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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपद अंपरतन्त्र जन्य हेतु ज्वर के हेतु पित्त को प्रकुपित करते हैं, ! अपनीत apanita--हिं० वि० [सं०] दूर किया जिससे दाह, शैत्य, शिरःशूल और कोष्ठ की हुश्रा। हटाया हुश्रा | निकाला हुश्रा । वृद्धि, तीव्र वेदना, खुजली, मल का अधिक अपवश्य apabashya -हिं० वि० पु. निकलना अथवा उसका अत्यन्त बँध जाना श्रादि अपबस-श apabasa,sha. J स्वाधीन, मलक्षण अपथ्य जन्य ज्वर में होते हैं। वै० । न्मुखी ( Independent)। निघ०२भा० ज्य। अपबाहुक: apabahukah--सं. प० । अपद apali-हिं० वि० ) पादहीन, अपवाहुक apa bāhuka--हिं० संज्ञा पु० ) अपद: a padah-सं० त्रि. पंगु, एक रोग जिसमें बाहुकी नसें मारी कर्मच्युत (Lame)| -पु. बिना पैर के रेंगने जाती हैं और बाहु बेकाम हो जाता है। वाले जंतु । जैसे, (१) सर्प, केचुआ, जोक | अपवाहुक, वात कफ जन्य अंसगत बात व्याधि, श्रादि । ( २ ) सर्प ( Snake )। भुजस्तम्भ रोग विशेष । लक्षण-कंधे अथवा स्ववों में रहने वाली वायु स्खों के बंधन को सुखा अपदरुहा apadarthi -सं-स्त्री. देती है। उस के बंधन के सूखने से अत्यंत अपदरोहिणी apadarohini ) बन्दा । वेदनावाला अपवाहक रोग उत्पन्न होता है। वांदरापं० । वादांगुल-म०। व. निघ०। मा० नि० । बाहु में रहने वाली वायु उस में A parasite plant (Epitlendrum : रहने वाली शिराओं को संकचित करके अपtessellatum. ) याहुक रोग को उत्पन्न करती है । भा० प्र० अपदस्थ upadastha--हिं० वि० कर्मच्युत, | २ख.। पदच्युत । चिकित्सा अपदारथ apadārutha--हिं० पु. अयोग्य इस रोग में नस्य तथा भोजन के पश्चात् स्नेह वस्तु । पान हित है । वां० चि० अ० २० । अपदेवता apadevata-सं० स्त्री०, हिं० सज्ञा अपभ्रश apabhransha-हिं० पु० बिगड़ा पप्रेत, पिशाचादि । दुष्ट देव । दैत्य । राक्षस: हुअा शब्द । (Corruption, Comimon असुर । ___or vulgur talk ). अपदेशः apadeshan-सं० (हिं० संज्ञा ) पु. अपमुचूर्ष apanumuishu-सं० हिं० पु. "अनेन कारणेनेत्यपदेश' अर्थात् इस कारणसे | जल में डब कर मरणोन्मुख हुश्रा रोगी। यह होता है इसे “अपदेश' कहते हैं। जैसे अपर upara-हि. वि० [सं०] [स्त्री० अपरा] कहते हैं कि नी खाने से कफ बढ़ता है अर्थात् (१) जो पर न हो, पहिला, पूर्व का, पिछला, कफ वृद्धि का हेतु मधुर रस है । सु० उ० जिससे कोई पर न हो । (२) अन्य, दूसरा, ६५ अ० १३ श्लोक। भिन्न । मे० रत्रिक०। अपद्रव्य apa.dlyavya-हिं० संज्ञा पु० [सं०] | अपरपिण्डतैल aparapinda-tailan--सं० निकृष्ट वस्तु | बुरी चीज़ । कुद्रव्य । कुचस्तु । पली० बला (खिरेटी) पृष्टपण, गङ्गरन, गिलोय, अपध्वंसक apadhvansaka-हिं० वि० और शतावर । इनके करक तथा क्वाथ से (१)घिनौना । (२) नाश करने वाला, क्षयकारी । सिद्ध किए हुए तेल के अनुबासन ( पिच, अपनयन apanayana-हिं० संश कारी) लेने से प्रबल वातरक्र का नाश होता [वि. अपनीत ] (1) दूर करना । हटाना । है। भा०प्र० मध्य स्खण्ड २ वातरक-चि। (२) स्थानांतरित करना। एक स्थान | अपरतंत्र apa1atantra-हिं० वि० [सं०] जो से दूसरे स्थान पर लेजाना । (३) खंडन। परतंत्र वा परवश न हो, स्वतंत्र, स्वाधीन, आज़ाद । For Private and Personal Use Only
SR No.020060
Book TitleAayurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size27 MB
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