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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परन्तु अर्वाचीन गवेषणात्मक शोधों से यह ज्ञात हुआ है कि 'अम्बर हेल मछली की एक | विशेष जाति स्पर्म ह्वेल (Sperm whale.) के उदर से निकलता है। यह एक प्रकार का दूषित मल है जो उसके प्रांत्र वा अंत्रपुट में रहता ! है। स्पर्म ह्वेल ८० फुट तक लम्बी होती है। ! इसका सिर इतना बड़ा होता है कि समग्र शरीर का तिहाई भाग सिर में सम्मिलित होता है। इसके सिर में एक विशेष प्रकार का तैल भरा । होता है जो हवा खाकर जम जाता है। इसके । उदर से अम्बर निकलता है। इसकी वास्त. विकता से अनभिज्ञ होने के कारण यह जान पड़ता है कि अम्बर समुद्र में बहता हुधा तरंगों के कारण समुद्र तट से श्रा लगता था। वहाँ से लोग इसे उठा लाते थे या नाविकों को समुद्र में ही प्राप्त हो जाता था। और इसके सम्बन्ध में विभिन्न विचार व अनुमान स्थिर कर लिए गए थे। इसमें दूसरी चीजों यथा विविध प्रकारके मत जन्तु सम्मिलित हो जाते होंगे जिनको कतिपय ! इतिच्या ने अवलोकन किया होगा जैसा कि स्वर्गः । वासी हकीम उल्ची खाँ के वचन में इसका । उल्लेख है। अधुना भी अम्बर समुद्र में बहता हुप्रा या समुद्र तटपर पड़ा हुश्रा मिल जाता है। परन्तु स्पर्म हेल के उदर से प्राप्त होने पर इसकी सत्यता स्पष्ट रूप से स्थापित हो गई है। स्पर्म ह्वेल का शिकार अधिकतर उसके शिरके ! तैल और अम्बर के लिए ही किया जाता है। इसका शिकार बड़ी जाननोखू का काम होता है। क्योंकि इसका यह एक विशेष स्वभाव वर्णन किया जाता है कि यह दौड़ दौड़ कर जहाजों को टकरें मारती है जिससे कभी कमी वे छिन्न-भिन्न हो जाते हैं। अम्बर के सम्बन्ध में आयुर्वेदीय मतबहुत से अाधुनिक लेखक अग्निजार को अम्बर ! मानकर लिखते हैं। परन्तु वास्तविक बात तो यहहै कि अष्टवर्ग की प्रोषधियोंके समान यह भी एक संदिग्ध एवं अन्वेषणीय औषध है । अष्ट्रवर्ग की दवानों के सम्बन्ध में कम से कम इतना तो निश्चिततया ज्ञात है कि वे वानस्पतिक द्रव्य हैं। परन्तु अग्निजार के सम्बन्ध में यह बात भी सन्देहपूर्ण है। श्रस्तु, कोई तो इसको समुद्रफल लिखते हैं और कोई इसको एक समुद्री पौधा वा अधि. क्षार बतलाते हैं। कई कोषों में भी अग्निजार के जितने भी पर्याय अाए हैं इनकं सामने वृक्ष ही लिखा है। अतः उनके मत से अग्निजार एक वानस्पतिक द्रव्य है। ___ इसके विपरीत रसरत्नसमुच्चयकार के मतानुसार यह एक प्राणिज द्रव्य सिद्ध होता है, यथा वे लिखते हैं समुद्रेणाग्निनक्रस्य जरायुर्व हिरुज्झितः । संशुष्को भानुतापेन सोऽग्निजार इतिस्मृतः॥ अर्थ-अग्निन नामक जीव का जरायु (झर) बाहर आकर समुद्र के किनारे सूर्यताप द्वारा सूख जाता है उसी को अग्निजार कहते हैं। अम्बर मो एक सामुद्री प्राणिज दृष्य है, इसी आधार पर किसी किसी ने अग्निजार को अम्बर का पर्याय मान लिया है. ऐसा प्रतीत होता है। अाज अब यह बात भली प्रकार सिद्ध होचुकी है कि अम्बर स्पर्म हेल नामक मत्स्य द्वारा प्राप्त होने वाला एक प्राणिजद्रव्य है। फिर भी इस बात का पता लगाना अत्यन्त कठिन है कि प्राया हमारे पूर्वाचार्य उक्र मत्स्य को अग्निनक नाम से अभिहित करते थे या नहीं। चाहे कुछ भी हो, पर इतना तो निश्चय रूप से ज्ञात होता है कि अग्निजार के जो गणधर्म हमारे प्राचीन शास्त्रों में वर्णित हैं, प्रायः उनसे मिलता जुलता ही वर्णन यूनानी ग्रन्थकारों का है जैसा कि आगे के वर्णन से ज्ञात होगा। अग्निजार नाम से आज उन औषध का प्राप्त करना उतना ही दुरूह है जितना कि बालू से तेल निकालना । अस्तु, यह उचित जान पाता है कि जहाँ जहाँ अग्निजार का प्रयोग पाया हो वहाँ पर अम्बर का ही उपयोग किया जाए। प्राप्ति-स्थान तथा इतिहास-पर्म ह्वेल For Private and Personal Use Only
SR No.020060
Book TitleAayurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size27 MB
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