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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अंजवाइन २३ श्राजवारन प्राचीन श्रायुर्वेदीय ग्रंथकारों ने इसी प्रकार के एक श्रोषधि का यवोनी तथा यधानिका नाम से वर्णन किया है, जिससे इसका विदेशी होना साफ सिद्ध होता है । उनके वर्णनानुसार यह अजमोदा के भेदों में से एक है। वानस्पतिक विवरण-अजवायन तुप जाति की वनस्पति के बीज है। ये एप लगभग चार फीट ऊँचे होते हैं। पत्ते छोटे छोटे हालों के पत्तोंके समान एवं कटीले होते हैं और इनकी डा. लियों पर छत्ते से पाते हैं जिनपर सफेद फूल लगते हैं। जब वे इसे पक जाते हैं तब उनमें अजबाइन उत्पन्न होती है । उनको कूटने से छोटे छोटे दाने से निकलते हैं, इन्हीं को अजवाइन कहते । है । अजवायन (फल) रूपाकृति' में अजमोदा | समान तथा धूसर वर्ण की होती है, जिसका ! ऊपरी धरातल अदाकार पञ्च उभार युक्र होता है । इनकी मध्यस्थ नालियाँ श्याम धूसरित होती हैं, जिनमें एक तेल नलिका होती है। संधिस्थल में दो तैल नलिकाएँ होती हैं। गंध हाशा अर्थात् जंगली पुदीमा के सदृश होती है। भारतीय कृषक प्रायः धनिए के साथ इसे खेतों में बोते हैं। बोने का समय अक्टूबर से नवम्बर तक (कातिक, अगहन) और काटने का समय फरी है। इसके लिए खेत खाददार होना चाहिए। नोट- श्रायुर्वेद में यमानी, बनयमानी, पारसीक तथा खोरासानी ग्रादि नामों से श्रजवायन को चार प्रकार का बतलाया गया है। इनमें से प्रथन दो में कोई भेद नहीं (दूसरी केवल जंगली है ) और अंतिम की दो अन्वायन म्युरा. सानी ही के पर्याय है: किन्तु यह अजवायन से सबंध भिन्न वर्ग की श्रोपधियाँ हैं। इनका वा न यथास्थान किया जाएगा। . प्रयोगांश-फल, पत्र । रासायनिक संगठन-स्टेनहाउस (१८५५)! महाशय के मतानुसार अजवाइन के फल में एक प्रकार का प्राता सुगंधियुक उड़नशील सैल (५-६ प्रतिशत) होता है जिसका विशिष्ट गुरुत्व ०६६ है। परिशुत जल के ऊपरी धरातल पर एक प्रकार का स्फटिकवत् द्रव्य ( Ste:aroptin ) इकट्ठा होता है। उसे अजवाइन का फल या सत कहते हैं। स्टॉक ( stock ) महाशय ने सर्व प्रथम इसका बयान किया तथा स्टेनहाउस (Stenhouse) और हेन्स (Haines) ने परीक्षा करके इसकी थाइमोल (Thymol) से, जो जङ्गली पुदीना (Thymus Vulgaris) से प्राप्त होता है, समानता दिग्वलाई। देखो-थाइमोल । इसमें क्युमीन (Citmene), टीन (Terpelle) तथा श्राइसीन (Thy. mene) भी पाए जाते हैं। औषध-निर्माण-अजवायन गुटिका (शा), चूर्ण, काय, अर्क ( अमूम का पानी) और तेल । अजवायन के गुणधर्म व प्रयोग । श्रायवदीय मत के अनसार . अजवायन लेखन ( देहस्थ धातु तथा मसलों को शोषण करने वाली), पाचक, रुचिकारक, तीक्ष्ण, गरम, घरपरी, हलकी, अग्नि को दीपन करने वाली, कड़वी और पित्तकारक है तथा वीर्य, शूल, वात, कफ, उदर, पानाह, गुरुम, प्लीहा तथा कृमि को नष्ट करने वाली है। (भा० पू० १ भा०) इसके शाक के गुण-अजवायन का शाक अाम्नेय, रुचिकारक, धात-कफ-नाशक, चरपरा, कड़वा, गरम, पित्तकारक, हलका तथा शूलकारक है। (भा० पू० शा० व.) अजवायन चरपरी, कड़वो श्रीर गरम है तथा बात की बवासीर, कफ, शूल, असान, कृमि और वमन को दूर करने वाली तथा परन दीपन (ग. नि० ब०६) अजवायन कोढ़ और शूल को नष्ट करने वाली है, हृदय को हितकारक, पित्तवईक तथा अग्निबद्धक है। जवायन चरपरी, कड़वी, रुचिकारी, गरम, अग्निप्रदीपक, पाचक, पिसजनक, तीक्ष्ण, हलकी हृदय को हिसकारी, सारक और श्रीर्यजनक है तथा बा.ी की यवासीर, कफ, शूल, प्रफरा, वमन, कृमि, शुक्रदोष, उदररोग, प्रामाह, हवय. For Private and Personal Use Only
SR No.020060
Book TitleAayurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size27 MB
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