-मात्रा-५ से १० तो०, । से थोड़ा अन्तर है । (चरक सू० २७०) स्वक्षार--मात्रा-आध आना से एक पाना भर । इमली का फूल (चिचा पुष्प) कषेला, इमली के गुणधर्म तथा उपयोग स्वाद्वम्ल और रुचिकारक, विशद, अग्निजनक, आयुर्वेदीय मतानुसार अमली अत्यन्त लघु तथा वातश्लेग्मनाशक और प्रमेहनाशक खट्टी, पित्तकारक, लघु, रजनक, वात प्रशामक है । पत्र शोथहर है । नूतन इमली बात श्लेष्म परम वस्तिशोधक है। पक्की अमली मधु- कारक और वही वार्षिकी अर्थात् एक वर्ष की राम्ल, भेदक, विष्टम्भी और वातनाशक है। ( पुरानी ) वातपित्तनाशक है । ( निघंटु त्वक भस्म कपेली, उध्य, कफघ्न और वात- रत्नाकर) नाशक है । (धन्वन्तरीय निघण्टु) तिन्तड़ी के वैद्यकीय व्यवहार आम तिन्तिड़ा ( कच्ची इमली) अत्यन्त खट्टी हारीत-शोथ पर तिन्तही पत्र-तिन्तिड़ी और पकी इमली मधुराम्ल (खटमिट्टी ), वातघ्न पत्र द्वारा सिद्ध किए हुए अत्युगा जल में वस्त्रखंड पित्त, दाह, रक तथा कफ प्रकोपक है। इमली भिगोकर किंवा पिसे हुए तिन्तिड़ी पत्र के उपण की कच्ची फली अत्यन्त खटी, लघु और पित्त. पिण्ड द्वारा शोथ की स्वेदन करें। यथा-- कारक है । पक्व फल स्वाहाम्ल, भेदक तथा "संस्वेदन क्रिया कार्यासा कार्या च पुनः पुनः। विष्टम्भ और वातनाशक है । अम्ल, कटु, * अथवा तिन्सिड़ीच्छदैः" । (चि० २६ अ०) कषाय, उपण तथा कफ व अर्श का नाश करने चक्रदत्त-भरोचक में तेतुल-(१)पकी वाली है और वात, उदररोग, तृष्णा, हृद्रोग, । इमली के शर्बत में गुड़ मिलाकर, मधु एवं दालयक्ष्मा, अतिसार तथा व्रण की नाशक है । चीनी, इलायची तथा मरिच चूर्ण द्वारा सुगन्धित रा०नि० च०६। __ कर मुख में इसका कवल धारण करने से अभक. For Private and Personal Use Only Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अम्लिका अम्लिका 'रछन्द नामक अरोचक रोग प्रशान्त होता है।। यथा--"अम्लिका गुड़ तोया स्वगेला मरिचा. ! न्वितम् । अमनच्छन्द रोगेषु शस्तं कवड़ ! धारणम् ।" (अरोचक-चि.) (२) मसूरिका में तिन्तिड़ी पन्न-हल दी और इमली के पत्र को शीतल जल में पीसकर पान करें। यह बसन्त के पक्ष में हितकर है। यथा--"निशा चिञ्चाच्छदे शीतवारिपीते तथैव तु ।” ( मसूरिका-चिः (३) नव प्रतिश्याय में तिन्तिड़ी पत्रनूतन कफ रोग में इमजी के पत्ते का यूपपान श्रेष्ठ है। कफ परिपक्व हो गया ऐसा जानकर इसके नस्य द्वारा शिरोविरेचन कराएँ । यथा-- "नवे प्रतिश्याये । शस्तो यूपश्चिञ्चादलोद्भवः । ततः पक्वं ज्ञास्त्रा हरेच्छीर्ष विरेचनैः ।" (नासारोग-चि०) भावप्रकाश --गुल्म में चिश्चाक्षार (1) तिम्तिड़ी वृक्ष के काण्ड के स्वयं शुष्क हुए स्वक् को अन्तधूम अग्नि द्वारा दग्ध करें । पुनः उससे यथाविधि क्षार प्रस्तुत कर उचित मात्रा में सेवन कराएँ । यह गुल्म तथा अजीर्ण में प्रशस्त है। । यथा-"पलाश वजिशिखरी चिचार्क तिलनालजा। । यवजः स्वर्जिका चेति बारा अष्टौ प्रकीर्तिता:। .. एते गुल्महराः क्षारा अजीणस्य च पाचकाः ।" ..... (गुल्म-चि०) . ... (२) अस्थि भग्न चा अभिवातमें अम्लिका..: कच्ची इमली को पीसकर कस्क प्रस्तुत करें, फिर उसको काँजी और तिल तेल में पकाकर प्रलेप .. करें। किसी अंग में आघातजन्य वेदना होने, '. किंवा अस्थिच्युत होने पर यह प्रलेप विशेष रूप " से फलप्रद है। यथा--"अम्लिका फल कल्कैः . . सौवीर तैल मिश्रितः स्वेदात् । भग्नाभिहत रुजाध्नैः ।" (भग्न-चि०) वङ्गसेन- वातव्याधि तिन्तिड़ी पत्र-तालवृक्ष द्वारा उद्रिक तालरस में इमली के पत्र कोपीसकर सुहाता सुहाता उष्ण प्रलेप करने से वात रोगका नाश होता है। यथा-"तिन्तिडीक दलैः सिद्ध तालमण्डिकया सह। पिष्टवा सुखोपणमालेपं दद्यादातरजापहम् ।" ( वातव्याधि-चि०) । अम्लीकाफल-इमली के शुक फल संदीपक, भेदक, तृपाहर. लघु और कफ बात में पथ्य हें एवं थकायट और क्लोति को दूर करते हैं । (वा० स० ०६)। कच्ची इमली रक्तपित्त तथा प्रामकारक और विदाही है एवं वात व शूल रोग में प्रशस्त है । पक्क शीतगुणयुक्त है। (अवि० १७०) युनानी मतानुसार - प्रकृति-द्वितीय कक्षा में शीतल व रूक्ष है; क्योंकि किञ्चित् संकोच के साथ इसमें अम्लव अत्यन्त बलिष्ट है ( नफी)। किसी किसी के मत से १ कक्षा में शीतल और २ कक्षा में रूक्ष एवं किसी के मत से तीसरे में शीतल व रूक्ष है । कोई कोई इस को मा तदिल लिखते हैं । हानिकर्ता-स्वर, कास, प्रतिश्याय और प्लीहा को एवं यह अवरोधजनक है । दर्पन-खसखास, बनप्रशा, उन्नाव और कुछ मधुर द्रव्य । प्रतिनिधिबालू बोरनारा(धारक)। मात्रा शर्बत-४ से ५ वा तो० तक । मुख्य प्रभाव पिच एवं रक्त की उपवणता का शमन करने वाला और प्रकृति को मृदुकर्ता है। गुण,कर्म,प्रयोग-अपनी लजूजत (पिच्छिलता) और अम्लता के कारण इमली रतूबतों (प्रद ) का छेदन करती है, सि के विरेक "लाती और अपने शोधक व संग्राही गुण के कारण श्रामाशय को बल प्रदान करती है। इसमें संशोधक शक्ति विरेचक शनि के कारण पाती है। अपनी शीतलता के कारण पिपासाहर है और अपनी संग्राही शनि से वमन का निरोध करती है। विशेषतः जब इसका प्रपानक वा .हिम उपयोग में लाया जाता है । परन्तु, भिगोकर बिना मले छान कर इसका पानक प्रस्तुत करना श्रेष्ठतर है या वैसे ही जलाल लेकर शर्करा योजित कर पान करें। क्योंकि मलने पर यह ऐसा कुस्वाद हो जाता है कि वमन आने लगते हैं। (त० न०) मोर मुहम्मद हुसेन-स्वरचित्त मजनुलवियह नामक ग्रंथ में लिखते हैं-इमली For Private and Personal Use Only Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अम्लिका ५४८ अम्बिका दो प्रकार की होती है-(.) लाल और (२) भूरे रंग की। इन दोनों में लाल जाति को उत्तम होती है । इसलामी हकीम इमली के गूदे को हृद्य, संग्राही, खुलासा दस्त लाने वाला, पैत्तिक बमनावरोधक, रेचन द्वारा पित्त एवं विदग्ध दोषों से शरीर को शुद्ध करने वाला मानते हैं। जुलाब लाने को जब इसका उपयोग करना हो तब इसके साथ अन्य प्रवाही बहुत थोड़े देने चाहिए। कचत में हमली के पानी के कुल्ल करने से लाभ होता है । बीज को उत्तम संग्राही बतलाया जाता है तथा उबाल कर विस्फोटक | पर इसका उत्कारिका ( Poultice ) रूप में उपयोग किया जाता है। जल में पीस कर कास तथा काग लटक पाने में इसको शिर की दिया पर लगाते हैं। इसके पत्र को जल के साथ कुचल कर बमकर रस निकालने से एक प्रकार का अम्ल द्र प्रस्तुत होता है। इसको पैत्तिक ज्वर एवं मूत्रकाह में लाभप्रद बतलाया जाता है। प्रादाहिक शोथों तथा वेदनाके निवारणार्थ इसकी उस्कारिका उपयोग में पाती है। नेत्राभिष्यम्न में आँख पर इसके पुष्प की पुल्टिस बाँधते हैं। पुष्षके रस का रक्तार्श में अान्तरिक उपयोग होता है। इसके वृक्ष की छाल ग्राहो और पाचक ख्याज की जाती है। (मखूजनुल अद्वियह ) देशी लोग इसके वृक्ष का पवन स्वास्थ्य को हानिप्रद मानते हैं। कहते हैं कि इमली के वृक्ष के नीचे संबू बहुत दिन रखने से उसका कपड़ा सड़ जाता है। यह भी कहा जाता है कि उसके । वृक्षके नीचे अन्य पौधे भी नहीं उगते । परंतु यह सर्वग्यापक नियम नहीं। क्योंकि हम लोगों ने उसके नीचे चिरायता एवं अन्य छाया प्रेमी पौधों को प्रायः उत्पन्न होते हुए देखे हैं। (डीमकफा००१ भा०) हृदय और प्रामाशय को बल प्रदान करता, हवास को शमन करता, मूर्छाहर, शिरोशूल को लाभप्रद और संक्रामक वायु के विष को दूर करता है। इसके बीज संग्राही और वीर्यस्तम्भक हैं। ख नाक में इसके पत्र के काय का गरदृष कराना साभप्रद है। शुक्रसादकर्ता और योनिसंकोचक है। इसकी छाल पीस कर छिड़कने से व्रणपूरण होता है । (मु० मु०, बु० मु०) एलोपेथिक मेटीरिया मेडिका तथा ___तिन्तिड़ोफलमज्जा एलोपैथी चिकित्सा में पक्क तिन्तिड़ी-फल-मजा औषधार्थ व्यवहार में पाती है। यह बिगड़े नहीं, इस हेतु, इसमें शर्करा मिलाकर रखते हैं । अम्लिका द्वारा प्राप्त अम्ल (निन्तिड़िकाम्ल) अर्थात् टाछुरिक एसिड (Tartaric acid) भी डॉक्टरी चिकित्सा में व्यवहत है। प्रस्तु, देखो-एसिडम टार्टारिकम् । यह दोनों ही उन चिकित्सा प्रणाली में प्रॉफिशल हैं। इनमें से प्रथम अर्थात् इमली के फल के गूदे का यहाँ धर्णन किया जाता है। __मिश्रण-यूरोप में कभी कभी इसमें ताम्र चूर्मा का मिश्रण कर देते हैं। __ यह पड़ती है-कन्फे विरायो सेनी के ७५ भाग में भाग । . प्रभाव-लैकोटिह (कोष्ठमृदुकर ) तथा रेगिरजेरण्ट (शैत्यकारक)। मात्रा- से १पाउंस वा अधिक प्रभाव तथा उपयोग अकेले इसका कचित ही उपयोग होता है। एक प्राउंस की मात्रा में यह कोष्ठ मृदुकर है। इससे श्रान्तीय कृमिवत् श्राकुञ्चन की वृद्धि होती है । इन्सको शैल्यकारक बतलाया जाता है और टैमरिगड (Tamarind whey) या अम्लिकावारि रूप में कभी कभी ज्वरों में इसका उपयोग किया जाता है। विधि-थोड़े गरम पानी में २॥ तो० इमली का गूदा मिलाकर फांट प्रस्तुत कर उसमें चौथाई दुग्ध मिलाएँ। वानस्पतिक, सेव और निम्बुक प्रभुति अम्लों की विद्यमानता के कारण इसका शैत्यकारक प्रभाव होता है। अन्य मत ज्वर में इमली का पसा (अमिलकापाम) देने से तृषा कम हो जाती है और किसी प्रकार चित्त को शांति लाभ होता है । बालकों के मलावरोध में इसका मुरब्बा बिशेष रूपसे लाभदायक होता है। ( म० अ० डॉ० २ भा०)। For Private and Personal Use Only Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अम्लिका www.kobatirth.org પૂર मदात्यय एवं धुस्तुरजन्य उन्मत्तता में इमली के फल का गूदा हितकारक है । फलत्वक्भस्म का उक प्रकार की अन्य श्रोषधों के साथ क्षारीय द्रव्य रूप से श्रीषधीय उपयोग होता है । ( दस हिन्दु मेटीरिया मेडिका ) | धतूर प्रभुति के बैग उतारने के लिए खजूर, दाख, इाली का गूदा, श्रनारदाना, फालसे और श्रामले सबको सम भाग ले तथा बारीक पीस और इसमें पचगुना पानी मिला छोटाकर काढ़ा प्रस्तुत कर उपयोग करना चाहिए | मात्रा-१३० (२ श्राउंस ) च० द० । जिस औषध के साथ यह दी जाती है उसके प्रभाव को बढ़ा देती | परन्तु शीरा रेवन्दचीनी के साथ इसके मिलाने से उसका प्रभाव कम हो जाता है । कभी कभी इमली के वृक्ष से एक प्रकार का तरल स्राव होता है, जिसको नोर कहते हैं । लगभग इसका सर्वांश काति खटिक (Oxalate of calcium) होता हैं । ये श्वेत स्फटि कीय पिण्ड रूप में शुक होजाते हैं । ( फा० ई० । १ भा० ) बिसीयन लोग पेट के मरोड़ के रोग में तथा पाचनशक्ति बढ़ाने को इमली के बीज को अन्य औषध के साथ मिला कर बसते हैं । सोलान ( लङ्का ) द्वीप में यकृत और प्लीहा की गाँड होने में इमली के फूल की एक प्रकार की मिठाई बनाकर रोगी को देते हैं। पत्तों को उबालकर उसको सेक करने में प्रयुक्त करते हैं । इमली के वृक्ष के नीचे सोने से रोग होता है, परन्तु नीम के पेड़ के नीचे सोने से सर्व रोग दूर होते हैं । इमलीके गोंदका चूर्ण करके नासूर (नाड़ी ण) के छात्र पर बरकते हैं, इससे क्षत शीघ्रपूरित होजाता है। पसों को शीतल जल में भिगा के अभिष्यंत्र में श्रीखों पर तथा नासूर के छात्र पर बोधते हैं। बीज को पीस जल में मिला गाँठ पर चुपड़ने से उसके भीतर तत्काल राध पड़कर वह विदीर्ण होजाता है । के० एम० नदकारणी - प्रभाव - अपक फल, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir त श्रत्यग्ल I पक्व फलमज्जा - शैश्य कारक, आध्मानहर, पाचक, कोष्ठमृदुकर, मूल्यवान स्कर्वीहर ( Antiscorbutic ) और पित्तनाशक है। बीज संग्राहक, कोमल पत्र तथा go शेल्यकारक तथा पित्तघ्न हैं। बीज का स्क्र वर्णीय बहिर त्वक् मृदु संग्राहक और वृक्षस्व संग्राहक व बल्य है । उपयोग - एक या दो वर्ष की पुरानी पकी इमली यकृत, आमाशय तथा श्रांत्रनैर्बल्य में हितकर है । प्रथम पक्वफल मलावरोध में लाभदायक है। भारतीय श्राहारमें इमली चटनी, कढ़ो तथा शर्बत रूप से बहुत उपयोग में छाती हैं। कोट मकर रूप से यह बालकों के स्वर में भी हितकर है। इस हेतु इमली, अजीर और श्रलुबोखारा इनका शर्बत प्रस्तुत कर १ से २ड्राम की मात्रा में उपयोग किया जाता है । १ श्राउंस (२॥ तो० ) इमली का फल और १ घास खजूर इनको पाव सेर दुग्ध में क्वचित कर छान लें। इसमें किञ्चित् लवंग तथा इलायची और रत्ती श्राध रत्ती कपूर सम्मिलित करने से उत्तम कोष्टमृदुकर पानक प्रस्तुत होता है । यह ज्वर अंशुघात और प्रादाहिक विकारों में लाभदायक है । स्कर्वी (Senrvy ) के नाशन व प्रतिषेधन हेतु इमली उत्तम है । प्रवाहिका में इसके बीच का चूर्ण प्रयोग में श्राता है I गुल्फ तथा संधि-शोध पर सूजन एवं वेदना को कम करने के लिए अम्लिका पत्र को जब के साथ कुचलकर इसकी पुल्टिस बाँधते हैं। तिन्तिड़ी-फल- मजा एवं पत्र को कथित कर बनाया हुआ धन शर्बत, उत्तापाधिक्य एवं दग्धजन्य शोध के निवारणार्थ उत्तम है । मन्द रातों की स्वास्थ्यकर-क्रिया अभिवृद्धि के लिए इमली के पत्र का काथ वाचन रूप से उपयोग में आता है । प्रवाहिका में इसके पत्तियों के स्वरस को बाल किए हुए लोहे से चौंक कर देते हैं। पुरातन For Private and Personal Use Only Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अम्लिका अम्लिकापानम् "प्रवाहिका में वीजके रक्त वाह्यत्वक् के चूर्ण को क्षत में इसका कवल हितकर है। इमली के बीज ड्राम की मात्रा में मोदक रूप से उपयोग में लाते श्राम वा रातिमारमें व्यवहत होते हैं। स्वयं शुष्कहैं । स्वाद हेतु इसमें तिगुना जीरा का चूर्ण भूत इमली की छाल का क्षार मूत्राम्लता तथा और पर्याप्त परिमाण में खजूर खंड डालते हैं। पूयमेह में क्षारीय औषध रूप से प्रयुक्त होता है। इसकी छाल की भस्म का पाचक रूप से (आर० एन० खोरी, भा०२प्र. २३१)। श्रान्तरिक उपयोग होता है। हाल को सैन्धव के अमिलका वृत के वाह्यापरि त्वक् द्वारा साथ एक मृत्तिका पात्र में रखकर जला लें । जब वनभस्म-निर्माण-क्रम श्वेत भम्म हो जाए तर चर्य कर रखें। १ से २ सर्व प्रथम इमली वृक्ष की ऊपरी शुष्क छाल ग्रेन की मात्रा में अजीर्ण तथा उदरशूल की यह को एकत्रित कर उसके छोटे छोटे टुकड़े करले, एक उत्तम औषध है। मुख एवं उन्नत के निवा- किंतु बारीक चूर्ण न करें। फिर टाट श्रादि के रणार्थ इसकी भस्म को जल में घोलकर इसका टुकड़े की एक लम्बी थैली बनाएँ। उसमें नीचे गण्डूप कराते हैं । (ई. मे० मे.) एक अंगुल मोटा उक्र इमली के टुकजों को बिछा पार० एन० चोपग दें और ऊपर से शुद्धबंग ( Tin ) के कण्टक इमली के बीज ( चियाँ) की बाहरी लाल वेधी पत्र के छोटे छोटे टुकड़े काटकर थोड़ी थोड़ी स्वचा प्रवाहिका एवं अतिसार की उत्तम औषध दूरी पर रख दें और ऊपर से फिर उक्र इमली के ख याल की जाती है। अतएव १. ग्रेन (५ टुकड़ों को बिछा दें। इसी भाँति थैली को पूरी रत्ता) की मात्रा में इसके बीज का चूण सम कर उसकी संधियों को भली प्रकार कस कर सी भाग जीरा व शर्करा के साथ दिन में दो सीन बार दें। पुनः कपरोटी कर सुखा लें। तदनन्तर उसे उपयोग किया जाता है । अादनी कटका में इसके गजपुट में रख अग्नि दें। स्वांग शीतल होने पर पक्व फल का गूदा अत्यन्त प्रभावात्मक को- श्राहिस्ते से फूल हुए वंग के टुकड़ों को एकत्रित मुमुकर गिना जाता है । नीबू के अभाव में करले। यह सोशम श्वेत बंग की भस्म प्रस्तुत ऐरिस्कॉब्युटिक (Antiscorbutic) गुण होगी । के लिए इसका उपयोग किया जा सकता है। उपयोग-सम्पूर्ण वीर्यरोगों यथा प्रमेह, (इं० १० इं० पृ०५६७) शुक्रमेह, शीघ्रपतन और स्वप्नदोष प्रभ ति के हिन्दुस्तानी वैद्य-इमली को शीतल लिए रामबाण औषध है। यह सैकड़ों बार पाचक, साफ दस्त लानेवाली, दस्त की कब्जिायत परीक्षा में प्राचुकी है। और घर में अत्यंत उपयोगी गणना करते हैं। . मात्रा व सेवन-विधि-१ रती से ४ रशी तक हमेली की फली के ऊपर की छाल को राख को उपयुक औषध वा अनुपान के साथ प्रातः सायं खारके साश दवा म डालते हैं। पत्तोंको सूजन पर सेवन करें। बाँधने से सूजन उतर जाती है। अम्लिकाकन्दः amlika-kandah-सं० पु. पक तिन्तिड़ी-फल-मज्जा स्कर्वी रोग प्रतिषेधक, अम्लनालिका-म० । वै० निघः । अमहर एवं मदुरेचक है। यह ज्वर, तृष्णा, अंशु-अम्लिका(प्र)पान(क)amlikipanaka-हिं पु.॥ घात (सर्दी गर्मी ) एवं पित्तप्रधान बान्ति रोग | अम्लिकापानम् amlika-panam-संकी। में व्यवहत होती है। रेचन हेतु, यह चिरकारी तिन्तिीपानक, अम्लिकाफल-प्रपानक, अमली कोष्ठबद्ध रोग में हितकर है। चोट लगने के का पन्ना । तेतुल पाना-बं०। कारण यदि किसी अंग में सूजन हो तो कच्ची x विधि-पकी अमली को जल में भिगोकर खूब इमली और इमली पत्र को पीसकर उष्णकर लें मलले'; उसमें सफ़ेद बूरा, मरिच, लौंग और . भौर शो थयुक्त अंग पर इसका प्रलेप करें । मुख : कपूर श्रादि डालकर सुवासित करले। इसको For Private and Personal Use Only Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अम्लिका बटकः अम्लोत्पादक सेल अमली का प्रपानक (पन्ना) कहते हैं। यह | अम्लीन चिंचोर amlina.chinchor-गु० अमली का पना वातविनाशक, पित्त तथा कफ- अमली,अम्लिका। Tamarind ('Tana. कारक, रुचिकारक और अग्निवर्धक है । भा० पूर rindus Indica.) ई० मे मे। . पानकवर्गः। अम्लीय; amliyah-सं० पु. अम्लवेतस । भम्लिकावटकः amlika-vatakah-सं०। (Rumex vesicarius.) चै० निघः । पु० वटक विशेष, अमली का बड़ा (बारा) | | अम्लीय-अम्लजिद amliya-amlajida-हिं. अम्ल बड़ा-वं. पु. ( Acidie oxide.) अम्लीय भोषिद विधि-पक्की श्रमलीको कतर कर जल में | वा ऊम्मिद । यह जल में घुलकर अम्ल बनाते श्रौटाएँ और जल के साथ ही मलले, पश्चात् . हैं, और प्रोपजन तथा श्रधातुओं के. संयोग उस बनाए हुए पानी में बड़े छोड़ दें और नमक से बनते हैं। देखो-ओविद। मसाला प्रादि डाल दें, तो अमली के बड़े बन | अम्लुकी amluki- सामसुन्दर, सिरस, जाते हैं। शिरीष । ( Albiz.zia Stipulata.) गुण-यह बड़े रुचिकारक और अग्निदीपक हैं ! | अम्लुकी umluki- बम्ब० श्रामला । (Phylla. इनमें पूर्वोक्त बड़ों के भी सब गुण हैं। भा० ! nthus Enblica.) मेमो० । प्र० ख० । अम्लु amlu-५० चोह । हक! प्रॉक्जीरिया डाइअम्लिकासार amika-sāra-हिं० संज्ञा पुं० | Tigar ( Oxyria Digyna, Hill. ), at ærger (Acidum Tartari. प्रो. इलेटिअर (0. Elatior.), प्रॉ. cum.) रेनिफॉर्मिस (O. Renifornis, IIone.) अम्ली amli-सं० रो० (3) जलवेतस । वै० -ले। नित्र. २ भा० मदात्यय चि. खजूरादि मन्थ । । . प्रयोगांश-~~फल । (२) चुक्रिका-सं० । टकपाल-बं० । See- | उत्पत्त-स्थान-पाल्पीय हिमालय, सिक्रिम Chukrika. । (३) तिन्तिड़ी, इमली, से काश्मीर पर्यन्त ।। अम्लिका । ( Tamarindus Indica.) रा०नि०१० ११ । भा०पू०१ भा० फल-व०।। उपयोग-चम्बामें यह कच्चा ही और चटनी (४) चांगेरी। (Oxalis monadelpha.) ! बनाकर खाया जाता है तथा शीतल ख्याल किया मे० . लद्विकं । -हिं० स्त्री०, (५) अमारी । जाता है । कनावार में यह औषध रूप से प्रसिद्ध (Antidesma Diandrum.)। (६) है । स्टयुबर्ट । अमलासा । ( Bauhinia Malabarica, अम्लाटक: amlotakah-सं० पु. अश्मन्तक Povb.) मेमो०। वृक्ष । श्रामरोडा-हिं० । अम्लकुचाइ-बं० । अम्लीका amlika-सं० स्ना० (१) तिन्तिड़ी, । रत्ना० } See-Ashuan tak. अमली, अम्लिका । (Tamurindus | अम्लांटज: amlora.jath-सं० पु. चांगेरी । Indica.) अ० टी०। (२) अम्लोद्गार, (Oxalis corniculata.) बड़ श्रामरुल खष्टा इकार । सु०नि० ६ ०। पाता-बं० । च० द. चातुर्थ-ज्व० चि। अस्लीकाफलम् amika phalam-सं० क्ली "अम्लोटजसहस्रेण दलेन ।" तिन्तिड़ी फल, अमली । 'Tamarindus | अम्लोत्तमम् a mobtainam-सं०क्लो. दाहिम, Indica. (Fruit of.)। देखो-अम्लिका । अनार | Pomegranate (Punica अम्लीका सत amlika-sat-हिं० संज्ञा पु० granatum.) प० मु०। अम्लि काम्ल । देखो-एसिडम् टाटीरिक अम्लोत्पादक सेल amlotpadak-sela-हिं. (Aciduin Tartaricom.) स्त्री..(0xytic cell.) अम्लजनक सेल । For Private and Personal Use Only Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir . भम्सानिया अम्लोद्गार anlodgāra-हिं० संज्ञा स्त्री० :. उत्पत्ति-स्थान ---शीतोष्ण तथा श्राल्पीय [सं०] खट्टा डकार । हिमालय, युरूप, पश्चिमतथा मध्य एसिया और अम्लोषित amloshita-सं० पु. सर्वाक्षिगत जापान । रोग विशेष। इतिहास-उपरोक दोनों पौधे मुश्किल से लक्षण - पिर और रक की अधिकता वाले भिन्न है। इनमें से अम्सानिया (E. pachy. दोषों के कारण अन्न का सार भाग खट्टा होकर elada), एफिडा वल्गेरिस (E.Vulgaris) शिराओं में होता हुश्रा नेत्र को श्याव लोहितवर्ण की अपेक्षा अधिक शकिशाली एवं विषमतल का कर देता है तथा सूजन, दाह, पाक, अश्रुपूर्ण (खुग्दुरा ) होता है । इनमें से प्रथम के विषय में और धुधलापन पैदा कर देता है। यथा श्री जे. डी० एकर महोदय लिखते है:"अम्लोषितोऽयम् इत्युक्रा गदा: पोडश "इसके बालियों तथा पुष्प में कोई विशेष सर्वगाः ।" वा० उत्तर० प्र०.१६॥ बात नहीं होती, सिवा इसके कि इसमें मम्लोसा amlosa-हिं० (१) अमली ( Phyll- : न्यूनाधिक हाशियायुक्र बैक्टस (पीपिक पत्र) anthus emblica)। (२) (Bauhinia- होते हैं ।" अम्सानिया ( हुम) की शुष्क Malabarica. Roxb.) इसका निर्यास तथा । शाखाएँ अब भी फारस से भारतवर्ष में पत्र खाद्य कार्य में प्राता है । मेमो० । लाई जाती हैं । इसमें औषधीय गुण-धर्म होने अम्रयुलाज amlyulaj-अ० दुग्ध दन्तोद्भव । का निश्चय किया जाता है। उक्त पौधे को प्राचीन दूध के दात निकलना । नार्य (एरियन) उपयोगमें लाते थे और सम्भवतः अम्बात् amvat-अ० (ब० व०), मौन, मय्यत । बेद वर्णित सोम यही है । (डीमक ) (१००)। मृत्यु, मरण । ( Deatir) वानस्पतिक-वर्णन-ए० बल्गेरिस एक निग्न अम्शाज ams haj-अ० शारीरिक धातुएँ । स्त्री भूमि में उत्पन्न होने वाला, कठिन, गठा हुआ तथा पुरुष वीर्य का एकत्रीभवन जो अमिश्रित पौधा है, जिसकी जड़ें परस्पर लिपटी हुई और अचयय का प्राधार बनता है। स्त्री तथा पुरुष के शास्थाएँ (उत्थित,खड़ी) हरितवर्णकी होती है, एवं वीर्य का सम्मेलन । स्त्री व पुरुष वीर्य के पार. जिन पर धारियाँ पड़ी रहती हैं और जो परिक सम्मेलन से जो नुरफा में इत्तिलात लगभग समतल ( चिकण ) होती है । होता है। पौडिपकपत्र मध्यदिक् शुण्डाकार, धारमम्सानिया amsaniya-40 अस्मानिया वर्जित, लोमश, क्वचित् चन्द्र रेखाकार होता है। (मेमो०) बुद्गुर, के(-चे) वा, बुत्शुर,, खना। पुष्पाच्छादनक ( Spikeleets ) से । एफिड़ा पेकिन डा ( Ephedra Pachycs- इंच, प्रवृन्तक, प्रायः श्रावतंयुक्र; फल प्रायः ada, Boiss.), ए० जिरार्डिएमा (E. मांसल, रकवण', रसपूर्ण, पौपिकपत्र युग और •Gerardiana, Wull.)-ले० । फोक एक या दो बीजयुक्त होता है। बी युगलोसतो-सन० । हुम, हुमा (फा०, बम्ब०)। म० दर मा समोमतोदर होते हैं। स्वाद- (टहनी) मोह-जापा० । खण्ड, स्वम-कुनवर । निशोथवत् और कयाय। इनके पन्ने वा परत काट कर प्रणुदर्शक से देखने पर इनके तम्तु पफिडा वर्ग (N. 0. Gnetaceae) एक प्रकार के रक्करस से पूर्ण लक्षित होते हैं। उत्पत्ति-स्थान-पश्चिमो हिमालय, अफगानि रासायनिक संगठन- (पा संयोगी दय्य) स्तान और पूर्वी फारस । इसके प्रकारडमें एफीडीन (Ephedrine) ना मक एक सारीय सत्व पाया जाता है जिसका संकेत नोट-इसका द्वितीय भेद, एफिदा वल्गेरिस (Ephedra vulgaris, Rich. ) है। ___ सूत्र क°उद नत्र, ऊ. है। भोषजनीकरण For Private and Personal Use Only Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अम्सानिया ५५३ अम्हर्टिया नोबिलिस द्वारा उ सस्व लोयानाम्ल ( Benzoic- समय के समीप या उससे प्रथम, जबकि तापक्रम acid), मॉनोमीथिल अमीन ( Monome- घटने लगा हो, मूत्रस्त्राव होते देखा गया। इससे thylamine) और चुक्रिकाम्ल अर्थात् काष्ठाग्ल पाचन एवं श्रान्त्रिक क्रिया भी बढ़ती हुई देखी (Oxalic acil ) में विश्लेषित हो गई। पुरातन रोगियों में एफीदा का प्रभाव कम जाता है । एफीड्रीन (घुलन बिन्दु वा द्रवणार प्रदर्शित होता है। प्रामवात संबन्धी गृध्रसी तथा ३०° शतांश ) को उत्ताप पहुँचाने पर प्राइसो. अस्थिसोषुम्नकांड प्रदाह के दो रोगियों में तो एफीदीन Isoephedrine (द्रवणांक ११४ ° मुश्किल से कोई प्रभाव उत्पन्न हुा । परन्तु, यहाँ शतांश ) प्राप्त होता है । डॉ० एन० नेगी । पर यह विचारणीय बात है कि उक्त दोनों ए. बल्गेरिस की टहनियों में ३ प्रतिशत अवस्थानों में ऐएिटपाइरिन, सैलिसिलेट ऑफ़ कपायिन होता है। मिस्टर जे० जी० प्रेब्ल सोढा, ऐगिटफेबीन तथा सेनोन इत्यादि औषधे (1८८८). भी लाभ प्रदान करने में असफल रहीं । डॉ. बीक्टीन द्वारा निर्मित काथ की मात्रा प्रयोगांश-जड़ और शुष्क शाम्वाएं । औषध-निर्माण-जड़ का क्वाथ (४० में 1) यह है :-ौषध ३.८५ ग्राम और जल १० ग्राम । मात्रा-प्राधा से १ आउंस । डॉ० कोबर्ट बतलाते है कि एफीडीन ०.२० प्रभाव तथा उपयोग-यह परिवर्तक (रसायन), प्राम की मात्रा में कुक्कुर एवं बिल्ली की शिरा मूग्रल, प्रामाशग बलप्रद और बल्य है (इं मे० में अन्तःक्षेप द्वारा प्रविष्ट किया गया और इससे मे० ) । सर्व प्रथम डाँ० पन नेगी (टोकियो) ने सीबू उरोजना, सार्वा गिक आक्षेप, याच शोध इस बात की ओर ध्यान आकृष्ट की, कि ए. वल्गे- तथा नेत्रकनीनिकाप्रसार उत्पन होते देखा रिस में एफीडीन नामक एक ज्ञारीय सत्व होता गया । है, जिसमें नेग्रकनीनिका-प्रसारक गुण है, श्रम्सुल amsul-पश्चिम घाट. कोकम, भिरण्ड। तथा ऐट्रोपीन (धन्तूरीन) के स्थान में इसका Mangosteen ( Garcinia xanthउपयोग किया जा सकता है। डॉक्टर टी०वी० oxymus, Hook.) फा० इ. १ भा० । बीकटीन ने ध्यान दिलाया कि एक बल्गेरिस देखो-दम्पिल । को जड़ तथा प्रकाण्ड द्वारा निर्मित क्वाथ रूस देशमें प्रामवात, गठिया एवं उपदंश रोग की और अम्सेज amsel-गों. कोकम, भिरण्ड-हिं०। इसके फल का स्वरस श्वासपथ सम्बन्धी रोगों की See-Kokam. प्रख्यात औषध है। | अम्सेल रताम्बिसाल amsel.latāmbisil उग्र तथा पुरातन प्रामवात (Rheuinati- -गो० कोकम की छाल (Garcinia pursm ) के अनेक रोगियों को उक्र क्वाथ puria, bark of-) ई. मे० मे० । फा. का स्वयं व्यवहार कराने के पश्चात् अन्ततः वे इं० १ भा०। इस परिणाम पर पहुँचे कि उक्र पौधा पेशी एवं श्रम्हक amhaq-अ. शुद्ध श्वेत बिना चमक संधि सम्बन्धी उग्र रोगों की प्रधान अमूल्य के जैसे चूने का रंग, गोराचिट्टा । औषध है । इससे व्यथा कम हो जाती है; नाड़ी | अमहदन्दी amha-dandi-पं० श्रोड, चूची-पं०। मन्द तथा कोमल और श्वासोच्छ्वास सरल मेमो०। हो जाता है।५-६ दिनमें तापक्रम स्वस्थ दशा की | श्राम्हर्षिया नोव ल am herstia noble ) तरह हो जाता और संधिशोथ लुप्तप्राय हो जाता | महटिया नोबिलिस am herstia nobiहै। और लगभग १२ दिवस के बाद रोगी lis, Dr. Wall, रोग मुक हो जाता है। कतिपय रोगियों में उस ई०, ले० थौका । ई० है. गा। For Private and Personal Use Only Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अम्हौरी अयप्पनई अम्हौरी a mhouri-हिं० संज्ञा स्त्री० [सं० आयुर्वेद के अनुसार शिशिर, वसन्त और अम्भस जल, अर्थात् पसीना+ौरी (प्रत्य०)]/ प्रीम इन तीन तश्रों का उत्तरायण काल होता बहुत छोटी छोटी फुन्सियाँ जो गरमी के दिनों में । है। यह पुरुष के बल का श्रादान काल है अर्थात् पसीने के कारण लोगों के शरीर में निकल पाती उत्तरायण में सूर्य प्रति दिन मनुष्य के बल को हैं । अँधोरी। हरण करता है। उत्तरायण में सर्यकाल में सूर्य अय: ayah-सं० पु. १.. का मार्ग बदलने के कारण सूर्य और पवन अत्यन्त अय ayia-हि. संज्ञा प०१(१) लोह, लोहा प्रचण्ड, गर्म और रूक्ष हो जाते हैं और पृथ्वी के Iron ( Feirtm )। ( २ ) अग्नि । | सौम्य गुणों को नष्ट कर देते हैं। क्रम से इन ( Fire)। (३) अस्त्र शस्त्र । इथियार । ऋतुओं में तिक, कगाय और कटु रस उत्तरोत्तर भय aya-ता. पपड़ी-हिं० । रसबीज-कना० । बलवान हो जाते हैं अर्थात् शिशिरमें तिक्र, बसन्त नविल्ली-ते। क्वल--म०] ( Holoptelea, में कपाय और ग्रीष्म में कट रस बलवान हो जाते Integrifolia, Planch.) फा० ई० है। इस कहे हुए हेतुसे बलका आदान अग्नि रूप भा०३। है तथा इसके विपरीत वर्षा, शरद और हेमन्त अयङ्गोलम् ayangoulam-मल० अङ्काल, | ये तीन ऋतु दक्षिणायन कहलाती है। इन तीन ढेरा । (Alangium decapetalumm, | ऋतुओं में पुरुष के बल की वृद्धि होती है। Lam.) स० फा००। इसको विसर्ग काल कहते हैं । मेघ की वृष्टि और अयञ्चेण्डरम् ayachchenduram-ता० मण्डर, ठंडे पवन के चलने से पृथ्वी पुष्ट और शीतल लौहकिट्ट । ( Ferri peroxiile.) स० हो जाती है और इस शीतलता के कारण चन्द्रमा बलवान हो जाता है और सूर्य हीनता को प्राप्त फा० इं। होता है इस ऋतु में उत्तरोत्तर खट्टे, स्वारे (लवण) प्रयत्ला ayatla-पं० एइलत, एल्लाल, प्रारूड, और मधुर रस बलवान हो जाते हैं, जैसे वर्षा में अखान । खट्टा, शरद में लवण और हेमन्त में मधुर रस प्रयनम् ayanam--संकलो अयन ayan--हि. संज्ञा प. ) गात बलवान हो जाते हैं । या० सू०३ श्र० । सु० चाल । (२)A path, the half year, i.e. the sun's course north or (३) मार्ग, राह । (४) ग्राम । (५) south of the equator, स्थान । (६) घर । (७) काल, समय । (८) अंश । (१) गाय या भैंस के थन के ऊपर का ___ सूर्य वा चन्द्रमा की दक्षिण से उरार वा उत्तर से दक्षिण की गति वा प्रवृत्ति वह भाग जिसमें दूध भरा रहता है। जिसको उत्तरायण और दक्षिणायन कहते हैं। अयनकाल ayana-kāla-हिं संज्ञा पं. मे० ननिक। [सं०] (१) बह काल जो एक अग्रम में नोट-बारह राशि चक्र का प्राधा । मकर से ! लगे। (२) छः महीने का काल । मिथुन तक को ६ राशियों को उमरायण कहते ' अयनी ayari-ता. अञ्जली । पतफणस-म० । हैं; क्योंकि इसमें स्थित सूर्य वा चंद्र पूर्व से! ऐनी, अन्सजेनी-मल 1 हिबलसु,हेस्वा-कना। पश्चिम को जाते हुए भी क्रम से कुछ कुछ उत्तर (Artocarpus Hirsuta, Lamk.) को मुकते जाते हैं। ऐसे ही कर्क से धन की संक्रांति तक जब सूर्य या चन्द्र की गति दक्षिण ! अयपान ayapan-हिं०.मह०, बं० ) प्रजाप-गु०॥ की ओर झुकी दिखाई देती है तब दक्षिणायन । अयपानी ayapani-ता०, ०९ विशल्य - होता है। | अयप्पनई ayappanai-ता. कर्ण-सं०। मेमो०। For Private and Personal Use Only Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रयम् २५५ प्रयाउलबही अयपान-हिं०, म०, बं०i ( Eupatorium अयस्कार: ayas-kirah-सं० ) (1) Ay: pana, Pent ) स०फा० ई० । फा० अयस्कार ayaskāra हिं० संज्ञा पु. ) जवान इं०२ भा० । देखो-यापना। भाग | ( Foreleg, ) त्रिका० । (२) अयम् ayam-जा. खुम्बी, कुम्बी-हिं० । ( Ca-! लोहार । reya Arbores, Rob.) मेमो०। अयस्कृतिः ayaskritih-सं० स्त्री० (१) झोलाद प्रयमोदकम् aya-modakam-मल. अज के बारीक पत्र बनाकर लत्रण वर्ग से उन पर लेप घाइन-दि । Chrum ( Ptychotis) करके जंगली कंडों में १६ बार खूब तपाकर निफला और सालसारादिगण के क्वाथ में उनको बुझाएँ । A jowam, IV. C. । स० फा० इं। फिर इसी तरह १६ बार खैर के कोयलों में तपा अयलूरचे ayalirache-फा० अगर-हिं०।। कर बुझाएँ, ठण्डा होने पर उनका बहुत बारीक ( Alce wood.) चूण कर ले, फिर गाड़े कपड़े से छानकर भयव ayava-हिं० संज्ञा पुं० [सं०] पुरीष रक्खें । अलानुसार इसकी मात्रा घी और शहद के का एक कीड़ा जो यव से छोटा होता है । (२) साथ खाएँ। इसके पच जाने पर खटाई और शुक्र। नमक को छोड़कर व्याधिशामक श्राहार करें। भयशिन्दूरमु aya-shindi.mu-ता० मराडूर । इसके ४०० तो० खाने से कुष्ठ, प्रमेह, मेदवृद्धि, ( Ferri poroxide.) स० फा० ई० । शोथ, पाण्डु, उन्माद और अपस्मार नष्ट होते अयम् ayam-सं० नी । (१) लौह हैं। रस० योसा०। (२) प्रमेह विषयक भयस ayas " मात्र । लोहा।। योग विशेष । वा० चि० भ० १२ प्रमेह । अयसम् ayasam " Iron (Fe: ! अयस्कोट: ayaskorah-सं०० मण्डर,लौहप्रयस ayasa-हि. संशा पु. j rm. ) किट्ट । (Ferri peroxidle.) वै० निय० । च० द. पाण्डु-त्रि । रत्ना०1 ( २ ) कान्त- | अयस्तम्भिनी ayastambhini-सं० स्त्री० लौह । ( Load-Stone.) प० मु०। शिवलिङ्गी । ( Bryonia Laciniosa.) (३) मुण्डलीह । See-mundalouhah. अयस्मयी ayasmayi-सं० त्रि० लोहे की बनी रा०नि०व०१३ । देखो-लोह । हुई । अथर्व० । सू० ३७ । - । का०४। अयस्कन्त ayas-kanta-हिं० पु. अयमं ayakshmam-सं० त्रि० . अपस्कान्त ayaskanta-हिस श्रयम ayakshma-हि० वि० (१) अयस्कान्त: ayas-kantah-सं० पु. नीरोग, रोग रहित । (२) निरुपद्रव । बाधा (.) कान्तलौह । ग०नि०व०१२ । लौह सून्य । अथर्व । सू० २६ । १२ । का० ५। चुम्बुक, चुबक । (२) कान्त पाषाण । चुम्बक पत्थर। गुण-लेखन, शीतल,मेदकारक व विषघ्न श्या aayaa-अ० असाध्य या कष्टसाध्य रोग। है। मद०व०४। Load stone (Ferri नोट-शया तथा दा का भेद देखो "दा " में। Oxidum magneticuni.) graag ayául-bahra अयस्कान्त शिला ayaskan ta-shila-सं० मजल बह. marzul-bahra सामुद्रिक स्त्री० कान्तलोह, लोहचुम्बक,चुम्यक । ( Ma- ग़स् यान बह्रो ghasyan-bahri, रोग, gnet, loadistone.) 4. निघ। समुद्रीय व्याधियाँ, दरियाई बीमारी, जहाज़ी अयस्कान्तिम् ayas-kāntim-सं० क्लो. एक बीमारी, जहाजी कै, समुद्र मात्रा करते हुए जहाज़ धातुतत्व विशेष । मैलेनीज़ (Manganese.)। में किसी किसी को मतली तथा अमन की व्याधि -इ । देखो मैले नोज़ वा मैनेसियम्। हो जाती है। विशेषकर वे लोग इस म्याधि से ta-०५. . संज्ञा पुं. For Private and Personal Use Only Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अयाचित श्रायापान अधिक ग्रसित होते है जो प्रथम बार जहाभा यात्रा करते हैं। सी सिक्नेस (Sea sickness.), नोपेथिया ( Naupathia)-ई। अयाचित ayachita-सं क्ली० अमृत नामक आहार, बिना माँगी मिली वस्तु । "अमृतं स्याद याचितम्" इति मनुः। प्रयात अस्ल ayat-asl-अज्ञात । अयादि लेप ayādi-lepa-सं० ली. लोहे का बुरादा, भांगरा, निफला, और काली मिट्टी को ईख के रस में १ मास तक रख कर लेप करने से बालों का श्वेत होना बन्द होता है। वृ० निकर अयातयाम ayatayama-हि. वि० [सं०।। (1) जिसको एक पहर न बीता हो। (२) जो बासी न हो। ताजा। (३) विगत दोष । | शुन्द 1(४) मनतिक्रांत काल का । दीक समय -० । रामागणम्, विशरयकरणी-सं० (० श० सिं०). मिश्र वर्ग (N. 0. Compositae. ) नॉट ऑफिशल (Not official.) उत्पत्ति-स्थान-श्रमरीका वा प्राजील इसका मूल निवासस्थान है। परन्तु अधिक काल से यह भारतवर्ष में भी लगाया गया है। यह माई स्थानों, चरागाहों तथा झील एवं नदी तटों पर होता है। अयादत aayadat-. बीमार पुर्सी, रोगी से उसकी हालत पूछना । अथानम् ayanam-सं० ली० । स्वभाव, अयान ayina-हिं० संज्ञा पु. । प्रकृति, निसर्ग । नेघर ( Nature )-इं०। हारा० । (२) प्रचंचलता। स्थिरता । -वि० [सं०] विना सवारी का । पैदल । शयान aayan-( रसा० परि०), पारद, पारा । (Mercury). प्रयाना ayin-मह. खाजा हिं० । कर्गनेलिया -feo I (Briedolia montana ) मेमो० । प्रयापनम् ayspanam-को०) --हिं०, मह० प्रयापान ayapana बं० । अयपानि अयापना ayapana -ता,ते । घरargra áyá pána कल, तत्री-पं०। अग(या)पा(प)नम्-को । अल्लाप, एल्लिपा, अशापा-गु० । युपेटोरियम् प्रयापना (Eupato. rium Ayapana, Vent.)-ले० । बोनसेट ( Boneset), थॉरोवर्ट ('Thorough wort )-इं० । अयप्पनै-ता० । निर्विषा । इतिहास-घेण्टीनाट ने इसे अमेजन नदी (दक्षिण अमरीका की एक नदी) तट पर भी उगा हुधा पाया । इसका एक अन्य भेद युपेटोरियम् पफोलिएटम् ( E. Perfoliatum ) अमरीका में जबरघ्न ख़याल किया जाता है। पेन्सली इसके विषय में वर्णन करते हैं-"यह एक स्वघुतुप है जो सर्व प्रथम फ्रांसीयद्वीपों से भारनवर्ष में लाया गया। देशी चिकित्सकों को प्रव भी इसके विषय में बहुत कम ज्ञात है। यद्यपि इसके प्रिय, किञ्चित् सुगंधिमय, किन्तु विशेष गंध के कारण इसमें औषधीय गुण होने का उन्हें विश्वास है। मॉरीशियस में यह बहुत विख्यात है। और यहाँ इसे परिवर्तक तथा स्कीनाशक ट्रायाल किया जाता है ।रसने अन्तः रूप से भौषधीय उपयोग के लिए युरूपीय चिकित्सकों को अब तक सर्वधा निराश रक्खा है। इसकी पत्तियों के शीतकषाय का स्वाद ग्राह्य एवं कुछ कुछ मसाजावत् होता है और यह एक उत्तम पथ्य पेय है। ताज़ा होने पर कुचल कर मुख मण्डलके बुरे पतों के परिमार्जनार्थ प्रयुक करने के लिए यह सर्वोत्तम आगाशोधक है" । डायर महोदय माननीय ऐन्सली को सूचित करते हैं कि इसे शुष्क कर, फ्रांस जहाँ कि चीनी चाय की प्रतिनिधि स्वरूप, एक प्रकार की चाय बनाने में इसका उपयोग होता है, भोजन के लिए बोधन (Bourbon) द्वीप में उक्त पौधे की कृषि की जाती है। गिपर्ट (Guibourt) के अनुसार अब यह करीब करीब विस्मृत सा होगया है । फार्माकोपिया ऑफ इण्डिया से इसके विषय में निम्न सूचना For Private and Personal Use Only Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रयापान भयापान मिलती है.-'यह दक्षिणी अमरीकाका एक पौधा है जो अब भारतवर्ष के विभिन्न प्रान्तों तथा जात्रा लंका प्रभृति द्वीपों में उत्पन्न होता है और साधारणतः अपने ग्राजील संज्ञा अयापान नाम से विख्यात है। सम्पूर्ण पौधा सुगंधित किञ्चित् कटु वा कषाय स्वादयुक्त होता है। यह एक उत्तम उत्ते. जक, धक्ष्य तथा स्वेदक। बॉटन (Bouton) के कथनानुसार मॉरीशियस (Mauritius) के औषधीय पौधों में यह सर्व अष्ट प्रतीत होता है। अजीर्ण तथा या वा फुप्फुस के अन्य विकारों में शीतकपाय रूप से यह वहाँ दैनिक उपयोग की वस्तु है। उक्र द्वीप की सन १८५४ -५६ की विशूचिका महामारी में शरीर के वाह्य भाग की उप्मा के पुनरावर्तन तथा रणसंभ्रमण शैथिल्य को तर करने के लिए इसका अधिकता के साथ उपयोग किया गया है । सर्पदंश के प्रतिविष स्वरूप इसका अन्तः वा वहिः प्रयोग सफलता के साथ किया जा चुका है। यद्यपि सामान्य रूप से यह अज्ञात है, तथापि बागों ( यम्बई ) में प्रायः होता है और जो इसे जानते हैं वे इसकी बड़ी प्रशंसा करते हैं। डाइमोक वानस्पतिक विवरण-एक लघु भूलुण्ठित शुपवत् पौधा, ५ से ६ फीट ऊँचा, शाखाएं सरल रक्राम (सुखी मायन), कतिपय साधारण बिखरे हुए (विरल)लोमों से भ्याप्त, नूतन अंकुर एक प्रकारके श्वेत बासमीय नात्र के सूक्ष्म मात्रओंकी उपस्थिति के कारण कुछ कुछ भुर भुरे स्वरूप के होते हैं। पत्र सम्मुखवी, युग्म जिनके आधार प्रकार के चारों ओर संलग्न होते हैं तथा ४-५ इंच सम्बे और इंच चौड़े, मजापूर्ण, ऊर्ध्व पृष्ठ विषम (खुरदरा !, अधः पृष्ठ लोमश तथा राजीय विन्दु युक्त (पी.पी. एम.), चिकने (सम सल), भालाकार ( शंक्वाकार कचित् ), पारीवत्, साधारपर पतले शिराम्याप्त होते हैं, माध्यमिक नस (शिरा) मोटी, सुमी मायल, इसके मल ने से अच्छी गंध माती है। पुष्प प्राउडसेलबत्, बैंगनी; गंध निर्वन तथा सुगंधिमय कुछ कुछ, इश्कपेचा ( Ivy ) के समान, किन्तु अधिक माय; स्वाद सुगंधित, कटु तथा कषाय (विशेष प्रकार का) होता है । डाइमांक । पी० बी० एम०। रासायनिक संगठन-(या संयोगी अवयव) डा० डाइमॉक महोदय के विश्लेषणानुसार इसमें दो सत्व पाए गए । इनमें से (1) एक वर्णरहित उड़नशील तैल जो ताजे पौधा को जल के साथ परिचत करनेसे प्राप्त हुश्रा और (२) एक स्फटिकवत् (रवादार ) न्युट्रल ( उदासीन) सत्य जिसका नाम उन्होंने प्रयपानीन या श्रयाश्नीन (Ayapanin) रक्खा । जल में यह अविलेय तथा ईथर वा मधसार में विलेय होता है। इसके सूचीवत् दीर्थ रवे (स्फटिक) होते हैं। यह १५.० १६०° के उत्ताप पर सरलतापूर्वक उध्र्वयातित हो जाता है। प्रयोगांश-सम्पूर्ण पौधा (शुष्क पत्र, पुष्पावित शाखाएँ तथा कलिकाएँ वा कोंपल ) औषध कार्य में प्राता है। श्रीषध निर्माण-पत्र-स्वरस, मात्रा-से १ तो। शुकशुप-२० से ६० ग्रेन (१०-३. रत्तो) तरल सत्व-१ से २ फ्ल. हा०॥ घन सत्व-१० से २५ ग्रेन (१-१२॥ रत्ती ) शीत कषाय-(२० में 1 )-1 से ३ फ्लुक प्राउंस ( प्रभायावश्यकतानुसार )। युपेटोरीन (घन )-१ से ३ प्रेन ( से ॥ रत्ती)। इन्फ्युजम युपेटोरियाई ( Infusum Eupatorii)-ले०। हन्फ्यु जन अॉफ योनसेट ( Infusion of Boneset. )-ई० । घयपान शीत कषाय-हि.1 खिसाँदा प्रयापना -फा०, २०! . . निर्माण-विधि-एक भाग यूपेटोरियम् को १० भाग उण जल में ३० मिनट तक भिगोकर छान लें। मात्रा-प्राधा से १ फ्लु. पाउस। (२) फ्लुइड एक्सट्रैक्टम् युपेटोरियम् (Fluid Extractum Eupatorium)-ले० । फ्लुइड एक्सट्रैक्ट प्रॉफ युपेटोरियम् ( Fluid Extract of Eupatorium )-इ । अयपान तरल सत्व-हिं० । For Private and Personal Use Only Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अयापान www.kobatirth.org ५५८ खुलास हे अथापना सय्यात उ० मात्रा २० से ६० मिनिम ( बूंद ) । प्रभाव तथा उपयोग प्रयापान के शुष्क पत्र तथा पुरुष कैलम्बा के समान अमूल्य तिम्र बल्य रूप से प्रभाव करते हैं; किन्तु इसमें स्वेदक गुण भी है । उष्ण कषाय (१ श्राउंस से १ पाइंट पर्यन्त ) मद्यग्लास पूर्ण अर्थात् मद्य की शीशी की मात्रा में प्रति दो दो घंटे पश्चात् देने से अत्यन्त स्वेद स्राव होता है । गुले बाबूना ( Chamomile ) के उष्ण कषाय के समान प्रयुक्त परिमाण से चतुर्गुण मात्रा में यह वामक है और विरेचक भी । वायुप्रणालीय कास, संक्रामक प्रतिश्याय तथा मांसपेशीय श्रावात में त्वगोपरि प्रभाव हेतु इसका उपयोग किया जा चुका है और कहदाना तथा केचुओं को निकालने में इसके विरेचक गुण से लाभ प्राप्त किया गया हैं ।। ( मे० मे० हिटला ) प्रभाव में गुले बाबूना से अयपान की तुलना की जासकती है। सूक्ष्म मात्रा में यह उत्तेजक एवं कल्य और पूर्ण मात्रा में कोष्ठमृदुकर है । उपण कषाय वामक तथा स्वेदक है। शीत पूर्व ज्वर ( Ague) की शैव्यावस्था में तथा उम्र प्रदाह जन्य विकारों से पूर्व होने वाली निर्वलता ( depression ) में इसका लाभदायक उपयोग किया जा सकता है। इसका शीत कपाय, १ आउंस (पान पंचांग ) को १ पाइंट पर्यन्त जल में निर्मित किया जा सकता है तथा तीन तीन घंटे पर दो धाउंस की मात्रा में इसका उपयोग किया जा सकता है। डाइमॉक । कहा जाता है कि इसमें स्कर्वीनाशक तथा परिवर्तक (रसायन) गुण भी है । अमरीका के पीत ज्वर ( yellow fever) में इसके उष्ण कषाय की बड़ी प्रशंसा की जाती है (डॉ० होज़ैक) । इसके तरच सत्व की मात्रा १० से ३० मिनिम (बूंद ) है । पूर्ण मात्रा में यह कोष्ठशुद्धिकारक है। तथा इसे आमाशय या श्रान्त्रविकार, अजीर्ण, कास तथा शीत उवर में देते हैं। इं० मे० मे० । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यामीनून यह पौधा अमूल्य उग्रस्वेदक, बल्य, परिवर्तक, अन्तरुत्सेचापह्न ( या पचननिवारक ) वामक, ज्वरघ्न, मूत्रल और मृदु उत्तेजक गुणों से पूर्ण है। स्वेदक प्रभाव में यह गुले बाबुना से श्रेष्ठतर है । पाचकावयवों पर यह बल्य प्रभाव प्रदर्शित करता है। इससे पित्त स्राव बढ़ जाता हैं । अजी तथ उन दशाथों में, जिनमें उत्तेजक की यावश्यकता होती हैं तथा सविराम, स्वल्प विराम, आन्त्रिक तथा श्रन्य भाँति के ज्वरों, कास, शीत, संक्रामक प्रतिश्याय, प्रतिश्याय और निर्जलता में भी यह उत्तेजक बल्थ कहा गया है । सर्प तथा विषैले जानवरों के दंश पर इसका प्रस्तर (पुल्टिस) रूप से उपयोग होता है। पी० वी० एम० । तिक बल्य रूप से इसको श्रमाराय वा श्रां विकार जैसे- श्रजी में बरतते हैं । श्लेष्म निस्सारक रूप से कास और संक्रामक प्रतिश्याय में इसका उपयोग करते हैं। कास में यह एक अत्युत्तम औषध है । परियायनिवारक रूप से शीतज्वर तथा स्वेदक रूप से भासवात रोग में इसे प्रयुक्त करते हैं । म० श्र० डॉ० 1 रक्तपित्त, सय, प्रदर, अर्श, रक्तातिसार प्रभृति रक्तस्राव एवं किसी श्रंग के श्रस्त्र श्रादि से कट जाने पर रक्तस्राव होने में इसके पत्रस्वरस का आभ्यन्तर एवं बाम प्रयोग उपयोगी होता है 1 ( ० द० ) प्रतिनिधि-पाठा | श्रयापनाह ayápawah-fo (Eupatoium Repandun ) इं०] हैं० गा० । श्रयापनी ayapani-ता०, ते० श्ररखर पं० रञ्जेल उ० प० सू० | (Ayapana ) मेमो० । ध्यापनीन ayapanin इं० सत्व अथापना । देखो -- श्रयापना । अयापान ayapan - हिं० संज्ञा पुं० अयापानी ayapani-ato ( Eupatorium ayapana ) अयामीनून aayáminúna - यू० अफ्रीम | (Opium ) । For Private and Personal Use Only प्रयापना -fo Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अयाया ५५६ अम्ली अयोया aayayaa-अ० अपाहिज, पंगु, व्यर्थ, | (दवाए शरीफ) किया है। यह प्राचीन चिकि बेकाम, निर्बल , असमर्थ, शक्रिहीन, जो किसी त्सकों द्वारा योजित किया हुआ प्रथम रेचन है। काम के योग्य न हो। तदनन्तर इसके अवयवों में समय समय पर परि. अयार ayārn-६. पोरिस प्रोवेलिनोलिया वर्तन होता रहा है। ( Pieris Ovalifolia, D. Don. ), नोट-इसका उच्चारण अयारिज या इया. ऐण्डोमेडा श्रोवेलिफोलिया ( Androy. रज दोनों होता है। eda Ovalifolia, Wall. )- ले। अयारिज फैकरा ayarij-faiqra-अ० तल्ख अयस्ता, एइलन, एल्लल, अरुर, अर्वान-पं०। अर्थात् कडुआ अयारिज । यह एक तिक्क मिश्रित अधिर, अंगिअर, जग्गछाल-नेपा० । पिभाजय रेचक श्रोपध है ।म जकिसी किसीने इसका -भूटिक । कंगशिश्रोर-लेए० । अर्थ 'तिक्रता को लाभप्रद किया है। जब इसमें उत्पत्ति-स्थान-शीतोष्ण हिमालय, काशमीर शह म हज. ल (इंद्रायन का गूदा) सम्मिलित से भूटान पर्यन्त तथा खसिया पर्यत । किया जाता है तब इसको मुशह ह म कहते हैं। प्रयोगांश--पत्र, कलिका। यह शिरःशूल के प्रायः भेदोंके लिए लाभदायक है उपयोग-सूचमपन्न एवं कलिकाएँ बकरों के एवं आमाशय को सांद्र दोषों (अग्नतात गालीलिए विष हैं। कीड़ों के मारने के लिए इनका जह ) से शुद्ध करता है । मेरे प्राचार्य प्रायः इसे उपयोग होता है । इनका शीत कपाय वगोगों इत रीफल सगीर या इतरीफल करनीज या गुलमें उपयोग किया जाता है । (गम्बल) कंदमें मिलाकर उपयोगमें लाते थे । योग गिम्न हैप्रयाराजुतानी ayaranutani-यू० एक अप्रसिद्ध बालछड़, दालचीनी, ऊदबलसाँ, हब्यबलसा, तज, मस्तगी, तगर, केशर प्ररयेक १-१ भाग मयारुफम ayarufas-यू. जर्द सोसन । तथा एलुथा २ भाग सबको कूट छान कर तैयार (Hris). करें । मात्रा- मा० शहद तथा उष्ण जल के अयाल ayāla-हिं० पु०, स्त्री० [ तु० बाल ] साथ। घोड़े और सिंह आदि के गर्दन के बाल | केसर । । नोट-कोई कोई चिकित्सक एलुश्रा को शेष [१०] लड़के वाले । बालबच्च। औषधों के समान भाग लेकर अयारिज करा प्रयाह्वम् ayahvam-सं० क्ली. कांस्य धातु, ! प्रस्तुत करते हैं। इ० अ०) कासा । ( Bronze ). वै. निघ। अयारिज लुगाज़ियाayarij. lāghaziya-१० अयारिज ayarij--अ० इसका शाब्दिक अर्थ ईश्व- | 'लूगाज़िया' एक हकीमका नाम है । यह अयारिज रोय प्रौपध ( दवाए-इलाही ) है, किन्तु शिरःशूल, प्राधाशीशी ( अविभेदक ), वैशाह, तिन की परिभाषा में रेचक औपध को कहते हैं ख शाह, कर्णशूल, 'सर चकराना, (शिरोघूर्णन) और इसकी क्रिया-शक्ति (प्रभाव ) के कारण इसे बधिरता, अदाग (फालिज), कम्पमवायु, ल. परमेश्वर (अल्लाह) से सम्बन्धित करते हैं। क्रवा, माई, श्विन तथा कुष्ठ और अन्य सर्दमाही किसी किसी के मतानुसार प्रत्येक वह औषध, जो (श्लेष्मज) रोगों के लिए लाभप्रद है। योग अपने ईश्वरदत्त प्रभाव के कारण रेचन लाती है, यह हैउसे 'ईश्वरीय औषध' कहते हैं। किसी किसी ग्रंथ इंद्रायनका गूदा १७॥ मा०, प्याज अन्सल भूना में इयारज का अर्ध रेचक (वा दर्पन) किया गया हुमा ( मुशब्बी), गारीकून, सामूनिया,. है; क्योंकि इस योग में रेचक औषधे दर्पन कुटकीश्याम, उश्शन, इस्क र दयून प्रत्येक १ तो. औषधों के साथ है। किसी किसी ने इसका ३॥ मा०, अप्रतीमून, कमाारियूस,एलुश्रा, गूगल अर्थ इसकी शिष्टता के कारण प्रष्ट औषध । प्रत्येक १०॥ मा०, हाशा, प.फारीक न, अनीसू, For Private and Personal Use Only Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभयारिज हफकरातीस अयूचा तेजपात, फरासियून, जुनदह, ( नागरमोथा ), हे. च०। (२) वह वृक्ष जिसकी अयुग्म पसियाँ तज, सफेदमिर्च, मुर्मकी, जाबशीर, जुन्दवेदस्तर, हो। जैसे देज, अरहर इत्यादि। बालछड, फ्रिवासालियून, रावन्द तवील, यून | अयुक्त. ayukta हि. वि० 11 मशित इमामा, सोंठ, उसारहे अक्सन्तीन प्रत्येक ७ मा०, अयुत ayut-[सं०] आमा ज़िन्तियाना, उस्तोख हस प्रत्येक ५ मा०। इनमें अमिलित, असंयुक्र, अलग । (२) अयोग्य, असकूट छान कर यथोचित श्वेत शहद में गधे।। म्मिलन, संयोग विरुद्ध । इन्कम्पैटिबल मात्रा-१४ मा. शहद तथा उगा जल के | ( Incompatible ). साथ । इसको प्रस्तुत करने के ६ मास पश्चात् अयुग ayugu-हिं० वि० [सं०] विषम | ताक । उपयोग में लाना चाहिए । ( इ० अ० ) अयुत ayut-हिं० संज्ञा पुं० दस हजार की संख्या का स्थान। दस सहस्त्र । रेन थाउजण्ड भयारिज हफक रातीस ayarij-hifaqratis अ. "हूफातीस" अवकरात का नाम है। यह (Ten thousand )-10 । (२) उस स्थान की संख्या । श्रयारिज शिरःशुल जो अशुद्ध वापों (पाचन विकार सम्बन्धी दोष) से हो, उसे नष्ट करता है अयुग्म ayugma-हिं० वि० [सं०] (1) तथा प्रामाशयिक स्तूचतों को दूर करता है। योग विषम, ताक । (२) अकेला | एकाको । अयुग्मकः ayugmakah-सं० पुं० समपर्ण इस प्रकार है वृक्ष, छातिम, छतिवन 1 (AJstonia Schoजिन्तियाना, बालछड, इन्द्रायन का गूदा, जरा. laris. R. B...) वै. निघ० । बन्द महर्ज, दारचीनी, तज प्रत्येक ३॥ मा०, मित्रासालियून, कमाजारियूस, उस्तो खुडूस, पीप अयुग्मच्छदः ayugmachchhadah-सं० नामूल, मस्तगी प्रत्येक मा०, एलुश्रा ५ तो० । 9.( Alstonia scholaris, R.BR.) देखो-अयुग्मच्छन्द । मा० कूट छान कर तिगुने शहद में जिसके झाग उतारे गए हों, प्रस्तुत करें। अयुग्मच्छद ayngmachchhada-हिं०संशा पु. सप्तपर्ण,छातिम, छतिवन ।( Alstonia मात्रा व सेवन-विधि-६ मा० से Scholaris, R.Br.) श्र. टी01 (२) १३॥ मा० तक उष्ण जल या किसी यथोचित वह वृक्ष जिसकी अयुग्म पत्तियाँ हों, जैसे थेल, काथ के साथ सेवन करें। (इ० अ. ) अरहर इत्यादि । अयास्य ayasya-हिं० संज्ञा पुं० [सं०] (1) प्रयुग्मपत्रः ayugma-patrah-सं० ) प्राणवायु । (२) शत्रु । विरोधी |-वि० [सं०] ! अयुग्मपर्णः ayugma-parnah " । निश्चल । अटल । । सप्तपण, छातिम, छतिवन । ( Alstonia प्रयिम्परत्ति ayiinpa-ratti-मल. जपा पुष्प, Scholaris, P. Br.) वै० निघ० । प्रदउल-दि. | Shoeflower (Hibis. | अयुग्मबाण ayugma-bāna-हिं० संज्ञा पु. cus roasinensis, Linn.) स० [सं०] कामदेव । ( Cupid ). फा० . प्रयुग्मवाह ayugmaivāha-हि० संशा पु.. अयु ayu-वर० अस्थि, हड़ी। Bones [सं०] सूर्य । ( Sun ). (Ossa) स. फा० ई०। अय् ayu-तु० रोक,भक । बीअर (Bear.)-501 अयुक्छदः ayuk-chhadah-सं० . अयूक ayuka-तु. काक्रम जो एक मूल्यवान अयुक्छद ayukchhada-हिं०संज्ञा पु. खाल है। (.) सप्तपणं वृक्ष, छातिम वृच, छतिवन, सत- अयूचा ayucha-सं० भूताङ्कश । See-Bhu. मन (Alstonia scholaris R. Br.) 1 tankusha. .. For Private and Personal Use Only Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अयुष अयोरजादियोगः अयुष ayusha-हि० संशा स्त्रो० देखो-आयुष ।। बौकिह, मण्डर । ( Ferri Peroxide.) अयूमीसुप ayunmi.suc-पर० अस्थि प्रहार, ० निघ.1 हट्टी का कोयला | Animal-charcoal | अयोनि ayoni-हि. वि० [सं०] अनुत्पन्न । (Carbo Animalis.) स० फा० ई० । अजन्मा । 'ug-यू०, रु० जङ्गार । यह खनिज तथा| . " | अयोनिज ayonij-हि. वि० [सं०] जो योनि कृत्रिम दोनों तरहका होता है। से उत्पन्न न हो । जीव विशेष । योनि जातमिल, अये aye-घर० (५० व०) सुरा, मद्य, दारू, वृक्ष प्रादि । (२) अदेह । शराब | Spirit; Arack. ( Indian अयोभस्म योगः ayobhasma yogab-सं० Spirituous Liquor.) स० फा०१०। पु. लोह भस्म में नागरमोथे का चूर्ण मिलाकर -हि० संज्ञा पुं० [अनु०] स्लोथ की जाति का __ खैर के कार्य के साथ पीने से हलीमक दूर होता एक जन्तु । यह जन्तु अये प्रये शमन करता है। है। नि० २० इसीलिए इसको अये कहते हैं। अयोमलम् ayomalam-सं० क्ली. लोह मल, प्रयेमियाना aye-miyaa-बर. (ब०व०)| लौह किड, मण्डर । (Ferri Peroxide.) ___ मद्य, सुरा । (Spirit.) स० फाई। लोहारगु वा मण्डूर-बं० । प. मु०। "प्रयोभयोए ayoe-पर० (ए० व.) पत्रम्-सं०।। मलन्तु सन्तप्त ।" सि. यो० पाण्डु-चि. पत्र, पर्ण, पत्ता, पत्ती, पात-हिं । (Leaf.) वृन्द । च० द. पाण्डु-चि०। सफा०ई०। प्रयोमोदक: ayomodakah-सं० पं० लोह प्रयोए मियामा ayoe-miyaa-धर० (३० व०) पत्तियाँ, पत्र, पर्ण । (Leaves.) स० भस्म, तिल, त्रिकुटा समान भाग लेकर तथा सर्व तुल्य सोनामाखी भस्म मिलाकर शहद के साथ फा०ई० लइ बनाकर खाने से असाध्य पाएमु का नाश प्रयोग: ayogah-सं० पु. (1) योग होता है। नि० र०, वै० वि०। प्रयोग ayoga-हिं० संज्ञा पु. का अभाव । विश्लेष । विच्छेद । अनैक्य । ( Analysis.) अयोरज: ayora.jah-सं०क्ली (1) लौहकिट, (२) कठिनोग्रम। (३) कूट ( Kura.) मण्डुर ( Ferri Peroxide.)। (२) मे० गत्रिक । लोहचूर्ण ( Iron Powder.)| च. द. पाण्डु-चि० नवायस चूर्ण । प्रयोगुड़: ayo-gudah-सं० पु. लौह गुहिका, लोहे की गोली।(Bail of iron.) यथा-- अयोरजः प्रभृति चूर्णम् ayorajah prabh"वरमाशी त्रिषविषं कथित ताम्रमेव वा। पीत riti churnam-सं० क्ली० सोंठ, मिर्च, मत्यग्नि सन्तप्तो भक्षितो वाप्ययोगुड़ ॥" च०।। पीपल, विडंग इनके चूर्ण के साथ अथवा हल्दी, त्रिफला चूर्ण के साथ समभाग लोह भस्म मिला अयोग्य ayogya-हिं० वि० [सं०] जो योग्य कर मधु के साथ खाएँ । रस. यो० सा०। न हो । अयुक्र । अनुपयुक्र। ( [ncompa- | अयोरजादि चूर्ण: ayorajadi churnah-सं० tible, Incompetent.) ० लोह चूर्ण, त्रिकुटा, विडंग, हल्दी, त्रिफला प्रयोग्रम् ayogram-सं० की. (१) मूषल । | अथवा निसोथ और मिश्री वा इन्द्रायण की गूदी (२) वाण प्रादि (An Arrow.)। गुड और सोंठ मिलाकर खाने से कामला दूर (३) अस्त्र । ( A weapon.) होता है। अयोधनः ayoghanah-सं० पु. (१) एकी. अयोरजादियोगः ayorajadiyogah-सं० पु. भूत-लौहपुन, लोहकूटम्, हथौड़ी। (२) निहाई। लोह चूर्ण, हड़, हल्दी इनका चूर्ण शहद और भयोच्छिष्टम् ayochchhishtam-स. क्ली० घी के साथ अथवा हड़ का चूर्ण गुरु और शहद For Private and Personal Use Only Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org शंयोरजादि लेपः के साथ चाटने से कामला दूर होता है । वृ० नि० र० । अयोरजादि लेपः ayorajádilepah- सं० पुं० ( १ ) लोह चूर्ण, कसीस, त्रिफला, लवंग और दारु हल्दी का लेप करने से नवीन त्वचा का रंग पूर्ववत् हो जाता है । ( २ ) लोहचूर्ण, काला तिल, सुरमा, वकुची, आमला इनको जलाकर भांगरे के रस में पीसकर लेप करने से किलास कुष्ठ ( तांबे के समान रंग वाले कोद, श्वेत कुड का भेद ) का नाश होता है । इसे जिस स्थान पर लगाना हो पहले खुजलाकर लेप करना चाहिए । यः पान ayab-pana-सं० ली० द्रवीभूत तप्त लोहे का पान, अयस्थान | नर्कमें तप्त लोहे का पान करने को कहा है। ५६२ trः पिण्ड ayah-pinda - हिं० पु० लौह पिंड, लोहे का गोला । अयः शूल ayah-shula - हिं० संज्ञा पुं० [सं०] ( १ ) एक श्रत्र । ( २ ) तीव्र उपताप | अयोवस्तिः ayo-vastih - सं० पु०, प्रो० वस्ति कर्म विशेष ( A kind of enemata. ) । यथा - "पुरण्डमूलं निःक्काथ्य मधुतैलं ससैन्धवम् । एप युक्र ग्रयोवस्तिः सवचापिप्पली फलः ॥ भा० | अय्म aya-ता० देखो - अयम् । अश्याम् श्रव्वल ayyanavval अ० रोगारम्भ काल अर्थात् शारम्भ रोग से तीन दिवस | अय्याम् इज्ज़ार ayyam-inzáro रान की सूचना देने वाले दिन इन दिनों में विशेष प्रकार के परिवर्तन पाए जाते हैं जिनसे यह सूचित होता है कि उक्त रोग का प्रमुक दिवस बुहरान होने वाला हैं, यथा--- नवीन रोगों में प्रथम दिवस परिपक्कता ( नुबु ) के प्रभाव का प्रगट होना चतुर्थ दिवस बहुरान उपस्थित होने की सूचना देता है। अय्याम् गैर बाइरिय्यह, ayyám-ghairbáhúriyyáh-० वह दिवस जिनमें बुहरान उपस्थित नहीं होता। वे निम्न तेरह दिवस ई – २२ व २३ वॉ, २५ वाँ, २६ वाँ, २८ वाँ, श्री २६ व ३० व ३२ व ३३ वाँ, ३२ ३६ व ३८ वीं, तथा ३६ वाँ । किन्तु, शेख निम्नलिखित रोगों की अय्याम दौर बाहूरिस्यह माना है -- पहिला, दूसरा, दसवाँ, बारहवाँ, पन्द्रहवा, सोलहवीं, तथा बीसवाँ । अय्याम् बाहरिय्य, ayyám-bahüriyyah अय्याम् बुह्रान ayyám bubran-ऋ० वह दिवस जिनमें बुरान ताम उपस्थित हो । वे निम्नांकित ११ दिवस हैं । इनमें नवीन रोगों का बुहरान उपस्थित होता है Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir | चौथा, सातवाँ, चौदहवाँ, बीसवाँ इक्कीसवाँ, चौबीसवाँ, सप्ताईसवाँ, इक्तीसा, चौतीसवींसैतीसवाँ तथा चालीसा । किसी किसी ने प्रथम व द्वितीय दिवस की भी श्रय्याम् गुद्दे राम में गणना की है। पुरातन रोगों का सर्व प्रथम बुहरान चालीसवें दिन उपस्थित होता है । अय्याम् वाकू फिल्वस्तु ayyam-vagāa fil vast - अ० मध्यकाल जो न बा. हूरी ( बुह रान काल) हो और न इब्ज़ारी (बुहरान सूचक दिवस) किंतु किसी घटना या प्रतिद्वन्द्विता के कारण इनमें हरान गैर ताम उपस्थित हो । वे छ दिन हैं, यथा--- ३ रा, ५ बाँ, ६, ११ वाँ, १३ वाँ, और १७ बॉ, इन दिनों में कभी दुहरान उपस्थित होता है और कभी नहीं। जिन दिनों में बुरा नासि ( पूर्ण ) होता तथा दुःख व चिन्ता होती है, वे निम्न ८ दिवस है, यथा६,८,१०, १२, १५, १६ वर, और १६ वा । १८ श्रय्यिम् ayyim - अ० विधवा या रॉड स्त्रो अथवा डुला पुरुष, अविवाहिता स्त्री वा पुरुष | इसका बहुवचन अयामा हैं। मन् ( Nun ) -1 अथ्यी āayyi - अ० रुक रुक कर बात करना, arrain में रुकावट होना, आजिज़ हो जाना, किसी वस्तु को न जानते हुए उसकी बातचीत से अवाक् रहना, अय्पों तथा सिहत का भेद देखोसिहत में। For Private and Personal Use Only Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अरकुलेली अरंग aranga-हि. संक्षा पु. [ सं० ] ! स्थानिक स्वेद, अांशिकघर्म, वह स्वेद जो किसी अध्य-पूजा द्रव्य ] सुगंध । माक। विशेष अवयव में प्रादुर्भूत हो। मेरिडासिस अरंड aranda -ह. संजा पु. रेड ( Rici- ( meridrosis )-इ। nus Communis.) देखो-ए । नरक इम्बी aarag-danvi-अ० रक्रमय स्वेदपर ara हि० संत्रा पु. [सं०] (१) कोण । सान होना, पसीने में शोणित पाना, रक कोना ( Corner', angle )(२) सेवार, मिश्रित स्वेद स्त्राव होना, स्वेद में रक मिला शैवाल । (Sea-wead) हुश्रा निकलना। हेमि डासिस ( Hemidअरह arab-१० खरगोश, सरहा, शशक । हेयर | rosis)-४। (A hare ), *f2 ( Rabbit )-01 अरक नाना arakaa-nānā-हि. संग्रा पु एअर aaraa!'-अ० (।) सरोकोही [अ० अर्क ननअ ] एक श्ररक जो पुदीना -का० । हाऊयेर, हपु(बु)पा--हि० । और सिरका मिलाकर खींचने से निकाला (Juniperi fructus. यह दो प्रकार | जाता है। का होता है-( क ) वृहत् जिसका भरकर āragab-न० पर्वतीय अर्थात् पहाड़ी फल फ्रिन्त्रक के समान होता है और (ख) लघु बकरा, गाय या बारहसिंगा। जिसका फल बाक्ला के बराबर गोल होता है। श्ररक यादियान araka-badiyan--हिं० (२) खजूर ( Date ) । (३) प्रभल । __ संसा प० [अ० ] सौंफ का अरक्त । अरइल alaila-हिं० संज्ञा पुं॰ [देश ] एक | झरक धौलो aaruq.bouli-अ० मूत्रीयधर्म, वृत्त का नाम । पेशाबमय स्वेद, वह स्वेद जिसमें मूत्रद्रव्य मरई arai-हिं० स्त्री० भालु की, घुइयाँ, अरुई । विसर्जित हो । ऐसे स्वेद में से मूत्र की सी गंध : (The root of Arum colocasia.) पाती है। यूरिट्टासिस (Uridrosis) अरऊन araun-हि०पू० अहटणी, प्रहरन । भरक: arakah-सं० पु., क्ली । अरक araka-80 संज्ञा (१)शवाल, नरक मुतलम्वन āaraq-mutalavvan- सेवाएँ । (Sea wead ) हागः । वै. अ० वर्णयुक्र स्वेद, रंगीन पसीना, रंगीन पसीना .. निघः । (२) क्षेत्रपर्पट, खेतपापड़ा । (Olde-| पाना । क्रोमिड्रॉसिस (Chromidrosis) · nlandia corymbosa.) रा०। -ई । अरक araka-हिं. संमा पु. 1913°१ (1) स्वेद, अरक मम्तिन aaraq-mantin J .. अरक मुन्तिन āaraq-muntin- ।। अरक āaraq-० १ अरक मन्तिन aara धर्म, पसीना । पाइरेशन(Perspiration), दुर्गन्धित स्वेद, दुर्गन्धमय पसीना । प्रोमिासिस स्वीट (Sweat)-६०। (२)परिस्रुत जल, टप- ( Bro nidrosis)-ई। कायारा पानी भभके से खींचा हा औषधीय | प्रारक मफरित aaraq-mufrit-अ. स्वेदाजल । किसी पदार्थ का रस जो भभके से खींचने धिक्य, पसीने की अधिकता, अधिकता के साथ से निकले । एका (Aqua .), चॉटर ( Wa- स्वेदस्त्राव होना । एफि डासिस (Ephidrosis) ter ) | देखो-अर्क 1(३) रस । हाइपरिड्रॉसिस ( Hyperidrosis ), अरककुद्र मी arak-kudrumi-सन्ता. लाल स्युडोरेसिस (Sudoresis )-इ। पटुश्रा, लाल अम्बाड़ी 1 (Hibiscus sabd- | अरकला arakala-हिं० संज्ञा पुं० [सं० arffa) ई० मे० लां० । अर्गल-यगरी वा बेंडा] सेक। मर्यादा । चपक जुज़ई aaraq-juzi अरकलियान araqliyan-यू० खशखाश जुरुदी । अरक मौजई. aaraq-mouzaai | अरक लेली aaraq-laili-० रात्रि स्वेदलाव, For Private and Personal Use Only Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org "" अरकान 12agán - यू० श्ररकन araqúncommunis ). अरका किया ક अरघट्टक D रात में पसीना थाना, जैसा कि राजयक्ष्मा में | अरकोल arakola - हिं० संज्ञा० पुं० [सं० प्रायः होता है । नाइट स्वीट ( Night sweat )-इ० । कौली ] एक वृक्ष जो हिमालय पर्वत पर होता है । इसका पेड़ झेलम से आसाम तक २००० से ८००० फुट की ऊँचाई पर मिलता है । घरकासार संज्ञा पुं० arakására-fe अरकाकिया arakákiyá-यू० मकड़ी का जाला | (The Spider's web ). (Myrtus अरकान arakán - बारहसिंगा IA stag ( Cerous elaphus ). अर कुद्दम् āaraquddam श्र० रक्रमय स्वेदस्त्राव, स्वेद के स्थान में रक निकलना, यह एक रोग है जिसमें स्वेद के स्थान में शुद्ध शोणित निकलता है। हेमेटासिस ( Hemati drosis )-३०। अरकुल arakul-पं० दुखमिला, दसविला - उ० प० सू० । अरकून araqún - यू० मेंहदी | ( Myrtus communis. ) अरकूलस araqulas य्० अभल, हाऊवेर, (a) | (Juniperi fructus. ). अरटियम्-लेप्पा arctium lappa - लेप्पा | ( Burdock. ) - ६० । अरक्टोस्टेफिलोस ग्लॉका arctostaphylos glauca - ले० ( Manzanita leaves )-to i अक्टोस्टेफिलोस यूवा असई arctosta phylos uva ursi-ले० मलक द्वादा, ऋक्ष दाता-सं० | इनबुध, बिस अ० । अरकः araktah-सं० पु० लाक्षा, लाख, लाही । ला - बं० । (Lac ) रा०नि ब० ६ | देखो अलकः । श्रक्रक् åarakiak- o मांसल तथा उभरा हुआ पे | अरखर arakhar-पं० गडुस्वल, अकोरिया, मलियून | उ० प० सू० । मेमो० । अरखर arakhar to दुखमिला, दसविला उ० प० सू० । मे० मो० । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ? ] तालाब | बावली । -डिं० । अरग araga-हिं० संज्ञा पुं० [सं० अगरू एक चन्दन ] अरगजा । पीले रंग का एक मिश्रित द्रव्य जो सुगंधित होता है । अरगजा aragaji - हिं० संज्ञा पुं० [हिं० अरग+जा ] एक सुगंधित द्रव्य जो शरीर में लगाया जाता है। यह केशर चन्दन कपूर आदि को मिलाने से बनता है। (A perfume of a yellowish colour and compoun ded of seeral sccented ingre dients. ) अरगजी aragaji-हिं० संज्ञा पुं० [हिं० अरगजा ] एक रंग जो धरगजे का सा होता है । वि० [हिं० भरगजा ] ( 1 ) घरगजी रंग का । ( २ ) अरगजा की सुगंधि का । अरगट aragata - हिं० संभा पुं० [० ] ० -- श्रटा | (Ergota ). अरग़वाँ araghavan - फ़ा० अवाँ फा० । अरग़वानी araghavani हिं० सशा पुं० [ [फा० ] रक्र वर्ष | लाल रंग । वि० ( १ ) गहरे लाल रंग का । नाल । ( २ ) बैंगनी | अरगल aragala - हिं० संज्ञा पु ं० [सं० अर्गल ] वह लकड़ी जो किवाड़ बंद करने पर इस लिए श्राड़ी लगाई जाती है कि वह बाहर से खुले नहीं । ब्योंदा | गज । श्ररग़ामूनी araghamúni-यू० वन पोस्ता, मामीसा सुख ( जंगली खसखास के सहस एक बूटी है ) । अरगू aragú का० लाख, काक्षा । Lac ( Co ccus lacca. ) अरघट्ट arughatta श्ररघट्टक araghattaka} f६० संज्ञा पु० [सं०] रहट | देखो - "अरहद्” arahata, For Private and Personal Use Only Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भरग्वधः ५६५ भरङ्गका अरग्वधः aragvadhah-सं० पु. श्रमल तास, श्रारम्वध, धन बहेड़ा । ( Cassia, fistula.) रा०नि०व०६ । भा० पू०१ | भा० । द्रव्य० गु० ३० निघ०। अरग्ववम् aragvadham-सं० ली. अमल तास, स्वर्णालुफल । (Cussia fistula.) सि० यो० वृहद् अग्निमुख चूर्ण । अरघान iraghāna-हिं० संज्ञा पुं० [सं० माघ्राण-(धना ] गंध । महक । आघ्राण । अरङ्गः,-गा,-गोarangab,-ga-gi-सं००, स्ना० (१) परङ्गीमत्स्य, मछली भेद, मछली विशेष ( Pisces.) ० निघ० । (२) मधु शिग्रुः, मीत्र सहिजन । रत्ना० । ( Guilandina Moringa, Sweat val. of-) भरत aranga-वरार• कुटकी, मोगडर, गोण्डा। नार-चोटकु-ते०। (Eriolena Hookeriana, W&.1; Syn. Ereolena spsctabilis Planch.) इसके तन्तु एवं रुई व्यवहार में प्राती है। मेमो०। भरतक:arangakah-सं०पु० दिनकर्लिग, कडु खजूर, काला खजूर-हिं० । मीलिया च्य बिया (Melia dubia, Cav. ), मी. सुपर्वा (Melia superba.), मो. रोबष्टा (Melia robusta.)-ले० । कहु खजुर-गुज०, बं०, बम्बई । निम्बर-मह० । काड-बेवु, भर-बेवु-कना। निम्ब वर्ग ( N.O. meliaceae) उत्पत्ति-स्थान--पूर्वी व पश्चिमी प्रायद्वीप ब्रह्मा तथा लंका। वानस्पतिक-विवरण-दिनकलिंग वृक्ष के शुष्क फल को संस्कृत में अरङ्गक ख्याल किया जाता है। प्राकार, रूप तथा वर्ण में यह बहुत कुछ खजूरके समान होताहै, परन्तु ध्यानपूर्वक | परीक्षा करने पर मज्जा एक अत्यन्त कठिन अस्थि ( गुठली ) से भली भाँति संश्लिष्ट पाई जाती है। फल डण्डी का भवशिष्ट भाग भी खजूर की दएडी से मिस दीख पड़ता है। जल में भिगोने पर फल शीवानी सिकुड़न को छोड़कर भंडाकार पीतामहरित वण' के बेर के समान हो जाता है। अब छिलका मोटा दीख पड़ता है तथा सरलतापूर्वक गूदा से भिन्न किया जा सकता है। फलशीर्ष मुड़ा हुआ होता है और उस पर सूक्ष्म अंकुर होने हैं। श्राधार पर पचभाग युक्र पुष्पाभ्यंतर कोष दल तथा फलहरडी का एक छोटा भाग लगा होता है । गुठलो १ इञ्च लम्बी, अप्रशस्त रूप से पञ्च परिखायुक्त, प्रलम्बित, दोनों शिरों पर छिद्र युक्र होती है; शीर्ष, छिद्र की चारों योर पञ्च दंयुक्र, पञ्चकोषयुक्त (या पतन के कारण इससे न्यून) होता है; बीज अकेला, भालाकार, शीर्ष से लगा रहता है। बीजापरण सूक्ष्म परिमाण में; गर्भ सरत, विलोम, दाल भालाकार; आदि मूल अंडाकार एवं ऊद्ध होता है। योज ३ इञ्च लम्बा तथा इञ्च चौड़ा होता है। बीज त्वक् ( Testa ) गम्भीर धूसर या श्याम वर्ण का परिमार्जित; गिरी अत्यन्त तैलीय एवं मधुर स्वाद यक होती है। उपयोगांश-फल । रासायनिक संगठन-(या संयोगी द्रव्य) फलस्थतिक तस्व एक प्रकार के रवा में परिणतिशील ग्लूकोसाइड है जो ईथर, मदयसार तथा जल में विलय होता है। इसमें किनित अम्त प्रति क्रिया होती है । इसके अतिरिक्र इसमें सेव की तेजाब ( Malic acid) ग्लूकोज, लुभाव, तथा पेक्टीन नामक पदार्थ पाए जाते हैं। डाइमाक। प्रभाव तथा उपयोग-फल मज्जा में एक प्रकार का तिक एवं मतलीजनक स्वाद होता है। श्रमजीवियों में उदरशूल की यह एक उत्तम औषध है। इस हेतु युवापुरुष की मात्रा प्रद फल है। इसमें किसी रेचक गुण की विषमानता मुश्किल से प्रतीत होती है। तो भी कहा जाता है कि यह कृमिघ्न प्रभाव करता है तथा म्यथाको तत्काल शमन करता है। कोंकनमें कच्चे फल का For Private and Personal Use Only Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्वरस १ भाग, गंधक माग, और दही भाग, भर ज़ (उपसर्ग) रोगाक्रमण के पश्चात् ही इन तीनों को ताम्र पात्र में अग्नि पर गरम पाया जाता है और उसके प्राधीन होता है। कर तरखुजली (Scabies) एवं (Mag. अस्तु, निम्नोष्ठ-स्फुरण वमन होने की सलामत gots ) द्वारा जनित्त क्षतों में लगाते हैं। (रूप ) कहा जाता है। किन्तु उसको सरज़ नहीं डाहमॉक । कहा जा सकता। क्योंकि वह रोग ( वमन ) से फल कटु, संकोचक और और वायुनिस्सारक पश्चात् नहीं, प्रत्युत पूर्व में पाया जाता है। (माध्मानहर) है। ई० मे० मे। अलामत और दलील का भेद देखो अला. अरङ्गरः arangarah-सं० पु० कृत्रिम विष । मत में। (Artificial Poision.) वै० निघ०। डॉक्टरी नोट-कम्प्लीकेशनका शाब्दिक अर्थ बरगदी १३angudi-सं० स्त्री० माधवी लता। परस्पर संश्लिष्ट (लिपटना) या द्विगुण होना है। (See-madhavilata.) ० निघ०। डॉक्टरी की परिभाषा में हो या थधिक व्याधियों अरच% aracharu-सिमला० मसुरी,मकोला का एक ही काल में उपस्थित हो जाना अर्थात् '-हिं० । रसेलवा, पजेरो-सिमला० । भोजिन्सी एक ही रोगके वेग पथमें अन्य रोग वा व्याधियों -पा० । (Coriaria nepalensis.) का उत्पन्न हो जाना है, जिनका स्थायित्व प्रथम मेमो०। रांग पर निर्भर होता है। दूसरे शब्दों में यह पूर्व अरचि ayuchi-हिं० संज्ञा स्त्री० [सं० अर्चि ] व्याधि के प्राधीन होते हैं। ज्योति । दीप्ति । श्राभा । प्रकाश | तेज। अर्वाचीन मिदेशीय चिकित्सक उक्र शरद परचो arachi-ता० काञ्चनार, कचनाल, 'प्रश्ता की रचना तथा उसके मौलिक शब्दार्थ को दृष्टि -हि. । ( Bauhinia rariegata.) में रखकर मुज़ाफ़ संज्ञा को उसके पर्याय मेमो० । रूप से प्रयोग में लाते हैं। परन्तु तिब की परिमरचु aracbu-गढ़वाल हिन्दी रेवतचीनी । भाषा में उसका वास्तविक प्राचीन सत्य भाव मेमो०। पर ज़ शब्द से प्रकट हो जाता है। प्रस्तु, इसे ही यहाँ ग्रहण किया गया है। रजaaraz-अ० तिय की परिमुजाश्रफ muzaaafah | भाषा में उस सिम्पटम का शाब्दिक अर्थ परस्पर घटित होना अस्वाभाविक दशा या व्याधि का नाम है जो है। किन्तु डॉक्टरी परिभाषा में उस परिवर्तन को अस्य रोगों के कारण अर्थात् उसके श्राधीन होकर कहते हैं, जा रोगकाल में उपस्थित होता है और उत्पन्न होती है। उदाहरणतः वह शिरःशूल जो जिससे उक्त व्याधि की उपस्थिति का पता लगता किसी उवर के प्राधीन होकर जनित होता है है। अस्तु, इस विचार से सिम्प्टम शलामत कार.ज़ ( उपसर्ग, उपदव ) कहलाता है । (रूप वा लक्षण ) का पर्याय है। परन्तु भाकम्भिकेशन ( Complication.), सिम्पटम् चीन मित्रदेशीय तबीब अलामत की बजाय (Symptom.)-इं। घर ज को इसका पर्याय मानते हैं। - अलामत और अरज का भेद- | अरज araja-हिं० संक्षा पु' गैड़ाइ । इन दोनों में मुख्य और गौण का अन्तर है | अरज aara.ja-अ. पंगु या लुग, लंगड़ा होना, अर्थात् घरज अजामत की अपेक्षा मुख्य वा | पंगुत्व, लंगड़ापन । लेमनेस (Lameneमान है। क्योंकि अनामत (लक्षण) स्वास्थ्य ss.)-ई । तथा रोग प्रत्येक दशा के लिए प्रयोग में प्राता | अरजल aajala-हि. संशा पु. [१०] है और फिर कभी यह स्वास्थ्य एवं सेग से पूर्व (१) वह घोड़ा जिसके दोनों पिछले पैर और और कभी पश्चात होता है। इसके विपरीत अगला दाहिना पैर सफेद वा एक रंग के हो । For Private and Personal Use Only Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अरजा केला, ५६७ अरणिका ऐसा घोड़ा ऐबी माना जाता है । (२) नीच | हयात् , हेमसागर हिं०, बं० । ( kalnche जाति का पुरुष । (३) वर्ण शंकर । laciniata, P. C.) फा० इं० १ मा० । वि० (१०) नीच। | अरण मरम् arana mariam-मल० तून । अरी āaraja-अ. चखं, आकाश, प्रास्मान । (Cadrela toona, Roxb.) ई० मे० (8ky.) मे० स० फा००। ई. मे० सां०। परजान &rajana-बरव० बरबरी बादाम का भरणा arana--हिं० पु., स्त्री० (,) जंगली भैंसा । ( A wild buffalo.)। (२) अरजालून arajalun-बरब० फाशरा, शिव कण्डा, जंगली कण्डा, अरना। (Cowdung för att i ( Bryonia laciniosa ). found dried in the forest.). अरजा araja-संस्त्री . घृतकुमारी, घीकुधार। | अरणिः alanih-सं० ० । (१) एक (Aloes Barbadensis.) अरणि arani-हिं० संवा स्त्री० । प्रकार का वृक्ष अरजुन 2rajuna हिं० संज्ञा पुं॰ [सं०] दे० गनियार। अँगेथू । क्षुद्राग्निमंथ वृक्ष । छोटी ___ अजुन । ( Terminalia Arjuna). अरणी का वृक्ष, कुण्डली, अरणी-हिं०, सं० । अरटी arati-सं० स्त्री० छोट गणिर-बं० । ( Cleredendron अरटीपण्डु arari pandu-ते. Inerme.) वा. टी० १५ १०, हेमो० अस्टीचे arati-chettu-ते० दली वीरतादि । अरणिर्थहिमन्धेमा इयोंर्मि-हि. । अमटचेछु, अरिट चेह-ते. । मथ्यदारुणि । मे० णत्रिकं । (२) श्योणाक, ( Musa. sa.pientum, Jinn. ) स० सोनापाठा, अरलु ( Oroxylum Indiफा०ई०। cum, Vent.)। (३) चित्रक वृत्त, चीता औरटुंः aatuh-सं० पु अरलुवृक्ष, सोनापाठा, ( Plumbago Zeylanica.)। (४) श्यो(णा)नाक । श्योणा गाछ-० (Oroxy- सूर्य ( The sun.)। ५) अग्न्युष्पादक Jum indicum, Pent.) श्र०टी०।। काष्ठयन्त्र। कार का बना हुआ एक यन्त्र जो भरटुपर्णः araru-parnah-सं० पु. यह यज्ञों में प्राग निकालने के लिए काम आता है। चिरस्थायी वृत्त है । अरटुपर्ण नामक वृत्त । इसके दो भाग होते हैं--अरणि वा अधरारणि अथर्व । सू०१३ । १५ । का० २० । और उत्तरारणि । यह शमीगर्भ अश्वत्थसे बनाया अरडी aradi-नेपा० कचैटा-हि. ! अग्लागल, जाता है। श्रधरारणी नीचे होती है और उसमें fünf (Mimosa rubicaulis. ) एक छेद होता है। इस छेद पर उशरारणी खेड़ी मेमो०। करके रस्सी से मधानी के समान मधी जाती अरडसी aradisi-गु० अडूसा, वासक । है। छेद के नीचे कुश वा कपास रख देते हैं जिसमें भाग लेग जाती है। इसके मथ ने के (Adhatoda vasica, Nees. ). समय वैदिक मंत्र पढ़ते हैं और अधिक लोग अरणः aranah-सं० पु. (1) चित्रक वृक्ष, ही इसके मथने आदि का काम करते हैं। यज्ञ में चीता । ( Plumbago zeylanica.) वै. निवः । (२) गंदा, मलिन । अथर्व० सू० प्रायः प्ररणी से निकली हुई प्राग ही काम में २२ । १२ । का० ५। माई जाती है । अग्नमंथ। औरणं तन्दिग भूकस arara-tandig-bh. परणिका alanika-सं० स्त्री. अग्निमथ वृक्ष, ikas-बम्ब० भूतफल-सं० । बकरा-यू०पी० अरणी । (Clerodendron Inerime.) वी० 1 मिरन्नुप-अध। मेमो० । वा० सू० १५ १० वेलन्तरादि व० । "वेल्लन्त. अरणमरणं arana-marana-मह० ज़ख्म- रारणिरुवक वृषाश्य भेद... ... .. ।" For Private and Personal Use Only Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भैरणी भरणी भरणी arani-सं० स्त्री०, हिं० संज्ञा स्त्री० (१) जंगली मादा मैंस, भैंस (A female wild | buffalo)। (२) सुद्राग्निमन्य । रा० . नि० २०६। (३) भरनी (गी), अरोथ (यु), गणि (नि) पारि, टेकार--हिं० । संस्कृत पर्याय गणिकारिका, अग्निमन्यः, श्रीपर्ण, कर्णिका, जया, तेजोमन्थः, हविर्मन्धः, ज्योतिष्कः, पावकः, अरणिः, वह्निमधः, मथनः (र), जयः ( भा० ), गिरिकर्णिका (द्रव्याभि०), पावकारणिः (शब्द मा०), अग्निमयन:, तर्कारी, वैजयन्तिका, वैजयन्ती, अरणीकेतुः, श्रीपर्णी, नादेयी, विजया, अनम्ता, नदीजा, हरिमन्यः । श्रन्वर्थ-संज्ञा-'अनुत्वा", "गन्धपुष्पा" और "गन्धपत्रा'', गणिरी, घ(मा)ग्गान्त, भूत. भैरवी, गणियारी-बं०। प्रेम्ना इण्टेनिफोलिया (Premna integrifolia, linn.) प्रेमना स्पाइनोसा (Premna spinosa, Roxb.) मुखय (श्री), नेलोचेछु --ता। घेवु-नेशि, पिन-नेलि, चिरिनेल्लु-चेट्ट, पिनुपा-नेल्लि, नेविचेह-ते, ते। अप्पेल-मल । तमिले. तम्गी, नरुवन, ऐरणा-कना०, कर० । गयेन्दारी, गैयदारी--को० । ऐरणा, नरवेल, टोकला, चामारी, ( थोर ऐरण-सुदाग्निमंथ ) मह० । अरणी, मोठी परणी, ऐरणमूल-गुल गयाबात-उड़ि। गमिधारी--अप० । बर्च-ग0 अगिवथ- उत्। गिनेरी-पा०। गणियरी--प्रासा० । सिहिन्मिदि, कर्णिका-सिं० । अरनी, ऐरणमूल बम्ब० । टंगभैग्-पीलबर। क्षद्राग्निमन्य के पर्यायहस्वगशिकारिका, तपनः, विजया, गणिकारिका, मरणिः, लघुमन्धः, तेजोवृषः, तनुस्वचा, (रा० नि. व. )। कोट गणियारी-बं। नरवेल, टाकली, नरयेलर-मह। तबी-का० । प्रेमना सिरेटिफोलिया ( Premna se iistiiolia Linn.), witte ta velorgfte Clerodendron phlomoides ) ०। देखोखुदाग्निमन्ध । किसी किसीने संगकुप्पी : Olerodendron Inerme, Geartn.) को समाग्मिमन्य प्रार छोटी अरशी लिखा है । देखो-संगकुप्पी, पी ( कुण्डली-सं० । बनजोई-० । इसम्धारी५०)। वानस्पतिक-वर्णन-इसके वृहत् क्षप वा स्ववृक्ष होते हैं । वृक्षा..१२ हस्तउच्च और बहुशाख होते हैं। कांड बघु, बहुशाख, शाखाएँ प्रायः भूमिलुण्ठित ( भूमि के निकट से निकली हुई), प्रसारित होती है जिनसे मून उत्पन होते हैं। कांड-त्वक अपर से ग्ल निराम एवं सचिकण, भीतर से हस्तिदंतवत् प्रतिशुभ्र, लघु, अल्पाघात से टूट आने वाले होते हैं। पत्र सम्सुखवी, वृन्तयुक, हृदयाकार, पत्राग्र सूचम (अनीदार न्यूनकोणीय) पत्रप्रांत करपत्र-शस्त्राकार सखंड (दाँलेदार); पत्रोदर मसूण व चित्रण, पत्रपृष्ठ शिरान्वित एवं चिकण, १.६ इंच लम्बा और १-३ इंच चौड़ा, पत्र में एक प्रकार की तीन गंध होती है, पत्रवृन्त पत्र की लम्बाई से चौथाई दीर्घ । पुष्प सशाख, पुष्पदण्ड पर स्थित, पुष्पदंडकी प्रत्येक शाखा ३.४ पुष्प धारण करती है, सविन्यास, सीमान्तिक वा कक्षीय, प्रारम्भिक विभाग सम्मुखवर्ती और द्विशाख, पुष्प अतिशुद्र, बहुसंख्यक, पीत वा हरिदाभशुभ्रवर्ण, मिसित दल, दल-अंग प्रधानतः २ भाग युक जिनमें से एकभाग तीनशमें ईषत् खरित व दीर्घ, अपरोस अखंड व द्वस्त्र । पुंकेशर ४, जिनमें २ वृहत् तथा २ : शुद्र, श्वेताभ, पुष्पोपरि दीर्घ पुकेशर में कृष्ण वर्स के परागकोष स्पष्टतया टिगोचर होते हैं । निर्गुण्डी वर्ग (N.O. Verbenacea) उत्पत्ति-स्थान-यह मारतवर्ष के अनेक प्रोतों विशेषतः समुद्रतट पर होती है। उत्तरी भारत, तिब्बत, काशमीर, बम्बई से मनका ! पर्यन्त, सिलहट और लंका । मोट-बुद्ध वृहद् भेद से अग्निमय दो | प्रकार का होता है। दोनों प्रकारके अग्निमंथ गुण में समान होते हैं। For Private and Personal Use Only Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अरपी पुद्राग्निमय का वृत्त क्षुद्रतर होता है । इसलिए | इसे गुल्म कहते हैं। गणियारी के कांड तथा शाखाओं में वृहत, रद और तीक्ष्यान शाखाएं परस्पर एक दूसरे के विपरीत दिक् विस्तृत भाव से स्थित होती हैं । वह (धरणी) ऐसी नहीं होती। दोनों प्रकार के अग्निमन्थ में यही भेदक चिह्न है। रासायनिक संगठन-एक राल ( A resin), ५क तिक शारीय सत्व अर्थात् चारोव (Alkaloid ) और कपायिन ('Tannin). प्रयोगांश-पत्र, मूल, कांदत्वक् । औषध-निर्माण-काथ, मात्रा-५ से ... तो० । यह दशमूल की दश प्रोषधियों में से एक है अर्थात् इसकी जद दशमूल में पढ़ती है। संशा-निर्णय तथा इतिहास-मन्थन वा घर्षण द्वारा जिससे अग्नि उत्पन्न हो उसको "अग्निमन्ध" वा "वह्निमन्ध" कहते हैं। अरणि का अर्थ अग्नि है और यहाँ इससे अभिप्राय अग्न्यु. पादक यंत्र है। चूँ कि यज्ञ के लिए पवित्राग्नि प्रात करने के लिए इसका काठ काम में आता था। इसलिए इसके वृक्ष को उक्र नामों से अभि. हित किया गया । गैम्बल (Gamble) के कथनानुसार सिकिम की पहाड़ी जातियाँ अग्नि प्राप्ति हेतु स्वभावतः अब भी इसके काष्ठ का उपयोग करती हैं। इसके दो भाग होते हैं-(१) निम्न भाग जिसका काष्ठ कोमल होता है उसे संस्कृत में अधरारणी और ( २ ) ऊर्व भागको जिसका काष्ठ कठोर होता है और जिससे मन्थन क्रिया सम्पन्न होती है, प्रमन्थ कहते हैं। ये योनि और उपस्थ के संकेत माने जाते हैं। अरणो के गुणधर्म तथा उपयोग भायुर्वेदीय मतानुसार-तर्कारी (गणि- | कारिका) कटु, उष्ण, तिक तथा वातकफनाशक है और सूजन, श्लेष्मा, अग्निमांच, अर्श, मन के | विवन्ध तथा माध्मान को हरण करने वाली है। दोनों भरनी वीर्य में और रसादि में तुल्य हैं। इसलिए जहाँ जैसा प्रयोग हो उसी के अनुसार इनका उपयोग करना चाहिए । यथा-"अग्निमन्थ वयव तुल्यं वीर्य रसादिषु । तत्प्रयोगा- | अरणी नुसारेण योजयेत् स्वमनीषया ।” (रा० नि.) ___ तकारी कटुक ( घरपरी ), तिक तथा उष्ण है और वात, पांडु, शोथ, कफ, अग्निमांद्य, श्राम एवं विवन्ध (मलरोध )को नष्ट करने वाली है। (धन्वन्तरीय निघण्टु ) गुण-अग्निमन्थ, उष्णवीर्य तथा कफ, वात को मष्ट करने वाला, कटुक ( चरपरा), तिक्र, तुवर (कषेक्षा), मधुर और अग्निवर्दक है । प्रयोगसूजन और पांडु रोग को दूर करता है। भी० पू० । भा० गु० ३०। गणिकारी शोथहर और वातरोगों के लिए हितकारी है । राज०। लघु अग्निमन्ध के गुण वृद्धाग्निमन्ध के समान हैं। यथा-"लप्वग्निमन्थस्य गुणाः प्रोक्रा वृद्धाग्निमन्थवत् । विशेषाल्लेपने चोपनाहे शोफे च पूजितः ॥” परन्तु लेपन, उपनाह और सूजन में इसका विशेष उपयोग होता है। (निघण्टुरत्नाकर). यह विष श्राम और भेद रोग नाशक है। अरणी के वैद्यकीय व्यवहार चरक-अर्श में अग्निमन्थ-पत्र-अर्श जन्य वेदना से पीड़ित रोगीको तैलाभ्यंग कराके अरणी पत्र के कोष्णा क्वाथ से अवगाहन कराएँ। (चि०६०) सुश्रुत-इनुमेह में गणिकारिका मूल वा काण्डत्वक्-(१) इतुमेही को अरणी भूल वा कांडत्वक् द्वारा प्रस्तुत क्वाथ पान कराएं। 'इत्तु मेहिनं वैजयन्तीकषायम् ।' (चि० ११ १०) (२) चतुःकामित्व में गणिकारिका मूलस्वक(देखो-प्रसन)। हारीत-वातब्रण में गणिकारिका मूल-- मातुलु'ग और अग्निमन्य मूल को कॉजी में पीस कर वातव्रण पर प्रलेप करना हितकारक है। (चि०३५ १०) चक्रदत्त-वसामेह में गणिकारिका मूलत्यक्(१) सामेह में अग्निमन्ध की जड़ की छाल का क्वाथ प्रयोग में लाएँ। (प्रमेह-चि.) अर्शन पत्रकेत रोगीको For Private and Personal Use Only Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अरसी ५७० अरण्डी का वेला (२) शीतपित्त में गणिकारिका मूल-अग्नि- :' को काली मरिच के साथ पीसकर व्यवहार करते मन्थ की जड़ की छाल को पीसकर ( कल्क )। :: है। शाखा-पत्र सहित अर्थात् गशिकारिका के गोवृत के साथ एक सप्ताह पयंत पीने से शीत- ! पञ्चांग को कूटकर क्वाथ प्रस्तुत करें। मनात पित्त, उदई और कोठ का नाश होता है। तथा वातवेदना (Neuralgia.) अस्त रोगी (शीतपित्तोदई-चि०)। (३) स्थूलता में के अंग को उक्र क्वाथ से सेचन करें । (डिमक, गणिकारिका मूलवक---अगितमन्थ की जड़ की ३.य खंड ६७ पृ.) . . . . . छाल द्वारा निर्मित क्वाथ में शिलाजीत का प्रक्षेप : पार० एन० चोर। महोदय के अनुसार देकर पान करने से स्थूलता नष्ट होती है। यह एक साधारण तुप है जो भारतवर्ष के बहुत . (स्थौल्य-चि०) से भाग विशेषकर समुद्रतटों में पाया जाता है। वक्तव्य प्राचीन चिकित्सकों ने इसके पत्र एवं मूल में चरक, अनुवासनोपा, शोथहर एवं शीत- प्रभावात्मक औषधीय गुण के वर्तमान होने का प्रशमन वर्ग में तथा सुश्रुत, वरुणादि व बीर उल्लेख किया है। इसकी जड़ का क्वाथ ( लगभग तादि गण में गणिकारिका का पाठ पाया है। ४ाउंस.पाइंट जल में १५ मिनट उबाल -- किसी किसी देश में वातरोगी को गणिकारिका कर)२से ४ पाउंस की मात्रा में पाचक एवं .. के पत्र का शाक व्यवहार कराया जाता है। तिवल्य रूप से दिन में 2 बार प्रयोग किया जाता है। इसी हेत पत्र भी व्यवहार में श्राता नम्यमत प्रभाव-अरणी पाचक, प्राध्मानहर, परिव- । संक ( रसायन) और बल्य है। . । अरणाकतुः arani-ketuh-सं० प. महाग्निप्रयोग-इसके पत्र का फांट (१० में मन्थ वृक्ष, बड़ी अरणी । बङ्ग गणिरि-यं० । थोर ) ऐरण-मह । (Premna longifolia.) विस्फोरादि कृत उवर, शूल, उदराध्मान में १ से रा०नि० व०। २ पाउंस की मात्रा में व्यवहृत होता है और मूलस्वक् क्वाथ (१० में .) ज्वरावसानज अरण्ड aranda-हिं० प. (१) रेडी का पेड़, दुर्बलावस्था, पूयमेह, आमवात तथा वातवेदना अंडीवृक्ष, एरण्ड । ( Ricinus vulgaris (Neuralgia.) रोग में सेवनीय है। or Palma christi.)। (२-सं०, (मेटिरिया मेडिका ऑफ़ इण्डिया--- श्रार०एन० हिं०, सिंध उत्तटा करा-कुमा० । (Cadaba खोरी, भा॰ २, पृ० ४७२) harida.) ई० मे० प्ला० । एन्स्ली ( Aiuslie.) लिखते हैं- गणि- अरण्डककड़ा randa-kakaari-हिं० स्त्री० । कारिका मूल स्वक् क्वाथ हृद्य, पाचक एवं ज्वर | अरण्ड ख→ जा aranda-kharbuja-हि. में लाभदायक है। इसकी जड़ तिक एवं निय प गंधि है तथा क्वाथ रूप में प्रयुक्त होती है। भरण्ड पपया aanda.pe payya-हि. पु.। . हीडो ( Rhec de.) इसको अप्पेल पपीता, विलायती रेड, पपय्या-हि. | अरड. नाम से अभिहित करते हैं और उसके पत्र के खरबूजा ( Carical Tapaya.)| . क्वाथ को उदराध्मान में सेवीय बतलाते हैं ! . अ० डॉ० म० अ० । मु० अ०। . लंका में यह महामिदि या मिदि-गस्स नाम से अरण्ड तैल aranda-tails ) : प्रसिद्ध है। अरण्डीकातैलarandi-ka-tailas ऐकिन्सन (Atkinson. ) लिखते । एरण्ड तैल, रेडी का तेल | Castor oil हैं- शैत्यप्रभव रोग एवं ज्वर में गणिकारिका पत्र (Oleum Ricini.) For Private and Personal Use Only Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भरण्डबोज भरण्य कार्याली अरण्डबीज aranda-bija-सं०, हिं० ० -सं०पु. (२) कटफल वृक्ष,कायफल | (My. ... अण्डी का बीज, रेडी। (Castor oil rica sa pida. ). Seed.) देखो--एण्ड अरण्यक: aranyakah-सं० पु महानिम्या, भराडी arandi-हि स्त्री० रेंडी, अरडी । ('The बकाइन । महानिम्-बं० । वकान निम्ब-मह० । fruit of Palma christa.)। देखो . (Ailantus excelsa, Roxb.) एरण्ड । निघ०। अरण्डी का पेड़ aandi-ki-pera-हिं० पु. एरंड वृक्ष, रेड, अण्डी का पेड़। ( Castor | अरण्य करणा aranya kanā-सं० स्त्री०.(.) कटुजीरक, जीरक, जीरा विशेष । Cumin oil paint.,)। ( Ruciius comiliu Seed ( Cuninuin Cyminum ) __nis, Linn) सफा०ई० । देखो-एरण्ड । वै० निघ। (२) बनपिप्पली । ( Wild अरण्डी के बीज arandi-ke-bija-हिं० piper.) पु० अण्डी के बीज, रेंड के बीज, रंडी. Rici अरण्य-कदली aranya-kadali-सं० स्त्री० nus co Inunis, Linn. ( Seeds गिरिकदली, बनकदली, जंगली केला-हिं० । ..... of-Castor oil seeds.) । स०फा०ई० | बीचकला, बुनो कला, दयाकला-बं०। राकेला भराडोली arandoli-जय. एरण्ड बीज, रेडी, -मह| Musa Sapientunm, Linn. - अरण्डी के बीज । ( Castor oil seeds.) (Wild var. of-) रा०नि० व० ११ । . देखो-एरण्ड। अरण्यः aranyah सं० पु. कट. गुरण-शीतल, मधुर, बलकारक, वीर्यबद्धक अरण्य aranya-हिं. संचा पु. ) - रुचिकारक, दुर्जर और भारी तथा दाह, शोष,पित्त... फल वृक्ष, कायफल । कटफलेर गाछ-बं०।। .. नाशक हैं । इसका फल कषैला, मधुर तथा भारी . . (.Myrica sapida.) श० च०। (२) है। वै० निघ। शाल भेद, साख । ( Shorea robusta.)| अरण्य-कर्कटी aranya-karkati-सं० सी० .... वैकनिधन। वनजात कर्कटी, जङ्गली ककड़ी । युनो काँकुद अरण्यम् aranyan-सं० क्ला० -बं० । राणतबसे-मह.।। ) ) गुण-जंगली ककड़ी, उष्ण, तिक, रसयुक्त, अरण्य aranya-हि० संज्ञा पु. अटवी--सं० । वन, जंगल, विपिन, कानन--हिं० । पाक में कटु और भेदक है तथा कफ, कृमी, राण--मह । अटवि.क.। बरै, सह रा--अ० । पित्त, कण्डू और ज्वर का नाश करने वाली है। दश्त--फ़ा। जंगल-हिं०, द०। काना० ।। वै० निघ। अडवि-ते। काह-मल०। काड,श्रदवि-कना। | अरण्य-कपासः aranya-karpasah-सं० बन बनेर, जंगलेर,जंगली-बं० । जंगली-गु०।। पु'० पीवरी । Devil's cotton (A bro. वल-सिं०1 तो-बर०1 फॉरेस्ट (A for | ma Augusta.) देखो-प्रोलट, कम्बल । est.), विण्डरनेस (Wilderness.), | अरण्य-कलद arenya-kalad-सं० पु. चावाइल्ड (Wild.)-इं०। कसू । (Cassia absus). . उद्यान, महावन, उपचन और प्रमदवन भेद से | अरण्यकाक: aranya-kākah-सं० पु वन.वन चार प्रकारका होता है। इनमें से रागी | काक,बनकौा । (A wild erow.) दाँप काक लोगों के क्रीड़ास्थल को उद्यान (फुलवारी), | -बं० । राण कावला-मह० । द्रव्य० गु० ० भीतरी राजमहल के सामने के बाग को प्रमदवन निघ० । और नगर से बाहर स्थित बाग को उपवन कहते | अरण्य-कापासी aranya-kārpasi-सं॰खी. हैं। रा०नि० २०२। (1) वन कार्पास, जंगली कपास । बन कपासी For Private and Personal Use Only Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भरण्यकासनी अरण्यकासमी -बं० । राण कापासी-महा। पत्ति-ते. । ( The wild cotton) गण-तणनाशक, शस्त्र-ततध्न और रूह है। रा०नि० ब०११ । (२) पोलट कम्बल, पीवरी । (A broma Augusta.) अरण्यकासनी aranya kāsani-हिं० स्त्री. दुघल, बरन, कानफूल, रदम,शमुकेह, दुध बथन -पं०, हिं० । पथरी-द० । बुथुर-सिंध० । टैरेक्ज़ेकम् बॉफ़िसिनेली ( Tara xacum Oficinala Wigg.),ट. डेगडेलिश्रोनिस (P. Dandelionis.)-ले० । डेण्डेलिऑन ( Delelion.)-इं०। पिस्सेन-लिट ( Pisseulit.)-क्रां० । उद्रचेकन-को० । मिश्र या तुलसी वर्ग (1.0. Composilue. ) उत्पत्ति स्थान-सर्वत्र हिमालय ( शीतोप्या -ई. मे० मे.) तथा नीलगिरी पर्वतों; उसरी | पश्चिमी सूबों में यह बोई जाती है; तिब्बत में | साधारण रूप से होती है, युरुप ( इलैण्ड) तथा उत्तरी अमरीका | . नोट- डॉ. डाइमॉक महोदय के कथनानुसार सहारनपूर के सरकारी वनस्पत्योद्यान में प्रतिवर्ष इसकी कृषि की जाती है। नाम-विवरण-पुजश्कीनामा के सम्पादक नाज़िमुलइतिब्बा महोदय के कथनानुसार टैरेक्सेकम युनानी भाषा का शब्द है, जो तारास्सुवसे जिसका साङ्केतिक अर्थ तलरियन (मृदुता जनक) है, व्युत्पन्न शब्द है; परन्तु डा०डाइमॉक | महोदय के कथनानुसार इस शब्दकी वास्तविकता अनिश्चित है, कदाचित् यह तर्खश्कू न ( फारसी शब्द) का अपभ्रंश है। उक वनस्पति के गंभीर दनदाने क्योंकि दुग्ध. दन्त के समान होते हैं, इस कारण आंग्ल भाषा में इसे डेण्डिलॉन ( दुग्धदन्त ) नाम से अभिहित करते हैं। इतिहास-यद्यपि प्राचीन युनानी व रूमी चिकित्सकों ने कई भाँति की कासनी का वर्णन किया है; तथापि ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने इस भाँति की कासनी का वर्णन नहीं किया। इब्नसीना ने तर्खर कुन नाम से इसका वर्णन किया है तथा अन्य मुसलमान चिकित्सकों ने भी इसका वर्णन किया है । युरूपमें सोलहवीं शतानि मसीही में फूशियस Fuchsius (१५४२) ने हेडिप्नाइस ( Hedypnois) नाम से, टैगस Tragus (सन् १५५२ई० में ) ने हीरेशियम मेजस (Hieracium ma jus), मैथिोलस Matthiolus (१९८३) ने देन्स. लियोनिस (Deusleonis ) और जीनिनस Linmaus ( १७६२)ने लिएटोडॉन टैरे. *7 (Leonto don Tara xacum) इत्यादि नामों से (जिसको वह इब्नसीना के तोश्न का पर्याय समझते थे ) इसका वर्णन किया है । सतरहवीं शताब्दि के अन्त में यूरूप में अरण्यकासनी ( Dandelion ) का उपयोग बहुतायत के साथ होने लगा। भारतीय ( श्रायुर्वेदिक ) चिकित्सकों को उ ओषधि ज्ञात न थी। नोट-मजनुल् अद्वियह, में हिन्दबाउ. व्यरौं तथा मुहीतश्राज़म में कासमीदश्ती नाम से उन पोषधि का वर्णन किया गया है। प्रयोगांश-युनानी वा भारतीय चिकित्सक तो इसकी जद, पत्र एवं नव्य पौधा सभी औषध कार्य में लाते हैं; किंतु डॉक्टरी में केवल इसकी जद औषध तुल्य व्यवहार में आती है और यह xि० फा० में आफिशल है। अरण्यकासनी मूल पर्याय-टैरेक्सेसाई रैडिक्स ('Taraxaci Radix.)-ले। टैरेक्जें कम् रूट ( Taraxacum Root.), डैण्डेलियन स्ट (Dandelion Root.), हाइट वाइट इण्डाइय (White wild endive.) ० । संघ दन्तीमूल-सं० । जंगली कासनी की जद हिं०, उ० । अर लुल हिन्द बाउब्बरी-० । बीन. तर्वश्न, बील कासनी दश्ती-फा० । ऑफिशल ( Officiisl. ) वानस्पतिक-विवरण- ताजी जड़ (बहु For Private and Personal Use Only Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अरण्यकासनी अरण्यकासनी वर्षीय ) ६ से १२ या १६ इंच लम्बी, करीब करीब बेलनाकार, 1 से 1 इंच चौड़ी (न्यास), उर्ध्व भाग अनेक सूक्ष्म कुछ कुछ धने शिरको से पाच्छादित रहता है तथा निम्न भाग में कम शाखाएँ होती हैं। ताजी दशा में यह हलके पीतधूसर वर्णकी एवं गूदादार और शुष्क दशामें गंभीर धूसर या श्याम धूमर वर्ण की, जिन पर लम्बाई की रुत अधिक झुर्रियाँ पड़ी रहती हैं। भीतरसे यह श्वेत बर्ष की जिसका मध्य माग ज़रदीमायल (पीताभ) होता है। यह गंधरहित एवं कटु स्वादयुक्र होती है। यह स्रोतपूर्ण तथा प्राई ऋतु में अधिक लचीली होती है। परन्तु शुष्क होने पर सूक्ष्म चइचड़ाहट के साथ टट जाती है। टूटने पर बीच की लकड़ी पीतत्रण की, स्रोतपूर्ण जिसके चारों ओर गंभीरश्याम वर्ण की कैम्बियम रेखा तथा घनी श्वेत त्वचा होती है, जिसके मध्य धूसरित वण' की दुग्ध को नालियों के वृत्त होते हैं। ये पतली दीवाल की ( Parenchyma.) से भिन्न किए गए होते हैं। शीत काल से पश्चात् एवं बसन्त ऋतु के . प्रारम्भ में इसकी जड़ मधुर स्वादयुक्त रहती है। बसन्त और ग्रीष्म के वीच दुग्ध-रस गादा हो जाता है तथा कटु रस बढ़ जाता है। इस कारण इसकी जड़ को पतमद (Autumn) के समय में एकत्रित करना चाहिए । बसन्त ऋतुकी • जड़ में तिक मधुरसरव निकलता है। समानता-अकरकरा की जद ( Pelli-! tory root) इसके समान होती है। किन्तु | समाने पर उसका स्वाद चरपरा होता है। रासायनिक संगठन-दुग्ध रस में एक कटु । विकृताकार (अस्फटिकीय ) सत्व-(१) टेरेक्सेसीन ( Taraxacin) अर्थात् अरण्यकासनीन वा तंत्रश्नीन, (२) एक स्फटिकवत् (कटु) सत्र टैरेक्सेसीरीन, ( Taraxacerin) और (३) ऐस्पैरंगीन (खिरमी सत्य, अस्फ्रागीन), पोटाशियम् | कैल्शियम के लवण, रालदार और सरेशदार पदार्थ होते हैं। इसकी जड़ में माइन्युलीन | २५ प्रतिशत, पेक्टीन, शर्करा, लीन्युलीन, भस्म ५ से० प्रतिशत पाए जाते हैं । प्रभाव-मूत्रल, वल्य, निर्बल रित्तनिस्सारक, और कोष्ठ मृदुकारी। औषध- निर्माण--प्रॉफिशल योग (Offivial preparations : (७) अरण्य कासनी सस्व - एक्सट्रक्टम टैरेक्सेसाई ( Extractum Tara xaci ) -ले० । एक्सट्रैक्ट ऑफ टैरेक्जे कम ( Extract of Tara xacum )-इं. खुलासहे कासनी बरीं, उसारहे तर्खरन न । निर्माण-क्रम-टैरेक्कम की ताजा जड़ को कुचलकर दबाने से जो रस प्राप्त हो, उसे स्थूल भाग के अन्तः क्षेपित हो जाने पर निथार ले। तदनन्तर १० मिनट तक १ से २१२० फारम. हाइट के उसाप पर रख कर छान कर द्रव को इतने ताप पर उड़ाएँ जिसमें वह गाढ़ा होजाए। मात्रा-५ से १५ प्रेन (३ से १० डेकिग्राम)। (२) अरण्यकासनी तरल-रुत्वएक्सट्रैक्टम् टैरेक्सेसाई लिक्विडम ( Extrac. tum Taraxaci Liquidum)-ले०। लिक्विड एक्सट्रैक्ट ऑफ़ टैरेको कम (Liquid Extract of Taraxacum)-ई। ख लासहे कासनी बरी सय्याल, उसारहे तनश्कून सस्याल-०, फा०। निर्माण-क्रम-टैरेक्जेकम् की शुष्क जड़ का २० नं. का चूर्ण २० ग्राउंस मयसार (६०%/0) २ पाइंट, परिचुत वारि आवश्यकतानुसार । टैरेक्ोकम् को ४८ घंटा पर्यन्त मचसार में भिगोएँ। पुनः इसमें से १० र घाउंस द्रव निचोड़ कर पृथक् करले । अवशिष्ट स्यूस भाग को २ पाइंट परित जल में ४८ घंटा तक भिगोएँ और दबाने से जो तरल प्राप्त हो उसे छान कर अग्नि पर यहाँ तक रखें, कि उसका द्रव्यमान १० लाड माउंस बच रहें। पुनः प्रति तरल द्वय को परस्पर मिला लें और भावश्यकसानुसार इसना परिसुत जल और योजित करें कि तरल सस्व का द्रव्यमान पूर्व २० लहर माउंस होजाए। For Private and Personal Use Only Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अरण्यकासमी भारण्यचरकः मात्रा प्राधा से २ ल.इड ड्राम(१८ से पहिले बहुधा पित्तरेचक वा मूल रूप से इसे ७.१ घनशतांश मीटर )। यकृद्रोगों जैसे-पांडु तथा जलोदर प्रभृति में (३) अरण्य कासनो स्वरस- सकस श्रधिकतया व्यवहार में लाते थे । किन्तु, अब टैरेक्सेसाई ( Succus taraxaci)-ले।। - इसका उपयोग बहुत कम हो गया है। जूस ऑफ़ टैरेको कम् (Juice of Tarax. | प्रागय कुटः arunya-kukkutah-सं० acum)-इं० । असीर कासनी वर्श, असार पु० बन मुर्गा, कोम्ड़ा, वनमोगा-हिं० । बनकुकुट तरीश्वन-अ०, फ। - -सं० । वन कुक् हो-७० । राण कोवड़े-मह० । निर्माण-कम-टैरेक्जे कम् की ताजी जड़ को ( Wild Cock or hon. ) कुचल कर दबाने से जो रस प्राप्त हो उसमें तिगुना मद्यसार मिलाएँ और सात दिवस गुण इसका मांस हृद्य, लघु, और कफनाशक पश्चात् फिल्टर करलें (पोतन करने)। ___है। रा०नि० व० १७ । वृहण, स्निग्ध, उष्णमात्रा-१ से २ ल इद दाम( ३.६ से | वीर्य, गुरु और वातनाशक है । मद० २० १२ । ७.१ घन शतांश मीटर )। अरस्य कुलिस्थिका aranya-kulitthiki प्रतिनिधि-अमिराव ( Launca भरण्य-कुलित्था,-स्थी aranya-kalittha,-! tihí) innatifida, Cass.) लैक्टथुक हेनिएना, . -सं०त्री०(१)वन कुलथी, कुलरथा | वन कुर्ति (Lactuca Heyneana 1). C) : कलाय-बं०। रा०नि०व०५ (२)(A blue feragat ( Emilia sonchifolia, 1). stone used asacollyrium.)कुलत्थाC. ) और सॉस ऑलि रेसिअस (Conchus ञ्चन, कृत्रिम अञ्चन विशेष | रा०नि००१३। Oleraceus, Linn) विस्तार के लिए उन उन नामों के अन्तर्गत अवलोकन करिए। कालशुर्मा-हिं० । देखो-कुलस्थाअनं । . प्रभाव तथा उपयोग-टैरेक्सेसाई रैदिवस | अरण्य-कुसुम्भः aranya-kusum bhah-सं. (भरण्यकासनी-मूल ) चिरकाल से बन्य, पु. वन कुसुम, बन कुसुम्भ चुप । जंगली कर पित्तरेषक, मूग्रल और कोष्ठ मृदुकारी रूप से | . (बरे) । राण कहई, राण कुसुम्भ-मह । वन प्रसिद्ध रहा है । ताजे स्वरस का बल्य प्रभाव, जो | कुसुम-बं० । गुण-कटुपाकी, कफनाशक, तथा प्रयोग सेटीक प्रथम प्रस्तुत किया गया हो अथवा .. दीपन । रा०नि व.४। जो जड़ को एकत्रित करने के श्रीक पश्चात् अभी अरण्य-कोलिः aranya-kolih-सं० स्त्री. वनजब कि वह कटु हो, निर्मित किया गया हो, कोलि, बन बदरी । वन कुल-छ। (Zizyp. निश्चित रूप से उत्तम होता है। वह बहुशः:- hus jujnba.) प्रभावकारी बल्य औषधों का लाभदायक अनुपान है । इसके सत्व प्रायोगिक रूपसे प्रभाव अरण्य-गवयः aranya.gavayah-सं० पु. जंगली गाय, वन गवय, वन गऊ । यह कूलचर हीन होते हैं और इसकी अड़ द्वारा निर्मित औषध व्यर्थ। त्रि फा० विट्ला। जाति की है । सु० सू० ४६ ० । देखो कृलेचर। . . ताजी जब का रस या इसका शीतकवाय केलम्बर के समान प्रामाशय बलप्रद प्रभाव | अरण्य घोली,-लिका arinyaigholi,--lika करता है तथा यह किसी प्रकार की ष्ठमवुकारी भी -सं० स्त्री०(१)वनधीली नामक प्रसिद्ध पनशाक है। परन्तु इसके वे प्रपोग जो अंग्रेजी औषध विशेष, धोली शांक | रा०नि०प० । । (२) विक्रेताओं से उपलब्ध होते हैं, उनका प्रभावा मन्थनदण्ड। स्मक होना सन्देह पूर्ण विचार किया जाता है। अरण्यचटक; aranya-chatakah-सं.पु. For Private and Personal Use Only Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भरराषचम्पका अररायजाईका . वन चटक पती | धूसरः, भूमिशयः -संभ वनचटा) पाखि, गुड़गुड़, नागर भड़ई, छातार-चं०।। गुण- इसका मांस लबु, हितावह, शोत , शुक्रन्द्र कारक, बल नद और चटक के समान | गुण वाला होता है । वै०नि० द्रव्य गु० । अरण्यचम्पक: aranya-champakan-सं० पु. वनचम्पक, बन चम्पा । Michelia champaca ( The wild var. of-) "नचाँपा-०। गुण-शीतल, लघु, शुक्रवद्धक और बलबदक है। रा०नि० व०१०। भरण्य छागः aranya-chhāgah-सं० [. वनवाग, जंगजी बकरा | बुनो छागल-बं० । (A wild goat). अरण्यजः aranyajah-सं० पु. ( Sesam. um indicum) तिलक सुप, तिल वा तिल्ली का रुप 1 See--Tilakah (तिलकः) हेच. अरण्य जयपालः aranya-jayapālah-सं० पु. जंगली जमालगोटा-हि०। (Croton po. lyandrum, Boxb. ) हाकूद, दन्ति-बं०। देखो-दन्ती। भरण्यजा aranyaja-सं० स्त्री० पेऊँ । । अरण्यजाका aranyajardraka-सं-स्त्री० बनाकः, वनाईका, बनजाकः ( रा० नि. व०७)। वाइल्ड जिजर (Wild ginger) -३० जिञ्जिबर कैस्सुमनार (Zingiber cassumunal, Roxih.)। फा० ई.३ भा० ।। ई० मे. प्ला० । जि. पप्युरियम् (Z. Pu. rpureum), जि. निफ्रोडियाई (Z.cliff. ordii)-ले० । ई० मे० मे०। बन पाद्रक, बन प्रादी,जंगली प्रादी-हि. । बन श्रादा-बं० । कल्यलय, करपुशुपु -ते० । राण पाले, निसा, निसण, मालाबारी हलद-मह• । जजबील श्ती-फा०,०। आईक वा हरिदा वर्ग . (N.O. Scitamineæ or Zingiberacece.) .. उत्पत्ति स्थान-भारतवर्ष (हिमालय से | लंका पर्यन्त) वानस्पतिक-विवरण-इसका ताजा पाताली धड़ ( Rhizome ) १ से २ इंच मोटा ( व्यास ), जुड़ा हुआ, दवा हुआ (संकुचित), अनेक श्वेत गूदादार अंकुरों से युक्त होता है, जिनमें से कुछ में श्वेत कन्द ( Tuber) लगे होते हैं। धड़ की प्रत्येक संधि पर शुङ्ग होता है। वहिर त्वक् छिलकायुक्त तथा हलका धूसर होता है। अन्तः भाग पूर्ण सुवर्ण-पीतवर्ण का, गंध प्रति तीव्र तथा बहुत प्रिय नहीं ( भाईक, कपूर तथा हरिद्रा के सम्मिलित गंधवत् ) . होती है । स्वाद उष्ण और कपूरवत् होता है। वन पाक को सूक्ष्म रचना-बचा का ऊर्ध्व भाग पिचित (संकुचित :) एवं अस्पष्ट कोषों के बहुतसे स्तरों द्वारा बनता है। पैरेनकाहमा -- में वृहत्बहुभुज कोष होते हैं । पाताली घड़ के त्वगीय भागस्थ कोष करीब करीब स्वेत्तसारशून्य होते है, परन्तु उसके मध्य भागमें पाए जानेवाले कोष वृहत्, अंडाकार, श्वेतसारीय कणों से पूरित होते हैं । उक्र धड़ के सम्पूर्ण भाग के वृहत कोष सुवर्ण-पीत वर्ण के स्थायी तैल से पूर्ण होते हैं। वैस्क्युलर सिष्टम (कोष्टक्रम) हरिद्रावत् होता है। __ रासायनिक संगठन-इसमें निम्न पदार्थ पाए जाते हैं:ईथर एक्सट्रेक्ट (1) स्थायी तैल, (२) कसा; और (३) मृदुराल) .६. १६ कहॉलिक एक्सटेक्ट(शर्करा.राल ७.२६ वाटर एक्सट्रैक्ट(५) निर्यास, (६) अम्ल आदि १३. ४२. (७) श्वेतसार (८) क्रूड. फाइबर (..) भस्म (१०) भाईता . (११) भल्युमिनोहड्स और (१२) Modifi. cations of arabìn etc..), 10.95 जह कपूर तथा जायफल की मिश्रित. गंध, . तद्वत् चरपरी होती है । मृदु रात ज्वलनयुक्र स्थाद रखता है। जड़ में कपूरहरिद्रा ( Cur For Private and Personal Use Only Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भरण्यजीरम्,-कम् अरण्य तम्बाकू cuma aromatica)की अपेक्षा अधिक शर्करा वा लुभाब होते हैं। प्रयांगांश-पाताली धड़ ( Rhizome ) तथा जड़ । इतिहास-यद्यपि रागज़बर्ग ने उन पौधे को कस्लमुनार (Cassumunar ) लिखा है, तथापि इस बात में अत्यंस सन्देह प्रतीत होता है कि प्राया इसकी जड़ कभी युरूप भेजी गई है या यह कभी भारत वर्ष में व्यापार की वस्तु रही है। कामञ्जल बनहरिद्रा का मालाबारी नाम है और इसीसे औषध-विक्रेताओं को कस्सुमुनार (Cassumunar root) नामक जड़ की प्राप्ति होती है। गंध एवं स्वाव में दोनों जड़ें बहुत समान होती हैं। महरठी नाम निसा संस्कृत भाषा का शब्द है। निशा संस्कृत में हरिद्रा को कहते हैं। इससे यह प्रगट होता है कि देहाती लोग इसकी जड़ को वनाईक मूल की प्रतिनिधि रूप से व्यवहार में लाते हैं। गुणधर्म नथा उपयोग-यह कटु, अम्ल, रुचिकारक, वल्य तथा अग्निवद्धक है। रा० नि०व०६। - इसके प्रभाव तथा उपयोग प्राईक के समान है। कोंकण में इसे वायुनिःसारक, उरोजक रूप से अतिसार एवं उदरशूल में वर्तते हैं। डाइमाक। इसके अन्य उपयोग हरिद्रावत् हैं। ई० मे० मे। भरण्यजीरम्,-कम् aranyajiram,-kam -सं० को वनजीरक, कटुनीरक, जंगली जीरा ।। बनजीरा-बं० । कडुजीरें-मह । जीरकन-ते। (Wild cumin Seed.) देखो-जीरा। गुण-जंगली जीरा, उष्ण वीर्य, कसेला, कटु, वात कफ स्तंभा तथा प्रणविनाशक है। वै० निघ० द्रव्य० गु०। भरण्य-तमाल aranya-tamāla -हि. भरण्य-तम्बाक aranya-tambaki Jपु. कुल, बन सम्बाकू, गीदड़ तम्बाकू, घनतमाल,वनज | ताम्रकूट । ग्रेट मुलीन (Great mullein), मुलरेन (Mullein)-'. । वईस्कम् चैप्सस (Verbascum Thapsus. Linn. -ले। बोइलॉन ब्लैक (Bouillon blanc), मोलीनी ( Molene )-फ्रां० । वूलरफूल, भूम के धूम, बन तम्बाक. फ्रास रुक. एकबीर. काण्ड, (टर, खगोश, वर्खरुबार, स्पिनखाभार, गुरगना, करथी, रावन्दत्रीनी, किस्प्री-पं। प्रदानुद्दुन्य (रीछ कर्ण), माहीजहरज (मरस्य विष), सिक्रानुल हुत ( मरस्य शूकरान), बी. दतुल बैदा (श्वेत क्षुप) और बुसीर-० । माहीजह रह, खुसीर-फा० (इलिन)। . कटुको वर्ग (N. 0. Scrophularinece ). उत्पत्ति-स्थान-शीतोष्ण हिसासय, काश्मीर से भूटान पर्यन्त; यूरूप (ब्रिटेन से पश्चिमारय ) संयुक्र राज्य ( United states). इतिहास-ऐसा प्रतीत होता है कि चिकि. साशास्त्र के संस्कृत लेखकों ने उक्त पौधे का वर्णन नहीं किया है। अरब निवासी प्रदानुदूदुम्ब, माहीज़ह रज तथा सीकरानुल-हुत प्रादि नामों से उक पौधे का वर्णन करते हैं। अर्वाचीन अरबी ( भाषा ) में इसे लबीदतुल्दा वा बुसीर कहते हैं। मुलीन ( Mullein ) का फारसी माम माहीज़ह रह तथा बुसीर है । इख्तियारात में हाजी जैन ने इसका स्पष्ट वर्णन किया है। वानस्पस्तिक-विवरण-पत्र, मूल-पत्र ६ से १८ इंच लम्बे, प्रकाण्ड (धड़) पत्र श्रायताकार; ऊध्यपत्र छोटे नुकीले, डंठल रहित (वृन्त शून्य) न्यूनाधिक दंष्ट्राकार ( लहरदार ) तथा सदी मायल चमकीले (श्वेताभ ) एवं कोमल रोमों से घनाच्छादित होते हैं। स्वाद- लुभाबी कुछ कुछ तिक, गंध ताजा होनेपर यह बात दूर होजाती है। इसके पुष्प ६ से १० इंच लम्बी बालियों पर लगे होते हैं। केवल पुष्पाभ्यन्तर कोप (पुष्प दल) एकत्रत किए जाते हैं। इसकी चौड़ाई (म्यास) से १ इंच तथा लम्बाई । इंच होती For Private and Personal Use Only Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अरण्यतम्बाकू अरण्यतम्बाकू है। दल धमकीले, पीत वण के ( अथवा । बाहर से सुकेदो मायल पीत और भीतरसे सफ़ेदी । मायल नीले), पञ्च खण्ड युक्त, ऊर्ध्व भाग चिकना और अधः भाग लोमश होता है। नरतन्तु गर्भकेशर की नली से लगे होते हैं। इनमें से ऊपर के तीन ऊर्गीय तथा नीचे के दो लम्बे और चिकने होते हैं। स्वाद--लुबाबी और कुछ कुछ तिक होता है । हाजी जैन इसके पुष्प को नीलगुं बतलाते हैं जो वास्कम् ब्लेटेरिया (V. Bla. ttaria) प्रतीत होता है । पुष्करमूल (Orris. root) के साथ इसके पुष्प की गंधकी तुलनाकी गई है बीज, इञ्च लम्बे, गावामी (शुडाकार ), | अत्यन्त कड़े जिनका चूण करना अति कठिन है, करीब करीव गंध रहित होते हैं । स्वाद कुछ कुछ । चरपरा होता है। रासायनिक संगठन-पुष्प में एक प्रकार का पीत उड़नशील तैल, वसामय अम्ल, स्वतन्त्र सेव वा स्फुरिकाम्ल, चूर्ण स्फुरेत तथा चूर्ण मलेत Malate of lime), ऐसीटेट ऑफ पोटास, रवा न बनने योग्य शर्करा, निर्यास, हरिन्मूरि ( हरियाली) और एक पीत रालीय रक्षक प्रादि पदार्थ होते हैं । (मोरिन) पत्र में रासायनिक विश्लेषण द्वारा ०.८०% स्फटिकवत् मोम, उड़नशील तैल के कुछ चिह्न, ईथरविलेय राल .. ७८/०, ईथर में अविलेय किन्तु विशुद्ध मसार (ऐल कोहल ) में विलेय राल १.००", सूक्ष्म मात्रा में कपायीन, एक निक सत्व,शर्करा, लुभाब इत्यादि, आर्द्रनार ९०% पार भस्म १२.६० प्रतिशत तक होता है । (एडॉल्फ) __ औषध (drug) में लुप्राय १६. ७६/ डेक्स्ट्रीन ( अंगूरी शकर ) के समान काबीज ( Carbohydrate ) ११. ७६ ग्लूकोज ( मध्वोज ) ५. ४८%, सैकरोन । (शर्करौज): २६°/o, आर्द्रता १६.७६°/1, भस्म ४. ११%, सेल्युलोज (काष्टोज) ३२.७५ प्रतिशत और लिग्नीन ( काष्ठीन) श्रादि पदार्थ होते हैं। प्रयोगांश-सुप ( अर्थात् मूल, पत्र, पुष्प एवं बीज) श्रौषध-निर्माण-पत्र-१ से ४ ड्राम । तरल सत्व-(पत्र वा पुष्प द्वारा प्रस्तुत ) १ से ४ फ्ल० ड्रा०। प्रभाव-पत्र वेदनाशामक, प्राक्षेपहर, स्मिग्धताजनक, मूत्रल, मृदुताजनक, लुभाबी और सूक्ष्म निद्राजनक है। उपयोग-मुसलमान चिकित्सक इसे त्रितीय कक्षामें उष्ण व रूत मानते हैं, और विरेचन के साथ इसे श्रामधात तथा संधिवात में देते हैं । दीसकरीदूस ने इसके कई भेदोंका वर्णन किया है। वे इसे कास तथा अतिसार में लाभदायक और वाह्य रूप से मृदुताजनक बतलाते हैं । इसकी एक जाति से लैम्प की बत्ती बनाई जाती धी। ऐसा प्रतीत होता है कि अरब तथा फारस निवासी मुलीन के निद्राजनक (मत्स्य के लिए) प्रभाव से भली भाँति परिचित थे । डॉक्टर स्टयवर्ट के मतानुसार इसकी जड़ उत्तर भारत में ज्वरघ्न रूप से उपयोग में पाती है। युरूप में मुलीन चिरकालसे पशुओं के फुप्फुस रोगों के लिए प्रसिद्धि प्राप्त कर चुका है। इसी हेतु इसे काउन लङ्गवर्ट ( Cow's lungwort) अर्थात् गो-फुप्फुस-तृण कहते हैं। जर्मनी में चूहों को भगाने के लिए इस पौधे को अन्न की कोठियों ( खातों) में रखते हैं। प्रारम्भ में इसके डंठल को मशाल रूप से व्यवहार में लाते थे। इस कारण उक्त पौधे का, फ्रांस में सिर्जी डी नाट्री डेमी ( Cierge de notTe-Dame) तथा फ्लोर डी ग्रांड शैण्डेलिभर (Fleur de grand chandelier) और इङ्गलैंड में हाई टेपर (High taper) नाम पड़ गया। इसके पत्र तथा पुष्प स्निग्धताजनक, मूत्रल, अङमाप्रशमन और आक्षेपहर हैं तथा चिर काल से अतिसार एवं फुप्फुस रोगों में व्यवहृत होते जा रहे हैं । फ्रांस में इसके पुष्प का शीत कपाय मूत्रल रूप से तथा पत्र का प्रलेप स्नेहजमक रूप से व्यवहार में श्राता है। बीज को निदाजनक बतलाया जाता है और कहा जाता है For Private and Personal Use Only Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भरण्यतम्बाकू ५७ अरण्यतुलसी कि श्वास तथा शिश्वाक्षेप ( Infantile यह यचमा की मूल्यवान औषध है तथा यह convulsions ) में इसका उपयोग किया रात्रिस्वेद को रोकती, कास को कम करती और गया है । डॉक्टर एफ० जे० बी० क्विनलैन । प्रांत्र शैथिल्य को ठीक करती है। एक पाउंस (१८८३) ने आयरलैंड में इसके पत्र को दुग्ध .. (२॥ तो०) इसके पत्र को एक पाइण्ट (१० में उबाल कर क्षयजन्य कास तथा अतिसार के .. छटांक) दुग्ध में उबाल कर दिन में दो बार मुख्य औषधीय उपयोग की ओर ध्यान दी। उपयोग करने से यह श्वासावरोध को दूर करता उन्होंने बतलाया कि बागों में उक्त पौधे की है। (वैट) विस्तृत कृषि की जातीहै । उनका दावा है कि यह मूत्रावयवस्थ क्षोभ तथा प्रदाह, प्रतिश्याय इसमें कॉडलिवर पोइल (कोड मत्स्य यकृसैल) और अतिसार में लाभदायक है। श्वास रोग समान शरीरभारवद्धक तथा रोगनिवारक गुण में इसके शुष्क पत्र को हुक्का पर पीते हैं अथवा इसका सिगरेट उपयोग में लाते हैं। इसको जड़ ज्वरघ्न रूप से दी जाती है । इसके डॉक्टरविन लैण्ड के चिकित्सालय विषयक बीज कामोरोजक हैं। इसके पत्तेको रगड़कर उसमें प्रयोगों द्वारा निम्न परिणाम स्थिर किए गए हैं:तैल सम्मिलित कर तथा उसे गर्म करके शोथ (१) यक्ष्माकी प्रारम्भिक तथा उरःक्षतीय अवस्था युक्त स्थानों पर लगाते हैं। मुट्ठी भर इसके पत्र से पूर्व प्रयोग करने से मलोन में कार लिवर को १ पाइंट (१० छुटांक ) गोदुग्ध में यहाँ तक उबालें कि श्रद्ध पाइंट (५ छटांक) दुग्ध शेष इल (काड मत्स्य यकृतैल) की अपेक्षा अधिक तथा रशन कौमिस (Russian koumiss) रहजाए । तदनन्तर इसे छानकर शर्करा सम्मिलित कर सोते समय सेवन करें। इससे कास कम के तुल्य शरीरभारवर्द्धक एवं रोगनिवारक शकि होती है तथा वेदना और क्षोभ दूर होते हैं। है। (२) उरःक्षतावस्था में यह कास को इं० मे० मे०। बहुत कम करता है। (३) यचमीयातिसार पूर्णत: प्रतिबन्धित हो जाता है । ( ४ ) इसका डॉक्टर स्ट्युवर्ट के कथनानुसार इसको अचमा के रात्रिस्वेद पर कोई सशक्र प्रभाव नहीं रेवन्दचीनी भी कहते हैं । यह इस कारण है कि होता । अस्तु उसका धन्तूरीन (ऐट्रोपीन ) से कभी रेवन्दचीनी में इसका मिः ए करते थे। सामना करना चाहिए। पी०वी०एम० । गराड-डिजिटेलिस में कभी कभी इसका तथा अन्य पौधोंका मिश्रण करते हैं । दत्त महोदय | अरण्य-तुलसी aranya-tulasi-सं० स्त्री० वर्णन करते हैं कि देशी लोग इसे श्वास तथा वनतुलसी, कृष्ण तुलसी । ( Ocimunu फुप्फुस रांगों में वर्तते हैं और यह कि इसमे' Gratissimumm ) कालायावरी-हिं० । तमालबत् (ताम्रकूट अर्थात् तम्बाकूत्रत् ) निद्रा. राणतुलस-मह० । वैजयन्ती तुलसी। यह दो जनक गुण है । बीज कामोद्दीपक ख्याल किए प्रकार की होती है:-- ( १ ) हस्य (छोटी) जाते हैं। तुलसी और (२) दीर्घ (बड़ी) तुलसी । सूरुप तथा अमरीका के संयुक्त राज्य में एक गण--जंगली तुलसी सुगंधयुक, उपरा, कटु समय स्निग्धताजनक वा नदुताकारक रूप से है तथा वान, चर्मदोप, विसर्प और विषनाशक इसके धने ऊर्गीय पत्र का केवल गृह श्रीपध में ही है। छोटी जंगली तुलसी कटु, उष्ण, तित्र, नहीं, अपितु चिकित्सकगणों में भी बहत रुचिकारक, दीपन, हृदय को हितकारक, लघु, मान्य था | प्रतिश्याय तथा अतिसार की विदा ही, पित्तकारक एवं रूत है तथा कण्डू, विष, चिकित्सा में इसका अन्तः और अर्श में वाह्य छर्दि, कुष्ट और ज्वरनाशक है एवं वात,कृमि,कफ, (प्रलेप रूप से) उपयोग किया जाता था । दद् तथा रकदोष नाशक है। बीज-दाह तथा (वैट) शोषनाशक है । 3. निव० द्र० गु० । For Private and Personal Use Only Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अरण्य पुसकः अरण्य पुदीना अरण्य पुसकः anyal-trapusakah-सं० __ कहते हैं। उनमें ( जड़ ) से दो सत्व प्राप्त पु. वन्य त्रपुष, जंगली खीरा ( Wild ! होते हैं, जिनमें से एक वह है जिसका यहाँ वर्णन cucumber )। बनशशा, बनकॉकुड़-बं० । हो रहा है । गोंडशेदनी-मह० । वै० निघः । लक्षण-यह एक प्रकार का धूसर वर्ण का अरण्य प्रयुसो aranya-trapusi-सं० स्त्री० ! चूर्ण है जो जल में तो अविलेय, परन्तु मद्यसार (१) इन्द्रवारुणी, इन्द्रायन । राखाल शशा में विलेय होता है। -1 (Citrullis Colocynthis. ); मात्रा-१ से २ ग्रेन (.०६ से ३ ग्राम) (२) महाकाल लता, लाल (बड़ा) इन्द्रायन । बटिका ( या चूर्ण) रूप में बरतें। माकालफल-बं० । ( lrichosanthes टिंकचूरा बैप्टिसोई (Tineturn BaPulmata.)। वै० निघ० अपस्मा० चि० ptisie.), टिंकचर Jफ बैप्टिसीन (Tinनस्य। cture of Baptisin. )-सत्गृह नीलज अरण्यदमनः aranya damanah-सं० वरी-अ० । तअफ़ीन नील स हाई-फा० । वन दमन वृक्ष, वनदौना, अफ़सन्तीन भेद ।। मात्रा-५ से ३० मिनिम(.३ से २ घन (Attemesia Siversiana.) के० । शतांशमीटर) . अरण्य (ज)द्राक्षा aranya,-ja-drāksha-सं० प्रभाव तथा उपयोग-थोड़ी मात्रा में कोष्ठ स्त्री. जंगली दाख । मवेज़ज, ज़बीबुजबल-१०।। मृदुकारी रूप से पुरातन विष्टम्भ ( मलावरोध) ( Delphinium staphesagria. ) में देते हैं। अधिक मात्रा में विरेचक और वामक -ले। स्टैफिसंग्रीई सेमिना (Sta phesa- है। यह यकृदोरोजक एवं प्रामाशय विकार करने griie semina.)-ले। वाला है। अरण्य धान्यम् aranya-dhānyam-सं० । अरण्य पलाएडः aranya-palāndub-सं० कोनीवार। उड़िधान-बं०। देवभात-महा। पु. वन जात पलांडु, जंगली प्याज, काँदा । ild variety of Oryza sativa.)| वन पेंयाज-बं० । (Scilla Indica.) रा०नि०व०१६। अत्रि। अरण्य धेनु: aranya-dhenuh-सं० ..! गुण-मूत्र विरेचक, श्लेष्मन, अति उम्र, बन गाय, जंगली गाय | (Wild cow.) अधिक मात्रा में देने पर वान्तिकारक तथा मलअरण्य नील सत्व aranya. nila satva भेदक है और विष के समान मनुष्य को मार -हिं० पु जंगली नील का सत ! बैप्टिसीनम् डालता है। शांथ, श्वास, कास तथा मूत्रसंग ( Baptisinum. )-ले० । बैटिसीन (मूत्रावरोध ) की दशा में यह प्रयुक्र होता है। ( Baptisin.)-इं। जौहर नीले सहराई। अत्रि० । देखो-वन पलाण्डुः। -फा, उ01 अरण्य पिप्पली aranya-pippali-सं० स्त्री० __ नॉट ऑफिशल वन पिप्पली नामक दुप, वन पीपल 1 वन पि( Not Oslicial. ) पुल-०। (See-Vanapippali.) रा. उत्पत्ति-स्थान--संयुक्त राज्य अमरीका में निव०६। एक भौति के जंगली नील के पौधे उत्पन होते अरण्य पु (पो) दीना aranya-pudina-हिं. हैं जिनका वानस्पतिक नाम बैटीसिया टिंक- पु जंगली पुदीना ( रोचनी)। हाशा-अ० । टोरिया (Baptisitu Tinctoria.) है; पुदीना कोही-फा० । Wild thyme उन्हें आंग्ल भाषा में वाइल्ड इण्डिगो ( Wi- (Thymus Vulgaris or SerpyId Indigo.) अर्थात् वन्य (अरण्य ) नील ___llum, Linn.) For Private and Personal Use Only Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अरण्य मदनमस्त पुष्प नेलिस श्ररण्य मदनमस्त पुष्प aranya-madan.masta-pushpa-हिं० पु० सिकास सर्सिCycas Circinalis, Linn. Sya. C. Inermes ) । जंगली मदनमस्त का फूल | बजर बहु बस्त्र० । पहाड़ी मदनमस्त का फूल - इ० ग्राम देसामोपन-गो० । मदन कामे, मदन- कामम्पू, काम, चनंग काय - ता० | मदन मस्तु राज गुवा, मदनकामाक्षी - ते० | मालाबारी- सुपारी मह० । रिन बदम, टोपन, एन्यकाय-मलच० । मुदंग-वर० । म- गस्स सिं० । ( NO. Cycadvaceve. ) ५८० उत्पत्ति-स्थान -- मालाबार तट, पश्चिम मदरास की शुक पहाड़ियाँ । प्रयोगांश-पौधिक पत्र ( बैक्ट्स ), गुठली तथा काण्ड | वानस्पतिक विवरण -- बाजार में बिकने वाले पौपिकप भाला के शिर के शकल के, दो लम्बे तथा श्राध इञ्च चौड़े और पृष्ट की ओर धूसरपीत वर्ण के कोमल सूक्ष्म रोमोंसे श्राच्छादित होते हैं । प्रत्येक छिलके के वाह्य ऊर्ध्वकोण से एक सूआकार अन्तः वक्र विन्दु निकलता है । जब कि कोण प्रथम प्रथम प्रगट होता है तो वे अङ्कुर अनन्नास के के समान बहुत निकट निकट चापित रहते हैं, परन्तु ज्यों ज्यों उनकी अवस्था अधिक होती है त्यों त्यों वे एक दूसरे से भिन्न होते जाते हैं । इनमें कोई तन्तु नहीं होता; छिलके का अन्तस्तल पराग-कोष (ऐन्थर) द्वारा पूर्ण रूप से श्रादित होता है; पराग-कोप (ऐन्धर) एकसेलीय ट्रिकपाट शुक्र, शिखरके इर्द गिर्द खुला हुधा होता है, जिससे पराग विसर्जित हुआ करता है । मज्जा में पाए जाने वाले श्वेतसार की शु 'वीक्षण द्वारा परीक्षा करने पर यह सांगू के समान होता है । रासायनिक संगठन ( या संयोगी श्रवयव ) - पौम्पिकपत्र तथा त्वचा में अधिक परिमाण में अल्ब्युमेनीय वा लुआबदार पदार्थ, जो जल में लयशील होते हैं, शुल्क रूप में पाए जाते हैं । परन्तु इसमें कोई क्षारीय वा अन्य ऐसे सत्व नहीं Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अरण्य मक्षिका पाए जाते जो इसके प्रसिद्ध मदकारी प्रभाव के हेतु सिद्ध हों। इससे कतीरा के समान एक निर्यास तथा एक प्रकार का सागू या प्रकांड तथा अस्थि द्वारा निर्मित घाटा जिसको मलाबार मैं "इन्दुम पोदी" कहते हैं, पाए जाते हैं । प्रभाव तथा उपयोग-नर पौष्पिकपत्र ( कोष ) दक्षिण भारतवर्ष में मादक रूप से उपयोग में आते हैं । इनमें उनपर रहने वाले कीटाण ु श्र को मान्वित करने का गुण है । ये उत्त अक तथा कामोद्दीपक भी हैं। इसका श्रौषधीय गुण पाटला (पाल ) प के समान ख़याल किया जाता है । इसी कारण इन दोनों श्रोषधियों को तामिल भाषा में मदन-काम- पु श्रर्थात् कामपुष्प शब्द से अभिहित करते हैं । श्ररण्य-मदन-मस्त geप के पौपिकप (लैक्ट्स) को अन्य द्रव्यों के साथ चूर्णित कर इससे कामोद्दीपक मोदक प्रस्तुत किए जाते हैं। इस वृक्षके कांड तथा गुठली द्वारा प्रस्तुत किया जाता है । भालाबार में इस की गुठलियों को एकत्रित कर मास पर्यंत धूप में सुखाते हैं; तदनन्तर इसे ख़ल में कूटकर घाटा बनाते हैं जिसको "इंदुम पोन्दी" कहते हैं। यह ( Caryota ) के प्राटे से श्रेष्ठ, किन्तु चावल से निम्न कोटि का होता है और इसे पहाड़ी जा नियाँ तथा निर्धन लोग खाते हैं, विशेषकर जुलाई से सितम्बर मास तक जब कि चावल कम होता है और उनके नाश होने का भय रहता है । प्रायः सागू में इसका मिश्रण किया जाता है। व्हीडी (Rheede) के वर्णनानुसार फलान्वित कोया ( Cone ) की पुल्टिस कटि पर लगाने से वृक्कशोथ विषयक शूल दूर होता है | फ़ा०ई० ३ भा० । इं० मे० मे० / I नोट -- " मदनमस्त " ( Arta botrys od. oratissinna, Z. Br. ) तथा “मदनमस्त का झाड़" नाम की दो और वनस्पतियों हैं जो पूर्व कथित वनस्पतियों से नाम सादृश्यता रखने पर भी दो सर्वथा भिन्न भिन्न श्रोषधि हैं । स० फा० ई० । इनके लिए यथास्थान देखो । श्ररण्य मक्षिका aranya-makshiká-सं० स्त्री० वन मक्षिका, डंस, मच्छर - हिं० । डश, For Private and Personal Use Only Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अरण्यमुङ्गः www.kobatirth.org ५=१ • गैड फ़्लाई ( Gad fly ) - इं० । माछि-० श० १० । अरण्य मुद्रः aranya-mudgah - सं० पुं० वनमुद्र, बनग, मुद्गपर्णी । घोड़ा मुग-ब० । ( Phaseolus Trilobus Ait ) रा० नि० ० १६ | देखो -- मकुष्ठकः । श्ररण्यमुद्गा aranyamudgá सं० त्रो० मुद्रपर्णी, बनमूँग - हिं० । मुगानि - चं० | (Pha• seolus Trilobus fit.) रा०नि० व ३ । अरण्य मेथां aanya-methi - सं० स्त्री० वन मेथिका, बनमेधा, जंगली मेथी । बन मेति - बं० | राणमेथि - मह० । ( Sec- Vanamethi) ० निघ० । अरण्य रजनी aranya-rajani-सं० स्त्री० वनहरिद्रा, जंगली हलदी । बन हलुद-बं । राण हलद मह० । ( Curcuma Aroma tica.) वँ० निघ० । श्ररण्यलक्ष्मो aranya lakshmi ० स्त्री० वन लक्ष्मी, रम्भा फल, श्ररण्य कदली, जंगली केला | Wild Plantain ( Musa Paradisiaca ). अरण्य वाताद aranya-vatad-सं० पुं० (१) बीज - जंगली बादाम - हिं० द० | हिड्नो का वाइटिना ( Hydnocarpus Wightiana, Blume ), हिं० श्राइने - ब्रिश्रंस (H. inebrians, Wall.)-ले० | अंगूल श्रमण्ड (Jungle Almond ) - ई०। नीरडि-मुत्त, एड्डी-ता० । नीरडि-वित्तु लु - ते० । कडु कवथ, कौटी मह० । तमन, मरत्रेति - मल० | रट केकुन, मकूलू सिं० 1 कोष्टी गां०। कोटी - स्व० । तैल-जंगली बादाम का तेल -६० । नीरडि मुक्त्त पुराणेय - ता० । नीरडिवित्त लु-नूने. - ते० । कुष्ठरी वा बॉलगरा वर्ग (N. O. Bixineoe.) उत्पत्ति स्थान - पश्चिम प्रायद्वीप, दक्षिण कोकणसे ट्रावनकोर पर्यन्त, मालाबार और दक्षिण के कुछ अन्य भाग । भारत Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अरण्यवाताद जो इतिहास- - उक्र वृक्ष के इतिहास के विषय में कुछ हमें ज्ञात है, वह यह है कि पश्चिम समुद्र तट पर यह कतिपय हठीले त्वग्रोगों में गृह औषध रूप से चिरकाल से उपयोग में आ रहा है। तथा निर्धन जाति के लोग जलाने तथा श्रौषate उपयोग हेतु इसका तेल निकालते हैं । (डाइमांक) वानस्पतिक विवरण - इसका फल गोलाकार सेव के श्राकार का होता है; जिसके ऊपर एक खुरदरा मोटा धूसर रंग का छिलका होता है, जो बाहर की ओर कॉर्कवन और भीतर से काष्टीय होता है, जिस पर बृहदाद जटित होते हैं; पर किसी किसी वृच में अनुदिशून्य फल भी होते हैं। इसके भीतर १० से २० अधिक कोणाकार बीज जो करीब करीब इ० लम्बे, 1⁄2 इं० चौड़े और ३ से ४ इं० मोटे, सामान्यतः विषम अंडाकार कभी कभी अंडाकार या आयताकार होते हैं और जिनके ऊपर का सिरा नीचे की अपेक्षा अधिक नोकीला होता है । बीज श्वेता में रखे रहते और श्याम पतले बाह्यत्व से मज़बूती के साथ चिपके रहते हैं । मज्जा को खुरच कर पृथक करने पर बीजस्व का वाह्य पृष्ठ खुरदरा और लम्बाई की रुख छिछली नलिकाकार धारियों से युक्त दीख पड़ता है । उभार स्पष्ट व्यक्र नहीं होते छिलके के भीतर भरपूर तैलीय अल्ब्युमेन होता है, जिसमें चीलगरा के समान दो वृहद्, स्पष्ट हृदाकार तीन नसों से युक्त पत्रीय दौल होते हैं। ताजी अवस्था में अल्ब्युमेन का वर्ण श्वेत, किन्तु शुष्क होने पर गम्भीर धूसर वर्ण का हो जाता है । इसकी गंध चालमूगरा के समान होती है । मोहीदीन शरीफ के मतानुसार यह गन्धरहित तथा कुछ कुछ वातावत्, निर्बल मधुर स्वादयुक्क होता है । पारस्परिक दबाव के कारण प्रायः ये विषम हो जाते हैं। इसके बीज बॉलमूगरा के समान होते हैं; परन्तु ये आकार में छोटे तथा खुरदरे होते हैं जिनकी लम्बाई की रुख धारियाँ होती हैं। चावलमगरा में यह बात नहीं होती | For Private and Personal Use Only Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अरण्यमाताद उसके बीज चिकने और आकार में इससे दुगुने बड़े होते हैं 1 ५८२ सूक्ष्म रचना - बीज बाह्य त्वक् तथा ग्रलच्युमेन को सूक्ष्मदर्शक द्वारा परीक्षा करने पर ये चावल मृगरा वीजवत् पाए जाते हैं। रासायनिक संगठन-बीज में लगभग ४४% स्थिर तैल होता है, जो गंध या स्वाद में चालमगरा तैल के समान होता है । तेल में चाल मूमिकाम्ल तथा हिड्नां कार्षिकाम्ल और किंचिन् मात्रा में पामिटिक एसिड होता है । उपर्युक्त दोनों अस्ल स्फटिकीय होते हैं । प्रयोगांश-- बीज तथा तैल | इन्द्रियव्यापारिक कार्य - परिवर्तक, बल्य, स्थानिक उत्तेजक ( मां० श० ), पराश्रयी कीटन, वीज शोधक है । श्रीषध निर्माण -- औषधीय उपयोग और इनकी प्रतिनिधि स्वरूप युरूषीय द्रव्य - चाल. मृगराके बीज और तैल 1 मात्रा--तैल-- १२ बुद से २ ड्राम पर्यन्त ( १-२ लइड ड्राम ) श्रथवा आमाशयपूर्ति पर्यन्त | बीज- क्रमशः इन्हें १५ ग्रेन (७॥ रत्ती ) से २ ड्राम तक बढ़ाएँ । अन्तः रूप से बीज को चबाकर केवल रस को निगले; पर सम्पूर्ण वस्तु को नहीं। बीज की अपेक्षा तैल अधिक लाभदायक, संतोषजनक तथा उत्तम है। तेल बालमृगरा तैल की उत्तम प्रतिनिधि है | पूर्ण लाभ हेतु इसका पूर्ण औषधीय मात्रा में उपयोग करना चाहिए । नोट- क्योंकि यह बहुत स्वरूप मूल्य की वस्तु है, श्रस्तु अकेले ही बिना किसी अन्य तैल के सम्मेलन के इसका वहिरप्रयोग करना चाहिए । I उपयोग--खजू (तरखुजली) तथा विस्फोटक आदि व्यग्रोगों में इसके बराबर कानन एरण्ड तैल ( Jatropha curcas oil ) मिश्रित कर उसमें गंधक २ भाग, कर्पूर श्राधा माग, तथा नीबू का रस १० भाग योजित कर इसका अभ्यंग करते हैं । प्रलेप वा इमलशन रूप में इसका वाह्य उपयोग होता है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अरण्यवाताद शिरोदग्ध व्रण में इस का तैल तथा चूने को पानी समान भाग में प्रलेप रूप से उपयोग में आते हैं । (डाइमांक ) यह श्रामात विषयक वेदना को शमन करता है और इसे रोगों में बर्तते हैं । भस्मों (चारीय) के साथ मिलाकर इसे विधि चक्षुतत तथा अन्य क्षतों पर लगाते हैं । हीडी 1 ट्रावनकोर में श्राधे चाय के चम्मच भर की मात्रा में इसे कुष्ठ रोगों में देते हैं, और एरण्ड की गिरी तथा छिलके के साथ कुचल कर खुजली में इसे औषष रूप से उपयोग में लाते हैं । (डायमीक ) यद्यपि १५ बुद से २ ड्राम की मात्रा में कुष्ठ, विभिन्न प्रकार के त्वग्रोग : उपदेश की द्वितीय कक्षा और पुरातन श्रमदात में इसका श्रन्तः प्रयोग होता है; तथापि इसके उपयोग में अत्यंत सावधानी श्रावश्यकता होती है। कहा जाता है कि यह श्रामाशय तथा यान्त्र क्षोभक है क्योंकि कतिपय दशाओं में इसके उपयोग से वमन व रेचन थाने लगते हैं। (बैट) इसका तैल कुछ के लिए न्यारा तथा बालमृगरा से श्रेष्ठतर अनुमान किया जाता है । इसकी मात्रा ५ बुन्द से क्रमशः बढ़ाकर ३० बुद पर्यन्त है । कुछ में मांसांतरीय वा शिरान्तः श्रन्तः शेप द्वारा भी इसे प्रयुक्त करते हैं। ईथिलेस्टर्स के मांसांतरीय वा इसके लवण ( चं लमूग्रिक तथा हाइड नोकर्पिकारल ) के शिरान्तरीय प्रन्तः क्षेपों के सर्वोत्तम परिणाम दृष्टिगोचर होते हैं। इससे लेना बेसिलाई ( कुष्ट के जीवाणु ) और अंधिकों ( Nodules ) का अन्त हो जाता है । (चक्रवर्ती) डॉक्टर एम०सी०कॉमन देशी औषध विषयक मदरास समाचार में जो अभी हाल ही में प्रकाशित हुआ है। एक पुरातन कुष्ट रोगी का उल्लेख करते हैं, कि उसे उक्र तैल के अन्तः ( मुख द्वारा ) एवं स्वस्थ ( अन्तःक्षेप ) प्रयोग से ( रोग की विभिन्न अवस्थाओं वा भेदोंस्पर्शाज्ञता, मिश्र, ग्रंथि युक्र तथा ततज इत्यादि For Private and Personal Use Only Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अरण्यवाताद ५३ अरण्यवातादें में) अस्यन्त लाभ हुआ । ५७द उन तैल तथा / jaar gi fouin aar ( Pythons fat ) इन दोनों को मिलाकर तथा एक एक बूद दैनिक तैल की मात्रा बढ़ाते हुए उक्र मिश्रण का उस: समय पर्यन्त मांसांतर अन्तःक्षेप करें, जिसमें मात्रा ३० वा ४०बूंद हो जाए। किसी किसी रोगी को बीज की गिरी पिसी हुई, नारि.. केल तेल, सोठ तथा गुड़ (Jaggery) द्वारा । निर्मित लड़ भी दिया गया । इसका तेल । १.बूद की मात्रा में कलेवा से १ घंटा पुर्व तथा । पाक २० ग्रेन ( १० रत्ती ) की मात्रा में संध्या । काल में दिया गया। इस प्रागक्र. चिकित्सा से । पूर्व विशुद्ध विचूर्णित जयपाल बीज का ८ से १० दिवस पर्यन्त रेचन दिया गया 1 उपयुक्र चिकित्साके अतिरिक्त किसी किसी रोगीको सप्ताह में २ बार सोडियमहाइड नोकाट-धोल (२ घन शतांश मीटर) का त्यस्थ अन्तःक्षेप किया गया। परिणाम निम्न हुश्रा -"जो कुछ मैं ने देखा उसमें सन्देह नहीं कि अरण्यवाताद ( H. ! Ine brians) कुष्ठ की घृणायुक्र दशानी के | सुधारने के लिए एक शक्रिमान औषध है।" __ कलकत्ता के वैज्ञानिक अन्वेषक डाक्टर : सुधामय घोश अक्टुबर मास सन् १९२० ई. । के इण्डियन जर्नल ऑफ मेडिकल रीसर्च में ! लिखते हैं कि कुष्ठ की चिकित्सा में हाइड्नी । कार्पिकाम्ल का सोडियम साल्ट अत्यन्त गुणदायक ! एवं उपयुक्र पाया गया । उनका कथन है कि अरण्यवाताद ( Hydnocarpus Vigh ! tiana) तथा लघु कवटी (H. Veneata.) द्वारा प्राप्त तैल, चॉलमूगरा तैल की अपेक्षा ! अधिक मुलभ है। चॉल मूगरा तैलसे तुलना करने पर ५.५ प्रतिशत के स्थान में उनमें अधिक (१० प्रतिशत ) हाइड्नो कार्पिकाम्ल वर्तमान होता है । अस्तु, मितव्ययता के विचार से कुछ चिकित्सा में उनका उपयोग योग्य प्रतीत होता है । यक्ष्मा, छिलका युक्त विस्फोटक, कंठमाला के ग्रंथिकों, हठीले स्वगोगों यथा कंड, राभायुक्त विस्फोटक ( Lichen), रकसा (Prurigo) तथा उपदंश मूलक त्वगोगों पर उक तैल का अभ्यंग करते हैं। दुर्गन्धित (पूतिगंध युक) नावों में विशेषतया प्रसव के पश्चात् योनि शोधन रूप से योनि में तथा पूयमेह में इसके बीज के शीत कपाय का मूत्रमार्ग में पिचकारी करते हैं । सुश्रुत महाराज स्वरचित सुश्रुत संहिता नामक प्रामाणिक संस्कृत ग्रंथ में लिखते हैं कि कुष्ट रोग में खदिर काथ के साथ चावलमूगरा तैलके सेवन करने से इसकी गुणदायक शक्कि अधिक हो जाती है। यदि यह सत्य है तो चॉलमूनिकाम्ल खदिरोल (Catechol ) के साथ, जो उसका प्रभावात्मक सत्व है, सम्मिलित कर परीक्षा की जा सकती है। कहा जाता है कि डॉक्टर उन्ना ( Unna ) ने पाइरोगयलोल का, जो खदिरोल के बहुत समान है, पोपिद (Oxide) रूप में कुष्ठ रोग में सफलता पूर्ण उपयोग किया। कुष्ठ रोग की श्रायुर्वेदिक चिकित्सा में चालभूगरा तैल तथा गोमूत्र दोनों अन्तः एवं वहिर रूप से उपयोग में आते हैं । इसके विषय में माधुनिक सर्वश्रेष्ट भारतीय वैज्ञानिक जगदीश चन्द्र घोश महोदय लिखते हैं कि सम्भवतः तेल के अम्लों का मूत्र के सैन्धजम् (Sodium ) तथा अमोनियम अादि लवणों से सम्पर्क होने पर कुछ हारीय लवण बनजाते हैं और विलेय होने के कारण ये रोगी के रक्क द्वारा समस्त शरीर में च्याप्त हो जाते हैं तथा चें। लमूगरम्ल के विलेय लवणों की तरह प्रभाव करते हैं । (ई० मे० मे०) अश्व के वर्षाती नामक रोग में यह तेल औषध रूप से प्रयुक्र होता है। (२) जंगली बादाम-हिं०, बम्ब० मह । वाइल्ड प्रामण्ड ( Wild almond), पून ट्री (Poon tree.)-ई. स्टरक्युलिया फीटिडा ( Sterculia Foetida, Jinn.)-ले०। पून-बम्ब० ॥ कुड़प डुक्कु, पिनारी, कुद्दुरई- पुड्डकी, कुद्र फुक्कु, पिनारी(-थ) मरम्-ता० । गुरपू बादाम-ते। पिनारी मर, भाटला-कना० । पोट्ट-कवलम For Private and Personal Use Only Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भरण्यवाताद अरण्यवाताद मला। हलियम पियू, लेट् कोय-बर०। कुप्रोमद, विरोही-गो । नय॑ ऊद गु०, मह०। श्रावर्तनी वा मरोड़फली वर्ग (N. 0. Sterculiaveue ). उत्पत्ति स्थान-पश्चिमी घाट ( वा प्रायद्वीप), दक्षिण भारत, कोंकण, मालाबार, ब्रह्मा और लंका। वानस्पतिक-विवरण-इसके विशाल वृक्ष होते हैं । स्टक्युलिया की अनेक जातियों से वृहत् तैलीय बीज प्राप्त होते हैं, जिन्हें दिहाती लोग खाते हैं। बीज अद्ध अंडाकार १ इंच लंबे और प्राध इंच चौड़े ( व्यास ), एक ढीले श्यामवण की झिल्ली से आच्छादित होते हैं। आधार पर एक पीतवर्ण का अर्बुद होता है। कठिन श्यामत्वचा एक ऊरण जटित स्तर से आच्छादित होती हैं । यह भीतर से धूसर एवं मखमली होती, और इसके भीतर बीज के प्राकार की एक तैलीय श्वेत गिरी सम्पुटित होती है ।। प्रत्येक बीज का भार लगभग २ प्रामके होता है। छिलका कठिनतापूर्वक चूर्ण किया जा सकता है। उगवत् स्वचा जल में बैसारीन (Bassorin) | की तरह मद हो जाती है। गिरी में लगभग ४० प्रतिशत स्थिर तैल और अधिक परिमाण में श्वेतसार विद्यमान होते हैं ।। रासायनिक संगठन-तैल गाढ़ा, फीका पीतषण का, कोमल और शुल्क नहीं होने वाला है। हॉर्सफील्डके कथनानुसार इसकी फली लुभाबी तथा सङ्कोचक होती है । (ऐन्स्ली ) धूपन रूप से इसका मुख्य उपयोग होता है। कंड़ एवम् अन्य स्वरोगों में इसका अन्तर और प्रस्तर (उत्कारिका) रूप में वहिरप्रयोग होता है । इसके बीजको भूनकर खाते हैं । ( ई० मे० मे. ( ३ ) जंगली बादाम-हिं०, कच्छ, बं० । जावा श्रामण्ड (Java almond)-ई० 1 एलीमाइ दी ( Elemi tree), केनेरियम् कम्म्यून ( Camarium commune, Jinn.)-ले० । बाइस डी कोलोफेन (Bois. de colophane )-फ्रां० । एलीमाइ-पू० भा० । कानारि-मल। बदामी-जावा : कग्गली मर, कग्गली वीज, सम्बाणी, जावा बदामी यौनी-कना। बादाम जावी-हिं०। मन्शिम -अ०। महारुख व नॉट ऑफिशल (Vol official) (N.O. Burserracete., or amyridocec & simrubacew). उत्पत्ति-स्थान-मलया प्रार्चीपेलेगो, पूर्वी भारतीय द्वीपसमुदाय, पेनैंग, मलया, ट्राबनकोर, दक्षिणी भारत में इसको कृषि की जाती है। इतिहास-रस्फियस ( Rumpheus) के वर्णनानुसार यह सीराम और उसके आसपास के महाद्वीपों में होनेवाला एक विशाल वृक्ष है। जिससे इतनी अधिकता के साथ राल उत्पन्न होता है कि वह वृद्धत् दुकड़ां अथवा शंकाकार अशु रूप में धड़ तथा मुख्य शाखाओं से लटके रहते हैं। प्रारम्भ में यह श्वेत, तरल एवं चिपचिपा; किन्तु पश्चात् को यह पीताभायुक्र और मोमवत् गादे हो जाते हैं। वह आमण्ड बादाम)का भी वर्णन करते हैं और कहते हैं कि उसे कच्चा खाने से रेचन पाते हैं तथा अजीर्ण हो जाता है । स्पेल के विचारानुसार :आमएड इन्नसीना धर्शित मन्शिम है जो उनके वर्णनानुसार बतम प्रयोगांश-पत्र, पुष्प, बीज, स्वक् । प्रभाव तथा उपयोग-लोरीरो ( Lource : iro)के कथनानुसार उक्त वृक्ष की त्वचा (वा पत्र) रेचक, स्वेदक तथा मूत्रल है। चीनी लोग इसे जलोदर तथा प्रामवात में देते हैं। पुष्प विष्ठावत् गंध के लिए प्रसिद्ध है । (डाइमॉक) इसके बीज तैलीय होते हैं और जब इसे असाव- | धानी से निगल लिया जाता है तो उस्नेश जनित होता तथा शिर चकराने लगता है । इं० मे० प्लां । For Private and Personal Use Only Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अरण्यवाताद अरण्यवांता - ( Pistacia tere binthus) के समान रासायनिक संगठन-व्रीन ( Brein) त्रिकोणमय बीज होते हैं । परन्तु अरबी कोषकार ६० प्रतिशत, एमाइरीन ( राल) २५ प्रतिशत, उसे बालसम फल ( Culpobalsamun): प्रायोश्राइडीन (Bryoidin), ब्रोडीन( Breख्याल करते हैं। ऐसली कहते हैकि अपनी जावा ! idin ) तथा एलेमिक अम्ल । लयशीलताकी श्रौषधीय वनस्पतियों की सूची में हॉर्सफील्ड यह ईशर में तो बिलकुल लय हो जाता है, पर हमें बतलाते हैं कि उत निर्यास में कोपाइबी बाल- मयसार (६०%) में भी इसका बहुत सा सम ( Balsam of copaiba) के भाग लयशील होता है। समान हो गुणधर्म हैं । इसकी त्रिकोणयुक्र गिरी ! प्रयोगांश-गुडली अर्थात् बोज तथा तैल, को दिहाती लोग कच्चे ही एवं पका कर खाते । जमा हुआ प्रालियो-रेजिन जो काटने से टपकने हैं और तेल ताजी दशा में स्वाने तथा बासी होने । लगता है ( एलेमी)। पर जलाने के काम आता है । राल भी जलाने के ! औषध-निर्माण--प्रलेप(५ में ); गिरी .काम आता है। अर्थात् बीज तथा तेलका इमल्शन । मात्रा-प्राधा जावा में वीज के लिए इसके वृक्ष लगाए ! श्राउंस से १ पाउंस । जाते हैं। भारतवर्ष में ट्रावनकोर के पास यह । एलिमाई प्रलेप ( Unguentum ele. अत्यन्त सफलतापूर्वक उत्पन्न किया गया है। । ini)। मरहम रातीनजुल मन्शिम्-अ०। शेखरईस ने मन्शिम (हब्बुल मन्शिम ) के | निर्माण ---एलीमाई ! भाग, परमेसीटाई नाम में इस वृक्ष के फल का वर्णन किया है।। प्राइंटमैंट ४ भाग दोनों को परस्पर पिघला कर हलबुल मन्शिम के नाम से महानुल अद्वियह . छान ले और शीतल होने तक हिलाते जाएँ। और मुहीत आज़म में भी इसका वर्णन पाया है। प्रभाव-स्निग्धताजनक, उत्तेजक और श्लेष्मयमन तथा हजाज़ निवासी इसके तैल को निस्सारक । निर्याम उत्तेजक तथा वयंलेपन इत्रेमन्शिम कहते हैं। है। तैल स्नेहकारक है। वानस्पतिक-विवरण-राल बृहत्, शुष्क, गुणधर्म तथा उपयोग-ऐन्स्ली के मता. जारदीमायल श्वेतवर्ण के समूहों में पाया जाता नुसार इसका गोंद बालसम ाफ कोपाहबा के है । उत्ताप पहुँचाने पर यह शीघ्र मृः हो जाता : समान गुणधर्म युक्र है। शिथिल (व्यथा रहित) है और तब उसकी गंध एलेमीवत् (मन्शिम । वणों में इसे प्रलेप रूप से प्रयोग में लाते हैं। वत् ) होती है। इसकी गिरी द्वारा प्राप्त तैल वाताव-तैल की प्रतिनिधि है। ई० मे० प्लां।। फल से इंच लम्बा, अंडाकार, त्रिकोणयुक्र, सिरे की और नुकीला ( तीक्ष्णाग्र), चिकना, . डॉक्टर वैट्ज़ (Waiz) लिखते हैं कि किञ्चित् फीके बैंगनी पतले मूदादार वाह्यत्वक्युक; इसकी गिरी द्वारा निर्मित इमल्शन चाताद मिश्रण गुठली अत्यन्त कठोर, त्रिकोणीय, अस्फुटनीय : (Misturaamygdale) की उत्तम (Indehiscont), अन्य दो के पतन होने के प्रनिनिधि है तथा वह इसके कोलमृदुकारक गुण कारण एककोपीय होती है। श्रामण्ड । वाताद | के कारण इसे वाताद मिश्रण से उत्तम नयाल गिरी) का बहिरावरण मिल्लीमय होता है, जिसके । करते हैं। भीतर तीन खण्डों में विभाजित और परस्पर लिपटे । गिबर्ट (Guibourt ) एलेमी गंधयुक तथा बल खाए हुए तैलीय दौल होते हैं। न्युगीनिया रेज़िन (Ner Guinea Resin.) गिरी से ४० प्रतिशत श्रद्ध ठोस, ग्राह्य एवं मधुर- के अन्तर्गत उक्र रालका वर्णन करते हैं स्वादमय वसा प्राप्त होती है जो बहुत काल यह राल (Manilla elemi)जो उप.. पर्यन्त दुर्गन्धरहित बनी रहती है। (4ट. युक्र वृक्षसे प्राप्त होता है, प्रधानतः वार्निश बनामे For Private and Personal Use Only Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भरण्यवाताद अरण्य वास्तुकः के काम आता है। यह रसोई बनाने के भी काम दो किनारे होते हैं, यह दो इन लम्बा और पकने भाता है तथा वाताद तैलवत् स्नेहकारक व सुस्वादु पर मन्द बैंगनी रंग का होता है । मज्जा चभकोले और अशुद्धनावों तथा पूयमेह प्रादि में लाभदायक बैंगनी रंग की होती है । गुटली खुरदरी, कठिन ग्याल किया जाता है। उक्र वृक्ष की त्वचा से और माटी होती है। गिरी बादाम के श्रद्ध अधिकता के साथ स्वच्छ तेल प्राप्त होता है जो आकारकी और करीब करीब बेलनाकार होती और नवनीतीय करिवत् समूहों में जम जाता है। बङ्ग-देशीय युरूप निवासियों में "लीफ नट" नाम इं० मे० मे। से सामान्यतया व्यवहार में पाती है।। (१) जंगली बादाम, हिन्दी बादाम-हिं०, द०, __गसास नक संगठन-त्रैण्ट (Braunt) बम्ब० । इगुदी फलम्, देश-बादामित्ते-सं० । के मतानुसार इसमें २८ प्रतिशत तैल होता है बादामे हिन्दी-फा० । इण्डियन प्रामण्ड जो स्वाद एवं माता में वाताद नैल से बढ़कर ( Indian Almond, mit of-), होता है। यह पीताभायुक्त एवं बिलकुल गंध श्रामण्ड ट्री ( Almond tret )-इं० रहिन होता है । इममें मुग्यतः स्टियरीन टर्मिनेलिया कैटेप्पा ( Terminalia cata. ( Stearin ) a viatga (Olein ) ppa, Linn.)-ले० । बडामीर डी मलावार । विद्यमान होते हैं । इस च में मोरा ( Bass( Badamier' ' malabar)-फ्रां०।। () की तरह का एक नियाम होता है । पत्र प्रवटेर कट्टा-पेन बॉम (Achter Cattap और त्वचा में कपार्थान होता है । ग्वत्रा में एक en baumm)-जर० । बंगला बदाम, बदाम ।। प्रकार का काला रंग हाता है जिसमें कोई कोई -बं० । नाटु बादम्-मौ?, नाट-बादम्, श्रामगडी । दॉन रंगने का काम लेते। मम्मी पाराम मरम् ता० । इंगुदी, तपप तम्बु, नाटु-बादमु, नया कपायीन होने हैं। नाटु-बानम-चिनुल, वा (वे) दम-ते. । नाटु . খনৰ ৰখা যায়--মা না बादम, कोट्ट-करु, अादम-मर्रम, कटप्पा-मल०।। (मंग्राही) है । अम्नु, पूयमेह नया श्वेतप्रदर में क्वाथ नाट-बादामि, नरू, बादमोमर-कना० । नाट रूपमें हमके अम्तः प्रयोगकी प्रशंसा की जाती है। बादाम, देसी-बदाम, हात बदाम, बेंगाली इमकं कामल--पत्र-स्वरमद्वास एक प्रकार का बदाम, जंगली-बादाम-मह०, बम्ब०। काटम्ब : प्रलेप निर्मित किया जाता है जो कण्ड, कुष्ठ तथा -सिं०। नाट-नि-बदाम-ग.| अन्य प्रकार के व्यगोगों और शिराऽति तथा हिमज वर्ग उदरशूल में अन्तः रूप से लाभदायक ख्याल (... O. Cambrcluerte.) किया जाता है। उत्पत्ति-स्थान-मलाया ( अध सम्पूर्ण ' हसका फल प्रभाव में बादाम के समान भारतवर्ष में लगाया गया होता है। नोट-त्री. डी. बसु नया मोहो दीन शरो अरण्य वायसः anytay.asah संप. श्रादि लेखकों ने इसका सरकन म तेलगु नाम अरण्य काक, बम कौश्रा, डोम कौत्रा, काला इंगुदी लिखा है; परन्तु प्रायुडाय-य-लसको कौमा- डोम काक-चं० । का इंगुदी , हिंगोद वा हिंगुश्रा ( Balanitch: --मह । रेवेन ( Kareen)-३० । रा०नि० Roxburghii, Planch.) इससे भिन्न ही व०१६ । वस्तु है। अरण्य वासिनी aranyu-rasini-सं० स्त्रो० तक-विवरण-यह एक वृक्ष है इसका : अत्यम्लपर्णी लता, अमरबेल, अमलोलधा। फल अण्डाकार, पिचित (भिचा हुआ, संकुचित), रा०नि०व०३ । (Vitis Trifolia.) चिकना, गुठलीयुक्र, जिसके उभरे हुए नाली युक्त अरण्य वास्तुक: aranya-vastukah-सं० For Private and Personal Use Only Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अश्वशालि अरनीयाकुञ्चनी ० कुञ्जर चुप बनवावेत श्र aranya-जय० श्ररणी अरनी, अग्निमंथ । ( Premna Sermatitolin.) श्रग्येन्द्रयामणिकाणी aranyendrarvar uniká,-ni-सं०, हि० स्त्री० श्रग्येन्द्रायन anyendrayan-ft० पु० विशाला - सं० । विपलम्वी (म्भी ), जंगली इन्द्रायन, विषलोम्बी - हिं०। Bitter gourd (Cucumis trigonus, Roab., Syn. Pseudo colocynthis, Roy. ) -६० । रामाचाकवत मह० ( A kind of Chenopolium) ग० नि० ब०५ । अन्य शालि: aranya-shálih-सं० पु० नीवारधान्य । उड़िधान बं० | देवमात मह० । (Wild rice) T० नि० ० २२ । अरण्य शुनः aranyashmah सं० १० (Wild dog.)वन कुक्कर - सं० । नेकड़ेबाब - बं० । ० निघ० । 1 नोट - इन्द्रायन का साधारण संस्कृत नाम इन्द्रवारुणिका - णी ( Citrullus colocynthis, schad.) है। खुद्र तथा बृहत् भेद से यह दो प्रकार का होता है। इसके बृहत भेद को ही लाल इन्द्रायन और संस्कृत में महाकाल अर्थात् महेन्द्रवारुणी वा विशाला ( Tricho santhes paimata, Roxb. ) कहते हैं। इन सब का वर्णन यथा स्थान होगा । अरताल aratal-गु० हड़ताल, हरिनाल | ( Haritala ) इं० मे० मे० । अरतिः aratih - सं० [स्त्री० अनिच्छा, विराग, वित्त का न लगना । ( Absence of desire.) ''अस्वास्थ्यं चिंतयात्यर्थमरतिः कथ्यते बुधैः ।” भा० । ( २ ) श्रौदासीन्य ( Sadness.) । ( ३ ) पित्त के रोग (Biliary disease. ) の甘み अरश्य शूरः aranya-shuranah-सं०पु० वनजशूर, जंगली सूरन । चुना श्रल-बं० । गांड़ा सूरण-मह० । ( Amorphophallius Campanudatus | रा० नि० ० ७ । देखी--धन. ( सू ) रणः । । अरण्यश्वा aranyashva-सं० पु० ( 1 ) कषि, वानर | ( A Monkey. ) हे० ब० । ( २ ) चित्र (क) व्याघ्र । चांता | (A tiger ) अरण्यसम्भूतः aranya sambhūtah-ic पुं० A crab ( Scilla serrata. ) कर्कटक, केकड़ा । काँकरोल - बं० | Sec-Ka rkatak. अरण्य हल्दी कन्दः aranya-baldikandah - सं० पु० अरण्य हरिद्रा aranya-haridrà -सं० खां० वनहरिद्रा, बनहर्दी, जंगली हल्दी - हिं० । वन हलुद-बं० | (Curcuma Aromatica.) गुण-कुन तथा वातरक्त नाशक हैं । भा० पू० १ भा० ह० व० । कटु, मधुर, रुचिकारी, हुई, कुष्ठ एवं वातहर हैं तथा रक्तदोष, विष, श्वास, कास और हिक्का का नाश करनेवाली है । ० निघ० । अरण्या aranya - हिं० संज्ञा स्त्री० [सं०] एक श्रोषधि । अरण्याक्षोट aranyaksbota-fio संज्ञा go (Indian walnut) जंगली अखरोट | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अरत्नि aratnih - सं० ५० } (1) भरत्नि aratni-हिं० संज्ञा पुं० निष्ठकनिष्ठमुष्टी, मुट्ठी बँधा हाथ | वा० सं० २० । ८ । रा०नि० ० १८ । ( २ ) कपूर ( Cam• phor. | ( ३ ) कुहनी ( Elbow ) । ( ४ ) बाहु, हाथ । अरतीय प्रसारणी aratniya-prasárani -सं० स्त्री० मणिबन्ध प्रसारणी अन्तःस्था । ( Extensor Carpi Ulnaris. ) अरत्नीया aratniya-सं० स्त्री० अन्तःप्रकोष्ठिका ( Cinar nerve.) रत्नीयाकुञ्चनी aratniyákunchani - सं० स्रो० करसङ्कोचनी अन्तःस्था । ( Flexor carpi Ulnaris.) For Private and Personal Use Only Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अरना उपला अरद ãarad-अ० गर्दभ, गदहा, खर। ( An | श्ररथंग aradhanga-हिं० संज्ञा पुं० ( Hemiplegia) श्रद्धगि । दे० – पक्षाघात | श्ररधंगी aradbangi-हिं० संज्ञा पुं० पक्षाघात ass.) अरदद्र aradata-कना० होल । बरस | (Garcinia Cambogia, Dess.) श्ररखंड aradanda - हिं० संज्ञा पुं० [देश० ] एक प्रकार का करील जो गंगा के किनारे होता | है । अरदन aradan - हिं० वि० [सं० श्र+रदन ] ये दाँत का । वे दाँत वाला | अरदना aradaná - हिं० क्रि० सं० [सं० श्रर्द्दन] ( १ ) रौंदना | कुचलना । ( २ ) वध करना । मार डालना । भरदल aradala-हिं० संज्ञा पुं० [देश० ] एक प्रकार का वृक्ष जो पश्चिमी घाट और लंका द्वीप में होता है । इससे पीले रंग की गांद निकलती है जो पानी में नहीं घुलती, शराब में घुलती है । इससे अच्छा पीले रंग का वार्निश बनता है । । इसका फल खट्टा होता है और खटाई के काम में थाता है। इसके बीज से तेल निकलता है जो श्रधि के काम में आता है। इसकी लकड़ी भूरे रंग की होती है जिसमे नीली धारियाँ होती हैं । | ! गोरका । श्रोट | भव्य । चालते । हिं०श०स० । शरदा arada - सिं० सुदाब, तितली । ( Baba Graveolens, Linn.) अरदार āaralár - ० हस्ति, हाथी ( An elephant. > अरदाल arada]--कना०, को० हरिताल, हरताल Sec- Hartal अदावल aralaval - हिमा० वास, - हिं० । == चीऊ, [सं० श्रन्न | श्ररदावा aradává - ६० संज्ञा पुं० आई | फा० आर ] ( १ ) दल हुआ कुचला हुआ अन्न । ( २ ) भरता | श्ररदीग aradig गुधाक, सुपारी । ( Areca 1 nut.) श्ररदैवक aradaivak- एरण्ड, अरण्ड, रेड । ( Ricinus communis. ) aradha-fo fa समश | दे० अर्थ | (Half) "a', Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रोगी । दे० श्रद्धांगी । ( One afflicted with the hemiplegia) श्ररघाँगो aradhangi fह० संज्ञा पु ं० (Hemiplegic ) दे० श्रद्धांगी । अरन ãaran- अ० पर जो घोड़े व गदहे के खुरों से ऊपर होते हैं । अरन arana - हिं० संज्ञा पुं० [सं० श्ररराय ] ( A forest ) वन । अरपा arapa-रोग रहित नीरोग, स्वस्थ । श्रथर्व ० सू० २२ । ३ । का० १ । अरनव बर्री aranab-barri-अ० शशक, खरगोश, खरहा | (A hare, a rabbit. ) श्ररनव बहूरी aranab-bahri-ऋ० दरियाई खरगोश | ( Sea-rabbit. ) श्ररनवी anamabi - ० एक बूटी है जो खरगोश के सदृश होती है । और खराब एवं सोनवान स्थलों में होती है । अरन मरम् aran-maram-Дgo (1) ज़ख़्म हयात, घाचपत्ता ( kanchan laciniata, D. C. )। ( २ ) तून ( : Cedrela toona, Roxb.) इं० मं० से० 1 श्ररनसुन aranasut - हिं० संज्ञा पुं० [सं० ] वंश, अरण्योद्भव, बाँस । (Bambusa arundinacea Re/2. ) सूर० । अरना arana-fo संज्ञा पुं०० ( १ ) महानिम्ब बकाइन ( Ailanthus excelsa. ) । संज्ञा पुं० [सं०] अरण्य ] ( २ ) जंगली भैंसा । ( Wild buffalo ) जंगलों में इसके कुड के झुंड मिजते हैं यह साधारण भैंसे से बड़ा और मज़बूत होता है । इसके सुडौल और हद थंगों पर बड़े बड़े बाल होते हैं। इसका सींग लम्बा, मोटा और पैना होता है। यह बड़ा बलवान होता और शेर तक का सामना करता है । अरना उपला arana-upala - हिं० संज्ञा पु ं० For Private and Personal Use Only Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अग्नी ५१ प्ररमः जंगली करा, गोहरा । (Con-tlung : श्राया अब ऐन arbianrb.lain-० (१) foundation in the forest.) हजार पायह, सहनपद, कन्खजूरा, गोजर । अपनो 11:11 - संज्ञा स्त्री० [सं० धरणी] (Centipetle)। (२) पुदीना ( men. (१) अग्गो , अग्निसंथ । Premma thus arvensis. ) । (३) मकड़ी के servatifolin.)। ( २ ) एक लोटा समान एक जान घर है यह दो प्रकारका होता हैवृत्त जो हिमालय पर होता है। इसका फल लोग (१) दरियाई और (२) जंगली । खाते हैं। इसकी गुठली भी काम पाती है । अरवायस ara bayas-यू० चना, चणक । काश्मीरी और काबुली अरनी बहुत अच्छी होती (Glam.) है लकड़ी चरखेकी चरत्र और डोई ग्रादि बनती अरविक एसिड arabic acid-इं० अरबिकाम्ल, है। यह माव, फाल्गुन में फन्दना फलता है और गुञ्जाबीज अथवा निर्यास में पाए जाने वाला एक बरयान में पकता है। (३) यज्ञ का अग्नि- ! सत्व विशेष । म० अ० डा. इं० मे० __ मंथन का जो शमी के पेड़ में लगे हुग मे० । पीपल से लिया जाता है। दे० अररिण। । अरविन्द arabind-हिं० पु. कमल, उत्पल, अग्नेबिया tabil, Ep. ले० इसकी जड़ ! पङ्कज । 'The lotus ( Nympica रंग के काम आती है । मंमा० । ___hellimbo.. अन्य any :1-. संपु. ( Forest ) अविनान arabiyan-बहार या बाबूना भेद । दे. अग्गय । । अरविस्तान arabistan-हिं. संशा पु. अरपा apa-तु. जी, यव । httley [फा०] अरवदेश । ( Arabin ). (Ilorileri vugarr. ) बाबी arabi-हिं० वि० [फा० ] अरब अरफanf-अ० वंश, बाँस, बॅस । Bain boo | देश का । (Bumbusti auntinacca.) संज्ञा पु० (१) अरबी घोड़ा । अरब देश अाफन trafaj--० एक प्रकार की तीक्ष्ण का उत्पन्न वा अरबी नस्ल का घोड़ा। ताज़ी, दुग्धमय बृटी है । ऐराक्रो । (२)अरबी ऊँट | अरब देश का ऊँट । अरफियह aurfivah-० मारता (३) अरब देश की भाषा । श्राव ) यू० लोज्जुसूद, लोफ़कवीर से | अम्बी aa.labi-अ० (१) श्वेत यव ( White इसके पत्र छोटे होते हैं। ____barley.) । (२) सुजा, छिला हुश्रा हिं० संभा० प्र० [सं० प्रवुद] (1) जौ । (Hasked barley.) सौ करोड़ । संख्या में दसवॉ स्थान । ( ३ ) इस अरबी al'abi-जप०, हि० भालुको, अरुई, घुइयों, स्थान की संख्या । संज्ञा प. [सं० अर्वन् ] | अरबी-हिं०। कच्चु-बं० | J_species of . घोड़ा । संज्ञा पु० [अ०] (१) एक देश ।। Arum (Arum colocasia ). (२) अरब देश का उत्पन्न घोड़ा । (३) अरबोस arabisa--यू. अरछ्, उलयक । अरब का निवासी। | अरवे arabevu कना० अरङ्गक । (Me. lia dabia, Cav.) फा०६०१ भा०। अरवम् tanbun-f० ० एक धातु तत्व अरब्बी arabbi-हि. वि० दे. अरबी । विशेष । इर्विश्रम् (Erbinm.)-ले। अरभक arabhak-हिं वि० दे० अर्भक । श्राव arrb thari-सिरि० नुरूप से भालू , अरमः 21nmah-सं० पु. नेत्ररोग विशेष । मे उड़ी के बीज । Vitex negundo / (A kind of eye disense.) वै० (S3ds of-) निघ० । देखो-अर्म । For Private and Personal Use Only Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भालु श्राम a m- एक प्रकार की मछली, माम्प : प्रायिली stayili ना. घटी। (Fil. भेद । ( A kind offish.), worthin yarthri Mrign.) गमा। #raziramankin-opa 741 (Indien । पर tri-यु० कम्यूिन । 8.12. i ntúriyun. antilope ). भग्मनी aramani-हिं० मंशाप' [ श्रर -हि. पु. (1) मैनाल, मदनप्रारमेनिया देश का निवामी । फल | Randinilickm, in. भरमनोनaramanina-य० क बरी है जो ( tti mut. )। (२) नम्र -वं०. प्रतिवर्ष उगती है। बागी तथा जंगलीद्री प्रकार (Xanthoxylon aliatalm.) की होती है। इनमें से जंगली उपयोग में -हि. संज्ञा प० [सं० अरर ] (१) नहीं आती। बागी के पते माऊ के समान किवाद । कपाट । (२) पिधान, दक्कन । अगर टोti-t1 ई० सन्दरच । अरमह, aaramah-अ. जंगली चूहा । (Aअरूट किज़ाrut kishangin-ता. तबwill rat.) हीर, नीबुर, निम्वुर-हिं० । -Tikhur. अरमा ३alam-अ० सुख स्याह साप, रक! । स. फा० ई० । श्याम सर्प । ( A d bik store. प्रारुट गरलु ।'t giddan-तं. नवक्षार, ut.) तीवर, निखुर-हिं । Curd gu. अरमा arma-गाराडा. बकली । stifolia,sh. (root of-)स.फा०ई० । भरमाक aranak-कद्द, की बेल या केवडा : अर्रा arri-हिं. नी. अरहर, बाढ़ की। (Cit. वृक्ष की छाल। ___jamms indicus.) अरमात aramat-यू. केवड़ा, गुले-बड़ा । प्रारलः aanlah-सं० पु. श्याणाक वृत्त, साना( Pandanus oloratissimus.) ___ पाठा, अरलु । (Oroxylum Indicum.) भरमानियाँ aramaniyan-यू० लाजवर्द ।। अम०। अरल arala-हिं० पु. अशात । 800-lajararda. अरला urla- सं० स्त्री० हंसपत्नी । मरमानूस araminusa-सिरि० अजवाइन अरलि arali-का० अश्वत्थ,पीपलवृक्ष । (Fiells युगसनी पारसीक यमानी । ( Hyoeya | religiosa.) mus.) । अरलु aralu--सिंगा. हरीतकी, हड़ । ('T'erभरमाख aramala | एक वृक्ष की छाल , minalia che buln.) स० फा० ई० । अरमालaranalak अरलुः,-+: ayalth, - kah-सं० पु. हैजो तज के समान पचं वगन्धित होती है। । श्ररलु aran-हिं० संज्ञा प. भरम्मramm-अ० मध्य शिर, पाश्विकास्थियों के ऊपर मिलने का स्थान । (१) श्योगाक वृक्ष । सोनापाठा, अलु । (Oroxylum Indicum.) शोनागाछ-1०। प्राय अली araya-angeli मल० चान्दल, टेंटु, दिंडा-मह० । टंट्या-बि० गढ़। भा० चाँदकुछ सापसुण्डी - मह०। (Antiaris म० १ भा) अतिसा. चि. गंगाधर चूर्ण । toxicaria, Leech.)। फा० इं. ३ भा०। "नागर पाठारलु घातकी कुसुमैः"। च०० देखो-सापसुण्डी । गर्भ ज्वर । वै. निघअतिसा. चि. अम्ब. बरयावल arayival-मल. अर्निका ( Ax. छादि । (२) वेतस वृत, बेंत ( Calamus nica.) rotong.) । (३) अलाच । मलाषु । For Private and Personal Use Only Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अरलु कदुई लौकी । (४) महानिम्ब, महारुखा, (Nila-| mbium speciosum) । रक कम्बल-बं०। nthus excels) ई० मे० मे। ( ४ ) मीलोत्पल, नील कमल, नीलोफ़र । अरलु aralth-पं. कवैटा, किंगली, अगलागल । (Nymphaa stelata) to foo अरलु Akalu-सिं., मल० हरीतकी पुष्प, हड़ १० 1 -पु । (५) सारस पक्षी । (The का फूल। ___erame.) श्रम। अरस्तु पुटपाक aalu-purpaikl-सं० पु. भरविन्ददल प्रभम् ravinda-lala-pra. सोनापाटा की छाल द्वारा प्रस्तुत किया हुअा पुट- bhan-सं० की तान, ताम्बा । तामा-40। पाक । इसे कुटज पुटपाकवत् प्रस्तुत करते हैं। Coppear (Cuprim) वै० निघ। देखो-कुटज । अरविन्द बंधु aruvinila-banddin-हिं+ संज्ञा गुण-अरलु स्वक् द्वारा निर्मित पुटपाक: पुं० [सं०] सूर्य । ( The sum ). अग्निदीपक है । इसे मधु नथा मांचरस के साथ अरविन्दासवः aravindasarah सं० १. संयुक्त कर उपयोग करने से यह समस्त प्रकार के कमल, खस, गम्भारी के फल, मजीठ, अतिसार को दूर करता है। शाङ्ग म० ख० नीलोफर, इलायची, बना, जटामांसी, मोथा, अनन्समूल, हर, बहेड़ा, वच, प्रामला, कचर, अरलु मल all-2015-सिंगा. हरीतकी, हड़। काला मारिवाँ, नीली,पटोल, पित्तपापड़ा, अर्जुन, ( Timi.inatin. thouli. ) स.. महश्रा, मुलेटी, मुरामांमी । प्रत्येक १-१ पल फा० ई०। मुनक्का २० पल, वपुष्प १६ ५०, पानी अग्ल्यादि काथः arasitivithah-मं० २वाया, मिश्री १०० ५०, शहद ५० प०, सबको पु० अरलु, अनीस, मोधा, माठ, बेलगिरी, . मिलाकर या विधि मिट्टी के बर्तन में संधान अनारदाना इनका साथ प्रत्येक ज्वरी पीर अति. करके एक माम नक रक्या रहने दें। यह बालकी मार का शमन करता है । वृ०नि० २० । के समस्न रोगों को दूर करता है। मा० वे. अरबद Hal-ता० सतनी, सुदाब। . . सं. भै० र०। अरवदा lanada" (Ruta gra- अरविन्दिनी Javindini-सं०सी० पनसमूह । Projells, Jinn.) र०मा०। परवा aruva-हिं० संज्ञा पु० [सं० अनहीं अरवा arari-हिं० स्त्री०, द. भालकी, अरुई, +हिं० लावना जलाना, भूनना ] वह चावल जो घुइयाँ । कच्चु-बं० । A Specics of करचे अर्थात् बिना उबाले या भूने धान से Aium (Arum colocasia.) निकाला जाए। अरबी adruri-अ० असराश। लु०क० । अरघान tarin-पं० प्रचार, यज छाल--नेपा० । Seedsráşba. भरवाना H1Nauth-फा मेरा सह राई। एक अरवानाम vi-wind-ते. माकर लिम्बू ___ जंगली बूटी है जो रात को पुष्पित होता है। Ei(titlantia monophyll:1, torr.) मेमो०। अरविन्दम् । indt-सं. स्त्री । अरविंद Tatiittle-हिं० संज्ञा पुं० . अरचारडानाही road anotti - पुर्तगा. शेफालिका, हरसिंगार, परजाना । (Iyeta(1) पद्म, कमल, उत्पल, पङ्कज । The atles ar bortr'istis.) Intus ( Nymphoes, nelwubis ) प. मु० । रा०नि० २०१०। (२) ताम्र, परशुद arashat फ़ा० सोनामक्खी,सुवर्ण मासिक, ताम्बा। Copper ( Cupium) रा०नि० तारामक्खी । Irom pyrites ( Ftrri व०१३। (३) काकन, रक्रपा (Nelu- sulphuretite. ) For Private and Personal Use Only Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अरशमरम् श्ररस्त् मरशमरम् ansha-malam-ता० अश्वत्थ, अपसीना alasi nāकना० हरिद्रा, हलदी । .. पीपल वृक्ष । ( Ficus religiosa.) ई० (Curcuma longa). मे० मे.! अरसीना उन्मत्त rasinaummattu-कना० अरशा arasha-एक हिन्दी बूटी है जिसकी. उँचाई पीला धतूरा, पीत धुस्तुर । ( Yellow मनुष्य के बराबर होती है। शाखाएं घास की variety of Datura.) तरह ग्रंथियुक्त होती है। पत्तियाँ भी तृण । अरसुसा arasāsā-यू० कनौचा भेद, कोई कोई समान तथा पुष्प बनकशा के सदश किंतु, उससे जंगली गाजर को कहते हैं। भिन्न वर्ण का होता है । फल इलायची के समान अरस्तन instan-फा० यूनानी संज्ञा श्राइरिस त्रिपाकार होता है । लु० क०। (Iris ) इसीसे व्युत्पन्न है। देखा-पष्करअरस arasa-हपु(व)पा, अर्दज, अभल, हाऊबेर । मूल । फा० ई०३भा० । (Juniperus chinensis.). ई०हेगा० अरस्ता तालीस yasta-talis-अ० । अरस aras ता० पीपलवृक्ष, अश्वस्थ । (Fieusi अरस्त् arastu-अ० religiosa.)। -हिं वि० [सं० अरस j! अरिस्टॉटल(Aristotle) अरस्तूका जन्म सन् नीरस, फीका । ( Imsipid). ईस्वीसे ३८४ वर्ष पूर्व ऐस के इलाके रस्तागीर अरस uras-काली सम्भाली, बाकस । (Justi- नामक स्थान में हुआ था। सतरह वर्षकी अवस्थामें cia gendarusssa.) ई० है. गा० । यह हकीम अफलातून के शिक्षालय में सम्मिअरस a1as-अ० य— अ, घूस, धूइस । A bih. ! लित हुए और पूरे २० वर्ष तक दर्शनशास्त्र का ndicote rat ( Mus gigautous ). अध्ययन किए और उनका पारंगत शिप्य बने। अरस: arasah-सं० पु ... ४३ वर्ष की अवस्था में अरस्तू सिकन्दर आजम ह(1) रस रहित । के गुरु हुए । इनमें भीतिक वस्तुणी के अन्वे. अरसम् arasam--सं० क्ली पणकी प्रबल इच्छा थी । इन्होंने अलेक्जेण्डरिया (२) विष रहित । अथर्व० । सू०६ । । में एक महाविद्यालय की स्थापनाकी जहाँ से सुप्र. का. ४ । अथवं० । सू० २२ । २ । का० ५। सिद्ध एवं प्रकांड विद्वान् उत्पन्न हुए। यह दर्शनअरसमरम् arasa-marah - ता० अश्वत्थ, शास्त्र के तो प्रमुख पंडित धे, परन्तु वैद्यकशास्त्र पीपल वृक्ष । (Ficus religiosa). में इनका पद बुकरात (lippocrate) अरसा ai asa-ता. पीपलवृक्ष, अश्वत्थ ! (Fictus से अत्यन्त निम्न कोटि का है। व्यवच्छेद व ___religiosa.) इन्द्रियव्यापारशास्त्र सम्बन्धी इनके कतिपय अरसाः arasāh.-प्राण रहित । अथर्व । सु. | असत्य सिद्धान्तों का जालीनस ने खंडन किया ३१।३१ का०२। अरसास arasās-सं०निर्बल। इनके मुख्य मुख्य सिद्धांत निम्न थे--- का०१०। (१) यह हृदय को प्राकृतिक जन्मा का उद्गम मरसिवणदह विणणु arasivanadah-ri- और रूह हैवानी का स्रोत मानते हैं। (२) __nanu- का० सहिजन, शोभांजन | (Mor इनके मतानुसार फुप्फुस हृदय को वायु प्रदान inga pterygosperma ) करता है। (३) धमनियाँ हृदय से रूह हैवानी अरसी arasi--हिं० संज्ञा पु० [सं० अतसी] को सम्पूर्ण शरीर में पहुँचाती हैं और (४) अलसी, तीसी । देखो-अतसी। शिराएँ यादीय शोणित से सम्पूर्ण शरीर अरसीन arasina--कना. जहरीसीनतक को श्राहार प्रदान करती हैं इत्यादि। --मह०। ( Allananda catharti- __ परन्तु प्राश्चर्य तो यह है कि अाज दो सहर va, Linm.) फा०ई०२भाव। वर्ष पश्चात् भी उनके ये असत्य सिद्धांत यूनानी For Private and Personal Use Only Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इतिब्बा में सस्य माने जाते हैं। शेख भी अरस्तु वह पाटा वो बेसन जो तर्कारी साग भादि पकाते के अनुयायी धे। समय उसमें मिला दिया जाता है । रेहन । मिस भित्र विषयों में अरस्तु के बहुसंख्यक । अरहर arahara--हिं० संज्ञा स्त्री० [सं० ग्रंथ है। पर उनमें से लगभग १०० से कुछ ही आढकी, प्रा० अड्ढको ] (1) मादकी, रहर । अधिक प्रसिद्ध है, जिनका वणन हकीम वली. (Cytisus cajan. ) । (२) इसका बोज । मूस ( Ptolemy ) ने किया है । सन् ईस्वी तुवरी : तूबर 1 पर्या--तुबरी । वीर्यो । करवीरसे ३२२ वर्ष पूर्व ६२ वर्ष की अवस्था में निज भुजा । वृत्तवीजा । पीतपुष्पा । काशीगृत्स्ना, मृता. जन्मभूमि में ही आपका स्वर्गवास हुआ। लका । मुराष्ट्र-जंभा। अरस्तू arastu-फा. छागलपाती, कलियालता | अरहवी arahavi-हिं० श्री. प्रारी, उरि, -बं० | Swallow.wort ( Aselepias , tunicata, Roxb.) १० हैं। गा। । अरहा arahā--सं० श्रामला । ( Phy]lan. अरस्तून arastin-य० एक प्रकार का तीक्ष्ण thus emblica.) मच। अरहिरे arahire-का० नेनुआ, घोषालता। प्रास्तूनास arastu-nasa-य. खटिका, खरि- अरहून aarahān--० वर्ग नील, वस्मह, । (दि)पा मिट्टी, सेप्तखरी । ( Chalk.) (The leaf of Indigo plant.) भरस्तूर arastura-यु० भगबूटी, भाँग । (Cun- अरहम aarahām--अरजून । . nabis indica.) अरहेड arahera-हिं० संज्ञा स्त्री० [सं० रस्तूलोनिया arastālokhiya-यू० अरावंद, हा चौपायों का भुण्ड, लेहदी | --डिं। . इसरमूल। (Aristolochia Indica.) रा art-- संवा ५० दे० प्रारा। भरस्मीन arasmina-फा० एक बूटी का फल धारा ia:--अ०(१) शीत की तीव्रता, जाई है जिसे पास के स्थान में घोगों को हित करने का कड़ाका, शीताधिक्य । के लिए खिलाते हैं। ___..सिरि० । (२) तर्फ़ह, गज, भाऊ । ( Taअरह aarah-- शशक, खरगोश, सरहा । marix gallica, Linn. ) (Hare, ) अराक arak-य. पीलू ( जालवृक्ष), मिस्वाक । अरहज़ान arahazana-३० हिन्दनक्री। झाल-राजपु० । ( Salvadora oleoiमरहट arahat--हिं० संज्ञा पुं० [सं० अर. des, Dene.) बह ] अरघट्ट, रेटा, रहँट । पानी का चरखा, एक यंत्र जिसमें तीन चार या पहिए होते हैं। __-हिं• संज्ञा पुं० [अ०] (1) एक देश जो इन पहियों पर पड़ों की माला लगी अरब में है। (२) वहाँ का घोड़ा । जिनसे कुएं से पानी निकाला जाता है। (An अराक araqu-यू० कटोला । ( A tree.) engine for raising water.) ET ãaráza - T I TO मारहड arahada--जय० श्रादकी, तुवर, अरहर । | tery. ) A kind of pulse (Cytisus अराज़म् aarizani- नासिंह, शेर, बाघ्र । ca jan.) अराज़म् aarazam अरहदाजून āarahadarjina-- खजूर वृष । (A lion.) Phoonix dactylifera, Linn.( Dr- भराजिः arijih-सं० स्त्री. धारीविहीन मांस. ied fruits of-Dates.) पेशी । ( Unstriped muscle.) भरहन arahana-ह. संज्ञा सिं० रन्धन भराजिकेसरः ariji-kesarah-सं० पु. For Private and Personal Use Only Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ६०. ५६४ राजाना धाविहीन मांसतन्तु । ( Unstriped ma scle fibre. ) अड़ जाना arara jana fro क्रि० श्र० (१) गर्भपात हो जाना, बच्चा फेंक देना । गर्भ का गिर जाना | लड़ाना | नोट - इस शब्द का व्यवहार प्रायः पशुओं ही के लिए होता है, जैसे- गाय अड़गई । राति arati- सं० .० शत्रु, दुश्मन । अरातिम् arátim--सं० क्लो० जीवन को नाश करने वाले रोग । श्रथर्व० । अरादीस ãaradisa - ० अस्थि-संधि, हड्डियों के जोड़ | मुफ़ासिल उस्तख़ाँ अ० । बोन जॉइस्ट ( Bone joint ) - इं० 1 अराव āaraba-० सन, शण (Crotalaria : juncea.) श्रराय सुनील aaráyasammila श्र० बिश्नीन, नीलोफर के समान एक बूटी है। I अरार āarára--अ ( १ ) उकहु वान, बाबूनह गाव ( Parthenium ) | ( २ ) जरूर See-zaarúra. अरारह, āaráraho वह स्त्री जो केवल लड़के प्रसव करे श्रर्थात् वह जिसके केवल लड़के उत्पन्न हो । श्ररारा arára-हिं० पु० ददोड़ा, दरदरा | अरारि, - arari, -1i - हिं० स्त्री० करंजिया । ! संस्कृत पर्याय - उदकीर्यः, षड्ग्रंथा, हस्तिवारुणी, मर्कटी, वायसी, करंजी और करभंजिका । थोर करंज- मह० । विवरण - यह उदकीर्य नामक करंज का ही एक भेद है। इसके बड़े बड़े वृक्ष वन में होते हैं । पत्ते पाकर पत्र के समान गोल होते और ऊपर का भाग चमकदार होता है। फल भी नीले नीले झुमकदार लगते हैं; पत्तों में दुर्गन्ध आती है । गुणधर्म -- यह करंज वीर्यस्तम्भक, कड़वा, कसैला, पाक में चरपरा, उष्ण वीर्य और वमन, पित्त, बवासीर, कृमि, कोढ़ तथा प्रमेह को नष्ट करता है । भा० प्र० खं० ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मेरा अरारी arari - हिं०स्त्री० करज | (Pongamia glabra) अरारुट arárúta-हिं० संज्ञा पुं०, बं०, बम्ब० [ श्रं० ऐरीरूट ] ( 1 ) आरारोट । मेरण्टा ( Maranta ) - ले० 1 मेरो रूट ( Arrow root), वेस्ट इण्डियन ऐरारूट ( West Indian arrowroot ) - इं० 1 विलायती तीखुर - हिं० । कुश्रमउ-ता०। कुवे हित्तं - कना० । कुवा- मल० ! पेन बवा बर० श्रारारूट-को० । श्रवा हरिद्रा वर्ग (N. O. Scitaminew) नॉट ऑफिशल ( Not official.) उत्पत्ति-स्थान- यह एक भाँति का श्वेतसार जो मेter श्ररुण्डीनेसिया ( Maranta Arundinacia ) नामक वनस्पति की जड़ से प्राप्त होता है | यह वनस्पति पूर्वी भारतीय द्वीप, बर्मियोडा और बाज़ी में उत्पन्न होती है । अब पूर्वी बंगाल, संयुक्रप्रांत और मदरास में इसकी कृषि होती है। वानस्पतिक वर्णन व इतिहास एक पौधा जो अमेरिका से हिंदुस्तान में श्राया है। गरमी के दिनों में दो दो फुट की दूरी पर इसके कंद गाड़े जाते हैं । इसके लिए अच्छी दोमट और बलुई जमीन चाहिए । यह अगस्त से फूलने लगता है और जनवरी फरवरी में तैयार हो जाता है। जब इसके पचे मड़ने लगते हैं, तब यह पक्का समझा जाता है और इसकी जड़ खोदली जाती है । खोदने पर भी इसकी जड़ रह जाती हैं इससे जहाँ यह एक बार लगाया गया, वहाँ से इसका उच्छिन्न करना कठिन होजाता है । निर्माण क्रम --- इस वनस्पति की जड़को पानी में खूब धोकर और स्वच्छ करके जल में पीसते पुनः उसे मलकर छानते और एक ओर रख छोड़ते हैं । इस प्रकार अरारूट अर्ध तेषित हो जाता है। लक्षण -- यह एक हलका श्वेत वर्ण का चूर्ण हैं। जिसमें किसी प्रकार की श्रमह्यं गंध वा स्वाद For Private and Personal Use Only Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रसार करकमी अरारोबा नहीं होता । यह अमेरिका का तीवुर है। इसका | बाहयो नामक स्थान में उत्पन्न होती है। रंग देशी नीखुर के रंग से सफ़ेद होता है। इतिहास-पुर्तगाली भारत (गोपा) के टिपणी इसके अतिरिक्र कायुमा के | देशी ईमाई इसको एक प्रकार के स्वरोग में जिभे कतिपय अन्य भेदोंमे भी अरारूट प्रस्तुत होताहै। : मराठी भाषा में गजकरन कहते हैं, लगाया करते जिन्हें श्रराहट हिन्दी कहना अधिक उपयुक्र प्रतीत थे और उन प्रोषधि उनके गुप्त योगों में होताहै । संस्कृतमें उनको तबक्षीरम् और हिन्दी में | से श्री । अस्तु, सर्व प्रथम यह बम्बई में तोवर कहते है । विस्तार हेतु देखी--अवतारम् । १२)से ३०) प्रति टिन के भाव से जिसमें एक (Circuima Augustifolia). ! पौड ( अद्ध सेर) श्रोषधि होती थी, विक्रय हेतु प्रभाव तथा उपयोग--यह पोषणकर्ता और | अकस्मात् प्राया करती थी और दान चूर्ण स्नेहजनक है। इसको प्रायः दुग्ध में पकाकर । (Ringworm Powder ), 1791 T बालकों, निर्बल रोगियों, मुख्यतः अान्त्र वा मूत्र (GOL Powder), ब्राज़ील चूण ( Braसंस्थान विषयक रोगों के पश्चात् की निर्बलता zil Powder) प्रभृति नामों से विख्यात में दिया करते हैं। थी। माननीय डी० एस० कम्प महोदय ने सर्व प्रथम सन् १८६४ ई० में इसकी ओर ध्यान दी। पाक-विधि-पहिले शीतल जल से इसकी लेई सी बना लें। तदनन्तर उसमें खौलता हुश्रा तदनन्तर क्रमशः अन्य डॉक्टरों ने इस ओर ध्यान दिया । दुग्ध डाल कर उसका गाढ़ा सा लुश्राब बनाले । भारतवर्ष में इसके प्रथम प्रवेश की ठीक तिथि बाजार से जो अरारूट प्राप्त होता है उसमें प्रायः बालू के श्वेतसार का मिश्रण किया हुआ रहता अज्ञात है । नई दुनिया के अन्य पैदावारों के समान सम्भवतः १८ वीं शतादिद के पश्चातकाल में ईसाई यात्री इसे यहाँ ले पाए। केमा महापरीक्षा - सूक्ष्मदर्शक से इसकी भली भाँति शय में इसकी परीक्षाकी और वे इस परिणाम पर परीक्षा की जा सकती है। उसमें देखने से पाल पहुँचे कि इसमें माननीय पेलेोज़ (Polouze) के श्वेतसार के कण अरारूट श्वेतसारीय कण से तथा मी ( Fremy) वर्णित केला बीड बड़े दीख पड़ते हैं । ई० मे० मे०। म०प्र० (Orchella weed ) में होने वाले सत्व डॉ. । - के समान ही एक प्रकार का सत्व विद्यमान है। (२) अरारूर का श्राटा। ऐटील ( Attfield) ने सन् १८७५ भरारुट करकमी arārura-karkani-हिं० ई० में इसकी और सर्वांगपूर्ण परीक्षा की और स्रो० (Curcuma Arrowroot.) श्ररा- क्राइसारोबीन ( Chrysarobin) नामक रूट भेद देखो-अरारुट । पदार्थ जो उनकी कल्पना में मुख्यकर क्राइसो. अरारूट हिन्दो ārāta-hindi-हिं० स्त्रो० । फेनिक एसिड ( Chrysophanic Acid) ( Indian Arrowroot.) अरारूटभेद । था, पाया। उसी वर्ष ब्राज़ील डॉक्टर जे०एफ० देखो--प्रारूट । डा सिल्वा लाइमा ने सूचित की भारतवर्ष में जो भरारोया Araroba-ले०, ई० गोश्रा पाउडर पदार्थ गोपापाउडर के नाम से प्रख्यात है, (Goa Powder. ) अर्थात् गोश्रा चूर्ण, वह सम्भवतः ब्राजील देश निवासियों का अराऋड क्राइसारोबीन ( Crude Chrysaro रोबा या भरारीबा (धूसर दणं का चूण') ही .. bin.) अर्थात् अपूर्ण वा कच्चा क्राइसारोबीन ।। है जिसे पुर्तगाल निवासी उप्रान्त में होने . ऑफिशल Official. .. के कारख पॉडी बाहिया (Pode Bahia) ..: (N.O. Leguminose. ) या वाहिया पाउडर कहते थे । उक्र डॉक्टर महोउत्पत्ति-स्थान-यह भीषधि ब्राज़ील देश के दय मे यह भी बतलाया कि वह एक बबूर For Private and Personal Use Only Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपरोपा 'अगरांचा जातीय कृव से प्राप्त होता है और ब्राजील में! चिरकाल से कतिपय स्वरोगों में प्रयुक्त होना रहा है। इसके कुछ ही समय पहिले कलकत्ता के । डॉक्टर फेयरर ने सिरका या नीबू स्वरस संयुक्तः । गोश्रा पाउडर कल्क के प्राकृथित श्रौषधीय उपयोग विषयक गुण की और चिकित्सकों का ध्यान प्राकृष्ट किया। ऐसा प्रगट होता है कि उनके खेख ने डॉ० डा. सिल्वा लाइमा महाशय का भी ध्यान उक्र विषय की ओर आकृष्ट किया। माननीय ई० एम० होम्स ने बतलाया कि वह काठ जो गोमा पाउडर से प्राप्त होता है वह (Cesalpinia echinata, lian.) के बहुत समान है; परन्तु जे०एल० मेकमिलन ने बताया कि उक्त काष्ट से जल रञ्जित होजाता है और यह बात अरारोबा में नहीं है। सन् १८७८ ई० में सो० लीवरमैन तथा पो. सीडलर ने प्रगट किया कि क्राइसारोबीन ( ३० २५.) अभीतक एक अज्ञात यौगिक है तथा ऐटफील्ड द्वारा निवेदित नाम को ! ही मापने स्थिर रक्खा । सन् १८७६ ई० में अरारोबा का पात-स्थान एडीरा भराहोया ( Andira Araroba, Aguiar.) स्थिर किया गया। यह वाहिया के पात्र वनों में सामान्य रूप से होने वाला एक कृहत् वृक्ष है जिसे वहाँ के लोग ऐजेलीम अमर. गोसे (Angelim amargoso) कहते हैं। अरारोबा तने के छिद्रयुक खोखले भागों में रहता है। ये तने में चौड़ाई ( ग्यास ) की रुम्ब पार-पार तक रहते और सम्पूर्ण तवे के बीच प्रसारित होते हैं ।पानि-विधि-वृक्ष को काटकर तथा सने को चीर फाड़ कर खोखलों से प्रभारोबा चूर्ण को खुरप बेते हैं। इसे लकड़ी के टुकड़ों | या देशों मादि से स्वच्छ करके तथा शुष्क कर चूर्ण कर लेते हैं। ___ लाल -- यह एक सुरदरा पूर्ण अथवा सूक्ष्म । विस्म का है जो प्रारम्भ में हलका पीतत्रण। का, बस्तु प्रकाश एवं ममी में सुना रहने पर! मावत: गम्भीर बर्ष से मन्द पीस, पीत-भूसर या अम्बरी-धूमा प्रधना गम्भीर-मनी व का हो जाता है। स्वाद-तिक । (डाइमॉक) यह क्राइसारोबीन के निर्माण में प्रयुक्त होता है। यदि इसको उष्ण कोरोफार्म में मिलाया जाए तो क्रोरोफार्म द्वारा बाप उड़ जानेके पत्रात् उक चूर्ण में से न्यनातिन्यून १००% क्राइसारो. बीन प्राप्त होना चाहिए। क्रासारोबीन (Chrysarobin )-इं० । क्राईसारोबीनम् Chrysarovinnm-ले०। निर्माण विधि-परारोबा (गोया पाउडर) को उष्ण क्रोरोफार्म वा उष्ण वेशीन के साथ एक्सट्रैक्ट करके शुष्क होने तक वापीभवन किया कर इसे चूर्ण कर लें। रासायनिक संगठन (या संयोगी अवयव) इसमें (१) क्राइसारोबीन (१५७८२७ ३ ) जिसको रहीईच या क्राइसोनीन भी कहते हैं। (२) क्राइसोफेनिक एसिड, अवस्था और दशानुसार यह न्यूनाधिक होता है। प्रोपजनीकरण क्रिया द्वारा अधिक क्राइसोफेनिक एसिड प्राप्त मुलेन ( Allen) के मतानुसार क्राइसोफेनिक एसिड, एसिर और क्राइसारोबीन का एक अनिश्चित मिश्रण है। इसमें विकरिक एसिड तथा अन्य पीत रक पनार्थ का मिश्रण किया जाता नोट-अरारोवा या गोत्रापाउडर से १५ से ८० प्रतिशन और औसतत् .1 प्रतिशन् काह. मारोत्रीन प्राप्त किया जाता है। - लक्षण-काइसाबोधीन एक स्फटिकवत् पीत वर्ण का चूर्ण है जो गंधरहित और अल में अधि. लेय होने के कारण स्वाद रहित होता है। . घुलनशीलता--यह जब में लगाम अविलेप, मचसारमें कुछ कुछ विशेष तथा एमालिकमलकोहल, ईभर, कोसोडियम तथा क्रोसोफार्म में पूर्णतः विलेय होता है। ३२३.६ मारनहाइटके उत्ताप पर पह पिघा जाता है और मक्तब भा हाताहर For Private and Personal Use Only Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अशोका धन गंधकाम्ल में यह घुल जाता है तथा घोल ! पीतवर्ण का होता है। अधिक जलमिश्रित पोटासघोल में यह लगभग अविलेय होता है । इसके विपरीत क्राइसोफेनिक एसिड घन गंधकाम्ज में घुल जाता है तथा अधिक जनमिश्रित पोटास घोल में भी घुल जाता है तथा घोल का रंग लाख हो जाता है। ५३ परीक्षा पत्रिका इसारोबीन को २००० भाग जल में उबाला जाए तो यह पूर्णतः नहीं घुलता और छाया हुआ पदार्थ सुखमायच धूसर वर्ण का स्वादरहित देवेपर ( म्युट्रल ) तथा लौहहरि से अरक्षित रहता है। क्राइसारोवीन १५० भाग उष्ण मद्यसार में पूर्णतः विलेय होता है । व्यापार-प्रसरोवा अधिक परिमाण में भारतवर्ष में श्राता है और क्राइसारोकीन, अरारोबीन तथा गोश्रा पाउडर नाम से विक्रीत होता हैं। मात्रा से 1⁄2 मैन (पां० वी० एम० ) । कार्य-स्वरोगों में कीटन ( Antiparasitic ) है। ऑफिशल योग (Official preparations. ) और निर्माण - क्राइसारोबीन प्रलेप । श्रङ्गुएटम् क्राइसrajन्धई ( Uuguontum Chrysarobini ) - ले० | क्राइसारीश्रीन इटमेण्ट ( Chrysarobin Ointm• ent ) - इं । मम क्राइसारोबीन ३० । निर्माण विधि-काईसा रोबीन २० ग्रेन, बेजोएटेड बाई या सॉफ्टपैराफीन ४५० ग्रेन । कार्ड को पिघलाकर उसमें काईसाबीन सम्मि जिस करलें । प्रभाव का उपयोग:-पाक वा विश्वर्षिका ( Psoriasis ) के लिए यह श्री कीटन या उतेजक प्रयोग है । * ऑफिशल योग और पेटेन्ट औषधे ( Not official preparations.) (१) मंत्र एण्टम् काईस रोबीनी कम्पोजिटम् (Unguentum Chrysarobini - उ० । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir compositum ) - ले० का ऑॉइंटमेंट ऑफ क्राईसी ( Compound ointment of Chrysarobin ) - ई० । मिश्रित काईसा रोबीन प्रलेप-हि० । मर्हम काईसाबीन सुरकान, सुरकय मईम काईसा को बीन ब निर्माण-विधि -- काईसाबीन भाग सैलीसिलिक एसिड २ भाग, इक्यिात १ भाग, वैशेज़ीन भाग सबको परस्पर योजित कर मरहम बनालें । उपयोग- - चम्बल का विचर्चिका ( Psori asis ) के लिए लाभप्रद हैं। :: (२) पिग्मेएरम् क्राईसाबीनी (Pigme. ntum Chrysarobini )-ले० । तिलाए काइसारोबीन फ़ा० निर्माण-विधि - कासारोबीन भाग, क्लोरोफॉर्म १० भाग, महापार्या दिवशू १ भाग दोनों को कोरोफॉर्स में हल कर ( इससे कपड़े पर चिह्न नहीं पड़ता ) । उपयोग माल ( Psoriasis) पर ब्र ुश के द्वारा १० दिवस पर्वत प्रतिदिन दो बार जमाते रहने से, बस कि उस जगह पर पानी न लगने पाए, रोग विशुद्धि हो जाती है। ( एक्सट्रा फार्माकोपिया ) (३) पिग्मेट कासावीबी पटाइरोगेलोल ( Pigmentum Chrysarobini et Pyrogallol)-ले० । विलापु क्राईसारोबीन व पांडुरोगेलो - निर्माण-विधि-- कोबीन १ भाग, पाइलोल 1 भाग, ईश्वर और कोरोफॉर्म में प्रत्येक १० भाग कोडीन १२० नाम प्रथम दो औषधों को ईथर और शोरोफॉर्म में घोलकर उसमें कोडीन सम्मिलित करें । For Private and Personal Use Only उपयोग - Psoriasis ) और द पर उसे धोकर प्रति सम इसे बगाने . से बहुत काम होता है। को पि) (*) सपोरिSu Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra शरारोबा www.kobatirth.org ५६८ ppositorium Chrysarobini) -ले० । क्राइसारोबीन वर्त्तिका - 0ि1 शियाफ़ क्राइसारोबीन । निर्माण-विधि - काईलारोबीन 14 ग्रेन ५ योडोफॉर्म ग्रेन, बिलाडोना एक्सट्रैक्ट १० प्रेन, ग्लीसरीन घावश्यकतानुसार जिससे कि उचित वर्ति प्रस्तुत हो जाए और काका उबटर ३० ग्रेन पर्यन्त । の उपयोग- इस वर्ति के प्रयोग से घरों में बहुत लाभ होता है। (एक्सट्रा फार्माकोपिया ) (२) एन्थाबीन (Authrarobin ) इसका प्रलेप रूप से क्राइसारोबीन के स्थान में प्रयोग करते हैं । (६) लेनीरोबीन ( Lenirobin ) - यह भी का इसारोबीन का एक यौगिक है जिसको पुरातन नार फ्रास या उचलनदार विस्फोटक ( Chronic Eczema ) और पुरातन (विचिका) पर लगाते हैं । (७) यूरोबीन ( Eurobin ) - यह एक धूसर वर्ण का चूर्ण है जिसको क्राइसारोबीन के स्थान में बर्तते है । उपयोग - इसका २ या ३ प्रतिशत का घोल चम्बल ( Psoriasis ) और बहु ( Ringworm ) के लिए लाभदायक है। इससे न तो त्वचा पर ख़राश ( सोभ ) होती है और न कपड़े पर चिह्न पड़ते हैं। काईसाबीन की फार्माकोलॉजी अर्थात् औषधीय प्रभाव बहिः प्रभाव - वचा पर काईसाबीन का सशन लोभक (Powerful irritant ) प्रभाव होता है । अस्तु, इसके प्रयोग से खचा पर ददोदे निकन्त श्राते हैं, मुख्यतः स्वस्थ त्वचा पर क्योंकि विकारी त्वचा पर इससे उतना लोभ नहीं उत्पन्न होता । वानस्पत्य जीवाणु विषयक aria को उक्त औषध नष्ट करती है। प्रस्तु, यह पराश्रवी कीटन भी है। इसका स्थानिक वा सर्वाङ्गिक दोनों प्रभाव होता है । यह त्वचा द्वारा शोषित होजाता है और इससे त्वचा पर Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अरोवा पीताभायुक्र धूसरवर्स के चिह्न पड़ जाते हैं । व पर भी इससे उसी प्रकार के चिह्न पड़ जाते हैं । अन्तः प्रभाव - अति न्यून मात्रा ( ग्रेन ) में देने से भी यह श्रामाशय वा श्रन्ध्र को अत्यन्त सुमित करता है; जिससे हुधा कम हो जाती है, वमन श्राते हैं और पेट में ऐंठन होकर मनाते हैं अर्थात् प्रवाहिका के से लक्षण उपस्थित होते हैं । श्रस्तु उक्न, श्रौषध सशक आमाशय वा श्रान्त्र क्षोभक ( Powerful gastrointestinal irritant ) है । विसर्जन - यह किसी भाँति स्वचा द्वारा, किन्तु अधिकतर वृक्क द्वारा शरीर से विसर्जित होता है और इससे मूत्र का रंग पीत व नीलगूँ हो जाता है । For Private and Personal Use Only कासारोबीन के उपयोग अर्थात् थेराप्युटिक्स वहिः उपयोग – परायी कीदघ्न रूप से इसकी दबु (Ringwormn ) तथा कई अन्य पुरातन रूह रोगों जैसे चम्बल अर्थात् विचिका ( Psoriasis ), ज्वलनशील फुन्सियाँ ( Eczema ) यौवनपधिकाओं ( Acne ) पर लगाते हैं । यद्यपि यह यात प्रमाणित करना कि जीवाणु ही उन रोगों के उत्पादक कारण हैं, श्रभी शेष रह जाता है; तथापि विचर्चिका ( Psoriasis ) रोग में इसका मुख्य उपयोग होता है । श्रस्तु १ श्रउंस वैज़ेलीन को तप्त कर से या ड्राम काईसारोवीन मिलाकर ऐसा प्रलेप दिन में दो समय लगाने से उन रोग शीघ्र दूर हो जाता है। और इसी भाँति उपयोग करने से यह स्वचा द्वारा शोषित होकर विचर्चिका ( Psoriasis ) के ऐसे धब्बों को भी दूर कर देता है, कि जिनमें इसका बहिरप्रयोग नहीं किया जाता । इससे प्रायः श्रास पास की स्वस्थ स्वचा पर यथापूर्ण विसय प्रदाह होता वा बैंगनी घटने पड़ जाते हैं, जिससे किसी किसी रोग में इसका उपयोग नहीं किया जा सकता। विस्तीर्ण अनुभव Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अरारोबा के पश्चात् लेखक (Sir. V. whitla) एवं दद्रु प्रभृति त्वरोगों में शीघ्र एवं निश्चय को इस बात से सन्तुष्टि हुई, कि यदि उक्र प्रलेप प्रभावकारी जो औषध मुझे मालूम हुई है वह को केवल रोग स्थल तक ही सीमित रक्खा गोश्रा पाउडर तथा नीबू स्वरस घा सिरका है। जाए एवं स्वस्थ स्वचा को उसका पर्श न होने इनको दिन में २ या ३ बार निरन्तर लगाने से दिया जाए तो इसको आवश्यकता हीन हो। श्रापका पूर्ण लाभ होता है। प्रलेप-विधि-योड़ी सो विश्वास है कि यह छोटी सी बात इसकी चिकि- दवा को सिरका वा मीबू के रस में घोलकर • त्सा की सफलता का गुन तत्व है। जब वह मलाई की भाँति होजाए सर उसे डॉक्टर फॉक्स ने क्राइसारोधीन को जल के विस्फोटक पर कुछ दूर तक प्रलेपित कर । साथ पीस कर इसका कल्क प्रस्तुत कर इसे धब्बों (डाइमाक) पर लगा ऊपर कोलोडिअन से श्रावरित करने की अन्तःप्रयोग-क्राइसारोबीन के अन्तःप्रयोग सम्मति दी है। (Tramaticine ) अर्थात् से विचचिका (Psoriasis), ज्वलनशील गहापर्चा इससे भी श्रेष्ठतर, सिद्ध होगा । मक विस्फोटक ( Ecze na) तथा यौवनपीडिया प्रलेस वर्तिकाएँ Brookes' salve sticks ! अर्थात् मुहासा प्रभृति में लाभ होता है, परंतु अति न्यून माया ( ग्रेन) में भी इससे प्रायः उससे भी उत्तम होती हैं। परन्तु पूर्वक्रि सम्पूण विधियों में से सर्वोत्तम विधि लेखक द्विरलों की ! उदर में ऐंठन, रेचन द वमन होते हैं, मुभा राय में धब्बे को औषध के तीन कठिन प्रलेप था : कम हो जाती है और व्यग्रता प्रतीत होती है। कल्क द्वारा प्रावरित कर रखना और उसके सिरे प्रस्तु, इसका मन्तःप्रयोग न करना चाहिए। पर रबर प्रस्तर का एक बड़ा टुकड़ा स्थापित ! योग-निर्माण विषयक आदेश-क्राइसाकरना है। रोबीन को मुख मण्डल पर नहीं लगाना चाहिए। क्योंकि इसके क्षोभ से नेग्राभिष्यन्द होने का भय विचर्चिका (I'soriasis)रोगसे पीड़ित प्राणी रहता है । परन्तु शिर पर १५ ग्रेन प्रति श्राउंस के शरीर को एक ओर के विकारी स्थल पर वाला प्रलेप लगा सकते हैं। प्रलेप के मन से उसका स्थानिक प्रभाव देखा __ काईलारीबीनको एकही समय शरीर के अधिक जा सकता है । सप्ताह अथवा दस दिवस में उन । भाम पर नहीं लगाना चाहिए, क्योंकि इसके ओर को स्वचा के सुधार का निश्चित चिद दिखाई। शापित हो जाने से बुरे लक्षण उपस्थित होने का देता है । इसकी दूसरी ओर की त्वचा पर भी यह भय रहता है। अस्तु, यदि शरीर पर बहुत इससे कम स्पष्ट नहीं होता। और उन औषध विस्तारर्स दद् हो तो उसके थोड़े थोड़े भाग पर को यधोक्र विधि द्वारा उपयोग करने से विकृत दवा लगाते रहें । जब एक अोर से वह अच्छा हो धब्बे लुप्तप्राय होने लगते हैं। तब उस ओर की . जाए तब दूसरी ओर दवा बगाए। .... स्वचा भी जिस और औषध नहीं लगाई गई है।। वल पर जो काइसाराचीन प्रोप पड़ परिणामस्वरूप सुधार के चिह्न प्रगट करने ; जाता है वह वानस्पतिकाम्ल. पोटाश या क्लोरिने. लगती है। लेखक ने उन औषध को निरन्तर ! टेड लाइम के हलके घोल से दूर हो जाता है। . उस स्थल पर लगाने से जिसपर सर्व प्रथम प्री . . अथवा उस पर प्रथम बेजोन लगाकर उसकी पध लगाई गई हो शरीर के सम्पूर्ण पृष्ठतल । चिकनाई को दूर करें और फिर उस पर कोरीने. को रोग मुक्र होते हुए पाया। सम्भवतः ऐसा । टेड लाइम का घोल लगाएँ। कभी कभी . औपध के शरीर में शोषित होजाने और विकारी । किञ्चित् कास्टिक सोडा का घोल भी लगामा क्षेत्र तक पहुँचाए जाने के कारण होता है। पड़ता है (मे०.मे. हिलेर). .. अराल:arilah--सं० पु. "विस्फोटक, विसर्मिका (Psoriasis) , अराल arāla--हिं० संज्ञा पु) (१) धूप, For Private and Personal Use Only Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हराएसीई पुना, राल, सर्जरस-हिं० । धुना-०। राल . मद्य, चावल की शराब या दारू । ( Liquor मह। ( Resin)। (२) शाल वृध o f rice ) स. फाई। (.A sultree ) । (३) मत्तहस्ति ( An | अरिजन arijana-हि. संज्ञा पु. एक निस्क्रिय intoxicated elephant)। मे। .. वायव्य विशेष । मारगन ( Argon )-०। वि० कुटिल । टेदा । अरिख arinja-हिं संज्ञा० . [ देश. ] अशलिपसाई aaliacece-mo, प्रमारी ! (Acacia leucopblica, Willd.) एक प्रकार का बबूल । यह पंजाब, राजपूतामे, मध्य और इनिया भारत तथा बरमा में पाया जाता है। अरावह ararah-१० मादा दिली । (AE __female locust.) इसका छिलका रेशेदार होता है और इससे मछली अराह arah-मस्तगी, मस्तकी। (Masti. / पकड़ने का जाल बनाया जाता है। इससे एक che) प्रकार की गोंद भी निकलती है जो पानी में घोली जाने पर पीला रंग पैदा करती है। यह भरिः arih-सं० स्त्रो० अरि नामक खदिर, खदिर . अमृतसरी गोंद कहलाती है। इसे बबूल की गोद विशेष, करया । खरि विशेष--ब० पारि के साथ मिलाकर भी बेचते है । पेड़ की छाल मह । शींगुरि-. । ( Catechu. ) को पीसकर गरीब लोग अकाल में बाजरे के पर्याय-सन्दानिका, दाली, खदिरपत्रिका | गुण-- आटे के साथ खाने के लिए मिलाते हैं। इसमें कला, कटुक, तिक और रक्तपित्तनाशक है। एक प्रकार का नशा भी होता है और यह मच रा०नि० व० । देखो-खदिर । में भी मिलाई जाती है । इसीलिए प्रारंज को परि ari-हिं० संत्रा पु० [सं०] (A) रिपु, शराब का कीकर कहते हैं। सफेद धूल । शत्रु ( An. enemy. )। ( २ ) विट् | अरिङ्ग । श्वेत बबूर वृत। सविर दुर्गन्ध खैर । भरिमे । (Acacia | प्ररितमञ्जरी avita-manjelj-सं० स्त्री० Farnesiana, wild.)(३) चक्र । कुण्डली,हरितमबरी । ( Clerodendron -मल.(.). चावजु । Rice-seeds Inerime.) or grains without husk (Coryza afcarca aritáran-ato, oferarea sativa, Lion.)स० फा०१०। परिदला aridala-कनाo Oipiment रिमालुareluof rheede-पीपना, अश्वस्थ । | अरि-ताल arintāla-सं० ) ( Iri( Fious religiosa. )) sto to ____sulphuret of Arsenie.) भा.। . अरिपरिमः aripurimah-सं०० विटादिर, अरि-इकन ari-ikan.मल. मछली का सरेस, रिमेदः, दुर्गन्धि खैर, गूहकीकर । गुये बाबला -बिरेने मारी | Iethyocolla ( Ising. ब. । गंधी हिंवर-मह० । (Acacia • 'glass) Farnesiana.) वै० निघ। अरिक arik- बल का ठीक होना, परित मरि aripra- दुःख रहित । निष्पाप । होना । इन्दिमाल और सकर कुश के भेद के लिए मथ । सू०५।१४। का. १०। मारिमः arimah-सं० पु. विटसादिर, अस्मेिदः, भरिङ्ग aringa--राजपु० रबेत बर वृक्ष, सफेद गूहकीकर । ( Acacia Farnesiana. ) कीकर । ( Acacia leucophlea, ___ रमा व मुखरोपि० । Willd.) अरिमत्स्य arimatsya-हिन् मत्स्य विशेष। रिचारायम् .aricharayam- मल. चावल ( Arlus arius, Ham. & Buch.) For Private and Personal Use Only Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परिमईः मरिमेद गुण-इसका मांस कठिनता से पचने वाला, पिरिछल, हृदयोजक, स्मृतिवर्धक तथा वात व कफवर्धक है। (इं० १० ई.) अरिमहः Brinarddah-सं० पु. कासमई सुप, कसौदी। काल काशन्दा-बं० । कासविंदा -मह। (Cassia Sophorn.) रा० नि०व०४। गुण-इसका पत्र रुचिकारक, बलकारक, विष, कास तथा रक्रनाशक है और मधुर, वात कफनाशक, पाचक, कराठशोधक तथा विशेष रूप से कासार, विषघ्न, धारक और हलका है। भा०पू०१ भा० । अरिमाशत arimashata-सं० पु. खदिर, खैर वृक्ष । Catechu tree ( Acacia catechu, Villd.) अरिमेदः,-क: arimedah,.kah-सं० पुं० । भरिमेद arimeda-हिं० संज्ञा पु. (1) एक वृक्ष । (A kind of tree.) (२) एक बदबूदार कीड़ा । गँधिया । गंधी। (A green bug.)। (३) विट्खदिर।। गृह बबूल, गन्धावल, दुर्गन्ध खैर, विलायती बबूल ( कीकर )-हिं० । गू-कीकर-३० । विटा, हरिमेदः, श्रासमदः, दरिमेदः क्रिमिशालयः, मरुद्रुमः कालस्कंधः (रा. नि.), काम्बोजी, मरुजः, बहुसारः, गोरटः, अमराज, पतरु, सारखदिरः, महासारः, शुद्र खदिरः, दुश्खदिरः ( रा० नि० ), परिमेदः, रिमेदः, गोधास्कन्धः, अरिभेदकः, अहिमारः, पूतिमेदः, अहिमेदः, विट्त्रदिरः-सं० । गबाबूल, गुया-बाबला, विट् स्वयेर, गुयेबाबला,दुगंध खदिर, कोटानागेश्वर-बं० । अकेशिया फार्नेशियाना या माइमोसा फार्नेसिएना ( Acacia farnesiana, Willd., syn. Inimosa farnesiana, Linn)-ले०। पिय् वेलम्, हिय् वेल, वेदवला, विकरु-विल-ता। पियि-तुम्म, बल्यु-तुम्म, नाग-तुम्म-त०। पी-वेलम्, करीवीलाम्-मल०। करी-जली, करर्यवेलु, जाली -कना० । गु-बावल-१० । गन्धी हिम्बर, गुइ बवल-मह. | नन्लू-मैं-बर्मी०। कुए-बबल -सिंध० । कुसरी-झाइको । शिम्यो वर्ग (V.O. Leguminosue) उत्पत्ति-स्थान-सम्पूर्ण भारतवर्ष, हिमालय से लेकर लंका पर्यन्त । 6-निर्णायक-नांट---अरिमेदकी ताजी छाल और काष्ठ की गंध मानुषी विष्ठा के सद्वत् होती है। प्रस्तु, उपयुक्र प्रायः इसके सभी पर्याय बिट-गंधि बोधक हैं। तेलगु नाम कस्तूरि-तुम्म जो किसी किसी ग्रंथ में इसके परियाय स्वरूप लिखा गया है और जिसका अर्थ कस्तूरी-गंध वर होता है इसके लिए प्रयुक्र नहीं किया जाना चाहिए। कारण स्पष्ट है। मेसन्स नेचरल प्रोडकुशज ऑफ बर्मा नामक ग्रंथ में इसके दो पर्याय और लिखे गए हैं। यथा-(1) नान्लून्स्त्रैन् जिसका अर्थ उत्तम गंध और ( २ ) जिसका अर्थ दुगंध है। इनमें से प्रथम शब्द का इसका पर्याय होना संदेहपूर्ण है। कारण वही है जैसा तेलगु शब्द कस्तूरी-तुम्म के लिए वर्णन किया है। इसीकारण इन संज्ञानी को उपयुक तालिका में नहीं लिखा गया। दक्खिनी संज्ञा गू-कीकर कभी कभी पार्किनसोनिया एक्युलिएटा (Parkinsonin aculeata) के लिए भी प्रत्युक्त होता है। परंतु इसको जंगली कीकर कहना अधिक उपयुक्त होगा। वानस्पतिक-वर्णन-इसके वृक्ष सर्वथा (बबूल, कीकर ) वृक्ष के समान होते हैं, केवल भेद यह है कि इसके काटे छोटे होते हैं और इसके पत्र प्रादिसे विष्ठावत् गंध पाती है । ( पूर्ण विवेचन हेतु देखो-चवर वा खदिर।) इससे एक प्रकारका निर्यास निर्गत होता है जो गोलाकार अश्रुरूप में प्राप्त होता हैं। इनमें क्रमशः पांडु, पीत तथा गंभीर रकामधूसरवों की श्रेणियाँ होती हैं । डेकन में बम्बई और पूना के पास पास जो गोंद एकत्रित की जाती है वह अल्प विलेय होती है। For Private and Personal Use Only Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६०२ अरिमेदः अरिश शाडाया रासायनिक-संगठन-इसके पुष्प द्वारा की उत्तम प्रतिनिधि है; परन्तु जल में डालने से प्रस्तुत तैल में बेझएल्डीहाइड,सैलिसिलिक एसिड, यह सरेशवत् हो जाती है । इसकी कोमल पमीथिल सैलीसिलेट, बेञ्जिल एलकोहल, अन त्तियों को किञ्चित् जल में पीसकर पूयमेह अर्थात् एलडीहाइड प्रभृति होते हैं। सूजाक रोगी को पिलाते हैं। इसके पुष्प की मवण करने पर इससे एक प्रकार का सुस्वादु प्रयोगांश-कांड तथा मूलवल्कल, पन, निर्यास, फली और पुष्प । इतर प्राप्त होता है जो परिवर्तक प्रभाव के लिए . ओपध-निर्माणकाथ, लुबाब, तैल (अरि प्रसिद्ध है। इसमें एक प्रकार का तेल होता है। मेदादि तैल-च. द०)। शुक्रमेह में कामाहीपक औषधों के सहायक रूप से इसका उपयोग करते हैं । मात्रा-वल्कल, काष्ठ तथा पुष्प चूर्ण १-४ अरिमेदाद्यतेलम् ariinedadyatailam-स० पाना भर । सार (खैर)---२ पाना भर । काष्ठ क्ली यह तैल मुख रोगमें हितकारक है। पाठतथा वल्कल काथ-५--१० तो० । मूछित तिल तैल ८ श, काथार्थ विटखदिर गुणधर्म तथा उपयोग ( गुह बवुल) १२॥ श०, जल ६४ श. में आयुर्वेदीय मतानुसार पकाएँ, जब १६ श० शेष रहे तब इसमें मजीडका रिमेद कषेला, उष्ण, तिक, भूतघ्न है और २ तो० कल्क डालकर विधिवत् तेल सिद्ध कर शोफ ( सूजन ), अतिसार, कास तथा विसर्प का कार्य में लाएँ । च० ६० मुख ग. चि० । नाश करनेवाला है। अरिय वापariya-voppa-मलनीम. निम्य। विटखदिर कटु, उष्ण, तिक, रक के दोष तथा ( Azadirachtal Indica, Ju$3.) अणदोष नाशक है तथा कण्डू (खुजली), विष, स० फा० इं० विसर्प नाशक और ज्वर, कुड़, उन्माद तथा भूत अरिया पोरियम् ariyi poriyam-मला. बाधा हरण करने वाला है । रा० नि० ब०। ऐण्टिडेस्मा त्रुनियास ( Antidesma Bu. मुख एवं दन्त के रोग नाश करनेवाला तथा करडू, ( खुजलो), विष, श्लेष्म, कृमि, कुछ और nias, Spreng.), fezani To (stilago bunias, Linn., Riixb.)-ले० । व्रण नाशक है । मद०व०५। कषैला, उरण, तिक, भुन विनाशक है तथा उत्पत्ति-स्थान-भारत के समग्र उप्यामुख रोग और दन्त रोग नाशक, रकदोप, रुधिर प्रधान प्रदेश । विकार, कण्डू ( स्वुजली), कृमि, कफ, शोथ, उपयोग–अम्ल एवं स्वेदक । पम्र सर्पदंश में ( सूजन), अतिसार, कास, विसर्प, विष, कुष्ठ । प्रयुक्र होने हैं। नए रहने पर इसे उबाल कर और व्रण का नाश करने वाला है । भा० पू० र औषशिक शरीर विकार में उपयोग करते हैं। भा. बटादि । भैप मुखरो० चि.। च० सू० (लिगडले) ४०। अरिशि arishi-ता० चावल । ( Rice ) स० नव्यमत फा० ई०। प्रभाव-संग्राही (संकोचक), स्निग्धताकारक और परिवर्तक । वल्कल संकोचक अर्थात् ग्राही परिशिना arishini कना० हरिद्रा, हलदी । और पुष्प उत्तेजक है। Curcuma Longa, Linn. ( Root उपयोग--इसकी छाल का काढ़ा ( २० में of-) स० फा० इं०। १) संकोचक मुखधावन है। इस हेतु मसूदों से अरिशि शाडायाम arishishadayam ता. रक्त पाने प्रभृति में ,ह लाभदायक है। इसकी चावल की दारु, चावल की शराब । ( Liquor गोंद अरबी बर-निर्यास (Gum arabic) of rice. ) स० फा० ई० । For Private and Personal Use Only Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अरिष्टः अरिष्टः arishrah-सं० पु. (१)रीठा अरिह arishta-हि० संज्ञा पु० ) (डी) का पेड़, फेनिल, निर्मली, रीडा वृक्ष, रीछा करज-हिं० । रिटे गाछ-धं । Coapberry plant (Sapintlus trifoliatils.) रा०नि००६। मे० । गुरु-रीठा पाक में कटुक (चपरा), तीक्ष्ण, उष्णवीर्य, लेखन, गर्भपातक, स्निग्ध तथा ब्रिदोषघ्न है और गृहपीड़ा, दाह तथा शूल नाशक है। चै० निघ० । ( २ ) रसोन, लसुन, लहसुन | CGarlic (Allitim Sativum. ) प० मु. । रा०नि० २०२३ । वा० सृ० १भा०। (३) निम्ब वृक्ष, नीम । 'The neomb tree (Melia a zail-dirachtil.) i tra fão व० २३ । प० मु०। चा० सू० १५ १० । गुडूच्यादि । “गुड ची पाकारिष्ट-" च० द० पित्तश्लेष्म ज्व० श्रमताष्टक-~~| "गुडबोन्द्रयवारिष्ट-" सु० सू०४३ अ. संशोधन । ..( ४ ) काक, कौश्रा । (A crow.) हारा। (५) क पक्षी, मांस भक्षी पक्षी, गिद्ध । ( A ! vulture o, heron ( Ardea lorra and putea.) (६) सुरा विशेष । औषध ! को जल में कथित करके पुनः उसमें मी श्रादि छोड़ संधान करने से सिद्ध किए हुए मय की अरिष्ट संज्ञा है। कहा भी हैअरिष्टः क्वाथ सिद्धः स्यात् । (प० प्र० ३) स एव क्वधितोषधैररिष्टः । वा० टी० हेमाद्रिः। क्वाथ सिद्धो वारिष्टः । शाङ्गः । इक्षुविकार सहिताभया-चित्रक-दन्तीपिम्पल्यादि-भूरि भेषज क्वाथादि संस्कारवारिष्टोऽभिधीयते । राज० । पक्वीप वाम्बुसिद्ध यत् मद्य तत्स्यादरिष्टकम् । भा० पू० मद्य० व० । विविध प्रकार की ओषधियों को भली प्रकार सुरा वा मद्य में डुबो कर सप्ताह बाद रस को | परिस्रावितकर उसे बरसे छानले । इसको भिषक् गण अरिष्ट नाम से अभिहित करते हैं | यथा___ "प्राप्लाव्य सुरया सम्यक् द्रव्याणि विविधानि च। सप्ताहान्ते परिस्राव्य रसं वस्त्रेण गालयेत् । एषोऽरिष्टोऽभिधानेन भिषग्भिः परिकीर्तितः।" (अत्रि.) नोट-इसी विधान से एलोपैथी चिकित्सा में वर्णित सम्पूर्ण टिंक चर प्रस्तुत किए जाते हैं। अस्तु, पासवारिष्ट का टिंकचर के पर्याय रूप से प्रयोग करना यथार्थ है। अरिष्ट निर्माण विधि-(प्राचीन) यह साधारणतः मिट्टा के पात्र में ही प्रस्तुत किया जाता है; यद्यपि किसी किसी स्थान पर स्वर्ण पात्र में भी संधान करने का नियम है । जिस पात्र में अरिष्ट (श्रास ) तैयार करना हो, प्रथम उस पात्र की भीतरी दीवारों में अच्छी तरह घी लगा देना साहिए। और साथ ही धन पुरुष तथा लोध्र के कल्क का लेप करके सुखा लेना चाहिए । एवं उपयुक्त विधिसे पात्र तैयार करके उसमें क्या थेत या कच्चा जल में मिश्रित गुड़, मधु और औष. धों का चूर्ण श्रादि डालकर उसके मुख को शरावे से अच्छी तरह बन्द करके उसके ऊपर कपड़ मिट्टी कर देनी चाहिए । जिसमें किसी स्थान से वायु उसके अन्दर न जा सके अब इस बर्तन को भूमि के अन्दर गढ़े में या किसी अन्य गरम स्थान में १५ दिन या । महीने या जैसी शास्त्राज्ञा हो रक्खे रहने देना चाहिए । __इसके बाद अरिष्ट या प्रासय को निकाल कर अच्छी तरह छानकर बोतलों में भर कर डाट लगादें, जिसमें उस बोतल के अन्दर वायु न जा सके, क्योंकि हवा जाने से शुक्र बन जाता है । जिस बोतल में रक्खे उसे थोड़ा खाली रक्खें; क्योंकि मुह तक भर देने से अरिष्ट जोश खाकर बोतल को तोड़ सकता है । यह जितना ही पुराना हो उतना ही अच्छा है। प्रत्येक मयों से श्रेष्ट अरिष्ट ही होता है। परिष्ट के नध्य निर्माण-क्रम एवं पासवारिष्ट अर्थात् मद्य की विस्तृत व्याख्या के लिए देखिए-आसव । For Private and Personal Use Only Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अरिष्टः www.kobatirth.org ६०४ गुण- प्रायः नवीन मद्य गुरु, और वायु कारक होते हैं और पुरान होने पर स्त्रोतशोधक, दीपन और रुचिक होते हैं । ( च० सू० श्र० २ ) जिस द्रव्य से अरिष्ट बनाया जाता है उस द्रव्यका गुण उसमें रहता है। मद्य के सम्पूर्ण गुण इसमें विशेष रूप में रहते हैं । ग्रहणी, पांडु, कुछ, अर्श, सूजन, शोष रोग, उदर रोग, ज्वर, गुल्म, कृमि और तिल्ली इन सब रोगों को दूर करता है एवं यह कंशय, तिक तथा वातकारक है । यथा--- "यश्राद्रव्य गुणोऽरिष्टः सर्व मद्य गुणा त्रिकः । ग्रहणी पांडु कुष्टाः शोष शोफांदर ज्वरान् । हन्ति गुल्म कमिलोहान कवाय कटुवालश्च ।" वा० सू० ५ ४० मद्य० व० । अर्श, शोथ, महणी तथा श्लेमरोग नाशक 1 दधा - "श्रर्श शोध ग्रहणी श्लेष्म हरत्वम् " राज० । हैं मात्रा - १ तो० से २ तो पर्यन्त । सेवन काल -- प्रायः सभी अरिष्टासव भोजन के पश्चात् पिए जाते हैं । परन्तु रोग और रोगी की परिस्थिति के अनुसार समय में फेर फार भी किया जा सकता है । सेवन विधि - श्ररिष्ट या घासत्र में समान भाग जल मिलाकर सेवन करना उचित है; क्योंकि पानी के साथ सेवन करने से इसका प्रभाव शीघ्र होता है एवं जल रहित सेवन करने से गले औौर सीने में दाह उत्पन्न होने लगती है । नोट- जो औषधों के स्वाथ और मधुर वस्तु तथा तरल पदार्थों से सिद्ध किया जाए वह अरिष्ट है और जो अपॠव औषधों और जल के योग से सिद्ध किया जाए वह आसव कहलाता है। रत्ना० । -ली० (७) सूतिकागार। सूतिकागृह । सौरी | ( Lying-in chamber ) (८) आसव | ( १ ) मरणचि मृत्यु चिह्न, अशुभ चिह्न, अपशकुन ( Sign or gy. pa tom 01 prognostication of death.) देखो-अरिष्ट लक्षणम् । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्ररिष्टलक्षणम् (१०) तीन भाग दधि और एक भाग जल द्वारा प्रस्तुत तक, मट्ठा। घोल बं० रा० नि० च० १५ । ( ११ मरणकारक योग | ( १२ ) काढ़ा, काथ ( Decoction ) (१३) क्जेरा, दुःख, पीड़ा । ( १२ ) उपद्रव, थापत्ति । श्रि० हिं०वि० (१ अशुभ बुरा ! सर्वत्र मे ० । ( २ ) सामान्य मद्य | रा० नि० ० १४ । (३) शुभ । ( ४ ) हद, श्रविनाशी । अरिष्टकः arishtakaah सं० पु० अरिष्टक arishtaka - हि० संज्ञा पुं० ( १ ) फेनिल वृक्ष, रोने का पेड़, रोटा करन Soapnut tree (Sapindus trifoli atus ) सि० यो० दाह ज्वर, श्रीकण्ठ । "फेनेनारिष्टकस्य च । (२) निस्व वृक्ष, नीम | The neomb tree ( Melia azad-dirachta ) | उक्र स्थान में नीम के कोमल पलव व्यवहार में खाने चाहिए । च० द० पित्त० ज्य० शिरोलेप 1 रीडाकरन । रीठा । निर्मली । मद० ० ५ । ( ३ ) सरल वुम, सरल, धूप सरल | (Pinus lon• gifolin ) रत्ना० - लो० ( ४ ) मच, सुरा | Wine ( Spirituous liquor. ) भ० । अरिष्टुत्रयम् arishta-trayaan-सं० की० अश्व के अरिष्ट ( अशुभ ) लचण विशेष | यह तीन हैं यथा -- (1) स्वस्थारिष्ट, ( २ ) वेधारिष्ट और ( ३ ) कीटारिष्ट । इनमें से स्वस्वारिष्ट के पाँच भेद हैं, यथा-भोजनारिष्ट, छायादि अरिष्ट दर्शनेन्द्रिय श्रादि अरिष्ट, श्रवणेन्द्रिय अरिष्ट, और रसनेन्द्रिय अरिष्ट । जय० दत्त० २३-२५ श्र० । अरि फलः arishta phalah -सं० पुं० कटुनिस्व वृक्ष । रा० मि०त्र० ६ । अरिष्टफलम् arishta phalam-सं० की ० फेनिल, सेठा | Soapnut tree ( Sapindus emarginatus. Tehl.) अरिष्टलक्षणम् arishta-lakshanam संं For Private and Personal Use Only Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अरिष्टा अरिस्टोलोकिया क्ली०, ( Prognostiction of a Rutu.ले. शिपरगडिते। थोडग-पुल-ता। th) मृत्युकारक चित, मृत्युलक्षणा, जिस लक्षण यह भी खाने के काम में आता है। मेमा० । (चिह्न) से रोगी की मृत्यु जानी जाए उस चिह्न को अरिस्टॉटल aristotle-ई० अरस्तू, अरस्ताअरिष्ट कहते हैं। भा०। तालीस । अरिष्टा arishra -सं० स्त्रो० । (१) कटको, . अरिस्टीन aristine-इं० . देखा-अरिस्टो ___-हिं० संज्ञा स्त्री० । कुटकी 1 (Pi. ! लोकीन । crorrhiza kirron.) रा०नि०३०६ । : भरिस्टोकीन aristochin-इं. यह एक स्वादच० सू०४०। प० मु०। २०मा० । वै० रहित श्वेत चूर्ण होता है जिसमें ६६.१ प्रतिशत निव०२ भा०, विषमज्व० पटोलादि । (२)' क्वीनीन होता है। यह जल में लय नहीं होता। नागबला, गुलशकरी | (Sida alba.) रा. इसे विषमज्वर ( मलेरिया ), प्रांत्रिकज्वर निं० व. ४। (३) मध, दारु । Wine ! ( टाइफॉइड), संक्रामक प्रतिश्याय (इन्फ्लु(Spirituious liqner.) ५७जा) तथा थोड़ी मात्रा में कूकरखाँसी (पर्टअरिष्टादि चूर्ण arishtadi-churna-सं० स्सिस) में बरतते हैं। मात्रा-१ से १० प्रेन पु. नीम के पत्र १० पल, त्रिकुटा ३ प०, (1 से ५ रत्ती) विस्तार के लिए देखो --- त्रिफला ३ ५०, सेंधा, सोंधर और साम्भर तीनों ! सिन्कोना। ३-३ ५०, दोनों चार २ ५०, अजवाइन १ प० । अरिस्टो क्विनाइन aris to quining-देखोइनका चूर्ण करके प्रातःकाल खाने से दैनिक सिन्कोना। तिजारी, चौथिया भादि का नाश होता है। अरिस्टोल aristol-इं. यह डाइ थाइमोल प्रायोयो चि०। डाइड ( Di-thymol-Iodide.), पांशु अरिष्टा: arishrāhvah-सं० ए फनिल, । नैलिद ( Potassium iodide.) सथा रीठा करश, री। री-बं०। Soapnut | यमानीन ( Thymol. ) घोल को सम्मिसि tree ( Supindus trifoliatus. ) करने से मनाया जाता है। यह राम धूसर वै० नित्र०२ भा० उन्मा. चिः। वर्ण का चूर्ण है जो जल तथा ग्लीसरीन में अधिभरिष्टिका arishtika-हिसंशा स्त्री० [सं०]. लेय होता; किन्तु कोलोडीन, ईथर और तैन (१) फेनिल, रीठा । (Soapnot tree) (Oils) में ल यशील होता है। (२) कुटकी । कटुकी 1 { Picrorrhiza : गुण-यह ( अल्सरेटिव ल्युपस ), दद्व Kurroa.) (Tenea.), नारफारसी (एकमा) और अरिसिना arisina-कना• हरिद्रा, हलदी। | विचचिका (सोराइसिस) में लाभदायक है। (Curcuma longa.) . इसका १० प्रतिशत का मलहम (प्रलेप) उपअरिसीना बुर्गा arisina-burga-कना० कम्बी, | योग में माता है अथवा इसे प्रण पर हिरकते गलगल,कण्टपलास। गनिबार-उड़ि। गब्दी, ! या प्रोडीन में मिलाकर लगाते हैं। देखोमंगल-हि.। ( Cochlospermum go. i प्रायोडोफॉर्म। . ssypium, D. C.) ई० मे० प्लां। अरिस्टोलोकिएसीई aristolochiacem-खे० अरिस्टिडा डिसा aristida depressa, i अरिस्टोलोकिई (Aristolochin.) ईश्वर Retz.-ले० सिन खलक, स्पिन-वेगी, जम्दर- मूल वर्ग। बम्बा-40 नलि-पुटिकि-ते । यह पौधा खाद्य अरिस्टोलोकिया ristolochia-ले. जरावन्द कार्य में पाता है । मेमो०। -फा० । ईश्वरमूल-हिं.। . .. अरिस्दिड़ा सिसिमा aristida setacea, I माम-विवरण-जरावन्द वस्तुतः फारसी For Private and Personal Use Only Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org वरिस्टोलोकिया रिडका नाम है जिसका शाब्दिक अर्थ स्वर्ण पात्र (फ़्रैं तिला ) हैं । चूँकि उन औषध का व सुनहला होता है इसलिए उसका यह नाम पड़ा । ६०६ I H I इसका वर्तमान डॉक्टरी लेटिन नाम अरिस्टोलोकिया वस्तुतः इसका यूनानी ( Greeck.) नाम है जिसे तिमी ग्रंथों में रिस्तोलोखिया । लिखा है । श्रस्टोलोकिया या अरिस्तोलोखिया दो यूनानी शब्दों श्ररिस्टो ( जाभप्रद ) तथा लोकिया ( प्रसव पश्चात्कालीन रकवाड, निकास ) का यौगिक है जिसका अर्थ "निकास अर्थात् प्रसव पश्चातकालीन रक्त्राव के लिए लाभप्रद " 'हुआ | किन्तु इब्नबेतार ने रिस्तो ( अरिस्टो ) का अर्थ योग्य तथा लोखिया ( लोकिया ) का अर्थ नफ़्सा अर्थात् निःसवाली औरत ( वह श्री जिसे प्रसव के बाद र are जारी हो ) किया है और इससे उनका अभिप्राय उस श्रौष से हैं जो उक्त प्रसूना के लिए लाभप्रद हो । -मह० । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अह वन्द दाफा ज़हरमार । ( Aristolochin Serpentaria, L.) मेमो० म० अ० डॉ० । रेस्टोलोकिया रोटण्डा aristolochia rotunda, Linn. - ले० जरावन्द महर्ज - ० । जरावन्द गिर्द - फ़ा० । देखो - ज़राबन्द | मेमो० | [फा० ई० ३ भा० । अरिस्टोलोकिया लॉड्रा aristolocbia 10nga, Linn. -- ले० जशवन्द तवील, अरिस्तलूखोया - अ० । ज्ञरावन्द दराज फु० | देखोज़रावन्द । मेमा०, फा० ६० ३ भा० । अरिस्टोलोकिय सर्पेण्टेरिया aristolochia serpentaria, I. - ले० इरावन्द्र अमरीकी, अरावन्द दाफा मार, शराबन्द मुजाहुल अक्र. ई - अ० । सर्पेण्टेरीई ( Serpenterine )। म० अ० डॉ० । मेमो० । अरिस्टोलोकिया सिनेसिया - aristolochia setacea, Re/z-ले० शिपरगडि ते० । थोडपूग-पल-ता० । इसका पौधा are है । मेमो० । अरिस्टोलोकिया सँकेटा aristolochia sac cata, Wall. - ले० मतिया बीता - हिं० । ( Pouched birthwort ) । इं० हैं ० गा० । श्ररिटोलोकीन aristolcchine-० । श्रहिन arihana - हिं० संज्ञा पुं० [सं० रन्धन ] रेहन । अरहन | नोट - विस्तार के लिए देखो जराबन्द | अरिस्टोलांकियां इरिडका aristolochia indica, n. - ले० ज़रावन्द हिन्दी - अ० [फा० । रुद्रजटा, ईश्वरमूल, सुनन्दा, अर्कमूलहरि, ज्यारि-सं० । इशरमूल, जोरचेल - हि० | इसर-यं सारसन बस्य०, गु० । पेरु-मरिण्ड, इचुर-मुलिवेर ता० | सफर्स, सापूसगोश्रा । मेमो० । इश्वरी, सापसन्द-मह० । - इश्वरी - गु० । इश्वर-बेरु, गोविला - ते० । इश्वरी । वेरु, नजिन-वेरु कना० । करल-वेकम, इश्वरमुरि-मल० | मेमो०, फा० ई० ३ भा० । ई० मे० ज० | देखो - रुद्रजटा । अरिस्टोलोकिया में विटपटा aristolochia bracteata, Retz. - ले० कीड़ामार, गंधानी - हिं० । कीडामर - गु० | गन्धानावत, गंधानी पत्र-वङ्ग-फा० । धूञ्जपत्रा-सं० । श्ररोकतुल् जुरह, arikatul-jurah देखो - धूम्रपत्रा । फा० ई० ३ भा०, मेमा० । जख्म का अंगूर, मांस जो व्रण में पूरित इं० मे० मे, इं० मे० प्लां । हो प्राए । प्रेन्युलेशन ( Granulation. ) अरिस्टोलोकिया रेटिक्युलेटा aristolochia | अरीह, āarikah-० श्राइत, प्रकृति, स्वभाव । reticulata-ले० शरावन्द श्रमरीकी, ज़रा श्री ari - जय० (1) श्रालुकी, अरुई, घुइयाँ | A species of Arun ( Arum colocasia ) । -सं० श्री० (२) खस उशीर ( Andropogon muricatus ) 1 अरोह arikah नेवर ( Nature.) -६०/ For Private and Personal Use Only -० Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org शरीकह कह__ āarikah ऋ० कोहान शुतुर । अरीका Tariqasáa अकुलान aariqasánah क्र. की, विषखपरा | अकालूसिया ariqalúsiya - यू० काऊ ( Tamarix gallica, Liva. ) अरोकिन अह āarigitaaah एक जानवर है । ६०७ ० हिन्द अरीज़ aariz-श्र० छांग शिशु, बकरीका बच्चा । ( A kid.) अरीज़ा rizá - यू० बूटीका मूल, जड़ । (Root.) श्ररोजियम -इं० कुर्सश्रमहू एक बूटी है जो कांटों से युक्त होती तथा भूमिपर फैलती हैं । श्ररीठा aritha - हिं० संज्ञा पुं० [सं० अरिष्ट, प्रा० श्ररिट्ठा ] रीठा, अरिष्ट फल | Soapnut tree ( Sapindus trifoliatus ) अरीतह. aarital-- वृश्चिक, बिच्छू । ( A scorpion. ) अरीतस aritasa-यू० चूर्ण, चूना | (Oalx. } श्रीदarida-निगुण्डा, सँभालू, मेउड़ी । (Vites negundo.) श्रदाल aridal - सिं०, कना०, को० श्ररीदारम aridáran-ताο उद्भव - स्थान - पंजाब तथा हिमालय | उपयोग - कहते हैं कि यह विषाक गुणमय श्रधि है और कूलू में भेड़ों के उदरशूल होने पर इसके बीज लवण के साथ मिलाकर उपयोग में आते हैं । वर्षाऋतु में मवेशियों को कीड़ों से सुरक्षित रखने के लिए इसकी जड़ काम में लाई जाती हैं। इसके उपयोग से वे मृतप्राय हो जाते हैं । (स्व) । इ० मे० प्लां० । भरोसामा ट्रिफॉलियम् ariscena ium ले० शलजम । (Turnip ) ] हरिताल । | श्ररीसीमा लेस्कीनं न्थिस arisoæma lesche naithes, Biume. - ले० वातकेदारन सिं उत्पत्ति स्थान - हिमालय, खसिया की पहाड़ी, नीलगिरि और लंका | Orpiment ( Trisulpbate of arsenic.) अरीन āarina - अ० गोश्त, मांस । ( Flesh, meat.) श्रीफांस arifisa-यू० एक प्रकार का तैल है जो जल के समान कूत्रों से निकाला जाता है । अरीर āarira-कन्तूरियून | Kee-gantúri. yúna. अरोग aarirá-( १ ) नानूसाह, अजवाइन । (२) ऊ शह् । अरीस arisa फा० भरीसह, arisah-o नोवान, कलक्रूरा, कमकाम - फा० 1 (Styrax Benzoin, dryander ) देखो - लोबान फा० ई० ३ भा० । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्ररासीमा स्पेसिनोसम् अरोसन arisan का० हलदी, हरिद्रा । (Cureuma longa.) अरीसारम arisáruin - इ० लोकुल जुभव, एक बूटी है जो एक बालिश्त के बराबर एवं विभिन्न वर्ण' युक्र होती है । असीन aricine इ० सिनकोना सत्व विशेष । फा० ई० २ भा० अरीसीमा टोटनसम् arisoema tortnosum, Schoti. असीमा कटम् arisema curvatum, Kuhi, Roxb. --ले० बीरबङ्का नेपा० । गुरिन, डोर, किकिंचालू किरकल, जंगुश पं० । trifol उपयोग - सिंगाली लोग इसकी जड़ श्रौषध तुल्य व्यवहार में लाते हैं । ( वैटीज) इं० मे० लां० । For Private and Personal Use Only भरीसीमा स्पेसिश्रोसन aristema speci osum, J/art. परम स्पेलिश्रांसम arum speciosum. Hall, - ले० साँप की खुम्बी, किरिकी कुकरी, किरलु - पं० ॥ उत्पत्ति स्थान - शीतोष्ण हिमालय, कुमायूँ से सिक्किम तथा भूटान पर्यन्त । उपयोग - हज़ारा में इसे विष प्रथाल Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भरीसुस्सीन किया जाता है। चम्पा में सर्पदंश स्थान पर इसे अरुकामलक arukāmalak-ता० अम्बाहली, पीसकर लगाते हैं । कूलू में इसकी जड़ भेड़ों को | आम्रहरिद्रा । ( Ourcuma amada). उदरशूल होने पर व्यवहार में प्राती है । जब बचे । मे० मे०। . इसे खाते हैं तो उनके मुखपर इसका हानिकारक | अरुक aruk-सं० त्रि० सुस्थ, नीरोग। प्रभाव होता है । (स्टवर) ई० मे० प्लां० । अरूगम-पट्ट arugain-patta-ता० रीसुस्सीन aarisussiina-० विश्नीन। नीलोफर के सररा एक बटी है।। अरुगम-पुल्लु arngum pullti-ता० दूबो, दूध। (Cynodon dactylon) अरू au-म०, सफतालू, श्राड़ मरुतुर arun tuda-हिं० वि० [सं०] (1) मेमो०। मर्मस्थान को तोड़ने वाला । मर्मस्पृक् । (२) अरुगु arugu-ते० (१) कोदो, कोद्रव । ( Paदुःखदायी ।-संशा पु० शत्रु, बैरी । spaluin-scrobiculatum ) | अरुः,-स् aruh, s-सं० ० (6) प्रारग्वध वृक्ष, | ___-ता० (२) सुफेद दूर्व । अमलतास। सोन्दाल गाछ-बं० 1 ( Cassia | अरुग्णः arugnah सं० त्रि. fistula.)। (२) रक त्रदिर ( Red Cate- अरुग्ण arugna-हि. वि. . chu.)। (३) क्षत, अण । अथव। (४) सुस्थ, निरोग, रोग रहित । ( Healthy ) मर्म । (५) संधिस्थान | उ०। अरुनिमेषः arungni-meshah-सं०. स्त्री० प्ररुमा arua-मेवा. महानीम, महानिम्ब। (sila. नेत्र रोग विशेष । ( An eye-disease) uthus Excelsa.) अरुच arucha-हिं. स्त्री. गर्भवती स्त्री की . अरुधार aruaraहि. पु. कचनार के सदृश एक अरुचि । वृत है। पत्ते अनार के समान किन्तु उससे बड़े सम्मुखवर्ती डंठल युक्र होते हैं ( डंठल लगभग अरुचिः archih-सं० स्त्री० , अंगुल दीर्घ); पुष्प इंटलयुक्र, डल १-१॥ रुचि aruchi-हिं० संज्ञा स्त्री अंगुल लम्बे होते हैं। पुष्प-वाह्य-कोष ( कुण्ड), अग्निमांच रोग । अरोचक रोग । भूख होनेपर भी सूक्ष्म, दंष्ट्राकार, बीजकोषोर्ष, हरिताभ पीतवर्ण भोजन करने का सामर्थ्य न होना, भोजन को के होते हैं । पुष्पाभ्यन्तर-कोष (दल) पञ्चकंगूरेयुक्र अनिच्छा, वितृष्णा, जी मचलाना ! (Anoreतथा पीताभ होता है। भरतन्तु ४, जिनमें २ बड़े। xia ) भा० म० १ भा० श्लेष्मज्वर । तथा २ छोटे होते हैं। पराग कोष इस प्रकार का देखो-अरोचकः। (२) रुचि का अभाव, होता है । गर्भकेशर पुकेशर से बड़ा तथा अनिच्छा । (३) घृणा। नफरत | द्वयोष्टीय होता है। फाल्गुन मास में इसमें पुष्प | अरुचिकर aruchikala-हिं० वि० [सं० आते हैं और उस समय यह पुष्पों से आच्छादित / जिससे पारुचि हो जाए, जो रुचिकारक न हो, होने के कारण अत्यन्त मनोहर प्रतीत होता है।। जो भला न लगे। इसकी छाल किञ्चित् कइ ई तथा पुष्प तिक व | अरुजः arujah-सं० पु. (१) प्रारम्वध वृत, मधुर होता है । लकड़ी भीतर से धूसर वर्ण की अमलतास। (Cassia fistula) बड़ शीशमके समान अत्यन्त चिकनी होती है। इसके सोनालु-वं० । रा०नि० व०६। वृक्ष अधिकतर कंकरीली पथरीली भूमि पर उत्पन्न । क्ली० (२) कुकुम, केशर । ( Saffron) (३) सिन्दूर । (Redlead, minum). उत्पत्ति-स्थान-संयुक्त प्रांत । अरुई arui-हिं० संज्ञा स्त्री० भालुकी, अरवी, | अरुज aruja-हिं० वि० [सं.] नीरोग । रोग घुइया । ( Arupr colocasia.) रहित । ( Healthy) . For Private and Personal Use Only Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अरुणः अरुणनागः महल: arunah-सं० पुं० (१) कोकि melumbo, the red var.)। (३) अरुण runa हिं० संत्रा पु. ) रमतवृता, लाल निसोध । ( Ipomcea turpलास भेद, तालमखाना ( Hygrophila ethum, R. Br., the red var. ) aro spinosil.)। (२) अतिविषा, अनीस टो० हेमादि । (४) कुकुम, केशर 1 Saffron (Aconitum heterophyllum. ) (Crocus satiyus.) रा०नि० ३०१२। (३) रयाणाक वृक्ष, सोनापाठा ( Oro. (५) सिन्दूर ( Red oxide of lend.) sylum Indicom. ) प. मु. । ग०नि० व०१२। (६) माणिक्यभेद। (A (४) मञ्जिष्ठा, मंजीर ( Rabia cordi- ! kind of ruby.) वै० निध. २ भा० । folia.)। (५) अर्क वृत्त, मदार, प्राक। क्षयरोग, त्रैलोक्य चिन्तामणिरस । ( Calotropis gigantea. ) म० । | अरुणकपिशः aruna-ka pishah-सं० पु. (६) पुन्नागवृक्ष । ( Calophyllum द्राक्षाभेद, किसमिस विशेष । फकीरी द्राक्ष inophyllum. ) ग. नि. व० १०॥ -मह० । बै० निघः । (A kind of dry. (.) गुण । (Jaggery.) रा०नि०व० grape.) १४। ()चित्रक सुप, चीता । (Plumbago zeylanica. ) मद० व० २। (६) | अरुणकम् arunakam-सं० क्लो. प्राटिनम सापामार्ग, लालसिचिंदा ( Achyranthes समूह का कोर श्वेत धातुतस्व विशेष । रोडियम् rubrum.) देखो-अपामार्ग। (१०) रक्त ( Rhodium. )-ले०। नोट-होडियम् करवीर, लाल कनेर । (Nerium odorum, युनानी शब्द गेडान ( Rhodon.) अर्थात् Soland.) ० निघ०। (१५) एक प्रकार गुलाव से व्युत्पन्न है। चूंकि इस धातु के लवणों का कुष्ठ रोग, लालकोद । (A kind of के घोल गुलाबी रंग के होते हैं, अस्तु इसे उन leprosy.) नाम से अभिधानित किया गया। दे० रहीखक्षण-जिसमें लालवर्ण की छोटी छोटी डियम् । फैलने वाली फुन्सियाँ होती हैं तथा चीस, । अरुणकमलम् aruna-kamalan-सं०) भेद ( भेदन की सी पीड़ा ) और स्वाप क्ली० ( स्पर्शाज्ञता) होता है उसे अरुण कुष्ट कहते हैं। अरुणकमल unit kamal- हि० .) यह वातज होता है अर्थात् वायु से (वायु की । ____ कोकनद, लाल कमल । रक कम्बल-बं० । प्रधानता से) उत्पन्न होता है। सु० नि०५ ( Nelumbiun speciosum. ) TO ६०१ नि०व०१०। (१२) सूय्यं । ( The sun), अरुणचूड़ arunachāra-हिं० संज्ञा पुं०) (१३) गहरा लालरंग । ( Deep ta), अरुण चूड़: tunu.churnh-सं० पु.॥ (१४) कुछ म, केशर । ( Saffron), कुक्कुट । अरुण शिखा । ताम्रचूड़ पड़ी।कुकड़ा। (१५) सिन्दूर । Red lead ( Plu- मुर्गा । ( Cock.) वै० निघः।। mbi Oxidum Bubrum )-वि०, अरुण तरडलीयम् aruna.tanduliyamहिं० वि० [स्त्री. अरुणा] ( Red.) सं० क्ली० रक्तण्डुलीय शाक, लाल चौलाई। रक्रवर्ण । लालरंग । लाल । रक। ।। राङ्गा नटे-बं०। Amarantus ('Thअरुणम् arunam-सं० क्ली० (, अहिफेन, us ) Spinosus ( The red var. अफीम । (Opium.) वै० निघः । (२) oi-) च० द०। रकोत्पल, लाल कमल (Nymphica अरुणनागः aruna-nāgah-सं०० मुद्रा For Private and Personal Use Only Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अरुणनेत्रः शङ्ख, पीतिका । श्रत्रि | See-mudra-sha ankhah. ६१० अरुणनेत्र a1na-netah सं० ० ( पारावन, कपांत, कबूतर | (Pigeon) पायरा - बं० । (२) कोकिल, कोइ ( ब ) ल | The black or Indian cuckoo ( Cate lus ) वं० निघ० । अरुणपुष्पी arunapushpi-सं० स्त्री० बन्धुजीवक वृक्ष, बन्धूक, दुपहरिया, गेजुलिया । बान्धुलि फुल-बें० । रक्रदुपारी -म० | (Pentapetes phonicca, ira. ) वै० निघ० । श्ररुणमक्षिका aruna makshika-सं० स्त्री० रक्रमक्षिका | लाल माचि बं० । वै० निव० | | Sce-Rakta-makshiká. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्ररुणिमा दशाक्षा स्व० त्रि० लाक्षातैल । "लाहा त्वरुणा पड़ता । ( ३ ) प्रपौण्डरीक, पुडेरी, कमलनाल | (Root stock of nymphtea lotus) प० मु० । ( ४ ) त्रिवृता, निशो (सो) । ( Ipouoca turpethu, 11. B7 ) मे० । (५) जत्रा, श्रीपुष्प, अदउल | ( Hibiscus rosa-sinensis. ) मद० ब० २ । “श्ररुतित्रिया श्यामा मञ्जिला त्रिवृता च" । ( ५ ) श्यामालना, कृष्णसारिवा, श्यामलता | (lchnocarpus frutescens.) मे० । इन्द्रवारुणीलता, इन्द्रायन, इनारुन (Citrullus colocynthes, Shrad.)। (८) गुआलता, घुघत्री | ( Abrus pr ecatorius ) रा० नि० ० ३ । (ह) पुनबा, गहपुन्ना (Boerhavia diffu - sa.)। (१०) मुण्डी । ( Sphuranthus Indicus. ) रत्ना० । ( 11 ) कोदो । ( १२ ) लाल रंग की गाय । ( १३ ) उषा | अरुणाई arunai-हि० संज्ञा स्त्री० [सं० अरुण ] ललाई । रक्ता । ( Redness ) श्ररुणात्मिका arunátumika - सं० स्त्री० कम रिच, मरचा, लाल मरचा । ( Capsicum.)। लङ्का मरिच – चं० । लांक-म० । बै० निघ० । श्ररुणाभम् anabhan सं० क० वज्रलौह, कान्त लोह | See-kántalouha. श्ररुणार arunára-हिं० वि० दे० श्रस्ना | अरुणार्क: arupárkah-सं० पु० रकार्क, लाल मदार । मन्दारु-मह० । मन्दार अक्क-कं० । Calotropis gigantea (The red var of - ) ग० नि० ब० १० | देखो श्रक । For Private and Personal Use Only | ! श्ररुणलोचनः aruna-lochanah सं० पु० ( १ ) पारावत, कपोत, कबूतर | (Pigeon.) रा०नि० ० १६ । (२) कोकिन्न, कोइ (य) ल । The black or Indian cuckoo ( Cuculus ) ० निघ० । ( ३ ) लालनेत्र । ( Red eye. ) श्रशिखा aruna shikha - हिं० संज्ञा पुं० [सं०] कुक्कुट, मुर्गा । ( (Cock ) अरुण सर्पः aruna-sarpah - सं० पु० तहक सर्प, सर्प विशेष | ( A snake of a middle size and of a red colour.) वै निघ० । See-Takshak. अरुणसारः aruna-sarah सं० पु० हिङ्गुल, सिंगरक | Cinnabar ( Hydargyri Bisulphuretum ) व० निघ० । अरुणा aruna-सं० स्त्री० [हिं० संज्ञा स्त्री० ( १ ) अतीस, अतिविषा । ( Aconitum heterophyllum ) मे० रा० नि० व० ६ । भा० ४२० वाल० ज्व० चि० महाभल्ला० गुड़ | "घन कृष्णारुणशृङ्गी” । । श्ररुगित arunita - हिं० वि० [सं०] लाल भै० प्रदरारि रम । कुष्ठ० नि० (२) मञ्जिष्ठा, मीठ (Rubia cordifolia ) मे० रा० नि० ० ३ । भा० म० १ म० अरुणाक्षः arunákshah सं० पु० कबूतर, कपोत | ( Pigeon) 'हुश्रा । किया श्ररुणिमा arunima - हिं० संज्ञा पुं० [सं० र] ललाई, लालिमा, सुर्खी । Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org i. श्रो ६११ अस्ती aruni-सं० स्त्री० सुरसरनी-हिं० । टिक्करी-अव० । बेनिया र हेमूनॉइडीस ( Brea ymia rhamnoides, Mull..trg. ), फाइलैन्थस रम्नॉइडीस ( Phyllanthus rhamnoides, Willd. ) - ले०/ एरण्डवा से हुण्ड वर्ग ( NO. Euphorbiacee ). उत्पत्ति स्थान — समग्र उष्ण कटिबन्धस्थ भारतवर्ष, पूर्वात्य श्रव से लेकर ऊपरी श्रासाम तथा दक्षिण की ओर दावेनकोर पर्यन्त | पत्र- एकान्तर अरुण्डो वैम्बांस arundo ! वानस्पतिक विवरण —— तुप ( या छोटा अरुण्डो बेङ्गालेन्सिल arundo Bangalensis, वृक्ष ); नव्याङ्कुर कोणाकार; Jinu...ले० गावनल, नल विशेष । ( Bengal ( विषमवर्ती), लघु डंडलयुक्त, प्रसरित, चौड़ा reed.) इं० हैं० गा० । - अण्डाकार, बहिः पत्र सबसे बड़े, श्रवः भाग सफेदी मायल, अखण्ड ( किनारा ), अर्ध से इं० लम्ब्रे; नरपुष्प निम्न कक्षों में गुच्छाकर, नारि पुष्प ऊर्ध्व कक्षों में होते हैं, अकेले, हुस्व पुष्पडंडी युक्र, नत; फलो मदराकार होती है। प्रभाव तथा उपयोग - गलशुण्डी शोध में शुष्कपत्र तमाकू रूपसे (हुक्का पर ) पिया जाता इसकी त्वचा संकोचक है । [ डाइमोंक ] अरुणोदय arunodaya - हिं० संज्ञा पुं० [सं०] प्रातः काल | प्रभात । बिहान । उपश काल | ब्राह्म-: मुहूर्त | तड़का | भोर । वह काल जब पूर्व दिशा में निकले हुए सूर्य की लाली दिखाई पड़ती है । यह काल सूर्योदय से दो मुहूर्त वा चार दंड पहिले होता है। श्रमोदय | अरुणोपल: arupopalah सं० पुं० श्रमाच मणि विशेष चुन्नि, पद्मराग मणि, लाल | ( A ruby.) हे० ० । । अरुण्डिनेरिया फैल्केटा arundinaria falcata, Nees. -ले० निर्गल, नीगल - हिं० । स्वग - कनावार | प्रोङ्ग-उ० प० सू० । ग्रांगनोक -लेप० । इसका तना रस्सी के काम आता है मैमी० । अरु गिडनेरिया सीमांसा arundinaria racemosa, Hamro.-ले० पम्मून-लेप० । पास्थ्यू - नेपा०| इसका तना रस्सी या खाय कार्य में खाता है। मेमो० । I ! Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्ररुनी अहडिनेरिया हूफेरिएना arundinaria Hookeriana, Huro. -ले० प्रॉंग, प्रायोग- लेप० : सिंघनी - नेपा० । तना तथा बीज खाद्य एवं रस्सी के काम थाते हैं । मेमो०, श्ररुडिने सीई arundinacce - ले० वंश वर्ग | रुडोका armando karka, Rob. -ले० कार्की, नल-बं० । नरकट, नर, नल, नदनार - हिं० । नरी, याग-पं० | इसका ननः व रीशा रस्सी के काम आती है। मेमो० । bambos-ले० वंश बाँस बंस | ( Bambusa arundinacea ) इं० मे० मे० । अरुता arata - मन० श्ररुद arud-सिं० } तितली, सुदाब | (Fu } phorbia lathyris, Linn.) श्रमन arma-हिं० चि० दे० अरुण | नई armai ft० मंज्ञा स्त्री० दे० अरु गाई। अरुनचूड arachura-हिं० संज्ञा पु ं० दे० श्ररुणानूड़ । अनता armnatá - हिं० संज्ञा स्त्री० दे० श्ररु गाता । अम्नशिखा aruna-shikha to मंज्ञा पुं० दे० - शिवा । aruna fr० संज्ञा स्त्री० मञ्जिष्ठा, मजीठ । (Rubia cordifolia. ) श्ररुनाई arunai-हिं० संज्ञा स्त्री० दे० श्ररुणाई । श्ररुनाना armana - हिं० कि० अ० [सं० श्र रुप ] लाल होना । क्रि० स० [ स० अरुण ] लाल करना । श्रनारा aruára - हि० वि० [सं० श्ररुणा+ धारा ( प्रत्य० ) ] लाल रंग का लाल । श्ररुनी aruni सं० स्त्री० सुरसरनी, टिकारी अव० । मेमा० | देखो - श्ररुखि । For Private and Personal Use Only Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भनेरुल्ली ६१२ अनेरुली alunelli-जा० हरफा रेवड़ी, लवली। अरुषास: arushasa!!-सं० ० रोष रहिस। अरुनोदय rumodaya-हिं० संज्ञा पु० दे०- अथ० । सू० ३।३ । का० ३ । अरुणोदय । श्ररुष्कः arushkah-सं० ० अरुन्धती undhati सं० स्त्रो. जिह्वाग्र । जिह्वा अरुक arushka-हिं0 संज्ञा पु. - की नोक वा फॉक । ('The foretongue.) मल्लानक वृत, भिलावाँ । भेला गाछ-६० । वै० निध० । दे०-अरु यती । विधवा-म । ( Semecarpus anac arlium-) भा०पू०१ भा० । रा०नि० अरुधनी alandhuti-हिं. संज्ञा स्त्री० [सं० व०१३ अरुन्धती] (1) बहुत छोटा तारा जो सप्तर्षि अरुष्कर: arushkarah-सं० पु. (.) मंडल स्थ वशिष्ठ के पास उगता है। सुश्रुत के . भल्लातक वृत, भिल बाँ। ( Semecarpus के अनुसार, जिनकी मृत्यु समीप होती है, वह । anacardium. ) प० मु०। रा० नि० इस तारे को नहीं देख सकते। व०११ । भा० पू० १ भा० । मद० व०१॥ (२) तंत्र के अनुसार जिह्वा । (२) अरुषिका । -त्रि० (३) अणकृत, (३) घाव को पूरने वाली श्रोषधि, ब्रणपूरक ग्रणजनक । मे० रचतुरकं । औषध, श्ररुप | अथर्व० । सू० २।२। अरुपकरम् arushkaram-सं० श्लो० भल्लातक का०४। फल, भिलावाँ ( Semecarpus ana. अरुषिका artunshika-स०स्त्री,हिं० संज्ञा स्त्री० | cardium.) च० द० अर्श चि०। भैष एक तह रोग जिसमें कफ और रक के विकार या कुष्ठचि० पञ्चतिक घृत । "सनागरारुष्का युद्धकृमि के प्रकोप से माथे पर अनेक मुंह वाले दारकम् ।" सि.यो. चतुः सम लौह । १० सू. फोड़े हो जाते हैं । शिरीवा | शुद्ररोगान्यतम ४ . कुष्ठम्नव.। कपाल रोग भेद । मा०नि० । | अरुस arusa-हि. पु. अडसा, वासक । अरुवा aura-हिं० संज्ञा पुं॰ [सं० अरु] (Adbatoda vasika.) (१) एक लता जिसके पसे पान के पत्ते के सदृश होते हैं । इसकी जड़ में कन्द पड़ता है। प्रसिमन arusinal-यू. ब. लखम-खुम, और लता की गाँठों से भी एक सूत निकलता है बल-हवह, कसीस-प० । कदम-इस्फ़हान ! जो चार पाँच अंगुल बढ़कर मोटा होने लगता मारदररूत । किरमान । दरीना तिमी । (Lepi. है और कन्द बनता जाताहै। इसके कन्दकी तरकारी lium ibraris, Linu.)-ले०1 (Pepp. बनती है । यह खाने पर कनकनाहट पैदा करता er grass, pupperwurt)to Passeहै । बरई लोग इसे पान के भीटे पर योते हैं। rage iberide-फ्रां० । देखो तोड़ी । संज्ञा पुं० [हिं० रुरुपा] (An on}.) फा००१ भा। उल्ल, उलूक पदी । हिं० श० सा० । भरुनाणम् ausranam-संकी०(१) या अरुषः armshah-सं० ० (१) पण, इस दोषों को शीघ्र पकाने वाली प्रौपच । (२)प्रण, (Vranah.) (२) घोटक, अश्व । (Horse.), फोड़ा । अथर्व । सू०३।४। का०३। वै. निघ०। (३) व्रणपूरक औषध, अरु- अरुहा aruha - स. खा., -हिं. संशा पु. न्धी । अथवं० । सू० १२ । का० ५। भूधात्री, भुई अामला, भूम्यामलको । (Phy. अरूषा, टा arushaita-सं० स्त्रो. भूम्यामल की, lanthus neruri.) 8 ई श्रामला । (Phyllanthus neruri.) | अमक āaruqa-अ० स्वेनक औषध । ( Diaph. .. रा०नि० व०५! _____oretic) For Private and Personal Use Only Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परेका सैकेरिफेस अरुक ariqa-तु० जालू । एक फल है जो (३) नीलोकर, नीलोत्पल ( Nymphea. मधुर अम्लीय होता है । खूबानी इसीका भेद है। stelata. ) । ( ४ ) गंधक पीत अरूक़लस ariqalas-5० उश्नान, एक घास है। (Sulphu.) । (५ ) शीराज़ निवासी जिससे कपड़े धोए जाते हैं। See-ushman. कुसुम्भ ( क ) द्वारा परितुत पीत जल को अरूकुल arukul-फा० हरिदा, लदी। (Cur. कहते हैं जो प्रथम निकलता है cuunu louga, Lium.) स० फा० । अरूसक arusak -अ० (१) म्पचोत, जुग्न अरूक स्सम्यागोन arugussabbaghin | (a firefly.)। (२) तम्बूस-फा०। (३) अरूकुम सक्र. aarqussafra. उल्लू, उलूक (Anow])।(४) बीरबहूटी, -अ० ( Healthy ) नीरोग, स्वस्थ । । इन्द्रगाप कीट। (Scarletfly). प्रकज़ arāra-अ० चावल, धान । (Rice.) ई० अरूसक दर पर्दह arāsak-dar-pardah) है. गा.! अरुसक पसे पर्दह arusuk-pa.se.pardahs अरूज़ा uruzi-सिरि० मुगाबी, जल मुर्गी । (Water-ben. ) काकनज, राजपुत्रिका । ( Physalis alke. अमद audha-ह. वि० दे० श्रारूढ़। kenji, Linu. ) देखो-काकनज । भरूढ़वपाटिका arudha-arapatika-सं० अकसा arusa-ह. प. प्रसा। (Adha. स्त्री० देखो-"निरुद्धप्रकाश"। सु०सं० । _toda vasika.) अहसा गारस anrusa ghārasa- घुक, भरून aruda-हिं०० उर्द,माघ । (Phaseolus सॉप की केचुली। radiatus.) भरूनस arunasa-यू मटर,कलाय विशेष | Peaअरेभालु arealna-अश्वत्थ, पीपल वृष (Ficus (Pision sativum). religiosa.) फॉ० १.३ भा०। अरूनिया aniya-वाका भेद । वह मेवे | अरेक गोल arelka-gol-को. काम रूप-हिं, पाश पEA सात गती! बं०। ( Ficus benjamina.) सेब को कहते हैं। | अरेकिक एसिड arachic acid-. अदनास arunisil-यू. कनौचा भेद । लु० अरेकिडिक एसिड arachidic acid,allen.j क०। मूंगफल्यम्ल, मूंगफली का तेजाव । फा... अरूप arupa-हिं० वि० [सं०] (१) रूप रहित । ! भा० । निराकार । (२) कुरूप, कुरिसत रूप, कुश्री। | अरेकिस हाइपोजिया arachis hypogea, (Deformed, ugly.) Lem.-ले. मूंगफली, चिनिया-दाम, मरूपाल arāpil-मह. अशोक वृव । (Saraca विलायती-मूग। ( Ground nut, Pea. Indica, Linu.) ut, Monkeynut.) 7.10 o अ aariba-सिरि० गतंगवो न, झाऊ निर्यास, .भा. _____झाऊ वृक्ष से सवा हुमा गौद । प्ररेक arreku-ता०काश्चनार, करनाल, भरता। भरूमचकarāmachak-तुक मकड़ी, ऊनाभि । ( Bauhinia racemosa, Fam. ) (A spider. ) मेमा। भरूस arāsa-हि. संशा पु० दे० असा। | अरकालीनी हाहडोलोमास arecoline hyd. अरूस aarusa-० (१) एक प्रकार की | robromas-ले. दे. मूंगफली । गुहेरी वा गुहाञ्जनी । ( २ ) दुलहिन, दुलहा प्ररेता सैकेरिफेरा arenga saccharifera, ( A bride; a. bridegroom. ) Latill.-ले० तौङ्गा-पर० । इसका माध, For Private and Personal Use Only Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भरेबिक एमिड अरोचक . शर्करा तथा तंतु खाद्य और व्यवहार कार्य में पाते दन्त, काले दाँत बाला । वै० निघः । · हैं। मेमो०। | अरोग angit--हिं० वि० [सं०] रोग रहिन । अरेयिक एसिड arabic acid ई० अरविकाम्ल ।। नीरोग। फा०ई०१ भा०। | अरोगी arogi-हिं० वि० [सं०] जो रोगी न अरेबियन कॉमटस arabial costus-ई० हो । नोरोग । चंगा । कूट, कुष्ठ-हिं० । पाचक-यं०। ( Saussu- श्रोच arocha-ह. संशा० पु० [सं० rea. lappa, Clarke.)। फा० ई० : अरुचि ] रुचि का अभाव । अनिच्छा ! त्याग | २ भा०। | अरोचकः ॥rochakab--सं० पु. . अरेबियन जस्मिन arabian jius mine-इं० । अरोचक rochaka-fह संत्रा प० । बेला-हिं । वार्षिकी--सं० । (Jasminum ! ___जो रुचे नहीं। अरुचिकर ! (Disagreea: sambae.) ble)। ना मग ब- अ०। एक रोग जिसमें भरेबियन मिह arabian myrrh-इं० बो(वो)ल अन्न प्रादि का स्वाद मुह में नहीं मिलता। --हि०, बं०, गु० । (Baisamode dron, . अरुचिरोग। Sp.) फा०ई०१ भा० । संस्कृत पर्याय-अरुचिः, अश्रद्धा, अनभिअरेबियन लेबराडर arabian lavender--ई. लापः । रा०। धारू-हिं० । उस्तुखुद्द स ( Lavandula डिसलाइक . s]cechas, Linn.) ऑफ फोर-फूड Dislike of अरेबियन सेना arabian senna-ई. सना forefood, डिसगस्ट फॉर फूड Diyust for जबली, सना मक्की । ( Cassia angus. foodi, faiferat Disrolish, varia tifolia, Juhi.) फा० इं० १ भा० सनाय : avortion-इं। . विशेष। निदान अरेयीस चाानेन्सिस् ara bis chinensis ___ ग्रह दुगंधयुक्र और घिनौनी चीजें खाने और -ले. एक पौधा विशेष । धिनीना रूप देखने तथा त्रिदोष के प्रकोप से उत्पन्न भरेयल areyal- मल पल वृद्ध, अश्वत्थ ।। होता है । लिखा है-- (Ficus religiosa. मे० मे०। "वातादिभिः शोक भयाति लोभ ( भयाति लोभ 'भरेलिया aralia-इं० तापमारी । गिन-से -भा०) क्रांधैर्मनोध्नाशनरूपगन्धैः । अरोचकाः स्युः ची। फा० इं०२भा०। परिहष्ट दन्तः कपाय वश्च मतोऽनिले न ॥" अरेलिया एकीमारिका aralianchemiri- (मा० नि । भा० प्र०) . .. ea, Dene :--ले. बनखोर, चुरियल-पं० । अर्थ-वात, कफ, शोक,भय ( भयरोग), अत्यंत - मेमा०। लोभ,क्रोध,अप्रिय भोजन तथा बुरे रूप का दर्शन अरेलिया ग्विल फॉय लिया aralia guil. और दुर्गन्ध इन सब कारणों से मनुष्यों के अरुचि foylia-ले० तापमारो-हिं०। गिन् सेग- रोग उत्पन्न होता है । वात की अरुचि में रोगी के चो०। फा०.०२ भा०। दन्तहप होता और मुख कषैला रहता है । अरोअरेलिया स्युडोगिन्सिङ्ग aralia pseudo- . चक के प्रधान पाँच भेद है-- ginseng, Benth., Wall., Pl., .., : (१) वातज, (२) पित्तज, (३) कफज, Rai, t., 1,37-ले० तापमारो-हिं० । गिन्सेंग (४) समिपातज और (५) शोकादि से उत्पन --चो०। फा०६०२ भा०। . अर्थात् प्रागन्तुज । अरेलिएसाई :aliacen-ले० तापमारी वर्ग। लक्षण ..अरोकदन्तः aroka-danta.h--सं० त्रि. कृष्ण- (१) वातारोचक-अम्ल पदार्थ के भक्षण For Private and Personal Use Only Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org रोचक ६१५ से जिस प्रकार दंतहर्ष होता है उसी प्रकार देत हर्ष होना और मुख का कबैला रहना । ये लक्षण वातजारोचक में होते हैं । (२) पैत्तिकारोचक-वित्तको अरुचिसे रोगी का मुख तित्र, खट्टा, बेरस ( बेस्वाद ) और दुर्गन्धयुक्र होता हैं। ( ३ ) श्लैष्मिकाचक – कफ की रुचि से स्वार, मीठा, पिच्छिल, भारी तथा शीतज (मुख) और बंधा सा रहता है जिससे खाया नहीं जाता और मुख कफ से लिया रहता हैं । मा० नि० । ( दुर्गन्धयुक्र और कफ से स्निग्ध रहता है - भा० ) ( ४ ) शोकादिजन्य ( वा श्रागन्तुज ) श्ररोन्त्रक - शोक, भय. प्रत्यंन्त लोभ और क्रोध, श्रप्रिय गंध से उत्पन्न हुई अरुचि में मुख स्वाभाविक अर्थात् जैसा का तैसा रहता हैं । (५) सान्निपातिकारांचक ( त्रिदोषज ) - इस अरुचि में रोगी का मुख वातादि जनित तिक, अम्ल और लवण श्रादि अनेक रस युक्र जान पड़ता है । वातादि भेद से रोचक के अन्य लक्षण वातज अरुचि में वक्षःस्थल में शूल के समान पीड़ा होती है । पित्तजन्य रुचि में शरीर में, हृदय में वोपने की सी पीड़ा, दाह, मोह श्रीर प्यास होती है। कफज अरुचि में कफस्त्राव होता है । त्रिदोषज अरुचि में अनेक प्रकार की पीड़ा और मन में विकलता, मोह, जड़ता तथा शोक और भयादि जन्य श्रागन्तुक प्ररुचि सब लक्षण होते हैं । शुधा होने पर भी जब श्राहार का सामर्थ्य न हो तब उसको रुचि कहते हैं । न खाने की इच्छा होने पर भी जब खाया हुआ अन बाहर निकल आए अर्थात् मेदा उसको स्वीकार न करे तथा अन्न व स्मरण, दर्शन, गंध एवं स्पर्शन से जिसे घृणा होजाए उसे भक्तद्वेष कहते हैं । चरक तथा सुश्रुत के मत से इन तीनों प्रकार Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अरोचकः के रोगों का समावेश श्ररोचक शब्द के अन्तर्गत होता है, यथा प्रक्षिसन्तु मुखे चानं यत्र नास्वादते नरः । अरोचकः स विज्ञेयो भद्वेष मतः शृणु ॥ चिन्तयित्वा तु मनसा दृष्ट्रा स्पृष्ट्रा तु भोजनम् । द्वेषमायाति यो जन्तुर्भद्वषः स उच्यते ॥ कुपितस्य भयार्त्तस्य तथा भक्त विरोधिनः । 'यत्र नाते भवेच्छुद्धा स भाच्छन्द उच्यते ॥ ॥ वृद्ध भोजः ॥ अर्थ - - मनुष्य को जब मुख में डाले हुए अर्थात् खाए हुए धन का स्वाद नहीं मिलता, वह मीठा नहीं लगता, तंत्र उसको श्ररोचक जानना चाहिए। श्रव भोष के सम्बन्ध में कहते हैं; सुनो भोजन के मन में चिन्तन करने से, देखने तथा छूने से, जिस मनुष्य को वृणा हो जाती है उसको "भक्रद्वेष" कहते हैं । क्रोधित भय से पीड़ित तथा जिसको श्रम से द्वेष हो वह और जिसकी न से श्रद्धा न हो उन्हें 'भङ्गच्छंद' कहते हैं। चिकित्सा (सामान्य) भोजन से पहिले लवण और अदरक मिलाकर भक्षण करना सदा पथ्य है। यह रुचिकारक, श्रग्निदीपक तथा जिह्वा एवं कंर की शुद्धि करता है । यथा भोजनाओ सदा पथ्यं लवणार्द्रक भक्षणम् । रोचनं दीपनं बह्लेजिंहा का विशोधनम् ॥ ॥ भा० म० खं० ॥ अथवा अदरक के रस को मधु के साथ मिला कर योजित करें। यह श्ररुचि, श्वास, कास, प्रतिश्याय और कफ नाशक है । यथा - शृंगवेररसं वापि मधुना सह योजयेत् । रुचि श्वासकासनं प्रतिश्याय कफापहम् ॥ ॥ भा० ॥ अथवा पक्की इमली और श्वेत शर्करा को शीतल जल में मल कर कपड़े से छान लें, फिर उसमें इलायची, लवंग, कपूर और मरिच के बारीक चूर्ण को बुरक कर पानक प्रस्तुत करें। इसके मुख में धारण करने से यह अरुचि का नाश करता और पित्त को प्रशमित करता है । ... For Private and Personal Use Only Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अराचं M अरोचक मरोचक रोग में प्रयुक्त होने वाली अमिश्रित औषधे अनार, इमली, तालीसपत्र, मामला, कपिस्थ (कैथ ), तक्र, कमल फूल, (Gentiane kurroo; Ronle.', कोशिया (Quassia, excelsa) और सोडियम के लवण सथा योग । मिश्रित औषधे - यमा(वा)नी पा(खा)इ(एड)व, कलहङ्गस, अम्लीकापान (तिन्तिडिपानक), रसाला, आईकमातुलुङ्गावलेह, सुधानिधिरस, सुखोचनाभ्र, दाडिमादिचूर्ण और लवंगादिचूर्ण, शिखरिणी (भीमसेनकृत), द्राक्षासव, कपित्थाष्टक चूर्ण, पिप्पल्यरिष्ट, बड़वानल चूर्ण और तालीसपत्रादि दोषानुसार चिकित्सा वातज अगेचक में मटर, पीपल, वायविडंग दास, सेंधानमक और सौर इनके चूर्ण के साथ प्रसन्ना नाम वाली मदिरा का पान करें अथवा | इसायचो भार्गी, जवाखार, हींग डाल कर घृत के साथ पान करें। अथवा यच का क्वाथ पिलाकर वमन कराएँ। वैतिक अरोचक में गुड़ का पानी मिलाकर वमन कराएँ अथवा खांड, घृत, सेंधानमक और मधु मिलाकर चाटें। कफज अरोचक में नीम का क्वाथ मिलाकर यमन कराएँ । इसके अतिरिक्र अजवाइन और : अमलतास का काढ़ा पिलाएँ अथवा मधु के साथ तीषण अरिष्ट और मधु के साथ मावीक नामक | मच पिला और उपयुक्र मटर प्रादि के चूर्ण की गरम जल के साथ सेवन कराएँ अथवा निम्न पूर्ण का प्रयोग करें। इलायची १ भाग दालचीनी २ भाग नागकेशर ३ भाग चष्य ४ भाग पीपल ५ भाग ६ भाग निर्माण-विधि-इन सब का चूर्ण कर सबके : बराबर शर्करा मिलाकर सेवन करें। गुण-इससे मुखमें थूक भरना, अरुचि, हरछुल, पारर्ववेदना, खाँसी, श्वास, और कंठ के रोग नष्ट । होते हैं। (२) अजवाइन, इमली, अग्लवेत, सौंठ, . अनार और बेर इनको १-१ तो० लेकर चूर्ण कर इसमें ४ पल मिश्री मिलाएँ । धनियाँ, संचल । गमक, कालाजीरा और दालचीनी प्रत्येक १-१ : तो०, पीपल सौ और काली मरिच दो सौ इन सब का चूर्ण उ चूर्ण में मिलाएं। उपयोग-प्रत्यंत रुचिकर, ग्राही, हृदय को हितकारी होता है तथा विबंध खाँसी और ! हृदय तथा पसली का दर्द, पीहा, अर्श और प्रहणी सेग को नष्ट करता है । (वा. चि. सौंठ अरोचक में पथ्यापथ्य पथ्य-वातजारोचक में वस्ति, पित्तज में घिरेक (जुल्लाब) तथा कफज अरोचक मैं वमन और सर्व दोषों से उत्पस अथात् सानिपातिक अरांचक में सब कामों की सिद्धि के लिए हर्षए क्रिया करना हित हे। भा०। ___ बलानुसार वस्ति, विरेचन, बमन, धूमपान तथा कवल धारण और तिक वा कपेले काष्ठ के दातून से दंतघर्षण करना एवं भौति भौतिके प्रश्न पान का सेवन हितकारक है। गोधूम (गेहूँ ), मूंग, लाल शालि व सादी का चावल, शूकर, बकरा तथा खरगोश का मांस, चेंग, झषांड, मधुरालिका, इल्लिश (हीलसा), प्रोष्टी ( शनरी ), खलेश, कवयी (सुम्भा) और रोहित श्रादि मछली का मांस, कुप्मांड, नाड़ी शाक, नवीन मुली का शाक । वार्ताकु ( भांटा ), शोभाञ्जन, (सहिजन), मोया (कदली), अनार, भव्य (कमरख का फल), पटोल, रुचक (वीजपूर ), घृत, दुग्ध, बाल (हीवेर), ताल ( तालोशप), रसोन (लह. मुन), सूरण, द्राक्षा, रसाल (प्राम), नल द ( लवंग), निम्ब, कांजी, मध, शिखरिणी, दधि, तक्र, प्राक, शीतल चीनी, खजूर, पियाल (चिरौंजी ), तिन्दुक, धिकङ्कत, कपिरथ, बेर, ताल, अस्थिमजा, कपर, मिश्री, हरीतकी, अज For Private and Personal Use Only Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अडिस वाहून, मरिच, रामरम् ( हींग ), मधुर, अम्ल, तथा तिक पदार्थ, देहमार्जनी रुचि रोगी के लिए ये द्रव्य हितकारक अर्थात् पथ्य हैं । अपथ्य - काम, उद्गार ( डकार ), सुधा, नेत्रवायु तथा वेगों का रोकना, श्रथ अम सेवन, रक्तमोक्षण, क्रोध, लोभ, भय, दुर्गन्ध रूप का सेवन अरुचि रोगी के लिए अपथ्य हैं । अरोडिस arodis- श्रण्ड चिकरस्पी-बं० | बीता, अ arga सहर sahra पोमा श्रासा० । www.kobatirth.org अरोहन arohana - हिं० संज्ञा पुं० दे०आरोहण । अरोहना arohana - हिं० कि० श्र० [सं० श्रारोहण ] चढ़ना, सवार होना । श्ररोही arohi - हिं० वि० [सं० आरोही ] सवार होने वाला | संज्ञा पुं० [सं०] आरोही ] आरोही, सवार । अरंघुषः aranghashah-सं० पुं० तुम्बा ( कड़वी तुम्बी ) । अथर्व ० | सू० ४ । ४ । का० १० । अर्कः arkah-सं० पु० अर्क arka हिं० संज्ञा पु ० } ( 1 ) आक, J कन्द, मन्द (द) - हिं० । श्राकन्द गाछ-बं० ! रूद-मह० | अक्के-क० । जिल्लेदु चेदु ते० । ( Calotropis gigantea, syn. Asclepias gigantea. ) रा० नि० च० ११ । भा० पू० १ भा० । मद० ० १ । ( २ ) ताम्र, तामा, ताँबा (opper Cuprm1.) मे० किं० । श्रलोक्यडम्बर रस । बै० नि० वा० व्या० त्रि० चिन्तामणि रस । ( ३ ) स्फ टिक, फिटकिरी | Alum ( Alumen. ) मे०कद्विकं० । ( ४ ) श्ररुणार्क, लालमन्दार । ( Calotropis gigantea, the rod var. of) प० मु० भा० पू० १ भा० । (५) श्रादित्य पत्र पुष्प, श्रादित्यभना, हुलहुल् । ( Cleone viscosa, Linn.)। रा० नि० व० ४ | "अकों रक्तपुष्धः प्रसिद्धः" । सु० सू० ३७ म० श्रर्कादिव० । ३६ श्र० शिरो० ७ 20 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चि० । (६) यन्त्र द्वारा परिस्रुत किया हुआ द्रव्य सारांश | देखो - अर्क या अरक । थारक - बं० । ( Aqua ) | ( ७ ) सूर्य ( lhe sun ) | (5) किसी चीज का निचोड़ा हुआ रस । सँग स्वरस | Juice ( Sueens) देखो - श्रर । वि० [सं०] पूजनीय । - अ० श्रनिद्रा, निद्रानाश, नींद न आने का रोग - हिं० । पर्विजिलियम ( Per vigilium ), इन्सोम्निया ( Insomnia ) - ई० | देखो-लहू | अर्क dark so अवमती, ऋतुमती होना, स्त्री का मासिकधर्म होना, ऋतु स्नान करना । ( Menstruation ) अर्कaarg - नज्द ० ( १ ) शुष्क वा अर्धपक छुहारा ( Dried or half matured date )। - अ० ( २ ) भपका ( वारुणयन्त्र) द्वारा परिस्रुत वारि । निर्मल परिस्त वारि जो श्रौषधों से raण क्रिया द्वारा प्राप्त होता है। वह पानी जो श्रीज, मूल, पुष्प श्रर पत्र आदि से विशेष विधि द्वारा प्राप्त किया जाता है । श्रर्कः सं० । श्रर्क - हिं० । fefizes are Distilled water.- ई० । एक्का डिस्टिलेटr Aqua distillata. ले० । अरक - अ० । नोट- अर्क खींचने में जिस क्रिया का अवलम्बन किया जाता उसको स्त्रवण ( चुश्राना ) विधि कहते हैं । इसी विधान द्वारा शुद्धास एवं तर भी प्राप्त किए जाते हैं । और जिस यन्त्र द्वारा उक क्रिया सम्पन्न होती है उसे नाड़ीयंत्र वा वारुणी निर्माण में प्रयुक्र होने के कारण वारुणीयंत्र कहते है । पूर्ण परिचय हेतु क्रम में उन शब्दों के सम्मुख अवलोकन करें । खींचने का संक्षेप इतिहास - श्रार्यों के उन्नति काल में सन्धान विधि द्वारा फलों और कतिपय वनस्पतियों के आसत्र प्रस्तुत किए जाते थे । परन्तु, क्रमशः बिना सन्धानके ही वारुणीयंत्र द्वारा बीज, पत्र एवं कान का प्रभाव For Private and Personal Use Only Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अर्क ६१ जल में परिणत होने लगा । श्रार्थो का यह ज्ञान अत्यन्त प्राचीन हैं। अस्तु, इस विषय में कईएक स्वतन्त्र ग्रंथ भी आज हमें उपलब्ध होते हैं । इसका बड़ा रस्म ईरानी हकीमों और सबसे अधिक पश्चात् कालीन वैद्यों तथा भारतीय हकीमों में पाया जाता I हेतु ( १ ) श्रीषधियों के सूक्ष्म प्रभाव श्रंश का पृथक करना । (२) श्रोपधियों के बड़े परिमाण के प्रभाव को दोबारा तिबारा स्रवण करने से संक्षेप मात्रा में लाना और ( ३ ) उपयोग की सुविधा के लिए। ये ही कारण अर्क स्रवण करने के मूलाधार कहे जा सकते हैं; गोया अर्क एक प्रकारका सार हैं । नोट- अर्क कैंचते समय सौंफ़, अजवायन आदि के उड़नशील तैल जलके उष्ण ( ३०० श) वाष्पों के साथ वापीभूत हो जाते हैं। यह एक अत्यन्त गवेषणात्मक विषय हैं कि आया जो द्रव्य अर्क चुश्राने में व्यवहन होते हैं; उन सबके प्रभात्रात्मक श्रंश परिस्रुत में श्रा जाते हैं या नहीं ? श्रायुर्वेदीय ग्रर्कग्रंथों एवं यूनानी क़राबादोनों में श्रर्क के बहुसंख्यक यांग मिलेंगे, जिनमें श्रमूल्य प्रभाव का होना बतलाया गया है । परन्तु परीक्षा काल में प्रत्येक अर्क से श्रभीष्ट लाभ नहीं प्राप्त होता । बहुत से तो ऐसे हैं। जिनमें सिवा समय नष्ट करने के ओर कोई ! परिणाम नहीं, श्रस्तु, इस विषय में अभी काफ़ी अनुसंधान करने की आवश्यकता है। आवश्यकता होने एवं अवसर मिलने पर गवेपणापूर्ण तथा अपने अनुभवात्मक लेख द्वारा कभी इस विषय पर उचित प्रकाश डालने का प्रयत्न किया जाएगा । अवयव - श्रर्क के योगों को ध्यानपूर्वक देखने से यह ज्ञात होता है कि उनमें प्रायः निम्न लिखित अवयवही मिश्रित रूप में पाए जाते हैं, यथा -- ( १ ) बीज, ( २ ) पत्र, (३) गिरी ( मींगी ), ( १ ) खनिज ( पाषाण आदि ), ( ६ ) कस्तूरी तथा अम्बर, (७) पुप, (5) स्व ( ३ ) काष्ट, (१०) जड़, ( ११ ) मांस Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अक रस (यनी), (१२) माउजुब्न ( दूध का फाड़ा हुआ पानी ), ( १३ ) फल तथा ( १४ ) निर्यासवत् पदार्थ | औषध एवं जल की मात्रा - सामान्य बाजारु अत्तार छटाँक भर औषध में दो सेर तक र्क प्रस्तुत कर लेते हैं। यह अत्यंत निर्बल होता है । अस्तु स पंद्रह तोले से १ सेर अर्क निकालना श्रेष्ठतर है यदि पाव भर श्रीषध हो और दो सेर अर्क निकालना हो, तो लगभग ४ सेर पानी में औषध भिगोएँ, तत्र दो सेर अर्क निकलेगा । '' यदि श्र में दुग्ध भी सम्मिलित हो तो. उसको प्रातःकाल चक्रं निकालने के समय मिलाना चाहिए | यदि अर्क के योग में कस्तूरी, केशर तथा श्रंवर श्रादि के समान सुगंधित द्रव्य हो, तो उनको पोटली में बाँध कर ( वारुणी यन्त्र द्वारा श्रर्क्र चुमाने की दशा में ) टोंटी के नीचे इस प्रकार लटकाएँ कि ' उस पर बूंद बूंद पड़े और फिर उससे पककर वर्तन में एकत्रित हो । परन्तु यदि भभका द्वारा अर्क चुधाना हो तो मैचे के सुख में रखना चाहिए। यदि श्र में गिरियाँ पड़ी हो तो उनका शीर निकाल कर अर्थात् उनको पानी में पीस छान कर डालना चाहिए । अर्क के समाप्त होने के लक्षण इस बात का जानना अत्यन्त कठिन है कि समाप्त हो गया या नहीं । श्रस्तु इस वात के जानने के लिए कुछ कौड़ियाँ ( कपर्दिकाएँ ) डेगमें डाल देनी चाहिएँ । जिस समय जल समाप्त होने के समीप होगा, ध्यान देकर श्रवण करने से कौड़ियों का शब्द ज्ञात होगा । उस समय तत्क्षण अग्नि देना बन्द करदे | इसकी एक परीक्षा यह भी है कि जब श्र समाप्त होने को होता है तब वह अत्यल्प और विलम्व से आता और जल की ध्वनि कम हो जाती है। नोट - श्रकं सवण विधान के लिए व For Private and Personal Use Only Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir গন্ধ লাইন श्रीर विविध यंत्र विधान अर्थात् तसाधनोपकरण, (Meancholia) के सम्पूर्ण भेदों में लाभप्रद ननर्माण-क्रम, इतिहास एवं उपयोग प्रभृति हेतु है। उक्र करावादीन (अम म हम) से उद्धत है। देखिए-बामणो (नाडिका) यन्त्र । आयुर्वेदीय । योग---कीकर स्वक् धोकर साफ किया हुश्रा अर्को के लिए देखिए अर्क काश। १० सेर, गुड़ . मन (शाहजहानी), पानी (१) अर्क--उस्लोन हम १२ तो, ४ मशक । इन सबको मटके में डालकर भूमि में गुलाब ५ स०, मुनक्का, गाव जुबान प्रत्येक १०तो०, गाड़ दें और उसके नीचे किञ्चित घोड़े को लीद हलेला स्याह पावभर, धनियाँ शाक तीनपाय डाल दें। जब लाहन उठ पाए अर्थात् सन्धानित (51) और पोस्त हलेलाजद १ सेर । सम्पूर्ण . हो जाए तब ३० सेर एकाग्नीय अर्क खींचें । श्रोषधियों को नीन दिन-रात जल में भिगोकर . पुनः लौंग ६ मा०, जायफल, जावित्री, दारचीनी ७ सेर अर्क वींचें। नुन्द व शीरी, इलायची छोटी और खस प्रत्येक गुण-वातरोग तथा शिरोरोग को नष्ट १ती०, चन्दन चूर्ण २ तो०, गुलाब तो० । इन करता है, हदय तथा भामाशय को बल प्रदान श्रोषधियों को एक रात-दिन उन अक' में भिगी करता और शिर की ओर याप्पारोहण को रोकता रक्स्चें । दूसरे दिन २० सेर द्वयाग्निकार्क खींचें। पुनः उक्र लौंग, जावित्री प्रभृति प्रोषधियों को अर्ध मात्रा में लेकर द्वयाग्निकार्क में एक रात दिन (२) अर्क-उपयुक गुणधर्म युक्र है। योग-गुलगावजुमान २ तोला, गावजुबान, भिगोएँ और दूसरे रोज १२ सेर ग्रयाग्निकार्क खीचें । यदि ३ मा० गुलाब का इत्र भपके में गुलाब, कासनी बीज प्रत्येक २ तो०, शाहनरा डाल दें तो उत्तम होता है । कुछ दिन बाद ३ तो०, उस्तोख हस, अफ़तीमून ( पोटली में , उपयोग में लाएं। बाँधकर ) प्रत्येक मा०, बिल्लीलोटन, बम्नाइज -पिस्ती, दरूनज-अरबी, हनधर्मनी, गिले गण-हकीम मुहम्मद जाफ़र अक्बराबादी अर्मनी, गुल सेवती प्रत्येक ७ मा०, पोस्त हलेला उक्र अर्क को प्रस्तुन कर ४० दिवस पश्चात् काबुली, धनियाँ शक, गल नीलोफर प्रत्येक खमकान ( मूर्छा रोग), हृदय को निर्बलना, 10॥ मा० । इनको दो रात-दिन जल में भिगोए मालीवालियाए मराको और शारीरिक निर्बलना रक्खें । तदनन्तर ५ सेर अर्क खींचें। की दशा में गुलाब और मिश्री के साथ अग्नि ' (३)अर्क-गुलकेतकी १ तो०, गुलसेवनी, लगाकर शीतल होने पर पिलाते थे। इसकी गुल गावजुबान प्रत्येक २ तो०, गलेनीलोफर, धनियाँ विधि निम्न है-- शुक प्रत्येक १० तो० ! २ रात-दिन जल में भिगा- ___ मद्य १० तो० को चीनी के प्याले में डालकर कर ५० सेर अक़ खींचें । उष्ण प्रकृति बाले के मिश्री और गुलाब प्रत्येक ४ तो. को परस्पर . लिए इसमें कपूर की वृद्धि करें, इससे बहुत लाभ . मिलाएँ और शराब को आग लगा कर गुलाव होता है। कभी कभी कपूर के साथ वंशलोचन, .. में घोली हुई मिश्री उममें डाल दें, और चमचा सफ़ेद भी यथोचित मात्रा में सम्मिलित किया से चलाएं जिसमें अग्नि बुझ जाए । शीतल होने जाता है अथवा उक्र अर्क का "क संकाफ़र" या पर पीएँ और ४-५ घड़ी बाद भोजन करें। "क संतबाशीर" के साथ उपयोग किया जाता है। इ. ००। गुण - हृदय गर्व मस्तिष्क को बल प्रदान अक अजवाइन aarg-n.javain-अ०, फा० करता है। । अजवाइन का अर्क, यमान्यर्क। (४) अर्क-हकीम काज़मअलीखां सदा निर्माण-विधि-तुरूम अजवाइन १॥ पोड, यह अर्क तैयार करते थे | दो बार लेखक के अनु- जल ३ क्वार्ट। अर्क की विधि से ४ घंटे तक भवमें मी 'पाचुका है और मातीस्वीलिया अर्क ग्वींचें। For Private and Personal Use Only Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - अर्क मजवाइन मुरक्य १२० মুক্ত লম্বা কাস্থ मात्रा व उपयोग विधि-एक एक पाउंस निर्माण-विधि--सत अजवाइन, सतपुदीना, (२॥ तो०) की मात्रा में थोड़ो थोड़ी देर पश्चात् कपूर प्रत्येक एक तो० सम्पूर्ण औषधों को उपयोग करें। शीशी में डाल कर धूप में रक्खे', अक्क तैयार हो गुणधर्म-आक्षेपयुक्र उदरशूल में लाभदायक । जाएगा। तथा परीक्षित है। मात्रा व सेवन-विधि-४-५ वद, विशू. अर्क अजवाइन मुरकर (जदीद) aast-tajav.. चिका, उदरशल तथा ज्वर में अक यादियान áin murakkab jadid'-70 797 ! १२ तो० के साथ या बताशा या शर्करा में मिश्रित यमान्यर्क। मिला कर बरतें। विशचिका में एक-एक घंटा निर्माण-विधि-दारचीनी, अजवाइन देशी । बाद ऐसी खुराक दी जाए । जब बमन तथा प्रत्येक २० तो०, गावज बान १ सेर । सबको २४ । अनिसार बन्द हो जाएँ तब औषध देना बन्द कर घंटे नर रखकर अर्क स्वींचें और पुनः इस अर्क में दे। यदि एक-दो मात्रा से पाराम न हो ना उपयुक औषध २४ घंटे तर करके दुबारा अर्क स्थानीय चिकित्सक को बुलाएँ । किन्तु, विशृखींचें । चिका के दिनों में स्वास्थ्यरक्षा हेतु एक मात्रा मात्रा एवं उपयोग-विधि--एक एक ता० प्रयोग में लाया जाए। शिरःशल में कनपुटी यह अर्क सिकाबीन सादा १ तो० मिलाकर (शंख ) पर लेप करें और चार बृद ताजे सवेरे-शाम दिन में तीनवार या यथा अावश्यक पानी के साथ पी ले'। बाद या इंदशल हो तो चार चार घंटे के अन्तर से पिलाते रहें। रूई का काया इसमें तर करकं बेदना स्थल पर गुणधर्म-विशूचिका में लाभदायक है। लगाएँ । वृश्चिक एवं तलैया के काटने पर भी वमन तथा प्रतिमार को लाभ करता है। हर्ष. इसे दंश स्थान पर लगाएँ। जनक एवं हृय है। गणधर्म-कई संगों पर तात्कालिक लाभ अर्क अजवाइन सादह, 'जदीद' aarq-ajav प्रदर्शित करता है । संक्रामक तथा आहार-विकार ain sadah jadid'-अ०, फ़ा. नूतन जन्य विशचिका के लिए बहुत गुणदायक है। सामान्य यमान्यर्क। प्रत्येक माति की वेदना चाहे वह कान में ही चाहे दाद में या प्रामाशय में हो. शिर में ही निर्माण-विधि----अजवाइन २॥ सेर रात को भिगोकर सवेरे १० बोतल अकं खीचें। पुनः अथवा किसी भी स्थानमें हो नुरंत नष्ट होती है । प्रामाशयिक विकार या प्राडार जन्य विकार इसमें २॥ सेर अजवाइन डालकर रात को तर कर दें, और सवेरे १० बोतल अक खींच के कारण जो बर हो जाता है उसको यह दूर करता है। ति० का० १ भा०।। मात्रा व उपयोग-विधि प्रामाशय तथा अर्क प्रअधार aarq-anjabar-अ० अबार श्रोत्ररोग में जवारिश बस्बासह (जावित्री) मूल, अञ्जबार की जद-हि। ( Pyrethri ५ मा० के साथ और यकृद्रोग में माजून बी. दुलवर्द के साथ यह अर्क १॥ तो० की मात्रा में अर्क अनन्नास जदीद aarq-ananas.jaपी लें। dil-अ० नृतन अनन्नासाकं । गण-धर्म-आमाशय शूल, अजीर्ण, उदरा- निर्माण विधि-स्वमायुक्त अनघा १२ अदन, ध्मान, जलेन्दर तथा यकृत की शीतलता के लिए सौंफ १ सेर, प्याज खेत २ मेर सब को एक यह अर्क अत्यन्त लाभदायक एवं शीघ्र साथ देग में डालकर उपर इतना पानी डालें प्रभावकारी है। कि चार अंगुल ऊपर रहे। तदनन्तर प्रभोचित अर्क अजीब aarq.da.ji b-अ० विलक्षणार्क। विधि से अर्क खींचें । मात्रा सेवन विधि For Private and Personal Use Only Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अक अनी अर्क अम्बर जदीद - तो० अर्क में मिश्री : शर्बत बरी २ तो०। पूर्वावस्था पर लौट प्राए। इस प्रक' के अत्यन्त सम्मिलित करें। विस्मयकारक प्रभाव अनुभव में पा रहे हैं। गुण-धर्म-यस्त्यश्मरी के लिए अत्यन्त | योग-मिश्क ख़ालिश ४॥ मा०, अम्बर लाभदायक हैं। प्रश्ब, मस्तगी रूमी प्रत्येक ६ मा०, वर्ग हाँ अर्क अनोaar-amistin-० अर्क बादि नवीन, नागरमोथा, तज, .खुश्क धनियाँ, गुले यान रूमी, रूमी सौंफ का अर्क । एक्का एनिसाई । गाव जुबान गीलानी, अनी , दरूनज अकवी, (Atta Anisi.)-ले० । देखो-अनी ।। पिस्ता वाहत्वक् प्रत्येक १ तो० १०॥ मा०, जनअर्क अफ़ीम aarafini बाद, अगर, कन्चाबह, बन्दा, छड़ीला, बाल छन, अर्क अफ्यून aarq-afyān अफीम का बहमन सुर्ता, ब्रहमन सफेद, शक्काक़ ल मिश्री, अर्क । एक्का ओपियाई (Aqua Opii.) : नेजपात, दारचीनी, जाफरान, लौंग, बूज़ीदान, -ले० । देखो-अफ़ीम (वा पोस्ता)। गुलाब, वंशलोचन सद, बड़ी इलायची, छोटी अर्क असन्तान aarcafsantin-'अ० अफ़ इलायची, नृब, पास्त उग्रज, अब्रेशम कतरा सन्तीन रूमी श्राध सेर को अगुलाब ३ सेर में : हुमा, श्वेन चंदन प्रत्येक २ तो०, ताजे विलारात को भिगो दें। सबेरे २ सेर पानी और डाल यती सेवका पानी ॥ ( अाध सेर अालमगीरी), कर ४ बोतल अक़ खींचे। पुनः उक्र पार्क में तुर्श अनार का पानी १ सेर, अक़ बेदमुश्क, अफसन्तीन रूमी अाध सेर नथा अर्क गुलाब . अर्क' गाव जुबान, अर्क बादरखवूयह (बिल्ली३ सेर और पानी दो सेर डालकर दोबारा ४ . लोटन) प्रत्येक २॥ सेर, गुलाब किस्म अव्वल | बोतल सक्त खींचें। कूटने योग्य पोषधियों को कूटें और सब को मात्रा व सेवन-विधि--डेद तोला यह अर्क, अक्रों के साथ एकत्रित कर रात को सुरक्षित रखें। अक्र सौंफ ६ तो० और शर्बन कसूस २ तो. सवेरे सेव और अनार का पानी सम्मिलित कर सम्मिलित कर पिलाएँ। देग में डालें तथा अम्बर व मिश्क को नीचे के कण-धर्म-यकृतिकार ( शोध व कादिन्य), मुंह में रखकर थक खीचें । के कारण जो ज्वर होता है उसमें यह अक्र बहुत मात्रा-कहवे की एक प्याली से प्याली गुणदायक सिद्ध होता है। यकृत का शोधनकर्ता तक । तथा (सांद्र) स्थूल दोषों से शुद्ध कर रसे स्वा नोट-चिकित्सक को रोगी की प्रकृति के भाविक दशा में ले पाता है । सामान्य अर्क अक् अनुसार इस अर्क में परिवर्तन करना योग्य है। सन्तीन से यह कहीं अधिक लाभप्रद एवं सीघ्र अस्तु, आमाशय पुष्टि हेतु मधुर बिही का पानी प्रभावकारक है । यह अति तीव्र प्रभावकारक है। १ सेर, तथा उसे उष्णता पहुँचाने एवं बन प्रदान इस की मात्रा करने के लिए बहारनार तो० १०॥ मा० अपथ्य-घृत, तैल और अन्य तैलीय पदार्थ । और अतिसार को रोकने के लिए गुज सिअद या तथा लाल मिची से परहेज करें। सिञ्जद समावेशित करें । इ० अ०। अर्क अम्बर aurq-aambar-१० मज्मश्रा से उधन है। हृदय व मस्तिष्क एवं उसमांगों को अक अम्बर जदाद ३arqaamibar-jadid बल प्रदान करने के लिए अनुपमेय है। मूच्र्छा ! -अ० नूतन अम्बरार्क । को नष्ट करने और शक्ति को पुनरुज्जीवित करने के निर्माण-विधि-मिश्क ५ माछ, अम्बर • लिए शीघ्र प्रभावकारक है। प्रस्तु, कई स्त्रियाँ मा०, मस्तगी १८ मा०, वर्ग रेहाँ ताज़ा, नागरघासवाधिक्य के कारहा सधा कई पुरुष अर्श में । मोधा (मुद कोफ्री ), धनियाँ शुल्क, गुलेअत्यधिक रक्तस्त्राव के कारण अन्तिम दशा को गाव जुबान, अनीसू, दरूनज अकबी, जर्मवाद, पहुँच चुके थे; किन्तु इस चक्र के पीते ही अपनी पिस्ता बाह्यत्वक् , ऊदगी, कबाबचीनी, छडीला, For Private and Personal Use Only Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अक अम्बर वारीम अर्क प्राशोब चश्म बालछ, अमन सुख, बमन सफ़द, शकाल ल, अक अस्वद वाग्दि arransvad-bavid.अ. दारचीनी, तेजगत, लोंग, बूजीदान, गुले सुख, उष्ण प्रकृति वालों के लिए उपयुक्र एवं प्राहाद व बंमलाचन, इलायची छोटी तथा बड़ी, अल्फ : प्रफुल्लताकारक है । मालीखौलिया तथा मराक के हिन्दी, पोस्त उत्रज, रेशन कतरा हुअा, सफेद रोगियों के लिए और जले हुए वायु के लिए चंदन प्रत्येक ४५ मा०, केशर १०६ मा०, लाभदायक है सेब का पानी, सेर, खट्टे अनार का पानी निर्माग-कम-गुड़ ६७॥ मेर, बबूल की २मेर, अक गाव जुबान, अक' बेदमिश्क, अर्क छाल ६७५ तो० दोनी को मटके में डालकर इतने बादरनबूया प्रत्येक ५ मेर, अक गुलाब १० सेर । जल में भिगाएँ कि तिहाई मटका शेष रहे । जो औषध कूटने योग्य हैं उन्हें कूटकर रात को तदनन्तर मटके को घोड़े की लीद में गाड़ दें श्रकों में भिगोएँ । सवेरे सेबका जल, अम्ल अनार और रख छोड़ें । यहाँतक कि उसमें जोश (संधान) का जल सम्मिलित कर अम्बर व मिश्क पोरनी में । श्राने के बाद स्थिरता अाजाए। इसके बाद प्रक्र बाँधकर नीचे के मुंह के भीतर रखें और अक्र | खींचें और पुनः उक्र अर्क को एक बर्तन में खींचें । पुन: उपयुक अक्रों के स्थान में उक्त अक्र! डालो तथा चन्दन का बुरादा, शुष्क धनिया में उतनी ही श्रीपधिया रात को भिगोकर दोबारा प्रत्येक ७॥ तो०, गुल नीलोफ़र १५ तो०, बहेड़े अक़ स्वींचें। की छाल, श्रामला गुठली निकाला हशा प्रत्येक ३७॥ तो०, गुलगाव बान, तुरूमकह मात्रा व सेवन-विधि-दो तोला यह अर्क । प्रत्येक ४५ तो०, मरज़ तुरूम कद, अधकुटा ७५ तो०, अन्य उपयुक औषध के साथ । तुरूम कासनी अधकुटा, तुम व फ़ो छिला हुआ, गुण-धर्म-उत्तमांगों को बलप्रद तथा मूळ मरज तुख़म खीरा अधकुटा प्रत्येक १० तो०, में लाभप्रद है। अर्श तथा मासिक स्रावाधिक्य पास्त हलेला काबुली, किनब बेद के कारण हुई अशक्रता को दूर कर पुनः शक्ति का ( जंगली बंद के फल और फूल ) व सञ्चार करता है और कामोद्दीपक भी है। ति० । बहार प्रत्येक ११२ तो० ६ मा०, गुले सुत्र फा० १ भा०। ११। सेर । सम्पूर्ण श्रीपधों को उक्र अर्क में २४ ___ नोट---इसी नाम के कुछ अवयव तथा मात्रा । घंटे भिगो रखें। तदनन्तर अर्क खींचें । अर्क खींकी न्यूनाधिकता के सहित कई एक और योग भी : चते समय अम्बर ग्रहब १ मा० नीचे के मुंह हैं जो विस्तार भय से यहाँ नहीं दिए गए। में रखें। इ० अ०। अर्क अम्बर बारोस aargambar-barist. अर्क श्राशोध चश्म alqasbob.chashmil ___-अ. यह अक़' आमाशय एवं यकृत को पुष्टि । - . प्रदान करता है, पित्तकी तीक्षणता को नष्ट करता -अ० चक्षुः शूल नाशक घोल । तथा नुधा की वृद्धि करता है। निर्माण-कम-अर्क गुलाब शुद्ध २॥ तो०, सिल्वर नाइट्रेट ( रजताम्ल, चाँदी का तेज़ाब, - निर्माण-विधि---जरिश्क गुठली निकाला रजतनत्रेत)२ प्रेन (१ रत्ती) दोनों को मिलाकर हुआ ६७५ तो० को २४ घण्टे पानी में भिगो नोलवण की शीशी में रखें। रखे। पुन: उसमें ६ तो० ॥ मा० लौंग पीसकर समावेशित मात्रा तथा सेवन-विधि-दो तीन बूद करें और थोड़ा सिर्कहे अंगूरी (अंगूरी सिर्का ) जो जरिश्क की दुखते हुए नेत्र में टपकाएँ। चौथाई से अधिक न हो सम्मिलित कर विधि गणधर्म-हर प्रकार के अास्त्र प्राने अनुसार अक़ खींचें। यदि इसमें थोड़ी सी चना (अभिष्यन्द, नेत्र दुखने) में अत्यन्त लाभदायक की भस्म मिलाले तो म्वादिष्ट हो जाएगा। है। विशेषतः रोहों ( कुक्करों ) के लिए और उस इ००।। . दशा में जब कि नेत्र से कीचड़ अधिकता के For Private and Personal Use Only Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्क क तान अक आसफ़ साथ निकलता है तब यह अत्यन्त लाभ पहुँ.. भिगो रखें और दूसरे सबेरे दोबारा अर्क खींचें । चाता है। मात्रा व सेवन-विधि-३ तो० अावश्यकता. अर्क आसफ aarg.isaf-अ० बीख़ कबर । नुसार अनुपान रूप से उपयोग में लाएँ। (The root of Capparis spinosa.) गुणधर्म-अर्क इलायची के सदृश । अर्क श्रासव aalasava-अ० अर्क उश्वह aarn-aushbah-अ० उश्वा का निर्माण-कम - गुड़ ५ सेर, कीकर को छाल अर्क। निर्माण विधि---उश्वह मारबी सवा१२ सेर, मटके में डालकर अग्नि पर रखें। जय सेर और चीबचीनी सवासेर को रात्रि में उष्ण जोश आजाए तब बेलगिरी २० तो०,लोध,अतीस, जल में भिगोकर सवेरे ४० तो० अर्क खीचें । मोचरस प्रत्येक ४ तो० ८ मा०, पिस्ता बाह्य मात्रा व सेवन-विधि-७ तो० अनुपान स्वक, नागरमोथा, बाल छड़, पोस्त तुरन, जर्नबाद रूप से व्यवहार में लाएँ। प्रत्येक २ तो० ४ मा०, चंदन का बुरादा, गुलाब, खस प्रत्येक १० तो०, प्रामला प्राधसेर, माजू गुणधर्मवायुजन्य रोगों में गुणदायक है । जौकुट किया हुश्रा १ तो० २ मा० । सम्पूर्ण संधिवात, उपदंश और सूज़ाक के लिए लाभदायक औषधों को मिलाकर विधि अनुसार अर्क खींच है, रक की शुद्धि करता एवं फोड़े फुन्सी की शिकायत को दूर करता है। नोट-द्विमाग्नेय बनाना हो तो उक्र श्रौषधों अक उवह मुरकब aarqaushbah-mu. को २४ घंटे मद्य में भिगोकर डालें। lakkab-अ०, मिश्रित उश्वार्क निर्माणकभी कभी कीकर की छाल ८ सेर, जामुन की। विधि-उश्वह, ३० तो०, बुरादा चोबचीनी, छाल २ सेर और संभल की छाल २ सेर डाली। शीशम का बुरादा प्रत्येक एक पाव, गुलयनासा, जाती हैं। गुल नोलोफर, गुलनीम, गुलसुन, गाव बान, मात्रा और सेवन-विधि-६ ता०, शर्बत शाह तरा, चिरायता, मुडी, सरनोका, हन्छल श्रास २ ता० के साथ व्यवहार में लाएँ। गोखुरू, श्वेतचन्दन का बुरादा, लाल गुणवर्म-ग्रामाशय-पुष्टिकर तथा प्रासाद. चन्दन का बुरादा प्रत्येक प्राध पाव, पीली हड़का जनक है एवं श्रामाशयिक अतिसार के लिए बक्कल, काबुली हड़ का बक्कल, बर्ग सना, बर्ग लाभदायक है। हिना प्रत्येक ५ ता० सबको १५ गुने जल में २४ घंटे तर कर के जल का दो तिहाई भाग अर्क अर्क इलायची aarty.ilayachi-अ० वृहदेल का प्रस्तुत करें। निर्माण-विधि-सवासेर बड़ी इलायत्री को रात को पानी में भिगोएँ और सवेरे २५ बोतल अर्क : मात्रा व सेवन-विधि-सवेरे शाम दोनों खींचें 1 समय ७-७ तो. उन अक़ में' शर्बत उश्नह', या मात्रा व संवन-विधि-१०-१२ ता. उप शर्वत चोपचीनी २ तो० सम्मिलित कर पिलाएँ योग करें। गुणधर्म-इसमें आश्चर्यजनक रक्रशोधक गुणधर्म-उल्लासकारक तथा हृद्य, विशूचिका प्रभाव अन्तर्निहित है । उपदंश, रक्रविकार तथा बान्ति एवं अतिसार की दशा में लाभदायक और अन्य वात रोगों में लाभदायक है। वायुलयकर्ता है। 1 arq-qatran-70 Tar अर्क इलायची,-जदीद āarqilayachi-,jaditd: Watter (Aqua picis) देखो-क त्रान । -नूतनैलार्क । २॥ सेर इलायची को रात को जल ! अर्क कन्दी aary-qandi-१० उल्लास एवं में भिगो दें और सवेरे २५ सेर अर्क खींचें । पुनः प्रफुल्लताजनक प्रभाव में इससे उत्तम तथा स्वाउतनी ही इलायची उक्त अर्क में डाल कर रात्रि को दिष्ट कोई दूसरा अर्क नहीं । यह हृदय एवं For Private and Personal Use Only Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्क करावियह ५२४ अर्क निर्मात मस्तिष्क को शक्रि प्रदान करता है, खुमार बिलः रात को जल में भिगोएँ तथा सवेरे २० बोतल कुल नहीं लाता और नही कोई गंध रखता है, अर्क खींचें। कामोहीपन करता एवं प्राहार का पाचन क मात्रा व सेवन-विधि-१२ तो० उपयुक्त रता है। औषध के साथ सेवन करें। यांग व निर्माण-क्रम-गुड़ एक मन जहाँ. ! गणधर्म-र मथा पित्त की तीक्ष्णता को गरी, कीकर की छाल 5 सेर जहाँगीरी, पाव. दूर करता है तथा नृष्णाशामक व पित्तज शिर:श्यकतानुसार शुद्ध स्वच्छ जल के साथ एक मटके । शूल को लाभ करता है। में डाल रखे। संधानित होने पर ३० सेर एकाग्निक अर्क खींचे। अपथ्य उग्ण वस्तुएँ । नोट-यदि उपयुक अर्क में उतनी कासनी अर्क करावियह, arg.karaviya.h-अ० : कृष्ण जीरका । ( Car away water) और डालकर दुबारा अर्क' खींच लें, तो यह और भी तीव होगा नथा इसको मात्रा तीन-तीन तो० देखो-स्याहजीरा । सवेरे शाम दोनों समय सिकञ्जबीन सादा या अर्ककान्ता arka-kanti-सं० स्त्रो. श्रादित्य शर्बत नीलोफर एक तो सम्मिलित कर पिलाएँ। भक्रा हुलहुल । (Cleome viscosa, इसको अर्ककासनी जदीद कहते हैं। ति. in.)-ले० । रा०नि०व०४ामद. फा १व. २मा० । २०१। अर्क काफ़र aary kafir अ. अर्क किमीत aurq-kibrit-अ. अ कपूर a.ka.ka.pir-हिं० संज्ञान अक गंधक arka.gandhaka l निर्माण-कम-(1) कपूर १ ड्राम, जल . मिट्टी के बर्तन में एक छोटा सा लौह विपाद रख कर उसकी चारों ओर अामलासार गंधकका चूर्ण एक पाइण्ट । कपूर को जल में मिति कर ! रक्खें। फैलाएँ और त्रिपाद के ऊपर एक छोटा सा चीनी मात्रा व सेवन-विधि अावश्यकतानुसार का प्याला रख दें। तदनन्तर बर्तन के मुख पर चीनी अथवा एलीमिनियम का एक इतना बड़ा यह अर्क एक-एक पाउंस की मात्रा में दिन में दो कटोरा रक्खें कि वह बर्तनके मुख पर भली प्रकार या तीन बार । बैठ जाए । पुनः किनारों को गूंधे हुए आँटे से गुण धर्म-पाचक और वायुनिस्सारक ।। भली प्रकार बन्द करदें जिसमें अर्क याप्प रूप में (२) २० ग्रेन (१० रत्ती ) शुद्ध कपूर को : बाहर न निकल सकं । ऊपर वाले कटोरा इतने मद्यसार ( रेक्टिफाइड स्पिरिट )में घोलें कि मेंउंडा पानी भर दे और नीचे मन्दी मन्दी प्राधा श्राउंस (१1 तोला) हो जाए। पुन: अग्नि दें। गरम होने पर ऊपर का पानी बदलते इस घोल में एक ग्रेन परिस्तुत जल क्रमशः । रहें। इसी प्रकार घण्टा दो घरटा तक करें । बाद मिलाएँ। को अग्नि नरम होने पर बर्तन का मुँह खोलकर मात्रा व सेवन-विधि-१ से २ औंस तक ' प्याली निकालें। उसमें अर्क एकत्रित होगा । इसे पिलाएँ । शीशी में सुरक्षित रखें। गुण धर्म-विभूचिका एवं उदराध्मान के गण-धर्म-उचित मात्रा एवं उपयुक्त अनुशन लिए गुणदायक है। के साथ विविध रोगों में इसका आश्चर्यजनक सनो aar-kasani-० कासनी का व लाभदायक वाश तथा आन्तरिक उपयोग होता अर्क। है। जिन सब का वर्णन यही विस्तारमय से नहीं निर्माण-विधि--तुम कासनी सवासेर १ किया गया। For Private and Personal Use Only Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्क कंवड़ा अर्क गजर अम्बरी ब नुस्खहे कलाँ: अर्क केवड़ा aur-kavara- केतक्यर्क। गुण-धर्म-प्लीह काठिन्य व प्राध्मान, रदरनिर्माण-विधि-कंवड़ा की बालें १० अदद शल, धा की कमी तथा यकृनर्बल्य के लिए जल में भिगोएँ और विधिअनुसार अक खींचें। लाभदायक है। मात्रा व सेवन-विधि-५ ना० ऐसही उपयोग मात्रा--२.३तो. या अधिक प्रकृत्यनुकूल । में आता है। अपथ्य - उग्ण पदार्थ । (अक्सी० अ०) गुणधर्म-हृद्य तथा प्रमोदजनक और अक खम्मान aar-khamman-१० खम्मान अम्माशामक है। वैकल्य एवं भ्रमनिवारक तथा : का अर्क । Eldees' flower watel उत्तमांगों का शक्रिप्रद है। | (Agun sambuci )। देखो-खम्मान । अर्क क्रियाज़ट Air-kriyāzit-अ०(Aqua अक खुश्बू alakhuslibu अपक्षाघात, प्रद्धांग ___ereosoti)। देवो-क्रियाज़ट। तथा सम्पूर्ण शीतजन्य मास्तिष्क रोगों के लिए अर्क क्लोरोफॉम aari-k1otoform-अ०सम्मो. लाभदायक है। हिन्यर्क | Chloroform frater(Ajla. . ___ योग य निर्माण-विधि-दालचीनी, गुलchlorolormi) | देखी-क्लोरोफॉर्म । सेवती प्रत्येक ४ सेर, जायफल, जावित्री प्रत्येक अर्क खर सुल हदाद air-khabsulhsdil : २ सेर, छालिया, अगर प्रत्येक प्राधसेर, केशर -१८ मण्डरार्क, मराडूर का अर्क। तो० और श्वेत तथा सुगन्धित पान के पत्र निर्माण-विधि-(1) पुरातन मण्डर . १०० अदद । सबको थोड़ा कूट कर ७ सुराही बारीक किया हुश्रा १ छं, पीपल, सुहागा, साल, अक लौंग ( जो कि अक गुलाब में लौंगों को नौशादर कूटा हुआ प्रत्येक १।। तो०, पुराना गुड़ भिगोकर खींचा गया हो)में भिगोकर दो रातदिन श्राधसेर, मवेज़ मुनक्का १ सेर, घृतकुमारी स्वरस : रख छोडे । तदनन्तर अक खींचें और उसका ५ सेर । सम्पूर्ण औषधों को मर्तबान में डालकर इत्र लेकर पृथक् सुरक्षित रक्खें तथा उसके अक उसका मुंह बन्द कर दे और गेहूँ की रास को बोतल में डालकर पृथक, सुरक्षित रक्खें । अथवा भूसा में गाड़ दें । ग्रीष्म ऋम में १५दिवस के पश्चात् तथा शरद ऋतु में २१ दिनके मात्रा-सवेरे शाम दो दो तो. पिलाएँ । बाद निकाल कर ऊपरी जलीय घेल धीरे धीरे यदे मदकारक बनाना चाहें तो अक लौंग के छान ले और बोतल में रखें। स्थान में अक कन्दी या अर्क खुमा (छुहारा) गुण-यकृत नैवल्य, पाहावृद्धि, पाण्डु तथा में भिगोकर बनाएं शोथ के लिए परीक्षित है। अर्क गज़र अम्बरीच नुस्वहे कलाँ aar.ga. __ मात्रा . सवेरे-शाम १ ई. की मात्रा में zar. ambarí ba-nuskhaheपिलाएँ । (सरियह ) kalan-अ० गर्जरा विशेष । (२) अजवाइन, पीले हइ का बक्कल प्रत्येक निर्माण-विधि-गाजर ५ सेर, किशमिश, ७ छ०, मगडर १०॥ छं०, श्रीगध य को यव मवेज़ मुनक्का प्रत्येक २॥ सेर, बिही, सेब प्रत्येक कट करके ऐसे बर्तन में जिसमें प्रथम घृत प्रभुति प्राधसेर, मीठा अनार एक सेर, गुले सुत्र, इलाचिकनी वस्तु रखी गई रही हो रक्खें और उसमें । यची छोटी व बड़ी, लाल व सफेद चन्दन, अबरेएक सेर गुड़ 10 सेर मीठे पानी में घोलकर शम ( कतरा हुश्रा), वर्ग हॉ, शुष्क धनिया, समावेशित करें। फिर घोकुधारका स्वरस प्राधसेर गावजुबान, तुम कासनी, तुम हयारेन प्रत्येक डाल कर बर्तन का मुँह बन्द करके किसी गड़े में ५ तो०, अर्क गुलाब, अक केवड़ा, अर्क घोड़े का लीद के बीच स्थापित करें । तीन सप्ताह गावज़बाँ प्रत्येक २ सेर ! केशर १ तो०, मिश्क पश्चात् निकाल शद्धकर बोतल में रक्खें। (कस्तूरी) तथा अम्बर प्रत्येक ३ मा० को पोटलीमें ७६ For Private and Personal Use Only Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अ गजर जदीद ६२६ बाँधकर निम्न मुख पर रख कर विधि अनुसार ! अक खींचे' । पुनः उक्त अक में उपर्युक्त अर्को के सिवा शेष सम्पूर्ण श्रोषधियाँ डालकर दोबारा अर्को खींचें । मात्रा व सेवन - विधि-तीन नो० उक्त ग्रर्क को १ मा० शत श्रनार के साथ पान करें । गुण-धर्म- हृद्य, मेघा जनक, कामोद्दीपक, शुद्ध रक्र, उत्पन्न करता तथा प्रमोदकारक है और इसके उपयोग से मुख मण्डल पर रक्कामा झलकने लगती है 1 अर्क' गज़र 'जदीद' ãarqgazar 'jadid' 'अ गावजुवाँ aargavazubán-श्रु० गात्र- ० नतन गर्जरार्की । जुका निर्माण क्रम- गाजर २ सर, गावजुदान ४ तो०, गुलगाव जुबान २ त०, सफेद चन्दन ३ तो० ६ मा०, तांदरी सुखं, बहमन सुर्य, ब्रहमन सुफ़ेद प्रत्येक २ तो० ३ मा० सबको पानी में भिगोकर २० बोतल के प्रस्तुत करें। पुनः उतनी ही श्रौषध उक जल में भिगोकर अर्क खींचें । S मात्रा व सेवन-विधि ५ तो० अनुपान रूप से उपयोग करें । गुण-धर्म- प्रमोदजनक, बलकारक एवं उत्तापशामक है और मूच्छ तथा विभ्रम को दूर करता हैं । निर्माण क्रम- १-२ तो० दिन में ३ बार व्यवहार करें | गु गुणधर्म-- हृदय तथा मस्तिष्क को बल प्रदान करता और मूच्र्छानाशक है । श्रृ गन्धक aarg-gandhaka - देखोकी। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्क गन्धिका kagandhiká-सं० स्त्री० ( Ipomoea digitata.) पनाल कुम्हड़ा, भूमि कुष्माण्ड । प० मु० । अक गज़र मुरक्कच 'जदीद' aarq-gazarmurakkab jadid'- fafe a गजे । निर्माण विधि-छिला हुआ गाजर १ सेर, बर्ग गात्रजुबान २ नॉ०, गुलेगाव ज़ुबान १॥ सो०, सफेद चन्दन १ || तो०, बहमन सफ़ेद, तोवरी सुखं प्रत्येक १ तो सबकी मिश्रित कर : एक दिन-रात यथोचित जल में भिगांकर विधि प्रस्तुत करें। तत्पश्चात् प्रति अनुसार बोतल के हिसाब से टिंकचर बिलाडोना ८ मा०, स्पिरिट अमोनिया ऐरोमैटिक १६ मा० और स्पिरिट श्रॉफ कोरोफॉर्म २ ना० भली प्रकार मिश्रित कर रख लें। अगर कर्ज़ी aarq-ghár-karzi-अॅo देखी-चेरी लॉरेल वाटर ( Cherry laurel water. ) । निर्माण क्रम- गावब 21 सेर रात को जल में भिगोकर सवेरे २० बोतल अर्क निकाले । मात्रा व सेवन विधि -- १२ तो यह अ उपयुक्त औषध के साथ सेवन करें । गुणधर्म - उत्तमांगों को बल प्रदायक तथा शारीरोपमानाशक है और हृदय प्रफुल्लकारक, तृष्णा शामक तथा बात रोगों में लाभप्रद है । अर्क गायजुबाँ “जदीद” aarq.gávazuban “jadid”- श्र० ननन गाव जुबों का अक । निर्माण विधि - गावों २ || सेर रात को अल में भिगो और सवेरे यथा विधि अर्क प्रस्तुत करें | फिर २ || सेर गायजुबाँ उक्क थक में और भिगोकर दूसरे दिन दोबारा अर्क परिस्रत करें । मात्रा व सेवन विधि-- ३ तोला । गुणधर्म -- उनमांगों तथा शारीरोधमा को बलगढ़ | हृदय प्रमोदकारक, कृष्णा शामक तथा यात रोगों में लाभ पहुँचाना है। गुल से भलg-gule-senbhal-ro शाल्मली पुष्पार्क । अत्यन्त बलवर्द्धके, क्षुधाकामोद्दीपक तथा जनक, शिश्न- प्रहर्ष वृद्धिकारक है । निर्माण क्रम - - सेमल पुष्प छाया मं शुल्क किए हुए, इनके समान भाग गुलेसुत्रे तथा उतनी ही गुले मुण्डी और उससे श्राधी गुल चमेली को परस्पर मिश्रित कर गुलाब के समान परिसुत करें। For Private and Personal Use Only Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अक गलाच अर्क जब अक गुलाब 11-9115)--का गलाबजल, अक चौबचीनी ३ati.chothin-chini-फा० गुलावार्क। चौबचीनी का अर्क । इ० अ० | निर्माण-विधि गुलाब के फूल ।। सेर का , अर्क चाबच्चीनी जदीद aar.chobuchini. यथाविधि अर्क परिसन करें jandid-फा० नवीन चोयचीनी का अक्र । मात्रा व सेवन-विधि-७ ता० अनुशन रूप निर्माण क्रम---दालचीनी, गुलेसुख, तुरुम से उपयुक्त औषध के साथ सेवन करें। रैहाँ प्रत्येक ११ तो० २ मा०, लवंग, बालछड़, __ गणधर्म-हृदय, मस्तिष्क तथा प्रामाशय को तेजपात, इलायची, जनंबाद, बादराव्या, गुलेबन्न प्रदान कर्ता है। यकृवेदना, आमाशय तथा गावजुबा, अब्रेशम कतरा हुअा प्रत्येक ५ तो० प्लीहा के लिए गुणदायक और उष्णताजन्य ७ मा०, बहमन सुख व सफ़ेद, सफ़ेद चन्दन, मूर्छा एवं सुषा को लाभ पहुँचाता और . ऊद हिन्दी, छड़ीला प्रत्येक १ तो० ॥ मा०, मागी तथा पाचन विकार का सुधार करता है। : चाबचीनी १ सेर ४॥ छटांक, सेब मीठा १०० अर्क गुले नाम arti.guj-him-का निम्ब. अदद, अर्क गुलाब १ सेर ११ छटांक, मिश्री ११ पुष्पार्क । ना० २ मा० । चोबचीनी को टुकड़ा टुकड़ा करें निर्माण-क्रम-नीम पुष्प नवीन, गिलोय हरी, और सेब को भी टुकड़े टुकड़े करें; कूटने योग्य मरफोका, मराडी, बर्ग शाह नरा प्रत्येक ४ तो०, औषधों को अधकर करें और सम्पूर्ण द्रव्य को ग्वस २ नो०, तुखम काह, तुरुम कासनी, गुल. रात्रि में अक गुलाब में भिगोएँ और मबेरे ८० नीलोफर प्रत्येक १ तो० । औषधों को यथा विधि बोनल जल सम्मिलित कर अक़ परिव त करें । रात को जल में भिगाएँ और सवेरे अक परिस्वत अर्क परिमुति कान में केशर १ नो. ६ मा०, करें । मम्तगी तथा कस्तूरी विशुद्ध हर एक ३॥ मा०, मात्रा व सेवन-विधि बच्चों को ३ से ५ अम्बर श्रश्रय ७ मा० इम मब की पोटली बना नो० पर्यन्त और युवावस्था बालों का श्राध पाव .. कर नेचा के मुंह पर माके के भीतर लगायें । पर्यत यह अर्क शर्बन उन्नाब एक दोनोमिला: द्वितीय बार पुनः उतनी हो श्रीषध लेका उक कर ख़ाकसी छिड़क कर पिलाएँ। अक में भिगोएँ और उपयुक विधि अनुसार गग्मधर्म-रऋविकार, बान और पैत्तिक घर, . पुन: अर्क परिनत करें। चेचक, कुष्ठ और कण्डु प्रभृति के लिए अन्यन्त । ___ मात्रा व सेवन विधि-२ तो० भोजनोपरांत लाभदायक है। घोड़ा थोड़ा पान करें। मूचना-कण्डु आदि में न्यूनानिन्यून २० रोज़ ; गुण-धर्म-उत्तमांगों को बलप्रदान करता, तक उ अक को पिलाएं। आमाशय को बलवान बनाता तथा कामोद्दीपक, अर्क गागिर्द aar-gogirda-अ० गंधकाम्ल, : हृदय प्रफुल्लकारी एवं प्राहार पाचक है। बुद्धि गन्धक का प्रक, गन्धक का तेज़ाब । देवो- एवं चेतना को तीनकर्ता तथा हृदय को प्रसन्न अक किवात । इ० अ०, मि० ख०। रखना है । उन्न कक्षा में रक्तशोधक है। इसके अर्क गोलाई aarq.yolard-गोलार्ड का अर्क। उपयोग में सम्पूर्ण रक्रविकारों की शान्ति होती गोलाई स वाटर (Gouturt's wate:].)। है। ति० फॉ० १ भा०।। -इं० । देखा--नाग (सीसक)। अर्कच्छन्नम् arkachchhannam-सं• क्ली० अर्क चंदनम् arka-chandanam-संकी० अर्कमूल, मदार की जड़ । The root of अर्क चंदन ka.chandana-हिं०संझा ( Calotropis gigantea. ! रक चन्दन, लाल चन्दन ( Pterocarpus | अर्क जञ aarq-jazra-गाजर का अर्क। Suntalum, Linm.) ग.नि.३०१२' इ.अ.। For Private and Personal Use Only Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्क जज सादह. अर्क तम्याक अर्क जज सादह arg-jitzia sitlah-सादह.. मात्रा व सेवन-विधि -- ६ तो० की मात्रा अक गाजर | इ० श्रा। में उन अर्क को सवेरे शाम पीएँ । अर्क जदीद ur]. jadil-अ० नूतनार्क । गुण-धर्म-जितावे तुम (बहुमूत्र रोग ) के निर्माण-विधि-अक पुदीना, अक इला लिए लाभदायक है। यची. मकवादियान प्रत्येक ३ तो०. सिकवीन अक ज़ीर हे विलायता ai.11zirahe-vila. सादा ३ ती०, स्पिरिट अमोनिया ऐरोमैटिक ३० | yati-फा०, उ० अर्ज करा यह , कृष्ण जीरछू द (मिनिम)। सब को शीशी में डालकर भली । काक, स्याह और कायर्क-हि० । (ttaway भाँति हिला जिसमें वे परस्पर मिहिन होजाएँ। wati (All thi) । देखा-कृष्णा मात्रा व सेवन-विधि-३0 अक अष्ट- जीरक या स्याह जीरा । वर्षीय बालक को पिलाएँ । दिन में ऐसी अर्क तपेदिक खा सुलखान air-tarprdin. ३ मात्राएं उपयोग में लाएँ। khasill-khas यमनार्क, राजयक्ष्मा का गगा-धर्म-शिशुनों के उदराध्मान एवं मुख्य अर्क । अजीण के लिए अन्यन्त लाभदायक है। निर्मागा-ऋम-बर्ग वेद सादा अाधा सेर, छिली अक जावदानो aari-jar in lani-१० । हुई मुलेठी । र ( पाय), दानोंको भन्नभलाए हए (मुराब्धी) कद्द जत्न, भलभलाए हुए निर्माण-कम-जायफल, लौंग, बड़ी इला. तबूज जल तथा भलभलए हुए खीरा जल यची, अामला, बाल छह, धवपुष्प प्रत्येक १० प्रत्येक २ पेर, नाजे कमरू का पानी, हरे पालक तो०, दालचीनी २८ तो०, बबृन्त को छाल सम्पूर्ण । के पते का पानी प्रत्येक मर में तर करके औषधी से द्विगुण, गुइ सम्पूर्ण औपधों से चतुर्गुण । सब को एक मटके पानी में भिगो रखें- ' सवेरे सत मुलेगी विलायती, सत गिलो देसी अमली प्रत्येक १ तो. नैच के मुंह में रखकर जब लाहन उठ पाए तो अक परिस् न करें . और काम में लाएँ ! यथा विधि अर्क परिसुत करें। मात्रा व सेवन-विधि-६ ता. इस अर्कमें गुण-धर्म-मूर्छा तथा श्रामाशय पुष्टि के । शर्बत उन्नाव २० मिश्रित कर प्रति दिवस लिए अत्यन्त गुणदायक है । पिलाएं। अर्क जियावे. तुस art-ziyabetus-. गुणधर्भ--राजयचमा नया उरःक्षत रोग के मूत्रमेहार्क। लिए अत्यन्त लाभप्रद है। नाप चाहे अकेले नथा निर्माण-विधि-गिलोय मलज़, बर्गवेदमादा, उरःनत के साथ हो यह दोनों श्रावस्याओं में बर्ग जामुन प्रत्येक एक पाव, गुलनार, तुरूमकाहू, लाभदायक है। तुरूम मी, मीठे कह के बीज की गिरी, माज़ तुम पे., जा तुरुन तबूज़ा, तुटप कामनी, 'अर्क तम्बाकू ritumbiku-अ० तमालार्क, गुल नीलोफर, सफ़ेद चंदन का बुरादा, रक्तचंदन ताम्रकूटार्क । वातग्रस्तता, पक्षाघात, अद्धांग, जलोका बुरादा, खप गुजराती, श्रामला शुष्क, माऊ दर, वायुजन्य उदरशूल के वायुका लयकर्ता, यकृत प्रत्येक ५ तो० । रात्रि में सम्पूण भौषधों को जल तथा मामारीका के प्रवराध का उद्घाटक, जरामें भिगांकर सवेरे इसमें मलमलाए हुए कह, का युस्थ विकृत दोषों का लचकर्ता एवं क्षुधा चित्रपानी, मलभलाए हुए खीरा का पानी, बकरी का द्धन के लिए उत्तम है। श्लेष्मज शिरःशूल और दोग़ प्रत्येक २ सेर, हरी कासनी के पत्तेका फाड़ा श्रामबात के लिए भी गणदायक है। अर्वाचीन हा पानी १ सेर, शुद्ध जल ७ सेर अधिक हाल । विकिसको के .न्वेपित पदार्थों में से है । कर तबाशीर और सफेद चंदन प्रत्येक ६ मा० यांग तथा निर्माण-म-तम्बाकू पीत एवं नैचा के मुंह में लटकाकर अर्क परिनत करें। शुष्क २ सेर १३ छटांक (यदि तम्बाकू हरा हो तो For Private and Personal Use Only Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्क तस्वल ६२४ अर्क तिहाल ८-७ मेर तम्बाकू ले) और अजवायन तथा सातर प्रत्येक १ तो० १०॥ माशा, दालचीनी, लौंग, नख, हाशा प्रत्येक मा० । पत्रको ११1 सेर जल में एक रात दिन भिगोएँ। तदनन्तर अकं परित मात्रा व सेवन-विधि-मधेरे शाम २-२ । नोपिलाए । अर्क तम्बूल iith-tumbul-१० पानका अर्क। निर्माण विधि-गुले सुख, गाय जुयान, पुदीना शुष्क, पका हुआ पान का पत्ता प्रत्येक १ पात्र, नानवाह (अजवाइन ), मानर तारमी, दालचीनी, लौंग, कलिउजन, मांड, छोटी इलायची, ' प्रत्येक ग्राध पाव, अर्क गुलाब ४ शोशा, अर्क' बेदमिश्क, वर्षा जन्न प्रत्येक २ शीशा । सम्पूर्ण प्रौषधों को प्रक तथा वर्षा जल में रात्रि का . मियों दे । प्रातः यथा विधि ८ सेर अर्क परित्रुत करें। मात्रा व सेवन-विधि-३ ना. शर्क अधोरण करके पान करें। गुणधर्भ-उदरशूल, वायुजन्य उदर पीड़ा तथा अन्य वातज वेदनाओंके लिए अत्यन्त लाभ- . (२)चकिया सुहागा, कालीमिर्च प्रत्येक ३ तो०, खाने का नमक, (सेंधा नमक ), काला नोन, नमक तल्ख सल्लेमानी नमक, यादी का रस, घोकुवार का रस, कागती नीबू का रस, शुद्ध सिरका प्रत्येक तो० मिहित कर शीशा के बर्तन में डालकर दस दिवस पर्यन्त धूप में रखें। मात्रा व सेवन-विधि--एक ता० इस अर्क को १२ तो. सौंफ के अक और १ तो. सिकन्ज. बीन ले में मिलाकर प्रातःकाल पान करें। गुणधर्म-प्लीहा के लिए लाभदायक एवं श्राशु-प्रभावकारी है। थोड़े ही दिनों में तिल्ली जाती रहती है । ति० फा०२ भा०। (३) माल्ट (लवण ) १५ ता०, तेजाब शारा (शारकाम्ल ), हरित काई ३ ता०, लोह क्वीनीन ६ मा नेजाब के अतिरिक नीनों औषधों को पीसकर बोतल में रक्खें और प्राधा बोतल पानी डाल कर खुन हिलाएँ। तदनन्तर शोरकाम्ल डालकर अच्छी तरह हिलाएं और रक्खें । अगले दिन बोनल को जल से पूरित कर दें। बस ! अर्क तय्यार है।। __ मात्रा व सेवन विधि-सम्पूर्ण औषध को १४ मात्राओं में विभाजित करें और एक मात्रा प्रति दिवस प्रयोग में लाएँ। गुण-धर्म-यह अक' वातज तथा श्लेष्मज ज्वरों को दूर करता है। विशेष-गण- प्लीहावृद्ध के लिए यह अक अत्यन्त लाभदायक तथा सशक प्रभावकारक है। थोड़े ही दिनों में प्लीहा के शोथ का निवारण करता है। ति० फ़ा० १ भा० । (४) नवसादर, सफेद फिटकरी, सुहागा, कल्मी शोरा प्रत्येक एक तो इन सबको पीसकर घृतकुमारी के पत्र का भीतरी गूदा निकाल कर उक्र पत्र में उपयुके औषधों को भर दें। परन्तु, ध्यान रहे कि उक्र पत्र का निम्न: भाग मजवत रहे । पुनः ऊपर की ओर धागा बाँधकर धूप में लटका दें और उसके नीचे मिट्टी का पात्र रक्खें। उक्र पात्र में जो अर्क टपक कर एकत्रित हो जाए उसे सुरक्षित रक्खें। .. अर्क तिला मुरकब सम्मुल फार ब्रामीनी are-tila murakkab ba sama Ifár bicinini-fato Liquor auri-et Arsenii Bromidi ) देखो-संखिया। अर्क तिहाल aart-tihāl-अ० महाक, प्लीहानाशक अक । निर्माण-विधि--(१)माऊ पत्र १ मेर और बादाबदं २ तोकी अधकुट करके १२ सेर जल में क्वधित कर छान लें । पुनः इसमें गुड़ । सेर मिति कर दोबारा कथित करें । जय । सेर जल शेष रह जाए तब इसको एक सप्ताह धूप में रखकर छानकर बोतलों में रख ले। मात्रा व सेवन-विधि --प्रति दिन प्रातःकाल निराहार मुख ६ तो० से १२ तो पर्यन्त उक्त अर्क पान करें। गण-धर्म-पीहा शोथ को अति शीघ्र लय कर्ता है । ति० फा०२ भा०। . For Private and Personal Use Only Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्क नेजाब ६३० अक पत्रा-श्री-त्रिका मात्रा सेवन विधि--तीन बृम बनामे में ! द्वयाग्नीयार्क, दो बार परिचत किया हृमा अर्क। डालकर सेवन करें। गुण-धर्म-पीहा वृद्धि के लिए अत्यन्त लाभ-: अक नअनअChaanaa-१० दायक है । ति० फा० १ भा० । | अक नअन अफिलिफली aag-3nanaa अक तेज़ाब Aaru-tezab-अ तेजाब का अर्क।। filfili अ० (1) शिवत्र को नष्ट कर्ता, रोग स्थल से | अक नानाika-navi-हिं०. उ० चन को पृथक करता तथा देह के समान नवीन अर्क पुदीना, पुदीना का अर्क। Peppermint त्वचा को उत्पन्न करता है। water ( Aqua Vonthic Pepeयो। ---जाज सफ़ेद (कसीस सफेद) १२ Tait.) देखो-पुदीना (वा रोचना )। भाग, जाज जार्द (कसीम पीत ) २४ भाग, शोरा अक नअ.नथ सज़ ialghannāsabza . ४४ भाग । सबको परसर मिश्रित कर यथा विधि | अक नअन सुम्बुली ३.maanaat प्रक्क परिन करें । श्वित्र स्थल को गाय के शुष्क sumbuli गोबर से रगड़ने के पश्चात् उ जाय का अ० Spyarmint water (Aqua लगाएँ। menth virilis.) देखो-पुदीना । (२) हकीम अली का परीक्षित है। श्वित्र । अक नथनीला aarq-manoi-१० एक्वा को जलाकर तथा उसमें न संजनित कर उसकी 1 मेन्योल (Aur Imenthol. ) देवीअच्छा कर देता है। पुदीना। | अर्क नाम arka-hami-सं०प० रकार्क, लाल. योग-मम्ह पूनिया (कफ प्रावगीना, काँच का झाग ), शोस, कसीस स्याह । इसे यथाविधि मन्दार । Calotropis gigantea (The 1 Vill. of -) परिवृत करें । तीषण नेजाब परिवत होता है। मुर्गी के डैने से रिवत्र-स्थल पर लगाएँ । अ नुक ग -1||-अ० रजताक । 'पर्क तैलम् arka-tailam-सं० कली यह तेल | देखो-रजत। कुडाधिकार में वर्णित है। । अर्क-पलः arka.palth-सं०१० (१) ग्रादित्ययोग-कदा तैल (सरसों का तेल): पल, । पत्र क्षुप, हुलहुल । (Cleone Viseosa.) मदार के पत्ते का रस - पल, हल्दी एक पल ! रा०नि०व०४च.द०। (२) अर्क वृक्ष, और मैनसिल पल । इनका यथाविधि तेल मदार, प्राक (Calotropis gigantra.) प्रस्तुन करें । च. द. कुष्ठ-चि०। सा० अर्कपत्र पस तेलम्।kapatra rasathilim कौ। - सं० क्लो.हि. पाक के पत्तों का रस और हल्दी अक दलः arkh-dalah-सं०० (१) आदित्य के कल्क से सिद्ध किया हुश्रा सरसों का तेल पत्र घुप, हुलहुल । (Cleome Viscoss.) पामा, करछु और विचर्चिका को दूर करता है। रा०नि० व..। (२) अर्क वृक्ष, श्राक, शाङ्ग सं.। ... मन्दार । ( Calotropis gigantea.) । **99 Farf: arkapatra-svarasa hao अर्क दार(ल)चीनी aar-dara,la ,cchini पु. पाक के पके हुए पीले पत्तों में घी लगाकर . दालचीनी का अर्क । Cinnamon water प्राग पर सेककर निकाला हुआ स्वरस गुनगुना . . ( Aqua Cinnamomi. ) देखो- करके कान में डालने से कान का दर्द दूर होता दालचीनी। है। वृ०नि० अर्क दो भातशह, aara-do-atashah-फा० अर्क पत्रा,-त्री,-त्रिका arka-patra,-tri, For Private and Personal Use Only Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अकं पत्रादि ग्रांगः अर्क पुष्प यांगः . trika-सं० स्त्री० ईश्वरमूल वृक्ष, इशरमूल, (२) पान १८ तो० ४ मा०, दालचीनी ज़राबन्दे-हिन्दी, रुद्रजटा, साप्सन्द । (Aris. नं०१ पौने नौ ना०,बहमन सफेद ५तो० १०मा०, tolochia Jndica) प. मु. । र०मा० | इलायची का दाना, जायफल, तोदरी हर एक (२) एक लता जी विष की श्रोषधि है। अर्क ३॥ तो०, वर्षा जल २० सेर। इससे यथा विधि मूल । १० सेर अर्क परिनुत करें। अकं पत्रादियोगः arkapati adiyogah-सं० : मात्रा-चिकित्सक की राय पर निर्भर है । पु. अाक के पसे और लवण को मिट्टी के बर्तन गुणधर्म-पाचनशक्ति को बढ़ाने, कपोलों के में बन्द करके मुखपर कपड़-मिट्टी करके अग्नि में। वर्ण को निखारने तथा कामोद्दीपनके लिए अनुभूत ककर रकाने । इसे मस्तु के साथ पीने से तिल्ली है। अन्य योगों की अपेक्षा कम उष्ण हैं दूर होती है । च० द० उ० चि०। इ० अ०। अर्क-पर्णः rka.parnah-सं० पु० अर्क पान जदीद aar-pain-jadid-१० अर्क-पर्ण iika-parna-हि० संज्ञा पु. . निर्माण-विधि-यांग "अर्क पान नं. " (1) रक्रार्क, लालमदार, सूर्य मन्दार-मह । ! को द्विगुण मात्रा में लेकर उक्त विधि अनुसार भा० पू० १ भा०। Calotropis giga.. ७ संर अर्क परिनुत करें । पुनः उतनी ही औषध Intea (the relvir. of-) । (२) मदार ।। __ और राग्नि भर भिगोकर दोबारा . सेर अर्क का वृक्ष । (३) मदार का पत्ता । परिघुत करलें। अक-पर्णिका,-रणी arka-padnika-ni-सं० । __ मात्रा व सेवन-विधि-पौने २ तो० इस स्त्री० मापपर्णी, हयपुच्छा। मापानी-बं० । ('Ter : अर्कको उपयुक्र शर्बतके साथ मिलाकर सवेरे शाम rampus Labialis. ) दोनों समय पिलाएँ । यथा-- अर्कपादः ka-paidah-सं०० (१) सूर्यः । हृद्रोग में शर्बन सेब या गुड़हल अथवा केवड़ा कान्त मणि। (२) निम्ब वृक्ष । ( Dielia मिलाएँ, प्रामायिक शूल, एवं वातज वेदनाओं azalirachta, Linn.) में सिकन्जबीन सादा या नीबू मिलाएँ। अर्क-पादपः arkii-Patla pah-सं० पु० (१) गुणधर्म - प्रामाशय तथा हृद्रोग को लाभ fara qa ( Melin Azadirachta, पहुँचाता है। उदर तथा आमाशयिक वेदना में Linn.)। (२) अर्क तुप, मदार, पाक । लाभदायक है और वातज वेदनाओं को शमन (Calotropis gigantea.) करता है । हृदोल्लासकारक तथा हृदय शामक है अर्क पान aal-par-अ० पान का अके। ति० का० २ भा०। निर्माण-विधि--(१)गलेसुम्न', गाव जुबान, | अक पियारागा मुरकब alrq-piyarangaपदीना, पान पत्र प्रत्येक एक पाव, अजवाइन, ___muakkab-अ० पियारांगोका मिश्रित अर्क। सातर, दालचीनी, लौंग, कुलिजन, सोंड, इला. देवा-पियागंगा । ति फा०२ भा० । यची छोटी हर एक १० तोला, अर्क गुलाब ४ | अर्क पीना alti-pudina बोतल, अर्क वेदमिश्क, वर्षा जल हर एक | अक़ पुदीना जदीद art]-pudina-jaddid j २ बोतल। सब औषधों को रात्रि भर भिगांकर -१० पुदीना का अर्क, नव्य पुदीनार्क । देखोप्रातः काल ७.८ सेर अर्क परित्रुत करें। पुदीना। गणयम-उदर शूल तथा प्रामाशयस्थ वेदना- | अर्क पुष्प योगः arka-pushpayogall-सं० शामक, वायु जन्य शूल तथा अन्य पीड़ानों की पु' श्राक के फूल तेल में पका कर सेवन करने . शांति हेतु परीक्षित है । व्या ज़ अम्म म हम से से स्त्रियों का मासिक धर्म खुलकर आता है। उद्दन । .० अ०i यांकर.. For Private and Personal Use Only Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्क पुष्पा अर्क बरिखासिफ़ जदीद अर्क पुष्पा nika-pushpa सं० स्त्री. क्षीर- सेब, बिही हर एक डेढ़ () सेर, दाम्व मी , काकोली । क्षीर काँकल- । देखा - क्षार अमरूद हरएक एक सेर, रिश्क का रम २० काकोली ( Kshitra kakoli ) ती०, सफेद चन्दनका बुरादा प्राधासेर,इनमें यथा अर्क परिपका arka-pushpika विधि अर्क परिनत करें । पुन: उतनी हो औषध अर्क पुष्पी arka-pushpi उक्र अर्क में डालकर दोबारा अर्क खींचें । -सं० स्त्री. (१) सूय्यं बल्ली । अन्धाहुली, __ मात्रा व सेवन-विधि--३ तोला अर्क अर्क सदृश पुष्पी लता, अकाली, क्षीरवृम, दधि- धान करें। यार-हिं० । श्वेत हुड़िया-बं० । (Gyear गणधर्म---उत्तमांगों को बलप्रदान करता, ndropsis Coutahylla, Syn. Oleo- मालीवालिया (Melancholia), मुर्छा, me pantaphylla, ) शिरदोड़ी-मह। भ्रम तथा भय दूर करने के लिए अत्यन्त लाभपर्याय-पयस्या, सूर्य वल्ली, सितपर्णी, शीतपर्णी । दायक सिद्ध हुआ है। २० । भा० ४ म० बाल रो० चि. ! अर्क फौलाद airpfould-अ० लोहे का अर्क, गण-यह कृमि, श्लेष्म, प्रमेह तथा पित्तनाशक ___लोहासत्र। देखा-लौह । है। मद०व०६। यह कृमि, कफ, प्रमेह तथा मनोविकार नाशक है । भा०पू०१ भा० । (२) अकबंधु arkn-bandhu.हिं० संज्ञा पुं॰ [सं०] रफ अपराजिता । रत्ना०। (३)ीर काकोली। पद्म । कमल । The lotus ( See-kshin kakoli. ) र० मा० । अर्क बनाशा, 'जदीद' (]. banats bah (४) सूर्यमुखी । "jalist' -अ० नूतन बना सार्क | अर्क पुष्पी कल्कम् aka pushpi kalam निर्माण-विधि-बनशा सवाररातको -सं० क्ली० पाकड़े के फूल गाय के दूध में पीस उपण जल में भिगो कर सवेरे ५० बोतल अर्क कर ३ दिन तक रोज प्रातः पीनेसे दाह युक्र प्रवृद परिम्न त करें और उक्र अर्क में दोबारा उतना ही पथरी का नाश होता है। वृ. नि०र० भा० अनाशा तर करके पुनः दोबारा ४० बोतल अर्क ५ अर्श०। परिनु त करें। अर्क प्रभा गुटि(डि)का arka-prabha-puti. ' सेवन-विधिः-३-३ तोला प्रातः (di)kā-सं० स्त्री रसायनाधिकार में वर्णित सायं शर्बत नीलोफर ग्रा बनशा एक तीला रस विशेष । प्रयोगा० रसायना० । मिलाकर पान करें। अर्क प्रकाश arka.prakash-सं० पु. रावण । गुगाधर्म--प्रतिश्याय, नजला तथा शिरःशूल कृत ग्रन्थ जिसमें अर्क के अनेक उत्तम से उत्तम में अत्यन्त लाभदायक है। ति. फ.०२ मा । योग एवं उनके चुभाने की विधियाँ दी गई हैं। अर्क वरिक्षासिफ़ 'जदाद' argharin jasifअर्क प्रिया arka-priyā-सं. स्त्री. (१)। jadid-१० नूतन बरिजासिलार्क | श्रादित्यभा, हुलहुल । हुडहुड़िया-बं० । . निर्माण-विधि--बरिन्जामिफ़, शुकाई , बादा(Cleone viscosa.)। (२) जवा । वर्द, मकोय शुष्क, सौंफ, मवेज़ मुनक्का, हर एक जपा। अड़हुल । गुड़हर । भोड़ पुष्प वृक्ष । अढ़ ४० तो०, गुले गावजुबान २० नो० सम्पूर्ण उल । ( Hibiscus Rosa=sinensis.) औषधों को रात्रि में उष्ण जल में तर करके रा०नि० व. १०। प्रातः काल हरी मकोय का रस ३ सेर योजित अर्क फवाकह जदीद aarty-fa vākah-jadial ! कर २० बोतल अर्क परिस्तुत करें । उक्र -अ० निर्माण विधि-अनार अम्त व मधुर, अर्क में पुनः उपयुक औषधों को उतनी For Private and Personal Use Only Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्क बेदसावह मात्रा व सेवन-विधि-३ सो० प्रात: ! सूचना-कभी पान पत्र २०० अदद, इलासमयं मातदिल शर्बत बजरी या शर्बतदीनार श्राव- यची, दालचीनी, लौंग हरएक २ तो०४ मा० स्वकलानुसार मिलाकर पिलाएँ । अधिक डालते हैं। नि० फा० १ भा० । गुणधर्म-आमाशय तथा यकृत को बल · अर्क वादियान aar badiyān-१० सौंफ का प्रदान करता है । शोथ लयकर्ता एवं श्लैष्मिक । ज्वरों में लामदायक है। निर्माण-विधि-सौंफ २॥ सेर, रात को अर्क बलमा arka-ballabha-हिं०संज्ञा स्त्री० पानी में भिगोकर प्रातःकाल ४० बोतल अर्क [सं० ] गुरुहर । श्रीद पुष्पी । ( Hibiseus . परिनुत करें। Rosa-sinensis.) मात्रा व निर्माण-विधि-१२ तो० अनुपान अर्क बहार iarq bahār-१० मिर्माण-विधि-गुल तरशावर ५ सेर, अर्क; रूप से सेवन करें। गुलाब १ सेर, सौंफ, मवेज़ मुनक्का, किशमिश गुण-धर्म-उस यकृवेदना व प्रामाशय तथा हरएक १५ तो०, अ.द, जनंव, बहमन सुख', । वृक्क की पीड़ा में जो शीतलता के कारण हुई हो, बहमन सफेद, शक्राकल हरएक तो०. अम्बर । लाभदायक है । यकृद्रोधोद्राटक और वायु लय. पौने दो (१ ) तो। सबको ११ सेर जल में कर्ता है । ति० फा० १ भा० रात को भिगोकर प्रातःकाल ५ सेर अर्क परिस्त अ क बादियान मुरकब "जदीद" aaiq-badकरें। कभी पान पत्र १०० अदद, इलायची, iyan murakka.b,-jattid-श्र० देखो-- दारचीनी, लोग हरएक १४ मा० श्रीर रेआसिफ जदीद। अलते हैं। अर्क-बेदमुश्क arq-bedemushka-फा० मात्रा व सेवन विधि--१० तो०, अनुपान , माउत खिलाफ़-अ० । बेदेमुश्क का अर्क-द० । रूप से सेवन करें। Salix caprea, Lim (water.of.) गुण-धर्म-मूर्छा व विभ्रम में लाभप्रद देखी-वेदमुश्क। है। तृवानाशक तथा उत्ताप शामक है और हृदय अर्क वेद सादह, arabod satlah-१० एवं मस्तिष्क को प्रमोद प्रदान करता है। निर्माण विधि-बर्गबेदसादा । सेरको रात्रि अर्कबहार जदीद aarq-bathar-judid-अ. भर जल में भिगोकर प्रातःकाल दस बोतल अंर्क निर्माण-क्रम-गुल सुरज सादा १० सेर, अर्क | परिनु त करें। पुन: उतना ही बेद सादा उसमें गुलाब २ सेर, सौंफ, मवेज मुनक्का, किशमिश तर करें और दोबारा दश श्रोतल अर्क परिनु त प्रत्येक ३० तो०, ऊद, जर्नब, बहमन सुख या सफेद, शकाकुल हरणकर तो०,सम्बर ३॥ मा०। मात्रा व सेवन-विधि-तीन-तीन तो. सब को तीन सेर पानी में रात को भिगोकर प्रातः साय यह अर्ज शर्बत उन्नात्र २ तो. प्रातःकाल अर्क परिनु त करें । उक्र अर्कमें उतनी में मिलाकर पिलाएँ। हो औषध और भिगोकर दूसरे दिन पुनः दोबारा गुण-धर्म-हृदय की ऊष्मा, भय एवं मूळ अर्क परिनु त करें। को दूर करता है। उप्माजन्य रोगों में लाभमाय सेवन-विधि-३-३ तो. प्रातः । दायक है । राजयक्ष्मा में विशेषकर गुणदायक है । सायं महार में लाएँ साधारण अकों की अपेक्षा यह अर्क अधिकतर -धर्म-मूर्या में पास है। तृश को | लाभदायक है । ति० फा० २ भा० । काकर्ता एवं उत्ताप को समान कर्ता है। मृदय | अर्क भत्ता arka-bhakta-सं० सी०, हिं० स्था मस्सिक को उल्लास प्रदान करना है। । संज्ञा स्त्री. ब्राह्मी, ब्राह्मी शाक (Hydroco. 50 For Private and Personal Use Only Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्क भुतिः अर्क माउल्लहम खास byle usiatica.)। (२) हुइहुहे । हुल-: मूल त्वचा, चमेली पत्र, श्राबनूस का बुरादा, हुल । हुरहुर का वृक्ष-हि० । सूर्य फुलवल्ली- उन्नाव, इक्षु मूल प्रत्येक ५ तो०, मरजानलूस म. (Clsome viseos.) रा०म० ब० प्राधसेर, माउज्जुन कपाव, मजीठ एक पाव सब ४ | २० मा०। को भिगोकर प्रातः काल ४० बोनल विधि अनुअक भूतिः ka bhutih-सं० स्त्रो० ताम्र सार अक परिस् त करें। भस्म । ( Copy!' oxide.) वै० निघ० मात्रा व सेवन--विधि . १० तो० अर्क २ भा० क्षीर ताम्ररस० संग्रहणा० चि०।। उपयुक्र औषधों के साथ उपयोग में लाए । अकमको aart-mako-अ. मकोय का अर्क। गुण-धर्म - आहादशनक, शामक तथा रक्त निर्माण-विधि--मकांशुष्क सबासेर को भिगो . शोधक है । वातज रोगों में अत्यन्त लाभकर २० बोतल अर्क परिन त करें। जनक सिद्ध हुअा है ! ति० फा० १ भा० । मात्रा व सेवन-विधि --१२ ता. अक्र अर्क माउल्लह म कासना मकावाला alrq-ma. यथाविधि व्यवहार करें । ullahma, kásaní-maloválá- 19 गण-धर्म--उत्तमांगों तथा प्रकृताप्मा को तथा मकोबाला मांसरसार्क । शक्रि प्रदान करता है। ऊष्मा को शमन करता निर्माण-विधि-रिक्षासिक, शुकाई., बादातथा पिपासाकी तृप्ति प्रदान करता हैं । वायु रोगों, वर्द, बिल्लोलोटन, सौंफ (कूटा छाना हुश्रा), मुर्छा तथा श्रम में विशेषकर लाभदायी है। ति मवेज़ मुनक्का, कवर की जड़, इजाखिर की जड़, फ़ा० १ भा०। मुलेठी, हरी गिलोय, मका हरएक १० तो०, अर्क मका जदीद all makeo jalitd-१० : गांव धान, गुले गाव बान हरणक ५ तो० । निर्माण-विधि--मको शुष्क २॥ सेर को जल / सम्पूर्ण प्रौपधों को रात्रिभर उष्ण जल में में भिगोकर बीस बोतल अर्क परिन न करें। भिगोएँ । प्रातः हरी कामनी का पानी, मकाय पुनः उतना होमको शक उन अक में भिगोकर का पानी जिन में उन दोनों औषधे २ सेर दुबारा अर्क खींचें। डाली हो, डालकर युवा बकरे के सर मांस की मात्रा व सेवन-विधि--५ तो० अर्क . यम्बनी निकाले और उपयुक औपधों को अनुपान रूप से व्यवहार में लाए । डाल कर विधि अनुसार २० बोतल अक गुण-धर्म-अक़ मको के समान । खींचे। अर्क मा उज्जुब्न int-imanjjulina-श्र० ___ मात्रा व सेवन-विधि-५ तो० उक अक निर्मागर-ऋम-पाले हड़ का बक्कल, काबुली को उपयुक्त औषध के साथ व्यवहार करें। इन्ड़ का बक्कल, काले हड़ का बक्कल, हरी गुगा-धर्म-शरीर का पुष्ट करने वाला, शोधगिलाय, बकायन के पत्र, बकायन का छल, लयकारक तथा यानाशप और यकृत की निम्बछाल, निम्बीज, विजयसार पुष्प, गाव दशा को सुधारने वाला है। ति. फा.१ जबान, कासनी के बीज, कासनी की जड़, हिरन- : भा०। खुरी, इमली की गिरी, प्रामला की गिरी, हह । अक माजलहम खास aax mallahum.. का बक्कल, धनियाँ शुष्क, मोललरी वृक्ष की _khis-अ० मुख्य मांसरसार्क । छाल हरएक ५० तो०, शाहतरा, चिरायता, . निर्माण विधि--बालछड़, तेजपात, छोटी सरफोका, मेंहदी के पत्र, अवरेशम, रचन्दन इलायची, बड़ी इलायची, बहमन सफेद, का बुरादा, श्वेत चन्दन का बुरादा, शीशम का लौंग, दालचीनी, ऊदम्बाम पोस्त तुरज, गावत्रुरादा, इनबुम स.अलब स्व श्क (सूखी मकोय), ज़बान, बृजीदान, छड़ीला, श्वेतचन्दन, बादरञ्ज, गुलेसर्ख, झाड़ी बेरकी मूल-स्वचा, संगमूल, बहेड़ा बूया, राम तुलसी के बीज, गुलगावज बान' For Private and Personal Use Only Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org भक मा अर्क माउल्लाम सूखी धनियाँ, जनवाद, पौफ़, दरूना, मस्तगी, सअद कोफ़ी (नागरमाथा ) हरएक ॥ नो०, शाकुल मिी, मालमित्री, गुले पुख, अब्रेशम ( कनरा हुआ ) प्रत्येक ६ ता०, बैल का शिश्न ३ तो०, गोश्न हलवान (बकरी के एक वर्ष तक के बच्चे को हनवान कहते हैं, इसका । मांस ) २४ सेर, बटेर २४ अदद, शर्क वेदेमुश्क । ६ सेर, अर्क गाव ज़बान है मेर। अंगुर, मेव, : बिही, रेगेम ही, माही रोबियाँ ( झींगा मछलो) हरएक नीन मेर, झींगा मछ चो शुक या ताजा | ६ सेर, अम्बर २१ ता०, मिश्क २, नो, चोज़हे. मु १४ अदद, माँडा १० मात्रा । सम्पूर्ण मांसों : की यखनी प्रस्तुत करके ऊपरोल्लिखित औषध सम्मिलित करें और ८० बोनल अर्क परिन त । करें। मात्रा व सेरन-विधि-५ तो० अक । उपयुक प्रौषध के साथ व्यवहार में लाएँ। गुण-धर्म-उत्तमांगों और अर्वाद की शक्रि । के लिए मुख्य पदार्थ है । यह सामूहिक शारीर ! शनि की वृद्धि करता है। कामोद्दीपक, स्तम्भक, तथा प्रफुल्लता कारक है। हृदय की प्रफुल्ल और चित्त को प्रसन्न रखता है। शुद्ध शाणित उत्पन्न करता एवं मुख की कांति को निखारता है। ति०फ:०१ मा । यून, चीता, फरासियून, जावित्री, जायफल, तुरूम जीर, मायहे शनुर ऐराबी, रंगमाही, इब्बुल कुल कल प्रत्येक २ नो०, अजवाइन, गुफा शुष्क, यजनुर्की हरएक ३ ता० ॥ मा०, दालचीनी, तुम्न बेला, अब रेराम ( कतरा हुभ्रा ) प्रत्येक ७ तो० ॥ मा०, नुहम हलियून, मूली के बीज, इसस्त, तुम बालंगा, तुम शर्वती, तुलम रेडाँ. तुख़म फरञ्जमिश्क, अर्ग फर मिश्क, धीख सोमन, आसमानुजूनी, गले बाबना, मग़ास ( मेदा), बजीदान, कुळ, तज, मस्तगी, नागे. सर, छट्टीला, तेजपात, रचन्दन, उस्तारोह स, जरावन्द मद हर्ज, माहीराबियाँ( झींगा मछली), जानव, असारून, कोकनार हरएक । तो, बहमन सुख व स फेद, तांदरी पुर्व वा सफेद, ऊदग़ी, शका कुल मिश्री, सरिञान शीरी, गाव जवान. इन्द्रजी मधुर, बादियान स्वताई, गुलेमुर्व, इलायची छोटी व बड़ी, बादराया, परसियावशान ( हंसराज ), पुदीना, जिन्तियाना, कुलिञ्जन, नुहम खबजा, तुम गाजर, तुम वित्मी स.फेद, नुरूम खुब्बाजी, हन्तुलनज़रा, हम्बुस्पम्नह, हब्बुलकुतम, हब्बल कुरन, सपिस्ता, माहीरांबियाँ (झींगा मछली) प्रत्येक ८॥ तो०, चौब चीनी, अजोर ज़र्द, मवेज़ मुनक्का, किशमिश हरएक २४ तो०, खार ख़सक (मुरब्बा), सेवमधुर का पानी, बिही मधुर का पानी, मोठे अनार का रस, हर एक ६८ तो०, मिश्री २ सेर छ. ४ ता०, बर्ग रेहाँ ताजा अाध सेर, उन्नाव विला. यी १०० मात्रा। अम्बर, कस्तूरी, केशर के सिवा जो प्रीष| कूटने की हैं उनको कूटकर मांसी में डालकर एक रात दिन रहने दें दूसरे दिन अर्क गुलाब, अर्क बेदेमुश्क हर एक २बोतल, अर्क गाव जुबान, अर्क वयार शम्बर (अमलतास) प्रत्येक ३ सर, ताजे गाजर का रस, ईजल हर एक २० सर सम्मिलित करके प्रथम बार १२-१४ सेर अर्क प्राप्त करें। इसे पृथक् रखें । पुनः उतना ही और अर्क परिनु न करें यह दूसरी कक्षा का अर्क प्रस्तुत होगा। अम्बर, कस्तूरी, केशर की पोटली बाँधकर मैचा के मुख में रखें। मात्रा व सेवन विधि-५ तो० अर्कौ २ तोल अर्क माउल्लहम जदीद aart-Inaullahnajadid-अ० नूतन मांसरसार्क । निर्माण-विधि-बकरे का मांस १२ सेर ( या हलवान शेर मस्त, मम्त सिंह के बच्चे का मांस), नर गौरया ( नर कुनश्क) १०. मात्रा, कबूतर, लवा, बटेर प्रत्येक ५० मात्रा, मुर्गी का । बच्चा ३० मात्रा, तीतर २० मात्रा | सम्पूर्ण मांस को शुद्ध स्वच्छ कर यवनी पकाएँ। तदनन्तर उसमें मोमियायी, जुन्दबेदस्तर, सुअद कोफी' (नागरमोथा ), जद.वार, केशर, कस्तूरी, अम्बर हरएक एक तो०, गुलगावज बान, कबाबचीनी, : बालछड़, तबाशीर, बसफ़ाइज, दरूमज, सीसालियूस, ऊदमलीव, मातर फारसी, फ्रिनस सालि. । For Private and Personal Use Only Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्क मुख्तरिम अर्क मुखको मिश्री मिला कर प्रयोग करें । कोई विशेष परहेज़ , उसमें खूब जोश जाए । तदनन्तर व्यवहार में नहीं । हाँ! अम्ल वस्तुओं से बचना श्रावश्यकीय लाएँ । इ० अ० । अक मुरकब मुसफ्फो खून aarq-murakkगुण-धर्म पुरुष शनि को चित्रर्द्धित करने. ab-musaffikhun-१० रक्तशोधक.मिश्रित वाला शरीर में बल का संचार कर्ता, वृक को अर्क विशेष । शनि देता, वायु लयकर्ता, संधिवात और नज़लाके निर्माण-विधि-वर्ग शाहतरा, सुष्म. शाह. विकार को लाभ पहुंचाता है। शीतल रोगोंके नष्ट , तरा, चिरायता, सरफोका. मुण्डी. नीलकराठी. करने में अक्सीर है। ति० फा१भा। ब्रह्म डण्डी, धाबनूस का बुरादा, शीशमका बुरोदा, अर्क मुख्नुरिअ aaq-mukhtiadia-. एक ' र व श्वेत चन्दन का बुरादा, अफ़्तीमून (पोटली अर्क विशेष । इ० अ० । में बाँध कर ), बसफाहज, उश्वा हर. एक तो० अर्क मुण्डो All-mundi-१० मुण्डी का ! बर्ग हिना, गुलहिना, बर्ग नीम, गुलनीम हर एक अर्क। ७ तो०, नीमकी छाल, बकाइन की छाल, शीशम निर्माण विधि मुण्डी सवा सेर को पानी में | की छाल, कचनील की छाल हर एक पाय सेर, भिगोकर सबेरे २० बोतल अर्क खींचें। 'उन्नाब, धमासा हर एक अाध पाव, सबको तीस सेर पानी में हाँ तक कथन करें कि सात सेर मात्रात्र सेवन-विधि-७ तोला यह अर्क | पानी शेष रह जाप । पुन: साफ करके अर्क अनुपान रूप से व्यवहार में लाएँ । णधर्म-कशोधक और उल्लासकारक है । मात्रा व सेवन-विधि-५ तो० इम अकं को दृष्टि को शकि प्रदान करता, उत्तमांगों को बलवान २ तो० शर्यत गुलाब के साथ प्रातः सायं सेवन बनाता और रोध उद्घाटक है। ति. फा० १ करें। भा०। गुणधर्म-रक्रशुद्धि के लिए अनुपम है। अर्क मुण्डी जदीदanimundi.janlitil-अ० फोदे, फुन्सी, तथा खुजली को दूर करता है और नूतन मुण्डी का अर्क। उपदंश तथा अन्य वातरोगों में लाभप्रद है। निर्माण-क्रम मुडी २॥ सेर को पानी में | अक मसकिन जहीर aarq-musakkinभिगोकर प्रातः २० बोतल अर्क परिस्रुत करें। पुनः _jadid-अ० नवीन शामक अर्क । उतनी ही मुडी उक्र अर्क में भिगोकर दोबारा निर्माण-क्रम -अर्क अजीब ( कपूर, सत अर्क खींचें। अजवाइन,सत पुदीना ममभाग को लेकर मिलाने) मात्रा व सेवन-विधि-३ तो० अनुपान १५ द में, . बँद कार्योजिक एसिड मिला रूप से सेवन करें। कर रखे। गुणधर्म-अर्क मुडी के समान । ति० फा० मात्रा व सेवन-विधि-रा स्त्री रूह की १ भा० । फुरेरी इस अर्क में तर करके मसूड़ों पर बगाएँ अर्क मुबहो व मुकीaur.mubhi-Vil-mu और यदि छिद्र हो तो उसमें भरहे। q vi-अ० बल्य व कामोद्दीपक अर्क। गणधर्म-दन्तपीड़ा को तत्काल बन करता निर्मागा-विधि-जावित्री, लोग, मालबमिश्री है। नि० फा० १ भा०। दालचीनी हर एक १४ मा०, गुल गुड़हल, किश- | अर्क मुसपफा aarq musaffi-अ० अर्क मिश, मिश्री प्रत्येक १० तो०, वर्षा जल २ सेर । रकशोधक, शोधक अर्क। औषधों को अधकुट करके बोतल में डाल कर (1) निर्माण-विधि-शाहमरा के बीज, तीन-चार दिन तक धूप में सुरक्षित रकम्खें जिससे शाइतरा का पना, सरफोका, मेंहदी की हरी पनी, For Private and Personal Use Only Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्कमुसकी झाऊ की हरी पत्ती, मुण्डी, ब्रह्माण्डी, नीलकण्ठी इस अक में शर्बत उन्माद या शर्बत शीशम उष्टकण्टक, अप्रतीमून, चिरायता, तुख म काहू, १ तो० मिलाकर प्रातः सायं पिलाएँ। सुख म कासनी, रक व सफेद चन्दन का कुरादा, : मुणधर्म-उत्तम रकशोधक है। फोरे कुन्सी शीशम की लकड़ी का मुरादा, आबनूस का । का विकार इसके उपयोग से जाता रहता है। बुरादा, नीम पुष्प, बीख कारवी, समस्त औषधी . शरीर तथा चेहरे का रंग साफ हो जाता है। को समान भाग लेकर रात को कलईदार देगचा उपदेश तथा सूजाक में भी लाभ पहुँचाना है। में भिगो के प्रातः काल यथा विधि अर्क खींचे। अस्याहार तथा प्रबल प्रभावकारक है । ति. मात्रा व सेवन विधि--प्रकृति तथा अवस्था. . फा०२भा०। नुसार ६ से १२ मो0 तक उक अर्क को शर्बत अर्क मुसफ्फो स्खन अनुस्खा कलाँ aarq-mu. उसाब या शर्यत शीशम प्रभृति में मिलाकर पिलाएँ। şaffí-khun-ba-nuskha-kalán - गुणधर्म-रक शुद्धि के लिए अत्युत्तम है। निर्माण-विधि-नीम पत्र, नीम की छाल, सूक्ष्म एवं निर्बल प्रकृति वालों के लिए विचिन . बकाइन की छाल, कचनाल की छाल, मौलमरी वस्तु है। अति शीघ्र लाभ करता है। की छाल, दुद्धी जर्द, काली भंगरैया का पता, (२) मिम्ब पुष्प, निम्ब फल, निम्न वृक्ष की जवासा के परे की शास्त्र, गूलर की छाल, मेंहदी छाल, निम्ब पत्र, मेंहदी की हरी पत्ती, मेंहदी का का पत्ता, मुण्डी, शारतरा, सरफोका, धमामा, फूल, शीशम वृक्ष की छाल, कचनाल की छाल विजयसार की लकड़ी, गुलनीलोफर, गुले सुख, प्रत्येक १क पाव। सब का सेर जल में कथित शुष्क धनियाँ, श्वेत चन्दन, तुरूमकासनी, कासनी कर शुद्ध करें । तदनन्तर अकंपरिनत करें। की जड़, मजीड, बर्ग बेवसादा, शीशम की लकड़ी मात्रा व सेवन-विधि-३ तो० मे ५ तो. ! का बुरादा प्रत्येक १० तो० । इन सब श्रीपधों को पर्यन्त प्रति दिवस प्रातः सायं पिलाएँ। २४ सेर जल में रात दिन सर करें । तदनन्तर १२ सेर अर्क परिनुस करें। कभी मोम का बीज गुणधर्म-यह अत्यन्त सरल योग है। किन्तु । बकाइन का बीज, तुम शाहसरा, तगर, अती. अन्तिम कसा का रकशोधक तथा अनुभूत है।। मून, तेजपास, हरी गिलोय, उन्नाव, वय, विराति० फा १ भा०। यता प्रत्येक १० तो० और समावेशित करते हैं। (३) अर्क मुसफ्नो जदीद-नीम पत्र __ मात्रा व सेवन-विधि-१२ तोला यह अर्क भीम की छाल, बकाइन की छाल, बकाइन का शर्बत उन्नाव २ तोला के साथ पीएँ । पत्ता, कमाल की छात्र, मौलसिरी की बाल, छोटी दुदी, श्याम भुराज पन, जवासा के परो । गुणधर्म-इस अर्क से रक शुद्ध होता है। की शाख, गूबर की छाल, मेंहदी पत्र, मुगडी, , फोड़े फुन्सियों की शिकायत दूर होती है तथा चेहरका रंग अरुणाभनौर सस निकल पाता है। शाहतरा, सरोका, धमासा, चोल, विजयसार, यह उपदंश व मजाक में भी लाभदायक सिरहा , गुड मीलीकर, गुले सुख, शुष्क धनियाँ, श्वेत चन्दन, तुम कायनी, कासनी की जर, मजीठ.! है। ति० फा० १ भा० । वर्ग वेद सादा, शीशम की लकड़ी का पुरावा । अर्क मुहल्लल aarg.muhallil-० लयकारक प्रत्येक १००। सब को एक दिन रात जल में भिगोकर १२ सेर अर्क स्त्रीचे और इस अर्क में निर्माण-विधि-कलमी शोरा ४ तो०, पंधक दोबारा उपयुक्र औषधों को भिगोकर १२ सेर . मामलासार, गोबरू हर एक तो० । सबको.प.नी अर्क परिसुत करें। में भिगोकर अर्क परिसुत करें और उक अर्क में मानव सेवन विधि-तीन सीन तोला भाऊ का पत्ता तो०, गुले गाफिम, असन्तीन For Private and Personal Use Only Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मर्कमति रसः धर्क लोहाम्रकम् रूमी, बालछन, तुरूम ख़बूजा, तुरूम कामनी अर्क म लम् arka-raulam-सं० फलो. इसी सौंफ की जड़, कासनी की जड़, करप्स (अज नाम से प्रसिद्ध है। एक वृक्ष विशेष। च०६० मोदा)को जड़, इज़खिर की जड़ प्रत्येक तो..| अग्निमा. चि. क्षार गड।। मकोय की हरी पत्ती का फाड़ा हा पानी. कासनीक मला arka-imula- स्त्री. ईश्वर मूल, की हरी पत्ती का फाड़। पानी प्रत्येक २ र शुद्ध ईशर भूल-बं० । ज़राबन्दे हिन्दी-अ०, फा० । सिरका १ सेर सम्मिलित कर यथाविधि अर्क (Aristolochin Indica.) रत्ना० । परिख न करें। धुम्र arkamuladi dhumra मात्रा ब सेवन-विधि---५ तोला अर्क प्रति . -सं० फ्ली० श्राक की जड़, मैनसिल समान दिवस प्रातः काल सेवन करें। भाग, त्रिकुटा अर्ध भाग इनका चूर्ण बना धूम्रपान गणधर्म- यह अर्क समस्त उदरीयावयचों के : करके ऊपर से ताम्बूल खाने से अथवा दूध पीने शोथ का लयकर्ता है। से ५ प्रकार की खासी का नाश होता है। वृ० विशिष्ट गुण यकृद शोथ तथा प्रीहा शोध नि०र०। के लिए विशेष कर लाभप्रद है। नि. का. अर्क' याविस arq:yabis-अ० कल्क़निया भा०। । (जङ्गबारी) अर्क मूर्ति रसः alka imurti-lasah - सं० अर्क लवणम् arka-lu.vunan-सं० क्ली० • यह रस सन्निपात ज्वर में प्रयुक है। भै० अर्कक्षार, मन्दारहार । (Al alkaline of ज्व. चि। Calotropis gigantea.) वै० निघ। भ र्ती रसः arkaimurtirasah-सं०५० अर्क लेप alka-lepa सं० कली. पुष्कर मूल, ताम्बे के पत्र के दोनों तरफ बराबर पारा और दालचीनी, चित्रक, गुड़, दन्तीबीज, कट और गन्धक लपेटकर हांडी में रखकर ऊपर से हांडी कसीस को पाक के दूध में पीसकर लेप करने से का मुख बन्द करके दो पहर तक तीन अग्नि में : कर्णमूल का नाश होता है । वृ०नि०र० । पकाएँ; फिर स्वांग शीतल होने पर ताम्बे के पत्र अर्क लोकेश्वगं रस ka-lokash vurora. के बराबर बरछनाग और उतना ही गन्धक मिला- sah-सं०० ४ तो० शुद्ध पारामें श्राकके दूध कर चित्रक के क्वाथ और अदाब के रससे भावना को बार बार भावना दें, फिर ८ तो० शुद्ध गन्धक दें। मात्रा--1 रत्ती । और ३२ तो० शंख बड़ा इन दोनों को चीते के गुण-यह सूजन पांडु, कफ और वातरोगों को ! रस से तीन दिन तक कई बार भावना दें। सूखने नष्ट करता है। इसपर लघु पथ्य खाना उचित । पर उपयुक पारे में मिला दें। फिर उसमें पारे है। रस. यो० सा०। से प्राधा सोहागा मिलाकर पाक के दूध से एक अमूल arkamila-हिं० संज्ञा पु० [सं०] पहर भावना दें। जब वह सूख जाए तो एक इसरमूल लता । हिमूल । अहिगंध । हांडी में चना पोतकर औषध को रखकर चूना इसकी जड़ साँप के काटने में दी जाती है। पोते हुए ढकन से ढक कर धारीक मिट्टी का लेप विच्छू के डंक मारने में भी उपयोगी होती है। ढक्कन के चारों तरफ कर दें, फिर लघु पुट दे। यह पिलाई और ऊपर लगाई जाती है। स्त्रियों के __ मात्रा.-४ रत्ती। अनुपान--बी, मिर्च । मासिक धर्म को खोलने के लिए भी ग्रह दी जाती पथ्य--दही, भात । रात को इस पर भांग है । कालीमिर्च के साथ, हैजा, अतिसार श्रादि । और गड़ सेवन करना चाहिए। पेट के रोगों में पिलाई जाती है । परों का रस कुछ गुण--संग्रहणी के लिए यह अनुभूत है। मादक होता है । छिलका पेट की बीमारियों में | रस यो सा । दिया जाता है। रस की मात्रा ३० मे १०० बूद अर्क लोहाभाकम् arka-lohabhrakam-सं० तक है। क्ली विदारीकन्द, पिण्ड स्वजर, जवामा, अनीस, For Private and Personal Use Only Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - अर्क लोकेश्वर रसः अर्क शीर जदीद हड़, पीपल और दाख मुनका चूर्ण समान भाग | अर्क शाहतरा aary-shah tara ले । बिदारीकन्द के बराबर प्रत्येक तांबा, लेह । अर्क शाहतरा जदीद aaro-shahtari.! भस्म और अभ्रक मिलाएँ । jadid ) नवीन शाहतरा का अर्क। मात्रा---१-२ रसी। घी और शहद के साथ निर्माण-क्रम--२॥ सेर शाहतरा को जल में खाने से छः लक्षणों से युक्त राजयक्ष्मा, उरावत, | भिगोकर २० बोतल अर्क परिस्र त करें। रक पिन, रकाश और अग्निमांय का नाश होता पुनः उक्र अर्क में उतना ही और शाहतरा है । रस० यो० ला०। भिगोकर दोबारा अर्क खींचे। अर्क लोकेश्वर रसika-lokeshvara-d- मात्रा व सेवन-विधि-५ तो० अर्क अनुsah-सं० पु. शुद्ध पारद ४ तो०, पाक के पान रूप से व्यवहार करें। दुग्ध में स्वरल करें, पुनः शुद्ध गंधक , तो० गुणधर्म-कशोधक है। चेहरेका वर्ण निखा. और बड़े शंख की भस्म ३२ तो०. दोनों को चियक । रता और फोड़े फुन्सी की शिकायत को दूर करता के रस में ३ दिन खरल करें, पश्चात् उक्र पारद को इसी चूर्ण में मिला दें, और १ तो. सोहागा अर्क शोर aarg-shi1-अ. दुग्धार्क। इसमें और मिलाएँ, सब को मिलाकर १ ग्रहर | निर्माण-क्रम-कासनी का बीज, गुले गावपाक के वृध में खरल करें, पीछे उसकी हंडी जुबान, खोरा का बीज, बंशलोचन, जहरमोहरा के भीतर लेप कर सुखा ले, पीछे सम्पुट में रख हर एक एक तो०, गुले सुत्र, मकोय शुष्क, गावकर पुट दें। जब शीतल हो जाए, तब निकाल : जुबान, मरज़ कह , मुखम काहू प्रत्येक २ तो०, कर रक्खें। तुहम खुश ३ तो०, शुष्क धनियाँ, श्वेत चन्दन मात्रा--1-४ रसी। रक्र चन्दन हर एक ४ तो०, कडू सब्ज़, कासनी अनुपान--मक्खन । की हरी पत्ती, काहू की पत्ती हर एक ४ तो० पथ्य--दही, भात। रात में गुड़ मिश्रित ८ मा०, गुले कँवल ५ तो०, कसेरू, गुलेबेद, गुले भंग खाना चाहिए । इसके सेवन से घार संग्रहणी नीलोफर हर एक १० ता०, अर्क बेदेमुश्क, अर्क दूर होती है। वृ० रस० रा. सु० । गृह शाहतरा, अर्क मको हर एक १ सेर, अर्क गुलाब चि०। २ सेर, अर्क बेद सादा ४ सेर, बकरी का दूध १० सेर, बर्षा जल आवश्यकतानुसार विधि अर्क वल्लभः auk:-valla bhah-सं० पु. बन्धु , अनुसार अर्क परिनु त करें। जीव वृक्ष । बन्धक पुष्प, दुपहरिया-हिं० । गुल दुपहरिया-पं०, हिं० । बान्धुलि वृक्ष, दुपुरे गुणधर्म-राजयमा तथा वातज्वर के लिए लाभदायक हैं। इ० अ०।। चण्डी-बं० . दुपारी-मह । (Pentiupotos phcenivea, lin, Hoat.) रा०नि० अक शार जदाद aurq.shir-jadid-अ० निर्माण क्रम-हरा गुर्च ( छिला हुआ ) व०१० । १८ ता०, गुल नीलोफर, गुल मुडी, ब्रह्मडण्डी, अर्क वल्ली arha-valli-सं० स्त्री. श्रादित्यः । गुल मासफर, ( कुसुम्भ पुष्प), मेंहदी पुष्प, भक्रा । हुल हुल-हिं० । हुडहुई-बं० । (Cle- . निम्ब पुष्प, गुल संवती, गुले सुर्ख, पीली हड़ का ome VisconR.) वैनिघ। बकल, हलेला स्याह, प्रामला छिला हुआ हर अर्क चदम्, भम् arka.vedam,dhanu-सं० एक १० तो०, सरफोका चिरायता, बादराबूया क्लीतालीशपत्र।(Abies webbiana.). हर एक १४ तो०, कासनी का बीज, खीरा का ५० मु०। रा०नि० २०६। बीज, खुर्का का बीज, खजा का बीज, हर एक For Private and Personal Use Only Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अधीर बसीत अर्क सूजन १८ तो०, शाहतस की पत्ती, भाऊकी पत्ती, नगुम सादा ५ सेर, छामदुग्ध १०.सेर ! इनमें यथावश्यक बाबरी, नीलकण्ठी, मेंहदी की हरी पत्तो हर एक जन मिश्रित करके 40 बोतल भर्क पदित करें। अाधन, सफ़ेद चन्दन का बुरादा, लाल चंदन का | पुनः इस अर्क में उपर्युक्र औषधों को सम्मि. बुरादा, शीशम का बुरादा, पाबनूस का बुरादा, ! लित कर दोबारा प्रर्क खींचे। निम्न की लकड़ी का बुरादा, हर एक १ पान : मात्रा व सेवन-विधि-५ सोला यह अर्क केवड़ा की जड़ २ सेर । सम्पूर्ण औषधों को रात्रि प्रातः सायं तथा मध्याह्न सीनों काल में सेवन भर उस जल में भिगोकर । प्रातः काल बकरी का दूध १० सेर, कासनी की पत्ती का फाहा हुआ। गुण-धर्म-कशोधक, बल्य, उमाशामक पामीर, अप्रतीमून विलायती, बसक्राइज तथा तर है । वायु रोगों तथा राजयमामें अक्सीर पिस्ती प्रत्येक १० तो और सम्मिलित कर । सिद्ध हुआ है । ति० फा० १ भा०। अर्क परिनु त करें और दोबारा उन अर्क में ! अर्क सम्मुलफार iarq-sa.mmulfar-१० उपयुक औषध डालकर पुनः अर्क परिस् त । संखिया का घोल, फलर महाशय का घोल । करें। Fowier's solution ( Liquor मात्रा व सेवन-विधि-२ तो० से ४ तो.. Arsenicialis) देखो-संख्यिा । पर्यन्त यह अर्क प्रति दिवस प्रातः सायं दोनों . अर्क सम्मुलफार मुरकब ब ब्रोमीन aarq. काल शबेत उसाब या कोई अन्य उपयुक्त शबंत | sammulfar murakkab ba broमिलाकर पिलाएँ। min-१० (Liquor Arsenici Broगुणधम- उपदंश, कुष्ठ तथा अन्य यात रोगों । iniatus ) देखो-संखिया। में अत्यन्त लाभप्रद है। ति० फा०२ भा०। अर्क सम्मुलफार मुरकब ब सीमाव व आयोडीन अ शीर बसीत aarg-shiv basit-अ०। ā arq-sammulfár murakkab-baयोम निर्माण-विधि-छाग दुग्ध ५ सेर, siinab va ayodingo नोयन महाशय अर्क खेद सादा २ सेर, अक बेदे मुश्क, अर्क का घोल । Donovan's solution (Liशाहता हर एक १ सेर, मिश्री प्राध पाव यथा | quor Arsenii et Hydrargyri Io. विधि अर्क परिनु त करें। didi) देखो-संखिया । गुणधर्मराजयक्ष्मा और वात वर के लिए अर्क सुता arka-suta-सं० श्री. कृष्णा अपरालामझायक है। इ० म०। जिता 1 Clitorea. Ternatea (The अर्क शोर मुरका जदीद aarq shir murra-1 black vai. of-.) ३० निघः । kkab-jadid-अ. भूतन मिश्रित दुग्धाक। अर्क सुधाarka-sudha-सं० सी० प्रकोत्थ सुधा निर्माण-विधि--सुरुम कासनी, गल गाव हिं० । सकल शश्र, शकर मदार-१०। प्राकजुबान, खीरा के बीज, तबशीर, जहर मोहरा न्देर चुण--० गुण-गुल्मरोग नाशक है । वै. प्रत्येक तो० गुले सुर्ख, मकोय, गाव बान, । निघः। माजाकडू, तुख्म काहू प्रत्येक २ तो०, तुखमखुमी अर्क सूज़ाक aarq suzak- अ० पूयमेहार्क । ३ तो, शुरक धनियाँ, रक व श्वेत चन्दन, निर्माण-विधि-सूखी धनियाँ ५ तोला को प्रत्येक ४ तो०, हरी कासनी की पसी, हरा कद्द, रात्रि मर प्राधपात्र जल में भिगोएँ और प्रातः काहू पत्र प्रत्येक ४ तो०८ माशा, कमल पुष्प ५ काल इसका क्वाथ विधि द्वारा काढ़ा प्रस्तुत कर सोला, कसेरू, गुलबेद, गुलनीलोफर हर एक १० | शीतल होने पर इसमें ३ तोमांडी और मा.. तो०, अर्क बेदमुश्क, अर्क शाहतरा, अर्क मको। रोग़ान सन्दल सम्मिलित कर श्रई तैयार हर एक एक सेर, अर्क गुलाव २ सेर, अर्क बेद कर लें। For Private and Personal Use Only Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अर्क लोडा मुरकंब व सम्मुल्फार मात्रा व सेवन विधिमध्याह्न १-१ तो० । www.kobatirth.org प्रातः सायं व गुण-धर्म-सूजाक के लिए यह श्रस्यन्त लाभजनक सिद्ध हुआ है। इसे व्यवहार में लाने से मूत्रदाह, वेदना, रक्त, पीव तथा क्षत सम्बन्धी सम्पूर्ण शिकायतें दूर हो जाती हैं । नोट -- हिन्दुस्तानी दवाखाना देहली का ख़ास नुसता है जिसे जनाब मसीहुल्मुल्क हकीम श्रज्मनों साहब ने अपनी असीम कृपा से अपने गुत योगों में से प्रदान किया था । अर्क सोडा मुरकय अ सम्मुल्फ़ार ãarq-sodá murakkab ba sammulfar-o ( Liquor sodii arsenatis ) देखोसंखिया । भ्र अ सोय āarq soy -श्र० fafaa aarq-shibbit अर्क शक्तिaarq shavid-t ] ( श्रा) का अर्क। Dill water ( Aqua anethi) देखो - शतपुष्प सौंफ aarasounf 30 सौंफ का अर्क | Anise water ( Aqua anisi) देखो - सौंफ सोया faat gaarq-sankhiyá tursha -श्र० ( Liquor arsenici hydrochloricus) देखो - संखिया । ६४१ श्रृ हड़ताल āarq-haratal 。 हड़ताल का अर्क | देखो- हरिताल । अर्क हराभरा जदीद aargharabhara jadid-अ० योग निर्माण क्रम-लाल व सफेद चन्दन, खश, पद्माख, नागरमोथा, हरी गिलोय, शाहतरा, नीम की छाल, गुल नीलोफ़र तुख्म कासनी, सौंफ, क के बीज, नेत्रवाला, धनियाँ, तुलसी के बीज, बहेड़े की जड़, इक्षुमूल, जवासा की जड़, कासनी की जड़, धमासा, मुलेठी, मुण्डी, इलाची छोटी, कोकनार ( पोस्त का डोंड़ा ) हरएक एक तो०, रात को जल में भिगोकर यथा विधि | = १ अर्क हाजिम 'परित करें | पुन: इस अर्की में उपर्युक्र औषध भिगोकर दूसरे दिन दोबारा प्रक परित करें | मात्रा व सेवन विधि - १॥ तो० उपयुक्र श्रौषध के साथ गुणधर्म --- राजयक्ष्मा में अत्यन्त लाभदायक सिद्ध हुआ है। मूत्र दाह, सूज़ाक और मूर्च्छा के लिए भी गुणदायक है तथा उत्तमांगों को बल प्रदान करता है | प्रधान गुण - राजयक्ष्मा के लिए विशेषकर लाभप्रद है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपथ्य - उष्ण युवं शुष्क वस्तु । नोट- यक्ष्मा के लिए जनाब मसीहुल मुल्क हकीम अजमल ख़ाँ साहब का मुख्य नुसता है । हाजिम aarg házin अर्क हाज़िम जदाद aang hazim jadia } -- ० पाचकार्क १८ मा०, निर्माण विधि बबूल की छाल १० सेर, किशमिश हरा, तथा मिश्री प्रत्येक ५ सेर, लहसुन, लौंग प्रत्येक १ तो०, ऊद ग़ २ तो०, सफ़ेद चन्दन २२ मा०, बीव बनफ़्सा सुदकोफ़ी ( नागरमोथा ) १० मा०, पोस्त तुरख ४ तो०, ब्रहमन सफ़ेद व लाल, शक़ाकुल, सालवमिश्री, तेजपात, दालचीनी, गुलगाव बान हरएक २ तो०, खस ४ तो०, बड़ी इलायची का दाना ५ तो, जायफल, जावित्री, हरएक २ तो०, केशर १ तो०, अम्बर ६ मा०, अम्बर व केशर के सिवा शेष सम्पूर्ण औषधों को रात्रि भर उष्ण जल में भिगोकर प्रातःकाल १० बोतल अर्क परिस्रत करें । केशर व अम्बर की पोटली अर्क खींचते समय नीचे के मुँह में रख दें । इस पर्क में समग्र औषधों को पुनः तर करके फिर दस बोतल अर्क खींचें । . For Private and Personal Use Only मात्रा व सेवन विधि-सवा तो० यह अर्क किसी उपयुक्त शर्बत के साथ या वैसे ही पिलाएँ । गुण-धर्म- - श्रामाशय के सम्पूर्ण दोषों को दूर करता है । पाचक, क्षुधावद्धक, शरीर में Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्क हिता अकोकरादि स्वरसः चुस्ती व चालाकी लाता एवं बल तथा प्रोजको मात्रा व सेवन-विधि-दो-दो तो० प्रातः बढ़ाता है। ति० फा० १ व २ भा० सायं नीबू का सिकाबीन मिल कर या यूँ ही अर्क हिता arka-hita-सं० स्त्री० आदित्यभका, पिलाएँ । ति० फा० २ भा० । हुन्न , हुरहुर-हिं० । हुडहुड़िया-बं०। अर्क हैजा वचाई aar haiza-va bai-अ० (Cleome visecsa) सूर्य फुल बल्ली । संक्रामक वैशूचिकाक। -मह० । सनि०३०४।। निर्माण-क्रम-प्याज, लहसुन हरएक २॥ अर्क हेमाम्बुदम् aka-heinām bindan- ! सेर, प्राकाशबेल २ सेर, जीरा स्याह श्राधसेर, सं० क्ली० खस, पतंग, कमलकेशर, चन्दन, एर्वा इलायची श्वेत, सोउ, पीपल प्रत्येक - तो०, रुक (ककड़ी भेद), नागकेशर, दारुहल्दी, नागर पुदीना शुष्क १६ तो०, दालचीनी १४ तो। सब मोथा, तृणमणि ( कैरवा ) और श्वेत कमल | को कूटकर रात को पानी में भिगो दें और प्रातः इन सबको बराबर लेकर बहुत बारीक चूर्ण बनाम । यथाविधि ५ सेर अर्क परिसृत करें तथा योतलों फिर खस के बराबर ताम्बा, लोहा, और अझक में रखें। भस्म पृथक् पृथक् मिलाकर शहद के साथ खाने से मात्रा व सेवन-विधि- तो० से ३ तो. मुख, नेत्र, कर्ण, गुदा, और रोम कूपों से निक- । तक प्रातःकाल पान करें। लता हुआ रक बन्द होता है। र, यो सा० । अर्क हैज़ा aarq-baiza-अ० वैशूचिकार्क। गुग-धर्म-धबाई हैज़ा के दिनों में स्वास्थ्य निर्माण-विधि-(१)जरिश्क, अनारदाना संरक्षण हेतु इसका उपयोग अत्यन्त लाभदायक खट्टा प्रत्येक एक पात्र, रज चन्दन का बुरादा, । है। हैज़ा के रोगी के लिए भी इसका प्रयोग अति आलूबोखारा, सौंफ प्रत्येक अर्धसेर, पुदीना हरा, ! ही लाभदायी है । नि. फा० २ भा०। दालचीनी प्रत्येक १ सेर, तबाशीर ७ तो०, कपूर अकक्षार: arkikshārah-सं० पु. पाक के ४ मा०, बड़ी इलायची प्राधपात्र, शुद्ध जल . कोमल पत्तों को तेल और पांचों नमक तथा काँजी १० सेर, औषधों को पानी में भिगोकर यथा. के साथ विधिवत् भस्म करके हार बनाएँ । इसे विधि ५ सेर अर्क परिन न करें। अर्क खींचते उपण जल या मद्य के साथ सेवन करने से बादी समय दा माशा कपूर नाच के मुह में रख वायर का नाश होता है । ७. नि. र० वानाशं । मात्रा व सेवन-विधि--२ ता. यह अके नीरसkarkshiram-सं० वी० अके दो-दो घंटे के अन्तर से पिलाते रहे। वृक्ष नियांस । श्राकन्दर आटा-चं । गण-धर्म-हैजा बत्राई के लिए अत्यन्त लाभदायक है। तीन तृषा को तत्काल शमन : गण-कृमिहर,बणघ्न,कुष्ट,उदररोग तथा प्रर्श में करता है और पित्त को समूल नष्ट करता है। हित है। राज० । निक व लवण स्वादयुक्त, उष्ण ति. फा०२ भा०। वीर्य, लघु, स्निग्ध, गुल्म एवं कुम,हर और उदर विकार तथा विरेचन में हित है । भा०पू०१भा० । (२) दरियाई नारियल, तुरन की पीली च० द. अश-चि० । छाल, गुलाब की कली, पपीता, काग़जी नीबू के ! बीज, पियारांगा, नीम वृक्ष की छाल, सौंफ : अर्काकिया arkakiya-अ० मकड़ी का जाला! हरएक ६ तो० । सबको यवकुट करके अर्क गुलाब (Spider's web.) में तर करें। प्रातः शुद्ध सिरका १ सेर,श्रावतुरा, अाङ्करादि स्वरस:-arkānuradisvarasah कागजी नीबू का रस, हरे कुकरौंधा का रस, हरे । सं० पु आक के अंकुरों को कांजी या नीबू के पुदीना का फाड़ा हुआ रस प्रत्येक १ पात्र सम्मि- रस में पीसकर और नमक तथा तेल मिलाकर उसे लित कर अर्क परिनु त करें। थूहर के डंडे में भरकर उसपर कपड़मिट्टी करदें। For Private and Personal Use Only Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्कादिकाय फिर पुटपाक विधि से पकाकर उसका रस निकालें, देखो - कामला । जागिडम (Jaundice.) फिर उम रम को गुनगुना करके कान में डालने से इंक। कान के दर्द का नाश होता है । वृनि अनि [in ) --यू० मंहदी ! ( Myrtle, अकोदि क्वाथः ark idiksithah-सं० प्र० . अक न arqun ) Imma. plent.. ) पाक की जड़, पीपनामल, सहिजन की छाल.दारु- अकान arkān हल्दी, चन्य, सम्हाल, पीपल, रास्ना, भांगरा, उस्तुकसान Iustinyussat रुक्न का पुनर्नवा, चित्रक, वन, सोंड, चिरायता। इनका । बहुवचन है। अग्नि, वायु, जल तथा पृथ्वी प्रभृति क्वाथ सन्निपान, तन्द्रा, वाय, मनिका रोग, शीत चार भूत ( तस्व) विशेष जिनसे सृष्टि की सम्पूर्ण और अपस्मार का नाशक है । वृ० नि०र०। वस्तुएं उद्धृत हुई हैं। (Flements.) देखो---तत्व । अर्कादिगण: arkatliginah-सं० पु. मन्दारके अर्कानलेश्वरःrkanaleshvarah-सं. वर्ग की श्रोधियों । पु. पारा १ भाग, सुवर्ण पत्र १ भाग दोनों को (१) आक, (२) सफेद पाक, (३) मिलाएँ । जब पारे में सुवर्ण अच्छी तरह मिल जाए नागदन्ती, (४) विशल्या ( लांगली), (५) तब पारेके समान सोना माखी और प्राधे प्रमाण भारंगी ( भार्गी ), (६) रास्ना, (७) वृश्चि । में गन्धक मिलाकर अग्नि पर पिघलाकर पर्पटी काली, (८ ) कंजा, (६) ओंगा, (१०) बनाएँ। फिर पर्पटी का चूर्ण करके एक दिन काकादनी, (११) श्वेता, (१२) महाश्वेता बालुकायन्त्र में पकाएँ । यदि इसकी शकि ये दोनों कोहल के भेद है) और (१३) हिंगोट बढ़ानी हो तो गन्धक दे दे कर ६ लघुपुट दें। अर्थात् ईगुदी यह अर्कादिगण है । सु० सू०३८०! मोट-इसमें स्वर्ण के स्थान में चाँदीपन और . गण-कफ, मेद दोष, विष, कृमिरोग, कुछ सोनामाखी के स्थान में किसी किसी के मन से रोग इनको नष्ट करता है और विशेष करके । वेधक हरिताल डालते हैं । रस० यो० सा.। . ब्रण को शुद्ध करना है । वा० सू० १५ १०।। अर्कावली arkāvali-सं० स्त्री० गुजों ( एक अर्कादिनम् akatlibailam-संपली. प्राक हिन्दी दवाई )। का रस, धतूरे का रस, सफेद थूहर का रस, सहि. अश्मिन arkashman-हि.पु० । जन का रस, कांनी प्रत्येक १ प्रस्थ कूट और | अश्मिा arkashma-सं० (१) सेंधानमक प्रत्येक २-२ पल । इनके साथ एक (A crystal lens.), सूर्य कान्तमणि । प्रस्थ तैल का पाक सिद्ध करें । यह खल्ली, शूल, (२) ( A duby.) सुनी। पहा । एक जा. पक्षाघात और गधसी का नाशक है। प्रकार का छोटा नगीना । चुनि, पामा-बं.1 अरू वृ०नि० र.1 पोपल । हला अर्कादिलेपः arkalilepah-सं० पु. नाक का ! ! अाहुली arkāhuli-बं० (१) सूर्य कान्तइध, थहर का डंठल, गोखरू, कड़वी तरोई के माण (The sun stone.)। (२)हरहर. Tafael ( Gynandropsis Penta पत्ते, करंज की गिरी इन सबको बकरे के । phylla.) अन्धाहली-हिं० । मूत्र में पीसकर लेप करने से मस्सों का नाश , होता है। या०र० . अाह्वः arkāhvah-सं०पु. (.) तालीशपत्र । (Talishapatra.)। (२) सूर्यकांतअर्कान arkan-फा० मेंहदी, हिना । ( Lawsur मणि (A crystal lems: a rubby.)। '_nia. inermis ) ई० हे. गा० । (३) अर्क वृक्ष । ( Calotropis gigaअर्कान arqan-अ० अक्रोन, काँवर, कामला A ntea.) अम० । For Private and Personal Use Only Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्कियात भोपल: अर्कियात aarqiyat-अ० (२०५०), अर्क | बेदमुश्क का अर्क-द० | माउल खिलाफ अ० । (ए. ३०) Waters (Aquae.) | Salix caprea, Linn. (Water of-) देखो-~-अर्क । स० फा० ई. । श्री rki-सं० पु. मयूर, मोर पसी । मयूर श्र नमक aarqe-namak-फा० लवणाम्ल, -चं०। मोरी-मह०। ( A peacock.)! उज्जह रिकाम्ल, नमक का तेजाब। (Hydro. वं. निघ। chlorie or Muriatic Acid.) स० अलि argil-० शरडे की जर्दी, अण्डपीत . फाई! . भाग। ( Yolk of all egg.) अर्के शोरह, aarge-shorah-फाo शोरकाम्ल अर्क जबाल illujjathala-अ० ममियाई । शारे का तेजाब, ( Nitric acid.) । स० - See-llomiyai. फा० इं०। अर्क ज़बीब aary.zabi ba-अ० मुनका या दाख का पानी जो विशेष विधि द्वारा निकाला अर्केश्वररस: arkeshvara-rasah-सं० पु. चन्द्रोदय, तानभस्म, लौहमस्म, सुहागा भुना, गया हो । अर्कत्ताव :Cuttiba-अ० () असरार खपरया (शुद्ध), त्रिकुटा, हरताल इनको पाक के दूध में खरल करें यह एक दिन में सिद्ध (Ative.) । (२) जर्नबाद, मरकचूर, होता है । इसे नस्य द्वारा प्रयोग करनेसे सग्निपात 71(Curcumu zeroaria, Loscoe.) दूर होता है। अर्क ल अरूस argini-aarāsa-१० अभ्रक, अश्वरारस: arkeshvaroragah-सं० पु. भाडर(ल)| Tale (nica.). हरिताल, सोनामाखी, मैनसिल, शुद्ध पारा, अर्कल क़दाद [ul-qdidil-अ. भुना हुआ ! सुहागा, सेंधानमक, चित्रक और भौगरे का चूर्ण नमकीन मांस जिसे यात्रा में साथ ले जाते हैं। सबको बराबर लेकर बारीक चूर्ण करके मिलाएँ । अर्कल काफ़र āargulkifüra-० (१) मात्रा---४ रत्ती। गुण-शहद के साथ सेवन • कपूर का अक, कपूरारिष्ट । ( ''he spirit ! करने से सुप्त मण्डल वाला कुष्ठ नष्ट होता है। ०. Liquor of Camphor.)। (२) रस० यो० सा०। जर्नबाद, नरकचूर, कचूर । ( Curcumaze | अर्केश्वरः arkeshvarah-सं० पु. ताम्रभस्म, doatia, Pustic.) बंगभस्म, अभ्रक भस्म, सोनामाम्खो भस्म प्रत्येक अंकुश qushshajr अ० गोंद निर्यास। समभाग लेकर गिलोय और सुगन्धवाला के रस (Gum.) की २१ पुट देकर शराब सम्पुट में रखकर दूंक अ.कन an.rquna-अ० एक पौधा है जिसकी दें। फिर अडूसा, शहद और विदारीकंद के रस पत्तिया शकायान्न अमान (गुले लाला) जैसी : में चार चार रत्ती की गोलियाँ बनाएँ । इसको होती हैं। शहद के साथ खाने से रक्तपित्त तत्काल नष्ट हो जाना है। रस. रा सु० स्क्रपित। rqe.gule-surkha-फा०: । अत्तमा arkottuna-सं. स्त्री० वर्वरो, चबुई गुलाब, गुलाब जल, गुलाब का अर्क । ( Rose ! तुलसी । (Ocimum basilicum.) a water.) स. फा. इं०1 अर्कोपल: arkopalah-सं० पु. अर्के गागिर्द |qe.gogita-फा० गंधकाम्ल, अर्कपल arkopala-हिं० संत्रा पु. ... गंधक का तेजाब (Sulphuric Acirl.) : सूर्यकान्तमणि, प्रातशी शीशा, लाल पद्मराग । स० फा० ई.०। (The sun.stone;a ruby a crystal अर्के बेदेमुशक aares-bedemushka--फा० lens.) For Private and Personal Use Only Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भोल भगवा अर्कोल arko! | -पं० तत्रक, तत्री, तेत्री, कण्टक वृत विशेष । नील झा एटी-५० । एरवणी अखेर arkhau ) चेचर, ककरी, दूद्ल, बांश, -मह० । कटसरैया-हिं० । ( Barlerial हुलशिङ्ग । रहस मेमियलेटा (Bhus Semi... coerulea ). alatia, intey.), रय बकियामेला ( B. गुण-शीतल, वणशोधक तथा रोपक है। Buckia mela, Rob.)-ले० । रश्त मद० २० । अर्गट कसेला, शीतल वीर्य, व्रण-सत० । दखमिल, दसविल-उ० प० सू०। विशोधक, व्रण रोपण करने वाला तथा पुष्प मधुर बक्कियामेल, भगमिली-नै गा०। तुस्ति -लप है। यह तिक है एवंज्वर, वित्त, कफ तथा रक रोग भल्लातक वर्ग नाशक है। वै० निघः। (N.O. Inturditiece.) अगट ergot उत्पत्ति-स्थान-शीतोष्ण हिमालय, बनहल अर्गट श्रॉफ राई ergot of rye से सिक्किम पर्यन्त तथा खसिया पर्वत । -३० गन्शुम दीवाना, शैलम, अगंटा । (Erg. प्रयोगांश-फल ( Berries.) । तैल ___ota.) औषध तथा प्राहार के काम आता है । अगनीन arghanoun-० अर्गन वाद्य जिसको उपयोग-उदरशूल में इसका फल व्यवहार हकीम अफलातून ने अन्वे.पत किया था। ऑर्गन में पाता है । स्ट्य धर्ट । Organ-इं०। अर्क जा āarqza -अ० (१) हिन्द नोट--ॉर्गन का अर्ध अवयव, इन्द्रिय अज़ान aarqzanit कृती, विषखपरा अथवा शस्त्र भी हैं। अह जान aarhz.ina ) (बूटी ), (२) अगल argal-हि. संज्ञा पु० [सं०] (1) . . बरबतूरह । काई कोई बखूरुल अकराद को कहते अरगल । अगरी । ब्याड़ा । (२) किवाद । (३) अवरोध । ( ४ ) कल्लोल । अक टोस्टोफिलास लोका retostaphylos अर्गलम् argalam-सं० क्ली. मांस, गोश्त । glanca-ले० मेज़ानोटा लीन्ज़ ( Mane: (Muscle; Flesh.) वे० निध०। zanita leaves.)-९० । : अंगल argha.Ja-अ० वह मनुष्य जिसका खतना अक्टोस्टै फलॉस यूवा अाई aretos taph-- न हुआ हो । ( Uncircumcised. ) ylas uva, usi, Spreng.-ले० इनबुडुब, अर्गला igala-हिं० संज्ञा स्त्री० [सं०] (1) भलक (रीछ ) द्वाक्षा-हिं० । इसकी पत्तियाँ अरगल । अगरी । (२) ब्योडा। (3) अव औषध कार्य में पाती हैं । मेमो० । देखो-युवी रोध । (५) वाधक । अवरोधक । रुकावट अआई । ( Uvce ursi.) डालने वाला। अर्क फन arkfan - यु. चणकः, चना । (gram, अर्गलाधरा argularlhali-सं०स्त्री० (Infra. or chick pea ). ____spinatus ) कशेरु काटकाधरा । अर्खामून arkhāmāna-अ० चा श्याम वृत्त । ! अर्गली argali-हिं. संज्ञा स्त्री० [देश॰] . नेत्र का काना भाग अर्थात् पुतली। भेड़ की एक जाति जो मिश्र शाम श्रादि देशों में अगजा argaja -हि० संत्रा पु० अरगजा । होती है। सुगन्धि विशेष । (A perfume of a अगलोत्तरा argalottara-सं. श्री. : yellowish colour and compoun (Supraspina tus ) कशेरुकण्टकोछ। ... dad of several scented ingredients). . . . . अर्गयाँarghavai-का० (१)अर्जवा अ० एम्वृव अर्गटः argatah-सं० पु. पागल नामक हैं जो फारस देश में उत्पन्न होता है। इसके For Private and Personal Use Only Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org मो पुष्प अत्यन्त नीलाभरक वर्ण के तथा सुन्दर होते हैं। स्वाद मधुर होता है । प्रकृति---१ कक्षा में उष्ण व रूत्र, माइल व | इश्रुतिदाल | स्वाद - किञ्जित मधुर, किसी किसी ने कटु एवं किञ्चिद् विक लिखा है । हानिकर्त्ता - इसकी जड़ यमनकारक हैं | श्रामाशय के लिए हितकर । दर्प-वर्ग उन्नाव और नाम । प्रतिनिधि - संदल व गुले सुख मात्रा-ज २ दिरम (७ मा० ) और पुष्प ३ दिरम ( १० ॥ भा० )। प्रधान कर्म - श्वासांच्छ्र वासाश्रवयव का विशोधक | ! गुण, कर्म, प्रयोग - पिच्छिल वा सांद्र दोषों को विसर्जित करता तथा श्रामाशय एवं वृक्क की शीतलताको नष्ट करता है। श्वासोच्छवास सम्बन्धी अवयवी ( फुप्फुस ) को शुद्ध करता हैं । । जलाकर इसके प्रयोग करने से मुख द्वारा रक्क स्राव होने को लाभदायक हैं और इसका बीज नेत्र सम्बन्धी औषधों में चाकसू के समान उष्ण नेत्राभिष्यन्द को दूर करता है । म० मु० । अश्मरी को नष्ट करता एवं स्वर को साफ करता है । इसके फूलों का काथ आमाशय एवं फुप्फुस को शुद्ध करता और अत्यन्त वमन लाता है । • जलाकर अवचूर्णन करने से यह रक्ररुद्रक और उत्तम विज्ञाब है तथा भात्रों के रोजगाता है । वु० मु० । (२) बैंगनी स् वर्ण ( Wed & bluish ) भगवान arghavani - अ० श्यामानायुक्त रक वर्ण' ! ( Blackish red colour. ) अर्गाहल argyrol - इं० वाइटेलीन ( Vitellin. ) देखो -- रजत | अर्गाना arghámúni-o बन पोस्ता, मामीसा सुख (वन्य पोस्त सहरा एक बूटी ) । ( Wild poppy. ) श्रर्गीमोन मेक्सिकेना argemone mexicana, Linn. ले० सत्यानासी भट्ट भाँड़ । (Gamboge thistle; mexican poppy ) [फा० ई० १ भा० । अर्गीरिया स्पेसिनोज़ा argyreia speciosa Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir writer - ले० समुद्रशोष । ( Elephant creepar. ) इं० मे० मे० । श्रग़लम arghilam - इम्रा० खुफ्री | See khurfa. श्रस arghis- यू० ज़रिश्क मूल स्त्रचा | Seezarishka. श्रनिया सिडर विज़लॉन argania sidero xylon, #. S. - ले० इसका बीज तथा फल प्रयोग में आता है। मेमो० । श्रर्गेमोन orgamine इं० देखो — श्रर्गोटा ! अर्गोग्राफ ergograph to इटली के एक वैज्ञा निक ने इस नाम का एक यन्त्र तैयार किया था । इसके द्वारा थंगुलियों की पेशियों की शक्रि नापी जाती है । अपश्रोल ergoapiol - ई० यह श्रजमोदा (Apiol.) तथा श्रटका एक मिश्रण है। इसको कैप्श्यूल रूप में रजोरोध में देते हैं । हिं० मे० मे० | देखो - अजमोदा | श्रटा ergota-ले० अर्गट Ergot, अट ऑफ राई Ergot of Rye, सीकेल कॉम्युटम् Secale Carnntum, स्पर्ड राई Sp rred rye, स्मट राई Smut rye-० । केक्स सिकेत्ज़िनस Clavus secalinus कॉन् Ble cornu-फ्रें० । मटर कॉर्न Muttercorn-जर० । शैलम् श्रश्शैहमुल् मुक्कान, जत्रेदार ( मिश्र० ), अल्कमूहिउल् अस्त्र हन्तुरसौदा श्रु० गन्दुम दीवानह -Firo! छत्रिका वा तृणवर्ग (N. O. Fungi and Gramin icæ.) संज्ञा - 'नर्णय - फ़रासीसी भाषा में अर्गट का अर्थ कुक्कुट कण्टक (खारे मु ) है । अर्गट स्वरूप मैं उसके समान होता है। इसलिए इसको उक्त नाम से अभिहित किया गया। उत्पत्ति-यह फंगस अर्थात् छत्रिका के प्रकार की एकफफूँदी या काई हैं, जिसको परिभाषा में क्रवीसेप्स पयुरिया ( Claviceps purpurea, Tultane) कहते हैं । जब For Private and Personal Use Only Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अगटा अर्णोदा। यह फफ वी सीकेली सिरिएली ( Secale एक ग्लकोसाइड । (४) अगं टॉयसीन Cereale) नामक धान्य में जिसको आँग्ल ( Ergotoxine. )-एक गैंग्रीनोत्पादक भाषा में कॉमन राई ( Common Rye): सत्व जो प्रयोग करने पर व्यर्थ सिद्ध होता है। और अरबी में शैलम या जत्रेदार कहते हैं, लग ।। कहते हैं कि यह इसका प्रभावात्मक अंश है। जाती है ( अर्थात उक फदी छत्रकीय जी- अगोटीनीन इसका अनुहाइड्राइड है। (५) वाण या वानस्पतिक कीट राई के दाने के भीतर ! अग मीन ( Ergamine. ) तथा (६) प्रविष्ट होकर उसकी रचना में परिवर्तन उपस्थित । टायरेमीन ( 'I'yramine.)। (0) एक कर देते हैं।) तब उक्र विकृत राई को जो वास्तव स्थिर तैल ३००/o, (८) ट्राइमीथल अमाइन में उक फफ दी से पूर्ण होती है, अर्गट वा अर्गट जो इसकी गंध का मूल है और (६ ) टैनोन प्रॉफ राई कहते हैं। तथा रञ्जक पदार्थ प्रभूति अवयव इसमें विद्यमान वर्णन-इसके किसी भाँति नोकीले त्रिकोणा- , होते हैं। संयोग-विरुद्ध (Incompatibles. )कार साधारणतः वक्र दाने होते हैं जिनकी नोक । पतली होती है। ये से वा एक इंच लम्बे . ग्राही ( Astringent. ) श्रीषध और मेटैऔर इंच चौड़े होते हैं। इनके दोनों पृष्ठ । लिक साल्ट्स (धातुज लवण)। . विशेष कर नतोदर पृष्ठ तीन परिखायुक्र होते हैं। ___ प्रतिनिधि-कार्पास मूलत्वक | नोट- स्त्री और दाने स्फुटित ( चिड़चिड़ाए या चटखे) रोगों की चिकित्सा में कार्यास अर्गट से श्रेष्ठतर होते हैं। बाहर से ये मील लोहित । वनकशई एवं निरापद है । देखो-कार्यास । स्याह ) और भीतर से प्याजी श्वेत वण' के और सूचना-अर्गट के समूचे दानों को सुरक्षितभंगुर होते हैं अर्थात् इनको जहाँ से ताई वहीं तया शुष्क करके ( अग्नि पर नहीं, प्रत्युत प्रशांत से टूट जाते हैं । गंध विशेष प्रकार की अग्राह्य चूर्ण के उशाप पर शुष्क करें') सर्वथा शुष्क एयर और स्वाद खराब ( कुस्वाद ) तथा हृल्लासकारक टाइट अर्थात् वायुरोधक शीशी में डालकर और होता है। उसमें किंचित् कपूर डालकर रखें जिसमें वह विकृत न हो एवं उसमें कीड़े न लग जाएँ। इस रासायनिक संगठन-रासायनिक विधि श्रोषधि का चूर्ण बहुत शीघ्र विकृत हो जाता है। अनुसार अर्गट का विश्लेषण करने पर इसमें ___ संयुक्र राज्य अमेरिका की फार्माकोपिथा में अनेक पदार्थ पाए जाते हैं। उनमें से इसके केवल लिखा है कि एक वर्ष पश्चात् यह अप्रयोजनीय प्रभावात्मक सत्वों का ही यहाँ रल्लेख किया हो जाता हैं। जाता है । वे निम्न हैं प्रभाव---श्रावप्रवर्तक, गर्भशातक और (१) स्केसालिनिक एसिड (Spha- साबागीय रकस्थापक । celinic acid.) (जिसका प्रभाव स्फेमी- औषध-निर्माण तथा मात्रा-- लोटॉक्सीन के कारण होता है ) गर्भाशयिक मांस चूर्णित अगंट, १० से २० ग्रेन, प्रसव हेतु, पेशियों के संकोचनके अतिरिक्र यह रक्रवाहिनियों ३० से ६० ग्रेन। को भी शाकुचित करता है । यह जल में अविलेय तरल रसक्रिया (सार), १० से ६० पर ऐलकोहल ( मद्यसार ) में विलेय होता है। मिनिम । (२) कॉन्युटीन (Cornutine.)-यह घन सत्व ( रसक्रिया), १ से १ ग्रेन । एक ऐलकलाइड (शारोद) है जिसका मुख्य . फाएट (४० में ), १ से २ ल. पाउस। कार्य जरायु सम्बन्धी मांसपेशियों का संकोचन तैल, १० से २० वा ३० मिनिम प्रसवार्थ । है। यह जल में अविलेय होता है। (३), टिंव चर वा पासव (१ से ४ प्रूफ स्पिरिट), अर्गेटिनिक एसिड (Ergotinic acid.). १०से ६० मिनिम ।। For Private and Personal Use Only Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीगोस www.kobatirth.org १ से ४ ग्राम ६४८ मात्रा -- १५ से ६० प्रेन ( प्रायः चूर्ण रूप में प्रयुक्र होता है । ऑफिशल योग (Officinal preparations. ) (१) एक्सट्रैक्ट अर्गोटी ( Extractum Ergote ) - ले० । एक्सट्रैक्ट ऑफ़ अर्गट ( Extract of Ergot. ) I टीन, अर्गट रसक्रिया, वर्गट सत्व वा सार - हिं० 1 ख़ ुलास हे शैलम्, शैल्मीन - अ० | रुन् गन्दुम दीवानह - फा० नोट -- गोंदीन ( Ergotin ) ब्रिटिश फार्माकोपिया ( B. P . ) में सॉफ्ट एक्सट्रैक्ट ऑफ द का ऑफिशल पर्याय था । पर इस नाम से भ्रम उत्पन्न होने की आशंका है, श्रस्तु इस नाम का परित्याग कर देना ही उत्तम हैं T निर्माणा-विधि - अर्गट का ४० नं० का चूर्ण २० श्राउंस, ऐलकोहाल ( ६० % ) और परिस्रुत वारि श्रावश्यकतानुसार, डायल्युटेड हाइड्रोक्रोरिक एसिड ( जल मिश्रित उज्जहरिकाम्ल ) ल ुइड ड्राम और सोडियम कार्बोनेट १७१ झेन । अट के चूर्ण को १० ल ुइड आउंस ऐलकोहाल से क्रेंदित कर पकलेटर ( चरणा यन्त्र ) में स्थापित करें और पर्याप्त ऐलकोहल डालकर इतना सरण करें कि वह एक्ज़ास्ट होजाए (ख़तम होजाए ) पुनः प्राप्त द्रत्र को जलकुण्ड ( वाटर बाथ ) पर इतना उड़ाएँ वा शुष्क करें कि उसका द्रव्यमान ५ झुइड श्राउंस शेष रह | फिर उसमें लूइड श्राउंस परिस्रुत वारि मिलाएँ और शीतल होने पर पोतन कर उसमें जलमिश्रित उज्जहरिकाम्ल सम्मिलित करदें । २४ घंडे पश्चात् पुनः उक्त द्रव का पोतन करें और जो मल अवशेष रह जाए उसको जल से इतना धोएँ कि उसकी अम्लता सर्वधा दूर हो जाए। फिर अवशिष्टांश को धोने से शेष रहे हुए द्रव को पूर्व प्राप्त द्रव में मिलाकर और सोडियम कार्बोनेट को उसमें विलीन करके उसे जल कुण्ड ( वाटर बाथ ) पर वाष्पीभूत कर मृदु रसक्रिया रूप में शुष्क करलें । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गटा मात्रा - २ से प्रेम ( १३ से ५२ ग्राम वा १२ से ५० शतांश ग्राम ) । (२) एक्स्ट्रैक्ट अगडी लिक्विडम् Extractum Ergote Liquidum --ले० । लिक्विड एक्स्ट्रैक्ट ग्रॉफ अर्गट Liquid Extract of Ergot-- ३० । अर्गट तरल सब, अर्गट द्रव रसक्रिया - हिंο| खुलास शैलम सय्याल - अ० । रुब्बे गन्दुम दीवानह सय्याल फा० ! निर्माण विधि - कुट्टित अर्गट २० आउंस, परित्रत वारि ७॥ पाइंट, ऐलकोहल ( ६०% ) ७|| फ्ल ुइड आउंस । अर्गट को ५ पाइंट परिस्त वारि में १२ घंटे तक भिगोकर निःस्रावित करलें और अवशेष को अवशिष्ट परिस्रुत वारि में उतने काल तक भिगोकर पोतन करें। पुनः प्रत्येक प्राप्त द्रव को परस्पर योजित कर इतने उत्ताप पर वाष्पीभूत करें जिसमें तरल का द्रव्यमान ४ फ्ल ुइड आउंस शेष रह जाए फिर उसमें सुरा सम्मिलितकर 1 घंटा पश्चात् पोतन करलें । प्रस्तुत रसक्रिया का परिमाण पूरा २० ल ुइड श्राउंस होना चाहिए । मात्रा -- १० से ३० मिनिम ( ६ से १८ घन शतांश मीटर वा ६ से १८ डेसिमिलिग्राम ) जल में । ( ३ ) इन्फ्युज़म गेंदी Infusum Ergote.० । इन्फ्युजन श्रॉफ अर्गट Infusion of Ergot - इ० श्रट फांट --हिं० । ख्रिसाद शैलम श्र० । ख्रिसाद हे गन्दुम दीवानह फा० । निर्माण विधि- सद्यः कुट्टित श्रट १ भाग, खौलता हुआ परिस्रुत जल २० भाग १ द पात्र में १५ मिनट तक अर्गट को जल में प्रक्रेदित कर पोतन करले । मात्रा-१ से २ ल ुइड आउंस ( २८४ से १६८ घन शतांश मीटर वा ३० से ६० मिलिग्राम ). इओक्शियां अटो हाईपोडर्मिका Injectio ergota hypodermica -ले० | Hypodermic injection of For Private and Personal Use Only Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org अर्गाटा अगोटा crgot or Ergotin हाइपोडर्मिक इन्जेक्शन | सम्मिलित कर उसमें इतना ऐलकोहल और ऑफ़ अर्गट भार अगोंटीन-इं.। अर्गर स्वकध: योजित करें कि प्रस्तुत टिंक चर का द्रव्यमान पूरा स्थ अन्तःप-हिं० । जराकहे शैल्मीन तह तुजिल्ट ! १ पाइंट हो जाए । फिर २४ घंटे पश्चात् टिंकचर या जेरेजिल्द-अ०। शैल्मीन की ज़ोरे जिल्द : का पोतन करलें। पिचकारी-उ०। मात्रा-प्राधे से १ ड्राम वा ३० से ६० निर्माण-विधि-एक्सट कट ऑफ अर्गट १०० । मिनिम (१.८ से ३.६ धन शतांशमीटर=२ से प्रेन, फेनोल ३ प्रेन, परिनु त वारि २२० मिनिम ! ४ मिलिग्राम)। वा आवश्यकतानुसार । फेनोल को परिस्रुत नॉट ऑफिशल योग तथा पेटेन्ट औषधे धारि में मिलाकर थोड़े काल तक क्वधित करें। (Not officiul preparations. ) शीतल होने पर उसमें एक्सट्रैक्ट ऑफ अर्गट ! (9) डिस्कस ऑफ प्रोटोन Dises सम्मिलित करके इतना परिन् त जल और of ergotin अर्थात् अगोंटीन पट्टिकाएँ । मिलाएँ कि इलेक्शन का द्रव्यमान ३३० मिनिम सफ हात रकीकह शैल्मीन-१०। हो जाए। प्रत्येक टिकिया में ! या प्रेन अगोंटीन शक्ति ग्रेन प्रगट ११० मिनिम में या होता है। स्वगीय पिचकारी द्वारा स्वगधः ३ में । ( ३.३ मिनिम, ग्रेन एक्सट्रक्ट | प्रविष्ट करने के लिए इसका निर्माण किया श्रीक अर्गट)। गया है। मात्रा-३ से १०मिनिम (.15 से .६ घन समय पर एक टिकिया को १० मिनिम कीटशतांशमीटर ) गम्भीर त्वकधस्थ अन्तःक्षेप रहित ( क्वथित कर साफ व स्वच्छ किए हुए ) परिघुन चारि में मिलाकर प्रयुक्र करें। सूचना-समय पर इसका सदा सद्यः प्रस्तुत (२) पिल्युला अर्गोटीनी Pilula ergotini कर प्रयोग करना चाहिए । अगोटीन वटिका । हस्त्र शैल्मीन। टिंक चूरा अगाँटी अमानिएटा अगोटीन २ ग्रेन, लिकोरिस पाउडर ( यष्टिTinctura ergotiv ammoniata मधु चूण')३ ग्रेन । दोनों को परस्पर योजित कर ले। अमोनिएटेडे टिंकचर श्रॉफ अर्गट ( am वटी प्रस्तुत करें। moniated tiucture of ergot-इं० । (३) लाइकर अर्गाटो अमोनिपटस अमोनित अर्गटासव-हिं० । सिबगहे शैलम ! Liquor ergoti ammouiatusअमनी-अ० । तफ्रीन गन्दुम दीवानह, प्रमूनी श्रमोनिन अगोटीन द्रव । सख्याल शैल्मीन -फ़ा। अमूनी। निर्माण-विधि-अर्गट का २० नं. का चूर्ण यह एक प्रकार का लिक्विड एक्सट्रक्ट श्राफ ५ श्राउंस, सोल्युशन आफ अमोनिया २ ल्फुइड अर्गट अर्थात् अगट तरल सत्व है जो अमोनिया पाउंस, ऐलकोहल (६०%/0) अावश्यकतानुसार । वाले चिलीन एलकोहल से प्रस्तुत किया जाता सोल्युशन ऑफ अमोनिया में १८ फ्लुइड पाउंस ऐलकोहल सम्मिलित कर उसमें से २ फ्लुइड (शक्ति १ में 1 ) यह एक प्रभावारमक और पाउंस लेकर उससे चूर्ण को प्रवेदित कर क्षरण- | विश्वस्त योग है। यंत्र ( पोलेटर ) में स्थापित कर दें तथा मात्रा-१० से ६० मिनिम=( ६ से ३.६ अवशिष्ट द्रव को उस पर धीरे धीरे डाल कर उसे घन शतांशमीटर). पोलेट (परण) करलें । पुनः अवशेष को (४) मिसचूरा अटो Mistura ergotip लिचोदने से प्राप्त अर्क को हरणकृत तरल में -अर्गट मिश्रण । मजीज शैलम् । For Private and Personal Use Only Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अगटा १५० श्रोटा लिक्विड एक्सट्रैक्ट अाफ़ अर्गट ३० मिनिम, (E) कॉन्यु टोन साइट्रेट Cornutin डायल्युटेड सल्फ्युरिक एसिड ३७ मिनिम, क्लोरो- citrate-यह अर्गट के एक ऐल कलाइड फॉर्म बाटर १ श्राउस पर्यन्त ! (बी० पी० (क्षारोद ) का घिलेय लवण है जो काबर्ट के सी.) मतानुसार अगट का क्रियाशील सत्त्र का प्रभा. (५) भिसचूरा अर्गटी अमोनिपटा- वात्मकांश है । यह एक धूसर वर्ण का चूर्ण है, Mistura ergote ammoniata- प्रसव हेतु जिसका अधिक उपयोग होता है। अमोनित अर्गट मिश्रण। मजीज शैलम अस्तु से ग्रेन की मात्रा में मुख द्वारा तथा अमोनी। लिक्विड एक्सट्रैक्ट अफ अर्गट २० मिनिम, . . से - ग्रेन की मात्रा में स्वस्थ सूचीवेध द्वारा अमोनिग्रम काबो नेट ३ ग्रेन, इमल्शन ऑफ़ इसका प्रयोग करते हैं। कोरोफॉर्म १५ मिनिम, कैम्फर बाटर १ पाउस (१०) अगोटीन Firgotin)-यह अर्गट पर्यन्त । ( युनिवर्सिटी हास्पिटल ). का कंवल एक विशुद्ध सत्व है | अगोटीन (E1(६) मिसचूग श्रोधी एट फेराई gotine ), बीजियन्स प्रोटीन (Bonje. Mistura ergotiret felri-लोहार्गट an's Ergotine)-इं०। मिश्रण । मज़ीज शैलम व अाहन । उपयोग लिक्विड एक्सट क्ट श्राफ अर्गट ३० मिनिम, : इसका प्रायः उन सभी दशाओं में प्रयोग सोल्युशन ऑफ़ फेरिक नोराइड १५ मिनिम, होता है, जिनमें कि अगट प्रयुक्र है । परन्तु निम्न साइटिक एसिड ५ग्रेन, क्लोरोफॉर्म वॉटर पाउंस लिखित कतिपय अन्य ऐसे विकार भी हैं जिनमें पर्यन्त । ( गाटज़ हास्पिटल लण्डन) इसका उपयोग होता है। (७) वाइनम अर्गेटो Vintuna erg (१) नपुनकत्व ( जीवता )--शिश्न Othr:- अर्गट सुरा । शराव शैजम । पृष्ठस्थ शिराओंके फल जाने के कारण जब उचित फ्लुइड एक्सट कट ऑफ अर्गट २० भाग, । प्रहर्षणाभावसे मैथुन शनि कम हो जाती है, तब डीटमेटेड शेरो ८० भाग । (बी० पी० सी०) अगोटीन के त्वकम्थ अन्तःक्षेपसे प्रायः पूर्ण लाम (८) एसिडम स्किरोटिकम् Acidum ' होता है। Scleroticum-ले० । स्रोिटिनिक एसिड (३) अर्गोटोन और कानान-यह दोनों Sclerotinic acid-इं । यह अर्गट द्वारा गर्भाशय एवं प्लीहा को संकुचित करते हैं; और प्राप्त एक महान प्रभावकारी सत्य है । परीक्षा- विशेष कर उस अवस्था में जब विषम ज्वरों में एक निर्बला अम्लीय सार जो धूसर स्फटिकीय प्रीहा कोमल हो या वह बढ़ गई हो, तब इनमैसे चूर्ण रूप में पाया जाता है। यह श्राद्र ताशापक प्रत्येक एक दूसरे का प्रतिनिधि हो सकता है। और जलविलेय होता है। . विषम ज्वरों में इन दोनों का मिश्रण अत्यन्त गुण-तथा उपयोग-१ ग्रेन शिरोटिनिक उपयोगी होता है और इस प्रकार उपयोग करने एसिड प्रमात्र में ३० ग्रंन अट के बराबर हाता सं कानान के अधिक परिमाण की बचत होती है। यह सूक्ष्म रक्तवाहिना संकोचक है । अस्त है। क्योंकि मिथित रूप में व्यवहार करने से यह रक्रास्थापक रूप से तथा रतसंचय जनित आधा ही कोनीन प्रयुक्त होता है। .' शिरोशूलहर रूप से लाभदायक है। (३) यनमा जन्य गत्रि स्वेद यह अचमा मात्रा- मं । मन, लवक स्थ अन्तःप गगियों के रात्रिस्वेद में हितकर है। मात्रा-२ द्वारा ( वा ५ से १५ मिनिम मुख तथा अन्तः । न तीन वा चार बार दैनिक । कमी की दशा में हेप द्वारा-ह्वि० मे से०)। जात्रा पटाकर देनी चाहिए। For Private and Personal Use Only Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रग । इंजेक्शयो ( Inj. Ergotini. 11ypot. )अगदी स्वस्थ श्रन्तःक्षेप | www.kobatirth.org अटोनो हाइपोडर्मिका ६५१ शक्ति प्रगोटीन १०० ग्रेन, कैम्फर वाटर २०० फ्लुइड ग्रे० | मात्रा - ३ से १० मिनिम | ( ११ ) अर्गोटोनीन Ergotinine यह एक ऐलकलाइड ( क्षारोद ) है जो अर्गट से प्राप्त होता है। इसके सूदन श्वेत स्फटिक ( खे ) हाते हैं जो वायु एवं प्रकाश के प्रभाव से कृष्ण वर्ण के हो जाया करते हैं । टॉक्सीन का अनुहाइ ० I नोट ---अधुना यह ड्राइड माना जाता विलेयता- - यह एक भाग ( माप में ) ३३भाग ( माप में ) शुद्ध सत्र ( Absolute Alcohol) में, तथा५० फ़ारनहाइट के उत्तार पर विलीन होजाता है। और एकभाग २२० भाग शुद्ध ईश्वर ( Absolute Ather. ) में, एक भाग ६१ भाग ईथिल ऐसीटेट में, १ भाग २६ भाग एसीटोन में, १ भाग ७७ भाग खौलते हुए बेन्ज़ीन में, १ भाग ५२ भाग खौलते हुए ईश्रिया: ऐलकोहल में और १ भाग ५६ भाग मीथिल ऐलकोहल में विलीन हो जाता है । 1 : नोट -- श्रगेोटीनीन और सम्पूर्ण विलायक | द्रव्यों के भाग द्रव्यमान ( श्रायतन ) के अनुसार नहीं, प्रत्युत माप के अनुसार हैं । गुणधर्म तथा उपयोग -- प्रभाव में यह दिन की अपेक्षा अधिकतर शक्तिशाली है । after पादक बात-तन्सु-विकार, विशेषतः । fantsfâ, waiaùz, ( Basedow's (disease ) और वस्तिकी वातग्रस्तताकी दशा में इसका प्रयोग करते हैं। अगर सत्व ( Fix• tract of ergot ) के अन्तःक्षेप की अपेक्षा 12टीनीनी का प्रेम की मात्रा क ३०० स्वगधोऽन्तःक्षेप श्रधिकतर लाभ प्रदर्शित करता है | मॉर्फीन इंजेक्शन ( ग्रहिफेनीन धन्तःक्षेप ) की अपेक्षा अधिक वेदना नहीं उत्पन्न करते अपितु अपेक्षाकृत वेदना रहित हैं ), और शोभ या किसी अन्य प्रकार के कुलना नहीं उपस्थित करते । (प्रोफेसर युलेनवर्ग ) । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir डॉक्टर मरेल Dr. Murre] ) को यक्ष्माजन्म फुप्फुसीय रकनिलीयन में कई दिन तक स्वस्राव अवरुद्ध रखनेके लिए साधारणतः इसका एक थन्तःक्षेप ही पर्याप्त सिद्ध हुआ है। प्रसव के पश्चात् की चिकित्सा एवं स्क्रस्रुति के कतिपय अन्य भेदों में इसका सफलतापूर्वक त्वकस्थ श्रन्तःक्षेप किया जा सकता है। I श्रा 9 मात्रा- सेना इसको साधारणतः त्वक्स्थ 320 ४० सूचीवेध द्वारा प्रयुक्त करते हैं । श्रतः श्रर्गोटोनीन १ ग्रेन, लैक्टिक एसिड २ मिनिम, क्लोरोफॉर्म १००० मिनिम को मिलाकर इसमें से ५ मे १० मिनिम, लेकर स्वस्थ सूचीवेध द्वारा प्रयुक्र करते हैं । (१२) टीनी साइट्रास (Ergotihe Citras.) और (१३) अगं टीनी हाइडोक्लोराइड ( Ergotina Hydrochloride ) - यह दोनों श्रगेोदीनीन द्वारा निर्मित धूसर वर्ण के चूर्ण हैं जो जलविलेय होते हैं । ग्रेन | इनमें से प्रथम का मात्रा से १ きか अन्तःक्षेप किया जा सकता है। (१४) श्रगटॉक्सीन (Ergotoxine) - यह एक लघु श्वेत वर्ण का चूर्ण होता है जो शीतल ऐलकोहल तथा सोडियम हाइड्रोक्साइड के विलयन में विलीन हो जाता है । For Private and Personal Use Only इससे हाइड्रोक्लोराइड ( उज्जहरिद ), श्रीक्लेट ( काण्डेत् ) और स्फुरेत लवणों का निर्माण ता I 100 मात्रा- सेग्रेन । यह कॉम्युटीन, एकबोलीन और हाइड्रो- श्रगटीनीन नाम से भी प्रख्यात है । नोट- अरोटीन यद्यपि ब्रिटिश फार्माकोपिया के एक्सट्रैक्ट श्रॉफ श्रट का पर्याय है, तथापि उसके अतिरिक्र इसके कई एक व्यापारिक भेद हैं जिनमें मे कतिपय निम्न हैं : Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अगोटा प्रोटा (क) प्रोटीनम् बोलियन् (Ergotimum Bomjean )--यह एक जलीय राभधृपर एक्सट्रक्ट है जो ऐल कोहल से शुद्ध किया जाता है। इसका १ भाग ५ या ६ भाग श्रर्गट के बराबर होता है। मात्रा-2 से ४, ग्रेन । (ख) अगोटीनम् बॉम्बेलोन फ्लुइडम् ( Ergotinum Bonnbeion Flu idum )-यह एक धयरामकृष्णा वर्णीय द्रव है जिसको ३० मिनिम की मात्रा में स्वस्थ सूचीवेध द्वारा प्रयुक्र किया करते हैं। (ग) प्रोटोनम् डेअल फ्लुइडम् (Ergotinum Deuzel Flulum )यह एक स्वच्छ किया हुअा रस क्रिया (खुलासा, रुटब) है जिसको ३ से १० ग्रेन की मात्रा में (घ) अर्गोटीनम् कोलमैन फ्लुइडम् | (Ergotinumi Kohlmail Fiuidum )-यह भी श्यामाभधूसर द्रव है जो जल के साथ संयुक्क हो जाता है। मात्रा-६. से ७५ ग्रेन। (१५) टायरमीन (Tyramine ), | हाइड्रॉक्सीफेनिलीथिलामीन (P-Hydroxy. ! phenylethylamine ) यह अर्गद फोट में वर्तमान होता है और इसे सन्धानक्रिया विधि (Synthetically) द्वारा भी प्रस्तुत किया गया है। इसका प्रभाव एडीनेलीन (उप वृकसार ) के समान होता है । स्वगधोऽन्तःक्षेप द्वारा । ( ग्रेन की मात्रा में ) भी इसका प्रयोग किया जा सकता है। यह सिस्टोजन (Systogen)| और युटेरामीन ( Uteramin ) नाम से भी प्रसिद्ध है। (१६) इटीन ( Emutin -यह , एक तरल है, जिसमें टायरेमीन और प्रोटॉक्सीन : दोनों सम्मिलित होते हैं। त्वगधोऽन्तःक्षेप रूप से (10 मिनिम की मात्रा में और प्रान्तरिक रूप से ३० से ६० बूद 'मिनिम' की मात्रा में) इसका उपयोग होता है। अगंट की फार्माकालाजी अर्थात् अगट के प्रभाव (आन्तरिक प्रभाव ) डॉक्टर डिक्सन ( Daixon ) एवं डॉ. डेल (Dale ) ने अर्गट स्थित मुख्य प्रभावकारी सत्वों की ध्यानपूर्वक परीक्षा की जो इस कची औषध (Crude drug ) के प्रभाव पर यथेष्ट प्रकाश डालती है। जैसा कि द्विजिटेलिसके सम्बन्ध में कहा जाता है, इसका यह प्रभाव इसके विभिन्न सत्वों के सम्मिलित प्रभाव का परिणाम माना जा सकता है । (डिजिटेलिस के समान. अर्गट से भिन किए हए किसी भी सम्व का ऐसा विश्वस्त प्रभाव नहीं होता जैसा कि कच्ची औषध कांट, टिंचर या लिक्विड एक्सट्रक्ट अर्थात् तरल सच का)। ११) प्रोटॉक्सीन (Ergotoxine)वे पदार्थ जो प्रथम स्फेसीलिनिक एसिड (Sphin. celinic Acid) और स्फेसीलोॉक्सीन (Sphacclotoxin ) नाम मे अभिहित होते थे, उकलकलाइड (क्षारोद ) के अशुद्ध रूप थे । डिक्सन महोदय इसका प्रभाव-स्थल प्रान्तस्थ नाडी-गंड की खेलों को मानते हैं। उनके मतानुसार यह रक्तवाहि. नियों को बलपूर्वक प्रांचित करता है जिससे शरीरावयव एवं हस्तपाद में गैंग्रीन बन जाते हैं, और कुक्कुट की अरूणशिखा श्यामवर्ण में परिणत होकर पतित हो जाती है एवं यह गर्भान्वित जरायु के तन्तुओं का सबल श्राकुचन उत्पा करता है। शय्यागत रूप से अर्थात् रोगी पर यद्यपि इसका कोई विशेष प्रभाव नहीं होता, सो भी यही इसका एक ऐसा प्रमावकारी सत्व है जिससे वास्तव में अर्गट को अमोघ कहा जा मकता है। (२) टायरेमीन (Tyramine.)प्राणिज पदार्थ के पचनकात में अमिनी-एसिड द्वारा भी यह निर्मित किया जाता है। टायरोसीन १२ For Private and Personal Use Only Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अगौटा की शक्ति घट जाती है। अस्तु यह नाही की गति को भी शिथिल करता है। नाड़ी की गति का उक शैथिल्य फुप्फुस वा प्रामाशय नाड़ी प्रांत के क्षोभ के कारण होता है। क्योंकि अगर से पूर्व यदि ऐट्रोपीन (धन्तूरीन ) दी जाए तो फिर ऐसा नहीं होता ।अतः इससे प्रथम र भार घट जाता है अर्थात् अर्गटसे हृदय निर्बल होजाता और नाड़ी शिथिल हो जाती है। (Tyrosine.) से कर्यन द्विशोषित (C0) का बिच्छेद कर भी यह प्रस्तुत किया जा सकता है और उपवृक सस्त्रवत् प्रभाव करता है। प्रांतस्थ । सौपुग्न वात-तन्तुओं के अंतिम माग पर प्रभाव ! करके यह कोष्ठगत दीवारों का श्राकुचन उत्पन्न करता है और गर्मित जरायु की पेशियों का भी संकोच उत्पन्न करना है। (३) अर्गमीन ( Eigamine.)उसी प्रकार पचनकारक कीटाणुश्री की क्रिया द्वारा यह हिस्टिहीन ( Histidine.) से भी भिन्न किया जा सकता है। यह धमनिकाओं का महन विस्तार उत्पन्न करता है और इससे गर्भा. वस्था से पूर्व भी गर्भाशयिक मांसतन्तुओं का सशक वल्य प्राक'चन उपस्थित होता है। जलविलेय न होने के कारण चूं कि अगौटॉक्सीन फांट वा तरल सत्व में विद्यमान नहीं रहना, अतएव इन औषधों की पूर्ण मात्रा द्वारा उत्पन्न प्रभात्र, टायरमीन के धमनिका-संकोचन ( Vaso- . constrictor) प्रभाव के कारण होना अब. श्यम्भावी है,जो कि गेंमीन की धमनिका प्रसारण । ( Vaso-dilator) शनि की अपेक्षा अत्य रक्त वाहिनो - ( रक भार ) अधिकतर धामनिक मांसतंतुओं पर अर्गट का सरल प्रभाव होने से और किसी भाँति इससे सौघुम्न धामनिक गत्युत्पादक केन्द्रों (Vaso-motor centre) की गति प्राप्त होने के कारण सम्पूर्ण शरीर की धमनियों के सबल रूप से प्रांकुचित होने से रभार जो प्रारम्न में कम होगया है। अब वह शीघ्र बढ़ जाती है। यही नहीं प्रस्युत शिराएँ भी किसी प्रकार संकुचित हो जाती हैं । सारांश यह कि अर्गट से सम्पूर्ण शरीर की रक्त वाहिनियों विशेषतः छोटी २ धमनियों के संकुचित होजाने और स्फेसोलिनिक एसिड के प्रभाव से उनकी दीवारों के स्थूल हो जाने के कारण यह एक सार्वागिक सस्थापक (General Hemostatic) है । अस्तु यदि अर्गर को अधिक काल तक सेवम किया जाए तो शारीरिक धमनियों के संकुचित होजाने के कारण शरीरके विभिन्न भागमें गैंग्रीन ( Gangrene ) हो सकता है, जिससे गैंग्रीनस अगोंटिम (Gangrenous. ergotism ) होजाया करता है । इसको अत्यधिक मात्रा वा विषैली मात्रा में प्रयुक्त करने से वैसोमोटर सेण्टर्ज ( धामनिक गत्युत्पादक केन्द्र ) वातग्रस्त हो जाते हैं । हृदय के निर्वस्त होजाने और धमनियों के प्रसारित हो जाने के कारमा सभार बहुत घट जाता है। मुख-प्रामाशय तथा प्रांत्र--अर्गट का स्वाद तिक है । यह लालाप्रस्वाववद्धक है अर्थात् ' इससे अधिक लाला { थूक) उत्पन्न होती है। : मध्यम मात्रा में प्रयुक्त करने से यह प्रांत्रीय स्वाधीन वा अनैच्छिक मांसपेशियोंको गति प्रदान करता है। प्रस्तु, अम्रिस्थ कृमिवत् प्राकुचन तीब्र हो जाता है। कभी कभी तो यह प्रभाव इतना : बढ़ जाता है कि विरेक पाने प्रारम्भ हो जाते हैं। अधिक मात्रा में उपयोग करने से यह प्रामाशय तथा प्रांत्र में क्षोभ उत्पन्न कर देता है। शोणित--इसके प्रभावारमफ अंग तत्काल : रक में प्रविष्ट हो जाते हैं, परन्तु रन पर उनका कुछ भी प्रभाव नहीं होता। उदय--अर्गट हार्दिक मांसपेशियों पर प्रधसादक या नैवल्योपादक ( Depressant) प्रभाव करता है अर्थात् इससे हार्दीय मांसपेशियों श्वासोच्छवास-प्रगट श्वासोरण वास को कम करता है। प्रस्तु, श्वासोच्छवास सम्बन्धी मांसपेशियों की निर्बलता तथा प्रारंप के कारण श्वासावरोध होकर मृत्यु उपस्थित होती है। For Private and Personal Use Only Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्कोटा अगाटा - वात या नाडोमण्डल -मस्तिष्क पर करने से तो कदाचिन विरलाही नजन्य विषाकना .. इसका प्रत्यल्प प्रभाव होता है। औषधीय मात्रा दृष्टिगोचर होती है। परन्त मे निधन प्राणी जो अथवा एक ही बड़ी मात्रा में इसका उपयोग । दृपिन राई के धान्य ( जिसमें प्रगट ग्राफ राई करने से सवोत्कृष्ट वातकेन्द्र प्रभावित नहीं होते। वर्तमान होती है) भक्षण करते हैं,प्रायः वे क्रॉनिक पर यदि चिरकाल तक इसका निरंतर उपयोग अगो टिज़्म ( पुरातन प्रकार के अर्गट विप) से किया जाए तो विशेष प्रकार के लक्षण उपस्थित श्राक्रांत पाए जाने है। निम्नलिखित इसके दो हो जाते हैं, जिनको श्राक्षेपयुक्त अर्गटजन्य स्वरूप होने हैंविषानता (Spasmotlic ergotisum) (१) ग्रीनस अगांटिमकहते हैं। धमनियों के संकुचित हो जाने से चूं कि रक्क गर्भाशय --गर्भवती खियों तथा नद्र जीवों में समग्र अवयवों में यथेष्ट परिमाण में नहीं पहुँच गर्भावस्था विशेषकर प्रसवकाल में अर्गट के प्रयोग , पाता; अतएव पोषण विकार के कारण शरीर के से जरायु इतनी तोत्र गति से अांकुचित होता है : विभिन्न अवयवों में विशेषकर हस्तपाद में कि तदाभ्यन्तरस्थित सभी वस्तुएँ बहिर निर्गत : गैंग्रीन ( (Guhgrthe ) की दशा उपस्थित हो जाती हैं । अतएव यह एक सबल गर्भशातक , हो जाती है जिसका पेस्लेग्रा ( Iellsgra) से (आशुतसवकारी) औपध है। इसको बड़ी । निणय करने में भ्रम न करना चाहिए। मात्रा में प्रयुक्त करने से टेटेनिक स्पैम । (२) स्पैमोडिक अोटिज्म (पाक्षेपयुक्त अर्गट (धानुस्तम्भीय श्राक्षेप) होने लगता है। यह विर) इस प्रकार के रोगी को प्रथम कण्ड वा गुदबात अभी सन्देहपूर्ण है कि आया यह गर्भ- ' गुदी का बोध होता है अथवा सम्पूर्ण शरीर पर शातक भी है ? क्योंकि जब तक दरविज़ह प्रारंभ चिटियाँ रेंगती हुई प्रतीत होती है। तदनन्तर न हो इससे जरायु संकुचित नहीं होता । गर्भ सनसनाहट और स्थानिक संज्ञाशून्यना का अनुविहीन वा शून्य जरायु पर इसका बहुत साधारण भव होता है। श्रस्तु साधारणत: पहिले हस्तपाद प्रभाव होता है; बल्कि कुछ प्रभाव नहीं होता श्राक्षेपग्रस्त एवं प्रसन्न हो जाते हैं । पुनः सम्पूर्ण अर्थात् इससे गर्भाशयिक तन्तु संकुचित नहीं शरीर की यह दशा हो जाती है। सुधा बढ़ जाती होते । सम्भवतः इसका या मात्र गर्भाशय के है । वरण व दर्शन में अन्तर आ जाता है । मांसधारीविहीन मांस पेशियों पर सरलोशेजक असर ! पेशियों की निर्बलता के कारण गत अस्थिर हो होने से और किसी भाँति सौपुम्न गर्भाशयिक : जाती अर्थात चाल लम्बड़ाने लगती है । वातकेन्द्रों को गति प्रदान करने के कारण हुआ नाड़ी की गति अत्यन्त मंद हो जाती है, वमन व करता है। ... विरेक प्रारम्भ हो जाते हैं । अन्ततः माांगाक्षेप .. प्रस्राव ( रसोद्रेक )-अर्गट के प्रयोग से होकर ऐम्फिक्म्यिा (श्वासावरोध) की दशा में झाला, धर्म, दुग्ध तथा मूत्रोम्पत्ति व प्रसाब घट मृत्यु उपस्थित होती है। जाता है । जिसका कारण यह होता है कि समग्र शरीर की रकवाष्टिनियों के संकुचित हो जाने से उक दवा की, 'उत्पन्न करनेवाली ग्रंथियों में | अर्गट द्वारा विपात्र होने पर निम्न मिण का रक यथेष्ट परिमाण में नहीं पहुँचता । व्यवहार करें__अगट-अगदतन्त्र ईथरिम प्यार . ३० मिनिम (अर्गट के विधान प्रभाव वा.लक्षण) टिंक्चर आपियाई १० मिनिम * क्रॉनिक अंगोटिज़म (अर्गट द्वारा चिरकारी मिरूपाई ५.ाम विषाकता)-औषधीय मात्रा में इसका उपयोग | एक्की द्विम्टिलेटा ४ ड्राम अगद For Private and Personal Use Only Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्गाटा अर्गेटी इसमेंसे एक चाय के चम्मच भर औषध प्रति , अतएव प्रसधानन्तर होने वाले किसाव में अगंट श्राध अाध घंटे के अन्तर से प्रयुक्र करें। एक अत्यन्त चमत्कारिक औषध है । उन नोट नाइटोग्लीसरीन को बड़ी मात्रा में देने । बहुप्रसूता नारियों को जिनमें प्रसव के पश्चात् से जो विपाता उत्पन्न होती है उसका तथा प्रायः रक्रमाव हुआ करता है, प्रसव के बाद अधिक परिमाण में क्वीनीन के प्रयुक्र करने से तत्क्षण अर्गट का उपयोग लाभदायक होता है। हुई मास्तिष्कीय विकार का अर्गट एक उत्तम और यदि इसके प्रयोग में कोई प्रात रोधक न अगद है। हा ती प्रसवस पूर्व भी इसे दे सकते हैं। कतिपय अगंट के थेराप्युटिक्स अर्थात् उपयोग प्रधान रोगियों को प्रमोनिएटेड टिंक चर ऑफ ' (वहिर प्रयोग) अगट या लिक्विड ऐक्सस्ट्रक्ट श्राफ अगट १ से कभी कभी गलगरड (गॉइटर ) और धाम- - २ ड्राम की मात्रा में दिन में ३-४ बार देते हैं नीयावुद (एन्युरिजम ) के समीप श्रगोटीन का या हाइपोडर्मिक इजेक्शन ऑफ अगट को स्वस्थ अन्नः क्षेप करने से लाभ होता है । गुद- १०मिनिमि की मात्रामें २-३ बार प्रयुक्र करते हैं । भ्रंश ( Prolapstus of the rectum) सप्रदर एवं कई प्रकार के गर्भाशयिक प्रबुदों की में यदि प्रति ढ़सरे वा तीसरे दिवस गुदसंकोचनी रक्त खति में भी उन औषधि के प्रयोग से उत्तम पेशी वा स्वयं गुदा में ३ ग्रेन अगाटीन का परिणाम प्राप्त हुए हैं। ऐसी दशा में गर्भा. स्वस्थ अन्तःनेप किया जाए तो कहते हैं कि शयिक द्वार में अगों टीन की पिचकारी करनी उन व्याधि की निवृत्ति होती है। चाहिए। श्रान्तर प्रयाग अगट चैं कि रक्तवाहिनियों का संकुचित साागिक रक्तस्थापक रूप से अगट अब तक करता है; अस्तु कभी कभी इसका पप्युरा ( रक्त विख्यात है और सम्पत्ति इसको श्राभ्यन्तरिक विकार जन्य विस्फोटक ), प्रवाहिका, प्लीहवृद्धि, शाणित क्षरण यथा नासाशं द्वारा रक्तस्राव होने , सौषग्न कान्यि ( स्पाइनल स्क्लोरोसिस) एवं अर्थात् नकसीर ( pistasis ), सौपुस्नस्थ रक्तसंचय (Spinal congeरक्रनिष्ठीवन (Homoptysis ), र वमन stion), धर्माधिक्य और मधुमेह (डायाबेटीज़ ( Humantcomesis ) और रकमूत्रता ।। इन्सिपिडस) प्रभृति रांगों में भी बनते हैं। अतः (Himaturit) प्रभूति रांगों में वर्तते हैं। . यमाजन्य रात्रिस्वेदकं रोकने के लिए इसका प्रयोग व्याधियोंकी ऐसी उग्रावस्था पत्र भयानक रागियों करते हैं। में प्रति १५ वा ३० मिनट के अन्तर सं अगट. अर्गट को अधिकतर शिशु प्रखबानन्तर प्रयोग का स्वकम्य वा गम्भीर अन्तःक्षेप करना उपयोगी में लाते हैं। क्योंकि प्रसव के पश्चात् इसको देने है। अान्तरिक अवयवों की रक्कम ति में रतस्थापक से गर्भाशय भलीभाँति संकुचित हो जाता है, एवं रूप से प्रगट का उपयोग बुद्ध यामक नहीं, अमरापातन में सहायता मिलती है और जरायु प्रत्युत ग्रानुभविक है । इस बात का ध्याग में द्वारा राम्राब नहीं होने पाता । परन्तु प्रसव से अाना अत्यन्त दुश्तर है कि जो औषध धमनियों पूर्व इसका उपयोग अत्यन्त चतुरतापूर्वक करना .. को संकुचित कर भार को वृद्धि करती हो यह चाहिए । अन्यथा जरायु संकोच के कारण गर्भ के किस माति रकस्थापक ( हीमोस्टं टिक ) हो - नष्ट हो जाने की आशंका होती है या. गर्भाशय ... सकती है? के विदीण हो जाने का भय होता है। क्योंकि .. परन्नु गर्भाशय जन्य रकम ति पर जो इसका . इसके प्रयोग द्वारा जरायु न केवल क्रमशः बल रस्थापक प्रभाव होता है, वह अधिकतया जरा- । पूर्वक आकचित होने लगता है, बल्कि वह .. यस्थ मांस पेशियों के संकोच के कारण होता है। प्राधिक काल नक संकुचित रहता है. और यही For Private and Personal Use Only Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बगेर्नाटा अगोटा लाइक्वार प्रासेनिकैलिस ३ मिनिम क्वीनीन सल्फ २ ग्रेन एसिडम सल्फ्युरिकम डिल मिनिम एक्वा एनिसाई प्राउम __यह एक मात्रा है। आवश्यकतानुसार ऐसी ही एक एक मात्रा औषध दिन में दो-तीन बार . भ्रूण के पक्ष में भयावह होता है। अपर यदि भ्रूण जरायु द्वारा विसर्जित न हो तो जराय के बलपूर्वक प्राकृञ्चित होने पर स्वयं गर्भाशय के विदी हो जाने की प्राशंका होती है। प्रस्तु यदि वस्तिगहर में कोई विकार न हो और भ्रूण | उदर के भीतर पाड़ा या किसी विकृत रूप में न हो एवं कोई अन्य कारण प्रसव के लिए रोधक वा अहितकर न हों तथा गर्भाशथिक द्वार भली प्रकार खुल गया हो और गर्भाशय की शिथिलता के कारण प्रसव में विलम्ब हो रहा हो तो अर्गट : को प्रसव की दूसरी वा तीसरी श्रेणी में भी बर्तमा उपयोगी है। सोग-निर्माण विषयक प्रादेश(1) अगट एक अनाशुकारी विष है । अस्तु कचित काल इसके एक प्राउंस लिक्विड एक्सट्रैक्ट को एक ही मात्रा में देने से विषाक्त लक्षण : नहीं उपस्थित हुए। (२) इसके सः निर्मित फांट और इसके । अमोनित यौगिक उदाहरणतः अमोनिएटेड टिंक्चर। ऑफ अगट अपेक्षाकृत अधिक विश्वस्त यांग हैं।' (३)ोरोफॉर्म वॉटर और टिंकचर प्रोफ्र श्रोरेज के योजित करने से अगट के कुस्वाद का निवारण हो जाता है। (४) लिक्विड एक्सट्रैक्ट ऑफ अगट को. परकीराहरु प्राक आयर्न के साथ मिश्रित करने से जब मिश्रण श्यामवर्ण का हो जाता है, तब उसमें | किचित् निम्बुकाम्ल (Citric acid ) के ! मिखाने से उसका शुभ्र वर्ण होजाता है। (५) भगोटीन को वटिका रूप में या कैपशूल में डालकर दें। इसके स्वस्थ अन्तःक्षेप करने के लिए नितम्ब स्थल को गम्भीर पेशी श्रेष्ठतर है । उदर की दीवार में इसका स्वगीय अन्ताक्षेप नहीं करना चाहिए । स्वस्थ अन्तःक्षेप .. के परचात् उक्त स्थल प्रायः शोधयुक्त हो । जाता और वहाँ पर फोड़ा बन जाया करता है। परीक्षित प्रयोग (१) एक्सट्रैक्टम अगोटी लिक्विडम ड्राम : लाइक्वार स्ट्रिक्नीनी २ मिनिम प्रयाग-प्रसव के पश्चात् ज्वर होने की दशा में अथवा ज्वर के न रहने पर भी इसका उपयोग लाभदायक है। (२) एक्सट्रैक्टम अगोटी लिकिडम् ३० मिनिम लाइकार स्टिक्नीनी ३ मिनिम एकापाइमेण्टी । या मेन्धी) बाउंस पर्यन्त ऐसी एक एक मात्रा औषध प्रति तीन-सीन घंटे पश्चात् दें। प्रयांग-रुकी हुई आँवल के निकालने अर्थात् अमरापातन हेतु गुणप्रद है। (६) एक्सट्रैक्टम अगोटी लिक्विडम १० मिनिम गसिइ गलिक प्रेन एक्वासिनेमोमाई ६ अाउंस पर्यन्त ऐसी एक मात्रा औषध तत्क्षण पिलादें। प्राव. श्यकता होने पर कुछ घंटे पश्चात एक मात्रा और दें। प्रयोग-जरायु द्वारा रक्तस्राव होने (Uterine humorrhage) में लाभप्रद (४) एक्सट्रैक्टम अगोंटी न एक्सट्रैक्टम गासीपियाईग्रेन फेराई सल्फास एक्लीकेटा ग्रेन एक्सट्रैक्टम एलोज सोकोट्राइनी १ ग्रेन सब की एक वटिका प्रस्तुत करें और ऐसी एक एक वटी दिन में दो बार दें। प्रयोग-- रजःप्रवस के है। (१) एक्सट्रैक्टम अगोंटी लिकितम ३० मिनिम पोटासियाई आयोडाइडाई ३ ग्रेन अमोनियाई कार्य २ ग्रेन एक्का मेन्धी पेप० पाउंस पर्यंत For Private and Personal Use Only Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भोटॉक्सिन অনামী ऐसी एक एक मात्रा औषध दिन में दो बार water in honour of a deity दें। प्रयोग-यूटराइन नाइबाइ (गर्भाशय (Thesium, moon, elk. ) whiis तन्त्वन) में उपयोगी है। performing worship, पूजाकी एक (६) एक्सट्रैक्टम भगोटी लिक्विडम १५ मिनिम विधि । जलदान, सामने जल गिराना । तर्पण किचूरा बेलाडोनी ५ मिनिम : करना । (२) मूल्य |( price, value. ) सिरूपस रशियाई दाम 'अर्घटम् arghatam-सं० ली. भस्म । (0x. इन्फ्यु जम करकरी पाउंस पर्यत ide. ) EITTO I see-Blisman. I ऐमी एक एक मात्रा औषध दिन में तीन बार । अर्धा argha-हि०पू०, स्त्री०(१)अर्घ्य देनेका शंख दें। प्रयोग-यह स्तन्यहासकारक (Anti- । की प्राकृति का एक ताम्र पात्र । जलहरी, तर्पण galactagogue.) है। का पात्र ( A vessel shaped like भोटाक्सिन ergotoxin-इं० अर्गट का एक ! a boat.)