SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 383
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अन्तमूल ३४१ पुनः प्रवाहिका में तथा कराज्य एवं स्वेदक रूप ! से इसको जड़ इकाइना की कहीं सर्वोतम प्रतिनिधि हैं । चार वर्ष हुए जब मुझे कतिपय देशी दवाओं की आलोचना का अवसर प्राप्त हुथा, तत्र ग्रन्तमूल के सम्बन्ध में मेरे विचार निम्न प्रकार थे । वामक रूप से तथा अधिक मात्रा में प्रवाहिका की चिकित्सा में दोनों प्रकार से इविकेकाइमा का प्रतिनिधि स्वरूप में पाए जाने वाली एतद्देशीय औषधों में यह सर्वोतम है । २० से ४० प्रेन ( ३० से २० रत्ती ) इसका चूर्ण और इतनी हो वुद की मात्रा में टिंक घोपियाई २४ घंटों में दिन में तीन-चार बार सेवन कराने से यह उतना ही शीघ्र एवं सफतापूर्वक रोग का निराकरण करता है जितना शीलकि पिकेका इनाः । श्वास रोग में वामक या कण्ठ्य रूपसे भी इसका श्रपेज्ञा उपयोग इपिकेकाइना की रहता है। उत्तम सर्पदेश के अगद स्वरूप कोई अन्य श्रौषध की अपेक्षा एमोनिया के बाद श्रन्तमूल पर मेरा विश्वास है। जब तक स्वतन्त्र धमन न आने लगें तब तक इसका ताजा रस अधिक FO मात्रा में थोड़ी थोड़ी देर पर देते रहें। इसके बाद सशक एवं सर्वागिक उत्तेजक का व्यवहार करें | अनु- देशी औषधी के अपने अधिक विशाल भव के पश्चात् मैंने अन्तभूल को सर्वोत्तम ही नहीं, प्रत्युत भारतीय ४, २ सर्वोत्कृष्ट नामक श्रोधियों में एक पाया । कतक ( निर्मली ) तथा मदनफल के पश्चात् इसका दर्जा शाता है । यद्यपि इसका श वामक है तथापि प्रवाहिका में केवल इसकी जड़ उत्तम. रोगनिवारक कार्य करती हैं। । उक्त रोग मैं इसका प्रभाव कतकवत् होता है। (स० फाo इं० पृ० ३६३ ) डॉ० कि पत्रक ( Cat. of mysore drugs) में लिखते हैं-यदि प्रबल वमन फी आवश्यकता हो तो २० से ३० मेन की मात्रा Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अन्त मूल में उक्र श्रीषधि को एक या श्राध मेन टार इमेटिक के साथ दें। मैं शुष्क पत्र का चूर्ण औषध रूप से व्यवहार करता हूँ । कोकड़ में १ से २ तो० तक रस वामक रूप से व्यवहार किया जाता है। शुष्क कर इसकी मूँग के बराबर टिकाएँ प्रस्तुतकर भी प्रवाहिका में बरती जाती हैं। पर्याप्त मल प्रवर्तन हेतु एक गोली काफ़ी है। इंडियन फार्माकोपिया में इसका फिशल है । ( फा० ई० २ भा० पत्र पृ० ४३६) । डॉ० नदकारिणी प्रभाव में पत्र से जड़ श्रेष्ठ हैं। ये कोटकर ( Laxative ) और प्रवाहिका में १५ मेन की मात्रा में उपम श्रौषध हैं । इनको साधारणतः चूर्ण रूप में किंचिद र निर्यास तथा फीम १ ग्रेन के साथ मिलाकर व्यवहार करते हैं । शिरोरोग एवं बात वेदना में शिर में इसकी जड़ का प्रलेप करते हैं । कःस तथा अन्य उन शिरोविकारों में जिनमें साधारणतः इपिकेकाइना व्यवहृत होता है । यह श्रत्यन्त लाभदायक पाया गया है । अतीसार तथा वाहिका की प्रथमावस्था में भी जब कि ज्वर विद्यमान हो इसकी १० मेन की मात्रा में १ थाईस जल के साथ तथा उसमें १ ड्राम कीकर का तुग्राव और श्रावश्यकतानुसार 4 ग्रेन अफ़ीम मिलाकर दिया जा सकता है । यदि विषन अथवा मलेरिया ज्वर हो तो इसके साथ कीमीन ( कुनैन ) सम्मिलित कर देना चाहिए | श्वासोच्छवास विकार तथा कुकुर खाँसी ( Whooping Cough) की प्राथमिक श्रवस्था में इसे ३ ग्रेन की मात्रा में दिन में तीन बार अकेले अथवा श्राधा ड्राम जुलेटी के शर्बत में श्रधा ग्राउंस जल मिलाकर इसके साथ दिनमें तीन बार सेवन करें। यह रकशोधक तथा परिवर्तक रूप से श्रति प्रख्यात है और श्रमवात में इसका उपयोग किया जाता है । यह तिक्र सुगन्धित तथा उत्तेजक हैं। यह औपदंशीय आमवात में भी प्रयुक्र होता है । स्थानिक रूप से यह प्रशासक हैं और संधिवात जन्य वेदना निवारणार्थ प्रयोग में श्राता है । इं० मे० मे० । For Private and Personal Use Only
SR No.020060
Book TitleAayurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy