SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 225
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भजनम् १६३ (३) डाक्टरी मतानुसार अञ्जन के वाह प्रभाव अजन के योगिकों का त्वचा पर सशक । उग्रतासाधक वा सोभक (इरिटेण्ट) प्रभाव होता । है । अस्तु, टाटरेटेड ऐण्टिमनी को मलहम रूप में त्वचा पर लगाने से शीतला सश दाने उत्पस हो जाते हैं, जिनसे पत होकर सर्वदा के लिए चित । रह जाते हैं। श्राभ्यंतरिक साव आमाशय तथा श्रांत्र-जन के यौगिकों . के प्राभ्यंतरिक उपयोग से भी वैसा ही उग्रता साधक (क्षोभक) प्रभाव होता है जैसा कि उसके बाह्य उपयोग से । अस्तु, यदि टार्टरेटेड ऐण्टिमनी । को अधिक मात्रा में खाया जाए अथवा अधिक समय तक औषध रूप से उपयोग में लाया : जाए तो मुख, कर, अन्नप्रणाली, श्रामाशय और प्रांत पर इसका वैसा ही उग्रता साधक . प्रभाव होता है जैसा कि स्वचा पर । __ इसे सूचम मात्रा में व्यवहार करने से आमाशय में उम्मा एवं वेदना का भान होता है और किचित् मात्रा में देने से धुधा प्रायः नष्ट होजाती है, जी मचलाता है और प्रामाशय व आंग्र की श्लैष्मिक कला से अधिक द्रवस्त्राव होता है। . इससे भी अधिक मात्रा अर्थात् २ या ३ प्रेन की मात्रा में देने से यह वामक प्रभाव करता है और इसका यह ( वामक) प्रभाव प्रामाशयपर इसके प्रत्यक्ष (सरल) वामक (डायरेक्ट एमेटिक) प्रभात्र , का प्रतिफल स्वरूप होता है। किन्तु,तत्काल अभिशोषित होकर मास्तिष्कीय बमन केन्द्र पर भी ! यह किमी भाँति अप्रत्यक्ष ( श्रमरल) बामक । (इरडायरेक्ट एमेटिक) प्रभाव करता है। यदि : इसको त्वक्स्थ अन्तःक्षेप द्वारा रक्त में प्रविष्ट किया जाए तो भी इससे वमन आने लगता है; जिसका कारण . यह होता है कि कुछ तो इसका प्रभाव वमन केन्द्र । पर होता है और कुछ इस प्रकार कि यह शोगित में अभिशोषित होकर किसी भाँति प्रांत्र तथा प्रामाशय में खारिज होता है जिससे कुछ समय तक बमन पाता रहता है। और यदि इसको । बहुत से पानी में घोल कर दिया जाए तो वमन . तो कम प्राता है। किन्तु, दस्त अधिक आते हैं। अञ्जनम् अत्यधिक मात्रा अर्थात् विषैली मात्रा में इसे देने से प्रानातय तथा प्रांत्र में स्त्रराश होकर विशूचिका के समान लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं और पदर में जरोड़ होकर दस्त प्राने लगते हैं। अति सूरन मात्रा में यदि हमे मुख द्वारा प्रामाशय में प्रवेशित किया जाय तो यह बड़ी मात्रा में शिरा अन्तःप द्वारा पहुँचाए जाने की मापेक्षा शीघ्र प्रभाव करता है। इससे यह सिजू होता है कि यमन लाने में बालक केन्द्र की अपेक्षा इसका स्थानीय प्रभाव ही मुख्य है। हदय तथा शाणित परिचालन-जन के विलेय गुण युक लवण शीघ्र रक में शोषित होजाते हैं । परन्तु, ग्रे रक्रवार (प्राज़्मा) की अल्ब्युमिन में मिति नहीं होते | उपयोग के प्रारम्भ से ही चाहे इसको सूक्ष्म ( ग्रेनसे ग्रेन) मात्रा में ही दिया जाए तो भी यह हृदय की शक्रि तथा गति दोनों को कम कर देता है। परंतु, मतली को उत्तेजना मिलती है। उसकी गति रुक-रुक कर (के होने लगती है। इसे अधिक मात्रा में व्यवहार करने से हृदय अत्यन्त निर्बल होजाता है। और द्वितीय यह कि वैसोमोटर सिस्टम के किसी स्थल पर निर्बलताजनक प्रभाव पड़ने से धामनिक मांस पेशियाँ शिथिल होजाती हैं। इस कारण अंजन (ऐण्टिमनी) रक्रभ्रमण तथा हृदय को सशक्त निर्बलकारी या हृदयावसादक औषध है। (अंजन का उक्र निर्बलकारी प्रभाव बहुतांश में विष अर्थात् सींगिया के समान ही होता है।) फुप्फुस तथा श्वासोच्छ्वास---अंजन के प्रभाव से प्रथम तो श्वासोच्छ बास में सूक्ष्म सी उक्तेजना होती हैं, तत्पश्चात् वह अत्यन्त शिथिल होजाता है । अस्तु, श्वासकाल घट जाता है और वास छोड़ने का समय बढ़ जाता है। अन्ततः श्वासोर घास का मध्य काल बहुत बढ़ जाता है और उसकी गति अनियमित होजाती है। अंजन बायुप्रणाली की श्लैष्मिक कला के मार्ग से विसर्जित होता है। इस हेतु यह शोफघ्न श्लेष्मानिस्सारक (ऐरिटफ्लोजिस्टिक एक्सपेक्टोरेण्ट) प्रभाव करता है। For Private and Personal Use Only
SR No.020060
Book TitleAayurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy