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यस्याजो रोमहर्षो वेपथुत्रमाविलम् । वायुरुध्वं त्वचि स्वापस्तोदोमन्या हनुग्रहः॥ तमर्दितमिति प्राहुर्व्याधि व्याधिविचक्षणा ॥ ( मा० नि० : सु० मि० )
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लक्षण -- इसमें श्राश्रा मुख टेढ़ा होजाता है । गर्दन नहीं गुड़ती, शिर हिलने लगता है, बोला नहीं जाता, नेत्रादि बिगड़ जाते हैं और जिस अंग की और वह टेा होता है उसी ओर की गर्दन, ठोकी और दाँतों में भेड़ा होती है। वाग्भट्ट ने ये विशेष लिखे हैं
अर्थ-निदान - गर्भवती, प्रसूता स्त्री, बालक, वृद्ध, दुर्बल तथा शोणितस्य वाले की ( सु० ) 'अर्धे तस्मिन मुखा वाके लेस्यात्तदर्दितम्' । और ऊँचे स्वर से बोलने से कठिन वस्तु खाने से, बहुत हँसने से, जम्हाई लेने से, बोझ ढोने से, ऊँचे नीचे स्थान में सोने ( विषम भारवहन तथा विषम श्वास प्रश्वास के कारण सु० ) श्रादि कारणों से ( वाग्भट्ट में ये कारण विशेष -लिखे हैं यथा शिर पर बोझ ढोना, उत्रा मुख होना, बलपूर्वक छींक लेना, कठोर धनुष को । खींचना, ऊँचे नीचे तकिए पर शिर धरना तथा अन्य वान प्रकोपक हेतु ) 'सम्पादित ' - वायु प्रकुपित होकर शिर, नाक, श्रोष्ठ, ठोड़ी, ललाट तथा नेत्रों की संधियों अर्थात् शरीर के ऊर्ध्व भाग में प्राप्त होकर एक श्रोर के मुख ( वाग्भट्ट के अनु सर हँसने और देखने को भी ) को टेढ़ा कर ( क्वचित पार्श्वद्वय की पेशियों वातग्रस्त हो जाती हैं ) अर्दित रोग को उत्पन्न करता है ।
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यं तचाख, स्वरअंश, ध्वण शक्ति का नाश, वीके का बन्द हो जान्स, प्राज्ञता, स्मृतिका | मह स्वप्नावस्था में त्रास, दोनों ओर से थूक निकलना, एक आँख का बन्द होना, जशु के ऊपर के भाग में वा शरीर के आधे भाग में वानी के साग में तीव्र वेदना श्रादि उपद्रव उपस्थित होते मैंने पूरूप जिस रोम के पूर्व रोमा हो, शरीर काँपे, नेत्र मलयुक्र हों और वायु ऊपर को गर्म करे, वना शून्य हो जाए, सूई चुभने की सी पीड़ा हो, मन्या नाड़ी तथा ठोड़ी जकड़ जाए उसको रोगों के जानने वाले हार्दि
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श्रति
( लकत्रा ) कहते हैं । वाग्भट्ट के अनुसार कोई कोई इसको एकायान भी कहते हैं ।
श्रन्य तन्त्रों में आधे मुख की तरह श्रद्ध शरीर में व्याप्त वातग्रस्तता को भी श्रर्दित नाम से ही लिखा है । यथा
( दृढ़वलः ) यदि ऐसा है तो प्रति और श्रद्धांगवात में अन्तर क्या रहा ? उत्तर में कहते हैं कि इन दोनों में भेद यह कि अर्दित में कदाचित् ही वेदना होती है, किंतु श्रद्धांगवात में सर्वदा ही वेदना बनी रहती है । अथवा पूर्वोक श्रर्दित के उन सभी लक्षणों के विपरीत लक्षशा श्रद्धांगवात के होते हैं ।
परन्तु चरक, सुत, वाग्भट्ट तथा माधव आदि ग्रंथ निर्माताओं ने केवल मुखमात्र की वातकोही प्रति नाम से अभिहित किया है और श्रद्धांगवात की एकांगवात, पक्षवध तथा पक्षाघात आदि नामों से । अस्तु ऐसा ही मानकर "उम्र शब्द का व्यवहार करना शास्त्र सम्मत है |
डॉक्टर लोग शीत लगना, कनफेड़, उपदंश, कतिपय मस्तिष्क रोग, कर्णास्थि क्षत, किसी दाँत खराब हो जाना तथा निर्बलता इत्यादि इसके उत्पादक कारण मानते हैं । इनके अनुसार भांति के प्रायः वे ही लक्षण हैं जिनका वर्णन - ऊपर किया गया है। जैसे-
विकृत मुखमण्डल का स्वस्थ की ओर आकृष्ट
हो जाना ( मुखमण्डल जिस भोर को श्राकुञ्चित होता है वास्तव में वह पार्श्व सुस्थ होता है ), मुख के एक कोने का नीचे की ओर लटक पड़ना, मुख प्रसेक, जलपान करते समय उसका बाहर वह चलना, कफ निवन की श्रसमर्थता, सीटों न बजा सकना और न फूंक मार सकना इत्यादि लक्षण होते हैं। रोगी पदर्ग के अक्षरों का उच्चारण नहीं कर सुकता अर्थात् उसके प्रष्ट परस्पर नहीं मिल सकते हैं। विकृत पार्श्व का नेत्र खुला रहता है और उससे अश्रु स्राव होता रहता है ।
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