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अकोल
अकोल के बोज--शोतल, धातुवर्दक, स्वादिष्ट मन्दाग्नि कारक, भारी, रस और पाक में मधुर, बलकारक, कफ कारी, सारक, स्निग्ध, घृष्य | ( वीर्य बर्द्धक) तथा दाह, वात, पित्त, सय, रक्र विकार, कफ, पित्त और विसर्प को नाश | करने वाले हैं। नि. रा०) अकोल का अर्क-यूल, श्राम, सूजन, अङ्गग्रह और विष को नष्ट करता है। अङ्काल तैल-इसको पूर्व वैद्य एवं महर्पियों ने वात कफ नाशक और मालिश करने से चर्मरोग नाश करने वाला कहा है (वै निघ०) श्रङ्कोट के वैद्यकीय प्रयोग--(१) दन्तकापट- । गन-विष में अकोटमूल-दन्तकान्ट विषयुक | होने पर जिला एवं दांत पर भैल जम जाता है !
और पोष्ट सूज जाता है । इसके प्रतीकारार्थ ! अकोट की जड़ की छाल का चूर्ण प्रस्तुत कर शहद । के साथ शोथ स्थल पर धीरे धीरे रगड़ें वा प्रलेप करें । ( कल्प० । अ०) (२) विषेले अन से नेत्रों में अन्धता उत्पन्न होने पर अकोल के फूलों का प्रञ्जन नेत्रों में लगाने से अन्धता दूर होती है।
(कल्प० १० सुश्रु०) अकोल की जड़ की छाल बकरी के मूत्रमें , पीस कर पीने व लेप करने से चूहे का विष नष्ट होता है। (वा० उ०३०प्र०)। इसकी जड़ की छाल गो दुग्ध के साथ पीस कर पीने से कुत्ते का विष दूर होता है।
(भाव० म० ख०४ भा०)। (1) अकोट की जड़ की छाल का क्वाथ प्रस्तुत कर, इसका धन सत्व तैयार कर गो पृत | के साथ सेवन करें। इसके सेवन से पूर्व रोगी के | शरीरको तिल तेल मर्दित कर स्वेदित करलें, यह गरदोष नाशक है (विष. चि.) नोट-उपविष सेवन जन्य उपद्रव को गरविष
नोट--यह मात्रा अधुना प्रयोजनीय नहीं।
यतन्य चरक में अंकोट के फलका गुण इस प्रकार लिखा है- "श्लेष्मलं गुरु विटंभि चाङ्कोटाफलमग्निजित्" (स. २१ अ.) । चरकोक्त विष चिकित्सा के अमृत धृत करक "पाया. कोटाश्वगन्धा" पाड में अकोट का व्यवहार दिखाई देता है । इससे भिन्न और समस्त विष चिकित्सा में अकोट शब्द नहीं पाया है। सुन ने कल्प स्थान के छठवें अध्याय में चूहे तथा कुक्कुर प्रादि के विष की चिकित्सा लिखी है। सुबत के श्वविष चिकित्सा में श्रङ्कोट व्यवहत नहीं हुआ है, किन्तु मूषिक विष चिकित्सा में चूहा कारे हुए रोगी को वमन कराने के लिए अकोट का प्रयोग किया गया है-छमें जालिनी काथैः शुकाख्याकोट योरपि" क०६० अकोट का एक नाम वामक है । चरक के विमान स्थान के ८ में अध्याय एवं सुश्रु त के सूत्र स्थान के ३६ वें अध्याय में विरेचक तथा बामक द्रव्यों की तालिका है। उस तालिका में अङ्कोट का नाम नहीं है । चरक और सुश्रुतोक्त कुछ, अतिसार एवं ग्रहणी की चिकित्सा में अंकोट का नामोल्लेख नहीं है। सुश्रत के अश्मरी चिकित्साध्याय में अंकोट के फल का उल्लेख है । "पिचुकाङ्कोल कतक शाकैन्दीवरजैः फलैः । चूर्णितः सगुई तोयं शर्करानाशनं पिवेत्" (चि०१ अ०)। निघंटुकार अकोट को फलको “गुप्तस्नेह" बोलते हैं। . चरक के सूत्रस्थान के १३ वें अध्याय एवं सुश्रत चिकित्सा स्थान के ३१वें अध्याय में उक्त स्थावर स्नेह योनि फलों में अङ्कोट का उल्लेख नहीं है । निघंटुकार अकोटका एक नाम "रेची" लिखते हैं, किन्तु उत्वण प्रोटको "संग्राही" कहते हैं। चक्रदत्त व वंगसेन दोनों ने ही अतिसार की चिकित्सा में अकोट को संग्राही रूप से व्यवहार किया है। वास्तव में अङ्कोट रेची है या संग्राही इसकी परीक्षा करनी श्रावश्यक है। .. अकोलके सम्बन्धमें यूनानी मतप्रकृति-यूनानी प्रन्थकार इसे पहिली कक्षा में
इसकी मूल स्वचा का चूर्ण १ तो. चापलों के साथ पीस कर सेवन करने से अतिसार और | संग्रहणी में लाभ होता है
(च. द० अतिसा.चि.)
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