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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अस्थिसंहार - अस्थिसंहार त्रिकोण, पनाकार और संधियुक, होते हैं। प्रत्येक जोड़ विनित लम्बाईका(२४ व होता है। यदि कोड से एक ग्रंथि काटकर जत्तिका से दाँक दी जाए तो उसने एक सुदीर्घ जता उत्पन हो। . जाती है। इसीलिए इसका एक नाम काण्ड.. वाली है। . . . ! (Stipule ) चन्द्राकार, अखंड़, पत्र अत्यंत स्थूल एवं मांसल, विषमवर्ती, साधारणतः । निखंडयुक, हृदण्डाकार, ( Serrulatid); धुन्त हस्त्र; फूल छध्याकार, लघु वस्तक, श्वेत व हस्त, पराग केशर ५; दल ; प्रशस्त फल मटरवत् बत्तु लाकार, अत्यन्त चस्परा बा कटुक ... (यह उसमें पाए. कानेवाले एक कार के अम्ल के कारण होता है), एक कोप युक्र, एक बीज..युक; कोज एकान्तिक,अधाडाकार एक कृष्णधूसर स्पावन कोष से श्रावृत्त होता है; प परहस्त्र, श्वेत और वर्षा के प्रत में प्रगट होते हैं। . . नोट- इसके कांड में भी यही स्वाद होता है. इसकी एव द्राक्षा की अन्य जाति के पौधे -की उक्र चरपराहट खटियः काष्ठेत (Calcium ox lante.) के सूच्याकार स्फटिकों की विद्य. ..नता के कारण होती है। पौधे के शुल्क होने पर . ये स्फटिक टूट जाते हैं एवं जल में क्वथित करने से वे दूर हो जाते हैं। . . . प्रयोगांश-सर्वांग ( काण्ड, पत्र आदि)। मात्रा-शुष्क चूर्ण, १८ रत्ती वा २ मा... प्रतिनिधि-पिपरमिण्ट और कृष्णजीरक । अस्थिसंहार के गुणधर्म तथा उपयोग आयुर्वेदीय मत से... वात कफ नाशक, टूटी हड्डी का जोड़नेवाला, ''। गरम, दस्तावर, कृमिनाशक, बवासीरमाशक, नेत्रों को हितकारी, रूखा, स्वा, हलका, बल- कारी, पाचक और पित्तकर्ता है। भार प०१. भा०1 शीतल, वृष्य, यातनाशक और हड्डी को जोड़ने । वाला है । मद०व०१ . ... वज्रवल्ली ( हड़जोर) दस्तावर, रूक्ष, स्वादु ...(मधुर.), उष्णवोर्य, पाक में खट्टा, दीपन, वृष्य । एवं बलगद है तथा क्रिनि और बवासीर को नष्ट करता है। प्रशं में विशेष रूप से हितकारक "और अग्निदीपक है। चतुर्धारा को वली (चौ. धारा हड़जोड़ ) अत्यंत उण और भून बाधा - तथा शूल नाशक है एवं ग्राम्मान, वात तिमिर, वातरक, अपस्मार और वायु के रोगों को नष्ट करती है। वृहनिघण्टुरत्न कर) .. अस्थिसंहार के वैद्यकीय व्यवहार चक दत्त-मनगंग में अस्थिसंहार--संधि. युक अस्थिभग्न में अस्थिसंहार के कारको पीसकर गीत तथा पुरध के साथ पान करें। यथा-- - "प्रकृतेनास्थिलहार* संधियुक्रेऽस्थिभग्ने च पिवेत् क्षीरेण मानवः" । (भग्न-चि०.) . भ व पबश-वायु प्रशमनार्थ अस्थिसंहार मजा-अस्थिसंहार के ढार की छालको छीलकर उस लकड़ी का चूर्ण १ मा० तथा छिलकारहित किसी कलाय की दाल. ( प्रातहर होने के कारण माप कलाय. अर्थात् उहद उसम है) प्राध मासे ले दोनों को सिन पर बारीक पीसकर तिल के तेल में इसकी मगोरो बनाकर खाएं । ये मगौरी प्रत्यक्ष वात नाशक हैं । यथा-- ... ... ... "कांड स्वग्विरहितमस्थिशृङ्खलायामापा द्विदलमकुचकं तदद्धम् । सम्पिदै तदनु ततस्लिालस्य तैले सम्पक वटकमतीव वातहारि ॥" भा० । त्र० द० अ० पि०, अभ्र शुद्धौ । . वक्तव्य . चरक, राजनिघण्टु तथा धन्वन्तरीयनिघण्टु में अस्थिसंहार का नामोल ख दृष्टिगोचर नहीं होता है । सुश्रुताक्त भान रोग चिकित्सा में । अस्थिसंहार, का पाठ नहीं है। चक्रदत्तके समान वृन्द ने भग्नाधिकार में इसका व्यवहार किया है। राजवल्लभ लिखते है। स्थिमानेऽस्थिसहारी हितो बल्योऽनिलापंहः।" अर्थात् हड्डियों के टूट जाने में अस्थिसहार हितकर है एवं यह बल्य और वातनाशक है। - यूनानी मतानुसार प्रकृति-उष्ण व रूहं । स्वरूप-नवीन हरा और शुष्क मूरा । स्वाद-विकका वकिञ्चित् तिक एवं कषाय । For Private and Personal Use Only
SR No.020060
Book TitleAayurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size27 MB
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