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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अगौटा की शक्ति घट जाती है। अस्तु यह नाही की गति को भी शिथिल करता है। नाड़ी की गति का उक शैथिल्य फुप्फुस वा प्रामाशय नाड़ी प्रांत के क्षोभ के कारण होता है। क्योंकि अगर से पूर्व यदि ऐट्रोपीन (धन्तूरीन ) दी जाए तो फिर ऐसा नहीं होता ।अतः इससे प्रथम र भार घट जाता है अर्थात् अर्गटसे हृदय निर्बल होजाता और नाड़ी शिथिल हो जाती है। (Tyrosine.) से कर्यन द्विशोषित (C0) का बिच्छेद कर भी यह प्रस्तुत किया जा सकता है और उपवृक सस्त्रवत् प्रभाव करता है। प्रांतस्थ । सौपुग्न वात-तन्तुओं के अंतिम माग पर प्रभाव ! करके यह कोष्ठगत दीवारों का श्राकुचन उत्पन्न करता है और गर्मित जरायु की पेशियों का भी संकोच उत्पन्न करना है। (३) अर्गमीन ( Eigamine.)उसी प्रकार पचनकारक कीटाणुश्री की क्रिया द्वारा यह हिस्टिहीन ( Histidine.) से भी भिन्न किया जा सकता है। यह धमनिकाओं का महन विस्तार उत्पन्न करता है और इससे गर्भा. वस्था से पूर्व भी गर्भाशयिक मांसतन्तुओं का सशक वल्य प्राक'चन उपस्थित होता है। जलविलेय न होने के कारण चूं कि अगौटॉक्सीन फांट वा तरल सत्व में विद्यमान नहीं रहना, अतएव इन औषधों की पूर्ण मात्रा द्वारा उत्पन्न प्रभात्र, टायरमीन के धमनिका-संकोचन ( Vaso- . constrictor) प्रभाव के कारण होना अब. श्यम्भावी है,जो कि गेंमीन की धमनिका प्रसारण । ( Vaso-dilator) शनि की अपेक्षा अत्य रक्त वाहिनो - ( रक भार ) अधिकतर धामनिक मांसतंतुओं पर अर्गट का सरल प्रभाव होने से और किसी भाँति इससे सौघुम्न धामनिक गत्युत्पादक केन्द्रों (Vaso-motor centre) की गति प्राप्त होने के कारण सम्पूर्ण शरीर की धमनियों के सबल रूप से प्रांकुचित होने से रभार जो प्रारम्न में कम होगया है। अब वह शीघ्र बढ़ जाती है। यही नहीं प्रस्युत शिराएँ भी किसी प्रकार संकुचित हो जाती हैं । सारांश यह कि अर्गट से सम्पूर्ण शरीर की रक्त वाहिनियों विशेषतः छोटी २ धमनियों के संकुचित होजाने और स्फेसोलिनिक एसिड के प्रभाव से उनकी दीवारों के स्थूल हो जाने के कारण यह एक सार्वागिक सस्थापक (General Hemostatic) है । अस्तु यदि अर्गर को अधिक काल तक सेवम किया जाए तो शारीरिक धमनियों के संकुचित होजाने के कारण शरीरके विभिन्न भागमें गैंग्रीन ( Gangrene ) हो सकता है, जिससे गैंग्रीनस अगोंटिम (Gangrenous. ergotism ) होजाया करता है । इसको अत्यधिक मात्रा वा विषैली मात्रा में प्रयुक्त करने से वैसोमोटर सेण्टर्ज ( धामनिक गत्युत्पादक केन्द्र ) वातग्रस्त हो जाते हैं । हृदय के निर्वस्त होजाने और धमनियों के प्रसारित हो जाने के कारमा सभार बहुत घट जाता है। मुख-प्रामाशय तथा प्रांत्र--अर्गट का स्वाद तिक है । यह लालाप्रस्वाववद्धक है अर्थात् ' इससे अधिक लाला { थूक) उत्पन्न होती है। : मध्यम मात्रा में प्रयुक्त करने से यह प्रांत्रीय स्वाधीन वा अनैच्छिक मांसपेशियोंको गति प्रदान करता है। प्रस्तु, अम्रिस्थ कृमिवत् प्राकुचन तीब्र हो जाता है। कभी कभी तो यह प्रभाव इतना : बढ़ जाता है कि विरेक पाने प्रारम्भ हो जाते हैं। अधिक मात्रा में उपयोग करने से यह प्रामाशय तथा प्रांत्र में क्षोभ उत्पन्न कर देता है। शोणित--इसके प्रभावारमफ अंग तत्काल : रक में प्रविष्ट हो जाते हैं, परन्तु रन पर उनका कुछ भी प्रभाव नहीं होता। उदय--अर्गट हार्दिक मांसपेशियों पर प्रधसादक या नैवल्योपादक ( Depressant) प्रभाव करता है अर्थात् इससे हार्दीय मांसपेशियों श्वासोच्छवास-प्रगट श्वासोरण वास को कम करता है। प्रस्तु, श्वासोच्छवास सम्बन्धी मांसपेशियों की निर्बलता तथा प्रारंप के कारण श्वासावरोध होकर मृत्यु उपस्थित होती है। For Private and Personal Use Only
SR No.020060
Book TitleAayurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size27 MB
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