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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org હું महरः अश्मरीजन्य मूत्रकृच्छ एवं शर्करा के लक्षण प्रायः एक से होते हैं, यथा लक्षण - जिस मनुष्य को शर्करारोग होता है उसके हृदय में पीड़ा, साथलोंका थकना, फूख़में शूल और शोध, तृषा और वायु का ऊर्द्ध गमन, कृष्णता ( कालापन ) और दुबलापन तथा देह का पीला पदना, अरुचि, भोजन ठीक नहीं पचना आदि खचण होते हैं । और जब यह सूत्र के मार्ग में प्रवृश होकर और वहीं स्थित हो जाती है (इसे मूत्राश्मरी कहते हैं ) तथ ये उपद्रव होते हैं-दुबलापन, कावट, कृराता, कोख में शूल, अरुचि, शरीर, नेत्रादि पीले पड़ना तथा उष्णाधात, तृषा हृदय में पीड़ा और वमन ( या जी मिचलाना ) इत्यादि । सु० नि० ३ .० | देखो -- शर्करा । अमरोहरः ashmari harah सं० त्रि० अश्मरीहर ashmarihar-हिं०वि० पथरीको नष्ट करने वाला | अश्मरीनाशक । श्रश्मरोध | ( Lithontriptic. ) सं० पु०० ( १ ) अश्मरी नाशक योग विशेष | यथा - शिलाजीत, बच्छनाग, दाख, दन्ती, पाषाणभेद, हल्दी, हड़ प्रत्येक समान भाग लेकर बारीक चूर्ण बनाएँ । श्राच मा० । मात्रा - १ मा० । बच्चों को अनुपान - तिलदार २ तो० एवं दूधके साथ खाने से पथरी नष्ट होती है । (२) देवधान्य । देवान- वं० । (३) वरुणवृक्ष, वरना । वायवरणा मह० | ( Crataeva Religiosa ) ० मा० न सं० ( [हिं० संज्ञा ) पु ं० (४) पथरी को नष्ट करने वाली श्रीषध प्रभाव भेद से यह तीन प्रकार की होती है, यथा--- (१) वह औषधे जो अश्मरी बनने को रोकती हैं अथवा सूत्रस्थ स्थूल भाग को मूत्रावयव में तलस्थायी होने से बाज़ रखती हैं और यदि कोई पथरी वा कंकड़ी बन गई हो तो उसको विलीन करती है । ऐलिथिक्स (Antilithics ) - इं० । मानित तकने हात-० । ( २ ) पथरी को तोड़ने वाली या उसको Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अश्मरीहर टुकड़े टुकड़े करने वाली औषधे । वह औौंषध जो अपने प्रभाव एवं सूक्ष्म गुण के कारण वस्ति तथा वृक्कस्थ अश्मरी को टुकड़े टुकड़े करके वा उसको विलीन वा द्रावित करके मूत्र के साथ उत्सर्जित करें । श्रश्मरी भेदक अश्मरी छेदक । लियॉट्रिप्टिक्स (Lithontriptics), तिथे ट्रिप्टिक्स ( Lithotriptics ) - ई० । मुफ़त्तित्, मुफ़तितुत हुसात अ० । (३) वह औषध जो पथरी को विलीन करती हैं । अश्मरी द्वात्रक ! अश्मरी विलायक | नोट- जब पेशाब अधिक अम्लतायुक्त होती है तब उसमें से युरिक एसिड या केल्सियम् आक्सीलेट पृथक होकर शर्करा के रूप में तनस्थाई हो जाते हैं जिससे पथरी वा कंकड़ी बन जाती है। ऐसी दशा में ऐलकेलीज़ (चारीय औषध) के देने से या पाइपरेज़ीन के देने से बहुत लाभ होता है; क्योंकि यूरिक एसिड का बनना बन्द हो जाता है, प्रभृति । किन्तु जय मूत्र डीकम्पोज़ श्रर्थात् वियोजित या विक्रा हो जाता हैं तब उसमें से फॉस्फेट के रवे तलस्थाई होजाते हैं। ऐसी दशा में मूत्र को अम्ल किया जाता है और उसको विकृति वा साँधको किया जाता दूर है । अस्तु, बेअोइक एसिड या बे ओएट्स के प्रयोग से बहुत लाभ होता है । t ( Gout) में पोटासियम् और जीथियम् के लवर्णों के उपयोग से यूरिक एसिड (जो व्याधि का कारण होता है । ) विलेय युरेट्स में अर्थात् पोटाशियम् युरेट और लीथियम् युरेट में परियात हो जाता है एवं उनसे मूत्रस्थ अम्लता क्षारीय हो जाती हैं । -2 उपर्युक श्रौषधों के सेवन काल में जल का अधिक उपयोग उनके प्रभाव का सहायक होता है । इसके उपयोग विषयक पूर्ण विवेचन के लिए विभिन्न श्रश्मरियों की चिकित्सा के अन्तर्गत देखें | For Private and Personal Use Only अश्मरीहर औषधे श्रायुर्वेदीय - शिलाजीत, कुरगटक ( कटसरैया) पलाश (तार ), आक, वरुणा वृक्ष,
SR No.020060
Book TitleAayurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size27 MB
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