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अभ्रकम्
लता, प्रमेह (शुक्र), और पूयमेह (युजाक) के लिए असीत गुणकारी और परीक्षित है।। (सदारियह ।।
२-नौसादर १ तो०, फिटकरी ॥ ती०, अभ्रक २॥ तो०, नौसादर और फिटकरी को १ छ० पानी में घोलकर इसमें अभक के बारीक पत्र को तर करें और रख दें। १ घंटा बाद उसे डंडे से फ़ूड़े में यहाँ तक रगड़ें कि दृधकी तरह सफेद हो जाए फिर उस में बहुत सा पानी डाल दें। जब अभक तल स्थायी हो जाए तब पानी को निकाल दें। और ताजा पानी डालें, इसी तरह बारंबार करें जिससे जल में नीसादर श्रादि का स्वाद न रहे । फिर सुखाकर रख दें।
गुण--उप प्रधान ज्वर यथा पैत्तिक व प्रां. निक में मा० शर्बत अनार के साथ दिन में तीन बार खिलाएँ। बालक को २ रत्ती से ४ रत्ती तक दें। अनेकों बार का परीक्षित और सदा से प्रयोग में पा रहा है । ( रफोक)।
६--अभक को कत्तरी से कतर कर रात्रि में अम्ल दधि में तर करें । प्रातः काल जल में घोकर काकजंघा बूटी के स्वरस में एक प्रहर खरल करें। धूल की तर हो जायगा ।
गुण-मूत्र प्रणाली के रोग, सूजाक, रक प्रमेह, रक्त निलीवन, नासारक स्त्राव, पुरातन कास, श्वास कष्ठ, कुकुर खांसी, विविध उष्ण प्रधान ज्वर, शोथ, जलोदर, यकृत्पदाह, प्लीह शोथ, शुक्र प्रमेह और सैलान के लिए अनेकों बार का परीक्षित है।
मात्रा घ सेवन विधि- रत्ती से २ रत्ती तक मक्खनमलाई या पान के पत्र वा कोई अन्य उपयुक औषध के साथ सेवन करें' (म.रुजन
श्वत अभ्रक भस्म विधि १--श्वेताभू का चूर्ण करके अभकके बराबर शारा और गुड़ मिलाकर खूब करें और कूट कूट कर टिकिया बना सम्पुट में रख कर गजपुट की अग्निदे। एक पुट में अभक की श्वेत भर बन जाती है । यदि एक बार में कुछ कसर रह जाय तो इसी तरह दूसरी बार करने पर अच्छी भस्म बन जाती है।
अभ्रकम् नोट-श्वेत अभ्रक में न तो लोह होता है न कांत । पशुजम् स्फटिकम् और शैलिका के योगिक होते हैं इसकी जब शोरे के साथ म का जाता है तब पांशुजम् धात कजलीष्मेत् भामक यौगिक में और स्फटिकम् ऊम्मेत् में भिन्न तथा शैलिका कजलोप्मेत् से मिल जाते हैं । यह भस्म इतनी उपयोगी नहीं। यह बहुत कम लाम करती है।
मृत भस्म को परीक्षा श्रभ्रक की भस्म जब चमक रहित अर्थात् निश्चन्द्र तथा काजल के समान अत्यन्त बारीक हो तब उसकी ठीक भस्म हुई जाननी चाहिए अन्यथा नहीं। निश्चन्द्र भस्म को ही काम में लाना चाहिए क्यों कि यदि चमकदार हो तो यह विष के समान प्राण का हरण करने वाला और अनेक रोगों को कर्ता है। कहा भी है
मृतं निश्चन्द्रता यातं मरणं चामृतोपमम् । सछीद्रं विश्वद शेयं मृत्युकृद्धहु रोगकृत् ॥
श्रमतीकरण त्रिफला का काढ़ा १६ पल, गोघृत ८ पल, मृत अभ्रक १० पल इनको एकत्र कर लोहे की कढ़ाई में मन्दाग्नि से पचाएँ । जब जल और घी जल जाएँ केवल अभ्रक मात्र शेष रह जाए तब उतार शीतल कर रख छोड़े और योगों में बरते। कोई कोई प्राचार्य केवल घृत में ही श्रमृतीकरण करना लिखते हैं। यथा
तुल्यवृतं मृताभ्रेण लोहपात्रे विपाचयेत । घृतं जीणं ततश्चूर्ण सर्व कार्येषु योजयेत् ॥
अर्थ-अभ्रक की भस्म समान गोधून लेकर लोह को कढ़ाई में चढ़ा उसमें अभ्रकको पचाएँ। जब घृत जलकर अभ्रक मात्र रह जाए तब उतार कर सब कार्यों में योजित करें।
अभ्रक के गुणधर्म तथा प्रयोग अभ्रक की भस्म विभिन्न विधियों द्वारा प्रस्तुत कर अथवा उचित अनुपान भेदसे प्रायः सभी प्रकार की सईब गर्म बीमारियों में व्यवहृत होती है। उक्र अवसर पर यह प्रश्न उदाना व्यर्थ हो नहीं, प्रत्युत अपनी अज्ञानता का सूचक है. कि विभिन्न
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