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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रीस २५६ ज्ञात होता है कि उन्होंने इसके वन में श्रायुर्वेद कर्त्तानों का ही अनुकरण किया है। 1 इन सबके पश्चात् पाश्चात्य लेखकों ने अपने ग्रन्थों में इसका उल्लेख किया | प्रभाव तथा उपयोग श्रायुर्वेदीय मतानुसार अतीस, दीपन, पाचन, संग्राहक और सर्वदोष नाशक हैं । त्र० स० २५ श्र० । 1 प्रतीस कटु, उष्ण, तिक तथा कफ, पित्त और ज्वर नाशक, श्री मातिसार, कास, विष, एवं छर्दिनाशक है। रा० नि० ००६ । वा० स० ३५ श्र० चचादि० | धन्वं० नि० । सर्व पातक, शोधन ( लेपात् ), श्लैष्मिक रोगनाशक ( २० प्रकार के श्लेष्म रोग का नाशक ) और रसायन है। मद० ० १ । तीस गरम, कटु, तिक्र, पाचन और दीपन कर्त्ता है। जीर्णज्वर, अतिसार, श्रमवात, त्रिप, खाँसी वमन और कृमि रोग को दूर करता है । भा० । अतीस, पाचन, विक, ग्राही और दोषनाशक | राजवल्लभः । प्रतिविषा तथा कटुकी प्रभृति को उष्ण गांमय जल द्वारा शुद्धि होती है । सा० कौ० । शिशु के कास, ज्वर तथा मन प्रतीकारार्थ उपयुक्त मात्रा में तीस का चूर्ण मधु के साथ सेवन कराना चाहिए। बंग० जी० सं० ८१६ पृ० वैवकीय व्यवहार (१) श्रामातोसार - "दद्यात् सातिविषां पेयां सामे साम्लां सनागराम् ( च० ० २ श्र० ) ।" तीस १ तोला, सो तो, इनको २ जल में सिद्ध करें। जब ७१ जल शेष रहे तब इसे लवण से छौंक कर इसमें अभीष्ट वस्तु की पेया प्रस्तुत करें। इसमें किञ्चित् खट्टे अनार का. रस योजित कर श्रामातीसारी को व्वयहार कराएँ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रतीस (२) कुत्र्यामय - - श्रंकोट की जड़ की छाल ३ भाग और प्रतीस १ भाग इसको तंडुलोदक ( चावल के घीवन ) में पीस कर पान करें । इससे ग्रहणी रोग शमन होता है । बंग० जीः सं० १२१ पृष्ठः । ( ३ ) " नागराति विपाभयाः " । ० द० ज्वर० चि०पिपल्याद्यघृत | वक्तव्य चरक चिकित्सास्थान २२ श्र० एवं सुश्रुत कल्पस्थान २य अध्याय में स्थावर विष का वर्णन थामा है । चरको मूल विष एवम् सुश्रुत के मूल विष वा कन्द विष को नामावली में प्रतिविधा ( अतीस ) का उल्लेख दीख नहीं पड़ता । उपविष के मध्य इसका पाठ महीं । सुत और चरक में जहाँ सम्पूर्ण विषों का उल्लेख श्राया है वहाँ वे इसके गुणों से सम्पूर्ण परिचित हैं । सुश्रुत के प्राचीन टीकाकार डम्ण मिश्र लिखते हैं "मूलादि विनयनगरैरपि धातुमशक्य त्वात् । तत्र तानि हिमवत् प्रदेशे किरात शवरादिभ्यो शेयानि ।” क० स्था० २ ० अ० टी० । मदनपाल व भेत्र से इसका गुणांतर स्वीकार करते हैं । परन्तु, राजनिघंटुकार ऐसा नहीं करते । सुश्रुत प्रतिसार चिकित्सा में और चक्रदत्त प्रतिसार, ज्वरातिसार, और ग्रहणो चिकित्सा में भिन्न भिन्न औषध के साथ अतीस का पुनः पुनः प्रयोग दिखाई पड़ता है। चरक और सुश्रुत 金 केवल जीर्णज्वर की चिकित्सा में श्रतीस का प्रयोग नही आया है। चरक के "कालिंगक त्वामलकी सारिवातिविषा स्थिरा ।" (चि० ३ ० ) पाठ में तथा सुश्रुतोक “पिप्पल्यतिविषा द्राक्षा | ” ( उ० २६ श्र० ) पाठांतर्गत विषम ज्वरहर घृत में श्रन्यान्य बहुशः वस्तुओं के साथ तीस व्यवहृत हुआ 1 सुश्रुत एवं वाट्ट में केवल ग्रहणी तथा कास चिकित्सा वा रसायनाधिकार में श्रतीस का व्यवहार नहीं दिखाई देता । For Private and Personal Use Only
SR No.020060
Book TitleAayurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size27 MB
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