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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमलेतांस अमलतास लटका रहता है । फल का ऊपरी भाग मसूण, | पकने पर गंभीर धूसर वर्ण का हो जाता है । डंठल । का फाइब्रो वैस्कुलर ( Fibro Fasculal ) सभ दो चौड़े समांतर सीवनियों में विभक । होता है, जैसे पृष्ठीय और डदरीय सीमंत जो शिम्बिके समग्र लम्बाई भर होते हैं । ये (सीमंत) 'सचिक्कण अथवा लम्बाई की रुख किंचित् धारीदार होते हैं । इनमें से हर एक दो काष्टीय गहों द्वारा निर्मित और एक संकुचित रेखा द्वारा संयुक्र होता है । एक फली में पाए जाने वाले २५ से १०० बीजों में से प्रत्येक अत्यन्त पतला कापट्रीय पर्दा से निर्मित एक कांष में स्थित होता है। बीज चक्राकार रक्ताभ धूसरवर्ण का होता है, जो चारों ओर से अहि फेनवन कृष्णवण के पदार्थ से श्रावृत्त होता है। यह चिपचिपा मधुर ! एवं दुर्गन्धियुक्र होता है। नोट- इसका केवल यह शुद्ध गूदा हो फामांकोपिया में प्रविष्ट हैं । पुष्पकाल :--- वैषाख और मेष्ठ। रासायनिक संगठन - फल के बारीक चूर्ण । के बाप्प स्रवण विधि द्वारा अर्क खींचने से मधु गंधि युक्र एक श्याम पीत वर्ण का अस्थिर तैल प्राप्त होता । तैलीय अर्क में साधारण ब्युटिरिक एसिड होता है फल मज्जा में शर्करा ६० प्रतिशत लाच, संग्राही पदार्थ, ग्लूटीन ( सरेश ), रक्षक पदार्थ, पेक्टीन, कैल्सियम् अॉकलेट, भस्म, निर्यास और जल सम्मिलित होता है। प्रयोगांश-मूल, मूल स्वक् , ( वृक्ष स्व), पत्र, पुष्प, फल, मजा, बी की गिरी। अंतः परिमार्जन हेतु फल और वहिः परिमार्जन हेतु ! यथा कुष्ठ प्रादि में पत्र लेना चाहिए । सि० । यो पित्तः) ज्व० राक्षादौ । इतिहास-अमलतास वृक्ष की प्रादि जन्मभूमि भारतवर्ष है । अतएव प्राचीन भारतियों को उक्र प्रोषधि का ज्ञान था । किंतु प्राचीन यूनानियों को इसका ज्ञान न था। कदाचित् पश्चातकालीन यूनानियों को अरब निवासियों द्वारा इसका ज्ञान हुआ। . औषध-निर्माण-(१) मूल स्वक् क्याथ, मात्रा ५-10 तो० । (२) फ ल मजा, मात्रा २-४ पाने भर । विरेचनार्थ प्राधा से १ तो० । (३) प्रारम्बध पञ्चक । हा० अत्रि०। (४) भारग्वधादि चा० सु० । (५) पारग्वधाद्य तेल । च० द. (६) गुलकंद । (७) बटिका । (८) मद्य । (6) वर्तिका । (१०) अवलेह । (११) म अ जून और (१२) फट । अमलतास के गुण धर्म तथा प्रयोग श्रायुर्वेदीय मतानुसार-अमलतास कंडघ्न (चरक ) और कफत्रात प्रशमन (सुश्रुत) है। अमलतास ( पारग्बध ) रस में तिक भारी उष्ण है तथा कृमि ओर शूल का नाश करता है और कफ, उदर रोग, प्रमेह, मूत्रकृच्छ. गुल्म और त्रिदोषनाशक है। धन्वन्तरीय निघण्टु । ___ पारग्बध अति मधुर, शीतल. शूलधन है तथा ज्वर, करडू ( खुजली), कुष्ठ, प्रमेह, कफ और विष्टम्भनाशक है । रा०नि० व०६ । पारग्वध गुरु, मधुर, शीतल और उपम ख्रसन, कोष्ठस्थ मलादि को ढीला करने वाला है। तथा ज्वर, हृद्रोग, रक्रपित, वातोदावर्त ( अन्द गत वायु) और शूलनाशक है। इसकी फली स्रंसन ( कोठे के मलादिक को शिथिज करने बाली ) रुचिकारी है। तथा कुष्ठ, पिश और कफ नाशक है। अमलतास ज्वर में सर्वदा पत्थ्य और परम कोठशोधक है। भा० पू० १ भा०। राजवृक्ष ( अमलतास) अधिक पथ्य मदु, मधुर और शोतल है। इसका फल मधुर, वृष्य, वात पिच नाशक और सर ( दस्तावर) है। राजवल्लभः । अमलतास १५ रेचक और कफ तथा मेव नाशक है । पुष्प मधुर, शीतल, तिक और माइक है । तथा कषेला... । फल मजा णक में मधुर, स्निग्ध, अग्निबर्द्धक, रेचक और बात एवं पिच का नाश करने वाली है। ध्य. गु० वै० निघः। अमलतास के द्यकीय व्यवहार चरफ-ज्वर में भारग्वध फल-(१) ज्वर रोगो की काष्ठ शुद्धि हेतु ऊष्ण गाय के For Private and Personal Use Only
SR No.020060
Book TitleAayurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size27 MB
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