। (२)जिस वनमें जरत्कारु मुनि तप प्रभावकारी सत्व । देखी-भर्गोटा। करते थे, वहाँ का मधु। अगौटिम ergotism-इं० प्रगंट द्वारा विषाक्रता। देखो-अर्गोटा। | अय॑म् arghyan-सं० क्ली. अj arghya-हिं० संज्ञा पु. अगदीन ergotin-६० अर्गट सस्व । यह अगोटा आद्यं मधु, मधु । A sort of मिसन का अनहाइड्राइड है। देखो . अगंटा। honey (Mel.)। वि० (१) पूजनीय भर्गटीनीन engotinin-t० अर्गट से निर्मित | (२) बहुमूल्य । किया हुआ एक अल्कलॉइड (क्षारीय सत्व) विशेष । देखो-अगोटा। । अj | arghyuta-देखो-मधु ।। अाटः,-लः alghyāgah,-Jan-सं. पु. अगौटीनम् कोलमैन फ्ल्युइडम्-digotinuum | शुक्रला, उच्चटा । श्रोकड़ा, चंचको-बं०। पर्याय kohlmman fluidun-ले. अगों टीन भेद । • शुक्रला, चालुपा, अर्यतः, अाटलः । देखो-अगोटा। द्रव्याभि अगंटोनम डेम्जोल फ्ल्युइडम ergotinunm denzel fluidam-ले. अगोटीन भेद । प्रातः arghyatah-सं० पु. अाट, उचटा, प्रोकड़ा । (A brus plevatorius) देखो-रोटा। द्रव्याभिः। प्रोटीनम् बाम्बेलोन फ्ल्युइडम् ergotinum bombelon fluidum-ले. अगदीन ! अध्याह: arghyashab-सं० पु. मुचकुन्द भेद । देखो-अर्गोटा। वृक्ष । ( Pterospermum suberifoli __um.) रा०नि० २०१० । देखो-मुच (चु) अर्गेटीनम् बाजियन ergotinun bon jean ___-ले. अगोटीन भेद । देखो-अोटा। प्रोनिक प्रसिद्ध rgotannicacid- अर्चा कामी archa-kāmi-सं०,हिं० स्त्री० वलि ___एक ग्ल्युकोसाइड विशेष । देखो-अर्गेटा। ! कामी-सं। अगेनीन argonin-ई. यह चाँदी का एक | लक्षण-जब ग्रह अपनी पूजा कराने के निमित्त यौगिक है । देखो-रजत । आक्रमण करते हैं तब बालक दीन होकर अपने प्रगोल arghol-कार मोती ( कपूर का एक हाथों से मुख को मलता है; उसके प्रोष्ठ, तालु __ भेव है जो गइला नीला सा होता है)। और कंर सूख जाते हैं । शंकित चित्त होकर वह अर्ध argha-हिं० पु. (.) Iode of चारों और देखने लगता है, रोता है, ध्यान में बैठ worship, act of pouring out जाता है, दीनना प्राप्त कर लेता है, भोजन की For Private and Personal Use Only Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रचिः इच्छा होने पर भी नहीं खाता, ऐसा रोगी सुख साध्य होता है 1 ६५८ चिकित्सा - हिंसात्मक ग्रहों को वेक्षक मन्त्रों द्वारा वं होमादिसे जय करें । अर्चाकामी ग्रहों को यथाभिलाषित वलिप्रदानादि से जय करने का उपाय करें । वा० उ० अ० ३ । श्रर्चिः archih - सं० स्त्री० की ० श्री archi-सं० स्त्री० [हिं० संज्ञा स्त्री० (१) अग्निशिखा, लांगलिक, करिहारी । (Gloriosa superba.) 1 (2)afiatal, गजपिप्पली ( Pothos officinalis ) । (३) चमक, आँाँच, ज्योति, दीप्ति, तेज ( Light, splendour.) । ( ४ ) अग्नि आदि की शिखा । ( २ ) किरण | श्रर्तिमान archimana - हिं० वि० [सं०] अर्चिष्मान् archishman हि० संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० श्रर्चिष्मती ] ( १ ) श्रग्नि: ( Fire ) ( २ ) सूर्य ( The sun ) - वि० [सं०] दोप्त | प्रकाशमान | चमकता हुआ |( Lighted. ) अत्र archi-ता० काञ्चनार, कचनाल (र) । ( Bauhinia racemosa, Jaur. ) मेमो० । अर्ज āarn - अ० (1) पी-लु (Salvadora persica.)। ( २ ) दर्शनशास्त्र ( हिकमत ) की परिभाषा में उस वस्तु को कहते हैं जो दूसरे के आधार से स्थित हो अर्थात् जिसका अस्तित्व दूसरे के आधार पर हो 4 उदाहरणतः रंगीन कपड़े में जी रक्ता, श्यामता या श्वेतता प्रभूति वर्ण पाए जाते हैं वे "अ" हैं और स्वयं कपड़ा उनका मूलाधार है। और पदार्थत्व अर्थात मृदु, लघु, सूक्ष्म प्रभृति गुण पदार्थ के अस्तित्व को प्रगट करते हैं अर्थात् वे पदार्थाति हैं तथा "अ " या गुण कहलाते हैं। क्रियादमक लक्षण, धर्म, स्वाभाविक गुण, लक्षण प्रभृति इसके पर्यायवाची शब्द हैं । क्वालिटी ( Quality ) इं० । अर्जकादिटिका श्रर्ज arja श्ररीज arija - ० झुकना, सुगन्ध फैलना । यू ( Perfume.) अजं a12-० (1) पृथ्वी, भू.. एक तत्व विशेष | (Earth) देखी-- तत्व । ( २ ) चौड़ाई । श्रायत । श्र - हि० Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्ज़ह arzah - अ० दीमक । (White ant.) अर्जकः arjakah - सं० पु० (:) } तुलसीअर्जक arjak - हिं० पु० भेद, बावरी - हिं० : बाबुइतुलसी- बं० | अजूबला गर्गेर-कं० । तेल्लगग्गेरचेछ - ते० | (Ocimun Basilicum ) । पर्याय - श्वेतच्छद्रः, गन्धपत्रः, पत्ता, कुरकः । "वर्वरिकाकारो लघुमञ्जरीकः सूक्ष्मपत्रः निर्गन्धः श्वेत कुठेरकः ( बाबुई) ।" सु० सू० ३८ ० सुरसादि ० | श्वेत वर्वरी ! शादा बाबुई-बं० भा० पू० १ भा० । श्वेत पर्णासः, श्वेत तुलसी, तोकमारी । सि० यो० विसूची- त्रि० वमन शान्ति । श्रर्जक श्रर्थात् वावरी श्वेत, कृष्ण तथा रक्क भेड़ से तीन प्रकार की और तीनों गुण में समान होती हैं। गुण- कटु, उष्ण, वात कफ रोगनाशक, नेत्र रोगहर, रुचिकारक तथा सुखकारक है | रा०नि० १० | देखो वो ( बनतुलसी, विश्वतुलसी ) | ( २ ) श्वेतपलाशवृक्ष । Butea frondosa (The white var. ) श्रर्जकर्ज: arjakarjah-सं० पु० यमन वृक्ष, श्रामन (ना), पिया शाल | ( Terminalia tomentosa. ) देखो - आसन । श्रर्जकादिवaिrjakadi vatika-सं० स्त्री० सफेद तुलसी मूल, शंखाहुली मूल, निर्गुण्डी, भांगरे की जड़, जायफल, लवंग, बिग, गजपीपल, चातुर्मात, वंशलोचन, श्रनन्तमूल, मूसली, शतावरी, विदारीकन्द, गोखरू सब को कांकर की छाल के रस में खरल करके १-१ मा० की गोलियाँ बनाएँ । अनुपान - सुरामण्ड । यह गोलियाँ स्तम्भक और नृत्य हैं मै० २० श्री० स्तं० । : I For Private and Personal Use Only Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ..अर्जता अर्जला aurjati-भूम्यामल की, सदाहन मनी ।। ... (Phyllanthus niruri. ) इं० है. गा । अर्जन arjilli-इब्रा मकड़ी । (spitle:i.) अर्ज़न 17.111- फागुनी या चीना। (fillet.) .. अज़रा alna यरत्र० श्राम ! ...अर्जलब्नान art-Itbhanअ० देवदार, चीड़। ( Pinus Curlus.)म० अ० डा०1 । अर्जवा rjiivi-h० चाँदी, रजत | Silve! .. (Argentin.) देवी-रजत । अजवाँ ajiwan अ० अर्गया। अर्जा ulji - अ० चावं । See churkhii. अनि rjan बग्य० बरबरी बादाम का वृक्ष । अज़ानो Zani - अ० मुहम्मद अकबर प्रजा शाह नाम था। श्राप फर्मवशेरक समकालीन तथा उच्च-: कोटि के हकीम थे। मीज़ानुत्ति ब, तिच्य अकबर, मुनर्रहुल कलब प्रभृति श्रापके लिखे हुए प्रसिद्ध । ग्रंथों में से हैं। अंजाब arjith ) -अ० श्रान्त्र । नोट'अम्श्रा main यह शब्द एकवचन में नहीं पाता । (Entestines.) अर्जालून tyjālālu-बरब० फाशरा, शिवलिंगी। (Bryonia.) अर्जीज 17.12. ) -फा० बङ्ग, राँगा। Tin : बीर afzir | (Stannuni. ) स० अर्जुन __ -स०, हिं० पु० ( 1 ) श्वेत वर्ण, सफेद । उज्ज्वल ( White colour.) । (२) शुभ्र । स्वच्छ। (३) सफेद कनैल । (1) नेत्र शुक्रगत रोग विशेष । आँख का एक रोग जिसमें ग्रोग्य के सफेद भाममै हाल छींटे पड़ जाते हैं। लक्षा-नेत्रों के सफेद भाग में स्वरगोश के रु'धर के समान जो एकही विन्दु उत्पन्न हो उसको "अर्जुन" कहते हैं । मा० नि । (२) मयूर, मोर पक्षी ( The pra.co. ck.)। मे० तत्रिक । (३) एक वृद्ध विशेष । __पर्याय-नदीमर्जः, वीरतरुः, इन्द्रद्रुः, ककुभः (अ), इन्द्रद्रुमः (शब्दर०), शम्बरः, पार्थी, चिनयोधी, धनञ्जयः, वैरातङ्कः, किरीटी, गाण्डोकी, कर्णारिः, करवीरका, कौन्तेयः, इन्द्रसूनुः, गंदीरी, शिवमल्लकः, सव्यसाची, वीरद्रुः, कृष्णासारथिः, पृथाजा, फाल्गुनः, धन्वी, वीर-वृक्षः-सं० । कहू, कहुआ, काह (ह), कोह, कौह, अर्जुन का पेड़, अञ्जन-हिं० । अर्जुनः, अर्जुन, गाछ -बं०। टर्मिनेलिया अजुना ( Terminalia arjuna, Beld., टर्मिनेलिया ग्लैना Ter:minajin glahra, P. & A., ऐएटाप्टेरा अजुना Pentaptera arjima, Ro..b., पेण्टाटेरा ग्लैबा Pontaptcom glabra., पेण्टापटेरा अंगस्टिफोलिया Pent. itptera angustifolia., striata anhniql 13tuluki: hit to11:11tost. -ले० । अजुना Arjumaदी अजना माइरोबेलन The Arjiniu myrobalan-ई०। वेल्लइ-मरुद-मरम्, वेल्लमरद, लल मट्टी-ता० । तेल-मदि-चेटु, महि (द) चे, येस्माहि-ते, ते। वेल्ल-मरुत, पुल्ल-मस्त-मल। होले-महि, विति महि, तोर-बिले-महि, तोर-महि, बिहि मट्टि-कमा० । सारदात, अश्मर--क० । अर्जुन साड़ (द) ड़ा, श्रापटा, सारढोल, अर्जुन वृक्ष, शार्दूल, पिजल, सन्मदट-मह० । सादडो, अजुभ, साजदान, आसोदरो-गु० । तारमती -का। हाल-उड श्वेतवर्ण वृक्ष, सारढोल अर्जी कनह, jiqinath-यू. इक्कीलुल्मलिक ... (नाना ) । (felilotus officinalis.) ...अर्जीनिया nginel-ले० अरगयपलाण्डु, काँदा, जंगली ज्याज़ । अन्सल, इस्कील-अ० । (In. dian squill.) देवा-यन पलाराडु। अर्जीनिया इशिडका urgincn Indica, ustarfaat uiginta scilla, ___Steinheil. J: -ले० काँदा, जंगली प्याज़, अरण्ग्रएलाण्टु । (Scilla indica.) देखो-बन पलाण्डु । अर्जुनः arjianah-सं० त्रि arjuna-हिं० वि० For Private and Personal Use Only Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भईन मर्नुन होता है। जलीय रसक्रिया २३ प्रतिशत खटिक के लषय और १६ प्रतिशत करायीन ('Tanhin) यह दो द्रव्य वर्तमान होते हैं । ऐलकोहल द्वारा रसक्रिया प्रस्तुत करने पर कपायीन के सिवाय अत्यल्प मात्रा में रजक प्रदार्थ प्राप्त हुआ। -को० । महिनिलि-मट्टि, मदि-मैसू० । नौक्षयान-बर० । जुन-बम्ब० । कुम्बुक । -सिंहल। हिमज वा हरीतको वर्ग (1.0, Combretucea. ) उत्पत्ति स्थान यह वृक्ष दक्खिन से अवध तक नदियों के किनारे होता है। यह बरमा और लङ्का में भी होता है। उत्तरी, पश्चिमी प्रांत, हिमवती पर्वत मूल, संयुक्त प्रांत, बंगप्रदेश तथा मध्य भारत, दक्षिण विहार और छोटा नागपुर । घानस्पतिक-चरण न-इसके वृक्ष अत्यन्त विशाल ३०-३२ हाथ अर्थात् ६० से ० फीट | उच्च तथा पतनशील ( पत्र) होते हैं । इसका काण्ड अत्यन्त स्थूल होता है। बंगदेश में वीरभूम्यञ्चल में यह प्रचुर मात्रा में उत्पन्न होता हैं । यह एक प्रारण्य वृत है। पत्र नरजिह्वाकार, पत्रपृष्ट में बृन्त के सन्निकट दी अदाकार प्रंथियाँ इस प्रकार लगी होती हैं जिनको पत्र के ऊपर की ओर से देखने से वे दिखाई देती हैं, ऐसा बोध नहीं होता। बैशाख तथा उप में इसमें पुष्प लगते हैं। पुष्प अत्यन्त सूक्ष्म, हरिदाभ श्वेतवण के और पुष्प दरातु के चतुर्दिक स्थित होते हैं। केशर कंशवत् सूक्ष्म एवं उछ होते हैं। फल अगहन और पौष में परिपक्व | होते हैं। फल देखने में कर्मरंग के समान लम्बाई की रुख उच्च तीरणिकाओं एवं तन्मध्य गंभीर परिखानों से युक्त फाँकदार होते, किंतु तदपेक्षा खाकार एवं तादृश मांसल नहीं होते हैं।। नवीन त्वक अामलक वल्कवत बाहर से काम | धूसर तथा भीतर से अरुणवर्ण का होता है। स्वोद ग्राह्य कषाय होता है। रासायनिक-संगठन-ग्रन्थ संकेतों से यह प्रगट होता है कि बहुशः पूर्व अन्वेषकों को उक्त ओषधि यथेष्ठ अभिरुचि प्रदान करचुकी है। हुपर ( १८६१ ) के अनुसार इसकी छाल में ३४ प्रतिशत भस्म प्रात होती है जिसमें लगभग सम्पूर्ण शुद्ध खरिक कार्यनित अर्थात् चूर्णोपल या वड़िया मिट्टी ( Calcium carbonate) घशाल (१९०१) ने इसकी छाल का विस्तृत रासायनिक एवं प्रभाव विषयक अध्ययन किया। उनके अनुसार इसमें निम्न लिखित द्रव्य पाए गए (१) शर्करा, (२ ) कषायीन, (३) रक्षक पदार्थ,(४)ग्लूकोसाइड के समान एक पदार्थ और (१) कैलिसयम तथा सांडियम के कार्योनेट्स और किञ्चित् क्षारीय धातुओं के हरिद (Chlorides)| उन्हें यह भी ज्ञात हुमा कि सम्पूर्ण कपायीन १२ प्रतिशत और भस्म १० प्रतिशत हुई। परन्तु, पार० एन० चोपग महोदय एवं उनके सहयोगियों ने उत्तम शुद्ध वल्कल को एकत्रित कर, इसके उस प्रभावास्मक सत्व की प्राप्ति हेतु, जिसको उक्र नीषधि के हृदयोजक प्रभाव का मूल बतलाया जाता है, इसका अत्यन्त चतुरतापूर्वक विश्लेषण किए। कहा जाता है कि इसमें ग्लूकोसाइड्स वर्तमान होते हैं। प्रस्तु, उनकी विद्यमानता का ज्ञान प्राप्त करने के लिए अत्यन्त ध्यानपूर्ण शोध की गई। परन्तु इसके वस्कल में न ऐल्कलाइन (क्षारोद) और मता ग्लूकोसाइड ही प्राप्त हुए और न सुगंधिस वा अस्थिर तैल के स्वभाव का ही कोई द्रव्य पाया गया। अापके अनुसार वल्कल में निम्न पदार्थ वर्तमान पाए गए (1) अल्प मात्रा में एल्युमिनियम (कटिकम) तथा मग्नेशियम (मग्नम) लवणों के सहित असाधारणतः बहुल परिमाण में खटिक (Calcium) के लवण ।। (२) लगभग १२ प्रतिशत कषायीन जिसमें प्रधानतः पाइरोकैटेकोस्त टैनिन्स (Pyroca. techol tannins ) वर्तमान होता है। For Private and Personal Use Only Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org མཚུབ ३३१ ( १ ) उच्च द्रवणायुक्त एक सैन्द्रियकाम्ल | और फाइटॉस्टेरोल ( Phytosterol ) । ( ४ ) एक सैन्द्रियक पुस्टर ( Ester ) जो rai द्वारा सहज में ही हाइड्रोलाइड (Hydrolysed ) हो जाता है । i ( १ ) कतिपय रञ्जक द्रव्य, शर्करा प्रभुति । उपर्युक्र विश्लेषण द्वारा यह बात स्पष्ट होगई कि इसमें कोई ऐसा प्रभावात्मक सत्व, जो इसके हृदय अलकारक प्रभावका कारण सिद्ध हो, जिसमें एतद्देशीय जनता की महान श्रद्धा है, नहीं पाया जाता ! पृथक्करण काल में पेट्रोलियम, ईथर, मसारी और जलीय सारों से प्राप्त विभिन्न अंशों की ध्यानपूर्वक परीक्षा की गई; परन्तु खटिक यौगिकों के सिवा कोई अन्य द्रव्य जो हृदय वा किसी अन्य धातु पर प्रभाव उत्पन करें, नहीं पाए गए। रक्षक पदार्थ को वियोजित कर उसकी परीक्षा की गई, पर परिणाम पूर्ववत् रहा । अभी हाल में केंइयस ( Caius ), म्हेसकर ( Mhaskar ) तथा श्राइजक ( Tsaac ) ( १६३०) ने टर्मिनेलिया अर्थात् हरीतकी जाति के सामान्य भारतीय भेदों के द्रव्यगठन का विस्तृत अध्ययन किया, परंतु सारोव ( alkaloil ) वा मध्वोज ( Glucoside ) अथवा सुगन्धित या अस्थिर तैल (Essential oil) के स्वभाव के किसी प्रभावात्मक द्रव्य के प्राप्त करने में वे असमर्थ रहे । सम्पूर्ण १२ प्रकार की दालों को भस्म कर परीक्षा करने पर उनमें एक श्वेत, मृ.5, निर्बंध और निःस्वाद भस्म वर्तमान पाई गई । (६० ० ई० ) प्रयोगांश - स्वक्, पत्र ( तथा अर्जुन सुधा ) । मात्रा --स्वक् चूर्ण-२-६ आमा भर । साधारण मात्रा -२ तो० । औषध निर्माण - जुनघृतम्, अजु'नाथ घृतम्, अजुन स्वक् क्वाथ, (१० में १ ) मात्रा-आधा से १ लाउंस और स्वसू । अजुन के गुणधर्म तथा प्रयोग आयुर्वेदीय मतानुसार जुन कला, उष्ण वीर्य, कफघ्न तथा प्रशोधक है और Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अजुन पित्त, श्रम तथा तृषानाशक एवं वातरोग प्रकोपक है। धन्वन्तरीय निघण्टु । रा० नि० व० ६ । ककुभ अर्थात् अर्जुन शीतल, करेला, हृदय की प्रिय ( ), क्षत, क्षय, विष और दक्षिर विकार को दूर करता है तथा मेद रोग, प्रमेह, अणरोग एवं कफ पित्त को नष्ट करता है । मा० पू० १ भा० वटादि य० । वा० सू० १५ श्र० - न्यग्रोधादि । "जम्बू हयार्जुनकपीतन सोम वल्क।" पार्थ (अर्जुन) क्षत तथा भग्न में पथ्य और रत्र स्तम्भक तथा मूत्रकृच्छ में हितकर है। ( राजवल्लभ ) । अजुनि के वैद्यकीय व्यवहार चरक - रक्तपित्त में अर्जुन थक् -- (1) अर्जुन की छाल को रात्रिभर जल में भिगो रक् प्रातः उम्र जन ( हिम ) को या अर्जुन की छाल के रस वा छाल को जल में पीसकर किम्वा अजुन की छाल द्वारा प्रस्तुत क्वाथ के पान करने से रकपित्त प्रशमित होता है । (चि० ४ श्र० ) "घनञ्जयोदुम्बर निशिस्थिता वा स्वरसीकृता वा कल्कीकृता वा मृदिता श्रुता वा । एते समस्ता गणशः पृथग्वा रक्रं सविसं शमयन्ति योगाः” । ( २ ) गाच्छादनार्थ जुनपत्र – अर्जुन पत्र द्वारा वण (क्षत ) को श्राच्छादित करें | यथा--"कदम्बाजुन प्रच्छादने विद्वान् x ।" ( त्रि० १३ ० ) । x 1 सुश्रुत - शुक्रमेह में अजुनत्व-शुक्रमेही को अर्जुन की छाल वा श्वेत चम्पन का क्वाथ पान कराएँ । यथा शुक्रमेहिनं ककुभ चन्दन कषायं वा " ( चि० ११ अ० ) । वाग्भट -- मूत्राघात में अर्जुन -मूत्ररोध होने पर अर्जुन की छाल का क्वाथ पान कराएँ । यथा "कषायं ककुभस्य बा" ( चि० ११ प्र० ) (२) व्यक में अजुव स्वांग ( यौवन freer वा मुसा ) रोग के प्रतीकारार्थ अर्जुन को पेषण कर मधु के साथ प्रलेप करें। यथा For Private and Personal Use Only Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अर्जुन .. १६२ "यङ्गेषु चाज्जुन स्वग्वा" ( उ० ३२ श्र० ) (२) अर्जुन और सिरिसकी छाल के क्वाथमें रूई ! की बत्ती भिगोकर योनि में रखने से मृदगर्भ के निकलने के पश्चात् की व्यथा दूर होती है। चक्रदत्त - रक्तातिसार में अजुन त्वक् अर्जुन की छाल को बकरी के दूध पीसकर करी का दूध तथा मधु मिला कर पीने से रा तिसार निवृत्त होता है । यथा " x अजुन त्वचः । पीताः कोरे मध्वादयाः पृथक शोणित नाशनाः ।" ( अतिसार चि०) (२) ड्रग में जुनं स्वक्— कुट्टित अर्जुन छाल २तो०, गव्य दुग्ध ग्राम पात्र, जल डेढ़ पात्र, इनको शेष रहने तक क्वथित करें | यह क्वाथ हृद्रोग में सेवनीय है । यथा "अज्जुनस्य त्वचा सिद्ध क्षारं याज्यं हृदामये ।" (हृद्रोग चि०) ( ३ ) बलसञ्जननार्थ अजुन अजुन की छाल को दुग्ध में पीसकर दूध के साथ पीने से बल की वृद्धि होती है अर्थात् यह परं बल्य व रसायन हैं | यथा— 3 "ककुभस्य च वल्कलम् । रसायनं परं वल्प ( हृद्रोग चि० (४) अस्थिमग्न में अजुन स्वसन्धियुक अस्थि भग्न में दुग्ध तथा घृत के साथअजुन स्वक चूर्ण को पान कराएं। यथा "घृतेन * अज्जु नम् । सन्धियुक्तोऽस्थि: भग्ने च पिवेत् क्षीरेण मानवः । " ( भग्न [20:) भावप्रकाश क्षयकास में श्रज्जुन श्वक्— - अजुन की छाल को चूर्ण कर असा पत्र स्वरस की सात भावना देकर मिश्री, मधु तथा गोघृत के साथ चाटें । यह सरक संयकांस हर है । यथा"" काकुभमिष्ट वासक रस भावित मारा। घृत सितोपलाभिर्लेां क्षय कासरकहरम् ' (म० ख० द्वि भा० ) (३) रोज उदावर्त्त में अज्जुन श्रर्जुन स्वक्— मूत्ररोध जन्य उदावत में अजुन की छाल का काय पान कराएँ । यथा "मत्र अनिते कार्यककुभस्य च ।” Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( म० ख० तृ० भा० ) द्वारात - पूयमे में अजुन कपू मेही की तथा अर्जुन को छाल का काथ पान कराएँ । यथा--' पूयमेहे कायश्च वाज्जुनस्य । ” ( वि० २८ श्र० ) वङ्गसेन - ग्रहणां में अज्जुनवार - केशराज एवं अर्जुन की छाल के अन्दर चारको प्रातः काल तक | मस्तु ) के साथ पान करें। यह वेदना बहुल ग्रामग्रहणी के लिए हितकर है । यथा- वक्तध्य चरक के उदद्देननवर्ग में अज्जुन का उल्लेख है ( सू० ५ ० ) तथा वित्तमेह "निम्बाज्जुनाभ्रात निशोत पलानां " "शिरीष सर्जार्जुन केशरानी" व कफमेह "विडङ्ग पाठाज्जुन धन्वनाश्च" एवं कफ वाताज मेह "त्रचापडोला )जुन” विषयक पाठों के अन्तर्गत द्रव्यान्तर से . प्रमेह रोगों में अज्जुन का व्यवहार दृष्टिगोचर होता है । चकदत्त की हृद्रोग चिकित्सा के अन्तर्गत इसका पाठ हैं और उन्होंने हृद्रोगहर द्रव्यों में इसे श्रेष्ठ माना है। किन्तु चरक सुतो हृद्रोग चिकित्सा में इसका नामोल्लेख भी नहीं हुआ है । केशराजोऽज्जु निक्षारं प्रातः पोतञ्चमस्तुना । निहन्ति साममत्यर्थमचिराद् ग्रहणोरुजम् ॥ ( ग्रहग्यधिकार ) . कारक - सुश्रुतो यकास चिकित्सान्तर्गत अर्जुन का प्रयोग दिखाई नहीं देता । चकत्तो रातिसारान्तर्गन अर्जुन का प्रयोग, सुश्रुतोकि की श्रविकल प्रतिलिपि है । ( सु० उ० ४० श्र० 2 For Private and Personal Use Only उपर्युक्त वर्णन से यह ज्ञात होता है कि संस्कृत ग्रन्थकार अर्जुन को प्रति प्राचीन काल से हृदय बलदायक औषध मानते आए हैं। सर्व Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अजुन प्रथम वाग्भट महोदय ने इस ओर हमारा ध्यान प्राकृष्ट किया । वे लिखते हैं"क्काथे रोहीतकाश्वत्थ खदिरोदुम्बराज ने *** "(चि० अ०६) . इस पाठ में वे कफन हृद्रोगी को द्रव्यांतर सहित अर्जुन के उपयोग का प्रादेश करते है। इन के बाद के पश्चातकालीन लेखकों में चक दत्त ने इसे कपाय एवं बल्य लिखा और हृद्रोग में इसके प्रयोग का उल्लेख किया | इसकी छाल एवं तन्निर्मित औषध अपने प्रत्यक्ष हृदयोत्तेजक प्रभाव के लिए इस देश में आजतक विख्यात है। श्रायुर्वेदीय चिकित्सक हर्बल्य तथा जलोदर को सभी दशानों में इसका उपयोग करते हैं। कतिपय पाश्चात्य चिकित्सकों की भी इसके हृदारोजक प्रभाव में प्रास्था है और वे इस का हृद्य ( हृदय बल्य ) रूप से व्यवहार करते हैं। अस्तु इसकी छाल द्वारा निर्मित एक तरल सत्व डाक्टरी औपध-विक्रेताओं द्वारा उपलब्ध होता है। परन्तु कोमन Komin (१६१६-२०) महोदय न हृदय-कपाट जन्य व्याधि विषयक २० रोगियों पर इसके स्वगद्वारा निर्मित वाधका उपयोग किया, पर परिणाम लाभ के विपक्ष में रहा । उष्णकटिबन्धीयोपधि परीक्षणालय (School of Tropical Medicine ) में जलोदरयुक्त वा तद्रहित हर्बल्य ( IFajltu 're of cardline compensation ) पीड़ित बहुशः रोगियों में इसके त्वक द्वारा निर्मित : ऐल कोहलिक एक्सट्रैक्ट की भली भाँति परीक्षा की गई। किन्तु डिजिलिस वा कैफीन समूह की औषधों के समान किसी रोगी पर इसका प्रगट प्रभाव न हुआ | रक्रभार एवं हृदय स्पन्दन की शकि पूर्ववत् ही रही। उक्क रोगियां के मूत्रोद्रेक । पर इसका प्रत्यक्ष प्रभाव नहीं हुआ । जो प्रभाव ... इस औषध का बतलाया जाता है वह इसमें अधिक परिमाणमें पाए जाने वाले खटिक यौगिकों - का हो सकता है जिसका संकेत प्रथम किया जा चुका है। अजुन केयस ( Caius), म्हसकर (Afhar skar) तथा श्राइजक ( Isaac ) १९३८ ने टर्मिनेलिया जाति के भारतीय भेदों के बहुशः भिन्न भिन्न स्वरूपाकार के होने का उल्लेख किया है। इसके भिन्न भिन्न १५ भेद हैं । इस प्रकार के टर्मिनेलिया की छालों की रूपांकृति में परस्पर इतनी सादृश्यता है कि इनके भेद निर्णय करने में भूल हो जाने की बहुत सम्भावना है। भारतवर्षीय औषध विक्रेता ( वणिक् ) क्रियात्मक रूप से इनमें कोई भेद नहीं करते और वे सदा अर्जुन की अभेद संज्ञा द्वारा इन सब का विक्रय करते हैं । उक्त विद्वानों ने इनकी शुष्क निर्मल छालों को उष्ण फांट, क्वाथ एवं ऐल्कोहलिक एक्सट्रक्ट रूपमें प्रयोग कर इनके प्रभावका पृथक पृथक अध्ययन किया और परिणाम निम्न रहा मिनिलिया (हरीतकी) की सामान्य भारतीय जातियों की छालों को स्वास्थ्यावस्था में प्रयुक्त करने पर वे या तो (१) मृदु मूल, यथा अर्जुन (Terminalian Arjuna), विभीतकी (T. belerica), (T. palli. da) बा(२) उत्तम सबल हृदोरंजक यथा टर्मिनलिया बाइलेटा ( T. Hiulatil ), टर्मिनेलिया कोरिएरिया ( T. coriacea), टमिनेलिया पाइरिफोलिया (T. pyrifolia) वा (३) उभय मूत्रल तथा हृदय़ोत्तेजक होते - हैं, यथा अरर य वाताद (T. catappa), हरीतकी ( T. chhula), हरीतकी भेद (T. citrina), टर्मिनेलिया मायरियोका ('. myjiocarpe ), z० ऑलिवेराई ( ''. oliveri ), किजल वा किराडल (T. pahiculata) और प्रासन (T. tomeptosa). ( School of Tropical Medicille Calcuttit. ) द्वारा घोषित परिणाम से ये भिन्न है। परन्तु चूँ कि अभीतक कोई प्रभावात्मक दृष्य पृथक नहीं किया गया और केहयस (Caius) तथा उनके सहकारियों ने क्रियात्मक रूप से विभिन्न प्रकार की छालों की रासायनिक-संगठन में कोई परिवर्सन न पाया। For Private and Personal Use Only Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्जुन अर्जुन घृतम् अस्तु इस बात का समझना अत्यन्त कठिन है ! (यथा प्रावाहिकीय श्लेष्मस्राव तथा प्रदर संबन्धी किइसकी अलग अलग जातियों के इन्द्रयव्यापा- रक्त स्राव इत्यादि) में अर्जुन स्वकू का प्रयोग रिख एवं प्रौपयोगिक प्रभाव पृथक् पृथक् है । अस्तु । करते हैं। वे प्रश्मरी व शर्करादि प्रतिषेधक रूप प्रागुक शोधों की पुष्टि हेतु विशेष अध्ययन ! से भी इसका म्यवहार करते हैं। ( मे० मे० ऑफ ई०-भार० एन. खोरी, २ य खं०, युनानी मन २५० पृ० । फा०ई०२भा०११पृ० दत्त.) प्राचीन यूनानी ग्रंश में अर्जुन का वर्णन ! यह पैतिक विकारों में लाभप्रद तथा विषो' नहीं मिलता। हाँ! वर्तमानकालीन लेखकों ने का अगद है । त्वक् कषाय और ज्वरम्न है। इसका कुछ सामान्य वर्णन किया है। उनके। फल वस्य तथा रोधोद्धाटक एवं नवीन पत्र. मतानुसार यह स्वरस कर्णशूल में हितकर है। प्रकृति-उष्ण व रूक्ष २ कक्षा में, किसी (बेडेन पावेल पंजाब प्रॉबक्ट) किसी के मत से ३ कक्षा में । रंग-श्वेतामधूसर । काँगदा में स्वक् क्षत प्रभृति में प्रयुक्र होता स्वाद-बिका । हानिकर्ता-उष्ण प्रकृति को है। (स्ट्युबर्ट) तथा प्राध्मानजनक है। दर्पन-मधु,घृत व तैल। अर्जुनम् arjunain-सं० लो० तृणमात्र (Gr. प्रतिनिधि-पलाश स्वक । प्रधान कार्य-काम asses.)। हला०। (२) सुवर्ण । Gold शक्रिवद्धक तथा शुक्रमेहघ्न । मात्रा-३ मा० से (Aurum) मे० नत्रिकं । (३) कासतृण । मा०। (Saccharum spontalleuni.) र ___ गुण, कर्म, प्रयोग–कफविकारनाशक, मा० । (४) दर्भ भेद, कुश (Poa eyn. है और पित्तदोष में लाभप्रद है। तत में इसका Osuroides.)।(५) श्वेत वण के या पान व प्रलेप हितकर है। इसकी छाल कामो कुटिल गति से जाने वाले कीट ! अथ० सू० हरीपक है एवं शुक्रमेहघ्न है । ( लगभगविषैल) ३२ । ३ | का०२। म.मु.। अर्जुन arjuna-हसंज्ञा पु० पुन्यन (Ehratia इसके अतिरिक्र इसकी वाल शुक्रतारल्य एवं acuminata. ) मेमो०। (२) पुक, मजी व वदी के पतलेपन तथा कामशक्ति के लिए बड़ा गाछ-बं०। भूताकुमम्-ते.। घनसुरा हितकर है ।यह मूत्रप्रत्रावाधिक्यको नष्ट करता है। म० । गोटे-सन्ता। (Croton oblon. कामशनिके बढ़ाने के लिए कतिपय वलय औषध gifoliug ) फा. ई०। देखीमें योजित कर इसका हलुवा लाभदायक होता अजुन गाछ arjunargachh-बं० प्रज'न. है। भारतीय इसका अधिकता के साथ उपयोग कहू, काह । ( Terminalia arjuकरते और इसको परीक्षित बतलाते हैं; परन्तु na. ) यह उतना सस्य नहीं । बु० मु०। अर्जुन घृतम् arjuna-ghritam- क्लो. नष्यमत (३) अर्जुन की छाल के रस और कल्क से अजुन स्वक कषाय तथा यस्य है। यह होगी! सिद्ध किया घृत समस्त हृदरोग के लिए के लिए उपयोगी है। इस प्रण तथा पिष्टमंग लाभदायक है। भे०र०।। प्रक्षालन हेतु इसकी छाल के क्वाथ का स्थानिक (२) अर्जुनकी छाल के दकसे तथा स्वरस से उपयोग होता है। अस्थिभग्न किम्वा नेत्र शुक्र . पकाया हुश्रा धी सम्पूर्ण हृदय रोगों में हितकारी गत स्कूली अर्थात् अर्जुन ( Eechymo.: है। योग तथा निर्माण-विधि-धृत ४ २०, sis ) में अर्जुन स्वक् को पीस कर प्रलेप करें। अर्जुन स्वरस ४ श०, कल्कार्थ अर्जुन एतद्देशीय लोग रति किम्वा अन्यान्य प्रस्तावों । त्वक् । श० । सा० कौ० । भैष । For Private and Personal Use Only Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्जुन त्वक् अर्जेण्टम् भा० । रस. र.। मूछित घृत . श०, अर्जुन । रास्ना, मजीठ, भिलावाँ, अगर, मोथा, कूट, स्वरस १६ श. (अथवा १४ पल अजुन की ! चीता, चन्दन, खस, गोखरू और सफेद कत्था । छाल को ६४ श० जल में यहाँ तक पकाएँ कि इनका क्वाथ कर, उसमें नवीन परवल, हलदी, १६ श० जल शेष रह जाए । बस इसको छान हरड़, बहेड़ा, श्रामला, पाखान भेद, अर्जुन, कर घृत में सम्मिलित करें) और अर्जुन अजमोद, लोध, मजीठ और अतीस इनका कल्क त्वकल्क श०, इनको एकत्रित कर धृत पाक डालकर पकाया हुआ घी 'अजु नाय घृत' कहविधि से पकाएँ। च.न. द्रोग-चि०। लाता है। मर्नु नत्यक् arjuma-tvak-सं० स्त्री० भजन | गुण-इसे सेवन करने से पित्त सम्बन्धी अस्कल, अर्जुन की छाल । 'Terminalia. प्रमेह नष्ट होते हैं। arjuna ( Bark of-)। च०६० भ० नोट-इसी क्वाथ तथा कल्क से पकाया सा०चि. शवयादि। हुआ तैल "अजुनाच तैल" कहलाता है । 4717caan: arjuna-tvagáidi-lepa bi गुण-उन तैल को व्यवहार में लाने से कफ सं० पु. अर्जुन की छान, मजीठ, वृष (बाँमा) तथा वायु सम्बन्धी प्रमेह दूर होते हैं । भा० म० को पीस शहन में मिलाकर लगाने से माई और ! ३ भा० मेह० चि। म्यंग का नाश होता है। वृ० मि. र. अर्जुनाद्य क्षारपाकम् arjunadya-kshira. अर्जुन नामाख्यः arjuna-nāmākhyah paka !!-संक्ली. अर्जुन (कहुश्रा) को छाल सं०० अर्जुन वृह, काहूका पेड़। 'Termi लेकर गोदुग्ध में पकाकर पीने से हृदय रोग का नाश होता है। वंगसे० सं० हृदरो० nalia arjuna ( Tree of- ) A10 चि०। अर्जुनसुधा arjuna-sudhā-सं० स्त्री० ! अजुनी arjuni-सं-स्त्री०, (हिं० संज्ञा स्त्री..) अर्जुनोरथ सुधा, अर्जुन काष्ठ का चूर्ण (१) सफेद रंग की गाय । अथर्व० । सू० ३। (बुरादा )। का २० । (२) उषा । गुण-अर्जुनोत सुधा कफ को नाश करने ! अजनी arjuni-सं० स्त्री० गवि, गाय, गो । वाली है। वै० निघ० । द्रव्यगुण। (A. cov.) मे० नत्रिक । अर्जुनाख्यः aljanākhyah-सं० पु. (,)! अर्जुनापमः arjunopamah-सं०० शाक काशतृण, कासा । (Saccharum sponti द्रुम (A potherb in genera}.)। aneum.) २० मा०। (२) अर्जुन वृत, शेगुन गाछ-बं०। २० मा० । (२) शाल वृक्ष कह का पेड़। 'Terminalia arjuna. (Shorea robusta.) रत्ना। ( Tree of-). अर्जुना arjunna-अव० श्राछ-नैपा०। अजनादः arjunādah-सं० नि० वर्भकाश परोकपी-भासा | गणसूर-मह । भूटन-कृसम खादक । च. चि०२०। -ते० । थेत्यिक-बर० । क्रोटन अन्लाँगिफॉअर्जुनादि क्षीरम् arjunādi-kshiram-सं० । लिअस ( Croton oblongifolius, क्ली० दूध को अजुन की छाल दालकर Roxb.) ले०। पकाकर पीने से पित्त जन्य हृद्रोग दूर होता है।। गुण-इसका तैल एवं छाल औषध कार्य में यो. २०। पाती है । मेमो०। अर्जुनाचघृतम् arjunadya-ghritam आर्जेण्टम् argentum-ले० चाँदी, रजत, मजुनाच तैलम् arjunadya-tailam रौप्य-हिं० । फ़िज़ह-अ० । नुकह-फा० । सं० वी० अर्जुन, परवल, नीम, वच, अजवाइन, (Silver.) For Private and Personal Use Only Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अजेण्टम् कोल्लोइडेल अर्टिका प्राइमा अर्जेएम् कोल्लोइटेल argentum Colloi-! अपस्मार तथा अन्य वातरोगों में व्यवहृत होता dale-ई० (Collaigol. )। देखो- है। मात्रा-1 से प्रेन वटिका रूप में। पी. रजत। वी० एम०। अर्जेण्टम् लिक्विडर, rgentuin liquilum|| अजे एटाई क्लोराइडम्-argentifluorid. अर्जेण्टम् वीवम argentury rivum . um-ले० देखो-रजत, एसिडम् हाइड्रोक्लो- -ले. देखो--पारद (Hydrargyrn.) रिकम् । अर्जेएटाई ऐल्ब्युमिनास argenti albumi•| अजे एटाई लैक्टास argenti ] actas-ले. nas-. (Silver albuminate ) ! एक्टोल (Actol.) । देखा--रजत । देखोलार्जीन ( Largin.) अर्जेण्टाई साइनाइडम् algenti cyanidum अर्जेण्टाई ऑक्लाइडम् argenti oxidulll -ले० सिल्वर साइनाइड (Silvel cyu. -ले० रजदौमिद, रौप्यमस्म-हिं० । (Filver uide)-ई। देखो-रजत । (Itrol) oxide ) देखो--रजत । प्रार्गीरोल। अजेण्टाई प्रायोडाइडाई argenti iodidiले. रजनैलिद । देखो --- रजत । | अर्जेण्टाई साइट्रास argenti citras-६० देखो- रजत। अजेएटाई एसीटास Rigenti ace tas-ले० । (Acetate of silves'. ) चुक्रीय रजत । अजेण्टार्सील argentursyl-ई. यह काको. देखो-रजत या इट्रोल । ढाइलेट अॉफ़ पायन ( Cicodylate of श्रजें बटाई क्लोराइडम्-aligenti chloridunm. irom) तथा कोलोइड सिल्चर ( Colloid -ले. रौप्यहरिद । देखो-रजत। Silver) का एक संमिण हैं। अजेण्टाइड argentide-इं. यह सिल्वर बारकैवाविच नं मलेरिया ज्वर में 0.०५ से श्रायोडाइड (रजन नैलिद ) का एक तीक्ष्ण १० घन शतांरामीटर (e.c.) की मात्रा में धोल है जिसमें किञ्चित् जल मिश्रित कर स्थानिक अन्तःोप रूप से इसका व्यत्र सफलतापूर्ण उपपचननिधारक रूप से प्रयोग करते हैं । देखी योग किया। उनका यह दावा है कि केवल एक श्राराल। हिट० मे मे०। प्रान्तःक्षेप मात्र से रत स्थाई रूप से सम्पूर्ण प्रकार अजे एटाई नाइट्रास argenti mitras-ले० । के परायी.कीटों से शून्य हो जाता है। हिट रजन्नत्रास । (Silver' initiate, Lunar . मे० मे०। Cous tic.) देखो-जत । अर्जेण्टेमान algentamin-ले० देखी-- अजे गटाई नाइट्रास इण्डयोरेटस arguti रजत । mitras induratus-ले० कठिन रजन्मनास ।। अराटील argentol-३० ग्रह रजत का एक देस्त्रां रजत। यौगिक है। देखा-रजत। अजें एटाई नाइट्रास मिटिगेटस rgonti nitras mitigatus-ले. (alitiga- . प्रोंवा arjova-6. चाँदी, रौप्य । Silver (Argenthum.. ted caustic.) हलका कियाहुा कॉप्टिक । an Tigíaati urtica pilulifera, i देखो-रजत। मर्जेण्टाई न्युक्लीश्रास atyanti nucleas Linie ! -ले० नागोल ( Nargol.)-इं० । देखो- . आटका प्राइमा ur ticar prima, Mutthion / न्यूक्लोन या न्यूक्लीअोल ।। अजेण्टाई फॉस्फास algenti phosphas : -ल. अञ्ज रह, उतअन । ( Blepharis ('Tribasic.)-ले० रजत स्फुरेत् । यह। edalis, Pers.) फा० इ०३ भा० । tus. :) For Private and Personal Use Only Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir का मार्चमा . अंर्ती afit Figui urtica morina-jo (l'he conch shell. ) Ito foto (Dal nettle, wlit: nettle,! १३ । ___blindnettie, white aurchangel.) आतंकीartuai-या एक पहाड़ी वृक्ष जो अत्यन्त लेमिनम् ऐल्बम् (Luniimum album.) . ... विशाल तथा भारतवर्ष में अधिकता के साथ - - ले. । पी० बी० एम०। होता है। अर्टिकसीई uticacet:-ले० वट या अश्वत्थ. शनीय artanitha-यू० बख्नुरमरियम् । वगं । (Cyclamen l'ersicum, Hiller..) अंर्टी arti-सं० स्त्री० केला, कदली । ( Musa, फा० इं०२ भा०। • Sapientum. ) अतनासा all tattisi-बाजरबू (चोषक उश्नान) श्रण arninh-सं० शाक वृक्ष । शेगुन-बं०। एक जड़ है जिससे उन धोया जाता है। (A potherb in general.) शु० न०। अतंब artaba-अ० खारखसक | गोखरू । अर्ग:,-स् arna h,-8-सं० क्ली। जल, पानी। ( Tribultus terestris.) अगा aina-हिं० संज्ञा पु० (Water.) अनवह arta bacha -१०(१) नासा - रा०नि० २०१४। 'अजूकमह aaz.qamah ) मध्य, नासावंश, अभवः arntt.blha vah-सं० पु. शंख ... बासा (Bridge of mosc.) । (२) ऊर्ध्व श्रीष्ट का मध्यस्थ गढ़ा । (Conchshell. ) वै० निघ० । श्रण वः aunavah-सं०० (,) अर्तल artala-कना. अन्तल । रीठा-हिं० । अर्णव inayn-हिं० संज्ञा पु. । समुद्र, . (Sapinius trifoliatus, Lini.) सागर, जलनिधि। ('The Ocean.) रस्नाला फा०ई०२ भा० । (२) सूर्य । ( The sun.) । अर्तब artaba-० अधिक तर ज्यादा तर,स्निग्ध पर वजः alnava.jah -सं० ! . तर । *T*FTARA: illnavaja-malah (go waffaqih feat artániyaye-bindi o वल्लारी. बल्लारी का पत्ता-द.1 थोलकरि-401 अर्णवफलः alnava-phenah (समुद्र अवमल: unavil-malah फेन, ब्राह्मी-सं०, दि० । Hydrocotyle As. ... समुद्र कफ-हि० । इज़ाराफी-अ० । कफेदरिया iatica, Lim. ( Indian Hydro. -फा०] The dorsal scale or Cuttle cotyle or Penny-wort. ) fish bone (Sepia officinalis. )! फा० ई.। प्रामासिया artamasiya रत्ना०। . अर्तियह मालिया artiyab-masiya ) या अर्णवाद्भवः arnarodhavah-सं० पु. सि० बरिक्षासिफ, कैसूम । ( Artemesia. अग्निजार वृक्ष । (See-Agnijara.. " Iudica. ) .. नि० २०६। ... अति arti-हिं० संज्ञा स्त्री० [सं०] [वि० अर्णा arna-हिं. संज्ञा स्त्री० [सं०] नदी । । अर्तित ] पीड़ा | . था! (River) ...... | अर्तिया artiyā-यू. एक छोटी बूटी है, जिसकी अर्णोदः arnodah-सं० पु० मुस्तक, मोथा ।। पत्तिया अत्यन्त लघु और बहुसंख्यक शाखाओं - (Cyporus Totundus.,Syn. Hexa- से यक होती है। बीज खुशा के सरश होते हैं। stachyos. Ra.) रा० नि० घ०६। | अर्ती arti-यु० या रू० वृक्ष दोरक | कोई कोई अभिवः arnobhiarah सं० पु. शंख। हालों व कह और बूयेमादरान को कहते हैं । For Private and Personal Use Only Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भर्तीकह अर्थापति श्रौंकह artiqah-राँगा, बैंग। 'Tin ( Ta- कर्कट ऋणी, काकहासिङ्गी ( Rhus succenum.) ___danea, Linn. . निघः । अमिव artinavi-ता. तीखुर, तचक्षीर | अर्थनट earth-nut-20 मँगफली, भूफली । (Curcuma anglustifolia, Rixb.) (Arachis Hypogeed.) ई० डू० ६० । अौरस artiras-नैपा० कुरटी-भूटा० । अनट ऑइल earth-nut oil-ई० मूंगफली (Calragana classicaulis.) इसकी का तेल, रोगन मूंगफली । ( Arachis जड़ ज्वरधनी है। फा० ई०३ भा० । Oleam). अतू नास artunisa-यू० खटिका,खरिया मिट्टी । अर्थ प्रसादनी artha-prasadani-सं० ली. (Chalk.) धामन वृक्ष । (See-Dhamana.) . अतू वास artubāsa-यू. मिश्र देशोगत एक , निध। प्रकार की मृत्तिका है जो श्वेत या धूसरित वण' अर्थ वर्म earth-porn- केचुभा । खरातीन की और उष्ण स्थलों में उत्पन्न होती है। -१०। अर्तगलः arttisgalah-सं० पु. नील झिण्टी, अर्थ साधकः artha-sadhakah-सं० पु. कटसरैया ।( Baleria longifolia.) पुत्रजीव वृस, पुत्रजीवा || Putranjiva. मीलझाएटी-बं० । सु० द्रव्यसं०, अ० Roxbur bii.) मद० व० १ भा० } श्रागह नामक फल वृक्ष । रत्ना। अर्थ साधन: artha-sadhanah-सं० पु. अर्तगाँ arttugan-फा० यह एक प्रकार का (1) पुत्रजीव वृक्ष, पुत्रजीवा । (Putranjiva. प्रस्तर है । स्वाद-फीका । वण-रक एवं Rox burghii. ) मद० २० १। (२) पीत । प्रकृति-१ कक्षा में शीतल व रूप । गैठा करंज । ( Sapindus trifoliatus.) गुण, कर्म, प्रयोग प्रणपूरक (सतों के मद० २.५। मांस को भर लाता ) और प्रययवों के वाद्य : अर्थ सिद्धः-artha-siddhah,-kah-सं० शोथों को लयकर्ता एवं क्षतों को निर्मल करता पु. (१) पुग्रजीच वृष ( Putranjiva (व्रणशोधक ) है । मुदिर्शत (प्रवर्शक वा रेचक) . Roxburghii.)। (२) श्वेत निर्गुण्डी, के साथ प्रयोग करने से यह वृक्क एवं वस्त्यश्मरी सफेद मेउदी ( Vitex regundo एवं सिकता आदि को नष्ट करता है । म० मु.। album.)। () कृष्णा निगुण्डी ।(Vitex अतिः arttih-सं० स्त्री रोग । ( Disease.) neguntlo nigrum.) रा० नि० व. रा०नि०व०२०। अर्थ: arthah-सं० पू० । [वि. अर्थी 1 अर्थापत्तिः arthāpattih-से० स्त्री. ) अथ artha-हि. संशा प. ) (१) इंद्रियों अर्थापत्ति arthāpatti-हिं० संज्ञा पु. ॥ के विषय (Object )। (२) धन, संपत्ति जो बिना ही कहा हुआ अर्थ से जाना जाए उसे (Wealth, riches.)। (३) याचन "अर्थापत्ति" कहते हैं। जैसे-किसी ने कहा मैं ( Begging, request.I (४) कारण, भात खाऊँगा तो इस कथन से जाना गया कि हेतु, निमित्त ( Cause, suke.)। (५). वह यवागू पीने का इछुक नहीं है। सु० उ० वस्तु ( Substance, goods.)। (६) १५ भ० । “यदकीर्सितमादापद्यते।" अभिधेय, अभिप्राय, प्रयोजन, मतलब ( Inte- मीमांसा के अनुसार एक प्रकार का प्रमाया ition, purpose.) । (७) निवृत्ति जिसमें एक बात कहने से दसरी बात की सिद्धि ( Rest.) मे. थद्विक। आप से पाप हो जाए । नतीजा । निगमन | जैसे अर्थ चम्पिका artha-champika-सं० स्त्री० । बादलों के होने से वृष्टि होती है। इससे पह For Private and Personal Use Only Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थेनाइट मर्दित सिद्ध हुआ कि बिना बादल वृष्टि नहीं होती। नोट-प्रर्दहालिय्या कारसी भाषा का शब्द न्यायशास्त्र में इसे पृथक् प्रमाण न मानकर अनु- है। जो पाई-पाटा और हाल तेल का यौगिक मान के अंतर्गत माना है। है। पर उक्र. संयुक्त शब्द का उपयोग उस हरीरे अर्थेनाइट arthenite-फ्रां बनुरमरियम-ई. के लिए होता है जो प्राटा और घी के संयोग 718101 Sow-bread (Cyclamen द्वारा निर्मित होता है। कि इस रसौली के Persicun, Jhiller.) 910 Foi माहे का वाम उक्त हरीरे के समान होता है। भा०। इसलिए इसे इस नाम से अभिहित किया अर्यम् arthyam सं. क्लो० शिलाजतु । (Bi- : गया है। bumen.) मे० यद्वकं । । अझर ardara-अ. हाधी, हस्ति । ( An अर्थकतीमम् Arthrocneinum-ले० उश्नान, ____elephant.) सर्जि | Sola Plants (Caroxylon.) अलि urdal ) -कना० को०, हरिताल । फा००३ भा० aziat ardálí) (Orpiment. ) अर्थोकनीमम इसिडकम arthroenemum अर्दावा ardara-हिं० पु. मोटा मोटा, दलिया, सूजी । Indicum, Moq:-ले. सर्जि | फा० . | अर्दित ardita-हिं० वि० , पीड़ित । ३ मा०। | अदितम् ardditam-सं० त्रि. दलित । अई aarda-१० गदहा, गर्दभ ( An ass.) यन्त्रणायुक्र । अईह ardah फ़ा. तिलकवरी । संक्ली०, हिं० संशाप'. एक रोग जिसमें वायु मईक ardaka-फा. यत्तरव । ( A .Duck.) के प्रकोप से मैं और गर्दन टेढ़ी हो जाती है, (२) मालूबोखारा । ( Prinum.) सिर हिलता है नेत्र प्रादि विकृत हो जाते हैं, अर्दज ardaja-फा० हाजबेर, अर्स, अरर, अभक्ष, ! बोला नहीं जाता और गर्दन तथा मादी में दर्द हपुषा । (Juniperus chinensis) होता है । पक्षाघात विशेष । लकवा। अाईन ardana-हिं० संज्ञा पु० [सं०] (1) - फेशल पैरालिसिस ( Facial Paraly. पीपन, दक्षन, हिंसा । (२) जाना, गमन ।। sis ), पैरालिसिस भॉफ दी पोर्टियो ब्योरा प्रर्दना ardana-हि. कि० स० [सं० भईन । (Paralysis of the portio dura, पीइन ] पीरित करना । बेल्स पैरालिसिस Bell's paralysis.1 प्रर्दनिः ardanih--सं० पु. अग्निरोग । म० लकवह-१०। कजी दहन-फा० मुंह का टो.। टेदा हो जाना-30 । अर्दम ardam o० सूर्यमुखी । (Helianthus निदान संभाषित तथा लक्षण Annusos.) गर्भिणी सूतिका बालवृद्ध क्षाणेज्यसक्कये। प्रदमा ardama--(3) कनीचा (२) गाव जुबान । (सु.) (Caceina glauca, Suni.) उच्चाहरतोऽत्यर्थ खादतः कठिमानि पा॥ प्रर्द हालिय्यह-arda.hiliyyan हस्तांजृम्भतोवापि भाराद्विषमशायिनः । सल्महे मुखातियह, salaahe-mukhatiy.sh | (श्वसनात्-सु०) १०(.) गादा हरीरा जो आटे को मक्खन में शिरोनासौष्ठ चिबुक ललाटेक्षण सन्धिमः ॥ गंध कर पुनः घी में पकाया जाता है । (२) भर्दयत्यनिला वक्त मर्दित जनयत्यतः। एक प्रकार की श्याभायुक्त रसौली है जिसके मारे वक्रीभवति धक्ता श्रीवाचाप्यपवर्तते ॥ की चाशनी गादे हरीरे के सरश होती है । देखो शिरश्चलति वाक्सको नेत्रादीनांच बैंकृतम् । सल्हे मुखातियह, (Myxoma ). प्रीवाचियुक दन्तानां तस्मिन् पाश्र्षेच घेवमा॥ For Private and Personal Use Only Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 1 www.kobatirth.org ६.५० यस्याजो रोमहर्षो वेपथुत्रमाविलम् । वायुरुध्वं त्वचि स्वापस्तोदोमन्या हनुग्रहः॥ तमर्दितमिति प्राहुर्व्याधि व्याधिविचक्षणा ॥ ( मा० नि० : सु० मि० ) : लक्षण -- इसमें श्राश्रा मुख टेढ़ा होजाता है । गर्दन नहीं गुड़ती, शिर हिलने लगता है, बोला नहीं जाता, नेत्रादि बिगड़ जाते हैं और जिस अंग की और वह टेा होता है उसी ओर की गर्दन, ठोकी और दाँतों में भेड़ा होती है। वाग्भट्ट ने ये विशेष लिखे हैं अर्थ-निदान - गर्भवती, प्रसूता स्त्री, बालक, वृद्ध, दुर्बल तथा शोणितस्य वाले की ( सु० ) 'अर्धे तस्मिन मुखा वाके लेस्यात्तदर्दितम्' । और ऊँचे स्वर से बोलने से कठिन वस्तु खाने से, बहुत हँसने से, जम्हाई लेने से, बोझ ढोने से, ऊँचे नीचे स्थान में सोने ( विषम भारवहन तथा विषम श्वास प्रश्वास के कारण सु० ) श्रादि कारणों से ( वाग्भट्ट में ये कारण विशेष -लिखे हैं यथा शिर पर बोझ ढोना, उत्रा मुख होना, बलपूर्वक छींक लेना, कठोर धनुष को । खींचना, ऊँचे नीचे तकिए पर शिर धरना तथा अन्य वान प्रकोपक हेतु ) 'सम्पादित ' - वायु प्रकुपित होकर शिर, नाक, श्रोष्ठ, ठोड़ी, ललाट तथा नेत्रों की संधियों अर्थात् शरीर के ऊर्ध्व भाग में प्राप्त होकर एक श्रोर के मुख ( वाग्भट्ट के अनु सर हँसने और देखने को भी ) को टेढ़ा कर ( क्वचित पार्श्वद्वय की पेशियों वातग्रस्त हो जाती हैं ) अर्दित रोग को उत्पन्न करता है । N यं तचाख, स्वरअंश, ध्वण शक्ति का नाश, वीके का बन्द हो जान्स, प्राज्ञता, स्मृतिका | मह स्वप्नावस्था में त्रास, दोनों ओर से थूक निकलना, एक आँख का बन्द होना, जशु के ऊपर के भाग में वा शरीर के आधे भाग में वानी के साग में तीव्र वेदना श्रादि उपद्रव उपस्थित होते मैंने पूरूप जिस रोम के पूर्व रोमा हो, शरीर काँपे, नेत्र मलयुक्र हों और वायु ऊपर को गर्म करे, वना शून्य हो जाए, सूई चुभने की सी पीड़ा हो, मन्या नाड़ी तथा ठोड़ी जकड़ जाए उसको रोगों के जानने वाले हार्दि r 2 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रति ( लकत्रा ) कहते हैं । वाग्भट्ट के अनुसार कोई कोई इसको एकायान भी कहते हैं । श्रन्य तन्त्रों में आधे मुख की तरह श्रद्ध शरीर में व्याप्त वातग्रस्तता को भी श्रर्दित नाम से ही लिखा है । यथा ( दृढ़वलः ) यदि ऐसा है तो प्रति और श्रद्धांगवात में अन्तर क्या रहा ? उत्तर में कहते हैं कि इन दोनों में भेद यह कि अर्दित में कदाचित् ही वेदना होती है, किंतु श्रद्धांगवात में सर्वदा ही वेदना बनी रहती है । अथवा पूर्वोक श्रर्दित के उन सभी लक्षणों के विपरीत लक्षशा श्रद्धांगवात के होते हैं । परन्तु चरक, सुत, वाग्भट्ट तथा माधव आदि ग्रंथ निर्माताओं ने केवल मुखमात्र की वातकोही प्रति नाम से अभिहित किया है और श्रद्धांगवात की एकांगवात, पक्षवध तथा पक्षाघात आदि नामों से । अस्तु ऐसा ही मानकर "उम्र शब्द का व्यवहार करना शास्त्र सम्मत है | डॉक्टर लोग शीत लगना, कनफेड़, उपदंश, कतिपय मस्तिष्क रोग, कर्णास्थि क्षत, किसी दाँत खराब हो जाना तथा निर्बलता इत्यादि इसके उत्पादक कारण मानते हैं । इनके अनुसार भांति के प्रायः वे ही लक्षण हैं जिनका वर्णन - ऊपर किया गया है। जैसे- विकृत मुखमण्डल का स्वस्थ की ओर आकृष्ट हो जाना ( मुखमण्डल जिस भोर को श्राकुञ्चित होता है वास्तव में वह पार्श्व सुस्थ होता है ), मुख के एक कोने का नीचे की ओर लटक पड़ना, मुख प्रसेक, जलपान करते समय उसका बाहर वह चलना, कफ निवन की श्रसमर्थता, सीटों न बजा सकना और न फूंक मार सकना इत्यादि लक्षण होते हैं। रोगी पदर्ग के अक्षरों का उच्चारण नहीं कर सुकता अर्थात् उसके प्रष्ट परस्पर नहीं मिल सकते हैं। विकृत पार्श्व का नेत्र खुला रहता है और उससे अश्रु स्राव होता रहता है । For Private and Personal Use Only Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्दित और वह किसी चीज को मुंह से खींचने वा मिलाकर फिर अग्नि पर रक्खे । दूध के भली चूसने के अयोग्य होता है। प्रकार मिल जाने पर उतार कर शीतल.. होने पर असाध्यता मथकर घी प्रस्तुत करें। फिर इसको तथा मधुर जो मनुष्य अत्यन्त क्षीण होगया हो जो स्पष्ट । औषध यथा काकोल्यादि और सहा अर्थात् माघरूप से नहीं बोल सके, जिसकी आँखों के पलक पर्णी ( कोई कोई इनके स्थान में पूर्वोक्र क्वाथ्य न लगें और रोग को उत्पन्न हुए तीन वर्ष व्यतीत द्रव्यों के चतुर्थांश कल्क का प्रक्षेप देते हैं) के हो गए हो अथवा जिसकी नासिका, मुख तथा नेत्र कल्क को चतुगुण दुग्ध में पकाकर तैले प्रस्तुत से जल स्राव होता हो एवं काँपता हो वह अर्दित. करें । इस क्षीरतैल को अर्दित रोगी के 'पिलाने एवं अभ्यंग आदि में प्रयुक करें। बैंल रहित रोगी असाध्य है। यथा-- सिद्ध कर प्रयुक्त करने से यह प्रति तर्पक है। तं.णस्यानिमिषाक्षस्य प्रसत्ताव्यक्तभाषिणः।। . सु० चि०। म सिध्यत्यर्दितं गाढ़ (बाद-सु०) त्रिवर्ष । डॉक्टरी घेपनस्य च ॥ मा नि । चूँकि यह रांग प्रायः कठिन शीत के कारण चिकित्सा से ही हो जाया करता है। प्रस्तु, विकृतपाल (श्रायुर्वेदीय) के कान के पीछे हिलस्टर लगाएँ या चन्द जों के अदित रोग में नस्य देना, शिर में तेल लगाना | लगवाएँ और फिर एक लोटे या पतेली में तथा कान और अाँख का तर्पण करना हित है। खौलता हुआ पानी डाल कर उसकी टोंटी विकृत यदि अर्दित शोथ युक हो तो वमन करामा कर्ण के छिद्र में प्रविष्ट करदे अथवा इसके बहुत तथा दाह और राग से युक्त होने पर फस्द खोलना समीप रखे जिसमें उष्ण जलवाप्प से काम के चाहिए । यथा--- भीतर गर्मी पहुँचे । दस मिनट तक इस प्रकार अदिते नाधन मूर्ति तैलं श्रोत्राक्षि तर्पणम् । करें फिर गरम रुई से कान को सेकें, पश्चात् वही सशोफ वमनं दाहरागयु सिरा व्यधः ॥ गरम रूई कान पर बाँध दें। ५ ग्रंम कैलोमेल (वा०वि० २१ अ० )। और एक दाम कम्पाउड पाउडर ऑफ जैलप सुनाचाय के मत से अर्दित रोगी की बात- मिलाकर खिला दें जिसमें दो तीन दस्त व्याधि विधानोक्र चिकित्सा करें और श्राजाएँ । मस्तिष्क एवं शिर की वस्ति, नस्य, धूमपान, श्राहार---शोरबा या यहनो ( मांस रस) स्नेहन, स्वेदन तथा नाडी स्वेद इतना विशेष करें प्रभति दें। इस हेतु निम्न लिखित औषध प्रयोग में लाएँ यदि रोगी निल हो तो ईस्टअ सिरप या सण (कुश, काश, नल, दर्भ और इकुकांड), । श्राधे से 1 ड्राम फेलोज़ सिरप को किञ्चित् जल में महापञ्चमूल (बिल्व, अग्निमम्थ, श्रर लु, गारभारी : मिलाकर दिन में दो बार भोजनोपरांत दें। और और सुदाग्निमन्थ), काकोल्यादि श्रष्ट वर्ग की। यदि रोग उपदंश के कारण हो तो पोटासी प्रायोप्रोपधियाँ, विदारिगन्धा श्रादि, प्रौदकमास अर्थात् ! जलीय जीवों का मांस ग्रंथा कर्कट, शिशुमार, डाइड का प्रयोग करें यदि कान में शत प्रभृति हो तो उसका उचित उपाय करें और यदि कोई प्रभति, अनुपदेशीय जीवों का मांस यथा वराह दाँत बोसीदा होगया हो तो उसको निकलवा मादि और कशेरु, सिंघाड़ा प्रभृति प्रौदक कन्द ! इनको समान भाग लेकर १ 'द्रोण (३२ सेर ). दुग्ध और २ द्रोण (६४ सेर)जल में क्याथ करें। नोट- यदि यह रोग शीत, निर्बलता या - चौथाई अथवा दुग्ध मान अवशेष रहने पर उतार .. उपदंश के कारण हो तो उचित उपचार से एक से कर छान ले । इसमें । प्रस्थ ( ३२ पल.) तेल . अढाई मास में अच्छा हो जाया करता है और यदि For Private and Personal Use Only Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra : www.kobatirth.org प्रति ६७२ किसी मास्तिष्कीय व्याधि के कारण हो तो कठिनतापूर्वक अच्छा हुआ करता है। यूनानां वैद्यकीय अर्थात् तिब्बी चिकित्सा रोगारम्भ में पक्षाघात के अन्तर्गत वर्णित तिमी चिकित्सा से काम ले अर्थात् जब तक चौथा या सातवाँ दिन न व्यतीत हो जाए तब तक माउल उसूल और माउल्स्ल ( मधुबारि ) के सिवा और कोई वस्तु खाने पीने को न दे और न उक्क काल में वाह्य वा श्रान्तर स बच उष्माजनक एवं दोषप्रकोपक उपाय का श्रव स्वस्वन करें। तदनन्तर पांचवें या आठवें दिन पक्षाघात मुजि कराके विश्वन | श्राहार मैं कपोत, तीतर, बटेर प्रभृति जीवों का शोरवा दे या चने का पानी पिलाएँ । मास्तिष्कीय श्राद्ध ताके रेचन हेतु कबाबचीनी अकरकरा, लवङ्ग जायफल और दालचीनी प्रभृति चबाएँ । कलौंजी पीसकर सिरका में मिलाकर नाक में टपकाएँ और राई को जैतून तेल वा तिल तैज में पोस कर मुखमण्डल के विकृत एवं रोगाक्रांत पापर प्रलेप करें। यदि आवश्यकता हो तो चन्द्र जीके कान के पीछे लगवाएँ और सेंक करें तथा कुष्ट तैल, रोमन सुख वा रोशन शांनीज का विकृत पार्श्व पर अभ्यंग करें अथवा हिंगु २ तो० पीसकर और रोगन पान में मिलाकर उक्र स्थल पर प्रलेप करें या निम्न तैल प्रस्तुत कर प्रयोग करें । रोगन लकवा - मोम १ तो० को एरण्डतैल ३. तो० में मिलाकर फक्र्यून, जुन्दये दस्तर, महतगी, सूरिभान तख प्रत्येक ३ मा० को बारीक पीसकर मिलादे और श्रावश्यकता होने पर इसका अभ्यंग ! करें | यदि ज़रूरत हो तो मर्ज़ओश, सातर फ़ारसी, अकरकरा, राई, करवीर मूत त्वक्, अनार दाना तुर्श और सोंठ इन सबको समभाग ले कूट कर जल में क्वाथ करें और सिकञ्जबीन सूली ४ तो० मिलाकर गण्डूप कराएँ । छिका को बारीक पीस कर नस्य दें जिसमें दो चार छींके आजाएँ और ( १ ) जायफल २ मा० केशर १ मा० को बारीक पीसकर माजून योग राज गूगल ५ मा० सम्मिलित कर झगाव Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्दित ज़बान के साथ दें या ( २ ) खमीरह गावजुबान अम्बरी उसलीब वाला ५ मा० की मात्रा में क्र गाव जुबान के साथ हैं या ( ३ ) दवाउल्मिश्क हार जवाहरवाला १ मा० अ गावञ्जुबान अम्बर के साथ देना हितकर है। कलौंजी २ मा० पीस कर मधुमें मिलाकर खिलाएँ या वीरबहूटी एक-दो पाँव पृथक कर पान के बीड़े में रख्न थोड़े दिन खिलाएँ । पूर्ण शुद्धि के पश्चात् पक्षाघात योगों का सेवन कराएँ और पचाघात के समान शुद्धि के पश्चात् माजून फिलासफ्रा, माजून कुचला, माजून जोगराज गूगल या दवाउलू मिश्क हार प्रभृति यहाँ भी लाभदायक हैं । अति में प्रयुक्त होनेवाली श्रमिश्रित श्रौषधे श्रायुर्वेदीय तथा युनानी- --वन पलाएड एवं सभी वातहर औषध एवं उपचार यथा तिल कल्क युक्त रसोन कल्क तथा स्नेह पान, नस्य, स्निग्ध पदार्थोंका भोजन लेपन और स्वेदन आदि इस रोग में हितकर हैं। देखा-पक्षाघात । डॉक्टरी - अर्जेण्टाई नाइट्रास, अर्निका, बेलाडोना, प्रॉलियम कंजेपुटी, के लेबान, फेरिपर ऑक्साइड, प्रॉलियम माइरिष्टिस ऑलियम पाइनाइ सिलेवेस्ट्रिस, फॉस्फोरस ( स्फुर ), नक्स वोमिका ( कुचिला), पोटाशियम् आयोडाइडम्, पोटाशियाई ब्रोमाइडम्, सिकेली कान्युटम्, सल्फर, सल्फ्युरिक एसिड, इलेक्ट्रि सिटि ( विद्युत ), स्ट्रिक्निया ( कुचिला का सव ) और उत्ताप इत्यादि । मिश्रित श्रौषध आयुर्वेदीय -- वातव्याधि में प्रयुक्त औषध । यूनानी - हुब्ब फालिज व लक्चा, दवाए इजाराकी, रोगन लकवा व फ्रालिज, रोग़न हफ्त वर्ग, मन, जुनइजाराक्री, मश्रू जून इजाराक्री ( जदीद) माजून जोगराज गूगल, मश्चजून बना, इतुरी. फल जमानी, हुब्बलनवा, दवाएग़रह, दवाउस किप्रीत, रोग़न सुर्ख, लहसन पाक, हब्ब राहत, और हव्य स्वाह कसी रुल प्रवायव For Private and Personal Use Only Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्धग अर्धचन्द्राकार पिण्ड (२) घोडे का एक रोग विशेष | अर्धचक्राकारनाली arddha-chakrākāra- लक्षण-दोनों हनुओं का विक्षेप, नासिका vali--सं० स्त्री० मुड़ी हुई नाली, अर्धचन्द्राएवं नेत्र के मध्य भाग में भेदनवत् वेदनाका होना! कार नलिका । ( Semicircular canal.) और नासापुट प्रादि विकार से बुद्धिमान् लोग अर्धचन्द्रः arddha-chandrah--सं० पु. इसे प्रति कहते हैं। (१) मयूर पुच्छ, चन्द्रिका, मोर-पंख पर की अभंग ardhanga-हिं० संशा पु० देखो- श्राख । हे. च०। (२) प्राधा चन्द्र, अर्धेन्दु . प्रयोग। (A crescent, a half moon) । (३) अर्धगो ardhangi-हि. संक्षा पु० देखा- नख क्षत । मांगी। अर्धचन्द्रम् arddbu-chandram-सं० क्ली. & arddha-fico fêto (1) अंगुली तोरण । हारा। अर्धम् arddham-सं० लो। किसी बस्त। अद्ध चन्द्र कपाटम् arddha-chandra के दो समभागों में से एक, अद्ध, समांश, अशि, kavaram."सं० ली० (Semilunar तुल्य विभाग, प्राधा, मध्य । ( Half.)-९० valve ) अर्ध गोलाकार कपाट (किवाड़ी)। arddha-chandra-gaपु. खयर (Region, section.) मे।। अधचन्द्रगण्डः अर्धकः arddhakah-सं० पु. जल सर्प । ndah--सं० पु. ( Senilunar gall glion ) अर्ध गोलाकार वातगण्ड । ( An aquatic serpent. ) वे० निघ०। अर्धचन्द्र छिद्रम् arddhachandra-chhi. dram--सं० लो० (Semilunar noप्रदुर्धकण्टक arddha-kantaka-सं० पुं० tch ) अर्ध गोलाकार छिद्र । छोटा सतावर, तुद्र शतावरी | Asparagus | । तलम arddha-chandra-taracemosus ( the small var. lali--सं० की. (Lunate surface.) of-). अर्ध गोलाकार पृष्ठ। अर्धकण्डरामयो arddha-handaramayi -सं० स्त्री० ( Semitendinosus.) अर्धचन्द्र तान्तय कीकसम् arddha-chan dra-tántava--kíkasam-eio to भद्र्धकपाट सन्धिक: arddha-kapāta-sa ( Semilunar fibro-cartilage. ) ___nd hikah-सं० पु. अर्ध गोलाकार तान्तवोपास्थि । प्रदर्धकलामयो arddha.kalamaya-सं० अर्धचन्द्र धमनी arddha chandra-dhaato (Semimembranosus.) mani-सं०, हिं. स्त्री० ( Semilunar अधं कैशिको arddha-kaishiki-सं० स्त्री० ___artery) अर्ध गोलाकार धमनी । छेदनार्थ शस्त्रधारा विशेष । सु० सू० अ०।। अर्धवारी urddha.khatri-सं० स्त्री० खारी- ! अद्ध चन्दाकार कपार arddha-chandraमानार्ध, प्राधा खारी । देखो-खारिः(री)। kāra-kapati-हिं० संज्ञा प (Semi lunar valves.) अर्ध चक्राकार कवाट । अर्धगोलम् arddha-golam-सं० कली श्रद्धचन्द्राकार कारटिलेज arddha-chandd( Hennisphere) अर्ध वृत, अर्ध चन्द्र, | rākār.kārtile ja-हिं. संचा० पुं. प्राधा गोल। (Semilunar cartilage ) अर्ध गोलाअर्ध arddhanga-हिं० संज्ञा पुं० [सं०] कार कुरीं ।. पक्षाघात, प्रांग । ( Homiplegia..) अर्द्धचन्द्राकार पिंड addha-chandrākāraप्र चक्रम arddha-chakram-सं० की pinda-हि० पु. ( Plica senilunअर्ध वृत्त । (An arch. ) aris.) For Private and Personal Use Only Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir শুরুষাঙ্কা লক্টিকা अद्धपांदा अर्द्धचन्द्राकार नलिका attha-chandra प्रत्येक तुल्य भाग लें, चूर्णकर अर्ध भाम शुद्ध kāra-nalika-हिं० संज्ञा स्त्री० ( Semi- नीलायोथा मिश्रिन करें । इसका नस्य लेनेसे संज्ञा ituna vanal.) अर्ध गोलाकार नली । होती है और यह सन्निपात, अत्यन्त निद्रा, तन्द्रा, मस्तक शूल, श्वास, खाँसी, प्रलाप, उन कफ इन्हें '-सं० प. अन्तमुख नामक विस्रावण अस्त्र तरक्षमा दर करना है। वरसग० स०। श्रम । अध नारी नटेश्वरः arddha-larinare... श्रद्धचन्द्रास्थि arddha-chandrāsthi-सं०, shvarah-सं०ए० त्रिकुटा, त्रिफला, पारा, to स्त्री० ( Luna tee-bone. ) अर्ध गन्धक, ताम्रभस्म, लोहभस्म, कुटकी, 'गांलाकार हड्डी। मोथा, और बच्छनाग प्रत्येक समान भाग और अद्ध चन्द्रिका arddha-chandrika-सं० पारद से द्विगुण कुचला मिलाकर बकरके पिस से (हिं० संक्षा) स्त्री० (१) कर्णस्फोटा नाम . भावित करें। इसे पुत्र वाली स्त्री के दूध में घिसा को लता । कनफोड़ा | रा० नि० व०३ । कर दाहिनी आँख में अञ्जन करें तो तत्काल वर (२) कृष्ण अवता, काली निशीथ । मद० भष्ट होता है। यह परम प्राश्चर्यकारी रस है। व०१। इस नाम के १७ योग रसयोगसागर में पाए हैं। अद्ध चोलक: addha-cholakah-सं.पु. चोली, कुर्मास । काँचुली-बं० । (A bolice, A RITI at th: arddhanárish vará ___rasinh. सं० पु. पारद, गन्धक, विष और a waist cout.) हारा० । सुहागा भस्म तुल्य भाग ले स्वरल करें, जब अद्ध ज्योतिका arddha jyotika-हि. संज्ञा ! कजल सा हो जाए तब इसको काले साँप के मुख स्त्री० [सं०] ताल का एक भेद । में रख कपरमिट्टी कर एक मिट्टी के पात्र में प्रथम अर्द्धझिल्लीकृत पेशा arddha-jhi}}ikriti.. नमक बिछाकर उसमें पूर्वोत्र सम्पुट रख कर ऊपर peshi-हिं० संज्ञा स्त्री० [सं०] (Semi पुनः नमक भर दे, पश्चात् उस पात्र का मुख membranosus muscle.) यह पेशी : सराव से दृढ़ बन्द कर चूल्हे पर रम्ब ४ाहर की जी अर्ध झिल्लीदार हो । तीब्र अग्नि दें। जब स्वांग शांतल हो जाए तब अर्धतरल arddha-turtel--हिं० वि० [सं०] . निकाल कर खरल में डाल पीस लें। (demi-liquid) अर्ध छ । मात्रा- रत्ती। अर्ध तिक्तः arddha.tiktah-सं० प (1) प्रयाग-इसको बांचे नबुने में नास देने से उस किरात तिक, चिरायता (1310ETaphis तरफ का ज्वर दूर होता है और पुनः दाहिने नथुन paniculata. (२) नेपाल देशज निम्न में नस्य देने से दाहिने अंग का उबर शोघ्र उत्तर विशेष, एक प्रकार की नीम जो नेपाल में होती जाता है। यह योग गुप्त रखना उचित है । वृ. है। ग. भा० पू०१भा० रसरा० नु०। अर्धधारकम addha-haakan-सं०क्ली . अद्धं नाला adlhil. 31āli--हि. स्त्रो० (Gr. अस्त्र विशेष। यह छेदन भेदन कार्य में प्राता ____oo.) परिखा। है । सु० सू० - अ०। । अद्घपलम् addha pa.Ja}]]-सं० क्ली. अर्ध नागच addha-hanracht--हि० संज्ञा दो कर्ष, कद्वय(-४ तो०)। "स्यात्कर्षाभ्यापु० [सं०] एक प्रकार का बाण । "। प० प्र०९ख० । अर्ध नारी नटेश्वर रसः arddha-nārina | अद्धपादा arddha-pada-सं० स्त्री. भूम्या resh rasrasth -सं० पु. जमालगोटा, मलकी, मैं ई अामना । ( Phyllanthus तज, अवॉलपत्र, पटोलपत्र, हुहुर, अजमोद, yeruri.). 40 निघ। For Private and Personal Use Only Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थवागवतः अधौंग वातारि रसः अद्ध पारावर: ht.pivavatah-सं० अर्धवोरच्छा arddha-virachchha-सं0 ..पु. (१) बन कुक्कुट ( Vild cock.) स्त्री कृष्ण दूर्वा । । (२) चित्रएट पारावत । (३). तित्तिरपक्षी, ! अर्धवृत्तम् arddha Titta.v-सं० क्लो०) * तीतर । A partridge ( Pertix frt- अर्धवृत्त addha.ritta-हिं. संज्ञा पु. mcolints.) अत्रि० । (Senicircle. ) अद्धगोल | वृत्त का अधपुष्पा uddha-ptis hpā-सं० स्त्रो! प्राधा भाग । वृत्त का वह भाग जो व्यास और - महाबला। (Sec - Mahabali) वै० परिधि के आधे भाग से घिरा हो। .. निघ। (२)पूरे वृत्त की परिधि का आधा भाग। अर्धपोहल nuddha-pohalu- संज्ञा | अर्ध वृत्तपणालो arddhu-vritta-pran पु० (देश) एक पौदा जिसकी पत्तियाँ मोटो | aii-सं• स्त्री० (Simicircular duहोती हैं। ct.) अर्धगोलाकार प्रणाली । श्रद्धासादनः arddha-prasada.nah-सं० | अर्धश (स ) फरः arddha-sha- (sa) पु. सहदेवी, सहदेई । pbarall-सं० प. दण्डपाल नामक तुद्र अर्धमाग arddha-bhaga-हि.प. प्राधा। मत्स्य विशेष। दौडिका वा डानकोण-माल (A half) . . -बं०। अर्धभोजनम् arddha-bhojanaan--सं० अर्द्ध शरावा,-क: addha.sharavab:क्लीअर्थशन, आधा पेट खाना । ० दो प्रसूति, प्रसूतिद्वय ( ३२ अर्धमात्रा arddha-mātra हिं० संत्रा०स्त्री० | · तो०)। प० प्र० १ ख० । भा० । [सं०] प्राधी .माम्रा । | अर्धसहः arddha-sahah-सं० ए० पेचक, प्रदर्धमात्रिक.artithin matrikah-सं०५० उलूक पक्षी । प्याँचा-बं०। घुबड़-मह । 5. एक प्रकार की निरूहण वस्ति विनोष। .. (An owl.) विधि तथा योग- दशमूल के क्वाथ में अद्ध स्वच्छ arddha-svachchha-हिं०वि० अस्फुट दर्शक,वे पदार्थ जिनमें से प्रकाश अच्छी तरह २ तो. सौंफ पीसकर उसमें ती० सेंधानमक, . , न जा सके, जैसे-तेल, पतला कागज, धुंधला मधु २ पल, तैल २ पल और एक मदनफल का "चूर्ण योजित करें इसको अद्ध मानिक वस्ति कहते काँच इत्यादि । (Translucent, semi transparent.) है । निरूह वतू इसका प्रयोग करें । च० द० । अर्धाग arddhanga-हि. संज्ञा पु[सं०] अर्धमासूरी arddha-masturi-सं० स्त्रो. (१) प्राधा अंग ( Half the body.) : लेखनार्थ अस्त्रधारा विशेष । सु. सू० ८ अ०। (२) एक रोग जिसमें प्राधा अंग चेष्टाहीन अर्ध. रन्ध्रम् arddina-andhi am सं० और बेकाम हो जाता है। फालिज, पक्षाघात । * की० ( Notch.) भंग । पक्ष बध | एकांगवात । अद्धांगवात । ( Hemiभर्धरात्रः arddha-ratrah-सं० पु० रात्रि plegia.) देखो--पक्षवध (बात) बा ..काअर्धभाग; श्राधीरात, महानिशा । मिडनाइट ! . एकाङ्गवात। .. (Midnight..)-इं०।, अर्धाङ्ग वातारि रस: arddhavga-vatāriअ वश्या aiddhawanshya-सं० . .स्त्री० xasah -सं० पु. पारा २० तो०, शुद्ध (Semispinalis.)। ... . .. ताम्र चूर्ण ४ तो० लेकर जम्बीर के रस में घोटें, अर्धवलयम् arddha valayam-सं० पु. और उसमें गन्धक २० तो० पान के रस में घोट ( Arch :) कर मिलाएँ फिर सम्पुट में बन्द कर भूधरयन्त्र For Private and Personal Use Only Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भद्धोंगी भाष भेदक में ५ पहर तक हलकी चमें पकाएँ और इसके अर्धे तु मूनः सार्धायभेदकः । बराबर त्रिकटु का चूर्ण मिलाकर बारीक पीस ! पक्षात्कुप्यति मासाद्वा स्वमेव च शाम्यति । रख ले। अति वृद्धस्तु नयनं श्रवणं वा विनाशयेत् ॥ मात्रा-२ रत्ती। (पा० उ०२३०) मर्थ-मस्तक के प्राधे भाग में जो शिरोगुण - यह अदांग वात और एकांग वात को ! विकार होता है, उसे अर्धावभेदक कहते हैं। यह नष्ट करता है । रस. यो० सो.। रोग पन्द्रहवें दिन वा भास मास में कुपित होता अांगी arddhongi-हि. वि० [सं०] | है और औषध के बिना अपने आप शान्त हो (1) पक्षाघाती प्रदीग-रोग-ग्रस्त । (One i जाता है। अविभेदक प्रबल हो जाने पर नेत्र afflicted with the hemiplegia.) वा कानों को मार देता है। राशोनजलम् arddhanshonajalam सुश्रुताचार्य भी ऐसा ही मानते हैं। परन्तु -सं० क्ली० अाश हीन पक्व जल, प्राधा भाग माधव के विरुद्ध केवल एक बा दो दोषों से ही से कम पकाया हुआ जल । यह वात पित्त नाशक कुपित हुश्रा न मानकर तीनों दोषोंसे कुपित हुश्रा है। ग. नि० २०१४। मानते हैं । यथाप्रालिगः arddhāligah-संप जल सर्प । यस्यात्तमाङ्गार्धमतोष जन्तोः (Aquatic serpent.) वैनिघ01 संभेद तोद भ्रम शूल जुष्टम् । अयिभेदकः arddhava bhedakah | पक्षादशाहादथवाप्यकस्मा-सं.प . त्तस्यार्धभेदं त्रितयाद् व्यवस्येत् ॥ अविभेवक ardhava-bhedaka (सु. १० २१ म.) -हि० संज्ञा पु. ) माधवाचार्य के मत से एक प्रकार का परियाय से होने वाला शिरःशूल रुक्षाशमात्यध्यशन प्राग्वातावश्याय मैनः । जो सामान्यतः प्राधे शिर में, कभी कभी सम्पूर्ण वेगसंधारणायास व्यायामैः कुपितोऽनिलः॥ शिर में हुआ करता है । इसमें जी मचलाता और केघलः सकफोबाधं गृहीत्वा शिरसोघली । उबकाइयाँ पाती हैं और आँखों के सामने मन्या भ्रशा कर्णाक्षि ललाटाधेऽतिवेदनाम॥ चिनगारिया सी उपती दृष्टिगोचर होती हैं इत्यादि। शखारणिनिभांकुर्यात तीनांसाऽर्धावभेदकः प्राधासीसी । अर्धभेदक, अधकपारी (ली)। नयनंघाथवा श्रोत्रमतिवृयो विनाशयेत् ॥ हेमिक्रेनिया ( Hemierania ), माइ. (मा. नि.) ग्रीन Migraine, सिकहेडेक Sick he-| अर्थ--अस्यन्त रूखे पदार्थ खाने से अधिक adache, मेग्रिम Megrim, नर्वस हेडेक भोजन करने से, भोजन पर भोजन करने से Nervous headache-० । माइग्रीन पूर्व की वायु एवं बर्फ का सेवन करने Migraine-फ्रां । माइग्रेन Migrane से, अति मैथुन करने तथा मल मूत्राधिक -जर । शक्री कर, सुदाश् निस फ्री, सुदाम् | के वेगों को रोकने से, अधिक श्रम सथा व्यायाम ग़स यानी-१०। दर्दे नीम सर, दर्दे शक्रीकह , करने आदि कारणों से केवल वायु अथवा का दर्दे सर ग़स यानी-फा०, उ० । प्राधासीसी, संयुक्र वायु कुपित होकर श्राधे शिर को ग्रहण सर का दर्द-उ० । प्राध् कपालेर धरा-'.। कर मन्या नाड़ी, भौंह, कनपटी, कान, नेत्र और आयुर्वेद के मत से मस्तक के प्राधे भाग में ललाट एक ओर के इन सभी अययों में कमी होने वाले शिरोविकार को अविभेदक कहते हैं । के काटने कीसी अथवा अरणी (जो मभ कर उनको इसका परियाय रूप से होना. मी स्वीकार अग्नि निकालने की लकड़ी है) के समान बीज है। यथा ___ पीड़ा उत्पन्न करता है उसको पर्धावभेवक कहते हैं, For Private and Personal Use Only Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाव मेदक भावमेरमा यह रोग जब अधिक बढ़ जाता है तब एक और यत श्रावस्यपूर्ण एवं शिथिन्न होती है, सिर के कान और नेन को नष्ट कर देता है। घूमता है, मेत्र के सामने चिनगारियां प्रभृप्ति यूनानी वैद्यक के मत से शकीकह एक प्रकार उहती एप्टिगोचर होती हैं। ये बदण पूर्वरूप का शिरोशूल है जो साधारणतः प्राधे शिर में में होते हैं। अर्थात् शिर की वाम वा दक्षिण पार्श्व में होता फिर इस प्रकार वेदना प्रारम्भ होतो है- है, किन्तु कभी सम्पूर्ण शिर में होता है । प्रथम कनपटी और भौहें। में मन्द मन्द वेदमा जैसा मुल्ला नफीस ने इसकी व्याख्या की प्रारम्भ होकर उग्र रूप धारण करती जाती है। है। ऐसी दशा में इसकी शकीकह श्राम कहते यहाँ तक कि कुछ काल पश्चात् अत्यन्त तीन हैं। निम्नलिखित डॉक्टरी नोट से भी इसकी वेदना होने लगती है। ऐसा प्रतीत होता है सत्यता स्थापित होती है। इस बेदमा की विशेषता गोया शिर विदीर्ण हुमा जाता हो । गति करने यह है कि यह साधारणतः परियाय रूप से से वेदना की वृद्धि होती है । प्रायः तो शिर के अर्थात् दौरे के साथ हुआ करती है। इसके एक ही पार्श्व में वेदना होती है। किन्तु किसी साथ सामान्यतः हल्लास एवं वमन विकार होते किसी समय सम्पूर्ण शिर में वेदना होती है। तो है। जिस समय यह वेदना सम्पूर्ण शिर में होती भी एक ओर तीन होती है। रोगी के लिए शन्न है उस समय इसको सुदाम् बै ज़ह (सम्पूर्ण तथा प्रकाश भसद्ध होते है। उसकी कॉम्खों के शिर के वर्द) से पहिचानने में भ्रम हो जाया सामने भुनगे वा चिनगारिया उड़ती सी प्रतीत करता है। इन दोनों में मुख्य भेद यह है-शकी होती हैं। कर्णनाद होता, मुखमण्डल की विव. कह में शाटिकी धमनियों में स्पन्दन अधिक संता, शरीर का कॉपना, नाड़ी की निजता, होती है और उनकी दबा लेने से वेदना शान्त हल्लास ( मचली), उबकाइयो पाना प्रादि हो जाती है; किन्तु सुदामबै जाभू में ऐसा नहीं लक्षण होकर अन्तत: एक ओर की कनपटी या होता। भौंह में न्यथा टिक जाती है। दो-तीन बटे से टिक डोलरी ( Tic Douloureux) लेकर साधारणतः २४ घंटे तक और यनि उम्र मर्थात् इसाबह ( भौंहों के दर्ष) को भी किसी। हो तो कभी २-३ दिवस पर्यन्त रहकर अब शमन किसी डॉक्टरी उर्दू ग्रंथों में दर्दे शकीकह लिखा होने लगती है तब रोगी को नींद आ जाती है। है। परन्तु यह ठीक नहीं। जागृत होने पर वह सर्वथा स्वस्थ होता है और डॉक्टरी मत फिर कुछ दिवस परचात्, पर सामान्यतः ३ या । - डॉक्टरों के मत से माइग्रीन एक प्रकार का सप्ताह बाद दर्द का वेग होता है। नौबती शिरःगूल है जो सामान्यतः माधे शिर में हुप्रा करता है। निदान-उनके मतानुसार यह अर्थावभेदक की चिकित्सा .. प्रायः पैतृक होता और अधिकतर स्त्रियों को होना অথম ন দীঘী কা বাঘ বিহুৰে জৰ है। विशेषतः अधिक रजात्राव होने या अधिक शिरोरागान्तर्गत चिकित्सा का प्रवदम्वन करे। काल सक स्तम्यवान से यह हो जाता है। कभी कभी वायगोना भी इसका कारण होता है। अवधिभेदके प्येषा यथा दोषाम्यवाकिया। विकार, थकावट व श्रम, उपवास एवं निर्व. खता, अजीर्ण, अनिद्रा, तीन प्रकाश, उम्र गंध, (दा० उ०७०) मलेरिम द्वारा उप विषाहता, अति मैथुन, पृष्ठ अस्तु सिरस के मेज, जोमा की मह तथा म्याधि और मुख्यकर ष्टि दोष इत्यादि इसके | বিলাক না ল য় য়াং ভাই प्रोत्साहक एवं उत्पादक कारण हैं। का नस्य अथवा कॉजी के साथ पिसे हुए पंवार लक्षण साधारणतः वेदभारम्भ से पूर्व तबी.। " बीजे कालेप हितकारी है। यथा For Private and Personal Use Only Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अदूधावभेदक अविमेदक शिरीष वोजापामार्गमलं नस्यं विडान्वितम्। (मिठाई) श्रादि सेवन न करे । क्यों कि अधिक स्थिसरसो वा लेपेतु प्रपुम्नाटाऽम्ल कल्कितः मांस तथा मिठाई के सेवन से वेग की वृद्धि होती ... :(वा० उ०२४ अ०)। है । जिस पदार्थ के सेवन से. वेगारम्भ होने की सुश्रनाचार्य के मत से नस्य कर्म आदि रूप | . . आशंका ही उसका कदापि व्यवहार न करें और प्रौपध, जांगलप्राय भोजन और दुग्ध एवं अन्न । . प्रत्येक प्रकार के भारी तथा श्राध्मानकारक के बने पदार्थ तथा घृत आदि केवल सूर्यावत में ! पाहार से परहेज करें। रोगी को चाहिए कि ही नहीं, प्रत्युत अर्धभेदक में भी प्रयोजनीय हैं । । भोजन करने से पूर्व एक घंटा तक सर्वथा श्रारामसे और स्नेह, स्वेद, शिराव्यधन (फसद खोलना )। लेटने की आदत डाले। इस बात का सर्वथा तथा अवपीड़नस्य और कर्णशूलोक दीपिकातैल | ध्यान रक्खें कि मलावरोध न हो। पाखाना साफ़ आदि में से जो उपयुक हो उसका म्यवहार !... हो जाया करे । इसलिए किसी मृदुरेचक औषध का व्यवहार करें और कभी कभी (महीने में . शिरीष, मूलक ( मूली) तथा मदनफल । एक बार) ५-७ दिवस पर्यन्त निम्नयोग का इनका अवपीय नस्य देना अर्धावभेदक ! . व्यवहार करें। तथा सूर्यावत्त दोनों में हितकारक है । वच और मैग्नेसियाई सल्फास २० ग्रेन, पिप्पली का अवपीरन करना इसमें लाभदायक क्वीनीनी सल्फास २० प्रेन, है।, अथवा मुलेठी का बारीक चूर्ण कर उसमें सिड सल्फ डिलं ५ मिनिम, मधु मिलाकर इसका अवपाद करें। मैंसिल लाइक्वार स्ट्रिक्नीनी २ मिनिम, ...अथवा चन्नुन के चूण में शहद योजित कर इस इन्फ्युजम ऑरेंशियाई (ऐड) १ श्राउंस । का भवपीइन करें। (सु० उ० २६ १०) ऐसी एक-एक मात्रा औषध दिन में ३ बार ... ... .प्ररक्षित नस्य ....... काश्मीरी पत्र, करवीर पत्र, छोटी इलायची, काय जब वेदना के वेग से पूर्व आँखों के सामने फल, नलिकनी, जौहर नवशादर और सफेद । चिनगारियों सी उड़ती दिखाई दे या कनपटी पर ': चन्दन । सबको समान भाग लेकर खूब : बारीक सुरसुराइटं बोध हो या शिरोघूर्णनं वा शिर के चूर्ण: कर रखें। इस.का, नस्य लेने से ग्राधासीसी एक पार्श्व पर सूपम सी वेदना हो तब दो तीन को लाभ होता है। ..... ... दिवस पर्यन्त १० ग्रेन अमोनियम् ग्रोमाइड को . ....... डॉक्टरी चिकित्सा : : किञ्चित् जल के साथ दिन में ३ बार व्यवहार रोग का मूल कारण, का पता लगाकर उसको करें। अथवा ३.६ दिन तक १५ ग्रेन कै शिल्यम दूर करने का प्रयरन करें और यति प्रधान कारण लैक्टेट धोड़े सोडावाटर में मिलाकर ऐसी एक ज्ञात न हो सके तो निम्न लिखित उपाय काम में एक मात्रा दिन में तीन चार बार दें। ' येग कालीन चिकित्सा रोगी को आदेश कर कि बह । संरक्षण सम्बन्धी नियमों का पालन करे और जब शिर में दर्द होने लगे तब रोगी को एक मध्य मी यन कर जीवन निर्वाह करे। .स्वच्छ अंधेरे कमरे में सुखपूर्वक लिटाए रखें। वहाँ खलीई वाव में रहे। दैनिक वायु सेवनार्थ पर किसी प्रकार का शोर व गुल न होने दें। भ्रमण किया करे। अधिक श्रम एवं वैकल्यकारक / . . सेगी को कोई प्राहार न दें। यदि प्रामाशय कार्थी संधी चिता प्रादि से अपने को दूर रखें।। ' पार से पूर्ण हो तो कोई वामक यथा " ड्राम यथासम्भव अपने को प्रसका रखने का यत्न करें। थाइनम् इपिक क्वानी माउस जल में मिला'उष्ण व उत्तेजक आहार यथा -पोलाव, खर्मा, कर पिलाएँ जिसमें १-३ वर्मन प्राकर कोष्ठ शराम वा याब, चाय तथा कहवा और मिठास शुद्धि हो जाए और यदि प्रामाशय रिक हो तथ स्थ्य For Private and Personal Use Only Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रवभेदक चार बार उबकाईयाँ श्राती हो तो बर्फ घुसाएँ 'अथवा सोडावाटर में बर्फ डालकर घूँट घूँट पिलाएँ आमाशय द्वारपर १५-२० मिनट तक राई - का प्लास्टर लगाएँ । मलावरोध होने की दशा में व्ल्यूप्रिल २ प्रेन खिलाकर उसके घंटे पश्चात् सोडियाई सल्फास पर मैग्नेशियाई सल्फास 8 से ६ ड्राम ४ आउंस ( २ ० ) पानी में मिलो ★ कर पिलाएँ। शिशेशूल निवारणार्थ निम्न योगों में से किसी एक का व्यवहार करें | ये सब - अत्यन्त लाभप्रद और परीक्षित हैं । केफीन साइट्रास फेनासिटीन १० ग्रेन १० प्रेन सोडियम सैलिसिलेट केकीनी साइट्रेट www.kobatirth.org यह एक मात्रा है । ऐसी एक are wes प्रातः काल अथवा किसी भी समय वेदना काल - में जला दुग्ध के साथ सेवन करें। ( २ ) ऐटीपायरीन ५ प्रेन ५ प्रेम १ ग्रेन ( ३ ) व्युटल क्रोरल हाइड्रेट टिंक्चुरा जलसीमियाई टिंक्चूरा कैनबिस इण्डिकी ग्लीसरीन ३० मिनिम सीरुपस श्रीशियाइ एक्लोरोफॉर्मा (ऐड) 1⁄2 आउंस ऐसी एक-एक मात्रा औषध १५-१५ मिनट पश्चात् तीन-चार बार दें | वेदना श्रारम्भ होते "ही इसका प्रयोग करने से प्रायः व्यथा रुक | जाती है । * ग्रेन म मिनिस ५ मिनिम १ डाम १ भाउंस एक्वा ( एंड ) ऐसी १-१ मात्रा श्रीषध श्राध श्राघ घंटे पश्चात् दो-तीन बार दें । इस प्रकार के शिरो-शूल में यह औषध अत्यन्त लाभप्रद है । ६७६ ( ४ ) ऐस्टिपायरीन पोटासियाई ब्रोमाइडाई ६० प्रेन २४० ग्रेन स्पिरिटस झोरोफॉर्माई २ ड्राम एक्वा कैम्फोरी (ऐड ) ८ श्राउंस इसमें से आध आउंस ( ४ दाम ) औषध वेदना आरम्भ होते ही दें। श्रावश्यकता होने 1 अद्ययमेव पर बाघ घंटे पश्चात् १-२ मात्रा और दें । वेगान्तर काल में कुछ दिन तक २ ड्राम की मात्रा में प्रातः सायं इसका सेवन किया करे । प्रत्येक भाँति के शिशूल में बाभदायक है । ( * ) ऐस्पिरीम २ ग्रेन फेनासिटीम दोवर्स पाउडर Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ऐसी एक-एक पुड़िया एक-एक घंटे पश्चात् तीन - चार पुड़िया तक दें । के लिए अत्यन्त लाभ ( ६ ) दायक है | लोरल हाइड्रेट पोटासियम् श्रोमाइड लाहकार ट्राइ नाइट्रीन एका कोरोफॉर्म (ऐड) ऐसी एक-एक मात्रा तक दें । . ऐस्पिरीन कीनीन सल्फेट फेनासिटीन कैफीन ३ न ३ प्रेन १० ग्रेन १५ मेन १ मिनिम (७) हर प्रकार के शिरःशूल के लिए गुणदायक है। For Private and Personal Use Only १ आउंस दिन में तीन बार ५ ५ प्रेन ३ ग्रेन ३ ग्रेन २ ग्रेन ऐसी एक-एक पुढ़िया २-२ घंटे के अन्तर से ३ पुड़िया तक दें । (८) यह श्रदुर्भावभेदक के वेग रोकने के लिए श्रत्युपयोगी है। दो तीन मास इसका निरन्तर उपयोग करना चाहिए | सोडियम ब्रोमाइड टिंक्चर जेलसीमियाई तिकार ट्राइ नाइट्रोनी arter स्ट्रिक ५ मिनिम एक्का मेन्धी पेप (पेट) १ घाउंस ऐसी एक-एक मात्रा दिन में २-३ बार दें । नोट- प्रत्येक सप्ताह में एक दिन का नागा " देना चाहिए । इस प्रकार के होले शिरो बेदना में दोनों स्कंधो के बीच में और कानों के पीछे और मीचे खुश्क गिलास लगाने से तथा गुद्दी पर १० प्रेन १० मिनिम १ मिनिम Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषामेवा रुपये के बराबर स्लिस्टर लगाने और फिर . सिसकोतरी, रसवत मकी, रसवत हिन्दी, बिलास्टर जमित बस पर मरहम सियून बगाकर । समग परबी, निशास्ता, अम्ज़रूत, कतीरा, उसको दस दिवस पर्यन्त शुष्क न होने देने से । पोस्त कुदुर, गुलनार फारसी, प्रकाकिया, और विकारी पार्श्व अर्थात् जिस ओर तीन वेदना ! बम्मुल परावैन, शियाफ मामीसा प्रत्येक ३ मा०, होती है उस ओर के कान के पीछे के प्रस्थ्य-i अफीम ६ मा०, जाफरान २ मा० । समग्र मौषध खुद पर गई के पलस्तर लगाने से प्रायः लाभ को फूर कर मोरिद के हरे पत्तों के पानी में गंध कर टिकिया प्रस्तुत करें। आवश्यकता होने पर एक टिकिया को परदे की सफेदी में घोलकर यूनानी वैद्यकीय चिकित्सा गोल और छिद्रयुक काग़ज़ पर लगाकर शांखिकी रोगी को एक अँधेरे कमरे में सुखपूर्वक लिटाए धमनी पर चिपका दें। इससे बहुत शीघ्र वेदना रखें और उसके प्राकृतिक शैत्य व अम्मा को ध्यान शान्त हो जाएगी। (१०) अनिद्रा की दशा में में रखकर वाहा तथा प्रान्तर उपचार काम में | रोगन बनाशा, रोगन का, या रोगन कार लाएँ तथा रोग के मूल कारण का परिहार करें । प्रभृति का शिर पर अभ्यंग करें। इससे नींद भस्तु उदर के माहार से पूर्ण होने से वापोगत : मा जाती है। प्रकृति के शैस्य की दशा में मेंहदी होकर इस प्रकार का शूल हुअा हो तो (.) के पत्तों को पीसकर इसका प्रलेप करें या बादाम तीन पात्र उपए जज में सिकाग्रीन सिर्का तो. ५को सर्षप तेल में पीसकर मस्तक पर लगाएँ और संधव , तो. को विलीन कर पिलाकर । और रीठा को पानी में घिसकर दो तीन बूंद यमन कराएँ । यदि मलावरोध की भी शिकायत नाक में टपकाएँ। इससे लाभ न होनेकी दशा में हो तो किसी उपयुक्त बस्तिदान द्वारा उसको यह प्रलेप लगाएँ। शीघ्रातिशीघ्र निवारण करें । प्रकृतीमा की दशा । एक जमालगोटा को पानी में घिसकर वेदना शुत्रः में रोगी को (२) कपूर तथा श्वेत चन्दन । पाच की दूसरी ओर की कनपटी पर रुपया के सुधाएँ तथा (३) २ रत्ती अफीम, ४ रत्ती , बराबर प्रलेप करें। यदि इससे अधिक जलन हो कपूर को पानी वा स्त्री दुग्ध में घोलकर नस्य ६ और फोस्का उत्पन्न हो जाएँ तो उसपर मक्खन या (४) केवल रोगन बनक्शा वा श्री दुग्ध का । उन विधि से सेवन कराएँ या (५) सिन्दूर ४ पुरातन प्राधासीसी पर निम्न द्रलेप का उपरसी को एक कागज पर मल कर उसकी बत्ती योग करें। बनाकर उसका एक सिरा वेदना होने वाली मेंहदी के पत्र इन्द्रायण का गूदा, उश्शक, मासिका के विपरीत दूसरी ओर की नाक में रखें । इलीलुल मलिक, कबाबचीनी, एलुमा सबको और दूसरे सिरे की ओर से जलाकर धूनी ले।। समान भाग लेकर बारीक पीस ले और सिरका माहा के विनाश हेतु पिगलियों पर मजबूत बंधन । में मिलाकर प्रलेप करें या यह प्रलेप लगाए - रू.गाएँ और पाशोया कराएँ । (६) चन्दन : मुरमकी २ मा० को निश्चित सिरका में पीसकर और कपूर को गुलाब में घिसकर शिर और शंख । लेप करें । स्थल पर प्रलेप करें। (७) परीक्षित प्रलेए-। नस्य-यह साधारणतः उस कफज मर्ड्सव सेठ, चन्दन श्वेत, एरण्ड मूल स्वक् सय को । भेदक में जिससे शिर में गर्मी और वेदना की समभाग लेकर साडी चावल के धोवन में पीस शिकायत एवं टीस नहीं होता, लाभदायक है। कर मस्तक और कनपटी पर लगाएँ । इससे हर ! समुद्र फल और नवसादर १ मा० दोनो प्रकार के पविभेदक में लाभ होता है। (). को बारीक पीसकर सूर्य की भोर मुखकर नस्य ... उम्र वेदना की दशा में कुर्स मुसल्लस का लें। इससे प्रायः छीके श्राकर वेदमा शांत हो व्यवहार करें। (३) वर्ग मोरिद सम्ज, मुरमकी ... जाती है। दिन में कई बार प्रयोग करें। For Private and Personal Use Only Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अविभेदक अद्धन्दु शकला शीरा उस्तु खुइस ३ मा०, काली मिर्च इसका अर्धायभेदकमें प्रयुक्त होनेवाली पानी में शीरा निकाल कर बिना सात किए सुर्यों अमिश्रित औषधे दय से प्रथम पान करा अथवा इस फांट का आयुर्वेदीय तथा यूनाना-जदवार, समुद्रप्रयोग करें-गुल बनक्सा ६ मा०, उन्नाब ५ दाना, फल, विक्तिका ( नकछिकनी ), अपराजिता, सपिस्ता १०दाना, गुल्लखिस्नी ४ मा०, शाहतरा बन खजूर ( राम गुश्राक), विडङ्ग, हिंगु, दुरा६ मा०, पालू बोखारा १ दाना, बिहीदाना ३ मा०, ल भा, तिक कोशातकी, विडम तैल, रीठा । सम्पूर्ण औषध को अर्क कासनी २० तो० में ___ डॉक्टरी--प्रार्सेनिक, केफीन, कानी, फेरी भिगोएँ और प्रातः इसको थोड़ा कथित कर सल्फ, विनीन, विराट्रिया, केफ़ीनसाइटास, फिना२ तो0मिश्री मिलाकर पिलाएँ । विबंध को दर सिटीन और पुसिटेनिलाइडम् (ऐलिटफेधिन)। करने के लिए मगज फलूस ४ तो. को जल में मिश्रित औषध घोलकर इसमें ४ तो. परंड तैल मिलाकर कभी आयुर्वेदीय - शिरोशूल में प्रयुक्र होने वाली कभी पिलाते रहें और वन्य धल माँ १॥ मा० प्रायः औषध । रोजाना खिलाएँ, अथवा यूनानी मिश्रित औषधों यूनाना-इत रीफल फौलादी, .हबूब अयामें से श्रावश्यकतानुसार किसी एक का उपयोग रिज, सऊत अजीब, सऊत इसाबह व शकी कह, कुस मुसलस, दवाए शनीक़ह, और यदि इन उपचारों से लाभ न हो तो फिर | शिरोशल में प्रयुक्र होने वाली सभी दवाएँ । मुभिज और मुसहिल पिलाकर व्याधि गत दोषों। বা का पूर्णतया शोधन करें। शिरोरोग में वर्णित पथ्यापथ्य एवं आहारमुखिज--गुल बनक्शा, गाव जुबान, मको | बिहार अनुसरणीय हैं। खुश्क, तुम कसूस ( पोटली में बँधा हुआ) शाहतरा, असन्तीन प्रत्येक ५ मा०. सालबो. अद्धाशनम् arddhashanan-सं० क्ली खारा, उमाब, सपिस्ता प्रत्येक ६ दाना, तमर हिंदी .. अ- भोजन, प्राधा पेट खाना, भूख से कम (अम्लिका ) २ ता०, तुबुद ६ मा० । सम्पूर्ण खाना । श०२०। औषध को कथित कर और मल छानकर खमीरा अद्धिक arddhika-हि० संज्ञा प [सं०] बनशा साद। ४ तो. मिलाकर सात दिवस तक अविभेदक । प्राधासीसी । ( Hemiपिलाएँ । पाठवें दिन उसी नुस्वामें मग़ज़ फलूस crania.) वयार शेयर ५ तो०, तुरञ्जबीन ४ तो०, शीरा अर्धीकरण urddhi-karana-हिं• संज्ञा पु. मगज़ बादाम शीरी ५ दाना मिलाकर विरेचन [सं० ] श्राधा करना। दें। दूसरे और तीसरे विरेचन में मुख्यतः मस्तिष्क अद्धन्दुः arddhendub-सं० प.. नख की शुद्धि हेतु हन्न अयारिज ६ मा० रातको खिला चिह्न । मे० दत्रिक। कर प्रातः काल प्रागुक्र विरेचन दें । यदि वेदना पूर्ण रूप से शांत न हो तो फिर कुछ दिन हब अद्धन्दुपुरुपक arddhenddu-pushpakसिन या इतु रीफ़ल सगीर । तो. या शर्बत | स० अज्ञात । उस्तु खुइस २ तो० उपयोग में लाएँ। अद्धन्दु शकला arddhendu-shakali हब सिर-एलुमा २ तो०, हड़ काबुली १ -स. स्त्री० (१ ) नासारोग ( Nasal सो०, मस्तंगी ७ मा०, गुलसुर्ख, अनीसू प्रत्येक disease)। अम्रा जल अन्फ्र-०। (२) ४ मा० और कतीरा ६ मा०, सबको बारीक पीस कपालरोग भेद । ( A kind of the कर चने के बराबर वटिकाएँ प्रस्तुत करें। मात्रा diseases of skull.) मा० रात्रि को सोते समय उष्ण जल के साथ ।। (a) sites grat (Labial diseases. ) For Private and Personal Use Only Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अझैदक दीरम् 'अर्फ हफी ( ४ ) अब द रोग । ( Tumour ) अर्नका tathica-to (५) गल रोग (Pharyngual diseases)| अनिका मॉण्टेना nicu montana, (६)तालु रोग (Disases of the palata) ले० (७)कण रोग( Diseases of the - एक पौधा है जो प्रौषध के काम में आता है। ear.) व. निघ। मेमा० । देखो-श्रानिका माण्टेना । पद्धदक क्षीरम् ardd bolaku-kshiram | अनीका फ्लोरिस a.mira floris--ले. अर्नीका -स. क्ली० अद्धोदक शृत दुग्ध, प्राधा जन फ्लावर्स (armien flowers.)-इं०। मिलाकर पकाया हुआ दुग्ध यह एवं लघु अर्निया कल्दः armiya-kaldahan सं० पु. होता है। __ चाकसू । ( Cassia ahsils.) 'अदिकं पयः शिष्टमामालघुतरं शृतम्'। अर्नियाता ashiyāti-सं० स्रो० थल पननी । स्थल कमल । हेमाद्रिक्षारपाणि । अर्ध ardha-हिं० वि० दे०–श्रद्ध। अर्नियूकन artiyujtina.यू० चिरायता (A1 drographis paniculata.). अन arma-चीड़ वृक्ष भेद । ( Chirin) सीन unicin-ई०, अर्नाका सत्व | V. अनकी almaqi-यू० एक विशाल वृक्ष है जो .M. । घीन तथा भारतवर्ष में पाया जाता है । इसकापुष्प | अनुकसान anusan-० हिन्दकी, विषलाल, पीला, प्रथया श्वेत होता है। स्वपरा । अनंव घरी anaba-biji-० खरगोश । अनेविया armabial, Sp.-ले० रतनजोत, रङ्गे (A hare.) ___ बादशाह । देखा--ग्तनजात । (Alkalnet.) अर्नब बहरी arma.ba-ba.hri-अन्दरियाई | फा० इं०२भाममा . __ खरगोश । (Sca-rabbit.) श्रर्नेट ilnat ) -इं० लटअनी armabi-अ० एक बूटी है जो खरगोश के | अनेटस डाई arhatt's dya कन, बल कन! पैर के समान होती है । यह खराब और शीतल ( Dixit arel ana, Liun.) ई० मे० स्थानों में होती है। प्लां। अनधिय्यह a biyyith अनोटाप्लाण्ट hottalpitent-इं० येन्दुरिया ऐन अनविय्यह aainik biyyinh || लटकन, चटकन । Amt.to( Bisi Ore -अ० एक रोग है शतरह (shaiah) | lama.) ई. मे० मं०। जिसमें ऊर्ध्व पलक सङ्कुचित होकर छोटे हो । अल arfish-अ० हथेली का घाब । जाते हैं और मीचेको लौट जाते हैं। इस कारण : अ anti-० (१. शादिदक अर्थ "उच्च स्थान" लके परस्पर नहीं मिल सकी प्रार परन्तु परिभाषा में अस्थि की ऊभरी हुई रेखा को रोगी के नेत्र सुप्तावस्था में शशा च सहरा प्राधे कहते हैं। खुले रहते हैं । लैग ऑफ्थैल्मास ( Lag क्रेस्ट (Crest.)-इं०। (२)ोस । ophthalmas.)-इं०। अफ यानी artariani-अ० पेड़ की अस्थि की अर्ना ana-हिं० जंगली भैंस ( wild उभरी हुई रेग्वा । प्युबिक क्रेस्ट(Pubic erest.) ___buffalo.)। भर्ना arna-हिं० महानिम्ब (Ailantus- अफ़जaarfan अन्ताचण दुग्ध मय बटा भद। excelsil, Bost.) फा० इं० १ भा० । अर्फ हर्कफी aarfa.halgafi-१० चढे की अर्नावः al: bah-स. प. जंगली अंजीर ।। अस्थिकी उभरी हुई रेखा । इलिश्रक क्रेस्ट ( Wild fig) (Iliac crest.) For Private and Personal Use Only Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मायु दान अर्फियह aad fiyah-अ० मारता । दोषों के कारण उत्पन्न होनी है। इसमें दई नहीं श्रतह, yatulh-अ. (व. य.), रबात होता, इसे अचुद कहने हैं। जब यह वम के (१०व०) बंधनी । लिगेमेण्ट्स Ligaine- बाहर होती है तब यह चलायमान और विषम ints )-ई । प्राकृति वाली होती है । जैसेअबह arrhthri-सिरि० संभालजीज । Vi. : वामान्तमा सपिगडाभः श्वयथुग्रंथितो मजः। tex nginto (Seels of-) साःम्यादबुदो दोषिमावाहनश्चलः ॥ अतिर्रिहम arbita timriha - वा० उ०१०-। जरायु । (७) अस्थि का उभरा हुआ भाग। ( Pro बंधनिया, गर्भाशय के बंधन जो उसको एक । दूसरे से संलग्न रखते हैं । लिगेमेण्ट्स ऑफ दी । tuberance.) बूटरस ( Ligatunts of the Utor : (८) रक के प्रकोप से तालु के बीच में पद्म Tus.)-इं। के आकार के समान जो सूजन होती है उसे "अर्बुद' कहते हैं। वा० भ० सं० प्र.२१ । अर्चिततुल मसान: arbitatil musarahi -अ०. वस्तिबंधन, मूत्राशय के बंधन । लिगे। अबु दम् builam-सं० क्ली0 (1) (Tuberमेण्ट्स अॉफ दी ब्लैडर ( Ligaments of cle ) उभार। (२) अर्बुद फोड़ा विशेष the blacier. )-'01 (Tumour) अर्बुद फलम् arbinda.phalam-सं० क्ल अर्षियानुस arbiyanus-पू० बाबूनहे गावचश्म | मलूक का फल । यह एक भारतीय वृक्ष है। -फा० । फर्नानियून-यू० । पार्थीनिअम ( Pa | रसः arbuda-haro-tasah-संग ___rthenium ), मैटिकेरिया Matrica पु० दे०-अन्वुद हरो रसः। ria-ले० । म.प्र.डॉ.। अर्बुदान्तर सरिस्का arbudantara-sariश्री aurbi-अ० सफ़ेद यव ( White bari. . i tká-po ato (Intertubercular.) ___ey )। (२) सुल्त । अबूतानून arbu tānāma-न. एक बूटी है जो अर्बु (व) ur bu(ru)dah-सं० पु०, क्ली पृथ्वी पर फैलती है। यह जंगली तुलसी के अर्बुद arbnda-हिं. संज्ञा पु. समान किन्तु उससे छोटी और नर, मादा दो (1) गणिन में नवें स्थान की संख्या । दश प्रकार की होती है। कोटि । दस करोड़ । अोर कॉन्सिलि भोरम् arbor concilior(२) कद्रु का पुत्र, एक सर्प विशेष। ___um, Ram.-ले० पीपल, अश्वत्थ 1 (Ficus (३) मेघ । बादल । religiosa.) फा०ई०३ भा० । (४)दो मास को गर्भ । अर्बोर टॉक्सिकेरिया फेमिना urbor toxica(१)एक रोग जिसमें शरीरमें एकप्रकारकी गाठ : ria femina & Mas-ले० सापसुण्डी -मह। फा. ई०३ भा० । कभीकभी यह पक भी जाती है । इसके कई भेद है ' अोर वाइटी arbor vitixn-० ( Thuya. जिनमें से मुख्य रक्तात्रु'द और मांसावुद हैं। ___occidentalis )-ले० सन्द्रच । बतौरी । रसौली । ( Tumour )अटीन abutin-ई. रीछदाख सत्य, भवक सु०नि०१.०मा०नि० दे० प्रवुद। दादासार । (६) नेत्र वर्म गत रोग विशेष । यह मांस । __ मात्रा-५ से ३० ग्रेन | देखो-भल्लूक के पिंड के समान एक गाँउदार सूजन है जो वर्म (छ) द्राक्षा( Arctostaphylos uvaके भीतर होती है। यह रज तथा वातादि नीनों ursi) पी०वी० एम०। For Private and Personal Use Only Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रों व ग्लेण्ट प्रमालक अर्षी अवाग्लेण्ट arbre aveuglant-फ्रां० अर्म aurm-० मत्स्य भेद । ( A kind of गेरिश्रा, गङ्गवा, अगुरु-बं० | Blinding fish.) tree, Tiger's milk tree (Exc. अमज anlman.-१० हरी काई जो जल के ऊपर æcaria agallocha, Linn. ) 10 warat ( Green inoss. )l(a) इं.३ भा०। हब्बुल गार । (३) जंगली बेर । (४) छोटे अर्की श्र-सोई arbre a soie-फ्रां. प्राक, पीलू का वृक्ष ।। मदार । Gigantic swallow wort ! श्रमज़ान aarnazana-अ० (१) हिन्दक़्की । ( Calotropis gigantea, P. Br.) (२) बख़ रुल अकाद । फा० इं० २ मा० । अर्मणः armanah-सं० पु. द्रोणपरिमाण अर्षी वची arbre vache-फ्रां तगर । Cey. (३२ सेर)। प० प्र० १ ख०। च० द. lon jasinine ( Tabernie mont. ! . सा. चि० कुट जाब नेह । ana coronarian Br. ) फा० इं० २ अर्मद armada-अ० रम्द अर्थात भाँख दुखने भा० का रोगी, वह व्यक्रि जिसके नेत्र दुखते हों अमोस डो' एन्सेन्स ur bres ' encense (आँख आई हो)। अभिष्यंदी। ऑफ्थैल्मिएक -फ्रां० लुबान, कुन्दर । Frankincense Ophthalniac.)-इं०। ___tree ( 13os weilia.) फा. इं० १ भा० । अमंनी aamani-हिं० संज्ञा पु. दं०अर्भः,-कः ar bhah,-kah-सं० पु. । अरमनी। अर्भ,- arbha,-ka-हिं० संज्ञा पुं० अर्मनीन Armaninu-यु. एक बूटी है जो (१) बालक, शिशु, पुत्र । ( A child, प्रतिवर्ष उगती और बागी व वन्य दो प्रकार की a pupil ) रा०नि० व०१८ । (२) कुश होती है। इसमें बागी के पत्र माऊ पत्र सदृश ( Pou cynosuroides.) मे० कनिक । होते हैं तथा जंगली अप्रयुज्य है। (३) पक्षजात शिशु, १५ दिवस का पैदा हुआ | अर्मल turmal-० वे सोशा, कुँवारा पुरुष । बचा। स०नि०व०१८ (Bachelor'.) हिं०वि० (१) मलिन । धुंधली । (२) शिशिर | अर्मा aarma-रक श्याम सर्प । (A red ऋतु । (३) साग पात। ___black serpent.) अर्भ: arbhah-सं० पु. बाल सर्प । सार का अर्माक armaka-कह की खेल का नाम अथवा बच्चा। अथव० । सू० २६ । ३ । का०७।। केवड़ा वृत की छाल । अर्भकम् arbhakam-सं० क्ली० छोटा । ( इ ) ज़ि ia-ai-rmāza-. काई। विषैला काटा या विष । अथव! सू० ५६ । (Moss. ) ६ । का०७। अमान armāta-यु. केवडा या गुले केवडा । अर्भा arbhā-सं० वी० गुग्गल । ( Burser-ौनियाँ armāniyan-यू. बाजवाई | SeeFacee ) "अर्भाचूर्ण सहयुतम् । "प्रयोगा० ____Lajavard. भग्नचि०। अर्मानूस amānāsa सिरि० अजवाइन, खुरा. अर्म arama - हिं० संज्ञा पु० [सं०] थाँख का alati ( Hyocyamus.) एक रोग । टेंटर । देंढर । धर्माल armala ...ना अमह aarmab-अ० जंगली चूहा । (A wild | अर्मालक armālaka ) एक वृक्ष की छ। कर rat.) ____जो तज के समान तथा सुगन्धित होता है। For Private and Personal Use Only Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पोळे मीना १५ अर्वाद अद अर्माना amina-अ., य. नौशादर। SI- हरीतको फल (Terminalia cheb ammoniac (Ammoniae hydro- ul:, Retz.) o Tiro Foi chloras.) स. फा. ई०। । अल. riu-पं० क चैटा, किंगली, श्रग वागल ! अर्मीनाकन rnminaqan-य० जर्दालू, एक (Mimosa rubicaulis, Len. ) फल है जो पीतवर्ण का और गोल मेमो०। फा०६.० ३भा०। (२) अरलू । युक्र होता है । न वानी इसका एक भेद है । यह अर्व aarti-० कम्पन लगकर घर चढ़ना, शीत प्रदेशो में अधिक होता है। जाड़े से ज्वर प्राना, शीत पूर्व ज्वर, जूड़ी अनिया armuiya-यू० प्रकाक्रिया | SeeAkákia. अवंती arvati-सं० स्त्री० अज्ञात औषधि अम्मन् arman-सं० को नेत्र रोग विशेष। अथव। मू०४।२१ । का०१०। यह पांच प्रकार का होता है | अन् Vill1-सं० पु गतिशील, चलनेवाला (१) प्रस्तार्यम, (२) शुक्राम्म. (३) अथव । रक्राम, (४) मांसार्म और (५) स्नास्वर्म ।। श्रकuvika- अ इनके लक्षण यथा स्थान देखो इधर । अर्यमाityyama-सं० ५०, हिं. संज्ञा पु० अर्वाक स्रोता arvāka-srota-हिं० संशा ए. . [सं०] (1) अर्क वृक्ष, पाक (Calotropisi जिसके बीर्यपान हुअा हो। ऊ रेता का उलटा । gigantea.)। रा०नि० व. १. १ (२) सूर्य | She Sum)। श्रर्वाह arvah-(२०व०), रूह (ए० व०) अर्र aari-अ० (3) कण्डु, खज, खुजली । अ० ये तीन हैं--(1) रूह है वानी ( प्राणी शक्रि) जो हृदय में उनत होती है और धम(The-jtch), (२) जड़ से बाल नियों के द्वारा सम्पूर्ण अवयवों में विभाजित उखाड़ना। होकर उनको प्राण शनि प्रदान करती है, (२) अरंक arang-अ० रनोकतर अर्थात् बहुत पतली रूह नक्सानी ( मानसिक शशि) ओ मस्तिष्क चीज़। में संजनित होती है और बोध तुन्तुओं (नादियों) अर्ग arra-हिं. संज्ञा पु० [] एक जंगली द्वारा शरीर में फैलकर उनको वोध व गति पेड़ जो अजुन वृक्ष से मिलता जुलता होता प्रदान करती है, (३) रूह तब् ई (प्राकृतिक है। इसकी लकड़ी बहुत मजबूत होती है शक्रि ) जो यकृत में पैदा होती है और शिराधों छत पादने श्रादि के काम में प्राती है। द्वारा अवयवों में वितरित होकर उनको पाचन (२) अरहर । आढकी। शनि एवं पोषण प्रदान करती है । रूह मरज aruzan -अ० तण्डुल, चावल | Rice के लक्षण एवम् वास्तविक के लिए तेखोउर्ज uaza (Oryza sativa, Lin.) स. फ़ा fenfita Sqirits, TEA Souls, न्यूमाज़ Pneumas | ये मुख्य पारिभाषिक पर हीमाल arrhenal-६० प्रासिनिल Ars. शब्द है जो अाह के उपयुक्त पर्याय है। ynil (Disodium methyl arse. अर्वाह कुञ्जद arvāhkun jada-मज्ञात । nate.) यह काकोडाइल का एक नवीन प्रवण: arrvanah) यौकिक है । देखो-संखिया। अर्चा, arvin सं० पु० अश्व घोड़ा। म(र)ल (ra)li-सिं० पीनी हक, हरी, (A horse.) भा०पू०। For Private and Personal Use Only Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अम्खुदा बर्वती अन्य ती xvvati-सं० स्त्री० वड़वा । कुम्भ ! दासी । मे० तत्रिका अर्धा,-न् alra,-1-सं० पु० अश्व (A hori ____rse.)। भा० पू०। अखुदः artvutah -सं० ए० की ! प्रवुद: arbudah । (१) पुरुष । (२) दशकोटि परिमारण ! मे० दत्रिकं । (३)। मांसकोलकाकार रोग विशेष । देखा-अर्बुद ।। रसौली, बतौरी (डी), अबु (बु ! द-हिं। व्य मर ('I'lumour.)-इं० । जदरह. , सलअह् । वर्म-अ० । प्रान्-ब । आयुर्वेद के मत से प्रबुद एक प्रकार की . मांस की गाँड़ है जो वातादि दोषों के पित, होकर मांस और रक को दूपित करने से शरीर : के किसी भाग में हो जाया करता है। यह गोल स्थिर, मंद, पीडायुक, अति स्थूल ( यह ग्रंथि से बड़ी होती है), विस्तृत मून्त युत, बहुन काल में पढ़ने वाली और नहीं पकने वाली होती है। वातज, पित्तज, कफज, रज, मांसज और मेदज भेद्र से ये छः प्रकार के होते हैं। इनके लक्षण : सदा ग्रंथि के समान होते हैं। (किसी किसी ने । द्विरयु'द और अध्यक्षुद इन दोनों को सम्मिलित कर इसके प्राउ भेद माने हैं)। . गात्र प्रदेशे क्वचिदेव दोषाः संमूञ्छिता मांस मभि प्रदृष्य । वृत्तं स्थिरं मन्दरुज महान्त मनल्पमलं चिरवृद्धयपाकम् ॥ कुर्वति मांसाच्छ, यमत्य गाध तबुदं शास्त्रविदो वदन्ति । वातेन मित्तेन कफेन चापि रक्तेन मांसेन च मेदसा च ॥ तज्जायते तस्य च लक्षणानि ग्रंथेः समानानि सदाभवन्ति । मा० नि । सु०नि० ११ १०। भक्षुद के उपयुक भेदों में से रखावुद और मांसावुद मुख्य हैं। इनमसे प्रत्येकका यहाँ पृथक् । पृथक् वर्णन किया जाता है। रक्ताद दोषः प्रदुष्टो रुधिरं शिरास्तु संपीड्य संकोच्य गतस्तु पाकम् । सानावमुन्नत मांसपिण्डं मांसाङ्करैराचिनमाशु वृद्धिम् ॥ स्रवत्य जन विरं प्रदुष्ट ममाध्यमे नद्रुधिरामकं स्यात् । रक्तक्षयोपय पीडितत्वात् ___ पाण्डुभवेदधुंद पोडितस्तु ।। मा०नि० । सु०नि०११ प्रक। अर्थ-दृषित हा दप रुधिर की शिराओं को संकुचित कर उनको इकटा कर मांस के गोला को प्रकट कर देता है। वह कुछ पकनवाला तथा कुछ बहने वाले मांग के अंकरों से व्याप्त एवं शीघ्र बढ़ने वाला होता है। उसमें से सदा रुधिर बहा करता है यह बाद असाध्य है। यह रावुद रोगी राय के उपद्रवी से पीड़ित होने के कारण पीला हो जाता है। ये रकावुद के लक्षण हैं। मांसावुद (Cancer) मुष्टि प्रहारादिभितेऽङ्ग मांसं प्रदुष्टं प्रकराति शाफम् । अवेदनं स्निग्बममन्यवर्ण मपाकमश्मापममप्रचाल्यम् ॥ प्रदुष्ट मांसस्य नरस्यबाद मेतद्भवेन्मांस परायणस्य । मांसाचुदं त्वेतदसाध्यमुक्तं साध्येचपीमानि तु वर्जये। मा०नि० । सु०नि०.११०। अर्थ - मुक्का वा धूसा प्रादि के लगने से शरीर में जो पीड़ा होती है उस पीड़ा से मांस दूषित होकर सूजन को उत्पन्न करता है। यह सूजन पीड़ा रहित, चिकनी देह के रंग के समान होतो है, इसका पाक नहीं होता और यह पत्थर के समान स्थिर होती है। जिस मनुष्य कर सोस For Private and Personal Use Only Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्शः दषित हो जाता है अथवा जो सदैव मांस खाते द हरो रसः Arrruda-haro-rasah हैं उनको ग्रह अर्बुद रोग उत्पन्न होता है। यह -सं० पु. पारा ( रस सिंदूर ) को चौलाई, मांसावुद असाध्य है। साध्य अवु'दों में भी विषखपरा, पान, घोकुपार,खिरेटी और गोमूत्र की निम्नलिखित प्रवुद स्याज्य हैं। यथा भावना देकर पान में लपेट कर उसके ऊपर संत्रतं मम्मरिण यच्च जातं मिट्टी का २ अंगुल मोटा लेप करके सुखाकर स्रोतः सुवायश्च भवेदचान्यम् ।। एक साघु पुट दें। इसके सेवन से अत्रु नष्ट यज्जायतेऽन्यत् खलु पूर्व जाते। होता है । र० र० स० २४ अ०। ज्ञेयं तदध्यव दमदः ॥ अचुदाकार: arudalkarah-सं० ० यद् द्वन्द्व जात युगपत् क्रमाद्वा बहवार वृत, लमोरा । चालिता गाछ-ब.1 द्विरदं तच्च भवेदलाध्यम्। ( Cordia imysa. or C. Latifolia.) मा० नि० । मु०नि० ११ १० वै० निघ० । अर्थ-साधयुक्र, मर्मस्थान नथा नासिका प्रादि छिद्रों में उत्पन्न होने वाले एवं अचल अम्वु दादिजः ॥ latirijah-सं० . मेष,गो,मेदासिंगी । मेढाशिङ्गी- प्रवुद असाध्य होते हैं (प्रथन जिस स्थान में । मुरदार शिंग-मह० । (Aselepins goininata) अर्बुद उत्पन्न हुअा हो उसी के ऊपर जो एक निघ०1 दुसरा प्रवुद उत्पन्न हो जाता है उसको अध्यबुद करते हैं। एक साथ दो अर्बुद अथवा जो अव्वु दान्तरिक रेखा Vedantarikक्रमशः एक के पश्चात् दूसरा अर्बुद उत्पन्न हो rekhá-lo al. (Intertubercular जाता है उसको द्विरवुद कहते हैं, यह असाध्य plase.) वह पड़ी रेखा जो नितंबास्थियों के ऊपर के किनारों (जवन चूड़ा) के उभारों में अर्बुदों के न पकने के कारण से गुजरती हैं। न पाकमायान्ति कफाधिकत्वान्मेदोऽधि- श्रदान्तरिका रेखा alvrudantarikaकत्याच विशेषतस्तु । Tekhá-a to (Intertubercular दोष स्थिरत्वाद् प्रथनाशतेषां सर्वा! i plane. ) वरम् ॥rvvāram-सं० क्ली. श्राहुल्य नामक दान्येव निसर्गतस्तु ॥ तुप । तड़बड़-काश० | तड़बड़-मह । वै० मा०नि० । सु० नि० ११ अ० निघ०२ भा० संग्रहणी चि० तालीशादिचूर्ण। अर्थ-कफ की अधिकता से वा विशेषकर : भेद की अधिकता से पूर्व दोपो की स्थिरता से अर्शः ( स् ) ashah,-s--सं० क्ली०। । अथवा दोषों के ग्रंथि रूप होने से सर प्रकार: अश alsha-ह. संज्ञा प० अद स्वभाव से से ही नहीं पकने । स्वनामाख्यात गुदरोग विशेष, एक रोग जिसमें नोट-यूनानी वैद्यक के मतानुसार अर्बुद के बातादि दोषी के दूषित होने के कारण गुदा में अनेक प्रकार के मांस के अंकुर उग आते हैं लक्षण आदि विषयक पूर्ण विवेचन के लिए अरबी शब्द सलह संज्ञाके अन्तर्गत देखें । मेदोर्बुदको ! जिनको अर्श अथवा प्रवासीर कहते हैं । ये नाक अंगरेज़ी में फैटी टयुमर (Fatty tumour): एवं नेत्रादि में भी उत्पन्न होते हैं। श्रायुर्वेद के और अरबी में सलह, दुनिस्वह, वा शहः। - अनुसार इनके निम्न भेद हैंमिय्या कहते हैं। (१) वातज, (२) पिसज, (३) कफज, आयुर्वेदीय चिकित्सा के लिए इनके अपन (५) सानिपातिक, (५) राज और (६) अपने भेदों के अन्तर्गत अवलोकन करें। सहज । विस्तार के लिए देखिए-मासी। For Private and Personal Use Only Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रर्थ www.kobatirth.org tex पर्याय-मकं ( ), दुर्नाम, गुदकील, गुत्राङ्कुरः (रा), अनामकं ( शब्द र० ), गुदकीलकः, गुदामयः, दुर्गामम्, दुर्नामा, दुर्नाम्नी सं० । पायह, प्रवासीर ( मक़सद ) उ० । हिमोरी. तूस, अमरूदिस, एमोरीदूस-यू० | बवासीर ( ० ० ), बासूर ( ० च० ), श्रमोरीतूस - अ० । पाइल ( Pile ) ( ए० ० ), पाइलज़ ( Piles ) ( ब० व० ); हीमोराइड (Hemorrhoid ) ( ए० ० ), होमोरॉइडस् (Hemorrhoids ) ( ब० व० )इ० । हीमोराइडीज (Hemorrhoides ) -फ्रां०। हीमोरॉइडेन ( Hemorrhoiden) | - जर० । अर्श āarsh - अ० ललाट, छत, तख़्त, पैलेटबोअ ( Palate bones. ) - इं० । हिं० संज्ञा पु ं० (१) प्रकाश ( २ ) स्वर्ग | अकर्म arsha-karm-सं० क्लो० भिलावां । ( Semicarpus Onacardium. ) श्र कुठारः arsha-kucharah - सं० पु० वरनाग अर्थात् ६४ पुटित सीसा भस्म, अभ्रक सत्र, ताम्र और लोह भस्म प्रत्येक समान माग लेकर थोड़ी थोड़ी हरताल को चिटकी दे देकर लोह की कढ़ाई में पिघलाएँ और लोहको कड़छी से चलाते रहें । जव हरताल की हुगनी भूकी रूप जाए तब सब अलग निकाल कर पारा मिला पिष्टी बनाएँ और उस पिठी को भिलावें के वृक्ष की जड़ के पास १ महीने तक गाढ़ रक्खें। फिर निकाल कर गाय के दूध में डालें और इसमें पातालयंत्र से निकाला हुआ भिलावे का तैल एक चिकनी कड़ाही में डालकर उसमें पिछी डाल कर एक सेर तेल नारित करें। फिर भिलावे के तेल मैं गन्धक को भावित करके उस गन्धक की पुर देकर उपरोक्त पिष्टी के बराबर पारा लेकर कट सरैया के रस में कई भावना देकर धूप में रख भस्म कर डालें। फिर उस भस्म को उपरोक first भस्म में मिलाएँ। फिर क्रम से बन सूरन, निर्गुडी, मुरेठी, गोखुरू, हर जोर, सिधारी और अपातनम्. चित्रक इनके काथ से भावना में फिर भांगरे के रस की भावना दे सुखाकर रखलें । मात्रा - ३ रत्ती | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुण--- अर्श, मुख आँख के मस्से, प्लीहा, संग्रहणी, गुल्म, यकृत, मन्दाग्नि और कुष्ट को नष्ट करता है । अर्शकुठार रसः arsha-kuthár-rasah - सं० पु० शुद्ध पारद ४ तो० गन्धक = पल, ताम्र भस्म, लोह भस्म, प्रत्येक १२ तो० त्रिकुटा, कलिहारी, दन्ती, पीलू, चित्रक प्रत्येक तो०, जवाखार, भुना सुहोगा प्रत्येक १-५ पल, सेंधानमक ५ पल, गोमूत्र ३२ पल, थूहर का दूध ३२ पन्त, सत्र एकत्र कर पात्र में रख मन्दाग्नि से पचाएँ । जब गाढ़ा हो जाए तो २ माशे की गोलियां बनाएँ । गुए- एक गोली नित्य सेवन करने से यह अर्शकुठार रस बवासीर को दूर करदेता है । वृ० रसरा०सु० अ० वि० । अर्शद arshad-० सोनामक्खी, तारामक्खी । Iron pyrites ( Ferri Sulphuretum. ) श्रर्शन कर्म arshan-karmm सं० क्ली०, व्रणों के खुरचने की विधि | अर्श नाशक योग arsha nashakayoga -सं० क० पु० जवासा, बेल की छाल, अजवाइन और सॉ इनमें से एक एक के साथ भी पाडे के काथ का पान करने से अर्श की पीडा नष्ट होती है । ० सं० श्र० चि० १४ । प्रर्शपातनम् aishapatanam सं० की० कंटकरञ्च, हड़, नागरमोथा, चिरायता, काला कुड़ा की छाल, सूरन, चित्रक, सेंधानमक, देवदाली ( चन्दाल ) तुल्य भाग ले चूर्ण प्रस्तुत करें । मात्रा - १० मा० 1 अनुपान तक गुरु- इसको एक मास पर्यन्त भक्षण करने से बवासीर के मस्से गिर पड़ते हैं। वंगसे० सं० अर्श चि० । For Private and Personal Use Only Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir म तक प्रयोग माशे में तक प्रयोग arsha-men-takra-pra- (१) शूरण, सूरन, मोजा,जमीकन्द । (A mg yoga-सं० पु. चोते की जड़ की छाल को, rphophallus Campanulatus, Bluपीसकर घरे में खेप करके उसमें दही जमा दें, me.) रा०नि०प०७। (२) भनातक, उस दही को या उससे प्रस्तुत तक को पीने से भिलावाँ (Senicarpus anacardium.)। भाशं का नाश होता है। च० सं० चि० अ० (३) सर्जिधार, स्वर्जिकाचार । (५) ते नवल (Zanthoxylum alatum.)। (५) मर्शम् arsham-सं.की. अर्श रोग, बासीर ।। श्वेत सर्वप ( Brassica juncea.) (६) (The piles or hoemorrhoids.) कटु यूरण । बै० निघ०। (.) भर्श नाशक द्रग्य मात्र । २० १०॥ अर्थोन महाकषाय: arshoghna-mahakaमर्थ वम arsha-var ima-हिं० संज्ञा प shayah-सं० पु. कहे की छाल, देखा, चि[सं०] एक प्रकार की बवासीर जिसमें गुदा के प्रक, सोंठ, प्रतीस, हर, धमासा, दादी , किनारे ककड़ी के बीज के समान चिकिनी और चव्य, वच, इनका कषाय बनाकर पीने से प्रर्श किंचित् पीडायुक फुन्सियाँ होती है। दूर होता है । च० सं० । मर्श सूदनः arsha-sidanah-सं० प | मझेन घटकः arshoghna vatakah-सं. शूरण,सूरन । तुल-बं० । (Amorphopha-| पु. पीपल, पीपलामूल, जमीकंद, मिर्च, चित्रक, llus Campanulatus, Blume.) कटेली, गुडल के फूल प्रत्येक १-१ पल, इनके प्रशंसः arshasan-सं० त्रि० प्रर्शयुक्र, अर्श- करक को हाथी और बकरी के मूत्र में मिट्टी के रोगी । बर्तन में पकाएँ । जब मूत्र जल जाए, तब इसका मशहर arsha hara-हिं० संज्ञा पु [सं०] चूर्ण करके इसमें सैंधव, सोंचर, सांभर नमक (Amorphophallus Campa.nulu- १-१ पल मिजाकर १-१ कर्ष प्रमाण के वटक tus, Blume.) सूरन । भोल | जमीकंद ।। बनाएँ। पथ्य-ता व घृत का भोजन करें। देखो-शूरण। मास के प्रयोग से अर्श नष्ट हो जाता है। पर्श Arshi-अ० देखो-रशा । अर्थोघ्न धर्ग: ashoghna. vargah-सं. मी arshi-सं० त्रि० प्रर्शयुक्र, अर्शरोगी । श० | पु. कुटज, विल्व, चित्रक, नागर, अतिविषा, २०। अभया, दुरालभा, दारुहरिद्रा, वच और चय्य अर्थोऽरि रस: arshorirasah-सं० ए० पारा ये दस वस्तु प्रशॉग्न प्रभाव युक्र है। च० १ भाग, अभ्रक भस्म २ भाग, ताम्रभस्म ३ भाग, | सू०४ । विशेष देखो--बवासीर । सोमम भा. और गन्धक ५ भाग चमार अर्थोन वल्कला arshoghna-valkali दूधी (धवल कुसुम घल्ली) के रस में लोह की | -सं० स्त्री० तेजवल ! ( Zanthoxylurn कड़ाही में , दिन पकाएँ। दी होने पर alatum.) वै० निघ। ' पहर बच्छनाग के स्वरस अथवा काथसे भावना अर्थोघ्नो arshoghni-सं० स्त्री० (1) ताल. दें। फिर सफेद पुनर्नवा, पुनर्नवा, त्रिकुटा, नि मूली, काली मूषत्ती ( Curculigo orelhiफला इनके रस अथवा काथ से भावना दें। des.)। रत्ना० । मे० नत्रिक । (२) भलामात्रा-३ रसी । इसके सेवन से बवासीर के तक, भिलाव ( Semicarpus anaca. समी उपद्रव नष्ट होते है । रस. यो० सा०।। rdium.)। 2. निघः। प्रोन arshoghna-हि• संज्ञा पु० | मझेज: arshojah-सं० प. भगन्दर रोग । मर्शम: arshoghnah-सं० पु. (See-Bhagandara) For Private and Personal Use Only Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रयोदावानलोरसः पर्वती प्रों दावानलो रस: arshodavanalo. | अशोवत्मन् arsho-vartman-सं० क्लीन rasah-सं० पु. मगर को तेज़ अग्नि में नेत्रवर्मगत रोग विशेष । सपा तपा कर त्रिफला के हाथ में कई बार बुझाएँ । लक्षण-ककड़ी खीरा के बीजों के समान फिर घीकुमार के रस में भावना देते हुए २१ | मन्द पीड़ा यानी चिकनी और कठोर फुन्सी जो पुट हैं। फिर गन्धक और पारे की कजली और } नेम्रधर्म (नेत्र के पलक) में उत्पन्न हो उसे उतनी ही सोहभस्म, त्रिकुटा, त्रिफला, भांगरा, "अशोवर्म" कहते हैं । यह ससिपातज होती है चीसा और मोचरस मिलाकर गित्लोय के काथ मा०नि०। .. . की भावना देतो यह सिद्ध होता है। इसे चार अर्थीहररस: arshohar-rasub-सं० पु'. यह मासे जमीकन्द के चूण और हींग के साथ स्वाने रस अर्श के लिए हितकारक है। योग इस प्रकार से अथवा भिलावें के तेल और शहद के साथ है-पारद, वैक्रान्त, शुद्ध अभ्रक भस्म, कान्तलौह साने से हर प्रकारके यत्रासीर नष्ट होते हैं। रस० भस्म, गंधक शुद, सबके तुल्य भाग को ले अनार यो. सा.. स्वरस से मली प्रकार मर्दित कर रख छोड़े। मोयन्त्रम् arshoyantram-सं० ली। मात्रा व गुण-इसमें से १ मासा खाने से प्रोंयन्त्र (बवासीर का यन्त्र) गौ के स्तनों के | अर्श नष्ट होता है । बस० र०। . . . . साश चार अंगुल लम्बा और पाँच अंगुल गोलाई भर्शहर रसः arshohara-rasah-सं० पु. में होता है। स्त्रियों के लिए इसी यन्त्र की गोलाई गन्धक, चाँदी, और ताम्बा एक एक भाग लेकर कः अंगुल की होती है क्योंकि उनकी गुदा बारीक पीस ले। फिर तीनों के बराबर अभ्रक स्वाभाविक ही बड़ी होती है। व्याधि के देखने के भस्म और गन्धक से , भाग लोहभस्म और है लिए दोनों ओर दो छिद्र वाला यंत्र होता है तथा शस्त्र और चारादि प्रयोग के निमिन एक बिन्द्र भाग बच्छनाग और गन्धक से द्विगुण पारद । सबको मिला जम्भीर के रस में घोटकर मिट्टी के वाला यंत्र होता है । इस यन्त्रके वीचका भाग तीन अंगुल का और परिधि अंगूठे के समान होती है । बर्तन में रखकर त्रिफला के क्वाथ की भावना दे। इस यन्त्र के ऊपर श्राध श्राध अंगुल ऊँची एक फिर क्रम से दशमूल और शतावरी के क्वाथ में कणिका होती है जिससे यन्त्र बहत गहराई में नही पकाएँ। जा सकता है। अशे के पीड़न के निमित्त एक और मात्रा-३ रत्ती गोली रूप में | प्रकारका यन्त्र होता है । रसे शमी कहते हैं । यह गुण--यह प्रशं, गुदा रोग और शूल को नष्ट भी ऐसा ही होता है। किंतु छिद्र रहित होता है । करता है । रस० यां० सा०। . वा० सू० २५ अ० । अत्रि० जयद० ५३ | अशहरलेप arsthoharalep-सं० क्ला. हाथी 401 की लीद, घी, राल, पारा, हल्दी इन्हें थूहर के प्रशारिमण्डरम् arshorimandiraunt दूध में पीस कर लेप करने से अर्श नष्ट होता है। च० सं०। पु. पुराने मण्डूर को लेकर गोमूत्र में पकाएँ जिससे वह चूर्ण सा होजाए । फिर इसमें निकुटा अर्थोहितः arshoriitah-सं. प. महातक त्रिफला और माधी मिश्री मिलाकर ३ दिन तक वृक्ष, भिलावा । ( Semicarpus anaca. धरा रहने दें, पश्चात् रोगी को दें तो गुदा द्वारा rdium.) त्रिका माने वाला रुधिर बन्द होता है। अषणी arshani संलो. (१) गति शीव कीट विशेष । अथर्व । का०६ । १३ । १२ । (२) पथ्य-दूध, चावल, मसूर एवं स्त्री प्रसंग तीन पीदाजनक रोग । अथव' । सू० ८ । मिषिद्ध है। वृ.नि. र. चि०। १३ । का । For Private and Personal Use Only Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सह अलह, aarsah-ऋ० सहन,मैदान, दूरी, अन्तर। अहम् arham-सं० लो० सुवर्ण, सोना | Gold अति, अरास (ब. ३०)। | (Aurum.) वै निघः।। अर्स aars-अ० ( A bandicote rat. ) / अाँ arha-सं० स्त्री० ग्रायमाणलता । (Delphiय (स)। ___nium zalil, Mitch.) बै० निघः । अर्सफ ३arsafa-कमातीतूस, कुकरौंधा । (Blu- अहो arhāa-१० ( ब०व०), रहा (ए. . mea densiflora, 1). C. ) व०) चक्की, तिबकी परिभाषा में साढ़े क्योंकि अर्सम् arsam-सं० सी० निर्बल । अथर्व ।। पाहार चर्बण में यह चको का काम देता है। सू०५६ | ३ । का०७। मोलज (Molars.)-इ०। डियोल arhool--ई० देखो - सैराटेलोल असंह arsah-उ० (Solanum pubesce. (Santalol. ). _ns.) Night shadedowny.-९०।। ई० हैं। गा०। अलम् (कम् ) alam,kam-सं० को। अल ala--हिं० संज्ञा पु. अर्सह, aursalh-० नकुल, नेवला ! Mon- (1) हरिताल, हड़ताल। Yellow . . goose ( Vivera mungo.) . orpiment (Arsenicum tersul. अर्सातून arsitina - ० phuretum. ) रा०नि०प०१३ । सि. फरीस्मस farisinusa मैथुनेच्छा यो० कास. चि. मनःशिनादि भूमपानयाद । भाकना aaquni बिना इन्द्री "मनःशिलाले मरिच" इति । (२) वृश्चिक का सदैव प्रहर्षित रहना । एक रोग है जिसमें पुच्छ कण्टक, विद्या का रंक। हे. १०। इन्द्री (शिश्न)हर समय उत्तेजित रहती है, (३) कोल, शीतलचीनी । ( Cubeb.) किन्तु काम या मैथुनेच्छा नहीं होती।. देखो-- वै. निघ.२ भा० वा प्या. प्रत्यंठीला. फरीस्मस. । प्रायापिज़म (Priapism.).० वि०। (४) भगीयुक्त केश । (१) विष । मर्सानीकम arsaniquna-१०, यू० हड़ताल, जहर। . हरिताल | Yellow orpiment (Ars. अल ala-सं०(.)सक्केद महार (Calotroenieum tersulphuretum.)। स० pis gigantea, the white var. फा०ई० । of-)|--मह. (२) मादी, भदरक Zinभसेंनाइट ऑफ कॉपर arsenite of cop. yiber officinalis, Roxb. ( Fre. ___per-t० ताम्र मत् । ( Cuprii arse- sh root of-Green ginger.)। ___nis.) देसो-संखिया --सिं० (३) कम्म् (Tuber.)।-ता. अर्सेनातेगा arsena-toga-मयस्० कवन । । (५) बट, बरगद 1 ( Ficus Bengalen. (Nauclea kadamba.) sis.) भर्सेनिभाई आयोडाइल्म Riseni indidinmमलक: alakah--स.पु.(.) रि , -ले. मननैलिद । (Arsenious lodi पागल कुत्ता,-हिं । पागल कुकुर-40। मैड de.) देखो-संखिया। डाग ( Mad dog)-ई० । (२) भई arha-हिं० [सं०] (1) पूज्य । (२) कुन्तल । - 'अल alaqah-० (.) तरसीवन वा . योग्य । उपयुक्त । . . सिका (२) नुम के बाद की अवस्था, बलबी नोट--इस शम्न का प्रयोग अधिकतर यौगिक | फटकी, जमा हुनर शोषित । (Clotted शब्द बनाने में होता है। जैसे पूजाई। . blood ). For Private and Personal Use Only Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मुलक aalak--अ० ( प. य. ) उलूक लकम aalaqama-० (1) का पौदा (२०व०), गोंद, निर्यास ! (Gum or (A bitter plant.)। (२) इन्द्राresin.) यन (Citrullus colocynthes, Schअलक salaq-१० (१) जलायुका, जलौका, जोंक । rad.)। (३) साउल हुम्मार, विम्यान । (Ecbelliuni elatarium.) . Leech ( IIirndo.) स० फा. इं० ।। म० ज०। (२) जमा हुआ, बँधा हुआ था | अलकम aalagamah-१० फरासियून । ' गादा रक। See-Farásiyúna. अलक alaka--हिं० संज्ञा पु० [सं०1 अलका altka-सं० स्त्री०, हिं. संशा श्री. मस्तक के इधर उधर लटकते हुए मरोबदार | (1) बसा, चर्बी । ( Fat.) व निघः। बाल । याल । केश । लटा । छल्लेदार बाल ! (२) माठ और दस वर्ष के बीच की लड़की । धू घरे वाले याल । यौ. अलकाचलि । अलकावलि alakavali-हिं० संज्ञा स्त्री० [सं.] अलकतरा alakatala-हिं. केशों का समूह, बान्तों की नटें। संज्ञा पु. | प्रसारयः alakahvayah-सं०३० कटु, [अ० ] पत्थर के कोयले को श्राग पर गलाकर | निम्ब। (The bitter nimb tree.) निकाला हुआ एक गादा पदार्थ । कोयले को बनिघ। मिना पानी दिए भभके पर चढ़ाकर जब गैस | पालकिय्यह, aalakiyyah - १० वह वस्तु निकाल लेते हैं, तब उसमें दो प्रकार के पदार्थ जिसमें चिपचिपापन के साथ किसी भांति रह जाते हैं कठोरता भी हो। एक पानी की सरह पतला, दूसरा गाढ़ा ।। अलको ialaqi-एक प्रसिर पौधा है। (An un. वही गाढा काला पदार्थ खतरा है जो रंगने के known plant. ) : काम में भाता है। यह कृमिनाशक है। अतः इससे रंगी हुई लकड़ी घन और दीमक से बहुत | मामकुरु मी ialakurrāmi-. मस्तगी । दिनों तक बची रहती है। इससे कृमिनाशक (Mastiche.) भौषधियाँ जैसे–नेपथलीन, कारबोलिक, शलकुल भम्बात ali kul-ambata-. एसिड, फिनाइल प्रादि . तैय्यार होती बत्तम प्रथया उसके समान एक परका गौद । .. हैं। इससे कई प्रकार के रंग भी बनते हैं। शलकुल जाफ़ aalakul-jafa-10 रासीमज अलकप्रियः alaka-priyah-सं० पु० (१) जाफ। कृप्यामनातक, काला भिलावों-हिं० । कालभेला अलकुल्ब (बु)सम aalakul-butam-म०पतम -40 | विला जटा-मह। (Semeca. का गोंद। rpus anacardium.)। (२) घोजक अलकुल याबिस inlakul-yabis-म. राती. • वृष, विजयसार । (Pterocarpus mars. नज भेद । (A sort of resin.) ___upium.) मद० २०५१ अलकुशी,-सी alakushi,-si-40 केवॉच,पारमअलक बगदादी aala ka baghdadi-फा० गुप्ता । (Mucuna pruriens, D.C.) मस्तगी वृक्ष ( Mastich tree.)। ई० | फा० ई०१ भा०। .. .गा।. . अलकुस्सभोवर aalakussanobar-० लकम ataqama-20 इन्द्रायम का फल । | चीर की गोंद, सरल नियोस, सनोवर की गोंद, (Citrullus colocynthes, fruit गया विरोजा। ( Pinus longifolia, of-) resin of-) स.का.१०॥ For Private and Personal Use Only Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मलकेलीस अलकलास alqulisa- यू०शहद, मधु | Honey | अलगण: alaganab-स. प. नेत्र रोग विशेष ! (Mel.) (An eye disease.) बै० निघ० । अलकत्रा टिकटोरिया alkanna tinctoria, अल गर्द: alagurdah-सं० पु. सई शेष, Tusch.) ले. रतनजोत-हिं०। अलखना डेडहा | जल टॉडा, जल बोदा । ( A ser. -०। ( Alkanet. ) फा० इं० २ . . pent.) भा० । अलगर्दा alagardi-सं० स्त्री० सविष जलौका, भालकेयाधिस alake-vabis-अ० रातीनज विषाक्त जोक (A poisonous Leech.)। भेद A kind of resin.) यह महापार्श्व, रोमयुक्र और कृष्णमुखी होती है। अलकेसमी aalake-rāmi-०, रूमी मस्तगी, सुसू० १३ अ०। देखो-अलायुका । मस्तिकी-अ०, फा० । धूनराज, गन्धिनी-सं० । अलगर्धः alagardhah-सं० १० अलगई। (Mastiche.)। __ जल का साप । (A serpent.) अमः । भलकाहॉल (Alcohol)-ई. मयसार । अलगी alge-ई. चीमी घास, अगर-मगर । देखो-ऐलकोहाल : (Chinigrass. ) मलतः,क: alaktah, kah-सं० पु०, की , अलक्त alaktu.-हिं० संज्ञा पु. लगी alagi-ते. मैदालकड़ी । ( Litsea अलक्तक alak taka-हिं० संज्ञा पु० Sebifera, Pers.) (१) लाक्षा, लाख, लाही जो पेड़ों में लगती है। अलग राय alghurab-फा० अकाशबेल । चपड़ा, पालता,लाहा, जौ, गाला-यं । प्रतिता ! अलगुसी alagusi-बं• अमरवेल, प्रकाशवेल -मह० । अलतगे-कं० । ( Lac, the red | (Cuscuta Reflexa.) animal dye so called.) अलगोल alaghoul-१० खारेशुतुर, खारयुज पर्याय-राखा, याब: दुमालयः, रक्षा, अरका, -फा० । (Alhagi Camelorum, जतुक, यावकः, अमका , राषः (शब्द र०), Tisch.) फा००१ भा०। ....... • पसरला, क्रिमिः, वरवर्तिमी।। प्रकार सुवर्णम् alankar-suvarnam - गुण-तिक, उष्ण, कफ वात रोगनाशक, -सं० जी० भंगीकनक+हारा० । " रुचिकारक और प्रबध्न । रा०नि०प०अलङ्गी alangi-ता० अंकोल ! (Alangium वण्य, हिम, बल्य, स्निग्ध, लघु, कपेक्षा, उष्ण | Decape talum.) . नहीं, कफ, रक, हिका, कास, ज्वरनाशक, प्रण, | मलङ्गीन alanging-नंकोसीन, डेरा सत्व । उपत, विसर्प, कृमि, कुष्ठनाराक । मलक्रक अर्थात् फा . भा० . . . साचा विशेष रूप से म्यान है। भा० पू०१/लज alaja-90 तरुलता, हरकपेक्षा (Ipo भा०। खाही रजोरोधक, रक पिश तथा व्य · भासक है और प्रदर तथा रातिसार को शीघ्र | • mea quamoclit.)| -सं० पसी । (A bird.) लाभ पहुंचाती है। भत्रिः। विस्तार हेतु देखो अलजान aalajava-अ. कमाए । १eo(३) माह का बमा हुभा रंग जिसे मियाँ Qazah. ... पैर में लगाती है । महायर। . .. ... अलजी alaji-सं० श्री. . . (.)(Ca. । . . -हिसंक सी rbuncle> मलखन्ना alkhanna- रतनजोत । (Alka. प्रमेहपिरका रोग । एक प्रकार की बास वा कामी net.):फा० ई.। कुम्सी जो बहुत पीड़ा देती है। ... मलबस alakhs-१० जिसका ऊपरी पक्षक मोटा ... समय-वह पिटिका जी खाल रखेत बारीक | फोड़ों से व्यास एवं भयंकर होती है उसे बिजो' For Private and Personal Use Only Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६४ ': कहते हैं। सु. नि० प्रमेह चि०६अ। मा० | अलना alata -हिं० पु., बं० पालता, : नि। (२) शूक दोष विशेष। लक्षण-जो अलजी पालनाalata S लाख का रंग, महावर । प्रमेह पिड़कानों में वणन हो चुकी है यदि उसके (Cotton strongly in pregnated लक्षणों से युक्र फुन्सी हो तो उसे "अलजी" with the dye of lac ready to जानना चाहिए । सु० नि० शू० दो० चि०१४ . be used for dyeing etc.) म०। (३) नेत्र-संघि रोग विशेष । अलताई का रस alatai-ka-rasa-हिं० । लक्षण-नेत्रों की सफ़ेद और काली संधियों ! अलता का रस alata-ko-rasa-जय. में जो पूर्वोक्र ( प्रमेह पीड़का के ) लक्षणों वाली महावर, अलता का रस। Seer-alata. फुसी उत्पन्न हो जाती है उसे "अलजी कहते हैं। अलतून alatāna-तु० शेर का नाम, सिंह । (A पर्वणी और अजजी में केवल इतना ही भेद है कि | lion. ) पर्वणी छोटी फुसी है और अलजी पड़ी है। मा० अलन्नताalannata हिं० स्रो० नीमच्छद, नि । अथर्व । सू०८ | २० | का० ८। . | अलन्नदाalannadi | इन्द्रवल्ली-सं० । (४) वम के बाहर की ओर कनीनिका में एक वृत्त है जिसकी शाखाओं पर लघु एक कठोर और ऊँची गाँठ होती है। उसका रंग श्यामवर्ण के कण्टक लगे होते हैं । पत्र तांबे के सदृश होता और पंकने पर वह राध एवं ! मोतिया पत्र सदृश किन्तु उनसे लघु तथा मर रुधिर बहाने बाली होती है, उसे "अलजी" | और फल फालसा के बराबर होते हैं। अपक्वा. कहते हैं । यह बारबार फूल जाती है। वा० सं० वस्था में हरितध धौर अम्ल स्वादयुक्त किन्तु .: । (५) कनीन के बीच में वेदना, तोद पकने पर राभायुक्र श्यामवण के और खटमिट्र और दाहयुक्त जो सूजन होती है उसको "अलजी" . हो जाते हैं। इनके भीतर त्रिकायाकार बीज होते कहते हैं । वा० सं० १० १०। हैं। जड़ टेढ़ी होती है।... ... ... . (६) वाग्भट्ट के अनुसार इसके निम्न लक्षण | अलफ़aalaf-अ० अमलान (२०.