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अतिसार
२४॥
अतिसार
(जल में डूब जाने वाला), दुर्गन्धि युक, विबद्ध, निरन्तर वेदना युक्र, प्रवाहिका से युक्क थोड़ा थंडा दस्त होता है। इसमें रोगी को निद्रा, श्राल स्य, अन्न में अरुचि, रोमहर्ष और उलश होता है।। वस्ति, गुदा, और उदर में भारीपन होता और दस्त होने के पीछे भी ऐसा मालूम होता रहता है कि दस्त नहीं हुआ है। वा०नि० ८ श्र.।। (४) त्रिदोषज वा सान्निपातिकातिसार
शूकर की चरबी के समान व मांस के धोए | पानी के सदृश तथा वातादि तीनों दोषोंके लक्षण जिसमें हो अर्थात् जो दोपत्रय से उत्पन्न हो उसे सानिपातिकातिसार कहते हैं। यह कष्टसाध्य होता है । मा०नि० । वा०नि० - १०। (५) शोकातिसार के लक्षण--
जो प्राणी पुत्र, स्त्री, धन, बांधवादि के नाश होने से अति शोक युक्र होकर अल्प भोजन करते हैं, उनकी बाप्पोमा नेत्र, मासिका, कण्ठ आदिका पानी धायुमे को में प्राप्त हो अग्नि को मन्द कर । रुधिर को दूषित कर देती है जिससे धुं घची के समान लाल रुधिर गुदाके मार्ग होकर विष्ठा मिला हुआ या विष्ठा रहित, निर्गन्ध वा गन्धयुक्त . निकलता है। शोक जनित अतिसार प्रायः अति कठिन होता है। कारण यह शोकशांति हुए बिना केवल औपधों से शांत नहीं होता, इस लिए इसे कष्टसाध्य मानागया है । मा० नि० ।
नोट---एक भयज अतिसार भी होता है जो भय द्वारा चित्त के क्षोभित होने पर पित्त से संयुक वायु मल को पतला कर देता है, तदनन्तर वात पित्त के लक्षणों से युक परन, पतला, प्लवतायुरु जल्दी जल्दी मल निकलता है। इसमें प्रायः शोकातिसार के लक्षण घटित होते हैं। वा०नि०:०। (६) आमातिसार -
जब अन्न के न पचने के कारण प्रकुपित हुए दोष (वात, पित्त और कफ) अपने मार्ग को छोड़कर कोड, रसादि धातु तथा मल को दूषित कर बारबार गुदा मार्ग से अनेक प्रकार के मल बाहर निकालते हैं, तब उसको आमातिसार |
कहते हैं । इससे रोगी के पेट में अत्यन्त पीड़ा होती है। (७) रक्तातिसार
पित्तातीसार रोगी यदि अत्यन्त पित्तकारक द्रव्यों का भोजन करे तो उसको निश्चय रूप से रकातीसर रोग हो । रातिसार के धातजादि विशेष लक्षण उपयुक्र अतीसार के लक्षण के समान होते हैं। अतीसार रोग में अंतड़ी श्रादि में घाव होने से भी मल के साथ रक गिरता है।
रोग विनिश्चय कुछ व्याधियाँ ऐसी हैं जो अतीसार से बहुत समानता रखती हैं । अतएव इसके ठीक निश्चीकरण में बहुधा भ्रम हो जाया करता है । वे निम्न है--
१-विशूचिका वा वैशूचिकातिसार, २-ग्रहणी, ३-प्रवाहिका और-मलावरोध जन्य भामाशयस्थ श्लैष्मिक कलाओं का लोभ ।
यहाँ पर अतीसार के साथ इनकी तुलनात्मक व्याख्या कर दी जाती है जिससे अतीसार एवं उक्र व्याधियांके ठीक निदान करने में सुविधा रहे।
(1) अतीसार के प्रारम्भ में मल संयुक्र किन्तु पश्चात् को नल संयुक्र एवं पतले दस्त श्राते हैं और उनका रंग प्रारम्भ से अंत तक पीला अथवा दोपानुसार विविध वर्ण मय होता है। परन्तु विशूचिका में मल संयुक्र न रहकर केवल सड़े कोहड़े के जल की भाँति पतले दस्त श्राते हैं। __ अतिसार अपने उत्पादक विशेष कारणों से उत्पन्न होता है। पर विशूचिका में स्पष्टतया कोई विशेष कारण लक्षित नहीं होता। इसमें यमन और पेशाब बन्द हो जाते हैं और रोगी शीत असीम निर्बलता का अनुभव करता है। प्रतीसार में प्रायः ऐसा नहीं होता।
मल में पित्त का पाया जाना सदा अतीसार का सूचक है। विशूचिका में वमन बहुत श्राते हैं और वे एक वर्ण रहिन इव होते हैं । अतीसार में वमन बहुत कम पाते हैं और जब कभी श्राते भी है तो उनमें पित्त अथवा अजीर्ण आहार को कुछ अंश विद्यमान रहता है
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