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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभ्यथिा,-धी अवगूदपण्डु भा० पू. १ भा० । रा०नि० १० ११ । (२) श्रवण शुक्रः avrana.shukrah-सं० पु० । हरीतकी, हा ( Terminalian che bur | अव्रणशुक्र avrana shukra-हिं० संज्ञा पु.) la.)। (३) महाकावशी, गोरखमुण्डी । नेत्र के काले भाग (काली पुतली) में होने ( Spheranthus hirtus. ) भा. बाला रोग विशेष । आँख का एक रोग जिसमें पू. १ भा० गु०व० । (४) मामलकी, प्रामला अाँख की पुतली पर सफेद रंग की एक फूली सी (Phyllanthus emblica.)। (५) पड़ जाती है और उसमें सुई चुभने के समान लक्षणा, लक्ष्मणा मूल (Lakshamana-)| पीड़ा होती है। (६)सोंठ। ___ लक्षण-अभिष्यन्द के कारण यदि नेत्र अम्बाथा,-थी avyatbih,-thi-सं० पु. के कृष्णा भाग में श्वेत वर्ण की, चलायमान अश्व, घोड़ा । ( A horse.) वा० सू० ४ तथा अतिपीड़ा और अशुओं से व्याप्त न हो प्र. प्रजास्था । एवं जैसे अाकाश में बादल होते हैं इस प्रकार की फूली हो तो उसे श्रवण ( Uण रहित ) शुक्र अव्यथिषः avyathishah-सं० प. (१) (फूली) कहते हैं और यह सरलतापूर्वक साध्य समुद्र ( A sea.)1 (२) सूर्य । (The होती है (झट अाराम हो जाती है) । और यदि sun.) सि० को। यही फूली गभीर और गाठी हा बहुत दिन का भग्यथिषा avyathishi--सं० स्ना० (1) पृ. हो जाए तो उसे कष्टसाध्य कहते हैं। सु० उ० थिवी ( Earth.)1(२) अई रात्रि, मध्य ५०। निश, प्राधी रात । ( Midnight.) जो फला श्रभिष्यन्दात्मक (प्रास्त्रों के दुखने से भव्यथ्या avyathya-सं० स्त्री० हरीतकी, हर।। उत्पन्न हुआ) कृष्ण भाग में स्थित हो और { Terminalia chebula.) भा० पू० घोष (सिंगी, तुम्बी) आदि से चूसने के समान १भा०। पीड़ा करे और शंख, चन्द्रमा तथा कुन्द के फलों अव्यभिचारी avyabhichari-हि. वि० [सं० के समान सफेद, प्रकाश के समान पतला और अव्यभिचारिन् ] जो किसी प्रतिकूल कारण से प्रण रहित हो उस शुक्र को सुख साध्य कहते हटे नहीं । हैं। जो शुक्र (फुला) गहरा तथा मोटा को अन्यया avyayi.-सं० स्त्री. गोरखमुण्डी । महा और बहुत दिनों का हो उसको कष्टसाध्य कहते श्रावणी । गोरखमुण्डी-मह । गोरक्ष-चाकुलि हैं । असाध्यता--जिस फूले के बीज में (Sphaeranthus Hirtus. ) गड्ढा सा पड़ जाए या उसके चारों ओर वै० निघ०। मांस बढ़कर उसको घेर ले, अचक्ष न रहे अर्थात् एक जगह से दूसरी जगह में चला जाए, अव्यर्थ aryartha-हिं० वि० [सं०] (1) सूक्ष्म शिरानों से व्याप्त हो, इष्टि का नाशक, जो व्यर्थ न हो । सफल । (२) सार्थक । (३) दूसरे पटल में उत्पन्न और चारों ओर से बाल प्रमोध । हो तथा बहुत दिनों का हो तो ऐसे शुक को वैध अभ्याध्या avyadhya-सं० श्री. दुष्ट शिरा त्याग देवे। मा०नि०। वेधन । जो शिस शस्त्रकर्म (छेदम, वेधन) से अवतः avratah--सं० पु. वह ज्वर जो बिमा वर्जित है ( उसका वेध होना) अध्याध्या कहाती नियम के प्राता है। अथ सू० ११। २। है । यथा--"प्रशस्वकृस्या अव्याध्या" । सु० का०७। शा०प्र०। अव्वगुड़ avvagura अध्यापw avyapanna-हिं० वि० [सं०] अव्वगूद पण्ड avvaguda-pandu ज़ो मरा न हो, जीवित, जिंदा । ते? भाबुब्व । महाकाल, लाल इन्द्रायन । For Private and Personal Use Only
SR No.020060
Book TitleAayurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size27 MB
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