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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अगा (गे) रिकस एल्बस अगा (गे) रिकस एल्बस वा काज श्वेत, छत्रिका (गारीकन सफेद) दोषों को करने वाली एवं निन्दित है। राज०। सांप की छत्री शीतल, बलकारक, भारी, भेदक, मधुर, त्रिदोषजनक, बीर्य वक और कफकारक है। यह कृष्ण, रक्त और पाण्ड भेद से तीन प्रकार की होती है । कालेरंग की-मधुर, गरम और भारी है। श्वेत-पाक में भारी और लाल अल्पदोष जनक है। निर० । से इसमें स्पावत् कोठरियां होती है । इसका रस दुग्धवत् तथा तीच व अग्राह्य, स्वाद में चरपरा । कसैला और कि चत् लावश्ययुक्र होता है ! काट कर वायु में खुला रम्बने पर यह धूसर वर्ण का होजाता है । रसायनिक संगठन इसमें राल, तिक पदार्थ, ' निर्यास, वानस्पतिक अलव्युमेन तथा मोम आदि होते हैं, इसका वास्तविक प्रभावात्मक सत्य अगारिक एसिड या फञ्जिक एसिड या लार्किक एसिड (कृत्रिकाम्ल ) है। इसमें स्फुरिकाम्ल, पोटाश, चून, एमोनिया और गन्धक प्रभृति होते हैं। श्रगारीसीन निर्यास में १७ प्रतिशत अगारिकारल (Agrics : citl) तथा ३" अगारिकोल . (Agaricol) होता है । अगारिक एसिड [छत्रिकाम्ल ) के अति सूक्ष्म श्वेत चमकीले रवे । होते हैं जो मद्यसार, क्लोरोफॉर्म तथा ईथर में । (शीतल जल में न्यून परन्तु उपण जल में सरलतापूर्वक) विलेय होते हैं । जल में उबा- लने पर यह सरेशो घोल बनाता है। औषध-निर्माण तथा मात्रा - (१) छत्रिका : तरल सत्य F2. ert. (३ में १) मात्राः-. ३ से २) बुन्द या अधिक, (२) एक्सकटम्अगारीसाई ( छत्रिका सत्य) मात्रा२० से ६० बुन्द । (३)टिङ्क चर (१० में) मात्राः-२० से ६० बुन्द (४) छत्रिकाचूर्ण (agiricits powder.) मात्राः -५ से ३० : ग्रेन (२॥-५५ रत्ती), अगारी सीन (शिलीन्ध्रोन मात्राः- से 1!, ग्रेन (-से 2 से 3 ग्रेन ) नोट-छत्रिका चूर्ण को किसी मुख्या में मिला कर देते है तथा इसके सत्व (अंगारीसीन) को डोवर्स पाउडर के साथ वटिका रूप में वर्तते हैं। कार्य-बलवान रेचक, रकस्थापक, सङ्कोचक, वामक, स्तन्यनाराक । छत्रिका (गारोक न ) क गण वर्म श्रायुर्वेदमतानुसार:शीतल, कसैला, मधुर, पिच्छिल, भारी तथा । चर्दि, अतिसार, ज्वर, कफ रोग कारक, पाक में भारी, रूक्ष तथा रेलुज, गोष्टज्ञ, शुचिस्थानज | सर्व प्रकार के संस्बेदज शाक शीतल, दोष जनक, पिच्छिल, भारी तथा वमन, अतिसार, ज्वर और कफ रोगों को उत्पन्न करते हैं। सफेद शुभ्रस्थान में उत्पन्न होने वाले तथा काष्ठ, बांस और गायों के स्थानों में उत्पन्न होने वाले अत्यन्त दोषकारक नहीं हैं और शेष सर्व त्यागने योग्य हैं । भा. प्र. १ खं० व तिब्बी खं० शा०प०। युनानो ग्रन्थों के मतानुसार:यह संकोचक, उष्ण, तथा विरेचक है और इसे ज्वर, पांडु, वृक्कशोथ, गर्भाशयिक रोध, यमा, अजीर्ण, रणतरण, संधिशूल में देते हैं । यह विषघ्न है । दोसकरीस नर छत्रिका अधिक दृढ़ एवं तिक है तथा यह शिरःशूल को भी उत्पन्न करती है । (प्लाइनी) इब्नसीना गारीकून या छत्रिका (agaic) के विपन्न गुण के लाभदायकत्व पर बहुत जोर देते हैं। यह तथा अन्य मुसलमान चिकित्सकों ने छत्रिका के गुणधर्म वर्णन में यूनानो अन्धकारों का बहुत कुछ अनुसरण किया है। उनके विचारानुसार यह सम्पूर्ण पाशयिकावरोधों को नष्ट करनी तथा विकृत दोषों को निकालती है। यक्ष्मा में छत्रिका का उपयोग नवीन नहीं प्रत्युत अति प्राचीन है। इसे बालों की चलनी में छानकर व्यवहार में लाएँ क्योंकि इसमें नस्ववत् जो वस्तु होती है वह विली होती है। (डाइमॉक) प्रकृति-प्रथम कक्षा में उष्ण तथा द्वितीय कक्षा में रूक्ष है। जब इसको चखा जाता है तो प्रारंभ में मधुर पुनः फीका प्रतीत होता है। तदन्तर इसमें तिकता पुनः तीक्ष्णता एवं किश्चित् कषेला. पन प्रतीत होता है। फोकापन जल के कारण For Private and Personal Use Only
SR No.020060
Book TitleAayurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size27 MB
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