५०) धारा, है-अलजो नाम की पिटिका उत्पन्न होते समय .. पशुओं का. धारा । ( Fodder). वधामें जलन पैदा करती है। ये अत्यंत कष्ट देतो अलफ़क दाग aalafak-daghu-a, फा० और फैलती हुई स्वजो जाती हैं। इनका वर्ण : जु ह । एक घास है । ( A grass.) हाला वा लाल होता है और इनमें तृषा, स्फोट | लफक हिन्दी aalafak-hindi-१० बास दाह, मोह और ज्वर के उपनाव होते हैं। वा० : (एक सुगन्धित तृण है। इसके सम्बन्ध में और . "नि०.१०. . . . . . . . . बात नहीं मालूम हो सकी)। मलralanja अ०. इसके स्वरूप में मतभेव है। अलफ़ गारखर aalafa.gorkhara-०,फा० अलजारः alan jarab-सं०.पु. बहु जलधर-1 इजनिर । रोहित तृण । ( Andropogon - मृणमय पात्र । जाला बं० । सुराही हिं• । संस्कृत :. : schieranthus.) ... . - पर्याय-अलिअरः, माणिकं । अ० टो० भ०। अलफजन alafajana-हिं० धारो, उस्तो खुड्स अलअरः alanjurah-सं. ५ मिट्टीको सुराही। (Lavendula stoechas.)-मे मे। (Jar:) अलफ मुहलिक āalafa-muhlik-१० कुटकी, मलत alat-अ. काली तुलसी। (. 'Ocimum | कटुको । ( Helleborus.) ....gratissimum..) भलत: alat-अजिसके दाँत कीदो ने खाए हो अलफ़ शोरदार aalaf-shirdar-फा० मे. पर तमूल प्रबशेष रह गए हों।. ... : मेष (A sheep.)'. अलत माकन alat-maqun-यु- मावित्री । अलफ़ हिन्दी aalafa-hindi-य. सकरवियन, Mace Myristica fragrans, | - जंगली बहसन ! (Wild garlic.) Host Flower of-..)... अलफ्फ alaffa-अ. वह जो स्पटमापन करसके। For Private and Personal Use Only Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अलमुलवाद मलव alnb-अ० एक जंगली कण्टकमय वृक्ष है। अलमुल फवाद alamul-fuvad यह विषाक्र होता है। बज्जल फुवाद vajaul-fuvad ) अलबतूत alaba tāta-आवर्तनी, मरोडफली। -प्र०() हल, हवेदना, हृदय की पीड़ा । या मरोड़ सींग। (Helicteres isora.) दर्दे दिल, दिल का दर्द। (२) प्रामाशय द्वार. मलबदा alabada-अण्ड० मेलोशिया वेल्यूटीना । शूल, कौड़ी का दर्द । का िऐरिजया (Cardi. (Melochia velurina, Beddome.) ] . algia)-1.। इसके तन्तु व्यवहार में पाते हैं। मेमो०। नोट-वाद का शाब्दिक अर्थ "हृदय" है। अलबरून al-barina-यु० सुमात्र, प्रसिद्ध है। इस कारण वलवाद का अर्थ बज्डलकत्र (Sumac. ) . या दर्दे दिल अर्थात् हल हुअा। फ्रम मिश्वर अजवाई aabai-य० ख्रिस्मी, प्रसिद्ध है | Seer-| अर्थात् श्रामाशयिक द्वार को भी हृदय के समीप Khitni. होने के कारण अल बाद कहते हैं। अलबानोस alahānisa-यु० चौलाई का साग । वजल काय तथा बल फवाद का (Amaranth.) भेद--वउलकल्ब (हृच्छूल ) में एकाएक हृदय अलबोरस aaborasa-मिश्र कबूतर के घरा में तीव्र वेदना का उदय होता है, जिसकी टीसे बर श्वेत रंगका एक पक्षी है जो मरस्य का आहार वाम वस्ति की ओर जाती हैं। रोगी का रंग फक करता है। हो जाता है। हाथ पाव शीतल होजाते हैं। कभी अलम्नी alabni-यु० (१) नान्खाह, अजवाइन साथ ही वमन भी हो जाता है और रोगी को (Ptychotis a jowan.)1 (२) जङ्गली मत्यु का भय होता है। किसी किसी अर्वाचीन गाजर । (३) एक और बूटी है जो गाजर के मित्रदेशीय वैद्यक ग्रंथो में बल कल्ब को समान होती है। जुबह ह सहिग्रह, तथा किसी किसी में अलम् अलब्यूमेन albumen-ई० अण्डश्वेतक, अण्ड. फुवादी लिखा है। लाल | (The white of anegg. ) आंग्ल भाषा में बाल कल्य को अजाइना अलमक alamak-तु• मजा वा भेजा (मख) पेक्टोरिस (Angina pectoris.) कहते हैं जो अस्थि या शिर में होता है। और जुबहह, सन्द्रिय्यह, इसका ठीक पर्यायवाची अलमर alama]-हिं० संज्ञा पुं॰ [देश॰] शब्द है। एक प्रकार का पौधा। वजउल फयाद (प्रामाशयद्वार-शुल )अलमरम् alamaram-ता०, कना. चट, बर्गद, तिब्बी ग्रंथों यथा---कानून व अक्सीर श्राज़म बड़ । ( Ficus bengalensis)ई. मे० प्रभृति में वउल वाद के सम्बन्ध में लिखा मे । है कि वह एक तीन वेदना है जो प्रामायिकअलमास alanās-हिं० संज्ञा पु० [फा०] द्वार . पर प्रगट होती है। इसमें रोगी को हीरा । ( Diamond.) कछिन अस्थिरता व व्यग्रता होती है । हस्त पाद अलमिराव alamiravo-गोश्रा शीतल हो जाते हैं । चैतन्यता का सर्वथा लोप अलमिरास alamiras " होता है और बहुधा यह शीघ्न मृत्यु उपस्थित पथरी-बम्ब० । ( Launtea Pinnati. कर देती है। यह एक अत्यन्त कठोर व्याधि है। fida) ई० मे० मे। डॉक्टरी ग्रंथों में-उन रोग के निम्नोप्रलमोकह alamikah-at० मस्सगी । (An- शिसित लक्षण लिखे हैं, यथा-मामायिक isomeles malabarica ) ० मे० धार पर रुक रुक कर शूल चला करता है। इसका दौरा प्रायः रात के समय हुआ करता है। For Private and Personal Use Only Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org डॉलस साधारणत: खाली पेट में वेदना हुआ करती और आहार ग्रह करने पर वह कम हो जाती है । परन्तु, कभी इसके विपरीत होता है । उदराध्मान, प्राोप तथा दाह होता है । डकारें आती हैं, मी खाता है और प्रायः वमन हो जाता है । अर्वाचीन मिश्र देशीय चिकित्सक इस रोग को इन क्ररत्र लिखते हैं जिसको सही श्रंगरेजी पर्याय हार्टबर्न ( Heartburn ) है । और जिसको उर्दू में कलेजा जलना तथा हिन्दी में sure कहते हैं । अंगरेजी ( भांग्ल भाषा ) में इसे कार्डिएल्जिया ( Cardialgia ) भी कहते हैं जो अपने अर्थ के अनुसार वजूर लवाद का बिलकुल सही पर्याय है 1 वज्लुमिअदह (आमाशय शूल ) - इसमें आमाशयिक स्थल पर कठिन वेदना होती है जिसकी टीमें वाम स्कन्ध पर्यन्त जाती हैं । वेदनाधिक्य के कारण रोगी बेचैन हो जाता है और जलशून्य मत्स्यवत् लोटता है तथा श्रामाशय के स्थान पर दबाता है । सूचना- तिब्बी ग्रंथों में वज्डलूनुवाद के जो लक्ष्य लिखे हैं वे वस्तुतः वजूउल्कुल्ब के लक्षण हैं । किन्तु वज्डलमिवदह ( श्रामाशय शूल ) के लक्षण भी इसके बहुत समान होते हैं। इसलिए रोगविनिश्चय में दिक्कत होती है । परन्तु वज्डलमिदह में तीच्ण प्रचेतता नहीं होती और न तात्कालिक प्राणनाश का भय होता है । अलमूल alamúl-सं० गायजुबाँ बम्ब० । अलमोल: alamossh. सं० पुं० मत्स्य भेद ( A sort of fish ) वै० निघ० । अलमोसा alamosa--हिं० श्र (इ)मली । ( Tamarindus Indicus.) I अलम् alam अन्य [सं०] यथेष्ट । पर्याप्त । पूर्ण । काफ़ी । (Enough, sufficient. ) अक्रम alam-फा० (१) अदरक, मादी ( Zingiber officinalis ) देखोआई। (२) कंगुनी, चीना । ( Panicum verticillatum.) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अम लम् aalam - रसा० इबसाख, हरिताल | ( Yellow orpiment) अलम alam मल० कुम्बी-सं०, बं० हिं० । वकुम्भ - ते० । ( Careya arborea ) इ० मे ० मे० । अलम् alam o १ ( ० ० ), अलम alama-हिं० संज्ञा पुं०) पालाम ( ब० ब० ) | रंज, दुःख दर्द, कष्ट, वेदना, व्यथा, पीड़ा । पेन ( Pain ), एक ( Ache ) - ६० । हकीम जामीनूस के वचनानुसार मनुष्य का प्रकृतावस्था से अप्रकृतावस्था की ओर चला जाना "म" कहलाता है। फिर चाहे उसे उक्त अवस्था का बोध या ज्ञान हो अथवा न हो यथा - व्यथित व अचेत होना । किन्तु शेख का वचन है कि विरुद्ध वस्तु का बोध होना ही श्रलम् कहलाता है । यथा— किसी बुरे समाचार के सुनने अथवा किसी तिक या स्वाद रहित वस्तु को चने से कष्ट प्रतीत होता है । अस्तु, दोनों परि भाषाओं के पारस्परिक भेद का परिणाम यह है कि जालीनूस श्रचेत व मूच्छित व्यक्ति को भी दुःखान्वित " मुब्तलाए श्रलम्” कहता है; किन्तु शेख चूँकि "अलम्" की परिभाषा में बोध व ज्ञान की सीमा निर्धारित करते हैं । अतः वे अचेत व मूर्चित व्यक्ति को दुःखान्वित नहीं कहते । वास्तव में यदि ध्यानपूर्वक देखा जाए तो दुःख वही है जिसका बोध हो । अस्तु शेख की उम्र परिभाषा अधिक सही और अनुमेय प्रतीत होती है 1 नोट- प्राचीन फ़ारसी व अरवी तिब्बी ग्रंथों में ब्यथा के लिए वजूभू शब्द व्यवहृत हुथा है । किन्तु अर्वाचीन मिश्र देशीय हकीम अब वन (वेदना) के लिए प्राय: अलम् शब्द को व्यवहार में जाते हैं। अस्तु, निम्न शब्द शब्दों के ग्रंथों से उत किए गए हैं। श्रतम् और वन का भेद- उतामह कुर्सी के वचनानुसार जिस दर्द का बोध विशेष स्पर्श शक्ति द्वारा हो उसे वफा और जिसका बोध सामान्य अर्थात् सावतिक या सामूहिक बोध शक्ति द्वारा हो उसको अक्षम् नाम For Private and Personal Use Only Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अलम्चम अलम् जिल्द से अभिहिस करते हैं। अस्नु बज्न विशेष | अलम् क जोब alam-qaziba-अ० शिश्नशून, है और अलम् सामान्य । लिंग की पीड़ा । फलैल्जिया ( Phallalg. भातम् अजम alamaazm ____ia.)-501 व अज़म vajaa-aazm मलम् कहिय्यह, alam-qazhiyyah-१० -१० मस्थि वेदना, हड्डी का दर्द । प्रॉस्टिो - आँख के अंगूरी पर्दा का दर्द । भाइरैल्जिया सोनिया (Osteodynia)-इं। ( Iralgia.)-ई। मलम् अज alam-aazud-R० बात की अलम्क.त्न alam-qati-अ. कटिशूल, कमर पीडा, भुज वेदना । बैकिऐक्जिया ( Brachi. का दर्द । लम्बेगो ( Lumagbo.)-०। algia.)-इं०। अलम् कदम alam-qadam-१० पादशून, मलम् अफ alam.anfa-अ. नासिका की पाँव का दर्द । पाँ?स्जिया ( Podalgia.) वेदना, नाक का दर्द। राइनैस्जिया ( Rhin- | algia.)-१०। अलम् कस्स. alam-qassa-अ० वक्षोऽस्थि अलम् अम्गाप्रalam amaaa-० उदर बेदना, उरोऽस्थि शूल, सीने की हड्डी का दर्द। शूल, प्रांत्र वेदना, झाँतों का दर्द। एण्टरेक्जिया स्टनैल्जिया (Sternalgia.)-इं०। (Enterralgia.)-ई० । अलम् कविद ..lam-kabida-० यकृद्वेदना, अलम् भवतह lam-ar batah-अ० बंधनी । कलेजे का दर्द । हिपैटैल्जिया (Hepa talg. वेदना । डेसमोडीनिया ( Desmodynia.)। ia.)-01 अलम् कुरुयह. alam-kulyah-० वृकशूल, मलम् प्रस्नान alan-asnāna-० दन्त वृक वेदना, गुर्श का दर्द । नैल्जिया (Neph पीड़ा, दन्त शुख, दात का दर्द । प्रोडोयटैल्जिया ___ralgiu.)-ई०। (Odontalgia)-ई । | अलम व स्यह alam-khusyah-१० पाण्डमलम् अस्.यो alam-aasbi-० नाड़ी शूल, ___ शूल, मुष्क वेदना, बाड़ी या नुसिया का दर्द। वात वेदना, वायु का दर्द (रेही दर्द)। न्यु __ डिडिमैरिजया ( Dedymalgia) प्रॉर्किरेजिया ( Neuralgia.)-इं। ऐल्जिया (Orchialgia.), ऑर्कियोडीनिया अलम् उजन alam-uzna- कण शूल, काम | (Orchiodynia.)-ई.। का दर्द । प्रोटैल्जिया ( Otalgia.) ईयर अलम् गज़रूफ़ alam-ghuz: if-अ० उपास्थि शूल, कुरों का दर्द । काण्डल्जिया ( Chonएक ( Earache.)-३०। dralgia)-इं० । प्रलम् उजली alam-auzli-० मांस पीड़ा, मलम् गददी alam-ghudadi-० अंथिमांशपेशी मूल । माइऐल्जिया (Myalgia) शूल, ग्रंथिस्थ वेदना, गुदूद का दर्द। एडीनैल्जिया (Adenalgia.), एडीनोअलम् उस उस् alam ausaus--'अ० चञ्च- डीनिया ( Adenodynia.)-ई० 1 पोहा । काक्सियोडीनिया (Coceyo dynin.) प्रलम् जन्य ajam-janba-अ० पार्श्वशूल, पसत्ती का दर्द । प्रयुरोडीनिया ( Pleurodyमालम् ऐन alamain-० चतुपीड़ा, श्रीख nia ), स्टिच ( Stitch.)-इं० । का दर्ट, नेत्र शूल । ऑपथैल्मैल्जिया ( Oph. | अलम् ज़हर alam-zahra-अ० पृष्ठशूज, पीठ thalinalgia.), ऑपथैल्मोडीनिया (Oph-| का दई । भूटैल्जिया ( Nutalgia.)-ई। thalmodynia.)-.। | अलम् जिल्द alan-jilda-अ० स्वशूल, धर्म For Private and Personal Use Only Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६६ अलम्बुषायचूर्णम वेदना, स्वचा का दर्द । टर्माटैल्जिया ( Derm- पर्याय-खरस्वक्, मेदा, गला । .. atalgia.)-501 गुण-मधुर, लघु, कृमि तथा.फफ पिस नाश मलम् जो alam-zou-अ० रश्मिशूल, प्रकाशमान् | करने वाली है । भा० पू० १ भा० गु० व० । या चमकदार वस्तु के देखने का दर्द । फोटैस्जिया अलम्युषा स्वरस को २ पल की मात्रा में पीने से (Photalgia.) ई० । अपची, गण्डमाला तथा कामला नष्ट होता है। अलम् नुखा alam-nukhaa-अ० सुषुम्ना (२) भूकदम्ब । कुशिमेव | See-. शूल, सौषुम्नस्थ वेदना । माइऐल्जिया(Myal- bhukadamba. (३) महा श्रावणी, gia. )-io | गोरक्षमुण्डी । गोरखमुण्डी, मुण्डी । बड़ थुलकुड़ि अलम् फकरात alam-fagarata-अ० कशे- -10 (Sphoranthus Indica) to रुका शूल, काशेरुकीय वेदना । स्पॉण्डिऐल्जिया नि०५०५। 4. निघ०२ भा० वा० व्या० (spondialkia.)-इं० । पड़शीति-गुग्गुल और यूपणादि लौह । (४) अलम् यत्त alam-batna-अ० उदरशूल, लौह मल, मण्डूर । ( Ferri peroxidपेट का दर्द । सेलिऐल्जिया (Celial gia.) Lum.) च. ६०१ भा० श्रामवात अल म्बुषादि चूर्ण। अलम् बलऊ.म alam-balāuma-अ. कंठ | अलम्बुषादिचूर्णम् alambushadi-churna शूल, हुलक का दर्द। फेरिंगऐल्जिया ( Pha- | m-सं० क्ली० हङ्क १ भा०, बहेड़ा २ भा०, ryngalgia)-इं०।। श्रामला ३ भा०, गोरखमुण्डी : भा०, वरुणमूले अलम्ब मुष्ककः alamba-mushkakab-सं० १ भा०, गिलोय १ भा०, सोंड १ भा०, इनको पु. मुष्कक वृत्त । मोषा-हिं० । घण्टापारुलं । लेकर चूर्ण करें। -बं० । ( Schre berin swictenioi. गुण-प्रामवातको दूर करता है। des.) मात्रा-१ कर्ष (२ तां०)। मो० म०ख० अलम्बा alamba-सं० स्त्री० तिकालाबु, स्थावर प्रा. वा. चि.। विषान्तर्गत पत्रविपतितलौकी । तित् लाइ-बं०। अलम्बुषाद्यचूर्णम् alambushalyachār सु० कल्प० २ अ० । देखो-पत्रविषम् । nam.-सं०क्ली०(१)अलन्छुपा (पानीका लजालू) अलम्बुजा alainbuja-स. स्त्री० गोरक्षमुण्डी, १ भाग, गोखरू २ भाग, त्रिफला ३ भाग, सोंठ गोरम्ब मुगदी । (spheranthus Indi ४ भाग, गिलोय ५ भाग, निसोथ सर्व तुल्यः cus, liun.) वै० नि । ग्रहण कर उत्तम चूर्ण प्रस्तुत करें। प्रलम्बुदम alanabudam-सं० को० बालक, मात्रा-४-१० मा०। . हीवेर ( Paronian odorata.) । बाला अनुपान-दही का पानी, तक, मद्य, काँजी, -०। वै० निध० क्षय० चि० शिवगुटो। उरण जल । अलम्बुषः alambushah-सं० पु. (१) गुण प्रामवात, रक्रपित्त, त्रिकवेदना, जानुगत वान्ति रोग, वमन, उलटी, छर्दि, कै । ( Vom- वात, उरुगत वात, सन्धिवात, ज्वर, अरोचक iting. ) मे० षचतुष्क । (२) भूकदम्ब । इसके सेवन से दूर होते हैं। व..ले. सं. कशिया गाछ-बार०मा०रत्ना। आमवा. चि। मलम्बुषा,-सा alambusha-sa-सं. स्त्री० (२) अलम्बुपा, गोखरू, गिलोय, विधारा, पीपल, (1) लज्जा लुका भेद । (A sort of sens- 1 निसोथ, नागरमोथा, बरना की छाल, पुनर्नवा, itive plant.)। फुल शोला--बं० । लजा | त्रिफला, सौंठ तुल्य भाग । इनका चूर्ण कर सेवन वती, छुईमुई, लजाल पौधा । करने से उक्त व्याधियाँ दूर होती हैं। For Private and Personal Use Only Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मलम्बी अलक in मात्रा-४-१० मा० । अनुपान-पूर्वाक । | अलम् वजह alam-vajha-१० मुखमंडलीय गुण--पूक : वगळसे०सं० श्रामवात चि० । वेदना, चेहरे का दर्द । प्रोसोपैल्जिया ( Proso. अलम्बोद्ध सानो alamborddhastani-सं० | palgia)-इं। त्रि० जिसके स्तन न लम्बे और न ऊर्ध्वमुखी अलम् वरिक alam-varik-१० नितम्ब शूल, अथात् ॐ चे हों। सु० शा० १० अ०। चतड़ का दर्द। इस्किऐल्जिया (Ischialgia) अजम्बोष्ठी alam boashrhi-सं० त्रि० जिसके प्रोटक लम्बे न हो। सु० शा० १० १०।। अलम् शासीफ़ alain-sharasif-१० प्रामाअलम् मजगी बौल-ulam-ma.jif-bonl-अ० शयिक द्वार के पास पास की पीड़ा । एपिगैस्ट्रे. मूत्रप्रणालीस्थ वेदना, मूत्र नाली का दद ।। fearr (Epigastralgia )-TOI दर्देनाइज़ह -फा० । यूरेथ ल्जिया ( Urethra- | अलम् शर्ज alam-sharja अ० गुदशूल, गुडाकी lgia. )-३०। __वेदना । रेक्टैल्जिया ( Rectalgia)-ई। अलम् मफ़सल alam.mafsa-० संधि- अलम् स.दी alam-sadi-अ० चूचुक शूल । दर्द शृल, जोड़ का दर्द । श्रार्थं लिजया ( Arth. पिस्तान, चूचीका दर्द-30 मस्टैरिजया (Masralgia.)-इं०। talgia )-go अलम मवैज़ alam ma baiza-अ० डिम्बा- अलम् हालिब alam-halib-१० गविन्यु शूल । शयिक शल, डिम्बाशय सम्बन्धी पोड़ा । प्रोव- दर्दै हालिब-फा०] यूरेटरैल्जिया (Ureteraरैल्जिया (Ovaralia.)--इं० । ___lgia)-ई । प्रशाम् मरी alam-mari-अ० अन्नप्रणालीस्थ | अलयाs alayaa-यू०, रू० सिन, मुसम्बर, वेदना, याहार पथका दर्द । ईसॉफैगैल्जिया ((Es. कुमारीसारोद्भवा । (Aloes.) ophagalgia.)--इं० अलयन alayina-यु० शेर, सिंह | (A प्रलम् मसानह ala,111-11usanah... lion.) वस्ति शल, मूत्राशनिक वेदना। सिस्टैल्जिया | अलयूह layuh-यू जैतून । (Olive.) 1 - Cystalgia. )-01 अलरा alari-ता०, मल० कर्वीर, कनेर । (Ner. अलम् मिअदह alam-miadah-१० प्रामा- _iuin odorum.) 1. मे० मे। . "शम शूल, प्रामाशपिक वेदना, मेदे का दर्द। अलर्कः alarkah-सं० पु अर्क, सफेद, मदार, - गैस्ट्रैरिजया (Gastralgia)-501 मन्दार, श्वेत पाकन्द-बं० । (Calotropia अलम् रहिम,-रिह, alam-rahim, rih-श्र० gigantea or procera, मर्क of जरायुस्थ पीड़ा, गर्भाशयिक वेदनाः। मेट्रैलिजया white flowers.) भा० पू०१ मा० । ( Metralgia), हिस्टिरैल्जिया. ( Hys- मे. कत्रिक० । मन्दार । हेमा० प्रलकोवि व०। teralgia)-ई । मन्दारार्क । रा०नि० व०१० "मलको 'अलम् रास alam-rās-१० शिरःशूल, शिरो- मन्दारार्कः यस्य क्षीरं न विनश्यति"। सु० स० म्यथा, शिर का दर्द । सिंफेलै ल्जया ( Cepha- ३८० अर्कादि, ड० । श्वेत पुष्पीन मन्दार | : lalgia'), हेडेक (Headache)-ई। वा० सू० १५ अ. अकोदिव. अरुणः । मलम् रुचह, alam-rukbah-१० घटने का "अकोलौं नागदन्ती विशल्या।" योगोन्पादित दर्द । गोनैल्जिना ( Gonalgia)-{। कुक्कुर । मे० कधिक । (२) कुक्कुर ज्वर । मलम् लि सान alam-lissan-१० जिह्वाशूल, . ( HIydrophobia) हा० अत्रि• २ सय . ज़बान का दर्द । ग्लोसैल्जिया (Glossalgia) २० । (३) पागल कुत्ता । | अल alarka-सं० सोलेनम् ट्रिलोबेटम् (Sola. For Private and Personal Use Only Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अलर्नैन्धेरा सिसीलिस ॐ०० num trilobatum, Linn.) -ले० । टूड बुल्ले ता०| मूँ - इल-मुस्तह ऊचिन्त-कुर - ते० । मोट - रिंगनी मूल-मह० | नाभि श्रङ्करी - उड़ि०। इं० मे० लां० । वार्त्ता की वर्ग www.kobatirth.org में मलस्खे alale-मैसू० लले कायि alale kayi- ना० (N. O. Solanaceæ.) उत्पत्तिस्थान - पश्चिमी डेकन प्रायद्वीप, कोंकण से दक्षिण की थोर । प्रयोगांश-मूल, पुष्प, पत्र तथा फन्त ( Berries ) औौर | .कोम र | यह एक प्रकार की ब्रेल है । प्रभाव तथा उपयोग — इसके पत्र तथा मूल स्वाद कटु होते हैं और दय रोगियों में इन्हें अवलेह क्वाथ वा चूर्ण रूप में बर्तने हैं. वह चाय के चम्मच से || चम्मच भर दिन में दो बार देते हैं । कासमें पुष्प तथा फल ( Berries ) उपयुक्त होते हैं । ऐन्ल्ली । I यह छुद्रकस्टकारी की प्रतिनिधि रूप से प्रयुक्त | अलविन्द lavinda-सिंघ तेन, तिन्डुस, तेनसी होता है। डॉइमा । - उ०प०सू०। (Diospyros cordifolia) अलन्धर सिसीलिस aharnanthera sess. अलश alsh पं० अमलतास | ( Cassia fistu ilis - ले० मोकनु-वना-सिंगा० । अलल बछेड़ा alala-bachhera - हिं० संक्षा | पुं० [हिं०अल्प+बछेड़ा ] घोड़े का जवान 1a.) अछा । अलले डुब्बु alale huvva-कना० हड़ पुष्प, हड़े का फूल । हरीतको पुष्पम् सं० । The gall-like excrescenses found on the leaves & young branches of T. Chebula) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सवणा मती । मालकांगुनी-हिं० । लताफकी ब० । (Cardiospermum halic cabum). "वतु'लपक्चरक्रफलापीत सैला काकमर्हनिका” सु० सू० ३८ श्रदिव० ड० । अर्थात् मालकांगुनी तील, कफ, मेत्र तथा कृमि विनाशिनी है । त्रि० । (२) हरीतकी हद । {Terminalia chebul, Retz.) मंद० च० १ । अक्षाँ aailán हिं० संज्ञा पुं० [?] घोड़ा । -fo I भलवणा alavaná - सं० [स्त्री० ( १ ) ज्योति अलल अलवाँती lvanti- ६० वि० स्त्री० [सं० वालवती ] (स्त्री) जिसे बच्चा हुआ हो । प्रसूता । जच्चा ! अलशी ashi-fo, गु० जावा, म०, को०, ब०, कना० अनली । (Linseed) हड़, पीली हड़, हरीतकी । ( Terminalia | अशी चिरई alashi-virai - ता० अतसी, I खसी, तीसी - हि० । Linseed ( Linum_usit: tissimum ) इं० मे० मे० । कः alash kah-सं०पु० lasa - हिं० संज्ञा पुं० : (१) पाद रोग विशेष | ra का एक रोग जिसमें पानी से भीगे रहने वा गंदे कीचड़ में पड़े रहने के कारण उँगलियों के बीच का चमड़ा सद कर सफेद हो जाता है और उसमें खाज, दाद और चीस युक्र पीड़ा होती है। खरवात । कंदरी स्वार | सु० नि० १३ अ० । chebula, Ketz.) स० [फा० ६० | अललेपिन्द्र alale-pinda - ना० बाल हड़ जंगली हद्द | ('The young dried fruits अलसः of Terminalia chebula, itetz ) | अतस स० [फा० ई० । अलवाई alavai - fro वि० ख० [सं० श्रान वती, हिं० श्रलवती ] ( गाय या भैंस ) जिसकी बच्चा जने एक वा दो महीने हुए हों । बाखरी का उलटा । अलशी यरणे alashi yanne-कना० अक्षसी का तेल । (Linseed oil ) स० [फा० ई० । देखो अतसी | For Private and Personal Use Only ( २ ) विसूचिकाकी एक अवस्था है। अजीर्थ रोग का एक भेद । विषाजी, रसाजीय और दोपाजी भेद से यह तीन प्रकार का होता है । Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ७०२. लक्षण -- जिस रोग में कूख और पेट में अत्यन्त अफारा हो, बेहोशी हो, पीड़ा युक्र शब्द करे और वायु मलने से रुक कर ऊद्ध गति हो, कोख के ऊपर कं यादि स्थानों में गमन करे, मल मूत्र और गुदा की पवन रुक जाए, प्यास और डकारों से पीड़ित हो तो उसको "अलसक" कहते हैं। देखो - मन्दाग्नि पी० (३) कुष्ट रोग भेद | अलस शाङ्ग ० । जो चाहार ऊपर के मार्ग अर्थात् मुख द्वारा नहीं निकलता, अधीमार्ग ( गुदा द्वारा ) भी नहीं निकलता और न पचता ही है। प्रत्युत केवल नाभि और स्तनों के मध्यवर्ती श्रामाशय नामक स्थान में अलसीभूत अर्थात् स्तब्ध भाव में रहता है उसे अलसक रोग कहते हैं। जैसे अलस फाफनalasafafan- ( 1 ) लिसानुल- श्रवन । अनुद्यमशील मनुष्य श्रालसी कहलाता है । (२) राव | इसके लक्षण में भेद है । वा० सू० मत लक्षण - जिसमें अत्यन्त खुजली खले, लाली युक्र तथा छोटी फुन्सी अधिक हो उसको “श्रलसक" कुष्ट कहते हैं । मा० नि० 1 ( ४ ) व्याल जाति । गज-वै० । (५) निहा रोग । वै० तिघ० । ( ६ ) वृक्ष भेद । ( A kind of tree.) अलस alas-० भेदिया ( A wolf. ) । -फा० (१) गन्दुम मकर (मक्षा का गेहूं, गेहूं के सहरा अनाज है ) । ( २ ) सुलत, चात जो, औ बिरहना । अलस alas - यु० सुन्दरीखी, कासनी भेद । (A kind of Kásaní ) अक्लकः _alasakah - सं० पुं० अलसकalasaka-हिं० संक्षा प० रोग का एक भेद, अजी जन्य रोग ( Dyspe• ptic disease ) । देखो - अलसः । अलसन alasan- यु० एक वनस्पति है । अलसनतुल् स फोर nlasanatul-aasáfia--अ० इन्द्रयव । Wrightia Tinetoria, R. Br. (Seeds of--) अलसन्दद्द् alssandah - हिं० मोठ । ( Vetches, Lentils ) जी Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अलसन्दा [alasandá-तेο अलन्दी alasandi-कमा० अलस्तीन } लोबिया (Do lichos cating, D. sinensis ) इ० मे० मे० । , अलसा alasá-सं० ० हिं० संज्ञा स्त्री० (१) हंसपदी लता । गोथापदी ( Vitis pedate ) । गांयाले लत्ता- बं० । मे० सनिक । (२) लज्जाल | जाल फूल की लजावन्ती । अलस alasa फा० ( १ ) मरोड़फली, श्रावर्तकी । ( Helicteres Isora ) (२) ख़िल्मी ( See-- khitiní )। (३) नान्वाह, अजवाइन | (Caram ptychotis Ajowan) अलसी alasi-सं० (हिं० संज्ञा) स्र० अनसी । तीसी हिं० ब० । For Private and Personal Use Only अलसी āalasi श्र० घृतकुमारी, ग्वारपाठा, श्री. कुवार । ( Aloe Indica.) अलसी का तेल alasi ka tel - हिं०, ६०, तीसी கா तेल । अलसी (त. ) तैलम् - सं० । तिसि तेल, मोसिनार तैल बं० । दुह मुल कसान - अ० होराने ज़गीर, रोगने कलां-फा० । लिन्सीड ऑइल ( Linseed oil )-इं० | लिनम युसिटेटिसिमम् Linum Usitatissimum, Linn. ( oil of )-ले० । अस्तिशि - विरै-ये योग् -ता । मदन गिल नूने ते० | चेहचाण-वितिम्ले - गुणा मलया० 1 पलशी यर कना० । स० फा० ई० | देखो कातसी । अलसी विalasi-virai - ता० अलसी, तीसी, भतली। Linseed ( Linum Usitatissimum ) इं० मे० मे० । अलसेलुका alaseluká स० ख० लजालुका | फुल सोला बं० । वै० निघ० । अलस्तीन &lastin शु० नमक, लवण । Salt (Sodium chloride. ) Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir অানুষ अलस्तून alastin-० असन्तीन । ( Arte. !अलावष्टर alibast.r-ई० सफेद पत्थर, गोदन्ती । mnesia indica, Villd.) (Calcitin Salohate.) सञ्जिरहन-सं। अलहैरी al:r hairi-हिं० संज्ञा पु० [अ०] एक ई० मे० मे । जाति का अरवी ऊँर जिसे एक ही कूबड़ हाता अलाबाद labad-अराड. है और जो चलने में बहुत तेज होता है। अलाचु al abu-सं० पु. यंत्र विशेष । वा० सू० अलाई alai-हिं० पु. [ 1 ] घोड़े की एक जाति ।। ०२६ । अलाउठा alautha-सं० क्षिप्त रोग । देखो-क्षिप्त। अलायुalabu-सं० कली अथर्व । सू०६।३ । का०६।। अलावुः,-चू:alab.h,.bub-सं० स्त्री अलाकह aalāgah-अ० (१) इच्छा, लगाव । अलावू alibu-हिं० संज्ञा स्त्री ) (२) वह तन्तु या सूत्र जो किसी प्रययव को (१) स्वनामाख्यान फल शाकलता, लौकी, लटकाए या निज स्थान पर स्थिर रखे । मिठीतुम्बी, लौदा, कह-हिं० । लाड गाछ अलाकतुल बैजह aalaqa tul buizah-१० ~~40 । दुध्या मोपला-मह । (Cucurbita अण्डधारक रज्जु । स्पर्मेटिक कार्ड (Sperma. laganaria.) अटी। शब्दर० । मा. tic Cord)-01 पू० १ भा० । द्रव्यगृ० । राज०। (२) श्रलाचारह alachārah-असफहा. अशक्त। कटुतुम्बी, तितलौकी, तित्ला-ब | Wild See-angaaq. variety of legenaria. vulgaris. अलाग alagh-तु० गदहा, गधा, गर्दभ | ( An | श०२०। (३) । बा । (४) सर्प विष की ass.) थैली । (Serpent venom sac.) अलाकलङ्ग alakalanga-तु. तेलनी मक्खी (एक अथवसू०१०।१।का प्रसिद्ध परदार पक्षी है ) । (Cantheri. | श्रणबुक: alabukah-सं०० अश्व.मुखरोग। dis.) इसमें मुख दुर्गन्धि, तालुशोफ तथा ग्रास ग्रहण मलानम्.alatam-सं० क्ली । अँगारा, प्र. में द्वेष प्रभृति लक्षण होते हैं। (Mouth मलात alata-हिं० संज्ञा पु. रा ( A disease of the horse.) अ० २० । __firebrand, embers. ) | कृयला भलाबुका alibuka-सं० खी० कट दुग्धयुक्त . रक्षा०। (२) जलती हुई लकरी । लुबाटी । अलाबु, तितलौकी, कटुतुम्बी भा0ISee Karu thinbi. मलातन alātan-यु० जावित्री । ( Mace.) मलातरा alatari अमरबेल, प्रकाशबेल ।। अलावुना alabuni-सं० खी० (.) कट मलाटरी alarari (Cuscuta Ref दुग्धालाबु, कटुतुम्बो, तितलीकी । तिजार - lexa.) -ब' | Wild variety of legenaria मलाती alati--रू. एक वृत है, जिसकी गोंद चीड़ vulgaris. 1. (२) मिठ तुम्बीजसा, मोठी ... की गोंद के समान होती है। किसी किसी के मता तुम्बी, लौकी, कह-हिं० । मिष्टलाइ गाछ - । (Cucurbita lagenaria) . नुसार यह चीड़ का एक भेद है। .. मद००७| मलातीनी alatini-रू० लबलाब, इरत पेचा, अलाब-विधिः albu-vidhih-सं० पु. तुम्ही . . एक बेल है । ( Ipomosa Quamoclit.) लगाने की विधि । प्रलाद alada-यु० जैतून तेल | (Olive oil.) | अलाबु सुन्छन् alabu-suhrit-सं०१० अम्लभलांनोतून alanitun-रू० रवासन, किसी किसी वेतस । ( Rumex vesicarius. " के मत में एक दूसरी ओषधि है। .. वं. निय For Private and Personal Use Only Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अलायन्नम् । अलाबू यन्त्रम् alabu yantram-सं० क्ली० | यन्त्र विशेष । तुबी। लक्षण-तुम्बी यंत्र १२ अंगुल मोटा होता है। इसका मुख गोलाकार तीन वा चार अंगुल्ल चौड़ा होता है। इसके बीच में जलती हई बत्ती रखकर रोग को जगह लगा देने से दूषित रलेष्मा और रक खिच पाता है। अत्रि० । बा०. सू० प्र०२३। अलाम āalam-अ० मेंहनी (हिना)। Myrtus | Communis. . अलामत aalamat-१० (हिं. संज्ञा पु.) (५० व०), अलामात (ब०व०)। इसका शाब्दिक अर्थ लक्षण, चिह्न, लिंग प्रादि है (विस्तार के लिए देखो-लक्षण)। तिब की परिभाषा में वह वस्तु जिसके द्वारा किसी शारीरिक दशा अर्थात् स्वास्थ्य वा रोगमें से किसी अवस्था पर दलील पकड़ी जाए. अर्थात् जिसके द्वारा स्वास्थ्य वा रोग लक्षित हो । सिम्प्टम् (Symptom), साइन ( Sign), इण्डिकेशन ( Indication)-इ'। तिब्बी नोट-अलामत अर्थात् लक्षण से कभी भूतकालीन ( भूतकाल में उपस्थित हुई) दशा का पता चलता है, जैसे-नदावतुल बदन (शरीर की तरी) तथा नाड़ी की निर्बलता एवं शिथिलता से वैद्य को इस बात का बोध होता है कि रोगी को इससे पूर्व स्वेद पा चुका है। ऐसी अलामत या लक्षण को अलामत नुज़ाकिरह अधात किसी गत घटना की द्योतक अलामत कहा जाता है। इससे वैद्य को बहुत लाभ होता है अर्थात् उन्न. अलामत के द्वारा रोगी के गत शारीरावस्था के बतलाने से उसकी छठ विद्वता एवं क्रिया कुशलता लक्षत होती है। (२) कभी अलामत से वर्तमान कालीन अवस्था का पता चलता है, जैसे-उष्ण स्पर्श द्वारा ज्वर की। उपस्थिति का पता चलता है। ऐसे लक्षण को सिबमें "दा" या 'पलामत दालह' कहते हैं। . और चूंकि स्पोमा रोगोको वर्तमान ज्वरावस्था । का पता देकर उसका ध्यान चिकित्सा की ओर माकर्षित करती है, इसलिए ऐसे लपण से | अधिकतर रोगी लाभ उठाता है। (३) और कभी सलामत भविष्यकालीन घटना की परिचायक होती है । उदाहरणतः-निम्न श्रोष्ठ का स्पंदित होना इस बात का सूचक है कि धमन होगा। ऐसे ल रुण को तिव में तब्दुमुल्मरह, या साधि कुलहरूम अर्थात् पूर्वरूप के नाम से अभिहित करते हैं। ऐसे लक्षण से चिकित्सक व रोगी दोनों को लम होता है। वैध का ऐसे लक्षण को देखकर भविष्य में आने वाली घटना से रोगी को सूचित करना उसके हृदय में वैद्य की उच्चकोटि की योग्यता व चिकित्सा-कौशला स्थान पाता है । और स्वयं रोगी चूँ कि वैद्य में प्रादेशा. नुसार उक्र रोग की चिकित्सा व उपाय से परिचित हो जाता है। इस कारण रोगी भी ऐसे लक्षण से लाभान्वित होता है। अलामत ओर अर्ज का भेद-(देखो अज़) अलामत और दलोल का भेद-अलामत अर्थात् लक्षण कभी माल हुल अलामत (जिसका वह लक्षण है ) के साथ पाया जाता है और कभी नहीं। इसके विरुद्ध दलील (लक्षण) अपने मद्ल ल (लक्ष्य ) के साथ अवश्य हुआ करता है । इनमें से प्रथम का उदाहरण मेघ व वृष्टि है। यह बात स्पष्ट है कि मेघ कभी बिना वृष्टि के भी होता है। और द्वितीय का उदाहरण अग्नि व धूम है। क्योंकि धूम सदा अग्निके साथ पाया जाताहै। तिब के दृष्टिकोण से दलील तथा अलामत में मुख्यभेद यह है कि दलील केवल रोग के लक्षण के लिए प्रयोग में पाता है और अलामत साधारण है जो रोग एवं स्वास्थ्य प्रति दो लक्षणों के लिए बोली जाती है। डॉक्टरी नोट-सिम्पटम् का शाब्दिक अर्थ "परस्पर घटित होना" है। डॉक्टरी परिभाषा में उस परिवर्तन के लिए बोला जाता है जो रोग क्रम में उपस्थित होता है जिससे उक रोग के विद्यः मान होने की सूचना मिलती है। इस विचार से सिम्प्टम् बलामत का वर्षाय है। परन्तु भवा For Private and Personal Use Only Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भजामा अर्जिय्यह मलामत मुस्किरह चीन मिश्र देशीय वैध पलामत के स्थान में स्थानीय शोध । लोकल सिम्पटम् ( Local इसका पर्याय 'प' निर्धारित करते हैं। Symptom)-०। साइन उस पलामत का नाम है जो केवल | अलामत मबय्यिनह ialanata-maba. ] रोग में प्रगट होता है और सिम्पटम् रोग व yyinah स्वास्थ्य दोनों बक्षणों के लिए बोला जाता है। ! दलोल dalilin मस्तु, जो अन्तर दलील व अनामत में वर्णित दलामत dalilata हुमा कही भेद सिम्प्टम् व साइन में है। इजि. अ. वह लवण जिससे वैध को रोग का पता केशन भी साइन और इलील का पर्याय है। । जगे। उदाहरणतः नाड़ी वक्रारोरा (मत्र) अलामत अजिय्य aalamat-aniziyyahi प्रभृति । इणिकेशन ( Indication ), -अ. वह लक्षण जो किसी अवयव के अवारि ज़ साइन ( Sign )--101 अर्थात् उसकी सुन्दरता व कुरूपता से सम्बन्ध | अलामत मुख्तलितह, aalamata-mukhta. रखता हो, उसके शरीर या जौहर या उसकी litah--लामत मुरकबह-अ०। संयुक या मि. क्रिया से सम्बन्ध न रखता हो। देखो-अलामत श्रित लया। वह लक्षण जो अन्य लक्षणों से . जौहरिय्यह् । संयुक या मिश्रित होकर व्यक होता है अर्थात् एक रोग के विमिन लषयों का परस्पर मिलकर अलामत आमह aalanataanah प्रगट होना। अल मत मिज़ाजियह alaimat-nizajiyab), उदाहरणतः-ज्वर में शिरःशूल, इन्द्रियों ... सामान्य लक्षण, मिज़ाजी अलामत, बह का टूटना व मतली प्रभृति का परस्पर मिसकर लक्षण जिसका सम्बन्ध समग्र शरीर से हो या जो प्रदर्शित होना | कम्प्लेक्स सिम्प्टम् ( Comp. समग्र शरीर में प्रगट हो । जैसे ज्वर में सम्पूर्ण | les symptom ), feresta ( Syndroदेह का गर्म होजाना। me)-इ । मलामत जौहरिय्यह. aalamat-jouhari- ! अलामत मुज़किरह. aalanata-muzakki yy.h-०(.) वह लक्षण जो अवयव के Jah-० स्मरण कराने वाला लक्षण, स्मारक शरीर व सत्ता से अर्थात् उनकी सृष्टि व उत्पत्ति चिन्ह, वह लक्षण जो किसी रोग द्वारा उपस्थित से सम्बन्ध रखता है। (२) जो लक्षण अवयव । निर्बलता में व्यक्त होकर उस गत रोग को के सवारि ज (कुरूपता वा सौंदर्य)से संबंध रखते । स्मरण कराए, परन्तु उस रोग से उसका कोई हों उन्हें "खामात अजिारयह" कहते हैं। और | विशेष सम्बन्ध न हो। कन्सीक्युटिव सिम्पटम (३) उन लक्षणों को जो अवयवों के कार्य से (Consecutive symptom)-इं। सम्बन्ध रखते हों उन्हें "अलामात तमामिथ्यह" । शलामत मुन अकिसह aalan at-in.uniaki. कहते हैं। Sith-श्र० परावर्तित लक्षण, वह लक्षण जो रोग अलामत तमामिय्यह, aalamat-ta mami-i से दूर किसी अवयव में प्रगट हो। yyah-अ० वह लक्षण जो किसी अवयव की उदाहरण-वृकशूल में बमन होना या क्रिया से सम्बन्ध रखता हो. उसके शरीर का रूप कतिपय मासिक रोगों और गर्भावस्था में से उसका कोई भी सम्यम्ध न हो। देखो-- वामित व उबकाई का भामा । रिफ्लेक्स सिम्पटम अलामत जौहरिय्यह। (Reflex symptom ) अलामत मकामिय्यह, aalamat-maqami ! मलामत मुजिरह aalamat.munzirah yyah-२० स्थानीय लषण, वह लक्षण जिसका प्र. भयभीत करने वाला साण, पूर्वरूप, वह . सम्बन्ध शरीर के किसी विशेष भाग से हो जैसे- तण जो किसी रोगसे पूर्व उसके उपर होने का For Private and Personal Use Only Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org - कलामत मुश्तर्क .७०५ भय दिलाए | उदाहरणतः - अपस्मार के दौरा | से प्रथम देह के किसी भाग मॅ सुरसुराहट प्रतीत होना मृगी होने का भय दिलाता है और वृद्धावस्था में सिर चकराना सिक्तह ( Apo• plexy ) के होने का भय उत्पन्न करता है । श्रीमॉनिटरी सिम्प्टम ( Premonitary symptom ), प्रोड्रोम ( Prodrome ) - इ० उदाहरण-वमन एक ऐसा लक्षण है जो श्रामाशय, मस्तिष्क, वृक्क तथा गर्भाशय प्रभृति रोगों में सम्मिलित रूप से प्रगट होता है । इक्कि वोकल सिम्प्टम ( Equivocal symp• tom ) - इं०। अलामत मुश्तर्कह Talamat-mushtar- | अलाय alava - हि० संज्ञा पुं० [सं०] अलांत भंगार ] kah श्र० सम्मिलित लक्षणा, वह लक्षण जो आग का ढेर । धूनी । शस्खीरा । कौड़ा | बॉनफायर कतिपय विभिन्न रोगों में सम्मिलित रूप से पाया ( Bonfire - इ० जाए । अलामत मुस्तकीमह āalámat mustaqimah-o अलामत जातियह । जातीय लक्षण, वह लक्षण जो बिना किसी लगाव के स्वयं रोग से उत्पन्न हो । जैसे शोध में वेदना एवं दाइ । argiaz finq (Direct symptom ), ईडियोपैथिक सिम्प्टम ( Idiopathic sym ptom ) - इ' । अलामत शिर्फिय्यहāalamat shirkiyyah - अलामत अज़िय्यद, सानुबंधिक लक्षण, अ. ज अलामत जो विकारी श्रवयव के सिवा किसी अन्य अवयव में केवल पारस्परिक सम्बन्ध के कारण प्रगट हो। जैसे हस्तपोदस्थ क्षत प्रभृति में कक्ष या चड्डे की ग्रंथियों का शोधयुक्त हो जाना या वृक्क शोध वा जहायु शोध में वमन होना । सिभ्यैथेटिक सिम्पटम (Sympathetic symptom )-'. अलामत हालिय्याह aalamat-baliyyah - अ० वह लक्षण जो अवयव की किसी विशेष अवस्था को प्रगट करे । स्टेटिक सिम्प्टम् ( Static symptom ), पैसिव सिम्प्टम ( Pa• ssive symptom ) - (201 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -अलि जामलsalamalak- (तिज़काबिन व तबरिस्तानी अंगूर वृक्ष के समान एक लता है जिसको 'फ़ाशरा' या "शिवलिङ्गी" कहते हैं । (Bryonia) श्रज्ञामात aalamáta - अ० ( ब० ० ) देखो -- अलामत ( Symptoms ) 1 अलार alára- ई० संज्ञा पुं० [सं० ] कपाट, किवाद [सं० अज्ञात ] अलाव भाग का ढेर । श्राँवाँ । भट्टी । लावु alavi-गु० घालू । ( Potato. ) अलाबुद्दीन aalávuddina - अबुल हसन नि हाजिमुल मुल्कीयुल क़र्सी देखो - कुर्शी | SeeQarsi. J अलासः alásah-सं० पु० जिह्वा स्फोट | जिह्वागत मुख रोग । एक रोग जिसमें जीभ के नीचे का भाग सूजकर पक जाता है और दाद तन जाती है। लक्षण -- जिह्वा के नीचे जो प्रगाढ़ शोध हो तो उसे कफ और रत्र की मूर्ति अलास नामक जिल्हा रोग कहते हैं । यह रोग बढ़कर जिह्वा को स्तंभित कर देता है और जड़ में से जिह्वा पाक को प्रात हो जाती है । यह कफ दोष के कारण होता है | उक्त कंटक रोग से जिल्हा भारी, मोटी और सेमल के कोंटों जैसे मांसांकुरों से व्याप्त होती है। सु० नि० १६ श्र० । अलासफ़ास alásafása - यु० निसानुल् अब, वृक्ष और घास के एक बीच बूटी हैं। अलासि alási बम्ब० अलसी, तीसी । Linseed ( Linum asita bissimum). अलिः alih- सं० पुं० [ श्री० श्रलिनी] अलि ali-हिं० संज्ञा पुं० १) भ्रमर, भँवरा । लार्ज ब्लैक श्री ( Large black bee ) - ६०। रना० । ( २ ) मध, मदिरा । स्पिरिस लाइकर ( Spirituous liqu01. ) - ६० । मे० लडिक । ( ३ ) वृश्चिक, बिच्छू । स्कॉर्पिश्वन ( A scorpion ) - ०। For Private and Personal Use Only Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir জামাৰ अलिजिहीं, हिंका हारा०। (४) कोक, कौत्रा । क्रो (A crow) तन्तुओं को । दपन-सिकंञ्जबीन व शुद्ध शहद । -०(१) कोकिन्न, कोयल । इण्डियन कुक्कु प्रतिनिधि-मस्तगी, रातीनज पुचित मात्रा में। du landin Cuckoo (Cuculis मुख्य गुण --- प्रामाशय को बलप्रद, मूत्रल व Indicus.) २०२०। (६) सग्वी (३ . कासन । बु० मु०। .... woman's femalt friend or com- गुण, कर्म, प्रयोग-दोषीको परिपक्व करता panion.) । (७) पंक्रि (A line, एवं उनके घाम (चाशनी को ) साम्यावस्थापर a row): (८) कुत्ता (A dog)! () . लाता, शोथ एवं वायु का लयकर्ता तथा कफज दे०-प्राली। कास को लाभप्रद है। शुष्क एवं तर कंड को भानिमार alira-सं० ज़हमी, बन्दरी-बम्ब०। लाभ पहुँचाता और प्रकृति को मृदु कर्ता है। भद० । (Dodonasa viseosa){ मे० निविषैल । (म० मु०) मे । ___ विलायक, द्राक्षक, पाचन शत्रि को बल प्रदान अलिजर alinjara-हिं० संज्ञा प० देखो-अलि कर्ता, मूत्र प्रवर्तक व शोधक और समग्र यूनानी . अरम् । हकीमों के निकट मस्तगी से श्रेष्टतर है। इसका मलिक: alikah-सं० पु०, क्ली धयाना मस्तिष्क की श्राद्रता एवं श्लेष्मा का मलिक alika-हि. संज्ञा पु० । अभिशोषक और प्रामाशय बलप्रद है। यदि (.) कपोल, गण्डस्थल, गाल | चीक (Che. . २॥ तो० इसकी गोंद को १ कटाँक बकरी के __ek)-इं० । रा. नि. व. १८ । (२) गुर्दे की चरबी के साथ पिघलाएँ और सब को ललाट | कपाल । मस्तक । पेशानी । फॉरहेड . तीन दिवस में खाएँ तो आइ कास तथा मूळ (Fors hoad )-ई। राना०। (३) दे० के लिए अनुपम है । मधु के साथ श्राभ्यंतरिक अलि । ततों और वसा में पिघलाया हुअा अवयवों की मलिक aalik-. प्रत्येक गोंद जो चबाई जा पीड़ा का दूर करने वाला है। सके। ( Rusin) देखो-लक । अलिका alika-सं० स्त्री०पाटली । (Ikigmoniu अलिकुल सङ्कला aikul.sambula-सं० स्त्री. कक शेवती, काँटा शेवती। कुछजका वृक्ष, कांकन Suaveolons.) देशीय पुष्प वृक्ष । (Trapa bispinosa.) मालिक मत्स्यः alika-matsyah-सं० पु. . रा०नि० व. ० । भ. पू० १ मा देखा (.) अंगारा (Embers.)। (२) भिन्न कुरुजकः तिल । (३) तैल भृष्ट मांस, नेल में भूना हुआ . . अलिगद्दः aligarddah सं० पु. जमर्ष । मांस । (५ ) पिष्टक विशेष ।। (Amaquatic serpent.) श०र० । अलिकुल् अस्थान anlikul ambat-अ. । अलिज़ान Aliziull];-इं० नारी सुर्ख रंग का बतम या उसके समान एक वृक्ष की गोंद है। - एक सत्व जो मजिष्ठा में पाया जाता है । ( A11. मलिकुल प्रिया alikul-priya-सं. स्त्री. Orange-real prnespie found in काष्ठ शेवती, काठ गुलाब | काठ गोलाप-७०। "Kulbia cordifolia") ई० म० मे०। (Wild rose.) वै० निघ०। " अलिजिह्वा,-हिका jijihvi,-hvika-सं. अलि (बल) कुल बुतम aalikul-butam-अ. स्त्री०(Uruta ) तुद्रजिहिका, अालजिक, बुतमका गोंद,इलकुल अम्बात । इसकी शुष्क गोंद गले की घाटी । गले के भीतर का कौवा । को कलन कहते हैं । प्रकृति-कक्षा द्वितीय के अन्त ___ काक, कौघ्या, . अलि जिह्वा, शंडिका, में उष्ण क रूत ! स्वरूप--सुर्ख, स्याह रंग का - कोमल तालु के पिछले भाग में एक होता है। हानिकारक्ष-उपण प्रकृति व वान वंटी भी दिखाई देने वाली चीज श. २० । For Private and Personal Use Only Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७०७ प्रलिम्पका,-म्बका अलिअरम् alin juia11-सं० क्लो० (१) फन अलिप्रियम् alipriyam-सं० क्ली0 (1) विशेष । फुटी विशेष-बं । निरफोटी-मह०। रक्रोत्पल, लाल कमल । (Nelumbium .. गण--अलिऊजर रूह शीतल तथा भेदक है . speciosum.) त्रिका० । -पु. (२) धीर कला, मधुर, क्षारीय, तिक तथा पाक में . धारा कदम्ब ( Adina cordifolia.)। कटु श्रीर स्वादिष्ट वातकारक तथा श्वास, काम . (३) पान वृद्ध, अाम | . mango tree और श्लेन धिनाशक है । निध... (२) (Mangifera Indica.) श०२०। : बहुजन्नर-मएमय पान विशेष । सुराही । पानी . . (४) कदम्ब वृक्ष । (Anthocephalus रखने के लिए मिट्टी का बरतन | झम्भर । घड़ा ।। kadamha,) भा०पू०१ भा० । मलिता alita-सं० स्त्री० अलक । पालता ! अलिप्रिया alipriya-सं० नी० (१) पाटला। TO I (Lac, the rulavimal (lye: पारुल गाछ-बं०।( Bigilonia sita.veo. so callucl.) 10.) प० मु०। (२) भूजम्बू वृछ गा-अलिता उध्या, तिक्र. कफ वान तथा #1# 774 i ( Ardisia solanacea) व्रण नाशक है। व्यंग, अरुची, के रोग और व निघ। व्रण दोष नाशक है। पूर्व महर्षियों ने इसके ' अलिपसा alipsa-सं० स्त्री. अनिच्छा । ( In. अन्य गुण लाक्षा के पहरा वर्णन किए हैं। व० difference) निघ०। अलिफान alifan-अ. बाजू के अन्दर को दो अतिर्वा alidult vā-सं० स्त्री० मालार्चा, रंगें। ... भाला दुब । रा०नि० व० ISie-Mala. अलिबौफोर डी वेजाइन aliboufier de dúrvvá benjoin-फ्रां• लुबान, ऊर-भा.बाजा। अप्रियः alinthah-सं• पु० (Apahtoisy . Gum benjamin tree. (Styrax .. भ्रण' का वह प्रावरण जिसमें उसका मूत्र - benzoin, Dryandey'. ) फा००२ एक ग्रन रहता है। कीसतुल बौल-१०। भा० । अलिन्द alinda-हिं. संशा पु. ( 1 ) अलिमकः alimakah-सं० पु. (.) भेक (Allicle)। (२) [सं० अलीन्द्र ] भौंरा ।। ( A frog) । (२) कोकिन, कोयन (Awasp) (An Indian cuckoo )। (३) भ्रमर, अलिपकः lipakih सं० पु. भँवरा (A large black bee)। (४) अलिपक alipaka-हिं० संज्ञा (१) भ्रमर, भँवरा (A large black पन केशर (See-padmakeshar. )। bee) (२) कफिल कोयल An Indian (१) मधूक वृत्त, महुश्रा । ( Bassia Iatienekoo. Cuculis Indicus.) i folia) मे चतुम्क ..: (.३) कुकुर, कुना (A- dog.) । सर्वत्र अलिमोदा alimoda-सं० स्त्री. गणिकारिका । से ना ....... ... गणिरी-पं० । (Premna spinosa.) अलि पत्रिका alipatrika-सं०(हिं. संज्ञा स्त्री रा०नि०व०६ देखो-भरणी । वृश्चिकालो बिछाती,बिछुपा घास । (Flagia अलिमोहिनी ailmohini-सं. स्त्री० केविका involucrata:) सनि० २०५। पुष्प वृक्ष, केबार । रा०नि० २०१०। कोअलिपर्णिका,# - "njiparnika-rni-सं० केधिका (Revika)| 'स्त्री वृश्चिकाली । विछति, बिछुटो-०। । अलिम्पकः,-म्बकः alimpa kak,-mpakah (Fragia' inrolticiata. ) ग. नि. -सं० पुं० (१) कोकिल, कोयन (An 40'। Indian cuckoo)। (२) ममपिका, For Private and Personal Use Only Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अलिया . अलीबिनम्रब्बास - मधु मक्खी,शहदकी मक्खी ( A bee)। (३) अलीक: alikah-सं० पु. काकोली पुष्प, फल .. कुक्कुर कुत्ता (A dog)1(४) पन्न केशर व पत्र । -padamkeshal) 0 निघ। अलीक मत्स्यः alika-matsyah-सं० पू० अलिया aliya-हि० संज्ञा स्त्री० [सं० प्रालय ] अङ्गार पर पकाकर तिल तेल में भूनी हुई उपद एक प्रकार की खारी। की पिट्री। बड़े नागरवेल पानको उपद की पिट्री अलिवल्लभा alivalladharसं. स्त्री र पा- में लपेटकर युति से कढ़ाई में पकाएँ, फिर छोटे टला । (50e-paralā) भा० पू० १ भा० । छोटे कतर के तेल में भून लें तो "प्रतीक मत्स्य" अलिवाहिनी Alivahini-सं० रो० कोकण देश तैयार होते हैं। इनको बैंगन के भुरते के साथ प्रसिद्ध केविका वृक्ष । केवेर-हिं० । रा०नि० व. अथवा बथुए के साग से या रायते से भक्षण करें १० | See-kevika. भा०पू०२ भा० । अलिविरई alivirai-ता, चन्द्रसूर, अहलीव । श्राला पहली प्रालीकोचक AHIochak -हि० तेवनी मक्खी अलिवेरी aliveri-बं० ( Lepidium जरारीह- अ० (Cantharidis.) sativum.) अलीगड aligadda-द० प्याज, पलादु । (Alli. लिश alisha-काश um eepa, Lim.) अलिशि विरई alishi-virai-ता० अलीनाम् alinakam-सं० क्ली० वा । अलसी,' तीसी । Linseed ( Linum (Tin.) हे. च. usitatissium, linn. ) फा० ई० अलीफ़ोन alifina-फ़िर० हाथी, इस्ति । ( An ११भा० । देखो.. प्रतसी। elephant.) अलिसमाकुलः lisamakulah-सं० पु. अलीफल aliphula-३० नीलोफर,छोटा कमला। पुष्प वृद्ध विशेष । दवण सेवन्ती -मह० । वै. . ( Nymphea edulis, D.C.) स० निध। फा.ई। अली (इन् )ali "in"-सं० पु . अली बिन अब्यास iali.bin aabbasa-प्रती अली ali-हि. संज्ञा पुं॰ [सं० अलि ] पाब्बास मजूसी -01 Ai bin ajab. (.) वृश्चिक, बिच्छू ( A scorpion.)। bas alma.jusi, Ali Abbas. यह (२) भ्रमर, भँवरा । ( Alarge black प्रसिद्ध ईरानी हकीम गबर अर्थात् प्रासस " bee) मे. 1-हिं० संवा स्त्री० [सं० प्राली] परस्त ( अग्निपूजक) था। इसी कारण या म (१) सखी, सहेली, सहचरी। (A. female जूसी अर्थात् मातशपरस्त (मग्मिपूजक) की .. friend.)। (२) श्रेणी, पंकि, कतार । उपाधि से विभूषित है । यह ईसवी सन को १० अली ali-40 अमलतास । (Cassia Fistu- वीं शताब्दि के उत्तरार्ध में मह वा ईरान देश) .. .).. ..... नामक स्थानमें उत्पन्न हुआ और इसने प्रवी माहर मूसा बिन सय्यार से वैद्यक विद्या की शिक्षा प्राप्त अलीक: alikb-स० पु. एक प्रकार का सर्प ।। की । यह अपने समय का अत्यन्त महत्व पूर्ण .अथर्व० सू० १३१५ । का०५। और हकीम हो चुका है। यह सुल्तान अलोक aliq-अ० जबलाव, इरक पेचा । (pc-| मजदुद्दौला बिन बूयह देख्मी का दरबारी चिकिmoea quamoclit. ) * एसक था । प्रसिद्ध तिब्बी ग्रंथ "मखमलिकी" प्रलोकम् Alikam-सं. की. ललाट, मस्तक, या "कामिलुस्सनासह " जिसको अंगरेजी प्रयों .. पेशानी । ( Forehead) हे. च। में लिवर रेजिस (Liber Regis Kingly. For Private and Personal Use Only Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अलीपिन सा प्रलीय • book") अर्थात् राजकीय ग्रंथ लिखा है, यह हसन अलो बिन रिजवान बिन अली बिन जमकर । पापही के लिखे हुए ग्रंथ रत्नों में से है । इन्होंने इनकी उत्पत्ति मिश्र देश के जीन स्थान में हुई यह ग्रंथ उल्लिखित राजा के लिए ही खिखा था। थी। किसी २ अँग्रेजी ग्रंथ में लिखा है कि यह इस कारण इसे उसी के नामसे अभिहित किया। खलीफ़हुल हाकिम के काल में सन् १०६८ ई. यह अपने काल का अनुपम ग्रंथ तिव्य इल्मी व में मिश्र में एक उरचकोटि के हकीम प्रसिद्ध थे। अमली दो भागों में विभाजित है और प्रत्येक इनके पिता रिश्वान बिन अली तनूर बनाने वाले भाग के कतिपय स्वएट हैं। श्रमली अर्थात् प्रायो. थे। अली बिन रिजवान ने एक साधारण पेशावर गिक भाग में व्यवच्छेद, इद्रिय व्यापार, सामान्य की सन्तान के सदृश पालन पोषण व शिक्षा पाई विकृति विज्ञान, गुह्येन्द्रिय संबंधी रोग, स्या और क्योंकि स्वभावतः इनका ध्याम योग्यता व विकार, व्रण तथा क्षत प्रभृति का वर्णन है । और विद्या प्राप्ति की ओर था। इसलिए किसी पेशा में इल्मी में स्वाध्य संरक्षण, आहार, निघण्टू तल्लीन होने की अपेक्षा उन्हें विद्या-विलास अधिक (औषधनिर्माण ), विशेष विकृति विज्ञान और प्रिय व रुचिकर था । ३२ वर्ष की अवस्था में यह चिकित्सा का सविस्तार वर्णन है । कानून शेख के एक उच्चकोटि के और नामवर तमीम प्रसिद हो प्रकाशित होने से पूर्व अरब व भजम में यह वैद्यक गए और ६०, ६५ वर्ष की अवस्था तक अत्यन्त की एक अत्यन्त प्रशस्त व प्रामाणिक पुस्तक सफलतापूर्वक चिकित्सा कार्य करते रहे ! मानी जाती थी। कई बार लेटिन भाषा में इसका | परन्तु यह कुछ तुन्द प्रकृति के मशहर थे। यह भनुवाद किया गया । यह पुस्तक मिश्र के अपने समकालीन और कोई कोई पूर्वकालीन . मुद्रणालय में अब भी मिलती है। चिकित्सकों, यथा-शेखर ईस त्र जकरिया राजी अलोबिन ईसा aali bin-aisa-० ईसा बिन प्रभति के वचनों का खंडन किया करते थे। किसी किसी समय अनुचित वचन कह जाते थे। अली ( Ali bin Isa, Jesus Haly). यह अराक अरब के प्रसिद्ध नेत्रचिकित्सक मली बिन रिजवान चिकित्सा में यह केवल पाँचवीं शतानि हिजरी या ग्यारहवीं शताब्दि उस्ताद विद के शिष्य थे। पुस्तकों के सिवा मसीही के पूर्वाद्ध में हुए। यह नेत्ररोगों की इन्होंने यह विद्या किसी से नहीं पड़ो । इमका चिकित्सा में अत्यन्त सिद्ध हस्त थे। यही नहीं, वचन है कि विद्या जितना अध्ययन से बढ़ती है उतना पार पाठ पढ़ने से कदापि नहीं बढ़ सकती। प्रत्युत यह अपने काल के इमाम माने गए हैं।' और समकालीन और पश्चात् कालीन सम्पूर्ण सन् ४५३ ई० में खलीफा मुस्तनसर बिल्ला के चिकित्सकों ने इस विषय अर्थात चारोग की काल में प्रापका स्वर्गवास हुा। आपमे एक चिकित्सा एवं रोग विनिश्चीकरण में अली विन ! सौ से अधिक ग्रंथ लिखे हैं। . ईसा का ही अनुकरण किया है। अली( ले)मड़ी ali (le ) mari-हिं. वरुण, मली बिन ईसा के प्रन्यों में केवल एक बंध | ___ बरनावृत । ( Crateeva tapia.) "तधिकरतुल कु.हालीन" ( Book of अलाल alila-हि. वि. [२०] बीमार, रुग्ण । . Memoranda for Eye Doctor -.) i अलीवन alivan-यु० शेर । (A lion.) प्राप्त होता है । घरोगों के निदान व चिकित्सा अलीवह alivah-यु० जैतुन । ( Olive.) पर इस बंग का अपने समय का यह एक अनुपम अली(ले)वा ali,-le-va-10 जंगली अंजीर । ग्रंथ है। यूनानी चिकित्सा में अनुरोगों में यह - (Wild fig.) प्राज पर्यन्त भी एक उत्तम ग्रंथ माना जाता है। | भलीष्टः alishrah-सं० तिलक वृक्ष,तिल, भली यिन रिजवान aali-bin.rizvan-२० तिही । सिन गाछ-बं०। ( Sesamum (ali bịp Rudhwan Rodoam).aval Indicum. ) so farsto 1 For Private and Personal Use Only Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ... मालेकलीन अनमन alisa--एक बड़ी मछली जिसका शिकार अल फस alufns बुवाजी । ( Malwa ! करना बहुत दुश्तर है। Sylvistris, Linn:) भलु aluly-सं० पु त्री० (१)गान्तिका (Save... gilantika) । (२) धालु (Potato.)। ' अलयन 11āy ! -यु. एक बूटी है जो अराक में ३)तुलसीः च (Ocimum sanctu.)। . . उत्पन्न होती है । एक गज के बराबर ऊँची होती -ली... ) मूल (Root).मे. कद्विक। है। शारनाम् राम पतली और कठिन होती अलुई alhi-बं०:कालमेध, यतिक, किर्यात-१० । हैं । छिलका मदु और मूल चुकन्दर के समान होना है। (Anirographis. paniculatil, Je. 8.) फा० ई०.३ भा०। . अलगस lāya.s-ले० सित्र सक्रांतरी, सकोतरी मलुकम् alukat.-सं० ० (१) अालक एनुप्रा । ( Aloe socotrine.) ... "सन्धारण, बाल । An esciilant root अलया luya-फा० लोबिया । ( Dolichos (Atime impaulatum.) (२) winalisis. ). : प्रालबोखारा ( Pramms commis.)। अनुमन lustihi -यु० अवमून ( कपास (३.) श्रामिप, मांस । ( Flesth.) अलसून lustina. . . के पौधे के समान एक अलचा aucha-म० श्रात चा हिं० । श्राल कपौधा हे )। .. -सं० । अलह alib-सिरि० एलुमा, सित्र । (Alces.) अलुदेल alude]-सिं.० देल । (Autocampus अले alcii-मह अदरक, प्रादी। ( Zingiber nobilis.) इमका बीज खाद्य है। मेमां। officinalis.) इ. मै० मे। . अलुचिम . benyiirr-मल.. जुन्नु वेदस्तर। ! अलई alki-मह० (Dal bergin votabilis, C. Castoreum.) ई० मे० मे० । ... - Rhyth.) फा० ई०१ मा० । अलमोनम .. alininama-हिं० संज्ञा पु० अलेक्सान utoxing" [अंक एलुमोनियमAluminium. - यह एक वर्णरहित, पीतामश्वेत, स्फटिकीय अलुबह ]}y : h-फा० (3.) ऊद . पुर्वर्दह । : क्षारोंद है 'जो कॉमन गोमें ( Common. (२) उकाब । ( An eagle.) ...... gorst) या फर्जी (Turze') या दिन अलूक alika-हिं• पाल । Potato (AM ( Vhin) नामक वृद से ,जिसका वानस्पतिक 5. un campapulatum.). ... .. नाम अलेक्स युरोपियस(Ulex Europdeus) अल क aluqa- अ. पारद | Mercury( lly.. है, प्राप्त होता है। यह सायटिसस लेबर्नम् ...drargyrum. ) (Cylisis liburnin n द्वारी पाए जाने अल को , anjuqi-मुलेटी, यष्टिमध । ( Glycy.i वाले सायटीसीन (Cytisine) नामकं सत्व के समाच होता है। अधिक मात्रा में यह सबल अलूचा alicha-धान चा। . श्वासोच्छवास विषयक विषयों चेष्टावहा अलूज alija- अब मुखलासह भेद ! फारसी में : ' 'नाड़ियों को बातग्रस्त करने वाला है। इसमें कागरीसक कहते हैं। निश्चित मूत्रल प्रभाव नियमान है। अलूनी alini-घरब० लोज अद नामक एक जन्य जलोदर में इसका उपयोग होता है। "-:. इसको १ ग्रेन में अधिक मात्रा में नहीं प्रयुक्त ..अप्रसिद्ध बूटी है। अलफ़न aalifan-यु. मयभेद जिसको मैफ़-: करना चाहिए । जल में सुबिनेय हाइडोलोमाइड एतज ( खटमिट्टा ) कहते हैं। . . नामक लवण प्रयोजनीय है। इसको स्ट्रिकूनीन rrhizre.)... . . तथा हृद्रोग For Private and Personal Use Only Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अल्कम् "कुचलीन का अंगद बतलाया जाता है। (वि/ अलौह शस्त्र alouha-shastra -सं० पु० घम- मे० मे०)। -शस्त्र ! वह शस्त्र जो लोहे द्वारा निर्मित न हो। मलेथो alethi-40 कुकपाल कुडा--ते। वा० सू० अ०२६ । मलन alen-मह. सोंठ, शुडि।( DIvoin बल alan -अभ्य० देखो--प्रलम। " अलबुष alambusha-हिं० संज्ञा पु. [सं० भलैकः alaikah -सं० प. काकोली पुष्प ।' अलंम्बुषः] See-kakoli pushpa. : अल बुषा alambusha-हिं..संज्ञा स्पी0सं. मलैग्ज़ेण्डियल लॉरेल alexandrial laurel प्रलम्बुषा] । -ई० सुल्तान चम्पा-हिं । पुन्नाग-सं०। (Calo a अाफ्स aliafsa. अ० अफ़्म असुल बलूत । phyllum Inophyllum, Linn.) ___माजूफल, मायिका-हिं० | Galls (Ga lla.) देखो-- मायाफल । . फा००१ भा०। अल्लाबह alia bah-१० (ब. घ.), अलोणा alonā )-हिं० वि० [सं० अल लुआब (ए.व.) Mucilaget अलोना alonāवण] [स्त्री० अलानी] श्रु अल,aalaal । अलुना, बिना नमक का, जिसमें नमक न पड़ा हो । स्वादरहित | Not salt, fresh, ! अल्भाले jalaalanj उल्ल , alllauj -० (१) असिवत् saltless, insipid.) उपास्थि जी प्रामायिक द्वार या कोड़ी के स्थान अलोपा alopi-हिं० संज्ञा प० [सं० प्रलाप ] पर होती है। एक पेड़ जो सदा हरा रहता हैं। इसके हीर की । (२) शिश्न, शिथिलावस्था का शिश्न । - लाल और चिकनी लकड़ी बहुत मज़बूत होती . (Flinecid pevis.) है, नाव और गाड़ी बनाने में काम आती है तथा अल्सा alia-अ. अंगुली का अस्थियाँ । घरों में लगती है । इसकी लकड़ी पानी में खराब अल इत रियून al-itriyuuu-यु० निरसाउल. नहीं होती। हिमार, बिन्दाल, देवदाली । (Ecbellium अलोमशः alomashah--स. प. मत्स्य वि- elateriiin.) 'शेष, मछली । (A kind of fish. ) अल्ऊनह, alaunah-अ. ग़ाज़ह, गुलाबी ___ गुग--मत्स्य मांस बलकर, शुक्रवर्द्धक और उन्टन । पुष्टिकर है । ग०नि० २०१०। । अल्उश्व तुल हरिशयह, laushbatul-habअलोमशाlomasha..सं. ना. वृक्ष विशेष। shiyah-अ० जदो०, कस्सू, कौसू-उ०,फा० । कांगझाइ--मह । (A kind of tree.). Cusso ( Kousso ). - नि । अल्कः : aykah-सं० पु.. (1) वृक्ष. विशेष अलोम्बilomhi..बम्ब: मरखेला (A tree.)। (२) शरीरावयव (All ....मोकशा, चम्बा, स्खुम्बह । .. ___oryain of the body.) ३० निघ। - अल्कह, alth-३० : कपड़ा जो बालक अलाहितम् alohitan--सं० की. (१) रत पन, लाल कमल ( Red lotus.)। (२) उत्पन्न होने के पश्चात प्रारम्भ में उस पर ..ईपद्रक पद्म । - लपेटा जाता है। .. मलाहित alishita-हिं. संज्ञा पु. श्वत । . अस्कम् aligan -१० इन्द्रायन का फल । अल्कम् algam-१० हजल ।' इन्द्रायन--हिं० । मलाहितसत्वम् a lohitia-sarvan-सं: क्ला (Citrujlus : colocynthes)। (२) , (White clipistic.) वनाणु। कडुश्रा पौधाः। (३) बिन्दाल ।। For Private and Personal Use Only Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अल्जाज़ार अस्क alka-अज्ञात । अल्कुसा alkusa -० (1) प्रकासवेल । अलकत्तानुल मुस्हिल. alkattanul-mus.. अल्कुसी alkusi (Cuscuta refl hil- अ० कत्तान मुसहिल । सारक अससी। exa.)।(२) केवाँच । (Mucuna pruriPurging flax (Linum cathar i ens ) ticum.) मल्कुहाल alcohol अलकन alkall-अ लुकनतवाला, यह जो अटक अल्कुहा (हाल मु.लकalkuba-o-l mullaqs अटक कर बोले। लिस्पर ( Lisper ) ई० । भ० मद्यसार, पेलकोहल | Alcohol (Alc obol absolutu n.) (२) गुग, गुगा, गूंगा। उम्भ ( Du मस्केनाइट alkanite.. mb)-to मक्केनेट alkanet अल्कम् alqam-4. इन्द्रायण । ( Citrullus colocynthes ) रतनजोत । ( Ratana.jota.) अल्केन्ना टिकटोरिया alkanna tinctoria, अल्कम्यीत algumbita-१० फूलकोबी । (Bra. Tunsch.)-ले० रतनजोत । अलखना-अ० ssica botry tis ) { हैं. गा० । (Alkanet)फा०.५ भा०। अक्काक्नज alkakanaja-अ० राजपूतिका, अलकेली alkali-t. क्षार । . बन पूतिका-सं० । पपोटन..हि. Alkeke. ज alkekengi-इं.काकनज, पपोटन । ngi ( Solanum vesecareun.) । (Solanum vesecareum.) देखो-काकनज । अल्कोहॉल alcohol-- मथसार, । अल्कादलहिन्दो alkadul-hindi- अ० कृष्ण | देखी-ऐलकाहल । स्वभिरमार, काला करथा । Black ca te- | अलखना alkhanna.अ. रतनजान । (Alka. Catechu nigru ). yet.) फा० इ०२ भा० । प्रस्किरसुल माई alkilsulmai स्वद alkhar baqul-asvada अस्किल्सुल मुतफ्फा alkilsul-mutaffaj -अ० कुटकी कटुकी । (Ilele borus) -अ० शांतचूर्ण, बुझाया हुअा चूना | श्राहक प्रायः अलखश्वल मुर्र alkhashbul-imurra-अ. दीदह,-फा• Islaked lime (Calcii | चोब कासिया-फा० । Quassa. wood hydros.) (Quassice lignum.) अल्की aaiqi-करवजाननजा हीथ(Heath)-०।। | अल्खस्सुज़हम alkhassuzzahm-अ. काहू Erica-ले०। (Portugal broom.). का इस्त, काहू वृक्ष | ( Lactuca viroहै. गा०। sa.) अरकोना alkins अ. कीना कीना । ज्वरहर स्वक, अल्गुसो algusi 1-40 अमरवेल, सिन्कोना । Cinchona Bark (Ciry- अल्गुसी लना algusi lata / प्रकाशबेल । chonæ Cortex. ) . (Cuscuta reflexa) मेमो०। -अकीनाउल ,हुमरा aikinaul-humra-१० | अल्गराड gandi सं . कीट जिनके लाल सिक्कोना-हिं० । वर्क सुख-फा | Red अल्गराडन algandin ) काटने से खाज Cinchona bark (Cinchonæ rub. __ पैदा हो । मथः । सू० ३१ । ३ । का० २।। rae cortex.) अल्जयमार aljazzir--१० अबु जाफर अहमद अरू कमि दुल अस्पद alqumihul-asvad बिम इब्राहीमुजाजार कैरवों का निवासी और अ० शैलम । गन्दुम-दीवाना-फा | Ergot हकीम इस्हाक दिन कुस्तार यहूदी के शिष्य थे । ( Ergota). देखो-अगोटा। आपके लिखित ग्रंथ हिदायतुल गुर्था और एक For Private and Personal Use Only Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अजमह चौर वैद्यक ग्रंथ यूनानी व लेटिन तथा इमानी, अपकः alpakah - सं० पु० अल्पक alpaka-हिं० संज्ञा पुं० भाषाओं में अनूदित हुए हैं। मिश्र में आपने जग के सम्बन्ध में प्रत्युत्तम अनुसंधान किए थे । (१) अजिज़्ज़ारहू ( Algizar ) ' ( २ ) अलग जिरह | (Algazirah ) अल जमरह aljamaral:- o (Anthrax) देखो - ऐथ क्स । अल्जावी aljavi - शु० जात्री | देवधूप, लोबान, राजराज | Benzoin ( Benzoinum ) म० अ० डॉ० । ! जो जुल्मुकईaljouzul-muqai-० अ रानी, कातिलुल्ल्य । कुमिला, विष मुष्टि-हिं० । (Nux vomica) ७१३ अल्टम् altorcum - ले० अजवाइन खुरासानी, पारसीक यमानी | (Hyocyamus niger) फा० ई० २ भा० । i अल्ट्रा वायलेटरेज़ ultra-violet-rays-इं० प्रकाश जिसकी लहरें हमको दृष्टिगोचर नहीं होतीं । इनके त्वचा पर असर पड़ने से हमारे शरीर में स्वायोज ४ बनता है । देखो-खाद्यज । अस्तमाकुन altamaqun यु० जावित्री । (Mace ) अल्तु alta - ० जिसके दाँत गिर कर केवल जड़ें शेष रह गई हो । अल्तुस्त altusta - मीग्रहे साइलहू प्रसिद्ध । सि (शि) लारस । (Styrax preparatus). अल्द ānlda - श्र० ( १ ) ग्रीवा की नाही, मैत्र बोध तन्तु ( Cervical uerve.) । ( २ ) कठोरता | सख्ती । ( Hardness ) अश्नगुल alnaghia - एक बूटी जो विषखपरा के समान होती है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यास तुप । जवास का पौधा । दुरालभा । ( Albagi maurorain.) रा० । - वि० [सं०] थोड़ा, कम । अल्पकेशिका alpakoshika अल्प फेशी alpakeshi अल्पतनुः } भूतकेशी, भूतकेश ( Corydalis govoniana ) । चामर कषा - बं० । प० मु० । २० मा० । रत्ना० अल्पगन्धम् alpa-gandham-सं० क्लो० अपगंध alpa-gandha - हिं० संत्रा पुं० (१) रक्त कमल । ( 'The red lotus.) ० निघ० । (२) र कैरव, रक्त कुमुदनी, लाल कूँ हूँ । अल्पगोधूमः alpa godhúmah - सं० पुं० गोधूम । प० मु० । मद० ० १० । ( 'Trina godhúna. ! - सं० स्त्री० अल्प घटिका alpa chantika - सं०ली० हस्त्र शण पुष्पी, लघु शण वृक्ष | सन - हिं० । लघु शण गाइ-बं० । लघुताग मह० । (Crotalaria juncea . ) 15 ′′ अल्पजीवी alpa-jivi - हिं० वि० [सं० अल्पजीविनू ] थोड़ा जीने वाला। जिसकी आयु कम हो । अल्पायु | For Private and Personal Use Only अल्प ज्वराङ्कुशोरस: alpa-jvaráukuşhorasah - सं० पु० पास, मीठा तेलिया, गन्धक प्रत्येक १-१ भा० धत्तूरबीज: ३ भा०, त्रिकुटा १२ भा० सबका महीन चूर्ण कर रक्खें जम्भीरी या अदरख के रस के साथ इसके सेवन करने से हर प्रकार के ज्वरों का नाश होता है । भै० ० ज्वरे । f अनीयून alniyun - यु० रासन | ( Inula helenium) इं० हैं० गा० । अल्प alpa - हिं० वि० [सं०] थोड़ा, किञ्चित् कुछ कम, न्यून ( Little, few )। ( २ ) छोटा | (small, short.) अल्पम् alpam - मल० ( Bragantia wal- अस्पतक्षुः alpa-tanuh-सं० श्रि० खर्व्वं । lichii. ) अम० । कुब्जक । श्रल्पचेष्टावन्त alpa-cheshtá-vanta-सं० पुं० ( Amphiarthrodial ) वह जिस में थोड़ी ही गति संभव हो । Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अल्पतर पाष्टका अल्प मस्तक अल्पतर पाष्टंकी alpatara-parshtakiअल्प पत्रकः ।pa-patyakah-सं० पु'. -सं० स्त्री० (Smallel oecipital) गिरिज मधूक वृक्ष, पर्वतीय महुश्रा का पेड़ । पृष्ट की मुद्रतर पेशी। पाहाड़े मौल गाछ-बं| Passia latifolia अल्पदाहः alpa dahali-सं० पु. (the wild var.of-) रत्ना। अल्प दाहेष्ट alpa-daheshta अल्प पत्रिका alpa-patrika.सं. स्त्री. रक्त अल्पदाहेष्टका पथ alpa-daheshtaka- ।। अपामार्ग 'तुप, लाल चिर्चिटा । (Achyralpatha _thus inspera rubrun). ! ग० नि० खस, उशीर । (And pogon muri- : व०४। catus.) अल्पतम प्रौथा alpa tam-prtunthi-सं० ! अल्प पत्रो alpr-patri-सं० स्त्रा० (१) मिया, खी० (Glutells manmas.) न- साश्रा (Feniculum panimori1.)। म्बिका लप्पी, नितम्बकी सबसे छोटी पेशी । (२) मुषली-सं०, हिं । ताल मूली-ब। अलप चेष्टावन्त संधिःalpa-cheshtavanta-| ( Ilypoxis orchioides.) निघ०। sandhib-सं० प. (हिं. स्त्री) अल्प पमम् alpu-padmam-स० क्ली. रक्त (Partially movable joint, amp पद्म, रनोत्पल । ( The red lotus.) वै. hiarthrosis) वह चल या चेष्टावत संधियाँ 'नघ० द्रव्य गु०। जिनमें थोड़ी ही गति संभव है जैसे कशेरुकानों के अलप पर्णिका alpa parnikā -संस्त्री० गात्रों की संधि, विटप संधि अक्षक और स्कं- अलग पर्णी alpa-pit.lni मुद्गपर्णी, धास्थि की सन्धि, अक्षक और वक्षोऽस्थि की बनमूग । मुगानी-बं० । ( Phaseolus संधि श्रादि । मसिल असिर, मफसिल trilobus. ) व०निघ०। इतफ़ाक़ी--अ० । अल्प पीना alpil pinā-सं० स्त्री (Small अल्पनायिकाचूर्णम् alpa-nayika.chinam saphenous.) पिराडली की छोटी शिरा। -सं० ली० ग्रहणी में प्रयुक्र एक रस विशेष । अल्प पुषिका alpa-plishpika-सं० स्त्री० पञ्च लवण और त्रिकुटा प्रत्येक ३-३ शाण पीन करवीर, पीतपुष्प करवीर, पीले फूल का गंधक ८ मा०, पारद ४ मा०, भंग १ पल कनेर । Nelium odorum (The ३ शाण | निर्माण---सर्व प्रथम गंधक और पारद! yellor rar. of--) वै० निघः । की कजली कर फिर शेष श्रोषधियों का चूर्ण डाल ; अलप प्रभाव alpa-prabjava-हिं० पु. कर भली प्रकार घोट कर रखें। मामूली असर। मात्रा १ शाण । 'अल्प प्रभारणकः alpa-pramanakah अनुपान-काजी। अल्पनिद्रता alpa-nidrata-सं० नो० पित्त । अल्प प्रमाणक alpa-pramanaka ---सं० पु. जन्य निद्राल्पता रोग। (Biliary Insom -हिं० संशाप nia.) वै०नि० । लतापनस । र मा०। चेलानक (1-- अल्पनैतवी alpa-haitari-सं० स्त्री० ( Pso- खरबूजा । २-तरबज़ )। चेला तरमुज, खर___ as minor. ) कटिलम्बिनी लघवी । मुज- बं० । वैः निघ । (Cucurbita citभरूप पत्रः alpa-patrah-सं० पु. (१) rallus.) देखो-नरम्बुजम् । क्षुद्रपत्र तुलसी क्षुप । (Ocimum sanc. अल्प मस्तक: alpa-rn as taka h सं० प.. tum.) र० मा० ।-को० (२) रक पन, लाल चित्रक चुप, चीता । ( Plum bago zeyla. कमल । ( The red lotus.) र० मा०। nica.) वै० निध० । For Private and Personal Use Only Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रामक्षिका अल्पायुषी अल्प मक्षिका alpa-makshiki-पं० स्त्री० पक्षी, तीतर | A partyidge ( Perdix मक्षिका विशेष, छोटी ( मधु ) मक्खी । ( A francolinus.) मद० व०.१२। . little bac.) वै० निघः। अल्प-शाषकुलो alparshāshkuli-सं० खा. अल्प मानक: alpa-manakah-सं० पु. (Helieis minor.) बिल्व गंध तुलसी । (A kind of Basil.) ! अल्पपशुक्र alpa-shukra-सं० वि० अल्प . वीर्य । अलर मारिषः alpu-mātisha.h-स. पु. : क्षुद्र मारिष । अलप मरूषा, छोटा मर्या, चौलाई | | अल्पशुक्रता lpa-shukrata-सं० स्त्री० पित्त -हिं । काँटा नटिया वा चाँपा नटिया-बं० ।। ___ जन्य शुक्रालपता रोग, वीर्य की कमी । वै० निघ० । थो तांडलजा-मह0 । ( Prickly amara-| nth.) अम० । इसके शाक के गण-ग्रह | अलपवत्त ला alpa-vart | अलपवत ला alpa-vartula-सं० स्त्री० (Te. लघु, शीतवीर्य, रून, पित्त नाशक, कफ नाशक, ___es minor.) बेलना लचो । मन्नमूत्र निस्मारक, रुचिकारक, दीपन और विष | अल्पशोफः alpa-shophah-संप सर्वाति नाशक है । भा० पू० १ भा०। देखो-रडु. रोग। वै० निघः। लीय (चौलाई)। अलपस्कैची alpa-sphaichi-सं० स्त्री० अल्पम् alpam-मल. ग्रेगेरिटया वैलिचिपाई (small sciatic nerve.) Txur GT (Bragantin wallichii, R. Br.) नाड़ी। -ले । अलपहार्दी alpu-hārdi-सं-स्त्री० हार्दीया हस्त्रा। मद्रजटा या ईश्वरमल वर्ग (Small cardiac. ) (N. 0. Aristol.chica P.) अलगदुपा alpa-kshupa-सं० सी० द्वस्व, उत्पत्ति-स्थान-डेकन प्रायद्वीप, पश्चिमी लजालुका । वै. निघः । बढ़ी लजाल । रा० वन दक्षिण कोकणसे दक्षिणको ओर । प्रयागांश-- नि० । बृहहला । पन। उपयोग-इस वर्ग की बहुशः वनस्पतियों । | अजपा Ipākhyah-सं०० नेत्र रोगा. - के समान इसकी पत्तियों का स्वरस विषात सर्प तर्गत एक प्रकार का पिन्छ । विशेष । वा० दंश मुख्यतः कोबरा विष का प्रगद है । फ्रा . उ०प०१६ । यातोलोमित्रो (याग्रा पृ० ४१६) मालाबार अल्पायुः lpayuh-सं० पु०, त्रि. की एक उनि का वर्णन करता है। उसका कहना | अल्पायु alpāyil-हि. संज्ञा पु.. है कि ज्यों ही अल्पम् शरीर में प्रविष्ट होता है (1) छाग, छागल, बकरा (Goat.)। स्थाही विष उसे छोड़कर पृथक् हो जाता है। ___ -वि० [सं०] | थोड़ी प्रायुः वास्ता । फा०ई०। जो थोड़े दिन जिए । जो छोटी अवस्था में मरे । पश्चिमी किनारे पर यह सर्व श्रेष्ठ सशक अल्प जीवी, शीघ्र मृत्यु, शीत्र मरने वाला । औषधों में से है। वैट। (Shortlived, young. of a few अल्परसा alpa-rasa-सं० श्री० हैमवती । रा० years.) नि०५०२३| See-Taimavati. अल्पायुषो alpayushi-संस्त्री० कटकली, साली अल्पवयस्क alpa-vayaska-हिं० वि० [सं०] | कोरिफा अम्बेक्युलिफेरा ( Corypha umb [स्त्री. अल्पवयस्का ] छोटी अवस्था का । थोड़ी raculifera, Linn. )-ले० । टाली-पॉट उनका । कमसिन। (Tali.pot) या फैन-पाम ( Fan-palm) अल्पवर्तकः alpn-varttakah-सं०पुतित्तिर -इं० । बजर-बद्दू-हिं० । ताली-। कोड-पाणी, For Private and Personal Use Only Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अल्पास्थि ७१६ शेद्लम् ता० । श्री तलमु ते० । बिने, श्री ताली अल्फजन alfajan - हिंο -कना० । कुट-पास, ताली पान-मल० 1 नालटमड्डी-फो० | ताल - सिं० । पेङ्ग बं० । ताल वर्ग ( NO. Pamac.ece. ) उत्पत्ति स्थान - दक्षिण भारत । प्रयोगांश पत्र वा सागू | उपयोग - उक्त वृक्ष के गूड़े से एक भाँति का सागू प्राप्त होता है । लोग इसे श्रखली में कूट कर श्रादा बनाते हैं और इसकी रोटी बनाकर फसल पकने से प्रथम इसे अनाजके स्थान में व्यव हार करते हैं । इसका स्वाद श्वेत रोटिका के समान होता है । साधारणत: इसे निर्धन व्यक्ति व्यवहार में लाते हैं। इसको काँजी भी तैयार की जाती है जो सागू, श्रारारूट, यत्र वा जई के समान एवं लगभग उतनी ही पोषक होती हैं । इं० मे० मे० । अल्पास्थि alpásthi - सं० लो० परुषक फल, फ(फ)लसा । ( Grewia Asiatica. ) रा० नि० चं० ११ । भा० पू० १ भा० । अल्पाहार alpáhára-हिं० पु० थोड़ा खाना, लघुश्राहार | ( Moderation, Abstinencè.) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अल्फाज़े azm-नंग } ula stoechas, ३ भा० । अल्बर्जीम उस्तु, खुद्द स भा० बाज़ा० | Arabian or French lavender ( LavandLinn.) फा० ई० .} पारो-हिं० । } - ६० artho-naphthol नेफ्थाल यह टिश फार्माकोपिया में नीट श्रीफ़िशल है , देखो - तेफ्थाल ( Naphthol ) अर्थात् विलायती कपूर | अल्फ़ियह् aifiyah-फा० ज़कर, थालहे तनासुल - अ० । शिश्न, लिंग, उपस्थ । ( P2nis.) अल्फ़िल फिलुल् श्रस्त्रद a|filfilul-asvad - अ० श्याम मरिच, स्याह मिर्च, काली मा गोल मिर्च | Black pepper liper nigr um. ) अल्फाज़न alphozole - ६० यह एक सूक्ष्म रावत ( स्फटिकीय ) चूर्ण है जो सकलीनिक एसिड और हाइड्रोजन पर ऑक्साइड के पारस्परिक क्रिया व प्रतिक्रिया द्वारा प्राप्त होता है । For Private and Personal Use Only अल्पिका alpika - स० ० ( १ ) बन मक्षिका जाति, डाँस | (A large mosqu ito, a gadfly ) हैं ० ० ४ । (२) मुद्गपर्णी ( Phaseolus trilobus ) भा० पू० १ भा० । अल्पौरसी alpourasi सं० स्त्री० ( Pect· oralis minor ) उरसादनी लघवी । अल्फ़ alfa-कटुकली, ताली-सं० । बजर बट्टू - हिं० । ( Corypha umbracalifera. ) देखो - अल्पायुषी । छलफãalfa-अ० इ ( अ ) स्पस्त - फा० | See i(a)spasta ( Trifoliun pratensis.) अल्ब] alba-अ०] ज्वराधिक्य, उमाधिक्य । तृषा | फोड़े फुन्सी का अच्छा होने लगना । ( २ ) एक जंगली काँढादार वृक्ष है । यह विषैलां होता है । श्रल्पक alfaq-अ० ( १ ) बाँय हत्था, बाएँ अबर्जीन albergin-ई० सिस्वर ग्ल्यूटीन हाथ से काम करने वाला - 1 ( २ ) मूर्ख । (Silver glutin.) । इसमें १५ प्रतिशत स्वाद - सूक्ष्माम्ल और तिल जिससे पश्चात् को धातुवत् स्वाद का बोध होता है। घुलनशीलता - यह एक भाग ६० भाग जल में लय हो जाता है । प्रभाव - इसको निर्विषैस कीटाणुहर रूप से व्यवहार करते हैं । मात्रा-१ रती ( घोल रूप में ) । देखो - हाइड्रोजीनियाई पर श्रीक्साइडाई लाइकार । Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir নি अश्मिराव um.) ris. ) चाँदी होती है। यह एक भाग २ भाग जल में करी -हिं० । पपरी, खुलत्र, अर्जन-4.। भय घुल जाता है। इसके .२ प्रतिशत का घोल -ता। नम्ली-ते. । रसबीज-ना० । ग्यौक सूजाक में और प्राधे से ३ प्रतिशत का घोल नेम्र सेइस-घर०। रोगों में लाभदायक है। प्रयोगांश--श्रीज पत्र । अलवान albāna-० ( ब. घ. ) लब्न उपयोग -तैल, औषध, खाध । मेमो० । (ए. ३०), दुग्ध (Milk.)। अलमस कैम्पेस्टिस unus campestiis, अल्बूतासुल कावी albutasulkavi-अ० Linn. युम्बोक-लेद० । प्रान, प्राह्मी, काइ दाहक पोटाश । Crustic Potash -प ( Potassaca-usticn. ) । देखो-- प्रयोगांश--स्वक, पत्र । पोटाशियम्। उपयाग--औषध, स्वाय । मेमो० । अलबुताल कित्सी albutasul kilsi-अ० अल्मस वालिक्याना lunls wallichiana, बाहनानुलेपन । देखो--पोटाशियम् । Viena Plench-ले. कैन, अन, अमाइ, मसरी-401 Pilste (Putassi cum calve.) मोरेद, पबुन-हि. प्रयोगांश-स्वक् तन्तु, पुष्प अलबूत । स्यूम albutasyaina-० पांशु. इंडी, (पुष्प वृन्त )तन्तु और पत्र । उपयोगजम्। देखो-पोटाशियम् । ( Potassi. ! तन्तु और खाय । मेमा० । श्र(ऐ)ल ब्युमेन albumen इं० प्रणलाल, अल्मोपून alinānāna-अ० जंगली पुदीमा, अण्डश्वेतक । ( White if egg. ) पहाड़ी पुदीना, हाशा । ('Thyimus Vuigaअल्मतरून linaqtarina-यु०कहरुवा ।। अम्माल almāsa-० हीरक, वघ्रम्-सं० । Succinumn (Amber. ; अजमग्नोलियाउल खफ़ोफा aimaghiisiya | हींग-हि. | Diamond (Admas.) भरिमराय almin ao-गो० पथरी-बम्ब०। लॉui.khafifah-० हलका मग्नेशिया, निमा पाइनेटिफिदा ( Launcea pinna. सूचम मग्न। ( Magnesia levis.)। tifida, Cuss.)-ले० । स्त्रीस्त्रोमा, बनकाहू मैग्नेसियम्-देखो । -सिन्ध। मनमग्नीसियार.स्स.कोलह a]maghuisiyi-/ मिश्र वा तुलसी वर्ग tussaqilah-० भारी मग्नेशिया । (Mag. (...O. Composite. ) nesia ponderosa. ) देखो-मैग्ने उत्पत्ति स्थान-भारतवर्ष के रेतीले किमारे, सियम् । बंगदेश से ला पर्यन्त, तथा मदराससे मालाबार भलमनाज़ियहु..स्स.कोलह almanaziyahus पर्यन्त | saqilah-१० भारी मग्नेशिया (Naginesia. ponderosa.)। देखो-मैग्ने प्रयोगांश-पञ्चांग (सम्पूर्ण पौधा), स्वरस | सिनम् । यानस्पतिक विवरण-काण्ड ( Filifभलमनाजियाहुखमकल्ललह, almanariyah. orin ) तथा भूलुरित होता है । , ul.m.kallash-. इलका मग्नेसिया, इसमें इतस्ततः पत्र एवं मूल लगे होते हैं। पत्रसूक्ष्म मग्न । (Mangnesia levis.) देखो-- एकत्रीभूत, शिखरयुक, स्वर बहुकोणीय को मैग्नेसियम् । .. . म्यूनकोणीय वृन्त (Pedancles ) पत्र को अलमस इण्टे प्रफोलिभा ulmus integri. अपेक्षा स्वतर, होता है। इसके शिखर पर folia, Roxb.-ले० पपरी, धाम्ना, कुज, । सिसकाथुक्रोपिक पत्र होते हैं जिसके किनारे For Private and Personal Use Only Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org मिलहुल इस्लीज़ो चिह्न युक होते हैं। मूल मांसल, ६ से 5 इ लम्बे, नवीन होने पर पीताभश्वेत होते हैं । : ७१८ उपयोग - गोया में श्रस्मिराव नाम से यह अरण्य कासनी ( 'I'mrax cum ) की प्रतिनिधि रूप से अधिकार में भ्राता है । बम्बई में पथरी नाम से (महिषी) को दूध बढ़ाने के लिए दिया जाता है | मुर्रे उक पौधे को सिंघ का धनका बतलाते हैं, किन्तु उक वन उचित रूप में भत्तल वा स्थल ( Lamwa nudicaulis, Less.) का हैं। उनका और भी कहना है कि चनका स्वरस को खी-खांबा (सिंध मैं ) कहते हैं तथा यह बालकों के लिऐ श्रद्ध माशा की मात्रा में निद्राजनक है और आमवात विषयक व्याधियों में कर तैल तथा वाइटेक्स ल्युकाविज्ञलोन ( Vitex loucoxylon ) के स्वरस के साथ इसका बहिर प्रयोग होता है । डाइमा | श्रतिम.हुल इन्कुलीज़ी almilhul-ingalizi श्रल्मिल, हुल्मुरुल् मुस्हिल & milhalu - rrulmushil ० नमक मुस्हिल- फा० मग्नेशिया - उ० । मग्नगन्धेत्, विरेचक लवण | ( Magnosii sulphas.) अल्मीऋतुस्साइल,almiaabussáilah o मी साइलह - फा० । सिल्हक, शिलारस । (Styrax præparatus-) कल्यह, aiyah-० (१) नितम्ब, चूतड़, चूतड़ का मांस | तरि नयह, अल्यतैन । ( २ ) बड़े चूतहों वाली छी । इसका बहुवचन "लाया" है | नेट ( Nate ), चटक ( Buttock) - इं० । भल्याफ़ alyáfa-- ० ( ब० व० ), लैन ( ए० व० ) तन्तु, रेशे, शरीर तन्तु । फ़ाइबर्स ( Fib ers. )-इं०। अल्याफ़ " यह alyáf -āazliyah - अ० मांस तन्तु, मांस धातु । मस्क्युलर फाइब ( Muscular fibers. ) - ई० । अश्यास्मीनुल अफर alyasminul-asfara Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir थलि., स्था • अ० स्वर्ण जाती, पोली चमेली (Gelsemium witidum.) ल्युमिनियम् देखो - एल्युमिनियम | श्रल all - हिं० पु० त्रिश्रा । ( Girardinia heterophylla) अल: allakah - सं० पू० (१) कक्कोल ( कङ्कोल ) विशेष, शीतल चीनी । ( The fruit of Cocculus Indicus. ) कनखल पं० । ( २ ) धान्यक, धनियाँ | ( Coriander ) घने बं० । ० नित्र० । अलका allaká-सं० स्त्री० धान्यक, धनियाँ | धने - बं० । (Coriandrum sativar) वै० निघ० । वत्सलता alla-batsa-latà - ते० पोल - दि० । कुती पूई-बं० 1 ( Basella cor difolia, Loz. ) मेमो० । luminium ईं० फटिकम् ! अल्लम alum ते० अदरख, भादी | ( Zingib er officinalis. ) देखो - आई । अलमण्ड कंथार्टिका allamanda cathar tica - ले० पीत करवीर, पीला कनेर-हिο। मेमो० । श्रज्ञाहलाllahiáh अ० सूरिइजान । ( Colchicum.) अल्ला allá-सं० स्त्री० (१) मातर, कृमि 1 ( २ ) धान्यक, धनियाँ । धने- बं० । ( Coriandrum sativum ) - पं० ( ३ ) कवेटा, अगलालग, किंगली - हिं० | ( Mi osa rubicaulis, Lirm ) मेमो० । अल्लाई allai-हिं० संज्ञा स्त्री० [सं० श्रर= शब्द करना ] चौपायों के गले की एक बीमारी । चॅटि यार । For Private and Personal Use Only श्रलाप alláp-गु० भयापना-दि०, बै०, मह० ( Eupatorium ayapana, Vent.) फा० इ० २ भा० । अह्नामह, àallámah-५० महान विद्वान । अल्लिस या allisya - अ० मात्रम् | देखो - लिथि अम् (Lithium.) S Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७१६ अल संघ अली alli-मह० मंगनवेर । बरडी गर्जन-ते० उपयोग-इसकी जब बल्य एवं सङ्कोचक रंगड़ी-मल० । (Dalbergia volubilis.) ख्याल की जाती है। कनावार में इसकी टहनी शिम्बी या वर वर्ग मसूरिका वा शीतला के रोगी के हाथ में रोग(N.O. Leguminosce ) मुक्रि हेतु दी जाती है। स्टयुघट । उत्पत्ति-स्थान-हिमालय के निम्न भाग, अल्लीपाallipa-गु० प्रयापना | ( Eupatoriकुमायूँ से पूरब, मध्य और दक्षिण भारत।। प्रभाव तथा उपयोग-इसके पसे का रस um aya pana) ई० मे० मे० । कंरक्षत में गंडष रूप से व्यवहार में आता है। अल्लोफूल alliphila-दनिलोफर । (Nyin. सुजाक में इसकी जद का रस जीरा और शर्करा . phaca lotus.) ई० मे० मे । के साथ प्रयोग किया जाता है। मेमे अलीबीज alli bija-कना०, खान दे. चन्द्रसर । अल्ला a.]|i-० (१)अञ्जन, कर्या-बम्ब । कपाउ (Lepidium sativum.)ई. मे० मे० चट्टी-ता०। ( Memecylon edule, . अल्लु alu-सं० क्ली. पालक, पालुबोखारा । Rori.)। प्रयोगांश-पुष्प, पत्र व फल । उप-: ( Prunus Communis)। म० द० योग-रंग, औषध और खाद्य । मेमो०। (२) व.३। ता. नट्ट विल । म्या-शोक-बर० । मासुन्द, । अल्लुपु llupu-ते. गजनी--हिं० । गुच्छः-सं० । रूखा,चान्दल, चाँदकुड़ा, चार बार-मादा-बम्ब०। (Andropogonmardus ) ई० मे० पण्टिएरिस टॉक्सिकेरिया ( Antiaris toxi.. मे०। rin Leesclh.) प्रयागांश-राल, तन्तु, बीज । उपयोग–निर्यास, तन्तु और औषध ।। अल्वान alrana-. (ब. व. ), लौन (१०व०), रंग, वर्ण । ( Colour). मेमा। अली यान allfiya-हिं० कचूर । ( Cornus अल्शी विरह alshi-virai-ता. अलसी, अतसो, arati Linseed (Linum usitati___macrophylla.) मेमो०। ssimum.) अल्लाकाडllikid-ते. निलोफ़र । (Nymphi a lotus.) ई० मे. मे. अल्स nisa-अ० उन्मत्त, पागल, दीवाना, खम्ती, अल्लीचट्ट allichettu-ते० किङ्गाली--हिं। बावला, मज्नन । ( Insane, frantic). अञ्जनी सं० । ITOl-wood tree (No. : अल्स ग alsip. -अ० तोतला, mecylon clule .) ई० मे० मे०। अल्कन alkan ) तुतला कर अल्लीच, allicheddiते. अञ्जन, लोखण्डी बोलने वाला । वह जो "श" को 'स' और "र" -मह । (femecylon edule, Rab.) को "ल" कहे । लिस्पर ( Lisper )-इं०। फा० ई०२मा०। शीनीज़ alshiniza -१० कालाअल्लातामर ali-tamar-ते. निलोफर । अलशनीज़ alsbiniza जीरा, मंगरेल | अल्लातामरई alli-tainarai-ता० । (Nigella sativa, Silthorp). (Nymphix? a. lotus) इं. मे० मे०। | अल्सतून alsatina-० असन्तीन । (A bsinअल्ली पल्ली alli palji-पं० साउन्सपाउर, सेन्स thium ). रपाल, सतजर-प. | ऐस्पै रेगस फिलिसिनस अल्सन alsan-यु० एक वनस्पति है। (Asparagus filicinus, Ilum.). moi शतमूली वर्ग | अल्सन्दा alsanda-40 सेम-हि. । शिम्बी (N.O. dsparagacete ) -सं० । ( Dolichos lablab, Linn.) उत्पत्ति स्थान--पात्र,हिमालय ३०.. फो. अल्संध alsandha-हिं० मोट । (Vetches, से १०० फीकी उँचाई पर । प्रयोगांश-मूल ।। lenus) For Private and Personal Use Only Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रत्सा प्रवकर प्रश्सा alsa-फा (१) मरोडफली, पावर्तभो । बलपूर्वक किसी पदार्थ को एक स्थान से दूसरे (Helicteres isora)। (२) खित्मी स्थान में लेजाना । खींच ले जाना । (Khitmi)। (३) अजवाइन ! Carum अवकादन avikidan-काई ( Moss )। Copticum (२) फंगस । अथर्व •सू० ३७ । १०। अल्सी का तेल alsi-ka-tela-हिं० पु. अलसी | का०४। तैल, तीसीका तेल, अतसी तैन । ( Linseed | अवकाश Avakash-हिं. संचा पु० [सं.] oil ). (1) अवसर, समय, सुभीता । ( opportuअल्ह मजा लू जावो alhamzul-javi-१० nity) विश्रामकाल, वाली वक्र, छुट्टी, फुर्सत | तेज़ाब लुबान, लोबान का फूल, लोयानिकारत । ( Leisure | ( ३ ) स्थान, जगह, (Acidum benzoicum ). ( space.)। (४) आकाश, अंतरिक्ष, अल हलो वल्मुरं alhulo-valmurra- १० शून्य स्थान । (५) दूरी, अंतर । फासिला । काकमाची--सं० । मकोय--हिं० । ( Dulcam. अत्रकिरण avakirana-हि. संशा पु० [सं०] ara) [वि० अचकीर्ण, अवकृष्ट] बिखेरना । फैलाना । छितराना। श्रल्हाज alhaja... य(ज)वासा --हि.। अवकीर्ण irakirna-हिं० वि० [सं०] (1) दुरालभा, गिरिकणिका, यवास. सं. (Alha . gi malurorum, Dist.) मेमा०।। ___ फैलाया हुआ | छितराया हुआ । बिखेरा हुआ। (२)वत । नष्ट किया हुआ । नष्ट । अल हब्बातुल खिजुराal-hubbatul khizra (३) चूर्ण, चूर चूर किया हुआ । अलहब्बतिस्सौदा al-habbatissoud संझा प ब्रह्मचर्य का नाश | ब्रह्मचारी का - अ. कालाजीरा, मैंगरैल--हिं०, बौं । कलौंजी । स्त्री. संसर्ग द्वारा बतभंग। --अम्ब०। (Nigella sittiva, Sibthorp.) अवकीर्ण avkiina-हिं० वि० [सं०] वह अवश avanshu-हिं० वि० [सं०] वंशहीन, ब्रह्मचारी जिसका ब्रह्मचर्य प्रत भंग होगया हो। निघूता , अपुत्र, निःसंतान । नष्ट-ब्रह्मचर्य । अव ava-उप० [सं०] एक उपसर्ग है । यह अवकुञ्चन avarkunchan-हिं० संज्ञा पु... जिस शब्द में लगता है उसमें निम्न लिखित [सं०] समेटना । बटोरना। टेदा करना। अर्थों की योजना करता है--(१) निश्चय; | अबकुण्ठन avaktinghal--हिं० पु.. साहस जैसे--अवधारण । (२) अनादरः जैसे-अवज्ञा, परित्याग, भीरु होना । श्रवमान । (३) ईषत, न्यूनता या कमी; जैसे- अबकुन्धनम् avakunthun am--सं. पली. अबहुनन । अवघात। (४) निचाई बा गहराई | भार्तनाद । जैसे-अवतार । अवक्षेप । (५) न्याप्ति; जैसे- अवकुशः avakushab-सं० पु. गोलाङ गूल अवकाश । अवगाहन । धानर । यह पर्णमृग की जाति से है। सु० सू० अव्य० [सं० अपि ,प्रा० अपि ] भौर। । ४६ अ० । अबकरः avakarah-सं०० सम्मानादिअवकूलनम् avakulanain-सं० क्ली. अग्नि निक्षिप्त धूल्यादि । द्वारा गरम करना, पाग पर गरमाना । च०६० पर्याय–सङ्करः (१०), अतिसा-चि० । “अङ्गारेवकल येत् ।" सु० अवस्करः, अतिसा-चि० (अटी.), सङ्कारः (शब्द र०)। . अघकृष्ट avakrishta-हिं . वि० [सं०] (१ दूर अपकर्षण avakarshana-हिं० संज्ञा पुं० किया हुआ | निकाला हुा । (२) निगलिप्त । [सं०] उदार, निष्कर्ष ण, बाहर खींचना । नीचे उतारा हुआ । For Private and Personal Use Only Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अवकेशी ७२१ अवगुठित अव केशो avakeshi•सं• त्रि० (१) अफल वृक्ष [वि. अबगाहित ] स्नान करण, नहाना, पानी ( Fruitless tres ) हे० च० । (२) बाँझ, | में हलकर स्नान करना, मजनपूर्वक स्नान, बन्ध्या (Sterile)। निमज्जन, डुबकी लगाना। अवकृत avakrita.सं. प. व्रण भेद । वा० | __ संस्कृत पर्याय--अवगाह;, वगाहः, निमउ००२६। जनं, शिरः स्नानम्, अम्भसि मजन (के०)। अवकः avakrah-सं.पु. सरल वृक्ष, चोड़, धूप , ( Bathing, ablution. )। (२) सरल । ( Pinus longifolia.) सात मथन । विलोडन । (३) प्रवेश । पैठ । गाछु-बं०। "वगाह(न)स्वेदः aragāha-( na)sve. अवक्रांति avakranti-हिं0 संज्ञा स्त्री० [सं०] ! dah-सं०० अवगाहन द्वारा स्वेद कर्म (1) अधोगमन। उतार। गिराव । (२) करना। मुकाब। विधि-द्रव स्वेदान्तर्गत कहे हुए दृष्यों को एक अवलिन avaklinna-हिं० वि० [सं० कुंडमें अथवा एक बड़े पात्रमें भरकर रोगीको उस भाद्र, गीला, तर, भीगा हुआ। में बैठा। यह रोगी ऐसा हो जिसके सर्वाग में अवकाथ avakvatha-हिं० पु. अजी कार बात वेदना होती हो अथवा अर्श और मूत्रकृअपक्क क्वाथ। धादि रोगों में इस तरह किया जाता है। वर्तन अवखात a.vak bata-हिं० संज्ञा पुं॰ [सं० कोई हो पर इतना बड़ा होना चाहिए जिसमें गहरा गड्ढा । रोगी कंठ तक बैठ जाए। स्वाट के नीचे एक गढ़ा अवगण्डः avagandah-सं० पु. गण्ड देशस। खोदकर उसमें वातनाशक लकड़ी उपले भरकर व्रण । वयेस फोड़ा-बं । पुटकुली-मह.i श्राग लगाकर निधूम अंगार कर लिए जाएँ, त्रिका फिर रोगी को उस खाट पर शयन कराया जाए । अवगथः avagathah-सं० पु. प्रातः स्नान ! इसका नाम कूप स्वेद है। इसी तरह कुटी स्वेदादि (Morning bath.) के लक्षण अन्य ग्रंथों से जानना चाहिए। वा० अवगाढ़ avigarha-हिं० वि० [सं० .. सू०१७१०। (१) निविड । छिपा हुआ । (२) प्रविष्ट । ६रू अवगाहना avagāhana-हि. क्रि० अ० [सं० हुआ । निमग्न । अवगाहन ] (1) हलकर नहाना । निमजन अवगाढः avagar hah ) -सं०पु० विच्छिन करना । (२) डूबना । पैऽना । धंसना । मग्न अवघृष्टः avaghrishtahi होना । घण। वा०३० अ० २६ । वगाहित avagāhita-हिं० वि० [सं०] अवगाहः avagāhah-सं. त्रि०, पु. ___नहाया हुश्रा। अवगाह avagaha-हिं० वि० [सं० प्रवगाध]' वगीर्णः avagirnah-सं० पु. 'अपान द्वारा अथाह, बहुत गहरा, अत्यन्त गम्भीर । निकला हुआ द्रव्य । संज्ञा पुं॰ गहरा स्थान । स्नानगृह । गुसरा | अवगुण्ठनम् avagunthanam-सं० क्ली० । खाना । स्नानागार। अवगठन avagunthana-हिं० संज्ञा प संज्ञा पुं॰ [सं०](१)भीतर प्रवेश । हलना। [वि० अवगुठित ] योषित शिरः प्रावरण, स्त्री (२) जल में हल कर स्नान करना | निमजन ।। मुखाच्छादन, चूंघट, धुर्को( A veil.)। (२) ( Bathing, ablution ) ढंकना । छिपाना । (३) पर्दा । अवगाहनम् avaigahanam-सं० क्ली० । अवगुण्ठितम् avagunthitam-सं० क्ली. ) अवगाहन avagāhana-हि. संज्ञा पु. अवगुठित avagunthita-हिं० वि० ६१ For Private and Personal Use Only Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अवगुण সম্বনা चूर्णित, चूर्ण किया हुा । ( Powdered.)। (१) प्राधात विशेष, अपघात, ताड़न, घन, त्रिका० । (२) का हुअा। छिपा हुआ। प्रहार, चोट । ( २ ) तण्डुलादि कण्डन अवगुण avaguna-हिं० संज्ञा प० [सं०]! (कौड़ना, कूटना)। हे०। (३) अपमृत्यु । दोष | दूषण । ऐन । । अवचार: avachārah-सं० पु प्रयोग, सहाअवगुठन avagunthali--हि. संज्ञा पु. यता | देखो-अवगुण्ठनम् । प्रत्रचूर्णन ava-churnaya-सं० क्लो. अवगुठनवतो avagunthanivati-हि.! औषध के बारीक चूर्ण' को क्षत आदि पर वि० स्त्री० [सं०] घूघटवाली। बुरकना । अवधूलन, धूड़ा(ला)करना । अवगुटिका aragunthika-हिं० संज्ञा स्त्रो. अवचूगम् ॥vachtun im-सं० कला. स्थूल [सं०] (१) धूघट । (२) जवनिका । चूर्ण, मोटा चूर्ण (Coarst power)। पर्दा । (३) चिक । वह शुरुक बारीक पिसी हुई औषध जिसको क्षत अवगुठित avagunthita-हिं० वि० [सं०] | श्रादि पर छिड़का जाए ( Dusting pow. ढंका हुश्रा । छिपा हुआ। देखो-अवगुण्ठि der.) | जरूर, कबूप, नस् र-१०। धूड़ा तम्। -हि., उ०। अवगुद avaguda-ते. ) श्रवचूर्णितः avachurnitah-सं० त्रि. चूर्णिन, अवगुदे avagucle-कना० चूर्ण किया हुश्रा । पाउडर्ड (Powdered.) अवगुदे हरण avagude-hannu-कना. -इं० । रक (लाल) इन्द्रायन, महाकाल-हिं । Tri- पर्याय-अवध्वंसः, अपध्वस्तः । श्र०टी०। chosanthes palma hal, Reard. स० श्रयचूलकम् avichālakam-सं० क्ली० फा० ई०। चामर । (See-chamara.) त्रि० । अवगुफन avaguphana-हिं० संज्ञा पु० । अवच्छद :Ivachebhada-हिं. संज्ञा पु. [सं०] Dथन | गुहन ! ग्रंथन । [सं०] ढकना । सरपोश । अवगुफित avagumphita-हिं• वि० [सं०] अयच्छिन avichchhinna--हि. वि० गूथा हुा । गुहा हुआ। [सं० ] सीमावद्ध । अवधि सहित । जिसका अवगृहन avaguhanu-सं० पु. प्रालिंगन, किसी अवच्छेदक पदार्थ से अवच्छेद किया गया पाश्लेष, प्रेम से परस्पर अंग स्पर्श, करना ।। हो । अलग किया हुश्रा । पृथक । प्रेम से मिलना। अवच्छेद avachchheda-हिं० संज्ञा पु प्रवग्रहः avagrahah-सं०५ अपग्रह avagraha-हिं० संज्ञा पु. [सं०] [वि॰ अवच्छेद्य, अवच्छिन्न ] (१) अलगाव । भेद । (२) सीमा । (३) परि. (१) गजल लाट देश : हाथीका ललाट | हाधी का मस्तक । हस्ति मस्तक । हारा० । । २) च्छेद । विमाग । अनावृष्टि । वर्षा का अभाव । (३) रुकावट । | अवच्छेदक avachchhedaka-हि. वि० अटकाव । बाधा । (४) प्रकृति । स्वभाव । [सं०] (3 छेदक । भेदकारी । अलग करने (५) मजसमूह 1 गज यूथ । वाला । (२) हद बाँधने वाला। अनुग्रह का उलटा। प्रवच्छेदकता avachchhedakata-हिं० अवग्राहः avagrahah-सं० पु. अवहारक, संज्ञा स्त्री॰ [सं०] (१) अवच्छेद करने का ग्राह। भाव । पृथक् करने का धर्म । अलग करने का अवघातः avaghatah-सं० पु. धर्म। (२) हद चा सीमा बाँधने काभाव । अवधात avaghata-हि. संज्ञा पु. परिमिति। For Private and Personal Use Only Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अवच्छेद्य ७२३ अवदात अवच्छे avachehredy-हि० वि० [सं०] | अल्पान्धकार । ( Sight darkness.) अलगाव के योग्य । अम०। अवछंग avacbhanga-हिं संज्ञा प. देखो- | अवतानम् avatamann-सं० क्ली. चन्द्रातप, उछंग। चाँदनी (Moon-light.)। (२)खना । अवजāava.jia-. वक्र या टेढ़ा होना । क्रूड (Ankle.) । अवताप: avatāpah-सं० पु. प्रजावि ज्वर । (Crooked.)-इं। । गज० वै०। अयश्च : avanehakah-सं० पु. भक रोगी, अवतारणम् avataranam-सं० क्लो० भूतादि श्रद्धालु रोगी, वैद्यरर विश्वास रखने वाला रोगी । । ग्रह । (२) वस्त्राचल ( The end or वै० निघ०। hen of agar ment.) मे० णपञ्चक । अबटना avutana-हिं० क्रि० स० [सं० (३) उतारना । नीचे लाना। श्रावत न, पा० श्रावन ] (1) मथना | पालो । अवतारणिका avataranika-संस्त्री० नौका । इन करना । (२)किसी द्रव पदार्थ को भाग ... (A boat. ) पर रखकर चलाकर गाढ़ा करना । अवतोका,-दा. avatoka,-da-सं० स्त्री० वह अवटः,-टी avitab, ti-सं० पु. (1) नाड़ी गाय जिसका गर्भस्राय (गर्भपात) हो चुका हो । व्रण । नासूर । ( nādivrana-)। (२) . . हला० । कूम, कुश्री ( Woll.) मे० । (३) विंद्र । ( A अवताकाम avatokam-सं० मी. पतित गर्भ: hole. a perforation.).. .. ... वाली । वह जिसका गर्भ गिर गया हो । अथर्व । अवट avaga-हि. संज्ञा पु० (१) प्रौटाकर, सू०६।६। का । खौलाकर । (२) गतं, गह्वर । गड्ढा । कुड। | अवतंस: avatansah-सं० पु., क्ली.. (३) गले के नोचे कंधे और काँख श्रादि का : अवतंस avatansa-हिं० संज्ञा पु० । गड्ढा । [वि० अवतसित] कर्णभूषण कर्णालंकार, अवटारः avatitah-सं० त्रि० कर्यामरण, कर्णफूल, कर्णपूर, कनफूल (An अवटीट avatitil-हिं० वि० Ornament of the ear.)। (२) मुरकी, नतनासिक, चिपटी नाकवाला । खान्दा-बं०। बाली। (३) माला ! हार । (४) भूषण । श्राम। अवथोलो avatholi-मल. एक प्रकार के वृक्ष पर्याय--प्रवनाटः, अवभ्रटः । अ०। की छाल जो अनिश्चित है । फा. ई०३ अवटुः avatuh-सं० स्त्रो० (१) ग्रीवा पश्चा भा०। दाग, ग्रीवाके पीछे भाग, गुद्दी, मन्या । (Nape of the neck. ) रत्ना० । रा०नि० व० श्रयदन्तः avadantah-सं० पु. बालक, १० । -पु. (२) वृन विशेष ( A tree.)। सुगन्धवाला । पाला-बं० । (Pavonia हे । (३) रन्ध्र (A hole.)। (४) कूप ।। odorata) बे० निघ । (A we]}.) हे. अबदलनम् avadalanam-स० क्लो० मईन अवटका ग्रंथि a varuka.granthi.सं. स्त्री क्रिया, गात्र मईन, देह का मलना । ( Rabb. (Thyroid gland ) चुखिका ग्रन्थि । ing, massage.) देखो-मईन । अपडः avadah-सं० पु. मन्या पृष्ठ भाग, प्रयदान avadāgha-सं० गर्मी, उष्णता । ___ गर्दन के पीछे का भाग । ( Nape of the (Heat.) neck.) चै० निधः । | अधदातः avadatah-सं० पु. । ( शत अवतमसम् avatamasam-सं० की. अवदात avadata--हिं० वि० वर्ण का, For Private and Personal Use Only Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अवदानम् ७२४ अवधि गौर ( Whits.) । (२) पोत वर्ण का, अवदाणम् avadirna n--सं० त्रि. (१) पोला (Yellow )। अ० । (३) शुभ्र. द्रवीभूत घृतादि । (२)फटा हुअा, विदारित । उज्वल । श्वेत । ( ४ ) शुद्ध । स्वच्छ । विमल । | अवदोहः avalohah-सं० पु. का निर्मल । भवदाह avadoha- f संज्ञाप (१ दूध । अवदानम् avadanam--सं० दुग्ध | (Milk) त्रिक०। (२) दूध अवदान avadana--हिं० संज्ञा पु.(1)| दुहना । दोहन । उशीर । खस । गाडरे की जड़। वीरण | अगदंशः ॥vuddamshah-सं० पु. । मल । ( Andropogon maricatus.) अवदस avadansa-हिं० संज्ञा पु. अ० टो० ।। २) खनित्र, अस्त्र विशेष, कुदात्त (१) सुसपान में रुचिजनक भय द्रव्य, मद्य. (A hoe or a kind of spade, a pi. पान के समय जो कबाब, बड़े आदि खाए जाते ck axe or mattock.) (४)खंडन । हैं। गज़क । चाट । चटनी आदि। उत्तेजक तोड़ना । (५)शकि, बल। भव्य । हला०। (३) शिनु अर्थात् सहिंजन वृत ( Moringa pterigosperima.)। अवदान्तः avadantah- सं० प. शिन, . सहिजन । (Ilyperanthera moringa.)| (३) कृष्ण शिग्रु ( काला सहिजन) । काल वै० निघ। सजिना गाछ-बं० । Moringa pterigo sper.na ( The black var. of- ) भवदारक avadiraka हिं० वि० [सं०] बै० निघ० । विदारण करने वाला। विभाग करने वाला । | अवदशतयः avadansha-kshayah-सं० संज्ञा पु० [सं०] मिट्टी खोदने के लिए लोहे का एक हुंडा। खंता। रंभा ।। पु. काला सहिजन । कृष्ण शिग्रु। अवदारणम् avadaranam-सं० क्री० । प्रवद्योतन् avadyotan-सं. पु. प्रकाश | अत्रदारण avadārana-हि. संत्रा पु. (Light.) (१) मिट्टी खोदने का प्रौज़ार । स्खनित्र । कुदार अवध-धतूरा avadha-dhatura-हि०, द. अवध में उत्पन्न होने वाला प्रसिद्ध धतूरा। ( ल )। खंता । (A hoe or' kind of अवधान avadhana-हिं० संडा पु. [सं. spade) (२) विदारण करना । । विभाग (१)मन का योग । चित्त का लगाव । मनो. करना । तोड़ना।। फोड़ना। योग । (२)चित की वृत्ति का निरोध करके उसे अवदारित avadārita--हिं. वि० [सं०] | एक ओर लगाना। समाधि । ३) ध्यान । विदारण किया हुआ । विदीर्ण। टूटा हुआ। सावधानी। चौकसी । अवदाहेष्ट कारथम् avadaheshtaki.pan tham ___ संज्ञा पु[स प्राधान् ] गर्भ । गर्माधान । अघदाहेष्टम avadaheshtam ) पेट । -सं० क्ली० बीरणमूल, खस । ( Andro. / अवधान तन्त्रो avadhāna-tantri-सं० pogon muricatus.) अ० टी० भ० । TO ( Auditory or acoustic nie. अवदाह:-क्रम् avadiham,-kam-सं० rve.) श्रावणीनाड़ी। क्ली (1)लामजक तृण। ( Andropogon : अवधारण avadharana- सं० प [वि० Juniger.)मा० पू०१०। (२)वीरणमूल, अबधारित, अबधारणीय ] निश्चय, निर्णय | उशीर, खस । गन्धवेना-०। पिवला वाला विचार पूर्वक निर्धारण करना । --मह०। ( Andropogon murics | प्ररधि avadhi- हिं० पु० पर्यन्त, सीमा से thus.) वै० निघ० । तक लो। For Private and Personal Use Only Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अवध्वंसः ७२५ अवपीड़: अवध्वं तः avadhvansah--सं अवनाट: avanatah-सं. त्रि० नतनासिका, अवध्वस avindhvausa-हिं० संज्ञा पु. मुकी नाक वाला, चदनासा युक्त । श्रम । [वि. अवध्वस्त ] (१) प्रवचूर्णन, चूर्ण करना | अवनि avati). (To powder, Powlering.) मे०। -हिं० संज्ञा स्त्री० [सं०] (२) चर्णन । चूर चूर करना । नाश । (३) | अवनी avani)" परित्याग | छोड़ना । ( ४ ) देह को जलाकर | पृथ्वी, जमीन, अवनितल । नष्ट करने वाला । अथव । सू० २२ । ३। अवना avanā ) .. का०५। .सं. स्त्री० (१) बाय | अवनी : vani अवध्वस्तः avadivastah--सं० वि० श्रव. । ___ माणा ( See--Trayamānā. ) रा. नि० चूर्णित, चूर्ण किया हुआ । ( Powdered ). ! व०५ | अवनत की या Avanatii.karniya-सं० स्त्रीको ariखा. अवनीसारा avanisari-सं० स्त्री. ( Musa Obliquus auriculae)1 शकलीया : sapintum.) कदली, केला | 2. निघः। असरला । श्रवने जन avitnejana-हि० संज्ञा पु. [सं०] अवनत पादांगुष्ठाकर्षणी avanata-padangu. I shthákarşhaşi-jato (Adductor | gafia-at) eta avanti,-niti,-sonamhallueis obliquus.) पादांगुष्ट अंतर. संकली. कॉजी, कानिक । प. मु०। हारा०॥ नायिनी असरला। रा.नि.व.१५ ( See-Kanjika) प्रवनम् avanam-सं० क्ली० . अवपतन avapatana-स. क्ली. ऊपर से अवन avana-हिं० संशा पु० ' श्राना, गिराव, नीचे गिरना। वा० सू०१२ णन। तृप्तिकरण । प्रसन्न करना । (Satisfy अ०। ing.) श्र०। (२) प्रीति । अवाटिका avapatika-सं० स्रो० क्षुद्र रोगा[स अवनि ] ज़मीन | भूमि । न्तर्गत शूक रोग । लक्षण-लिंग के चर्म को 972 Arfat: avanata-mándirah-o! बहुत मलने अथवा दब जाने या वीर्य का वेग रुक (Oblique popliteal.) जाने श्रादि कारणोंसे यदि लिंग के ऊपर का चर्म प्रधनम्र avinama-सं. झुका हुा । ( Be- फट जाए तो उसे "अवपाटिका" कहते हैं । यथा- nt). 'यम्यावपाट्यते चर्मतांविद्यादवपाटिकाम' । प्रचनत-सूत्रम् avana ta-sutram-सं० ली. सु० मि० अ० १३ । यह एक रोग है जो (Oblique cord.)। झुका हुश्रा या वक्र लघुछिद्र योनिवाली और रजस्वला-धर्म रहित तन्तु। स्त्री से मैथुन करने से, हस्त-क्रिया से, लिंगेन्द्रिय भवनता ठाकर्षणी avanatangushtha के बन्द मुँह को बलात्कार खोलने से अथवा karshaņi-Ħo FPO ( Adductor निकलते हुए वीर्य को रोकने से हो जाता है। pollicis obliquus. )। इस रोग में लिंग को प्राच्छादित करने वाला अवनति avanati-हि. संज्ञा स्त्री० [सं०] चमड़ा प्रायः फट जाता है। मा० नि०। अयपान .vapita-हिं० सज्ञा. प. [स] मुकाव, मुकाना। (१)गिराव | पतन । अधःपतन । शवनन avanata-हिं० वि० [ सं०] (1) (२) गददा । कुण्ड । नीचा, झुका हुआ। (oblique.) ! (२) गिरा | अवपीड avanida-हि०प० । अवपीड avapida-हिं० पु. । प्रकार हुश्रा । पतित । अधोगत | अवपीडः ayapidah-स.पु. ) For Private and Personal Use Only Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अत्रपीडन अवयंवी के नस्य कर्मों में से एक । शोधन और स्तम्भन अपभ्रटः avabhatah..सं० वि० नतनासिका भेद से यह दो प्रकार का होता है। निचोड़ कर वाला, चिकिन । ( Plat-nosed.) श्रम । अर्थात् रस निकाल कर प्रयुक्त होने के कारण | प्रयुक्त होने के कारण | अयम् avam-हिं० वि० [सं०] (1) नीच, अथवा रोगी के नकुत्रों में टपकाए जाने के कारण fälza ( Low, vilo, inferior. ) इसको अवपीड कहते हैं। यथा--"अवपीड्य । (२) अधम । अंतिम । (३) रक्षक । दीने यस्मात् श्रवपोइस्ततः स्मृतः अथवः श्रव. श्रयमन्थःvananthah-सं० ) पीड्यते यस्मात् स श्रवपीड़।" तीक्ष्ण प्रोपधियों श्रवमन्थक: avamanthakah " का कल्क कर उसे निचोड़ कर रस निकाले । इसे : अवमन्थ avamantha-हिं० संज्ञा पु श्रवपीड करते है। यह गले की बीमारियों में प्रशस्त एक रांग जिसमें जिग में बड़ी बड़ी और घनी है। प० प्र०४ ख. जो छींक लाने वाली . फुसियाँ हो जाती हैं। औषध कल्कादि से बनाई जाती है परन्तु उसमें ! . लक्षण-जिसमें बड़ी बड़ी बहुत सी फुसिया बीच स्नेह नहीं निजाया जाता है, उसे अपीड़ वा से फटी सी हो जाएँ उसे "अवमंथ" कहते हैं । शिरोविरेचन कहते हैं । यथा-"ककाघरव गोडस्तु यह रांग कफ और रक के विकार से होता और तीर्ण म बिरेवनः ।" वा० सु०१६ ! वेदना तथा रोम हर्प करने वाला होता है। गले के संग, सनियात, निद्रा, विषम ज्वर, मनो। सु० न० १४०। विकार ( मद, मूळ, अपस्मार, सन्यास, ! (२) कर्णपाली रोग भेद । सु० सू० १६ उन्माद और भूतोन्माद अादि )और कृमि अर्थात् , श्र०। नाक में कीड़े पड़जाने (वा कृमि जन्य रोगा) में | अवीटनं नस्य का प्रयोग किया जाता है। अवमनाथ avamnmiya-हिं० वि० जो वामक निघ. नस्य चि। विशेष देखो-नस्य न हो अथवा जो मन को रोके । श्रवपाडन avapidana-हिंप'. ) अवअचमहान avamaratin-am--स० ) श्रवपीडनम् avipidanam-सं० क्ली० पीड पु., कला श्रयमदन : vamardana-हिं. संज्ञा पु. ) नामक नस्य विशेष। पाड़न । वेदना । दुःख देना । दलन । अम० । अवधार, yahaka-हिं. संज्ञा पु (Sce-Pidanam.) पीड़ा पहुँचाना । भवबाहक: ava bahukar-सं० एक रोग जिससे हाथ की गति रुक जाती है । भुज । अवमोटनम् avamoranam--सं० क्ली० स्तंभ । देखो-अपबाहुकः ( Apabalhukah ) ग्रामोदन । मा०नि० वा० च्या ।।। अवमासिका,नीavabhāsika,-li-सं० ली। अवम्भिसीम avanbhison --सं० काजी, सात वनाओं में से एक त्वचा विशेष । यह प्रथम काजिस । (-ee-kānjka. ) अर्थात् सबसे ऊपर ( शरीर के बाहर ) की त्वचा अवयवः a vayavah सं०प० । शरीहै और समस्त वर्णों (कणाता. गौताहिक अवयव avayavit-f० संज्ञा प रावयव, प्रकाश करती है तथा वहीं पाँच प्रकार की पाँच अंग, देह, शरीर, हस्तपाद श्रादि भाग, शरीर का भौतिक छाया तथा चकार के ग्रहण से प्रभा को एक देश । (A limb, tu member.)। प्रकाश करती है। यह त्वचा व्रीहि अर्थात् जी के (२) अंश । भाग । हिस्सा | (जो बीस भाग हैं उनमें )अठारह भाग के समान | अवयव स्थानम् avayuva-sthānain--सं० मोटी है यही सीप और पन्नकण्टक नामक चर्म कलो० शरीर ( The body रोगों के होने का स्थान है अर्थात् सीप, पद्मकण्टक निघः । इसी ऊपर की त्वचा में होते हैं । सु० शा० अवयवी avayavi सं० पु. पक्षी । ( A bi. ४१०। .) वै० निघ। For Private and Personal Use Only Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अवरम् अवरोधक . हिं० पु. (१) वह वस्तु जिसके बहुत से धने- 1 (Coriandrum sativum.) अवयव हो । (२) देह । शरीर । रा०नि०1०६।। --वि० सं०] (१) जिसके और बहुत से ! श्रवरी avari-गु० ( १ ) शिम्बी, सेम । अवयव हों। अंगी। (The flat bean.) फा० ई. १ (२) कुल । संपूर्ण । समष्टि । समूचा । । भा०। अवरम् ayaram- सं० क्ली) हाथी की जाँघ -मल०, सिंगा. नील-हिं० । ( Indi. अवर vara-हि. वि० का पिछला भाग, gofor: Indica.) इं० मे० मे। श्रम०। अवरो की avarik 1-कना० तरबड़-हिं० । अवर avar-० काना होना, एक नेत्र से हीन (Cassia uriculata, Linn. ) होना । (To be Blind.) काने मनुष्य श्रयरुद्ध varuddha-हिं० वि० [सं० ] को तित्र (वैद्यक ) में अनवर कहते हैं। रुंधा हुा । रुका हुश्रा । श्रटकाया गया, रुका अवर गिडा avar.gida-कना० तस्वड-हि.। (Obstructed) । (२) आच्छादित । (Cassia Auriculata,t.inm.) फा० | गुप्त । छिपा ! ई०१भा०। अवरुद्धा avnruddhi -हिं० संज्ञा स्त्री० [सं०] अव रज avait.ja-हिं० संज्ञा प० [सं०][स्त्री० वह स्त्री जिसे कोई रखले । उदरी । रखुई । अवरजा ] कनिष्ट भ्राता, अनुज, लहुरा भाई, रखनी । छोटा भाई (Ayounger brother.)। अवरूढ a.varur ha-हिं० वि० [सं.] ऊपर से (२) नीच कुलोत्पन्न । नीच ।। नीचे आया हुश्रा । उतरा हुआ। प्रारूढ़ का अवरजा avara ja-हिं०संज्ञा स्त्री० कनिष्ठा भगिनी, उलटा । छोटी बहिन । ( A younger sister.) अवरोध avarodha-हिं० संज्ञा पु० [सं०] अवरण avarani- संझा पु. (.) ___ सुहा, रुकावट, रोक, अटकाव । हिण्ड्रन्स( Hinदे० अवर्ण । (२) देखो आवरण । ____drance ), प्रॉब्सट्रक्शन (Obstructअवर दारुकम avaradarukam-सं० लो० ion.)-इं। (२) निरोध | बंदकरना । तमामक स्थावर विपान्तर्गत पत्रविष । सु०कल्प अवरोध उद्धाटक avarodha-adghatak २० । देखो-पत्रविषम् ।। -हिं० पु० देह के छिद्रों को खोलने वाली अवरबत avaya-Vratu-हि. संज्ञा पु० [सं०] श्रौषध । वह औषध जो अपनी उष्मा के कारण (१) सूर्य । (२) पाक । मदार । स्रोतावरोध को खोले, और सुहा (अवरोध ) अवराई avarii-ता० तरबड़-हि. संज्ञा स्त्री० प्रभृति को दूर करें। मुफत्तिह, मुफत्तिहुस्सुदद, (Cassia i»ur culata, Linn.) मुज़रियलुम्सुदद-अ०। अभिष्यन्द रोकने वाला। मे० मे। डीअडस टुपण्ट ( Deobs truent.)-11 अवगम् a.vian-अ० (ब.व), वर्भ (ए० अवराधक avarodhak-हि० वि० [सं०] व.) श्रामास -फा०] सूजन, शोथ, श्वयथु देह के छिदों को रोकने वाली औषध, सुदा -हि । स्वेलिंग (Swelling.)-इं०।। डालने वाली प्रौपत्र, वह औषध जो अपनी शुष्कता वा स्थूजता के कारण नालियों में रुक अवराम मग़ाबिन avarim-maghābin जाए और उनको बन्द करदे। मुसहिद ( एक -० मग़ाबिन अर्थात् बगल, जंघासा और .वंक्षण का शोथ जो प्लेग के अतिरिक्र होता है। व०), मुसद्दि दात(ब० व०)-अ० । अाब्सट ब्युबोज ( Bubos. )-। देखो-खैर्जील एण्ट (Obstruent. )-ई। (२) ( Insulator.) रोधक , अपरि अरिका avarika-सं० स्त्री० धन्याक, धनियाँ । चालक। For Private and Personal Use Only Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अवरोधन ७२८ अवर्षण अवरोधन avarodhana-हिं० संज्ञा पुं. 'अवरोह सायिन: avarohin sayinah-सं० पु. [सं०][वि० अवरोधक, अवरोधित, अवरोधी, वट, वर्गद । (Ficus Bengalensis.) फा० अवरोध, अवरुद्ध ] रोकना, छेकना । । ६.३भा०। अवरोधना avarodhana-हिं० क्रि० स० अवरोह स्थल avaroha-sthal-हिं०संज्ञा [ स. अवरोधन ] [वि. अवरोधक ] | (Antinode.) रोकना । अवरोहि avarobi-सं० स्त्री० नीचे आना अवरोधित avarodhita-हिं० वि० [सं०] उतरना । ( Descending.) रोका हुश्रा । रुका। अवरोहिकाavarohika-संस्त्री० अश्वगन्धा। अवरोधी avarodhi-हि. पु. [सं० अवरोध] | (Withania. Somnifera. ) रा. [स्त्री० अवरोधिनी ] अवरोध करने वाला । | नि० । रोकने वाला। अवरोपण avaropnna-हिं० संज्ञा पु.वि.अवरोहि ग्रेवी avaroti.graivi-सं० स्त्री० अवरोपित, अवरोपणीय ] उखाड़ना । उत्पाटन । (Ramus descendeus. ) अधरोपणीय avaropaniya-हिं० वि०सं०] अवरोहित avarohita-हि. वि. [ स. 1 उखाड़ने योग्य । (.)गिरनेवाला । (.) अवनत, हीन । अवरोपित Araropita-हिं० वि० [सं०] अयरोहितालव्या avarohitalavya-सं० उखाड़ा हुअा । उन्मूलित । स्त्री० ( Descending palatinic) अवरोहः avarobab-सं० पु. अवरोहिस्थूलान्त्र avarohisthālāntra-सं. अवरोह avaroha-हिं० संज्ञा पु. को०(Descending colon) अधोगामी (6) वटादि वृक्षका अधो बिलम्ब-कारडाकार अव- | वृहदन्त्र। ___ यव विशेष, बरौंह, बरकी जटा | बटादिर-नामाल | अवरोही,-इन् avarohi,-in-स० प०, हिं० -०। (२) अश्वगन्ध ! द्रव्य० र०। (३) संज्ञा पु. घट वृक्ष, बर्गद । बट गाछ-०। उतार । गिराव । अध: पतन ।। ( Ficus Bengajensis.)। रा०नि० व०११। अवरोहक: avarohaka.h-सं० पू० अवरोहक avarohaka- पु0 अ वरोह्यावर्ता avarohyavarts-स. स्त्री० quay (Withavia Somnifera.) ! (Desconding portion of orta.) अधोगा महा धमनी । मद० २०१।-वि० [सं०] गिरने वाला।। अवरोहण avarohana-हिं० संज्ञा पु० [सं०] । श्रवणं avitlina--ल. पु. अक्षर, प्राकार, निन्दा, [वि. अवरोहक, अवरोहित, अवरोही ] नीचे | परिवाद । -हिं० वि० [सं०] वर्ण रहित, बिना की ओर जाना । पतन । उतार । गिराव। रंग क । (२) बदरंग। बुरे ग का। अवरोहना aarohana-हिं० क्रि० अ० वर्त avartta-सं. पु०, हिं० संज्ञा पु० पानी [सं० अवरोहण } उतरना। नीचे पाना । । का चक्कर, भँवर, नाँद (Whirlpool.)। कि. श्र० [सं० श्रारोहण] चढ़ना । ऊपर जाना। (२) घुमाव । चक्कर । [स] (३) स्फूर्तिशून्य क्रि० स० [सं० अवरोधन, प्रा० अवरोहन पदार्थ । बह पदार्थ जिसके पार पार प्रकाश वा रोकना । सँधना | कना। रष्टि न जा सके । (४) देखो-श्रावत्त । अवरोह शोखो avaroba-shikhi-सं० पु. श्रवर्तिः avarttih-स' ०० बेचैनी । अथवा पक्ष वृक्ष, पाक(ख)र, पकरी (-डी०)-हिं०। अवर्षण avarshana - हिं• संज्ञा पु' [स] (Ficus infectoria.)। पाकुड़ गाछ-बं०।। वृष्टि का अभाव । वर्षा का प्रभाव वर्षा का न रा०नि०व०११ । होना । अवग्रह । अनावृष्टि । For Private and Personal Use Only Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra भवलम्नः ; www.kobatirth.org ७२६ ० अवलग्नः avalagnah सं० अवलग्न avalagna - हिं० संज्ञा प ु ं० मध्य प्रदेश | शरीरका मध्य भाग 1 धड़ | माझा | • हि० वि० [सं०] लगा हुआ, मिला हुआ, सम्बन्ध रखने वास्ता । अवलम्बनः कः avalambanah;-kah स० ० अवलंबन कफ । पाँच प्रकार के कफों में से एक । श्लेष्मा विशेष । स्थान- हृदय । कर्म-रसशुक्र वीर्य से हृदय के भाग or wearer और त्रिक ( मस्तक और दोनों भुजाओं की संधि ) को धारण करता है । भा० । देखो-कफ | अवलम्बित avalambita - हि० बि० ( Suspended ) मुलिक : लक्षः avalakshah - सं० पु० ( १ ) श्वेत वर्ण, सफेद ( White.) । ( २ ) स्वामी । (Mercury. ) अबला avala-सं० स्त्री० नारी, स्त्री । ( A wo mail.) रत्ना० । ( २ ) प्रियंगु ( Aglaia roxburghiana ) | प्रयोगा० - गलगण्ड । "मधुलोधाला सर्ज" " मह० ( ३ ) श्रामला, अँवरा । (Phyllanthus embli - ca, Linn. ) स० [फा० ई० । अवला मंधक avalá•gandhaka-मह० आमलासार गन्धक - हि० । थॉवलासार गंधकद० । ( A sort of phur ) स० फा० ई० । देखो - गंवक अबला vala-गु० ( १ ) तरवड़ - हिं०। (Cass ia Auriculata, Jam.) फा० ई० १ भा० । -हिं० प ु ं० ( २ ) वरुण वृक्ष, बरना । ( Crataeva tapia. ) अवलिप्त avalipta - हिं० वि० [सं० ] (1) लगा हुआ | पोता हुआ । ( २ ) सना हुआ | आसन । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir खे ( ४ ) रोयाँ वा ऊन जो गँडरिया एक बार भेंड़ पर से काटता है । अलीकन्द avali-kanda-मालाकन्द । कन्द लता | रा० नि० । अवली avalirha - हिं० वि० [सं०] (1) भक्षित। खाया हुआ । प्राशित। ( २ ) घाटा हुआ । अवली - लि avali, li- सं० स्त्री०, हिं० संज्ञा श्री० [सं० प्रावलि ] पाँती, लकीर, पंकि ( A line, a row ) | ( २ ) समूह । फुंड । ( ३ ) वह धन की डॉन जो नवास करने के लिए खेत से पहिले पहिले काटी जाती है। 1 ६२ • अवलुश्चनम् avalunchanam-सं० क्ली. अत्रलुञ्चन avalunchana - हिं० संज्ञा पुं (१) मुण्डन ( Shaving ) | ( २ ) शैथि ल्प ( Laxity; flaccidity. ) त्रुहन सु० सू० २५० । ( ३ ) वेदना | काटना । ( ४ ) उखाड़ना । नोचना | अवतु'त्रित avalunchita हिं०वि० [सं० ] मुउित । ( १ ) दूरीकृत | हटाया हुआ । अप नीत । ( २ ) खुला या खोला हुआ । ( ३ ) कटा हुआ । छेदित । ( ४ ) उखाड़ा हुआ | नोचा हुआ | अवलु ंठन avalunthana - हिं० संज्ञा पुं० [सं०] लोटना | श्रवलेखना avalekhana - हिं० क्रि० स० [सं० श्रवलेखन ] ( १ ) खोदना | खुरचना | श्रवलेपः avalepah - सं० पु० श्रवलेप avalepa - हि० संज्ञा पुं० गर्व्व, घमण्ड ( Vanity, Pride.) । (२) उबटन, लेपन, लेप, मलहम ( Plaster, ointment. )। ( ३ ) भूषण । ( Ornament- ) मे० पचतुष्क | अवलेपनम् avalepanam-सं०ली० अवलेपन avalepana - हिं० संज्ञा पु० } (1) (१) उबटन । लेपन । लेप । वह वस्तु जो लगाई वा छोपी जाए ( Plaster, ointment.)। (२) प्रक्षण, तैल घृत श्रादि का लेपन या मर्दन । तैart को मालिश । लगाना । पोतना । छोपना । (३) अहंकार । ( ४ ) दूषण | श्रवलेहः avalehab -सं० (हिं० अवलेह avaleha अवलेहिका avalehiká For Private and Personal Use Only संज्ञा पुं०, स्त्री० [वि० Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अवलेह ७३ अवल्गुजा,-जा प्रवलेझ] (1) चटनी, चाटने वाली कोई वस्तु, । दूध, ईख का रस, पञ्चमूल के क्वाथ द्वारा सिद्ध भोज्य विशेष । लेई जो न अधिक गादी और न । किया हुआ यूष और अडूसे के क्वाथ में से किसी अधिक पतली हो और चाटी जाए। (२) औषध जो । एक का यथा योग्य अनुपान देना हितकारी है। प्पाटा जाए । ले योषध । प्राशः । जिह्वा द्वारा जिसका - दोषानुसार अनुपानों की मात्रा प्रास्वादन किया जाए उसे अबले हिका कहते हैं । | कफ व्याधि में १ पल, पित्त में २ पल और च० द. ज्व. चि०। लजक-अ० । लॉक घास में ३ पल की मात्रा प्रयोग में लाएँ। Loch, लिंक्टस Linctus, लिंक्चर Lincture, इलेक्चुअरी Electuary-ई०। मुख्य मुख्य प्रायुर्वेदोक्क अवलेह निम्न हैं:नोट-यूनानी-वैद्यक एवं डॉक्टरो अवलेह ! कण्टकार्यवलेह, च्यवनप्राशावलेह, कूष्मांडा. निर्माण क्रमादि के विशेष विवरणके लिए क्रमशः वलेह, स्वराडसूरणावलेह, अगस्यहरोतक्यवजेह, लऊक तथा लिक्टस शब्द के अन्तर्गत और कुटजावलेह, कुटजाष्टकावलेह इत्यादि । . प्रायुर्वेदीय वर्णन के लिए लेहः शब्द के अन्त- अवलेहनम् a valebanum-सं० लो० . र्गत देखें । अवलेहन avalehana-हिं० संज्ञा पुं० । ___ क्वाथ श्रादि अर्थात् स्वरस, फाण्ट एवं कल्क | . लेहन, प्राशन, चाटना, जीभ की नोक लगाकर प्रभृति को छानकर पुनः इतना पकाएँ कि वे गादे: खाना ( Licking, tasting with हो जाएँ। इसे रसक्रिया कहते हैं और यही the tongue.)। (२) चटनी । अवलेह पा लेह कहलाता है। इसकी मात्रा एक अवलेह्य avalehya-हिं० वि० [सं०] प्राश्य । पल (४ तोले) की है। यथा चाटने योग्य | क्वाथादीनां पुनः पाकादनत्वंसा रसक्रिया । अवलो avalo--ते. घोर राई, काली राई, राई, सोऽवलेहश्चलेहः स्याप्तन्मात्रा स्यात्पलो. असल राई, मकरा राई-हि। राजिका-सं० । स्मिताः॥ ( Brassica migra, Koch. ) यदि अवलेह में शकर प्रभृति डालने का परि- मेमो०। माण न दिया हो तो श्रोषधों के चूर्ण से चौगुनी अवलोकन ava.lokana-हि. संज्ञा प. मिश्री और गुड़ डालना हो तो चूर्ण से दूना डालें। [सं०] [वि. अवलोकित, अनलोकनीय ] जल या दूध प्रादि द्रव डालना हो तो चौगुना दर्शन, ईक्षण, दृष्टि देना, देखना ( View, मिलाना चाहिए । यथा ___sight, the l oking at any ob. सिता चतुर्गुणा कार्या चर्णाञ्च द्विगुणोगुड़ः।।। __ject.)। ( २ ) निरीक्षण । । द्रवं चतुर्गुण दद्यादिति सर्वत्र निश्चयः। अवल्कः avalkah-सं० पु. मेपशृङ्गी, मेढ़ाअवलेह सिद्ध होने की परीक्षा fanii ( Pistacia Integerrima, दी से उठाने पर यदि वह तंतु संयुक्र दिखाई Stercurt.)वै०निघ। दे, जल में डालने पर डूब जाए, द्रव रहित अर्थात् अवल्गजा avalgar ja-सं० स्त्री कृष्ण सोमराजी, खर हो, दबाने पर उसमें उँगलियों के निशान | Ba 1 Vernonia antholinintica पर जाएँ और वह सुगंध युक्र और सुरस हो तो ( The black var. of-)। हाकुच-बंग। उसे सुपच जानना चाहिए । यथा भेष. भल्ला० गुड़। सुपक्वे तन्तुमत्वं स्यादवलेहोऽतु मजति । अवल्गुजः,-जा avalgujrh,-ja-सं० १०, खरत्वं पीडित मुद्रां गन्धवर्ण रसोद्भवः॥ स्त्री०(1) कृष्णा सोमराजी । ( The black जहाँ पर अवलेह के अनुपान की व्यवस्था न var. of Vernonia anthelminदी गई हो वहाँ पर दोष और व्याधि के अनुसार | tica.) सु० चि०२५ श्र० । (२) सोमराजी, For Private and Personal Use Only Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७३१... अवगुज.वीजम् प्रवसन्नता.. * बकुची-हिं० । हाकुच-बं० । ( Vernonia | अवश्रयण avashrayana-हिं. संज्ञा पु. ... anthelmintica.) भा० पू० १ भा०।। [सं०] चूल्हेप र से पके हुए खाने को उता मेष. कुष्ठ. चि०। । कर नीचे रखना। अवल्गुज वाजम् avalguja-vijm अ वश्याया avishyaya-सं० स्त्री० कुज्झटिका । अवल्गजोजम avajguji-jam See-Kujjhatikā. नकी सोमराजी बीज, बकुची । Vermonia | अवष्टम्भः avashtain bhah-सं०प० । anthelmintica. ( Tlie soeds अष्टम्भ Vashrambha हिं. संज्ञा पुं० । of-) [वि. अवष्टन्ध] स्वर्ण, सोना | Gold (Au. अघल्गुजादि लेपम् avalgujadilepam-सं० rum.) मे० । (२) प्राश्रय, सहारा ।। - क्लो० बकुची, कसौंदी, पमाड़, हल्दी, सैन्धव और अवध Avishrabdha-हिं० वि० [सं.] मोथा उन्हें समान भाग ले कॉजी में पीस कर लेप जिसे सहारा मिला हो । प्राश्रित । . करने से उम्र कराड (खुजली) का नाश होता है। अवष्वाणम् avashvanam-संक्ली . मरण । च०सं०। (Eating.) हे० च० । अवश(स)थिका avashakthika-सं० स्त्री० : (१) जानु देश । (२) पद बन्धन बस्न विशेष । अवसक्थिका ava sakthika-स० बी०. अवशिष्ट avashisht::-हिं० वि० [सं०] हि० संज्ञा स्रो० खटिया, खष्टिका, खट्टा, बच्चा हुश्रा । बचाखुचा । शेष | बाकी । उच्छिष्ट ।। खाट । पर्याय-पर्यस्तिका, परिकरः पर्यः । . बचा बचाया । ( Left, remaining.)। अवशेष avashesha-सं० पु०, हिं० संज्ञा पु. अवस्था avastha-हि. स्त्री० प्रकृति की हालत . [धि० अंवशेष, अवशिष्ट] (१) अन्त, समाप्ति । | जैसे ठोस, तरल का वायवीय । (Stato-) ... (२) बच्ची हुई वस्तु । तलछट ।(A residue, भवस्था परिवर्तन avastha-parivrttant **- rempant. ) -हिं० पु. ( Change of state. ) ४... वि० [सं०] बचा हुआ । शेष । बाक्री ।। - पदार्थ की एक अवस्था से दूसरी अवस्था में परिअवशेषित avisheshita-हिं० वि० [सं०] गति । इसका मुख्य कारण ताप है। अस्तु जब हिम. मोम वा जमे हए घी को उष्ण किया जाता बचा हुआ। शेष । बाकी। है, तब वे द्रवीभूत हो जाते हैं । यदि उन्हें तपाना अवश्यः avashyah ) सं००, स्त्री० जारी रखें, तो उनके वाष्प बन कर उर जाते हैं। अवश्या avashyā तुषार, शीत, और वाप्पों को यदि शीतल करें तो वे पुनः पाला, हिम, बर्फ । (Frost, cold, ice or snow.)। भा०म०४ भा० शिरोरोग, अ पूर्वावस्था को यथाक्रम प्राप्त हो सकते हैं। माधु. निक रसायनशास्त्र के अनुसार इसे हो “अवस्था आंब भेदक | "प्रारबातावश्याय मैथुनैः ।" भल्ला. परिवर्तन" कहते हैं। अवश्यायः avashyayah-सं० पु. प्रवसन avasanna-हिं०वि० [सं०11) अवश्याय avashyaya-हि. संज्ञा प.. . शान्त, फ्रान्त, थका हुआ, उदास । (२)जदी. शिशिर (Cold.)। च० द० पि० ज्व० भूत, स्वकार्याक्षम, सुन, स्पर्श शून्य, निःसंज्ञ । । मीकादि० । "अवश्याय स्थित पाकम् ।" (२)| अबसन्नता avasannata-हिं. संज्ञा खां० तुषार, हिम, पाला ( Frost, cold.)। सुम्न हो जाना; निश्चेष्ट होना, काय सुप्तता, भा०म०४मा० नासारो० "श्रवश्यायकमैथुन- स्पर्शाज्ञता, स्वक् शून्यता, त्वकस्वाप, संझानाश, ... वाष्प सेकैः । (३) झांसी । -मड़ी। कार्याक्षमता, जाब्य । यह स्पर्शशक्ति के विकार For Private and Personal Use Only Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir असनता जनक ७३३ अवसाता जनक से पैदा होती है। यदि कारण बलवान हो तो स्पर्श शकि सदा के लिए बिदा हो जाती है, अन्यथा वह विकृत वा कम हो जाती है। - अनस्थेसिया (Anesthesia), नाकोंटिज़्म ( Narcotism), नम्बनेस (Numb. ness)-इं० । खद्र, खद्दर, फ्रादुल इह. सास, कलालुल हिस-न० । जवाल हिस-फान हिस का जाते रहना-उ० । नाट-नाकोटिम अवसन्नता की उस कृत्रिम अवस्था को कहते हैं जो किसी अवसन्नताजनक औषध के प्रयोग से कृत्रिम रूप से उपस्थित हो जाती है। श्रवसन्नता जनक avasannatajanak-हि. . :सुभ करनेवाली औषध, वह औषध जो अपने शैत्य, रूक्षता और स्तम्भक गुण के कारण शारीरिक धातुओं तथा: श्रार्द्रता को सांगीभूत कर दे और प्रवियविक स्रोतो को अवरुद्ध कर प्राण वायु के श्रावागमनको रोके और इस प्रकार उन अंगको जड़ीभूत करदे । यथा-साहिफ़ेन, कोकोन प्रभृति । । संज्ञाहर, स्पर्श हारक, स्पर्शाज्ञताजनक, स्पर्शन।। औषध शरीर के जिस अंग पर लगाई जाती है, वह उस स्थल की बोध शक्रि को नष्ट कर देती हे प्रर्थात् उक्र भाग को अवसन्न कर देती है। लोकल अनस्वेटिक म (Local anesthe. ties )-ई. । मुक़ामी मुनहिर, मुक्कामी मुक्ततिकदुल इह सास-अ० । मुकामी हिस्स को ज़ायल करने वाली या सुन्न करने वाली दवा -301 वे निम्न हैंडॉकटरी-काबोलिक एसिड, युकीन, कोकीन का स्वस्थ अन्तःक्षेप, ईधर ( स्प्रे), वेराट्रीन, ईथल नोराइड, मीथत कोराइड (स्प्रे द्वारा) बाह्य शीत (बर्फ), श्राओंफ्राम प्राधेफाम न्य. आय. डा:फॉर्म, ईथर मीथीलेटस, ईथर मैथीं लिक्स, ईथल प्रोमाइदम्, ऐरोमैटिक पाहा ( सुगन्धित तैल), ऐकोईन, एजीपीन, अनस्थेमीन (अवस. खीन), अनस्थिल, थाइमोल (सत अजवाइन), टोपाकोकीन, सबक्युटीन, स्टोवेइन, फेनेाख • कैम्फर (फेमोन तथा कप), क्रोरेटोन, क्रोर · कोकीन हाइड्रो क्रोराहसम्, कोकीनी फेमीलास, लीन, ग्वाएको(किल, मेथीलाज और मेमोक्ष (सत पुदीना ) एवं नर्वसाईडीन, नमीन, नोबोकीन, हालोकोन, हाइड्रोलोराइड, युकीन हाइड्रोनोराइढम्, युग्युफार्म, युहिमबीन, स्टेनो कानि। • आयुर्वेदीय तथा यूनानी अहिफेन, तम्बाकू, शूकरान (कोनापम् ), धत्त र फल, अजवाइन खुरासानी, यजुस्सनम् (बिलाडोना), बीन लुफाह, उक्र हवान (बाचूना भेद), पार्वतीय अजवाइन, भंग, केशर, हमामा, काकनज,बीख जब, कुचिला, इस्वंद, श्वेत कटुकी, काहू, सुलसी, गुलेलाला, पित्तपापड़ा, सोभा, कुन्दुर, लवंग, शाहस रम, शकायत, बच्छनाग, विट्खदिर, धच, कोका, हिंगु, मेषगी (गुगभार), काली कटुकी, जलबोझी, निम्स, जटामांसी, बटुकी और अशोक । (२) सार्वागिक संज्ञाहरजेनरल अनस्थेटिक्स (General anaeg. अनास्थेटिक (Anesthetic), नार्कोटिक (Narcotic)-ई। मुखदिर, मुन्नतिकदुल इह सास, खदिर-अ०। नोट--डॉक्टरी की परिभाषा में अनस्थेटिक्स उन औषधों को कहते हैं जो मस्तिष्क एवं सौषुम्न केन्द्रों पर प्रभाव कर अचेतता एवं निःसंशता उत्पन्न करती हैं। परन्तु यह शब्द अब साधारणतः सुगन्धित व अस्थिर पदार्थों यथा कोरोफॉर्भ, ईथर, मीथिलीन, नाइट्स ाक्साइड गैस ( हास्य जनक पायव्य.) प्रभति के लिए ही प्रत्यक होता है। इसमें ऐलकोहल (मद्यसार ) तथा महिफेन जैसी मादक ( Narcotic) औषधे सम्मिलित नहीं, यद्यपि वे भी स्पर्शाज्ञताजनक है। • इनके दो भेद हैं () स्थानिक संज्ञाहर- इस.