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लेखक के दो शब्द !
गत में जितना भी कार्य होता है, उसका कोई न कोई कारण अवश्य होता है। बिना कारण के किसी भा कार्य का होना अपम्नव है. पुनः वह मानव बुद्धि द्वारा अवगत हो हो सके प्रथया नहीं | यह एक अटल सिद्धान्त है।
जो बात सर्व साधारण के लिए कोई मूल्य नहीं रखती वही बात उस महा पुरुष के लिए जिसके द्वारा कोई महान कार्य सम्पादित होने वाला होता है, अत्यन्त महत्व
रखता है। परिपक सेत्र सदैव ही पृथ्वी तल पर टपका करते हैं। परन्तु सामान्य
IT मानव हृदय पर उसका क्या प्रभाव पड़ता है ? पर नहीं इसी एक बात मे सर आइज़क न्यूटन को गम्भीर चिन्ता में डाल दिया और उसके अन्वेषक हृदय तल से गुरुत्व अथवा प्राकर्षण शक्रि ऐसे महान् उपयोगी सिद्धान्त का प्राविर्भाव हुआ और आज भी बड़े बड़े वैज्ञानिक उस साधु पुरुष के यश के मीत पाते हैं।
याज से लगभग २० वर्ष की बात है कि हमें एक ऐसा योग बनाना था जिसमें "कालाबाला" शब्द प्रयुक्र हुअा था। समझ में नहीं पाया 'काला बाला" है क्या बला? और योग का बनाना जरूरी था । अस्तु हमने उसकी तलाश में संस्कृत तथा हिन्दी श्रादि कई भाषा के प्रायः सभी कोपों को निचोड डाला और काशी के तत्कालीन प्रायः सभी आयुर्वेद शास्त्रियों एवं बड़े बड़े श्रौषध-शिक्रनामों से पूछ ताछ की । पर सफलता न मिली । और सफलता मिले भी तो क्यों ? उन शब्द महाराष्ट्री भाषा का था ( हिन्दी में सुगन्धवाला एवं उशीर दोनों के लिए प्रयुक्त होता है)।
अन्ततः विवश होकर उस औषध के बिना ही, शेष औषधियों के द्वारा योग प्रस्तुत कर उसका प्रयोग कराया गया और उससे सफलता भी मिला। पर हमें संतोपन हुआ। हमने अपने सन में इस बात को की दृढ़ प्रतिज्ञा करली कि हम एक ऐसे आयर्वेदीय-शब्द कोष का निर्माण करेंगे जिसमें श्रौषधियों के प्रायः सभी भाषा के नाम अकारादि क्रम से दिये गए हो। उसी समय से हमने शब्दों का संकलन प्रारम्भ कर दिया | वी विंध्य एवं हिमवर्ती पर्वत शिखरों एवं संघन भयावह वनों की हवा खाई, अंगखी मनुष्यों यथा कोल भील आदिकों से मिला, विभिन्न प्रान्त के लोगों से बात चीत की और इस प्रकार क्रियात्मक रूप से
औषधियों की खोज एव शास्त्रीय वनों से नुसना कर निश्चिा निर्णय प्रतिपादनार्थ यथेष्ट मसाला एकत्रित करने में संलग्न हो गया। उस समय केवल इतना ही विचार था। • पर उस विचार एवं यत्न का जो विकसित रूप नाज आपके सम्मुख है, उस समय इसका स्वप्नाभाप भी न था । परंतु जिस प्रकार एक नन्हा सा बीज मिट्टी, जल तथा वायु के संपर्क से अंकुरित होकर इसने विशाल वृज का रूप धारण करता है, उसी प्रकार यह छोटा सा विचार उपयतः वायमंडल एवं सहायता द्वारा परिपोषित होकर ऐसे महान कार्य रूप में परिणत हुआ है। "कालोदाला" का न मिलना कोई असाधारण बात न थी; परंतु इसी एक विचार से इस कोषकी रचना का सूत्रपात होता है। तभी से अश्यबसाय एवं कठिन परिश्रम के साथ अपना अध्ययन जारी रहा। बोच बीच में विचार विनिमय एवं प्रत्येक विषय के अनुसंधानपूर्वक अनुशीलन तथा क्रियात्मक प्रयोग जन्य अनुभव द्वारा विचार दृढ़ एवं विकसित होते गए। जिसके परिणाम स्व. रूप अाज यह दीर्घ काय ग्रन्धरत्न का एक छोटा सा अंश (प्रथम खण्ड) आपके सम्मुख है । इसकी प्रस्तावना उत्कृष्ट विद्वान, वैध शिरोमणि, व घोंके प्राचार्य एवं प्रत्यक्ष शारीर जो अनेक प्रायुर्वेदीय कालेजों एवं विद्यापीठ के पाठ्यक्रम में है और शारीर ग्रंथों में संस्कृत में अपने विषयका एक अनुपम प्रामाणिक ग्रंथ रत्न है, और जिससे शरीर विषयक शब्दों के लिए हमको भी काफी सहायता मिली है के रचयिता महा महोपाध्याय कविराज
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