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अजमोदा
अजमोदा
हानि करता तथा कास को लाभ पहुंचाता है। यकृत, प्रीहा, वृक तथा वस्तिके लिए लाभदायक | है, जलोदर और मूत्रावरोध को दूर करता है।। अश्मरी को टुकड़े टुकड़े कर डालना है, क्योंकि इसमें ततीन (मवाद के छाँटने ), रोध । उद्घाटक तथा रंचक शकि पाई जाती है। रजः प्रवर्तक होने के कारण गर्भवती को हानिकर्ता है और इसी कारण तात्र मवाद एवं तीन रत्- . बतों से गर्भाशय की पूरित कर देता है। जिस समय यह भूप की आहारमें सम्मिलित हो जाता है उस समय उसके शरीर में स्थराव फुन्सियाँ तथा दुपता उत्पन्न हो जाते हैं चाहे ये जन्म के बाद ही क्यों न प्रगट हों। अपनी रोध उद्बाद शनि के कारण यह गरम मवाद को शुक्राशय की चार गति देता है, अस्तु यह कामाठीपनका है जिससे कामेच्छा को उत्तेजना मिलती है। ( ना.)
अजमोद स्वाम, रूपकास पार भागरिक प्रच-: यय के शीत को गुणका, यकृत पौर नीहा के रोध को संदन कर्ता, अत्यन्त मूत्रप्रवर्तक, बुधा ।
और श्रीज को पालनकर्ता है। इसकी जड़। सम्पूर्ण कफज रोगों को काम करती तथा धाहारको पञ्चाती और जलोदर को गुमा करती है। यह प्रभाव में अपने बीज से बलवान है। नौके पाटे साथ इसका और शाथ को लयकर्ता तथा पार्श्वन और चान्तिनाशक है।
डॉक्टरों एव थन्य मत अजमोद के पनों को कुचल का स्तन में लगाने . से दुग्धनाव श्रवस्त हो जाता है।(नकिन). यह जमली नेत्रों में पुलटिश रूप से उपयोग में माना है। अजमोद की जड़ का वृक्ष पर लाभदायक प्रभाव होना है। ई. मेम०
अजमोद बदहजमी और दस्त की बीमारी में अत्यन्त उपयोगी है नया खराब म्वाद वाली दवा प्रजमोद के पानी के साथ देने से उलटी भाने की सी शंका नहीं होती। इससे ये सब दवाएं पेट में शूल होने की सी शंका होने को बन्द करनी है। यह अत्यधिक लालावावक है ।। इससे पाचक रस अधिक उम्पन्न होते हैं. उदरशल
नष्ट होता है तथा पाचन शनि यदाती है। गले के भीतर की सूजन पर भी प्रजमाद को अन्य ग्राही पदार्थ के साथ मिलाकर उपयोग करना हित है। (डॉ० वोडा)। अजमोद तैल अर्थात एपिभील (Apiol ). नेट किरात (Not oiticist ).
लक्षण---या एक पीतवरणं का मिलीय द्रव है जिससे विशेष प्रकार की गन्ध पानी है। स्वाद-तीण एवं प्रमाझ ।।
घुलनशा जता-यह जल में ना नहीं घुलमा किन्नु हलाहल (Alcohol) और इधर में सरलतापूर्वक घुल जाता है। मात्रः-३ से ५ मिनिम् (बुन्द)।
उपयो-विधि-इसको साधारणतः फैक्यूमन में दाबकर देते हैं।
नं-फटिकन एपिभील (कर मजमोदा), इसकी भी कभी उनैल के स्थान में उपयोग करते हैं।
भाव व प्रयाग-परिमान को रजःप्रवर्तक तथा मूशजनक रूप में रजरोध तथा बाधक वेदना और वृक आदि रोगों में (२-३ बुन्द की मात्रा में फैशुजज या शर्करा के साथ ) यतते है। कहते हैं कि विषम ( मलेरिया ) ज्वरों में भी यह लाभदायक होता है, पर कर साहमाफ महोदय के अनुसार हमकी परीक्षा करने पर निम्न इन्द्रियम्यापारिक क्रिय.ए. संपादित होती हैं, यथा शिरोवेन, मदकारी, बाद को बारम्बार बाने की इच्छ', 'धन विकार, पुषा का नष्ट हो जाना और ज्वर यादि । सूक्ष्म मात्रा में एपिगोल प्रापस्मारिक मूर्छा के लिए गुणदायक बतलाया जाता है। ई. मे. मे।
नोट-पूनानी हकीम भी फिनरासानियून का मूत्रविरेचक, रजःप्रवर्तक तथा वृक्त, यस्ति एवं गर्भाशय के लिए लाभदायी जानते हैं तथा उसे इन्हीं गुणों के लिए उपयोग में लाते हैं।
योग-निर्माण--(.) किनीन सल्फेट १ रत्ती, एपिग्रोल ग्रेन ( रसी) और पौंगनेट ऑफ पोटाश ? रत्ती ( ग्रेन ) इनको मिला
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