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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अनीसन www.kobatirth.org इतिहास -- धनीसून अति प्राचीन श्रोपधियों में से है। सारिस्तुस (Theop hrastus) और दीसकुरादूस (Dioscorides ) ग्रादि यूनानी तथा प्लाइनी ( Pliny) प्रमति रूमी चिकित्सकों ने भी इसका उल्लेख किया है। पर, ऐसा ज्ञात होता है कि प्राचीन हिन्दुओं को इस श्रोषधि का ज्ञान नहीं था; क्योंकि आयुर्वेदीय ग्रंथों में इसका उल्लेख नहीं | पाया जाता है। अनुमान किया जाता है कि मुसलमान आक्रमणकारी इसे फारस से अपने साथ लाए जहाँ से कि अब भी यह बम्बई के बाज़ारों में लाया जाता है । वानस्पतिक वर्णन - इसका पौधा लगभग १ गज़ ऊँचा होता है । शाखाएँ घनाकार पतली होती हैं । पत्र एला पत्रवत् किंतु छोटे एवं सुगंधियुक होते हैं। प्रत्येक शाखाके सिरे पर श्वेताभ पुष्प होते हैं, जिनके भीतर कोषावृत्त जीरा के समान छोटे छोटे बीज होते हैं । प्रनीसू के फल का श्राकार एक सा नहीं होता। उत्तम भूमि में होने वाला २ से, इं० लंबा होता है । सासा ? न्यतः ये ६० लंबे श्रौर, ६० चौड़े होते ३२० हैं। ये किसी प्रकार गोल, अंडाकार, किनारों पर से दबे हुए, लोमश, ख़ाकी या भूरे रंग के और दो भागों में विभक्र होते हैं । इनके संधिस्थल पर एक छोटी सी दंडी होती है । प्रत्येक फल पर इस उभरी हुई रेखाएँ होती हैं । ये सौंफ से छोटे और रंग में उनकी अपेक्षा हरित एवम् श्यामाभायुपीतवर्ण के होते हैं । इनकी गंध श्रत्यन्त प्रिय होती है। शुष्क बीजें को कूटने और फटकने पर इनके कोप भूमीकी तरह पृथक् हो जाते हैं I इनमें सर्वोत्तम प्रकार वह हैं जो आकार में अपेक्षाकृत वृहत् एवं तीव्र सुगंधिमय है। और जिनके ऊपर से भूसी के समान छिलका न उतरे । क्योंकि इनका प्रभाव अधिकतया इनके कोप में ही है । स्वाद-सुगंधियुक्त, प्रत्यन्त प्रिय एवं मधुर | परीक्षा - यद्यपि धनीसून के बीज, शतपुष्प ( Dill ), बिलायती जीरा ( कराविया ), सौंफ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनीसुन ( Fennel ) और शूकरान ( Conium ) तोभी, अपने विशेष वानस्पपहिचाने जा सकते हैं । के समान होते हैं। तिक लक्षणों द्वारा रासायनिक संगठन - फल में २ से ३ प्रतिशत उडनशील तेल होता है जिसको अभीसून का तेल कहते हैं । इसमें एनीथोल ( श्रनीसून सत्व ) या एनिस कैम्फर ( Anise camph 01 ) ८० प्रतिशत, एनिस एल्डीहाइड ( An ise aldehyde ) तथा मीथिल - केविकोल ( Methyl chavicol ) होते हैं । प्रयोगांश- श्रीतुल्य इसके बीज (फल) ही अधिकतर व्यवहार में आते हैं । प्रकृति- तीसरी कक्षा में रूस और जालानूस के दो भिन्न उद्धरणों के आधार पर इसकी उष्णता दूसरी या तीसरी कक्षा में है । परन्तु, म, खूज़नुल्अद्विग्रह के लेखक के मतानुसार यह दूसरी कक्षा में उष्ण और तीसरी कक्षा में रूक्ष है । प्रतिनिधि - सोना, श्रामाशय के लिए सौंफ और कामोद्दीपन हेतु तुख्म जुरह । हानिकर्तातथा दर्पन - वस्ति को हानिकर हैं और बुस्सूस ( मुलेठी के सत ) से उसका सुधार होता है । उस प्रकृति वालों में शिरःशूल उत्पन करता है और सिकञ्जबीन से वह दूर होता है । मात्रा -- १॥ सा० से ६ मा० तक । शर्बत की मात्रा ७ मा० ले ६ मा० है । औषध निर्माण - युनानी चिकित्सा में इसके हर प्रकार के मिश्रण, यथा क्वाथ, श्रकं, तैल, घनसत्व (रु), अजून, शर्बत, चूर्ण, अनुलेपन, हुमूल (पिचुक्रिया ) और धूमी (धूपन ) प्रभुति व्यवहार में थाती हैं। इनमें से कतिपय मिश्रण निम्न प्रकार हैं (१) श्रनोसुन का मिश्रित काथ-नीसून, हुबह ( मेथिका ), लोबिया सुख प्रत्येक १५ मा०, सुदाब १० || मा० । निर्माण-विधि— सबको तीनपात्र पानी में क्वाथ करें। जब एक पाव रह जाए तब उतार कर साफ करें। सेवनविधि - धोड़ा गुड़ मिलाकर सेवन करें। गुणश्रावप्रवर्तक और अवरोध उद्घाटक I For Private and Personal Use Only
SR No.020060
Book TitleAayurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size27 MB
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