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अकरकरा
अकरकरा
ऑफिशल रिपेयरेशन (ए० मे० मे०)टिङ्कचूरा पाइरोधाई ( Pincthua Pyrethri)-ले० । टिचर ऑफ़ पाइरीथून । (l'icture of Pyrethru )-0 ! अकरकरासद-हिं।
निर्माणविधि-पाइरीथम की जड़का ४०नं. का चूर्ण ४ अाउम्स अलकुहाल (७० ) श्रावश्यकनानुसार। चूर्ण को ३ फ्लुइड ग्राउन्स अल्कुहाल में तर करके पकॉलेशन द्वारा एक पाइन्ट टिंक्चर तय्यार कर लें।
प्रयोग-लालास्राव हेतु इसका स्थानिक ! उपयोग होता है। यह दाँतके दर्द,गठिया,अपस्मार, पक्षाघात, कफवात, तोतलापन और ज्वर तथा अनेक अन्य रोगों में लाभ पहुँचाना है। मात्रा--३॥ मा० । अहित-फुफ्फुस को। दपनाशक-क्रतीरा और मुनक्का ।
गुणधर्म तथा उपयोग शायद को दृष्टि से अकरकरा उणवीर्यः कटुक तथा बलकारक है, तथा प्रतिश्याय शोथ . एवं घात का नाश करता है। वृ०नि० २०। ।
वैद्यकीय व्यवहार भावप्रकाश-फिरंग रोग में-विशुद्ध-पारद । आधा तोला, खदिरचूर्ण प्राधा तोला, अकरकरा चूर्ण १ तोला, मधु १॥ तोला, इनको एकत्र मर्दन कर वटिका प्रस्तुत करें। इसमें से प्रातःकाल १-१ : वटी जल के साथ सेवन करने से फिरंग रोग (Syphilis.) नष्ट होता है। युनाना एवं नव्यमत-अकरकरा को चवाने से प्रथम दाह प्रतीत होता है; तत्पश्चात शीघ्र झुनझुनाहट एवं सनसनाहट का ज्ञान होता , तथा अधिक मात्रा में लाला की उत्पत्ति होती है।। क्योंकि मौखिकी धमनी बोधतन्नु तथा लालाग्रंथि पर इसका उत्तेजक प्रभाव होता है। परन्तु थोड़ी देर पश्चात नाड़ियाँ शिथिल होजाती हैं। अस्तु, यह एक सशक्र लालानिस्सारक ( पावफुल स्थालेगॉग ) तथा किञ्चिन् अवसन्नताजनक : (श्रमस्थेटिक) है । उक प्रभावों के कारण | इसको दन्तपीड़ा, कच्चा लटकने (रीलैक्स्ड यूवुला) और कण्ठशोथ (सोरोट)।
___ में मंजन गरडुप प्रभृति रूप से व्यवहार में
लाते हैं। दन्तचीड़ा में अकरकरा को विकृत दाँत के नीचे रखने तथा चबाने से अथवा इसका टिंकचर नथा टिंकचर प्रायोडीन दोनों समभाग सम्मिलित कर इसमें जरा सी ई सर करके पीड़ा युर दन्त में रखने से वेदना शमन होती है। २ अाउंस ( छ.) जल में एक डान (३॥॥ माशा) इसका टिंक्चर मिलाकर इसका गंडा करते हैं। डॉक्टर रॉय इसको योपापस्मार (ग्लोबस हिस्टैरिकस) में गुणदायी बनाते हैं। (ए. से० मे०)
यूनानो ग्रन्थकार--इसे तीसरी कक्षा के अन्त में और चतुर्थ कक्षा तक रूक्ष मानते हैं। परन्तु कोई कोई तीसरी और चतुर्थ कक्षा में शीतल पानने हैं।
देह में जो सुघर ( रुधिर आदि को गाँट) पड़ जाता है उसको ग्बालना, जस्तक को दुष्ट मल से शुद्ध करना तथा मस्तक के अवयव तथा कफ आदि को निस्पंदेह चमक (जिला) देता है। दिन (ला ), ज्ञावात, कफवान, पीड़ा के साथ गईन का जकड़ जाना, जोड़ों का दीला हाना, तातलापन, छाती, दाँत और संधि वेदना, गृध्रसी, जलंधर, एसीना और ज्वर को दर करना शीतल प्रकृति वाले की इन्ट्री की शक्रि को तथा स्तनों में दूध को बढ़ाना, खुलकर पेशाब लाने की व हियों के भाव को पतला तथा गाढ़ा लेप करने से लाभ पहुँचाता है । जनक रंग, संधि के रोग, वाततन्तु (पुटे) के, भुख के और छाती के रोग में अकरकरा को जैतून नेल में पीसकर मर्दन करने से लाभ होता है और कुबड़ापन, सुन्नवान, या ढीलेपन को, अवयवों के पुराने रोगों का भी पूवार उपयोग गणनायक होता है।
यदि अकरकरा के क्वाथको गरम गरम मस्तक पर लेप और तालू पर मर्दन करें तो मस्रक को गरम कर नज़ले को नष्ट करता है। यदि इसे मस्तगी या कपैली वस्तु के साथ चटाएँ तो वह मृगी रोग, जो दृपिन दोषों से प्रकट हुआ है,
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