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अम्बृद्ध
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इस प्रकार की वृद्धि में उतरी हुई वस्तु ( श्रांत्र प्रभृति ) शोधयुक्र होकर छिद्रों में पूर्णतथा फँस जाती है । वह (अन्तड़ी ) ऊपर तो नहीं जाती, प्रत्युत उसका कुछ भाग, वंक्षणा संधि के अभ्यम्तरिक छिद्रों में दृढ़ता के साथ अटक जाता है तथा अत्यन्त वेदना को करता है। कोई इसी को "नया बद" कहते हैं। यह अंत्रवृद्धि की वह एक तीसरी अवस्था है जिसकी उपेक्षा करने से मृत्यु अवश्यम्भावी होती है।
लक्षण - मलावरोध तथा उदराध्मानवत् शूल होता और बारबार दस्तकी हाजत होती है। किन्तु दस्त नहीं उतरता या बहुत की कम होता है । पुनः वमन आते हैं । पहिले श्रामाशयस्थित सब आहार मुख द्वारा बाहर निकल पड़ता है । फिर अस्त तथा तिन ऐसा दिस निकलता है, फिर कुछ श्वेत पदार्थ ( कदाचित् यह रस ही निकलता हो ) निकलता है । बाद में मल के समान दुर्गंधित पदार्थ निकलता है-- श्रर्थात् पुरीषावरोध जन्य उदावर्त के प्रायः सब लक्षण इसमें दिखाई पढ़ते हैं ।
यथा—
आटोपशूली परिकर्तिका व संगः पुरीषस्य तथावातः । पुरीष मास्यादथवा निरेति पुरीष वेगेऽभिहते नरस्य ||
तदन्तर वृषण वा वंक्षण स्थित शोथ पत्थर के समान कठोर हो जाता है; किन्तु धीरे धीरे बढ़ता ही जाता है। रोगी का चेहरा काला पड़ जाता है । वमन बन्द नहीं होते, रोगी को किसी प्रकार चैन नहीं पढ़ता, वह निराश हो जाता है । नादी की गति मंद पर रह रह के चपल होती है । हिका की भी प्रबलता होती
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कुछ काल पश्चात् वह सूजन या गाँठ कुछ श्याम वर्ण की होती है, वेदना कुछ शमन हुई सी जान पड़ती है, रोगी की जीवनाशा कुछ पद्मवित्त सी होती है कि तुरन्त ही यमराज उसका समूल नाश कर देते हैं ।
अन्त्रवृद्धि की असाध्यता
यह अंत्रवृद्धि ( उपखचणात्मक अंडवृद्धि ) जिसमें अफरा, पीड़ा और जड़ता हो; उसकी
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अम्वृद्धि
चिकित्सा न करने पर यदि अंडकोष को दबाने पर उसमें की दाँतों समेत ऊपर को चढ़ जाए और छोड़ने पर नीचे उतर कर घण्डकोप को फुला दे और उसमें उक्त सभी बात के लक्षण मिलते हीं तो वह यंत्रवृद्धि असाध्य है । जैसा कि लिखा है-
उपेक्ष्यमाणस्य च मुष्कवृद्धिमाध्मान रुक् स्तम्भवतीं वायुः । प्रपीडितोऽन्तः स्वनबान् प्रयाति प्रध्यापयन्नेति पुनश्च मुक्तः ॥ अन्वृद्धिर साध्योऽयं वातवृद्धिसमाकृति | मा० नि० । पर यह बात ध्यान रखने योग्य है कि श्रायुर्वेदीय मतानुसार यंत्र जवृद्धि और मूत्रजवृद्धि दोनों वात के ही कारण से होती हैं । केवल उत्पति के हेतु पृथक् पृथक् हैं। अर्थात् मुत्र संधारणादि से कुपित हुआ वात मूत्रज वृद्धि करता है, और भार हरण, विषमग प्रव र्शनादि से कुपित वायु अंग्रज वृद्धि ( Intestital Hernia ) को करता है । जैसा कि लिखा है
मूत्रोत्रजावप्य निनादुद्धेतुभेदस्तु केवलम् ।
वृद्धि में वृषणांतर्गत अण्ड या ग्रंथि में किसी प्रकार शोथ या प्रदाह प्रभृति नहीं होता श्रीर जो वेदना होती है, वह सदैव नहीं होती; किंतु जब होती है तब बहुत असह्य होती है । चिकित्सा श्रायुर्वेदीय मतानुसार
श्रतें जब तक अंडकोष में न उतरी हो तब तक वात वृद्धि के सरश चिकित्सा करें । यथाश्रहेतुके । फलकोशम सम्प्राप्त चिकित्सा वात वृधिवत् । घा० कि० अ० १३ /
यदि रोगी को कब्जियत रहती हो तो उसकी जठराग्नि दीपन करने के लिए वस्तिकर्म के द्वारा नारायण सैल का प्रयोग करें। अंत्रवृद्धिमाग्ने वस्तिभिः समुपाचरेत् । तैलंनारायणायोज्यं पानाभ्यंजन वस्तिभिः ॥
tet में श्रौतों के उतर आने की दशा में निम्नांकित उपचार करें।
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