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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अतीस www.kobatirth.org राजनिघस्कार के मत से तीस ( प्रतिविषा ) तीन प्रकार का है । जैसे, "त्रिविधातिविषा ज्ञेया शुक्रकृष्णारुखातथा ।" अर्थात् प्रतीस शुक्र, कृष्ण तथा अरुण भेद से तीन प्रकार का होता है । तीनों रस, वीर्य और विपाक में समान होते हैं । परन्तु इनमें श्वेत जाति का उत्तम होता | मदनपाल के मत से यह चार प्रकार का है । जैसे, "श्यामकंदाचातिविया सा विज्ञेया चतुर्विधा । रका श्वेता भृशंकृष्णा पीतवर्णा तथैव च ॥" अर्थात् रक्र, श्वेत, अत्यन्त कृष्ण और पीतवर्ण भेद से यह चार प्रकार का है। इनमें यथापूर्व अर्थात् क्रमशः पीन से कृष्ण और कृष्ण से श्वेत श्रादि गुण में उत्तम और श्रेष्ठ होता है । मजनुल् श्रद्वियहू में इसके तीन भेदों का वर्णन है अर्थात् ग्रतीस, प्रतिभिका और और श्यामकंद | मुहीत श्राजम में केवल इसके दो ही भेद माने हैं। यथा-श्याम और श्वेत | २५८ रासायनिक संगठन - तीसीन ( Atisine ) नामक रवारहित एक प्रत्यन्त तिन चारीय सत्र ( यह निर्विषैल है ), वत्सनाभाम्ल ( Aconitic acid ), कपायीन या कपायिनाम्ल ( Tannic acid), पेक्टस सब्सटैस ( Pectous substance ), बहु-: संख्यक श्वेतसार, बसा तथा लीक, पामिटिक, स्टियरिक, ग्लिसराइड्स, वानस्पतिक लुझाव, इतु शर्करा और ( भस्म के मिश्रण २ प्रतिशत तक होते हैं । मेटीरिया मेडिका श्रॉफ इण्डिया- श्रार० एन० खारी भाग २, पृष्ट ३ ) । प्रयोगांश — कन्द्र | श्रीषच निर्माण -- ( १ ) चूर्ण; मात्रा - रत्ती से ३ ॥ मा० तक | · ज्वर प्रतिषेधक रूप से १ से २ ड्राम ( २ ॥ ड्राम पर्यन्त यह निरापद होता है ) । वस्य रूप से-१० से ३० प्रेन ( ५ से १५ (सी) इस मात्रा में इसका ज्वरग्न प्रभाव ग्रध्यन्त निर्बल होता है ! ज्वरनरूप से- ४. -४० ग्रेन से १॥ ड्राम तक । ! Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कृमिघ्न रूप से - (२) टिंबर - ( मात्रा-१० से ३० बुंद | (३) द का काथ । ८ में भाग ); अतीस वे शुरूषीय श्रीषध जिनका यह प्रतिनधि हो सकता है। ज्वर प्रतिषेषक रूप से सिंकोना के हारी सत्व (क्षारोद ) यथा क्वीनीन प्रभुति । ज्वरन रूप से – पल्विस जैकोबाइ बेरा, पल्विस एण्टिमांनियम् ( अंजन चूर्ण ), लाइकर एमोनियाई एसोटास । वय रूप से --- जेशन और कैलंबा | इतिहास - प्रतिविषा नाम से प्रतीस का ज्ञान आज का नहीं, प्रत्युत प्रति शचीन हैं 1 अतः श्रायुर्वेद के प्राचीन से प्राचीन ग्रंथ यथा चरक, सुश्रुत तथा वाग्भट्टादि में इसका पर्याप्त वर्णन आया है। यही नहीं बल्कि विभिन्न रोगों पर इसके लाभदायक उपयोग की उन्होंने भूरि भूरि प्रशंसा की है जैसा कि श्रागे के वर्णन से विदित होगा । For Private and Personal Use Only फिर डिमक महोदय तथा उनके पादानुसरण - शील एवं आयुर्वेद शास्त्र से सम्यक् श्रपरिचित चोपरा महोदय के ये वचन "The earliest notices of Ativisha are to be found in Hindu works on Materia Medica, Sarangad. hara and Chakradatta." किसका यह अर्थ होता है कि शार्ङ्गर तथा चक्रदत्त से पूर्व के प्रायुर्वेदिक ग्रन्थों में अतिविषा का उल्लेख नहीं हैं; कहाँ तक सत्य है, इसका पाटक स्वयं निर्णय कर सकते हैं । आयुर्वेद के अति प्राचीनतम ग्रन्थों में तो इसका उल्लेख है हो जिसके लिए हमें किसी प्रकार के प्रमाण की आवश्यकता नहीं; यह तो सूर्य प्रकाशवत देवीप्यमान एवं स्वयं सिद्ध हैं । हाँ! अरबी तथा फारसी ग्रन्थों में इसका बहुत संक्षिप्त वर्णन श्राया है और यह स्पष्ट रूप से
SR No.020060
Book TitleAayurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size27 MB
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