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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अंजरुत १६२ अज़रूत निकट शबानकारह की पहाड़ियों में पाया जाता है। उक्र निर्यास का अन्य नाम जवुदानह है। जब यह पहिले निकलता है तब श्वेत होता है, किन्तु वायु में खुले रहने पर लाल होजाता है। अर्वाचीन लेखकों में “मज़नुल अद्वियह" ! के लेखक मोर मुहम्मदहुसेन हमें बतलाते हैं । कि इस्फहान में अञ्ज रूत को कुजुद और | अगरधक कहते हैं (शेषके लिए देखो-पर्याय सूची)। श्राप के कथनानुसार यह शाइकह, नामक दार वृक्ष का गोंद है जो ६ फीट ऊँचा होता है। श्रीर जिसके पत्र लोबान पत्र सहरा होते हैं।। इसका मूल निवास स्थान फारस और तुर्किस्तान | है। पुनः वे उक्र औषध का ठीक विवरण | देते हैं। आयुर्वेदीय ग्रन्धों में इसका कहीं भी जिकर नहीं पाया शाता । वानस्पतिक विवरण-सार्कोकोला के न्यूनाधिक सामूहिक एवं अत्यन्त विचूर्णित दाने होते हैं। यह अपारदर्शक अथवा अर्धस्वच्छ होता है और गम्भीर रक्त से पीताभायुक्र श्वेत अथवा धूसर वर्ण रूपान्तरित होता रहता है। इसमें मुश्किल से कोई गन्ध पाई जाती है। इसका स्वाद अत्यन्त कडुपा और मधुर होता है। उत्तप्त करने पर यह फूलता है और जलते समय इसमें से जले हुए शर्करा की सी गन्ध पाती है । सार्कोकोला (अज रूत) निर्यास फारसी बन्दरगाह बुशायर से थैलों में बम्बई प्राता है । इसके अन्य भागों का विवरण निम्न प्रकार है फल-इंठल छोटा, पतला, पुष्प-वा-कोप श्रण्डाकार, घण्ट्याकार, भूसी संयुक्र, 1 इञ्च लम्बा, ५ तंग विभाग युक्र (पञ्च सूक्ष्म खण्ड.युक) और खुला हुआ होता है। इसके भीतर पुष्पदल ( Petals ) और एक अण्डाकार, सरत, तुण्डाकार, फली जो धान के इतनी बड़ी | और जिसका वाह्य धरातल एक धने सुफेद वर्ण । के रोवों से श्रावरित होता है । यद्यपि फली पक जाती है तो भी पंखड़ियाँ लगी रहती हैं। उनमें । से सबसे ऊपर वाली फणाकार होती थीर फली के तुण्ड भाग को ढाके रहती है। फली द्विकपाटीय होती है, उभारकी सीवनसे लगा हुश्रा एक पोर धूसरवरण का उपद सदृश बीज होता है, जिसका व्यास। इन होता और जो जल में भिगोने से फूलता और फट जाता है एवं अंज़रूत समूह में निकल पड़ता है। कुछ छीमियाँ पत. नीय तथा निर्यासपूर्ण होती हैं। प्रकारात -अर्थात् तना-काष्टीय, जिसमें असं. स्य प्रकाश मय गट्टे होते हैं, करटकमय; कोटे ३ से १ इंच लम्बे जो लघु शाखा सहित रोंगटौं से प्रावरित होते हैं और जिन पर अज़रूत की पपड़ी जमी होतो है। पत्र-कहते हैं कि इसके पत्र लोबान पत्र सदृश होते हैं । ( सर विलियम डाइमॉक) प्रयोगांश-निर्यास । रासायनिक संगठन-सार्कोकोलीन ६५.३०, निर्यास ४.६०, सरेशी पदार्थ---३.३०, काष्ठीय द्रव्य प्रभुति २६८०। साकोलीन ४० भाग, शीतल जल तथा २१ भाग उबलते हुए जल में धुलनीय है । (गिवर्ट) मात्रा-२। मा० से ४॥ मा० (४ रती से १ मा०) । प्रकृति-दूसरी कक्षा के अन्त में उष्ण और उसी कक्षा के प्रारम्भ में रूक्ष | हानिकर्ता प्रांत्र को। ५ दिरम पिसा हुआ विशेषकर अभ्रक के साथ विष है । दर्षनाशककतीरा, बबूल का गोंद और रोशन बादाम प्रभुति । प्रतिनिधि-इसके समभाग एलुश्रा और कुछ श्रधिक निशास्ता : मुख्य प्रभाव- प्रणद्रवशोषक और नेत्ररोग को लाभ पहुँचाता है ।। गुण, कर्म, प्रयोग-यद्यपि इसमें एक प्रकार की रतबत भी होती है। जो इसकी खुश्का के साथ दृढ़ता पूर्वक मिली हुई हैं, किन्तु, तो भी खुश्की ग़ालिब रहती है। इसी कारण बिना कांतिकारी गुण एवं तीपणता के यह आदें. ताशोधक है और इससे यह व्रणो को पूरित करता है, क्योंकि यह उस राध और उन पीत दत्रों को जो व्रणों को भरने नहीं देते नष्ट कर देता है। अपने लहेश के कारण प्रणों के किनारों को जोड़ देता है। For Private and Personal Use Only
SR No.020060
Book TitleAayurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size27 MB
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