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अभ्यूषः
अभ्युषः abhyüshah - सं० पुं० श्रभ्योष । ईषत्यक्व कलाय श्रादि । (श्रटो० भ० ) अम० । रोटी । श्रा० सं० इं० डि० ।
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अभ्रम् abhram-सं०ली० (1) year, अभ्र abhra-हिं० संज्ञा पुं० नागरमोथा ( Cyperus Rotundus ) । ( २ ) मेघ, बादल । काउड ( Cloud ) - ई० । रा० नि० ० ६ । ( ३ ) श्रभ्रक धातु टैल्क ( Talc. ) - इं० रा० नि० ० १३ । ( ४ ) प्रकाश । स्काइ ( Sky., ) ऐट्मॉस्क्रियर ( Atmosphere.) - इं० । ( ५ ) स्वर्ण सोना | Gold ऑरम ( Aurm ) - ले० । अभ्रकम् abhrakam-सं० स्त्री० अभ्रक abhraka - हिं० संज्ञा पुं०
(3) भद्रमुस्ता
नागरमोघा ( Gyperus pertenuis. ) (२) कर्पूर । कैम्फर ( Camphor ) - इं० ( ३ ) सुवर्ण । श्ररम ( Aurum )। ( ४ ) वेत्र, वेतसवृत ( Calamus rotong.)। देखो - वेत्रसः । (२) अवरक धातु विशेष | भोइर | भोडल | भुखेल | गिरिजं, श्रमलं ( अ ), गिरिजामलं, गौर्य्यामलं, ( स्वामी ) गिरिजा बीजं, गरजध्वजं, ( के ), निर्मल, (मे), शुभ्रं ( ज ), घनं, व्योम, अब्द्धं, (र), अभ्रं भृङ्ग, अम्बर, अन्तरीक्ष', श्राकाशं, वहुपत्रं, खं, अनन्तं, गौरीज, गौरीजेयं, ( रा ) - ॐ० । अभ्भर बं० । श्रवक, तल्क, अरीदून, इख़्तराल, क्रतून, कोकबुल अज़, मुनक्का, मुकलिस, अल्झिरूस, समझ, गगन, जना, हुल् स उत • श्व० । तह-३० सितारहे ज़मीन फ्रा० । उ० । अबरक- उ० माइका Mica - ले. टैल्क Talc, मस्कोवी ग्लास Muscovy glass, ग्लीमर Glimmser ई० । भिंगा-त्र ना० । कों० । किन-सिं० । हिंगूल- गु०, मह० । यह एक प्रकार का स्फटिकवत खनिज है । जिसकी रचना पत्राकार होती है और जिसके श्रत्यन्त पतले पतले परत या पत्र किए जासकते हैं । यह बड़े बड़े ढॉकों में तह पर तह जमा हुआ पहाड़ों पर मिलता है। साफ़ करके निकालने पर
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अभ्रकम्
इसकी तह काँचकी तरह निकलती है । यह आग से नहीं जलता एवं लचीला होता तथा धातुत्रत् आभा प्रभा रखता है । इसके पत्र पारदर्शक एवं मृदु होते श्रीर सरलता पूर्वक पृथक् किए जा सकते हैं। एक ओर से दूसरी ओर तक फाड़ने पर टूटने की अपेक्षा फटते हुए प्रतीत होते हैं । वैद्यक ग्रंथों में इसको महारस या उपरस लिखा
| परन्तु आधुनिक रसायन बाद के अनुसार यह न धातु है न उपधातु क्योंकि न इसमें धातु के लक्षण हैं और न उहधातु के, और न बह मौलिक तत्रों में से है ।
उद्भव स्थान- बहुधा यह पर्वतों पर पाया जाता है। हमारे देश में अभ्रक प्रायः श्वेत भूरा तथा काला निकलता है। सीरिया और भारतवर्ष में, बंगाल, राजपूताना, 'जैपुर' मद्रास नेलौर और मध्य प्रदेश आदि की पहाड़ियों में इसकी बड़ी बड़ी खाने हैं । श्रवरक के पत्तर कंदील इत्यादि में लगते हैं । तथा बिलायत आदि में भी भेजे जाते हैं । वहाँ थे काँच की टट्टी की जगह किवाड़ के पल्लों में लगाने के काम में श्राते हैं । अभ्रक भेद
रस शास्त्रों में अभ्रक की चार जाति एवं वर्णानुसार इसके चार भेदों का उल्लेख पाया जाता है, जैसे
ब्रह्मक्षत्रिय विट् सूद्र भेदात्तस्या चतुर्विधम् क्रमेणैव सितं रकं पीतं कृष्णां च वर्णतः ॥ अर्थ- - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र भेद से अभ्रक चार प्रकार का है उन चारों के क्रमशः सफेद, लाल, पीत और काले वर्ण हैं ।
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चारो वर्णों के भेदप्रशस्यते सितं तारे रकं तत्र रसायने । पीतं हेम निकृष्ण तु गदे शुद्ध तथापि च ॥
अर्थ- चाँदी के काम में सफ़ेद अभ्रक, रखायन कर्म में लाल, सुवर्ण कर्म में पीला और औषध कार्य में शुद्ध काला अक काम में लाना चाहिए ।
कृष्णाभ्रक के भेद --
पिनाकं दहुरे नागं वज्रं चेति चतुर्विधम् । कृष्णावकं कथितं प्राज्ञस्तेषां लक्षण मुच्यते ॥
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