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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अगर अगर जो अगर काले रंग का होता है उसे कृपयागुरु कहते हैं । यह अधिक गुण वाला और लोहे के सदृश पानी में डूब जाता है। अगर से बनाए हुए तैल में भी काले अगर के सदृश ही गुण है। भा० क०३०। अगर गन्धनारम, तिक्र, कटु, स्निग्ध, मंगल दायक, रुचिकारी धूपके योग्य पित्त जनक, तीक्ष्ण है तथा वात, कफ, कर्ण रोग और कोढ़ का नारा करता है। लेप में पौर लगाने में है। निर० ' वक्तव्य इस देश में अति प्राचीन काल से अनुलेपन व औषध रूप में अगर व्यवहार में प्रारहा है। अतः चरक सूत्ररथान ३४ अध्याय में शिरोवेदनाहर एवं शीतहर प्रलेस में अगरू का उत्रेग्य दिखाई इसकी अगर यत्ती बहुत बनती है। सिलहट में अगर का इत्र अहुत बनता है। बोबा नामक ! मुगंध इसी से बनता है। बानस्पतिक वर्णन-अगर के बेडौल टुकड़े होते हैं जो उनमें राल के परिमाणानुसार धूसर या गहरे धूसर वर्ण आदि विभिन्न रंगों के होने हैं । हलके तथा गहरे दोनों रंगों के टुकड़े लम्बाई की रुख गहरे रंग के नसों से चित्रित होते हैं, ये जल में डालने से जलमग्न हो जाते हैं। इसे चबाने से ये दाँतों में चिपट जाते हैं तथा मृदु प्रतीत होते हैं। स्वाद-तिक्र. तथा सुगन्ध युक्त जलाने से इसमें से ग्राह्य गंध अाती है। प्रयोगांश-काष्ट । रसायनिक संगठन--एक उड़न शील तेल, जो ईथर में विलेय होता है, दूसरा राल जो मासार (अलकुहाल) में धुलनशील तथा ईथर में अन धुल होता है। औषध निर्माण काथ (१० में १ ); मात्रा-४ से १२ डाम । चूर्ण तथा कल्क ।। अनेक औषधियों से युक्र पाक श्रादि मात्रा१० से ३० रत्ती । तैल-३० से ६० बूद। गुणधर्म तथा उपयोग. आयुर्वेदीयमनानुसार--अगर शीन, प्रशमन और कामध्न है । च० । अगर वात-कफहर, वर्णप्रसादक, देह का रंग सुधारने वाला) खुजली नाशक और कुष्टनाशक है। अगर की लकड़ी को जल में प्रौटाकर उस पानी को पीने से स्वर में लगने वाली कृपा न्यून होती है और यह मगो एवं उन्माद श्रादि रोगों में परमोपयोगी है। सु०। अगर तिक, उपण, चरपरा, लेप करने से रूक्षता उत्पन्न करने वाला, स्वचा को हितकर, तोरणपित्तकारक और हलका है तथा ब्रण, कफवात, । वमन, मुख रोग एवं चद् और कर्ण रोग नाश करने वाला है। रा० नि० व० १२। वा० । चि० ४ ०। चरकोक शीत ऋतुचयां में अगर के अनुलेपन का उपदेश किया गया है। सुश्रत में प्रणधूपन द्रव्या के मध्य अगर का पाठ दिया है। (सृ. ६ अ०)। अगर का तेल पीत वर्ण का एवं अगर के समान गंध वाला होता है। भाव प्रकाशकार लिखते हैं --अगर के तेल का गुण कृणागुरु अर्थात् काले अगर के समान है, यथा-- "अगुरु प्रभवः स्नेहः कृपरणागुरु समामतः।" उत्तम अगर की लकड़ी को जल में घिम कर शरीर में लगाने से उसका वर्ण उज्वल होजाता है इसी लिए इसका एक नाम "धर्ण प्रमादन" यूनानो मत के अनुसार-प्रकृति दूसरी कक्षा में गरम और नीसरी कक्षा में रून है। किसी किसी के मतानुसार दूसरी कक्षा में गरम च रूप है। हानिकर्ता-उष्ण प्रक्रति को इसका पीना और धूनी देना । दपंध-गुलाब, कपूर, मिकंजश्रीन । प्रतिनिधि-दालचीनी, लोंग, केशर, चंदन बालछड, रूमी मस्तंगी। गुण कम-प्रयोग(1) हलकी अपनी सुगन्धि एवं प्रकृतोमासे प्राण बायु को बलप्रद होने के कारण श्रामाशय यकृत, हृदय तथा इंद्रियों को बल देता है और इसी For Private and Personal Use Only
SR No.020060
Book TitleAayurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size27 MB
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