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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपस्मार to अपस्मार चीज़ को देखना, ऊँचाई पर चढ़कर नीचे देखना, दौड़ना या घोड़े पर सवार होकर उसे दौड़ाना, स्नानागार के भीतर अथवा जिस ओर से गंदा वायु प्राता हो उस ओर बैठना, मधुर, स्निग्ध व गुरु ( दीर्घपाकी) ए. उष्ण श्राहार का सेवन करना, दिन में सेना, मेघ का गरजन सुनना, विधुत की चमक को देखना और वर्षा में भीगना इत्यादि ये सब हानिकारक हैं । रोग के वेग से पूर्व जिस स्थल पर सुरसुराहट अनुभव हो वहाँ पर कपड़ा या रूमाल बाँधे या | उक्त स्थल पर कोई भक्षक ( वा दाहक ) औषध लगाकर हत उत्पन्न करे । भक्षक योग अर्थात् ( कोष्टिक )-रक मिर्च, राई और फायूंन इनको सम भाग लेकर खूब कूटकर भिक्षावें के तेल में मिलाकर उक्र स्थल पर रखकर बाँध दें। वेग के प्रारम्भ में रोगी के श्राक्षेपयुक्त अययव को खींच कर पूर्व अवस्था पर ले पाना प्रायः वेग को कम कर देता और कभी कभी रोक भी सऊत अजीब ( विलक्षण नस्य )बासमती चावल को श्रावश्यकतानुसार लेकर प्राकग्धमे तर करके सुखालें। फिर बारीक पीस कर रखलें। मात्रा व सेवन-विधि-एक रत्ती इस दवा | · को किसी नली (या इन्सफ्लेटर) द्वारा नासिका ... में फूकें। प्रभाव व उपयोग-प्रतिश्याय, कफज शिरोवेदना, समलवायु, ( इसाबह. ), अविभेदक, ! अपस्मार, बालापस्मार और मूर्छा में लाभदायक है। सूचना-नियत मात्रा से अधिक कदापि सेवन न कराएँ । यदि एक बार में लाभ न हो तो दस पंद्रह मिनट बाद पुनः उतना ही। प्रयोग में लाएँ। अपस्मार के वेग ( दौरे) की चिकित्सा जब मुगी का वेग हो, तब रोगीको ऐसे गृह में जिसमें शुद्ध वायु का प्रवेश हो, सुरक्षित रूप से कोमल स्थान पर सुखपूर्वक लिटाएँ । ग्रीवा, वक्ष तथा उदर के बंधनको ढीला कर दें, शिर को ऊँचा रखें, और दाँतों के बीच में बोतल का कार्क (काग ) या कपड़े को गद्दी रखदें। जिसमें जिला दाँतों तले श्राका कट न जाए। फिर किसी पयुक्र नस्य वा अञ्जन का प्रयोग कराएँ । कभी नाइट्रेट श्रॉफ इमाइल को ५ बु'द की मात्रा में सुंघाने से वेग की तीव्रता कम होजाती है। रोगी के शिर पर शीतन जल अथवा बर्फ़ लगाए । मुखमण्डल पर शीतल जल के छींटे मारें और जब रोगी सर्वथा निश्वष्ट होजाए नय उसको उसी दशा में लेटा रहने दें। तत्क्षण मूच्र्छा निवारण का यत्न न करें। ज्ञान होने पर दो तीन घंटे तक उसकी रक्षा करें। क्योंकि कभी कभी वेग के पश्चात् रोगा मुढ़मति होकर उन्मत्त के समान निदित कामों को करने लगता है। बेग की शांति के पश्चात् प्रायः शिरोशूल हुश्रा करता है । तदर्थ फिनेसेटीन को ५ ग्रेन (२॥ रसी) की मात्रामें देरेसे प्रायः लाभ हो जाता है। वेग काल में हकीम लोग प्रायः हींग और जुन्दबेदस्तर को सिकंजबीन असली में घिसकर इसके कुछ बुद क; में टपकाते हैं अथवा कुन्दश, श्वेत कटुकी या इन्द्रायन का गूदा या कानी मरिच या कलौंजी, सोंठ, मुर्मकी, फ्रा'यून अथवा जुन्दबेदस्तर आदि में से जो उपलब्ध हो उसको घिसकर नस्य दें या सुदाब को सुँघाएँ अथवा उदसलोब जलाकर उसका धूम्र नासिका में हुँघाएँ । विराम कालीन चिकित्सा अपस्मार के वेग के प्रशमित होने और उसके स्वरूप एवं कारण का ज्ञान हो जाने पर तदनुकूल चिकित्सा की व्यवस्था करनी चाहिए। अस्तु, दोषों से प्रावृत्त बुद्धि, चित्त, हृदय और सम्पूर्ण स्रोतों के प्रबोध कराने के निमित्त ती वमनादि का दोषानुसार प्रयोग करें। यथा वातिकं वस्ति भूयिकैः पैसे प्रायो विरेचनैः । श्लैष्मिक धमनप्रायैरपस्मारमुपाचरेत् ॥ ( वा० उ०७०) अर्थान-वातिक अपस्मार में वस्ति प्रधान, For Private and Personal Use Only
SR No.020060
Book TitleAayurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size27 MB
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