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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अब रेशम স্বয়ম कीट गृह) वा अण्डाकार कोप एक प्रकार का श्रावरण है जिसका निर्माण कीट नाकार परिव- । तन काल में करते हैं। लक्षण...यह कोत्रा की शकल में एवं श्वेता- । भायुक पीतवर्ण का और स्वाद रहित होता है। इसके भीतर रेशम का मत कीट होता है । इमलिए इसको कैची ( कर्तरी ) से काट कर और इसके भीतर से मरे हुए कीड़े को निकाल कर ! औषध कार्य में वर्तते हैं। प्रकृति-- प्रथम कक्षा में उष्ण एवं रूक्ष होता है। किसी किसी ने इसको शीतोष्ण (सम प्रक्रति ) लिखा है। हानिकर्ता-इसके बरे वस्त्र का प्रयोग करने से त्वचा पतली हो जाती है। दपन-इसके वस्त्र में रुई के सूत का मिश्रण ! | प्रतिनिधि-जला कर श्रोई हुई मुक्रिका (मोती)। मात्रा-३॥ मा० से १०॥ मा० तक । क्वाथ एवं शीतकाय साधारणतः ७ मा० ज्यवहार किया' जाता है। गुण, कर्म,प्रयोग-अपनी खासियत (सहकारिणी शनि) से यह श्राला दजनक है । इसकी तारल्यकारिता अपनी उप्मा के द्वारा प्रसन्नता , उत्पन्न करने में खासियत की सहायता करती है। फलतः रूह में प्रसार का उदय होता है। और यह अपनी उष्णता एवं रूक्षता के कारण उसकी : रतूबत (संवेद)को अभिशोपित कर लेता है जिससे रूहमें कठोरता एवं शक्रि श्रा जाता है । इससे रूह : में स्वच्छता एवं प्रकाश का उदय होना अावश्यक है। यह बात विशेषकर अबरेशम ख़ाम ( कच्चे : रेशम ) में होती है। क्योंकि पकाते समय इसकी ! मनोल्लासकारिणी शक्ति बहुधा जल भे स्थानां । तरित हो जाती है। इसलिये स्वरल की हुई किसी किसी औषध को उक्र जल में भिगोकर तीषण धूप में रक्खा जाता है जिससे उक्र औषध सम्पूर्ण जल को अभिशोपित करके उससे मनोल्लासकारिणी शक्ति ग्रहण कर लेती है । तदनंतर शुष्क कर प्रयोग में लाई जाती है। इसका वस्त्र धारण करने से परंपरागत जूओं की उत्पत्ति रुक जाती है । क्योंकि अबरेशम अंडा को खराब कर देता है जिससे जू नहीं पैदा होने पातीं। चूंकि यह सरकी तथा गरमी में मतदिल (समप्रकृति ) है इसलिए इसको धारण करने से शरीर उष्ण नहीं होता और इसी कारण अंडे सेए नहीं जा सकते | इसके विपरीत रूई के वस्त्र से शरीर गरम हो जाता है ( और अंडे उस गरमी में भली प्रकार सेए जाते हैं)। (त. नफा) जलाया हुअा अमरेशम प्रायः चक्षु रांगों यथा शानाब एवं ने कंडू में उपयोगी है। अबरेशम मानस, प्राकृतिक एवं प्राणात्मा (रूह नफ सानी, नबीई व है वानी)को प्रसन्नकर्ता, स्मरणशक्रि तथा मेधा को बलवानकर्ता है। चतु रोगों, मूच्र्छा, काटिन्य अर्थात् मेदा की सख्ती और फुफ्फुस को बल प्रदान करता है, चेहरे के वर्ण को निखारता और रोधे का उद्घाटन करता है। प्रकृति को मृदु करता, रतूबता अर्थात् द्रवं. को अभिशोषण करता तथा (दाभिशोषक ) उनमांगें। को बल प्रदान करता है । यह तारल्यताजनक वा द्रावक ( मुलतिफ ) एवं अभिशोषणकर्ता ( मुनरिश ) है । इसका वस्त्र धारण करने से शरीर स्थूल होता और जूएँ नहीं पड़ती। किन्तु, यह त्वचाको कोमल करता है। म० भ०। यह हृदय को बल प्रदान करताएवं भ्रम तथा मूर्छा रोग में विशेषकर लाभप्रद है। . शव रेशम जलाने की विधि-रेशम को बा. रीक कतर कर मिट्टी के बरतन में प्राग पर रक्खे और हिलाते रहें । जब भुनकर पिसने योग्य हो जाए तब उतार लें। देखो तह मीस श्रय रेशम । यह शोणितस्थापक, बल्य तथा संकोचक रूप से अतिरज (रक्रप्रदर), श्वेत प्रदर एवं पुरातन अतिसार में साव को रोकने के लिए व्यवहार किया जाता है। ई० मे० मे० । ६० इ० । यह अन्य संकोचक औषधों के साथ सामान्यतः प्रयोग किया जाता है। और साधारणतः सरदी एवं चक्षु रोग में प्रयुक्त होने वाले मोदकों में पड़ता है। ई० मे० मे। ___ नोट-एलोपैथिक चिकित्सा में इसका औषधीय उपयोग नहीं होता है । For Private and Personal Use Only
SR No.020060
Book TitleAayurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size27 MB
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