प्रकार की For Private and Personal Use Only Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अवसन्ताजनक ७३३ thetics )-इं” । मुख दरात कुल्ली - अ० । बेहोशी पैदा करने वाली दवा - उ० । ये औषधे इस प्रकार संज्ञाशून्यता उपस्थित - कर देती हैं कि फिर किसी भाँति की वेदना का बोध नहीं होता अर्थात् सार्वदेहिक स्पर्शाजताजनक औषधों के उपयोग से मनुष्य पर पुर्ण श्रचेतता व्याप्त हो जाती है। दुख एवं वेदना का सर्वथा लोप हो जाता है तथा परावर्तित चेष्टाएँ fare हो जाती हैं । यह औषध "विकास सिद्धांत" ( इस नियम के अनुसार बातकेन्द्रों पर औषध का प्रभाव उनके विकास क्रम के विरुद्ध होता है ) तथा "पूर्वोत्तजन एवं नैर्बल्योत्तर नियम" ( इस नियम के अनुसार अल्प मात्रा में अथवा प्रारम्भ में श्रौषध का उशेजक एवं अधिक मात्रा में अथवा पश्चात् को उसका नैवल्यजनक प्रभाव होता है ) के उत्तम उदाहरण हैं। अस्तु इनके घाण कराने अर्थाद सुधाने से भावना शक्ति प्रबल हो जाती है! पुनः सस्तिष्क गस्युत्पादक केन्द्रों में.. गति होती है और रोगी स वृधि की अस्थिरता एवं विभिन्न केन्द्रों की असाधारण तथा अनियमित गतिके. कारण अनाप शाप मूर्खतापूर्ण बातें करने लगता है और हाथ पाँव मारता है। थोड़े काल पश्चात् मस्तिष्कीय शक्तियों में निर्बलता के लक्षण प्रगद हो जाते हैं, बुद्धिभ्रंश होता तथा मस्तिष्क के उच्च केन्द्रों में और अधिक गति होती है । श्रतएव हृदय स्पंदित होता, श्वासोच्छ् वास तीव्र हो जाता और स्वभार बढ़जाता है । क्षण भर बाद ये लक्षण भी श्रय हो जाते और रोगी पूर्णतः अचेत हो जाता है । सम्पूर्ण शरीर की बोध शक्ति लुप्तप्राय हो जाती, भांस पेशियाँ शिथिल हो जात एवं किसी प्रकार की चेष्टा से भी ये गतिशील नहीं होती हैं। नेत्रकनीनिका संकुचित हो जाती, नाड़ी एवं श्वासोच्छवास की गति कम हो जाती है, इत्यादि । प्रायः ऐसी ही दशा में शखकर्म सम्पादित होता है। . पर यदि जेनरल श्रमस्थेटिक्स ( सार्वागिक संज्ञाहर ) का प्रयोग असावधानतापूर्वक किया Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लाए तो फिर भयानक लक्षण प्रगट होने लगते हैं । अस्तु, अनैच्छिक मांस पेशियों के वातग्रस्त हो जाने से प्रायः मलसूत्रका प्रवर्तन हो जाया करता है, श्वासोच्छ् वास एवं हार्दिक गतियाँ अत्यन्त निर्बल और अन्ततः अनियमित हो जाती हैं । प्रायः श्वासोच्छ्वास अ हृदय केन्द्र के वातग्रस्त हो जाने से मृत्यु उपस्थित होती है । मूर्च्छा दूर होने के पश्चात् जब चैतन्यता का उदय होने लगता है तब जिस क्रम से मनुष्य की शारीरिक क्रियाएँ अवसित हुई थीं, टीक 'उसके विपरीत उत्तरोत्तर के उपस्थित होने लगती हैं । किन्तु औषध का प्रभाव कई घंटे तक शेष रहता है और चैतन्यता लाभ करनेके पश्चात् भी : अधिक काल तक शारीरिक पेशियों भली प्रकार कार्य सम्पादन करने के योग्य रहती है : पूर्ण: श्रचैतन्यता प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष दोनों कारणों से उत्पन्न की जा सकती है । श्रस्तु श्रप्रस्यक्ष ( Indirect ) रूप से संज्ञाशून्यता उपस्थित करने की निम्न लिखित ती विधियाँ :: :: ( १ ) शिरोधीया धमनी ( Carom ) या गर्दन कीग को दबाकर था उन्हें कर बा. दोनों पार्क के वैगस- नर्वः तथा शिरोधी या धमनी को दबा कर और इस प्रकार मास्तिक रसञ्चार को अवरूद्ध कर, जिससे वातसेखीय संवर्तन क्रिया-न्य हो जाता है, पूर्ण दिसंज्ञता उपस्थित की जा सकती है । - For Private and Personal Use Only ( २ ) रक्र की वेनासिटी (शिस सम्बन्धी प्रतिक्रिया ) को बढ़ाकर और इस प्रकार. वातसेलों की श्रोषजनीकरण क्रिया को घटा, का भी बेहोशी उत्पन्न की जा सकती है।... (३) मस्तिष्क से शोभित को शरीर के अन्य भागों में पहुँचा कर जैसे पृथ्वी पर उत्सा लेटे हुए • रोगी को सहसा उड़ाकर खड़ा कर देने से भी बेहोशी उत्पन्न की जा सकती है ! अवसन्नीन avasannina. हि०पु० अनजीमः श्रवसनीन । 0 - Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अक्सावक ७३५.. '.... अवसादक ग्वसादक avasādalk-हिं० संत्रा प [सं०] :: कह औषध जो बढ़े हुए दोषों की ऊम्मा एवं क्षोभ को शमन करे अथवा वह जो धात्ववयविक क्रिया को अवसित करे । उदाहरणत:-(१)वात. केन्द्रिक क्रिया, यथा ताम्रकूट (तम्बाकू), लोहेलिया (अरण्य तम्बाकू), ब्रोमाइड प्रॉफ पोटाशियम प्रभृति, (२) रसञ्चालन सांस्थानिक क्रिया, यथा वसनाम, वेराटम्, टाटर एमेटिक, सिक एसिड प्रभृति; (३) सौषुम्न-काण्ड क्रिया, यथा-कालाबार थीन, इत्यादि। पर्याय-- शामक, क्षोभहर, संशमन, निर्बलताजनक-हिं० । सिडेटिहज़ Sedatives, डिप्रेसेण्ट्स Depressants-इं० । मुमक्किन, सू.जइक्र-१०। अवसादक औषधों को निम्न लिखित भागों में विभाजित किया जा सकता है । यथा (.)सावाँगिक वा व्याप्त अवसादक( General sedatives ) gaffara इमूमी-१०। ये निम्न हैपूर्ण मादक (Narcotics ) तथा अवसम्मताजमक ( Anesthetics) औषधे बमा भोपियम (अहिफेन), मॉर्फिया अन्तः रेप द्वारा ), ओरल, हायोसायमस (अजवाइन सुरासानी), जल तथा रक मोक्षण। (२) स्थानिक प्रवसोदक ( Sedati. ves)-मुसक्किचात मुक्कामी-०। ये निम्न हैप्रोपियम् (अहिफेन ), ऐट्रोपीन, एसिड कार्बो. लिक, एसिडम हाइड्रोस्यानिकम् दायल्युटम्, बोरेक्स (टेकण), बिलाडोना, प्रम्बाई एसीटास, प्रम्बाई कार्बोनास, क्रियोजटम्, क्रोरल, लाईकार प्रम्बाई सबएसिटेटिस सायल्युटस, मॉर्फीन (अहि. फेनीन) और अनस्थेटिक्स (अवसन्नताजनक औषध ) तथा ऐनोडाइन्स (अङ्गमईप्रशमन ) । . (३) मस्तिष्क अवसादक-(Cerebral Sedatives or depressants)| म.इफ्रात दिमाग़-अ.। ...इसके उपयोग से मास्तिष्कीय रकसंक्रमण शिथिल हो जाता है एवं मास्तिष्कीय शक्रिया निर्बल हो जाती हैं अर्थात् उनकी क्रियाओं में शिथिलता उपस्थित हो जाती है। ऐसी प्रोपों को निम्नलिखित चार श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है, यथा(.) निद्राजनक ( Hypnotics), (२) मादक वा संज्ञाहर (Narcotics.), (३) सायंगिक अंगमईप्रशमन (General anodynes) और सार्वा गिक अबसन्नताजनक (General anesthetics)। नोट-इनके पूर्ण विवेचन के लिए यथा स्थान देखो। (४) सौषुम्न अवसादक ( कसेरूकामज्जा अवसादक ) Spinal sedatives or depressants) मु.जइफ्रात नुना-अ०। ऐसी औषधे सुषुम्णाकांड के एण्टेरी अर्वानुवा के व्यापार को शिथिल करती है अर्थात् उसकी तीवा ( activity) को घटाती हैं। इनका सरल प्रभाव होता है अथवा परावर्तित रूप से और इनका यह प्रभाव सौषुम्नोत्तेजक औषधों के विपरीत होता है। बह औषध जो सुषुम्णा की परावर्तित गति को शिथिल करती है। (क) क्लोरल हाइड्रेट, प्रोमाइस, फाइ. साष्टिग्मीन, क्लोरोफार्म, ईथर, कैनाविस इंडिका (भंग ), प्रोपियम् ( अनि फेन), एपोमॉर्फीन, वेरेट्रीन*, एमेटोन, ऐलकोहल ( मद्यसार )*, अर्गट, गे(जे)लसीमियम्, सेपोनीन, एमाइल नाइट्रेट, सोडियम नाइट्रेट, कैम्फर ( कपूर ), मर्करी (पारद ),ऐण्टिमनी (अन), सोडियम, पोटासियम्, लीथियम्, सिल्वर (रजत), भार्सेनिक (सखिया , जिंक ( यशद), काबालिक एसिड टर्पेनटाइन ( तारपीन का तेल), कॉलधिकर (सूरिक्षान) और कावारूट। नोट-जिन औषधों पर ये (*) चिद्ध लगे हैं उनका पूर्व प्रभात्र सूक्ष्मोसेजक और अवसादकोत्तर प्रभाव होता है। For Private and Personal Use Only Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अवसादक ‘अषसादक उपयोग-क्लोरल हाइड्रेट, ब्रोमाइडस, फाइसाष्टिग्मीन,केलेबार बीन, भोपियम्, कैनाबिस इण्डिका और क्लोरोफार्म या ईथर (अाघ्राण द्वारा ) टेटेनस प्रभृति आक्षेप युक्र रोगों में सामान्यतः प्रयुक्त होते हैं। (स्य ) वे औषधे जो सुषुम्णा की परावर्तित गति को पेचीदा रूप से शिथिल करती हैं। ऐसी दवाएं सौषुम्नीय रक्तसक्रमण को अब. रुख कर स्वप्रभाव प्रदर्शित करती हैं। ये निग्न है एकोनाइट ( वस्सनाम), डिजिटेलिस और कीनीन, अधिक परिमाण में इनका अत्यन्त प्रबल प्रभाव होता है। (५) नासिकावसादक-( Nasal .. sedatives) मुसक्किमात अन्फ्र-अ०। वह औषध जो नासिका की श्लैष्मिक कला के क्षोभ को निवारण कर उस पर शामक प्रभाव करें। जैसे बिस्मथ साल्टस अकेले या मातीन एवं कोकीन प्रभृति के साथ और अन्य क्याप्तावसमताजनक औषध जैसे इपीकेक्वाना कम्पोजिटा तथा एकोनाइट ( वत्सनाभ ) प्रभुति । (६ ) हृदयावसादक-(Cardiac sedatives or depress:ints ) - इफ्रात कल्व-अ० वह औषध जो हृदय की गति को या उसकी शक्रि या उन दोनों को नियल करती है। निम्न लिखित श्रीपर्धे हृदय की पाकुचन शक्रि को घटाती हैं । फलतः वह प्रसार की दशामें ही गति करने से रह जाता है। वे यह है. ढायल्यूट एसिड स, मस्केरीन, एपोमार्फीन, . पाइलोकानि, सेपोनीन, कोरल, सैलीसिलिक एसिड,ऐलकलाइन साल्ट्स, दबल कॉपर साल्ट्सऔर डबल जिंक साल्ट्स अधिक मात्रा में प्रयुक करने से। निम्नलिखित औषधे हृदय की गति एवं शकि दोनों को घटाती हैं एकोनाइट ( वसनाम ), हाइडोस्यानिक, | एसिड डाइल्यूट, ऐण्टिमनी साल्ट्स (भवन के लवण ), वेरेट्रीन, और अर्गट प्रभृति । उपयोग-प्रादाहिक रोगों में मुख्यतः नाही की गति को मन्द करने के लिए एकोनाइट का प्रयोग करते हैं । ऐण्टिमनी साल्ट्स फुप्फुस एवं वायुप्रणाली के उग्र प्रदाह की दशा में हितकर होते हैं। जब अजीण के कारण पैस्पिटेशन प्रॉफ मी हार्ट (हृदय का धड़कना) विकार होता है। तब हाइकोस्यानिक एसिड के प्रयोग से विशेष लाभ होता है। दयाघसादक औषध-प्रोपियम् ( अहिफेन), एपोकाइनम् ( अमरीकीय भंग), एका तारोसेरेसाई, एमाइल नाइट्रिस, ऐण्टिमोनियम् टार्टरेटम्,बेलाडोना, डिजिटेलिस, स्पिरिटस ईधारिस नाइट्रोसाई, स्टे मोनियम (धस र ), सिल्ला ( बमपलांडु), सोडियाई नाइटिस, कोनायम (शक रान ), माइटोग्लीसरीन, वेरेटू म् धरडी, हायोसाइमस (अजवाइन खुरासानी), उशीर, गुडूची, एसिड ऐसीटिकम् ( सिरकाम्ल ), एसिडम् साइट्रिकम् ( जम्भीराम्ल ), एसितम् श्राग्जोलिकम् (चुकाम्ल), एसिडम् टार्टारिकम् ( अम्लिकाम्ल ), लिमनिस सक्कस ( निम्बुक स्वरस ), ऐरिटमोनियाई ऑक्साइडम् ( अञ्जन ऊप्मिद वा भस्म ), ऐण्टिमोनियम सल्फ्युरेटम्, ऐण्टिमोनियाई क्रोरोडाई लाइक्वार, ऐरिटमोनियम् नाइग्रम्, ऐरिटमोनियम् प्योरिफिकेटम्, एकोनाइटीन ( वत्सनाभीन ), सिमिसिफ्युगा रिजोमा, द्विजिटेलिनम्, लोवेलिया ( अरण्य तम्बाकू), स्टेफीसगाई सेमिना, टैबेसाई फोलिया, विरेट्राई विरिडिस रैडिक्स, विरेटम ऐल्बम् । (७) फुप्फुसीय वा श्वासोच्छवास श्रव. सादक-(Pulmonary or respiratorv sedatives)इसके निम्न लिखित कतिपय भेद है (क) अवसादक लखन (Sedative Inhalations )-लदल खात मुसकिन, लखलखहे मुसकिन-अ०। इन औषधों के बाष्प वायुष यानीस्थ स्लैष्मिक कला के For Private and Personal Use Only Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अवसादक ... होम को शमन करते हैं अर्थात् उस पर! .. (घ) सांवेदनिक वाततन्तुभों को शिथिल शामक प्रभाव करते हैं जैसे हाइडोस्यानिक | वा निर्बल करनेवाली औषधैं । ये स्वासोच्छवासएसिह डाइल्यूट , कोनायम (श करान ) और | केन्द्र अवसादक औषध है । अस्तु बहुँ। देखो - क्लोरोफार्म प्रभति । (ड)अवसादकोय श्लेष्मानिस्सारक-देखो. (ख) नासावसादक-यथा स्थान देखो । श्लेष्मानिस्सारक। . (ग) सरल श्वासोच्छवास केन्द्र अवसादक- . श्वासोछवासावसादक औषधे वह औषधजो श्वासोच्छवास केन्द्र को स्पष्टतया | प्रालियम् टेरीबिन्धीनी ( तारपीन का तेत), शिथिल करती हैं। यथा ईथर एसीटिक्स, ईथिल प्रायोडाइडम्, एका लारो. . ओपियम् ( अहिकेन..., काहान (अहि फेन । सेरेसाई, एमाइल नाइट्स, ऐरिमोनियम् टार्टरेटम्, का एक सस्व ), कोनाइम ( शुकरान ): बेलाडोना, पेरोनीन, टिकराभी-गणिनीएनी, , एकोनाइट ( वत्सनाभ), वैरेट्रीन, गैलसीमीन, जेल सीमियम्, डायोनीन,स्टेमोनियम् (चुस्तुर, सेपोनीन, फाइसाष्टिम्मीन (जौहर लोबिया सिरूपस भूनी वर्जिनिएनी, क्रोरस, कोरोफॉर्मम्, कालाबार ), बर्जिनियन पून, हिरोइन, कोडाइन ( कोडीन), कोडीगी सैक्षीसिलेट, .. हाइडोस्यानिक एसिड डायल्यूट, क्लोरल, ऐण्टि- कोहीनी फॉस्फॉस, कोढीनो हाइड्रोकोशहदम्, मनी साल्ट्स (अञ्जन के लवण ), एलको- कोनायम् (शूकरान), कोनाईन (शूकरानसार), हल ( मद्यसार )*, ईथर, क्लोरोफार्म, कोनाइनी हाइड्रोलोमाइसम्, कोनाइनी हाइड्रोको. क्वोनीन*, केफीन6, इपीकेक्वाना* | राइडम्, लोथेलिया (अरण्य साम्रकूट ), लैक्ट्युइनमें से अंतिम की सात औषधं जिनपर यह केरियम् ( अफ्रीम काहू), मॉर्फीन और उसके चिह्न (*) लगा है, श्वासोच्छवास केन्द्र को लवण, हायोसायमस (अजवाइन खुरासानी), शिथिल करने से पूर्व उसे अांशिक उरोजना हीरोईन, होरोईन हाइड्रोक्लोराइड, कूल, कचूर, प्रदान करती हैं। श्रामला, भू ई श्रामन्ना, कर्कटशृङ्गो, कंटकारी, फाइसाष्टिग्मीनका अत्यन्त प्रबल प्रभाव होता है वृहती, हरीतकी, बहेड़ा, उसाच । अर्थात् यह श्वासोछवास केन्द्रको अत्यंत शिथिल (८)यकृत् अवसादक-(Hepatic deकर देता है। किंतु इस अभिप्राय हेतु इसका pressants)-मुजइफ़ कबिद-अ० । देखोकदापि प्रयोग नहीं होता । श्रोपियम्, कोडाइन, पित्तस्राव अवरोधक। हाइडोस्यानिक एसिड डायल्यूट और वर्जिनियन (E) संवर्तनशक्त वसादक-(Meta. प्रन इस हेतु विशेष रूप से प्रयुक्त होते हैं। boiic depressants)-मुजइफ्रात कुवत उपयोग-फुप्फुस, प्रामाशय, यकृत, मुराइरह- अ. । वे औषध जो संवर्तन क्रिया को प्लीहा, फुप्फुसावरककला, वायुप्रणाली एवं प्रणालिकाओं, स्वरयंत्र, नासिका, क: और मंद करती हैं । ऐसी औषधे या तो शीघ्र प्राक्सि. डाइज ( उम्मिद ) हो जाती हैं या ऑक्सीहीमो. अन्नमार्ग के क्षोभ के कारण परावर्तित रूप से उत्पन्न हुई कास में ऐसी औषधे उपयोग में ग्लोबीन को एक ऐसा मजबूत यौगिक बना देती है जिसमें वह अपने प्रोपजन वायग्य को पृथक् पाती हैं । इस प्रकार की कास प्रायः शुष्क हुश्रा करती है अर्थात् इसमें अत्यल्प श्लेष्मवाद । नहीं कर सकता । ये निम्न है-- हुश्रा करता है। कीनीन, फेनेजून, एसिट एनीलाइड, सेलीसीन' परावर्तित-गति जम्घ कास-चिकित्सा में इन | ग्लीसरीन, रीसेंसन इत्यादि । - भौषधोंके उपयोग से पूर्व रोग के मूल कारण का (१०) आमाशयावसादक-(Gastric. • 'पसा लगा उसके निवारण का यत्न करना sedatives-) मुसकिनात मिन दह-१० । देखो-प्रामाण्य प्रवलादक। For Private and Personal Use Only Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अवसादक अवलेकिमः (११)नाड्यावसादक (Nervine sedati- सियम् नाइट्रास, उन्नाव, वृहती, कंटकारी, कर्कटves.)। मुसकिनात अन साब-अ०। वे औषध जो __ शृगी, भूम्यामलकी, कचूर, कृत और त्रिदंग । वातवहानाड़ियों के क्षोभ को घटा कर उन्हें शांति अवसादन vsadana--हिं. संज्ञा पु० । प्रदान करें। वे निम्न हैं अवसादनम् avasādanam-संकी पसिडम् हाइडोनोमिकम् , एक्का लारांसेरेसाई, नीचा करना । विटाना । वैद्यक में व्रण चिकित्सा एमाइल वेलेरिएनास, एमोनियाई ब्रोमाइडम्, का एक भेद । मरहम पट्टी । जिनमें कोमल एमोनियाई-वेलीरिएनास, ऐण्टिस्पैमीन, ऐण्टिमा- . और उठा हुमा मांस हो उन व्रणों नियम् टार्टरेटम्, पररा । पेरेरा ), पाटालियाई । को पुति कासीमादि द्रव्यों के चूर्ण प्रोमाइडम्, टायोनाल, जेलसीमियम (पीत को शहत में मिल कर लगाने श्रादि से अवसादन चमेली ), जिन्साई ब्रोमाइडम्, सोडियाई ब्रोमा कर्म करना (अर्थात् उनका मांस नीचर करना) इडम्, सेलिक्स नाइग्रा, फाईसाष्टिग्मा, फ्रेनेजनम्, चाहिए। यथा-- फेनेसेटीन, कोरेलोज़, कैम्फर ( कपूर ), कैम्फोरा "उत्सन्न मुदु मांसानां व्रगानामवसादनम् । मॉनो प्रोमेटा, गैलोब्रोमोल, लाइकार मैग्नीसि. कुर्याद्ययथोद्दिष्टश्चूर्णितेमधनासह ॥" याई ब्रोमाइडम्, लीथियाई ब्रोमाइडम्, लैक्टशु . सु. चि. १०। का, ल्युम्युलस, ल्युप्युलीन, मेन्थोन, बेलीरि. अवसादनी Tasadani-सं० स्त्री० महाकरज। एनेट, निकोली ब्रोमाइडम्, न्युरोनाल, बाइबर्नम्, (Pongamin glabd.) वेरोनाल, वेरेटम विरीडी । । अवसान avasana-हि. संज्ञा प [सं०] आयुर्वेदीय तथा यनानी अवसादक औषध- (1) मरण । ( २) सायंकाल । (३) समाप्ति अपामार्ग, बड़ी इलायची, दारुहरिद्रा, अन्त । (४) सोमा । (२)विराम | ठहराव । अपराजिता, हरिद्रा, तुलसी, वनतुलसी, राम अवसितम् avasitam सं० क्ली ) तुलसी, चन्दन श्वेत, चन्दन रक, उशार, कमल, अवसित avasita-हि.वि. निलोफर, अनार, नीबू, शर्बती नीबू, अमरूद, (१) मर्दित धान्य । (२) परिपक्क । (३) मकोय, ग्वार की गुद्दी, सिरका, प्रामला, हरीतकी, समाप्त। गुलाबजल, बर्फ, शीतल जल, नासपाती, ककड़ी यसो avasi-हिं. संज्ञा स्त्री० [सं० श्रावसित, के बीज, कह के बीज, पालक के श्रीज, काह, प्रा० श्रावसिन एका धान्य ] वह धान्य वा नारियल दरियाई, शेवाल, अहि फेन, यबरूज शस्य जो कच्चा नवान आदि के लिए काटा ( बिलाडोना), सफेदा, बत्तख की चर्बी, कुक्कु- जाए । अवलो । श्रस्वन | गद्दर । टाण्ड श्वेतक (मुर्गी के अंडे की सुनेदी), ! कतीरा, निशासा, धतूरा, शूकरान, खानिकन्नम्र, | अवसृष्ट Vasrishtaहिं० वि० [सं०] [श्री. अवमाटा] (1) त्यागा हुआ [ स्थक । अजवाइन खुरासानी, अलमास, धनियाँ, कासनी, | (२) निकाला हुा । (३) दिया हुआ । रसवत, बदरी (बेर), ईषद्गोल, टेसू के फूल, अक्राक्रिया बीत असबार, स्वुफ़ो, तम्बाकू, जबरजद, पालूबोखारा, रजत भस्म, प्रवाल भस्म वा । अवसेकः ava.sekah-सं० पु० रनमोक्षण, रक विस्तारण, शोणित निकालना व्यधन, प्रस्ददेवर कच्चा, सीप भस्म, बिहीदाना, सुरुम नुब्बाजी, ख़ित्मी, पारद, श्वेत कुमारड (पेटा) काकः ! रक्र निकालना। (Venesection, phle bo tony, Bloodletting.) नज, कुन्दुर, इस्वंद, बीख जर्ब, पित्तपापडा, | लवङ्ग, वत्सनाभ, गुडूची, मुलेडी, गम्भारी, ! अवसे किमः avase kimah-सं० पु० वटक, कपूरी (शारिवा ), श्यामलता, सुगंधयाला, पोटा बड़ा । (See-vatakah.) ० निध० । For Private and Personal Use Only Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अवसेचनम् चनम् avasechanam सं० क्लो० अवसेचन avasechana - हिं० संज्ञा पुं० (१) जलसेचन | सींचना | पानी देना | सु० 1 (२) पसीजना | पसीना निकलना । ( ३ ) यह क्रिया जिसके द्वारा रोगी के शरीर से पसीना निकाला जाए । ( ४ ) आँक, सींगी, तूं बी या क्रस्ट देकर रक निकालना | ७३८ अवस्कन्दः avaskandal सं०पु० श्रवगाहन स्नान, मज्जनपूर्वक स्नान करना, डुबकी लगाना | (Bathing, Ablution.) श्रवस्कयनी avaskayani-सं० स्त्री० बहुदिनानन्तर प्रसूता गाय, अधिक समय में वा बड़ी उम्र की ब्याई गाय । अवस्करः avaskarah सं० पु० श्रवस्कर avaskara - हिंοसंज्ञा पुं० ( १ ) विष्ठा, मल, बिट् ( Excrement, Foæces. )। ( २ ) गुह्य देश | ( Privyparts, Pudendum ) मे० रचतुष्क | (३) सम्मार्जनादि - निक्षिप्त धूल्यादि, श्रावर्जना, झाड़ना फूँकना । ( ४ ) मलमूत्र | अवस्करक: avaskarakah - सं० पु० सम्मा. नी, मनी, भाइ श्रवस्त्र avaskavm सं०० वचाके भीतर घुस जाने वाले आदि के कीड़े । अथर्व० । सू० ३१ । ५ । का० २ | अवस्था avasthaहिं० संज्ञा स्त्री० [सं० ] (१) दशा | हालत (state, condition.) । ( २ ) समय F काल 1 ( ३ ) आयु । उम्र 1 ( ४ ) स्थिति ! (+) वेदांत दर्शन के अनुसार मनुष्य की चार श्रवस्थाएँ होती हैं- जागृत, स्वश, सुषुप्ति और तुरीय । ( ६ ) स्मृति के अनुसार मनुष्य जीवन की श्रावस्थाएँ हैं-- कौमार, पौगंड, कैशोर, यौवन, बाल, तरुण, वृद्ध और वर्गीयान् । ( ७ ) कामशास्त्रानुसार १० श्रवस्थाएं हैं- श्रभिलाषा, चिन्ता, स्मृति, गुणकथन, उद्वेग, संलाप, उन्माद, व्याधि, जड़त और मरण । ( ८ ) निरुक्त के Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ::fi: अनुसार छः प्रकार की अवस्थाएँ - जन्म, स्थिति, वर्धन, विपरिणमन, अपक्षय और नाश । ( 2 ) सांख्य के अनुसार पदार्थों की तीन अवस्थाएँ है—श्रनागतावस्था, व्यक्राभिव्यक्कावस्था और तिरोभाव । एक अवस्थांतर avasthantara-हिं० संज्ञा पुं० [ सं० ] ( Change of stato ) अवस्था से दूसरी अवस्था को पहुँचना | हालत का बदलना | दशापरिवर्तन | अवस्थान avasthána - हिं० संज्ञा पुं० [सं०] ( १ ) स्थिति । सत्ता । ( २ ) स्थान | जगह । वास । अवस्थापन'avasthapana-हिं० संज्ञा पु० [सं०] निवेशन | रखना | स्थापन करना | अवस्थात्रय avasthatrya - हिं० पु० वेदांत दर्शन के अनुसार जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति ये तीन श्रवस्थाएँ हैं । अवस्था विचार vastha-vichára-सं० पुं० दशा विचार, अवस्था का निश्चय करना । अवस्थंदन avasyandana-हिं० संज्ञा पुं० : सं० ] टपकना | चूना । गिरना । श्रवह avaha - हिं० संज्ञा पु ं० [सं०] (1) वह वायु जो श्राकाश के तृतीय स्कंध पर है । ईथर (Åther) | ( २ ) वह दिशा जिसमें नदी नाले नहीं | अवहस्तः avahastah सं० पु० श्रवहस्त avahasta - हिं० संज्ञा पु० हस्त पृष्ठ, हाथ या गली का पिछला ( पृष्ठ ) भाग, उलटा हाथ ( Back of hand ) । हे० च। अवहारः,-क avahárah, kahto पु ं० अबहार,-क: avahára, kh--हिं०संज्ञा पुं० ( १ ) ग्राहाख्य जल तन्तु, मगर । ( Alliga tor ) मे० रचतुम्क । ( २ ) जलहस्ति । सूँ स । अहालिका avabaliká सं० त्रां० प्राचीर, बाहरका कोट, प्राकार, चार दीवारी । ( A wall, > For Private and Personal Use Only Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रविहित ७३६ अवाक् पुष्पी घृतम् अवहित avahita-हिं० वि० सं०] सावधान! । अवाको avaqi-अ० (२०५०), पौकिय्यह एकाग्र चित्त (ए० व० ) देखो-ौकियह । भवही avahi-हिं० संज्ञा प० [सं० प्रबह-बिना : अवाक् avāk-हि. वि० [सं० अवाच् ] (1) पानी का देश ] एक प्रकार का बबूर जो कांगड़े के: वाक्य रहित, चुप, मौन, चुपचाप ( Speech. जिले में होता है । इसकी लपेट आर फीट की । less )| (२) स्तब्ध । जड़। स्तंभित । होती है . यह मैदानों में पैदा होता है और ।। चकित । विस्मित। इसकी लकड़ी खेती के औजार बनाने नया छतों : के तहतों में काम आती है। हि० श० सा। अवाक पुष्पा avik-pushpi-सं० (हिं० संशा) स्त्रो० (१) हेमपुष्पी । Hemapushpi.) अवहोरा vahini-हिं० श्राम वृत । See र०मा०। (२) सौंफ मधुरिका । (Madhuása. Tika. ) शाहया । रत्ना० । रा०नि० प्रवक्षिप्त avukshiptan० । व० ४। ( ३ ) शत पुष्पी सोया-हि. । गिरा हुआ। शुल्का बं० । बड़ी शोक-मह। (Ses-shata. अवक्षिप्त सन्धिः avakshipta-sandhih | pushpah) रा०नि० व०४।०६० -संप सन्धि विश्लेष, संधिस, संधि क्युति. प्रशशि० सुनिपण-चांगेरी चूत । (४) चार ( Disloention.) । "अयक्षिप्त" में संधि पथ्यो । वह पौधा जिसके फून अधोमुख हो। दूर हट जाती है और तीव्र वेदना होती है। सु. (See-chorapushpi ) रत्ना० । नि० १५ अ०। अवतुत avakshuta-हिं० वि० [सं०] जिस , अवाक् पुप्पो घृतम् avakpushpi.ghri. | tam पर छींक पड़ गई हो। अवाक पुष्पादि घृतम् avāk-pus hpadiअवक्षेपण avakshepanu.हि. संज्ञा पु., ghritam [सं०] [वि. अवक्षिप्त ] (१) गिराव । अवाक पुण्यादि घृतम् avak-pushpyādiश्रधः पात | नीचे फेकना । (२) अाधुनिक ! ghritam , विज्ञान के अनुसार प्रकाश, तेज वा शब्द की ! -सं० क्ली. अचाक पुष्पी ( सौंफ), मधुरी, गति में उसके किसी पदार्थ में होकर जाने से .. बला, दारुहल्दी, पृष्टपर्णी, गोखरू, बगद, गूलर वक्रता का होना । और पीपल वृत की कोंपल प्रत्येक २-२ पल, श्वक्षेपः avakshipuh-सं० क्ली० (१): इनका क्वाथ, पीपर, पीपरामूल, मिर्च, देवदारु, (Astorion.) । (२) ( It of dep. i कुटज, सेमल का फूल, चंदन, ब्राह्मी, केशर, ressing. ) कायफल, चित्रक, नागरमोथा, फूलप्रियंगू, अवक्षेपणो awalkshepani-सं० स्त्रा. वल्गा, अतीस, शालपर्णी, कमल केशर, मजीठ, अमल- लगाम । हे. चं० । तास, बेल गिरी, मोचरस, सोनापाठा, प्रत्येक अवक्षेपित avakshepita-हिं० वि० निम्नस्थित, १-१ तो. इन्हें ४ प्रस्थ जल में क्वाथ करे तलस्थित, अधःक्षेपित । तलस्थाई, तहनशीं । जब १ प्रस्थ शेष रहे तो सुनिषण्णक (कुरडू) अवाँ avān-हिं० संज्ञा पु० दे० श्रावा।। और चांगेरी का रस २-२ प्रस्थ, गोघृत अवा ava-हि० विछुपा घास । (Girardinia- | १ प्रस्थ मिश्रित कर पकाएँ। heterophylla. ) गुण-इसके सेवन से सन्निपातातिसार, प्रवाश्रवाइद रदिय्यह, aavaidan.radiyyah हिका, गुदभ्रश, श्रामजन्य रोग, शोथ, शूल, -अ० कुस्वभाव, खराब आदत । बैड हैबिट्स गुदारोग, मूत्रावरोध, मूदवात, मन्दाग्नि, तथा ( Bad habits-)-इं० । अरुचि का नाश होता है। For Private and Personal Use Only Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अवाक् शीराः, स् अवारिक नोट-पहले कहे हुए श्रा द्रव्यों का ! जरडी, करिडयारी, अराजन, लान । बैसोटा सोलह गुने पानी में क्याथ करें। जब १ प्रस्थ fajar (Ballota limbata, Benth.), शेष रहे तब उसे ग्रहण करना चाहिए । वंग से. श्रोटोस्टेगिया लिम्टा (Otostegin lim. सं० अर्श चि० । च० सं० । bita, Benth.) ले०1 ई. मे०लां । अवाक् शीराः,-स् avak-shirah,-s-सं.पु. ! उत्पत्तिस्थान--पञ्जाब, झेलम से पश्चिम निम्न शिरस्क । की पथरीली भूमि की निम्नस्थ पहाड़ियों से अवाक् संदेस avilk.salidesa-हि० संशा .. साल्ट रेञ्ज पर्यत । पु. [ बंग० देश०] एक प्रकार को बैंगला . प्रयोगांश-पौधा, पत्र, ( औषध एवं मिठाई । चारा )। अवागी avigi-हिं० वि० [सं० अवाग्विन= उपशेग--इसकी पत्तियों के स्वरस को _अपटु ] मौन ! चुप । बालकों के मसूढ़ों पर लगाते हैं । स्ट्यवर्ट। अवाग्र avagr:-सं. पु' बक्र । (Oblique.) । अवान्यम् avinyan-सं० क्ली० देखो--- अवा मुख avang-mtkhiहि. वि० [सं०] ' धम् । (१) अधोमुख, उलटा । नीचे मुंह का । मुंह अवाप्त avapta-हिं० वि० [सं०] प्राप्त । लटकाए हुए । नत ।। २) लजित । लब्ध । वाची avachi-हिं० स्त्री० दक्षिण दिशा। अवार aavat-अ० दोष, कबाहन, बुराई । (South.) अवारम् arārain-सं. क्ली. अवाचीन: avachinh-संत्रिक श्रधार avara-हि. संज्ञा पु. अवाचीन avachina-हिं० वि० नदी श्रादि का पूर्व पार। नदी के इस पार का विपर्यस्त, विपरीत । ( Reverso.) मे किनारा ! सामने का किनारा ।पार का उलटा ! नचतुष्क । (२) दे० अवाङ्मुख । सवाच्यदेश: avachyu-tleshah-२० पु प्रचारण avarina-हि. वि० [सं०] (१) ___ योनि । (Vagina) विका० । जिसका निषेध न हो सके। सुनिश्चित । अवाज़िम avāzin-० (ब०व०), प्राजमह (२) जिसकी रोक न हो सके। बेरोक । (१००)दा । अनिवार्य । अवाजिम aavijin-अ० दंष्ट, दंत, दात । अवारणोय Avaraniya-हिं. वि. [सं.] टीथ ( Teeth -ई० । (१)जो रोका मजा सके । बे रोक । अनिवार्य । अवात avata-हिं० वि० [सं.] वातशून्य | . (२) जिसका अवरोध न हो सके । जो दूर न जहाँ वायु न लगे । निर्वात । हो सके । (३) जो श्राराम न हो । असाध्य । अयातिब aratibu-अ.(ब० व०), बतब (ए.' __संज्ञा पुं॰ [सं०] सुत के अनुसार रोग व० ) दूध की शीशी । बच्चे को दूध । का वह भेद जो अच्छा न हो। असाध्य रोग । पिलाने की शीशी । यह ग्राउ प्रकार है वात, प्रमेह, कुष्ठ, अर्श, अवान aavatu-अ०(1)वह स्त्री जिसके पती मौजद : भगंदर, अश्मरी, मुदगर्भ और उदर रोग । हो (fistress. ) । (२) वृद्धावस्था । अवारपार: Yara pārah सं . अधेड़ उमर । अवारपार alaapara-हिं० संशा पु. ) अवानम् avanaun-सं० ली. शुष्क फल आदि।। समुद्र । (A sea ) (Dry fruits,etc. ) श० र० । अवारिक aavariqa-अ. भेदक दन्त विशेष | अवानी बृटी avini.buti-40 बूइ फुटकण्डा, केनाइन (Cumine.)- For Private and Personal Use Only Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अवारिका अविकृति नित्र० । अधारिका avarika-सं० (१ संज्ञा) स्त्री० | लथी (Dolichos biflorus.)! "अधिः कु. धनियाँ। (Coriandrum sativum.) लाली चतुष्या कुम्भकारी कुलस्थिका" । र०मा०। अवारिके avarik) कना. तरबह-हिं० । (१३) मेषी । ( See-- veshi) त्रिका (Cassia auriculatt, linn. ) (१४)ऋतुमती, रजस्वला । (A woman मेमा । during menstruation.) श्रम । अवारिज avariz.l-अ० ब० व०), पारिज (१५) लज्जा । (ए. ३०) दशा व कैफिपर, वह दशा एवं : अधिकम् arikn-सं. क्लो० () हीरक, कैफियत जो किसी अन्य दशा के अाधीन हो। हीरा । ( Diamond. ) रा. मि०। भवारिज नफा निय्यह, aviriz-mafsa- (२) मेष । (Alam.) niyyah-अ० अम्राज़ या इनिकालात अविकमांसम avika-mausam-सं. क्ला. मामानी-०। मानसिक दशाएँ, मनोविकार . मेषनास । ( Flesh of ram.) वै० कषाय | यह छः है-(१) दुःख (ग़म), (२) भ्रम ( हम्म ), ( ३ ) भय (खौफ़ ), : ": अविकल uvikalti-हिं० वि० [सं०] १) (४) क्रोध ( गु.स्सह), (५) प्रानन्द जा विकत न हो। बिना उलट फेर का । ज्यों ( खुशी) और (६) लजा (शर्मिन्दगी)। का त्यों । ( २ )पूर्ण । पूरा । (३)निश्वल । पैशा (Passions. )-इं। अव्याकुल । शांत । भवारी aviri-हिं. संज्ञा स्त्रा० [सं० वारण ], ! अविकला nvikapu-दि० वि० [सं०] (१)जो बाग। लगाम । __विकल्प से न हो । निश्चित । (२) निःसंदेह । हिं० संशा श्री०स० प्रबार (3) किनारा । असंदिग्ध । मोड़। (२) मुख-विवर । मुंह का छेद। विकाः avikāh-स. स्त्री. छोटो छोटी भे। माvिicit-अ. पृथ्वी की मारक वाय । अथव० । सू० १२६ । १६ । का० २०॥ नोट- सामुद्रीय विधातक वायु को "ता. अविकार. avikira-हि. वि० [सं०] जिसमें सिफ" कहते हैं। विकार न हो । विकार रहित । निशेष । अवासिल avasil-० (व. २०), वासिलह संज्ञा पुं॰ [सं० jविकार का प्रभाव । (ए. व.) माँगे हुए चोटी के बाल | अधिकारी avikāri-हिं. वि० [सं० प्रवि. लगाने वाली स्त्री। कारिन् ] [स्त्री० श्रविकारिणी] (1) जिसमें अविः avih-सं० पु. विकार न हो । विकार शुन्य । निर्विकार । १ मे, भेड़ (A अवि avi-हिं० संज्ञा पु. म . (२) जो किसी का विकार न हो। ram.)। भा०पू०। (२) मूषिक । She. अविकाशी avikashi-हि. वि० [सं० अदि. Mushikah.। (३) कम्बल । : See-- ! काशिन् [स्त्री. अधिकाशिनी ] जो विकाशी न kambalah. ) मे०। (४) मत्स्य हो । निकम्मा निस्क्रिय । भेद (A sort of fish.)। (१) प्राचीर ( An enclosure.)। (६) : अधिकृत avikrit:-हिं० मि. . [सं० वायु Air.)। (७) सूर्य। (1)! जो विकृत न हो। जो विकार को प्रास न हो। माक । मंदार । () काग बकरा ! (३०) जो बिगड़ा न हो पर्वत । (1) अमूर । विकृति avikriti-हिं० संज्ञा स्त्री० [सं०] -सं० (हिं. संचा) ० (१२) कुलरियका, कु. विकार का भभाव । For Private and Personal Use Only Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org विक्रांत अविक्रांत avikránta हिं० वि० [सं० ] दुर्बल, कमज़ोर ७५२ अविक्रिय avikriya-हिं० वि० पुं० [सं०] [ खो० अविक्रिया ] जिसमें विकार न हो । जिसमें बिगाड़ न हो। जो बिगड़ा न हो । श्रविगडे avigadda-कन. ० श्ररुई, आलुको । ( Arum colocasia ) ई० मे० मे० । श्रविगन्धrt avigandhani अविगन्धिका avigandhika - सं० अविगन्धी avigandhi वि कारक, दीपन, कटुक ( चरपरा ), उष्ण, लेखन, लघु तथा तिकारक हैं और रक्रदोषकारक तथा कफ बात विनाशक है । द्रव्य० गु० । अविनत् avitat - हिं० वि० [सं०] विरुद्ध | श्रविजन avijana - हिं० संज्ञा पुं० [सं० अभिजन ] कुल । वंश | श्रतिक्रम avitakram-सं० क्ली • मेची तक्र, भेदका तक। ( Buttermilk, with a fourth part water prepared fro .msheep's milk ) गुण-भेद का तक, अभ्य अम्ल, दुर्गन्ध 2 स्त्री० ( १ ) अजगन्धा, बन यमानी, (२) तिलोड़ी खरी । बजुई तुलसी (Ocimum grati ssimum) रा०नि० ० ४ | अविग्नः,-प्रः avignaghah- सं० पुं० (१) पानीया मलक जल अँत्रश ! ( F'laco- ] श्रवित्यज urtia cataphracta ) सा० सु०. (२) करमई वृक्ष, करौदा ( Capparis corundas.) । करमूचा गाछ - बं० 1 कर वंद मह० । श्रम० अविग्रह avigrah- हिं० वि० [सं०] जिसके शरीर न हो। निरवयव, निराकार | अवित्रात avigháta - ६० संज्ञा पुं० [सं०] विघात का प्रभाव | I अविचल avichala-f६० वि० [सं०] विचलित न हो । अञ्चल स्थिर । अटल अविच्छिन्न avichchhinna - हिं० वि० [सं०] अमिन, संलग्न, भेद रहित, यक, अविरल | (२) श्रविच्छेद, अटूट, लगातार ! अविच्छेद avichhheda - हिं० वि० [सं०] जिसका विच्छेद न हो। श्रटूट । लगातार | विच्छेद रहित । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उलटा । श्रवितत्करण avitatkaran - हिं० संज्ञा पुं० [सं० ] विरुद्धाचरण । श्रविता avita-सं० स्त्री० मेवी, भेड़ी । ( An ewe.) श्रवितैश avitaish - श्र० २ तो० ३ मा० ६ रत्ती, किसी किसी के मत से १ मा० १ रत्ती का माप विशेष | श्रवित्यजः avityajah - स ० पु० avityaja - हि० संज्ञा पारा | पुं० पारद, Mercury ( Hydrargyrum.) शब्द० कल्प० । रा० नियं व० १३ । राजनिघण्टु में भी " अचिन्त्य न " ऐसा फोउ श्राया है। श्रविधोली avitholi-मल० काला नागकेशर । (Kálá Nágkesara. ) फा० इं० ३ भा० । श्रविदग्ब: avilagihah-०० afa avidagdha-ff. } (१) अम्ल, खट्टा नहीं । विजयर० श्रजीर्णत्रि० । ( २ ) जो जला या पका न हो । कच्चा । For Private and Personal Use Only श्रविदग्धम् avidagdham श्रविदुग्धम् avidugdham}-स० क्लॉ० मेषी दुग्ध, भेड़ का दूध ! ( Sheep's milk. ) हला० | देखो - आधिक क्षीरम् | अविदु (दु ) ध्यम् avidu, dü-shyam सं० क्ली० मेषी दुग्ध, भेड़ का दूध । ( Sheep's milk) हला० । श्रविद्धकर्णा aviddha-karná स ० स्त्री० (१) पाठा ( Cissampelos hernandifolia) श्रनादि बं० पटी सा० Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अविद्धकर्णिका,- ७४३ प्रविप्रियः की। जातीफला वटी । (२) भृङ्गराज, सं० क्ली. सौंठ, मिर्च पीपा, हड़, बहेड़ा, भांगरा-हि' । भीमराज-बं०। ( Eclipta श्रामला, नागरमोथा, वायबिडंग के बीज, इला. erects. ) अटी। यची, तेजपात, तुल्य भाग, '. तुल्य लवंग ने अविच कर्णिका,-र्णी aviddha-karnika, चूर्ण करें। पुनः सबके द्विगुण निशोथ का चूर्ण rni-स. (हिं. संज्ञा) स्त्री० (१) पाठा, फिर सर्व तुल्य मिश्री योजित कर इसे किसी पाढ़ा नाम की लता । ( issampelos.) स्निग्ध पात्र में स्थापित करें। श्राकनादि-बं. अटी. जातीफला वटी। मात्रा-२से मा० तक। अविaraviddha-स. स्त्री० दुष्ट शिरा व्यधग गुण इसे शीतल जल या नारिकेल के जल - अर्थात् शिगों का अनुचित रूप से वेध हो। के साथ पान करने से अम्लपित, शूल, अर्श, जाना । जो हीन शस्त्र के कारण बहत छेद की। २. प्रमेह, मूत्राघात और पथरीका नाश होता है। गई हो वह "अपविद्धा" है। सु० शा० पथ्य-दूध भात । यह अगस्तमुनि कथित श्र०। अविपत्यकर चू है । वङ्ग से० सं० अम्लपिस अविद्वेष aviklvesha-हिं० सज्ञा पु० [स] चि. । र० सा०सं०। भैष० । प्रयोगा० । सा. कौ० । नोट-त्रिकटू श्रादि प्रत्येक १ तो०, लपंग विद्वप का प्रभाव । अनुराग । प्रेम । चूर्ण ११ तो०, निशोथ की जड़ का चूर्ण ४४ अविधवा uvidhava-हिं० वि० [स] तो० और शर्करा ६६ तो० लें। सधवा, सौभाग्यवती, सुहागिन । श्रावधेया avitlheya-स. स्त्रो० ( Invoi- | अविपटः aripata b-सं० प. ऊर्णामय वा ___untary muscle ) अनैच्छिक वा स्वाधीन ___कम्बल आदि । ( Blanket etc.) मांस पेशी। अविपन्न avipanna-हिं० वि० [सं०] स्वस्थ, नीरोग। अविध्यदृष्टि avidhydrishti-स. स्त्रो. जो रोगी शिरा वेध के योग्य नहीं है। जो दृष्टि- | अविपर्यय Aviparyaya-हिं० संज्ञा पसं०] 'रोग, पीनस और खाँसीसे पीड़ित है, जो अजीण, विपर्यय या विकार का न होना। . भीरु, बमित तथा शिर, कान और आँख के अविपाल avipala -हि. संज्ञा पं० शूल से पीड़ित है, उसके लिंगनाश को न वेधना | अविपालक avipaluk: j [सं०] गैडे. चाहिए । वा० अ०१४ । रिया । ( A shepherd.) अविनाश avinasha-हिं० सज्ञा पु० [सं०] / अविपाकः avipākah-सं० पु. अपरिपाक । विनाश का अभाव । अक्षय । अपकता । अबिनाशक avinashika-हिं० वि० पु. अविपित्तक avipittaka-हिं. सज्ञा . (Nonlethal) अघातक, अमारक, विनाशक | [सं०] एक चूर्ण' जो अम्लपित्त के रोग में मात्रा से कम । दियाजाता है । देखो-अविपक्ति(त्ति)करचूर्णम अविन्दनः aviylalah-सं० प. बड़वानल । | अविप्रियः avipriyah-सं० पु. श्यामाक तृण । Seo varavánalah. शामा घास-बं० । साा-हिं० A kind अविपक्ति(त्ति)कर चूर्णम् avipakti,-tti-] of grain generally eaten by ___karacharnam the Hindus (Panicum frumentअविपत्यकर चूर्णम् a vipatyakarachi || aceum; P. colonum. ) रा०नि० l'ņam व०१६ । For Private and Personal Use Only Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अविपिया ४४ अविषा अविभिया avipriya-सं० स्त्रो. श्यामालता, अविरल aviral--हिं० वि० [सं०] (1) कृष्ण शारिवा । ( Ichnocarpus frute. जो विरल वा भिन न हो। मिला हुआ। scens. ) रा० नि० । (२) श्वेतालता दुप (Thick.) (२) घना ! सघन | अव्यवच्छिन्न । (Ster-shveta.) । (३)कोमल-हिं०, सं०। प्रविरि aviri-ते. नीलवृक्ष । ( Indigofera बादियान कोही-अफ । फितर सालियून-भा० । ___Indica.) वाजा०, यु.। ( Prangos pabularia, : अविरुहा aviruha-सं० स्त्री० मसरोहिणी | l.indi.) फा० ई० २ भा० । (See-wánsaroliņi.) अविवत्सम avibattam-ता० सुगंधवाला,बालक अविलपोरी avila-pori-मल० सरहटीनह. (Puvonia olorata.) ई० मे० मे०। पताल भेदी, सर्पाक्षी । (See-sal pākshi..) विभक्त uvibhakta-हिं० वि० [सं०] | अविलम्बित avilanbita.- हिं० वि० प्रति(१) जो अलग न किया गया हो। मिला। लम्बित, जो अस्त्र द्वारा काटने से अस्थि मात्र शेष हुश्रा । (२) विभाग रहित । (३) अभि.. ! रहे उसे "प्रतिलम्बित" कहते हैं। एक। अविला avila--सं० स्त्री० मेषी । (See-- अविभुक् avibhuk-सं० पु. व्याघ्र | (A eshi) हे० च० । tiger')। लांडगा-मह० । . निघ०।। अघिलेय-avileyaft० वि० अनघुल । जो विलीन अविमरीष(स)म् avimarisha,--sa,--11 न हो । जो किसी प्रकार के तरलमें न घुले । सं.क्ली० श्राविक्षीर, भेड़ का दूध, मेषी का। ( Insoluble. ) दुग्ध (Sheep smilk.)। हला० हे. अविलेयता avileyata-हि. सज्ञा स्त्री. च.1 ( Inssolubility. )विलीन न होनेका धर्म। अविमुक्त uvimukta-हिं० सज्ञा पुं० [सं०] | अनघुलपन । कनपटी । अविवृतः avi-vrikshah--सं० पु. मेषगी , अविमुक्तक: avimuktakah--सं. __ मेदा सिंगी । See Meshashrigi. माधवी लता। (See--Midhavi.latā.) अविशिरम् avishiram--सं० की. सूर्यावर्त व निघ०। ___ फल, हुलहुल का फल, हुरहुर । हुबहु र फल अविमुक्तका avimuktaka-सं० स्त्री. (१) -aoi ( Cleome Viscosa ) तिन्दुक वृक्ष । (Diospyros Cordifolia) निघ०। तेंद-बं० । तेन, केंदु-हिं० । टेभुरणी-मह । (२) अविश्वासा avishvasa-सं० स्त्री. चिर प्रसूता काक तिन्दुक, तिन्दुक विशेष, तेंद । (Diospy- | गाय, अधिक काल की व्याई हुई गाय । yos toinentost.) व निघः । श०च. अविमोचम् | vi-mocham-सं० क्ली. आ. अविषः avishah-सं० पु. (१) समुद्र विक तीर, मेषी दुग्ध, भेड़ का दुग्ध । (The sea) । (२) आकाश । (OKy. - (-heep's aniik.) र० मा० | विष avish::-सं० क्ली० निविष, विषअवियोग aviyoga-हिं० सज्ञा पुं० [सं०] रहित, बिनाजहर का । ( Nonvenomous, (१) वियोग का अभाव । (२) संयोग । मि-! hot poisonous ) अथव। सू० २। लाप -वि० [सं०] (१) वियोग शून्य ।। १६ । का। जिसका वियोग न हो । (३) संयुक्र । सम्मि- अविषा avisha--सं० स्त्री० अतिविषा, अतीस । लित । एकीभूत। | (Aconitum heterophyllum) रा. For Private and Personal Use Only Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रविसी नि० ० ६ । ( २ ) निर्विषी तृण, निर्बिसी, निर्विषी घास । वै० नि० । ( २ ) एक जड़ी । जदूवार । यह मोथे के समान होती है और प्रायः | हिमालय के पहाड़ों पर मिलती है। इसका कंद अतीस के समान होता है और साँप बिच्छू आदि के पि को दूर करता है । ( Curcuma zedoaria. ) श्रविसी avisi - ते० अगस्त । अगस्तिया (Agati grandiflora.) ७४१ wat होत्रा बाइलिम्बाई अत्री (वे)ना ओरिएण्टेल्लिस arena orientalis - ले० विलायती जौ, जई, खरताल । अत्री (वे) ना प्युबोसेन्स avena pubescens, L. -ले० यह एक प्रकार की घास है जो चारा के काम श्राती है। मेमो० । सं० क्ली● अवि- | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रवी (वे) ना मैटेन्सिस avena pratensis, Linn. ० एक प्रकार की घास है जो चारा के काम आती है। अवी (वे) ना फँचुश्रा avena_fatua, Linn. -ले० कुल्जद, गन्दल, जेई - हिं० । गोजंग, कासम्म कवा पं० । प्रयोगांशु - पौधा । उपयोग - श्री. ध व खाद्य (पशु) । मेमां० । अविसोढ़म् avisodha क्षीर, भेड़ी का दूध | अविस्रम् avisram - सं० त्रि० पूर्ति-गंबरहित, grifa afga (Avoid of ill-smelling.) च० चि० २ श्र० । अवी avi - सं० (हिं० संज्ञा ) स्त्री० ( १ ) बन कुलस्थ, बन कुलथी । Dolichos biflorus ( The wild var. of - ) २० मा० । (२) ऋऋनुमता स्त्री, रजस्वला स्त्री । ( A woman | during menstruation. ) हे० ० । अर्वाकम् avikam--तु० फेफड़ा, फुफ्फुस | (Tile | अव मूत्रम् avimútram-सं० क्लो० मेषी का lungs.) अत्री (वे) नीन avenin - ३० श्रवीना बीज सत्व । देखो - जई। इं० मे० मे० । अवकुस aviqus - अङ्ग फ़ारुतीय, नख । ( See-nakba.) अवघ्न avighna-सं० बुक्का वृक्ष । See Bunká. सूत्र, भेड़ी का सूत्र । च० ६० । अयोरई avirai-ता० श्रीरम् aviram - मल० श्रवीरो aviri-ता० तरबद- हिं०, ६० । (Cassianuriculata, Timney श्रवीज धर्मी avija dharmmi-सं० त्रि० जो इं० मे० मे० । फा० ई० १ भा० । श्रीरघ्नो aviraghui सं० जो जीवन का नाश करे | ० | वीज धर्मो न हो अर्थात् वह जिसमें बीज रूप होकर कोई पदार्थ न रहे। वह आत्मा है। क्योंकि बीजरूप होकर कोई पदार्थ जीवारमा में नहीं रहते; किन्तु प्रकृति में रहते हैं इससे यह पुरुष (आत्मा) बीज धर्मी नहीं है। सु० शा ० १ ० । अजो avija-सं० ( हि० संज्ञा ) स्त्री० गोस्तनीं के समान गुणवाली द्राक्षा, किशमिश थे दाना | Raisin, currant (uve ) | भा० । देखो - अंगूर | अर्वादुग्धम् avidugdham सं० क्ली० मेषी दुग्ध, भेदी का दूध । च० द० । अधोना avina- एक बूढी का निचोड़ है ( बूटी के सम्बन्ध में मतभेद है ) । अवी (वे)ना सेटाइवा avena, sativa, Linn. -ले० जौ, विलायती जौ-हिं० । एक प्रकार की घास है जो आहार व पशुओं के चारा के काम में जाती है। मेमा० । अवीर होम एसिडा averrhoa acida-ले० हरफारेवडी । ૩ अव होना करम्बोला verrhoa carambola, Linn. -ले० करमल-हिं० । काम राँगा -बं० । कमुरुङ्ग सं० । खमरक, करमर-बम्ब० । खमूरक-द० । तामूरिया ता० । करोमोंगा ते० । प्रयोगांश-- अपक फल, पत्र और मूल । उपयोग - रंग, औषध और खाद्य । मेमा० । अवीर हो आइलिम्बाई averrhoa bilimbi, Linn. ले० बिलिम्बी-बं० हिं० । उपयोगांश- पुष्प व फल भव्य हैं। मेमा० । For Private and Personal Use Only Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अवीवरन् ૭૪૬ अवाँसी saiवरन् avivaran सं० वरण या वरुण नामक वृक्ष बरना । ( Cratva tapia ) अथर्व० । सू० ८५ | १ | ० | अवसम् avisam- का० समर साथर, साथन-हिं० । श्रवेद्या avedya-हिं० वि०, स्त्री० [सं०] वह स्त्री जिससे विवाह नहीं कर सकते । श्रविवाह्य स्त्री । पुदीना कांही | अबीसीनिया श्रफ़िसिनेलिस avicennia officinlis, Linn. - ले० मड, नल्लभड नं0 | तीवर - सिंध | मल० । थमे - बर० । बीना- बं० । श्री एपटा प्रयोगांश - स्वक्, गिरी व भस्म । उपयोग - रङ्गः वभच्य अवीसीनिया टोमेन्टोसा avicennia to | mentosa, Jueg. - ले० व्यना - हिं०, बं० । तिम्मर-सिंघ | नल-मड-ते० 1 (Avicennia, Downy leaved.) प्रयोगांश- मूल व बीज | उपयोग - औषध | श्रवेद्यः avedyah - सं० पु० श्रवेद्य avedya - हिं० संज्ञा पुं ० श्रवेगी avegi - सं० त्रो० विधारा । वृद्धदारक | रा० नि० । वीसीनिया, डाउनी लोव्ह्ड avicennia, downy leaved - इं० बू अली सीना, बू | श्रवेक्षण avekshana - हिं० संज्ञा पुं० [सं०] अली, बीना | ( Avicennil tomentosa) इं० हैं० गा० । [वि० अवेक्षित, अवेक्षीय ] ( १ ) अवलोकन, देखना । ( २ ) निरीक्षण | जाँच पड़ताल | अबुक; avukh-सं० पु० छाग, बकरा । ( A श्रवैद्य avaidya - हिं०वि० [सं०] जो वैद्य न हो । जो वैद्यक शास्त्र को न जानता हो । goat. ) श० र० । श्रवरा avira-हिं० श्रामला, वरा । ( Phyllanthus emblica. ) अवाइस uvois-हिं० श्ररुई, घुइयाँ । ( Coloc asia antiquorum.) मेमो० ! अवृद्धः avriddhah सं० पु० पुष्प वृक्ष भेददम् a vodam-सं० क्ली० घाद्रके, श्रादी, पाषाण पुष्प । पत्थर फुल - मह० । चै० अदरक । ( Zingiber officinalis. ) निघ० । जटा० । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १ ) गो घरस, बछवा, बछड़ा | ( A calf. ) शु० र० । (२) नादान बच्चा ! अवेना avena ले देखो - अवना । अवेन्स avens- इं० वाटर अवेन्स ( Wate 1avens.)। अवेर होश्रा एसिडा averrhoa acida - ले० हरफारेवड़ी । देखो – श्रींहोना एसिडा । श्रवेल avela - नारियल का तेल, नारिकेज़ तैल | ( Cocoanut oil. ) अवेला avela-सं० स्त्री० एग चन्चित, चिकनी सुपारी । चिश्न- शुपारि- बं० । श्रवेश avesha - हिं० संज्ञा पुं० [सं० प्रवेश ] ( 8 ) किसी विचार में इस प्रकार तन्मय हो जाना कि अपनी स्थिति भूल जाय। आवेश । जोश । मनोवेग । ( २ ) भूतावेश। भूत चढ़ना । किसी भूत का सिर श्राना । भूत लगना । I अवांतर avantara-हिं०वि० [सं० अंतर्गत । मध्यवर्ती | श्रीच का | संज्ञा पुं० [सं०] मध्य | भीतर ! बीच | यौ० - श्रवांतर दिशा-बीच की दिशा । विदिशा। अवांतरभेद - अंतर्गत भेद | भाग का भाग । वि० पुं० [सं०] ( १ ) अज्ञेय । ( २ ) श्रवासी avansi - हिं० संज्ञा स्त्री० [सं० अवा अलभ्य । सित ] यह श्रोम जो फसल में से पहिले पहल For Private and Personal Use Only Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रव्यथा काटा जाय । यह नवान्न के लिए काम में प्राता गोकर्णी-मह० । Clitore: ternatea प्राता है। अखान । ददरी । कवल । अवली । (The black var. of-) वै० नि । अब्द: aridas-स. पु. (१) वत्सर, वर्ष | अव्यक्तानुकरण avyaktānukarana-हिं० ( A year.) 1 (२) मुस्तक, मोथा (Cyp. संश: पु. [सं] शब्द का अस्फुट अनुerus rotundus.)। (३) मेव । See- करण । जैसे मनुष्य मुर्गे की बोली ज्यों की स्यों Mesha (अटो० रा०)।-क्ली. (४) अभ्र, नहीं बोल सकता; पर उसकी नकल करके अम्रक | Tale (Mica.) कुकुहूँ. बोलता है । अन्दसारः avdasāran-सं० पू० कपूर भेद।। अन्यग्र avyagra-हिं०वि० (१)जो व्यंग (A sort of camphor.) अव्यङ्गः avyangah-सं०वि० वा टेढ़ा न हो। अभ्यंग avyanga-हिं० वि० ) सीधा । प्रविअव्यक्त aryakta-हिं० वि० [सं०] (1) । कलांग । (२) घबराहट रहित, अनाकुल । अदृश्य, अप्रकट, छिपा हुआ, अप्रकाशित -स्त्री० शूकशिम्बी, केवाँच । श्रालाकुशी- बं०। अप्रत्यक्ष ( Indistinct, invisible) । (Muc.ina pruriens ). ( २ ) अज्ञात । (Iimperceptible) अव्यगां। avyanganga-हिं० वि० [सं०] संज्ञा पु० [सं०] (१) कामदेव । (२) [स्त्री० मध्यंगांगी ] जिसका कोई अंग टेवा न वेदांत शास्त्रानुसार प्रज्ञान । सूक्ष्म शरीर और । हो । सुडौल । सुषुप्ति अवस्था । (३) जीव । (४) परमेश्वर, ! अव्यंगा avyanga-हि. संज्ञा स्त्री० [सं०] परमात्मा। ( The Supreme 13 eing केवाँच । करैंच । कोच । (Mucuna pruor Universal Spitit.)। (१)प्रकृति । __riens.) स्वभाव । टेम्परामेण्ट (Temperament.) अध्यंजन avyanjana -हिं० वि० [सं०] दे० अव्यक्त लप्रभव avyakta-mila-prab अव्यञ्जनः । hava-हिं० संज्ञा पुं॰ [सं०] संसार । अभ्यञ्जनः avyanjanah-सं० त्रि. . जगत। श्रव्यञ्जन avyanjana-हिं वि. अन्य तम् avyaktum-सं० कली. (१)| ( Hornless. ). शृंगहीन, सींग रहिस, प्रकृते । मैटर (Matter )-इं० । बिना सींग का (पशु), (डा । (२) चिह्न "अखिलस्य जगतः सम्भव हेतरच्या नाम ।" शून्य । हला। सु. शा. १० । (२) श्रात्मा । सोल | अध्यंडा avyanda-हि. संशा स्त्री० [सं०] (Soul.)-इं० । दे० श्रव्यण्डा। अव्यक्तराग avyaktaraga-हि. संशा प.)। अव्यण्डः,-एडा avyandah,"nda . ) भव्यक्तरागः aryakta.rāgah-सं० पु. -सं००, श्री. ) अव्यण्डा avyanda-हिं० संज्ञा स्त्री. ) ईपत् लोहित वर्ण, हलका लाल, अरुण । | (१) भूम्यामलकी, भूई प्रामला ( Phylla. पर्याय-अरुणः (अ), ताम्रः । (२)गौरः (ज)। nthus neiuri.) । (२) कपिकच्छु, गौर, श्वेत । केवाँच । पालाकुशी-बं० । (Corpopogon अव्यक्तलिंग avyakta-linga-हिं. संज्ञा पु. pruriens.)। च० चि ३० । [सं०] वह रोग जो पहचाना न जाए । भव्यथा avyatha-सं० (हिं० संज्ञा)खी० अग्यका avyakta-सं० स्त्री. कृष्ण गोकर्णी, (१) स्थल कमलिनी, स्थलपन, पप्रचारिणी । कृष्णापराजिता ! काल अपराजिता-ब० । काली ( Ionidium suffruticosum ). For Private and Personal Use Only Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभ्यथिा,-धी अवगूदपण्डु भा० पू. १ भा० । रा०नि० १० ११ । (२) श्रवण शुक्रः avrana.shukrah-सं० पु० । हरीतकी, हा ( Terminalian che bur | अव्रणशुक्र avrana shukra-हिं० संज्ञा पु.) la.)। (३) महाकावशी, गोरखमुण्डी । नेत्र के काले भाग (काली पुतली) में होने ( Spheranthus hirtus. ) भा. बाला रोग विशेष । आँख का एक रोग जिसमें पू. १ भा० गु०व० । (४) मामलकी, प्रामला अाँख की पुतली पर सफेद रंग की एक फूली सी (Phyllanthus emblica.)। (५) पड़ जाती है और उसमें सुई चुभने के समान लक्षणा, लक्ष्मणा मूल (Lakshamana-)| पीड़ा होती है। (६)सोंठ। ___ लक्षण-अभिष्यन्द के कारण यदि नेत्र अम्बाथा,-थी avyatbih,-thi-सं० पु. के कृष्णा भाग में श्वेत वर्ण की, चलायमान अश्व, घोड़ा । ( A horse.) वा० सू० ४ तथा अतिपीड़ा और अशुओं से व्याप्त न हो प्र. प्रजास्था । एवं जैसे अाकाश में बादल होते हैं इस प्रकार की फूली हो तो उसे श्रवण ( Uण रहित ) शुक्र अव्यथिषः avyathishah-सं० प. (१) (फूली) कहते हैं और यह सरलतापूर्वक साध्य समुद्र ( A sea.)1 (२) सूर्य । (The होती है (झट अाराम हो जाती है) । और यदि sun.) सि० को। यही फूली गभीर और गाठी हा बहुत दिन का भग्यथिषा avyathishi--सं० स्ना० (1) पृ. हो जाए तो उसे कष्टसाध्य कहते हैं। सु० उ० थिवी ( Earth.)1(२) अई रात्रि, मध्य ५०। निश, प्राधी रात । ( Midnight.) जो फला श्रभिष्यन्दात्मक (प्रास्त्रों के दुखने से भव्यथ्या avyathya-सं० स्त्री० हरीतकी, हर।। उत्पन्न हुआ) कृष्ण भाग में स्थित हो और { Terminalia chebula.) भा० पू० घोष (सिंगी, तुम्बी) आदि से चूसने के समान १भा०। पीड़ा करे और शंख, चन्द्रमा तथा कुन्द के फलों अव्यभिचारी avyabhichari-हि. वि० [सं० के समान सफेद, प्रकाश के समान पतला और अव्यभिचारिन् ] जो किसी प्रतिकूल कारण से प्रण रहित हो उस शुक्र को सुख साध्य कहते हटे नहीं । हैं। जो शुक्र (फुला) गहरा तथा मोटा को अन्यया avyayi.-सं० स्त्री. गोरखमुण्डी । महा और बहुत दिनों का हो उसको कष्टसाध्य कहते श्रावणी । गोरखमुण्डी-मह । गोरक्ष-चाकुलि हैं । असाध्यता--जिस फूले के बीज में (Sphaeranthus Hirtus. ) गड्ढा सा पड़ जाए या उसके चारों ओर वै० निघ०। मांस बढ़कर उसको घेर ले, अचक्ष न रहे अर्थात् एक जगह से दूसरी जगह में चला जाए, अव्यर्थ aryartha-हिं० वि० [सं०] (1) सूक्ष्म शिरानों से व्याप्त हो, इष्टि का नाशक, जो व्यर्थ न हो । सफल । (२) सार्थक । (३) दूसरे पटल में उत्पन्न और चारों ओर से बाल प्रमोध । हो तथा बहुत दिनों का हो तो ऐसे शुक को वैध अभ्याध्या avyadhya-सं० श्री. दुष्ट शिरा त्याग देवे। मा०नि०। वेधन । जो शिस शस्त्रकर्म (छेदम, वेधन) से अवतः avratah--सं० पु. वह ज्वर जो बिमा वर्जित है ( उसका वेध होना) अध्याध्या कहाती नियम के प्राता है। अथ सू० ११। २। है । यथा--"प्रशस्वकृस्या अव्याध्या" । सु० का०७। शा०प्र०। अव्वगुड़ avvagura अध्यापw avyapanna-हिं० वि० [सं०] अव्वगूद पण्ड avvaguda-pandu ज़ो मरा न हो, जीवित, जिंदा । ते? भाबुब्व । महाकाल, लाल इन्द्रायन । For Private and Personal Use Only Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ग्राम्यस रामद ( Trichosanthes Roxb.) स० [फा० ई० । अव्वल avvala-fão वि० पु० [अ०] (1) पहला | आदि का | प्रथम । ( २ ) उत्तम ! श्रेष्ठ | संज्ञा पुं० आदि | आरम्भ | अम्मलिय्यतुल् विलादत avvaliyyatul- | अश(स)नक: asha,sa;-nakab-स: पु० असन पुष्पाकार धान्य विशेष | श्र० १ alata tomentosa ) च० स्० ४ ० ४३ दशक । ( ४ ) चित्रक, चीता' ( Plumbago zeylanica.) । (५) भल्लातक वृक्ष, भिलावाँ । ( Semecarpus_anacardium.) वे निघ० । सु०सू० ४६ CHE Palmata, vilādato विक्रियतुल विलादत थम यार शिशु जननेवाली स्त्री, वह स्त्री जो प्रथम यार शिशु प्रसव करे, प्रथम प्रसवा । प्राइमा पास ( Primapara ) - इं० । लिय्य avvaliyyah ऋ० पहला, प्रथम । ( First ) अशक्त्र, ãashagah to देखो इश्क । ( ais hg. ) श्रशकुन ash.kana-हिं० संज्ञा प ु० [सं०] कोई वस्तु वा व्यापार जिससे अमंगल की सूचना समझी जाए। बुरा शकुन | बुरा लक्षण । अशकुम्भी asha kumbhi- सं० स्त्री० पानीयोपरिज वृक्ष | जल कुम्भी । ( Pistia stratiotes ) र० मा० । अशक ashakta - हिं०वि० [सं०] [ संचा शक्ति ] ( १ ) निर्वल । कमज़ोर । (२) श्रम असमर्थ | अशक्ति ashakti - हिं० संज्ञा स्त्री० [सं० ] [वि० अशक्रः ] निर्यलता । कमजोरी। शशङ्कर ashaukar - कना० समान, सुमान-ऋ०, फा० । तिमतिम, तमतम - श्र० । ( Khus coriaria. ) अशद्द ashadda-० बलवान, सरा ती स्वभाव, १८ वर्ष की अवस्था से लेकर ३० वर्षीय युवा | अशनम् ashanam सं० की ० अशन ashana-हिं० सला ० } [ वि० श्रशित, अशनीय ] ( 1 ) भोजन, अश्न, आहार, (Food) । ( २ ) भोजनकी क्रिया । भक्षण | खाना । रा० नि० ० २० । असन - सं ० ० (३) पीतशाल, वृक्ष ! Asan tree ( Terminalia Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अशनपर्णी :shanaparni - स०प०, ख० (१) विजयसार वृक्ष, पटसन ( Pterocarpus marsupium ) | माराटी-पश्चिम दे० । पर्याय- त्रातकः शीतलः, शीतलवातकः, असनपर्णी, सनपर्णी, शीतः और शीतकः । ( २ ) गोकर्णीलता - स० । अपराजिता- बं० । ( Seegokarnilatá) अम० । अशनप ुष्प: ashana-pushpab-'० प ु० अशन पुष्पाको शालिधान्य, पष्टिक धान्य विशेष | सु० सू० ४६ ० । ( A kind of paddy ) अशन मल्लिका ashana-malliká स ० स्त्री० श्रास्फीता 1 परमाली - बं० । ( Clitoris ternatea. ) ० ६० । अशुना, या aşhaná, --ya-स० [स्त्री० (1) सुधा, भूख । ( [lunger. ) हला० । ( २ ) शुक्र निपात्र, श्वेत शिम्बी, सफेद सेम । ( Phaseolus radiatus ) रा० नि० व० ७ । अशनायुकः aşhanáyukah- ०.० भूखा, gfa (Hungry.) अशनिः ashanih - स०पु०, स्त्री० हीरक, हीरा । होरे बं० । (Diamond.) वे ० निघ० । अशनि ashani - हि० स० (१) विद्युत । ( २ ), इन्द्र का शस्त्र । श्रधर्ष० । ० २७ । ६। का० ३ | ( Lightening.) अशनीय ashaniya - हि० वि० [सं०] खाने योग्य । अशमद्द् ãashamah-o घाक्य, वृद्धापन, जुदाई, वृद्धता, वृद्धाई, जरापन। सीनीलिटी (Senility.) - ई० । For Private and Personal Use Only Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सायम्म शम्म ashainma-ऋ० बड़ी और ऊँची नाक वाला | वह व्यक्ति जिसकी घ्राण शक्ति ( कुव्वत शाम्म ) अत्यन्त तीव्र हो । अशरफी asharafi-० संज्ञा स्त्री० [फा०] (१) एक प्रकार का पीले रंग का फूल। गुल अशरफ्री । ( २ ) सोने का एक पुराना सिक्का जो सोलह रुपए से पचीस रुपए तक का होता है । मोहर | अशरास asharāsa ० एक जड़ी है जिसकी पत्तियाँ मजनून, पुष्प रक्तभायुक्त श्वेत वर्ण के तथा फल गोल होते हैं। अशरीर sharir - हिं० पु० शरीर रहित, कन्दर्प, काम, मदन | Lust, Kamdev. ( The hindu cupid. ) अशर्फी बूटा asharfi buti - रसा० अशरफी । अम्मं asharma-हिं० संज्ञा पुं० [सं० ] कष्ट, दुःख | वि० (१) दुःखी । ( २ ) गृह रहित । अशल ashalla–अ० टुण्डा, अपाहिज वह व्यक्ति जिसका हाथ शुष्क हो गया हो । अशा aasha-० अश्वान, झमी लेली, नक्रांध्य, राज्य धता, नक्रांधता, रतो धी। यह एक प्रकारका नेत्र रोग है जिसमें रात्रि में दिखाई नहीं देता । हेमीरल ओपिया ( Hemeralopia ) - ई० । शाs āashá -० निशा, रात्रि, निशाहार, रात का खाना | डिनर ( Dinner ) - इं० । अशाका,-खा şháká, kha-सं० की० शूली सूर्य । शाखाशून्यलता । रा० नि० ० ८ See--shuli अंशान्नगन्धाढया ashánta-gandhadhyá - सं०] स्त्री० श्राम्रहरिद्रा आमहलदी | ग्राम प्रादा य० । श्रविहलद-मह० (Curcuma amada.) o fago | अशान्त चूर्ण ashanta-churna fa० बि० अनबुका चूना। (Quick or unsis ked lime.) | अशाम ashama अ० बाम चोर, बाई ओर ! Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इसका बहुवचन अशाम side.) शुक्ला 1 ( Left अशितम् ashitam - सं० पती० श्रशित } ashita-fo fo भुत्र, खाया हुआ, खादित, तृप्त । हे०च० । अशितम्भव: ashitabhlavah - सं० पु० अन्न | भात-बं० । अशितलता ashita-lata-सं० स्त्री० नीलदूर्वा, नीलीवूड | (See--nila-durvvá) वै० निघ० । अशिरम् ashiram-स० क्ली० अशिर ashira fर्द० संज्ञा पुं० 1 (१) हीरक, होरा । ( Diamond) रा० नि० ब० १३ | देखो - बच्चम् । (२) अग्नि ( Fire ) | ( ३ ) राक्षस ( A demon. ) | ( ४ ) सूर्य 1 ( Sun. ) अशिरष्क ashirashkनक रहे। कन्चन (A headless trunk.) प्रशिशिम्बां ashi-shimbi - सं० स्त्री० स्वनामाख्यात शिम्बी विशेष सफेद सेम । थोर श्वेत थाचै- मह० श्वेत शिम् बं० । (The whiteflat bear.. ) गुण- मधुर, कसेली, श्लेष्मपित्तघ्नी, जयदोष नाशिनी, शीतल और रुचिकारी है। रा० नि० व०७ । अशश्विश्व - का ashish vishva, ká-सं० स्त्री० श्रनपत्या, पुत्र कन्याहीन स्त्री, सन्तान रहित स्त्री । ( A childless woman ) No र० । अशोता ashita अशुका aşhuklà - सं० स्त्री० भूमिकुष्मांड, पताल कुम्हड़ा । ( Ipo moea Digitata. ) वै० निघ० । अशीगन ashiran - यु० खायहे संग-फा० । अशरून ashirún - इन्दलु० हुनुस्सह । एक अप्रसिद्ध बूटी है । अश्लजा ashuklaja - सं० स्त्री० वीरोधान्य, वोर धान । (See - Borodhana ) चै० निघ० For Private and Personal Use Only शुक्ला ashukiá सं० श्री० भूमिकुष्माण्ड । ( Ipomoea Digitata ) चै० निघ Page #793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अशुंडार अशोक अशुङ्कार ashunkār:-कना. अशोक-हिं०, बं०!! (Saraca indica.) अचिः ashuchih-सं०नि० अशचि ashuchi-हिं० वि० [संज्ञा अशौच1 (१) अशुद्ध, अपवित्र, अशौची । (1) गंदा । मैला । ( Impure, foul, unclcen )। -हिं० संज्ञा स्त्रो० अपवित्रता, अशुद्धता ( Im purity.)। अशुतायर aashuttail-अ० घाँसला, खांथा । नेस्ट (Nest)-इं०1 अशुद्ध ashuddha--हिं० वि० [सं०] [संज्ञा | अशुद्धता, अशुद्धि ] (१)बिना शोधा हुअा।। बिना साफ किया हुआ । असंस्कृत । जैसे अशुन्छ । पारा ।। २) अपवित्र । अशूक ashuka-नेपा० ल्हाला-भोट०, लेप० ! सुर्च, सुट्स, काला-विस् , सर्दकर, धुचुक, सर्चाचुक, चुमा-पं० । हिप्पोफी सिलिसिफोलिया (Hippophie silicifolia, Don. ) -ले०। (N.O. Eleagnacece.) उत्पत्ति-स्थानशीतोष्ण हिमालय, जम्बू से सिक्किम पर्यन्त । प्रयोगांश-फल । उपयोग-इसका फल फुप्फुस रोगों में उप- | योग किया जाता है ( पञ्जाब में)। ई० मे. प्लां । प्रशूकजः, कः asbika.ja h, ka.h-6. प. मुण्डयालि, निःशूक शालिधान्य 1 (See-mu nd ashali) रा०नि० ५० १६ । अशुष्कतोयमलः ashushka toyamalah --स. ए. समुद्रफेन | Cuttle-fish bone (के. नि.)। अशृत ashrita-सं० क्ली० अपक, करवा अशोक: ashokath-स. प. अशोक ashoka-हिं सशाप अशोक, असोक, अशोक बीरो, अशोगी-हिं । सैरेका इण्डिका (Saraca Indica, Linn.), Daftar Har (Jonesia asoka, Roab.-ले. ।दी अशोका री ( The Aso ka troe )-। जोनिसिया प्रस्जोगम (Jonesia as jogam.)-फ्रां । सस्कृत पर्याय - अलमाप्रियः, वीतशोकः (शब्द० मा०), शोकनाशः, विशोकः, पशुखामः वजुलः, मधुपुष्पः, अपशोकः, कलिः, घेलिक, रक्रपलयः, चित्रः, विचित्रः कर्णपूरः, दोहली, ताम्रपलवः, रोगितरुः, हेमपुष्पः,घामतिः, यातना, पिण्डीपुष्पः, नटः, रामा, पल्लवन :, (रा), कान्तावि. दोहदः (त्रि), चक्रगुच्छा (श), ककेलिः, पिण्डपुष्पा, गंधपुष्पः, रक पहषका, वामांनियातनः, रागपल्लवः, केलिकः, सुभगः, मोहलीक, पल्लवद् म, राम । अशो( सो)क गाय, अशोक फुलेर गाछ-ब' । असोक-हिं०, १०, बस्त्र०, उडि०, कना०, ०। अशोक-मह। देशी पील फुलनो, प्राशुपालो, आयपाल (खा) -गु० । आसोपालव, प्रासापाल-हिं०। होण्या -सिंह। असोगम-मल०, ता० । असोकडा, केत्रिमर-कना० । जासुदी-बम्ब० । थागबो-बर० । असेक- कटक, मह । म्यकर--गु०। शिम्बो वर्ग (N.O. Leguminosle,-cer.) उत्पत्ति स्थान-अशोक हिन्दुओं का एक पवित्र वृक्ष है । यह पूर्वी बंगाल की, जो सम्भवतः इसका प्रादि निवासस्थान है, साकों के इधर उधर बाहुल्यता से पाया जाता है । दक्षिण भारत, अराकान और टेनासरिम में यह अधि. कता के साथ उत्पन्न होता है। संयुक्रप्रांत में कुमायूँ के समीप २००० फीट उब इसके वृष होते हैं । सुन्दर पुष्पों के लिए इसको बहुत से स्थानों में लगाते हैं। वानस्पतिक वणन-अशोक प्रायः हो प्रकार का देखा जाता है। नीचे इनमें से प्रत्येक का पृथक् धक् वर्णन किया जाता है-. (.) यह एक इतस्ततः विस्तृत बहुशाखासमन्वित उत्सम छाया तरु है । साधारण वृन्त के दोनों पार्श्व में १.६ जोड़े पत्र होते हैं। पत्र रामफल के समान प्रायः १८.३० अंगुल लम्बे सामान्य चौड़े, तरुणावस्था में रञ्जित एवं लम्बित For Private and Personal Use Only Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अशोक अशोक होते हैं । पत्रप्रांत अखंडित एवं किञ्जित् तर गायित होता है। पुष्प गुच्छाकार, प्रथम कुछ , मारंगी रंग के, फिर क्रमशः रावण के होते आते हैं। बसन्तकाल अर्थात् फागुन (एप्रिल तथा मार्च ) में पुष्पित होते हैं। पुपित अशोक हरु प्रति ही मयनानन्ददायक होता है। इसमें चौड़ी फली लगती है जिसमें बड़े बड़े बज होते हैं। वृष स्वक् बाहर से शुभ्र धूसर तथा (Scabrous.) होता है। वृक्ष से समः छेदित पदार्थ श्वेत, किंतु वायु में खुला रहने पर वह शीघ्र रक घरा में परिणत हो जाता है। स्वाद-मृदु कषाय और अम्ल । (२) एक वृक्ष जिसके पत्र श्राम की तरह खम्बे, पत्रप्रांत लहरदार होते हैं। इसमें सफेद मंजरी (मोर) बसन्त ऋतु में लगती है जिसके मर जाने पर छोटे छोटे गोल फल लगते हैं जो पकने पर लाल होते हैं, पर खाए नहीं जाते । इसके वृक्ष प्रत्यन्त सुन्दर और हरेभरे होते है, . इससे इसे बगीचों में खगाते हैं। शुभ अवसरों पर इसके पत्र की बंदनवारें बांधी जाती है । रासायनिक संगठन-इसकी छाल को रसायनिक परीक्षा अभी तक यथेष्ट रूप से नहीं हो पाई। पथ्बट Abbott (१८८७)के परीच. यानुसार इसमें हीमेटॉक्रजीलीन ( Hematoxylin) वर्तमान पाया गया। हूपर ( Ph. arm. Indica.) ने इसमें यथेष्ट परिमाण में टैनीन (कषायीन ) की विद्यमानता का वर्णन किया। स्कूल ऑफ ट्रॉपिकल मेडिसिन के रासायनिक विभाग में विभिन्न विलायकों से इसके विचू. र्णित शुष्क त्वक् के सत्व प्रस्तुत किए गए जिसका निष्कर्ष निम्न रहा-पेट्रोलियम ईथर एक्सट्रैक्ट 0.३०७ प्रतिशत, ईथर एक्सट्रैक्ट 0. २३५ प्रतिशत, और ऐब्सोलूट ऐलकाह लेक एक्सटू क्ठ | १४.२ प्रतिशत । ऐलकोहलिक एक्सट्रैक्ट (मद्यसारीय सस्व) में, जो बहुतांश में उपण जल विलेय था, यथेष्ट परिमाण में कषायीन (टैनीन) और सम्भवतः एक सैन्द्रियक पदार्थ, जिसमें लौह विद्यमान था, पाए गए। ऐलकलाइड (क्षारोद ) और उदनशील वा सुगंधित तैल ( Essential) के स्वभावका कोई क्रियाशील सत्व नहीं पाया गया । इसको पूर्ण परीक्षा की जा रही है। (पार. एन० चोपरा एम० ए०, एम. डी. ड. है. पृ० ३७७) प्रयोगांश-वंक, बीज! मात्रा..२ तोला । औषध-निर्माण तथा मात्रा--अशोक धृत; अशोकारिष्ट, मात्रा-१ से ५ तोला; तरल सब, मात्रा-१५.६० मिनिम (व)। अशोक के गुणधर्म तथा उपयोग श्रायुर्वेदीय मतानुसार--मधुर,हय,सन्धानीय और सुगंधित है। अशोक शीतल है तथा प्रयोग करनेसे यह अर्श, क्रिमी, अपची एवं सम्पूर्ण प्रकार के व्रणों का नाश करता है। (धन्वन्तरीय निघण्टु) शोक शीतल,ध एवं पित्त, दाह तथा म. नाशक है और गुल्म,शूलोदर, श्राध्मान ( अफरा ) तथा क्रिमिनाशक एवं रतस्थापक है । (रा.नि. व०१०)। अशोक शीतल, तिक माही, वण्र्य (वर्णकर्ता ) और कषेला है तथा वातादि दोष, अपची, तृपा, दाह, कृमिरोग, शोष, विष और रक के विकार को दूर करता है। (भा०पू० १ भा०) अशोक के वैद्यकीय व्यवहार चक्रदत्त-अमृग्दर अर्थात् रक्तप्रदर में अशोक वक्-कुहित अशोक की छाल २ तो०, गो दुग्ध प्राध पाव, जन १॥ पाव | इसको दुग्धावशेष रहने तक क्वाथ प्रस्तुतकरें और शीतल होनेपर इसका सेवन करें। यथा-"प्रशोक वस्कल काथ ऋतं शीरं मुशीतलं । यथा बलं पिवेत् प्रातस्तीया सृग्दर नाशनम् ।" (असग्दर-चि०) (२) मूत्राघात में अशोक बीज-अशोक बीज एक अदद लेकर शीतल जल में पीस कर पान कराएँ । यह मूत्राघास (प्रमावरोध ) और अश्मरीनाशक है। यथा-"जलेन स्वदिरी वीज मूत्राघाताश्मरीहरम् ।" (मूत्राघातचि. ) "खदिरी वीजमशोक धीजमिस्याहुः"(शिवदासः) For Private and Personal Use Only Page #795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अशोक अशोक वक्तव्य कोष-तन्तुओं पर इसका उसेजक प्रभाव होता चरक के चिकित्सा स्थान के ३० अध्याय है। गर्भाशय विकार विशेषतः (Uterine एवं सुश्रुत शारीर स्थान के २ य अध्याय में fibroid ) तथा अन्य कारण से उत्पन्न प्रदर की चिकित्सा विस्वी है। किन्तु वहाँ भशोक ! रत्रप्रदर में इसका बहुत प्रयोग होता है । का नामोल्लेख नहीं है। राजनिघण्टु कार को इसकी छाल का दुग्ध में प्रस्तुत काथ भाज भी अशोक का प्रदरनाशक गुप्य स्वीकृत नहीं है। तक कविराजी चिकित्साकी एक उत्तम औषध है। धरक ने वेदनास्थापन तथा संज्ञास्थापन वर्ग के | अर्श तथा प्रवाहिका में भी इसका उपयोग किया अन्तर्गत अशोक का पाउ दिया है (सू०४०)। जा चुका है। ई० जू०ई०। वेदनास्थापन का अर्थ मन्त्रानिवारक है इसमें शुद्ध संप्राही गुण प्रतीत होता है। (देखो--भगम प्रशमन)। टीकाकार चक्र (डीमक) पाणि लिखते हैं, "वेदनायो सम्भूताय तो निहं. स्य शरीरं प्रकृती स्थापयतीति वेदनास्थापनम् ।" इसके पुष्प को जल में पीसकर रामाश अर्थात् उपस्थित वेदना का निवारण कर शरीर (Hemorrhagic dysentery) में को जो प्राकृतिक अवस्था में बाए उसको वेदना. वर्तते हैं । (धैट) स्थापन कहते हैं। इसकी छाल का जन में प्रस्तुत काय भी जल. कविराजगण रकप्रदर में अशोक को वेदना- मिति गंधकाम्त (Diliate Sulphuric स्थापन रूप से नहीं, अपितु रनरोधक कह कर acid ) के साथ व्यवहत होता है । ई० मे० व्यवहार में जाते हैं। जिन सम्पूर्ण स्थलों में मे०। हठात् करोधकी आवश्यकता हो, उन उन स्थलों अभी हाल में ही इसकी छात्र के तरन सस्व में प्रमाववश अशोक का व्यवहार कराने से, प्रदर की ररप्रदर में परीक्षा की गई और यह लाभप्रद रोगी का स्राव कम होकर वेदना की वृद्धि होते प्रमाणित हुा । ( Indigenous Drugs हुए बहुशः रोगियों में प्रत्यच देखा गया है । Report, madras. ) सकल वैद्यक प्रथों की आलोचना करने पर ज्ञात __नोट-योदे हेरफेर के साथ अशोक के उपहोता है कि प्रदर में सर्व प्रथम अशोक का युक्र गुणों का ही उस प्रायः सभी प्राज्य प्रयोग वृन्दकृत सिद्धयोग नामक पुस्तक में व पाश्चात्य ग्रंथों में हुआ है। हुमा है । अशोकधृत का व्यवहार किस समय से हो रहा है, इसे ठीक बतलाना कठिन है। चक्रवस, वर्तमान अन्वेषक श्रीयुत प्रार० एन० भावप्रकाश, एवं शाङ्गधर में अशोकघृत का चोपरा महोदय स्वरचित ग्रंथ में अपने अशोक उहख दिखाई नहीं देता | "सारकौमुदी" नामक सम्बन्धी विचार इस प्रकार प्रकट करते हैं। संग्रह-ग्रंथ एवं वङ्गसेन सङ्कलित चिकित्सासार पृथकू किए हुए जरायु पर अशोक-रवक् द्वारा संग्रह तथा भैषज्यरत्नावली नामक ग्रंथ में अशोक वियोजित विभिन्न अंशॉ की परीक्षा की गई। धृत का उझेख है। सुश्रुतोक बातम्याधि में प्रयुक्त किन्तु उसका कोई व्यक्त प्रभाव नहीं हुमा । कल्याणकरावण के उपादानों के मध्य अशोक रक्रप्रदर एवं अन्य गर्भाशय-विकारों में यद्यपि का उलेख देखने में प्राता है। (चि०४म.) बहुशः शय्यागत रोगी-परीक्षक गण इसके बाभनव्यमत दायक होने की प्रशंसा करते हैं; पर यह औषध आयुर्वेदीय चिकित्सक गण संग्राही एवं गर्भाशया प्रत्यक्ष प्रभाव प्रकट करती हुई नहीं प्रतीत होती । वसादक रूप से इसके वृत्त स्वक् का प्रचुर प्रयोग इं० डू००। करते है। कहा जाता है कि गर्भाशयान्तरिक मांस-प्रशोकम् ashokam-सं० की. सन्तुओं ( Endometrium ) तथा डिम्ब- अशोक ashoka-हिं० संज्ञा पुं. For Private and Personal Use Only Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अशोकघृतम् ७४... श्र(इश्कपेचा (१) पारद, पारा । Mercury ( Hydr-! अशोकारिष्टः - ashokarishtan-सं० -पु. argyrum. ) प्रदर रोगमें व्यवहत एक अरिष्ट विशेष ।। - -पु' (२) प्रासपाल, अशोक । ( Sal योग घ निर्माण-विधिः--अशोक की छात ' aca Indica. ) १ तुला( सेर ), 'को ४ द्रोण (६४ सेर ) जल अशोकवृतम् ashoka-ghritam-सं० क्ली में पकाएँ । जेब चौथाई शेष रहे तो उसमें गुड़ प्रदर में प्रयुक्त होने वाला क त विशेष । : पुशभा, धौ का फूल ६४-६४ तो०, सोंठ, जीरा, योग तथा निर्माण-विधि- अशोककी छाल ] १. नागरमोथा, दारुहल्दी, 'श्रामला, हड़, बहेड़ा, ६४ तो० ( प्रस्थ ) को २५६ तो. जल में | 'अडूसा, प्रामकी गुठली, कमल का फूल, चन्दन, 'पकाएँ । जब चौथाई जल शेष रहे तो उसमें ६४ | जीरा, इन्हें ४-४ तो० चूर्ण कर उक्त क्वथित तो. धृतं मिलाकर पकाएँ । पुनः चावलोंका पानी, रसमें मिश्रित कर उत्तम पाग्रमें रख एक मास तक बकरी का दुग्ध, घृत तुल्यभाग, जीवकका स्वरस, - रख छोड़ें। अब सन्धानित होकर उत्तम रस तैयार भौगरेका स्व रस, जीवनीय गणकी ओषधियों हो तब छानकर बोतल में बन्द करें। चिरौंजी, फाल सा, रसवंत, मुलहठी, अशोकमूल मात्रा-१-५ तो.। त्वचा, मुनक्का, शतावर, चौलाईमूल प्रत्येक २-२ ॥ . गुण--इसके सेवन से रक्रपित्त, हर प्रकार के तो० ले कस्क बनाएँ। पुनः मिश्री ३२ तो० मिलाकर कोमल अग्नि . से शनैः शनैः . पकाएँ । | . प्रदर, ज्वर, रकाश, मन्दाग्नि, अरुचि, शोध, प्रमेह और सम्पूर्ण स्त्री रोगों का नाश होता है । गुण-इसके सेवन से हर प्रकार के प्रदर, । भैप र० प्रदर चि० । श्रा० वे० सं० । शोथ, कुक्षिशूल, कटिशूल, योनिशूल, शरीरव्यथा, मन्दाग्नि, अरुचि,पाण्डु, काश्य, श्वास एवं कामला | अशोगम् ashogtu 1ता० । । अशोक । का नाश तथा श्रायु को पुष्टि होती है। वंग से. अशोगी ashogi-हिं संज्ञा स्त्री सं० प्रदर चि०। मेष ।साको ( Saraca Indicii, lina.) 10 अशोक रोहिणी ashoka-rohini-सं० स्त्री० | प्रशाथनेत्रपाक: (1) कटुत्तिका, रोहिणी, तिरोहिणी, कटुको । | ashotha.netra-pāka h ( Picroirhiz' kurroa.) रा. निक -सं० पु. अशोफज अर्थात् शोथ ( सूजन) - रहित नेत्रपाक रोग। . व०६। च०स०४० संज्ञास्थापन। देखोकटुकी। (२. लताशोक । यह अशोक दल * लक्षण नेत्रों में खुजली चले, चिपके और सदृश दल है.। रत्ना० । अासू बहे तथा पके गूलर की समान लाल, saginarfar ashoka-váčiká-four .... सूजन युा और जो पके वह शोफज नेत्ररांग है। "स्त्री० [सं०] (१) वह बगीचा जिसमें अशोकके इसके विपरीत जिसमें ये लक्षण न हों उसे पेड़ लगे हो। (२) शोक को दूर करने वाला "प्रशोथनेत्रपाक' रोग कहते हैं। मा० नि० । रम्य उद्यान । . . . . . . . . अश्नर ashaara-अ०,सघन बालावाला, बहुअशोका ashoka-सं० (हिं० संज्ञा ) स्त्रो० लोमश, अधिक रोमों वाला, वह - व्यक्ति जिसके कटुरोहिणी, कटुकी , कुटकी । ( Piciorr. I बाल अधिक हो । हाइपर ट्रिकोमिक ( Hyper hiza kurria.) मे0 भा० पू० १ भा० । trichosic.)-इं० ! . ... अशोकारिः ashokāriti-सं० पु. कदम्ब अश्क •ashka-फ़ा आसू, अश्रु । (A tear.) वृक्ष । कलम्ब-मह० । कदम गाछ-बं० । अ(इ)श्क पेचा aashika-pecta-फा० काम (Anthocephalus kadamba. ) 1 लता, तरुलता । ( Ipomoea qua"श०च.। moclit.)इं० हैं. गा० । देखो-इश्कपेचा । For Private and Personal Use Only Page #797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अश्कर ashga.la-अ० रकवर्ण जो पीत एवं अंगुली-मूल-संधि । जौहरी का वचन है कि श्याम प्राभा लिए हुए हो । रोग विज्ञान में उस । अंगुलियों की संधिया तीन हैं,-प्रथम मूत्र (कारोरा ) को कहते हैं जिसका रंग ल लोई जो संधि मूल में स्थित है, इसे अश्ज कहते लिए पीसा हो । रेडिश येलो.( Radish ye. है; द्वितीय जो मध्य में स्थित है बुर्जुमह, How.)-ई.. (Phalange) नाम से अभिहित होती है अश्काकुल ashqaqulu-अ० शकाकुल। एक: और त्रितीय जो ऊपर स्थित है अन्मिलह प्रसिद्ध जड़ है जिसको हिन्दी में “दूधाली" ( Tip of the finger. ) कहलाती है । कहते हैं । (Asparagus ascend.. (२)उश्शक,उश्शज । ( An moniacuin.) Yens, Rosb.) .. :: . . . . अजार ashjar-० (५० व. ), शजर अश्कानी ashkāni-तिबि० चौलाई, तण्डलीय। (ए. ३०) वृक्ष, पेड़ । ( 'I'rees.) स० (: Amarantus. 'thus' spino. smino.. फा० इ०। लु० कि० ! देखो-वृक्षः। श्रश्न ashta-मह० प्रह वृक्ष, पाकर, पाखर, अश्कील ashkila-उसज एक 'वन A पकरी । ( Ficus rumphii, Bl. ) :- tree.:). फा० इ०३ भा० । अश्कन Ishqura-तु. रेवास: See- अश्तर ashtar-० फटे नेत्रवाला, दरीदा ____Raibasa. . . . . . . . चश्म । यह संहज या प्रकृत रोग है। .. प्रश्के मरियम' ashke-mariyum-फा अश्वबून ashtabāna -मिश्र० : बस... करज, करम्जुश्रा । ( Pongainita gla. अश्तरान ashtaraun फाइज, खंकाली bra..) | -हिं । ( Polypodium.) अश्यार ashkhairaj ... अश्तला बूस ashtalabusa-रू. कायफल । शुखार- shal hira रासाः भारतीय सजी, ( Myrica nagi, Thunb. ) . सर्जि । बैरिल्ला (Barillt. )-ई। देखो- अश्ता ashta-हिं० काञ्चनार, कचनाल, मक्कुप्रा । सोडियाई कार्बोनास या सोडा। | (auhinia variegata.) . (इ)श्खोस · aishkhisa-० अस्दुल अश्दक ashdaqa-० चौड़े मुंह वाला, बड़े वावा - बरखा। ख़ामालावन-या बकरायन मुह वाला। : -इल्दलु० । किसी किसी के मतानुसार वरवरी | अश्वाक ashdaqa-१० ( ब. व. ), - भाषा में इसे "वहीद"और फारसी में "मश्तरू" !: शिद्क़ (ए० व०) गोशहे दह ने । मुख कोण, कहते हैं। किसी किसी ने इसे माजरियून स्याह | मुख का कोना । का एक भेद लिखा है, तथा किसी ने इसे किम: प्रश्नह, ashnah-फा० दरख्त पूजह । Moss, दाना का पेड़ लिखा है। किसी किसी के मतानु- common ( Lycopodium clavat..सार इसका हिन्दी.नाम बङ्कम है और बंगाल में | um,). हे० गा० । बहुत पैदा होता है । फलतः यह अनिश्चित प्रश्नान ashnana-अ० स्वर्जिजसार । देखोवनस्पति की जड़ है जो अफरीका और आर्मीनिया ___ उश्नान । ( Ushnana. )।-हिं० पु. में अधिकता के साथ उत्पन्न होती है तथा आज स्नान, नहाना । ( Bathing.) ... कल अप्रयुज्य है। देखोनमाज़रियून (MAZE अश्फरान ashfaraina-अ० स्त्री की योनि के ariyúna. ) दोनों किनारे . . . . . . अश्ज: ash jaa-अ० (५० व०), अशाजित अश्फा ashfa -० जिसके दोनों प्रोष्ठ परस्पर न .: (ब० व०) (१) व्यवच्छेद शास्त्रकी परिभाषा में | मिलने हो । For Private and Personal Use Only Page #798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अरफार भरमदारण सजी। अश्फार ashfara-अ० (ब० ब०), शफ़र | अश्मकेतुः Eishma-ketuh-सं० स्त्री० पुन (५०१०) पक्षकों के किनारे अर्थात् पलकों के पाषाणभेद चुप । पाथर चुर-बं० । रा० नि. बाख उगने के स्थान। मज.। -काबु० व०५। Ooleus arumaticus (Jhe small var.of-) अश्मगर्भ: ashma-garbhah-सं० . । अश्वह ashbah-१० इक्रपेचा के समान एक प्रश्मगर्भ ashma.garbha-हिं० संज्ञा पुं० ) वटी है। फूल चमेली के समान तथा सुगन्ध. हरिएमणी, पचा। पात्रा-बं० । जमुरंद-१०। युक्त होता है। Emerald (Smaragolus.) भा०पू० अश्वाह. ashbih-० (१० व.), शबह १भा०।-क्ली० (२) मरकत-मणि । ६० (५० व०) प्रतिबिम्ब, मूर्ति, तसवीर | च० । देखो-पन्ना। (Reflection, an image, a pict प्रश्मगभंकः ashma.gar bhakah-सं० पु. ure.) तिनिश वृक्ष । ( Lagerstroemia flos. प्रश्वील ashbila- मत्स्याण्ड, मछली के पराठे । regine.) मद० २०५। (Eggs of fish.) प्रश्मगर्भजम् ashma-garbhajam-सं०क्ली. अश्वत्चेशन ashbutcheghana-०मार्जा. मरकत मणि,पत्रा। (Emerald.)रा०नि० रागड, सुन्दबेदस्तर। (Castoreum.) ई० मे० मे। अश्मनः ashmaghnah-सं. ० पाषाणअश्म ashma-सं० ली.हि. संशा पु[प्रश्मन्] भेद चुप । पाथरकचा-बं० । ( Coleus aro(१)स्वर्ण माक्षिक | Iron pyrites ( Ferri | Imaticus.) रा.नि. प० ।। भा०पू० sulphurstum) वै० निघ. । (२) १भा०। पत्थर ( A stone.)। (३) पर्वत, पहाच | अश्मन स्वेद ashmaghna-svedab-सं. ( A mountain.)। (४) मेघ । बादल । | पु. प्रश्मरी में प्रयुक्र स्वेद विशेष । (A cloud) भश्मजम् ashmajam-सं.क्ली. अश्मकदली ashma-kadali-सं० सी० करनी | अश्मज ashmaju-हिं. संज्ञा पु. विशेष, केला, पर्वतीय केक्षा । पाहारे कवा (1) मुरडलौह, जोहा भेद । Iron ( Feबं०। लोखंड केल-मह०। Plantain rrum. ) रा०नि० व०१३ । १० द. (Musa sapientum. ) रा. नि. पादु-चि० । (२) शिलाजीत । शिलाजतु । घ०११। (Bitumen.) मद० व०४। हेमा० । अश्मकन्दिका ashna.kandika-स.लो० । प. मु०। र० माo ! रा. नि. व. १३ । मरवर्गध । ( Withania somnit (३) गेरू, गैरिक, हिरामजी । (Fee-Gaiera. ) - rika.)।() मोमिपाई। अश्मकरम् ashna-karam-सं० की. स्वर्ण, अश्मजतु, कम् ashmajatu,-kam-सं० सोमा । Gold (Aurum.) रत्ना। क्ली. शिलाजी(जित, शिवाजतु । ( Bituअश्मकूट ashma kura-हिं. पु. ( Petr.! men.)च०० पांधु-चि. योगराज । रा. ous process.). नि०१० १३ । सि० यो० २० पि.चि. अश्मकच्छ,हा ashma-krichchbraha-सं० । खएर लाग । "शुभाश्मजतुकं स्वचम् ।" खी० बेहतर वृच, वीरसरु । बेजदर -महअश्मदारण ashmadarana-हि० पु पत्थर १० निघ। काटने वाला मारा ! For Private and Personal Use Only Page #799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भरमन् अमरी प्रश्मन् ashinan-सं० पु. प्रस्तर, पत्थर, पा. रत्ना० । देखो-कराटच(व)कम् । (Kav. घाण । (A stone.) átacha,.va, kram. ) अश्मन्तः,..: ashman tab,-kah-सं० पु | अश्मभेदः, क: ashmabhedah.kah- ) पाषाण भेद, पाथर चूर । ( Coleus arom- | सं० ० aticus.) च. सु. १० । कोविदार वृक्ष प्रश्मभेद ashmabheda-हि. संज्ञा पु. साश अम्न-पत्रीय अम्लोट, चांगेरी (A spe- क्षुप विशेष | Coleus amboinicus, cies of ebony.)। भा०म०४भा० गर्भ Syn., (Coleus aromaticus. )। -चि० "मश्मन्सकस्तिनाः कृप्याः" |च०स० पाखानभेद नाम की जड़ी जो मुत्रकृच्छ प्रादि ४०। (३) उहालक वृक्ष, बहुधार-सं०। रोगों में की जाती है। पाथरचुर-हि० । पाथर बहुभार, सोरा-हिं० 1(Cordia latifolia) कचा, हिमसागर, हाता जो-ब। सु० सू०३८, भा० पू० १ मा०। (४) कोविदार वृत, कच. ३६ ० । पाय-अश्मदः अश्मभित् (र.), नार भेद । ( Bauhinia veriegata.) भरमग्नः, पापायाभेदः, शिलाभेदः, प्रश्मभेदकः, भः०पू० २ भा०। (५) चुक, चांगेरी (Ru- श्वेता, उपलभेत्री, उपलभित् शिलागर्भज, नग. mex vesicarium.) र०मा०। (६) भित्, संशोधनः । वा० स० १५, ३६ ० । सृय विशेष 1 अम्बकुचाई-401 (A sort) "वजन्तरारंथिक बृक वृष्याश्मभेदः ।" of grass.) सु० चि० ५५ म. ।(.) ..... गुण-शीतल, कपैना, .... वस्तिशोधक स्वनामास्यात वृष । भापटा-तृण । माबुटा-हि।। बस्तावर तथा तिक है और प्रमेह, अर्श, मूत्रकृष्ण, अश्मर-मह. । पर्याय-इन्दुकः, कुबासी, । __तथा अश्मरी रोग नाशक है। मद० व.। अम्मपत्रः, श्वश्य वक्, नीनपत्रा, यमवपन्नकः। | मधुर निक, प्रमेह, प्यास, दाइ, मूत्रकृच्छु, तथा गुण--मधुर, बसेला, शीतल, सिनारक और प्रश्मरोहर और शीतल है। रा. नि. प. ५। भूत निवास करने का है । स० नि० २० | अश्मभेदनः ashima-bhedanah-सं०पू० पा - पाण भेद । मद० । अश्मन्स(क)म् asbmanta, ka-m-सं० क्ली. अश्मयोनि:,-नी ashma-yonih.ni-सं० पु., (1) पाका अग्नि स्थान, चुलि(सी), चूल्ही । स्रो० (.) नील मणि । A gem of a मे० नत्रिक०। (२) दीपापारच्छादन, मांधा. blue colour ( The sapphire. ) रिया मे०।. .. प्र०टी०। (२) प्रश्मन्तक वृक्ष । मापटा-बं०। अश्मपुष्पम् ashma-pushpam-संपली मद० २०१० ISee-ashmantaka. शैखज, शिलारस। ( Styrax prepar-भश्मर ashmar-हि: वि० [सं०] पथ. atus.) अम०। - ला । अश्मभाण्डम् ashma-bhāndam-स० क्ली. अश्मरी ash nari- सं. (हि. संज्ञा.) श्री. (.) लौह भारत विशेष, हावन । हामामदिस्ता भत्र रोग विशेष । पथरी । कैलक्युलस Calcul- वं श. च.1(२) खा, खन | More us (५० व०), कैलक्युलाई Calculi tar.) (ब०व०-ले। स्टोन Stone, ग्रेवल Gr. avel-ई० । इसात १० । संगरेज़ह-फा० । अश्मभित् ashmabhit-सं.पु. (1) पाषाख मिले, पाथुरी-4. मुतखदा-मह। भेद, पाथरपुर । (. Coleus aromai . अश्मरी संस्कृतं अश्मन् शम्द से व्युत्पन्न स्त्री ticus.) प.मु. । रत्ना०1 (३.) कवाउ . वाचक पद है । यहाँ पर इसका भरुपार्थक प्रयोग वक वृक्ष-सं० । करादिया, कवाट वेट-ते। हुआ है अर्थात् पथरी वा केकड़ी के अर्थ में । आयुर्वेद वेण्टुमा-हिं० । २० मा० । कवाटचक्र । के मतसे उस पथरीको कहते है जो पस्तिमें प्रकृपित For Private and Personal Use Only Page #800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अनुकारी हुई वायु के वस्तिगत शुक्र के साथ सूत्रको प्रथवा पित्त के साथ कफ को सुखाने से क्रमशः गाय के पित्त में गोरोचन के समान उत्पन्न हो जाती है । आयुर्वेद में इसके वातज, पित्तज कफज और शुक्रज ये चार भेद माने गए हैं । ल ७४८ चरक, सुश्रुत, वाग्भट प्रभृति सभी प्राचीन श्रायुर्वेदीय ग्रंथों में जहाँ भी अश्मरी का वर्णन हुआ है वहाँ उम्र शब्द का प्रयोग केवल वस्तिगत अश्मरी के लिए किया गया है । परन्तु यह शब्द उतने संकुचित अर्थों में नहीं लिया जाता । प्राचीन शास्त्रकारों को और स्थानों में बनने वाली अश्मरियों का ज्ञान था या नहीं अथवा पूर्व पुरुषों में और स्थानों में प्रश्नरियाँका निर्माण होता था वा नहीं ? इसके संबंध में यहाँ कुछ विशेष न कह कर हम केवल इतना ही कहना यथेष्ट समझते हैं कि इस शब्द का प्रयोग श्रव उतने संकुचित श्रथ में नहीं होता, वरनू किसी भी अध्ययन की प्रणाली वा मार्ग अथवा स्वयं उस ग्रंथि में बनने वाली किसी प्रकार की पथरी को अब हम अश्मरी कह सकते हैं । यद्यपि इन सबके निदान, सम्प्राप्ति लक्षण तथा चिकित्सा प्रमृति का, चिकित्सा प्रणालीत्रय के अनुसार अपने अपने स्थल पर सविस्तार वर्णन किया जाएगा; तभी उन सब भेदों का यहाँ संक्षिप्त परिचय करा देना अप्रासङ्गिक न होगा नोट- डॉक्टरी शब्द कैल्क्युलस एका अर्थ खद्रिका है। परंतु डॉक्टरीकी परिभाषा में अश्मरी को कहते हैं। प्राचीन पाश्चात्य शास्त्रकार भी इसका प्रयोग केवल वृक्क एवं वस्तिगत अश्मरी के लिए ही करते थे। परन्तु अब इससे स्यापक अर्थ लिया जाता है। अश्मरी के मुख्य भेद निम्न हैं I (१) वस्त्यश्मरी -- श्रायुर्वेदिक शास्त्रों में इसका वर्णन अश्मरी शब्द के अन्तर्गत हुआ है इसका एक भेद काश्मरी है: परन्तु यह श्रायुर्वेदोस्त “झुकाश्मरी” वस्ति में नहीं हो सकती, नू इसका निर्माण बीजकोष में होता है। 3 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सरसरी पर्याय-- सिप्टोलिथ ( (ystolith ), स्टोन इन दी ब्लैडर ( Stone, in the bladder ) - ई। सातुल् मसान - अ० । मसाना की पथरी - 30 ( २ ) शुक्राश्मरी, (शुक्राशय स्थित श्मरी ) ( Calculus of vesiculus seminales )— ( ३ ) शिश्रायत्वगश्मरी-शिग्नाम स्वचा अर्थात् शिश्न की घूँघट में बनने वाली अश्मरी 1 ( Calenlus of prepa uce ) (४) प्रोस्टेट ग्रंथि -स्थित अश्मरी, श्रष्ठीलागत अश्मरी - ( Prostatic calcali) प्रोस्टेट ग्रंथि वा प्रणाली में बनने वाली पथरी । हाल गुद्द कुंद्रा मियह श्र० । (५) वृक्काश्मरी, वृक्क की पथरी - रेनल कैलक्युलाइ ( Renal calculi ), स्टोन इम दी किडनी Stone in the kidney), नेफ्रोलिथ ( Nephrolith ) इं० | हातुल् कुकुल्विये ० | गुर्दा की पथरी-३०। वृक्काश्मरी के होने पर रोगी की पीछे की ओर दाहिनी या बाईं तरफ बेदना रहती है। हिलने पर यह वेदना और तीव्र होती है। जब यह अश्मरी वृक्क में से निकलकर मूत्र प्रणाली ( गविनियु) में घड़ जाती है अथवा उनमें जब गति होती है तब चूकभूल ( Renal colic) के उत्कट लक्षण पैदा हो जाते हैं । इनके मूत्रप्रणाली में थाकर फंस जाने ही को " मूत्राश्मरी" कहते हैं । (६) मूत्राश्मरी - युरिनरी कैलक्युलाई Urinary calculi, युरोलिथ Urolith, स्टोन इन दी युरिनरी पैसेज stone.cin the urinary passage-३० | हसात बौलिय्याह - अ० । पेशाब का संगरेज़ह - ३० । इसके दो मेद हैं, यथा--- For Private and Personal Use Only > (क) मूत्रप्रणालीस्थ अश्मरी, गविनियुस्थित अश्मरी - ( Calculus of ureter) Page #801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अश्मरी . अश्मरी देवक .. (स) मूत्रमार्गस्थ अश्मरी-: नोट - कभी कभी शिराओं के भीतर कठोर (Calculus of uretlira). या अश्मवत् अवरोध पाया जाता है । यह वस्तुतः :: .. (७): यदश्मरो-यकृत में बनने वाली | : रक के रढ़ तथा अरमीभूत होने से उत्पन्न हो पथरी । हेपैटो लिथ Hepatolith-इं. ।। जाता है। .. ... . . हसानुल कबिद-अ01. .(१३) अश्रवश्मरी- प्रणालीस्थ (2) आन्त्राश्मरी-इन्टेस्टाइनल कैलक्यु- अश्मरी. अॉस की नालियों की पथरी। .. लाई (Intestinal calculi . -इ'। .. क्रियोलिथ Dacryolith-. । हसात् यह मनुष्य एवं मांसाहारी जीवों में तो क्वचित्, | दम्य्य ह.-अ. परन्तु शाकाहारी जीवों में सामान्य रूप से होता. अश्मरी कण्डनो रस: ashmari-kandano rasab-सं० पु. ढाक, केला, तिक्ष, करना, • (६) पित्ताश्मरी--पित्ताशय या पिस - जौ, इमली, चिर्चिटा और हल्दी इनके चारों को प्रणाली में उत्पन्न होनेवाली अश्मरी । बिलियरी इकट्ठा करके सबका ३६ वा मारा पारा, उतना ही कैलक्युलाइ Biliary. calculi., गाल.. गन्धक और हम दोनों के समान भाग उत्तम स्टोअ Gallstones; कोलोलिथ: Cholo लोह भस्म मिलाकर सबका बारीक चूर्ण कर lith, ( Calculus of gall-bladder रक्खें । or duct.)-ई० । इसात सफराविय्यह, हसात मात्रा-१ तो० । इसे दही के साथ चाट कर मरारिय्यह.-१० । सकरावी पथरी, पिता की ऊपर से वरुण वृक्ष की छाल का क्वाथ पाएँ । पथरी-उ०। . ..यह रस दुःसाध्य से भी दुःसाध्य पथरी को मष्ट नोट--इसे वस्तिस्थ अश्मरी का भेद पित्तज करता है। अश्मरी न समझना चाहिए। ... (१०) क्लोमप्रन्थिस्थ अश्मरो, अग्न्या. अश्मरी कृञ्छ : ashmari-krichchhrah , शयिक अश्मरी-यह क्त्रचित् ही पाई जाती हैं -सं० पु. पथरी जन्य मूत्रकृच्छ , मूत्रकृच्छ, और जन्न उत्पन्न होती है तब अधिक संख्या में भेद । वै० निघ० 1 (See-Mutra kricमुख्य प्रणाली वा गौण प्रणाली में वर्तमान होती hehhra) है। पैनक्रिएटिक कैलक्युलाई Pancreatic . . . नोट-आयुर्वेद के अनुसार अश्मरीकृष्ण .. calculi- । । . मूत्रकृच्छ, का एक भेद है । परन्तु यह पथरी के (११) लालाग्रंथिस्थ अश्मरी ताला निर्माण की अवस्था में ही होता है। अस्तु यह ..प्रधि बा लाला अर्थात्. लार में पाई जाने वाली अश्मरी रोग का केवल एक लक्षमा मात्र है। अश्मरी । . अश्मरोनः ashmarighnah-सं० पु० । यह बाहर से खुरदरी (कर्कश ) एवं विषमा- | अश्मरान athinarighna-हिं० संज्ञा पु. ) कार होती है और साधारणतः प्रणाली के मुख के | वरुण वृक्ष, बरना का. पेड़ । वरुण गा-40। समीप पाई जाती हैं । इससे प्रणाली का मुख वायवरया-मह०। ( Crateeva religiअवरुद्ध हो जाता है। सैलिबरी कैलक्युलाई osa.) त्रिका० ।-Hि०, वि० अश्मरीहर, Salivaly Calculi-ई । . . अश्मरी नाशक, पथरी को दूर करने वाला। (१२) शिसस्थित अश्मरी -शिरा में | (Luithon triptic) बननेवाली पथरी। अश्मरो छेदक ashmari-chhedaka-हिं. फ्लेबोलिथ Phle bolith-इ'। इसातुम् ।। संशा पु० (१) अश्मरो छेदक यंत्र ( Liदह-अवरीदों की पथरी-30। thotiite.)। (२) अश्मरी को फोरपूर For Private and Personal Use Only Page #802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir । वाला। मरमरी छेदक यंत्र अश्मरी शर्करा चूर करने वाजी औषध । परमरी भेदक । | अश्मरी भेदः ashmari-bbedah-सं० पु. (Lithotriptic ) देखो-अश्मरीहर। पाषाणभेद वृत्र,पाथरधुर। (Coleus aroma. वि० अश्मरीको फोड़ने वाला, अश्मरी भेदक। ticus.) मद०व०१। अश्मरी छेदक यंत्र ashmari-chhedaka-| अश्मरी भेदक: ash mari-bhedakah-सं० yantra-हिं. संज्ञा पु वस्ति में पथरी को पु (1) पाषाण भेद । केय० दे०नि० । सं. फोड़ने का यंत्र । अश्मरी भेदक यंत्र । लिथोट्रि- (हिं. सशा)पु. (२) देखो-अश्मरी छेदक । प्टर Lithotriptor, लिथोट्राइट Litho- अश्मरी मेदन ashmari-bhedanatrite-इं। पाक्रितुल् .इसात, मित्तितुल् अश्मरी भेदनः ashmari-bhedanah सात-१० . . सं० हि संका अश्मरी द्रावक ashnari-dravak-हिं० संचा: (१) परमरी भेदन क्रिया, पयरी तोड़ने का कर्म । पु. पधरी को विलीन करने वाली वा . . ( Lithotrity) तफ्तीतुन हसात्-१०। घुलाने अर्थात् द्रव करने वाली औषध । पा (२) किसी भौषध वा यंत्र द्वारा यस्ति में हो औषध जो भरमग को बुलाकर पानी कर दे। भश्मरी को फोड़कर टुकड़े टुकड़े करना । (३) . परमरी विलायक । ( Lithodialytic ) - पाषाण भेद । ( Coleus aromaticus.) मुश्लिलुल् इसात-१०। देखो-अश्मरीहर। ये० निघ०। -वि० अरमरी को घुलाने वा द्रव करने | अश्मरी रिपुः ashmasi-ripuh-सं० पु' (1) . (१) वृहपणक, बड़ा घणा | रत्ना०।२) त्रेवु -सं० । मकाई, भुवा, बड़ा ज्वार-हिं . । अनार अश्मरी द्रावण aghmari-drāvana-हिं० -ब० । Maize ( Zea mays.) संज्ञा पु० वस्तिस्थ पथरी को विलीन करना, पथरीको घुलाना | लिथोरायालिसिस Lithor अश्मरी विदारण ashmari vidarana-हिं० dialysis-ई। तह लोलुन् इसात, तज दीबुल - संज्ञा पुं० शस्त्रकर्म द्वारा पथरी का निकालना । इसात-०। (Lithotomy). अश्मरो शर्करा ashmari-sharkari-सं० नोट-लिथोडायालिसिस के दो अर्थ होते स्त्री० तमामक रोग विशेष । (Renal sand, है-(B) विनायक औषधों के द्वारा वस्ति में Urinary sand,urinally deposits.) पथरी का विलीन करना जिसके लिए उपयुक रमन कुख्यह, रम्ल औली, रसौन बौली-५०। हिंदी एवं अरबी शब्द प्रयुक्र हुए हैं और (२) रेगे गुर्द वा बौल-फा०। किसी यंत्र के द्वारा वस्ति में, ही अश्मरी का छेदन . : शर्करा (रेता) और मिकता प्रमेह तथा भस्मात्य करना। इसके लिए अर्वाचीन आयुर्वेदीय चिकित्सक रोग (मूत्र, शुक्र रोग उत्सर तन्त्रोक) ये सब "अश्मरी भेदन" एवं मिश्र देशीय चिकित्सक | पथरी ही के विकार है और पथरी ही घुल कर "तफ्तीतुल् हसात" शब्द का प्रयोग करते शर्करा होती है। क्योंकि इनके बपण और वेदना समान है। (यूनानी एकीम भी पथरी और शर्करा अश्मरी प्रिय: ashmari-priya.h-सं० प्र० को एक ही किस्म से बताते हैं। देखो तिम्छे महा शानिधान्य । प० मु०। (See-mahi- अकबर) sbálih. ) .. यदि पथरी छोटी हो और वायु के भनुअश्मरी निर्माण ashmari-nirmana-हिं० कूल हो जाए तब तो प्रायः निकल पड़ती है। संशा पु० पथरी बनना । ( Lithiasis) और जो वायु द्वारा टुकड़े टुकरे ( नन्हें नन्हें तखम्वुनुन् हसात-१०। वाने से ) हो जाएं तो उन्हें शर्करा कहते हैं। For Private and Personal Use Only Page #803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org હું महरः अश्मरीजन्य मूत्रकृच्छ एवं शर्करा के लक्षण प्रायः एक से होते हैं, यथा लक्षण - जिस मनुष्य को शर्करारोग होता है उसके हृदय में पीड़ा, साथलोंका थकना, फूख़में शूल और शोध, तृषा और वायु का ऊर्द्ध गमन, कृष्णता ( कालापन ) और दुबलापन तथा देह का पीला पदना, अरुचि, भोजन ठीक नहीं पचना आदि खचण होते हैं । और जब यह सूत्र के मार्ग में प्रवृश होकर और वहीं स्थित हो जाती है (इसे मूत्राश्मरी कहते हैं ) तथ ये उपद्रव होते हैं-दुबलापन, कावट, कृराता, कोख में शूल, अरुचि, शरीर, नेत्रादि पीले पड़ना तथा उष्णाधात, तृषा हृदय में पीड़ा और वमन ( या जी मिचलाना ) इत्यादि । सु० नि० ३ .० | देखो -- शर्करा । अमरोहरः ashmari harah सं० त्रि० अश्मरीहर ashmarihar-हिं०वि० पथरीको नष्ट करने वाला | अश्मरीनाशक । श्रश्मरोध | ( Lithontriptic. ) सं० पु०० ( १ ) अश्मरी नाशक योग विशेष | यथा - शिलाजीत, बच्छनाग, दाख, दन्ती, पाषाणभेद, हल्दी, हड़ प्रत्येक समान भाग लेकर बारीक चूर्ण बनाएँ । श्राच मा० । मात्रा - १ मा० । बच्चों को अनुपान - तिलदार २ तो० एवं दूधके साथ खाने से पथरी नष्ट होती है । (२) देवधान्य । देवान- वं० । (३) वरुणवृक्ष, वरना । वायवरणा मह० | ( Crataeva Religiosa ) ० मा० न सं० ( [हिं० संज्ञा ) पु ं० (४) पथरी को नष्ट करने वाली श्रीषध प्रभाव भेद से यह तीन प्रकार की होती है, यथा--- (१) वह औषधे जो अश्मरी बनने को रोकती हैं अथवा सूत्रस्थ स्थूल भाग को मूत्रावयव में तलस्थायी होने से बाज़ रखती हैं और यदि कोई पथरी वा कंकड़ी बन गई हो तो उसको विलीन करती है । ऐलिथिक्स (Antilithics ) - इं० । मानित तकने हात-० । ( २ ) पथरी को तोड़ने वाली या उसको Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अश्मरीहर टुकड़े टुकड़े करने वाली औषधे । वह औौंषध जो अपने प्रभाव एवं सूक्ष्म गुण के कारण वस्ति तथा वृक्कस्थ अश्मरी को टुकड़े टुकड़े करके वा उसको विलीन वा द्रावित करके मूत्र के साथ उत्सर्जित करें । श्रश्मरी भेदक अश्मरी छेदक । लियॉट्रिप्टिक्स (Lithontriptics), तिथे ट्रिप्टिक्स ( Lithotriptics ) - ई० । मुफ़त्तित्, मुफ़तितुत हुसात अ० । (३) वह औषध जो पथरी को विलीन करती हैं । अश्मरी द्वात्रक ! अश्मरी विलायक | नोट- जब पेशाब अधिक अम्लतायुक्त होती है तब उसमें से युरिक एसिड या केल्सियम् आक्सीलेट पृथक होकर शर्करा के रूप में तनस्थाई हो जाते हैं जिससे पथरी वा कंकड़ी बन जाती है। ऐसी दशा में ऐलकेलीज़ (चारीय औषध) के देने से या पाइपरेज़ीन के देने से बहुत लाभ होता है; क्योंकि यूरिक एसिड का बनना बन्द हो जाता है, प्रभृति । किन्तु जय मूत्र डीकम्पोज़ श्रर्थात् वियोजित या विक्रा हो जाता हैं तब उसमें से फॉस्फेट के रवे तलस्थाई होजाते हैं। ऐसी दशा में मूत्र को अम्ल किया जाता है और उसको विकृति वा साँधको किया जाता दूर है । अस्तु, बेअोइक एसिड या बे ओएट्स के प्रयोग से बहुत लाभ होता है । t ( Gout) में पोटासियम् और जीथियम् के लवर्णों के उपयोग से यूरिक एसिड (जो व्याधि का कारण होता है । ) विलेय युरेट्स में अर्थात् पोटाशियम् युरेट और लीथियम् युरेट में परियात हो जाता है एवं उनसे मूत्रस्थ अम्लता क्षारीय हो जाती हैं । -2 उपर्युक श्रौषधों के सेवन काल में जल का अधिक उपयोग उनके प्रभाव का सहायक होता है । इसके उपयोग विषयक पूर्ण विवेचन के लिए विभिन्न श्रश्मरियों की चिकित्सा के अन्तर्गत देखें | For Private and Personal Use Only अश्मरीहर औषधे श्रायुर्वेदीय - शिलाजीत, कुरगटक ( कटसरैया) पलाश (तार ), आक, वरुणा वृक्ष, Page #804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अश्मरूप धंग ७६२ अश्मंतक ताम्रगंधेत् ( तूतिया ), श्रामला, हरीतकी, अश्म शिरा कुल्या ashmarshiri-kulya-सं० विभीतकी, स्नुही (सेहुण्ड ), लौह गंधेत् | (हिं० संशा) स्त्री० शिराकुल्या विशेष । (कसीस ), हिंगु, जल ब्राह्मी, निलोफर, कुश, | अश्म सम्भवम् ashna.sambhavam-सं० कास, गजपिप्पली, सैधव, अर्जुन, गंधनाकुली | क्लो0शिलाजनु, शिलाजित । (Bitumen.) ( रास्ना), कदलीक्षार, मूत्रशोधक द्रव्य मात्र । र० सा० स० । (गोखरू, तृगपंचमूल, कुष्माण्ड, पाषाणभेद अश्मसार: ashma-sarah-सं०प प्रादि), नागरमोथा, सुगंधवाला,अंगूरपंचांगदार, अश्मसार ashma-sāra-हं० संज्ञा पुं० ) कण्टक तण्डुलीय हार,यवचार, कुलथी, तुलसी, (१) लौह, लोहा । ( Iron.') अमः । ककड़ी के बीज, खरबूजाक बीज और तगर । (२) लोहादि धातु ( Metals.)। (३) यूनानी-बिच्छू की राख, हब्रु ल यहूद, सार लौह । इस्पात्-बं०। संग सरमाही, बरजासिक, असारून, समाभालू, अश्मसारा ashma-sāra-₹. स्त्री. काय हंसराज, बादाम का , राज़ियानज ( सौंफ), ! कदली, पहाड़ीकेला पाहाड़े कला- Wild धना ( स्याह ), सकबीनज, कुण्डल और पेटुल plantain (Musa sa pienti.m.) की जड़ | वै. निघ० । डॉक्टरी-एसिड फॉस्फोरिक डायल्यूट, अश्मसुता as ma-suta-सं० स्त्री० पाठा। एसिट नाइट्रिक डायल्यूट, पाहारेजोन, पोटेसि- पाक्नादि-बं० । पहाडमूल-मह०। (Cissaयाई एसीटास, पोटेसियाई बाई कार्वानास, mpelos hemandifolia.) वै० निघ। पोहाफीलीन, बिल्युला हाइड्रार्जिराई (पारद वटी), अश्म-स्वेदः 6shma-svedah-सं०1० प्रस्तर डायोरेटिक्स (मूत्रल औषध), सिष्टेमीन, सोडि- स्वेद विशेष । सु। याई बाई कार्बोनास, सोडियाई बेजोग्रास, । अश्महा, हन् ushniahā,-han-सं० ए. पा. सोडियाई साइट्रो-टा-सएफ.सै स, सोडियम पोटे- | पाण भेदक । पत्थरचूर-हिं० । पाथरकुची-बं० । सियम् टाट(सोडाटा टा), सेपो ड्योरस, सेलाइन (Coleus aromaticus.) पर्गेटिहज़, लाइक्वार मैग्नीसियाई कार्बोनेट्स, अश्महृत् ashuta-hrit-सं०प०, क्ली० (१) लीथियम्साल्ट्स, मिनरल वाटर्म (खनिज जल) कवाट-वक्र तुप, कराड़िया। See-Kavataयथा सेल्टर्ज, फेशिक शाल, बाज, विकी, vakra.)रना। (२) लाजत, शिलाजित् । विलडान तथा हन्याडीजूञ्ज., मैग्नीसियाई ( Bitumen.) काबांनास, मैग्नेशिया, योरोट्रोपीन, युरोल, युरिया, अश्मीर: ushnirah-लं. प. मूत्रकृच्छ, । युरिसीन, जल, बोरक्य ( टंकण ), पोटारा, उणा० । (See-mitra-krichchhin.) फास्फेट अफ साडा और लाइम वाटर(चूणादक)। अश्वसishmust-कनौचा भेद। इसमें अन्य अश्मरूप-नंग ashmarupaVanga-हिं० पु. भेदों की अपेक्षा कम गंध होती है। (Tin-stone) वंग भेद । अश्मोत्थम् ashmottban-सं० क्ली. शिलाअरमाहरणयन्त्रम् ashmarryyābadana! जतु, शिलाजत् । ( Bitumon) रा.नि. yantram-सं. क्ली. अश्मरी निकालने का व०१३। यन्त्र । प्रश्मरी निकालने का ऐसा यन्न जिसका । अश्मंत ashamanta-हिं० संज्ञा पुं० [सं०] अग्र भाग सर्प फणाकार हो! कश्चिदत्रिः।। (१) चूल्हा । (२) खेत । (३) मरण । अश्मलाक्षे, क्षा ashinalaksham,--kshi: (४) अमंगल । देखो-कश्मन्तः । -सं० क्ली०, स्त्रो. शिलाजतु, शिलाजीत । शतक smurti ki-E.. पु. ( Bitumen.) रा०नि० २०१३। [सं० अरमन्तवम् ] (1) मुंज की तरह का For Private and Personal Use Only Page #805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मार्फ . अनधि • एक घास जिससे प्राचीन काल में ग्राह्मण लोग iyadiyyah अ० दैनिक व्यवहार या स्वभावतः - .. मेखला अर्थात् करधनी बनाने थे। (२) आच्छा- पीने की वस्तु-जैसे, पानी पोना । हैबिचुअल दन | छाजन । ढकना । (३) दीपाधार । दीवट । डि.स ( Habitual drinks.)-ई. । अश्या: ushyaf-अ० ( १०व०) प्रश्रिबह मुस्बिह रह ashribah-munbih. नोट-शियाफ का बहुवचन प्रश्यात और hah-अ० शनिदायक तथा उरोजक शर्बत । शियात बहुवचन है शाह का। पिचुक्रिया, स्टिम्युलेण्ट ड्रिंक्स(Stimulant drinks) वर्तिका-हिं । नीले, बत्तियाँ-फा०, उ०। -इं०। (Suppositories. ) अधिवह मुन्नत्ति फह मुरिज़थ्यह ashribah. अश्यामो ashyami-सं० स्त्री० श्वेत त्रिवृता, mulattifah-mughziyyah-अ० ... सफ़ेद निशाथ । [poinka tur pethun पोषण और लताफ़त (प्रमोद वा हप)प्रदान करने. (The white var, of-) चाले शर्बत या द्रव, प्रफुल्लकारक, प्रमोद या अधम् - ashilmi-सं० की. . पालादजनक पेया । रेफरीजरेण्ट डिकस ( Reअश्र ashra-हिं०. सज्ञा ० (१)रुधिर, fregerant drinks.)-$0 रत, शाणित । (Blood.) अ० टी०। (२) अश्र ashru-सं० क्लो. मन के किसी नेत्रोदक, नेबाम्नु, सू। (A tea:.) अथ ashtria-हिं० संज्ञा पु. प्रकार के प्रावेग अशा ashrai-० (१) एक खाया (अण्ड) | के कारण आँखों में आने वाला जल | नेत्र ... पुरुष अर्थात् वह मनुष्य जिसके एक खायह जल | नयन ऊल । नयनाम्बु । आँसू । (अण्ड । हो या (२) जिसका एक खाया | | (A tear.) चचेर जल-बं० । अश्क-फा०। श्रम । ... :(अण्ड) छोटा और दूसरा बड़ा हो । एक दिया | भादमी, एकाण्ड पुरुष । संस्कृत पर्याय-नेत्राम्बु, रोदनं, अश्र', प्रलं, Manshraja-अ. वह मनुष्य जिसका एक अत्रु, वाष्प (अ.), लोचं (ज.)। :सरा बड़ा हो तथा दूसरा छोटा या वह मनुष्य यह घरग्रंथिमें बननेवाला एक स्वच्छ जलीय रस :जिसके केवल एक ही एटु हो । है। इसका स्वाद लवण होता है। इसका काम अंदा ashraddha-सं० स्त्री. अंरोचक, पलकों और अक्षिगोलक के सम्मुख पृष्ठों को तर - अरुचि, श्रद्धा का अभाव । ( Disgust or रखना है। अश अधिक बननेकी दशामें ये आँखों Aversion.) से टपकने लगते हैं। नासिकाका आँखसे सम्बन्ध प्रश्रम ashram-१०वह व्यकि जिसका नासाग्र ! है इसलिए रोते समय अश्र कभी कभी नासिका में चले जाते हैं और नासारन्ध्र में सेटपकने लगते - कटा हुअा हो । वह जिसके दोनों श्रोष्ठों में चीरा अधस ashras-०. अधिक पलक झपकाने अश्रु अङ्कर ashru-ankura-हिं० पुं० प्रथः ...वाला मनुष्य । वह मनुष्य जो पल्लक अधिक वांकुर( Pupilla lacrimalis ) । नासिका. | . की ओर वाले अपांग में दोनों पलकों के सम्मुख अधि: ashri-हिं० संज्ञा स्त्री [ सं०] घर का किनारों पर दो छोटे उभार होते हैं। ममें से ...कोना । मन शस्त्र की नोक 1 - प्रत्येक को अथ अंकुर कहते हैं। भविवाह, ashribah-अ० (ब० ५०), शराब, | अश्रकोष ashru-kosha-हिं० पु. ( Lacri शर्बत (५०५०) पेया, पीने की वस्तु ( Dri. | mal sac.) आँसूकी थैली । कीस दम् ई-०। nks, Syrups.) देखो-पेया, मद्य । ! अश्रुगोलम् ashli-golam-सं० क्लो० । अधिवह इअ तियादिश्यह, ashribah-iat | अश्रुग्रंथि ashru.granthi-हिं० स्त्रीय For Private and Personal Use Only Page #806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अश्रुप्रथि खात प्रश्वकञ्चकी रक्षा . (Lacrimal-gland ) यह ग्रंथि बादाम अश्लानह ashlāvah-हिं० मोरशिषा, मोरपंखी। के बराबर होती है और अश्रुग्रंथि-खात में ( Actinopteris Diclotoma, Ber रहती है। गुहहे दम्इय्यह.-१० । _dd.) अश्रग्रंथि खात ashru.grantbi-kbāta अश्लाबस ashlābās-. कायफल, बटफस । -fogo (Lacrimal gland cavi. (Myricu spida.) by.) नेत्र गुहा की छत ( नेत्रच्छदि फलक) अश्लियह, क्यात्त म ashliyah-kyatium | में कनपुटी की श्रोर एक गढ़ा होता है। अश्लियह पातम ashliyah patan अश्रुछिद्र oshru-chhidra-हि. पु. ( Pun. फि० चूका, चाङ्गरी । ( Rimex vesi. ctum lacrimale) अंकुर की शिखर ___carius. ) पर एक छिद्र होता है जिसका नाम अधुछिद्र है। | अश्लिष्ट ashlishta-हिं० वि० [सं०] रखेषइस छिद्र में से ही होकर अशु आँखों से नासिका शून्य | असंबद्ध | अस गत । में जाया करते हैं। अश्लेष ashlesha-हिं० १० श्लेष रहित, प. अश्रुनलिका ashyimalika-हिं. स्त्री. ( Ln. criral duct.) अश्रुणाली। गाय, असंख्य, अप्रीति, अश्लेषभिन्न, अपरिहास । अश्रुनालो ashrn-nali-सं० स्त्री. भगन्दर | अश्वः ashvah-toप'. रोग । वै० निघ । See-Bhagandara. | अश्व ashva-हिं. सज्ञा पु. gia: ashrn-patah pogo धोटक, घोड़ा, हय, तुरंग, वाजि--हिं० । कोडा अपात ashru-pā ta-हिं० संज्ञा पु० ) -०, हिं० । अस्प-फा० । A horse (Equur (.)घोड़े का एक अशुभ लक्षण विशेष । यह | scaballus, linn. ) चि ( वरी, पावर्त) घोड़े की जाख के नीचेके गुण-घोड़े का मांस उप्ण, वासनाशक, बल. स्थान में होता है। यह अत्यन्त भयावह तथा कारक हलका तथा अधिक सेवन करनेसे पित तथा स्वामी के कुल का घातक है। जयद०३०॥ दाह जनक होता है । रा०नि०५० १७ । जब (२) आँसू गिराना । रुदन । रोना। रस युक्र, अग्निवद्धक, कक तथा पित्त कारक, अश्रुप्रणाली ashru-prunali-सं० पु०, हिं० वातनाशक, वृहण, बल्य, चदु के लिए हितका. wo ( Naso-lacrimal Duct. ) रक, हलका और मधुर है । भा०पू० । घोड़े की भाँसुओं की नाली । वनात् दम्हय्यह-अ०। सवारी वातको प्रकुपित करता, अंगों को स्थिरता अभुवाहिनी ashru.vahini-सं० स्त्री० (La प्रदान करता, बल तथा अग्निवाई है। ____erimal cunnal.) अनलिका । राज० । देखो-याजि । अश्रुश्रीन ashru-shrota-हिं० पु. ( Lacri प्रश्वक: ashvakah-सं० पु. (A spa. mal Duct.) अश्रप्रणाली। mov ) कुलग पक्षी । चिढ़ा । बै० निध। अश iashrusha-१० दरियाई खरगोश ।। (A sea rabbit. ) See-kuliigah. प्रश्रयस्थि ashrvasthi-सं०हिनी. यह नाली | अश्वकञ्च की रस: ashva-kanchukira. जैसी एक अस्थि है; आँख से अश्रु इसी अस्थि में sah-सं० प. घोडाघोजी रस । योग तथा रहने वाली एक थैली में होकर नासिका के भीतर निर्माणु-विधि-शुद्ध पारद, विष, गन्धक, पहुँचते हैं । अश्रु श्रॉसे सम्बन्ध रखने के कारण इस हरतान, सोहागा, सोंठ, मिर्च, पीपल, राब अस्थि का नाम अवस्थि पड़ा है। यह अस्थि जमालगोटा के बीज, हर, बहेडा, भामer, काग़ज़ जैसी पतली और बहुत कोमल होती है। प्रत्येक तुल्य भागलें । इमको चूर्ण कर मागरे लैक्रिमल बोन (Lacrimal bone)-t०।। के रसमें खरल कर उदद प्रमाण गोलियाँ बनाएँ। भजम दम् ई-ऋ०। उस्तनाँने भरकी-फा०।। यह प्रत्येक रोगोंको दूर करता है। जिस नित ोध For Private and Personal Use Only Page #807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org कन्दकः में ओ ओ अनुपान कहा है, उसी के साथ इसको देना चाहिए । यो० त० ज्वर० चि० । ( २ ) हरिताल ( रसमाणिक्य ), पारा, गन्धक, वच, त्रिकुटा, बहेड़े की छाल, सोहागा, संखिया, गोखरू, बच्छनाग, जमालगोटा, हींग, कुष्ठ कड़वी, नकछिकनी, गजपीपल, हड़ की छाल प्रत्येक समान भागको पृथक् पृथक् चूर्ण कर कपड़ छन करके भांगरे के रस में ४ दिन खरल करके मूँग प्रमाण गोलियाँ बनाएँ । यह पृथक् पृथक् अनुपान से रोग मात्र की तथा अंजन से फूले के और लेप से शिवको नष्ट करती है। रस० यां० सा० । अश्त्र कन्दः ashvakandakah-सं० प ं० अश्वगंधा, असगंध (Withania somni fera. ) रत्ना० । अश्वकन्दिका ashra-kandika-सं० [स्त्री० (१) एक वनस्पति विशेष । (२) श्रश्वगंधा, असंगंध | ( Withania somnifera. ) १० मा० । अश्वकर्णः कः, -र्णिका ashvakarnah, kah - rnika - सं० प०, स्त्री० (१) शाल वृष । ( Shorea robusta ) शील गाड़ -बं० । सु० सू० ३८ ० । ० सू० ४ अ० | ( २ ) सर्ज रस भेद, एक प्रकारका शाल वृक्ष । सर्जशास्त्र विशेष ग० नि० ० २३ शा३ । संस्कृत पर्याय - जरद्रुमः, तार्य, प्रसवः, शस्य सम्बरणः, धन्यः, दीर्घपर्णः कुशिकः, कौशिकः । भा० म० ४ भा० रेवती चि० । 'धवाश्वका ककुभः ।' तिन, स्निग्ध, र पिसान, उसे गुण- कटु, रोग, विस्फोट और कण्डू ( खाज ) नाशक है। रा० नि० ० ६ । कपेला, वया, पसीना, कफ तथा कृमिनाशक और विधि, बधिरता, योनि व कई रोग नाशक है । भा० पू० १ भा० बटादि प० । मात्रः २ मासा । (३) पलाश भेद । सु० सू० ३६ अ० शरीर (४) जताशाल । शिवादिलता-यं० । प० मु० । ७६१ अश्वगंधा (धिका) अश्वकर्णम् ashva-karnam-bio ली० काण्डभग्न (बीच से अस्थिभंग ) नामक अस्थिभंग विशेष जो टूटी अस्थि घाड़े के कान की भाँति ऊँची हो जाए उसे "अश्वकर्ण" कहते हैं। सु० नि० १५० | देखो - भग्नम् । अश्वकात (थ) रा रि ashra kata (tha rá,-riká. ruftar ashva-kátharivá सं० [स्त्री० हयकातरा । घोड़ा काथरा - हिं०, बं० । घोड़े काथर मह० । ashva-kátri-मह० गुण--ति, वातनाशनी तथा दीपनी है। ( काथराहय पर्यायैः काथरा वै प्रकीर्त्तिता ) रा० नि० । अश्वकाशि बाशिंग, वान्दर वाशिंग | कडिक पान, कडिक्क- पन-बम्ब० । पाली पोडिअम कसिंफोलिअम ( Polypodium quercifolium, Spr. ) ० । फा० इ० ३ भा० | देखो - बाशिंग | अश्वखुरः ashva-khurah - सं० प०, (१) नखी नामक गन्ध द्वष्य | (See nakhi ) रस्ना० । ( २ ) घोटक खुर, घोडेका खुर, सय । ( A boof.) रा० नि० Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अश्वखुरा - ashvakhurá, ri-० स्त्री० श्वेतपराजिता, विष्णुकान्ता । रा० नि० व० ३ । ( Clitoren ternatea.) देखी--अपराजिना । अश्वगन्द्र-वित्री ashvaganda bichi - बं० पुनीर के बीज, हिन्दी काव्नज के बीज-हिं०, २० Withania ( Puneeria.) Coagulans, Dunal. ( Seeds of -- ) । स० फा०] इं० | देखो --- अश्वगंधा । अश्वगंधा (न्धिका) ashvagandha, ndhiká-सं० (हिं०) स्त्री० एक सीधी झाड़ी जो गर्म प्रदेशों में होती है और जिसमें मको की तरह छोटे छोटे गोल फल लगते हैं । वाराही गेठी, असगंध, पुनीर - हिं० । 'संस्कृत पर्याय - जिस संस्कृत शब्द के अन्त में "गंध" और आदि में वाजि वाचक शब्द For Private and Personal Use Only Page #808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अश्वगाया अश्वगंधा थाए (अर्थात् समस्त अश्ववाचक शब्द), उम | नागोग गंध भी कहते हैं। नागौरी असगंध सब को असगंध का पर्याय समझना चाहिए, सर्वोत्तम होता है। . . जैसे, तुरंगगन्धा वा हयावया प्रभृति । अश्व वानस्पनिक. वर्णन-असगन्ध के जुग कदिका, काम्बूका, अश्वावरोहकः (र), प्रश्चा. २-२॥ हाथ उच्च एवं शाखाय हुल होते हैं। रोहा (हे), हयगंधा, वाजिगंधा, अश्वगन्धिका, पत्र युग्म ( जोड़े जोड़े), अराहाकार, अखंड, यल्या, तुर(ग, अ) गन्धा, कम्बुका, अरावारोहिका, '२ से ४ इंच दीर्घ, ह्रस्ववृन्त, लोमश तथा चौदे तुरगी, बलजा, वाजिनी, अवरोहिका, वराहकर्णी, होते हैं। पुष्प शुद, हस्वन्त, कसोय ( पत्रहया, पुष्टिदा, बलदा, पुष्टिः, पीवरा, पलाशपर्णी, वृन्तमूल से होकर प्रस्फुटित होते), शाखाग्र वातघ्नी, श्यामना, कामरूपिणी, काजा, प्रिय स्थित, दलबद्ध; दल (पुत्राभ्यंतर कोप)घण्टा. करी, गन्धपत्री, हरप्रिया, वाराहपत्री, वाराहकर्णी, ल्याकार, पोताभ हरिद्वर्ण, और प्रत्यं न लघु होते तुरंगगन्धा, तुरगा, वाजिना. वनका. हयप्रिया. हैं । फल छोटे, लाल, मसण, मटराकार, एक कम्बुकाष्ठा, अवरोहा, कुष्ठघातिनी, रसायनी और झिल्लीवत् कुण्ड (Calvx ) से प्रावरित और तिका । गुण प्रकाशिका संज्ञाएँ--"पुष्टिदा", शिखर पर खुले हुए होते हैं, पजे असंख्य "वल्या", "वातघ्मी" "वाजीकरी" | हिन्दीकाक नज-द० । अश्वगंधा-पं० । काकमजे हिन्दी अतिदुद्र, लगभग एक इंच का वाँ भागदी, -०, फा०। बहमन बर्स-फा. विथेनिया पीताभश्वेत, वृक्काकार, पार्थद्वय संकुचित बीज सोम्निफेरा (Withania sounifera, वाझावरण ( Testa) मधुमक्षिकागृहवत् होता Dunal.), फाइसेलिस फ्लक्सुअोसा ( Phy. है। समग्र चुप हम्ब, सशाख, सूक्ष्मा रोमों salis fluxuosa.), फाइसेजिस सोम्निफ्रंरा से पाच्छादित होता है । मूल मूलकवत् शंक्वा(Physa lis somnifera, !-wil. ) कार, किंतु क्षीण-ऊपर से हलका धूसर परंतु - ले. विण्टर चेरी( Winter cerry.) तोड़ने पर भीतर शवेत होता है । कधी जड़ से -०। मूरेङ्कप्पेन ( Moorenkappen) अश्व मूग्रवत् (तीच्या अग्राह्य ) गंध भाती -डच० । अङ्क लङ्ग कालंग, अश्वगरादी-ता०। है, इसी कारण इसको अश्वगंध प्रभृति नामों से पेखेरु-गड, अशवर्गधी, पिल्ली यांगा-ते. । पेवेट्टे, अभिहित करते हैं । शुष्कावस्था में गंध नहीं अमुकिरम्-मल | अंगबेरु, सोगडे येरु, हिरे-वेरू, होती एवं यह अत्यंत मृदु होती है। सका हिरे-महिन(-वेरु )-कना० । पासकन्द, असम्ध, स्वाद तिक्त होता है। सासंध, प्रासाद, अंगुर, श्रासन्धिका, अशवगन्धा, सुला, कञ्च की, दोरगुञ्ज-मह० । धारक ___ व्यापार में पाने वाली शुष्क जड़ ५ से. सन्ध, पासाँध (घ), श्रासन-गु०। फतरफोदा इञ्च लम्बी और शिखर से किञ्चित् अधःस्थ -गो० । ढोरगुज-देव असगन्ध-यम्ब० । बय- स्थूलतम भाग चौथाई से पाच इंच चौड़ा मन-सिंध । अमुक्रा-सिंहली । (व्यास)होता है। यह मसूण, चिक्कण, शंकवा. कार, बाहर से हलका पीताभधूसर वर्ण का और । वृद्धती व भीतर से शवेत एवं भंगुर होता है। टुकड़े "लघु (N. 0. Solacea. ) ... और शवेतसार पूर्ण होते हैं। मूल विरता हो उत्पत्ति-स्थान भारत के शुष्क एवं घोषणा | .. सशाख होता है। शिखर से संश्लिष्ट कतिपय भाग यथा बम्बई, पश्चिम भारतवर्ष वा पश्चिमी कोमल काण्ड के अवशेष वर्तमान होते हैं। घाट और कभी कभी बंग प्रदेशमें मिल जाता है ।। अणुवीक्षण द्वारा परीक्षा करने पर जब में पाए असगंध नागौर प्रदेश में बहुत होता है और | जाने वाले पदार्थ प्रधानतः कोमल, घरदाकार, वहाँ से सर्वत्र भेजा जाता है। इसी हेतु इसको कोषावृत शवेतमार द्वारा निर्मित होते हैं। यह For Private and Personal Use Only Page #809 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अश्वगंधा . ७i... अश्वगंधा लुभाबी एवं किञ्चित् तिक्त स्वादयुक्त होता है। "मेटिरिया मेडिका श्रॉफ वेष्टन इंडिया" में। यह मत प्रगट किया गया है कि व्यापारिक वस्तु उपयुक्त पौधे की जद नहीं हो सकती। रासायनिक संगठन---इसमें सोम्निफेरीन (Somniferin) बा अश्वगंधीन नामक एक क्षारीय सव (क्षारोद) प.या जाता है. जो निद्राजनक है तथा राल, वसा और रजक पदार्थ पाए जाते हैं। प्रयोगश-मूल, बीज तथा पत्र। । - मात्रा-२ तो... . ... औषध निर्माण-मूल चूर्ण ,मात्रा-४ श्राना ... से ८ आना पर्यंत | सार, मात्रा-२ पाना से . ४ पाना तथा अश्वगंधाघृत चौर अशवगंधाऽ - रिष्ट आदि । .. अश्वगन्धा के गुणधर्म तथा उपयोग " आयुर्वेदीय मतानुसार-प्रश्वगधा तिक्त, कपेली, उष्ण वीर्य तथा वातकफनाशक है श्रीर विष, वण व कफ को नष्ट करती एवं कांति, वीर्य । बल प्रदान करती है। धन्वन्तरीय निघण्टु । शुक्रवृद्धिकारक होने के कारण इसको शुक्रला | कहते हैं तथा यह तिक, कटु, उष्णवीर्य एवं । बलकारी है तथा कास, श्वास, व्रण और वात । को नष्ट करने वाली है । (रा०नि० व०४) असगंध बनकारक, रसायन, नित्र, करेला, ! गरम और अत्यंत शुकल है ए' इसके द्वारा बात श्लेष्म, श्वित्र (सफेद कोढ़), सूजन, क्षय, श्रामवात, व्रण, खांसी और श्वास का नारा होता है । ( भा० पू० १ भा०। मद० व०१) ___ यह रसायन है और बात कफ, सूजन तथा श्विन ( सफेद कोद) को नष्ट करता है। (भा० म०ख०१भा०). * अश्वगंधा जरा (वृद्धता ) व्याधि नाशक और कषेली एवं किञ्चित् कटुक (घरपरी) है • तथा धातुघद्धक 4 बल्य है। (वृहनिघण्टु 'रलाकर)। - अशवगंधा के पत्रका प्रलेप करनेसे ग्रंथि, गनगंध तथा अपची का नाश होता है। (शोढ़ल निघण्टु) तत्शोधनं यथा प्रयोगाः-पञ्च पल्लव तोयेन गंधानः ज्ञाजनं तथा । शोषयाश्चापि संस्कारो विशेषश्चात्र वचयते ॥ सलगंध के वेधमाय व्यवहार चरक-श्वास में अश्वगंधा मूल दारश्वास रोगी को घृत तथा मधु के साथ अश्वगन्धा के अन्तधूमदग्ध हार का सेवन कराएँ । यथा-- "चारचाप्यश्वगन्धाया लेहयेत् चोद्र सर्पिषा।" (चि० २१०) सुश्रुत--शोथ में अश्वगन्धा--कुट्टित अश्वगन्धा २ तो० को गव्य दुग्ध प्राध पाव तथा जल्न डेढ़ पाव के साथ दुग्ध मात्र अवशेष रहने तक क्याथ प्रस्तुत करें और इसे वस्त्रपूत कर शोष रोगी का पिलाएँ; किम्वा क्षीर परिभाषानुसार प्रस्तुत असगन्ध के क्ताथ से मन्धन द्वारा निकाले हुए नवनीत और उससे बने हुए घृत का पान कराएँ । यथा "तीरं पिवेद्वाप्यथ वाजिगन्धा-1 विपक्वमेवं लभते च पुष्टिम् । तदुत्थितं शीर घृतं सितादयम् । प्रातः पिवद्वाथ पयोऽनुपानम् ।" (उ०४१०) . मात्रा-श्राधा तो० से १ तो. तक। चक्रदत्त-यातव्याधि में अश्वगन्धा-(१) असगंधका क्वाथ तथा कल्क और इससे चतुर्गुणघृत इन सबको गोघृत के साथ यथा-विधि पाक कर सेवन करें। यह घृत घातन, वृष्य एवं मांस वद्धक है। यथा-- 'अश्वगन्धा कपाये च कल्के क्षीर चतुगुणम् । घृतं पक्वन्तु वातघ्नं वृष्यं मांस विवद्धनम् ॥, (वातव्याधि० चि०) (२) उदसेपद्रवभूत शोथ में अश्वगन्धा. उदर रोग में शाथ होने पर असगन्ध को गोमूत्र में पीसकर पान कराएँ । यथा"गोमूत्रपिष्टामथवाश्वगन्धाम् ।" (उदरचि.) (३) बन्ध्यात्व में अश्वगन्धा--पीर परि For Private and Personal Use Only Page #810 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भावगंधी अश्वगंधा मावानुसार प्रस्तुत असगन्ध के क्वाथ में किञ्चिद का नामोल्लेख भी नहीं । सुश्रुतोक्त वातव्याधि गोमूत्र का प्रक्षेप देकर, ऋतुस्नान की हुई बनाया चिकित्सा के अन्तर्गन अश्वगंधा का नामोल्लेख वाला (नारि) इसका पान करे। यह गर्भप्रद है। रष्टिगोचर नहीं होता । घरक में अश्वगन्धा यथा का बश्यवर्ग में पाठ आया है। "काथेन हयगन्धाया: साधितं सवृतं पयः। यूनानो मतानसारऋतुस्नाता वाला पीस्वा धरे गर्भन संशयः ॥” | प्रकृति-उष्ण वरून २ कक्षा में (पिग्छिन (योनिव्यापश्चि) पार्द्रता के साथ )। हानिकर्ता-उम्ण प्रकृति (४) बालकके काय गेगमें अश्वगन्धा को । दर्पघ्न-कतीरा आवश्यकतानुसार । प्रतिकृश शिशु के शरीरकी पुष्टि हेतु दुग्ध, घृत, तिल निधि-समान भाग बहमन सफेद ( वा मधुर फूट तैल, किम्वा ईपदुष्ण दुग्ध के साथ असगन्धकेचूर्ण तथा सूरिजान )। मात्रा-४ से ६ मा०। का सेवन कराएँ । यथा-- प्रधान कर्म-कामशक्रिय तथा कटिशूल के "पीताऽश्वगन्धा पयसाईमासम् । लिए हितकारक है। घृतेन तैलेन सुखाम्बुना वा । गुण, कर्म, प्रयोग-कास, श्वास तथा प्रव. कृशस्य पुष्टि वपुषो विधत्त । ययों के शोथ को लाभप्रद है। शरीर, काम, कटि वालस्य शस्यस्य यथाम्बुवृष्टिः॥" और गर्भाशय को शक्रि प्रदान करता, रमेष्म ( रसायनाधिकार) विकार को शमन करता और प्रामवात (गठिया) मात्रा-अवस्थानुसार । के लिए कटु सूरिआन की प्रतिनिधि है। (निर्विभावप्रकाश-दृदयगत वायु रोग में अश्व- | पैल ) म. मु.। गन्धा--वायु के हृदयगत होने पर असगन्ध को उध्ण जल के साथ पीस कर सेवन कराएँ। । " . नोट-यूनानी ग्रंथों में असगंध के गुणधर्म प्रायः आयुर्वेदीय ग्रंथों की नकल मात्र हैं। यथा--".पवे?ष्णाम्भसा पिष्टामश्वगन्धाम ।" _ नव्यमत (म० ख०२ भा०) चंगसेन--निद्रानाश रोग में अश्वगन्धा-- असगंध वल्य, रसायन एवं अवसादक है। असगंध की जड़ का चूर्ण दुग्ध किम्बा घृत के अश्वगन्धा चूर्ण को गांवृत तथा चीनी के साथ साथ बालकको सेवन करानेसे वह पुष्ट होता है। चाटने से नष्टनिद्रा वाले को नींद पाजाती है। अश्वगन्धा का रसायन रूपसे खण्डमोदकादि रूप यह परीक्षा सिद्ध है। यथा-- में जराकृत दौर्वत्य तथा वातरोगों में व्यवहार .. "चूर्ण हयगन्धायाः सितया सहितञ्च सर्पिपा करते हैं। चातज दौर्बल्य एवं प्रदर में एतलोढम् । विदधाति नष्टनिद्रे निद्रामरावेव सिद्ध : हेशीय रमणीगण प्रयान्य बहुपोषक द्रष्यों के मिदम् ॥” (जल दोषादि योगाधिकार) साथ अश्वगन्धाका उपयोग करती हैं। अश्वगंधा वक्तव्य के पत्र को एरण्ड तैलमें सिक्त कर स्फोटकादि के - जिन दस्यों के बाद रूप में प्रयुक करने की ऊपर स्थापित करने से वह अंग सुप्त हो जाता विधि है "सदैवार्दा प्रयोकव्या" उनमें से | है अर्थात् तत्स्थानीय स्वक् स्पर्शज्ञान रहित हो असगन्धभी एक है। असगन्ध कच्चे अर्थात् गीले जाता है । बधिरता में नारायण तेल (जिसका रूप में ही व्यवहत होता है। चरक की बात- अश्वगन्धा एक उपादान है) का नस्य एवं न्याधि की चिकित्सा के अन्तर्गत अश्वगन्धा के पक्षाघास, धनुस्तम्भ, वात एवं कटिशूल में इसका काथ में तैल पाककर व्यवहार करने का उपदेश अभ्यंग और प्रामरक्रातिसार (प्रवाहिका)विशेष है ("कल्पोऽयमश्वगन्धायाः"-चि० २८०), एवं भगंदर में इसका अनुवासनवस्ति ( Eneपर पतीय चिकित्सा के अन्तर्गत अशवगन्धा ma) रूप से प्रयोग करते हैं। शिकार, For Private and Personal Use Only Page #811 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अश्वगन्धा अश्वगन्धा जराजभ्य दौर्बल्य,कु, त्रात व्याधि एवं वातरोगों में यह १५ से ६० बूंदकी मात्रा में सेवनीय है।। ( मेटेरिया मेडिका प्रॉफ इण्डिया, पार० एन० । खोरी २ख० पृ०४५२) "अम्बे जोरा" नामक पुस्तक के रचयिता लिखते हैं कि इसके बीज पुनीर बीजवत् दुग्ध के जमानेके काम पाते हैं। मैंने भी प्रयोगकर इसकी परीक्षा की और वस्तुतः इसके बीज में किसी प्रकार उक्र शक्रिको विद्यमान पाया। (फा०१० २ भा०पृ० ५६७) __ गॅग्जय लिखते हैं कि तैलिंग चिकित्सक इसको विषघ्न मानते हैं। ऐसली लिखते हैं कि बाजार में मिलने वाली जा पांडु वर्ण की होती और उसका वाह्य स्वरूप जेन्शनकी तरह होता है परंतु इसमें किंचित् अगाय स्वाद एव' गंध होती है । यद्यपि तैमूल चिकित्सक इसको अवरोधोद्घाटक और मूत्रल मानते हैं और इसका काथ चाय की प्याली भर दिन में दो बार प्रयक्त करते हैं। पत्र को किंचित् उष्ण एरंड तेल में सिक्र कर विस्फोटक पर स्थापित -ता। पेरु-गड-वित्तु लु-ते। अम्कीरे-गड़े -कना० । अमुकिरम्-मल । काकनज-बम्ब । पनीर-मन्द, पनीर-जा-फारा-सिं० । अमुकुर-महO खाम जहिया, स्पिनबज, शापिङ्ग, खम-ए-जदे, मावजूर, पनीर, कुटिलना-प० । स्पिनवजअफ। देशी असगंध के बीज पुनीर के बीज-हिं० । हिंदी काकनज के बीज, नाट की असगंध के बीज-द० । हब्बुल-काकनजे. हिन्दी-अ० । सुरुमे काकनजे हिंदी-फा० । विथेनिया (पुनीरिया) कोग्यूलेंस Withania ( Puneeria ) Coagulans, danal - (Feeds of-.)-ले। अम्मुकुड़ा-वि. ता० । पेमेरु-गहु-वित्तुलु-ते। अश्वर्गदविची -अं० । वृहती वर्ग (N. 0. Solanaceve ) उत्पत्ति-स्थान-भारतीय उद्यान, बन, पर्वत तथा खेती की बाड़ों में यह बूटी सामान्य रूप से होती है। पंजाब, सिन्ध, सतलज की घाटी, अफगानिस्तान और बिलूचिस्तान । घानस्पतिक-वर्णन --एक लघु, दृढ़, धूसर, लगभग १ गज उच्च चुप है। पत्र श्लेष्मातक पत्रवत्, किन्तु उससे किञ्चित् लम्बोतरी शकल के शाखा बहुल, प्रत्येक शाखा पर अधिकता के साथ फल लगे होते हैं । समन फल लगभग ई. रयास में, आधार पर चिपटा, एक चर्मवत् कुराए द्वारा प्रावृत्त, जिसके शिखर पर एक पञ्च विभाग युक सचम छिद्र होता है जिससे फल का एक सक्ष्म अंश दृष्टिगोचर होता है। परिपक्क होने पर यह रकवर्ण का किन्तु शुभकावस्था में पीताभ एवं छिलकावत् हो जाता है। उसके भीतर चिपटे वृकाकार बीजों का एक समूह होता है जो चिपचिपे धूसर मज्जा से संश्लिष्ट होता और जिसकी गंध हल्लास जनक फलीय होती है। बीज अधिकाधिक इच लम्बे होते हैं। पत्रका स्वाद एवं गंध तिक होती है। बीज मूत्रल और निद्राजनक प्रभाव करते : हैं । ( इर्विन) फल मूत्रल है। पत्र अत्यन्त तिक होते हैं और ज्वर में इसका फांट व्यवहार में श्राता है ।। पजाब में यह कटिशूल निवारणार्थ प्रयुक्र होता है और कामोद्दीपक माना जाता है। सिंधौ गर्भपात हेतु इसका व्यवहार होता है । राजपूत लोग इसकी जड़ को प्रामवात तथा अजी में लाभ. दायक मानते हैं। (इं० मे. प्लां.) दशी असगंध (प्राकसन बूटी) अश्वगन्धा सं०, वं., मह,को। देशी | असगंध, आकसन, अकरी,पुनीर-हिं. 1 काकनजे हिन्दी-अ०, फा०विथेनिया (पुनीरिया) कोग्यूलेन्स Withania ( Putneeria ) Coagulans, Dunal.-ले० । वेजिटिवल रेनेट Vegetable renne t-- 01 नाट को असगंध, हिंदी काकनज-द० । अमुक डा-विरै | १७ For Private and Personal Use Only Page #812 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ७७० रासायनिक संगठन - विधेनीन (Witha nin ) नामक एक प्रभावात्मक सत्व । यह एक प्रकार का अभिषत्र ( Ferment ) है जो उक पौधे के बीज द्वारा प्राप्त होता है और प्राणिज रेनेट (Animal rennet ) से बहुत कुछ समानता रखता है एवं उसकी एक उत्तम प्रतिनिधि है । I कथित करने से यह नष्ट हो जाता हैं और मद्य सार से अधःक्षेपित होता है एवं इसका उसके जमाने वाले गुण पर कोई प्रभाव नहीं होता । बीजसे ग्लीसरीन वा साधारण लवण (सैंधव ) के तीव्र घोल द्वारा इसका सत्य प्राप्त किया जाता है। इन दोनों विधियों द्वारा प्रस्तुत सत्व अल्प मात्रा में भी तीव्र जमाने का प्रभाव रखता है । प्रयोगांश- फल, मूल एवं पत्र | 5 श्रीषध निर्माण - तव तैल आदि । प्रभाव - वामक, रसायन, मूत्रल और यह दुग्ध का जमा देता है । प्रयोग - सिंघ तथा उत्तर पश्चिम भारत एवं अफ़ग़ानिस्तान में यह रेनेट के स्थान में दुग्ध जमाने के काम श्राता है। देशी लोग इसके फल को थोड़े दुग्ध के साथ रगड़ कर इसको दुग्ध में उसे जमाने के लिए मिला देते हैं। डॉक्टर स्टॉक्स (१८४३ ) के बने से पूर्व ऐसा प्रतीत होता है कि इस और लोगों का कम ध्यान था । ( नवीन ) फल वामक रूप से भी प्रयुक होता है और अल्प माত্রा ( शुल्क ) में यह पुरातन यकृद्रांगजन्य श्रजीशा" ( तथा श्रानाह शूल ) की औषध है। यह मूत्रल एवं रसायन है । बम्बई में इसको प्रायः काकनन ( Thysalis alkekengi, Willd. ) के साथ मिलाकर भ्रमकारक बना दिया जाता है। काकनज का आयात फ़ारस से होता है और अरबी में उसको काकनज वा हुज्जु काकनज कहते हैं । इनसीना ने इसकी काकमाची ( मको )त् रसायन लिखा और लोगों के लिए विशेष रूपसे लाभदायक लिखा हैं । उन दोनों पौधे रख Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अश्वगन्धाद्यघृतम् शोधक रूप से प्रख्यात हैं । अधुना क्यु (ew) में किए गए हूकर (Sir. J. D, looker ) के परीक्षणानुसार यह निश्चय किया गया है कि १ उस पुनीर के फल ( Withania coagulans ) का १ क्वार्ट ( ४० आउंस) खौलते हुए जल में क्वाथ कर, इसमें से एक { Tablespoonful ) उक्र काथ १ गॅलन उष्ण दुग्ध की लगभग आध घंटे में जमा देगा ( फा० ० २ मा० ) । शुक फल में भी यह गुण हैं | पक्क फल में अंगमप्रशमन एवं अवसादक गुण होने का अनुमान किया जाता है । ( ई० मे० प्रा० ) । अश्वगन्धा घृतम् ashva gandha-ghritam-० क्ली० असगंध के कषाय या कल्क में योगुना दुग्ध मिला उसमें घृत मिला कर पिकाएँ । जब घृत सिद्ध होजाए तब उतार एवं छान कर रक्खें । गुण- इसके सेवन से वातरोग का नाश होता हैं और पुष्ट करते हुए मांस की वृद्धि करता है। वंग से० सं० वातरोग-त्रि० । (अश्वगन्धा तैलम् ashvagandhá-tailam -सं० क्लां०] वातव्याधि में प्रयुक्त तेल विशेष | ० द० । प्रयोगाः । अश्वगन्धादि नस्यम् ashva-gandhadinasyam - सं०ली० श्रसगन्ध सैंधव, वज्र, मधुसार, मरिच, पीपल, मटऔर लहसुन को बकरे के मूत्र में पीस नस्य लेने से नेत्र स्वच्छ होते हैं । अश्वगन्धाद्य घृतम् ashvagandhadyagh. ritam सं० कां० ( १ ) अश्वगन्ध के कल्क ४ मा० को दुग्ध १० भा० में पकाकर बालकों को पिलाने से यह उनके यलकी बुद्धि करता है । नं० [सं० वाल०-तंत्र० । ( २ ) असगंध मूल ९ प्रस्थ, दुग्ध २ श्राढ़क (५३२ तो० ), घृत १ प्रस्थ इनकोकोमल अग्नि पकाएँ । पुनः सोंड, मिर्च, पीपल, दालचीनी, इलायची, तेजपत्र, नागकेशर, चायविडंग, For Private and Personal Use Only Page #813 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अश्वगन्धा चूर्णम् अश्वगन्धा पाकः जानित्री, खरेटो, गंगेरन, गोखरू, विधारा, नोट-ब्रह्मवीज (पलाश पापड़ा वा पलाश के लोहभस्म, अभ्रक भस्म, बंगमम्म प्रत्येक ४-५ बीज ) को स चूर्ण का प्राधः लेना चाहिए । तो, मि ... ३२ तो०, शुद्ध शहद ३२ ता० ।। रस०र० । काष्ट ग्राषधिों का चूर्ण कर उक. मिडू धन में , | अश्वगन्धाद्य तेलम् shragandhadyaमिलित कर उत्तम पात्र में रक्खें । thilam-सं० को असगन्धमूल ४०० तो० गुण-इसका उचित मात्रा में सेवन करने से को १०२४ तो० जन में पकाएँ, जब चौथाई शेष अर्दिन वात, हनुस्तम्भ, मन्याम्तंभ कटिंग्रह, शोप, रहे तब कपड़ छान कर चौगुना गोदुग्ध मिला सन्धिगत वान, लिभङ्ग, गृधपी, अग्नि दोष, कर पकाए । पुनः कमल की डंडी, कमल कन्द, धर्म दोप, पाद शाप, परन्त्राव, अनमय गर्भ कमलतन्तु, कमल के शर, ( कमलपञ्चांग), चमेली पान, ग्रामवात, पागडु, शुक्रदीप, नपुसकता पुष्प, नेत्रबाला, मुन्नी, अमन्तमूल, कमलकेशर, श्रादि रोग नष्ट होते हैं । वं । से० सं० वाजा- मेदा, पुनर्नवा, दाख, म जी, दोनों कटेगी, ऐलवाकर० अ०। लुक, त्रिफला, मोथा, चन्दन, इलायची, पन. (३) शुभ दिन, शुभ देशज अश्वगंधमूल कार; प्रत्येक १.