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प्रजाणम्
अजाणम्
पचे नहीं, अपितु जल जाय उसको अजीर्ण कहने | हैं । भा० म० ख०१ भा० अ० अ०मा०।
प्रायः पेट में पित्त के बिगड़ने से यह रोग होता है जिससे भोजन नहीं पचता और वमन, । दस्त और शूल ग्रादि उपद्रव होते हैं। आयुर्वेद में इसके छः भेद बतलाए हैं:
१-आमाजीर्ण जिसमें खाया हुअा अन्न कञ्चा गिरे।
२-विइया जाये जिस में अन्न जल जाता है।।
३-विष्टल्याजास-जिसमें अच के गाटे । वा कंडे धकर पेट में पीड़ा उत्पध करते हैं।
४--रसशेषाजीर्ण जिसमें अन्न पतला पानी। की तरह होकर गिरता है।
-दिनाकी अजीर्ण जिसमें स्वाया हुआ प्रा दिन भर पेट में बना रहता है और भूख नहीं लगती है।
६-प्रकृयाजाणं वा सामान्याजीर्ण जो सदैव स्वाभाविक रहे।
डॅपिटरी में इसके दो भेद मानते हैं-(१): उग्र अजीर्ण (Acute dyspepsia) और । (२) पुरातनाजीर्ण (Chronic dyspepsia). पुरातनाजीर्ण के पुनः तीन भेद होते हैं----(१) आमाशयविकार जन्य अजीण (Atonic dys- I pepsia), दोभमन्याजीर्ण ( Irritative | dyspepsia) और वाताजीर्ण (Nervous dyspepsia).
अजाण निदान। ईर्षा ( पराए धनधान्यादिको देखकर जलना), । डरना, क्रोध करना इन कारणों से व्याप्त तथा लोभ, शोक, दीनता इन कारणों से पीड़ित और दूसरों के शुभ कामों का बुरा समझने वाले मनु- प्यों का किया हश्रा भोजन भली भाँति नहीं पचता है। ये अजीर्ण के मानसिक कारण हैं।
शारीरिक कारण ये हैं.प्रत्यन्त जल पीने से, विपम ( असमय वा । न्यूनाधिक ) भोजन करने से, नल-मूग्रादि के | वेग रोकने से, दिन में सोने से, रात्रि में जागने । से, इन कारणों से भोजन के समय यदि प्रकृति अनुकूल, लघु तथा शीतल पदार्थ सेवन करें तो
भी अन्म भली प्रकार नहीं पचे उसको अजीर्ण कहते हैं।
जो लोभी मनुष्य जिह्वा के वश होकर पशु के समान वेप्रमाण भोजन करते हैं उनकी सब रोगों का कारण अजीण रोग शीघ्र उत्पन्न होता है। माधवः ।
अजीक लक्षण (१) प्रामाजीणं-यह कफ के प्रकोप से होता है । इसमें देह का भारीपन, जी मचलाना, कपोल व नेत्रगोलक में सूजन, मी: खट्टा जो ही रस खाया गया हो उसी की डकार पाना प्रभृति लक्षण होते हैं।
(२) विदग्धाजोण:-यह पित्त के प्रकोप से होता है । इसमें भ्रांति, तृष्णा, बेहोशी, प्रमेक प्रकार की पिसज पीड़ा, धूएँ के साथ खट्टी डकार पाए, पसीना आए तथा दाह हो, ये लक्षण होते हैं।
(३) विष्टब्धाजीर्ण- यह वायु के प्रकोप से होता है। इसमें रोगी को शूल, पेट फूलना, नाना प्रकार की बातज पीड़ा, मल तथा अधोवायु का न निकलना, पेट का जकपना, इन्द्रियों में मोह और शरीर में पीड़ा, ये सब लक्षण होते हैं।
(१) रसशेष जीणं-इसमें अन्म में अरुचि हृदय में जड़ता और देह में भारीपन होता है। माधवः । बा०नि०१२ अ०। नाट-दिनपाकी तथा प्रकृत्याजीण के लक्षण अजीण के भेदों के अन्तर्गत वर्णित है।
अजीर्ण के उपद्रव अजीण रोगी के बेहोशी, प्रलाप, यमन, मुख से पानी का पाना, देह शिथिल होना, भ्रांति होना, ये सब उपद्रव होते हैं। अत्यन्त बढ़ा हुधा अजीण मनुष्य को मार भी डालता है।
नोट - अग्नि मन्द होने ही से अजीण और ग्रहणी पैदा होती है अर्थात् अधिक समय तक अग्निमान्द्य और अजीर्ण रोग रहने से पीछे इसी की गणना ग्रहणी में होने लगती है।
उपरोक्त प्राम, विष्टब्ध तथा विदग्धाजी से विसूची ( हैजा), अलसक और निलम्बिका
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