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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अरेर श्रीर रहनी चाहिएं। लगाने के दो ही तीन वर्ष बाद इसका पेद फलने लगता है और १४ या १५ वष तक रहता और बराबर फल देता है। यह वर्ष में दो बार फलता है। एक जेड असाढ़ में और फिर फागुन में । माला में गुथे हुए इसके . सुखाए हुए फल अफ़ग़ातिस्तान प्रादि से हिन्दुस्तान में बहुत पाते हैं । सुग्वाते समय रंग . सदाने और छिलके को नरम करने के लिए या तो गंधक की धूनी देते हैं अथवा नमक और शरा मिले हुए गरम पानी में फलों को दुबा देते । हैं । भारतवर्ष में पूना के पास खेड शिवपुर नामक गाँव के अंजीर सबसे अच्छे होते हैं । पर अफगानिस्तान और फारसके अजीर हिन्दुस्तानी अंजीरों से उत्तम होते हैं। यह दो तरह का होता है, एक जो पकने पर लाल होता है, और . दूसरा काला। प्रयोगांश-शुष्क प्रावरण अर्थात् ( अंजीर ) लक्षण-यह मृदु होता है इसके भीतर बहुत से कांप एवं बीज होते हैं। दबने से फल चपटे, और बेकायदा हो जाते हैं। वर्ण--पीताभायुक । धूसर, पर कोई कोई श्वेतामायक रक्क व श्याम । | स्वाद--मधुर। वर्ण भेद से यह तीन प्रकार का होता है। यथा (1) पीत, (२) श्वेत और (३) श्याम । ब्रिटिश फार्माकोपिया के अनुसार स्मरना का अञ्चीर दवा के काम में आता है जो पीला होता है। रासायनिक संगठन -फल-इसमें द्राक्ष शर्करा ( Grape sugar) ६२ प्रतिशत, निर्यास, घसा और लवण होता है। शुष्क अजीर में शर्करा, वसा, पेक्टोज, निर्यास, अल्युमीन (अण्डे की सुफेदी) और लवण होता है। दुग्ध-में पेप्टोनकारी अभिषव (Peptouising ferment) होता है। गुण धर्म प्रयोग आयुर्वेद में इसे शीतल, स्वादु, गुरु, रक्रपित्त, वात, क्रिमी, शूल, हस्पीपा, कफ | और मुख की विरसता नाश करने वाला कहा है । मद० व०६। अजीर अत्यन्त शीतल. तत्काल रक्रपित्त ना. शक, पित्त और शिरोरोग में विशेष करके पथ्य है तथा नाक से रुधिर गिरने की बन्द करता है। अजीर भारी, शीतल, मधुर, वातनाशक, रक्रपित्त हारी, रुचिकारो, स्वादु, पचने में मधुर तथा श्लेष्मा और ग्रामवातकारक है एवं रुधिर विकार को दूर करता है । वृ०नि० २० । युनानो ग्रन्थकार इसे ( ताजा अजीर) १ कक्षा में उपण और दूसरी में तर मानते हैं। हानिकर्ता-यक्रत, प्रामाशय और अधिकता से खाना दाँतों को । दपनाशक-बादाम और सासिर । प्रतिनिधि-चिलगोज़ा और दाम्य । ताजा अजीर मदुकत्ता, पोषक और शीघ्रपाकी है। कच्चा अजीर अत्यन्त जाली ( कांतिकारी ) है; क्योंकि इसमें दुग्ध बहुत ज्यादा होता है और पार्थिवांश की अधिकता के कारण यह सर्दी की और मायल है। शुष्क अजीर शीतोत्पादक है । जलांश की न्यूनता के कारण यह १ कक्षाके अन्तमें उष्ण और सूक्ष्म है । इससे पतला ख न उत्पन्न होता है जो बाहर की ओर गति करता है । अजीर सम्पूर्ण मेवों से अधिक शरीर का पोपण करता हैक्योंकि पूर्व कथनानुसार जलांशाधिक्य के अतिरिक्र पार्थिवांश की अधिकता भी है। भली प्रकार पका हुआ अजीर तकरीबन निरापद, होता है; क्योंकि इससे वह तीपण दुग्ध जो इसमें होता है, नष्ट हो जाता है और इसके पार्थिवांश में समता स्थापित हो जाती है। अधिक गूदादार अजीर शारीरिक दोषों का अधिक परिपाक करता है। क्योंकि गरम व तर होने के कारण दोष परिपाककारी ( मुजि ) है। इसके गूदे में स्नहोप्मा विशेषकर होती है। इसी कारण अधिक गूदे वाला अजीर अधिक . परिपाक करता है। इसमें अन्तिम कक्षा की कुव्वते तल य्यन (दोष मृदुकारी शक्रि ) है; क्योंकि इसकी उष्मा रतूबतों For Private and Personal Use Only
SR No.020060
Book TitleAayurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size27 MB
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