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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org अजवाइ (य)न ख गसानी अपेक्षाकृत बहुत कम करता है। (४) विला. डोना के सरश यह हृदय पर सबलो उ.क प्रभाव . नहीं करता, अपितु हृदय पर हायोसीन का अत्यन्त निर्बल प्रभाव पड़ता है। (५) मृग्रेन्द्रिय विशेषतः वस्ति पर विलाडोमा की अपेक्षा इसका : अधिक तर अवसादक प्रभाव पड़ता है। क्योंकि वस्तिस्थ श्लैष्मिक कला की नाड़ियों के अन्तिम: भाग पर अवसादक तथा निर्बलताजनक प्रभाव: करके यह उसके मांस तन्तुओं की ऐंठन को दर करता है । (६ ) हायोसीन से इस्ट्रारंाक्युलर . टेन्शन ( नेत्रपिंड का तनाव ) कम हो जाता है। प्रस्तु, हायोसायमस का यह प्रभाव उतना नहीं . होता जितना कि बिलाडोना का । उपयोग---हायोसायमस का उपयोग प्राप बिकार की अवस्थानों के अतिरिक्त जिनमें बिला- । डोना व्यवहत है, निम्नांकित दशानों में भी होता है । (1) विविध रोगों की तीन पीड़ा में मस्तिकोत्त जना को कम करके मीद लाने के लिए, यथा उन्माद ( मेनिया) अनिद्रा या निद्रानाश (इन्सानिया), खियों की हिस्टीरिया (योगापस्मार के दौर में ), उ.चा की उन्मशास्था में तथा वात वेदनात्रों में इसे देना चाहिए | उन्मत्त शराबी को भी नींद लाने के लिए दे सकते है। अतः खुरासानी अजवायन के तरल सन्ध को १-१ घंटे के अन्तर से ३०-३० बुद दवा और २॥-२॥ तोला पानी एकत्र कर पिलाते रहें। जब नींद श्राजाय तब व करदें। इस प्रकार १-६ मात्रा सेवन कराने से ही रोगी सो जाता है। नींदके लिए हायोसायमीन (कुरासानी अमा. ! यन का सत्व) मेन (श्राधी रत्ती) को साफ गरम जल ३ मा ६ रत्ती में मिलाकर हायपोडर्मिक सिरिज में भरकर । से ५ बुद तक त्वचा के नीचे पहुचाएँ । इसी को हाइपोडर्मिक इलेयशन हाइयोसाइमीन कहते है। (२) रेचक श्रोपधियाँ जो मरोड़ पैदा करने | वाली हैं उनके उक्र गुण को कम करने के लिए अजवाइ (य)न खुरासानी तथा पेचिस की ऐंठन को दूर करने के लिए इसे व्यवहार में लाते हैं। (३) मूत्रपथ सम्बन्धी चीस चबक अर्थात् दृक, घस्ति तथा मूत्र प्रणाली के रोगी यथा-- बस्ति प्रदाह, प्रोस्टेट ग्रन्थि प्रदाह, सथा अश्मरी प्रभति में स्तिस्थ आक्षेप निवारण हेतु इसका प्रभावकारी सर, हायोसायमीन, मृदु मंत्राधिरे. चनीय है, और शरीर से विसर्जित होते समय प्रदाह युक्र झिल्लियों में अंत होने वाली वाततंसुश्री पर अवसादक प्रभाव करता है । प्रस्तु. जब मावश्यक रूप से थोड़ा थोड़ा मन्त्र निकालने के लिए पस्ति में बार बार ऐंठन होती है, तब विशेष रूपसे इसका उपयोग होता है। उक दशा में इसे सारों के साथ संयुक कर सेवन करना गुणदायक होता है। ऐसी दशा में इसको साधारणतः अन्य युरिनरी सिडेरिभज (मूत्रावसादक) या मूत्रल श्रोपधियों यथा-ट्युक्यु या युवा आई प्रथवा बेी. इक एसिड भृति तथा एल्केलीज़ (हारों) के साथ मिलाकर सेवन कराने हैं। (४)प्रांकाइटिज (कास या श्वास नलिका प्रदाह ) में खांसी को कम करने के लिए। (५) यण शोथ की बीस वक को दूर करने के लिए इसका पुस्टिम व्यवहार में पारा है । (६) पुतली लाने के अश्य से स्खों में डालने के लिए। (७) यह बिलाडोना के समान उन्माद, मुखशोथ, ने.कनीतिका विस्तार तथा निद्रा उपस करता है । सूक्ष्म मात्रा में यह अवसादक और हृदयसलदायक है। अधिक मात्रा उरोजक एवं अत्यधिक मात्रा निर्दल साजनक है। प्रस्तु, हृदय सम्बन्धी दमा तथा हृदय कपार सम्बन्धी विकार एवं तजन्य हृदयोसेजना में इसका उपयोग किया जाता है। बच्चों में इसकी बड़ी मात्रा के सहन की समता होती है। किन, वृद्ध एवं निर्बल व्यक्रियों में इसकी छोटी मात्रा का भी गहरा प्रभाव होता है। एक चाय के चमचा भर इसका रस सॉसम औषध है, परन्तु यह जानिराश नहीं । For Private and Personal Use Only
SR No.020060
Book TitleAayurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size27 MB
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