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प्रभोज
अभ्यङ्ग
भेद से यह दो प्रकार का होता है। च० चि० । १०। अभोज abhoja-हिं० वि० [सं० अभोज्य ] |
न खाने योग्य । प्रभाजनम् abho janam-सं० क्ली० ( Fai
sting ) श्रभोजन-हिं० पु. । उपवास,
अभोजन, भांजनाभाव, अनाहार । संग्रहः । । अभीज्य abhojya-हिं. भोजन के अयोग्य । ( Unfit to be eaten) fit to be enten
! अभौतिक abhoutika--हिं० वि० [सं०]
(१) जो पंचभूत का न बना हो । जो पृथ्वी।
जल, अग्नि आदि से उत्पन्न न हो। अभ्यक्त abhyakta--हिं० वि० [सं०] (1)'
पोते हुए । लगाये हुए । (२) तैल वा उबटन
लगाए हुए। अभ्यङ्क abiiyankah-सं० पु. तिल करक। अभ्यङ्गः abhyungah-स अभ्यङ्ग a bhyangu-हिं० संज्ञा पु.
[वि. अभ्यत, अभ्यंजनीय ] ( 1 ) लेपन चारों पोर पोतना | मल मल कर लगाना । उद्वर्तन। .
(२) तैल ( आदि) मर्दन । तेल लगाना । तैल लेपन | स्नेहनः
(१) कमल पत्र, तगर, चिरौंजी दारुहल्दी, कदम्ब, बेर को भिंगी, इनकी मालिश करने से मुख कमलवत हो जाता है। (२) जौ राल, लोध, खस, रक चन्दन, शहद, घी, गुड़ . इनको गोमूत्र में पकाएँ । जब कलछी से लगने लगे तब उतार लें। इसका मदन करनेसे नीलका : व्यंग और मुख दूषिकादि रोग दूर होकर मुख मण्डल कमल सदृश हो जाता है और पांच कमल दल के तुल्य हो जाते हैं । वा० उ० प्र० ३२ ।
अभ्यङ्गादिः-चौगुने बकरा के मूत्र में गौ के गोबर का रस मिलाय उसमें सिद्ध किया हुश्रा तेल ( सरसों का तेल ) मालिश, पान, तथा उरसादन में श्रेष्ठ है।
चक्र० द. अपस्मार० चि०1, अभ्यङ्गादि समान्यांपायः-अभ्यङ्ग, स्नेह,
निरुहवस्ति, स्वेदकर्म, उपनाह, उत्तस्वस्ति, सेके, इन्हों को तथा वातनाशक स्थिरादिगण से सिद्ध किार रसों को वात के मूत्रकृच्छ, में दें।
गिलोय, सोंड, अामला, असगन्ध, गोखरू, इन्हें बात रोगी तथा शूलयुक मूत्रकृच्छ वाले मनुष्य को पिलाएँ।
सेंक.गोता लगाना, शीतल लेप, ग्रीष्म ऋतु के योग्य विधान, वस्ति कर्म, दूध के पदार्थ, दाख. विदारीकन्द, गन्ने का रस तथा घृत इन्हें पित्त के रोगों में बरतें।
कुश, काश, सर, डाभ, ईख ये तृण पञ्चमूल पित्त के मूत्रकृच्छ, को हरता तथा वस्ति का शोधन करता है। इनमें सिद्ध दूध पान करने से लिङ्ग में उपजे हुए रक को दूर करता है।
चक्र० द. मुत्रकृच्छ • चि० | ___ गुण-जल सींचने से जिस प्रकार वृक्षमूल में 8 खुए बढ़ते हैं उसी प्रकार स्नेहसिंचन (तैलाअपंग , से धातुओं की वृद्धि होती है। शिरा, मुख, रोमकूप तथा धमनी द्वारा तर्पण होता है । सुश्र.। मनुष्य की उचित है कि प्रति दिन अभ्यंग अर्थात् तैल मर्दन करता रहे। क्योंकि इससे बुढ़ापा, थकावट तथा वातरोग नष्ट हो जाते हैं, दृष्टि निर्मल बनी रहती है, शरीर पुष्ट रहता है, निद्रा सुखपूर्वक अाती है, त्वचा सुन्दर
और दृढ़ हो जाती है। वा. सु. १०। परन्तु इस तैल का प्रयोग सिर, कान और पैर में विशेषता से करता रहे । २० मा० । अभ्यंग वातरोगनाशक है तथा धातुओं की समता, बल, सुख, नींद, वर्ण मृदुता करता और दृष्टि को पुष्ट करता है । शिरोऽभ्यङ्ग अर्थात् शिर में तैल लगाने से शिर को तृप्त, केशो को दृढ़ और नेत्र को पुष्ट करता है तथा केशों को साफ करता, केशो के लिए उत्सम और धूलि प्रभृति द्वारा हुइ केश की मलिनता को दूर करता है । मद० व० ३1 अभ्यङ्ग का निषेध-जो मनुष्य कफ से ग्रस्त है, अथवा वमन विरेचन देकर शुद्ध किया गया है या जो अजीण से पीड़ित है उसको तेल मर्दन न करे । वा० सू०१०। (३) शिरमें
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