________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अरपी
पुद्राग्निमय का वृत्त क्षुद्रतर होता है । इसलिए | इसे गुल्म कहते हैं। गणियारी के कांड तथा शाखाओं में वृहत, रद और तीक्ष्यान शाखाएं परस्पर एक दूसरे के विपरीत दिक् विस्तृत भाव से स्थित होती हैं । वह (धरणी) ऐसी नहीं होती। दोनों प्रकार के अग्निमन्थ में यही भेदक चिह्न है।
रासायनिक संगठन-एक राल ( A resin), ५क तिक शारीय सत्व अर्थात् चारोव (Alkaloid ) और कपायिन ('Tannin). प्रयोगांश-पत्र, मूल, कांदत्वक् ।
औषध-निर्माण-काथ, मात्रा-५ से ... तो० । यह दशमूल की दश प्रोषधियों में से एक है अर्थात् इसकी जद दशमूल में पढ़ती है।
संशा-निर्णय तथा इतिहास-मन्थन वा घर्षण द्वारा जिससे अग्नि उत्पन्न हो उसको "अग्निमन्ध" वा "वह्निमन्ध" कहते हैं। अरणि का अर्थ अग्नि है और यहाँ इससे अभिप्राय अग्न्यु. पादक यंत्र है। चूँ कि यज्ञ के लिए पवित्राग्नि प्रात करने के लिए इसका काठ काम में आता था। इसलिए इसके वृक्ष को उक्र नामों से अभि. हित किया गया । गैम्बल (Gamble) के कथनानुसार सिकिम की पहाड़ी जातियाँ अग्नि प्राप्ति हेतु स्वभावतः अब भी इसके काष्ठ का उपयोग करती हैं। इसके दो भाग होते हैं-(१) निम्न भाग जिसका काष्ठ कोमल होता है उसे संस्कृत में अधरारणी और ( २ ) ऊर्व भागको जिसका काष्ठ कठोर होता है और जिससे मन्थन क्रिया सम्पन्न होती है, प्रमन्थ कहते हैं। ये योनि और उपस्थ के संकेत माने जाते हैं।
अरणो के गुणधर्म तथा उपयोग
भायुर्वेदीय मतानुसार-तर्कारी (गणि- | कारिका) कटु, उष्ण, तिक तथा वातकफनाशक है और सूजन, श्लेष्मा, अग्निमांच, अर्श, मन के | विवन्ध तथा माध्मान को हरण करने वाली है। दोनों भरनी वीर्य में और रसादि में तुल्य हैं। इसलिए जहाँ जैसा प्रयोग हो उसी के अनुसार इनका उपयोग करना चाहिए । यथा-"अग्निमन्थ वयव तुल्यं वीर्य रसादिषु । तत्प्रयोगा- |
अरणी नुसारेण योजयेत् स्वमनीषया ।” (रा० नि.) ___ तकारी कटुक ( घरपरी ), तिक तथा उष्ण है
और वात, पांडु, शोथ, कफ, अग्निमांद्य, श्राम एवं विवन्ध (मलरोध )को नष्ट करने वाली है। (धन्वन्तरीय निघण्टु )
गुण-अग्निमन्थ, उष्णवीर्य तथा कफ, वात को मष्ट करने वाला, कटुक ( चरपरा), तिक्र, तुवर (कषेक्षा), मधुर और अग्निवर्दक है । प्रयोगसूजन और पांडु रोग को दूर करता है। भी० पू० । भा० गु० ३०।
गणिकारी शोथहर और वातरोगों के लिए हितकारी है । राज०।
लघु अग्निमन्ध के गुण वृद्धाग्निमन्ध के समान हैं। यथा-"लप्वग्निमन्थस्य गुणाः प्रोक्रा वृद्धाग्निमन्थवत् । विशेषाल्लेपने चोपनाहे शोफे च पूजितः ॥” परन्तु लेपन, उपनाह और सूजन में इसका विशेष उपयोग होता है। (निघण्टुरत्नाकर). यह विष श्राम और भेद रोग नाशक है।
अरणी के वैद्यकीय व्यवहार चरक-अर्श में अग्निमन्थ-पत्र-अर्श जन्य वेदना से पीड़ित रोगीको तैलाभ्यंग कराके अरणी पत्र के कोष्णा क्वाथ से अवगाहन कराएँ। (चि०६०)
सुश्रुत-इनुमेह में गणिकारिका मूल वा काण्डत्वक्-(१) इतुमेही को अरणी भूल वा कांडत्वक् द्वारा प्रस्तुत क्वाथ पान कराएं। 'इत्तु मेहिनं वैजयन्तीकषायम् ।' (चि० ११ १०)
(२) चतुःकामित्व में गणिकारिका मूलस्वक(देखो-प्रसन)।
हारीत-वातब्रण में गणिकारिका मूल-- मातुलु'ग और अग्निमन्य मूल को कॉजी में पीस कर वातव्रण पर प्रलेप करना हितकारक है। (चि०३५ १०)
चक्रदत्त-वसामेह में गणिकारिका मूलत्यक्(१) सामेह में अग्निमन्ध की जड़ की छाल का क्वाथ प्रयोग में लाएँ। (प्रमेह-चि.)
अर्शन
पत्रकेत रोगीको
For Private and Personal Use Only