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११.
वाग्मह
(१) मदात्यय रोग में होनेवाली पि. पासा में वात, पित्त की अधिकता वाले मदात्ययी को, शीतल किया हुश्रा द्राक्षा का काथ पिलाना चाहिए। श्रीपध के पच जाने पर बकरे के मांस से बनाए हए यूप के साथ गधुराम्ल वस्तु का भोजन करने का आदेश कर देना चाहिए । (चि०७०)। (२) मूत्रकृच्छ, में द्राक्षा को बासी जल के साथ पीसकर जल के साथ सेवन करने से मूत्रकृच्छ. प्रशमित होता है। (चि०११ अ०)
चकदत्त
दश वर्ष का पुराना धी ६४ सेर, द्वाक्षा करक 5 सेर एवं जल १६ सेर का मृदु अग्नि से यथा विधि पाक करें। यह पृत रक पित्त, कामना, गुल्म, पांडु रोग, ज्वर प्रमेह
और उदर रोगों को नष्ट करता है । (रक्तपित्तचि०) - यूनानो ग्रंधकार अंगूर को-दूसरी कक्षा | में गरम तर मानते हैं। कच्चा प्रथम कमा में डा
और दूसरी कक्षा में रूप है । हानिकर्तास्निग्ध प्रामाशय और नीहा को तथा वायुजनक | है। दर्पध्र--- सॉफ और गुलकन्द । प्रतिनिधि किसी किसी गण में श्रीर व मवेज़ मुनबका। गुण, कर्म, प्रयोग- यह अत्याहार है; क्योंकि इससे शुद्ध रूधिर उत्पन्न होता है जो अपनी मधुरना के कारण हृदय को अत्यन्त प्रिय है; अतिरिक इसके अपनी तारल्यता के कारण यह शीघ्र शाषित हो जाता है और इसी कारण वल्य है। पूर्णतया पका हुश्शा अंगूर उत्तम होता है; क्योंकि यह अत्यन्त मधुर होता है तथा इसमें अपक द्रव बहुत कम होता है। लटका कर रखा हुआ अंगूर इससे उत्तम होता है; क्योंकि इस दशा में वायु का, जो अवशिष्ट द्रव को लयकरता है, चारों ओर से प्राधिपस्य रहता है । इसके विपरीत जो किसी स्थान में रखे हुए हों विशेषतः जब अत्यधिक तह पर तह रखे हुए हों तब वे इससे कनिष्ऽतर होते हैं। इसी प्रकार विलम्मका तोड़ा हुश्रा अंगृर भी उत्तम होता है, क्योंकि रस !
जो अंगूर के प्राहार में व्यय होता है उसकी और शीघ्र शीव्र पहुँचता है। इसका कारण यह है कि अगूर का वृत्त अपनी उत्ताप शनि के कारण जल शोपण में अधिक शनिशाली है। इसके अतिरिक्र इसका वृक्ष पूणरूप से सीधा खड़ा हुधा नहीं होता । इस कारण जल भी इसकी यो। सरलतापूर्वक शोपिन होता है। इसके सिवा यह अत्यन्त पिलपिला होता है, और इसमें अाहार नजिकायें अत्यन्त विस्तृत होती हैं।
और चूंकि अंगूर की भोर अाहार प्रवेश तीव गति से होता है, इमलिये वह अप' रहता है तथा उक्र अवस्था में शेर होता है, जिसमे वाय एवं सदरामान उद्धत होते हैं। किन्तु, तोड़ने के पश्चान् जब कुछ समय तक रखा रहता है तब इसके अवशिष्ट रतूयतों का प्रायः भाग लय हो जाता है। अगर वस्ति को हानिकर्ता है; क्योंकि यह शिथिलता, तीरणता और शोपण उत्पन्नका।शैथिल्य जनन का कारण यह है कि उक रतूबत के कारण वसि अधिक स्नेह युस हो जाती है, क्योंकि इसकी और अंगूर को रतबत अधिकताके साथ प्रवेशित होती है। और क्योंकि इसकी रतूबत मात्रा में अधिक प्राशुकारी तथा मत्रजनक होती है। नीषणता का कारण इसका माधुर्याधिक्य है। (मो.)
अंगूर शीघ्राकी, पक्राशय को थैला में शीत्र उतरनेवाला और प्रत्याहार है; उत्तम रुधिर उत्पन्न करता और शरीरको वृहण करता है। यह रमशोधक वातजमल को हराकर्ता, स्वच्छ करना, मल को पक करता है। यदि इसको विस्मी के साथ पक करके शोथ पर लगाएँ तो यह शोध को शीघ्र ही लय करे । यह छिद्रोद्घारक है और मन को प्रसन्न करता है।
अंगूर के छिलका और बीज शीतल तथा रुस हैं। गुठली वायुकारक, विवंधकारी, मूत्र एवं वीर्यस्तम्भ कारी है। अपक्क घंगर शीतल तथा संकोचक है। इसके बीज तथा स्वचा को नहीं खाना चाहिए। इसकी लकड़ी की राख वस्तिस्थ अश्मरीध्वंसक, शीतल, अण्डशोध तथा पर्श
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