१० लेकर कल्क प्रस्तुत करें। ४०० तो० ग्रहण कर १०२४ तो जल में पुनः १२५ ती० तिल तेल मिलाकर विधिवत् पकाएँ । जब चौथाई शेष रहे, वस्त्रमे छानकर पुनः पकाएँ। छाग मांस ०० ता०, गोघृत ६४ तो०, गोदुग्ध गण-इसके सेवन से रऋपित्त, वातरक्र, २५६ तो०, काकोली, ऋद्धि, मेदा, महामेदा, क्षीर प्रदा, कृशता, वीर्य विकार, योनि विकार, नासा काकोली, जोवक, कौंच बीज, अडूमा, कबीला, शीप, नपुसकता, व्रण तथा शोथ दूर होते हैं। मुलहठी, मुनक्का, धमाया, पीपल, जीवन्ती, इसको मालिश ( अभ्यंग) पान और अनुवासन खिरेटी, पीपर, विदारीकंद, शतावरी इनका कल्क वस्ति में भी देते हैं। यंग० से. वातव्याधि बना उक्र घृत में मंदाग्नि से पकाए । पुन: शहद चि०। मिश्री १६-१६ तो. मित्रित कर उत्तम पात्र में रक्खें। अश्वगन्धा पाकः :shvagundhāpā kah.सं. पु. ६ सेर गाय के दूध में ३२ तो. अश्वगंध गुण - इसके सेवन से क्षत, क्षय, दुर्बलता, के चूर्ण को पकाएँ । अब पकते पकते कड़छी से बालोंका श्वेत होना, हृद्रोग, वस्तिगत रोग, विव- लिपटने लगे तो रसमें चातुर्जात, जायफल, केशर, र्णता, स्त्री, पुरुष एवं बालकों के रोग, नपुंसकता, वंशलोचन, मोचरस, जटामांसी. चन्दन, अगर, खाँसो, श्वास, वातव्याधि, स्त्रियों का बन्ध्यापन जावित्री, पीपल, पीपलामूल, लवंग, शीतलचीनी, आदि अनेक व्याधियाँ दूर होती हैं । वंग० से. चिलगोजा, अखरोट की गिरी, भिलावाँ की गिरी, .सं. क्षय-चि०। सिंघाड़ा और गोखुरू प्रत्येक एक एक तो० को चूर्ण अश्वगन्धाद्य चूर्णम् ashreogand hādya. कर डालें । और रससिंदूर, अभ्रक भस्म, सीसा, chārnam-संपलीयह स्वरभंगका नाश बंग और लोहभस्म प्रत्येक ६ माशा डालें। फिर करता है। योग इस प्रकार है, यथा-अश्वगंध, सबको सुखाकर (घी में सेककर ) चासनी में अजमोदा, पाहा, त्रिकटु, सौंफ, पलाशपापड़ा, डालें। सेंधानमक समान माग, इनका प्राधा माग वच, गुण- यह उचित मात्रा से सभी प्रमेहों, जीर्णइन सबको चूर्णकर मधु पोर घृत में भली प्रकार ज्वर, शोष, वातिक तथा पैतिक गुल्म को नष्ट मिलाकर रखें। करता है तथा वीर्य की वृद्धि और शरीर को पुष्ट मात्रा--१० माषा (दुग्ध के साथ) सेवन करके जठराग्नि को प्रदीप्त करता है। रस.यो सा। For Private and Personal Use Only Page #814 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अश्वगन्धाभ्रका ७७३ asa1717169: ashvaganihábhrakah लेकर मिट्टी की कड़ाही में डालकर मंद अग्नि से -सं.पु.८ सेर प्रमगंध का काथ बनाकर । पकाएं। जब पकने पकते प्राधा दृध शेप रहे छाने । फिर उममें १६ तो. धी, ३२ तो० अभ्रक तब ऊपर बनाए हुए चुणों को उसमें मिला दें। और सबके बराबर हल्दीका चर्गा मिलाएँ । और जब वध और घो घांटते घोटते पृथक न मालूम केवाँच के बीजोंका चूर्ण, त्रिफला, वितात, नागर- पड़े तब उतार लें । फिर जीरा, पीपलामूल, मोथा, पृथक पृथक् चार चार तो० मिलाकर तालीसपत्र, लवंग, तगर, जायफल, खस, सुगंध. पका पाक तैयार होने पर पैदा कर उसमें ३२ बाला, ननद (बारीक स्वस), बेलगिरी, कमल सो० शहद मिलाएँ। के फूल, धनियाँ, धोके फूल, वंशलोचन, पामला, स्वैरमार, घनसार (कपूर ), पुनर्नवा, अजगंधा, मात्रा-बलानुसार देने से राजयक्ष्मा, उर: चित्रक और शतावरी प्रत्येक साधा तो. और क्षत, क्षय, वात रांग और कृशता को दर करके त्रियों में अत्यन्त हर्ष को उत्पन्न करता है। रस. शुद्ध पारा २ तो० तथा रमसिंदूर २ सी० लेकर यो सा०। बारीक चणकरके । लाएँ। फिर उंडा होने पर शहद मिलाकर चिकने बर्तन में रखें। अश्वगन्धादिः ashvagandharishrah-स. पु. असगंध तुला, मुपली ८० त०, मजो:- मात्रा-२ तो। हड़, हन्दी, दारुहरूदी मुलही, रास्ना, विदारीकंद, , गुण-खाँसी, दमा, हिचकी, अजीण वातअर्जुनकी छाल, नागरमोथा, निशीथ अनन्ता (दूब) रक, नीला, वातरोग, प्रामवात, सूजन, बादी श्यामलता प्रत्येक ८०-९० तो०, श्वेत चन्दन, मवासीर, पांडु, कामला, संग्रहणी, गल्म रोग, वात रक्र चंदन, च, चिनक प्रत्येक ६४-६४ तो० इनको कफ के विकार तथा मंदाग्नि को दूर करता और सण कर + द्रोण जल में पकाएँ । जब द्रोण बालके, सियों तथा प्रल्पवीयं वाले पुरुषों की काय शेष रहे तब शीतन हो जाने पर धवपुष्प काम वृद्धि करता है । रस. यो० सा०। १२८ नो०, उत्तम शहद १५ सेर, सोंठ, मिर्च, अश्वगन्धिका ashva-gandhika-सं० स्त्री० पीपल १६-१६ तो०, दालचीनी, इलायची. तेज प्रश्वगंधा, असगंध । (Witharia Somnia पत्र ३२ तो०, फूल प्रियंगू ३२ तो०, नागकेशर fera.) रा.। १६ तो चुर्गा कर उक काध में मिश्रित कर उत्तम पाय में रस्स एक मांस पयंत रखने से यह अरिष्ट अश्वगोष्ठम् ashvagoshtham-सं० क्ली. सिद्ध होता है। वाजिशाला, अस्तबल, तबेला, धुसाल, । (A मात्रा-१ से २ तो०।। sta bie. ) अल-इसके विधिवत् सेवन करने से मुर्छा अश्वघ्नः ashvaghnah-सं० पु. श्वेत करवीर अपस्मृति, शोष उन्माद, दुर्वलता, पर्श, मंदारिन । वृक्ष, सफेद कनेर का पेड़ । श्खेतकरवी गाल-बं०। और समस्त वात व्याधियों का नाश होता है। Nerium odorum ( The white भैप०र० मूर्छा चि. val. of-) रा.नि. २०१०। अश्वगन्धाव लेहः ashvagandhavalehah | अश्वचा ashvachakra-हिं० संज्ञा पु. -सं० पु. असगंध चूर्ण ४० तो०, सौर चण', [सं.] (१) घोडे के चित्रों से शुभाशुभ का २० तो०, पीपल चूर्ण १० तो० और काली! विचार । (२) घोड़ों का समूह । मिर्च ४०, दालचीनी, छोटी इलागची, तेजपात , अश्व आंधनः ishvajivansh-सं० पु. और नागकेशर सूर्ण प्रत्येक ४ तो०, गाय का ! चणक। चना-हि. । छोला-बं०] Gram दूध २०० तो०, शहद ५० तो., गाय का घो: or chick pea (Cicer ariatin. २१ तो०, सब १०० तो०, सबको पृथक् पृथक् ॥m.) घे० निधन ! For Private and Personal Use Only Page #815 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भश्वतरः पाखी अश्वतर: ashvatarah-सं० पु. ती अश्वतर ashvatara-हि० संक्षा अश्वतरी] (१)अश्वखरज, खच्चर, घोड़ी और गधे से उत्पन्न जीव । खच्चोर घोड़ा-ब० 1 (A mule or donkey) सु० अ० ४६ । गुण-इसका मांस वल्य, वृंहण और कफ पित्त कारक है। मद०व०१२। (२) एक प्रकार का सर्प। नाग-राज। अश्वतृणम् ashvatrinam-सं० ली. पाषाण मूली । घोड़ाघास-हिं० । उश्वुलनील-श्न.. । ( Collinsonia. ) देखे:-पृ० ७८३ अश्वत्थ: ashvitthalh-सं० पु० । अश्वत्थ shrattha-हिं० शा दु' ।। (प० मु० । सु० सू० ३० प्र० न्यग्रोधादिध.) पीपल, पि(पी)पर-हि०, मह०, गु०, पं०, | बम्ब० । फाइकस रेलिजिमोजा ( Ficus re+ ligiosa, Linn.)-ले। दी सेक्रेड ट्री ( The sacred tree ), staat (The peepal tree)-501 फिगोर -श्रो मा देस पैगोडेस Figu-ier ouarbre des pagodes (Ou de Dreu ou Conseils)-फ्रां। रेलिजि भोजर फोगेनबॉम(Religioser Fiegenbaum) -जर.1 संस्कृत पर्याय--केशकाल यः, चैत्यदुः(त्रि०), बोधितरुः, कृष्णावासः (हे), चैत्यवृत्तः (र), नागबन्धुः, देवात्मा, महामः (श), कपीतनः (मे), बोधिद्रमः, चलदना, पिप्पलः, कुञ्जराशनः (8), अच्युतावासः, चलपत्रः, पवित्रका, शुभदः, बोधिवृक्षः, याझिकः, गजभसकः, श्रीमान्, तीरद्रुमः, विप्रः, मंगल्यः, श्यामलः, गुह्यपुष्पः, सेव्यः, सत्यः, शुचि मः, धनुषः, गज भच्या, गजाशन:, शीरद्रुमः, बोधिनुः,धर्म वृक्षः,श्रीवृक्षः । माशुद् गाय, प्रशोधगाछ, अश्वस्थ, अस्चतबं० । मुर्तमश-१०। दरात वरों, पीपल -फा० । सुही-उ० । अरस, अरश मरम्, अस्वर्थम्-ता० । राई (वि)चेष्टु, कुलुम्विचेस, राई, रैग, रावि, कुलराधि, रागी-तै० । रंगी, बस्त्री, अरक्षी, प्ररले नेसपथ, रागी, अस्वल, अरशेमर, अश्वत्थमर-कनापिपल, पीपल्लो • मह । पिम्पल-मह, वो । परली-का० । पिम्पल, पिप्लो, पिपुर, पिपुल-वस्थ० । पीपल, भोर-पं० । पिपुल-गु.। हिसार, पीपर-- दोल। हिसाक स.न्ता जाऊ-उडि० । बोरबर-छा० । पिप्ली-नेपा० । प्रा(अलीगो। पेपी-काकु । पोपल को पेडमारवा० । अरशम्मरम् द्रावि०। न.ट-इसका एक छोटा भेद है जिसको पीपली कहते हैं। इसके पत्र छोटे होते हैं । अश्वत्थ वा बटवर्ग (... O. Urticuceae.) । उत्पत्ति-स्थान-सम्पूर्ण भारतवर्ष और (यंम प्रदेश, मध्य प्रदेश ) हिमालय पाद । __ वानस्पतिक-वर्णन -अश्वत्थ एक तम छाया वृक्ष है । पीपल के पक्य फल को पक्षीगण खाकर जब बीट करते हैं तब उसमें साबित बीज निकलते हैं। इनमें जननोपयोगी बीज किसी धूप वा दीवार पर गिर कर मिट्टी का सहारा पाकर अंकुरित हो जाते हैं। प्रस्तु, प्राचीन गृहों की दीवारों तथा वृक्षों पर भी पीपल के वृक्ष दृष्टिगोचर होते हैं । चैत्र में अश्वत्थ वृक्ष पत्रशून्य होता है और प्रायः ग्रीष्म ऋतु में नवीन पत्रों से सुशोभित होता है । इसके वृक्ष अत्यन्त वि. शाल एवं बहुशास्त्री होते हैं । पत्र गोल अंडाकार सिरे की और लहरदार हृदाकार, पत्रवृन्त दीर्घ एवं वीण, पत्राग्रभाग क्रमशः सूचम होता हुमा धर्दित, पत्र का लम्बा होता है। फलकोष (कुरा ) कहीय, युग्म, वृन्त रहित, संकुचित, मटराकार (वा उससे वृहत् ), प्रीष्म ऋतु में फल लगते और प्रावृट में परिपक्व होते है । पक्यावस्था में बैंगनी रंग के होते हैं। पीपल के काटने और तोड़ने से उसमें से एक 'प्रकार का रसदार श्वेत रस निर्गत होता है जिसे पीपल का वृक्ष कहते कहते हैं। इसी कारण इसका एक माम "धीर. मम" है और इसकी खीरी वृक्षों में गाना For Private and Personal Use Only Page #816 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७७४ श्यस्थ होती है। उ वृध में रबड़ या धूप होता है। इसके वृक्ष में लाख लगता है जो श्रौषध कार्य : में आता है। इसकी शाखों और पेड़ में से वट वृक्ष की तरह हवा में जड़े फूटती हैं जिनको पीपल की दाढ़ी कहते हैं; परन्तु ये वट के धरोह इतने प्रशस्त नहीं होते और न इनसे वृज ही तैयार होते हैं। उक्त दाढ़ी श्रोषधकार्य में प्राती है । इसके कतिपय दरारों से एक प्रकार की ! श्यामवर्ण की गोद भी निकलती है। नाट जनसाधारण का यह विश्वाल है कि वट, पीपल, गूलर, पाकर तथा अंजीर प्रभति वृक्षों में फूल पाने ही नहीं, परन्तु उनका यह विचार सर्वधा मिथ्या है और इससे उनकी उद्भिदविद्या विषयक अज्ञता सूचित होती है। पीपल के फल और फूल को शकल में कोई विशेष अन्तर न रहने के कारण ऐसा हो जाना सम्भव है। शाम्रों में इसके अस्पष्ट रहने के कारण हो इसको गृह पुष्प कहा गया है। सर्वसाधारण जिसकी पीपल का कथा फल कहते हैं वही इसकी पुरुप है। इसका निश्चित् ज्ञान | . नस्पतिशास्त्र के अध्ययन द्वारा हो सकता है।। ज्ञात रहे कियः वृद रात्रि के समय एक प्रकार का मनुष्य स्वास्थ्य के लिए हानिकारक वायच्योड़ा करते हैं परन्तु अर्वाचीन विज्ञान के अन्वेषणानुसार उसके विपरीत अश्वस्थ में यह बात नहीं पाई जाती। यही कारण है कि हिर लोग इसको चिरकाल से देवता तु य भानते माए हैं एवं उनके यहाँ इसकी बड़ी प्रतिष्ठा है। देखो-अजीर । रासायनिक संगठन–त्यक् में कपायीन । (Trmin ), कू(कौ)नुक ( Coutch. ouc ) अर्थात् भारतीय रबर और मोम (W..x) आदि पाए जाते हैं। प्रयोगांश---पत्र, पत्र मुकुल, स्वक, फल, बीज, पीपल की दादी, दुग्ध, काष्ठ, मूल और निर्यास, ! तथा लाक्षा। औषध-निर्माण-काय, मात्रा आध पाव ।। परवल्कल कषाय (च. द०), पचवल्कलादे सेलम् प्रभृति । प्रभाष-पत्र मुकुल-रेचक; त्यक-संग्राही; फल-को छनकर वा मृदुरेका योज-शीतल, मरेचक, शैरय कारक और रसायन । अश्वत्थ के गुण-धर्म नया उपयोग श्रायुर्वेदीय मतानुसार--पीपा का पका फल मधुर, कपेला, शीतल, कफपित्तनाशक एवं रक्रदोष व दाह का शमन करने वाला और तरक्षण निदोषहारक है। अन्य अश्वत्थ वृत के प फ न अन्यन्त हग एवं शीतल हैं और पिल, रक के रोग, विष व्याधि, दाह, मन , शोध तथा अरुचि दोष (प्रशंचक का) नाश करने वाला है। अश्वस्थिका (पीपली) मधुर, कही है तथा रऋपिनहर, विष एवं दाह प्रशामक और गर्भवतो के लिए हितकारी है। रा. नि० व० ११ । दुर्जर और शोनल है । मद. व०५। दुर्जर, शीतल, भारो, कषेला, रूक्ष, वर्ण प्रकाराक. योनि शोधनकर्शः, पित्त, कफ, वा और रुधिर के विकार को दूर करता है । भा० पू० ११० वटादिव० । अश्वत्थ के वैद्यकीय व्यवहार चरक-(१)वातरक्त में अश्वत्थ स्वक-पीपल की छाल के काथ में मधु का प्रक्षेत्र देकर सेवन करने से दारुण रक्तपित्त प्ररामित होता है । यथा "वाधिद्रम क.पायन्तु पिवेत्तं मधुना सह । वातरक्तं जयत्याशु त्रिदोषामपि दारुणम्॥" (चि० २६ अ०) (२)वणाच्छादनार्थ अश्वत्थ पत्र अश्वस्थके पत्र से नथ प्रच्छादन करें । यथा*विप्पलस्य च । व्रण अच्छादने विद्वान् ।" (चि० १३ १०) (३)वण में अश्वत्य स्वक-अश्वत्थ त्वक् चूर्ष के क्षत पर प्रवचूर्णन करनेसे वह शीघ्र पूरित होता है अर्थात् भर जाता है। यथा "ककुभादुम्बराश्वत्थ-- त्वचाश्वेष गृहणन्ति त्वक् चूर्णैश्चूर्णिता व्रणाः ॥" (चि० १३ भ०) मुथ न--(१)नीलमेह में अश्वस्थ लक् For Private and Personal Use Only Page #817 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अश्वत्थ नील मेहीको अश्वत्थ की छाल द्वारा प्रस्तुत क्वाथ | पान कराएँ । यथा-- "नालमेहिनमश्यत्य कषायं वा पाययेत्" (चि० ११ १०)। (२) वाजीकरणार्थ अश्वत्थ फलादि-- अश्वत्थ फल, मल त्वक् एवं शुग ( पत्रमुकुल) इनका काथ प्रस्तुत कर मधु एवं शर्करा का प्रक्षेप। देकर पिलाने से चटकवत् मैथुन शक्रि की वृद्धि होती है। यथा "अश्वत्थ फल मूलत्वक कछुङ्गारुिद्धं पयोनरः । पीत्वा स शर्करा क्षौद'कुलिङ्गव हृष्यति ॥" (चि० २६ अ०) चक्रदत्त-(१)वमनमें अश्वत्थ स्वक-अश्वत्थ वृक्ष की सस्ती हुई छाल को जलाकर उक्र अंगार को जल में डाल रखें। इस जल के पीने से वमन की निवृत्ति होती है। यथा-"अश्वस्थ वल्कलं शुष्क दवा निर्धापितं जले। तत्तीयपानमाण छर्दिजयत्ति दुस्तराम् ।" (छदि चि०) (२) अग्निदग्धप्रण में प्रश्वस्य बल्कल . अश्वत्थ वृक्ष की सखी छाल के बारीक चूर्ण के अग्नि से जल जाने के कारण उत्पन्न हुए ग्रण पर छिड़कन से क्षत अच्छा हो जाता है । यथा-- "अश्वत्थस्य विशुष्कतकाल कृतं चूण तथा गुण्डनात् ।” (प्रण शाथ-शि.) प्रश्वत्थपत्र--अश्वत्थपत्र द्वारा प्रस्तुत चोंगाको तैलाकर उसे नप्त अंगारों से पूर्ण कर कण के ऊपर ( कुछ दूरी पर ) रवखें । अंगारों द्वारातप्त होकर जो तैल चाँगे से चुए, उससे कण पूरण करने से तत्काल कण शूल की शांति होती है। यथा-- "अश्वस्थ पत्र खल्लम्बा विधाय बहुपत्रकम् । तैलाक्रमगार पूर्ण विदध्याच्छ वणीपार । यतैलं च्यवने तस्मात् स्वल्लादंगारत पितात् । तत्प्राप्त श्रवणस्रोतः सद्यो गृहाति वेदनाम् । (कर्ण राग-चि.) . (४) शिशु के मुख पाक में अश्वस्थ स्वक् । एवं पत्र-पालक के मुख पकने पर अश्वस्थ की छाल तथा पत्र को मधु के साथ भली प्रकार पीस कर उस पर प्रलेप करें। यथा"अश्वत्थरवग्दल कोद्रेमुखपाके प्रलेपनम् ।" (वालरोग-चि.) बकम्य अश्वत्थत्यक "पञ्चवल्कल"के अवयवों में से एकहै । योनि रोग पञ्चवल्कल का क्वाथएवं विसर्प में उसके प्रलेप का बहुशः प्रयोग करने से ये लाभप्रद सिद्ध हुए। चरक में अश्वस्थ को "मूत्रसंग्रहण वर्ग" में पाठ पाया है। इसके अतिरिक्त अश्वत्थ स्वक् का सोम रोग में प्रयोग किया जा सकता है। सनिपातज्वर में अश्वत्थपत्र-स्वरस को विशेष प्रौषधों के अनुपान रूप से व्यवहार किया जाता। सुश्रत के न्यग्रोधा. दिगण में अश्वत्थ का पाठ पाया है (सू. ३८ श्र०)। चरक सिद्धिस्थान में प्रतिसार में प्रयुक्त यवागू पाका द्रव्यान्तर के साथ अश्वस्थ शुग व्यवहृत हुअा है-"मसूराश्वत्थशुगेन यवागूः स्याजले शृता ।' अविकसित पत्रमुकुल को शुग कहते हैं (“शुग इत्यविकसित पत्र मुकुलम्"--- चक्रसंग्रह टीकायां शिवदासः)। यूनानी मतानुसार-प्रकृति-पत्र तथा स्वक २ कक्षा में शीतल व रूक्ष किसी किसी के मत से उडण हैं। हानिकर्ता-पारमाशय तथा प्रान्त्र को । दर्पघ्न- लवण तथा घी । प्रतिनिधि-विलायक रूप से वट पत्र । मात्रा--छाल, १ मिस्काल तक(४॥ मा०)। प्रधान-कम--वण एवं शोध लयका । गुण, कर्म, प्रयोग--देखो--पञ्चाङ्गवर्णनांतर्गत 1 अश्वत्थपत्र तथा पत्र-मुकुल. पीपल के पत्र और कोंपल विरेचन रूप से प्रयोग में पाते हैं (एन्स ली व वाइट) । स्वरोगों में भी इनका उपयोग होता है (ई० मे० मे०)। पीपल के कोमल पल्लव को दुग्ध में क्वचित For Private and Personal Use Only Page #818 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अश्वस्थ भरवत्य पानी ) के साथ इसके परो खिलाकर दूध दूहें तो वह अधिकतर लाभदायक होजाता है। पत्र वायु. नाशक हैं। इसकी पत्तियों को पानी में पीसकर ललाट पर प्रलेप करने से खूब नींद पाती है। प्रामाशय शोथ में उक्र स्थल हर पत्तियों का प्रलेप वा क्वाथ का उपयोग अत्यंत खाभप्रद और स्वाद हेतु उसमें यथेष्ट शर्करा योजित करें।। यह अत्यन्त पोषक एवं शीतल प्रातःकालीन पेया है। विपादिका में इसका स्वरस हितकर है इसके पत्र पर रेशम के कोट रक्खे जाते हैं। इसके पत्र का काथ चमड़ा सिझाने के काम आता है। (ई० मे० मे०) इसके पत्र को गरम करके फोदे पर बाँधने से यह शोध लयकर्ता और प्रणपूरक है । स्वयं शुक होकर गिरे हुए पत्र को जलाकर गरमागरम पानी ! में डालकर उस पानी को पीने से वमन तथा हल्लास में लाभ होता है । म० मु० । बु. मु.।। पतझड़ के समय साधारणतः फागुन चैत में जब । पुराने पत्र मड़ जाते हैं और पत्रमुकुल का प्रावि र्भाव दोता है, तब उन पत्र-कृतिकात्रों को क्वथित कर जख फेंक देते हैं. जिससे कषायपन और अग्राम अम्लता दूर हो जाती है। फिर किञ्चित् लवण छिड़क कर थोड़े समय धूप में उसका जलांश सुखा लेते हैं और सर्षप तैल में डालकर अचार बनाते हैं। . गुण-सुस्वादु होने के सिघा यह विशूचिका एवं महामारी को नष्ट करता, विकृत दोषों को सास्यावस्था पर लातः और आधा की वृद्धि करता है। ज्वर जन्य अरुचि को दूर कर शीघ्र थाहार | का पाचन करता और मुख का स्वाद ठीक करता है। अश्वत्थ की पुरानी पत्तियों को पानी में पीस कर क्षत पर प्रलेप करने से प्राचीन से प्राचीन लत दिनों में पूरित हो जाते हैं। पत्तियों को जलाकर पानी में डाल दें और जब वह तनस्थायी हो जाए तब वह स्वच्छ जल विशूचिका रोगी को पिलाना लाभप्रद है। कष्ठी को इसकी पत्तियों से क्वथित कोच्या जल से दैनिक प्रवगाहन करना लाभप्रद है और छाल को पानी में डाल कर पानी पीना तृषा एवं हल्लास को शमन करता है। पीपल के पतों का क्वाथ बकरी के दूध के | साथ अधोंष्ण देने से पूय मेहो को मनुष्य बनादेता । है और वर्षों की व्यथा मिनटों में जाती है। । बकरी को माउज टन (फाड़े हुए दूध के पत्रभस्म को मधु के साथ मिलाकर चटाने से श्राद्रकास नष्ट होता है। पत्र का वायवृत एवं वस्त्यश्मरीनाशक है । प्रकृति तीसरी कक्षा में रूप एवं दूसरी में शीतल है। छाया में शुष्क किए हुए पत्र १ तो०, बहुफली बूटी छाया में शुष्क की हुई तो०, कतीरा ६ मा०, सालबमिश्री ६ मा०, इनको कूट छान कर पीपल के दूध में गूंधकर जंगली बेर के बराबर बटिकाएँ प्रस्तुत करें । चना भिगोए हुए पानी के साथ से ३ गोली तक दैनिक २१ दिवस पर्यन्त सेवन करें। गण-यह कामावसाय, शुक्रप्रमेह एवं पूयमेह में असीम गुहकारी है। इसके पत्र को तिल तैल से सिक्त कर गरम कर शोथ पर बाँधे तो यह उसे लयकर्ता है और यदि फोड़ा पकने योग्य हो तो उसे पकाकर विदीण कर देता है। किसी किसी के मत से इसकी राख में पीत हरिताल एवं मल्ल की भस्म प्रस्तुत होती है। परन्तु यह परीक्षा में नहीं प्राया है। पीपल के नाम पत्र को गरम गरम पंजा से पिएडल्ली तक बाँधने से बध्यत्य दूर होता है। इसके पत्ता को गर्म करके सीधी ओर बैंधने से बद दैा जाता है। इसके अोर नीम के पत्तों को पीस कर ले। करने से मर्श मिटता है वा केज पोपलके परी को घाटका बवासीर के मस्सों पररखने से खाभ होता है। पीपल के पत्तों का पानी निकाल कर तिगेनी मिश्री में शर्मत तैयार करें । प्रति दिवस २ तो. For Private and Personal Use Only Page #819 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अश्वत्थ अश्वत्थ होता है। शर्वत अर्क गुन्नाब में पीने से हौलदिल में लाभ ६ मासा, इन तीनों प्रोषधियों को कूट छानकर चने के बराबर गोलियाँ बांधकर रख छोड़ें। पोपल के पत्तो को सुहागे में शुष्क करके, आवश्यकता होने पर १ गोली गर्म पानी या समा अरबी ( वर निर्यास), सत मुलहठी सौंफ के अर्क के साथ सेवन करने से यह मूत्रल है और मिश्री इनको कूट छान इसका चने के और वृक शूल के लिए हितकर है तथा कोष्ठबन्ता बराबर गोलियाँ बनाएँ । इसको मुख में रखकर | एवं बादी को बहुत कुछ लाभ प्रदान करता है। चूसने से खांसी, गले की सूजन प्रभृति को लाभ पीपल के पत्तों को काली मरिच के साथ पीस होता है। कर मरिच प्रमाया वटिकाएँ प्रस्तुत कर सेवन करने से भी उपयुक्र लाभ होता है। पीपल के ताजे पत्ते २ तो०, कालोमरिच ११ __पादशोथ में इसके पत्तों की लुपड़ी बाँधना अदद, दोनों को पाक भर पानी में रगड़ और छान हितकर है। कर प्रात: सायंकाल पिलानेसे कुष्ठ रोग नष्ट २॥ अदद पीपल के पत्तों को खूब घोटकर होता है। छोटी इलायची और बतासा डालकर पाव भर पीपल के पत्र एवं पत्र स्वरस का येनकेन प्रका पानी में मिलाकर प्रातः सायं पान करने से मूत्ररेण व्यवहार अतिशय लाभप्रद है। दाह दूर होता है। पीपल के पत्र का रस १ छ०, तिल तैल श्राध पटॉक इसको तैलाशेष रहने तक पकाएँ। पीपल के नव पल्लव को लेकर बारीक बारीक फिर छान कर रखें । इसके लगाने से कंठमाला चीरलें। फिर इनको उबाल लें। उबालने से जो दूर होता है। पानी निकले उसमें शकर डालकर चाशनी बनाएँ पीपल के कोमल पत्तो को जल से धोकर इसे और चाशनी में उबाली हुई कॉपलें डालकर घी में भूनकर और आवश्यकतानुसार काली : मुरब्बा तैयार करलें । गुण-यह अत्यंत वल्य मरिच और नमक का चूर्ण मिला सुबह शाम । एवं वृहण है। सेवन करने से बन्ध्यस्व दूर होता है। लगभग पीपल के पत्तों का रस समिपात की औषधे एक मास पर्यंत सेवन काफी है। अपथ्य-६ मास का एक अनुपान है पर्यंत पुरुष समागम और रजोधर्म काल में हलदी पीपल के पत्तों के साथ में सिद्ध किया का सेवन । हुमा कडुश्रा तैल हर प्रकार के कर्णशूल के पीपल के पीले पत्तों का, सत्व-निर्माण विधि लिए लाभप्रद है। उस्कट ज्वर के उतरने के द्वारा सस्व प्रस्तुत कर २-२ पत्ती की मात्रा में पश्चात् की रूक्षता जन्य वधिरतामें यह बैल और इसको जल वा गोदुग्ध के साथ सेवन करने से भी लाभदायक है कंठमाला को लाभ होता है। नोट-खरल करते छाया में शुष्क किए हुए पीपल के पत्तो' को समय चिकना करने के लिए इसमें किञ्चित् गोघृत कूट छान कर गुड़ के साथ इसकी चने प्रमाण मिना लेना चाहिये । गोलिया बनाकर सेवन करने से निम्न रोगों में पीपल के पतों को खूब घोटकर वर्तिका बना लाभ होता है, यथा-उदरीय कृमि, उदरशूल रजोकाल में इसके योनि में रखने से प्रार्तव श्रामशूल, प्लीहा, शोथ, अजीर्ण और कोष्ठबद्धता प्रवर्तन होता है। इत्यादि। इन रोगों के होने पर 1-1 गोली अश्वत्थ पत्र का अर्क दो तो० की मात्रा में प्रातः सायं अर्क सौंफ के साथ सेवन करें। पीना हौलदिल के लिए लाभदायक है। इसके हरे पत्तो' के गरमागरम क्वाथ द्वारा छाया में शुष्क किए हुए पीपल के पत्ते ६ सेक करने और पत्तो' को रोग स्थल पर बाँधने मासा, पहाड़ी पोदीना ६ मा०, मस्तगी रूमी | . से खु नाक में लाभ होता है। For Private and Personal Use Only Page #820 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अश्वत्थ पीपल के पसे ५, नीबू के पत्ते ५ और निगु.. चत के धावनार्थ एवं लालास्राव में कवलार्थ एडी पत्र . इन तीनो में | सेर पानी डाल. व्यवहार में प्राता है! कर खूब कथित करें । थोड़ा जल शेष रहने पर (मेटिरिया मेडिका प्रॉफ इरिढया--आर० एन० खारी २ य खण्ड, ५५६ पृ०) इससे (क्वाथ से ) दूना तिल तेल मिलाकर अश्वस्थ स्वक् का क्वाथ तथा फांट पिलाना तैलावशेष रहने तक पकाएँ।। · पूयमेह, मूत्रकृच्छ एवं पाद्र करा में हितकारक गण व प्रयोग--यह तैल कर्ण शूल, कर्णः | क्षत एवं वधिरता के लिए हितकर है.। कान ___ अश्वत्थ चूर्ण को अंकुरोत्पादन हेतु विकृत से पूयस्त्राव होताहो तो प्रथम उसको निम्ब क्याथ | .. इतों पर छिड़कते हैं । छान. चमड़ा सिमाने के से प्रक्षालित कर फिर इस तेल के ४- १. द : . काम में आती है । ( ई० मे० मे.) . . रूई के फाया पर डाल कर इसको कान में इसकी छाल संग्राही है और विकृत. तों रखें। इससे लाभ होगा। __ एवं कतिपय चर्म रोगों में इसका उपयोग होता है। (इं० ३० ई.) अश्वत्थ त्वक् . अश्वस्थ स्वक् संग्राही है और पूयमेह में | अश्वत्य की शुष्क छाल के चूर्ण को अतसी इसका उपयोग होता है। इसमें पोषक गण भी तेल के साथ प्रयुक्त करने से यह प्रणपूरक है। है । ऐन्सली तथा वाइट)। श्राद कण्डू में | इसकी छाल को पानी में डालकर उस पानी इसकी छाल के फांट का अन्तः प्रयोग होता है। के पीने से हल्लास एवं तृपा तत्काल प्रशमित होती है। इसकी छाल (वा मूल स्वक् ) का प्रादाहिक शोथों में इसके विचूर्णित स्वक का प्रलेप नाहीव्रण ( नासूर ) के लिए हितकर और कल्क आघोषक ( A bsorbent) रूप से शोध लयकर्ता है। व्यवहार में प्राता है । ( इमर्सन) इसकी छात को पानी में पीस कर लिंगेन्द्रिय ' इसकी छाल को जलाकर उसे गरम गरम पर प्रलेप करें। सूख जाने पर उस जल से जल में डाल दें। कहा जाता है कि यह पानी धोकर स्त्री-संग में प्रवृत्त होने से यह आश्चर्यहठीले कास में लाभदायक है। (डॉ. ध्रॉएटन) जनक वीर्य स्तम्भन करता है। और मनुष्य को इसकी शुष्क छाल का चूर्ण भगंदर में प्रयुक बेवश बना देता है। होता है। मैंने एक हकीम को इसका लाभपूर्ण पीपल वृक्ष की छाल को जल में घिस कर उपयोग करते हुए पाया। प्रयोग-विधि निम्न है यदि प्रारम्भ में ही फुसियों पर प्रलेप करें तो . एक धातु ( वा किसी अन्य पदार्थ) की नली ग्रह उनको जला देता है और बढ़ने नहीं देता। में किञ्चित् अश्वस्थ चूर्ण को रख कर भगन्दर किसी किसी समय वृद्धि की दशा में लगाने से के शत के भीतर दूंक द्वारा प्रविष्ट करदें। फोड़े को अपनी जगह बिठा देता है। नाड़ी-बण के क्षत के लिए इसकी छाल को (वैट) बालक के प्रोष्ठ, जिह्वा, तालु किम्वा मुख के . घृतकुमारी के पीले रस में घिसकर तिप्लत भीतर दधि विन्दुवत शुभ्र क्षत होने पर वा . कर न सूर में रखने और उसके चारों ओर प्रलेप साधारण मुख क्षत में मधु के साथ अश्वत्थ चूर्ण करने से थोड़े ही दिवस में नासूर को अच्छा कर देता है। का प्रलेप करें। श्वास रोग में अश्वत्थं चूर्ण | : मधु के साथ सेवनीय है। अश्वत्थ स्वक साधित पीपल वृक्ष की छाल का जौकुट करके.एक धड़े तैल श्वेतप्रदर तथा प्रामरतातीसार में अनुवा- | . में भरदें और मुख बन्द करके इसको एक गढ़े में सन वस्ति रूप से और इसका क्वाथ विकृत रक्खें । इस गड़े के भीतर एक और छोटा सा For Private and Personal Use Only Page #821 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अश्वत्थः गढ़ा खोदकर चीनी का प्याला रखदे' और इसके अश्वत्थ लस्व (एक्सट्रैक्ट ) है। मात्रा-४ रत्ती अपर प्रागुक्र घड़ा रहे, जिसके पेंदे में छिद्र कर से माषा पयंत प्रातः सायंकाल ताजे पानी के दिया गया हो। इसमें भाग लगादे। जब साथ । गुण-कुष्ठहर । शीतल हो जाए नीचे की कटोरी में एकत्रित हुए छाया में सुखाए हुए अश्वस्थ के ताजे छिलके तैल को नागरबेल पान के साथ प्रति दिन श्राधे ५ सेर को ३० सेर पानी में रात को भिगोएं। बाल भर खाने से थोड़े ही दिवस के भीतर । प्रातः काल इसमें से २० बोतल अर्क खींच नपुंसकता दूर होती है । कर इस अर्क में २ सेर पीपल की शुष्क छालको फोड़ों को पकाने के लिए इसकी छाल की । फिर भिगोएँ और दबार १० बोतल अर्क तयार पुल्टिस याधते है। करें। * पित्त-शोथ को मिटाने के लिए इसकी छाल मात्रा-श्राध श्राध पाव भर्क दिन में तीन काडा लेप करना चाहिए। चार बार । गुगा-कुष्ठहर । - इसकी छाल के कोयलों को पानी में बुझाएँ । पीपल वृक्ष की कोमल छाल को छाया में इस पानी को पिलाने से हिका, वमन तथा तृषा , सुखाकर बारीक पीस कपड़छान करें। मात्रा व 'प्रादि प्रशमित होते हैं। सेवन-विधि-ज्वर श्राने से एक दिन पूर्व तथा - पीपल की छाल का काढ़ा शहद मिलाकर बारी के दिन ६-६ मारे इस चूर्ण को प्रातः, पीने से वातरक की खराबी दूर होती है। मध्याह्न और सायंकाल गर्म पानी से खिलाएँ । इसकी छाल के चूर्ण को अवचूर्णन करने से ..." गुण-ज्वर प्रतिषेधक है। प्रणपूरण होता है। अश्वत्थ त्वक् द्वारा मुख से अधिक लालास्त्राव होता हो जैसा भस्म-निर्माण-कम शिशुओं को प्रायः होता है तो पीपलकी छाल के इसकी छाल का चूर्ण रागा और सीसा काय का गएखूप लाभदायक होता है। प्रभृति धातुओं की भस्म करने का उत्तम साधन पीपल की ताजी छाल २ तो० को प्राध सेर | पानी में कथित कर पाद शेष रहने पर छानकर (१) पीपलके दरमियानी प्रार्द्र स्वक् २ सेरको शीतल होने पर प्रातः और इसी प्रकार शाम को लेकर उसका कल्क बनाएँ और बीच में - पिलाएँ । गुण-कुटन है। शुद्ध राँगा रख का करइमिट्टी कर मन भर उपलों .. पीपल की ताजी छाल को छाया में सुखाकर की पाँच दें तो अत्युत्तम भस्म प्रस्तुत होगी। बारीक पीसकर कपल छान करें और ६ मा० से मात्रा-१ से ४ रत्तो । अनुपान-मक्खन १ तो० तक दिन में २-३ बार सेवन कराएँ।। वा बकरी के दूध की लस्सी। गुण तथा गुण-कुएन है। प्रयोग-यह प्रमेह, स्वप्नदोष और सूजाक में पीपल के छिलके को पत्थर पर गोमूत्र या पानी | अत्यन्त लाभप्रद है। में घिसकर दिन में दो-तीन बार कुष्ठ के सातों पर (२) २० तोले पीपल की छाल को २ सेर लगाना चाहिए। पानी में क्वथित करें । जब । सेर अर्थात् पाद. पीपल की बाजी छाल २० सेर, छिलकेके छोटे शेष जल रह जाए तब उतार कर छान लें। बाद छोटे टुकड़े करके रात को २ मन पानी में भिगोएँ को ५ तो० सीसा का भाग पर मिट्टी के बरतन में - और प्रातः अग्निपर पकाएँ जब पानी लगभग २० डालकर पिघलाएँ और पीपल के हाथ में ढाल सेर शेष रह जाए तब उतार कर छान लें और दें। इसी प्रकार कम से कम ७ बार करें। दुबारा श्रगपर चढ़ाएँ। जब शहद के समान तदनन्तर इस शुद्ध सीसे का किसी मिट्टी के मजगादा हो जाए तब अग्नि से उतार रखें। यह बूत और कोरे ठीकरे पर रख कर तीय अग्नि पर - For Private and Personal Use Only Page #822 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अश्वत्थ ७८० रखें और पोपल की शुष्क छाल को बारीक पीस | कर सीसे पर डालकर पीपल की सूखी लकड़ी से भली प्रकार हिलाते रहें और जले हुए पीपल के छिलके को हवा देकर उड़ा दिया करें। ऐसे अवसर पर बाँसकी नली का उपयोग करना उत्तम है। दो- तीन घंटे की लगातार पाँच से सीसे की रक वर्ण की भस्म प्रस्तुत होगी । यदि कुछ चमक । शेष रहे तो घंटे बाध घंटे और इसी प्रकार आँच दें। मात्रा--१ रत्ती से २ रत्ती तक २ तो० ! मलाई या मक्खन में प्रात: सायंकाल दोनों । समय खिलाने से यह नपुसक को पुसत्व शकि प्रदान करती है एवं प्रचीन से प्राचीन कुरहा और प्रमेह का मूलोच्छेदन कर देती है। सँगा की भस्म भी इपी प्रकार प्रस्तुत हो । जाती है और पूर्वोक सभी रोगों में लाभदायक होती है। नोट-सीसे को काथ में डालते समय वह ज़ोर से उछलता है। श्रस्तु, यह कार्य अत्यंत सावधानी से करना चाहिए। (३) पीपल की सूची छाल के २० तो. जौकुट चूर्ण में से थोड़ा चूर्ण एक बड़े उपले में गढ़ा बनाकर बिछाएँ । फिर उस पर २ तो० बंग और २ तो० पारद को रेजा रेज़ा करके रख कर उपर उसके पुनः उग्र अश्वत्थ स्वक् चूर्ण को और वंग को तह ब तह रख कर दूसरे उपले को कार देकर हर दो उपलों की संधियों को कपड़ मिट्टी द्वारा बन्द कर एक गड्ढे में रख ५ सेर उपले की अग्नि दें। स्वांगशीतल होने पर इसको निकाल लें। उसम श्वेत भस्म प्रस्तुत होगी। मात्रा-१ रची। अनुशन-मक्खन में रखकर प्रात: सायंकालइसका उपयोग करें। गण-कामावसाय, शीघ्रपतन, शुक्रमेह तथा पूयमेह के लिए लाभप्रद है। अर्शके लिए इसे हरहके मुरब्बामें ४ रसी की मात्रा में प्रतिदिन सेवन करें। यह प्रत्येक प्रकार के प्रशं के लिए अमोध है । श्रान्त्रस्थ कद्दूदाने एवं केंचुए के लिए एक माषा इस मस्म को प्रतिदिन दधि में मिलाकर खिलाने से दो-तीन दिन में यह सबको मृतप्राय कर उदर से विसर्जित कर देता है। अश्वत्थ फल पीपल का फल कोष्ठमृदुकर है (अस्तु इससे कोऽबद्धता दूर होती है) और यह पाचनशक्रि की सहायता करता है। (ऐक्सली । ई० मे मे०) यार्थलोमियो (Bartholomeo) के मतानुसार (पूर्वी भारत की यात्रा में) शुष्क फल के चूण को पक्ष भर जजके साथ सेवन करनेसे श्वास रोग नष्ट होता है और इससे नियों का बन्ध्यस्व दूर होता है। _पशुओं के लिए यह अत्यंत पोषक चारा है। (ई० मे० मे०) इसके फल के चूण को मधु के साथ हर सुबह को खिलाने से शरीर बलिष्ट होता है। पीपल के फलों को सुखाकर बारीक पीस कपड़छन कर, १६ मा० प्रातः सायं ताजे पानी के साथ कएमाला के रोगी को खिजाने से लाभ होता है। पीपल के फल को लेकर छाया में सुखा में और चूर्ण बनाकर इसमें दूनी मिश्री मिजाकर रखें ओर प्रतिदिन १ तो० इस चूर्ण को दूध तथा पानी के साथ खाया करें। प्रभाव तथा प्रयोग-स्वप्नदोष, वीर्यपास, शुक्रमेह निवखता और शिरःशूल प्रभृति के लिए लाभदायक है। __ पीपल के पके फल को सुखाकर सत्तू बना लें। ४ तो• इस सत्तू को गुद के शांत के साथ सुबह को खाने से पुरुषों का प्रमेह, त्रियों का सोम रोग और स्वप्नदोष १०-१२ दिन ये सेवन से दूर हो जाते हैं। पीपल के परिपक्क फन के गूदे को छाया में सुखाकर फिर कूट कर चलो में पीस कर पाटा प्रस्तुत करें। इस आटे का हलुमा बनाकर खाने से शरीर बलवान हो जाता है। नियों गर्माशय संबंशे रोग एवं करिशूल में यह अत्यंत हितकर है। मुंह में छाले पड़ने बंद हो जाते है। यदि हलुभा न बनाना हो तो एक तोला पाटे में तो शकर मिलाकर फाँकने और ऊपर से दुग्ध पान करने से भी वहत लाभ होता है। शहद के साथ चाटने से भी यह लाभप्रद है। यह For Private and Personal Use Only Page #823 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एक ऐसी निरापद वस्तु है जिसके। छोटे बचों और गर्भवती स्त्री को भी अन्दाज़ से खिला सकते है। अश्वत्थ बीज बीज को शीतल तथा रसायन बतलाते हैं। (पेन्सली ) पीपल के बीजों को मधु के साथ चटाने से रुधिर शुद्ध होता है। इसके बीजों को पीस कर पीने से अन्तर्वाह मिटती है। पीपल की दाढ़ी (गश) पीपल की दादी ४ मा०, गर्जर बीज ६ मा०, और नवंग ३ मा०, इनको ॥ श्राध सेर पानी में क्वथित करें। तीन छटाँक पानी शेष रहने पर मल छान कर मिकी २ तो मिलाकर पिएँ । प्रातंत्र प्रवर्तनार्थ ३-४ बार पान करें और निम्न पोटली योनि में रक्खें : चोक की लकड़ी, तो, बाकुची तो०, पवहार १ तो०, वरसनाम तो०, जंगली तोरई १ तो०, कटुकी ६ मा०, कालादाना , तो. इनको बारीक पीस घर्ति बना योनि में रखने से मासिक धर्म बिना कष्ट के जारी हो जाएगा। यह बार्तव प्रवत्तक है। पीपल की दादी २० तो० को कूटकर वस्नपूत करें और इसमें समान भाग मिश्री योजित कर लें। मासिक-धर्म प्रारम्भ होने के दिवस से प्रति दिन २-२ तो० सी-पुरुष दोनों गोदुग्ध के साथ सेवन करें और मैथुन से बचे रहैं। इसके " वें दिन स्त्री-संग करने से स्त्री गुचियी होगी। पीपल की दादी को जौकुट करके चिलम पर रखकर तम्बाकू की तरह पिलाने से वृशल ना होता है। जिस स्त्री को गर्भधारण न होता हो उसको ऋतु-स्नान के पश्चात् २॥ तो० पीपल की दादी का क्वाथ कर उसमें आवश्यकतानुसार खाँड | मिलाकर पिलाने से गर्भधारण होता है। पीपल की दाढ़ी ५ सो०, बुरादा हाथी दाँत २ तो• इनका बारीक चूर्ण कर रखें । ऋतुस्नान के बाद इसमें से ६ मा० चूणहर रात को दूध के साथ खाने से पक्ष के भीतर ही सी अवश्य ही गर्भवती होती है। पीपल की दादी २॥ तो०, तुलसी के फूल ६ मा० इनको बारीक करके ६-६ मा०की पुड़ियाँ बनाएँ। पाठ तोले गरम पानी में सवा मेले रोग़न बादाम मिलाकर पहिले पुड़िया खिलाएँ फिर ऊपर से पानी पिलादें। इससे तत्क्षय वृक्षाशूल नष्ट होगा। पीपल की दाढ़ी को बारीक पीसकर ऋतु स्नानान्तर इसे प्रति दिन १ तो० की मात्रा में गरम दूध के साथ स्त्री को खिलाएँ । प्रति मास केवल सप्ताह पर्यन्त इसके उपयोग से ३ से १ मास के भीतर बभ्यत्व दूर हो जाता है। नोट-पीपल के सेवन के दिनों में सी को काफी घी दूध खिलाना चाहिए। अन्यथा परिणाम स्वरूप वह तपेदिक से श्राक्रान्त होकर काल कवलित हो जाएगी। पीपल का दुध तथा निर्यास इसके गांव से विशेष विधि द्वारा चूड़ियाँ बमाई जाती है जिसे शुद्रा स्त्रियाँ पहिनती है। इसलामी शरीअत में इसकी रचना इसको अपवित्र कर देती है जिससे मुसलमान स्त्रियों को पहिनना नाजायज़ है। परन्तु हिन्दू शासों में अश्वत्थ की बड़ी महिमा है और यह वैज्ञानिक नियमों पर आधारित है, जिसका स्थल स्थान पर निर्देश किया गया है। वस्त्र के सफेद टुकड़े को सर्व प्रथम मधु में भली प्रकार भिगोएँ। तदनन्तर इसको दुग्ध में कदित कर शुष्क करलें और जलाकर राख सुर. क्षित रखें । श्वित्र को प्रथम उष्ण जल से धोकर राख को सिरका में सिक कर गरम कर उस स्थल पर लगाएँ। यह वसा को शरीर के वकी तरह कर देता है। यदि दुग्ध को दव, पर लगाएँ तो त्वचा को संकुचित कर खडी उत्पन्न कर देता है। उक्र खुट्टी के पृथक् हो जाने पर स्वम स्वप्न हो जाती है और दद्ग, के कोई चिह्न शेष नहीं रह जाते। For Private and Personal Use Only Page #824 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अश्वत्थ www.kobatirth.org ૭૦૩ पीपल वृक्ष के तो० दूध में कुटी एवं छानी हुई इमली की छिली हुई गिरी १० तो० मिलाकर सुखाएँ । चने का आटा २० तो गोघृत १ पात्र, खाँद श्राध सेर इनका यथा विधि हलुधा बनाकर उतारने के पश्चात् दुग्ध द्वारा विशेोधित इमली का चूर्ण, छोटी इलायची के दाने, केशर १० माशा बारीक करके मिला दें । गुणधर्म -- कामोद्दीपक, वर्ण एवं मुखमंडल को कांति प्रदान करता एवं सुन्दर बनाता है । मात्रा-२ तो० से ३ तो० तक 1 यह पुरुषों के प्रमेह और स्त्रियों के सोमरोग की अपूर्व औषध है । प्रतिदिन प्रातः काल ६ से १२ बूंद तक पीपल का दूध एक छोटे बताशे में डालकर मुँह में रखें और ऊपर से गाय का या भैंसका प्राधसेर धारोष्ण दुग्ध पी लिया करें । "स्वप्रदोष के लिए यह अत्यन्त लाभदायक है । से बारह दिन के सेवन से रोग निर्मूल हो जाता है। पीपल का दूध लगाने से त्रिपादिका (बिवाई) भर जाती है। "जिस स्त्री के बचा पैदा होता हो और जो व्यथासे बेताब हो रही हो उसको तोला भर भैंस .के गोबर को प्राथ सैर पानी में पकाएँ, जब चन्द्र जोश आ जाए तब छानकर ४ तो० मधु और ११ बूंद पीपल का दूध मिलाकर पिलाएँ। प्रसव होगा । 'सफेद संखिया को ४ सप्ताह पीपल के दूध मैं खरलकर मूँग के दाने के बराबर वटिकाएँ प्रस्तुत करें | प्रतिदिन एक गोली प्रातः और एक रात को सोते समय दूध के साथ खिलाएँ । दूध गाय या भैंस का हो और इसमें देशी खाड़ मिला लिया करें । २१ दिन के सेवन से हर प्रकार का रोग दूर होता है। अपथ्य - मादक द्रव्य तथा खटाई । शुष्क पोदीने का चूर्ण या घतूर की शुष्ककली 'का चूर्ण १० मा० तक लें और इसमें पीपल का दूध १५-१६ बूँद सम्मिलित कर तमाकू को हर विजन में पिएँ तो कसको तस्काल लाभ होगा ! " Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अश्वत्थ जिस स्त्री के बच्चे बालापस्मार से मर जाते हों वह यदि बच्चा पैदा होने के दिन से लेकर दो मास पर्यन्त प्रतिदिन पीपल का दूध १ बूँद गाय या बकरी के दूध में मिलाकर पी लिया करे तो उसके बालक स्वस्थ रहेंगे। दूध में श्रावश्यकतानुसार मिश्री मिला लेनी चाहिए । उन्माद या अपस्मार के कारण अथवा हौलदिल या किसी विष वा मादक द्रव्य वा किसी भी प्रकार से हुई मूर्च्छा में पीपल के दूध के कुछ बूँद रोगी के कान में टपकाने तथा दूध को समान भाग शहद में मिलाकर मस्तक पर प्रलेप करने से रोगी होश में श्रा जाता है 1 अश्वत्थ मूल पीपल की जड़ का मंजन दंतशूल में उपयोगी है। इसकी जड़ की छाल के काथ से विम रोग मिटता है। पीपल के छोटे वृक्ष जो पेड़ वा दीवारों पर कुरित हो जाते हैं उनकी बारीक जड़ या जड़ " के एक मृदु बारीक अगले भाग को पीसकर फोड़ों पर प्रलेप करने से वे शीघ्र विदीर्ण हो जाते हैं । अश्वत्थ मूल स्व को छाया में शुष्क करके बारीक पीसकर कपड़छान करें और पीपल की जड़ के रस में चालीम दिन खरल करके शुक होने पर ६ मा प्रातः सायं गौ के कल्या दुग्ध के साथ सेवन कराएँ । गुण-- पुरुष के बीर्य दोष एवं निर्बलता में लाभप्रद 1 इसकी जड़ की छाले शुक्रसांद्रकर्ता तथा aratatपक एवं कटिशूलहर है । बु० मु० । यह वीर्य स्तम्भ है । भ० मु० ! पीपल की लकड़ी पीपल की लकड़ी का कटोरा बनाकर उसमें दूध डालकर स्त्रीको प्रति दिन प्रातः काल पिलाने से बन्ध्यत्र दूर होकर गर्भस्थापन होता है। जिस घर में साँप हो वहाँ पीपल की लकड़ी जलाकर धुँ श्रा करने से साँप निकलकर भागता है । जिस दिन ज्वर श्राने को हो उस दिन For Private and Personal Use Only Page #825 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir অথ। अश्वतृणमः । छर्दि।। . . ज्वर पाने से पहिले पीपल की दातीन करना । अश्वत्थभित्,-भेदः ashvattha-bhit,-bh. ज्वर को और दाँतों से खून प्राने को रोकता है।। dah-सं०० नन्दी वृक्ष । वालिया पीपर, - पीपल की लकड़ी का प्याला बनाकर उस | . तून-हिं० । भा० पू०१ मा० वादिव० । प्याले में रात्रिको पामी भर रखें और सवेरे उस | .: (Cedrela. toona.) . . . पानी को पिएँ । इससे मस्तिष्क शीतल रहता है, ! अश्वत्थमर ashvatthamar कना० अश्वस्थ । . वीर्य गाढ़ा होता है और स्वचा के रोग दूर हो जाते पीपल का पेड़ । ( Ficus religiosa.) है। क प्याले में पानी रखने से उसके स्वाद में । अश्वत्थ वल्कलादि यांग: ashvattha-vs., अन्तर भाजाता है। पानी में पीपल की लकड़ी kalatli-yogab-सं०पू० पीपल की सूखी : का. असा पूर्व स्वाद स्पष्ट मालूम पड़ता है। छाल जला कर उससे पानी बुझा कर पीने से इसमें कुछ समय पर्यन्त दूध रख कर पीने से | प्रवल वमन का नाश होता है। वृ०नि० २० बहुत लाभ होता है। . बहुसपे सर्प-चिकित्सक इसकी कनिठा अंगुली के इतनी मोटी लकड़ीके एक सिरेको गोल बनाकर .aladi-loub-सं०० पीपल वृक्ष की छाल, :: एवं घिसकर चिकनाकर ऐसी दो लकड़ियाँको सर्पः .. सोंठ, मिर्च, पीपल और मण्डूर इनके चूर्ण को - : दष्ट रोगी के दोनों कानों में 1-1 लकड़ी प्रविष्ट गुड़ के साथ सेवन करने से सय रोग का नाश कर उससे तरह तरह की बातें पूछ कर विष दूर होता है । वृ०नि० र०क्षय चि०।करने का ढोंग करते हैं। परमात्मा जाने इसका अश्वत्थ सन्निमा ashrattlia-sannibha-सं. क्या प्रभाव होता है ! (लेखक). , ... स्त्री० देखो-अश्वत्था । .... पीपख की सूखी लकड़ी और पत्र को जलाकर | अश्वत्था,-थी ashvattha,-ttbi-सं. स्त्री० चार-निर्माण-विधि द्वारा इसका क्षार प्रस्तुत करें।। (१)मुद्र अश्वत्थ वृक्ष; गय अश्वत्थ-बं० । .. प्रयोग-आध पाव पानी में मा० इस बार रा०नि० २०११ (२)श्रीवली वृक्ष I ( See को मिलाकर इससे दिन में दोबार कोढ़ के जहनों -shirivalli) रा०नि० ३०८ (३)सीकाको धोने से बे बहुत शीघ्र अच्छे हो जाते हैं। काई। शीतला। .. ....... इसके निरन्तर प्रयोग से प्राचीन से प्राचीन कोद ! अश्वत्थादि प्रक्षालनम् ashvatthidi.prakएवं फुलबरी (श्चित्र) आदि रोग दूर हो जाते हैं। shilanm-सं० क्ली.. पीपल, ...पिलइससे उपदेश में भी लाभ होता है। खन, गूलर, बढ़ और बेंत के क्वाथ से धोने से अश्वत्थकम् ashvatthakam-सं० क्लीक घाव, सूजन और उपदंश का नाश होता है। मल्लिका पुष्पदल । मलिका फुलेर पापड़ी-ब०।। अश्वस्थिका,-था ashvatthika-tthi-सं० (Sce-Mallika pushpa. )वै निधः।। स्त्री० बुदपत्र अश्वत्थ वृक्ष । गया अश्वत्थ-बं०। अश्वत्थ पत्र योग ashvattha-patra-yo. पिप्ली-हिं० । अश्वत्थी-मह० । हेनरलि-का०। ga-सं०० पीपल के पत्तों के अग्रभाग हा संस्कन पर्याव-लघुपत्री, पवित्रा, हुस्व ... रस १ भाग, बोल : भाग, शहद १२ भाग मिला | . पत्रिका, पिप्पलीका और वनस्था। .. कर पीने से रक्रराव और हृदयस्थ संचित रक- । गुण-मधुर, कसेली, रनपिसनाशक, विषान विकार दूर होता है । वृ०० २० भा० ५ र० ! दाहनाशक तथा गर्भिणी स्त्रियों के लिए हितकारी पिस। .. है। रा०नि० २०११ । अश्वत्थफनका,-ला ashvattha-phala अश्वतृणम्ashvatrinain-सं.क्लो. पाषाण मून्त्री, ka-a-सं० स्त्री० हवा हाउबेर-हि। घोड़ा घास-हिं० । कोलिनसोनिया (Collin. हयुष वृत्त-वं। लघु शेरणी-मह०(Juni- sonia.), कॉ० कैनेडेम्सिस (C, Canaperi fructus. ) भा० पू० । भा०। densis)-ले० । टोन रूट (Stone root) For Private and Personal Use Only Page #826 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अश्वपाल हॉर्सवीड ( Horse-weed ), नॉवरूट प्रदाह (Acute cystitis ), वृकश्मरी (Kaobroot)-201 (Renal calculi), जलोदर (Dr. उश्वल, बैल, खश्बुल बल, हनु ल.. opsy), श्वेत प्रदर, आमवात, प्रजीण, श्वास जज र-अ.। संगबीख, ग्याहे भस्म-फा०। और किसी किसी हृद्रोग में वर्तते हैं। परभरजड़ी-3.1 ___ यद्यपि सिवा इसके कि सूक्ष्म मात्रा में यह तुलसी वर्ग स्थानिक संकोचक तथा अधिक मात्रा (N. 0. Lubiutece ) पित्तनिस्सारक विरेचन है, इसके इन्द्रिय व्यापा. नोट ऑफिशल (Not official) रिक क्रिया के विषय में क्रियात्मक रूप से कुछ उत्पत्ति-स्थान-उत्तरी अमरीका । भी ज्ञात नहीं; तथापि अमरीका में इसका अनेक रोगों में उपयोग करते हैं। वानस्पतिक-विवरण-इस वनस्पति का काण्ड सीधा लगभग ४ इन्च के लम्बा होता है हठीले पूयमेह, अश्मरी तथा वस्तिप्रवाह में जिसपर छोटी छोटी प्रथिमय विपम शाखाएं म्य विषयक श्लैष्मिक कलाओं के लिए यह होती है। कांड पर बहुत से उथले चिह्न होते अवसादक है और अर्श वा गुदाक्षेप में मुल्यहै। यह अत्यन्त कठिन होता है । इसका वहिः वान सिद्ध हो चुका है। श्राशेपहर रूप से कुक्कुर कास, (Ohorea) स्था हृदय की पण' धूसर श्वेत तथा अन्तः श्वेत या सफेदी मायल होता है। त्वचा बहुत पतली, जई धड़कन में इसका उपयोग किया जाता है। असंख्य होती जो सरलतापूर्वक टूट जाती हैं। अश्वदंष्ट्रक: ashvadanshtrakah-सं० पु०(१) गोहर । गोखरू-हिं । ( Tribगंध-लगभग कुछ नहीं, स्वाद-कटु तथा ulus terrestris, Linn.) बनिय० । मूर्धाजनक। (२) हिंस्र जन्तु विशेष । सु. । रासायनिक संगठन-इसमें राल ( Re अश्वदंष्ट्रा ashvardanshra-सं० स्त्री० sin), कपायिन (Tanujn), श्वेतसार, गोक्षुर, गोखरू । (Tribulus terrestris, लुभाब और मोम होते हैं। Linm.) भा० पू०१ भा०। कार्य-अवसादक, प्राक्षेपशासक, संकोचक अश्वनाला ashvanālā-सं० स्त्री० ब्रह्मसर्प और बल्य । नामक सर्व विशेष | त्रि०। (A serpentमात्रा-१५ से ६० ग्रेन ( ७॥ से ३० रत्ती ! named Brab mat. ) अर्थात् १ से ४ ग्राम)। अश्वनाशः,-कः,-न: ashvanashah-kah. औषध-निर्माण-टिकचूरा कोलिनमोनी Ti. ! nah-सं० पु. श्वेत करवीर | सफ़ेद कनेर netula collinsone) ले० । अश्व -हि०। (Nerium oloruly ( The सृणासव-हिं । तबक्रीन अश्युल नल-श्रा ___white var. of-) रा०नि० २०१०। निर्माण-विधि-कोलिनसोनिया की जड़ कुचलो | अश्वपर्णिका:--णी ashvapa1nika, rniहुई एक भाग, मद्यसार (६० ) १० भाग | सं० पु. भूतकेशीलता । भूतकेश-हिं० । श्वेत "मेसीरेशन की विधि से टिंकचर बना लें। दूर्वा-सं० । ( Corydalis govon मात्रा-३० से १२० बूंद (मिनिम) । इसका iana.) एक फ्ल्युइड ऐक्सट्रक्ट (तरल सस्व ) भी | अश्वपाल: ashvapilab-सं० पुल होता है जिसकी मात्रा ११ से ६० मिनिम • श्वपाल ashva pāla-हि. संज्ञा ॥ अश्व रक्षक, अश्वसेवक, साईस । ( Agroप्रभाव तथा उपयोग-इसको उग्र वस्तिः । om.) For Private and Personal Use Only Page #827 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अश्व पुच्छ श्रश्वपुच्छ ashvapuchchha - हिं० संज्ञा पुं० [ सं० ] ( Canada equiva. ) अश्वपुच्छक: ashva-puchchhakah - सं० पुं० ० खंगलता । तत्रोलेर खाप- बं० श०च० । अश्वपुच्छा ashva puchchhá सं० स्त्री० (१) पृश्निपर्णी, पिज्वन हि० । चाकुलिया - यं० । ( Uraria lagopoides, D. 2 ) । ( २ ) मापपर्णी । मासवर्णा - हिं० । ( Teramnus Jabialis ) रा० नि० व० ४ । अश्वपुच्छाच्छी ashva puchchhiká,• chchhi-सं० स्त्री० मापपर्णी लता । माषानी -०। (Teramnus labialis ) रा० नि० व० ४ । अश्त्रपुट भावना ashvapura-bhavaná - सं० [स्त्री० ३२ पन परिमाण द्रव्यकी भावना | वै० निघ० । अश्वपुत्री ashvaputri-सं० स्त्री० सल्लकी वृत्त, सनई - हिं० । ( Boswellia serrata, Rob.) रक्षा०। (२) द्रवन्ती | (Anth ericum tuberosum.) वै० निघ० । अश्वपुष्पः şhvapushpah सं० पु० पत्थर का फूल, छड़ीला | Stone flower (Parmelia Perlatn, Each.) अश्वबला ashvabala-सं० स्त्री० मेथिका । मेथी a - हिं० म० । Fenugreek. । ( २ ) नारी शाक- सं०, हिं०, बं० 1 करेमू-हिं० । गुण- श्रश्वबला शाक रूत है तथा मल, मूत्र और वायु का बद्धक है। सु० | See-nárí. अश्वबाल: aşhvabalah - सं० पु० अश्वत्राल aşhvabála - हिं० संज्ञा पुं० काशतृया | कासा | कास का पौधा । (Saccharum spontaneum ) त्रिका | अभ्वभा ashvarbhá सं० स्त्री० सौक्षमन्या । विद्युत | अश्वमार ashvanara - हिं० संज्ञा पुं० अश्वमारः ashvamárah सं० पु० अश्वमारकः ashvamárakah - सं० go ७८२ ६६ श्रश्वयानेम् श्वेत करवीर | सफेद कनेर - हिं० । श्वेत करवी Nerium odorum, Sol.ind.. - ( White var. of - ) । ( २ ) उपदिका -सं० । पोई - हिं०। ( Basella Rubra or lucida )। ( ३ ) पाल शाक-सं० । पालक पालकी - हिं० । ( Beta bengaleusis ) सु० त्रि० १ श्र० । ( ४ ) करचोर -सं० | कनेर- हिं० । ( Nerium odorum) सु० सू० ३८ श्र० । लाक्षादि बं० भा० पू० १ भा० । ( ३ ) श्वेत करवीर मूल, सफ़ेद कनेर की जड़ । यह स्थावर विषान्तर्गत मून ( ६ ) सुगन्ध रोहिष । सु० कल्प० देखो - मूलविषम् | अश्वमाराख्यः ashvamárakhyah सं० ० श्वेत करवीर वृक्ष । सफेद कनेर का पेड़ | - हिं० 1 श्वेत करवी गाछ ० । ( Nerium odorum, filon. ) रा० नि० ६० Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विष है । २० । १०। श्रश्वमालः ashvanaiah सं० ० सर्प त्रि. शेष । ( A snake. ) बैं० नि० । अश्वमुत्रा ashvamutra-सं० स्त्री० इन्दगू वृक्ष | अश्वमूत्रम् ashva-mutram-सं० की ० घोटक मूत्र, घोड़े की पेशाब । घोड़ार मूत-बं० | हॉर्स युरिन ( Horse urine. ) - ६० । For Private and Personal Use Only गुण-तिक्र, उष्ण, तीक्ष्ण, विषघ्न, वातकोपशामक, पित्तकारक और दीपन है । रा० नि० ० १५ । मेद, कफ, दगु ( दाद ) और कृमि नाशक है । म० ० ८ । अश्वमूत्रिका - श्री ashva-mútrika, triसं स्त्री० शल्लकी वृक्ष । सत्ताई - हिं० । (Boswellia serrata, Roxb. ) जटा० । अश्वमोहकः ashva mobakah सं० पु० श्वेत करवीर । सफ़ेद कनेर - हिं० । ( Nerium odorum, Aiton. ) वै० निघ० । अश्त्रयानम् ashva-yanam-सं० की० अस वारी, घुड़सवारी, अश्वारोहया, घोड़े की सवारी, Page #828 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अश्वयुज अश्व दुरी : अश्व भ्रमण | घोड़ार चड़ा-बं० । ( Riding. | अश्ववहः,-बाहः ashva-vahab,-vibah ) on horse back.) -सं०प०४ गुण-घोटकारोहण (घोड़े की सवारी ) अश्ववार ashya-Vara-हिं० संशा प. वात, पित्त, अग्नि तथा श्रमकारक है और मेद, अश्ववाहक, घुड़सवार । जटा०।। वर्ण तथा कफ का नाश करने वाला और बल- अश्ववारः ashva-varah-सं००(१) कनेर वान मनुष्यों के लिए अत्यन्त हितकारक है।। (Nerium odorum )(२)घोड़े का दिनच.। ! बाल । (Hair of the horse )अथर्व । अश्वयुजः ashva-yujah-सं० पु. पाश्विन ; सू०४ ! २। का० १० । मास, क्वार । The 6th bindu mo- | अश्ववारणः ashva-varanath-सं० पु. nth ( September-october.) । गवय। हेच | Sec.Gavaya.i प्रश्वरक्षक: ashva-rakshakah-स० पु. अश्ववैद्यः ashva-vaidyah-सं० पु. श्रश्व. अश्वपाल, अश्वसेवक, साईस । घोड़ार सहिष शास्त्र ( शालिहोत्र आदि) के प्रणेता, अश्व बं० । (A groom.) चिकित्सक। अश्वरिपुः ashva-ripub-सं. प. (१)| अश्ववंद्यकम् ishva.vaidyakam-सं० क्ली० करवीर वृत्त, कनेर (Nerium odorum.)। अश्व चिकित्साशास्त्र । इसके प्रणेता शालिहोत्र (२) महिष, भैंस । ( A buffalo.) भा० ।। नकुल, भोज और जयदत्त प्रभृति विद्वान हुए हैं। प्रश्वरोधक: ashra-rodhakah-सं० प'. अश्वशाला ashvar shālā-सं० स्रो०, हि. अश्वरोधक ashva-rod baka-हिं० संज्ञा स्त्री० (1) मन्दुरा । हला०। (२) श्वेत करवीर वृत | सफ़ेद कनेर-हिं० ।। वह स्थान जहा घोड़े रहें। तबेला, घुड़rium odorum, Aiton.) रा०नि० साल, अस्तबल । स्टेब्ल ( A stablc.) व०१०। अश्वरोहकाashvi-rohaika.! सं० स्त्री० | अश्वसेन ashva-sena-हि०संज्ञापु. तक्षक का अवरोहा ashva-roha अश्वगंधा । पुत्र नाग विशेष, सनतकुमार । असगन्ध-हिं० । (Withania somni- अश्वसेवक ashva-sevaka-हिं० संज्ञा पु. fera. ) अश्वपाल, साईस । (Agroom.) .. अश्वलम् ashvalam-सं० क्ली० शुद्र तृण । अश्वहन: ashva-huth-सं० पु. करवीर विशेष । घोड़े सर 401 "श्रश्वलञ्च तृण' बल्यं । वृक्ष, कनेर । ( Nerium odorum.) रुच्य पशुहितावहम् ।"वै० निघः। व० निघ०। रत्ना०1 भैष० भग्न-नि. निशा तैल । अश्वलोमा ashva.loma-सं० पु. सर्प अश्वहा ashvaha-सं० ए० श्वेत करवीर वृक्ष, विशेष ! (A smake. ) त्रिका सफेद कनेरका पेड़ । (Nerium odorun, अश्ववराहः ashva-varah th-सं० प .tilon.) मद० व०। वाराहाकन्द । An esculent root or | अश्वारक:ashva-ksharakah-सं०पु०कनेर, a yam ( Dioscoren. ) वै० निघ० । करवीर । ( Nerium olorum ) अथवं ! अष्टका ( ashtaka-सं० स्त्री. वृक्ष भेद । (A | अश्वशुग ashvit-kshuri -सं० sort of tree. ) हे० च०। अश्वनुरिका ashvarkshurikas स्त्रोत अश्ववचः , Rashva-valehchah,-s-सं० अश्वपुरी ashva-kshuri ) श्वेत क्लो० अश्वविष्ठा, घोड़े की लीद | घोड़ार नान अपराजिता, विष्णुकान्ता ( Clitorea -बं०। ('The duny of horses.) ternatea. ) । (२) कृष्ण अप For Private and Personal Use Only Page #829 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवाह राजिता । Cliture ternatein ( The i (1) करवीर या कनेर वृक्ष । ( Nerium bluck var. of-) वै. निघ० । (३) olorum.) भेष० कुष्ठ-चि० मरिचाय तैल । नखी गमक गंध द्रव्य विशेष। See-na- (२) महिष, मैंसा । ( A buffalo: ) khi. जटा० । अश्वा ushva-संस्त्री०(१)अजमोदा : Chrum | अश्वारित्रः ashvari-patrah सं० पु. (Ptychotis) Roxburghianum, I तिल कन्द । तैलकन्द स्वरूपः। BenthI ( २ )अश्वगंधा, असगंध (Wi- अश्वारूढ़ ashva-lidha-हिं० पुअसवार, thania somnifera.)। (३) अपा- ! घुड़चढ़ा, अश्वारोही । ( Mounted on & मार्ग, चिर्चिा (Achyranthes aspihorsa, a hors.man.) era. ।(४)इन्द्रवारुणी-सं०। (Cum- अश्वारोह:-कः ashvarobah,-kah-सं० is melo.)। राम्खाल शशा-बं० । (५)! पुं० अश्वगन्धा,असगंध । (Withania so. .... घोटकी, घोड़ी। (A mure.) nnifera.) रत्ना० । अश्वाकर्णा ashva karni-सं०स्त्री० सुख मद्दी । | अश्वारोहण ashva-rohana-हिं० संज्ञा पु. अश्वागधी ashva.gandhi-सं० स्त्री० [सं०] [वि० प्रश्वारोही ] घोड़े की सवारी । डमाडोल-द० । एक बूटी है। कोई कोई | अश्वारोहा ashvaroha-सं० स्त्री० इन्द्रअसगंध तथा कोई किसी अन्य बूटी को । वारुणी । राखालशशा-बं० । बड़ा इनारुन, इन्द्राकहते हैं। यन(Cumis melo.)। (२)श्रश्वगंधा, अश्वानक्रम् ashva.takram-सं०ली. घोटकी. असगंध । (Withania somnifera.) तक, घोड़ी का तक, घोड़ी के दूध द्वारा निर्मित मे । छाछ । घोड़ार दुधेर घोल-बं०।। अश्वारोही ashva-rohi-हि. वि० [सं० गुण-घोड़ी का तक्र कसेला, किंचित् वात- | ___ अश्वारोहिन् ] घोड़े का सवार । कारक, अग्निदीतिकर, रूम. नेत्र की हितकारक अशा ashvala in-सं० ० ( 1 ) उशीर, तथा मूर्छा पार कफनाशक है। वै० निघ० । खस-हिं०। (Andropogon muricaप्रश्वादधि ashvadadhi-पं० क्ली० घोड़ी ___tus.)। (२)जुद्र काशतृण । (Saccharum का दही। वाडव, श्राश्वम्-सं०। सुश्रुत spontuneus.) रा०नि०व०। . . सू० ४५ अ. दधि व०। अश्वावरोहकः,-हिका ashvava-rohakah,अश्वान् aashvan-अ० रांधता, रतौंधी, नक्रो- hika-सं, पु, स्त्री० अश्वगन्धा, असधता | ( Hemerulopia.) गंध । ( Withania somnifera. ) अश्वानु ashvant-तं० एक हिन्दी वृत का फल र०मा०। अश्वावती ashvavati-सं० स्त्री० वाजीकरण । अश्वान्तकः ashvantakah-सं० पु. श्वेत "अश्वावती सोमावती मुर्जयन्ती मुदोजसम्" करवीर, सफेद कनेर । ( Nerium odor वा० १२३ um,Ailon.) रा०नि० २०१० । अथर्वः । प्रश्वासना ashvāsana-सं० स्त्री. (१) 'अश्वा दूत्रा ashva-mitra-सं० स्त्रो० इन्दगू ऋद्धि। See-Riddhi । (२) घोटकी, - घोड़ी। ( A mare.) वै० निघ०। प्रश्वारिः ashvarh-सं० पु. | अश्वाह्वा ashvāhvi-सं० बी० अश्वगन्धा, प्रश्वारि ashvari-हि. सं असगंध | (Withania somnifern.) For Private and Personal Use Only Page #830 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व०१५ अश्वाहादिखुरा, री UFE. মৰ वैः निघ० वा० व्या० शतावरी तैल, नारायण : गुण-कटु, मधुर, कसे ला, ईषत् दीपन, भारी, तैल । मूर्छानाशक और बात को कम करनेवाला है। प्रश्वाहादि बुरा-रो ashvah vadi-khura,~| रा०नि०१० १५ । ri-सं० स्त्री० श्वेत अपराजिता, विष्णुकान्ता । श्रश्वोदधि ashvi.dadhi-सं० क्ली० घोड़ी के (Clitorea ternatea.) वे निघः । के दुग्ध से उत्पन्न हुआ दधि, घोड़ो का दही । च०३। घोड़ोर दई-चं० । घोदि चे दहि-मह। कृदिरेय अश्वाक्षः ashvakshah-सं० ए० (१) देव सोसरु-कं० । सर्षप वृक्ष । (See-Deva-sarshapu.) ! गुण-मधुर, कपे ज़ा, रूक्ष, कफ रोग तथा श्रम । (२) वृक्ष भेद। (A 80rt of l मूर्छानाशक और ईपद्वातल (थोड़ा वातकारक ), . tree.)रा०नि०। दीपन तथा नेत्रदापनाशक है। रा०नि०१० अश्विजो ashvijou-सं० प. अश्विनीकुमार, : स्वर्ग के वैद्य, देव वैद्य । ( See - Ashvini- | अश्वान नीतम् ashvi-havinitam-सं० k mára.) क्ला घोटकी दुग्ध जात नवनीत. घोड़ी के अश्विनी ashvini-सं० स्त्री०(१) जटामांसी। दुग्ध से निःमरित नवनीत. घोड़ी का मक्खन ( Valerianth jatamansi. ) व० (नैन । । घोडार दुधेर ननी-बं०। निघः । (२) धोड़ी। गुण-कपेला, वातनाशक, नेत्रको हितकारक, अश्विनीकुमार ashvini-kumāra-हिं० संज्ञा । कटु, उष्ण और ईषद् वातकारक, है । रा०नि० पु. देव वैद्य, स्वर्ग के वैद्य । पर्या-स्ववैद्य ।। दस । नासत्य । आश्विनेय । नासिक्य । गदागद । अश्वीयम् ashviyan-सं० क्ली०(१) अश्व पुष्करस्रज । समूह, सम्पूर्ण अश्वजाति, अश्वमाय ।-त्रि० (१) अश्विनीकुमारो रस: ashvini-kumaro- | अश्वहेतु, अश्व के लिए। मे० यत्रिक। (२) rasah-सं. पत्रिकुटा, त्रिफला, अफ़ीम, ! अश्व सम्बंधी । घोड़े का । - मी तेलिया, पीपलामून लवंग, जमालगोटा, । अश्वीक्षीरम् ashvi-kshiram-सं० क्ली० हरताल, सुहागा, पारा, गंधक प्रत्येक ... ! घोटकी दुग्ध, घोड़ी का दूध । कर्ष लेकर यथा क्रम प्राधा प्राधा प्रस्थ गाय के गुण-उष्ण, रूक्ष, बलकारक, वात कफ. दूध, गोमूत्र और भाँगरे के रस में धोटकर नाशक है। एक शफ(खुर)शीर मात्र लवणाम्ल गोलियाँ बनाएँ। ( नमकीन तथा खट्टा ), लघु और स्वादिष्ट मात्रा-मुद्न प्रमाण । इसे उचित अनुपान के होते हैं। मद. ३०८। साथ सेवन करने से अनेक रोग दूर होते हैं। अश्वेता ashveta-सं० स्त्रो० (१) कृष्ण अन० त.। अपराजिता । Clitorea ternatea('The अश्विनो ashvinou-सं) पु. दोनों अश्विनी- black VELL. of-)। (२) कृष्ण प्रतिविपा, __ कुमार । रत्ना०। frat vata Aconitum heteroअश्वि भेषजम् ashvi-bheshajan-सं० क्ली. phyllum (The black var.of:-) . लघुमेष शृङ्गी । मेढ़ा सिंगी-हिं० । मेड़ा सिढे बं०।। वै०निय० ।(३) गम्भारी वृक्ष । (Gmil. ( See-A jasbringi) o lago ina arboria.) (Sco-Gambhárí.) अश्वीघृतम् ashvi.ghritali-सं० ली. घोड़ी। ग.नि.। के दुग्ध द्वारा मिकाले हुए नवनीत से तैयार अश्वल tashvela-मत्स्याण्ड, मछली का अंडा । किया हुआ घृत, घोड़ी का घो । ( The egg of a fish. ) For Private and Personal Use Only Page #831 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वश्श ७८९ अश्य aushsha अ० दुबजा, पतला होना, बारीक अष्टक ashtaka-हिं० संज्ञा . [सं०] होना, निर्बल या क्षीण होना । अष्ट संख्या, पाठ की पूर्ति, पाठकी संख्या । प्राउ अश्शउल अज़ ashshainaul-abaiza वस्तुओं का संग्रह । जैसे हिंग्वष्टक । -अ० सफ़ेद माम, श्वेत मधूच्छिष्ट | White. अष्टकवर तैतम् ashtakatvara-tailam bes-wix (Cera alba.) -सं० की. यह तेल वातरक तथा उरुस्तम्भ में अश्शम्उल अस्कर ashshainaul-asfar हित है। योग निम्न है:-अ. मोम ज़र्द-फा० । पोला मोम, पीत मधू. : तैल ३२ पल (= २५६ तो०), दधि ३२ च्छिष्ट-हिं० Yollow bavs-wax पल (=२५६ तो०), तक्र २५६ पल (२०४८ (Cera flava. ) तो०), पिपली और सॉट प्रत्येक २-२ पल अश्शूग ashshāra-(Lamonit p.intap . अर्थात् १६-१६ तो० ( किसी किसी के मत से hyl!a, ROHD.) इं० हैं. गा० । दोनों मिल कर २ पल या प्रत्येक १ पन ) इसको अश्शै नमुल मुकान ashshailamitl-m11- 5 तेज-पाक विधि अनुसार पकाएँ। त्र० द. ऊ. qral-अ० शेलम । गन्मुम दीवाना-फ' । ! स्त० चि० । अस्नेह दधि अर्थात् स्नेह रहित देखो-अगंटा (Ergota.) दधि या दही का तोड़ और घृत रहित अर्थात् घी अरहब ashhab-अ० श्यामाभायुक्र, श्वेत रंग ! निकाला हुअा तक ग्रहण करना चाहिए । रस की वस्तु, कालापन लिए हुए सफेद रंग की चीज़, । धूसर, भूरा। अष्टकमल ashtakamila-हिं. संज्ञा पु प्रश्हल ashhala-अ० वह मनुष्य जिसका नेत्र [सं०] हट्योग के अनुसार मूलाधार से ललाट भेड़ का सा बड़ा और कुरूप हो, मेय चक्षु ।। तक के प्राइकमज जो भिन्न भिन्न स्थानों में माने मेश चश्म-फा०। गए हैं अर्थात् मूलाधार, विशुद्ध, मणिपूरक, अश्हायून ashhāyāsa-रू. कायफत,कट फल । स्वाधिष्टान, अनाहत (अनहद), प्राज्ञाचक्र, (fyrien sapila.) सहस्रार चक्र और सुरतिकमल । अहार as hāra-रू. तोदरी। See--To अष्टकर्म ashta-karmma सं० क्लो० पारद dari. के पाठ संस्कार । पारद के १८ बमों में से अषाढ ashadhi-हिं० संज्ञा प.. [सं० आषाद] स्वेदनादि से दीपन पर्यंत पाठ प्रकार के संस्कार । चौथा महीना । वह महीना जिसमें पूर्णिमा पूर्वाषाढ़ वे निम्न हैं:में पढ़े। प्रसाद । प्राषाढ़। 'The Hindi (१) स्वेदन, (२) मईन, (३) मूखंच, third solar month ( June-July, (४) उत्थापन, (५) पातन, (६) वोधन, during which the sun is in Gem. (७)नियामन और (८) दीपन । र० सा. ni, and the full moon is near - सं०1 इनको विधि अपने अपने पर्यायों के ashadha अपादा more properly सम्मुख देखें। called Poorv-ashadha पूर्वाषढ़ा or Uttarashadha उत्तराषादा coustell- अष्टका ashtaka-सं० स्त्री० वृक्ष भेद । (s). "ation Sagittirils.)। (२) व्रत , It of tree.) हे. च० । (Austerity)। (३) पलाश दण्ड । अष्टकुलas he kula-हि. संज्ञा प [सं०] अष्टंगी ashtangi-हिं० वि० दे० अष्टांगी। पुराणानुसार सौ के पाठ कुल; यथा-शेष, Fष्ट ashra-हिं० वि० [सं०] संख्या विशेष, वासुकि, कंबल, कर्कोटिक, पद्म, महापन, शंख . आठ । एट ( Eight.)-ई। | और कुलिक । किसी किसी के मत से-तक्षक, For Private and Personal Use Only Page #832 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अध्यकुली अष्टपादा महापन, शंख, कुलिक, कंबल, अश्वतर, पृतराष्ट्र (Load ) और लौह ( Irol.)। किसी • भौर बलाहक हैं। किसी ने पीतल के स्थान में पारद लिखा है। अष्टकुलो ashakuli-हिं० वि० [सं०] सौपा | देखी-श्रष्टलाइक । के पाठ कुलों में से किसी में उत्पन्न । अष्टधात्री ashta-dhatri) प्रष्ट कारण ashtakona-हिं. संज्ञा पु.. [सं०] ! [सं०] अष्टधाती ashta-dhati -हिं० वि० (१) वह क्षेत्र जिसमें पाठ कोण हों। [ सं० अष्टधातु ] अष्ट धानुओं से बना वि० [सं०] पाठ कोने वाला । जिसमें पाठ हुआ । (A co 'pound of eight metकोने हो। als.) अष्टगंध asha.gandha हिं० संज्ञा पु ! अष्टपद ashta-pada-हि. संज्ञा प देखो - [सं०] पाठ सुगंधित द्रव्यों का समाहार । श्रष्टपाद । ..: दे० गंवाएक। | अष्टपदी ashtr-patli -स) नो वेज नाम से अष्टगाधः ashta-gadhauh सं० पु... (१) प्रसिद्ध एक पुष्प सुप विशेष । बेल फुलेर--गाछ ऊण नाभि । See - Urns-nābhih. । (२) -बं। (A shrub named Vela.) शरभ 1 Seersharabha. गुण -शीतल, लघु, कफ पित्त तथा विष अष्टगुण मण्डः ashta-guna-mandah- नाशक | मद०व०३ ।। -सं०प० जिस गाँड़ में धनिया, सोंठ, मिर्च, | शष्ट पलम् ashti-ptlam-.सं. नी. शराद पीपल, सेंधानमक और छाछ डालकर भूना मान (=६४ तो० अर्थात् । सेर १) | sh:जाए तथा भूगी हींग और तैल पड़ा हो उसे rava (A measurement=one se. अष्टगुणमण्ड कहते हैं। er.) गुण-दीपन, प्राणदाता, वस्तिशोधक, रुधिर ! अष्टालक घृतम् asara.palaki-ghri ] वद्धक, ज्वरनाशक और प्रत्येक रोगों को नष्ट | tam--सं० क्ली। करता है । यो० त०। अष्टपल घृतम् ashta-pla-ghritam | - -सं० क्ली अष्टदल ashta-dala-हिं० संज्ञा प [सं०] ! पाठ पत्ते का कमल | -सं० क्लो० ग्रहणी नाशक योग विशेष । - वि० [सं०] (१) अाठ दल का । (२) यथा साँ, मि, पीपल, हड़, बहेडा, पाठ कोन का, श्राउ पहल का । श्रामला, प्रत्येक ४-४ तो० इनका कक बनाएँ और अष्टधातुः ashta-dhatuh-सं० प० ।। बेलगिरी ४ तो०, गुड़ १ पल तथा घृत ३२ तो० को फल्क युक्त पकाएँ। अष्टधातु ashra-dhātu-हिं. संज्ञा स्त्री०, इसे उचित मात्रा में भत्रण करने से मन्दाग्नि - अाठ धातुएँ यथा-१-सुवर्ण, २-रूपा, ३-शीष रोग नष्ट होता है। बंग से० सं० ग्रहणी । (सीसक), ४-ताम्र ५-पित्तल, ६-रंग (राँगा), चि० । च० द० । ७-कान्त लोह, औरह-गुण्डलौह । किसीने पिसल के स्थान में तीदण लोह लिखा है। र सो श्रष्टपात्-द: ashtapāt,dah-सं० प.. सं०टी०। | अष्टपाद ashti-pada-हिं० संज्ञा पु.. । नोट-किसी किसी ने इसकी गणना इस (१)कःश्मीर देशीय शरभ, शरध, शार्दूल । मद० - प्रकार की है-१-सुवर्ण (Gold.), २-रूपा- घ० १२ । (२) ऊण नाभि, लूता, मकड़ी । aii ( Silver. ), a arat ('opper. , हेच०४ का० । ४-पीतल ( Brass.), ५-राँगा ( Tin.), ! अष्टपादपः ashta-pada pah-सं० पु. वृक्ष ६-जस्ता ( Bell-metal, ), ७-सीसा भेद । (A sort of tree. ) वै० निघः । For Private and Personal Use Only Page #833 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अष्टमी अष्टपादिका ७६१ अष्टपादिका ushta-padika-सं० स्त्री० (१) शरद पाठों अष्टमंगल कहलाते हैं। वै० निघः । मल्लिका । काष्टमल्लिका--बं० । रत्ना । (२) किसी किसी के मत से १-सिंह, २-वृष, ३-नाग, प्रास्फोता, अपराजिता (Clitoren terna ४ -कलश, ५-पंखा, ६-वैजयंती, ७-भेरी और tea. ) हापर माली. य० । १० मु० -दीपक ये पाठ अमंगल हैं। व०११ । अष्टमंगल घृतम् ashta-mangal.ghritam अष्ट महर ashta-prahar-सं० प ० पाठ पहर, : -सं० क्ली० बाल रोग नाशक घृत विशेष । पाठ याम । ( Incessant, the whole एक धृत जो प्राट श्रीषधियों से बनाया जाता है। प्रोषधियों ये हैं-१-वच, २-कूट, ३- माझी, day and night. ) अष्टबन्ध्या ashta-bandhva-सं० स्त्री० पाठ ४-सर्षप, ५-सारिवाँ, ६-सेंधा नमक,७-पीपल प्रकार की बन्ध्याएँ, बाँझ या अपुत्रवती सिया १-१ तो०, और ८-घृत तो०, रक्त औष. Eight sorts of bandhyas ( chil. धियों का कल्क बना घृत सिद्ध कर पीने से था. dless women)। वे निम्न है -(.) लकों की स्मृति, स्रुति और बुद्धि की वृद्धि होतो है और पिशाच, रावस, दैत्य बाधा दूर होती काकबन्ध्या, (२) कन्याफ्त्य, (३) कमली, (५) गलगभी, (५) जन्म बन्ध्या , (६) है। च० तथा वंग से० सं० बालरोग-चि०। त्रिपक्षी, (७ ) निमुखी, (८) मृद्गर्भा । इनके भा०। रस० र०। अतिरिक पाठ प्रकार की और बनध्याओं का वर्णन अष्टमधु जाति: ashta-imadhu-jatih-स. ब. कल्पद्र.. के प्रणेता ने किया है जो | स्त्री० माक्षिक, भ्रामर, सौद्र, पौत्ति(नि)क, छात्रक निम्न हैं प्रार्ष्या, औद्दाल और दाल इत्यादि पाठ प्रकार के मधु । विस्तार के लिए उन उन शब्दों के (१) मृत्वरस्सा. (२) रजोहीना, (२) वकी. (३) व्यक्किनी, (५) व्याघ्रिणी, (६)! अन्तर्गत देखो। शुभ्रती, (.) सज्जा और (८) सबद्भी । . अष्टम नकली पसली ashtaina-makaliअष्टवसु ashta-basi-हि.पुप्रा3 देव वि ___pasali-स. स्त्रो० ( Eighth false शेष ( The eight deities.) । यथा rib) मांस और उपास्थि की पशुका । श्राप, ध्रुव, सोम, धव, अनिल, अनल, प्रत्यूप ! अष्टमानम् ashra-mānam-सं० श्ली. और प्रभास | अष्टमान ashta-nāna-हिं. संज्ञा पु. दो प्रसूति पल (=३२ तो०) अर्थात् अद्ध अष्टभावः ashra-bhāvah-सं० पु. स्तम्भ, सेर ( Half a seer.)। बाल मुट्ठी का एक स्वेद, रोमाञ्च, स्वरभंग, वैस्वयं, कम्प, वैवर्थ परिमाण । ५० प्र० १ ख. और अश्रुपात ये पाठ भाव हैं । वै० निघः।। | अष्टमिका asbratika-सं० स्त्री०, संज्ञा अष्टम ashram-हिं० वि० [सं०] अावा । स्त्री० तोल चतुष्टय परिमाण, ४ तो० का एक (The eighth.) परिमाण । प० । प्राधे पल वा दो वर्ष का . अष्ट मंगलः ashta-nangalah-सं० पु. परिमाण | (१) श्वेत मुख, पुच्छ, वक्ष तथा खुर वाला अष्टमो ashtami सं. (हिं० संज्ञा ) स्त्री. प्रश्च । हे. च० । जिसका समग्र पाद, पुच्छ, (1) चीर काकोली । ( See-rkshira-ki. वक्ष तथा मुग्व सफ़ेद हो उसे "अष्टमंगल" koli.) वै० निघ०। (२) तिथि विशेष । जानना चाहिए : ज० द०३ अ० ।-क्ली० पाठ शुक्र और कृष्णपक्ष के भेदसं आठवीं तिथि हैं। मंगल द्रव्य वा पदार्थ जैसे-१-ब्राह्मण, २-गो, (The cighth day of the moon.) | ३-अग्नि, ४-स्वर्ण, ५-घृत, ६-सूर्य, ७-अश्व, (३)श्रावणी नाड़ियाँ (Acoustic nerves.) (कहीं कहीं जल लिखा है) तथा ८-नृप ये -त्रि०, घि० पाठवीं। For Private and Personal Use Only Page #834 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अटसूत्रम् ७६२ अमूत्रम् ashtamútram सं० क्ली० आठ ज्ञानवरों का सूत्र ( The urine of the eight animals. ) ! उनके नाम निम्न प्रकार हैं। :-. (१) गो, ( २ ) चकरी, (३) भेड़, (४) भैंस, (५) घोड़ी, ( ६ ) हस्तिनी, ( ७ ) उष्ट्री और (८) गधी । वै० निघ० । अष्टमूर्ति रसः ashta-murti-rasah-सं० पुं० सोना, चाँदी, ताम्बा, सीसा, सोनामाखी, रूपामाखी, मैनसिल प्रत्येक समान भाग ले जम्बीरी के रस से भावित कर भूधर यन्त्र में १ पहर तक पुट दे फिर चूर्ण कर रखले । मात्रा-१ रत्ती उचित अनुपान से क्षय, पांडु विषमज्वर तथा रोग मात्र को समूल नष्ट करता है। रस० यो० स० । अष्ट मूलम् ashramilam सं० क्रि० स्वचा, मांस, शिरा, स्नायु, अस्थि, सन्धि, कोट्टा तथा मम में चार मूल कहे जाते हैं। सु० चि० अo | अष्टमौक्तिक स्थानम् ashra-mouktika sthanam-सं० क्ली० मोती की उत्पत्ति के आठ स्थान, जैसे, शंख, हाथी, सर्प, मछली, मेंढक, वंश ( बस ), सूअर तथा सीप इन श्राउ प्राणियों में मोती होता है । बैं० निघ० । देखोमोती । ऋष्यामिक वटी ashta-yamika vati - सं० स्त्री०चांगेरी चूर्ण ६ मा०, पारा, हल्दी, सेंधानमक प्रत्येक दो भाग इनको गाय के दही में मर्दन कर काही बेर प्रमाण की गोलियाँ बनाएँ । इसे ज्वर आने से ३ रोज़ बाद गरम पानी से लेने से परके अन्दर नवीन ज्वर नंष्ट होता है । रस० यो० सा० । अटलोह(क) ashta-loh",-ka-हिं०संज्ञाषु' लोकम् ashta-louhakam - सं०ली० अष्ट प्रकार के धातु विशेष । स्वर्ण, रौप्य, ताम्र, रङ्ग, शीष ( सीसक ), कान्त लौह, मुण्ड लौह, और तीच लौह । पञ्च लौह समेत कान्त, मुण्ड तथा तीच्य लौह । रा० नि० ० २२ । देखो - अष्टधातुः । श्रष्टवर्ग प्रतिनिधिः अष्टवर्ग: ashta-vargah - सं० पु० वर्ग ashta-varga-हि संज्ञा पुं० ( A class of eight principal me - dicaments, Rishabbaka etc. ) आठ श्रोषधियों का समाहार । मेदा प्रभुति आउ श्रोषधियाँ | यथा - १ मेदा, २ महामेश, ३ जीवक, ४ ऋषभक, ५ ऋद्धि ६ वृद्धि, ७ काकोली और तीर काकोली । प० मु० । "जीवकर्षभकौमेदे काकांल्या वृद्धि वृद्धिको एकत्र मिलितैरेतैरप्रवर्गः प्रकीर्त्तितः” । रा० नि० ब० २२ | + Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुण-- शीतल, प्रतिशुक्रल, बृंहण, दाह, रकपित्त तथा शोषनाशक और स्तन्यजनक एवं गर्भदायक है। मद० ० १ । रकपित्त, बाण, वायु और पिशनाशक है । राज० । हिम, स्वादु वृंहण, गुरु, टूटे हुए स्थान को जोड़ने वाला, कामत्रद्धक, बलास (कफ) प्रगट करता एवं बलवन्द के है तथा तृष्णा, दाह, ज्वर, प्रमेह और चय का नाश करनेवाला है। भा० पू० १ भा० । श्रष्टवर्ग प्रतिनिधिः ashtavarga-pratinidhih - पुं० मेदा आदि श्रोषधियों के अभाव में उनके समान गुण धर्म की ओषधियों का ग्रहण करना, यथा— मेदा महामेदा के प्रभाव मैं शतावरी, जीवक ऋषभक के स्थान में भूमि कुष्मांड मूल ( पताल कम्हड़ा, विदारीकंद ), काकोली, क्षीर काकोली के प्रभाव में अश्वगंधा मूल (असगंध ) और ऋद्धि वृद्धि के स्थान में वाराहीकन्द | भा० पू० १ भा० । कोई कोई इसकी प्रतिनिधि इस प्रकार लिखते हैं, जेसेजोवक, ऋषभक के अभाव में गुड़नी वा वंशलोचन, मेश के अभाव में अश्वगंधा और महा मेा के श्रभाव में शारिवा और ऋद्धि के अभाव में बला और वृद्धि के स्थान में महावला लेते हैं। कोई कोई ऐसा लिखते हैं प्रतिनिधि - काकोली ( मूसली श्याम ), वीर काकोली ( मूसली श्वेत ), मेदा (सालय मिश्री छोटे दाने की ), महामेदा ( सकाकुल मिश्री ), जीवक ( लम्बे दाने के सालब ), ऋष For Private and Personal Use Only Page #835 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अष्टविधानम् ७ER अष्टाङ्गवैद्यकम् भक ( बहमन श्वेत ), ऋद्धि (चिड़िया कंद)। __ योग-गुग्गुल, निम्न पत्र, वचा, कुष्ठ, हरड़, और वृद्धि (पंजा सालअमिश्री)। ! ___ यव, श्वेत सर्षप इनमें घृत मिलाकर धूप देने से अष्टविधानम् ashta-vidhanman-संग ज्वर नष्ट होता है । च० द. ! कलो. पाऽ प्रकार के आहार द्रव्य, जैसे (.)! अष्टाङ्ग मङ्गल घृतम् shrangamangal. चळ, ( २) चोष्य, (३) लेय, (४) पेय, ghritam--लं. कली० बच, मण्डूकपर्णी, : (१) खाद्य, (६) भोज्य, (७) भक्ष्य तथा शंखपुष्पी, ब्राह्मी, हुरहुर, श्वेतगुआ शतावरी, (3) निष्पेय रूप भोजन द्रव्य । गिलोय प्रत्येक ४-४ तो०, घृत ६४ तो०, दुग्ध अष्टक्षारः ashra-ks 'tirli-सं० पु. श्रा २५६ तो. उक्र प्रोषधियों का कल्क बना धृत दूध ! आऽ प्राणियों के दूध | वे निम्न हैं- । पकाकर सिद्ध करें। (१) गोदुग्ध, (२) बकरी का दूध, (३)। टनी का दूध, (४) भेड़ का दूध, (५) भैंस | गुण-इसके सेवन से धृति, स्मृति की वृद्धि का दूध, (६) घोड़ी का दूध, (७) स्त्री का | होती है। वंग० से० सं० रसा० अ०1. दूध और (८) हाथी का दूध । अष्टाङ्गयोगः ashranga-yogah-सं. पु. "गन्यमा तथा चाष्ट्रमाविक माहिषं च यत् । योग विशेष । यथा-कट फल ( कायफल ), अरवायाश्चैव नारियश्च करेणूनां च यत्पयः ॥" | पोकर, झंगो, व्योप (त्रिकटु ), यास (जवासा) सु० सू० अ० ४५। और कारची। संग्रहः । अष्टा ashranga-हिं० संज्ञा प. अष्टाङ्ग रसः ashranga-rasah-सं० पु. अष्टाङ्गम् ashtangam-सं० क्ली० प्रशेऽधिकारोक रस विशेष । लोहकिट्ट(मगदूर ) [वि. अष्टांगो ](1) आयुर्वेद के पाउ विभाग। और फलत्रय (त्रिफला ) १२० सा० सं००। (क ) शल्य, शालाक्य, कायचिकित्सा, भूत देखो---अष्टाक्षरसः। विद्या, कौमारभृत्य, अगदतन्त्र, रसायनतंत्र और अष्टार लवणम् ashtanga-lavanam-सं० वाजीकरण। कली० काला नमक भा०, जीरा १. भा०, (ख) काय चिकित्सो, बालचिकित्सा, ग्रह वृक्षाम्ल (अमसूल) १ भा०, अम्लवेत १ भाग, चिकित्सा, ऊध्वांग चिकित्सा, शल्य चिकित्सा, ! तज प्राधा भा०, इलायची प्राधा भा०, मिर्च दंष्ट्र चिकित्सा, जरा चिकित्सा और वाजीकरण ये प्राधा भा०, मिश्री १ भा० ले चूर्ण प्रस्तुत करें। आयुर्वेद के पाठ अंग हैं। वा० सू० १ अ०। गुण-यह अग्नि को दीपन करता और (ग) द्रव्याभिधान, गदनिश्चय, शत्य, काय, कफज मदात्यय रोग को दूर करता है। वंग से० भूत निग्रह, विष निग्रह, रसायन और बाल सं० मदाचि० । चर० मदात्यय-चि०। जीरा, चिकित्सा । वैद्यकम् । काला जीरा, वृक्षाम्ल (अमसल) और महाद्रक (२) शरीर के आठ अंग, जानु पद, हाथ, (स्थूल का वन श्रादक )। र० सा० सं० । उर, शिर, वचन दृष्टि, बुद्धि जिनसे प्रणाम करने सौवर्चल कृष्णजीरकाम्लवेतसाम्ल लोणिकानां । का विधान है। प्र०चूण समं स्वगेलामरिचानां प्रत्येकम भागः। वि० [सं०] ) पाठ अवयववाला । (२): शर्कराया भागैक एकत्र मिश्रयेत् । च० द. अठपहल । मदा०चि। अष्टाङ्ग घृतम् ashravgaghritam-स० अष्टाङ्ग वैद्यकम् as branga-validyakam क्ली० यह एक वाजीकरण घृत है। -सं० क्लो० शालाक्य, काय, भूत, अगद,बाल, अष्टात धूपः ashringa-dhupah--सं. विष, बाजीकरण और रसायन इन्हें अष्टांग वैद्यक पु यह धूप ज्वरनाशक है। कहते हैं। १०० For Private and Personal Use Only Page #836 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अष्टाङ्ग हदयम् ७६४ अष्टादशाङ्गः अष्टाङ्ग हदद्यम ashtanga-hridayam-स. शतावर, शर, इतु, दर्भ, कास और शालिवान्य कली. वाग्मट विरचित वैधक ग्रंथ । अष्टांग मूल । चै० निघ०। आयुर्वेद के प्रत्येक अंग का सार सार ग्रहण करके । रचा गया। श्रस्तु, यह सब अंगों का सारभत । अष्टादश शतिक महाप्रसारण तैलम ashtaअष्टांग हृदय है । वा० सू० ११०। dasha shatiki nahá-prasaraníअष्टाङ्गावलेहः,-हिका ashtangaralehab, tailam-स. फलो गन्धाली पज्ञांग १२० hika-स0पु0, स्त्री० सन्निपात ज्वर तथा तो०, शतावरी ४०० तो०, केतकीमूल ५००तो०, हिका व श्वासादि में हितकर यांग विशेष । अश्वगंध ४०० ता०, दशमूल ४०० तो०, ख्रिरेटी ___ योग तथा निर्माण-कम-कायफल, पोह कर मूल ४०० तो०,कुरण्टा ४०० तो०,इनको १०२४ मूल, काकड़ासिंगी, अजवाइन, सौंफ, सोंठ, तो. जल में पकाएँ, जब १००वाँ भाग शेषरहे तब मिर्च, और पीपल ये सब प्रौपच समान इस काथ से दुगुना और क्वाथ लें । काँजी और दही भाग लेकर चूर्ण करलें । इस चूर्ण को का पानी २५६ तो०, दुग्ध, शुक्र, ईख का रस, अदरख के रस तथा शहद में मिलाकर चाटें। बकरे के मांस का रस प्रत्येक ४.४ सेर, तिख तैल १०२४ तो० । कल्का-भिलावा,तगर, सोंठ, गुण-कफ, ज्वर, खांसी, श्वास, अरुचि, चित्रक, पीपल, कचूर, वच, स्टका, प्रसारिनी, घमन, हिचकी, कफ और वातनाशक है । भा० पीपलामूल, देवदारु,शतावर,छोटी इलायची,दालम० १ भा० । सा० कौ० । च० द० । भैष० ।। अष्टाङ्गी ashtangi-हिं० वि० [स] पाठ चीनी, नेयमाला, कूट, नम्त्री, बालछड़, पुष्करमूल , चन्दन, सारित्रा, कस्तूरी, अगर, मही, नख, अंगवाला। शिलाजीत, केशर, कपूर, विराजा, हल्दी, लवंग, अष्टाकोरस: ashtangorasub-स० पु. रोहिपतृण, संधानमक, कंकोल, पालक, नागरगन्धक,पारा, लोहभस्म, मण्द्धरभस्म, त्रिफला, मोथा, कमल, दारुहल्दी, तेजपत्र, कचूर, रेणकात्रिकुटा, चित्रक, भांगरा प्रत्येक समान भाग लेकर सेमल और गिलोय के क्वाथ से ३ पहर घोटकर बीज, लोबान, श्रीवास (धूप), केतकी, त्रिफला, रक्त धमासा, शतावरी, सरल, कमल केशर, मेहदी, . छाया में सुखाएँ। खस, बालछड, जीवनीयगण, पुनर्नवा, दशमल, माम्रा-४ मा० । उचित अनुपान के साथ ! असगंध, नागकेशर, रसवत, कुटकी, जावित्री, सेवन करने से हर प्रकार के प्रशं का नाश होता सुपारी, शलई का गोंद प्रत्येक १२-१२ तो० है। रस० यो० सा॥ ले मन्दाग्नि से तेज पकाएँ । सिद्ध होने पर मा. अष्टादश ashrattistha-प्रारह । ( Eigt- लिश करें तो सम्पूर्ण वात व्याधियों दूर हों। teen, ) इसे नस्य, पान और वस्ति कर्म में भी प्रयुक्त अष्टादश धान्यम् ashtadasha-dhanyam किया जाता है। विशेष गुण देखो-वंग से. -स. क्ली. १८ प्रकार के धान्य विशेष जैसे-- स. वातव्याधि चि०एच० द.वा.व्या. कलाय (मटर प्रादि), गोधूम, अादकी, यव, यावनाल (मक्का), चणक, मसूर, अतसी, मूंग, तिल, अष्टादशाङ्गः ashtatas hangali-स'• पु'. कुलथी, श्यापाक ( साँवाँ ), माप, राजमाप, सन्निपातज्वरोक काय विशेष ! यह चार प्रकार वत्तल, हरिक, कंगु और तेरणा । वै० निघ० ।। का है--(१) दशमूल्यादि, (२) भूनिम्बादि, अष्टादश मूलम ashtadasha-milam-स। (३) द्राक्षादि (४) और मूल कादि इनमें से क्लो०१८ प्रकारकी जड़ें यथा-बिल्व, अरन्यो,सोना । प्रथम दशमूली, कचूर, भंगी, पोहकर मूल, पाठा, गाम्भारी, पाटा (निर्विपी),पुनर्णवा, बाट्या- | दुरालभा, भार्गी, इन्द्रयब, पटोल पार कटुरो- . लक, माषार्णी, जीवक, एरण्ड, ऋषभक, जीती, हिणी इन्हें अष्टादशांग कहते हैं। For Private and Personal Use Only Page #837 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir "अष्टादशाङ्ग गुटिका अष्टावक रसः ग -समरान पर नाशक । कर घृत और मधु के साथ वटिका निर्मित करें। द्वितीय-भूनिम्ब, दारुहरिद्गा, दशमूल, अनपान-इस को तक के साथ उपयोग में लाएँ । माँट, नागरमोथा, तिक इन्द्रयव, धनिया, नाग- गुण-पार डुघ्न । भा० म०२ भा०। केशर और पीपल का कषाय । गुण-तन्द्रा, प्रलाप, कास, अरुचि, दाह, मोह, श्वासादि अष्टाप: ashtapadab-सं० प. । सम्पूर्ण रक विकार और घर को तत्काल । अष्टापद asstipala-वि० संज्ञाए शन करता है। (१) शरभ । Se3.-sharabha | (२) तृतीय-द्राक्षा, गुडूची, कचूर, भृगी, नागर. . मर्कट । बानर-हि. । (A monkey) माथा, लालचन्दन, सोंड, कुटकी, पाठा, भूनिम्ब, देखो-मकंटः । (३) महासिंह । See.. दुरालभा, बम, पाकाष्ट, धनिय!, सुगन्धवाला, . Mahasinha i (४)धुस्तर । धतूरा-हिं० । कण्टकारी, पुष्कर और नीम । गुगा-तुरन्त जीर्णज्वर ( Datura fastuisin)रा. नि० व. को दूर करता है। १६ (५) शतरनकी चाल । वा० उ० प्र० २२ । चतुर्थ नागरमोथा, पित्तपापड़ा, उशीर, देव "पक्वेऽष्टापदवद्भिन्ने” । -क्लो० (६) दारु,महोपध, ग्रिफला,दुरालभा और यवास, नीली सुवर्ण, सोना । ( Gold ) रा०नि० व० कम्पिक, निशाथ, चिरायता, पाउ, बला, कटुकी, १३ । -(दी) स्त्रो० (७) मतिका भेद । रोहिणी, मुलेगी, पीपलामून प्रादि नागरमोथा | . चन्द्र मल्लिका । गण कहलाते हैं । च० द०। भैष । अष्टादशाङ्ग गुटिका ashta.dashangaguti- ! | अष्टापद ashtāpada-हि० संज्ञा पुसिं०] -ki-सं० स्त्री० चिरायता, कुटकी, देवदारु, (.) लूता, मकड़ी, । (२) कृमि । देखोदारुहल्दी, नागरमोथा, गिलोय, कडुप्रा परवर, अष्टापदः। धमासा, पित्तपापड़ा, निम्बहाल, सौंठ, मिर्च, अष्टाम्लवर्ग ashtanka-varga-सं० प. पीपल, त्रिफला, वायविडंग प्रत्येक १-१ भा०, आठ खट्टे फल, यथा-(.) जम्बीर, (२) लौह चूर्ण सर्व तुल्य, चुरख कर शहद और घृत बीजपुर, (३) मातुलुग, (४) नुक्रक, - से गोलिया बनाएँ । (५) चांगेरी, (१) तिन्तिदी, (७) बदरी गुण-इसे तक के साथ भक्षण करने से पांडु, . और (B) करमई। शोध, प्रमेह, हलीमक, हृद्रोग, संग्रहणी, श्वास, खासी, रनपित्त, अर्श, आमवात, व्रण, | अष्टावक्र ashri-vakra-हिं० संज्ञा प.. गुल्म, कफज विधि, श्वेत कुष्ठ, उरुस्तम्भ आदि [सं०] एक ऋषि । रोग दूर होते हैं। वंग से० सं० पांडुरो. अष्टावक्र रसः ashra-vakra-rarah-सं० चि०1 प. रसायनाधिकारोक रस विशेष । यथा-पारद अष्टादशाङ्ग लौहम् ashradushanga-louh. १ भा०, गन्धक २ भा०, स्वण' भस्म १ भा०, am-सं० क्ली० पांडु अधिकारोक लौह चाँदी फस्म ॥. भा०. शीपा भस्म | भा०, विशेष। राँगा भस्म ।. भा, ताम्रभस्म १० भा. और योग तथ निर्माए-क्रम-चिरायता, देवदारु, खपरिया शुद्ध १० भा० इसको चटार तथा दारुहरिद्रा, नागरमोथा, गुडची, कुटकी, पटोल, घीकार के रस में १ प्रहर तक मन कर रसदुरालभा, विसपापड़ा, निम्ब, त्रिकटु, चीता, सिंदूर की तरह पकाएँ । मात्रा-२ रत्ती। त्रिफला, मयनफल, वायबिडंग इन सबको समान अनुपान-पान का रस । भषः । भाग लेकर इन सब के बराबर लौह भस्म मिला. For Private and Personal Use Only Page #838 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अष्टाधि भसकुट अष्टाश्रि ashrashi | वि० [सं.] (३) उत्सरापथ प्रसिद्ध वत्त लाकार पापण अष्टास्त्र ashrasta6० वि० [स] खण्ड (जे ज्वरः ) वा पत्थर की गोली । लोहार ___ पाठ कोने वाला, अकोना, अकोण। की लोहे की दाँती, अस्त्र विशेष । गयदास । अष्टिः,ष्टिः ashtih, shrhih.. स्त्री (४) प्रोस्टेट ग्रंथि विशेर ( Prosta. अष्टि ashri-हिं० संज्ञा स्त्री० te glanil. ) (1) अली । अाँटी--बं०। (२) मींगी अष्ठि(प्रा)वान् asthi,-sithi, van-सं० पु. (Nucleus)। नुवात--अ० देखो - सेल । (१) शूक रोग विशेष लक्षण-जो कड़ी और श्रष्टौषधिः ashtoushadhih.-स. स्त्री० भीतर में विषम ऐमी वायु के कोप से पिड़िका हो ब्रह्मसुवर्चला, आदित्यपर्णी, नारीका;, गोधा, वह 'ग्राफीलिका' है। यह विए युक शूकों से होती सर्पा, पना, अज और नीली ये श्रा3 अप्टी- हैं । सु० नि० १३ अ०। देखा-अलिका। बधि कहलाती हैं। चचि०१०। (२) जानु । (khes ) रा०नि० व०१८ । अष्टावान्, त् : shthivi", t--सं० प अष्ठिला ashrhiika -स० स्त्रो०, धुटना, __जानु । ( Kuge) सु० शा० । अथव० । सू० अष्ठीला ashthila संहा स्त्री० (१)! है | २१ । ०१०। अष्ठीलिका ashthitikā वायु रोग विशेष । ! अष्टोला दाह sth hiladihia-f; पु. एक रोग जिसमें मूत्राशय में अफरा होने से प्रोस्टेट ग्रंथि प्रदाह । ( Prost.titis ) पेशाय नहीं होता और एक गां पड़ जाती : अष्टोला विकार ashthili-vilkata-हि.प. है जिससे मलावरोध होता है और वस्ति में पोड़ा | प्रोस्टेट ग्रंथि के रोग। (1Disases of होती है। इसके निम्न भेद हैं the prostate ). लक्षण-बह ग्रंथि जो ऊपर का उठी हुई तथा | अष्ट्राला वृद्धि ashthili.vridlti-हि-त्री. अप्ठीला के सहरा कठोर और पानाह के लक्षणों प्रोस्टेट ग्रंथि का बढ़ जाना, याताष्ठोला । से युक्त होती है उसे श्रष्ठाला कहते हैं। वा० (Prostatic enlargement. ) नि०११ अ०। नाभि के नीचे उत्पन्न हई ! अष्ठालास्थित अश्मरा ishthilāsthitainen. __m.iri-हि.स्त्रो० प्रोस्टेट ग्रंथि स्थित अश्मरी। इधर उधर चली हुई अथवा अचल जो एक ही स्थान में रहे ऐसी पत्थर की बटिया के समान ! ( Prostatic calculi ) देवो-प्रश्मरी कड़ी और ऊपर को कुछ लम्बी और पाडी, कछ वा प्रोस्टेट । ऊँची हो और अधोवाय. मल. मत्र इनको रोकने असलिन्नः asanklinmah-सं० वि० सम्यक वाली गानों को याताठोला कहते हैं। जो रूप से घाई नहीं अर्थात् जो पूर्णतः क्लेदलक अत्यन्त पीड़ा युक्त वायु, मूत्र, मल को रोकने (तर) न हो। यथा-"पिंटीकृतम क्रिसम् ।" वाली और जो तिरछी प्रगट हुई हो उसको। भा० पू०१ मा०। प्रत्यष्ठीला कहते हैं। मा०नि० वा. व्या०।. असंयोग asanyoga-हि.. भिन्न, अनमेल । : असंलग्न sanlagna-हि. वि. जो मिला न बाग्म के अनुसार तिरछी और ऊपर को उ.. हो, असंयुक्क, अमिल। हुई ग्रंथि को प्रत्याला कहते हैं। वा० नि.; : असकत asakata- हिरोयालस्य, उास । ११०। ' ( Drowsiness. slothfulness.) (२) शूकरोग भेद । लक्षण-जो कड़ी और अरूकती asakati-हिं. प. प्रालसी, नीला । भीतर से विषम ऐसी आयु के कोप से पिडिका (Drowsy, lazy.) हो वह अष्टालिका है । यह विषयुक्त शूको से अलकुट asakuta-ले दक, फलञ्च, नंगकी-प होती हैं । सु० नि० १४ अ०। . . (चनाब नदो)। मेमा । For Private and Personal Use Only Page #839 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अली अरुखी asakhi-सं० स्त्री० श्रयुग्म । ( Azy gos ) - श्र० । असमन्द asaganda असगन्ध asagandha (Physalis flexuosa.) असगंध बाहरी asagandha-chách!riri( 1 ) az, mix, ay | (Ficus Bengalensis. ) श्रसाधु-म० । ( २ ) असगंध | ( Withania somnifera. ) i ७६७ -हिं० संज्ञा पु ं० अश्वगंधा | असजद āusa.jada - ० ( १ ) सुवर्ण । सोना - हिं० | Gold ( Aurm ) | ( २ ) जवाहिरात ( जैसे-याकृत, जबरजद आदि ) ((Gems.) । ( ३ ) स्थूल वा मोटा ऊँट ( A tnt camel ) असजर āasajurao टिड्डी (A locust ). असढ़िया asadhiya - ० संज्ञा पुं० [सं० अपाद ] एक प्रकार का लंबा सांप जिसकी पीठ पर कई प्रकार को चित्तियाँ होती हैं। इसमें विष बहुत कम होता है। असथन asathana-हिं० संज्ञा प ु० [?] जायफल - डि० | 1 अखनः asanah सं० प० असन asana-हिं० संज्ञा पु ं० ( १ ) विजयसार, बीजकः । Pterocarpus inar. sxpium, Ro... । 'देखो - विजयसार | भा० पू० १ भा० बादि व० (२) छाग कवित् पत्रशाल वृक्ष विशेष, पीतशाल, पीतशालः । प० मु० । असन, असना, शासन असन । र० प्रा० रत्ना० । पियाशाल - हिं० | Terminalia tomentosa, Bedd. 1 - बं० I अनू, असखा, वड़ सुरिया -मह० । संस्कृत पर्याय -- परमायुधः ( श ), महासज्ज, सौरिः, बधूक पुष्पः प्रियकः, वीजवृत्तः लीनकः, प्रियसालकः, अजक, वने सर्जः । "असनो वीजकः काख्यः स्वनामाख्यातः । सु०सू० ३८ श्र० । गुणु कटु, उच्ण, तिक्र, वातनाशक, सारक तथा गलदोष नाशक है । श० ०ि ० ६ । २३ । कुष्ठ, विसर्प, श्विन ( कुष्ठ " : असमपूर्णिका, भेद ), प्रमेह, गुल कृमि, कफ तथा रकवित. नाशक हैं और स्वच्य, केश्य तथा रसायन है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मा० पू० १ भा० वटादि ० | सि० ० रा०य० चि० पुलादिमन्थ । वृन्द० । “निम्बासन शाल सारान् ।" वा०सू० १५ अ० असनादि व० | "असन तिनिश भूर्ज ।” भा० म० ४ भा० योनिरोग चि० । “स्वर्जिकोग्रसनं त्र्यहम् "।" देखो - श्रासन (३) जीवक | मे० नत्रिक । ( ४ ) वक वृत्त, श्रगस्तिया (Agatigrandiflora. ) । (१) वीत आदि | -लो० ( ६ ) क्षेपण | मे० ननिक | i 1 नोट- प्रायुर्वेदीय निघंटुकार प्रायः श्रासन और विजयसार दोनों का वर्णन संस्कृत शब्द असन के ही अन्तर्गत किए हैं; परन्तु परस्पर बहुत कुछ समानता रखते हुए भी ये पृथक् पृथक् द्रव्य हैं। अस्तु, इनका वर्णन यथा स्थान किया जाएगा। श्रायुर्वेद में असन उपयुक्त दोनों संज्ञाओं के पर्याय स्वरूप प्रयुक्र हुआ है, जिनमें से (१) श्रासन, असना-हि० | आशान पियाशाल- बं० । (Terminalia tomentosa, IV. & A. ) - ले० । और ( २ ) वि(चि) जय(जे) सार, वीजक, बीजा-हिं०, पीतशा (सा) ल -do Pterocarpus marsupium, 7. C. (Indian kino tree) -ले० है । इसके निर्यास को हिन्दी में विजयसार निर्याय या हगदोखो तथा झरवी में दम्मु अवैन हिंदी और लैटिन में Pterocarpus mar• supium, D. C. (Gum of- Indian kino.) कहते हैं । काइनों के पर्याय -नम्मुल अ हिं० | खूने सियावसान फा० | kino (The drug-Draggons' blood. ) : अलन asana- जल का स्वाद तथा बुल जाना । असन ãasan8-० पुरातन वसा | (Old fat.) असनपर्णिका - र्णी asana-parniká,-rni - सं० स्त्री० ( १ ) अपराजिता - सं०, For Private and Personal Use Only 4 ० ! Page #840 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra "" www.kobatirth.org अलनपुरुषः- का , कः ( Clitores ternatea. ) मराठी | श्र० ० भ० । (२) पटसन, रसुनिया घास | असन पुष्पः, - asina-pushpah, kah - सं०प० पष्टिक धान्य जाति भेद । साठी भेद । सु० सू० ४६ ० असंनमल्लिका asana.mallika-५० ख० रामसर - हिं० | हापर माली बं० । (Echitos dichotoma.) इं० मे० मे० | देखो -भद्र | वली | असना-गु० कासन sana } असगंध, अश्वगंधा । ( Withania so mnifera ) ई० मे मे० - हिं० संज्ञा पु० [सं० अशन ] एक वृक्ष जो शाल की तरह का होता है। इसके हीर की लकड़ी हड़ और मकान बनाने के काम प्राती है तथा भूरापन लिए हुए काले रंग की होती है। इस पेड़ की पत्तियाँ माघ फाल्गुन में झड़ जाती है । पीतशाल वृद्ध | 'Terminalia tomen. tosa, Bedd.). असनादिगणः asanadi ganah - सं० ए० पीतशान, ति नश, भोजपत्र, पूतिकरअ, खदिरसार, कदर ( खैरसारकी प्राकृतित्राला खेतसार ), शिरिद, शीशम, मेषशृंगी, ग्रिहिम ( चन्दनत्रय अर्थात् श्वेत रक्र व पीत चन्दन ), ताड़, ढाक, ..अगर, वरदारु, शाल, सुपारी, धवपुष्प, इन्द्रयव, अकर्णी और अश्वकर्णी | गुण-ये श्वित्र कुष्ठ, कफ, कृमिरोग पाण्डुरोग, प्रमेह तथा मेद सम्बन्धी दोषों को दूर करते हैं । वा० सू० १४ श्र० असंताप asantapa-सं० वि० संताप या श रहित । अथनं० । असन्धानकर asandhana-kara - हि० वि० ० संधान निवारक । असन्न asanna-अ० कन्त दुर्गन्धि । वह मनुष्य जिसके कक्ष से दुर्गंध आती हो । ७८८ तन्तु, अब aasab- अ० ( ए० ६० ) श्राव ( ब० ० ) पै, पुट्टा - उ० नादी, बोध असव शिक ज्ञानवन्तु । नर्व ( Nerve ) - ई० । देखो नाड़ी । असव इश्तियाको āasaba-ishtiyaqi - श्र० असून अश्फाक़ी | यह मस्तिष्क की चतुर्थ नाड़ी है जो मस्तिष्क से प्रारम्भ होकर मेत्र में बुके वो पेशी में समाप्त होतो है । पैथेटिक नर्व (Pathetic nerve. ) έ• ↓ अस्त्र जाजिअ āasibazajão अम् बुरिंग्रड् वल्मिनदह, अस्य मुनय्यरह, लौटने वाला पुट्ठा । श्रामाशय फुफ्फुपीया नाड़ी, अस्त व्यस्त बोधतन्तु । ( Pneumogastric nerve, Vagus nerve.) अस्त्र जौकी āasaba-zouqi-अ० अमब लिसानी व बलऊनी, जिह्वाकरटनाही | ( GI:ssopharyngeal nerve.) असलुखाई इज़ाफ़ा aasaba-nukhaaiizafi - अ० सीयुम्न सहायक नाड़ी । ( Spi nal accessory nerve. )-fo | अब बसरी āasaba basri-अ० शबनूरी, शस्त्र मुजन्त्र, इस वह मुजष्वक्रह । चानुषोया नाड़ी, आलोक सम्बन्धी माड़ी, देखने की नाही, efearst (Optic nerve.) अस्य मुज़दत्रफ āasaba-majavvafa सुबह सुबह । ( Optic nerve ) देखो -- असून बसरी | अस्ववजिही āasaba-vajihi - अ० मौखिकी नाड़ी । ( Facial nerve.) अत्र च कबीर āasaba-varki-kabira - ० . स्वह वजह, महा कटिनाड़ी | ( Great sciatic nerve. ) असुत्र व सगर āasaba-varki saghirao लघु कटि नाडी । ( Small sciatic nerve. ) C Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अब शामो sabshami-ऋ० उ स्वतु. शम्म घ्राण नाड़ी । ( Olfactory nerve.) सूत्र शिक āasaba-shirki-ঋ० सब हमदर्दी | पिंगल नाही । ( Sympathetic nerve. ) For Private and Personal Use Only Page #841 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir असब समई ७६. असर: aryngeal nery असष सम्.ई aasa ba-gamai--. अलबतु- असबाब asababa- अ०(१०व०), सबबः (ए. सम्म । श्रावणी नादियाँ । ( Auditory/ व०) कारण । हेतु । मिदान। . nervo. ) मसमदृष्टि asama-drishti--हिं० सी० असब ..सुलासी बजही aasaba-sul asi. (Astigmatism. ) दृष्टि दोष । खललुल vajhi... त्रिपारिवका नाड़ी । ( Trift. अपर, स्खल लुलज़ार-१०। खराबिये मजर-फा०।। cial nerve. ) नज़र की खराबी- उ01 सवह, aasabah-० नाड़ी, बोधतन्तु । __ यह एक प्रकार का दृष्टि विकार है जिसमें एक (Nerve.) ओर की दृष्टि तो ठीक होती है। परन्तु दूसरी ओर असबहे जाइकह aasaba heraigali-० की दृष्टि में निकट दृष्टि वा दूर दृष्टि के विकार स्वाद नाड़ी, जिह्वा नाही । ( Glossopli-i होते हैं । प्राचीन हकीमों ने इसका पृथक् वर्णन नहीं किया, प्रत्युत इसे एक प्रकारका रष्टिनैश्य असबहे नूरियह, aasu babe-nuriyah-अ० . माना है। चाक्षुषीया नाही, रष्टि नाही । ( Optic ne... असमंत asamanta--हिं० संशा पु० [सं० ive.) अश्मंत] चूहा । असब बासिरह, aasabalhe-basiralh-अ० असम asama--हिं० वि० [सं०] जो सम या चातुपीगा नाड़ी, रष्टि मादी। (Optic . तुल्य न हो । जो बराबर न हो । असदृश । nerve. ) 'असमनेत्र asam netra-हि. वि० [सं०]... असबहे मुजव्वफ़ह, aasabahe-mujarva- जिसके नेत्र सम न हो, विषम हों। fun-अ० रष्टिनाड़ी | ( Olfactory ner- : (२) दृष्टि दोष : देखो - असमदृष्टि । ve.) असमबाण asana Vana--हिं. संज्ञा पु. असबहे शाम्मह, aasabalhe-shainman अ० [सं०] पंचवाण । कामदेव । घ्राण नाड़ियाँ । ( Oifactory nerve.) असमवायोकारण asamavayi-karanaअसबहे सामिग्रह, aasa bahe samiaah-: हिं० संज्ञा पुं० [सं०] समघायो कारण का अ० श्रावणी नादिया । ( Auditory ner. . प्रासन कारण। ve.) . असमर्थता asamarthata-हिं. संज्ञा स्रो० असवर aasa bara-० नर चीता । (A ti- [सं०] सामर्थ्यहीनता, दुर्बलता, निर्बखता । ger.) . अलमशर asamashara-हि. संज्ञा पुं० असब(व)रग asba(v)raga । [सं०] कामदेव । अलवर्ग asabarga असमानधूव asamāna-dhruva--हिं० पु... -हिं० संशा पु. [फा०] स्पृका : (See-.: .Spiikki) नुरासानकी एक लंबी घास जिसमें i (Unlike Poles ) पीले वा सुनहले फूल लगते हैं। सुखाए हए । अम्मम् aasam-ऋ० हाथ पाँव धना जाना । फूलों को अमान व्यापारी मुलतान में जाते हैं, असम्म asamma-अ० वह नासिका जिसका जहाँ वे अकल बेर के साथ रेशम रँगने के काम में | छिद्र संकुचित हो । . आते हैं। । असम्म asa mma-१० (५० व०), सुम्म (य० असबा aasa ba--१० लबलाब भेद। ___ व.) अधिर, बहरा । ( A deaf ) असमान aasabana- १० खजूर भेद । (A असर asara-हिं० संज्ञा पु [अ० असर ] kind of date) । (१) प्रभाव । (२) दिन का पौधा पहर । For Private and Personal Use Only Page #842 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ०० असरबक्का साध्य असरबका asara bacca-प्रसारून, तगर। असह asah- हिं० संज्ञा पु. हृदय 1 डि01 म०प्र०। फा० ३०२ भा०।' असा ansa-१० बलह । कसुस । असरा asara-हिं० सभा Forहिं. असाद असाअस āasiasa-अ साही, सेही-हि० । श्रासाम देश के कछारों में उत्पन्न होने वाला एक! खार पृश्न--फा० । ( A porcupine) प्रकार का चावल । असाइफिन aiyphil-इं० देखो-पटॅाकीज़लेट । असरो ansari-१० शाक भेद । ( A sort of : श्रमाउर्गई. aasaurai अ. वीजकन्द, केसरी, _vegetable ) -हि । बतबात ( Polygonnmauricuअसरो asari-ग० भूतकेश, लान्दचात-गम्ब। late, Linm.)। फा० ई०३ भा० । म. बेबिना । प्र०। असरु: asaruh-सं. पु. भूकरम्ब, भूई, कर | असाकल aksaqala. -० कुमात म्व। कुकुरंशोहा-बं०। (See..bhukadarn ba) असकल aasaqala ( खुम्बी)। श० च । (२) कुकरौंधा | A plant (Ce. Agaricus. Isia...) .. . असाक asaqu-50 जर्दाल । देखो-खवामी । असरेली asareli-सिंध० फरारा-पं०। छोटो । असाग़हaaghah-० अाहार अर्थात खान माई, लाल माऊ-हिं० । ( Tamarix |' एवं पेय का कंठ से नीचे उत्तरना। auriculata, Falil:) ई० मेलासागवह, asashar bah-प्र. भोपधि का असल asala हिं.. वि० [अ० ] शुद्ध, । अनुभव तथा निर्माण क्रम । बिना मिलावट का ।-सज्ञा पु दे० अस्ल । मसाढ़ asatha-हिं० संज्ञा पुं॰ [सं०] पापाद असल /-प्रस्तम्बर्दी, दख, दोस. लख. ना ! का महीना । वर्ष का चौथा महीना। सूम, हमार, बज्रा। Bhilrush (इ. हैं । अलाढ़ी Sarhi-हिं० वि० [सं० प्राषाढ़ ] गा.) अषाद का | -संज्ञा स्रो०(१)वह फसल जो अस (स। ल asa,-s-la-अ० सरह । चेकोनदी। अषाढ़ में बोई जाए । खरीफ । 10! (Cadaba Farinosa. Forsk. ) असातुनहल asātumnahal-अ० शहद, मधु । फा० इ० १ भा० । ई० मे० मे । देखो-! Honey (Mel.) कैडेला फैरिनोसा.। सातून sathn • अ० मद्य भेद । वह सुरा जो असलम् asalam-सं० क्ली० (लौह । अंगूर के पानी, शहद तथा कतिपय उरणा श्रोष Iron ( Ferrum ) । (२) अस्त्र । (A | धियों के योग द्वारा निर्मित होता है। weapon in general.) वै० निघ०। असात्म्यः asatanyah-स. त्रि० । असला asala-हिं० संज्ञा स्त्री सर्प भेद। सात्म्य asatmya-हिं० संज्ञा पु... ) असलियह asaliyyah-अ० सलअह लरिग्रहन । प्रकृत्यसुखावह, प्रकृति विरुद्ध पदार्थ । वह नर्म रसौली का एक भेद है जो दबाने से दव। आहार विहार जो दुःखकारक और रोग उत्पन्न जाती है, किन्तु पुनः उभर पाती है। (Soft- करने वाला हो । fibroma.)। देखो-सलमह लरिग्रहनह । । -कला. सात्म्य विपरीत। असलिया asaliya-बम्ब०, गु० चन्द्रसूर, अह- असाध्य asādhya-हिं० वि० [स] (1) लीव । ( Lepidium sativum.) ई. आरोग्य होने के अयोग्य | जिसके अच्छे वा चंगे मे० मे। होने की सम्भावना न हो। जैसे-यह रोग असवः savab-सं०० प्राण । जीव । असाध्य है । (२) जिसका साधन न हो सके। न करने योग्य । दुकर । कठिन । For Private and Personal Use Only Page #843 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir असान ०१ भसामasana-मह, बम्ब०.विजयसार-ज)। तृण तथा वृषके बीच की एक प्रकार की बूटी है।' ( Pterocarpus marsupin:]], यह एक गज ऊँची तथा पुरुप. कलिकाका होती। Roxb:) फा०ई०१भा०। असान asana-मह०, कना० खरका, लम्कना, ! असायरल फतियात asibaail-fatiyata खाज-हि। (Briedelin Retusa, Spr- | - तुझम बालंग. कारनामसानी (U. eng.) फाई.३भा०। हनीफ) | Calamintha clinopodium असान: asano-२० खाजा-हिं । कनेलिया । Benth., (the wild Busil.) फा . (Briedelia montana:) ३भा०। मसान्दु asandu-म.. अश्वगंधा, मस | | असाबइल मलिक asābaail malika-० मसाधु asindhu-मह.. गंध। Withs. इक्लोलुल मलिक। Melilotus offici. nia Somnifera. ) nalis.) असाफीर aasafir-अ० रोदे, बातें, अंतदियाँ असायह स्सफर asabaaissatara-to -उ०। प्रान्त्र-हि..! ( Intestines. ) हंसपदी, गोधापदी । ( Vitis pedate:): नोट-असाफ्रीए का शाब्दिक अर्थ पदी व असाबीन asabia-० (०२०), अबध चिदिया है। कि उदर की अंतदियों में जब (५० व०), अंगुलिया । ( Fingers.) कसकर (पाटोप )होता है तब ऐसा शब्द उत्प होता.जैसा कि पक्षियों का। इस कारण प्रांत्र असावीन asabia-० (ब० व०), उस्म" को उ.माम से अभिहित किया गया। (ए.व. ) एक सप्ताह, सात दिवस, सांत बार । असाव aasab-० हरिण । (Deer) असा aahaar-१० (. २०), असामयिक asamayika-हिं वि० [सं०] असावी. arabia ). अ.स्वा.(ए..वर.), __ जो समय पर न हो। जो नियत समय से पहिले अंगुस्तान, अंगुलियो । ( Fingers) __ वा पीछे हो | बिना समय का । बेवक का। असाथ कन्यान asābaa-qanyān-१० असामर्थ्य asamarthya-हिं० संज्ञा स्त्री. अमिरक । रामतुलसी, अम्बत-हिं० 1 (Oei. [सं०](१) शनि का अमाव । मधमता । mum gratissimum) (२) निलवा । ना ताकती। असायन गुदादी sabai.ghudadi-० असामूसा āas ām āsa-० लान साग । एक लरखे प्रकार का अंगूर । असारम्. asaram-संपु०, क्ली । असार asara-हिं० संज्ञा पु.. । असाब फनasabaa farauna-१० (१) काष्ठ गुरु चन्दन । (A kind of Agएक प्रकार का पाषाण है जो यमन श्रमान देश में ar.) रा०नि०व०१२। (२)मगुरु, मगर पैदा होता है। (Aloe wood.)।(३)जैपाल, जमातअसायन हुमस asabaa-hurmasa-० गोटा ( Croton tiglium, Lirn.)। सूरिआन पुष्प । Hermodactylus, (४)एर मृत (भरण्डी, अण्डी)रेदी का पेड़। ( Flower of-) (Risinus communis, Lin..) श. असाथहर्रसाना asa baairrasani-० एक च०। बटी की जड़ है जिसका रंग हरित तथा श्वेत | प्रसार asara-हिं०वि० [सं०] (1) सार मिश्रित होता है। रहित । निःसार । (३); शून्य ।। रात। असामान उस ल: asabaail-usila-० . संज्ञा पुं० दे० असारम् । For Private and Personal Use Only Page #844 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अंसार असारू असार aasara -१० भेड़िया । (A | मसारह aasarah , wolf.) असार राई asara-rai-अअ बार । (Polygo- ! num bistorta.) प्रसार इधि asara-dadhi-सं० को नवनीत अर्थात मक्खन निकाले हुए दूध से जमाया हुआ दही। गुरग-प्रसार दधि ग्राही, शीतल, वातकारक हलका, विष्टम्भी, दीपन, रुचिकारक तथा ग्रहणी रोगनाशक है । भा० पू. दधि ३० । असारयका, कामन asara bacca-comm. on-० असारून, तगर । असारा asara-सं० स्त्री० कदली वृक्ष, केला।। Plantain ( Musa sapientum. ); वै. निघः । असारून asārun-अ०,सि. सगर भेद, पारसीक सगर । तुक्किर-हि. | (Asarun Ellori peum.) हीवेर वा जटामांसी (...0. Valerionee.) उत्पत्ति-स्थान-फारस, अफगानिस्तान तथा भारतवर्ष । भारतवर्ष में इसका श्रायात अफगानिस्तान से होता है। नोट-तगर, हांवेर तथा जटामांसी प्रभृति एक ही वर्ग की प्रोपधिया है और परस्पर इनमें बहुत कुछ समानता है । अतएव कतिपय ग्रन्धों में इसके निश्चीकरण में बहुत भ्रम किया गया है। इसके पूर्ण विवेचन के लिए देखो-तभर या होवेर। वानस्पनिक-वर्णन यह एक बुटी है। जिसके पत्र लबलाब अर्थात् इश्कपेचा के पत्र के समान होते हैं । भेद केवल यह है कि इसके पत्र द्वतर एवं अतिशय गोल होते हैं । इसके पुष्प नीत वर्ण के, पत्तों के बीच में जड़ के समीप होते हैं। इसके बीज बहुसंख्यक और कुसुम्भ बीजवत् होते हैं। इसकी जड़ें सीण, ग्रंथियुक्त और सुगंधि. युक्र होती हैं। (औपत्रों में यह जड़ ही काम में माती है)। प्रकृति-द्वितीय कक्षा के अंत में उप्य व रूत है। किसी किसी ने तीसरी कक्षा में उष्ण एवं द्वितीय कक्षा में रूस और किसी ने तीसरी कक्षा में रूक्ष लिखा है। स्वरूर-पीताभ । स्वाद-तीक्ष्णतायुक्र वा बेस्वाद । हानिकर्ताफुप्फुस को । दर्पघ्न-मवेज़ मुनक्का । प्रतिनिधिकुलिअन एवं शुठि । मात्रा-५माशे । प्रधानकर्म-मस्तिष्क बलप्रद और शीत प्रकृति को ऊपमा प्रदान करता है। गुण, कर्म, प्रयोग-इसमें काफी उष्मा होता है। अतएव यह यकृदावरोधोद्धारक है। यह प्लीहा कालिन्य को दूर करता है। कयोंकि अ. पनी उष्णता के कारण यह उसकी सहती के माहे को घुलाता है। इसी हेतु पुरातन कूल्हे के दर्द (बजउल वरिक ) एवं वात-तन्तुओं के शीत जन्य रोगों को लाभप्रद है। मूत्र एव प्रात्तव का प्रवत्त न करता है, क्योंकि इसमें दायक (तल . तीफ़ ) एवं बिलायन ( तह लील ) को शनि पाई जाती है । ( नफ़ो.) यह तारल्यताजनक है एवं ऊष्माको बढ़ाता है तथा शोध एवं वायुको लयकर्ता, मस्तिष्क, श्रामाशय, यकृत, वातन्तुओं, पीहा एवं वृक्ष को बल प्रदान करता है। पित्तज एवं श्लेष्मज माहा को मल द्वारा उत्सर्जित करता तथा जीण ज्वर को दूर करता और मूत्र व प्रात्तव की प्रवृत्ति करता है। म. मु.। उपयुक्र औषधों के साथ वा अकेले इसका पीना अपस्मार, अहित, पक्षाघात, इस्तरता ( वातग्रस्तता ), श्लेष्मज आक्षेप, प्रसन्नता, मस्तिष्क एवं योधक तन्तुश्री की उष्णता एवं शनि के लिए हितकर है । गर्भाशय सम्बन्धी शिरःशूल एवं विस्मृति को लाभप्रद है । प्रान्त. रिक शल प्रशामक, जलोदर, अवरोध जन्य पांडु, यकृत् एव पीहा शोथ के लिए उत्तम, गर्भाशयशोधक एवं मूत्रावयव, वृक्काश्मरी तथा वस्त्य. श्मरी को लाभप्रद है। श्रात्तव एवं मूत्ररोध, संधिबात पावशूल, गृध्रसी, और निकरस को लाभप्रद है। बकरी या ऊँट के दूध के साथ शीत For Private and Personal Use Only Page #845 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अारून फु काम शनि का उद्दीपन कर्त्ता है । मधुवारि ( माउल अरज) के साथ एक मिस्कान (४ ॥ मा० ) की मात्रा में है। इसके तेल के यूँ घनेसे विस्मृति रोग नष्ट होता है। इसका अञ्जन कर्निया की बीमारियों को इसका अवचूर्णन वृश्चिक दंश की ओर वक्षय एवं पेड़ पर इसका प्रलेप कामशकि के बढ़ाने में परीक्षित हैं । बु० मु० | अनारून श्रम फर asarúna asfara - सिरि० श्रास बर्री, जंगली हब्बुज अस का वृक्ष | अलारून कैडेन्सी asarin candonsi-ले० शर वाला - फा० । असारून सिरि० । असारून युरोपिश्रम् asarun europum -ले० असारुन, तगर भेद । श्रसारूने हिन्दी asárune hindi फा" तगर (पादिका ) म् । सुम्बुल जिब्ली - अ० । (Valeriane wallichii, D. C. ) असारूम युरोपिश्रम् asarum europåeum, | Jinn - ले० किर-हिं० । असारून श्र० । मेमो० । असालस asálasa-यू० फ्रासरा- अ० । शिवलिङ्गी -f(Bryonia laciniosa.) असालिया asaliya - गु०, बम्ब० असालियो asaliyo-गु० ८०३ असाला asala - हिं० संज्ञा स्त्री० [सं० प्रशालिका ] हाले, चंसुर । चन्द्रसूर । ( Lepedium sativum ) सालीज aasalija o बारीक शाखाएँ या बेल जो वृक्षों पर लिपटती हैं। असा asálu-जयपु० चन्द्रसूर । ( Lepi dium_sativum) यूँ asalyan जय० चन्द्रसूर । (Lepedi um sativum. } असावरी asavari - हिं० संज्ञा स्त्री० कबूतर, कपोत ( A kind of pigeon ) । (२) तूल (रुई) वत्र भेद । ( A kind of cotton cloth,) असितकम् असास asása - अ० बुनियाद, जद, नीव उ० । फाउण्डेशन ( Foundation ) - इं० । अलास ānsása-अ० भेड़िया । ( A wolf . ) असोसनू asásanú-कहज। (Strawberry) -इं०। (Fagaria-Indica. ले० ई० हैं ० गा० । असि asi - हि० संज्ञा स्त्री० [सं०] खंग, तलवार, खाँडा, कटार | ( A sword, a scimitar.) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir असि asi-र० ( ० ० ), असिमियाचा-या संयुकान्तरों में (जि, "ब० व०" जिमियाचा ) गुठली, अस्थि । ( Nut, stone ) स० फा० ६० । असिकम् asikam-o ली० असिक_asika-हिं० संज्ञा पु० चिबुक और श्री का मध्यभाग | हॉट और ठुड्डी के बीच का भाग | हे० च० । अलिकिनः asiknih - सं० (१) गहरे कृष्ण रंग की गाय । ( २ ) पृथ्वी । अथर्व० | सू० १३० । 1 २ | का० २० | सिक्निक, -क्नी asikniká, koi - सं० स्त्री० अवृद्धान्त: पुर पेषी, अन्तःपुर में रहनेवाली वह दासी जो वृद्धा न हो । मे० नत्रिक । दासी । जटा० । सिगण्ड: asigandah सं० पु० सुत्रोपाधान | जटा० । (१) भवबुक, असितः asitah - संo go असित asita - हिं० संज्ञा पु ं० धातकी | धोया गाइ-बं०। ( Woodfordia floribunda ) र० मा० । रत्ना० । -की० (२) काष्ठ अगुरु । ( A kind of Agar ) बै० नि० । ( ३ ) पिंगला नाम की नाही । ( ४ ) कालसर्प । अथर्व० | सु० ४ । १३ | का० १० । ( ५ ) एक प्रकार का सर्प । अथर्व० । सू० १३ । ५ । का० ५ ।त्रि, (हि० वि० ) जो सफेद न हो । कृष्ण वर्ण । काला । ( Black, } असितकम् asitakam - सं० क्ली० काष्ठागुरु | For Private and Personal Use Only Page #846 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - जसितोपत्रम् 6Ssekashthiguru.)-भा० म०. २० मसित शेषम asita-vetyam-सं० लीक मा०या० । सथामालासा, कण-सारित (Ichnocarp. त्रि. (हिंवि०) जो संफेद न हो । कप्या Is frutescens..) या० २० अमृतादि वर्ण, काला । ( Black.) असितका asitaka-संस्त्री कृष्ण श्रमसजिता । असित सारः,क: avita-sarah, kah-स. नीन अपराजिता-बं० । कालो गोकर्णी-मह। पु..तिन्दुक वृखतेंद। (Diospyros cor. ० नित्र। ... difolia.) ०.निघः । प्रालितकादि पूर्णम् asitakidiehurnam, असिता asita-सं० स्ना० (1) द्वस्व नीली वृत्त । -सं० क्ली। प्रामबातम्न चूर्ण विशेष । (A small var. of Indigo.plant.) अक्षिता औरबारमः sitanga-bhairav | ग०नि० व०४ । देखो-- अम्लिका । (२) Orasah-सं० यु. पारा, गंधक, हरतात कालातिविषा, काली निशोथ। (Turpathum प्रत्येक समान भाग लेकर धतुरे के रस से भाचित nigrum )-त्रि० कृष्ण वर्णवाल, काले रंग करें। फिर पारे के बराबर बरखनाग लेकर उसके ! का प्रथर्ष०1 क्वाथ से ३ भावना दे; इसी तरह त्रिकुटा के असितांग asiting.:-हि. वि० [सं.] प्रवाथ और बिजौरे के रस की एक एक भावना काले रंग का ।। प्रसिताअनो asitanjini सं० रो० कृष्ण मात्रा- रसी। कार्यास, काली कपास (Gossypium ni. गुण-सन्निपात, नवज्वर, दंष्ट्र विष, और ! Arun)रा०नि०२०४। देखो-कालाजमो । विशेष कर धनुर्धात में अदरख के रस के साथ मसिसानमः usitānanah-5.पु. कपि,बानर । दें। स० यो० सा०। (A monkey.) हे च०।। असितज फलः asitaja-phalth-सं० पु. असिताबल मोटा asitabala-mori-मं. मारिकेत वृक्ष, मारियल । (00cos nucif- श्री कृष्ण जयन्ती, काली जयन्ती । कान era.) बै० निधन जयन्ती-बं० । Ses baniraculeatia अलित 'तिलः asita-tilah-सं० पु. कृष्या (The black var, of- ) तिल, काला तिल । (Sesamuin nig. गण-कृष्ण जयम्ती रसागन को करने वाली rum) च. द.मर्श-चि०। है । इसके अन्य गुण अयन्ती के गुण के समाम प्रसितमः asitadiumah-सं० पु. कृष्ण हैं। ये निघ। ताल, काला ताइ । ( Burassus flabe. असिताम्रशेखरः asitabhrashekharahlilorimis.) व. निघ०। सं०'नीती , मीन ( Indigofera असित पालवा nsita-pallava-सं० श्री. Indicn:) पिका.। . भूमि जम्बु, भूई जामुन, मदी जम्बू वृत्त । । अन्तिालया asitālaya-सं० नो०(१)नोलदूर्वा, असितफल: isits-paalah-खं० पु. मधु नीलीदूब (Cynodon dactylon.)। . नारिकेल (A kind of cocoanut (२)श्यामानता । (Icinocarpus fru___tree.) . . tescens.) निघ। असितम् asitam-सं० लोग.सं.१६ । ८६ 1 असितालु: asitaluh-सं० पु मील मालु, नीले संदीदास२३४ाका संग काम रा.नि.प.७। असिता asita-valli-सं0 नीजदूरो, असितोपलम् Asitotpalan-संकको नीलो. नीली दूब । ( Chodon dactylon.)| स्पन 1 ( Nymphina atelata) राक 2. मित्र। नि०व०१०। For Private and Personal Use Only Page #847 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir असितः asitah सं०पु.वरवेल, वेलवर, अरुणा । प्रसिप्ररोहः asiprarohab-सं० पु. (Xip प्रसिदष्टः,-2; asidansherah,-kah--सं0 hoid process) प्रसिप्रवदन । नुतू ... मरर | (See-makarah) त्रिका. जरी-श । प्रसिदन्तः asidantab--सं०पु. (..)मकर । असिम Kasima -१०। (Sec-nakar'.) । (२) कुम्भीर, परियाल । असिमिना दिलोया asemina triloba-ले० ('The crocodile of the Ganges.) पोस्ते के बीज । पापा सीध-। बनिघः । असिमेदः asimedsh-सं० प. खदिर चुप, प्रसिद्धः asiddhah--सं• त्रि० बेपका, ग्राम, बिट् खदिर, दुर्गन्ध और। गुयेबाला -पं० । असिख asiddha-हिं०शि० अपत्र, खैरा चे मार-मह । (Acacia -Farneकरचा । रत्ना। siana, Willd.) श० र.1 असि धेनु:, : nsidhenub,--kah- सं०स्त्री प्रतिय्यु asiyyu-4. चिकिस्सिप्त, चिकित्सा (Akuife ) छुरिका । (Sec -chhuriki) हिया हुआ, वह मनुष्य जिसकी चिकित्सा की इस्ला० । हे० च ।। प्रसिपत्रः asipatrah--सं० पु. () असिर iasira-z० कोर, कठिन होना, अंसिपत्र Asipatra-हिं० संज्ञा पु० ) दुःसाध्य । दिक्रिकल्ट (Difficult..) । सहुए वृक्ष, थूहर । ( Euphorbia ne' असिको .sireki० मामला । ( Phyllrifolia) म०६० व०१। (२) इत, anthus emblica.) ईस्त्र | Sugarcane ( Saccharum असिशिम्बी asishimbi-सं० लीगोजिया officitnarum.) प. मु.1 विका०i (३.) सेम, सद्गशिम्बी ।रानि। गुण्ड सृण विशेष, कसेरू । (Scirpus ky. | असी asi-घर० सैंगरी गोंद । soor ) I See--Gundab tro fato असीउराई aasiurrai-अ० साल साग, य० । (४)"" रखेस दर्भ । (deershve. राजगिरी, रामदाना । ta-darbhab.) रा०मि. व. १४।। असोतिका asitiki-सं० श्री. विष्णुकान्ता । अलिपत्र तृणम् asipatra-trinam-स केय दे०नि०। कनी गुण्डा तृण, तृण विशेष । गुण्डागवत असीतिका asitika-स. स्त्री० कुरौंधा । -मह। रा०मि.च.८। (Blumea lacera. ;) गुण-शीतल, मधुर, कफ वातनाशक, रकदोष, भतिसार तथा परम दाहमाशक है । यह | मंसीद asida-३० वा व, टेली गईमपाता। बोध व नधु भेद से दो प्रकार का होता है। इसमें | असीदह, iasidah० एक प्रकार का वीर्घ गुण में अधिक है। 4. मिथः । असिपत्रिका usipatrika-सं. नी. केवड़ा, असीनूष asinuba-फो० एक अप्रसिद्ध कृत है। केतकी (Pandamus odoratissim. (An unini portant tree. ) us.) अलीफ़ asifa-० ओसनिक सी बात मैं दुखी Rionchothahtoti हो जाए, वात प्रगति का मस (Nervous) असिपुष्छ asipuchchha-हि. संज्ञा पु.।। (1) जलचर विशेष । मगर, शुशुक-40। असीफरह aasifarah 1 . एक पीत .. '( A kind of aquatic animal)। सीकीre aatifirah स्तुहै। (२) कृषी मछली को पूष से मारती है। सीasi ba- सजूर भेद । ( A kind of date). For Private and Personal Use Only Page #848 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir असीम असुरा असोम āasina-१० ( 1 ) स्वेद, मैल कुचैन । अनुखम् asukhum सं० कली. दुःख । (Pa. (२) निशान, प्रभाव in. grief.) हेच. असोम और अर्क का भेद-स्वेन को अ अजुद asnda-बं० पीपल, अश्वत्थ । ( Ficus और जब वह शुरुक होजाए तो उसे असीम कहते _religios.1.) फा०६०३ भा० । भधारणम् asudhāranam-सं० क्ली. असीर aasira-अ० स्वरस, निचोड़, रस-हिं० ।। जीवन, जीवन धारण । Juice (Siccus, ) अनुन्धा asundha-गु० असगंध, अश्वगधा। असोर कुप्पो aasiraikuppi-१० कुप्पी स्व. | ( Vithanin somnifera..) ई० मे० रस ।(Succus acalypha) मे । असीर तरओल aasira-taranjila-१० | अतुपाला asupāla -बम्ब०, ग. अशोक । असार बञ्ज ansira-banja-१० पारसीक (Saraca Indica. Linn.) फा०ई० यमानो स्वरस । (Suceus hyocyami.) १ भा० । असीर मिश्रा aasira-niadi अ० रतूबत ! अयुग्म् asuram-सं० नो० (3) सामुद्र मिदी, प्रामाशयिक रस, रतूबत मेदा । Gas. लवण । ( Sea-silt.) मद० व० ।-पु. tric juice, ) (२) देवदारु वृक्ष । Kedtus disodtra.) असीर यबकज aasira- yubrāja -१० व निध० जीण ज्वर लवंगादि। बिलाडोना स्वरस । ( Succus Bellado. प्रस्तुर asura हि. संज्ञा प० [सं०] (1) na.) रात्रि । (२) पृथिवी । (३) सूर्य । (४) असारले ३asira-demui-अ० नीबू का रस, यादल । (१) वैद्यक शास्त्र के अनुसार एक निम्बुक स्वरस । ( Suceus ]imonis.) । प्रकार का उन्माद जिसमें पसीना नहीं होता और असीर शोकरान ansira-shikarāna-अ. रोगी ब्राह्मण, गुरु, देवता श्रादि पर दोषारोपण शौकरान या कोनाइम स्वरस । ( Succus किया करता है, उन्हें बुरा भला करने से नहीं conii.) हरता, किसी वस्तु से उसकी मृप्ति नहीं होती अमीर सिनुल असद aasira-sinnul-asin- और वह कुमार्ग में प्रवृत्त होता है। da-49 zinant traat er 78 (Succus ugr agura-F1970 Tre, ai i Sina pis taraxci. ) racemosa, Roxb.) मे० पला । असाल aasila-१० इस्ति शिश्न, हाथीका लिंग। अनुरः asurab-सं० पु. "असुप्राण रक्षयति ( Elephant penis, ) पालयनि इति भूत असुरो वैधः" अर्थात् जो प्राणों प्रसीली सकान ansili-sagana-रू० पापाण- की रक्षा करे। प्राणदाता । प्राचार्य । वैद्य। भेद । (Coleus aromaticus.) अथर्व। असीस asisa-० लगन, ससला, वह बर्तन | अनुग्रहः asura.grahah-सं० पु. भत जिसमें प्रण .धोकर डालते हैं या जिसमें व्रण को ग्रह विशेष । मा० नि० । धोते हैं। ( Tray.) अरसा asurasi-सं०स्त्री० वर्वरी, वन सुलसी। शासुः aszh-सं० पुं०). वाबुइ तुजसी-बं० । (Ocimum basilअसु -हिं० संज्ञा प. (१) प्राण, प्राणवायु।। icum.) र. मा० । (Life, breath, the five vital bre- | अगasuri-स० स्रो० (१) रजनी, रानि, रात aths or airs of the body.) भम० ।। ( Night.) । (२) हरिदा । ( Ourcu. -क्ली० (२)चित । ( Miad,) उरणा० । na longa.) मे रत्रिक। For Private and Personal Use Only Page #849 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir असुरादि अमन प्रस्टोल असुरादि अझन asuradi.tun jana-सं० पु. रक । रुधिर । शोणित । ( Blood. ) रा. काँसा के मैन का चूर्ण और कस्तूरी मधुयुक नि० व०१८ । कर अञ्जन करने से सन्निपात की बेहोशी पोर : असकर: astikkarah-सं० पु. शरीरस्थ रस तन्द्रा दूर होती है। धातु, रस । ( Chyle.) हे. च०। असुराहम्,-ह्वा usurāhvan,-hva-स० नो. असूकपः,-पा asrikpah, pa.सं. पु., स्त्री० खी. कांस्य, काँसा । ( Bronze.) हे. जलायुका, जलौका, जो के। Leech च.। (Hirudo.) अ० टी० भ० । असुराहपतङ्गः asurāhva-patangah- असृगुत्थः asrigutthah-सं०ए०, कती. सं० पुं० तैलपायी, तैल पायिका । तेला केशर | saffron (Crocus gutivus.) पोका, प्राशोला-0! "असुराल पतंगस्य विट्- असम्गदः asrirgudah-सं असृग्गदः assiggadah-सं. पु. कोष्ठ । चूर्ण मधु संयुतम्" च धकम् । (See. koshtham) वै• निधः। असुराहघि asurāhva-vir-सं० पु. कांस्य असृग्दरः asrigdarah-सं० पु. (Alenoमल, काँसे का मैल । 4निघ०२ भा० ज्वर ! ___rrhagit) रक्र प्रदर। मा० नि० | सु० असुराद्यञ्जन । शा०२०। देखो-प्रदर। असरी asuri--सं० श्री. रागिका, राई । राइ असृग्दर शैलेन्द्र रसः "सर्वाङ्ग सुन्दरः" asji. सरिषा-बं० । ( Brassica juncea.) प्र० gdaru-shailendra-rasah- सं० पु० टी.भ०। रक्तप्रदरोक रस विशेष । असुरु asuru-नेपा० तगर ! ('Tabernae- भसृग्ध (ग्धा) रा asrigdha"gihi",-1 montana coronaria.) -सं० स्त्री. धर्म, स्वा । (Skin) प्र. प्रसुव asuva-१० प्रण प्रभृति पर मलहम का टी. भ०। फाहा रखना, ग्रण की चिकित्सा करना । असृणम् asrinam-सं० क्ली० स्वर्णगैरिक, असुस्थ: aslusthah-सं. त्रिक सोनगेरु-हिं० । सुवर्ण गिरि माटी बं० । असुस्थ asusthau हिं० वि०पू० Red ochre (Ferrum Ilaematite) रोग ग्रस्त, रोगी । ( Sick.) वं. निघ० । असूई ashi-fk. स्त्रा० अरुई । (Artum nyinphacifolium.) ई०हैं. गा०। अमृतम् asritam --सं० त्रि. प्रसिद्ध, अपक्व । रत्ना० । असतिका ashtika-वह गंडमाला जिसमें पीप न पैदा हुई हो | अथ 01 प्रसपाटो astipati -सं०स्त्री . रक धारा । असूपा कारक insupa-kārak-सं० फीकी । | अ० टी० सा०। प्रसाई asoi-हिं० ओ० रुई । (Arum nym. असेक aseka-कुट्टक, अशोक । (Saracandphacifolium ) इ. हैं. गा। _ica.) असंकोचनोय asankochaniya-सं० पु. सेन्दा asenda--हिं. तिनस, सान्दन । जो दबने के योग्य न हो । जो न थे। ( ] (ए)सेप्टोल aseptol-६० काय:कारल वा mpressible.) अथर्व। गंधकाम्ल (Sulpho.car bolic Acid): असक asrik-सं० पली०, हिं• संज्ञा पु० (१) देखो-काबलिकाम्ल (Acidum Carboli. स्पृका नामक गन्ध द्रव्य । See-sprikka.. bum). (२) कुकुम, केशर । Saffron ( Crocus | असेपरोल nseprol - यह धूस वर्ण sativus.) रा०नि०व० ११ । (३) अस्टॉल abrastol jका एक चूर्ण होता है For Private and Personal Use Only Page #850 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सेरेकी ८०८ जो कि जब और मद्यसार में सरलतापूर्वक तय हो जाता है । देखो - नेपाल | असेरेकी asereki - ते० श्रमला। (Phyllanthus Emblica . ) असेलु, aseli नेपा० गेम्बी | मेमो० । असैड् asain--बर० ससि, सेजि । हरित, हरा 1 | अम्कनद askanah अ० मि.. सब, बरमा, मी, fer करने का यंत्र | गिमलेट Gimlet - ६० । अस्कुन asganna - मय; सुरा | (Wine) अस्कन्दरूस askandarús - रू० ( १ ) (Onion) (२) । लहसुन । ( Garlic.) ( Green ) सं० [फा० ई० । अखांक 29oka -हिं०, ब०, ते० ( १ ) देव दारी मेमा० हिं० संज्ञा पु०, कना० (२) अशोक पाल ( Jonesia asoca, Li असोज :asoja--६० सौंज्ञा पु ं० [सं० श्रश्वयुज् ] आश्विन । कार ( The sixth solar month.) सांस्थापिकापेशी :usotthá piká peshi - हिंο संज्ञा स्त्री० (Levater Scapule) कंधे को उठाने वाली पेशी । असोथ asothi -ता० अशोक (Saraca indica, Linn ) मेमां० । असौंध asoundha हिं० सज्ञा पु ं० [ अ=नहींहिं० सौंध = सुगंध ] दुर्गन्धि | बदबू | असोरा asorá--बालछ । (Nardostachys Jatamansi.) