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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपस्मार अपस्तम्भिनी ३८६ की दोनों ओर वायु को वहाने वाली दो नाड़ियाँ "अपस्तम्भ" नामक दो मर्म हैं। सु० शा० अपस्तम्भिनी apastambhini-सं० स्त्री० शिवलिङ्गिनी लता, शिवलिङ्गो । (Biyonia). वैनिघ०। अपस्मारः,-"स्मृतिः" apasmāra b,-sm ritih-सं० पु. अपस्मार-हिं० संज्ञा पु० [वि. अपस्मारी ] स्त्रनामाख्यात प्रसिद्ध वात व्याधि, परियाय से होने वाला एक रोग विशेष । इसमें हृदय काँपने लगता है और आँखों के सामने अँधेरा छा जाता है । रोगी काँप कर पृथ्वी पर मूच्छित हो गिर पड़ता है। उसके हाथ पाँव में प्राकुचन होता और मुंह से झाग भाता है। पर्याय-अंग विकृति, लालाध, भूत विक्रिया मगी-सं०, हिं०,-बं०। मिरगी-हिं०, उ० । फे. फ्रे-म०। सर-अ० । मर्ज काहनी, म.ज साक्रत । अबर कलसा; अन प्रकलसा-यु०। एपिलेप्सी Epilepsy, एपिलेप्सिया Epile. psia-इं० । मॉईस कॉमिटिएलिस Morbuscomitialis, सासर मेजर Sacer major-ई० । एपिलेप्सी Epilepsic, हॉट मैल Haut mal-फ्रां) | फालसुलूट Fallsucht-जर। पर्याय-निर्णायक नोट-इस रोग में स्मृति नष्ट हो जाती है। इसलिए इसको अपस्मार कहते हैं। सर के शाब्दिक अर्थ गिर पड़ना, गिरना गिराना श्रादि हैं । परन्तु, तिब्ब की परिभाषा में मृगी को कहते हैं । इस रोग में संज्ञा व चेष्टावहा इंद्रियाँ अव्यवस्थित हो जाती है, ऐच्छिक मांस पेशियों में प्राकुञ्चन होता है और रोगी मूञ्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ता है। इसी कारण इसको उक्त नाम से अभिहित करते हैं। फारसी में इसको नैदुलान कहते हैं। नोट-शेष शब्दों की व्याख्या क्रमशः उम उन शब्दों के सामने की जाएगी। निदान व सम्प्राप्ति प्रायः यह रोग पैतृक होता है। परन्तु शिशुओं में दाँत निकलना, उदरीय कृमि, अकस्मात भय का होना, युवा पुरुषों में अति मैथुन, हस्तमैथुन, मस्तिष्क को याघात पहुँचना, मस्तिष्क वा मस्तिष्कावरक प्रदाह, चिंता, शोक, मानसिक ४.म की अधिकता, मद्यपान, उपदंश, वातरक वा सन्धिवात और रविकार इत्यादि नासिका, कंड, प्रांत्र और जननेन्द्रिय में किसो चिरकारी क्षोभक व्याधि की उपस्थिति, स्त्रियों में मासिक दोष मादि इसके कारण हैं। लिखा भी हैचिन्ता शोकादिभिः क्रुद्धा दोषाहस्रोतसिस्थिताः । कृस्त्रा स्मृतेरपध्वंसमपस्मार प्रकुर्वते ॥ अर्थात्-चिंता,शोक और भयके कारण कुपित एवं हृदय में स्थित हुए दोष ( अय ) स्मृति का नाश कर अपस्मार रोग को करते हैं। तथाच वाग्भट्टःस्मत्यपायोपस्मारः संधि सत्याभि संप्रचात् जायतेऽभिहते चित्ते चिंता शोक झ्यादिभिः । उन्मादवप्रकुपितैश्चित्तदेह गतैर्मलैः ॥ हते सत्वे हृदि व्याप्ते संज्ञावाहिषु खेषु च | (वा० उ००७)) अर्थात्-जिस रोग में स्मृति का नाश हो जाता है, उसे अपस्मार कहते हैं। बुद्धि और सत्वगुण में विप्लव होने के कारण चिंता, शोक और भवादि द्वारा श्राक्रमित हुश्रा चित्त तथा उन्माद के सदृश चित्त और देह में रहने वाले प्रकुपित होपों से सत्व गुण नष्ट होकर, हृदय और संज्ञाचाही संपूर्ण स्रोतों में व्याप्त हो जाता है। इसीसे स्मृति का नाश होकर अपस्मार उत्पन्न होता है। अपस्मार के भेद वैद्यक शास्त्रानुसार यह चार प्रकार का होता है, यथा अपस्मार इति श्रेयो गो घारश्चतुर्विधः। (मा० नि०) For Private and Personal Use Only
SR No.020060
Book TitleAayurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size27 MB
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