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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अश्वगाया अश्वगंधा थाए (अर्थात् समस्त अश्ववाचक शब्द), उम | नागोग गंध भी कहते हैं। नागौरी असगंध सब को असगंध का पर्याय समझना चाहिए, सर्वोत्तम होता है। . . जैसे, तुरंगगन्धा वा हयावया प्रभृति । अश्व वानस्पनिक. वर्णन-असगन्ध के जुग कदिका, काम्बूका, अश्वावरोहकः (र), प्रश्चा. २-२॥ हाथ उच्च एवं शाखाय हुल होते हैं। रोहा (हे), हयगंधा, वाजिगंधा, अश्वगन्धिका, पत्र युग्म ( जोड़े जोड़े), अराहाकार, अखंड, यल्या, तुर(ग, अ) गन्धा, कम्बुका, अरावारोहिका, '२ से ४ इंच दीर्घ, ह्रस्ववृन्त, लोमश तथा चौदे तुरगी, बलजा, वाजिनी, अवरोहिका, वराहकर्णी, होते हैं। पुष्प शुद, हस्वन्त, कसोय ( पत्रहया, पुष्टिदा, बलदा, पुष्टिः, पीवरा, पलाशपर्णी, वृन्तमूल से होकर प्रस्फुटित होते), शाखाग्र वातघ्नी, श्यामना, कामरूपिणी, काजा, प्रिय स्थित, दलबद्ध; दल (पुत्राभ्यंतर कोप)घण्टा. करी, गन्धपत्री, हरप्रिया, वाराहपत्री, वाराहकर्णी, ल्याकार, पोताभ हरिद्वर्ण, और प्रत्यं न लघु होते तुरंगगन्धा, तुरगा, वाजिना. वनका. हयप्रिया. हैं । फल छोटे, लाल, मसण, मटराकार, एक कम्बुकाष्ठा, अवरोहा, कुष्ठघातिनी, रसायनी और झिल्लीवत् कुण्ड (Calvx ) से प्रावरित और तिका । गुण प्रकाशिका संज्ञाएँ--"पुष्टिदा", शिखर पर खुले हुए होते हैं, पजे असंख्य "वल्या", "वातघ्मी" "वाजीकरी" | हिन्दीकाक नज-द० । अश्वगंधा-पं० । काकमजे हिन्दी अतिदुद्र, लगभग एक इंच का वाँ भागदी, -०, फा०। बहमन बर्स-फा. विथेनिया पीताभश्वेत, वृक्काकार, पार्थद्वय संकुचित बीज सोम्निफेरा (Withania sounifera, वाझावरण ( Testa) मधुमक्षिकागृहवत् होता Dunal.), फाइसेलिस फ्लक्सुअोसा ( Phy. है। समग्र चुप हम्ब, सशाख, सूक्ष्मा रोमों salis fluxuosa.), फाइसेजिस सोम्निफ्रंरा से पाच्छादित होता है । मूल मूलकवत् शंक्वा(Physa lis somnifera, !-wil. ) कार, किंतु क्षीण-ऊपर से हलका धूसर परंतु - ले. विण्टर चेरी( Winter cerry.) तोड़ने पर भीतर शवेत होता है । कधी जड़ से -०। मूरेङ्कप्पेन ( Moorenkappen) अश्व मूग्रवत् (तीच्या अग्राह्य ) गंध भाती -डच० । अङ्क लङ्ग कालंग, अश्वगरादी-ता०। है, इसी कारण इसको अश्वगंध प्रभृति नामों से पेखेरु-गड, अशवर्गधी, पिल्ली यांगा-ते. । पेवेट्टे, अभिहित करते हैं । शुष्कावस्था में गंध नहीं अमुकिरम्-मल | अंगबेरु, सोगडे येरु, हिरे-वेरू, होती एवं यह अत्यंत मृदु होती है। सका हिरे-महिन(-वेरु )-कना० । पासकन्द, असम्ध, स्वाद तिक्त होता है। सासंध, प्रासाद, अंगुर, श्रासन्धिका, अशवगन्धा, सुला, कञ्च की, दोरगुञ्ज-मह० । धारक ___ व्यापार में पाने वाली शुष्क जड़ ५ से. सन्ध, पासाँध (घ), श्रासन-गु०। फतरफोदा इञ्च लम्बी और शिखर से किञ्चित् अधःस्थ -गो० । ढोरगुज-देव असगन्ध-यम्ब० । बय- स्थूलतम भाग चौथाई से पाच इंच चौड़ा मन-सिंध । अमुक्रा-सिंहली । (व्यास)होता है। यह मसूण, चिक्कण, शंकवा. कार, बाहर से हलका पीताभधूसर वर्ण का और । वृद्धती व भीतर से शवेत एवं भंगुर होता है। टुकड़े "लघु (N. 0. Solacea. ) ... और शवेतसार पूर्ण होते हैं। मूल विरता हो उत्पत्ति-स्थान भारत के शुष्क एवं घोषणा | .. सशाख होता है। शिखर से संश्लिष्ट कतिपय भाग यथा बम्बई, पश्चिम भारतवर्ष वा पश्चिमी कोमल काण्ड के अवशेष वर्तमान होते हैं। घाट और कभी कभी बंग प्रदेशमें मिल जाता है ।। अणुवीक्षण द्वारा परीक्षा करने पर जब में पाए असगंध नागौर प्रदेश में बहुत होता है और | जाने वाले पदार्थ प्रधानतः कोमल, घरदाकार, वहाँ से सर्वत्र भेजा जाता है। इसी हेतु इसको कोषावृत शवेतमार द्वारा निर्मित होते हैं। यह For Private and Personal Use Only
SR No.020060
Book TitleAayurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size27 MB
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