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir tranquility. ) N.) । ( ३ ) शइति शोकरहितता । ( Ease | अस्कुलिया तीस asqaliyátiqus-यू० गुलनार ( Punica granatum, Ling); া अलोका asoká-६० अशोक | (Saraca i- शुस्कलानुस āasgalánurrás dica, Linn.) लाए सर, दिया। असोकदा asokadá--कना, अशोक (Sara | ca Indic", Linn) ६० मे० मे० । असोग asoga - हिं० पुं० (1) A tree ( Uvaria longifolia ) | ( २ ). शांति, शोकरहितता । ( Ease,Tranquility.) अस्कलानूस aaeqnlinus -०. एक अप्रसिद्रा बूटी है जो रेतीली और पर्वतीय भूमि पर उगती है । • - शु० भेड़िया । (A wolf) रु श्रस कङ्कर asqanqur - अ० देखो - सक्र... अस्कतान askatan कर्म-अ० ( १ ) अस्कतानः । गर्भाशय की दोनों ओर । ( २ ) इस्कतान अर्थात् भग के दोनों किनारे या भय की दोनो ओर । अस्कुली म्यूसasgali-byús यू० (Asclepio) यह चिकित्सा कलाका प्राषिकर्ता एवं सर्व प्रथम प्रसिद्ध निपुण यूनानी चिकित्सक है 1 मस्कामूनगम् askámtagam- ० श्रजमीढ़ ( Carum Roxburghianum, Benth. ) मेमां० । अस्फुट askuta - लेक फलञ्च, नंगकी-चनाव० /, राइबीज़ ऑरिएर देखी ( Ribes orient ale, Pir ), रा० बाइलोसम ( R. Villosum, Wall, Roxb. ) - ले० । ग्वालदाख, कवक, कघन-उ० ए० ० | ग्रे ( स्पिटि०) (N.Osurifagea. ) उत्पत्ति-स्थान- काशमीर, दतियाना | प्रभाव तथा उपयोग- इसका फल ( Be. rry ) एक या दो की संख्या में एक समय ने से ग्रामीण लोगों के विचारानुसार यह उत्तम विरेचक है। इं० मे० प्लां० । अस्कुल: aasqul -म० कुमात, खुम्बी । For Private and Personal Use Only अलस asaas अस्वास āasāás असास āasas असू.रा asaira-बिन्दाल, बडाल, देवदाली || श्रसाकुल asáqul } ( Agaric ) (Ecbellium, elatarium.) अस्कलह, āaaqulah-g] फ्रेद गरे । Page #851 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir • अस्खार 208 अस्तलोबाम अस्खार askhar-तोदरी । ( Lepidium | अस्तम् astam-सं० क्ली० iberis, Linn.) अस्त asta-हिं० संज्ञा प. अस्जद asjad-१० सुवर्ण, सोना । Gold i मृत्यु । (Death.) हे० च० ।-त्रि. वि० नष्ट । ( Aurum.) ध्वस्त । अस्टिलेगा मैडिस ustilago-maidis, tev. 'अस्तन astan-हिं० संज्ञा प० दे० स्तन । pille:)-ले०। कॉर्न स्मट (Corn smut), | अस्तबल astaba!-हिं० संज्ञा प...[१०]. कॉर्न अर्गट ( Corn Ergot )-इं० । वन्ध्या | धुड़साल । तबेला । (A stable.) मकाई, भुट्टा का कण्डो ( लोढ़)-हिं। अस्तबूब as tabub-फा. एक वृक्ष है। उत्पत्ति-स्थान--भुटा ( Zea mays ) अस्तमती astamati-सं० स्त्रो० शालपर्णी । का पराश्रयी कीटाणु । ( Hedysarum gangeticum.) श. र.1 प्रयोगांश-तुषरहित फणस । अस्तमन बेला astaman-bela-हिं. संज्ञा रासायनिक-संगठन तथा लक्षण -ये विषम ____ स्त्री० [सं० ] सायंकाल । सन्ध्या का गोलाकार समूह रूप में जो कभी कभी छः इच समय । मोटे होते हैं, पाए जाते हैं । इन पर एक स्याही | अस्तमित astanit- हिं० वि० [सं०] (1) मायल झिनी होती है, जिसके भीतर असण्य, ___ नष्ट । मृत । (२) तिरोहित | छिपा हुआ । श्याम धूसर वर्ण के गोलाकार लघु ग्रंथिवत् दाने प्रस्तर astar-हिं० संज्ञा पु० [फा० । सं० ( बीज ) होते हैं। स्तु आच्छादन, तह ] (1) नीचे की तह वा गंध तथा स्वाद-अप्रिय । इसमें एक उड़न | पल्ला । भितहा। उपल्ले के नीचे का पक्षा। शील क्षार, एक स्थायी तैल और एक स्त्रीरोटि- | अस्तर astar-फा० खच्चर । ( A mule..) काम्लवत् ऐन्द्रियकाम्ल इत्यादि होते हैं। अस्तरक astiirak-फा० सिलाजीत । ( Com. श्रीषध-निर्माण-विचूर्णित कॉर्न अर्गट-१० ____nion storax)-ई० । ई० हैं. गा। से २० ग्रेन (=५-१० रत्ती); तरल सत्व- | अस्तरखा astarkha-लाल हाताल ( मैनसिल १० से २० मिनिम (बूंद)। वा मनःशिला)। ( Realgar.). प्रस्तर astaranga-फा० प्रयोग - अर्गट ऑफ राई के समान औषः | धीय गुण-धर्म में, जिसके यह बहुत समान है | | अस्तरज as taraj-मुक तथा जिसे बहुत से चिकित्सक तत्तुल्य लाभदायक ___ यबरूज, बिलाडोना । Belladonu (Manऔर अर्गट ऑफ राई की अपेक्षा अपने प्रभाव में dragora officinalis. ) ई० है। अधिकतर अनुरूप मानते हैं, यह उत्तम गर्भ- ! गा० । शातक एवं रकस्थापक गुणपूर्ण है । इसके द्वारा अस्तग astara-हिं. पु. पाप्रा । Seeउत्पम गर्भाशयिक प्राकुचन सदा विरामसहित áptá I. होता है तथा अगेंट के समान लगातार बावल्य अस्तराई astai ai-तु० गोलमिच | (Black नहीं होता । पैसिव रक्तक्षरण में प्रगट को अपेक्षा pepper.) यह श्रेष्ठतर स्याल किया जाता है और शुक्रमेह, | अस्तरून astarun-० गुलाव भेद, गुलेनस्त्रीन । विचचिका ( Psoriasis ), प्राईकंड | (Ros: rubiginosa) ई० हैं.गा। ( Eczema ), तन्तुमय अर्बुद और | अस्तलस astalas-यू० कफरुल यहूद । (A तत्तुल्य साधियों में भी यह लाभदायक | kind of stone.) विचार किया जाता है। पी०वी० एम०। अस्तस्लोषान astalobān-हिं० संज्ञा पु. १०२ . For Private and Personal Use Only Page #852 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १. भस्ताकोस स्थायी दाँत सिलारस 1 (Western frankincense). दूर करनेबाला, जर्राह, मलहम पट्टो करनेवाला । म० अ० । फा०६०.१ भा०। सर्जन (Surgeon.)-ई। सु०। मस्ताकीस astakis-फ्रां० एक बालिश्त के बरा- अस्त्र चिकित्सा astra-chikitsa-सं0.( हिं० बर (ऊँची) एक अप्रसिद्ध बूटी है। संशा) स्त्रो०(१) वैद्यक शास्त्र का वह अंग अस्ताते सुर्व state sur bu-फ्रां. शीशक जिसमें चीर फाड़ का विधान है। सर्जरी (Su. शर्करा, शीशक लवण-हिं० । खातुर्र सास- अ०। rgery.)-इं०। इल्मुल जराहत, फ्रने जर्राही ( I'lumbi acetas. ) प्रस्ताफ़ायस astafayas1 -यु० गाजर,गजर।। (२)चीर फाड़ करना। अस्त्र प्रयोग। अस्तून astina | 'The carrot अस्त्र द्वारा प्रगत श्रादि की चिकित्सा करना। (Daucus carrota. ) जर्राही । इसके प्रा भेद है:-(क)छेदन नश्तर अस्ताफालियूस astafaliyus-यू. जंगली । लगाना । (ख) भेदन-फाइना । (ग)लेखन . गाजर । (Wild carrot.) खरोचना, छीलना । (घ) वेधन-सूई की नोक प्रस्ताफियूस astafiyās-.यू. (1) मवेज, से छेद करना । (च) मेषण धोना, साफ द्राक्षा, मुनक्का | Uvie, Syn. Uvie pas | करना । (छ) बाहरण काट कर अलग करना । . ste ( Raisins.) (ज) विश्रावणा-फरद खोलना । (क) सीना= प्रस्ताफियूस अगरिया astaliyās-aghriya | सीना या हाका लगाना । सु०। .. --यू० पहाड़ी मवेज़, पर्वतीय द्राक्षा । (Wild अस्त्रजित् astra.jit-सं० पु. कवाटवक वृक्ष । _raisins ). . कबाट बेटु, कराडिया-हिं० । रस्ना ! Seeअस्ताम astām--ौलाद । ( Steel) kaváți-vakram. अस्ति asti-सं०, ब०, मल० अस्थि, हड्डी । Bo- 1 "! अत्रवेद astraveda-हि. संज्ञा पुं॰ [सं०] ... nes (Ossa ) स० फा० इ.! वह वेद जिसमें अस्त्र बनाने और प्रयोग करने अस्तीकरि asti-kari-मल. अस्थि अंगार, हड्डी का विधान हो । धनुर्वेद । का कोयला । (Animal charcoal.) अस्त्र वैद्यः astra.vaidyah-60 पृ. अस्त्र सः फा०६० . चिकित्सक । (A surgeon.)व निधः । अस्तूम asthma-फा० नम्ज, सूम । (Bull qapalastra-shálá .rush.) ई० है० गा०। अस्त्रागार astragaran अस्तू स āas busa-अ. वृक्षभेद । ( A sort. [सं०] वह स्थान जहाँ अस्त्र शस्त्र इकट्टे रक्खे • of tree.) ... जाम्। अस्त्रम् astram-सं० क्ली० । अन astra हि संसान (1) श्रायुध, अनसम् ustrasain-सं० को एक धात नव . विशेष। (Strontium.) शस्त्र, हथियार । चाप, धनुष (A wen pon अस्त्राघातः astrigliatah-सं० प अस्त्र in gamera}; A missile weapon.) प्रयोग, अस्त्र चलाना, हथियारसे चोट पहुँचाना । (२) करवाल ! ढाल | मे• रद्विक । (३) व निव०। . व्याघ्र नख( The tiger's nail.) । (४) ! अस्थायी asthayi-हिं० वि० [सं] अस्थिर, या जिससे चिकित्सक चोर फाड़ : नाशवान । ( Temporary.) करते हैं। FETTI T astháyi-dánta-fša g'o अस्त्र चिकित्सकः astia-chikitsakali- ( Decidus or milk-teeth.) पतन सं० ए० अस्त्रवैच, शस्त्र वैचु अस्त्र द्वारा रोग शोल वा दुग्ध दन्त । अस्नानुलग्न-अ.। }-हिं० संज्ञा पु. For Private and Personal Use Only Page #853 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अत्यावर মণি सं० अस्थावर asthāvara-हि. वि. घर, चल । अस्थिजः as thijah-सं० पं. मजा । ( Bo(Moverble, moving.) ___ne marrow.) रा०नि०व०१:। संशा पु. जंगम । जो स्थावर न हो अर्थात् चर अस्थिजननी ॥sthi-janani-सं० स्त्री. वसा, वा चलने फिरने वाले प्राणी यथा मनुष्य, पश, मेद धातु । (Adeps.) 2. निध०। पक्षी आदि। अस्थितिस्थापक asthitisthapaka-हिं० अस्थि, कम् asthi,.kam-सं० क्ली० वि. ( Inelastic.) जो स्थितिस्थापक न अस्थि asthi-हि. संज्ञा स्त्री० हो । जो लचीला न हो। हड्डी, धातु ( नन्तु ) विशेष! Bone (OS) अस्थितुण्डः asthi-tundab-सं० पु. एक अजम-अ०। पूर्ण विवेचन हेतु देखो-हहो। पक्षी विशेष । ( A bird.) श० मा० ।। अस्थिकर्कटिका : asthi-karkkatiki-सं० । अस्थितोदः asthi-todah--सं० प. (Ost.. स्त्री० एक वृक्ष विशेष । algia..) अस्थि पीड़ा, अस्थि में सूची भेदनअस्थिका asthika-सं. स्त्री० नघु अस्थि ।। वत् पीड़ा होना । हहफूटन, हड्डी का दर्द । । निघ० । अमुल अजम-अ०। अस्थिक्रतasthi-krit-सं० प. वह जिससे | अस्थिधरकला asthidhara-kala) अस्थि अने, अस्थिका बनाने वाला, मेद धातु, रस अस्थिधरा asthi-dhara . रकादि सात धातुओं में से चतुर्थ धातु विशेष । स्त्री० अस्थ्यावरक। ( Periosteum.) (Adeps.) हे त्र० ।-त्रि० अस्थि का (बना) सिम्हाक, जरीह, गिशा अज़मी.-०। अस्थित् अन्तःस्थ क.f asthi-krit-antahs | अस्थिधातुः asthi-dhi thah--सं० अस्थि तन्तु tha kitina-f० सज्ञा ए. (Osseous (Osseous tissue. । नस्ज अज़मी.-१० । le byrinth.) अस्थिमय गहनम् । देखो-हड़ो। अस्थिगत ज्वरः asthi-gata-jvarah-सं० अस्थिपञ्जरः asthi-panjarali--स० पु.. 'ग'. तदाश्रित ज्वर, हड्डी में रहने वाला ज्वर, कङ्काल , ठठरी, ढाँचा । स्केलेटन ( Skel. अस्थि के प्राश्रय से रहने वाला स्वर । ___eton )-इं० । र. निव०१८। । ... लक्षण - अस्थिभेद, कूजन अर्थात् घुरघुर | अस्थिफलः asthi-phalali-.सं. ए., पनस शब्द का होना, श्वास, अतिसार, वमन तथा । वृक्ष, कटहल । (Artocarpus integशरीर का इधर उधर पटकना ये लक्षण अस्थिगत rifolia.)--इं० । ज्वर में देख पड़ते हैं । व निघ्र० । अस्थिभङ्गः asthi.bhangah--सं० पु, चिकित्सा-त्रमननाशक औषध, वस्तिकर्म, क्ली० (१) अस्थि विश्लेष, हड्डीका टूट जाना । अभ्यंग और उद्वर्तन प्रादि द्वारा इसका प्रतीकार इन्किसारुलअजम, कस्त्र--१०। ( Fractu. .. करें। .. 're.)। कांडभग्न तथा सन्धिमुक्रि (संधियुति, अस्थिग्रंथि: asthi.granthih--सं०प०, संधि भ्रंश) भेद से यह दो प्रकार का होता है। स्त्री० ग्रन्धिरोग। .. . पुनः संधिमुक्र के ६ तथा कोडभग्न के १. भेद अस्थिच्छलितम् asthi-chebhalitam-सं० होते हैं। सु० चि० ३ ०। विस्तार के लिए को उक्र नाम का कोडभग्न ( बीच से अस्थि उन उन पर्यायों के प्रागे देखें । देखो-भग्नम । . भग्न) अस्थि विशेष यदि अस्थि एक तरफ नीची अस्थिसंहार, हरसंकरी ।( Vitis हो जाए और दूसरा टूटा हुआ भाग सा हो तो | quadrangularis.) - उसे "अस्थिच्छलित" कहते है। सु० नि०१५ अस्थिभंजक asthi-bhanjaka-हिं० संज्ञा ०। देखो-भग्नम ... - - पु (Osteoclast) अस्थिनसक। . . . . . . For Private and Personal Use Only Page #854 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मस्थिमतः अस्थिसाता अस्थिमतः asthi-bhakshath-सं० पु. (पृक्ष के नीचे का) भाग । यह बहुत ठोस, कठिन (१) कुक्कुर, कुत्ता (A dog.) । (२) और मजबूत होता है । इसका ही अस्थिवरक कहते TIITTI (A jackal ) gitto: अस्थि भक्षा asthi-bhakshi-सं० रा. पर्ण- अस्थि विकाश ustri.vikasha-हिं० संज्ञा पु. बीज, ओषधि विशेष, हेमसागर । घायमारी, (Ossification.) अस्थि बनना । तथा ज. घायपात-मह ज़हमे हयात-फा (Kalan- --अ०। chr laciniata, D. C.) वै० निध० । अस्थि विकाश केन्द्र asthi.vikasha-kenदेखो-ज़ख़्मे हयात। dra-हिं० संज्ञा पु सेण्टर श्रॉफ अस्थिभेद asthi.bheda-हिं० संज्ञा पु० अस्थि । प्रॉमिनिकेशन ( Centre of Osiभंग हड्डी का टूटना ( Fracturing, breu fication. ) ई. । मकं तशजमिय्यह.. king or wounding a bone.) -अ० । यह स्थान जहाँ कारटिलेज । कुरी ) के अस्थिमा asthi-majja-हिं० ० (Bone.i __ भीतर सबमे पहले अस्थि बनती है, अस्थिवि. . marrow.) अस्थिसार । देखो-मरा। काश केन्द्र कहलाता है। अस्थिमय गहनम् asthim.iyu.guhanam अस्थिवेष्ट asthi-vasht...हि. संज्ञा पु. -सं० लो० प्रस्थिकृत् अन्तःस्थ कर्ण । (Osse. i श्रवमध्यानरक, अस्थियों के ऊपर सौनिक तन्तु से ous labyrinth.) निर्मिन चढ़ी हुई एक झिल्ली विशेष। (Periअस्थि मम्मे astiii-imarnunu-सं० ली । _osteum) सिम्हाक-अ० । मर्म विशेष । ये संख्या में पाठ हैं। यथा---कटि | अस्थिशोथ asthishotha--हिं० सज्ञा प... में तरुण नामक २, नितम्य में २, असफलक में अस्थिपदाह । (Ostoitis ) २ तथा दो दोनों शखा (कन पुटियों) में हैं । सु० अस्थिशोष asthis :osh -हिं० संज्ञा शोष . शा०५ अ०। रोग, सूखा रोग, अस्थि नैवल्य । ( Dryness अस्थिर asthiru-हिं० वि० इसका & decay of the bones; rickets.) शाब्दिक अर्थ चंचल, अस्थायी (Usteady, अस्थिकला-लिका asthi shrinkhala,Unstable, ) है, किन्तु वैद्यक की परिभाषा lika-सं. स्त्री. अस्थिसंहार । हड़जोड़, में इससे अभिप्राय उस संधि से है जिसमें गति अस्थिशृङ्खल-हिं । हाइजोड़ा-य० । गुण-वृष्य, हो सकती है अर्थात् चल या चेपटाबंत संधि ।। श्ले'माजनक, मधुर, रक्रपित्त और वायुनाशक ( Moveable-joints. ) देखो है। मद० ब०७१।। संधि । अस्थिरूवातः asthi-sanghatah-सं. पु. अस्थिर कठोरता asthiya.kathorata-हिं० ! अस्थिमेलन स्थल, हड्डी के शृङ्गादक। ये 10 इस संज्ञा पु. ('Temporary hardness.) प्रकार हैं, यथा तीन-तीन एक-एक पाँव में ( एक सणिक कठिनता । अस्थायी करता। गुल्फ, एक घुटमा तथा एक जंघामूल में )* अस्थिर, वृr asthiszt-vrikka-हिं० संज्ञा पु. और ३-३ एक एक हाथ में (, पहुँचे, । कुहनी (Moveable kilingy) गतिमान वृक और १ खोदे में) अर्थात् कुल १२ हुए। एक विशेष। निक स्थान में और एक शिर में ऐसे सब १४ अस्थिवत् asthivat-दि० वि० अस्थि के समान, हए (किसी किसीके मत से ये अस्थिसंघात 12 हड्डी जैसा ! ( Bolly, OASDOS. ) होते हैं अर्थात् १४ प्राक्कथित और १ पत्र में अस्थिवल्क sthi-valka-हिं०संज्ञा (Cor. ! जिसे कौड़ी कहते हैं तथा ! दोनो नितम्बों के tex of bone.) अस्थि का सबसे बाहर का | बीच में जिसे दूढी कहते हैं और दो दोनो अंसकटो For Private and Personal Use Only Page #855 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir .अस्थि सम्मानकरः अस्थिसंहारका .. पर इस प्रकार कुल १८ हुए )। स० शा• अस्थि संहतिः asthi.san hatih-सं० पु. ...५० । देखो-सन्धिः । .. अस्थिसंहार । ( Vitis quadrungula. अस्थि सन्धानकरः asthi.sandhāna-ka- ris.) मद० वर ७॥ ran-सं.पु... रसोन ताशुन, लसून । Garlic | अस्थि संहार:-क: asthi-sanharuh,.kah. (Allium sativum. ) वै० निघः । -सं० पु. (१) हस्तिशुशिद, हाथासुण्डो । अस्थिसन्धान जननी Rsthi-sandhāna jari हाती शुंडे-बं० । ( Heliotropium ind nani-सं० स्त्री. अस्थिसंहार । हड जोड़ iucm, Linn.) --हिं० । ( Vitis quadrangularis. ) ! (२)हाइ जोड़ (हा), हरजोका, हर (ब)स. वै० निघ०। री, हद सहारी, हड़जोड़ी, हरसङ्गारि, हजुरी, अधि सन्धिः asthi.sandhih-सं०० (१) नल्लेर-हिं० । नल्लेर-द. । बज्रवल्ली,प्रन्थिमान्, अस्थि सम्मेलन स्थान, हडिया का जोड़ ( A1- कुलिशं, अमरः (२०), शिरालकः ( श.), ticulation, joint.)। (२) मर्म स्थान । अस्थि सहारी, वज्राङ्गी, अस्थि मजला-60। देखा-धिः। हद जोड़ा, हाड़िय, होड़जोड़ा, हाइभांगा-ब० । अस्थि समुद्भवः asthi-samudbhavish- वाइटिस क्वान युलेरिस, ( Vitis qun. -सं० पु मजा । (Bone.marrow.) ditiligularis, Truth.),सि-सस काई ङ्ग वनिघ०। युलेरिस Cissus quadrangularis-ले. अस्थिसंधि शोथ astlhi-sandhi-shotha विग्नी एट रेजिन्स डी गैलम Vixneet -हिं० सशा पु. (Osteo-k. thritis.) Raisins de Glam-फ्रां० । काहिए, - सन्धिस्थ अस्थिप्रवाह। पेरुण्डेइ-काडिए, पिरराडै-ता। नल्लेरु-तीगे, मस्थि सन्धिकः asthi-sandhikah-सं० नुल्लेरुतिगट्ट, नाल्ले ई-ते। वेरण्टा, पिरण्ट, पु. अस्थिसंहार, हर जोद । (Vitis qus. इस्गगालम परेण्ड ..मल। मगरूलि drangulkris.) भैष । --कना० । चौधारि तरधारी,हादसांकल, हादसाअस्थिसम्बन्धन:asthi-sambandhana':- किला, हडसर-ग०। शताबन-ले-घर० । सं० पु. राज, धूप । धुनो-401 ( Resis) हिरेस्स-सिं०, सिंहली । चौधारी, निधारी, कांड व.निघ०। वेल,हाइ संधी-मह । हाड़ सांखल-दे० । तिधारी, अस्थि सम्भवः asthi-rambhavati-सं० कांडवेल, हारजोड़ा-को । हर संकर, हाइजोड़ा, पु., क्ली०(१)मEL (Bone-marro. नवर, कांजवेल, चोधारी-बम्ब०।। w.) । (२) शुक्र धातु । (Semen vir. द्राक्षायगं ile.) निघ०। (1.0. Ampetidee.) अस्थि सम्भव स्नेहः asthi-sambhava) उत्पत्तिस्थान-भारतवर्षके उष्ण प्रधान प्रदेश, अस्थिसार: asthi-sarah पश्चिम हिमवती मूल से ( जैसे कुमायू) लंका सं० पु. मज्जा । ( Bone-marrow.) और मलक्का द्वीप पर्यन्त तथा अरब । दक्षिणा व निघः। भारत के जंगलों में यह अधिकता के साथ अस्थि संस्थान asthi-sansthan-हिं० प. होता है। . इडिया, अस्थि समुरक्ष्य,अस्थिविभाग । (Oste- वानस्पतिक-वर्णन-अस्थिसंहार घृक्षायी ology,skeletal system.) महसुन् वा भूलुरित होता है जिसमें सूत्रवत् मूल होते इलाम-१० चिकित्साशास्त्र का वह भाग जिसमें हैं। काण्ड ( मरीन) गम्भीर वा पांडु हरिद्वर्ण, अस्थियों का वर्णन किया जाए। मसूण, वाल वा मालाकार, चतुष्कोण क्वचित - Snehahe For Private and Personal Use Only Page #856 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अस्थिसंहार - अस्थिसंहार त्रिकोण, पनाकार और संधियुक, होते हैं। प्रत्येक जोड़ विनित लम्बाईका(२४ व होता है। यदि कोड से एक ग्रंथि काटकर जत्तिका से दाँक दी जाए तो उसने एक सुदीर्घ जता उत्पन हो। . जाती है। इसीलिए इसका एक नाम काण्ड.. वाली है। . . . ! (Stipule ) चन्द्राकार, अखंड़, पत्र अत्यंत स्थूल एवं मांसल, विषमवर्ती, साधारणतः । निखंडयुक, हृदण्डाकार, ( Serrulatid); धुन्त हस्त्र; फूल छध्याकार, लघु वस्तक, श्वेत व हस्त, पराग केशर ५; दल ; प्रशस्त फल मटरवत् बत्तु लाकार, अत्यन्त चस्परा बा कटुक ... (यह उसमें पाए. कानेवाले एक कार के अम्ल के कारण होता है), एक कोप युक्र, एक बीज..युक; कोज एकान्तिक,अधाडाकार एक कृष्णधूसर स्पावन कोष से श्रावृत्त होता है; प परहस्त्र, श्वेत और वर्षा के प्रत में प्रगट होते हैं। . . नोट- इसके कांड में भी यही स्वाद होता है. इसकी एव द्राक्षा की अन्य जाति के पौधे -की उक्र चरपराहट खटियः काष्ठेत (Calcium ox lante.) के सूच्याकार स्फटिकों की विद्य. ..नता के कारण होती है। पौधे के शुल्क होने पर . ये स्फटिक टूट जाते हैं एवं जल में क्वथित करने से वे दूर हो जाते हैं। . . . प्रयोगांश-सर्वांग ( काण्ड, पत्र आदि)। मात्रा-शुष्क चूर्ण, १८ रत्ती वा २ मा... प्रतिनिधि-पिपरमिण्ट और कृष्णजीरक । अस्थिसंहार के गुणधर्म तथा उपयोग आयुर्वेदीय मत से... वात कफ नाशक, टूटी हड्डी का जोड़नेवाला, ''। गरम, दस्तावर, कृमिनाशक, बवासीरमाशक, नेत्रों को हितकारी, रूखा, स्वा, हलका, बल- कारी, पाचक और पित्तकर्ता है। भार प०१. भा०1 शीतल, वृष्य, यातनाशक और हड्डी को जोड़ने । वाला है । मद०व०१ . ... वज्रवल्ली ( हड़जोर) दस्तावर, रूक्ष, स्वादु ...(मधुर.), उष्णवोर्य, पाक में खट्टा, दीपन, वृष्य । एवं बलगद है तथा क्रिनि और बवासीर को नष्ट करता है। प्रशं में विशेष रूप से हितकारक "और अग्निदीपक है। चतुर्धारा को वली (चौ. धारा हड़जोड़ ) अत्यंत उण और भून बाधा - तथा शूल नाशक है एवं ग्राम्मान, वात तिमिर, वातरक, अपस्मार और वायु के रोगों को नष्ट करती है। वृहनिघण्टुरत्न कर) .. अस्थिसंहार के वैद्यकीय व्यवहार चक दत्त-मनगंग में अस्थिसंहार--संधि. युक अस्थिभग्न में अस्थिसंहार के कारको पीसकर गीत तथा पुरध के साथ पान करें। यथा-- - "प्रकृतेनास्थिलहार* संधियुक्रेऽस्थिभग्ने च पिवेत् क्षीरेण मानवः" । (भग्न-चि०.) . भ व पबश-वायु प्रशमनार्थ अस्थिसंहार मजा-अस्थिसंहार के ढार की छालको छीलकर उस लकड़ी का चूर्ण १ मा० तथा छिलकारहित किसी कलाय की दाल. ( प्रातहर होने के कारण माप कलाय. अर्थात् उहद उसम है) प्राध मासे ले दोनों को सिन पर बारीक पीसकर तिल के तेल में इसकी मगोरो बनाकर खाएं । ये मगौरी प्रत्यक्ष वात नाशक हैं । यथा-- ... ... ... "कांड स्वग्विरहितमस्थिशृङ्खलायामापा द्विदलमकुचकं तदद्धम् । सम्पिदै तदनु ततस्लिालस्य तैले सम्पक वटकमतीव वातहारि ॥" भा० । त्र० द० अ० पि०, अभ्र शुद्धौ । . वक्तव्य . चरक, राजनिघण्टु तथा धन्वन्तरीयनिघण्टु में अस्थिसंहार का नामोल ख दृष्टिगोचर नहीं होता है । सुश्रुताक्त भान रोग चिकित्सा में । अस्थिसंहार, का पाठ नहीं है। चक्रदत्तके समान वृन्द ने भग्नाधिकार में इसका व्यवहार किया है। राजवल्लभ लिखते है। स्थिमानेऽस्थिसहारी हितो बल्योऽनिलापंहः।" अर्थात् हड्डियों के टूट जाने में अस्थिसहार हितकर है एवं यह बल्य और वातनाशक है। - यूनानी मतानुसार प्रकृति-उष्ण व रूहं । स्वरूप-नवीन हरा और शुष्क मूरा । स्वाद-विकका वकिञ्चित् तिक एवं कषाय । For Private and Personal Use Only Page #857 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अस्थिसंहारः .. .. अस्थिसंहारः . में उक पौधे के वण न देने का कारण यह है कि टिप्लिकेनमें एक श्रादमी जोकि चिरकारी एवं हठीले (Obstimate) अजीण से चिरकाल से पीड़ित था १० दिवस तक उऋ. मुरब्बाके सेवन के पश्चात् वह बिताकुल रोग मुक्त होगया । (मे० मे० .. हानिकर्ता-उष्ण प्रकृति को। दपन--धुत। प्रतिनिधि--जीक की पित्ती। .. प्रधान क.म-सबल भग्नास्थिसन्धानक ।। मात्रा-२ मा० । । गुण, कर्म, प्रयोग-प्राचीन यूनानी ग्रंथों में हड़जोइका उल्लेख नहीं पाया जाता । अर्वाचीन | लेखकों ने अपने ग्रंथों में जो इसके संक्षेप वर्णन दिए हैं वे केवल श्रायुर्वेदीय वर्णन की प्रति । 'लिपि मात्र है। वनस्पति विषयक कतिपय उदू ग्रंथों में लिखा है कि "प्रायः गुणों में यह गु.डुनी। के समान है। परन्तु यह परीक्षणीय है। इससे पारद की भस्म बनती है। चु० मु० । म० मु०। नव्यमत मोहीदीन शरीफ़--इन्द्रिय व्यापारिक कार्यप्रामाशय बलप्रद (पाचक ) तथा परिवर्तक (रसायन ) । उपयोग-अजीण में इसका लाभदायक प्रयोग होता है । औषध-निर्माण-मुरब्बा-नवीन तथा कोमल कांड के छोटे छोटे टुकड़े करें और प्रत्येक टुकड़े को को चनी से कोच डाले (जिस प्रकार मामला का मुरब्बा बनाते समय अामलों को एक विशेषयंत्र द्वारा कोंचते अर्थात् उसकी चारों और गम्भीर छिद्र कर डालते है । पुन: उन टुकड़ों को जल में कोमल होने तक कथित करें' । इसके बाद पानी को फेक दे और टुकड़ों को हलके हाथों से • निचोड़ ले । फिर उनको चूणोदक बा १ ड्राम (३॥ मा०)से ४ पास पर्यन्त कार्बोनेट श्रॉफ सोडा विलीन किए हुए जल में क्वधित करें और पूर्ववत् तरल को फेंक दें। इस क्रम को दो तीन बार और काम में लाएँ अथवा इस . फ्रम.. को तर तक दोहराते रहें जब तक कि वे किसी ..प्रकारको चरपराइटसे शून्य एवं कोमल न होजाएँ।। तदनन्तर उनको स्वच्छ उष्ण जल से धोकर और कपड़े से पोंछ कर शर्करा के साधारण शर्बत में | डाल कर सुरक्षित रक्खें। सप्ताह पश्चात् यह प्रयोग | में लाने योग्य हो जाएगा। मात्रा-२ से ४ डाम तक २४ घंटे में २ या ३बार । डॉक्टर महोदय लिखते हैं कि इस ग्रंथ - डोमक-इसके ताजे पत्र एवं काण्ड का कभी कभी शाक रूप से व्यवहार होता है । पुरा. तन होने पर थे चरपरे हो जाते हैं तर इनमें प्रौषधीय गुण धर्म होने का निश्चय किया जाता है, फा० ० १ मा०। ऐन्सला लिखते हैं कि तामूल चिकिरसक अग्निमांद्य जन्य कतिपय प्रान्त्र रोगों में इसके शुक कार के चूर्ण का व्यवहार करते हैं। ये सशक्र परिवर्तक माने जाते हैं और लगभग २स्क्रप्ल २॥ मा०)की मात्रामें इसका चूर्ण किचित् तण्डुलोदक के साथ दो बार दैनिक व्यवहार में श्रा सकता है। फोस कहल ( Forskahl) वर्णन करते हैं कि मेरुदंड विकार से पीड़ित अरब लोग इसके कांड की शय्या बनाते हैं। कर्ण त्राव (पूति कण') में इसके कांड स्वरस द्वारा कर्ण पूरण करते हैं तथा नासार्श वा 'नासासाबमें इसे नासिकामें टपकाते हैं। अनियमित ऋतुदोष तथा स्की के लिए भी यह प्रख्यात है। प्रथन रोग में २ तो. म्वरस (पौधे को उष्ण करके निकाला हुश्रा), २ तो० घृत और १-१ तो. गोपीचन्दन (श्वेन मृत्तिका विशेष ) तथा शर्करा में मिलाकर दैनिक उपयोग में श्राता हैं। फा० ० १ भा० । मे० मे० ऑफ ई० आर० एन० खीरी। बैल्फर ( Balfour ) राजयक्ष्मा में इसके कांड का कल्क व्यवहृत होता है । आर. एन खं रो-अस्थिसंहार रसायन तथा उत्तेजक है । यह अजोण, अग्निमांद्य एवं स्क रोग में व्यवहत होता है । प्रार्द्र अस्थिसंहार को पीसकर अस्थि विश्लेष, अस्थिभग्न किम्वा क्षत पर प्रलेप करते हैं । ( Materia For Private and Personal Use Only Page #858 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अस्थिसहारिका,-री अस्थ्यांतरिक बंधन Medica of India- R. N. khori. | अस्थूरि asthuri-दोष रहित । अथर्व । सू० Part 11., p. 136.) प्रार० एन० चोपरा एम० ए०, एम० अस्थ्यकार: asthyangadh-स. प. डा०-इसके पन एवं कांड दक्षिण भारतवर्ष में हद्दीका कोयला I ( Aniin it carcoal, कदी के साथ व्यवहार में पाते हैं। मदरास में Bone charcoal ) पौधे के नवांकुरों को अन्तधूमाग्नि द्वारा भस्म । अस्थ्यन्तरीय asthyantariyavस. त्रि० कर इसको अजीण एवं अग्निमांद्य में बरतते हैं। ( Interoseous ) दो के भीतर का । अस्यान्तरिका पेशियाँ isthyan tarika अस्थिसहारिका,-री asthi-sanhārikari peshiyan-स. स्त्रोक ( Interossei) सं० स्त्री. अस्थिसंहार । ( Vitis quad अस्थि के भीतरी तरफ की पेशी । rangularis.) भा०पू०१ मा०। अस्थि सहन् asthi-sankrit-स. प. अप्पावरrasthyavaraka अस्थिसंहार । ( Vitis quadrangu- यावरmasthyavirana laris) च० द. । भैष० भग्न-चि०। -हि.प. अस्थिवेष्ट । ( Periosteum) अस्थिसारः asthi-sārah-स. पु. मजा। सिम्हाक, ज़री-१०। अस्थियों के ऊपर सौनिक ( Bone-!!Harrow)। रा० नि.व. तन्तु से निर्मित एक झिल्ली चढ़ी रहती है इसको १०। भस्थ्यावरक कहते हैं। अस्थिसार स्थिता ॥sthisār-sthita-सं० श्रद asda-० शेर, सिंह । (A lion.) ना० मजा । ( Bone-marrow.) अस्.दरान asdar an )-अ० वह रगें जो अस्थिस्नेहः Asthi-snehah- पुमजा। अ.दग़ान asdaghan दोनों कनपुटियों - मजन । (Bome-marrow) रा०नि० । के नीचे स्थित हैं । पुइपुड़ियों की रगें। असदी asdi-० (ब. ३०), स.दी (ए. अस्थिस्नेह सश: nsthisneha sanjayah व.) स्तन, कुच सी का हो अथवा पुरुष का । -सपु मज्जा । मगज हिं० । (Marrow, (Breasts.) Pitb ) + fao 49 94 असदुल अदस asdul-aadsa-० (१)गरट, अस्थिस्नेह सञ्चार: asthi-sneha-sancha. गिर्गिट(Chemelion )। (२) माज़रियून । rah-स. पु० मज्जा, मज्जन । (Ma (Mazariyun.)। (३)एक अप्रसिद्ध बूटी है । rrow) जिस बूटी के समीप यह होती है उस बूटो को यह अस्थिप्रेस asthisransam.-स'. क्लो नष्ट कर देती है। हड्डियों को तोड़नेवाला. अथर्व। . अस्दुलअर्ज Asdul-arza-० (१ ) गिर्गिट, अस्थिक्षय asthi-kshaya-हिं० सज्ञा प. [स0 ] अस्थि तोष, अस्थिनैर्बल्य । ( Ric. शरट ( Chemelion. ) । (२) एक अप्र सिद्ध अोषधि है जिसके लक्षण के सम्बन्ध में kets.) मतभेद है। कोई कोई इस्नीस. को कहते हैं । अस्थीकरणम् as thikaranam-स. फ्ली. . अस्थि विकाश, अस्थि बनना, कुरी का अस्थि | भस्नः asnah-सं० पुलाजरस । अथवं० । बनना । (Ossification)। ताज म-अ० अस्थ्यांतरिक बंधन asthyantarika-ban. अस्थीयम् asthiyam-स. क्ली० (Oss. dbana-eio ato (Interosseous li.... ein.) अस्थि का। . gament,) अस्थि का भीतरी बंधन | For Private and Personal Use Only Page #859 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रस्नहाने अस्प(र) भस्महान asnahan -सं० देगी (कमल के समान देवदारु, देवदार की जाति का एक पेड़ । ( Ced एक पुष्प है। ___rus Deodaya.) रा०नि० स० १२ ॥ अस्नाख asnākh-अ० ( १०व०), सन्न अस्निग्ध लक्षणम् asnigdha-lakshanam ( ए.क.), दन्तमूल | (Root of tee. "सं० ला० अस्निग्ध अर्थात् रूक्ष के लक्षण । th.) यथाअस्नान asnāna-१० (२०५०), सिन (ए. गोठदार पाखाना का होना, रूक्षता, वायुविकार व०) (१) दम्त, दाँत (Teeth.)। (२) मदुता, पका हुआ सा होना, खरस्व और शरीर प्रायु, अवस्था । (Age.) देस्त्रो-सिन्न। की रूक्षता ये अस्निग्ध के लक्षण है। अस्नानुलफ़ार ashanuifāra-अ. शाब्दिक अर्थ मूग दंत, ( चूहे का दात)पारिभाषिक "पुरीषं प्रथितं रू वायुरप्रगुणो मुदुः। अर्थ नख के वे बारीक तीपण तन्तु जो नखके सिरे पक्रा खरवं रोयच गात्रस्यास्निग्ध लक्षणम्॥" के समीप फटजाने से उसमें उत्पन्न हो जाते हैं | (च. सू० १३ अ० ) या नख के मूल में होते हैं। | अस्प aspa फा० अश्व, घोटक । (A horse.) अस्नानुल लुब्न asnānul-lubna-१० अस्नान | अस्पगोल aspaghola ) -फा० ईसब. लुम्निय्यह । दुग्ध दंत, दूध के दाँत । दन्दाने शीर अस्पग़ल aspaghala गोल,ईषद्गोस । -फा०। (Milk teeth) (Ispaghula.) अस्नानुलह (हि)ल्म asnanul-hu(hi)Ima' अस्पक्ष aspanja- अस्मा । अभ्रमुर्दा, मुन्ना -अ० अस्नानुल अनल । बुद्धि दन्त-हिं० । दन्दाने बादल, स्पक्ष । (Sponge.) अनल, अनल दाढ़ें-फा०। ( Wisdom teeth.) अस्पताल aspatalu-हिं० संज्ञा पुं॰ [ ई. अस्नाने कवाति asnāne qavatia-अ० - हॉस्पिटल ] औषधालय । चिकित्सालय । दवाअग्रदन्त, छेदक दंत । दन्दाने पेश-फा० । (In. ख़ाना । risors.) अस्पदन्दा aspa-dandai-फा० (तिनि, अस्नाने कयासिर asnāne-kavāsira-अ. पारिभा०) नुश्काबीन ( एक प्रकार का मधु भेदकदन्त, रदनक । दन्दाने नीश-फा० । (Ca- __ जो अत्यन्त शुष्क होता है)। nipes, Capine tooth.) अस्पदरियाई aspa-dariyii-फा सुत्र अस्नाने तवा ह न asnane-tavāhuna-१० मा.-१० । दरियाई घोड़ा । चर्वणक दन्त । दन्दाने प्रासिया, पीसने वाले नोट-कहा जाता है कि यह जानवर मिश्र ति-30। (Molars. ) देश में नील नदी के भीतर होता है। इसके पाँव अस्नाने दाइमिह Ranane daimih-१० गोपाद सदृश होते हैं | पुच्छ वाराह पुच्छ सरश स्थायी दंत । दन्दाने मुस्तकिल, मुदामी दोन-उ०।। और स्वरूप घोड़े का सा होता है। यह घड़ियाल ( Permanent teeth.) श्रादि समुद्री जीवों का अाहार करता है। म.स्नाफ़ asnafa-१० (२०५०), सिन्झ (१० अस्पनाज aspa-naja-फा०पालक । (Spinaव. ) भेद, प्रकार । ( Kinds.) अस्निग्ध asnigdha-सं० त्रि०, हिं० वि० पु. ___cea oleracea.) __जो स्निग्ध नहो, रूक्ष । स्निग्धता का अभाव। | अ (इ) पद ai-spanda-फा० राई। देखोअस्निग्धदारु-कम् Asnigdhadāru,- 1 इस्पन्द । (Ispanda.) kam-सं० स्त्री अस्परक asparaqa-फा० पीली जहमायमाया। अस्निग्ध दारुक asnigdha.daruka. (Delphinium zalil, Ailch.) -हिं० संज्ञा पु.० | अस्प(र) asparka-हिं० तिरीर (ई. में १०३ For Private and Personal Use Only Page #860 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अस्पग़म ८१ प्लां०), जिरीर (मेमा० ) -- फा० | बनपिरिंग बं० । ट्रिपलियम् श्रॉफिसिनेली ( Trifolium officinale, Fild ), माली लोटस ऑफिसिनैलिस (Mellotus officin alis) - 1 इक्लो लुल्मलिक - अ० । या शिम्बी वर्ग स्पर्शा asparshá सं० स्त्री० श्रकासवेल, श्राकाशवली । थालोकलता- बं० ( ('useuta reflexa ) रा०नि० ब० म अस्पस्त aspasta :-फा० नस्तरन, व्रत, अस्फ़न asfatia 1 कमीज़ह, तर्फ़ील, दमचह । (Trifolium pratensis) इ० हैं ० गा० । अ (ऐ) स्पाइरोन aspirine - इ० देखो -- ऐस्पाइरीन | अ ( प ) स्पालेन्स इण्डिकस aspalanthus indicus, dinsle - ले० शिवनिम्ब-मह० | ( Indigofera aspalanthoides, Paht.) फो० इ० १२.० १ अस्पालांटा aspalota - जलपीपर, तबूढी, चुकन । ना० २ भा० । देखो - जलपिप्पली । स्पियूल aspiyúsa - अ० इस्पगोल, ईसबगोल, ईषद्गोल | ( Ispaghula ) अस्पोडियम् फिलिक्स मैस aspedium fil ix mace-ले० मेलफर्न । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अस्फटिकीय श्रस्पीड स्पर्मा aspedosperma-ले० एक पौधा है । स्पीड स्पर्मा का लंङ्का aspedosperma cubreko blanco ले. एक पौधा है । अस्पेरगasperg-फा० श्रस्फक फा० | जरीर- अ० । त्रायमाण, गुले जलील-बम्ब० । गाफ़िज़ पं० । ( Delphinium zalil, fitch, et Hemsley.) फा० ई० १ भा० । श्रस्रजी aspergi-फ्रां० नागदौन - हिं०। (Artemisia vulgaris . ) (NO. J.reguminose) उत्पत्तिस्थान -- नुब्रा तथा लेदक | प्रयोगांश- चुप । उपयोग – यह खुप स्वस्थापक हैं | व्रतों पर भी इसका उपयोग होता हैं । वैट । अस्पर्गम् asparghan - फा० रैहा । (Oci | अस्फāasfa - अ० श्रन्तिम श्वास मरणावस्था, मरणासन्न, मुमूर्षु | mum basilicum, Line) (इ) स्पर्ज़ह a-i-sparzah - फ़ा इस्पग़ोल । ईसबगोल, ईषद्गोल - हि० ( Ispaghula) अस्पतparta] क़फ़ रूल् यहूद | यह एक प्रकार का पापामु हैं 1 See-qafrul-ya पाइण्ट श्री डेध ( Point of death. )-go! अस्फच asfaa - श्र० श्याम, काला । ( Bla húda. ck.) अस्फङ्कारून asfangárúna-रु० अस्फुञ्ज asfanja --फा } श्रश्र मुर्दा, सुश्रा बादल, स्पञ्ज । Sponge (Spongia officinalis, ) अस्फ़ज का जलाना अर्थात् संख्तह करना मुत्रा बादल के जलाने की विधिअस्फञ्ज अर्थात् मुश्रा बादल को साबुन से धोकर भली भाँति निचोड़ कर शुल्क कर लें । पुनः इसे बारीक कतर कर मिट्टी के बर्तन में रखकर अग्नि पर इतना जलाएँ जिसमें वह पीसने योग्य हो जाए । परन्तु इतना न जलाएँ कि जलकर राख हो जाए । तत्पश्चात् यांगों में प्रयुक्त करें । ध्या० ६.० भा० ३ । अस्फअ मु.हरिक asianja-mahrig अस्फुञ्ज सांखना asfanja sokhta For Private and Personal Use Only ऋ०, फा० जलाया हुआ मुश्रा बादल | अस्फटिक asphatikiya - हिं० वि० वह जिसके स्फटिक अर्थात् रवे न हो । बेरवा | अमूर्त | स्फटिक रहित | ( Amorphous. ) Page #861 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अस्वल प्रस्फन्द' asfanda-फा (१) सनद राई : अस्फांद asfada ( White-imustard)। (२) दोलू, अस्फाद सुफेद asfada.sufeda हुमुल । (३) अस्पन्द । (Rutu allufi -फा. राई । ( Sinapis amosn.) lora.) ई० है. गा। अस्फानाख {sfanakha-अ. पालक | (Spiअस्फन्दान asfandana nacea oleracea. ) अस्फन्दा स फेद asfanda safoda . अंकानाख रूमी व हिन्दी Asianakharumi. फा. सफ़ेद गई । ( White lustardi Vin-hindi-फ़ा. वास्तुक, बथुप्रा । seed. ) | अम्फार्गीन asfairghina-. एक बूटी है अस्फन्दान asfandan-फा० भद्य भेद । ( A जिसकी शाखाएँ सौंफ के समान प्रादि में मृदु kind of wine.) किन्तु पश्चात् को कोर एवं हरी हो जाती है। अफर asfara-अ० जई-फा० । पीत, पीला, नागदौन | देखिो-ऐसपैरेगीन ( Asparagin ) पीली-हि. । ( Yellow. इतिब्बा ने इसकी अस्फोक्सिया aspliiksiya-१० इस्तिनाक, पाँच कक्षाएँ स्थिर की है-(१) तम्बी, (२) दम घुटना, दम बन्द होना-उ० । श्वासावरोध, उन्त्र जी, (३) अशकर, (३) नारी और (५) श्यास का अवरुद्ध होना । (aphyxia.) श्रह मर नासि । अस्तु उन उन पर्यायों के अस्फुट asfuta-हिं० वि० [सं० ] (1) अर्द्ध सामने देखो स्वच्छ । जो स्पष्ट न हो । जो साफ न हो । (२) अस्फरक asfaraka-फा० एक श्याम वर्ण का । गूढ़ । जटिल। पक्षी है जो घरों में पाला जाता है। इसकी चोंच | अस्फुट दर्शक asfura-darshaka-हि. वि. पोली होती है। इसे पढ़ाया जाता है तथा यह- अर्द्ध स्वच्छ, अस्पष्ट दर्शक । ('ranslu. मनुष्य से प्रेम करता है। cent.) प्रम फर फाकि asfur-faqia-अ० घन पीत, अस्फोडेलस फिस्टयलोसस asphodelus अत्यन्त पीला, गहरा पीला। ( Deep ye fistulosus, L.inn.-ले• पियाजी, बोकार llow.) -पं० । प्रयोगांश-पौधा व बीज उपयोगअस्फरागोयुस asfarāghoyusa-यू०बिएडाल, औषध तथा खाद्य । मेमो०। atl( Ecbellium elatariuni.) अस्मांतः asphotah-सं० पु. काञ्चनार वृक्ष, *** कचनार । (Bauhinia variegata.) वै० अस्फराज asfaraja-इन्दुलि० नागदौन । देखो - निधः। अस्फार्गीन । ( Artemisia vulga. is.) अरब(बु)अ asba,-bu,a-१० (ए० व०) असावियू, असाबीन (ब० व० ), अंगुश्त, असफ़गन asfarina-१० जिह्वा तथा हृदय ।। उंगली-उ० । अंगुली-हि. । ( Finger.) (Ihc-art and tongue.) अस्वन्द as banda-हिं० संज्ञा पु. [ अ.] अस्फरे बर्ग asfare-bali-फा० बादावद इस्बन्द । ( Peganum harmaja.) -हिं०, बम्ब०। (Volutiurella divari. | अम्बर aasbara-० नर चीता । (A malecata, Benth. ) फा०६०२ भा०। tiger.) अर फह. asfah-स० विशाल ललाट, विशाल स्वर्ग as barga-हि. प० ग़ाफ़िस । ( Delमास्तिकेय, चौड़े माथे बाला । ____phinium saniculuefolium.) अस्फाक a falka फा० प्रायमागण, बलभद्रा ।। अस्वल asbal-अ० लम्बी मूछोंवाला, वह मनुष्य अभि०नि०। जिसकी मू. बड़ी बड़ी हों। For Private and Personal Use Only Page #862 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८२० अरबाग अस्वाब साविकह अहवाग asbagha-१० (ब० य०) देखो-- में प्रगट करें या शारीरावस्था को सुरक्षित रक्खें, Area I ( Tinctures, ) पुनः चाहे वे प्राकृतिक हो या अप्राकृतिक । अस्वान aasbāna-अ० स्खजूर भेद । (A kind | अस्वाय गदिश्यह, asbaba badiyyah ० of date. ) प्रस्वास खार्जियह, आस्वाब मेखान्किय्याइ । बाह्यअस्वाय asbabit-अ.( यव०), सबब (प० कारण । वे हेतु जो मनुष्य शरीर के बाहर व०)- वैद्यक की परिभाषा में वह वस्तु जो । अाक्रमण करके अपना प्रभाव स्थापित करें, मनुष्य शरीर में रोगारीग या हालते सालस इ. जैसे शैत्योष्णता श्रादि ।(External or Lo(अवस्थात्रय ) को उत्पन्न करे अथवा उसको cal callses.) सुरक्षित रखे, चाहे वह वस्तु शारीरिक या अशारी. PETIT #for, asbába-ınádiyyah रिक तस्व हों या अर्ज । -१० वे हेतु जिनपर रोगाशेग को आधार हो । __कारण, निदान, हेतु । (Causes.) देखो अवाब मु.ज़ादह, asbaba-mumaitdah सबब। -० अमिति घातक कारण जो शरीरको हानि माइब्तिदाइय्यह asbaba-ibtirlaiyyah) पहुँचाते एवं उसे नष्ट कर डालते हैं, जैसेअस्थात्र अवलियह Asbabit., viraliynha तलवार या गोली का घाव, विषपान तथा अन्नप्रस्बाव भरलयह. asbaba-astiyah मग्नता प्रादि। -०किसी रोग आदि कारण । इनका समावेश अस्वब मुतम्मिमह. asbaba.itamini. प्रस्तुतः अस्याब साचिका (प्रारम्भिक कारण ) | Imah-अ० वे कारण जिनके शरीर पर प्रभाव ही में होता है । (Primary causes, करने के पश्चात् तत्काल रोग उत्पन हो जाएं। Ultimate causes. ) समिकृष्ट कारण । अस्वाब कुल्लिय्यह. asbiba-kulliyyah | अस्थाय मुर्गिजह asbaba-in marriznh -० वे हेतु जिनके होने से नवीन चीज़ों का -१० रोगोत्पादक कारण, रोग संजमक होना अनिवार्य हो । अस्वाब ख.सूसिय्यह Asbabakhususiyyah अस्याब वासि लह asbaba-vasilah -०चे मुख्य हेतु जो किसी प्रधान रोगको अस्वाय कृर्गवह asbaba-Mari baha उत्पन्न करें। जैसे-प्लेग तथा विशूचिका विष जो प्रस्वाब सानो यह, asbaba-sanoyah ) उक्र रोगांको ही उत्पन्न करते हैं। (Specific -अ० वे कारण जो शरीर में विद्यमान हों और causes.) बिना किसी अन्य कारण की अपेक्षा करते हुए अस्वाब तमामिय्यह. asbaba-ta.mami- शरीर में कोई अवस्था उत्पन्न करें। जैसे-अफyyah-१० वे कारण जिनसे शरीर अथवा नत ( सई ध) बिना किसी अन्य कारण के शरीर की किसी अवस्था विशेष की पूर्ति होती अफ नती ( पचनीय, दूषित) घर उत्पन्न कहै। ( Complimental causes.) रती है। (Immediate causes, Prox. नोट-उफ अरबी परिभाषा सामान्यतः इल्मे imate causes.) हिकमत में सबवे गाई अर्थात् किसी काम की अस्वाब साविकह asbaba-sābiqah गायन व ग़र्ज के लिए बोली जाती है। प्रम्बार मुहहह. asbaba-muaiddah अस्थाय फलिय्यल asbaba-fsailivvah | अस्थाब यई.दह, asviba-baaidah •अ० वे कारण जो रोगारोग अथवा हालते मा. -अ० वह कारण जो मनुष्य शरीर पर सहयोग लसा (अवस्थात्रय ) में से किसी एक को शरीर द्वारा प्रमाव करें अर्थात् शरीर को किसी दशा के For Private and Personal Use Only Page #863 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अस्याब सित्तह प्रस्ता लिए तैयार करें; किन्तु स्वतः उसको उत्पन्न न अम्मग्यफनम् asmagdha-phalam-सं० करें। जैसे-म्ति जाऽ(शरीर का दोष पूर्ण होना) को कटहल,पनस । (Artocarpus inte. शरीर को दूषित जबरी के लिए उथत बनाता है, grifolia) किंतु पिना सहयोग के दोष उसको नहीं उत्पन्न अस्मस्वेदन Swas vedan-सं० प्रस्तर स्वेद । कर सकते | प्रीहिसपोजिंग काँजा ( Predisposing causes.); रीमोट कॉजोज़ (Re अस्मङ्गल गएडा simingal.ganda-हि.पु. mote causes.)-इं। गसरगढ़ ( एक भारतीय बूटी है जो भूमि पर E71faat, asbába sittah प्रापछादित होती है। पन कन्दरी सहश और मत्सय सित्तह जकरियह as baba.sittab.li मूल ककोड़े के समान तथा विषमतल होते हैं)। zaruriyah लक०। अस्वाब जरूरियह, asbaba-zarüriyah | अस्वाब आमिय्यद, as baba-aamiyyahi प्रस्मन्तम् as mantum-सं० क्ली० चुल्ली, चूल्ही -० ६ प्रसिद्ध कारण जो जीवन के लिए प्राच (रहा)। उनन, श्राका-बं०। चुल-महः । शक हैं, जैसे-(.) वायु, (२) खाना (A fire-plice.) अ० टी० भ०। पाना, (३) सोना जागना, (४) शारीरिक अामन्ति का as mantiki-20 स्रो० प्रापटा । गति एवं विम, (५) मानसिक चेप्टाएँ । अस्मर asimar-ऋ० गन्दुमा, गन्दुमी रंग। एवं शांति और (६ ) संशोधन एवं संग गेहूं का रंग, गोधूम वर्ण, धूसर पण, भूरा. (अवरोध)। हि । ( Brownish) ... . अस्वाय सूरिश्यह. asba basuriyyan-अ.} अस्मसों asmarsa }.नीचा भेट । रचनात्मक वा प्राकृतिक बातें और जो उनसे | अश्मMashmarshal सम्बन्धित हों। अस्मानिया asnāniyi-40 बूतशूर, बूदशूर, स्त्रितालियबह. asbitaliyyab-अ. यह खन्ना, चेत्रा। (Ephedra terardiana, हॉस्पिटल ( अंगरेजी शब्द ) से भरबीकृत शब्द | Wall.) मेमा० । है अर्थात् हस्पताल, शिफारवानह । अस्पताल, अस्मानी गलगोता asmāni-galagota-गुरु, चिकित्सालय-हि०। ( Hospital,infer.. द. जंगली बवेण्डर । mary.) | अम्मालावन asinilavan-यू० सौसन बरी अस्वितालिय्यह, नकाल asbitiliyyah-na (एक सुगंधित पुष है जी सोलन के नाम से qallah-अ. रणभूमि से आहत प्राणियों को | प्रसिद्ध है)। यह बागी भी होता है। . ले जाने की डोलियाँ प्रभृति । (Ambulance.)| | अस्मितः asmitah-सं. वि. विकसित, खिल्ला अम्बूर as bur-१० स्पोर से अरबीकृत शब्द हुमा । फुटन्त-१०। ( Blowu, opened:) है जिसका अर्थ बीज या कीटाणु है । (Spore) वे. निघ01 .. अह..म aasina-अ० धूम्रवायु भक्षण, माहार आदि जिसमें धूम्रगंध श्रागई हो। अस्मोलस asmilds-यु. लोबान का सत, लोबा. भस्मग्य वृक्षः Asmagdha-vrikshah-सं० निकाज । ( Aciduin benzoicum.) पु. भाम्रातक, अम्बाडा, अमदा । (Spo अनियून as muniyan-यु० सदा, सुफ़ेदा । ndias nangifera) लु. क०। (Plumbi carbonas.) देखो--सीसक। प्रामग्ध कन्तू asmagdha-kantu-सं. अस्सा asimusa-यू. जंगली गाजर, बन्य मोम । (Wax) । गजर । ( Wildearroth) For Private and Personal Use Only Page #864 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir . असान्त्रता अस्यूस usyās-यू० श्रास्यूम, पत्थर भेद। (A . जन्नौका, जोक, जलायुका ( Leech Hirlkind of stone.) .. do. ।। (२) मत्कुण, कीट भेद । रा०नि० अस्रम् asram-सं० क्ली० (१) शोणित, व०२३। (See-natkunah.). अन asia-हिं० संज्ञा पु रत, रुधिर । -हि० वि० रनपीनेवाला। . कलड ( Blood )-५० । रा०नि०व०१८। अन पत्रः,-क: asrapattiah, kan सं०० (२) केशर, कुकुम । Saffron (Croc- भेण्डा वृक्ष, भेड़ा वृक्ष । रा० मि. व०४। us sativus.) ० द० । ( ३.) नयनजल, See bherin अधु, आँसू । टियर ('Tens )-३० । रत्ना०। अस्रपा stapā-सं० (हि. संज्ञा) खी. -पु. (५) पात्राव । विज० र०। (५) जनायुका, जलोका, जोक । ( LiechHiकोण, कोना केनर ( A corner.) इ०। udo.) मे ।। (६) केरा, बाल । हेयर ( Hait) ई० । मे। अनफला,-ली. asia phala,-Ji-सं० स्त्री (७) एक देश (A country )| ) शलकी वृक्ष, सलाई, सनाईका पेड़ । शालुई गाछ जल। :- i (Boswellia serrata ) TT. मन. astru-अ० शुद्ध तेल । (Pry oil-.) .न. २०११ । अन ansla-० टोकर खाना, मुंहके बल गिरना। अरविन्दुच्छा astt-binduchchhala । To trip, to stumble..) -सं० स्त्री लक्ष्मणा । See-lakshmana अन्न. aara-१० निचोड़ना, दबाकर निचोड़ना । अनमातृका asa-natrika-सं० स्त्री. रस (Expression.) धातु । (hyle) रा०नि० व १ । अन कण्ट: asrakantakan- अस्त्रयष्टिका asha yashrika सं० पी० वाण । हे० । ( See-vana. ) . . . __मनीs, मनिष्ठा | ( Rubia cordifolia) अनखदिर: nsrakhadirihin अनसुः sha-runuh-संपु. सिन्दूर | Red खादिर वृक्ष,लाल खैर । रक खेर-मह। (The I : lead (Plumbi oxidun rubram:). .. मे _red Cittechn tree.) रा. नि० ३० । अत्रराधिका,-नो asra-roshika,-11-सं० असनः ask ghnah-सं. पु.. तेज बल। स्त्री० लजालुका क्षुप, लजालू, लज्जावती । : (Excurcaria agallocha, Liun.): (Mimosa pudica.) रा०नि० व ५ । वै. निघ०। अरविन्दुच्छदा ' asa-vinbuchchhada प्रसन्नी nstaghni-सं० स्त्री. विशल्यकर्णी -संस्त्री० ( लक्षणा कन्द (लक्ष्मण)। निर्विपीभे०र०1 . . . (ee-lakshmana ) रा० नि० व०५। अस्रजम् rajam-सं. क्लो. मांस । ( Mu- (२) रविन्नुच्छदा । केय० दे०नि० । scle, flesh.) रा. नि. व. १७ । अशिम्बो asta-shimbi-सं० स्त्री. रशिम्बी, प्राजित् asrajit-स०प० वनस्पति विशेष । लाल सेम । राङ् शिम्-बं०। ('They red: कपाट बेटु-हिं०। (Aplant.)ro मा० flat bear ) . नित्र। अन.स् aasrat-० नजिश ।' ओकर, ऐसा असायक: asra sayink ah-सं० प.. रोकर जिससे मुंह के बल गिरे ( Tripping, नाराच अत्र, लोहा का बाण । लोहार बाण a beat of the foot, a stumble.), -०। अस्त्रपः asrapab-सं० . , असून ती asra-gruti-सं० स्त्री० रसाब। अनप asrapa--हिं० संशा पु.) () (सूति), सोगित स्राव, रक्षरण । वै० निघ। For Private and Personal Use Only Page #865 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मनहरारिष्टः अनाही अखहरारिणः ॥sta-hararishta h-सं० पु. केशर Saffron (Erocus putivus.) प्रसन्नी (विशल्यकर्णी, निर्विषी ) और मत- मद०'वे०३। . . . सञ्जीवनीसुरा हर एक एक पल ले। पुनः एक मिट्टी ! अनि asri-हिं० स्त्री. ( 'Tely millions.) के पात्र में रख उसका मुख मिट्टी से अच्छी तरह १०लाख।' ... ... ... बन्द कर ७ दिन तक रक्खें। पश्चात् गाढ़े वरन अनि. asttb . .. . . ० (२०५०), से छान कर बोतल में चरन से रकः । अस रिब asarib. स.रथ (१०५), मात्रा--५-२० बूद। . ... . ! ___ श्रान्त्रीय असामयमिल्ली, प्रान्तश्छदाकला, अनुपान--शीतल जल । प्रान्त्रावरण, जठरांचरण (Omentum.) गुण-इसके सेवनसे उरःक्षत, रक्तपित्त, कास, : अनीलीasiili-हि-स्नानासर्वाली, गिर्गिट सरश : रक्रातिसार, रक्रप्रदर और राजयचमा नष्ट होता. एक जानवर है । यह हरे रंग की होसी तथा सर्प भै० र० यक्ष्मा चिः। सदृश दुम मारती है। नोट- असनी के अभाव में अम्बष्टा | अस्त्र asru-सं० क्ली • नेत्रवारि, नयनजल, प्रथ (निर्विपी) लेना उचित है। आँस । टियर (A tear. )-इं० । आँस के न रोकने से पीनस रोग उत्पन्न होता है। बा. सू० असार ashian -० ललाट की रेखाएँ । ! sferi asirrah #1 ( Crease ), .४१०। फोल्ड ( Fold.)-ई.। अन क. asrukah-सं• अकीर वृत्त । पाउच गाछ-बं० । रत्ना FAIT 19Tárul-Afaceri ( Berries of! 'अस्स ल जुदूरी ashul-judi i- शीतलाके Herberis aristata, D) चिन्ह, दाग । ( Pit, Pock mark.) असार asrārn-मग़० एके वृक्ष है जो हजाज़ और र.अ.स्न ल बुम्रह, asaul-busralh-अ० फुन्सी जिद्दा के समुद्री किनारों पर उगता है। ... के चिन्ह या दाग । सिकटिक्स ( Cicatrix.) अनार्जक: Hasrir jakah -सं० पु. अम्राजक asarjaka-हिं० संज्ञा स्त्रो० ) अन वाहिनी asru-vahini-सं० स्त्रो० अश्रु(1)रक तुलसी वृत्त, लाल तुलसी । राका तुलसी वाहक धमनीद्वय । (Lachrymal canal.) - I (Ocimum dubium, )ic सु० शा०६अ। श्वेत तुलसी | शादा तुलसी-२० । पादरी तलसी -AEI( Ocimum album, Linn.) | अस्त्र ली asreli-सिंध० छोटी माई । 'Tanmवै० निघ। ___arix orientalis, Vahl. (Galls of. Tamarix galls, :). मसावित भत्तम् asrāvita-bhaktam-सं०। . अत्रणः asrainah-सं० त्रि. नियों से रहित । क्ली. मर ड( माद), संयुक्र भात | अथर्व। 'गुग--यह भात भारी, शीतल, रुचिकारक, , 14 असोज़ asroza-१०(१) एक कीट है जिसका शिर वृष्य, वीर्यबक, मधुर, वातनाशक, कफनाशक, लाल और शेष शरीर श्वेत होता है। यह रेत और ग्राही, तृप्तिकारक और क्षयरोग का भी नाश घास में उत्पन्न होता है या (२) सरासीम करने वाला है। वृ०नि०र०। (केमा)। (Earthworm) . अनाश Eslasba-. एक प्रकारका या अनोरह Isrorah-बालछः । (Nardostaहै जो कभी पान्द्र से और कभी ख न माके बीज chys-Jatamansi ) से बनाया जाता है। अनहो asrolho-मबमासा | (Viola olo. अनाह्वः ashalivah-सं०.०, क्री० ककम, | rata..) For Private and Personal Use Only Page #866 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ૧૪ अस्तुल कसब अजत asiatऋ० वह मनुष्य जिसकी नासिका आधे से अधिक कट गई हो । ले अ.ल.asl-o असल asaia-हिं० ( ५० व० ), उ. सूल ( ब०६०) मूल, जड़, बुनियाद । ( Root or rhizome.) स० [फा० ६० । अ. रु.ल asla - ० तु । माज-हिं० । (Tamarix gallica, Linn) स० [फा० ० । अस्ल aasla-अॅ० मधु, शहद । Honey ( Mel.) स० [फा० १० । अस्ल asia-अ०समार मिश्र० । रूह कर्तहन्फा० । अस्लम aslam - श्र० गोश बुरीदा फ़ा० 1 सहज कर्ण हीनता । वह बुचा जो जन्मसे कर्णहीन हो । जिसके कान जसे काट डाले गए हों । (Clipteared.) कसरानी - हिं० । एक बूटी है जो जस्त्रीय भूमि | अल मुदां asla-muadi so माहे छूत, छूत पर उत्पन्न होती है। इससे बोरिया या खटाई बिने पैदा करने वाली वस्तु, संक्रामक दोष 1 ( Conजाते हैं । tagium.) orpiment ) . अहलन aslaä अ० वह मनुय जिसके चाँदिया पर के बाल गिर गए । बैड ( Bald ) इ० अहंल āasla-हड़ताल, हरिताल । ( Yellow | अस्लराई asla-rai-fo स्त्री० घोराई, राई । ( Brasica nigra ) मेमो० । अस्लह, aslah श्र० नेज्ञा, निश्तर, ज़बान वा कुहनी की नोक | अस्, लह aslah - श्र० एक प्रकार का भयंकर सर्प जिसके पैर होते हैं। यह फ़ारस देश में पैदा होता है। अहल अफ सन्तीन aasha afsantina-o वह शहद जिसकी मक्खी अफ्र संतीन पर बैठी हो । अ.रु.लक aslaq-० फ्रजंगुश्त, निगु एडी, सँभालू -हिं०। ( Vitex negundo, Linn. ) स० [फा० ई० 1 अ. रु.लक अस्वद aslage-asvado नील fagost, star -fgo! (Justicia gendarussa, Lina ) स० [फा० इ० Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ. रु.लक भाबी aslage-abio जल निर्गु - : एडी, पानी का सँभालु - हिं० 1 ( Vitex 11 श्रस्तुउिज़राश्र aslatuzziráá अ० कलाई की हड्डी या पहुँचे की व रीक सिस जो हवी से लगा हुआ है। trifolia, Linn) स० [फा० ई० । अरु,लख् aşlakh--श्व० पूर्ण बधिर मनुष्य, पूरा बहिरा 1 A Dumb ) अस्लज āaslaj - ० . वर्धनीसा की जड़ 1 Cyclamen persicum, Miller. ( Root of --)। देखो —खुर मरियम् । अस्लञ्ज āaslanja—० यः खुर्मरियम् क का एक भेद, हस्थाओड़ी । ( A kind of sow-bre ad.) अस्लान ãaşlana- o अन्सल, जंगलो पियाज़, कॉंद्रा, चनपलाण्डु । (Scilla Indica, अस्लियूस asliyúsa - यू० तज | ( Laurus cassia. ) अस्तुन्नहल āaslannahal - ऋ० मधु, शहद Honey (Mel. ) स० [फा० ई० । श्वस्तुश्नस्वाश्च aşlun-uukhaa रासुन्नुखाच rásun-nukhaā मब्दउन्नुखाश्च mabdaun-mukhaa - श्र० सरे हराम सरज्ञ-फु० 1 सुबुना शीर्षक -f1( Medulla-oblongata.) अस्तुर्रमिस āaslurramis-श्रु० ( १ ) वह ओस जो रमिस पर पड़ता है । ( २ ) शकरतेग़ाल | अरु लुल् श्रह ्ममर aslal-ahmar-s० लाख झाऊ। (Tamarix orientals, Vahl.) स० [फा० ई० । अस्लल कसब āaslul qasab-mo इशु रस, ईख या गम का पानी ! For Private and Personal Use Only Page #867 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रस्तुले सर्व अस्लेलुम्मी अस्खुल कस. aslul-qasab-१० एक प्रकार | उ.सूलुस्सित.ब(ब०व०), कन्द-सं०, हिं०1 का मधु जो शुष्क खजूर से बनाया जाता है। । ( Bulb or tuber)स.फा..! प्रा.स्लुल करत aslul-qulta-० कुलथी की म.स्ल स.सीनी aslus-sini-अ. चोबचीनी-हिं०, Fi Dolichos bifiorus(Root of-)! द०, फा०। Radis chinensis (Chi. अस्लुल खलाफ़ aaslul-khilafa-अ. बेद na root) स० फा०६। सादहका दूध म.स्लुस्सूस uslussusa-म० यष्टिमधु-स.। अस्लुल् फार iaslul-firs-० अज्ञात । मुलेठी, जेठीमध-हि । Glycyrrhizae. म.स्तुल बजर aslul-bazara-१० भगांकुर radix (Liquorice root or liqu. मूत्न । (Crus clitoris) orice.) स० फा. . म.स्तु : माकोल aslul-makol-१० हलदी. अस्लखियार चम्बर ansle-khiyara-char हरिदा । (Curcuma longa) mbara-फा० अस्ले नियार शबर-१० । पारग्वध गदिका-स' । अमलतासका गूदा-हि. अ.स्लुल् मुनव्वर asial-mudavvar-अ. (प. य.), उ.सूलुल मुन्धर (१००) Cassia pulpa (Cassiw pulp.) देखो अमलतास । कन्द-हिं०, सं० । ( Bulb or tuber.) स० फा०६०। अस्ले.तज़द asle-ta barzda-१० कन्द भास्लुलिसान aslul-lisana-अ० कण मूल या मिश्री का शीरा । ग्रंथि । (Submaxillary gland | अस्लेतम्र aasle-tamr:-अ. दोशाब सुर्मा । अस्लेदाऊद aasle-daudn-१० एक प्रकार के प्रस्तु फाहबरी aslullufaha-barri-१० __ मधु का तैन । यब रूजुस्सनम, बिलाडोना । (Mandrake.) अस्लुल्लुम्नी aaslul-lubni - ०(१)मेहे साये अस्लेन हल aasle nahiala-१० मधु, शहद । लह, सिलारस-हि.। Liquid amber Honey (Mel) altingia,Blume.) (Resin of-Liou. .स्ल फ़ऊन asle-farauna-9. एक प्रकार id storax ) स. फा० ५. 1 म० अ० का पत्थर जो यमन उम्मान् देश में होता है। डॉ० । २) इ.सी लुबान, लोबान । अस्लेबिलादुर aasle-biladur-अ० एक प्रकार का स्याम लसदार द्रव है ओ भिक्षासे निकलता अम्लुलहवा aaslul-havi -अशीर खिश्त । -फा० । प्रकाश मधु-सं०,हिं० (Manna.) a. अस्ले मा.जो aasle-mazi-म० रखेत खजूर म० अ० डॉ. । मधु । अस्लुल्.हाज aaslul-haji अ० तुरजबीन | Alh. भस्लेमु.स.फ्फा ansle-muzaffa-१० साफ agi meurorum (Manna of-) ___ किया हुआ या शुद मधु । ( Mel depuraप्रस्तुल हिन्दबाउन्धरी aslul-hinda-bau. | tum.) bbari -भु० जंगली कासनी की जड़। (T... Taxaci radix) म० अ० डॉ०। अ.स्लेमेसा aasle-mesa अ० मुलेठी, यष्टिमधु । (Liquorice. ) अस्लुस्समाधी aaslussamavi- अ० शीर | असलेयाबिस aasle-yabisa-म० खुश्काबीन निश्त-फा० । भाकाशमधु-सं०। (manna)| या पतला सुगंधित पाहार । म० अ० डॉ० । | अस्लेखनी aasle-lubni-१० सिलारस । अ.स्लुस्सित.aslus-sita bra-१० (ए०व०) (Styrax.) For Private and Personal Use Only Page #868 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir से हाशा .. अस्सलिया अस्ले .हाशा aasle hasha-t० . यह शहद अस्वास्थ्यम् asvāstliyam-सं० क्ली.... । जिसको मक्सी हाशा (जंगली पुदीना )पर बैठी | अस्वास्थ्य AS Vasthya-हिं० संज्ञा पु' हो। पीड़ा, रोग, असुस्थता, बीमारी।। 'अस्व asya-हि. संज्ञा पु० [स'. अश्व ] | अस्वेद्यरांगी asvedya-rogi- सं० पु. वह (1) धोका (A horse)। (२).. रोगी जिसे स्वेद ( पसीना) नहिया जा सके। . . असगंध, अश्वगंधा । ( Withania 80- बह रोगी जो स्वेद कर्म करने के अयोग्य हो । mnifern 1(निमो. कंगाल. दरिद्री ।। वह जिसका स्वेदन किया जा सके। स्वेद के अस्वह, asvah अ० बालों को लंट, जुफ अयोग्य । स्वेद निपिडू । स्वेदा विहिताचस० दराज। - १४ अ० । वा० सू० १७-०। देखोअस्वकर्ण as va-kirna-हिं० पुसं०]साल, स्वेदः। HC Sal tree (Shore, robusta, अस्स assa-१० अनियाद, जह, हृदय । ( Fou. Garin.) फा०ई०.१ भा०। __ndation.) .. . अ.स्स. aass'- .. अस्वच्छ asvachchha-हिं०संज्ञा पु[स] कुर्मसुल यतर | शारिखक अर्थ जड़ किन्तु अर्वाचीन परिभाषामें करित अवयत्र । अदर्शक, अपारदर्शक, ऐसी वस्तुएँ जिनमें से कुछ। (Stump.) . . . भी नहीं दीखता। अवै ज़ हकीकी, असली अस्सनतुल असाफ़ीर assana tul-ansaसफ़ेद-अ०। प्रोपेक ( Opage.)-ई01 fila-० इन्द्रयव । (Wrigiitiatinct. अस्वद asvad-अ० स्याह रंग, श्यामवण', oria, P. Br.) देखा-कुटज। काला, कृष्ण । (Black.) . अस्सफ़ाफ़न : ssafafan-०लिसानुलईल,रा ईअस्वद सालख asvad-sālakh -अ० श्याम युल् ईल । इसके लक्षण में मत भेद है। सर्प (A bl..ck serpent.) अस्समोगम् ass mog m )... अस्वन्तः asvantah स. पू. चुल्ली। अस्समोदगम Issamod.gi mS..सिं० (A.fire-place ) अस्समोदगुड़ assiinodi.gnda) अस्वभाविक मृत्यु asvābhāvik i-mrityu अजवाइन | Cirum (Ptycliotis.) -हिं० संज्ञा स्त्रा० वह मृत्यु जो स्वामाविक Ajowan. न हो। अप्राकृतिक मृत्यु । अस्सररूसुल मुज.कर ASSJakhsul-muz akkar-भ. सररदश मुज.कर, चमाज-फा०। अस्वमारक asva-mārika. -हिं० संज्ञा प. Male fern( Filixmass.) म०प्र० [सं.] कनेर,करवीर । (Nerium odorin-) डी। फा० ० २ भा०। अस्सराजत assarajath--अज्ञात । . अस्वल asvalt-अ० वह मनुन . जिसका पेड़, ! अस्साबूतुल्लिय्यिन assābāhuliyyin-३० । प्रागे को निकला हुआ हो। . ,. हरा , साबुन, नरम साबुन--हिं.। (.sapo अस्वस्थ asvasthi-हिं० वि० [6. ] (1) __mollis.) म. म. डा० । रोगी, बीमार । (२) अनमना । . अस्साबूनुस्.स. लिय assibānussalib--अ. प्रसवात asvata-अ० (ब. ५०), सौत कोर साबुन, जैतून तेल का साबम-हि। (ए०५०), शब्द, ध्वनि | ( Sound.) (Sipo durus.) म. अ. डॉ० । अस्वादुकटक as vadu-kantika-हिं संज्ञा अस्सालिया ॥ssaliya-गु० चन्द्र सूर । ( Lep. पु० [सं०] गोखरू । गोक्षुर । 3 idium satirum)फा ६०१ भा०। For Private and Personal Use Only Page #869 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मस्तुउसम ८२७ अहज मस्सुउसन as31-115 11.-१० सुफेद राई..हि। रावणान्येव पतन्मात्राण्युत्पद्यन्ते । सु० शा० सिद्धार्थक-सं०। ( Eruca sativa. )! १०। मेमा। ... अहतम् ahatam सं० क्ली. नूतन वस्त्र । (New अस्सुलेमानियुल, अकाल, assulananiyul ____cloth.) हला०। alkkāi-१० सुलेमानी, दाराशिकना,दार चिकना | अहत्तो ahatti-सि० कुम्बी, खुम्बी । (Careya '-हि.। ( Hydrargyri perciflori arborea, Rob.) मेमो०। dim:) बहन ahān-हिं० संज्ञा पु० [सं०] दिन । ' अस. ashab-१० श्वेताभायुक्त , रतवर्ण अहन् पुष्प a han-pushpa-हिं० संज्ञा प... प्याजी रंग, रोग-विज्ञान में श्वेताभायुक्र रक्र | [सं०] दुपहरिया का फूल । गुल दुपहरिया। वर्गीय कारोरह, ( मूत्र ) को कहते हैं। | अहर nara-हिं० सज्ञा पु० दोवा, पोखरा, सरो **(Arreservoir for collecting अई..ham-संव० [सं०] मै | (I). । । rain-water.) ___ संज्ञा पु- [सं०] अहंकार, अभिमान । अहरङ्ग aharanga-मल० काम अंगार, लकड़ी महः nhah-सं० लो० [सं० अहंन् । . का कोयला । Wood. charcoal (Carbo.:. मह aha-हि. संज्ञा पुं० . ) (3) दिवस, ligni)ई. मे०. मे। . . __दिन । ( Day.)। अमः । (२) सूर्य । अहरदृक् a haridrik-सं०पु गृध, गिद्ध पक्षी! अहङ्कारः aharikārah 1-सं० ( हिं० संज्ञा) शकुनी-बं० । वल्चर (A vulture.) । चैनिय०। प्राहकार ahankala ) [वि. अहंकारी] (1) अभिमान, गर्व, घमंड। (२) क्षेत्र प्रहरण aharana जय. महपुरुष की चेतना । इन्द्रियादि सम्पूर्ण शरीर- | अहरणी aharani. .] रन, अर. ध्यापी अहं अर्थात् मैं और मेरा के भाव की उन । विशेष प्रवृत्ति । ममत्व । वैकारिक, लैजस, एवं | अहरन aharan-f० संज्ञा स्त्री० भूत अर्थात् साविक राजस, तामस भेद से यह अहरनि aharani-हिं० संज्ञा स्त्री. तीन प्रकार का होता है। सांख्य के समान प्रायुः [सं० श्रा+धारण रखना] निहाई। वेद शास्त्रियों ने इसकी उत्पत्ति महत्तस्य से मानी | अहरह aharah-हिं. क्रि० वि० प्रति दिन । है । इनके अनुसार यह महत्तत्व से उत्पन्न एक (Everyday.) द्रष्य अर्थात् उसका एक विकार है। इसकी महरा ahara-हिं० संज्ञा पु० [सं० प्राहस्थ सात्विक अवस्था और तैजस की सहायता से ___=इकट्ठा करना ] 1-जादे में तापनेका स्थान । फंडे पाच, ज्ञानेन्द्रियाँ पाच कर्मेन्द्रियों तथा मन की का ढेर जो जलाने के लिए इकट्ठा किया जाए। उत्पत्ति होती है और तामस अवस्था तथा तेजस (२) वह प्राग जो इस प्रकार इकट्ठे किए हुए अर्थात् राजस की सहायता से पंच तन्मात्राओं .कंडों से तैयार की जाए। . .. को उत्पत्ति होती है, जिनसे क्रमशः प्राकाश, | पाका प्रहराक ahraq-अ० जलाना । लु०१०। .. वायु, तेज, जल और पृथ्वी की उत्पति होती है। हरित: aharitah-स.पु. पाण्डुरोग । हारिद.. यथा रोग । अथर्व० । सू०१२ । ३। का०११ "तहिकाच महतस्तवपण एवाहकार उत्पयते, | अहर्गण ahsrgana-हि. संज्ञा पु० [सं०] सतु त्रिविधो बैकारिकम्तैजसो भूतादिरिति; तत्र | दिनों का समूह। वैकारिकादहकारात् तैजस सहायातक्षणान्येवे महजबः aharjjavah-सं० पु. सम्वत्सर, कादसेन्द्रियारयुत्पयते; भूसादेरपि तैजस सहाया- वर्ष। ( A year.) के। For Private and Personal Use Only Page #870 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir महर्षयः अहिगन्धा महर्पण: ahar paralh-सं०पु'• मांस । (Mus- महालिम ahalim-यू. अगर । ( Aquilaria cle; Flesh.) हारा। agallocha.) प्रहन्धिवः sharbāndhavah । अहालिवा abiliva-मह०, बम्ब० चन्द्रसूर, अहमणिः a harmanih Erfare ! ( Lepidium Sativum, -सं०प० अर्क वृत्त, माक, मदार । ( Calo- Linn) मे० प्ला। फा० ई०१ भा० । tropis gigantea. ) हे. च०। अहिः abih-सं० पु. ) (1) शीपक, सीसक, अहमुखम् a harmukbam-स० की । अहि ahi-हिं० सीसा | Lead (1'lu. अहमुख a harmukha-हिं० संज्ञा पु. mbum.) प्रयोग, वसन्तकुसुमाकर रस । र. प्रातः काल, सवेरा, भोर (Early morning, सा०सं० । (२) सर्प, नाग, फणि, सॉप । सण्ट day-break.)। (A serpent.)-ई० । मद० २०२२ । (३) उदावर्त, नाभि ।(Navel) हारा०। (४) प्रहरं aharra-० अधिक उष्ण, ज्यादा गरम । वज्रीवृक्ष । मनशा-शिजु-ब०। (See-vajri.) प्रहलद ahalad-फना० वट, वर्गद। Banian हे. च. । (१) अफीम (Opiurn.) । (६) (Ficus Bengalensis.) सूर्य । ( The sun.) अहलना n halana-हिं० क्रि० अ० [सं० प्राह ! जनम् ] हिनना । कॉपना । दहलना । अहिंस्र ahinsta-हिं० वि० [सं०] अहिंसक । अहलात ahalata-यु० अगर । Aloe wood ) श्राहस्रा nhingra-सं० रा. कण्टकमती वन अहलु ahalu-40 सम्बल, बहन । काकादनी, हैंसा : काँटा गुरु कोटली-2 ! (0aअहल्यः analyah-सं० वि० pparis sepiaria.) रत्ना० आमवात प्रलेप। महल्या ahalya-हिं० वि० [सं०] गुण-विप शोथ हर। राज०। मनाकृष्ट-भूमि। जो ( धरती) जोती न जामहिका, का ahikth,-ka-सं० पु., स्रो। सके। महिका nhika-हिं० संज्ञा स्त्री० प्रहल ahella-सिं० अमलतास । (Cassial (1) शाल्मली वृष, सेमन | शिमुन गाछ-40। fistulil, Linn.) फा० .१भा०। सांवरी-मह०। ( Bombix hept:pby. प्रहस्करः ahaskarah-सं० १० lum.) शु. ५०(२)अन्धा सर्प ।(A आक, मदार । (Calotropis gigantea.)| blind snake.) हे० च०। महिकान्तः ahikinth-सं० पु. वायु, पवन । प्रहस्पतिः ahaspatih-स. प. मी (Air, Atmosphere.) हे.) च.। वृत, मदार, प्राक। (Calotropis gigar अहिकुटी nhi-kuti-सं० पु. भारद्वाज पनी । - ntea.)। (२) सूर्य । ( The sun.)| 4. निघ। अमः। अहिस्वर : hi-khara-हिं०संज्ञा प. तांक्षमखाना। अहस.सु ahassu-अ. वह व्यकि जिसके शिर में | (Hygrophylla spinos:1.) कम बाल हों। अहिगति Ahi.gnti-हि. सज्ञा स्त्रा. साँप की प्रह: ahah-सं. नाश करना । अथव। थाल, टेढ़ा वाल। अहार ahāra-fio संज्ञा प साहार अहिगंध फलाhi.sinh-phali.सं. (1) भोजन, खाना ( Aliment, fool Rो. सबकी वृध । ( Bos wellis serrs. victuals. ) । (२) लेई, मादी .) रा०नि० २० ११।। (Starch, glue, paste.)। । । अहिगम्या Ahi.gandhi-.सं. खो०(१) सर्प: For Private and Personal Use Only Page #871 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir महिनमः ८२६. महिला,ला गंधा ! शस्ना विशेष--० । सापगंध-मह । गुण-पीडाजनकत्व । वा० सू०७०। (See-STHpa-gandha) ब. निघ। अहित्थः hitthah-सं०५. वनमेथिका, वन (२) इशरम्ल, ईश्वरचून । (Iris root.)| Aut ! Trigonella fanart grec. अहिच्छत्रः hi.chchhatith--सं. पु. मेष. um (Wild vir.of..) मद० २०२। श्रृंगी, मेदासिंगी। See Ajashringi. |अद्विद्विट allidvir-सं० प (१) नकुल, अहिच्छत्रा :.hi-chchhatra-सं० खो(१) नेवला fungoose ( Viverrn ichn. शताहर सुप, सौंफ। मौरी.शुल्फा--01 (Pin eumon.) (२) मयूर, मोर । (A pea. pinell : nisum.) रा० नि० ब० ४ । cock ) (२) शकंरा, चीनी हि० । चिनि-बं० । Sur अहिनिमें कः ahinirinokah-सं० प. सर्प gar ( Saccharine. ) रा. नि० | | मिोक, सर्प कञ्चक, सँप की केचुली । भा०। व० ४। अहिनी hini-स. श्री. सर्पिणी, सॉप की अदिछार :hi-chhāra-हिं० सज्ञा पु. साँप का मादा, पिम । (A female snake.) विष, सर्प विष । ( Snake poison, जातिaninati-सं.सिंहा सापांकर ___venom.) राजा, वासुको । अहिजाहकः ahi jalaikahसं० पु. ऋक "| अहिपत्रक: a hi-putr.k.h-सं० पु. निविष लास (See..kriklasa.) काकलास-बं०।। ___ सर्प विशेष | (A kind of nonpoisono वनित्र _us sn ke.) अहिजिह्वा ahi-jihvi-हिं० संज्ञा स्रो० [सं०] अहिपुम्रकahiputrakah-सं० प तरालु, नागफनी । नौका विशेष । हाग । महिजिलिका ahi-jihviki-सं. स्त्री. महा शतावरी । बा शतमूली-५० । ( Aspar: अहिपुष्पम् nhipushpam-संकलो.)नाग केशर पुष्प । Mesun ferrera ( Flower gus racemosi.) 4. निघ० । भहित hita-हिं० संज्ञा पु'• बुराई, प्रकल्याचा of-) 4. द०। (२) कुम्भोका तेल । सु. चि.३७५० । वि० [सं०] (१) शत्रु, वैरी, विरोधी । (२)अपथ्य अनुपकारी, हानिकारक (adverse, inin-महिपूतनः,- नाb iputanab.--ni-सं० ical, acting unkindly. ) पु.,सा. बाल रोग भेद, शिशु गुराइन,नना । अहितकारी ahitakiri-हिं० पु. भहिस पथा-मल मूत्र से सनी हुई बालक की गुदा को करने वाला, शत्रु ! ( Inimical.) न धोने से या पसीना पाने से अथवा स्नान न पहित द्रव्यम् ahita dravyam-सं० ० करने से रुधिर और कफ दूषित होकर खुजली अपथ्य पदार्थ, अहितकारक ट्रम्य । की उत्पन करते हैं फिर खुजाने से रकान फुन्सिया हो जाती हैं और उनमें से महितपदार्थः ahiti padarthab-सं०० प भहितकर अर्थात् हानिकारक पदार्थ । निकलता है। फिर वह सब फुन्सिया एकत्रित होकर छत्ता सी हो जाती हैं, तब इस भयंकर रोग __ ये निम्न है, जैसे - वृद्ध रमणी, पूति (दुर्ग को अहिपूतना कहते हैं । मा० नि० सदरो। धित ) मांस, प्रभात निद्रा, मैथुन और दधि प्रभृति । महिप्पन ahippan-अफीम। ( Opium.) अहिताहार: ahitihārah-सं०५... अहितकर | • मे० मे. .. इण्य भक्षण, अहित भोजन, अहितकारी पदार्थ अहिफखः,-ला ahiphalkh,-11-सं. '०, । मो० दीर्घ कर्कटिका, चिपिएका । जम्मा काकुर For Private and Personal Use Only Page #872 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir महफेनम्, कम् -० । टर कांकड़ो-मह । ( Trichosan- अहि फेनासत्रः a hiphenāsavah-सं० पु thes anguina.) यह प्रासद अतिपार तथा विसूनिका के अहिफनम्,-कम् alhi-phenam,-kam . ) लिए हितकारक है। -सं० पू०, कोही योग तथा निर्माण-विधि-मधूक मद्य (मअहिफेन ahiphenu-हिं. संज्ञा पु. ) हुप्रा की सुरा ) १०० पल, अकीम ४ पल, नागर(१: नागफेन, अफीम-हिं० । स्वनामाख्यात मोथा, जायफल, इन्द्रयव तथा एला प्रत्येक १-१ सारजवर्गीयोपविष । प्राफिम्-० । अफून, अफू पल हन सम्रको बर्तन में बन्दकर एक माम तक कही-मह० । अाफन-माल। नतमु रखें। मात्रा-१० से ३० बद । भैषः ! Opium poppy (Papaver somni. अहिबेल ahibela-हिं० संज्ञा स्त्री० [सं. ferum.) देखो-अफोम । (२) सर्प के मुँह की कार वा फेन । ( Tbe saliva or अहिवली, प्रा० अहिथेली ] नागयेलि । पान । Venom of a snake.) अहिभयदा a hibhayada-सं. ना भूम्या. sieta afer a hi-phenih-vaţiká-pio मलकी, भूई शामला । ( Phyllalithusc नाअतिसारोक रस विशेष। खजूर,पिंड 'neruri) रा० नि० व० ५। खजूर। र. सा० सं०। | अहिभुक् ॥hibhuk-सं० पु. (१)मयूर । ... अहिफेनपाक: ahiphenapakth-सं० (A peacock. ) रा०नि० ब०१६ ० (२)ताय । (See-tarksbyaan)मे । १६तो. शुद्ध अफीमको १६सेर दूध और प्राधसेर । . (३) क्षुद्र सापपंद नामक प्रसिद्ध वृत्त । (४). घीमें पकाएँ । उंदा होनेपर 1 सेर शक्कर मिलाएँ; : नाकुली नामक महाकन्द शाक (Vanda फिर जायफल, लवङ्ग,आवित्री, भागकेशर, अकर Roxburghii.)। (१) गन्ध नाकुलो। करा, समुद्रशॉप, कपूर, चन्दन, त्रिकुटी, धस र के (Ophioxylon serpaintinuin.) बीज,मुसली, तगर, शुद्ध सफेद गुजा, चच्य,बीज । रानि० १०७। See -Nakuli बंद, करंज, चित्रक, पीपलामूल, जीरा, अजवाइन, महिमणि hi-nutni-हिं० स्त्री० सर्पमणि। बला, गोखरू, बबूल की गोंद और शिलाजीत प्रत्येक एक एक तो० चूर्णकर मिलाएँ। इसमें भंग चूर्ण १६ अहिमहनी ahi-marddani -सं० स्त्री० तो०, बंग,ताम्बा,लोहा, अभ्रक, और पारा की गन्धनाकुली। रास्ना विशेष-० । (Optioxy. भस्म प्रत्येक 1-1 तो मिलाकर घाँटे और कस्तूरी lon serpentium.) अहिलता विशेष । तथा अगर से सुवासित करके रखले । इसे पाचन सापसंद-पश्चि०। रा०नि० व० ७ । देखो-- शक्रिके अनुसार खाए और ऊपर से भैय का दूध नाकुला । पिए तो मनुष्य १०० स्त्रियों के साथ गमन कर | अहिमारः,-क: a hi.marah,--kah-सं० प सकता है। इससे स्त्रियों का बन्ध्यापन, पुरुषों बिट्खदिर, दुगंधि-खैर, अरिमेद । गुये -बाबला की नपुसकता, खाँसी, दमा, शीत, अपस्मार, -०। गन्धीहिवर-मह । (Acacia far -बै० । गन्धीहिवर उरःत, उन्माद, पारख-रोग,' ८० प्रकार के nesiina, Wild.) रा०नि० घ०८। वातरोग, कफ रोग, हिचकी, प्रमेह, भामवास, अद्दिमेदः,-क: ahi-medan.kah-सं० पु. जुकाम और प्रतिसार नष्ट होते हैं। विटखादिर, अरिमेद । (Acucia farnesi. महिफैन बीजम् ahiphena-vijam-सं० ana, Willd. )रा०नि० व०। . की० स्वस्वास , पोस्ते का बीज । पुस्त, थाक्मि अहि.य्याह: ahiyyah-० (:५० व०), इस्यु -०। Poppy seeds (Seeds of (५०५०) सजीव, चैतन्य, जीवधारी, जीवित, Papaver somniferum.si : जिन्दा । एलाइव ( Alive)-१० | .... For Private and Personal Use Only Page #873 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ..अहिरावन ...पहिल्या अहिरा बन ahi-ravana -अम्ब० घया... को पानी में पीस कर अच्छी तरह लेप करके महिरावन mabi-larana) मारी | जखमे सुखाले और एक जवान पुष्ट काला गेहुँ अन सौंप हयात-फा०। ( Bryophyllum ca. को पकड़ कर इस प्रकार मारें कि उसके बदन में lycinum, Salied.) मेमो०। | "चीट लभकर छिद्र न हो जाएँ ( कोरे। फार्म अहिरिपुः ahi-vipub-सं० पु. मयूर, मोरपक्षी। सुंघाने से साँप मर जाता है.)। फिर उसके पेट (A peacock ) रत्ना० . . में मुख द्वारा ३२ तो० पिसी हुई हरिताल हाल ..अहिलता ahi-lata-सं० (हिं० संज्ञा ) खी. कर ४ तो० पिसा हुआ बच्छनाग डालकर फिर (१)सापस ६ । (Ophicxylon serpen.i ऊपर से खूब बारीक पिसी हुई ३२ तो० हड़ताल tinum) गन्धनाकुली। रा०नि० २०७। डालकर उपयुक्र घमें ४ तो० पिसा हुआ बरछदेखो-नाकुली । (२) ताम्बूल, नागवल्ली, नाग और एक सेर बकुची, भिलाया और इन्द्रजौ पानवृक्ष । पान गाछ बं।। (Piper betle., ' का चूर्ण डालकर ऊपर से उस साँप की syn, cha Vica betle. ) to táo đỏ | 'गोल चक्री जैसी करके रख । ऊपर से पाक की टहनियाँ ६४ तो०, थूहर की टहनियों । सेर, वट अहिलेखन ahi-lekhalla-हिं० सज्ञा पु जटा की अंकुरे । सेर और चिकुवार ? सेर डाल. - [सं०] अहिल्यम्-स' । अगमकी-हि ! कर घड़े के मुख को गुड़ चूने से अच्छी तरह बंद (Mukia go abrella. Iru) फा०६० करके ऊपर से कपड़मिट्टी करके सखाले'। फिर २ भा०। उसे चूल्हे पर रख कर नीचे चावल पकने योग्य अहिलोकिका hlilo-kika-सं० स्त्री० भूम्या- हलकी श्राग दें। पुनः १६(११२) तो. घी मलकी, मँई पामला.! ( Phyllanthusi लोहे की कड़ाही में गरम करके घड़े की सभी चीज़ meruri.) ० निघ०। उसमें डाल कर नीचे तेज व दे और बीच अहिल्यकम् ahilyakam-स. क्ली अहिलेखन, | में = तो० भूनी फिटकिरी ८ तो० सुहागा ले घंटाली, अगमवी-हिं० । (Mukia scab- - सूर्ण करके घोड़ा थोड़ा चुटकी से डालते रहें । rella, Arn.) फा००२ भा० । जब कड़ाही के ऊपर आग लगकर सब धी जल अहिवधो रसः ahivadio-rash-सं० पु. जाए तब उसमें उपयुक ताम्बा और सीसा का मिट्टी का नया एक ऐसा घड़ा लें जिसमें ४ सेर छाना हुआ. चूण मिलाकर पारीक पीस कर पका पानी पासके । फिर शुद्ध गन्धक ६४ तो०, रखले'। ताम्बे के पत्र ३२ तो० और सीसे के पत्र ३२ तो० • इसको 1 रसी भर से प्रारम्भ करें। चार दिन लेकर बड़े के नीचे गन्धक का चूर्ण और उस पर बाद दूना, फिर चारदिन बाद तिगुना और ४ दिन ताम्र पत्र तथा ऊपर से सीसे के पत्र, फिर उसके बाद चौगुना, इस प्रकार जब ४ रत्तीपर मात्रा प्रा उपर गन्धक का चूर्ण', इस प्रकार घड़े में सबों जाए तब उतने ही लेते रहें। दिन तक जी का की तह जमाकर ऊपर से १२ तो० पारे और दलिया खाएँ । नमक बिलकुल त्याग दें। यदि गन्ध्रक की कजली डालकर घड़े के मुख को करथा, नमक न छोड़ा जासके तो किंचित् संधानमक गुड़ और चूना मिलाकर बन्द करके सुखाकर बड़े लिया करें। इस तरह करने से सम्पूर्ण शरीर को चूल्हे पर रक्खें और. नीचे से १२ पहर की , में व्याप्त कुष्ट हो जाता है। यह त्रिदोष तेज आँच ३। जब स्वांग शीतल होजाए तो जन्य रोगों और राजयक्ष्मा को नष्ट करता है। निकाल कर बारीक पीसकर मोटे कपड़े से छान रस. यो० सा० । कर पृथक् रखले | अहिल्या ahilyi- स्त्री० धन मेथिका । बन फिर एक ऐसा घड़ा लें जिसमें पका सेर मेधी 1 (Crotalaria albida.) 4. पानी प्रासके; फिर उसके भीतर गह और बने निघ । .. .. For Private and Personal Use Only Page #874 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अहिवली ૨ अहिवली ahi-valli - सं० स्त्री० नागवली । tra | ( Piper betle,syn chavica betle) भै० ० मं०चि० । अहिवासन ahivasan - हिं० सा पुढं धनेश पक्षी | ( Buceros ) : अहिविषापहा ahivishápahá सं० बी० हिलता, सापसंद। ( Ophioxylon ser pentinam) बैं० निघ० । अहिसाब ahi-sava - हिं० संज्ञा पुं० [सं० हिशावक ] साँप का बच्चा | पोश्रा । सँपोला । अहि स्कंधः ahiskandhah-सं० पु० गुल्फ, गट्टा । पायेर गुल े- बं० । श्रही ahi - सं० स्त्री० गवि, गाय । ( A cow, अहीक ahiga - अ० लम्ब ग्रैव, लम्बी गर्दन arar (Long necked.) अहन्द्र : ahindrah- सं० पुं० शारिवा, अनन्त मूल । ( Hemidesmus Indicus) च० ६० यक्ष्म० चि० लवङ्गाडि चूर्ण । अहीफ़ ahifa० पतले कमरवाला । (Thinloined.) अहिश्तना ahishtaná - हि० संज्ञा स्त्री० [सं०] | महांनं ग्लैट्द्राइजेर फ्लुजेल्समीन ahorn. यों का एक रोग जिसमें उनको पानी सा दस्त चाता है, गुदा से सदा मल वहा करता है, गुदा जाल रहती है, धोने पोंछनेसे खुजली उठती है और फोड़े निकलते हैं । blattriger-flugels: men- अर०कर्णिकार-सं० । छोटा सोम्दान - हिं०। ( Peterospermum aserifolium. ) ro मे० मे० । अहीरणिः ahiranih - सं० पु० द्विमुख सर्प, दुइ मुँहा था दो मुँहवाला साँप । शङ्खिनी । (Do uble mouthed snake, an erix.) हारा० । अहीरुहः abhirubah - स० पु० शाक वृक्ष । शगुण-हिं०। ( 'Tectona grandis, Teak tree. ) अहुल ahul- हिं० संज्ञा पु' श्रोदुन, पुवान, पुत्रेम, गह । अहे ahe - हिं० संज्ञा पुं० [देश० ] एक पेष जिसकी भूरी लकड़ी मकानों में लगती है तथा हस्त और गाड़ी आदि बनाने के काम में आती हैं। अहेर aheraसिंघ० चन्द्रसूर, अहलीव | ( Le Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द pidium sativum, Liam ) ई० मे० मे० । अहेरु: aheruh सं० स्त्री० शतमूली, शतावर । ( Asparagus racemosus, Willd ) प्रम अहेरी ahero-सिंघ० चन्द्रसूर (Lepidium sativum Linn.) ई० मे० प्लां अहोरात्र ahorátra - हिं० दिन रात दिवानिश, अहर्निश । ( Day&night महौज ahouja - श्र० लभ्वा मूर्ख आदमी | अहोम ahoum - अ० विशाल शिरवाला 1 (La rge-headed.) अहौर ahour - अ० हुरियड ( जिसके नेत्र का श्वेत भाग अत्यन्त श्वेत एवं काला भाग अत्यन्त श्याम हो । अ.हौल ahoul-अ० काज़, भेंगा जो एक चीज़ को दो देखे । ( Squint. . ahouliyyata - श्रo भेंगापन । स्ट्राबिज़म ( Strabismus ) - ई०। श्र. हौस. ahousa - अ० तंग चश्म-फा० । जिसके एक या दोनों नेत्र संकुचित (छोटे) हो । अहं जाs abjaa- ऋ० पालन पोषण करना, खिलाना । ( Bringing up. ) ग्रह आज़ ahjaza - अ० सोना, सुखाना | ( SIeep,cause to sleep. ) अहतम् ahtam श्र० जिसके अग्रिम देत खण्डित हो । श्रहता ahtáa - अ० कुब्ज, कुबड़ा हिं० । कूल पुश्त - फ़ा० । ( Hunch backed. ) प्र. ह दूब ahdab ० कूम पुस्त-फ्रा० । कुब्ज, For Private and Personal Use Only Page #875 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मह दव मह नाम् कुबड़ा-हिं । हज बैकड ( Hunch back- | अह मर ahmar:-अ० सुर्ख, सुख रंग-फ़ा० । ed.)-ई । ___रक्रवर्ण, लाल-हिं| Red (Rubrum.)। नोट-कुबड़ी स्त्री को अरबी में हुवा इतिब्बा ने इसकी चार कक्षाएँ निर्धारित की है, जैसे-(१) असहब अर्थात् सुख सफेदी मायल अ.ह.दब और अअस का भेद-जिसका | ( श्वेताभरक), (२) वर्दी अर्थात् अरुण वा पृष्ठ बाहर को निकला हो और बन भीतर को । गुलाबी, (३) कानी अर्थात् गंभीर रक और दबा हुधा हो उसे भह दब और बिरुद्ध इसके | (४) अक नम अर्थात् सुख स्याही मायल जिसका वक्ष बाहर का निकला हो तथा पृष्ट (श्यामाभ रक्रवण )। भीतर को दबा हुश्राहो उसे अकस कहते हैं । नोट-ग्रह मर का प्रयोग संकेत रूप से कप्रहदब ahdab-अ.वह मनुष्य जिसकी पलकें ठिन मृत्यु, मांस, मद्य, केशर तथा एक प्रकार के विशाल हो। छुहारे के लिए भी होता है। अहदर ahdar-० शोफ उदरीय, वह मनुष्य जिसका उदर शोथयुक्र हो । अहमर अक्तम ahmad-aqta.im-० अ.ह दल ahdal-अ० एकाण्ड, एक अण्डवाला, | श्यामाभ रक्रवण, अधिक कालापन लिए हुए लाल रंग। वह मनुष्य जिसके एक अंड हो । अह दाs ahdaa- अ० कुबड़ा, शोथयुक्र एवं ढीले | श्रह मर कानो ahmar-qani-१० गम्भीर स्कंधवाला। रक्रवण, लाल भभूका, अत्यन्त रक्रवर्ण । अहदाक ल बकर ahdaqul-baqara-अ० अह मर नासिन ahmax-nasia-अ० हलका काला अंगूर । ( Black var. of Vitis रक्रवण, पिलोई लिए लाल रंग (पीताम रक vinifera.) वर्ण)। रोग-विज्ञान में हलके लाल या पिलोई अहवाक ल मर्जी ahdaqul-marzi---१० लिए हुए लाल रंग के कारोरह. (मूत्र) को कहते उहवान, बाबूना गाव | (Parthenium हैं । यह नारी की अपेक्षा तीचण होता है। matricaria. ) अह दाब ahdaba-१०(ब० व०), हुद्ध ( ए० | अहमश ahmash-अ० जिसकी पिण्डलिया पतली और बारीक हों। १०) पलकें । ( Eye-lids.) मह दिया व अहादिया ahdiya vaahidivt. अह्याटः ahyātah-लं. पु. श्रोकड़ा । प० -अ० अजदहा-फा० | अजगर-हिं० । ( Boa मु.। constrictor. ) अह यून ahyuna-यू० एक बूटी है जिसका शिर अहन] ahnafa-ऋ० कल्च, टेढ़े या छोटे पांव अजगर के शिर के समान होता है। वाला । प्रब-फूटेड (Club-footed.) ई० । अहमक ahmaqe अ० मूर्ख, निर्बुद्धि, बुद्धिहीन, मह रारूल बुकल ahrarul-buqula-० वह तरकारियाँ जो कच्ची खाई जाती है, जैसे काहू बे समक, सामान्य। ईडियट ( Idiot. ) श्रादि। -०। अहमदाबादी मेवा ahmadabadi.mevi- | अह लब दिया ahla b-diya-सिरि० शबरम्, बम्ब० खिरनी, खीर खजूर, क्षीरी, राजादनी बाँस के समान एक बूटी है जो खेत और बगीचों -हिं० । काका दिया-गु०। राजन, केर्नी-मह ।। में उगती है। रायन-गु० । पल-ता०। (Mimusops hex.अह.लाम ahlam-१०( 4. व.), हुल्म (प. andra, Rond., Cor.) फा०ई०२मा०।। व०)(१) स्वप्न, निद्रा 1 (Sleep, dream.) १०५ For Private and Personal Use Only Page #876 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रहला (२) कुस्वा । ( Bad dream.) देखो- अह सा ahsa-अ. (ब० व०), हसा, हस्वह (ए०३०) हरीरा, दूधी, एक प्रकार का पतला अहला ghvala-सं० सी० भन्लातक भिलावाँ । आहार है जो साधारणतः स बस (भसी), शकरा (Semecarpus anacardium. ) | और बादाम तेल श्रादि के योग से निर्मित किया श० च०। जाता है । देखो-हरीरा (hurira)! अहवाल ahvila-अ० (ब० व०) दशा, अक्ष akshah-सं.) प... अवस्था, लक्षण । तिव ( वैयक ) की परिभाषा में अक्ष aksha-हिं० संज्ञा प [स्त्री० अक्षा] मनुष्य शरीर की तीन अवस्थाएँ अर्थात् स्वास्थ्य, (1) विभीसकी । बहेड़ा । (Terminalia रोग, तीसरी अवस्था (हालते सालसा) जो रोगा- beleriva) रा० नि० व०६। भा० म० रोग के मध्य मानी जाती है, यथा-सहजाधता ४मा० अञ्जन । “जग्ध्वाक्षकामलमायसन्तु।" श्रादि। यमा एलादि मन्थ वृन्द० । सि० यो० सिद्ध मड़ियह ahviyah-१० (०२०), हवा (ए० मतयाग कु० काम० वृन्द० । वृन्द । (२) व. ) वायु, हवा-हिं० । ( Atmos- 1 कर्ष परिमाण | कर्ष नामक तोज जो १६ माघे phere.) की होती है । प० प्र० । देखो-कर्षः । अह शा ahsha-० (ब० व० ), हशा (ए. (३) रुद्राक्ष वृत्त । भा० अने० ३०। प.), वक्षांदरान्तरिकावयव, उदर एवं वक्ष के (४) इन्द्राक्ष । ऋषभक । (१) सर्प । साप। भीतर स्थित प्रवराव । विसरा Viscera (10 (A serpent) मे०। (६) श्वास । दमा । ), विस्कस Viseus (ए००) ई० (७) ऋषभक । (८) देव शिरीष । शिरीष नोट-(१) बसान्तरिक अवयव को अहशा सद्री विशेष : रा०नि० व.है। एवं उदरान्तरिक अवयव को अहशा बत्नी और ! ___ क्ली० (६) विषयेन्द्रिय । इंद्रिय । रा०नि० पे अर्थात् वस्तिगररस्थ अवयव को श्रह शाउल | य० १० । वा.शा०३०। (१०) सौवर्चल भानह, कहते हैं। लवण, कालानोम । (Sochal salt)।(११) (२) डॉक्टरी में मस्तिष्क का भी अह शा सुस्थका तूतिया । मे. पद्विकं ।(१२) विभीतक में ही समावेश होता है। फल । (१३) पन बीज । रा०नि० २०११ . अह शाउल आनह. ahsbaul-aavah-अ० हिं० सज्ञा प० (१४) धुरी | किसी गोल पेन के जोन में स्थित अवयव विशेष । जैसे वस्तु के बीचों बीच पिरोया हुअा वह छड़ चा दंड जरायु, वस्त ( मूत्राशय ) आदि वस्तिगह्वरान्तर जिस पर वह वस्तु घूमती है। (१५) Pivot अवयव विशेष। पेल्विक विसरा ( Pelvie पहिए की धुरी । (१६) Axis बह कल्पित स्थिर रेखा जो पृथ्वी के भीतरी केन्द्र से होती हुई viscera.)-। श्रह शाउल बत् न ahshaul-batua-१० प्रौद उसके पार पार दोनों ध्रत्रों पर निकली है और रीय अवयव, उदरके भीतर स्थित अवयव, उदरा. जिस पर पृथ्वी घूमती हुई मानी गई है। शयस्थ अवयव । जैसे-श्रामाशय, यकृत, (१७) तराजू की डाड़ी। (१८) सोहागा । शीहा तथा प्रान्त्र प्रभृति | A bdominal टंकण ( Borax) । (१) श्रीख, नेत्र । viscera. ( An eye)। (२०) गरुड़ । (२१) अह.शाउस.सद ahshaussadra-१० वाक्षीया- FRITI ( Born blind) वयव, वक्ष के भीतर स्थित अवयव । जैसे-हदय, | अक्षकः akshaksh-सं० प. (१) विभीफुप्फुस आदि। थोरेसिक विसरा (Thoracic तकी, बहेड़ा । ( Terminalia belerviscera)-इं०॥ _ica ) भा० पू० १ भा०। (२)तिनिश वृक्ष, For Private and Personal Use Only Page #877 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir : अक्षकम् . अक्षत तिरिछ । ( Lagers tr:emia flos सली के नीचे की धमनी । (Subclavian regine ) र० मा "विश्वमक्षसम artery.) शिर्यान तह तुत्तकं वह-०। पिवेत् । च. द० ज्वरातिसा“चि। (३) अक्षकाधोवी शिरा akshakādho vartti रुद्राक्ष वृक्ष । श. २०। (४) इन्द्राक्षवृत। •shiri-हिं० संज्ञा स्त्री० हँसली के नीचे (१) सर्प । (६) २ तो. मान । मेक की शिरा । ( Subclavian vein.) षद्धिकं । अक्षकान्तरच्छिद्रम् akshakāntarn-cheअक्षकम akshakam-संकली hhidra 1-O FOTO ( Jugular प्रक्षक akshaka-हिं. सशाप । __notch.) अक्षकास्थि, हँसली ! Collar bone ( Cla | अक्षकान्तरीय स्नायुः akshakāntariya vicle ) । अज मुत्तक वह, अत्तर्क वह-अ०।। snāyuh-सं०प० (Inter clavicular) अक्षक धिस्थालक akshak-sandhi अक्षकारका akshakāraka-हिं० संज्ञा स्त्री० -sthalaka-हिं० सज्ञा प ( Fucet घृतकुमारी । ( Ale Indica ) वै० for clavicle ) निघः। अक्षकङ्काल aksha-kankala-हि. सशा tankila-हि. सशा | अक्षकाष्ठम् akshakashtham-सं० क्ली० qo( Axial skeleton. ) विमीतक काड। Terminalia belerअक्षकाधर akshaladhar-हिं० वि० ।। ica ( The root of.) च० द० पाण्डु(Subclavicular) हँसलीके नीचे का। चि० । . मक्षकाधर शिक्यम् akshakādhara shi- अक्षकास्थि akshakāsthi-हिं० संशा स्त्री. kyam-ao fato (Ausa subcla- अक्षक । हंसली की हड्डी । (Clavicle) via.) अक्षकूट akshakura-हिं० संशा पु० [सं०] मक्षकाधरा akshakadhara-हिं० सज्ञा आँख की पुतली । स्त्री० अक्षकास्थि तथा पहिली पसली के बीच अक्षकोत्तरा akshakottiri-स०(हि०सज्ञा) में रहने वाली एक पेशी विशेष । (Subcl. स्त्रा०(Supra clevicular.).. avius infraclavicular.) अज़लहे ।। प्रक्षगण: aksha.ganab-सं० पु. धोत्रादि तह तुसक्त वाह-अ०। इन्द्रिय समूह । ज्ञानेन्द्रियाँ। विषयेन्द्रियाँ । प्रक्षकाधरा धमनीakshaki.dharadham.! (The organs of sense.) ani-सं. (हि. सज्ञा) स्त्री० अक्षकाधोवर्तिनी | अक्षगन्धिनी aksha-gandhini-सं० स्त्री० धमनी । (Subclavian artery.) प्रतिबला । कंघी । ककही। (Sida rhom. अक्षकाधोधमनी akshakadho-dhamani | bifolia.) वै० निघ० ।। -हि० सज्ञा स्त्रो० हंसली के नीचे की धमनी । | अक्षणी akshani-सं. स्त्री० प । नेत्र ।। यह सली के नीचे के अंगों में शुद्ध रुधिर देती अथ०। १०१२ । । है। (Subclavian artery). अक्षतः akshatah-सं. प्रक्षकाधो पेशी aksbakādho-peghi-हिं० | . adho-peshi-हिं० | अक्षत aksbata-हिं० संक्षा प.. ___ संज्ञा स्त्री० हँसली के नीचे की पेशी । (Sub ( Barley.) यव, जौ । (२) (बहु०) *. clavious muscle.) पातप तण्डुल(चावल)।रा नि०प०१३॥ अक्षकाधोवर्तिनी धमनी akshakadho-va. (३)शस्य मात्र । धान्य आदि, बीहि यवादि । xtini-dhamani-सं० (हिं०स'ज्ञा) स्त्री० ० टो० भानुः । सं० पी० (४) For Private and Personal Use Only Page #878 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३६ मनावण्डुला प्रतमः लाजा । धारका लाया । मे0 । यव । जौ । (Ba. I (२) धर्मशास्त्र के अनुसार वह भुनभूमी rley) ५० मु०। .सने पुनर्विवाह तक पुरुष संयोग न किया हो। "लाजेषु त्रिवहिसिते । यवेऽपिक्वचित्" । (३) कर्कटगी, काकड़ासींगी । (Rhus मे० तनिक । कोई बिना टूटे हुए चावल को acumill: tir.) कहते हैं जो देवताओं की पूजा में चढ़ाया अक्षते-चे-खारaksha te-che-khora-अक्षत । जाता है। | फा० ई। संघिo, हिं०वि० (१) अव्रण । जिसमें अक्षतैलम akshu-tnilan-सं. क्लो. बहेला क्षत या घाव न किया गया हो । (२) अहि सत ।। का तेल. विभीतकल। बयहा बीजेर तेल मे०। i - (Terroinalia belerici (Oil (३) अखंडित । बिना टूटा हुश्रा । सांग of-) वा० उ०१३०। पूर्ण । समूचा। शर० । अक्ष दण्ड ।ksha.dandaअक्षतण्डुलt akshatandulā-सं० स्त्री० महा । अक्षयरः akshardharth-सं० पु. शाखोट सनंगा क्षुप । रा०नि० च०४। । अक्षतयानि akshata-yoni-ह. । वृक्ष । शेोड़ा गाछ-व। भरि प्र०। (Tro phis is per2- ) ( कन्या ) जिसका पुरुष से सम्बंध न हुआ हो । अक्ष बुर aksihindhiil::-हि. संज्ञा पु० कुमारी । वर्जिन (Virgin.), वजों इन्टैक्टा । [6] पहिए की धुरी। ( Virgo-intacta. )-ई। बाकिरह, अज राजदोशोज़ह नाबालिग़हा अ० । दोशी ज़ह | अक्षधूत':,-र्तिलः akshrdhārttah,rtti-फा० । कुँवारी, कुँवारी औरत-हि०, उ०।। 1h-सं० प. वृषभ । बैल । बाल-ब० । ( A हिं० सज्ञा स्त्रा० (१) बह कन्या जिसका bull, an ox.) हारा०1 पुरुप से संभोग न हुआ हो। (२) वह कन्या प्रक्षन akshana-हि० संत्रा पु. ( Axo. जिसका विवाह हो गया हो पर पति से समागम in.) सेन को जो शाखा नाड़ी बन जाती है न हुमा हो। . उसे प्रक्षन कहते हैं। प्रक्षतरागःakshata-logah.-सं०पू० उपनख | अक्षपाकः ॥ksha-pākah-सं० १० सच्चन रोग विशेष। . लवण | (Soclhal sult.) वै० निघ०। लक्षण-वात पित्त कुपित होकर नन के मांस | अक्षपिंडः aksha-pinda th-सं०५० शंखपुष्पी । को पका देते हैं जिससे वेदना और ज्वर पैदा हो ( Andropogon aciculartum.). जाते हैं। इसरोग को चिप्य, अक्षत वा उपनख निघ। रोग कहते हैं । यथा- "धुर्यास्पित्तानिल' पकं नख | प्रक्षपाड़: aksha-pidah-सं) पु. (.) मांसे सरुग्ज्वरम्,चिप्यमचत-रोग च विद्यादुपनखं | .. श्वेत बुहा । श्वेतवुह्वामूल । रसेद्र चि०. च तम् ।"वा० उ०३११० । पाल हाड़ा-बं० । अ०। (२) दुरालभा । ( Alhagi ma. क्षतर्वार्य akshata-viryya-हिं० वि० urorum.) सु० चि०६ 800 [सं०] जिसका वीर्य पात न हुआ हो । जिसने | | अक्षणी(डका)ड़ा akshipidala),-da-सं. स्त्री संसर्ग न किया हो। स्त्री० (१) काल मेघ । शंखिनी । यधतिक । अक्षता akshata-हिं० वि० [सं०] जिसका ( Andropogon paniculata, Ve. पुरुष से संयोग न हुआ हो । ४.) रा०नि० २०३। (२) श्वेत वुहा । संज्ञा स्त्री० (१) वह स्त्री जिसका पुरुष । सु०। ए० मु.। से संयोग न हुआ हो । | अक्षम: akshamah-सं० पु. (१) स्थूल For Private and Personal Use Only Page #879 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रक्षिक मूलक । (२) वन चटक, जंगली गौरैया। अक्षा शिरोधिजा aksha.shirodhiji-सं० ( Wild-sparrow ) वे निघ० । (-मा) स्त्री. मन्यास्थ शिरा । धै० निधः । स्त्री. (1) अद्धान्त । ईर्ष्या । ( Envy.) श० अक्षसमा aksha-suna-सं० स्त्री० (Axis र. (२) असमर्थ । अशक । vertobra, second cervic:1 verअक्षम aksharma-हिं० वि० [सं.] [संज्ञा ! tebra.) अक्षमता] (1) मारहित । असहिष्णु । (२) असमर्थ । अशक । लाचार । अक्षसमा पृष्ठ कोया संधिः akshasama-pri shthakiya.sandhib-सं०क्ली (Occ. अक्षमता akshamati-६० संज्ञा स्त्री० [सं०] ipitc- $111 joint. ) (१)क्षमा का प्रभाव । अस अक्षसस्यम् aksha-sasyam-सं० क्लो० करिस्थ असामय। मन्त्रमाला akshamāla-हिं० संज्ञा स्त्री० [सं०] फल, कैथ । कवि-म० ( Feronia ele phantan.) वै० निघ० । रुद्राक्ष की माला। अक्षसूत्र akshasutra-हिं० संज्ञा पु० [सं०] मक्षय akshayu हि० वि० [सं०] | रुद्राक्ष की माला। अनथ्य akshayya , जिसका क्षय न हो | अक्षहान aks hauhiniu-हिं० वि० [सं०] नेत्रअविनाशी। अनश्वर । सदा रहने वाला। हीन । अंधा। अज्ञर: aksharah-सं० मक्षांश nkshansha -हिं० संज्ञा पु, [सं०] अक्षर aka bara-हि से (१)भूगोल पर उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवसे होतीहुई (1) अपामार्ग, चिचड़ा । ( Achyran- एक रेखा मानकर उसके ३६. भाग किए गए हैं। thes asparn.) हे. च.।-सं. क्ली इन ३६० अंशों पर से होती हुई ३६० रेखाएं (२) जम्न (Water )। (३) अपामार्ग पूर्व पश्चिम भूमध्य रेखा के सामान्तर मानी जल । (५) आकाश । (१) अकारादि वर्ण। गई हैं। अक्षांश की गिनती विषवत् वा भूमध्य हरफ |-हिं० वि० मन्युन । स्थिर । अविनाशी । ! रेखा से की जाती है। (२) वह कोश जहाँ पर नित्य। चितिज का तल पृथ्वी के प्रब से कटता है। अक्षरुन्नकम् aksha-ruclhakam-सं. क्ली. अक्षार लवण akshara-lavana-हि. संज्ञा मृशिका जवण | खारी मिट्टी। सोस-बं०। सोर प.(१) वह लवण जिस में चार न हो। मिट-मह। ० निघ० । नमक जो मिट्टी से निकला हो । नोट-कोई मशरेखा aksha-rekha-हि. संज्ञा स्त्रो० कोई सेंधे और समुद्र लवण को अधार लवण [सं०] धुरी की रेखा । वह सीधी रेखा जो मानते हैं। (२)वह हविष्य भोजन जिसमें नमक किसी गोल पदार्थ के भीतर केन्द्र से होती हुई न हो और जो अशौच और यज्ञ में काम पाये। दोनों पृष्ठों पर लंग रूप से गिरे। अकृत्रिम सँधव प्रादि । जैसे दूध, घी, प्रावल, असल गुड़: akshala.gndab-सं० पु. तिक मूंग और जौ आदि । हारलता। (Axis cylinder.)। अक्षि akshi-सं0 क्लीo, हिं0 सज्ञा श्री० नेत्र, अक्षवाट aksha-vat-हिं० संज्ञा पु० [सं०] अखि, नयन । (Eye.) रा0नि0 300 अखाड़ा। कुश्ती लड़ने की जगह । प्रक्षिकः akshikali-स० पु . । अक्षवार्यवान् aksha-virvvavin-सं. प. अक्षिक akshika-हिं० सज्ञा' श्वेत करवीर, श्वेत कनेर | Nexium odo (A)रञ्जन वृक्ष । पाउच गाल-401 (DalbTum (White yar. of-) वै विष०।। ergia pujeiniensis.) रत्ना०। (२) For Private and Personal Use Only Page #880 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अक्षिकुण्ड: अक्षिरोगः पाल का पेड़ । पाच्छुक । (Morinda cit. अतिदण्ड akshidanda-हिं० सज्ञा प rifola.) (Axis) अक्ष। अतिकुडः akshi-kundah-सं0 प ० (O अक्षिपञ्चकम् akshi-panchakam-स'0 _bit) अक्षिखात। ___ कला० श्रोत्र, स्वचा, रसना, नेत्र और नासिका। अक्षिकुडीय ukshi-kundiya-स. त्रि० रा०नि० ब०१८। (0. bisal) अक्षिखात सम्बन्धी । | अक्षिपटल akshi patala-हिं० सशा पु.। अक्षिक्टः , rakshi-kuralh,-kah-सं०ए० अक्षिपटलम् akshi-patalam- क्ला (१) Eye ball. ईपिका, नेत्रतारा, अति- आँख का परदा । ख के कोए पर को मिली । गोलक | वा. सू० २ ०। (२) गजादि- नेत्रपटल । पलक । (Eye-lid, A coat पुटक, गजाति गोलक । हे० च0। of the eye-) . अक्षिणितम् akshi-kānitium-स0 क्ली0 अक्षिपदम .ksi-pakshma-स. क्लो. अपांग दृष्टि नेत्र लोम, अक्षिवम, बरौं धी। ( Eyelash, अक्षिकृष्णम् akshi-krishnam-स0 फ्लो० Cilia) सु० शा०३।१४। नेत्र का काला भाग । शतप० । अक्षिपाकात्ययः . akshipakatyalt-स'. अक्षखत akshi.khata-हिं० संज्ञा पु० प' अक्षि कृष्ण गत रोग विशेष । अक्षिगुहा, गुहा, श्राँस्व के रहने के गड्ढे को । लक्षण -जिसकी प्रोखों से गरम पानी गिरने - गुफा । ( Orbits of eyes., orbital से फुन्यो हो पाए । दोनों पटलों में शुक्ल फूला cavity.) प्राप्त हो जाने से ये लाया होते हैं। जिसमें मक्षिगु(गू हा akshigu,-gu,--11-स'हिं० मूंग के समान शुक्ला हो. वह असाध्य है और सक्षा) स्रो० बाँख के गड्ढे । ख के रहने । जो तीतर के पंख के समान (काले रंग का) के गड्ढे की गुफा । ( Orbit of eyes.): हो उसको भी कोई कोई असाध्य कहते हैं। प्र० शा। तीनों दोषो से जिसके नेत्रके काले भाग में चारों प्रक्षिगोलः akshi.golah-स0प नेत्रतारा । ओर से सफेदी का जाती है उस नेत्रपाक को (The ball or globe of t'e eye ) त्रिदोषज अदिपाकास्यय नामक नेत्र रोग धैयों को वै० श० सिं०। त्याग करने योग्य है। मा०नि०। प्रक्षिगोलक akshi golaka अक्षि पीलु: akshi-pillar-सं०१० महागिम्ब । अक्षिगोल akshi-golam (Melia azedarach. ) 0 निधः। -सं0 क्ली जाँख का वेतन । (Ball of the : अक्षिबुदबुदः akshi.budabuda-सं० प.. ___eye-) (Optic vesicle, Bulb of the मक्षिचालनीkshi-clhalani-स'0 स्त्री० eye.) (Oculo-motor. ) अक्षिभेषजम् aks.li-bies!haji m--स0 क्लीo अनिच्छादनम akshiclichhade num- ( श्वेतलोध्र । सफेद लोध । मद०व०१। सक्लो अक्षिपचम, अधिवर्मन I (Eye-la• पट्टिका सेन, पानी लोध्र । रा० नि०व०६। sh, cili) रला०।. | (२)नेत्रीषध, नेत्राशन । अक्षिणी akshini-सस्त्रो0 चक्षु, नेन । अथon ! अक्षिमण्डलम् uksri-mandalam-सं० की. सू० २ । ३३ । का । नेत्रमण्डल । शतप० । अक्षितारा akshi-tara- हिसका स्त्रीo[स] अक्षिरोग: akshi-rogah-सं० पु. नेत्ररोग, . साख की पुतली। i: बहरोग । ( An eye disease.) For Private and Personal Use Only Page #881 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अखिलोम.. मक्षाव अतिलोम akshi-loma-स० क्ला० नेत्ररोम, | अक्षीणनामारसःakshinanāma-rasan अक्षिपचम, बरौधी । ( Eyelasli, Cilia.) पु. स्वेदन तथा पातन किए हुए और सस्कार भक्षिवः akshival-स'. पु... (१) शोभा- । से बीजोत्पादित पारे में पोदशांश सुवर्ण का अन वृक्ष, सहिजन । शजना ०। (Guila. जारण करें। इसके पश्चात् १६ गुना गंधक ndina or Hyperanthera moril- जारण करें। फिर पारे का चतुर्थांश सुवर्ण और nga.)। (२) मरिच । (Pepper.) रा० १६वा भाग गधक होलकर, जम्भीरी के रस नि० व०७।-क्लीo ( ३ ) समुद्र तयण । अथवा किसी भी स्वटाई से मर्दित करके टिककी ( Sea salt.) o ato #1 बनाएँ। फिर कच्छपयंत्र में या सोमनास यंत्र में अक्षिवम akshi Vartma-स0 क्ली0 अक्षि नीचे ऊपर पिट्ठी से टूना या तिगना गंधक देकर TAI ( Eye lasli. ) पिट्टी को बीच में दयाएँ। फिर चूल्हे पर खड़ा अक्षिविचूर्णितम् akshi-vichynitan-स० कर ३ दिन तक मंद मंद अग्नि दें। इस तरह क्ली अपांग रष्टि । हे० च०। करने से सुघण' के साथ पारे की भस्म होगी। अक्षिवैराग्यम् akshi-vairagyam-स उपयुक्र विधि से मारा हुश्रा पारा १ भा०, क्ली० आँख का लाल होना, नेत्र विरकता ।। कांतपाषाण या इससे निकाला हुआ लोह भस्म "चकोरस्याक्षि वैराग्यम् ।" वा० सू० ७०।। १ भाग, मारा हुया अभ्रक सत्व, ताम्रभस्म एवं अक्षिशूल akshish ila-हिं० सहा पु. [स] शुद्ध गंधक दो दो भाग, इन सबको खरल में नेत्र वेदना । आँख का दर्द । ढाल कर तीन दिन तक लगातार मान करें। प्रक्षिशुकाम akshishukla.m--स'० क्लो. फिर इसकी टिकिया बना छाया में शुष्क कर नेत्रका सनद भाग । शतप० । भूधर यंत्र में करीष की अग्नि दें। फिर इसको अक्षिशीष nkshi.shosha-हिं० सज्ञा पु.. निकालकर शीशी में रखें। [स. ] नेत्र शुकता । मात्रा-१ मा० रस गुढची सत्व तथा योग्यताअक्षिसेचनम् : kshisecinnam-स. पली० नुसार मुलेठी और बंशलोचन व शहद मिलाकर नेत्रनिस्तोद वा प्राश्चोतन अर्थात् परिषेक ।। चाटे तो ४ महीने में पथ्य सेवा के क्षय को इसकी विधि निम्न है: निमून कर देता है। विधि-रोगी को वातरहित स्थान में बैठा ___ पथ्य-चावल, गोघृत, तक्र, गेहूँ और जौ । कर बाएँ हाथसे आँख खोलकर सीपी, प्रलंबा वा रस० यो० सा० । रुई के फाहे से दो अंगुल ऊँचे से जाख भक्षीवः akshivah-स० ० के नारे पर दस-बारह न डाल दें। तत्पश्चात् अतीव akshiva-हि० सशा प. कोमल वस्त्र से पोंछ कर ग नग ने पानी में चेलवर्ति (१)गांभाञ्जन, सहिजन का पेड़ । ( Moriको भिगोकर धीरे धीरे आँखों में स्वेदन करें।। nga pterygosperma) मे. पत्रिका यह श्राश्चोतन वात कफ में किया जाता है रक च० सु. ४० कृमिघ्न व०, चि० ३ अ० । पित्त में नहीं । वा. सू०२३ अ०। (२) महानिम्ब ! ( Melia azedarach) अक्षिहुण्डनम् : kshiltunday m-सं० क्ली० भा० पू०१ भा७ । (३) वधिर, चक ।-क्ली. नेत्रव्युदास । मा० नि० विज०२० । (४) सामुद्र लवया, समुद्री नमक । (Sea प्रतीकः akshikah-स' ०० वृक्ष विशेष । salt) पाहा-ब । भा० पू० भा०1 (५) श्राउच-बं० । रत्ना० । ( A tree.) मरिच । Block pepper (Piper nigr. अक्षीण akshini-हिं० वि० [सं०] (1) जो um)1-त्रि., हिं०वि० श्रमत्त । जो मतवाला न न घटे । (२) अविनाशी। हो । चैतन्य । धीर । शांत । For Private and Personal Use Only Page #882 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अक्षुणे ४० भैहातयंदों अक्षुण akshana-हिं० वि० [सं.] (1): प्रक्षोन akshobha--हिं० सनाप [स] अभग्न । बिना टूटा हुअा। अच्छिन्न । समूचा । | क्षोभ का अभाव । भनुद्वेग । दसा। धीरता। . (२) अकुराल, अनाही । स्थिरता। प्रायः aksheyat-स'. ५० रनार्क, लाल वि० साभरहित । चंचलता रहित । उद्वेग मदार। वै. निघ। Calotropis gig n. शून्य । स्थिर । गंभीर।शति । tea ( The red var. of-) देखो-प्राका अक्षोहारः akshot airah-स'० पु मधु प्रक्षोटा-कः,-को akshot th-kah,-ki | स्खजूरी, मीठा खजूर का पेड़ । वै० निघ०।। -स.पु., क्ली. अखरोट, अकरोट | The | अक्षणा akshna-स' स्त्री० चतु, नेत्र, भाला। ...... walnut (Juglans regia.) देखो ( Eye) अखरोट। | अत्यम् akshyam - स. क्ली. सौवर्चन क्षमण, प्रक्षोट तैलम् .kshiora tailam-सक्लो साँचर (ल) नमक । ( Sochal salt.) अखरोट का तेल । ( Walnut oil.) अच्यस्थिः akshyasthili स. प. प्रश्. गुण-मूलक ( मूली ) तैलवत् । वस्थि । (Lacrimal bone.) अक्षोड़,-क: Akshoda, kali-स० पु. अचातय चमा ajnyati-yakshmi--सं० पु.. अखरोट। Juglans regia (The ! अज्ञात स्वरूप संग दोष से लगनेवाले रोग। walnut.) र० मा अथ सू०।११।२। का०२। For Private and Personal Use Only Page #883 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शुद्धिपत्र ( ERRATA ) rver 64 64 G GAp ARIKA पृष्ठ कालम पंकि अशुद्ध शुद्ध पृष्ठ कालग पंकि ३ जुम्मेदोरी जुम्मेदारी | १५ १ १५ शातलं शीतलं २१ संघन सघनं ६ पूर्वच्छेद शवच्छेद १६ हिंदी हिंदी - राघुबदीय । रायुर्वेदीय प्रकारकरभः प्रकाकरभः १ १ १ ओर और स्त्रा स्त्री शब्द aázáa azzáa " " २३ akár kántá akar.. ३ २ १७ मुशाबिह तुल मुशाबिह kánţa अज तुलअज्ज़ा | १८ १ २६ I'ometosa. Tomen- " " tosa | २८ Egptiaca Egy.! १: ptiaca ३४ Integrifoila Integ. rifolia २ ककन्युटा कस्क्यटा १४ Embroyo Embryo Cusuta Cuscuta " ३५ Laeppa lai lappalai और वाली वाला अनाका अनीको २० २ २३ aqaduniya aqadu. niya पु ओर " aqiqa aqiqa २६ aqarqarha aaqarq. arha १२ तिब्बी तिब्बी akarkántá akara kánţa कजदुम कज़ दुम aaqig ज्वोति री। aaqiq ज्योति रीठा घिः १३ अधः अ(प) कीरेन्योस कीरैन्थीस २ ३१ bboor brinishthan har For Private and Personal Use Only Page #884 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पृष्ठ कालम पंक्रि " " २३ २ ३० २ : : স্ময় पृष्ट कॉलम पंक्ति अशुद्ध शुद्ध रोगन रोगन २५, २६ केबांच वाँच Necca Mecca | " " ३२ Indigoplent Indigopl. Balın Balsam ant २ बायुगोला वायुगोला यु० Hotero- Hetero. | phyllum phylluin सं. की खानिकुत्र- खानिकुन्न वक्ष नमिर मिर २३ अग अगर अनस्यून ६ ब वासलीक व बासलीक aqumar aqumar- " " ३५ अकहाल कहाल sbún shúna. अ० अ० वंच निककती निकलती : " : " : M .. " अ० उसवर्ग उपवर्ग ३७१ २३ पीताभयुक्त पीतामायुक्त २६ हरिताभयुक्त हरिताभायुक्त १३ अफ़ाक अस्फाक 30 againk agaclank. aralı arah 3! agaduká- agadanka. Tab rah विषघ्न गधन अगन ३२ अगन चश्मानो-अगन चश् का मानो काँच ३३ हिं० पु. गु० १५ agparaganei agnato aganeta टिषेरा १२ गाढ़ गाड़ लाड लाइ ४० १ अफा १०, फा० " २८ तेल गनाम तेलग नाम २ १० बर्मा बनो बमी भाषा, बाला वाला इसका" इसकी... आता श्राती अगोला गेला २७ औषधियां ओषधियाँ " २७ aakki alki २ २७ अदीदस अक दीदूस २८ aqna aagna. बाला वाला aqrfa aqraf २५ अकबी अकवी " २८ हिं० ब० हिं० वि० " ३१ अका अका १३ एवं पवं १ १४ Phormac Pharm opoeea acupueial Despens Dispensa atory tory २ १५ ' anb and १६aklahaklah टिपेरा २२ • MN: .. झरी Kuid कुष्णागुरु कटिकृत और श्रगस्ति इसका पाक Kind कृपणागुरु क्रटिकूट और अगस्तिए " इसको . ५४ २ १६ पाक For Private and Personal Use Only Page #885 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ग] कार्य प० चेट्ट m पृष्ट कॉलम पंक्ति अशुद्ध शुद्ध | पृष्ठ कॉलम पंक्रि अशुद्ध ५५ १ मा मो०, ० २ ६ (१) (२) १ २० aghārah agh irah o nartridge partri" २२ agardhu-agara. dge mah dhúmah लवलबह्य लबलबह 3 tay tai काय " २५ घुयाँसा धुवाँसा सं० संझा २४ आक श्रोक adj adj. य. १ ३५/a गंगोद्घाटक रोधोद्घाटक | pan bont bent " २ ३. secrations secretions| ८५ गिश गिशा ५६ २ २७ व्यौहार व्यवहार | ८५ कोरिया कोरिऑन् " " ३० (घातकी) (घातकीन) -७ dentala dentata ६० २ १५ रोगो रोगी प्रकारा प्रकार " २ २६ अघोरी अगौरी चेटु ६१ २ २४ Zianieum Zeylan- | उगन उगना icum खोना खोथा ६२ १ ११ Succnum Succinum " " १२ agdi aghi २६ अङ्कशकास्थि अशास्थि ६४ १ ३४,३५ obious obvious २६ ankus:- ankus" २ ७ fadu fabu asthi hasthi ६५ १ २३ phthisis pthisis प्रकशिन अङ्कशिन ६७ १ २३ कपीस कापस " " ६ श्रङ्कसा असा १८१ ३१ श्राचाया श्राचार्य उपयोग उपयोग ६८ १ ३१ वत्र का भी वच भी १ २६ गर्भः, वषनः गर्भविषन्नः " २ ३८ Cardissper- Cardios. . 39 Lanlarck Lamarck mum permum का ७० १ ८ jaani janani करता ७२ २ ३५ वानष्ठोला वाताष्ठीला हरण करता ७३ २ ५ मन्त्र यन्त्र थोड़ी थोड़े RF mákbain mukham प्रभति प्रभृति ७५ २ ६ ० क्ली० | ६५ १ २० peptalum pe talum ७५ २ १७ पु० क्ली. २१ अङ्कालमु अकोलम ७५ २ ३२ Verden. Verben-६६ २ ३८ angada. angadam _____ace e ace a dam ७६ १ ३२ राहिणी रोहिणी 18- १ २८ व्यथ व्यध ७७ २ ३ virryyam viryyam " २ १ वाहन वहन OF { po vasha veşlia ला ७. १ १० अरंड-कुसुम अरण्य कुसुम ! १ १३ घेदन : - arr . De के x . . बेदना For Private and Personal Use Only Page #886 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्यान पृष्ठ क्रॉलम पंक्रि अशुद्ध शुद्ध पृष्ठ कालम पंक्रि श्रशुद्ध ६६ २ २६ Zinzibar Zingiber १४० २ १७ लिए में लिए १०० १ ३१ अङ्गासदनन् अङ्गसदनम् १०१ १ १४ संयाग संयोग १४२ १ १२ वनस्पत्यांद्यान वनस्पत्यु१०२ २ ३० टका टीका १०३ २ ३१ Can Cane हास हुऑस १०५ १ ६ अययव अवयव १८ शूक शूकर १०६ २१ श्रयण्टम् अङ्गुपण्टम् " २४ नाटे नोट १०७ २ २७ Jodid Iodide २ ११ यग योग १०. २ २६ Ointmet Ointment! दवा दया १०८ २ 3- Varetrni Varetrini १०६ ३५ धमाकम् गन्धकम् ३२ अजवावन अजवायन २० स्टेवीसैका स्टेफील ग्रा sebative sedative २ २६ हमेनेलिल हेमेमेलिस धतगेन धतूरीन १ १६ अंगुश्तफा अंगुन-फ़ा० ३४ soporifle soporific २३ tae वाले toe वाला २ ३३ Paseolus Phaseolus seolus i esa ? भ्रंश पूणरूप ५ २५ का का और और १२७ २ ५ उसका उसको १२६ २ २७ aajamaya aa jainaya अनामून अनीमून १३० २ १० प० पं० १८ वि. स्त्री० १३१ २ ३१ बाष्प वाष्ण संक्षा .संहा १३४ १ ३६ बारहे अरमनी बारहेअरमनी " २ १,२ अज़रफत, २३ ग्रहण्याधिकारे ग्रहण्यधिअज़रफ़त, ऋजफत अजफत " ३. पांडुरीग पांडुरोग " २१ कवाँच कवॉच १३६ १ २८ mubavv mubavvi 35 Helicteris Asclepias १७ प्रकृत्याजाणं प्रकृत्यजीणे isora, Linn. geminata, नाट Roxb. knțaka kanţaka १३७ १ ३६ Umbili- Umbelli १०-१० feræ ferae लौंग लौंग १३८ १ १४ अजमोदा अजमोदा के प्रार और १३६ १ ४ AguaAqua २५ लामड़ी लोमड़ी " " २३ शोथों के शोथों की। मोर और २६ अजवायनको अजवायन का " २ २६ होती होता अज़त अज़त १४० १ २२ मोर और मिपी मिश्री २६ तल तेल १६४ १ ३४ साद साइद १ स्त्री० क्ली कारे नोट जा जो For Private and Personal Use Only Page #887 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तर ० of . कबह पृष्ट कॉलम पकि अशुद्ध शुद्ध 1 पृष्ठ कालम पंक्रि अशुद्ध शुद्ध १६४ २ १० अजाफ़ जीफ १६५ १ १४ azghāsa anghasa २. pliulifera pilulifera. १६५ २ ३ अज्ज़ाजा मज्जाजी बीजे बीज संघातिन संघानित २०० २ २ लग्नू लिम्बू निर्बलता निर्बलता २०१ १ ४ जांक जोक " " २० अग्निहह अज्निहड् " २० atraphy atrophy " " ३५ अज़फर अजफर २०२ २ ef १ जससे जिससे Catchu Catechiu फा० करी कटारी १ १५ कण्टिक स्थि करिठकास्थि २ १० स्त्रा स्त्री ' २१ विस्मयनी विलमइयनी १ ११ ओर और '' २ २५ अजमुक्यह अमुरुं. १ ५ खु.स्यह खु.स्यह २६ पारयरिथ पाण्यस्थि ६ फातह फोतह १७१ १ ६ पश्चात् के पश्चात् ७ खुस्यों खु.स्या : प्रजन " २६ पपावपेगा पाव(पेपा) भजनः फिजौरे बिजौरे २ ३६ लम्थे लम्बे शुष्क शुभक ३७ विषमर्ती विषमवर्ती १ ५ पुष्पभ्यन्तर. पुष्पाभ्यन्तरशुष्क कोष कोष शुष्क शाँत शांत की क्तेद २ २८ होतो है होते हैं मस्तिस्क मस्तिष्क ३५ जाई १३ अपवतन संयर्तन २७ वाइकाबोंनेट बाइकार्बोनेट १ ११ मित्राय अभिप्राय भोनन जाता लाता कह दान कह दाने मोहसी श्राइसी २८ सुहाग सुहागा शाता गा जाता जौहर ३२ युक बिषयक विषयक का २२६ २ अपवर्तन संवर्तन २२८ २ स० " ३ घृहमा वृंहण " २० नापुिष्प २६ । २३ पुष्पसार पुष्पसार नारिपुष्प १६५ १ ३ वष अतलस्पश अतलस्पर्श १६६ १ १० ओर १ २३० २ ३५ वधता बँधती " २ ६ क्योंकि क्योंकि १६७ १ म बुष्टिकारक पुष्टिकारक ! २३४ १ १२ अबाध्य प्रवाध्य डॉक्टरा डॉक्टरी २३५ १ १६ जव जय मुलेटी मुलेठी भोजन " २ १९. गो २ जौहर, युक्त की सं० १६३ वर्ष और नैलिद For Private and Personal Use Only Page #888 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir : : शुद्ध २५४१ [ च ] से कॉलम ६कि अशुद्ध शुद्ध पृष्ठ कालम पंकि अशुद्ध शुद्ध २३६ २ २१ जुनाल हशफड, ताजुल २८० २ ७ ric tra chch- ne tra.ch। हशफ़ह. dada chhoda करटक करटक | २८१ २ ६ Inferor turt-Inferior २३६ १ १८ atijagar- atijagarab binate turbinato २८२ १ १५ होना nan होना " " २३ atijagar- atijagara | २८२ १ २० (२) (३) | २-३ nah १ २४ aah २५२ १ ३ Jiun | २८३ १ ३१ पेठ Linn. २५२ १ ३० ताहिए चाहिए २५३ २ ५ अवस्था अवस्था २८५ २ २७ Gossypinm Gossy. piurn पाठा २८५ २ ३५ soluhble soluble , २ २८ कानन, कानन २८६ १ १ arnga.m anangam ३८ बलातो सार बालातीसार २८६ १ ४ वेकांत वैक्रांत २५४ १ श्रीर __ और अक्सगल ऑक्सगॉल २८७ २७ प्रार और लोरोफॉम ___ क्लोरोफॉर्म | लागलो (४) लागली विजा विजय २.१ ३० अग्निकन्थ अग्निमन्थ क्तोरिक क्लोरिक २८८ २ २ crountry country सैंघव | ঘৰ २६० १ २१ सुस्वाद सुस्वादु १४ स्यबार्य रयुबाई २६३ २ २१ वल वल २६ ग्रमाण प्रमाण २६४ र ४ भल्लोतककी भल्लातकी २५६ १ १८ शहद २६४ १७ भल्लातक्याम्ल भल्लातक्यम्ल २५ २ ४ बंद। prikha parikhá " " प्रतिषेषक प्रतिषेधक २६८२ २६ पभाव प्रसाय वल्य भोर २५६ १ १३ अस अतोस ३०१ १ २२ हाता होता २५ १ २३ होती होती ३०२ २ मद्ययपान मद्यपान २६३ २ १७ रक्ता धिक्य रक्ताधिक्य Tukiua Tukina २६४ २ ३० atyudirna atyudirna, ३०४ १ २४ सौर २६७ १ २३ कन० कना० रक्त रस २७ षीस पीस १ २१ खैरसार खैरसार ३०१ १ पत्तों के पत्तों को २७१ १ २६ officialis officinalis १२ १ संक्षा संचा हुमा हुना खताई मैनफल मैनफल ३१४ २ १ सुगंधित सुगंधि . २७७ १ २० गंगलव गंगलवण ३१५ २ २१ तुप्त और ३२० २ १५ मा २५ कंद और और रख खताई तृप्त For Private and Personal Use Only Page #889 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir को स ३३४ १ पृष्ठ कोलम पंक्रि प्रशुद्ध शुद्ध पृष्ठ कॉलम पंकि अशुद्ध शुद्ध ३२३ २ १० एवं एवं ३५० १ २२ होता x ३२५ २ २० संक्षा ___ संज्ञा ३५० २ २० प्रख्या अच्छा ३२५ १ १४ पं० पु० | ३५० २ ३७ ३२५ १ ३३ Followrig Following ३५१ १ ३३ prishishta parishi, २ - स्त्री क्लो shța , १८ Thalicl- Thalictrum | ३५२ २ ३४ अधिक अधिक rum ३५३ २ प्रमृति प्रभृति Fliosam Eoliolosum D.E | ३५- १ ३२५ २ ३० उ"वल उज्ज्वल ३५६ २ चली चला अ०। ३२६ २ ३ Vapourist- Vapouris tiou ation 1 ३६० १ १८ जन्ममकाल जन्मकाल ३२७ १ १८ औपध औषध ३६० १ २४ परिस्तृत परिविस्तृत सोनामुखा ३६० २ १५ प्रांत्रस्त प्रांत्रस्थ ३३२ १ २६ दाकर हाकर ३६० २ २०, Gariec Lacti Gastric Lactic ओर और ३६० २ २३ व्योहार व्यवहार ३३४ २ रवाधीन स्वाधीन भातर भीतर ३३५ १ १४ ३६३ १ १८ सन्तमम सन्तमस अनाना अनीना ३६३ १ २१ अधतगस अन्धतमस अमोन अनोना ३६८ १ ३ सस्कार संस्कार अन्य हाता होता औषधों अन्य औषयों १४ अंगल्याप अंगुल्यन ३३७ १ १ अनङ्गित् अनगिन् २ १६ कक कफ ३३६ १ १३ ओर और ३८० २ २२ श्वतापराजिता श्वेतापराजिता ३३६ १ २८ खंड खंड ३८२ १ Letio Ilectic ३४३ १ ३५ अन्तरात अन्तरातप ३८१ २ ३१ लोलोफॉर्म क्लरोफार्म ३४४ २ २० अनंतम अन्तिम ४०१ १ खंड ३५४ २ २७ गह्वर गह्वर ४०१ १ क्तेशपद क्लेशपद ४५१ नोट-'अन्तरीय उदरच्छदा' से 'अन्तमः | ४०४ १ ____२८ ४६ हानाद' तक के शब्द पृष्ठ ३४३ द्वितीय | ४०४ २ परिणाम परिणाम कॉलमके अन्तमुख शब्दसे पहिले होने चाहिए ४०५ २ १६ अपमार्ग अपामार्ग और 'अन्तमुखा' 'अन्तलसिका से पहिले तथा | ४०६ १ २ कमज़ोर कमज़ोर 'अन्तर्लोहिता' 'अन्तर्वत्नीसे'पहिले होने चाहिए । ४०६ २ डाकर डालकर ३४८ १ १६ संक्षा संज्ञा ४०६ १६ ३४८ १ ३४ $hroniga shronigk, ४१६ १ १७ चतुष्टथ चतुष्टय ३४६ २ १५ इल्ति- इल्ति- ४१६ " " कियाएँ क्रियाएँ ३४६ २ २ इं ४१६ २ ३५ वानस्पतिक वानस्पतिक क इं For Private and Personal Use Only Page #890 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir by নথা पृष्ठ कालम पनि अशुद्ध शुद्ध पृष्ट कॅालम पनि अशुद्ध शुद्ध ४२४ २ ३८ Sipnace Spinacea : ४४२ , , उवाचन उच्चाटन aoleracca oleracea » R& producedy produced ४२६ १ ३४ वणन वर्णन ४४२ " ३३ प्रमोग प्रयोग " २ ३४ अभिश्राप अभिशाप ४२८ १ २१ London London ४४३ १ १ अ १ २३ प्रयागांश प्रयोगांश " , ४ क्लोरिका क्लोरिक ४२६ १० वस्त्र वस्त्र " , ५ Hyorochl. Hydro. , , २६ Hipperate Hippoc. oric chloric rate ११ नवीन नवोन " , ३७ प्रबुनन प्रबुनन १४ abhinya abhinava ४३२ १ ३२ tamarina tamaruna. " , १६ दृथक पृथक् ४३३ १ १६ akhi hsa akhras २३ kamehva kameshva ४३४ १ १३ adda abda ३० puat puta ४३८ १ ३७ साय साथ | ४४४ १ ३४ abhimukha abhi, २ ३० aa.lah ablah ruchi ४३६ १ १८ desie desire भथ भय " , २५ खड खंड मा० मा. , २ - कागजी कागजी भाभिषड़ अभिष ३३ अम्लघेतस अस्लवेतस adhi abhi ४४० १ १८ guta guți घोड़ा २१ abhayadi abhayadi , , २२ vati vati abbi thitá abhi hita ४४१ २ ३३ ) एक उपसर्ग नोट-यह पृष्ट ३५ abhisaugab abhish " " angah ३५) करता है। ४४२ के १७, ३६ अभिषङ्क आभिषत स्तम्भ के प्रथम पंक्ति के बाद होना चाहिए । | ४४२ १ १५ वाला वाला किया " " २४ स्त्री हब्बुलापास हब्बुलास और adheda abheda ३ botter butter देखो- देखो-वात५ गी घी व्याधि। १७ भारा ४४६ नागरमोधा नागरमोथा २० घशीकरण वशीकरण २१ अभिचारक अभिचारक पत्र abhcha. abhichar- ! उहधातु उपधातु raka aka बह यह , २२ अंत्र यंत्र करणाभ्रक कृष्णाम्रक " पीड़ा किपा स्त्री चारा पर पर For Private and Personal Use Only Page #891 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra पृष्ठ कॉलम पंक्रि " ४५० २ ४ ४५१ १ ४ १६ "" "" 53 39 33 ४५२ 37 33 17 17 33 ४५३ 93 99 35 39 ४५४ 29 33 ". 33 12 ४५७ 27 97 زر " WO :A 19 33 " २ २ " 12 "" no = #! મ " " 22 12 - "" २ 23 ४५५ १ RM १ " 39 ४५६ ર 99 २ 1) 22 "" 5 D २ " "} "" " 11 29 19 1 x x w 2 x 20 m १४ ३४ ३६ " २२ २६ १० "" ३० ३२ १ : १४ २८ ८ ३८ ११ ૬ १५ १६ ३४ २२ ३१ ३७, ३८ ३ ४ अशुद्ध 安安名 教研究 $ १४ १७ शुद्धि चूण तदन्तर उसके तदनन्तर उसको टिकिया प्रत्येक कथ काथ २४ भावना भावना ६ भस्म ही प्रस्तुत भस्मप्रस्तुत टिकिवा प्रग्येक गाड़ा जिलोय खाँड फा दूधरा नको स्वभाविक स्वाभाविक हीड़ा पीड़ा मारी भारी जठराग्नि जठराग्नि कज्ज विकृत योगिक www.kobatirth.org शुरू तर सेवन द्वंद व्याधियों श्लेष्मिक आवरक होगी श्वेद परिवर्तत [झ ] 收材 अभ्रक दूसरा अको शुद्धि चूर्ण गाढ़ा गिलोय खाँड़ का व. ज्जल विकृति यौगिक वर्ण | पृष्ठ कॉलम पंक्रि ४५७ परिवर्तक सागिक सागिक 39 १८ क्रियायों २१ साम्यस्तिथि 33 ४५८ 22 " 19 39 " " 39 33 31 13 *E २ - 19 17 19 37 ४३० ४६१ २ ४६२ १ २ "" 33 " 17 वशलोचन वंशलोचन ४६७ 98 [ ور "" 73 17 સર १ २ क्रियाओं साम्यस्थिति ४७७ $3 ww 20 १ २ २ " 31 1 " 33 " 2200 39 50. "" १ १ W== N " १ 31 33 15 २ 39 १ तरह ४६८ १ सेवन | ४७० १ द्वंद्व ४७१ १ ५ डदरीय व्याचियों ४७९ २ २५ पस्थ्य श्लैष्मिक ४७२ १ ६ सेमन २ ३८ राक्षनिघंटक आवरक होगा ४७५ १ २१ कीटदंष्ट्र स्वेद For Private and Personal Use Only ३२ ११ अम्रक २७ ३२ Hecticfe ४ क्ली ० ३३ पर्यन्त २३ ३५ २६ २ ५ १२ ३५ १७ १५ ३७ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५ अशुद्ध ११ • ३१ पत्थ्य hritaki २० ३८ tragia ३४ fragia Semima Semina Maugifora Mangifera पौघा पौधा beq bela २३ ३७ cassythaiei Cassytha formis ह -dda filiformis -gadda sálah २६ sáláb ३१ Comumnis Communis १० लर्थात् अर्थात् २३ इन्द्रवारुणीलता इन्द्रवारुणीलता २८ bededeis bedensis श्रौर और वैदूर्य काँ साध्य वात Embelia मो० rsouia rsonia मस मांस विशेद विशेष बहुत मूत्र ladian शुद्ध अम्रक Hectic मुना स्वाद पुं० पर्यन्त मोजन काथ सुस्वाद पथ्य haritak वैदूर्य कास कष्ट साध्य बात: Emblica rito बहुमूत्र Indian उदीय पथ्य सेवन राजनिघंटुक्त कीटदष्ट भुना स्वादिष्ट भांजन काथ सुस्वादु Page #892 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir . [H] * * * * * * * थान " चणे वरतु ३५ w ६४० पृष्ठ कॉलम पंकि प्रशद्ध शुद्ध पृष्ठ कॉलम पक्रि शुद्ध :४७ , १० सं० पु० संज्ञा पु. ५४६ २ २१ यीच बीज ... २ २२ प्रलक प्रयक्त ५५१ २ १४ Enbhcambinca ४७६ २६ वन्द्रंक वद्धक | ५५६ २ १७ भारनवर्ष भारतवर्ष '४० २ २८ äyumí संक्षा संज्ञा ayumí १५ seeral several 30 amarylled- amaryll. » sccented scented aceve edece २३ सम्सुखवर्ती सम्मुखवर्ती ४७ २ ३ सर रस E Rnciius Ricinus YE १ ४ शांचादि शौचादि २२ वनस्पत्यांधान वनस्पत्यु। , २ २३ कि किसी , ३२ प्रकार प्रकार २ २७ खोनामाखी सानामाखी ११ औषष औषध १५ षडषण पड्षण arbáārbaâin arbáar. R& Phyllanti Plyllan baāin hus tlius ५६६ , २७ मौसतत् औसतन प्रत्येक प्रत्येक प्रतिशन् प्रतिशत Villa Willd. ४६८ २ १ वस्तु हाहड़ा हाइड्रो प्रमाव प्रभाव कचनाल कचनार रागी रोगी ३० तबशोर तशीर ५११ १ १६ काबनास कानास अक अवयव वयव होते ५१३ २ २३ लगमग लगभग पता होता ५१७ २ ३ रख रखें ५२१ १ १६ स्त्री० स्त्री० १३ उक उक्त म २ २ कराकारी करटकारी प्रदार्थ पदार्थ ५२२ १ २५ अर श्रेय इन्द्रय इन्द्रिय ५२५ २५ रक रक्त २२ अर्ण जजमलः अर्णव जमल: " " ३३ अञ्चनहारी अञ्जनहारी ६७४ २ दृढ़ ५२७ २ ३१ पाज पञ्जाब ३८ तथ तथा ५२: २५ अम्राजा अम्राज़ 3 arbuda arbud ५३१ २४ ताकोलिक तात्कालिक = almu uniya armu५३२ २ ३४ अन्न ज़ अन्राज़ niya " . ३५ अम्माड़ा अम्बाड़ा she Sum The sun ५३४ २ १ amlka amlaká वाल बाल ५३५ २ २६ शुकला शुकला araga arraqq ५४२ २ १४ ओर और २६ aruza arruza ५४६ १ ३२ स्वाद्वाम्त स्वाम्ल uaza urza यौकिक यौगिक अक " " २० " हाते * * ६७८ २० For Private and Personal Use Only Page #893 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org तेखा ल पृष्ठ कालम पंक्ति अशुद्ध शुद्ध पृष्ठ कॉलम चक्ति अशुद्ध शुद्ध ६८५ २ १६ ऊरता ऊद्ध रेता कपड़े से ढंकदें। इससे २४ तुन्तुओं तन्तुओं | सुखपूर्वक पसीने निक" , ३० वास्तधिक वास्तविकता लेंगे। इसको 'अश्मघन देखो स्वेद'या कर्ष स्वेद कहते Sqirits spirits हैं। च० स०अ०१४। से से से ७६३ १ २५ अभाव श्रभाव १६ Onacardium Anacardium १ १५ अगाह्य अंग्राम माम भाग ७७० २ १७ पिकाएँ पकाएँ २५ लाह को लोह की । ७७६ १ १४ दाता होता गाड़ ७०८ १ २५ Alarge A large " ३२ श्रोर और ३१ alikh alikah | ७७६ २ - दोबार दाबास २ ५ श्राप पशुक अल्पशुक | ७८० १२ प्रचीन प्राचीन अमट ७६१ १ १ अष्टपादिका अष्टपादिका , २८ अगलालग अगलागल । ७९५ २ २६ फस्म भस्म ७३१ २ २ उता उतार ८०७ २ ३६ धूस धूसर ३२ कारला क्लोरल - २ १ अस्कर असकङ्कर ७३७ १ १ नाड्यात्र सादक नाड्यवसादक १२ ५ तअनज तअजम 040 5 aváchính aváchinah १५ अवस्थ्यावरक अस्थ्यावरक ७३४ २ १६]nssolubility lnsolub. | indiucum indicum ility १ ३५ फ इलिय्यल फाइलिय्यह ७५० १ १० रक्तभायुक्त रक्ताभायुक्त , २ २६ सय सडाँत्र , , ३८ asha ma asham ,, ३७ प्रमाव प्रभाच ,, २ ६ ashitambhl. ashitam ८२५ २ ११ शबर शंकर avah bhavah ३० २ १२ Phyllant. Phyllan. ७५६ २ २७ अश्मन स्वेद अश्मघन स्वेदः । husc thus oşbmaghanasvedal सं.पु. रोगी प्रमाण एक सूचना-पृष्ट २५. से १२७ तक की हस्तलिपि स्थूल शिला का वातनाशक साफ़ न रहने के कारण उसमें कुछ अधिक अशुलकड़ियाक अंगार से तल दिया रह गइह। आग माजा खास खास कर उष्ण जलसे धो डाले, अशुद्धियाँ थीं उन्हें हो यहाँ दिया गया है। शेष पुनः उस पर कस्बल वा दृष्टि दोष से रहे हुए तथा संशोधन संबंधी एवं रेशमी वस्त्र बिछा कर प्राकाशकीय सामान्य भूलों के लिए हम पाठको वातनाशक तैलों द्वारा के क्षमा प्रार्थी है। दो तीन स्थलों पर क्रम में अभ्यङ्ग किए हुए रोगीको | भी कुछ व्यतिक्रम हो गया है। प्राशा है उदार सुन्नपूर्वक सुला कर रुरु | पाठकगण उसे सुधार कर पढ़ेंगे। मृगके चर्म या रेशमी । -प्रकाशक: For Private and Personal Use Only Page #894 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ® अयुर्वेदीयानुसंधान ग्रन्थमाला का प्रथम पुष्प छ सर्प-विष विज्ञान (ले० बाबू दलजीतसिंहजी वैद्य ) रचयिता आयुर्वेदीय-कोष पुस्तक के सम्बन्ध में काफी सूचनाएं निकल चुकी हैं। अस्तु अधिक लिखना व्यर्थ है । पुस्तक क्या है? आज तककी प्रकाशित अप्रकाशित आयुर्वेदीय, युनानी, तथा डाक्टरीकी प्रायः सभी आवश्यक पुस्तको'का निचोड़। अस्तु इस पुस्तक के लिए 'गागर में सागर भर देने' की उक्ति ठीक ठीक चरितार्थ होती है। यही नहीं, अपितु इसका प्रत्येक स्थल निज अनुभव से श्रोतप्रोत है। बीसों वर्ष की सर्प-दष्ट-चिकित्सा एवं सद्विषयक अन शीलन व अनुसंधान के पश्चात जो जो मुझे सत्य एवम् परीक्षा सिद्ध मालूम हुए उन्हीं को इस पुस्तक में स्थान दिया गया। इसमें सर्प भेद, सर्प विष, सर्पदष्ट निदान व चिकित्सा, साध्यासाध्यता, प्रारम्भिक चिकित्सा, मायुर्वेदीय, युनानी तथा डाक्टरी एवम् स्वानुभूत चिकित्सा आदि प्रायः सभी श्रावश्यक ज्ञातव्य विषयो । शास्त्रीय, प्रामाणिक एवम् वैज्ञानिक ढंग से काफी प्रकाश डाला गया है। अंत में विच्छ एवम् ततैया डंक की स्वानुभूत चिकित्सा एवं लघुकोप देकर युस्तक को समाप्त किया गया है। इसमें पेटेएट औषधोंका भी खूब ही भंडाफोड़ किया गया है। पुस्तक सर्व साधारण एवं वैद्यों के दैनिक उपयोग की चीज़ है। इसके द्वारा वे अपने एवं' औरों के प्राण की रहा कर खूब ख्याति प्राप्ति कर सकते हैं, साथ ही यश के भागी भी हो सकते हैं। इसी बात को ध्यान में रख एवं कई मित्रों के अनुरोध से इसका मूल्य भी।) के स्थान में १) कर दिया गया, जो इस पुस्तक की उपादेयता को ध्यान में रखते हुए अत्यल्प है। एक बार अवश्य मंगा कर परीक्षा कीजिये । यदि पसंद न हो तो एक सप्ताह पश्चात् लौटा देने पर डाक व्यय काट कर शेष मूल्य वापिस कर दिया जाएगा । देखिए इसके संबंध में बयों के प्राचार्य एवं प्रमुख पत्रिकाएँ क्या सम्मति देती है:महामहोपाध्याय श्री कविराज गणनाथसेन शर्मा सरस्वति विद्यासागर एम० ए०, एल० एम० एस०-- "I have gone though your bookand found it an elementary treate ise of excellent value" कविराज प्रतापनारायणसिंह, रसायनाचार्य आयुर्वेदिक कालेज हिन्दू युनिवर्सिटी "मैंने श्री दलजीतसिंह जी लिखित "सर्पविष विज्ञान" पुस्तक पढ़ी। यह पुस्तक "सर्प विष" पर की जाने वाली सब देशी विदेशी चिकित्सा का खासा संग्रह है। इसको पढ़कर पाठक सर्पविष चिकित्सा का अभिज्ञ हो सकता है और विज्ञ हो तो चिकित्सा भी कर सकता है। विद्वान लेखक ने संग्रह करने में बहुत परिश्रम किया है। माशा है इस उपयोगी पुस्तक का विझजनता लाभ उठा कर लेखक का उत्साह वद न करेगी" | द त्रिवेदी बी० ए० आयुर्वेदाचार्य--पुस्तक वास्तविक में परिश्रमपूर्वक खोज के साथ लिखी गई है एवम् बढी महत्व की है। हिन्दी में सर्प सम्बन्धी:जो १-२ पुस्तकें प्रकाशित हुई है उनमें यह श्रेष्ठ है। ___ श्री रामनारायण मिश्र हेडमास्टर हिंदू सहल बनारस--मैंने सर्प-विष--विज्ञान पढ़ी। यह पुस्तक हर एक घर में होनी चाहिए । बालचर लोगों के लिए यह बहुत उपयोगी है। नोट-और भी बहुसंख्यक सम्मतियाँ एवम् पत्र पत्रकाओं की समालोचनाएँ मौजूद हैं। विस्तार भय से उन्हें यहाँ नहीं दिया गया ! पुस्तक मिलने का पता मैनेजर-श्री हरिहर औषधालय, बरालोकपुर इटावा, यू० पी० । For Private and Personal Use Only Page #895 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Serving JinShasan 045696 gyanmandirect For Private and Personal Use Only