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अर्दित
और वह किसी चीज को मुंह से खींचने वा मिलाकर फिर अग्नि पर रक्खे । दूध के भली चूसने के अयोग्य होता है।
प्रकार मिल जाने पर उतार कर शीतल.. होने पर असाध्यता
मथकर घी प्रस्तुत करें। फिर इसको तथा मधुर जो मनुष्य अत्यन्त क्षीण होगया हो जो स्पष्ट । औषध यथा काकोल्यादि और सहा अर्थात् माघरूप से नहीं बोल सके, जिसकी आँखों के पलक
पर्णी ( कोई कोई इनके स्थान में पूर्वोक्र क्वाथ्य न लगें और रोग को उत्पन्न हुए तीन वर्ष व्यतीत
द्रव्यों के चतुर्थांश कल्क का प्रक्षेप देते हैं) के हो गए हो अथवा जिसकी नासिका, मुख तथा नेत्र
कल्क को चतुगुण दुग्ध में पकाकर तैले प्रस्तुत से जल स्राव होता हो एवं काँपता हो वह अर्दित.
करें । इस क्षीरतैल को अर्दित रोगी के 'पिलाने
एवं अभ्यंग आदि में प्रयुक करें। बैंल रहित रोगी असाध्य है। यथा--
सिद्ध कर प्रयुक्त करने से यह प्रति तर्पक है। तं.णस्यानिमिषाक्षस्य प्रसत्ताव्यक्तभाषिणः।। .
सु० चि०। म सिध्यत्यर्दितं गाढ़ (बाद-सु०) त्रिवर्ष ।
डॉक्टरी घेपनस्य च ॥ मा नि ।
चूँकि यह रांग प्रायः कठिन शीत के कारण चिकित्सा
से ही हो जाया करता है। प्रस्तु, विकृतपाल (श्रायुर्वेदीय)
के कान के पीछे हिलस्टर लगाएँ या चन्द जों के अदित रोग में नस्य देना, शिर में तेल लगाना |
लगवाएँ और फिर एक लोटे या पतेली में तथा कान और अाँख का तर्पण करना हित है।
खौलता हुआ पानी डाल कर उसकी टोंटी विकृत यदि अर्दित शोथ युक हो तो वमन करामा
कर्ण के छिद्र में प्रविष्ट करदे अथवा इसके बहुत तथा दाह और राग से युक्त होने पर फस्द खोलना
समीप रखे जिसमें उष्ण जलवाप्प से काम के चाहिए । यथा---
भीतर गर्मी पहुँचे । दस मिनट तक इस प्रकार अदिते नाधन मूर्ति तैलं श्रोत्राक्षि तर्पणम् । करें फिर गरम रुई से कान को सेकें, पश्चात् वही सशोफ वमनं दाहरागयु सिरा व्यधः ॥ गरम रूई कान पर बाँध दें। ५ ग्रंम कैलोमेल
(वा०वि० २१ अ० )। और एक दाम कम्पाउड पाउडर ऑफ जैलप सुनाचाय के मत से अर्दित रोगी की बात- मिलाकर खिला दें जिसमें दो तीन दस्त व्याधि विधानोक्र चिकित्सा करें और श्राजाएँ । मस्तिष्क एवं शिर की वस्ति, नस्य, धूमपान, श्राहार---शोरबा या यहनो ( मांस रस) स्नेहन, स्वेदन तथा नाडी स्वेद इतना विशेष करें
प्रभति दें। इस हेतु निम्न लिखित औषध प्रयोग में लाएँ
यदि रोगी निल हो तो ईस्टअ सिरप या सण (कुश, काश, नल, दर्भ और इकुकांड), ।
श्राधे से 1 ड्राम फेलोज़ सिरप को किञ्चित् जल में महापञ्चमूल (बिल्व, अग्निमम्थ, श्रर लु, गारभारी :
मिलाकर दिन में दो बार भोजनोपरांत दें। और और सुदाग्निमन्थ), काकोल्यादि श्रष्ट वर्ग की।
यदि रोग उपदंश के कारण हो तो पोटासी प्रायोप्रोपधियाँ, विदारिगन्धा श्रादि, प्रौदकमास अर्थात् ! जलीय जीवों का मांस ग्रंथा कर्कट, शिशुमार,
डाइड का प्रयोग करें यदि कान में शत प्रभृति हो
तो उसका उचित उपाय करें और यदि कोई प्रभति, अनुपदेशीय जीवों का मांस यथा वराह
दाँत बोसीदा होगया हो तो उसको निकलवा मादि और कशेरु, सिंघाड़ा प्रभृति प्रौदक कन्द ! इनको समान भाग लेकर १ 'द्रोण (३२ सेर ).
दुग्ध और २ द्रोण (६४ सेर)जल में क्याथ करें। नोट- यदि यह रोग शीत, निर्बलता या - चौथाई अथवा दुग्ध मान अवशेष रहने पर उतार .. उपदंश के कारण हो तो उचित उपचार से एक से
कर छान ले । इसमें । प्रस्थ ( ३२ पल.) तेल . अढाई मास में अच्छा हो जाया करता है और यदि
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